सर्वभूतानि
कौन्तेय
प्रकृति
यान्ति मामिकाम्
।
कल्पक्षये
युनस्तानि
कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।
7।।
प्रकृतिं
स्वामवष्टभ्य
धिसृजामि पुन:
पुन:।
भूतग्राममिमं
कृल्लमवशं
क्कृतैर्वशात्।।
8।।
न च मां
तानि कमगॅण
निबश्वन्ति
धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्त
तेषु
कर्मसु।। 9।।
और हे अर्जुन
कल्य के अंत
में सब भूत
मेरी प्रकृति
की प्राप्त
होते हैं
अर्थात मेरी
प्रकृति में
लय होते हैं।
और कल्य के
आदि में उन्हें
मैं फिर रचता
हूं।
अपनी
त्रिगुणमयी प्रकृति
को अंगीकार
करके स्वभाव
के वश से
परतंत्र हुए
हम संपूर्ण
भूत समुदाय को
बारंबार उनके
कर्मों के अनुसार
रचता हूं।
हे अर्जुन
उन कर्मों में
आसक्तिरहित
और उदातीन के
सदृश स्थित
हुए मुझ
परमात्मा को
वे कर्म नहीं
बांधते हैं।
स सूत्र
के निकट
पहुंचने के
लिए हम दो—चार
मार्गों से
यात्रा करें, तो आसान
होगा। यह
सूत्र, मनुष्य
के चिंतन में
जो मूलभूत
प्रश्न है, उससे
संबंधित है।
आदमी ने
निरंतर जानना
चाहा है, कैसे
यह सृष्टि
निर्मित होती
है? कैसे
विलीन होती है?
कौन इसे
बनाता? कौन
इसे सम्हालता?
किस में यह
विलीन होती है?
कोई है इसे
बनाने वाला या
नहीं है? इस
प्रकृति का
कोई प्रारंभ
है, कोई
अंत है? या
कोई प्रारभ
नहीं, कोई अंत
नहीं? इस
प्रकृति में
कोई प्रयोजन
है, कोई
लक्ष्य है, जिसे पाने
के लिए सारा
अस्तित्व
आतुर है, या
यह लक्ष्यहीन
एक अराजकता है?
यह जगत एक
व्यवस्था है
या एक अराजक
संयोग है? और
इस प्रश्न के
उत्तर पर जीवन
का बहुत कुछ
निर्भर करता
है, क्योंकि
जैसा उत्तर हम
स्वीकार कर
लेंगे, हमारे
जीवन की दशा
भी वही हो
जग़रगी।
ऐसे
विचारक रहे
हैं, जो
मानते हैं कि
जीवन एक संयोग,
एक
एक्सिडेंट
मात्र है। कोई
व्यवस्था
नहीं है, कोई
लक्ष्य नहीं
है, कहीं
पहुंचना नहीं
है, कोई
कारण भी नहीं
है, सिर्फ
जीवन एक
दुर्घटना है।
ऐसी दृष्टि को
जो मानेगा, वह जो कह रहा
है, वह सच
हो या न हो, उसका
जीवन जरूर एक
दुर्घटना हो
जाएगा। वह जो
कह रहा है, वह
सारे जगत को
प्रभावित
नहीं करेगा, लेकिन उसके
अपने जीवन को
निश्चित ही
प्रभावित
करेगा।
यदि
मुझे ऐसा लगता
हो कि यह सारा
विस्तार, यह पूरा
ब्रह्माड एक
संयोग मात्र
है, तो
मेरे अपने
जीवन का
केंद्र भी
बिखर जाएगा। तब
मेरे जीवन की
सारी घटनाएं
भी संयोग
मात्र हो
जाएंगी। फिर
मैं बुरा करूं
या भला, मैं
जीऊं या मरूं,
मैं किसी की
हत्या करूं या
किसी पर दया
करूं, इन
सब बातों के
पीछे कोई भी
प्रयोजन, कोई
सूत्रबद्धता
नहीं रह
जाएगी। ऐसा
जिन्होंने
कहा है, उन्होंने
जगत को अराजक
बनाने में
सुविधा दी है।
और
कठिनाई यह है
कि चाहे कोई
विचारक कितना
ही कहे कि जगत
अराजक है, खुद उसकी
चेतना इस बात
को स्वीकार
नहीं कर पाती।
क्योंकि ऐसै
विचारक जब
अपना
प्रस्ताव करते
हैं कि जगत
अराजक है, तो
इसे भी बहुत तर्कयुक्त
ढंग से सिद्ध
करते हैं। ऐसे
विचारक भी जब
यह कहते हैं
कि जगत अराजक
है, तो
इसकी भी
सुसंगत
व्यवस्था
निर्मित करते
हैं। वे एक
सिस्टम बनाते
हैं। अगर आप
उनका विरोध
करेंगे, तो
वे आपके
विपरीत तर्क
उपस्थित
करेंगे। वे आपके
तर्कों का
खंडन करेंगे।
वे अपने तर्कों
का समर्थन
करेंगे।
लेकिन उन्हें
शायद खयाल नहीं
आता कि अगर
जगत एक
अराजकता है, तो किसी को
भी समझाने का
कोई प्रयोजन
नहीं है, और
फिर न कोई सही
है और न कोई
गलत।
अगर
जगत एक
अराजकता है, एक
अनार्की है, एक केआस है, तो फिर मैं
आपको समझाऊं
कि सही क्या
है, तो मैं
मूढ़ हूं।
क्योंकि
अराजकता में
सही कुछ भी
नहीं हो सकता
है। सही और
गलत व्यवस्था
में होते हैं।
फिर
अगर मैं कहूं
कि मैं ही सही
हूं और आप गलत
हैं, तो
मैं अपनी ही
बात का खंडन
कर रहा हूं।
क्योंकि सही
और गलत किसी
प्रयोजन से
होते हैं। अगर
मैं कहूं कि यह
रास्ता गलत
है, और साथ ही
यह भी कहूं कि
यह रास्ता
कहीं पहुंचता
नहीं है।
क्योंकि अगर
रास्ता कहीं
भी नहीं पहुंचता
है तो रास्ता
गलत और सही हो
हीं नहीं
सकता। क्योंकि
रास्ते का
सही और गलता
होना इस पर
निर्भर होता
है कि मंजिल
मिलेगी या
नहीं, अगर मंजिल
है ही नहीं, तो सभी रास्ते
समान है, न
वह गलत है और न सही
हैं। क्योंकि
कोई रास्ता
कहीं भी
पहुंचाता
नहीं है,
इसलिए जांचिएगा
कैसे, मापिएगा
कैसे कौन सही
है कौन गलत है?
जो
कहते हैं कि
जगत अराजक है
वह भी सिद्ध करना
चाहते हैं कि
हम जो कह रहे
हैं, वह
सत्य है, अराजकता
में कोई सत्य
असत्य नहीं हो
सकता। सत्य और
असत्य व्यवस्था
की बातें है। इसलिए
मैं कहता हूं
जिन्होंने
ऐसा कहां है
कि वह भी व्यवस्था
को स्वीकार
करते हैं।
उनकी चेतना भी
गहन रूप में व्यवस्था
को अस्वीकार
नहीं कर पाती।
अव्यवस्था से
वे भी राजी
नहीं हो पाते
हैं। अब तक
ऐसा कोई भी
जगत में
व्यक्ति नहीं
हुआ है, जो
अव्यवस्था के
लिए अंतर्मन
से राजी हो।
अगर आप ऐसे
व्यक्ति को भी
जाकर छुरा
उसके हाथ में भोंक
दें, तो वह
भी पूछेगा, क्यों? तुमने
छुरा मुझे
क्यों मार
दिया है?
लेकिन
अगर जगत अराजक
है, तो
क्यों का
प्रश्न
अनुचित है। यहां
घटनाएं घटती
हैं, बिना
किसी कारण के।
तो मैं कह
सकता हूं कि
यह संयोग है
कि मेरे हाथ
में छुरा है, तुम्हारा
हाथ करीब है।
और यह संयोग
है कि मेरा
हाथ तुम्हारे
हाथ में छुरे
को भोंकता है।
इसमें कोई
कारण नहीं है।
लेकिन अराजक
आदमी भी पूछेगा
कि छुरा मुझे
क्यों मारा
गया है? वह
भी जानना
चाहता है
कारण।
मैं आप
से यह कह रहा
हूं कि मनुष्य
की चेतना ही ऐसी
है कि वह
व्यवस्था को
अस्वीकार
नहीं कर सकती
है। विचार में
भी अस्वीकार
करे, तो
भी अव्यवस्था
के लिए भी
व्यवस्था
निर्मित करेगी।
अगर कोई आदमी
यह भी कहे कि
जगत नहीं 'है,
तो इसे भी
वह सिद्ध करने
में लग जाता
है। अगर वह यह
कहे कि यह सब
झूठ है, जो
है, तो भी
वह इसे सिद्ध
और सत्य करने
में लग जाता है।
इससे एक भीतरी
बात की खबर
मिलती है।
पश्चिम
में एक विचारक
हुआ, बर्कले।
बर्कले कहता
है कि जगत एक स्वप्न
है, एक
विचार, बाहर
कोई जगत नहीं
है। लेकिन वह
भी लोगों को
समझाने जाता
है कि मैं जो
कहता हूं वह
ठीक है।
वह
किन्हें
समझाने जाता
है? अपने
ही विचारों को?
अपने ही
सपनों को? अपने
ही सपने के
पात्रों को? और जब कोई
उसको मानकर राज़ी
हो जाते है और
ताली बजाता है,
तो वह
प्रसन्न होता
है। अपने ही
सपनों के पात्रों
से सुनी गई
तालियों से
प्रसन्न होता
है? और जब
कोई राज़ी
नहीं होता और
इनकार करता है,
तो वह दुखी
और पीडित होता
है।
वह
कहता भला हो
जगत मेरा विचार
है लेकिन उसकी
चेतना स्वयं
भी इसे नहीं
मान पाती है।
आप क्या
कहते है ये
बहुत महत्वपूर्ण
नहीं है, आपका अंतर्चित्त
क्या स्वीकार
करता है वह
महत्वपूर्ण
है।
तो एक
द्वार आपको
कहूं और वह
पहला द्वार यह
है कि मनुष्य
की चेतना स्वभावत
व्यवस्था
को स्वीकार
करती है। इस
जगत में अगर
कोई व्यवस्था
है। तो ही हम
तृप्त हो सकते
हैं। अगर इस
जगत में कोई व्यवस्था
नहीं है, तो हम तृप्त
नहीं हो सकते
हैं; क्योंकि
हमारे
प्राणों की
गहराई से
व्यवस्था की
मांग है। इस
माग का ही
परिणाम ईश्वर
की धारणा है।
ईश्वर
की धारणा का
अर्थ है कि
जगत एक
व्यवस्था है, एक
कास्मास है, केआस नहीं।
यहां जो भी हो
रहा है, वह
प्रयोजनपूर्वक
है। और यहां
जो भी हो रहा
है, उसका
कोई गंतव्य
है। और यहां
जो भी हो रहा
है, उसके
पीछे कोई
सुनियोजित
हाथ हैं। यहां
जो भी दिखाई
पड़ रहा है, वह
कितना ही
सांयोगिक हो,
सांयोगिक
नहीं है, कार्य
और कारण से
आबद्ध है।
ईश्वर
की धारणा का
जो मौलिक आधार
है, वह
पहला आधार यही
है कि मुनुष्य
कुछ भी करे, विचार कुछ
भी करे, विचार
व्यवस्था के
पार नहीं जा
सकता है। विचार
स्वयं ही
व्यवस्था का
आधार है।
विचार व्यवस्था
की मांग है।
सोचने का अर्थ
ही है कि
प्रयोजन है, अन्यथा
सोचने का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता। समझाने
का अर्थ है, क्योंकि कोई
प्रयोजन है।
और हम
जहां भी देखें, वहां
जीवन में
व्यवस्था के
चरण सब जगह
दिखाई पड़ते
हैं। छोटे—से
परमाणु से
लेकर आकाश में
घूमते हुए
विराट महाकाय
ताराओं की तरफ
हम आंख उठाएं,
चाहे
क्षुद्रतम
में और चाहे
विराटतम में,
एक गहन, निबिड़
योजना
परिलक्षित
होती है।
एडिंगटन
ने अपने मरने
के पहले लिखा
है—और एडिंगटन
तो विशुद्ध
वैज्ञानिक
चिंतक था—उसने
लिखा है कि जब
मैंने अपना
विचार शुरू
किया जगत के
बाबत, तो
मैं सोचता था,
जगत
वस्तुओं का एक
समूह है।
लेकिन जीवनभर
की निरंतर खोज
के बाद अब
मुझे ऐसा लगता
है, जगत
वस्तुओं का
समूह नहीं, विचार की एक
व्यवस्था है।
एडिंगटन ने
कहा है कि नाउ
दि वर्ल्ड
लुक्स 'मोर
लाइक ए थाट
दैन लाइक ए
थिंग।
वस्तु
में और विचार
में क्या फर्क
है? वस्तु
अलग—अलग
टुकड़ों में भी
हो सकती है, लेकिन विचार
सदा एक
संयोजना में
होता है। विचार
का एक पैटर्न
है। विचार के
भी भीतर एक
आर्गेनिक यूनिटी,
एक सावयव
एकता है। इसे
थोड़ा खयाल में
ले लें, तो
इस सूत्र को
समझना आसान हो
जाए।
'यह
मेरा हाथ है।
ये मेरे हाथ
की पांच
अंगुलियां
हैं। यह मेरा
पैर है। यह
मेरा सिर है।
यह मेरा शरीर
है। अगर ये सब
वस्तुएं हैं,
तो इनके
भीतर कोई ऐक्य
नहीं हो सकता।
लेकिन मेरे मन
में विचार !, उठता है, और
मेरा हाथ उस
विचार को पूरा
करने के लिए
उठ जाता है।
मेरे मन में
कामना उठती है,
और मेरे पैर
चलने को तत्पर
हो जाते हैं।
मेरी आंख
देखती है, और
मेरे कान, जो
मेरी आंख
देखती है, उसे
सुनने को
उत्सुक हो
जाते हैं।
मेरे पैर और
मेरी आंख में,
और मेरे कान
में, और
मेरे हाथ में,
और मेरे मन
में एक
अंतर्व्यवस्था
है, एक इनर
सिस्टम है। ये
सिर्फ जोड़
नहीं हैं। ये सिर्फ
जोड़ नहीं हैं
कि हाथ मेरे
पैर से जुड़ा है,
पैर मेरे
शरीर से जुड़े
हैं। ये सिर्फ
जोड़ नहीं हैं।
इन सबके भीतर
बहती हुई कोई
एकता है। उस एकता
का नाम
आर्गेनिक
यूनिटी है।
ईश्वर
की धारणा इस
बात की घोषणा
है कि यह जगत भी
वस्तुओं का
समूह नहीं, एक अंतर—ऐक्य
है। एक इनर
यूनिटी इस
सारे जगत के
भीतर दौड़ रही
है। अगर वृक्ष
उग रहा है और
आकाश में तारे
चल रहे हैं, वर्षा हो
रही है और
नदिया सागर की
तरफ भाग रही हैं,
सूरज सुबह
उग रहा है और
चांद रात को
आकाश में यात्रा
करता है—यह सब
का सब अलग— अलग
घटनाओं का जोड़
नहीं है। इन
सारी घटनाओं के
बीच जैसे मेरे
शरीर में मेरी
एकता व्याप्त
है, इन
सबके बीच कोई
अंतर्व्यवस्था
व्याप्त है। उस
अंतर्व्यवस्था
का नाम ईश्वर
है।
ईश्वर
व्यक्ति नहीं
है, ईश्वर
अंतर्व्यवस्था
है। समस्त
व्यक्तियों
के बीच जो
अंतर्व्यवस्था
है, उसका
नाम ईश्वर है,
समस्त
वस्तुओं के
बीच जो जोड्ने
वाली कड़ी है।
अब यह
मजे की बात है
कि अगर मेरे
हाथ को काट
दें, तो
मेरा हाथ कटकर
गिर जाएगा, मेरा शरीर
अलग हो जाएगा,
लेकिन
दोनों के बीच
की जोड्ने
वाली कड़ी
दिखाई नहीं
पड़ेगी। पकड़—में
भी नहीं आएगी।
अब तक तो नहीं
आ सकी है। और जितना
गहरे जो जानते
हैं, वे
कहते हैं, कभी
पकड़ में नहीं
आ सकेगी। वह
अंतर्व्यवस्था
अदृश्य है।
यह तो
निश्चित है कि
मेरे हाथ और
मेरे बीच कोई अंतर—कड़ी
है, तभी
मेरे मन में
विचार कंपता
है और मेरा
हाथ सक्रिय हो
जाता है।
विचार और मेरे
हाथ में भी
कोई जोड़ है।
लेकिन हाथ को
काटते हैं, तो हाथ में
और मेरे शरीर
में जो जोड़ है,
वह तो दिखाई
पड़ता है—नसे
दिखाई पड़ती
हैं, मसल्स
दिखाई पडते
हैं, स्नायु,
हड्डियां
दिखाई पड़ती
हैं—लेकिन
मेरे हाथ और
मेरे विचार
में जो जोड़ है,
वैह कहीं भी
दिखाई नहीं
पड़ता! वह जोड़
है जरूर। क्योंकि
इधर। मैं
सोचता हूं उधर
मेरा हाथ सक्रिय
हो जाता है।
जब कभी
वह जोड़ खो
जाता है, तो हम कहते
हैं, आदमी
को लकवा लग
गया, पक्षाघात
हो गया। अब वह
सोचता है कि
मेरा हाथ उठे
और हाथ नहीं
उठता। तो वह
आदमी कहता है,
मैं पैरालाइज्ड
हो गया।
लेकिन
इस जगत में जो
लोग व्यवस्था
को नहीं देखते, वे एक पैरालाइज्ड
जगत देख रहे
हैं; एक
पक्षाघात, एक
लकवे से लगा
हुआ जगत है
उनका। इसलिए
नास्तिक जिस
जगत को देखता
है, वह पैरालाइज्ड
है। उसमें
अंतर्व्यवस्था
उसे दिखाई
नहीं पड़ रही
है। और ध्यान
रहे, जिसका
जगत पैरालाइज्ड
है, वह खुद
भी उसके साथ
पैरालाइज्ज
हो जाएगा। जिसका
जगत एक मुर्दा
जोड़ है, वह
आदमी भी अपने
भीतर एक
मुर्दा जोड़ हो
जाएगा। उसकी
आत्मा बिखर
जाएगी। जिसे
इस जगत में
आत्मा नहीं दिखाई
पडती, उसे
अपने भीतर भी
आत्मा दिखाई
नहीं पड़ेगी; क्योंकि तब
वह भी एक
वस्तुओं का
जोड़ है। जैसा कि
चार्वाक ने
कहा है कि
आदमी केवल
वस्तुओं का
जोड है, उसके
भीतर आत्मा
जैसी कोई भी
वस्तु नहीं
है। अगर हम
आदमी को काटें,
तो यह बात
सच है। अगर
आदमी को तोड़े,
तो यह बात
सच है। हमें
कहीं भी वह
अंतर्व्यवस्था
दिखाई नहीं
पडेगी। वह
अंतर्व्यवस्था
अदृश्य है और
इसलिए
परमात्मा
अदृश्य है।
पहली
बात, परमात्मा
से प्रयोजन है,
इस सारे जगत
के भीतर एक
जीवंत जोड़ है।
यहां एक पत्ता
भी नहीं हिलता,
जब तक कि
पूरे जगत का
उसे साथ न हो।
यहां अगर मैं
एक शब्द बोलता
हूं, तो यह
शब्द मैं ही
नहीं बोलता, बोल नहीं
सकता हूं; अलग,
अकेला, अलग—
थलग जगत से
मैं नहीं हूं।
एक शब्द भी
यहां बोला
जाएगा, बोला
जा सकता है
तभी, जब
पूरे जगत का
उसे सहयोग हो,
जब पूरी
अंतर्व्यवस्था
साथ हो।
'आपकी
आंख खुलेगी भी
नहीं, अगर सूरज
ढल जाए, समाप्त
हो जाए। आपकी
सांस चलेगी भी
नहीं। अकर
सूरज मर जाए।
दस करोड़ मील
दूर जो सूरज
है, उसके
साथ आपकी सांस
जुड़ी है। जिस
दिन सूरज
समाप्त हो
जाएगा, उस
दिन हम समाप्त
जायेंगे और
हमें पता भी
नहीं चलेगा कि
सूरज समाप्त
हो गया। क्योंकि
पता चलने के
लिए भी हम बचेंगे
नहीं। हमें
कभी पता नहीं
चलेगा कि सूरज
समाप्त हो
गया। क्योंकि
सूरज समाप्त
हुआ तत्क्षण
हम समाप्त हो
जाएंगे।
सारा
जगत एक अंतर—संयोंग, एक अंतर—संबंध
है। कहें कि
जगत एक परिवार
है।
ईश्वर की
मान्यता का
अर्थ है जगत
को एक परिवार
के रूप में
देखना। ईश्वर
को इनकार करने
का अर्थ है प्रत्येक
व्यक्ति
एटामिक हो गया, आणविक हो गया
अब जगत एक परिवार
नही है, प्रत्येक
व्यक्ति
स्वयं है; और
कहीं कोई
संबंध नहीं
है।
ध्यान
रहे, मनुष्य
की चेतना इसे
स्वीकार नहीं
करती है। परम
नास्तिक भी
अपने जीवन में
व्यवस्था को
खोजता है। और
परम नास्तिक
भी व्यवस्था
की मांग करता है।
मैं एक
नास्तिक को
जानता हूं।
मेरे. पड़ोसी
थे।
विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
हैं। दर्शनशास्त्र
के ही
प्रोफेसर
हैं। अक्सर
मेरे पास आते
थे। कहते थे, जगत में
कोई व्यवस्था
नहीं है। कहते
थे, जगत
सिर्फ
परमाणुओं का
जोड़ है। इसके
भीतर कोई
अंत:स्थूत, कोई धागा
नहीं है। जैसे
कि माला में
मनके डले होते
हैं और भीतर
एक अनस्थूत
धागा उनको
जोड़े होता है,
ऐसा कोई
धागा इस जगत
में नहीं है, क्योंकि उसी
धागे का नाम
ईश्वर है।
मनके ही मनके
हैं, कहीं
कोई जोड़ नहीं
है। और सब
चीजें
सायोगिक हैं।
वे
कहते थे कि
जैसे हम एक
टाइपराइटर पर
एक बंदर को
बिठा दें और
वह ठोंकता रहे
टाइपराइटर को, अनंतकाल
तक ठोंकता रहे,
तो गीता भी
निर्मित हो
सकती है।
क्योंकि एक संयोग
ही है; गीता
भी शब्दों का
एक संयोग है।
अगर एक बंदर अनंतकाल
तक—हम सिर्फ
कल्पना कर लें—एक
बंदर अनंतकाल
तक टाइपराइटर
को बैठकर
ठोंकता रहे
बिना कुछ जाने,
तो भी अनंत—अनंत
संयोगों में
एक संयोग गीता
भी होगी। क्योंकि
आखिर गीता है
क्या? शब्दों
का एक संयोग
है। एक दफे
में गीता
निर्मित नहीं
होगी, हजार
दफे में नहीं
होगी, करोड़
दफे में नहीं
होगी। हम
सोचें
अनंतकाल तक वह
बंदर और
टाइपराइटर
दोनों लगे हुए
हैं, तो
अनंत—अनंत
संयोगों में
एक संयोग गीता
भी होगी।
यह
गाणितिक बात
है। यह
प्रोबेबिलिटी
है। इसमें कोई
शक नहीं है।
यह हो सकता
है। लेकिन फिर
भी गीता को
पढ़कर ऐसा
मालूम नहीं
पड़ता कि यह एक
संयोग है। फिर
भी ऐसा नहीं
मालूम पड़ता कि
किसी आदमी ने
अचानक इन
शब्दों को जोड़
दिया है। इन
शब्दों के
भीतर अनस्यूत
धागा पड़ता
है। लेकिन वे
मानने को राजी
नहीं थे।
मैंने उन्हें
न मालूम कितने—कितने
रूपों से
समझाया होगा, लेकिन
वें मानने को
राज़ी ही नहीं
है।
जो
मानने को
राज़ी नहीं है!
वह बहरा हो जाता
है, वह
सुनना बंद कर
देता है। तब
फिर मेरे पास
एक ही उपाय था,
और वह उपाय
मैंने उनसे
किया। मैं
उनसे असंगत बातें
करने लगा। वे
पूछते आकाश की,
मैं जमीन का
जवाब देता। वे
ईश्वर की
चर्चा उठाते,
मैं मशीन की
बात करता वे
किसी के मरने
की खबर देते, और मैं किसी
के विवाह की
चर्चा छेड़ता।
वे मुझसे कहने
लगे, आपका
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया
है? मैं
कुछ कहता हूं
आप कुछ कहते
हैं! इन दोनों
में कोई संबंध
नहीं है!
मैंने
उनसे कहा, आपका मन
भी संबंध की
तलाश करता है?
आप भी एक
व्यवस्था की
खोज करते हैं?
आपको
व्यवस्था का
खयाल छोड़ देना
चाहिए। जब कोई
व्यवस्था ही नहीं
है, तो आप
मरने की खबर
दें, मैं
विवाह की
चर्चा करूं, इससे अड़चन
क्या है? लेकिन
आपकी भी
अपेक्षा है कि
आपने मरने की
खबर दी, तो
मैं मरने की
खबर के संबंध
में ही बात
करूं। इतनी
व्यवस्था की
मांग आप भी
करते हैं!
हमारी
चेतना
व्यवस्था की
मांग किए ही
चली जाती है।
अगर कल रास्ते
पर वे मुझे
मिले थे और
मैंने नमस्कार
किया था और आज
नहीं किया, तो उनका
मन दुखी होता
है। मैंने
उनसे पूछा, दुखी होने
की क्या जरूरत
है? कल यह
संयोग था कि
नमस्कार हुई।
आज यह संयोग है
कि नमस्कार
नहीं होती।
दोनों के बीच
कोई संबंध कहां
है? तब
उनका बहरापन
टूटना शुरू
हुआ। और
उन्हें खयाल
आना शुरू हुआ
कि मांग तो
मेरी भी
व्यवस्था की
ही है। चेतना
व्यवस्था को
मतो ही चली
जाती है।
व्यवस्था
चेतना की गहरी
प्यास है।
ईश्वर उसका
अंतिम उत्तर
है। ईश्वर का
अर्थ है, हम
जगत को एक
व्यवस्था
मानते हैं। यहां
कुछ भी अकारण
नहीं है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं कि
कल्प के अंत
में सब भूत
मेरी प्रकृति
को ही प्राप्त
हो जाते हैं, मेरी
प्रकृति में
लय हो जाते
हैं। और कल्प
के प्रारंभ
में उन्हें
मैं पुन:
निर्मित करता
हूं।
इसे हम
दूसरे दरवाजे
से भी चलें।
ऐसा
अगर हो, मनुष्यता
नष्ट हो जाए।
कल कोई युद्ध
हो—और अगर
राजनीतिज्ञों
की कृपा रही, तो होगा ही—मनुष्यता
कल नष्ट हो
जाए, आदमी
समाप्त हो जाए,
और फिर किसी
अनजाने ग्रह
से मनुष्यता
के इस मरघट पर
कोई यात्री
उतरें। अगर
उन्हें
माइकलएंजलो
के हाथ की बनी
हुई कोई तस्वीर
मिल जाए, तो
वे क्या करें?
दो ही
उपाय हैं। या
तो वे सोचें
कि किसी ने
इसे बनाया
होगा।
क्योंकि इतने
अनुपात में, इतने
सुसंयोजन में,
इतनी
लयबद्ध, रंगों
के साथ इतनी
व्यवस्था, रूप
का अवतरण, रंगों
में निराकार
की पकडू—यह
आकस्मिक नहीं
हो सकती, को—इसिडेंटल
नहीं हो सकती।
ऐसा नहीं है
कि रंग पड़ गए
होंगे केनवस
पर और यह
चित्र बन गया
होगा।
एक तो
रास्ता यह है
कि वे इस
चित्र की
व्यवस्था को
देखकर सोचें
कि किसी ने
इसे निर्मित
किया होगा। और
दूसरा रास्ता
यह है कि वे
सोचें कि यह
बन गई होगी।
लेकिन
अगर एक चित्र
हाथ में लगे, तो संयोग
की बात भी हो
सकती है।
लेकिन फिर
उन्हें
मूर्तियां
मिलें, खजुराहो
के मंदिर
मिलें, कि
कोणार्क की
मूर्तियां
मिलें। और वे
जमीन के कोने—कोने
पर घूमते रहें
और उन्हें
अनेक यंत्र
मिलें, और
अनेक
व्यवस्थाएं
मिलें, तब
भी अगर वे यही
कहे चले जाएं
कि यह संयोग
की बात है! यह
संयोग की बात
है कि यह जो
रेडियो का यंत्र
पड़ा है, संयोग
की बात है कि
अनंत—अनंत काल
में अनेक—
अनेक चीजों के
मिलने से
निर्मित हो
गया होगा।
लेकिन
अगर एक रेडियो
हो, तब
भी यह संभव हो
सकता है। जमीन
पर बहुत रेडियो
मिलें, रेल
के इंजन मिलें,
उजडे हुए
कारखाने
मिलें, जगह—जगह
व्यवस्था के
लक्षण मिलें,
जगह—जगह
बनाने वाले की
खबर मिले, तब
भी अगर वे
यात्री जिद्द
किए जाएं, तो
वह जिद्द उनकी
नासमझी होगी।
जमीन
के इंच—इंच पर
और प्रकृति के
इंच—इंच पर और
विश्व के इंच—इंच
पर बनाने वाले
की छाप है।
यहां एक भी
चीज निष्प्रयोजन
नहीं मालूम
पड़ती। और
प्रत्येक चीज
के भीतर एक
गहन अनुपात
है। अगर हम
इनकार करे चले
जाएं, तो
हम अपने ही
हाथ अपने को
अंधा बनाते
हैं।
देखें, चारों
तरफ आंखें
खोलकर देखें।
बीज को बोते
हैं जमीन में।
बीज को तोड़कर
देखें, तो
वृक्ष का कोई नक्श
दिखाई नहीं पड़ता,
कोई ज्यू—प्रिंट
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
अब वैज्ञानिक
मानते हैं कि
बीज में क्यू—प्रिंट
है ,— नहीं
तो यह वृक्ष
निकलेगा कैसे?
एक छोटे—से
बीज में तोड़कर
देखने पर कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ता। लेकिन
इस बीज को
जमीन में बो
देते हैं और
वृक्ष
अंकुरित होता
है; हर कोई
वृक्ष नहीं, एक विशिष्ट
वृक्ष
अंकुरित होता
है। इस वृक्ष की
शाखाएं हर
वृक्ष जैसी
नहीं होतीं।
इसकी अपने ही
ढंग की शाखाएं
होंगी, अपने
ही ढंग के
पत्ते होंगे,
अपने ही ढंग
के फूल
खिलेंगे। और
आश्चर्य की बात
यह है कि जब यह
वृक्ष
संपूर्ण होगा,
तो जिस बीज
को हमने बोया
था, वही
बीज करोड़ों
होकर वापस
निकल आएगा। हर
कोई बीज नहीं,
वही बीज
करोड़ों होकर
फिर प्रकट हो
जाएगा!
एक बीज
के भीतर भी ब्लू—प्रिंट
है। एक बीज के
भीतर भी
व्यवस्था है।
एक बीज के
भीतर भी
भविष्य की
पूरी रूप—रेखा
है। एक मां के
पेट में बच्चे
ने गर्भ लिया
है। वह जो
पहला अणु है बच्चे
का, उसके
भीतर पूरा का
पूरा ब्लू—प्रिंट
है। उस
व्यक्ति का
पूरा का पूरा
जीवन विकसित
होगा; उस
सब की कहानी
छिपी है। उस सब के
मूल निर्देश
सूत्र छिपे
हैं, सारे
सुझाव छिपे
हैं। और शरीर
उन सारे
सुझावों को
मानकर चलेगा।
उस व्यक्ति की
आँख का रंग क्या
होगा, यह
उस छोटे—से
अणु में छिपा
है, जो
खाली आंख से
देखा नहीं जा
सकता। उस
व्यक्ति की
कितनी बुद्धि
होगी, कितनी
मेधा होगी, कितना आई
क्यू होगा, वह उस छोटे—से
अण में छिपा
है। जिसको
बुद्धि लाख
उपाय करे, तो
भी पता नहीं
लगा पा सकती।
वह व्यक्ति
कितनी उम्र का
हो सकेगा, कितनी
उम्र का होकर
मरेगा, उस
व्यक्ति को
कौन—सी खास
बीमारियां हो
सकती हैं, वह
सब उस छोटे—से
बीज में छिपा
है।
अगर
इतने छोटे—से
बीज में यह
वृक्ष का सारा
क्यू—प्रिंट
छिपा होता है; अगर छोटे—से
मनुष्य के अणु
में, सेल
में, उसके
पूरे जीवन की
कथा छिपी होती
है। तो क्या
यह सोचना गलत
है कि इस पूरे
जगत का भी कोई
क्यू—प्रिंट
होना चाहिए? क्या यह
सोचना गलत है
कि इस सारे
जगत की भी मूल व्यवस्था
किसी अणु में
छिपी हो गुड
उस अणु का नाम
ही परमात्मा
है। यह जो
इतना बड़ा
विराट जगत है,
इस सारे जगत
के फैलाव की
भी मूल
व्यवस्था
कहीं होनी
चाहिए।
कृष्ण
कहते हैं, मैं ही
इसे सृजन करता
और मैं ही फिर
इसे अपने में
लीन कर लेता
हूं।
इसे
समझें। एक बीज
से वृक्ष
निर्मित होता
है और फिर
वृक्ष पुन:
बीजों में लीन
हो जाता है।
प्रथम और
अंतिम क्षण
सदा एक होते
हैं। जहां से
यात्रा शुरू
होती है, वहीं यात्रा
पूर्ण हो जाती
है। बीज से
शुरू होती है
यात्रा, बीज
पर समाप्त हो
जाती है।
इस
सारे विराट
अस्तित्व को
अगर हम एक
इकाई मान लें, तो इस
इकाई का भी
मूल कहीं छिपा
होना चाहिए। लेकिन
हम बीज को
तोड़ते हैं, तो वृक्ष
नहीं मिलता।
और अगर हम
आदमी के अणु को
तोड़े, उसके
सेल को, कोष्ठ
को तोड़े, तो
भी उसमें आदमी
नहीं मिलता।
तो एक बात साफ
होती है कि
बीज में वृक्ष
छिपा है, लेकिन
किसी अदृश्य
ढंग से; किसी
ऐसे ढंग से कि
जब तक प्रकट न
हो जाए तब तक
उसका पता ही
नहीं चलता।
ईश्वर
का भी पता
हमें तभी चलना
शुरू होता है, जब
किन्हीं अर्थों
में वह हमारे
लिए प्रकट
होने लगता है।
तब तक पता
नहीं चलता।
इसलिए सैद्धांतिक
रूप से अगर भी
ले कि जगत में
ईश्वर है, तब
भी उसका कोई
प्रयोजन नहीं जब
तक कि वह
प्रकट न होने
लगे; वह
अदृश्य हमें
दिखाई न पड़ने
लगे। उस बीज
में से वृक्ष
निकलने न लगे,
फूल न खिलने
लगें, तब
तक हमें उसका
पूरा एहसास, उसकी पूरी
प्रतीति नहीं 'होती।
लेकिन
यह धारणा
उपयोगी है, क्योंकि
यह धारणा हो, तो उस
प्रतीति की
तरफ चलने में
आसानी हो जाती
है। और हम उसी
तरफ यात्रा कर
पाते हैं, जिस
दिशा को हम
अपने संकल्प
में उन्मूक्त
कर लेते हैं।
जिस दिशा को
हम बंद कर
देते हैं, उस
तरफ यात्रा
कठिन हो जाती
है।
पश्चिम
में एक विचारक
अभी था, जिसका
पश्चिम पर
बहुत प्रभाव
पड़ा, एडमंड
लूसेल्ड।
उसका कहना है,
मनुष्य का
पूरा जीवन एक
इनटेशनलिटी
है। मनुष्य का
पूरा जीवन एक
गहन तीव्र
इच्छा है। तो
जिस दिशा में
मनुष्य अपनी
गहन तीव्र
इच्छा को लगा
देता है, वही
दिशा खुल जाती
है, और जिस
दिशा से अपनी
इच्छा को खींच
लेता है, वही
बंद हो जाती
है।
तो अगर
एक चित्रकार
चित्रकार
होना चाहता है, तो अपने
समस्त
प्राणों की
ऊर्जा को उस
दिशा में
संलग्न कर
देता है। एक
मूर्तिकार
मूर्तिकार
होना चाहता है,
एक
वैज्ञानिक
वैज्ञानिक
होना चाहता
है। लेकिन अगर
आप कुछ भी
नहीं होना
चाहते, तो
आप ध्यान रखिए,
आप कुछ भी
नहीं हो
पाएंगे, क्योंकि
आप किसी भी
यात्रा पर
अपनी चेतना को
संगृहीत करके
गतिमान नहीं
कर पाते। आपके
भीतर इनटेशनलिटी,
आपके भीतर
संकल्प का
आविर्भाव ही
नहीं हो पाता।
तो आप एक लोच—पोच
व्यक्ति होते
हैं, जिसके
भीतर कोई
केंद्र नहीं
होता। बिना
रीढ़ की, जैसे
कोई शरीर हो
बिना रीढ़ की
हड्डी का, वैसी
आपकी आत्मा
होती है बिना
रीढ़ की।
यह जगत
भी अपने समस्त
रूपों में एक
गहन इच्छा की
सूचना देता
है। यहां कोई
भी चीज अकारण
होती मालूम
नहीं हो रही
है। यहां
प्रत्येक चीज
विकासमान
होती मालूम
पड़ती है।
डार्विन
ने जब पहली
बार विकास का, इवोज्यूशन
का सिद्धात
जगत को दिया, तो पश्चिम
में विशेषकर
ईसाइयत ने
भारी विरोध किया।
क्योंकि
ईसाइयत का
खयाल था कि
विकास का सिद्धात
धर्म के खिलाफ
है। लेकिन
हिंदू चिंतन
सदा से विकास
के सिद्धात को
धर्म का अंग
मनता रहा है।
असल
में विकास के कारण
ही पता चलता
है कि जगत में
परमात्मा है। विकास
के कारण ही
पता चलता है
कि जगत किसी
गहन इच्छा से
प्रभावित होकर
गतिमान हो रहा
है। जगत ठहरा
हुआ नहीं है, स्टैटिक
नहीं है डायनैमिक
है। यहां
प्रत्येक चीज
बढ़ रही है, और
प्रत्येक चीज
ऊपर उठ रही
है। चीजें
ठहरी हुई नहीं
हैं, चीजों
के तल रूपांतरित
हो रहे हैं।
और यह जो
विकास है, इररिवर्सिबल
है, यह
पीछे गिर नहीं
जाता। एक
बच्चे को हम
दुबारा बच्चा
कभी नहीं बना
सकते। कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि
विकास
सुनिश्चित
रूप से उसकी
आत्मा का
हिस्सा हो
जाता है।
आप जो
भी जान लेते
हैं, उसे
फिर भुलाया
नहीं जा सकता।
आपने जो भी
जान लिया, उसे
फिर मिटाया
नहीं जा सकता।
क्योंकि वह
आपकी आत्मा का
सुनिश्चित
हिस्सा हो
गया। वह आपकी आत्मा
बन गई। इसलिए
इस जगत में जो
भी हम हो जाते
हैं, उससे
नीचे नहीं गिर
सकते।
अगर यह
संयोग मात्र
है, तो
ठीक है। एक का
किसी दिन सुबह
उठकर पाए कि
बच्चा हो गया!
एक इतनी सुबह
उठे और पाए कि
सब अंधकार हो
गया; अज्ञान
ही अज्ञान छा
गया! एक
मूर्तिकार
सुबह उठकर पाए
कि उसकी छेनी—हथौड़ी
को हाथ पकड़
नहीं रहे, हाथ
छूट गए हैं!
उसे कुछ खयाल
ही नहीं आता
कि कल वह क्या
था!
नहीं, हमारा आज
हमारे समस्त
कल और अतीत के
ज्ञान और अनुभव
को अपने में
समा लेता है, निविष्ट कर
लेता है। न
केवल अतीत को
निविष्ट कर
लेता है, बल्कि
भविष्य की तरफ
पंखों को भी
फैला देता है।
जगत एक
सुनिश्चित
विकास है, एक कांशस
इवोल्यूशन।
अगर जगत विकास
है, तो
उसका अर्थ है
कि वह कहीं
पहुंचना चाह
रहा है।
विकास. का
अर्थ होता है,
कहीं
पहुंचना।
जीवन कहीं
पहुंचना चाह
रहा है। जीवन
किसी यात्रा
पर है। कोई
गंतव्य है, कोई मंजिल
है, जिसकी
तलाश है। हम
यूं ही नहीं भटक
रहे हैं। हम
कहीं जा रहे
हैं। जाने—
अनजाने, पहचानते
हों, न
पहचानते हों,
हमारा
प्रत्येक
कृत्य हमें
विकसित करने
की दिशा में
संलग्न है।
और
ध्यान रहे, हमारे
जीवन में जब
भी आनंद के
क्षण होते हैं,
तो वे वे ही
क्षण होते हैं,
जब हम कोई
विकास का कदम
लेते हैं। जब भी
हमारी चेतना
किसी नए चरण
को उठाती है, तभी आनंद से
भर जाती है।
और जब भी
हमारी चेतना ठहर
जाती है, अवरुद्ध
हो जाती है, उसकी गति खो
जाती है और
कहीं चलने को
मार्ग नहीं
मिलता, तभी
दुख, तभी
पीड़ा, तभी
परतंत्रता, तभी बंधन का
अनुभव होता
है। मुक्ति का
अनुभव होता है
विकास के चरण
में।
जब
बच्चा पहली
दफा जमीन पर
चलना शुरू
करता है, तब आपने
उसकी
प्रफुल्लता
देखी है? जब
वह पहली दफा
पैर रखता है
जमीन पर, और
पहली दफा
डुलता हुआ, कंपता हुआ, घबड़ाया हुआ,
भयभीत, झिझकता
हुआ, पहला
कदम उठाता है,
और जब पाता
है कि कदम
सम्हल गया और
जमीन पर वह खड़े
होने में
समर्थ है, तो
आपको पता होना
चाहिए विकास
का एक बहु,त
बड़ा कदम उठ
गया है। यह
सिर्फ पैर
चलना हीं नहीं
है, आत्मा
को एक नया
भरोसा मिला, आत्मा को एक
नई श्रद्धा
मिली; आत्मा
ने पहली दफा
अपनी शक्ति को
पहचाना। अब यह
बच्चा दुबारा
वही नहीं हो सकेगा,
जो यह घुटने
के बल चलकर
होता था। अब
यह दुबारा वही
नहीं हो
सकेगा। अब यह
सारी दुनिया
भी इसको घुटने
के बल झुकाने
में असमर्थ हो
जाएगी। एक बड़ी
ऊर्जा का जन्म
हो गया।
इसलिए
जब कोई हार
जाता है, तो हम कहते
हैं, उसने
घुटने टेक
दिए। घुटने
टेकना हारने
का प्रतीक हो
जाता है।
लेकिन कल तक
यह बच्चा
घुटने टेककर
चल रहा .था।
इसे पता ही
नहीं था कि
मैं क्या हो
सकता हूं मैं
भी खड़ा हो
सकता हूं,
अपने ही बल
मैं भी चल
सकता हूं। यह
दुनिया की पूरी
की पूरी ताकत,
सारी
दुनिया की
शक्ति भी
चेष्टा करे, तो मुझे
गिरा नहीं
पाएगी।
इस
बच्चे के भीतर
इनटेशनलिटी, एक तीव्र
इच्छा का जन्म
हो गया। जिस
दिन यह बच्चा
पहली बार
बोलता है और
पहला शब्द
निकलता है
इसका—तुतलाता
हुआ, डांवाडोल,
डरा हुआ—उस
दिन इसके भीतर
एक नया कदम हो
गया। जिस दिन
बच्चा पहली
बार बोलता है,
उसकी
प्रफुल्लता
का अंत नहीं
है। अपने को
अभिव्यक्त
करने की आत्मा
ने सामर्थ्य
जुटा ली।
इसलिए
बच्चे अक्सर
एक ही शब्द को—जब
वे बोलना शुरू
करते है—तो
दिनभर
दोहराते हैं।
हम समझते हैं
कि सिर खा रहे
हैं, परेशान
कर रहे हैं, वे केवल
अभ्यास कर रहे
हैं अपनी
स्वतंत्रता का।
वह जो उन्हें
अभिव्यक्ति
मिली है, वे
बार—बार उसको
छूकर देख रहे
हैं कि ही, मैं
बोल सकता हूं!
अब मैं वही
नहीं हूं—मौन,
बंद। अब
मेरी आत्मा
मुझसे बाहर जा
सकती है। नाउ
कम्मुनिकेशन
इज पासिबल। अब
मैं दूसरे
आदमी से कुछ कह
सकता हूं। अब
मैं अपने में
बंद कारागृह
नहीं हूं।
मेरे द्वार
खुल गए!
वह
बच्चा सिर्फ
अभ्यास कर रहा
है। अभ्यास ही
नहीं कर रहा
है, वह
बार—बार मजा
ले रहा है। वह
जिस शब्द को
बोल सकता है, उसे बोलकर
वह बार—बार
मजा ले रहा
है। वह कह रहा
है कि ठीक! अब
यह बच्चा दुबारा
वही नहीं हो
सकता, जो
यह एक शब्द
बोलने के पहले
था। एक नई
दुनिया में
यात्रा शुरू
हो गई। विकास
का एक चरण
हुआ।
न केवल
हम ठहरे हुए
ही नहीं हैं, हम
प्रतिपल
विकासमान
हैं। और एक—एक
व्यक्ति ही
नहीं, पूरा
जगत विकासमान
है। यह जो
विकास की अनंत
धारा है, अगर
है, तो ही
जगत में ईश्वर
है। क्योंकि
ईश्वर का अर्थ
है—टेल्हार्ड
डि चार्डिन ने
एक शब्द का
प्रयोग किया
है, दि
ओमेगा
प्याइंट।
अंग्रेजी में
अल्फा पहला शब्द
है और ओमेगा
अंतिम। अल्फा
का अर्थ है, पहला; ओमेगा
का अर्थ है, अंतिम।
चार्डिन ने
कहा है कि गॉड
इज दि ओमेगा ज्वाइंट।
ईश्वर जो है.
वह अंतिम
बिंदु है
विकास का। विकास
की अंतिम
संभावना, विकास
का जो अंतिम
रूप है, विकास
की जो हम
कल्पना कर
सकते हैं, वह
ईश्वर है।
ईश्वर
का अर्थ है कि
यह जगत किसी
एक सुनिश्चित
बिंदु की तरफ
यात्रा कर रहा
है। कितना ही
हम भटकते हों, और कितना
ही मार्ग से
च्युत हो जाते
हों, और
कितने ही
गिरते हों, कितने ही
खाई—खड्ड हों,
लेकिन इन
सारे खाई—खड्डों,
इन सारी गिर
जाने की
संभावनाओं के
बावजूद भी हम
उठते हैं, बढ़ते
हैं; और
कोई दिशा है, जहां हम
खिंचे चले जा
रहे हैं। आदमी
की चेतना विकसित
होती चली जा
रही है।
इसे हम ऐसा
समझें।
अस्तित्व, जो है
हमारे चारों
तरफ, उसका
नाम है।
अस्तित्व से
भी
महत्वपूर्ण
और कीमती, और
अस्तित्व में
जो केंद्रीय
है, वह है
जीवन। लाइफ इज
सेंट्रल इन
एक्सिस्टेंस।
क्यों?
एक
पत्थर पड़ा है, पत्थर
कितना ही
खूबसूरत हो; और पास में
एक फूल खिल
रहा है, और
फूल कितना ही
बदसूरत हो, तो भी फूल
पत्थर से
कीमती है।
क्यों? फूल
विकासमान है,
फूल जीवंत
है, पत्थर
मुर्दा है।
फूल बढ़ रहा
है। पत्थर की
कोई संभावना
नहीं है, फूल
की संभावना
है। पत्थर कल
भी पत्थर
रहेगा; फूल
आज कली है, कल
खिलेगा। फूल
विकासमान है,
डायनैमिक
है।
अस्तित्व
का जो केंद्र
है, वह
जीवन है। कहें
हम ऐसा कि
अस्तित्व
जीवन के लिए
है।
एक्सिस्टेंस
इज फार लाइफ।
अस्तित्व का
अंत है जीवन।
अस्तित्व का
लक्ष्य है
जीवन। लेकिन
जीवन भी किसी
के लिए है।
जीवन में अगर
हम खोजें कि
क्या है
केंद्रीय, तो
हम पाएंगे, चिंतन, मनन,
विचार, मन।
जैसे
अस्तित्व का
केंद्र है
जीवन, ऐसे
जीवन का
केंद्र है
विचार। इसलिए
एक फूल खिल
रहा है, कितना
ही खूबसूरत हो;
और एक मोर
नाच रहा है, कितनी ही
उसकी नृत्य।
हो; लेकिन
एक छोटा—सा
मूढ़ बच्चा भी
उसके पास बैठा
है तो यह
बच्चा ज्यादा
मूल्यवान है।
यह बच्चा कुरूप
हो, तो भी
फूल से ज्यादा
मूल्यवान है।
और यह बच्चा
बिलकुल मूढ़ हो,
तो भी मोर
से ज्यादा
मूल्यवान है!
क्यों? क्योंकि
इस बच्चे के
पास एक भीतरी
संभावना है, जो फूल के
पास और मोर के
पास नहीं है।
इस बच्चे के
पास भीतर एक
मन की संभावना
है, कितनी
ही छोटी, लेकिन
एक और नई संभावना
का द्वार खुल
गया है। यह
विकास के एक ऊपर
के तल पर खड़ा
हो गया है।
पत्थर
पड़ा है। पत्थर
से फूल एक कदम
ऊपर है; विकासमान
है। फूल से यह
बच्चा एक कदम
ऊपर है, क्योंकि
यह विकासमान
ही नहीं है, यह मनन की
क्षमता से भी
भरा है; यह
सोच भी सकता
है। माइंड इज
सेंट्रल टु
लाइफ। मन जीवन
का केंद्र है।
लेकिन मन कितना
ही विकसित हो,
एक
आइंस्टीन
बैठा हो, जिसके
पास विकसित से
विकसित मन है,
जिसने जगत
को कीमती
सिद्धात दिए,
शक्ति दी, विज्ञान
दिया। लेकिन
पास में ही एक
साधारण—सा
मनुष्य बैठा
हो ध्यान में
लीन, तो
आइंस्टीन से
ज्यादा कीमती
है। एक साधारण—सा
व्यक्ति
ध्यान में लीन
बैठा हो, तो
आइंस्टीन से
ज्यादा कीमती
है।
क्यों? क्योंकि
उसने और एक
नया चरण पूरा
किया। अब वह मन
में ही नहीं
जीता, मन
को भी शात
करने पर, विचार
के भी खो जाने
पर जो चेतना
शेष रह जाती है,
उसमें जीता
है।
कांशसनेस
इज सेंट्रल टु
माइंड, मन का भी
केंद्र
चैतन्य है।
चैतन्य शिखर
है। अस्तित्व
आधार है, चैतन्य
शिखर है।
लेकिन चैतन्य
का भी प्रयोजन
क्या? एक
आदमी बैठा है
शात, मन के
विचार खो गए, अशांति खो
गई, सब खो
गया। शात है
बिलकुल।
चेतना से भरा
है। लेकिन
उसके पास ही
एक दूसरा आदमी
बैठा है, जो
सिर्फ शात ही
नहीं है—मात्र
शाति निषेध है,
नकार है, अभाव है—जो
केवल शात ही
नहीं है, जो
परमात्मा के
अनुभव से नाच
उठा है।
गॉड इज
सेंट्रल टु
कांशसनेस।
अकेले शात हो
जाना निषेध
है। मन तो खो
गया, लेकिन
नया कुछ
अवतरित नहीं
हुआ है। लेकिन
चेतना जब
परमात्म से भर
जाए और चेतना
जब दिव्यता से
भर जाए तो अब एक
नया रंग, एक
नया आनंद, एक
एक्सटैसी, एक
वर्षा अमृत की
हो गई है। यह
शिखरों में भी
शिखर है।
ये
पांच—अस्तित्व, जीवन, मन,
ध्यान, परमात्मा।
और समझ में
आने की बात
होगी, आसान
हो जाएगा—अगर
परमात्मा पीक
है, शिखर
है हमारा सबका,
हमारे
अस्तित्व का,
तो जो अंत
में प्रकट
होता है, वह
पहले ही मौजूद
होना चाहिए, अन्यथा
प्रकट नहीं हो
सकता। इसे
थोड़ा समझना कठिन
होगा।
लेकिन
अंत में वही
प्रकट होता है, जो प्रथम
में मौजूद
होता है, यह
जीवन के
शाश्वत
नियमों में एक
है। अगर फूल में
से अंत में
बीज निकलते
हैं, बीज
से अंत में
बीज निकलते
हैं, वृक्ष
से अंत में
बीज निकलते
हैं, तो वे
बीज खबर देते
हैं कि प्रथम
में भी बीज ही रहा
होगा।
आपने
या माली ने एक
पौधा लगाया।
यह माली मर जाएगा।
इसके बेटे इस
वृक्ष में आए
हुए बीजों को बटोरेंगे।
फिर भी वे कह
सकते हैं कि
बीज चूंकि
अंतिम है, इसलिए
बीज प्रथम में
भी रहे होंगे।
क्योंकि अंतिम
वही होता है, जो प्रथम
में मौजूद था।
अंत में वही
तो प्रकट होता
है, जो
पहले से छिपा
था। अंत प्रथम
की
अभिव्यक्ति है।
तो
जैसा चार्डिन
ने शब्द उपयोग
किया है, ओमेगा, अंत।
बट ओमेगा इज
आल्सो दि
अल्का। वह जो
पहला है, वही
अंतिम है। तो
अगर ईश्वर
जीवन की परम
शिखर अनुभूति
है, तो
निश्चित ही वह
प्रथम भी
मौजूद होगी।
इसलिए कृष्ण
के इस सूत्र
को अब हम्
समझें, तो
आसानी हो
जाएगी।
कहते
हैं, कल्प
के अंत में सब
भूत मेरी
प्रकृति को
प्राप्त होते
हैं। वे यह कह रहे
हैं कि कल्प
के अंत में
सभी कुछ अंतत:
ईश्वरीय हो
जाता है, एवरीथिंग
बिकम्स
डिवाइन। अंत
में—अंत का
अर्थ है, यह
परम जो स्थिति
होगी विकास
होते—होते, यात्रा चलते—चलते,
जो आखिरी
मंदिर आएगा, उसमें पत्थर
भी, प्राण
भी, सभी
कुछ मुझ में
लीन हो जाता
है। क्योंकि
मैं ही प्रथम
और मैं ही
अंतिम हूं।
कल्प के अंत
में सब भूत
मेरी प्रकृति
को प्राप्त
होते हैं, अर्थात
मेरी प्रकृति
में लय हो
जाते हैं। मेरा
जो स्वभाव है,
मेरा जो
होना है, मेरा
जो अस्तित्व
है, अंत
में सभी कुछ
उसमें लीन हो
जाता है।
इसलिए
कल्प को दो
तरह से देखें।
उसको सिर्फ
अंत ही न
समझें, उसे लक्ष्य
भी समझें। वह
दोहरे अर्थों
में अंत है।
वह समाप्ति भी
है, वह
पूर्णता भी।
और हर पूर्णता
समाप्ति होती
है। हर
समाप्ति
पूर्णता नहीं
होती, लेकिन
हर पूर्णता
समाप्ति होती
है।
जब
सारा जीवन
विकसित होकर
प्रभु के पास
पहुंच जाता है, तो जगत
तिरोहित हो
जाता है, सिर्फ
परमात्म—चेतना
शेष रह जाती
है। यह एक
कल्प का अंत
है।
कृष्ण
कहते हैं, और कल्प
के प्रारंभ
में मैं उनको
फिर रचता हूं; फिर उनका
निर्माण करता
हूं।
ध्यान
रहे, यह
निर्माण भी
विकास की
यात्रा है। यह
निर्माण भी
फिर पुराने
जैसा नहीं होता।
यह निर्माण भी
और एक अगला
कदम है। यह फिर
से निर्माण, फिर एक अगला
कदम है।
अपनी
त्रिगुणमयी
प्रकृति को
अंगीकार करके, स्वभाव
के वश से
परतंत्र हुए
इस संपूर्ण
भूत समुदाय को
बारंबार उनके
कर्मों के
अनुसार रचता
हूं।
और जो
भी रचना घटित
होती है, कृष्ण कह
रहे हैं, वह
रचना
प्रत्येक के
कर्मानुसार
घटित होती है।
क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति जो
करता है, वैसा
ही हो जाता
है। और
प्रत्येक भूत
समुदाय जो—जो
करके गुजरता
है, वही
करना उसकी
आत्मा बनती
चली जाती है।
और वही आत्मा
उसके नए जन्म
का रूप देती
है। वही आत्मा,
वही कर्मों
का समुच्चित
रूप उसके नए
जन्म का ब्लू—प्रिंट है।
न केवल
व्यक्ति के
लिए, वरन
समस्त जगत के
लिए भी।
यह
समस्त जगत जब
पुन: निर्मित
होगा, तो
इस जगत ने जो
भी किया, जो
भी पाया, जो
भी अनुभव, जो
भी यात्रा का
फल, वह सब
का सब पुन: बीज
बन जाता है।
जब एक
वृक्ष में बीज
लगते हैं, तो क्या
होता है? वृक्ष
का सारा अनुभव,
वृक्ष की
सारी यात्रा,
वृक्ष का
सारा जीवन बीज
में पुन:
प्रविष्ट हो जाता
है। सार में, इसेंस में
सब बीज में
छिप जाता है।
फिर बीज जमीन
में पड़ता है।
फिर वृक्ष का
जन्म होता है।
इस
संबंध में एक
बात और समझ
लेनी जरूरी है
कि भारतीय, हिंदू
चिंतन जगत को
एक
वर्तुलाकार
यात्रा मानता
है। ईसाई
चिंतन जगत की
यात्रा को
रेखाबद्ध
यात्रा मानता
है। ईसाई
चिंतन का खयाल
है कि समय एक
रेखा में चलता
है, सीधा, बिलकुल सीधा—लीनियर
कंसेप्ट आफ
टाइम—सीधा।
लेकिन हिंदू
चिंतन मानता
है कि समय एक वर्तुल
में चलता है, सर्कुलर।
जैसे गाड़ी का
चाक घूमता है,
ऐसा समय
घूमता है।
अब यह
आश्चर्य की
बात है कि
हिंदू चिंतन
की जो धारणा
है, वही
वैज्ञानिक है;
क्योंकि इस
जगत में कोई
भी गति सीधी
नहीं होती। तो
समय की भी
होने का कोई
कारण नहीं है।
इस जगत में
समस्त गतियां
सर्कुलर हैं।
चाहे जमीन
सूरज का चक्कर
लगाती हो, और
चाहे सूरज
महासूर्यों
का चक्कर
लगाता हो, चाहे
यह आकाश के
इतने अनंत—अनंत
तारे चक्कर
लगाते हैं
किसी धुरी का,
चाहे एक
परमाणु को हम
तोड़े, तो
परमाणु के जो
इलेक्ट्रान
और न्यूट्रान
हैं, वे
चक्कर लगाते
हैं। जहां भी
गति है, गति
सर्कुलर है।
और अब
तक जगत में
ऐसी कोई गति
नहीं मिली है, जो
लीनियर हो, जो रेखाबद्ध
हो। समय की
गति तो देखी
नहीं जा सकती,
समय को पकड़ा
नहीं जा सकता।
अगर समय की
गति पकड़कर हम
नाप—जोख करते,
तो तय हो
जाता कि ईसाई
जैसा सोचते
हैं, वह
सही है; या
हिंदू जैसा
सोचते हैं, वह सही है!
लेकिन समय को
तो पकड़ा नहीं
जा सकता, समय
को देखा नहीं
जा सकता, फिर
कैसे तय करें?
तो
हिंदू का
चिंतन गहरा
मालूम पड़ता
है। वह कहता
है, तुम
मुझे कोई एकाध
भी ऐसी गति
बता दो, जो
पकड़ी जा सकती
हो, जो
सीधी हो, रेखाबद्ध
हो। जितनी
गतिया मनुष्य
को पता हैं, सभी वर्तुल
हैं। तो हिंदू
कहता है, फिर
जो गति हमें
दिखाई नहीं
पड़ती, ज्यादा
उचित है कि हम
मानें, वह
भी वर्तुल
होगी। कोई
कारण नहीं है
उसके रेखाबद्ध
होने का।
हिंदू मानता
है कि गति
मात्र वर्तुलाकार
है।
बच्चा
है, यह
वर्तुल का
पहला बिंदु
है। इसलिए
अक्सर के जो हैं,
फिर बच्चों
जैसे हो जाते
हैं—जैसे।
बच्चे नहीं हो
जाते, बच्चों
जैसे हो जाते
हैं—निरीह, असहाय—पुन:।
एक वर्तुल
पूरा हुआ।
हिंदू कहता है
कि बच्चे और
के के बीच
सीधी रेखा
नहीं है, वर्तुलाकार
है। इसलिए
पैंतीस साल के
करीब आदमी
वर्तुल के
शिखर पर होता
है, फिर गिरना
शुरू हो जाता
है। फिर वापस
आने लगा। कब में
पहुंचते—पहुंचते
वह वहीं पहुंच
जाता है, जहां
अपने घर के
झूले में था—वापस।
और अगर हम गौर
से देखें, तो
दिखाई पड़ेगा
कि का धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे बच्चे
जैसा निरीह
होता चला जाता
है; बच्चे
से भी ज्यादा
निरीह।
क्योंकि
बच्चे पर तो
कोई दया भी
करता था। अब
उस पर कोई दया
करने वाला भी
नहीं मिलता।
क्योंकि लोग
समझते हैं, वह का है, उस
पर क्या दया
करनी! इसलिए
भारत ने जो
खयाल दुनिया
को दिया था कि
बच्चे से भी
ज्यादा चिंता वृद्ध
की करना, उसके
पीछे कारण था।
उसके पीछे
कारण था कि
वृद्ध दिखाई
नहीं पड़ता, लेकिन वह
बच्चे जैसा हो
गया है। बच्चे
को हम माफ कर
देते हैं, अगर
वह नाराज हो।
के को हम माफ
नहीं कर पाते,
अगर वह
नाराज हो।
लेकिन
भारत की बहुत
गहरी समझ थी, और वह यह
थी कि बच्चे
को तुम चाहे
माफ मत भी करना,
क्योंकि
अभी बच्चे को
कुछ पता भी नहीं
है कि माफ
किया जाता है
कि नहीं किया
जाता है, लेकिन
के को तो
बिलकुल माफ कर
देना। माफ ही
मत कर देना, मान लेना कि
वही ठीक है, तुम गलत हो।
क्योंकि उसे
भी खयाल है कि
वह का है, लेकिन
उसकी प्रकृति
उसे बिलकुल बच्चे
जैसी
हो गई
है। वर्तुल
पूरा हो गया
है। वह बच्चे
ही जैसी
नासमझिया
करेगा, लेकिन
समझदारी के
खयाल के साथ
करेगा।
इसलिए
का कठिन हो
जाता है।
बच्चे जैसी ही
नासमझिया
करेगा। बच्चे
जैसी ही जिद्द
के आदमी में वापस
लौट आती है।
वैसा ही
हठधर्मीपन आ
जाता है। और
एक और खतरा
साथ हो गया
होता है, क्योंकि उसे
खयाल होता है कि
वह बच्चा नहीं
है। तो के
निरंतर कहते
हैं कि मैं
कोई बच्चा
नहीं हूं। उसे
खयाल यह होता
है कि वह का है;
उसे सारे
जीवन का अनुभव
है। और उसे
पता नहीं कि
प्रकृति उसे
वापस वर्तुल
की पूर्णता की
स्थिति पर ले
आई है।
क्योंकि
मृत्यु वहीं
होती है, जहां
जन्म होता है।
वह बिंदु
बिलकुल एक है।
इसलिए वापस
प्रकृति उसको
ला रही है।
मगर अनुभव, मन, स्मृति,
उसे कहती है,
वह सब जानता
है, और
व्यवहार वह
ऐसा करता है, जैसे कुछ न
जानता हो।
तो
उसका व्यवहार
उसके ही
बच्चों को
अखरने लगता
है। उसके
बच्चों को
लगता है कि
काम तो ऐसे
करते हो, जैसे कुछ न
जानते हो। और
बातें ऐसी
करते हो, जैसे
सब जानते हो!
इसलिए बच्चों
को भी सहना मुश्किल
हो जाता है।
लेकिन
भारत की समझ
थी कि बूढ़े के
साथ ऐसे ही व्यवहार
' करना
जैसे वह बच्चा
है। उसकी
हठधर्मी सही
है। वह गलत हो,
इससे कोई
चिंता मत
करना। वह ठीक हो
कि गलत हो, हमेशा
उसे ठीक मान
लेना। वह गलत
भी करे, तो
भी उसके चरणों
में सिर रख
देना। वह वापस
लौटता हुआ
वर्तुल है।
बच्चे से
ज्यादा दयनीय
है। बच्चे में
तो अभी शक्ति
जगेगी। अभी तो
बच्चा शक्ति
का स्रोत है।
का तो चुक
गया। उसकी
शक्ति खो गई।
इसलिए पूरब ने
बूढ़े को जो
आदर दिया है, उसके पीछे
बड़ी सूझ है, खयाल है, कारण
है। सारी
गतियां वहीं
शुरू होती हैं,
वहीं अंत
होती हैं।
कृष्ण
कहते हैं, सब
मुझमें लीन हो
जाता है और
फिर मुझसे
पुन: रचा जाता
है। यह रचना
जगत के
कर्मानुसार, भूतों के
कर्मानुसार
घटित होती है।
इस
संबंध में भी
पूर्वीय
चिंतन अति
वैज्ञानिक
है। क्योंकि
पूरब मानता है, अकारण
कुछ भी घटित
नहीं होता। जो
भी होगा, वह
कारण से बंधा
होगा। अगर इस
पूरे जगत को
हम एक व्यक्ति
मान लें, तो
इस पूरे जगत
के एक कल्प का
जो कर्म होगा,
वही कर्म
इसके नए कल्प
की शुरुआत
होगी। यह विशाल
है बात, और
मस्तिष्क पकड़ नहीं
पाएगा। लेकिन
बूंद को भी
समझ लें, तो
सागर समझ में
आ जाता है।
आप आज
जो भी हैं, वह आपके
समस्त कलों का
जोड़ है। और कल
आप जो होंगे, उसमें आज और
जुड़ जाएगा। आप
जो बोलेंगे, जो सोचेंगे,
जो होंगे, जो व्यवहार
करेंगे, जो
करेंगे और जो
नहीं करेंगे,
वह भी—वह
आपके समस्त
सार से
निकलेगा।
आपके पूरे
जीवन के
कर्मों के सार
से निकलेगा।
एक अर्थ में
यह सेल्फ
प्रपोगेटिंग,
स्वचालित
व्यवस्था है।
इससे अन्यथा
होने का कोई
उपाय नहीं है।
अगर हम इस
सारी बात को, पूरे जगत को
एक व्यक्ति
मान ले. तो
पूरे जगत में
भी ऐसा ही
घटित होगा।
हे
अर्जुन, उन कर्मों
में
आसक्तिरहित
और उदासीन के
सदृश स्थित
रहते हुए वे
कर्म मुझे
नहीं बांधते
हैं।
यह
अंतिम सूत्र
खयाल में ले
लेने जैसा है।
क्योंकि यह
सवाल उठ सकता
है कि अगर
व्यक्ति कर्म करता
है, तो
अपने कर्मों
से बंध जाता
है, और अगर
परमात्मा भी
जगत को रचता
है, बनाता
है, मिटाता
है, सम्हालता
है, तो
क्या ये कर्म
उसे नहीं
बांधते होंगे?
क्या ये
कर्म उसका
बंधन न बन
जाते होंगे? क्या ये
कर्म फिर उसके
लिए भी
कारागृह
निर्माण न
करते होंगे? अगर व्यक्ति
बंध जाता है, तो होगा वह
महाव्यक्ति, लेकिन उसके
महाकर्म भी तो
उसे बांधने
वाले सिद्ध
होंगे।
इसलिए
क्या ने कहा
है कि यह सब
करता हूं,
अनासक्त। किस
कर्म में
व्यक्ति
अनासक्त रह सकता
है? सिर्फ
व्यक्ति खेल
में अनासक्त
रह सकता है, बाकी सभी
कर्मों में
आसक्त हो जाता
है। सिर्फ खेल
में अनासक्त
रह सकता है।
हम तो खेल में
भी नहीं रह
सकते हैं।
क्योंकि
हमारे लिए खेल
भी कर्म बन
जाता है। अगर
दो आदमियों को
ताश खेलते
देखें, तो
उनके माथे पर
ऐसी सिकुड़ने
पड़ी होती हैं,
जैसे जीवन—मरण
का सवाल है।
दो आदमियों को
शतरंज खेलते
देखें, तो
जैसे इसी खेल
पर सब कुछ
निर्भर है। इस
जगत का पूरा भविष्य,
इनके इस खेल
पर निर्भर है! यह
जो शतरंज के
सिपाहियों को
यहा से वहा
उठाकर रख रहे
हैं, सारे
प्राण उनके
खिंचे हैं!
उनका ब्लड
प्रेशर नापे,
बढ़ जाएगा।
उनकी छाती की
धड़कन बढ़
जाएगी। उनका एक
घोड़ा मरेगा, कि एक हाथी
मरेगा, तो
न मालूम कितनी
पीड़ा और कितना
क्या हो जाएगा!
इस
शतरंज के खेल
पर बैठा हुआ
आदमी भी खेल
में नहीं है।
यह भी कर्म हो
गया! और अगर
हार जाएगा, तो रातभर
सो नहीं
सकेगा। रातभर
शतरंज चलती रहेगी।
फिर रखता
रहेगा, सोचता
रहेगा। शतरंज
के जो बड़े
खिलाड़ी हैं, वे कहते हैं
कि शतरंज में
वही जीत सकता
है, जो
पांचवीं चाल
तक को पहले से
सोच ले—पांचवीं
चाल! अभी मैं
यह चलूंगा, यह उत्तर
आएगा; तब
मैं यह चलूंगा,
तब यह उत्तर
आएगा। ऐसे
पांच को जो
पहले से सोच ले,
वही शतरंज
में कुशल हो
सकता है।
निश्चित
ही है, कुशल
शतरंज में
होगा कि नहीं
होगा, एक
बात पक्की है,
पागल हो
जाएगा।
तो मैंने
सुना है कि
इजिप्त का एक
सम्राट शतरंज
खेलते—खेलते
पागल हो गया।
बड़ा खिलाड़ी
था। सब इलाज
किए गए, वह ठीक न हो
सका। तो फिर
मनसविदों ने
कहा कि अब एक
ही उपाय है कि
इससे भी बड़ा
शतरंज का
खिलाड़ी कोई
मिले, तो
शायद यह ठीक
हो जाए। बहुत
खोज की गई, आखिर
एक आदमी मिल
गया। उसने मना
किया। बहुत
प्रलोभन दिए
गए प्रलोभन
में आकर वह
चला आया।
क्योंकि पागल
के साथ वह शतरंज
खेलने को
तैयार नहीं
होना चाहता
था। ऐसे तो
शतरंज का खेल
ही पागल करने
वाला है, फिर
पागल खिलाड़ी
भी सामने हो!
तो वह खेलना
नहीं चाहता
था। लेकिन
सम्राट का
मामला था, बड़े
प्रलोभन थे।
लाखों रुपए का
कहा गया, आ
गया।
कहते
हैं, सालभर
यह खेल चला।
सम्राट ठीक हो
गया; लेकिन
वह जो खेलने
आया था, वह
पागल हो गया!
वह गरीब आदमी
था। फिर उससे
बड़ा खिलाड़ी
खोजना भी
मुश्किल था।
और उतना वह
पुरस्कार भी
नहीं दे सकता
था। वह पागल
ही मरा।
शतरंज
भी आदमी खेलता
है, तो
भारी तनाव! और
अगर तनाव न हो,
दो आदमी ताश
खेलते हों, तनाव ज्यादा
न रहा हो, तो
खीसे से कुछ
निकालकर दाव
पर लगा लेते
हैं। क्योंकि
ये रुपए जो
हैं, ये
तत्काल किसी
भी खेल को काम
में
परिवर्तित कर
देते हैं। तो
थोड़ा आदमी दाव
लगा लेता है।
थोड़ा ही सही, तो फिर खेल
में रस आ जाता
है।
रस
क्यों आ जाता
है खेल में? खेल में
रस ही नहीं है
आपको, जब
तक कि कर्म न
बन जाए। जब तक
आसक्ति न बने,
तब तक रस
नहीं है। रुपए
के साथ जुड़ते
ही आसक्ति जुड़
जाती है।
रुपया सेतु का
काम कर जाता
है। अनासक्त
कर्म तो एक ही
हो सकता है, जैसे छोटे
बच्चे खेलते
हैं।
बुद्ध
ने कहा है कि
गुजरता था एक
नदी के किनारे
से। बच्चों को
रेत के घर
बनाते देखा, रुककर
खड़ा हो गया।
इसलिए खड़ा हो
गया कि बच्चे भी
रेत के घर
बनाते हैं और
के भी। थोड़ा
इनके खेल को
देख लूं। रेत
के ही घर थे।
हवा का झोंका
आता, कोई
घर खिसक जाता।
किसी बच्चे का
धक्का लग जाता,
किसी का घर गिर
जाता। किसी का
पैर पड़ जाता, किसी का बना—बनाया
महल जमीन पर
हो जाता।
बच्चे लड़ते, गाली देते, एक—दूसरे को
मारते। किसी
ने किसी का घर
गिरा दिया हो,
तो झगड़ा तो
सुनिश्चित
है। सारे झगड़े
ही घरों के
हैं। किसी का
धक्का लग गया,
किसी का घर
गिर गया। किसी
ने बड़ी
मुश्किल से तो
आकाश तक
पहुंचाने की
कोशिश की थी; और किसी ने
चोट मार दी, और सब जमीन
पर गिर गया!
तो
बुद्ध खड़े
होकर देखते
रहे। बच्चे एक—दूसरे
से लड़ते रहे।
झगड़ा होता
रहा। फिर सांझ
होने लगी। फिर
सूरज ढलने
लगा। फिर किसी
ने नदी के
किनारे आकर
जोर से आवाज
लगाई कि तुम्हारी
माताएं
तुम्हारी घर
राह देख रही
हैं; अब
घर जाओ! जैसे
ही बच्चों ने
यह सुना, अपने
ही बनाए हुए
घरों पर कूद—फांद
करके, उनको
गिराकर, वे
घर की तरफ चल
पड़े।
बुद्ध
खड़े थे, देखते रहे।
उन्होंने कहा,
जिस दिन हम
अपने सारे जीवन
को रेत के खेल
जैसा समझ लें,
और जिस दिन
खयाल हमें आ
जाए कि अब यह
खेल समाप्त
हुआ, पुकार
आ गई वहां से
असली घर की, अब उस तरफ
चलें, तो
उस दिन हम भी
इनको गिराकर
इसी तरह चले
जाएंगे। अभी
लड़ रहे थे कि
मेरे घर को
गिरा दिया, अब खुद ही
गिराकर भाग गए
हैं!
बच्चे
जैसे रेत के
घर बनाकर खेल
खेल रहे हों, वैसे ही
जब कोई
व्यक्ति जीवन
को खेल बना ले,
तो अनासक्त
हो जाता है।
परमात्मा के
लिए जीवन एक
खेल है।
ध्यान
रहे, इसलिए
हमने जो शब्द
प्रयोग किया
है, वह है, लीला। उसका
अर्थ है, प्ले।
पृथ्वी
पर किसी दूसरे
धर्म ने जगत
के निर्माण को
लीला नहीं कहा
है। ईसाई
ईश्वर अति
गंभीर है।
इसलिए छ: दिन
में उसने इतना
कठिन काम किया
कि सातवें दिन
विश्राम
किया। ईसाई
ईश्वर की धारणा
है कि संडे जो
है, वह
विश्राम का
दिन है। इसलिए
हाली—डे है, इसलिए
छुट्टी है।
क्योंकि छ:
दिन में ईश्वर
ने दुनिया
बनाई, फिर वह
इतना थक गया, इतना परेशान
हो गया कि
सातवें दिन
उसने विश्राम
किया। वह सातवें
दिन इसीलिए
ईसाई अभी भी
काम करना पसंद
नहीं करता। कि
जब भगवान तक
सातवें दिन
काम नहीं करता,
तो हमें तो
करना ही नहीं
चाहिए!
लेकिन
ईसाई जो धारणा
है ईश्वर की, वह बहुत
सीरियस है, गंभीर है।
तभी तो थक
गया। और ये
कृष्ण कभी
नहीं कहेंगे
कि मैं थकता
हूं। ये कहते
हैं, कल्पों
के बाद भी मैं
हूं। फिर सब
मुझ में लीन
हो जाते हैं, मैं फिर
रचता हूं। ये
फिर मुझ में
लीन हो जाते हैं,
मैं फिर
रचता हूं—एड
इनफिनिटम।
इसका कोई
हिसाब नहीं
है। ये थकते ही
नहीं। इन्होंने
कोई हाली—डे
नहीं मनाया।
इसका कुछ कारण
होगा। ये बहुत
गंभीर नहीं
मालूम पड़ते, नहीं तो थक
जाते।
हिंदू
धारणा ईश्वर
की, गंभीर
धारणा नहीं
है। बहुत
प्रफुल्लित, बहुत खेल
जैसी धारणा
है। इसलिए
हमने जगत को
लीला कहा है।
लीला अनूठा
शब्द है।
दुनिया की किसी
भाषा में इसका
अनुवाद 'नहीं
किया जा सकता।
क्योंकि अगर
हम कहें प्ले,
तो वह खेल
का अनुवाद है।
लीला
परमात्मा के
खेल का नाम
है। और दुनिया
में किसी धर्म
ने चूंकि परमात्मा
को कभी खेल के
रूप में देखा
नहीं, इसलिए
लीला जैसा
किसी भाषा में
कोई शब्द नहीं
है। लीला
अनूठे रूप से
भारतीय शब्द
है। इसका कोई
उपाय नहीं है।
अगर हमें करना
भी हो कोशिश, तो उसको
डिवाइन प्ले।
लेकिन वह शब्द
नहीं बनते।
लीला
काफी है।
उसमें ईश्वर
को जोड़ना नहीं
पड़ता। लीला
शब्द
पर्याप्त है।
उसका मतलब यह
है कि यह सारा
का सारा जो
सृजन है, यह कोई
गंभीर कृत्य
नहीं है। यह
एक आनंद की अभिव्यक्ति
है। यह सारा
जो विकास है, यह कोई सिर—माथे
पर सलवटें पड़ी
हों ईश्वर के,
ऐसा नहीं
है। यह एक
नाचता हुआ, यह एक मौज से
चलता हुआ
प्रवाह है। यह
भारी चिंता
नहीं है, यह
मौज है।
इसे
थोड़ा खयाल में
ले लें, क्योंकि यह
बहुत उपयोग का
है। और जिस
दिन कोई व्यक्ति
अपने जीवन को
भी लीला बना
लेता है, उसी
दिन मुक्त हो
जाता है, उसी
दिन वह
ईश्वरीय हो
जाता है, उसी
दिन वह ईश्वर
हो जाता है।
जब तक
आपका जीवन काम
है, तब
तक आप एक
गुलाम हैं, अपनी ही
चिंताओं के, अपनी ही
गंभीरता के।
अपनी ही
गंभीरता के
पत्थरों के
नीचे दबे जा
रहे हैं। ये
पहाड़ जो आपके
सिर पर हैं, आपकी ही
गंभीरता के
हैं। उतार दें
इन पहाड़ों को।
जीवन को एक
खेल समझें, एक आनंद, तो
फिर सिर पर
कोई बोझ नहीं
है। फिर आप
जीवन से नाचते
हुए गुजर सकते
हैं। फिर आपके
होंठ पर भी
बांसुरी हो
सकती है। फिर
आपके प्राण
में भी गीत हो
सकता है। और
जिस दिन आपके_
प्राण में
भी यह लीला का
भाव उदय होगा,
उस दिन आप
इस सूत्र को
समझ पाएंगे कि
यह पूरा का
पूरा जगत उस
परमात्मा के
लिए भी लीला
है।
और
ध्यान रहे यह
जगत इतना
सुंदर इसीलिए
है कि उस
परमात्मा के
लिए लीला है।
यह इतना सुंदर
नहीं हो सकता, अगर यह
उसके लिए काम
हो। सभी काम
कुरूप हो जाते
हैं। सभी काम
कुरूप हो जाते
हैं।
एक
नर्स एक बच्चे
की सेवा करती
है, तब
वह काम होता
है, और एक
मां जब अपने
बच्चे को
खिलाती है, तब वह खेल
होता है, वह
लीला होती है,
काम नहीं
होता। वह उसका
आनंद है।
इसलिए जब एक मां
अपने बच्चे के
साथ खेल रही
होती है, तब
एक अनूठा
सौंदर्य
प्रकट होता
है। और जब एक नर्स
भी उस बच्चे
के साथ खेल
रही होती है, तब एक कुरूपता
प्रकट होती
है। उस
कुरूपता का
कारण नर्स
नहीं है, बच्चा
नहीं है, उस
कुरूपता का
कारण काम है।
जिस जगह भी
काम आ जाएगा, वहीं चित्त
उदास हो जाता
है। और जहां
खेल आ जाता है,
वहीं चित्त
नृत्य से भर
जाता है।
लेकिन
अगर हम अपने
महात्माओं की
तरफ देखें, तो हमें
शक होगा। इनको
देखें अगर हम,
तो हमें
लगेगा, ये
तो भारी उदास
हैं! अगर
इन्हीं
महात्माओं की
तरफ से
परमात्मा की
तरफ जाना हो, तो हमें
मानना चाहिए,
परमात्मा
तो सतत रो ही
रहा होगा!
महात्मा ही अगर
उसका दरवाजा
हैं, तो ये
महात्मा तो
ऐसे मरे हुए
बैठे हैं कि
जीवन की कोई
पुलक इनमें
मालूम नहीं
होती। ये तो
अपने भीतर
जैसे मरघट लिए
हुए हैं, ताबूत
हैं, कब्रें
हैं।
जीसस
ने इस शब्द का
उपयोग किया
है। जीसस ने
कहा है कि ये
धर्मगुरु! तुम
सफेद ताबूत
हो। तुम पुती—पुताई
सफेद कब्रें
हो। तुममें जो
स्वच्छता दिखाई
पड़ रही है, वह केवल
ऊपर की पुताई
है, भीतर
तुम सड़ी हुई
लाशें हो।
महात्मा
का उदास होना
जरूरी है।
महात्मा हंसता
हुआ मिले, तो भक्त
चले जाएंगे।
क्योंकि
महात्मा में
हम प्रफुल्लता
देखने को राजी
नहीं हैं।
हमने धर्म को
एक गंभीर
कृत्य बना
लिया है। हमने
धर्म को इतना
गंभीर कृत्य
बना लिया है
कि उसमें ईश्वरीय
तत्व तो विलीन
ही हो जाएगा।
इसलिए
आज अगर कृष्ण
जैसा आदमी
हमारे बीच हो, तो आप यह
मत सोचना कि
आप कृष्ण के
पैर छू सकोगे।
आप नहीं छू
सकोगे।
क्योंकि अगर
यह कृष्ण चौरस्ते
पर खड़े होकर
चौपाटी पर
बांसुरी
बजाता मिल जाए,
तो आप पुलिस
में खबर
करोगे! आप
कहोगे, यह
हमारा कृष्ण
नहीं है। यह क्या
बात है! कृष्ण
और बांसुरी
बजा रहे हैं? वह तो आप
किताब में पढ़
लेते हो, तो
टाल जाते हो।
यू कैन
टालरेट। अगर
चौपाटी पर
बजाए, तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
क्योंकि
हम सबकी आदत
मुर्दा
महात्माओं को
देखने की हो
गई है। जितना
मरा हुआ आदमी
हो, उतना
बड़ा महात्मा
मालूम होता
है। जीवन की
जरा—सी पुलक
दिखाई न पड़े।
और क्षुद्रतम
बातों को भी
वह गंभीरता दे
देता है। और
कृष्ण जैसे
व्यक्ति
विराटतम
बातों को भी
गैर—गंभीर
आनंद दे देते
हैं।
क्षुद्रतम
बातों को! वह
पूछेगा कि यह
खाना कितनी
देर का बना है?
यह
ब्राह्मण ने
बनाया है कि
नहीं बनाया? इसको किसी
स्त्री ने तो
नहीं छू दिया?
यह
महात्मा है!
यह खाने तक को
प्रफुल्लता
से नहीं ले
सकता। यह खाने
में भी गणित
रखता है! यह पूछता
है कि घी
कितने पहर का
है? इतने
पहर से ज्यादा
हो गया, तो
फिर घी नहीं
ले सकता! यह
दूध गाय का है
कि नहीं?
यह जो
बुद्धि है, यह जीवन
को लीला नहीं
बना सकती। यह
जीवन को अति
गंभीर बना
देती है। अगर
एक स्त्री
बैठी हो, उठ
जाए, तो यह
महात्मा
पूछेगा, स्त्री
को उठे हुए इस
जमीन से कितनी
देर हुई? क्योंकि
उसके हिसाब
हैं, गणित
हैं, कि
स्त्री जब
यहां से उठ
जाए, तब
इतनी देर तक
भी उसका
प्रभाव उस
जमीन के टुकड़े
पर रहता है।
तो तब तक
महात्मा वहा
नहीं बैठेगा।
अगर आप रुपया
महात्मा को देंगे,
तो वह अपने
हाथ में नहीं
लेगा; छोड़
भी नहीं सकता।
वह एक शिष्य
को साथ में
रखेगा, उसको
दिलवाएगा!
क्योंकि
रुपया लेना
पाप है। लेकिन
बिना रुपए लिए
भी नहीं चल
सकता, तो
यह पाप दूसरे
से करवाता
रहेगा!
ये जो
गुरु—गंभीर
लोग हैं, हिंदू धर्म
के प्राण
इन्होंने ले
डाले। हिंदू
धर्म जमीन पर
अकेला हंसता
हुआ धर्म था
और जिसमें
हंसने की
प्रगाढ़
क्षमता थी।
उदासी जिसका
लक्ष्य न था, आनंद जिसका
गंतव्य था।
लेकिन मूल
सूत्र खो जाते
हैं। और अक्सर
ऐसा होता है
कि हम वही
करने लगते हैं,
जो हम करना
चाहते हैं।
जीवन
को लीला की
दृष्टि से
देखा जा सके, तो कृष्ण
का यह सूत्र
आपको स्पष्ट
हो जाएगा कि
कैसे कोई जीवन—शक्ति
इतने विराट
जाल को रचते
हुए दूर खड़े
रहकर देख सकती
है, अनासक्त!
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, यह
मुझे बांधता
नहीं है।
क्योंकि
बांधती है
आसक्ति, कर्म
नहीं। और अगर
कर्म अनासक्त
हो, तो
बंधन नहीं
होता है।
शेष हम
कल बात
करेंगे।
लेकिन
पाँच मिनट
रूकें। कोई
उठे न। देखें
पहले भी अपको कहा
है कि बीच से
जिन लोगों को
उठना हो, वे कल से
बीच में
बिलकुल न
बैठें। वे
बाहर रहें।
बीच से उठकर
कल से कोई
जाएगा, तो
आप जो पास में
बैठे हैं, उसको
बिठालें, लीलापूर्वक!
उससे कहें कि
बैठ जा! पांच
मिनट कीर्तन
में सम्मिलित
हों, फिर
विदा हों।
thank you guruji
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