सूत्र :
जीवतो
यस्य कैवस्यं
विंदेहोऽयि स
केवल:।
समाधिनिष्ठतामेत्य
निर्विकल्पो
भवानध।। 16।।
ओं' अज्ञानहदयग्रन्धेर्नि:
शेषीवलयस्तदा।
समाधिन।ऽविकल्पेन
यदापुद्वैतल्मदर्शनम्।।
17।।
अत्रात्मन्वं
दृढीकुर्वन्नहमादिषु
संत्यजन्।
उदासीनतय।
तेषु
तिष्ठेद्घटपटादिवत्।।
18।।
च्छादिस्तम्स
पर्यन्त
मृषामात्रा
उपनय:।
ततः
पूर्ण
स्यात्मनं
पश्येदेकल्मना
स्थितम्।। 19।।
स्वयं
च्छा स्वयं
विष्णु:
स्वयीमन्त्र:
स्वयम् शिव:।
स्वयं
विश्वमिदं
सर्व
स्यस्मादन्यन्न
किंचन्।। 20।।
जिसको
जीवित—अवस्था
में ही कैवल्य
(ब्रह्मनिष्ठा
) प्राप्ति हो
गई है, वह देहरहित
होने पर भी
ब्रह्म रूप ही
रहेगा। इसलिए
हे निर्दोष!
समाधिनिष्ठ
होकर विकल्पों
से शून्य बन।
जिस समय
निर्विकल्प
समाधि द्वारा
आत्मा का दर्शन
होता है, उसी समय
हृदय की
अशानरूप गांठ
का पूर्णत:
नाश होता है।
आत्मा के
ऊपर ही आत्म—भाव
को दृढ़ करके
अहंकार आदि के
ऊपर वाले आत्म—
भाव का त्याग
करना। घड़ा, वस्त्र
आदि पदार्थों
से जिस प्रकार
उदासीन भाव से
रहा जाता है, उसी प्रकार
अहंकार आदि की
तरफ से भी उदासीन
भाव से रहना।
ब्रह्मा से
लेकर खंभ तक
की सब उपाधिया
झूठी हैं, इसलिए एक
स्वरूप में
रहने वाले
अपने पूर्ण आत्मा
का ही सर्वत्र
दर्शन करना।
स्वयं ही
ब्रह्मा, स्वयं
विष्णु, स्वयं
इंद्र, स्वयं
शिव, स्वयं
जगत और स्वयं
ही सब कुछ है, स्वयं से
भिन्न कुछ भी
नहीं है।
जीवन
में जो भी
पाने योग्य है, वह जीवन
में ही पाया
जा सकता है।
लेकिन बहुत
लोग मृत्यु के
पार की
प्रतीक्षा करते
रहते हैं।
बहुत लोग
सोचते हैं कि
देह में, जीवन
में, संसार
में रह कर
कैसे पाया जा
सकता है सत्य
को, ब्रह्म
को, मुक्ति
को! लेकिन जो
जीवन में नहीं
पाया जा सकता
वह कभी भी
नहीं पाया जा
सकता है। जीवन
तो एक अवसर है
पाने का, चाहे
पत्थर जुटाने
में समाप्त कर
दें और चाहे परमात्मा
को पाने में।
जीवन तो
बिलकुल तटस्थ
अवसर है। जीवन
आपसे कहता
नहीं, क्या
पाएं। कंकड़—पत्थर
बीने, व्यर्थ
की चीजें
संगृहीत करें,
अहंकार को
बढाने में, अहंकार को
फुलाने में
समाप्त कर दें,
तो जीवन
रोकेगा नहीं
कि मत करो ऐसा।
और चाहें तो
सत्य को, स्वयं
को, जीवन
की जो
आत्यंतिक
गहराई है उसको
पाने में लगा
दें, तो भी
जीवन बाधा
नहीं डालेगा
कि मत करें
ऐसा। जीवन
सिर्फ अवसर है
तटस्थ, जो
भी उपयोग करना
चाहें कर लें।
लेकिन
बहुत लोगों ने
अपने को धोखा
देने का इंतजाम
कर रखा है। वे
सोचते हैं, जीवन तो
है संसार के
लिए। ऐसे
विभाजन
उन्होंने बना
लिए हैं। जीवन
तो है भोग के
लिए। तो फिर
मृत्यु ही बच
जाती है योग
के लिए। लेकिन
मृत्यु अवसर
नहीं है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
मृत्यु है
अवसर की
समाप्ति।
मृत्यु का
अर्थ क्या
होता है? मृत्यु का
अर्थ है कि अब
कोई अवसर न
बचा। जीवन है
अवसर, मृत्यु
है अवसर की
समाप्ति।
इसलिए मृत्यु
से तो कुछ भी
पाया नहीं जा
सकता है, पाने
के लिए अवसर
चाहिए।
हमने
बांट रखा है।
हम कहते हैं, जीवन है भोग
के लिए। फिर
जब जीवन रिक्त
हो जाएगा, तब
तब योग। हमने
ऐसी कहानियां
गढ़ रखी हैं कि
मरते आदमी को
कान में —जब कि
उसे सुनाई भी
नहीं पड़ेगा, क्योंकि
जिंदों को
सुनाई नहीं
पड़ता, तो
मुर्दों को
कैसे सुनाई
पड़ता होगा—मरते
हुए आदमी के
कान में
गायत्री पढ दो,
कि प्रभु का
नाम ले दो, कि
राम—राम की
रटन लगा दो।
जो जिंदगी भर
न सुन पाया
गायत्री, सुना
तो भी नहीं
सुन पाया, सुना
तो भी समझ
नहीं पाया, वह मरते
वक्त, जब
कि इंद्रियां जवाब
दे रही होगी—आंखें
देखेंगी नहीं,
कान
सुनेंगे नहीं,
हाथ छुएंगे
नहीं—जब कि
प्राण लीन हो
रहे होंगे बीज
में, तब वह
गायत्री सुन
पाएगा?
वह
तो नहीं सुन
पाएगा। लेकिन
फिर लोग क्यों
सुनाए चले जा
रहे हैं? इसमें भी
राज है। वह
मरता हुआ आदमी
कुछ नहीं सुन
पाता, लेकिन
जो जिंदा सुना
रहे हैं, उनको
यह आश्वासन
बना रहता है
कि मरते वक्त
कोई हमें भी
सुना देगा और
काम हो जाएगा!
उन्होंने
कहानियां गढ
रखी हैं! इन
बेईमानों ने
कहानियां गढ़
रखी हैं। वे
कहते हैं, एक आदमी
मर रहा था, उसके
बेटे का नाम
नारायण था।
उसने जोर से
पुकारा, नारायण!
वह नारायण जो
ऊपर हैं, धोखे
में आ गए! वह
अपने बेटे को
अपनी तरकीबें
बताने जा रहा
था कि ब्लैक
मार्केट कैसे
करना! दूसरा
खाता कैसे
रखना! वह यह
समझाने के लिए
बुला रहा था।
वह स्वर्ग
पहुंच गया, बैकुंठ! वह
खुद भी चौंका
कि यहां कैसे
आ गए! लेकिन
नारायण का नाम
जो ले लिया था!
ऐसे
सस्ते काम
नहीं चलेगा।
और जो नारायण
ऐसे धोखे में
आता हो, समझना वह भी
धोखे का ही
नारायण होगा।
जीवन में धोखे
नहीं चलते, अपने मन को
समझाने की बात
और है।
मृत्यु
है अवसर की
समाप्ति, इस अर्थ को
ठीक से समझ
लें। मृत्यु
कोई अवसर नहीं
है और जिसमें
आप कुछ कर पाएंगे।
मृत्यु है सब
अवसर का नष्ट
हो जाना, आप
कुछ भी न कर
पाएंगे। करने
का कोई उपाय
ही मृत्यु में
नहीं है। करने
का अर्थ है
जीवन। इसलिए
जो भी करना हो,
वह जीवन में
ही कर लेने का
है।
यह
सूत्र कुछ
बहुमूल्य
शब्दों का
प्रयोग करता
है।
'जिसको जीवित
अवस्था में ही
कैवल्य की
प्राप्ति हो
गई है, वह
देहरहित होने
पर भी
ब्रह्मरूप
रहेगा। ' जिसने
जीवन में ही
जान लिया है
अपने स्वरूप
को, वही
केवल, जब
देह गिरेगी, तो
ब्रह्मरूप
रहेगा।
क्योंकि
जिसने जीवन भर
जाना हो कि
मैं देह हू र
मरते वक्त
मूर्च्छित हो
जाएगा, पूरी
मूर्च्छा में
आ जाएगा।
मृत्यु बहुत
कम लोगों की
जागते हुए
होती है।
मृत्यु होती
है सोते हुए, ग्रच्छइrत,
बेहोश। आप
होश में नहीं
रहते मरते
वक्त, नहीं
तो आपको पिछली
मृत्यु का
स्मरण रहता।
बेहोशी में जो
घटता है, उसका
स्मरण नहीं
रहता।
इसीलिए
तो लोगों को
पता नहीं कि
वे बहुत बार जन्मे
हैं और बहुत
बार मर चुके
हैं; क्योंकि
जब भी मरे, तब
बेहोश थे। और
जो बेहोश मरता
है, वह बेहोश
जन्मता है।
क्योंकि
मृत्यु और
जन्म एक ही
चीज की दो
घटनाएं हैं।
इधर एक आदमी
मरता है, यह
एक छोर हुआ; फिर वही
आदमी एक गर्भ
में प्रवेश
करता है, वह
दूसरा छोर हुआ।
मृत्यु और
जन्म, वे
एक ही चीज के, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जो
बेहोश मरता है,
वह बेहोश
जन्मता है।
इसलिए
आपको यह भी
पता नहीं है
कि आप पहले
कभी मरे थे।
और आपको यह भी
पता नहीं है
कि आप जन्मे
हैं। यह जन्म
की खबर भी
दूसरों ने
आपको दी है।
अगर कोई आपको
बताने वाला न
हो कि आप
जन्मे हैं, आपको कोई
स्मरण नहीं
आएगा कि आप
जन्मे हैं।
यह
बड़े मजे की
बात है। आप
जन्मे हैं, इतना तो
पक्का है।
पीछे मरे हों,
न मेरे हों;
पीछे मरना
हुआ हो या न
हुआ हो, लेकिन
आप अभी जन्मे
हैं, इतना
तो पक्का है।
लेकिन उसकी भी
आपको कोई
स्मृति नहीं
है। यह भी मां—बाप
कहते हैं, और
लोग कहते हैं,
उनसे आपने
सुना है।
आपके
खुद के जन्म
की खबर भी
अफवाह है।
उसका भी कोई
प्रमाण नहीं
है आपके पास।
आपकी चेतना
में कोई स्मरण
नहीं है। क्या
होगा कारण
इसका g: आप
जन्मे, बड़ी
घटना घटती है
जन्म की। उस
बड़ी घटना का
आपको कोई पता
नहीं है।
ध्यान
रखना, जिसको
अपने जन्म का
पता नहीं है, मरते वक्त
बहुत मुश्किल
होगा उसको पता
रखना। जुड़ी
हैं दोनों
बातें।
मृत्यु घटी है
बहुत बार, लेकिन
आप बेहोश मरे
हैं।
मृत्यु
को छोड़ दें।
रोज आप सोते
हैं। सोने की
घटना तो रोज
घटती है।
लेकिन आपको
पता है कि जब
नींद आती है, तब उसके
पहले ही आपका
होश खो जाता
है। आपको नींद
से मिलने की
कोई खबर है? जब नींद उतरती
है तो क्या आप
देख पाते हैं
कि नींद उतर
रही है? जब
तक आप देख
पाते हैं तब
तक समझना आप
जागे हुए हैं,
अभी नींद
उतरी नहीं। और
जब नींद उतर
जाती है तब आप
खो जाते हैं।
नींद के उतरते
ही आप बेहोश
हो जाते हैं '। जब नींद तक
में होश नहीं
संभलता तो मौत
में कैसे होश
संभलेगा? मौत
तो बड़ी प्रगाढ़
निद्रा है, गहनतम
निद्रा है; उसमें होश
संभालना
मुश्किल है।
आप बेहोश
मरेंगे। उस
बेहोशी में
कौन गायत्री
पढ़ रहा है, कौन
राम—राम जप
रहा है, आपको
कुछ भी पता
नहीं चलेगा।
और
बेहोशी जरूरी
है। सिर्फ वे
ही लोग इस
बेहोशी से
मुक्त होते
हैं, जो
देह—भाव से
मुक्त हो जाते
हैं। क्यों? एक सर्जन
आपके पेट का
आपरेशन कर रहा
हो तो आपको
बेहोश करना
पड़ेगा; क्योंकि
इतनी पीड़ा
होगी, उस
पीड़ा को आप सह
न पाएंगे। न
सह पाएंगे, चीखेंगे, चिल्लाएंगे,
आपरेशन
मुश्किल हो
जाएगा। इतनी
पीड़ा होगी कि
आप विक्षिप्त
हो सकते हैं।
फिर कभी
मस्तिष्क
दुबारा ठीक न
हो। इसलिए
सर्जन
अनेस्थेसिया
देता है। पहले
आपको बेहोश कर
देता है, फिर
काट—पीट कर
देता है। आपका
ही शरीर कटता
है, लेकिन
तब आपको पता
नहीं होता। जब
पता ही नहीं
होता, तो
पीड़ा नहीं
होती।
समझ
लें इस बात को।
पता होने से
पीड़ा होती है, पीड़ा
होने से पीड़ा
नहीं होती।
पीड़ा तो हो
रही है, सर्जन
काट रहा है, लेकिन आपको
पता नहीं चल
रहा, बस।
काट—पीट कर
अलग कर देगा, आपको पता
नहीं चलेगा।
होश जब आएगा, तभी पीड़ा का
पता चलेगा। और
जब पता चलेगा
तभी पीड़ा मालूम
होगी कि हो
रही है। अगर
बेहोशी में
आपके कोई अंग—
अंग काट डाले,
बिलकुल
टुकडे —टुकड़े
कर दे, तो
भी आपको पता
नहीं चलेगा।
सर्जन
छोटा सा
आपरेशन करता
है, मृत्यु
तो बहुत बड़ा
आपरेशन है।
मृत्यु से बड़ा
कोई आपरेशन
नहीं है।
सर्जन तो एकाध
अंग काटता है,
मृत्यु तो
आपके पूरे
शरीर को आपसे
काट कर अलग
करती है। तो
आपको होश में
रखा नहीं जा
सकता। इसलिए
मृत्यु सदा से
प्राकृतिक
अनेस्थेसिया
का उपयोग करती
है। जैसे ही
मृत्यु आती है,
आप बिलकुल
बेहोश हो जाते
हैं। उस
बेहोशी में इस
जगत का सबसे
बड़ा आपरेशन, सबसे बड़ी
सर्जरी, शल्य—चिकित्सा
घटित होती है
कि आपका शरीर
और आपकी आत्मा
अलग कर लिए
जाते हैं।
लेकिन
वह आदमी होश
में मर सकता
है, प्रकृति
उसको छूट देती
है होश में
मरने की, जो
आदमी यह जान
लेता है कि
मैं देह नहीं
हूं। क्यों g: क्योंकि तब
देह कटती है, तो भी वह
नहीं जानता कि
मैं कटता हूं।
वह दूर खड़ा
देखता रहता है।
वह दूर खड़ा
देखता रहता है,
क्योंकि वह
मानता है कोई
और कट रहा है।
मैं नहीं कट
रहा हूं र मैं
देख रहा हूं र
मैं सिर्फ
साक्षी हूं।
ऐसी प्रतीति
जिसकी गहन हो
जाती है, प्रकृति
उसको अवसर
देती है कि वह
होशपूर्वक मरता
है।
लेकिन
यह घटना बहुत
बाद में घटती
है, पहले
तो होशपूर्वक
सोना सीखना
पड़ता है। पर
वह भी देर से
घटती है, पहले
तो होशपूर्वक
जगना सीखना
होता है।
होशपूर्वक जो
जगत। है, धीरे—धीरे
होशपूर्वक
सोता है।
होशपूर्वक जो
जीता है, एक
दिन
होशपूर्वक
मरता है। जो
होशपूर्वक
मरता है, वही
जान पाता है
कि मैं
ब्रह्मरूप हो
गया। लेकिन
इसे तो पहले
अपने ही शरीर
में छिपी हुई चेतना
के अनुभव में
जानना होता है।
फिर एक दिन यह
घड़ा भी टूटता
है और भीतर का
आकाश विराट
आकाश में लीन
होता है।
जो
होशपूर्वक
मरता है, वह बड़े
अदभुत अनुभव
से गुजरता है।
मृत्यु उसके
लिए शत्रु
नहीं मालूम
होती। मृत्यु
मालूम होती है
मित्र।
मृत्यु मालूम
होती है एक
बड़ा सम्मिलन
परमात्मा से,
विराट से।
जो होशपूर्वक
मरता है, वह
होशपूर्वक
जन्मता भी है।
जो होशपूर्वक
जन्मता है, उसका जीवन
दूसरा ही हो
जाता है।
क्योंकि फिर
वह वही नहीं दोहराता
जो उसने बार—बार
पहले दोहराया
है। वह सब
मूढ़ता हो जाती
है, व्यर्थ
हो जाता है।
उसका जीवन नया
हो जाता है।
उसका जीवन नए
आयाम में
प्रवेश करता
है। और साक्षी
उसका निरंतर
बना रहता है।
जो जन्म के
वक्त भी
साक्षी था, जो मृत्यु
के समय भी
साक्षी था, फिर उसका
पूरा जीवन
साक्षी हो
जाता है।
तो
एक मृत्यु में
ही आप
होशपूर्वक मर
सकते हैं, और एक
जन्म आपका
होशपूर्वक हो
सकता है, उसके
बाद फिर जन्म
और मृत्यु की
प्रक्रिया समाप्त
हो जाती है।
उसके बाद आप
शरीरों के जगत
से तिरोहित हो
जाते हैं। यह
जो तिरोहित
होना है, इसके
लिए हमने एक
बहुत कीमती
शब्द भारत में
खोज रखा है, वह शब्द है
कैवल्य। बड़ा
अदभुत शब्द है।
कैवल्य का
अर्थ है, मैं
अकेला हू। मैं
ही हू र और कुछ
भी नहीं है।
केवल मैं, केवल
चैतन्य, केवल
आत्मा, और
कुछ भी नहीं
है। केवल
द्रष्टा, केवल
साक्षी, और
कुछ भी नहीं
है। और सब खेल
है, और सब
स्वप्न है, सत्य केवल
एक साक्षी
चेतना है। जो
देख रहा है
वही सत्य है, जो दिखाई पड़
रहा है वह
सत्य नहीं है—कैवल्य
इस अनुभव का
नाम है।
इसे
हम थोड़ा समझें।
आप बच्चे थे, फिर आप
जवान हो गए, फिर आप बूढे
हो गए। बचपन
चला गया, जवानी
आ गई। जवानी
चली गई, बुढ़ापा
आ गया। तब तो
आप एक बदलाहट
हैं। बचपन
रुकता नहीं, जवानी रुकती
नहीं, बुढ़ापा
रुकता नहीं, सब चीजें
बदल जाती हैं।
पर कोई आपके
भीतर ऐसा भी
तत्व है जो
नहीं बदलता?
दुखी
थे, फिर
सुखी हो गए।
सुखी थे, फिर
दुखी हो गए। शांत
थे, अशांत
हो गए। अशांत
थे, शांत
हो गए। सब बदल
जाता है। धनी
थे, दरिद्र
हो गए। दरिद्र
थे, धनी हो
गए। सब बदल
जाता है।
लेकिन क्या
कोई एक तत्व
आपके भीतर ऐसा
भी है जो नहीं
बदलता?
अगर
ऐसा कोई तत्व
नहीं है तो आप
हैं ही नहीं।
आपके होने का
क्या मतलब है? फिर आपके
बचपन, आपकी
जवानी, आपके
बुढ़ापे को कौन
जोड़ेगा सूत्र की
तरह? जैसे
माला के मनके
पिरोए होते
हैं एक धागे
में, तो ही
माला है। अगर
धागा न हो
भीतर पिरोने
वाला, मनके
ही मनके हों, तो माला तो
होगी नहीं, बिखर जाएंगे
मनके।
आपका
बचपन टंगा है
एक मनके की
तरह, आपकी
जवानी टंगी है
एक मनके की
तरह, आपका
बुढ़ापा टंगा
है एक मनके की
तरह—धागा कहां
है जिस पर ये
मनके टंगे हैं?
और एक कंटिन्यूटि,
एक सातत्य,
वह सातत्य
कहां है? वह
सातत्य ही
सत्य है, बाकी
तो सब बदल
जाता है।
भारत
की परिभाषा यह
है कि जो बदल
जाता है उसे हम
स्वप्न कहते
हैं। इसे ठीक
से समझ लें।
हमारे
स्वप्न की
अपनी परिभाषा
है। जो बदल
जाता है उसे
हम स्वप्न
कहते हैं, और जो कभी
नहीं बदलता
उसे हम सत्य
कहते हैं। तो
बचपन तो चला
जाता है सपने
की तरह, जवानी
चली जाती है
सपने की तरह; सुख आता है, खो जाता है; दुख आता है, खो जाता है।
जैसे सपना
मिटता जाता है,
ऐसे ही सब
मिटता जाता है।
इसलिए भारत
कहता है, यह
विराट सपना है
जो बाहर फैला
हुआ है।
दो
तरह के सपने
हैं। एक निजी
सपने हैं जो
रात आप सोते
में देखते हैं, और एक
सार्वजनिक
सपने हैं जो
आप जाग कर दिन
में देखते हैं।
उनमें कोई
फर्क नहीं है,
क्योंकि
दोनों बदल
जाते हैं। रात
का सपना सुबह
झूठ हो जाता
है; जिंदगी
का सपना मौत
में झूठ हो
जाता है। एक
घड़ी आती है, जो देखा था
वह व्यर्थ हो
जाता है। तब
सत्य है कुछ
या नहीं?
लेकिन
स्वप्न के
होने के लिए
भी सत्य का
आधार चाहिए।
परिवर्तन के
लिए भी कोई
आधार चाहिए जो
बदलता न हो, नहीं तो
परिवर्तन भी
असंभव है। वह आधार
कहा है हमारे
भीतर? ऋषि
का सूत्र कहता
है, साक्षी—
भाव आधार है।
बचपन
को देखा आपने, बचपन बदल
गया, लेकिन
देखने वाला जो
आपके भीतर है,
वह नहीं
बदलता। फिर
जवानी आई, जवानी
देखी आपने; फिर जवानी
भी चली गई; लेकिन
जिसने देखी वह
नहीं बदलता।
उसी ने बचपन
देखा, उसी
ने जवानी देखी,
उसी ने
बुढ़ापा देखा,
उसी ने जन्म
देखा, उसी
ने मृत्यु
देखी; उसी
ने सुख, उसी
ने दुख, उसी
ने सफलता, उसी
ने असफलता, सब बदलता
जाता है, सिर्फ
एक जो देखता
रहता है, सबका
अनुभव करता
रहता है, वह
भर नहीं बदलता।
उस सूत्र को
ही हम आत्मा
कहते हैं; वही
सत्य है। इस
एक को, न
बदलने वाले को
जान लेना
कैवल्य है।
जिस
दिन कोई
व्यक्ति इन
सपनों से अपने
को हटा कर, मनकों से
हटा कर इस
धागे के साथ
अपने को जान
लेता है कि
मैं यह धागा
हू; यह सतत
चैतन्य, यह
सतत साक्षी—
भाव, यही
मैं हूं; बस
यह चैतन्य ही
मैं हूं र ऐसी
प्रतीति जब
सघन अनुभव बन
जाती है—विचार
नहीं, अनुभव;
शब्द नहीं,
प्रतीति—ऐसा
जब भासने लगता
है, तो उसे
हम कहते हैं, वह व्यक्ति
कैवल्य को
उपलब्ध हो गया।
उसने उस एक को
जान लिया, जो
जानने योग्य
है। उसने उस
एक को पा लिया,
जो पाने
योग्य है।
और
उस एक को पाकर
वह सब पा लेता
है, और
हम उस एक को
खोकर सब खो
देते हैं।
सपनों को
पकड़ते हैं, पकड़ भी नहीं
पाते कि सपने
खो जाते हैं, मुट्ठी खाली
रह जाती है।
रात देखा कि
सम्राट हो गए
हैं, सुबह
उठ कर पाते
हैं कि मुट्ठी
खाली है।
जिंदगी में
देखा, यह
हो गए, वह
हो गए, मरते
वक्त पता चलता
है मुट्ठी खाली
है। पकड़ा था
जिन्हें, मुट्ठी
बांधी थी
जिनके ऊपर, वे ऐसे ही खो
गए जैसे कोई
हवा को मुट्ठी
में बांधे।
मुट्ठी बंध
जाती है, हवा
खो जाती है।
सब सपना सिद्ध
होता है।
'ध्यान रखें,
सपने से
हमारा मतलब ही
इतना है कि
जहां—जहां
परिवर्तन है,
जहां—जहां
बदलाहट है, वहां—वहां
सत्य नहीं है।
जो सदा
अपरिवर्तित
एकरूप है, वह
क्या है? इस
जगत में खोजते
रहें, कहीं
भी वह एकरूप
रहने वाला
सत्य नहीं
मिलेगा। अपने
में खोजेंगे,
तभी
द्रष्टा—भाव
में मिलेगी वह—वह
सूत्रबद्धता,
वह सातत्य
जो एक है। इसे
कहा कैवल्य।
इस एक को जान
लेना, देह
रहने पर ही, तो फिर देह
के गिरते ही
ब्रह्मरूप
अनुभव होता है।
'हे निर्दोष!
इसलिए
समाधिनिष्ठ
होकर विकल्पों
से शून्य बन।'
कैसे
जान पाएंगे हम
उस एक को? प्रक्रिया
है : 'विकल्पों
से शून्य बन। '
यह
विकल्प शब्द
भी समझ लेने
जैसा है।
विकल्प का
मतलब है, जिन—जिन
चीजों का विपरीत
होता है, वे
विकल्प हैं।
जैसे सुख, तो
उसका विपरीत
होता है दुख।
अगर आप सुख
चाहते हैं, तो दुख मिलेगा।
वह आपको झेलना
ही पडेगा। वह
कीमत है, जो
सुख पाने के
लिए चुकानी
पडती है। अगर
आप चाहते हैं
प्रेम, तो
घृणा झेलनी
पड़ेगी, वह
कीमत है। अगर
आप चाहते हैं
सफलता, तो
असफलता आपके
हाथ आएगी ही।
वह सफलता की
छाया है, उसी
के साथ आ जाती
है। विकल्प का
अर्थ है, द्वंद्व
का जगत—जहां
हर चीज दो है, और एक को
चाहो तो दूसरे
में फंस जाना
पड़ता है।
जिसने एक को
चाहा, वह
दूसरे में
उलझेगा ही, बचने का कोई
उपाय नहीं है।
बचने का एक ही
उपाय है कि
दोनों को छोड़
दो, न्त्रिकल्पशन्य
बन जाओ। उसका
अर्थ है, जहां
—जहां द्वंद्व
है, वहां —वहां
चुनाव मत कर, चुनाव छोड
दे।
इसे
थोड़ा समझ लें, क्योंकि
यह गहरे ले
जाने वाली बात
है। जहां—जहां
दो हो सकते
हैं, जहां —जहां!
उनगर आप शांति
चाहते हैं, तो आप अशांति
में फंसते
रहेंगे। बड़ा
कठिन लगेगा यह
मामला, क्योंकि
सुख—दुख का
समझ में आ
जाता है, सफलता—असफलता,
मान—अपमान
का समझ में आ
जाता है; शांति
और अशांति भी!
मामला वही है,
द्वंद्व का।
इतना ही नहीं,
अगर आप
मुक्ति चाहते
हैं, तो आप
बंधन में
रहेंगे, क्योंकि
द्वंद्व तो
वही है।
विकल्प तो बन
जाता है; विपरीत
खड़ा हुआ है
सामने।
तो
जो आदमी कहता
है कि मुझे
मुक्ति चाहिए, वह फंस
जाएगा।
मुक्ति तो
मिलती है उसको,
जो द्वंद्व
में चुनाव
नहीं करता। शांति
मिलती है उसको,
जो द्वंद्व
में चुनाव
नहीं करता; जो मांगता
नहीं कि मुझे शांति
चाहिए, जो
कहता है, शांति
हो कि अशांति,
मुझे दोनों
में कोई चुनाव
नहीं करना है;
वह आदमी
शांत हो जाता
है। प्रेम का
फूल खिलता है
उसके जीवन में,
जो प्रेम को
घृणा के
विपरीत चुनता
नहीं; जो
कहता है, न
मुझे प्रेम, न मुझे घृणा;
मैं दोनों
के प्रति
उदासीन हूं; दोनों मुझे
क्षमा कर दें;
मैं दोनों
में नहीं पड़ना
चाहता। उसके
जीवन में
प्रेम का फूल
खिलता है।
जहां—जहां
द्वंद्व है, जहां—जहां
विकल्प है, जहां—जहां
चुनाव की
सुविधा है, वहा चुनना
मत। पर हम सदा
चुनते हैं! और
हमें कभी खयाल
नहीं आता कि
जो हम चुनते
हैं, वही हमारा
उलझाव है। जब
आप चुनते हैं
सुख, तब
आपको खयाल में
भी नहीं है कि
आपने दुख चुन
लिया, दुख
आ गया; दुख
ने भी आपके
द्वार से
प्रवेश कर
लिया। क्यों?
प्रक्रिया
समझ लें।
मैं
चाहता हूं सुख
मिले। कई
बातें घट गईं
इस चाह में।
एक तो यह कि
मैं दुखी हूं।
सिर्फ दुखी ही
सुख को चाहता
है। सुखी सुख
को क्यों
चाहेगा! हम
वही मांगते
हैं जो हमारे
पास नहीं है।
जो हमारे पास
है उसे हम कभी
नहीं मांगते।
इसीलिए तो दुख
को कोई भी
नहीं मांगता, क्योंकि
दुख सबके पास
है। सुख को
लोग मांगते
हैं, क्योंकि
उनके पास नहीं
है।
तो
जिस दिन आप
कहते हैं सुख
चाहिए, उस दिन एक
बात तो आपने
यह बता दी कि
आप दुखी हैं।
दूसरी बात, जो भी सुख आप
मांग रहे हैं,
अगर वह न
मिला, तो
और घने दुख
में उतर
जाएंगे।
मिलने की कोई
गारंटी नहीं
है। और अगर
मिला, तो
भी दुख में
उतर जाएंगे, क्योंकि मिल
कर पता चलेगा
कि सोचे थे
कितने — कितने
सपने इस सुख
के मिलने से
पूरे होंगे, वे कोई पूरे
नहीं होते।
सब
सुख दूरी में
दिखाई पड़ता है, पास आने
पर खो जाता है।
जब तक हाथ में
नहीं होता सुख
तब तक सुख, हाथ
में आते ही
दुख हो जाता
है। इसका मतलब
यह हुआ कि सुख
होता है दूरी
में। सुख
वस्तु मैं
नहीं होता, सुख होता है
दूरी में, सुख
होता है आशा
में, सुख
होता है
प्रतीक्षा
में। जब आ
जाता है, जैसे—जैसे
पास आने लगता
है, वैसे —वैसे
सुख तिरोहित
होने लगता है।
और जब बिलकुल
हाथ में आ
जाता है तो
दुख हो जाता है।
दुख न तो किसी
वस्तु में है,
न सुख किसी
वस्तु में है।
दूरी जितनी
ज्यादा हो
उतना सुख, निकटता
जितनी हो उतना
दुख। यह तो
बड़ा जटिल जाल
है! जिसको हम
पास लाते हैं,
उससे दुख
मिलने लगता है।
तो
जितना हम सुख
मांगते हैं, एक तो
मिलेगा नहीं,
क्योंकि
मांगने से कुछ
मिल नहीं जाता।
नहीं मिलेगा
तो
फ्रस्ट्रेशन,
विषाद घेर
लेगा। मिल
जाएगा, तो
विफलता हाथ
लगेगी और
रिक्तता घेर
लेगी कि व्यर्थ
गई मेहनत, कुछ
पाया नहीं—दौडे,
के, श्रम
उठाया, और
जो मिला, वह
यह है! जो इतना
चमकदार मालूम
पड़ता था दूर
से, जो ढोल
बहुत सुहावने
मालूम पड़ते थे,
वे पास आकर
साधारण ढोल
साबित होते
हैं।
जो
चुनेगा, वह उलझ
जाएगा संसार
में। संसार है
चुनाव, मोक्ष
है अचुनाव।
चुनना ही मत।
सुख आए तो सुख
से राजी हो
जाना, और
दुख आए तो दुख
से राजी हो
जाना, लेकिन
भीतर चुनाव मत
करना कि मैं
यह चाहता हूं।
अपनी माग इस
जगत के सामने
जो नहीं रखता,
वह जगत से
मुक्त हो जाता
है।
इसे
थोड़ा ठीक गहरे
में जाने दें।
इस जगत से जो
कुछ भी नहीं
मांगता, यह जगत उसे
फंसा नहीं
सकता। इस जगत
से कुछ भी
मांगा कि आप
फंस गए। जो आप
मांगते हैं, वह मिल जाए
तो भी फंस गए, न मिले तो भी
फंस गए।
मांगते ही फंस
गए, मिलने
न मिलने से
कोई संबंध
नहीं है। मछलियों
को पकड़ने वाले
लोग, मछुए,
काटे में
आटा लगा कर
पानी में डाल
रखते हैं।
इनसे सिर्फ
वही मछली
बचेगी, जो
मुंह खोलेगी
ही नहीं। जिस
मछली ने मुंह
खोला, वह
फंसी। सभी
मछलियां आटे
के लिए मुंह
खोलती हैं।
कोई मछली इतनी
नासमझ नहीं कि
कांटे के लिए
मुंह खोलती हो।
सभी मछलियां
आटे के लिए
मुंह खोलती
हैं। मछुआ भी
इसलिए काटे
में आटा लगा
कर पानी में डाल
कर बैठा हुआ
है। मछली
फंसती है आटे
के कारण। सभी
लोग सुख चाहते
हैं और दुख का
काटा सुख में से
निकल आता है।
सभी
लोग सम्मान
चाहते हैं और
सम्मान में से
ही अपमान का
काटा निकल आता
है। और सभी
लोग शांति
चाहते हैं और शांति
ही अशांति बन
जाती है। उस
मछली का खयाल
करें जो इस
आटे और इस
कांटे में से
चुनाव ही नहीं
करती; जो
उदासीन इस आटे
के पास से
तैरती हुई चली
जाती है। इसको
पकड़ना असंभव
है। ऐसी मछली
की तरह हो
जाएं इस जगत
में कि जिसका
कोई चुनाव
नहीं है। जो
चुनती ही नहीं,
जो मांग
नहीं करती।
फिर आपके ऊपर
कोई बंधन हो
नहीं सकता, आप पकड़े
नहीं जा सकते।
संन्यस्त
होने का अर्थ
है, विकल्प
में चुनाव छोड़
देना। इसलिए
ध्यान रखना, संन्यास
संसार के
विपरीत
विकल्प नहीं
है। और जिन
लोगों ने
संन्यास का
अर्थ संसार के
विपरीत बना
रखा है वे
संसार में ही
उलझे रहेंगे।
लोग हैं ऐसे, वे कहते हैं
कि संन्यास जो
है वह संसार
के विपरीत है।
हम तो संसार
में हैं, हम
कैसे
संन्यासी हो
जाएं? हम
तो तब
संन्यासी
होंगे जब हम
संसार
छोड़ेंगे।
उनका संन्यास
भी द्वंद्व है।
संसार और
संन्यास उनके
लिए दो पहलू
हैं विरोधी।
वे कहते हैं, अगर हम
संसार
चुनेंगे तो
संन्यास कैसे
चुनें? अगर
हम संन्यास
चुनेंगे तो हम
संसार कैसे
चुनें?
अगर
संन्यास का
अर्थ द्वंद्व
है, तो
संन्यास का
अर्थ ही खो
गया। संन्यास
का अर्थ ही है
निर्द्वंद्व
हो जाना। हम
चुनते ही नहीं।
जो हो जाता है
उसे स्वीकार
कर लेते हैं, जो नहीं
होता उसकी हम
मांग नहीं करते,
ऐसी भाव—दशा
संन्यास है।
तब आप कहीं भी
संन्यासी हो
सकते हैं। तब
संन्यास भाव—दशा
है; तब
विकल्प नहीं
है।
यह
सूत्र कहता है
'इसलिए
हे निर्दोष!
समाधिनिष्ठ
होकर विकल्पों
से शून्य बन। '
समाधि
आती ही तब है, जब कोई
विकल्पों से
शून्य होता है।
'जिस समय
निर्विकल्प
समाधि द्वारा
आत्मा का दर्शन
होता है, उसी
समय हृदय की
अशांनरूप गांठ
का पूर्ण नाश
हो जाता है।'
दो
तरह की
समाधियां कही
हैं। एक समाधि
है, सविकल्प
समाधि। वह नाम—मात्र
को समाधि है।
सविकल्प
समाधि का अर्थ
है कि किसी
व्यक्ति ने शांत
होना चुन लिया।
इसे
समझ लें।
अक्सर लोग
पहले तो यही
चुनते हैं।
संसार से बहुत
पीड़ित हो जाते
हैं तो अशांत
हो जाते हैं, बेचैन हो
जाते हैं, तो
सोचते हैं
ध्यान से शाति
मिल जाए। अशांति
के विपरीत
शाति को चुनते
हैं। तो ध्यान
से शाति मिलनी
शुरू होती है।
लेकिन उस शाति
के भी गहरे
में अशांति का
पहलू छिपा
रहता है। वह
विकल्प मौजूद
रहेगा।
क्योंकि आपने
शाति को चुना
ही अशाति के
विपरीत है।
जिसके विपरीत
आपने चुना है,
उससे आप छूट
नहीं सकते, वह मौजूद
रहेगा। इतना
हो सकता है कि
जो आपने चुना
है वह पहलू
ऊपर आ जाए और
जो आपने नहीं
चुना है वह
नीचे चला जाए,
बाकी वह मिट
नहीं सकता।
चुनाव
कभी भी
द्वंद्व के
बाहर नहीं ले
जा सकता, द्वंद्व
रहेगा। तो जो
आप चुनते हैं,
वह चुनाव के
कारण ही, विपरीत
मौजूद बना
रहता है। तो
आप शांत भी हो
सकते हैं, लेकिन
शांत होना
आपका ऊपर—ऊपर
होगा। शांत
होना ऊपर—ऊपर
होगा, भीतर
अशांति छिपी
रहेगी। और आप
सदा डरे
रहेंगे कि अशांति
कहीं फूट न आए।
बीज अशांति का
मौजूद रहेगा
और अंकुर का
डर रहेगा।
इसीलिए
तो लोग संसार
को छोड़ कर
भागते हैं, क्योंकि
संसार में
उन्हें डर
लगता है कि
भीतर तो छिपी
है अशांति, कोई भी उसे
जरा उकसा दे
तो अभी फूट
पड़ेगी। जंगल
की तरफ भागता
हुआ आदमी आपसे
नहीं भाग रहा
है, अपने
भीतर छिपी हुई
अशांति से भाग
रहा है। आपसे
तो इसलिए भाग
रहा है कि
आपसे डर लगता
है कि आप कहीं
भीतर की पर्त
को उघाडू न
दें। जंगल की
तरफ भागता हुआ
पति पत्नी से
नहीं भाग रहा
है, वह जो
ब्रह्मचर्य
उसने ऊपर—ऊपर
निर्मित कर
लिया है, उसके
भीतर
कामवासना अभी
छिपी है।
क्योंकि
जिसने
ब्रह्मचर्य
को समझा
कामवासना के
विपरीत, वह
कामवासना के
बीज से मुक्त
नहीं हो सकता।
जिसने चुना, वह विपरीत
से बंधा रहेगा।
चुनाव
का मतलब ही है
कि हम किसी के
खिलाफ चुने
हैं। जिसके
खिलाफ हम चुने
हैं वह हमारा
पीछा करेगा।
और जो हमने
आयोजन कर लिया
है ऊपर—ऊपर, उसके
गहरे में, जिसके
विपरीत हमने
चुना है वह
मौजूद रहेगा,
क्योंकि वह
हमारा ही
हिस्सा है।
असल में हमने
जिंदगी को दो
हिस्सों में बांट
दिया। एक को
हमने चुन लिया
और दूसरे को
हमने चुना नहीं,
और वे दोनों
संयुक्त हैं।
जिसको हमने
नहीं चुना वह
जाएगा कहां? वह हमारे
साथ रहेगा।
फिर हमें डर
लगेगा। लोगों
का साथ हो, परिवार
हो, दुकान
हो, बाजार
हो, तो वह
जो भीतर छिपा
है, कोई भी
जरा सा इशारा
कर दे तो बाहर
निकल आता है।
तो
भाग जाओ, ऐसी जगह भाग
जाओ, जहा
कोई भीतर के
छिपे का दर्शन
न करवा पाए।
लेकिन तो भी
वह मिटेगा
नहीं। हजारों
वर्ष कोई
हिमालय पर रहे,
जिस दिन
लौटेगा वापस
बाजार में, पाएगा हजार
वर्ष बेकार
चले गए। वह जो
भीतर छिपा है,
बाजार फिर
उसे उकसा देगा,
वह फिर बाहर
आ जाएगा।
सविकल्प
समाधि का अर्थ
है कि आपने
चुन कर अपने
को शांत किया
है।
निर्विकल्प
समाधि का अर्थ
है कि आपने
चुनाव छोड़
दिया है।
निर्विकल्प
समाधि ही
समाधि है; मैं दो
हिस्से नहीं
करता।
सविकल्प
समाधि तो
समाधि का धोखा
है। लेकिन
आदमी पहले
सविकल्प समाधि
की तरफ आता है;
संसार से
पीड़ित होकर
संन्यास को
चुनता है।
स्वाभाविक है,
संसार से
पीड़ित होकर
संन्यास को
चुनता है।
यह
तो दूसरी बात
तो तब घटेगी
जब संन्यास से
भी पीड़ित हो
जाएगा, और तब
देखेगा कि
संसार भी एक
संसार है और
संन्यास भी एक
संसार है। और
जब अनुभव
करेगा कि
संसार और
संन्यास, विपरीत
की तरह, एक
ही स्वर के दो
हिस्से हैं, उस दिन
वास्तविक
संन्यास घटित
होगा। उस दिन
वह चुनेगा ही
नहीं। उस दिन
वह चुनाव छोड़
देगा। उस दिन
वह समझेगा कि
चुनाव में ही
संसार है।
इसलिए अब मैं
चुनता नहीं।
अब जो हो जाता
है, उसे
स्वीकार कर
लेता हूं; जो
नहीं होता, उसकी
अपेक्षा नहीं
करता हूं। अब
मैं राजी हूं;
अस्तित्व
जैसा रखे, वैसा
ही राजी हूं।
अब मेरा अपना
कोई स्वर नहीं
है अस्तित्व
के विपरीत। अब
दुख आए, तो
मैं मानता हूं
र यही है, यही
होना चाहिए जो
हो रहा है।
सुख आए, तो
मैं मानता हूं
यही है; जो
होना चाहिए
वही हो रहा है।
अब मैं अपने
को अलग रख कर
नहीं कहता कि
ऐसा होना
चाहिए। अब
मेरी कोई
अपेक्षा, कोई
मांग, कोई
दावा नहीं है।
मैंने दावा
छोड़ दिया।
जिस
दिन कोई दावा
छोड़ देता है, उस दिन
निर्विकल्प
समाधि घटित
होती है, उस
दिन फिर आपको
इस जगत में
कोई बंधन नहीं
रह जाता। अगर
यह सारा जगत
भी जंजीरें बन
जाए, और
आपके अंग— अंग
पर सारा जगत
कस जाए, आक्टोपस
की तरह, तो
भी आपको कोई
बंधन नहीं
होता, क्योंकि
आप उसको भी
स्वीकार कर
लेते हैं कि
ठीक है, यही
है। जब कोई
मेरे हाथ में
जंजीर डाल दे,
तो ध्यान
रखना, जंजीर
डालने वाले की
तरफ से जंजीर
नहीं हो सकती,
मैं उसे
जंजीर मानता
हूं तभी जंजीर
हो सकती है।
मेरी मान्यता
में निर्भर
करेगा सब कुछ।
और मैं हाथ
बढ़ा देता हू
और कह देता
हूं कि जंजीर
डाल दो।
बड़ा
मजा हुआ।
रामकृष्ण के
जीवन में बड़ी
प्यारी घटना
है। रामकृष्ण
बचपन से ही
ईश्वर की तरफ
दौड़े हुए
चित्त के
व्यक्ति थे।
मंदिर के
सामने से
निकलते थे तो
फिर उनका घर पहुंचना
मुश्किल हो
जाता; वहीं
नाचने लगते; वहीं लेट
जाते, सीढ़ियों
पर पड़े रहते।
कोई राम का
नाम ले दे, तो
भाव में आ
जाते। तो घर
के लोग जानते
थे कि यह लड़का
संसार में नहीं
जाएगा। कोई
आशा नहीं थी।
लेकिन फिर भी
मां—बाप का
फर्ज था, तो
जब उम्र हुई
तो उन्होंने
पूछा कि राम—उनका
नाम था गजाधर—शादी
करोगे? सोचा
था, रामकृष्ण
इनकार कर
देंगे।
रामकृष्ण
बहुत
प्रफुल्लित
हो गए।
उन्होंने कहा,
शादी कैसी
होती है? जरूर
करेंगे! घर के
लोगों को भी
सदमा हुआ, कि
सोचा था कि यह
संन्यासी
वृत्ति का है,
शादी नहीं
करेगा, यह
क्या हुआ!
फिर
लड़की की तलाश
हुई। फिर लड़की
खोजी गई। लड़की
बहुत छोटी थी।
कोई आठ—दस साल
का अंतर था
दोनों की उम्र
में।
रामकृष्ण
लड़की को देखने
गए। उनके साथ
ही परिवार के
और लोग गए।
रामकृष्ण की
मा ने एक तीन
रुपए
रामकृष्ण के
खीसे में रख दिए
कि कोई जरूरत
पड़े, खर्च
इत्यादि। पास
ही गांव था
ऐसे।
रामकृष्ण सज—धज
कर—जैसा सजा—
धजा दिया—पहुंच
गए।
लड़की
बहुत प्यारी
थी। रामकृष्ण
ने वे तीनों
रुपए उसके पैर
में रख कर
उसके पैर छू
लिए! तो सब
मुश्किल में
पड़ गए। और
सबने कहा कि
पागल, यह
तेरी पत्नी
होने वाली है!
और तूने पैर
छू लिए! और ये
तीन रुपए
किसलिए चढ़ा
दिए? तो
रामकृष्ण ने
कहा, मेरी
मां जैसी
प्यारी लगती
है। क्योंकि
रामकृष्ण एक
ही प्रेम
जानते थे, वह
मां जैसा
प्रेम। बहुत
प्यारी लगती
है, मां
जैसी! इसको
मैं मां ही कहूंगा,
पत्नी भी हो
तो हर्ज क्या!
फिर
शादी भी हो गई, लेकिन
रामकृष्ण
शारदा को मां
ही कहते रहे, उसके पैर ही
छूते रहे। और
जब काली की
पूजा का दिन
आता, तो वे
काली की पूजा
न करके शारदा
को बिठा लेते सिंहासन
पर और उसकी
पूजा कर लेते।
और वे कहते, जब जिंदा
मां है, तो
फिर मूर्ति की
क्या जरूरत?
पत्नी
बंधन न रही।
उसे बंधन की
तरह देखा ही
नहीं। हाथ बढ़ा
दिया, जंजीर
ले ली।
आपकी
भाव—दशा में
निर्भर करता
है। दुख दुख
है, क्योंकि
आप दुख को
नहीं चाहते और
सुख को चाहते
हैं —इसलिए
दुख है। दुख
इसलिए है कि
उसके विपरीत
को आप चाहते
हैं। नहीं तो
क्या दुख है? विपरीत की
मांग में छिपा
है दुख। अशांति
क्या है? क्योंकि
आप शांति को
चाहते हैं, इसलिए अशाति
है। हमारे
चुनाव में
हमारा संसार
है।
यह
सूत्र कहता है, जो
चुनावरहित हो
जाता, जो
निर्विकल्प
हो जाता, उसे
आत्मा का
दर्शन होता है।
क्योंकि जो
बाहर चुनाव
नहीं करता—न
चुनता है सुख
को, न दुख
को, न
प्रेम को, न
घृणा को; न
संसार को, न
मोक्ष को, न
पदार्थ को, न परमात्मा
को—जो बाहर
चुनता ही नहीं,
जिसके सब
चुनाव क्षीण
हो जाते हैं, वह तत्काल
भीतर पहुंच
जाता है; क्योंकि
चुनाव में ही
चेतना अटकती
है बाहर। जिसे
हम चुनते हैं,
उसमें हम
अटक जाते हैं।
जब कोई चुनता
ही नहीं तो
अटकाव नष्ट हो
गया, उसका
संबंध किनारे
से छूट जाता
है, उसका
संबंध भीतर की
मझधार से जुड़
जाता है, वह
भीतर की धारा
में लीन हो
जाता है।
आत्मा
का दर्शन होता
है उसे, जो
निर्विकल्प
भाव को उपलब्ध
होता है। और
तब हृदय की
अशांनरूपी
गांठ पूर्णत:
नष्ट हो जाती
है।
'आत्मा के
ऊपर ही आत्म—
भाव को दृढ़
करके अहंकार
आदि के ऊपर
वाले आत्म—
भाव का त्याग
करना। घड़ा, वस्त्र आदि
पदार्थों से
जिस प्रकार
उदासीन भाव से
रहा जाता है, उसी प्रकार
अहंकार आदि की
तरफ से भी
उदासीन भाव से
रहना। '
यह
उदासीन शब्द
भी समझ लें।
उदासीन का
मतलब उदास
रहना नहीं है।
उदासीन का
मतलब है, चुनावरहित
रहना। उदासीन
का मतलब है, कोई मतलब
नहीं, ऐसे
रहना; कोई
प्रयोजन नहीं,
ऐसे रहना।
उदासीन शब्द
से खतरा हो
गया। उदासीन
साधुओं का
संप्रदाय है!
वे थोप कर उदास
बने रहते हैं,
क्योंकि वे
समझते हैं, उदास होने
में उदासीनता
है।
उदास
से कोई भी
संबंध नहीं है
उदासीनता का, शब्द भर
का संबंध है, भाव का कोई
संबंध नहीं है।
उदासीन का
मतलब है कि
हमारा कोई
चुनाव ही नहीं
है, क्या
हो रहा है, होने
दो। उदासी
नहीं, उदासीनता,
इनडिफरेंस,
उपेक्षा।
ठीक है, जो
हो जाए ठीक है।
जैसे
घर में कोई
रहता है, उदाहरण लिया
है इस सूत्र
में, कि घर
में वस्त्र
हैं, घड़ा
है, सामान
है, बर्तन
हैं, आप
निकलते चले
जाते हैं। घड़ा
पड़ा है, पड़ा
है, कोई उस
पर विशेष
ध्यान देने की
जरूरत नहीं
पड़ती। कपड़े
टंगे हैं घर
में, टंगे
हैं, आप
उनके बीच से
गुजर जाते हैं।
ऐसे ही अपने
भीतर अहंकार
टंगा है, दुख
टंगे हैं, सुख
टंगे हैं, पीड़ाएं
पड़ी हैं, चिंताएं
पड़ी हैं, सुख
की स्मृतियां
हैं और दुख के
संस्मरण हैं;
वे सब पड़े
हैं। यह सामान
है भीतर का—घडा,
वस्त्र
इत्यादि।
इनके बीच से
ऐसे गुजर जाना
कि सब ठीक है; जो है ठीक है।
इस पर कोई
ध्यान न देना,
इसमें कुछ
चुनाव न करना;
इसमें किसी
से आकर्षित और
किसी से
विकर्षित न होना—यह
अर्थ है
उदासीनता का।
उदासीन
आदमी अति
प्रफुल्लित
होता है, उदास नहीं।
लेकिन ध्यान
रखना, प्रफुल्लित
का मतलब? प्रफुल्लित
का मतलब यह
होता है कि अब
कोई भी चीज
उसे परेशान
नहीं करती, इसलिए भीतर
का फूल खिलना
शुरू हो जाता
है; अब कोई
चीज उसको
हैरान नहीं
करती, इसलिए
भीतर वह आनंद
में रहता है।
उदासी
थोप ली अगर
आपने
जबरदस्ती
अपने ऊपर, तो आप
प्रफुल्लित न
हो पाएंगे।
उदासीन होना।
इसे जरा देखना
प्रयोग करके।
रास्ते से
गुजर रहे हैं,
प्रयोग
करके देखना कि
पांच मिनट
बिलकुल उदासीन
होकर गुजरूं
रास्ते से। तब
कौन सा मकान
सुंदर है, कौन
सा नहीं है—बराबर
है। तब कौन सा
आदमी पास से
गुजरा, वह
अमीर था कि गरीब
था, प्रतिष्ठित
था कि
अप्रतिष्ठित
था, नेता
था कि चोर था—कोई
भी था—कोई
प्रयोजन नहीं
है। तब कोई
सुंदर स्त्री
गुजरी, कोई
सुंदर पुरुष
गुजरा, कोई
सुंदर कपड़े
दिखाई पड़े —कोई
प्रयोजन नहीं
है। पांच मिनट
रास्ते से ऐसे
गुजरना, जैसे
रास्ता खाली
है और जंगल से
गुजर रहे हैं,
वहा कुछ है
ही नहीं। इसकी
कोशिश करके
देखना—सिर्फ
तटस्थ—तत्काल
आप पाएंगे कि
रास्ता
व्यर्थ हो गया।
उसकी
सार्थकता
आपके भीतर
लगाव में थी।
विद्यासागर
ने एक संस्मरण
लिखा है। लिखा
है कि एक दिन
सांझ घूमने
गया था और एक
मुसलमान
सज्जन भी
सामने चले जा
रहे थे। वे भी
रोज टहलते थे।
अचानक एक नौकर
भागा हुआ आया
और
विद्यासागर
बिलकुल पीछे
ही थे, उस
नौकर ने आकर
कहा, मीर
साहब—उन
मुसलमान
मित्र से —
आपके घर में
आग लग गई है; जल्दी चलें!
मीर साहब ने
कहा कि चलता
हूं। लेकिन वह
वैसे ही चलते
रहे। वही छड़ी,
वही पैर की
चाल, कोई
फर्क न पड़ा।
विद्यासागर
की चाल तक में
फर्क पड़ गया
यह सुन कर कि
मीर साहब के
घर में आग लग
गई है! उनकी
सास जोर से
चलने लगी, और
उनके पैर तेजी
से चलने लगे!
लेकिन देखा कि
मीर साहब उसी
चाल से चल रहे
हैं! वह नौकर
घबड़ाया, उसने
कहा, आपने
सुना नहीं? घर में आग लग
गई है! मीर
साहब ने कहा, सुन लिया।
वैसे ही चलते
रहे।
तो
विद्यासागर
ने आगे बढ़ कर
कहा कि आप
क्या कर रहे
हैं! नौकर
क्या कह रहा
है, समझे
आप? घर में
आग लग गई है!
मीर साहब ने
कहा, वह तो
ठीक है, लेकिन
अब मैं कर भी
क्या सकता हूं
घर में आग लग गई
है तो। मैं
अपनी चाल और
क्यों खराब
करूं! और एक
मौका मिला
मुझे, घर
में आग लग कर
भी अगर मैं
वैसे ही चल
सकता हूं जैसे
तब चलता था जब
घर में आग
नहीं लगी थी, तो उदासीनता
का एक मजा आ
जाएगा। लगी है
घर में आग, ठीक
है। मैं वैसे
ही चल रहा हूं
र जैसे तब चल
रहा था जब घर
में आग नहीं
लगी थी। इस
चाल में जो
जरा सा भी मैं
फर्क करूं, तो वह फर्क
मेरी चेतना
में फर्क हो
जाता है। ठीक
है। वे वैसे
ही चलते रहे!
विद्यासागर
ने लिखा है कि
मैं और उनका
नौकर भाग कर
पहुंचे, कि इनको
अपनी चाल
संभालने दो।
हम बेचैन हो
गए; घर
बुझाया, आग
बुझाने में
लगे, रात
भर नींद न आई।
पर
विद्यासागर
ने लिखा है कि
उस दिन जो
देखा मैंने
रूप मीर का, मैं समझ गया
कि रात वह शांति
से सोए होंगे।
क्या फर्क पड़ा
होगा पू जिस
आदमी की चाल
में फर्क नहीं
पड़ा, उसकी
नींद में क्या
खाक फर्क पडने
वाला है!
उदासीनता
का अर्थ है, एक तटस्थ
वृत्ति, जो
हो रहा है ठीक
है, स्वीकार
है; एक
तथाता, उसेमें
कहीं कोई
चुनाव नहीं है।
घर में आग लग
गई, इससे
बेचैनी नहीं
होती है, समझ
लें। घर में
आग नहीं लगनी चाहिए
थी, यह
हमारी जो
अपेक्षा है, उससे बेचैनी
होती है। मेरा
घर नहीं जलना
चाहिए था, यह
छिपी अपेक्षा
है। पता भी न
हो, अचेतन
में छिपी है, मेरा घर
नहीं जलना
चाहिए था। तो
घर जल गया; तो
वह भीतर की
अपेक्षा टूटी,
उससे चाल
डगमगा जाती है,
उससे चेतना
डगमगा जाती है।
लेकिन जिसकी
कोई अपेक्षा
नहीं, कुछ
भी हो जाए, जो
भी हो जाए, उसके
विपरीत कोई
भाव और आग्रह
नहीं है, इसलिए
चेतना नहीं
डगमगाती। वह
चेतना का अकंप
होना ही
उदासीनता है।
'ब्रह्मा से
लेकर खंभ तक, पत्थर से
लेकर
परमात्मा तक
सब उपाधियां
झूठी हैं, इसलिए
एक स्वरूप में
रहने वाले
पूर्ण आत्मा का
ही सर्वत्र
दर्शन करना।'
सब
पद झूठे हैं, सब
उपाधियां
झूठी हैं, सब
प्रतिष्ठाएं झूठी
हैं, सब
बनावटी हैं।
चाहे सड़क के
किनारे पड़ा
हुआ पत्थर हो,
और चाहे
आकाश में
हमारा बिठाया
हुआ परमात्मा हो,
सब व्यर्थ
हैं। एक उसका
ही ध्यान रखना,
जो झूठा
नहीं है, एक
उस साक्षी—
भाव में ही
लीन रहना। तो
पत्थर भी अगर
आप हो जाओ, तो
भी उसी साक्षी—
भाव में लीन रहना।
और अगर
ब्रह्मा भी
बना दिए जाओ, तो भी उसी
साक्षी—भाव
में लीन रहना।
तो फिर पत्थर
और ब्रह्मा
होने में कोई
चुनाव नहीं
लगेगा, क्योंकि
वह साक्षी—भाव
एक ही है।
गरीब हैं, तो
साक्षी—भाव
में लीन रहना,
अमीर हो
जाएं, तो
साक्षी —भाव
में लीन रहना।
तो फिर गरीबी—अमीरी
कोई फर्क नहीं
लाएगी, क्योंकि
वह भीतर एक ही
धारा साक्षी—भाव
की बहती रहेगी।
सब
उपाधिया
व्यर्थ हैं।
जो बाहर से
उपलब्ध होता
है, वह
सब व्यर्थ है;
और भीतर से
जो उपलब्ध
होता है, वही
सार्थक है।
लेकिन भीतर से
सिवाय साक्षी
चैतन्य के और
कुछ भी उपलब्ध
नहीं होता। हर
हाल में, हर
स्थिति में, इस भीतर की
आत्मा का ही
दर्शन करते
रहना।
'स्वयं ही
ब्रह्मा, स्वयं
विष्णु, स्वयं
इंद्र, स्वयं
शिव, स्वयं
जगत और स्वयं
ही यह सब कुछ
है, स्वयं
से भिन्न कुछ
भी नहीं है।'
वही, कैवल्य
का भाव। जो इस
चैतन्य को
अनुभव करता है,
जो इस
साक्षी को जान
लेता है, उसके
लिए फिर दूसरा
मिट जाता है।
फिर दि अदर, वह दूसरा
नहीं है; फिर
मैं ही हूं; फिर मेरा ही
फैलाव है।
क्योंकि जिस
दिन मैं अपनी
चेतना को
जानता हूं र
उसी दिन मैं
यह भी जान
लेता हूं कि
आपकी चेतना
मुझसे भिन्न
नहीं है। जब
तक मैं अपने
शरीर को जानता
हूं र तब तक आप
मुझसे भिन्न
हैं, क्योंकि
मेरा शरीर अलग
है, आपका
शरीर अलग है।
ऐसा
समझें कि एक
दीया जल रहा
है, मिट्टी
का दीया है।
एक और दीया जल
रहा है, चांदी
का दीया है।
और एक और दीया
जल रहा है, जो
सोने का दीया
है। ये तीनों
दीए अगर अपने
मिट्टी, चांदी,
सोने की देह
पर ध्यान करें,
तो तीनों
अलग — अलग हैं।
और तीनों
समझेंगे कि तू
मिट्टी का
दीया, क्या
मुझसे होड़ कर
रहा है! मैं चांदी
का दीया! और
सोने का दीया
कहेगा कि क्या
बातचीत लगा
रखी है! मैं
सोने का दीया!
लेकिन ये तीनों
दीयों में से
एक भी दीया
अगर ज्योति का
अनुभव कर ले
कि मैं ज्योति
हूं; वह जो
दीए में
ज्योति जल रही
है। ज्योति का
अनुभव होते ही
क्या यह
ज्योति का अनुभव
करने वाला
दीया मिट्टी
के दीए से कह
सकेगा कि तू
मुझसे अलग!
क्योंकि अब वह
इसकी भी ज्योति
ही देख पाएगा।
अब वह देह
व्यर्थ हो गई
जो चांदी, सोने,
मिट्टी की
है। अब तो वह
ज्योति ही
सार्थक रह गई,
जो न चांदी
है, न सोना
है, न
मिट्टी है—सिर्फ
ज्योति है। यह
दीया, इन
तीनों में से
एक भी दीया यह
अनुभव कर ले
कि मैं ज्योति
हूं उसके लिए
सारे जगत के
दीए उसके साथ
एक हो गए। अब
जहा भी ज्योति
है, वहीं
मैं हूं।
हम
जब तक शरीर को देखते
हैं, तब
तक हम अलग— अलग
हैं। और जब हम
भीतर के
साक्षी को देख
लेते हैं, जो
हमारी शाश्वत
ज्योति है, तब हम एक और
अभिन्न हो
जाते हैं। फिर
वह जो पक्षी
उड़ रहा है
वृक्ष के पास,
उसके भीतर
जो छिपा
साक्षी है, वह भी मैं
हूं। और वह जो
ब्रह्मा है, जो जगत को
बनाता है और
जगत का नियंता
है, उसके
भीतर जो
साक्षी छिपा
है, वह भी
मैं ही हूं।
फिर जो रास्ते
पर भीख मल रहा
है, वह भी
मैं ही हूं; और वह जो
सिंहासन पर
विराजमान
सम्राट है, वह भी मैं ही
हूं। एक बार
भीतर की
ज्योति का
अनुभव शुरू हो
जाए, तो
आकृतियां
व्यर्थ हो
जाती हैं; तो
देह, पदार्थ
अर्थहीन हो
जाता है; फिर
ज्योति ही
सार्थक हो
जाती है।
और
एक बड़े मजे की
बात है कि
चाहे दीया
मिट्टी का हो
और चाहे सोने
का, ज्योति
में कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
क्या मिट्टी
के दीए की
ज्योति
मिट्टी की हो
जाती है? क्या
सोने के दीए
की ज्योति
सोने की हो जाती
है?
कोई
भेद नहीं पड़ता, ज्योति
ज्योति ही
रहती है; ज्योति
एक सी ही रहती
है। ज्योति के
होने में कोई
भी अंतर नहीं
आता देह के
कारण। किसी की
ज्योति में
कोई अंतर नहीं
आया है।
अज्ञानी से
अज्ञानी के
भीतर भी वही
ज्योति जल रही
है जो बुद्ध
के भीतर जलती
है। पर बुद्ध
को इसका पता
है और अज्ञानी
को इसका पता
नहीं है। और
पता में क्या
फर्क है? बुद्ध
ने दीए के
ऊपरी रूप की
फिकर छोड दी
और भीतरी
ज्योति का पता
लगा लिया, और
अज्ञानी अभी
ऊपरी रूप—मिट्टी,
सोने, चांदी
की देह से
घिरा है और
ज्योति की खोज
नहीं कर पाया।
लेकिन ज्योति
मौजूद है।
मैं
ही हूं सब में
फैला हुआ, ऐसी
प्रतीति का
नाम अध्यात्म
है। '
दो—तीन
जरूरी
सूचनाएं हैं।
पहले दिन
मैंने आपसे
कहा : प्रसन्न
रहें, प्रफुल्लित
रहें, आनंदित
रहें, हंसते
रहें; जितना
हंस सकें—अकारण
भी—तो हंसते
रहें। लेकिन
एक बात मैंने
जान कर छोड़ दी
थी—जान कर।
मैंने यह
सूचना आपको
नहीं दी थी कि
जब मैं यहां
बोल रहा हूं
तब आप अकारण न
हंसें। लेकिन
वह मैंने जान
कर छोड़ दी थी।
मैं पता लगाना
चाहता था कि
दो —चार
बुद्धिमान
जरूर आए
होंगे! वे, जब
मैं बोल रहा हूं, तब भी
हंसेंगे। और
उनकी हंसी के
कारण वे खुद
भी समझने से
वंचित रह
जाएंगे जो मैं
कह रहा हूं और
दूसरों को भी बाधा
देंगे।
और
मेरा अनुमान
गलत नहीं
निकला! वे दो—चार
बुद्धिमान
मौजूद हैं।
उनमें एक—दो
तो पंजाब से
हैं। मैं
सुनता था कि
पंजाब में कुछ
बुद्धि लोगों के
पास ज्यादा
होती है, मगर मैंने
इस पर कभी
भरोसा नहीं
किया था। अब
भी भरोसा नहीं
करता, हालांकि
वे दो पंजाबी
मित्र पूरी
कोशिश कर रहे
हैं भरोसा
दिलवाने की!
वह तो ठीक है, लेकिन यह
मैंने कभी
नहीं सोचा था
कि उनके सत्संग
में दो —चार
गुजराती भी
ऐसी करेंगे!
गुजरातियों
से ज्यादा
बुद्धि की आशा
नहीं थी, मगर
वे पंजाबियों
से होड ले रहे
हैं!
मूढ़ता
में भी होड़
शुरू हो जाती
है। और ध्यान
रखें, अति
पर चला जाना
सदा आसान है, मध्य में
रुकने का सवाल
है। या तो शकल—सूरत
मुर्दे की तरह
बना कर बैठे
रहेंगे और या फिर
मूढ़ की तरह
प्रफुल्लता
प्रकट करने
लगेंगे, वह
भी
प्रफुल्लता
नहीं है।
तो
जब मैं बोल
रहा हूं, तब अगर आप
जोर से अकारण
आवाज करते हैं,
तो आपको पता
नहीं आप क्या
कर रहे हैं! आप
सिर्फ लोगों
का ध्यान
आकर्षित कर
रहे हैं, आप
बता रहे हैं
कि मैं भी यहौ
हूं। वह कोई
समझदारी नहीं
है। और उससे
कोई आपके
ध्यान में लाभ
होने का नहीं है।
जब मैं बोल
रहा हूं तब तो शांत,
मन की सारी
वृत्तियों को
अलग करके चुप
हो जाना चाहिए,
ताकि मैं जो
कह रहा हूं वह
भीतर प्रवेश
कर सके। अगर
मैं कुछ बोल
रहा हूं और आप
जोर से अकारण
हंस देते हैं,
तो जो भीतर
जा रहा था वह
उगपकी हंसी के
धक्के में
बाहर चला
जाएगा। वह
आपने बाहर
फेंक दिया। तो
थोड़ा सोच कर
चलें। सोच कर
नहीं चलेंगे,
तो गहरे कभी
नहीं उतर
पाएंगे।
दूसरी
बात। कल मैंने
सूचना करवाई
है कि सुबह के
ध्यान में ही
वस्त्र
उतारना चाहें
तो उतारें, एपयोगी
है। लेकिन
दोपहर के कीर्तन
या रात के
ध्यान में
बिलकुल
उपयोगी नहीं है।
मेरे लिए न तो
वस्त्रों का
मूल्य है और न
नग्नता का।
इसे थोड़ा खयाल
में ले लें।
कई बार
भ्रांति होती
है, कई बार
ऐसा लगता है
कि शायद मैं
यह कह रहा हूं
कि आप नग्न हो
गए तो मोक्ष
मिल गया! इतना
आसान नहीं है;
नहीं तो सभी
पशु — पक्षी अब
तक मोक्ष में
होते। और अगर
आपके
वस्त्रों के
कारण ही मोक्ष
रुका है, तो
दुनिया भर को
नग्न करके
मोक्ष में
पहुंचा देने
में बहुत अडचन
नहीं है! इतना
आसान और इतना सस्ता
नहीं है।
जब
मैं कहता हूं
कि किसी ऐसे
क्षण में, जब आपको
लगे कि वस्त्र
बाधा डाल रहे
हैं शरीर की
गतिविधि में,
अभिव्यक्ति
में, वस्त्रों
को अलग कर दें,
नग्नता
सहयोगी होगी।
लेकिन कुछ
नासमझ ऐसे भी
होंगे —हैं ही,
कुछ नासमझ
वस्त्रों को
पकड़े रहते हैं,
कुछ नासमझ
नग्नता को पकड़
लेते हैं! वे
समझते हैं कि
नग्न खड़े हो
गए, अब कुछ
करने का है ही
नहीं। तो मैं
देखता हूं एक—दो
जन को, वे
ध्यान —व्यान
भी नहीं करते,
वे सिर्फ
नग्न खड़े हो
जाते हैं—पर्याप्त
है।
सिर्फ
नग्न खड़े हो
जाने से कुछ
भी न होगा। और
नग्नता पर
मेरा कोई जोर
नहीं है।
दोनों जोर एक
से हैं। कुछ
लोग सोचते हैं
कि वस्त्र अगर
हटा दिए तो जिंदगी
गई हाथ से, उनके मन
में भी
वस्त्रों का
बड़ा मृल्य है।
और कुछ लोग
सोचते हैं, वस्त्र हटा
दिए तो सब कुछ
मिल गया; उनके
मन में भी
वस्त्रों का
बहुत मूल्य है।
ये दोनों एक
से हैं। कपडों
से ढंके हुए
लोग और नग्न
साधु एक से
हैं, उनकी
बुद्धि एक सी
है। उसमें कोई
बहुत अंतर नहीं
है। दोनों की
मान्यता यह है
कि वस्त्र बडे
कीमती हैं।
इसलिए
नहीं कहता हूं
कि आप वस्त्र
हटा दें कि नग्न
होने से मोक्ष
मिल जाएगा।
नग्न तो आप
हैं ही; वस्त्रों के
भीतर हैं।
इससे क्या
फर्क पड़ने
वाला है, वस्त्रों
के बाहर हो
जाएंगे या
वस्त्रों के भीतर
हैं! जब मैं
कहता हूं कि
वस्त्र हटाने
की उपयोगिता
आपको प्रतीत
हो भीतर, शरीर
की ऊर्जा जग
जाए, श्वास
के तीव्र
प्रहार से
बायो —एनर्जी,
जैविक—ऊर्जा
जगने लगे, और
आपको लगे कि
वस्त्र बाधा
डाल रहे हैं, तो ही अलग
करें; नहीं
तो कोई मतलब
नहीं है। और
दोपहर के
कीर्तन में
बिलकुल भी अलग
करने की जरूरत
नहीं है, न
रात्रि के
ध्यान में अलग
करने की जरूरत
है। और अगर
कोई जिद करेगा
दोपहर के
कीर्तन में या
रात, कैंपस
से हम उसे अलग
करेंगे।
सुबह
के ध्यान में
आप पूरी तरह, क्योंकि
उसकी
वैज्ञानिक
अर्थवत्ता है।
जब गहरी श्वास
ली जाती है और
शरीर की ऊर्जा
जोर से जगने
लगती है, तो
वस्त्र बाधा
डालते हैं। तो
हटा दें। और
फिर दूसरा जो
चरण है, जिसमें
मैं आपको कहता
हूं कि जो भी
आपके मन में आ
जाए उसे रोकें
मत, सब तरह
का सप्रेशन
छोड़ दें, उसमें
अगर आपके मन
में आ जाए
वस्त्र को
हटाना है, तो
हटा दें।
लेकिन कीर्तन
में कोई जरूरत
नहीं है, रात
के ध्यान में
भी कोई जरूरत
नहीं है।
नग्नता
कोई सिद्धांत
मत बना लें, नग्नता
एक उपाय है।
तीसरी
बात। कुछ
विदेशी
संन्यासी—संन्यासिने
कुएं पर नग्न
स्नान करते
होंगे, तो कुछ
भारतीय मित्र
भीड़ लगा कर
वहा देखने खड़े
हो जाते है।
ऐसी नासमझी न
करें। नहाना
हो तो नग्न
होकर आप भी
नहा लें।
लेकिन कोई
दूसरा नग्न
होकर नहा रहा
है, उसे
देखने आप जाते
हैं, तो आप
अपने मन की न
मालूम कितनी
दबी हुई गा
वृत्तियों की
खबर देते हैं।
दो
तरह के पागल
हैं। एक ऐसे
पागल हैं जो
दूसरों को
नग्न देखना
चाहते हैं, और ऐसे भी
पागल हैं जो
खुद को नग्न
होकर दूसरों
को बताना
चाहते हैं।
मनोविज्ञान
में इन सब
पागलों के अलग—अलग
रोगों के नाम
हैं। पश्चिम
में ऐसे बहुत
से लोगों पर
मुकदमा चलता
है अदालतों
में, जो
अचानक अपने को
नग्न करके
किसी को दिखा
देते हैं।
उनको
एक्सीबीशनिस्ट
कहते हैं; प्रदर्शनकारी।
यहां भी ऐसे
एकाध—दो मित्र
आ गए हैं, जिनका
कुल मजा इतना
मालूम पड़ता है
कि उनके शरीर
का दर्शन
दूसरों को हो
जाए। और ये
अक्सर ऐसे लोग
होते हैं
जिनका शरीर
दर्शन के
योग्य होता भी
नहीं। दर्शन
के योग्य हो
तो कोई न कोई
उनके शरीर का
दर्शन करने
खुद ही पहुंच
जाएगा। दर्शन
के योग्य नहीं
होता, वे
भीड़—भडुक्के
में नग्न खड़े
हो जाते हैं, क्योंकि कोई
देखने तो उनको
पहुंचता नहीं,
ऐसे ही कोई
देख ले!
इस
तरह की
बीमारियों का
कोई प्रयोजन
नहीं है यहां।
और कुछ लोग
होते हैं कि
दूसरे को नग्न
देखने में लगे
रहते हैं! ये
भी रुग्ण हैं, ये भी
रुग्ण हैं।
किसी से आपका
लगाव है, किसी
से आपका प्रेम
है और इतनी
आत्मीय
निकटता है, तो वस्त्र
अपने आप गिर
जाते हैं। और
व्यक्ति एक —दूसरे
को नग्न नग्न
अनुभव नहीं
करते उस प्रेम
में, उस
प्रेम में वे
निकट अनुभव
करते हैं, वस्त्रों
की बाधा भी हट
जाती है।
लेकिन जिससे
आपका कोई लगाव
नहीं है, उसको
जाकर नग्न
देखना घृणित
है, क्षुद्र
है, और
आपके भीतर
छिपे हुए रोग
की खबर देता
है।
मैं
रास्ते में आ
रहा था। तो
मेरे साथ
इंग्लैंड की
एक
संन्यासिनी
है, विवेक,
वह थी। बीच
में एक जगह
गाड़ी खड़ी हुई
नाके पर, तो
चार—पांच गधे
गाड़ी के पास
आकर खड़े हो गए!
तो मैंने विवेक
को पूछा कि
इंग्लैंड में
तेरे इतने ही
बड़े गधे होते
हैं कि इनसे
भी बड़े गधे
होते हैं? तो
उसने कहा, स्लाइटली
बिगर— थोडे
बडे होते हैं।
मैंने उसको
कुछ कहा नहीं,
क्योंकि
मैं तो मजाक
ही कर रहा था।
लेकिन फिर कल
मुझे खबर मिली
कि यहौ कुएं
के आस—पास भीड़
लगा कर लोग
खड़े होते हैं,
तो आज मैं
उससे कहने
वाला हूं कि
तू गलती में है,
भारत का
मुकाबला करना
मुश्किल है, गधे तो यहीं
बड़े होते हैं!
चौथी
बात। जब तीस
मिनट ध्यान के
प्रयोग के बाद
मैं कहता हूं
र चुप हो जाएं, मौन हो
जाएं, तब
भी अगर आप चुप
और मौन नहीं
हो पाते, तो
आप ध्यान नहीं
कर रहे हैं, आप
हिस्टीरिया
में हैं।
इस
फर्क को थोड़ा
समझ लें। जब
मैं कहता हूं
दस मिनट तीव्र
श्वास लें, तो आपको
मालिक होना
चाहिए। जब मैं
कहता हूं,
दस मिनट पागल
हो जाएं, तो
आपको मालिक
होना चाहिए
पागलपन का भी।
आप पागल हो
रहे हैं, पागलपन
आप पर नहीं आ
रहा है। आप
अपनी निजता से
अपने भीतर जो
है उसे उलीच
कर बाहर फेंक
रहे हैं। और
जब मैं कहता
हूं, आप दस
मिनट हू का
हुंकार करें,
तो आप कर
रहे हैं। यह
हुंकार आपको न
पकड़ ले, नहीं
तो आप गुलाम
हो गए। और फिर
जब मैं कहता
हूं, स्टाप
कंप्लीटली, रुक जाएं
बिलकुल, तो
जो आदमी नहीं
रुकता, वह
हिस्टेरिक है।
उसका मतलब यह
है कि उसके बस
में नहीं है
मामला, अब
वह रुक नहीं
पा रहा है; वह
चिल्लाए चला
जा रहा है, रोए
चला जा रहा है।
मतलब, रोना
ऊपर हावी हो
गया।
यह
नहीं चलेगा।
वह आदमी रुग्ण
है, वह
ध्यान नहीं कर
रहा है। ध्यान
का मतलब है, आपकी
मालकियत
स्थापित करनी
है। और अगर
मालकियत
स्थापित नहीं
होती तो
हिस्टीरिया
में और ध्यान
में फिर कोई
फर्क नहीं रह
जाएगा।
तो
जब मैं कहता
हूं, रुक
जाएं, तत्क्षण
रुक जाना है।
उसमें एक क्षण
की भी देरी
खबर दे रही है
कि आप मालकियत
खो दिए और जो
आप कर रहे थे
वह मालिक हो
गया, चिल्ला
रहे थे तो
चिल्लाने ने
आपको पकड़ लिया,
अब आप छोड़
नहीं पा रहे।
अगर चिल्लाना
आपको पकड़ ले
और आप न छोड़
पाएं, तो
फिर आप शाति
में प्रवेश न
कर सकेंगे।
मालकियत शाति
में ले जाती
है।
तो
दो—चार लोग
हैं कि मैं
कहता रहता हूं, चुप हो
जाएं, वे
चुप ही नहीं
होते, वे
सोचते हैं कि
ध्यान इतना लग
गया है कि अब
चुप कैसे हों!
ध्यान नहीं
लगा है। और आज
अगर ऐसा किया
तो निकाल हम
उन्हें बाहर करेंगे।
क्योंकि उनके
इलाज की जरूरत
है, उनको
ध्यान की
जरूरत नहीं है।
और
जब तीस मिनट
के बाद आप
सोचते हैं कि
अब खांसी आ
रही है, फलां हो रहा
है, इस भूल
में मत पड़े, खांसी
इंफेक्यिायस
बीमारी है। एक
आदमी खांस
देता है, दस—पांच
मूढ़ उसका
अनुगमन करते
हैं। उसकी
खांसी भला
वास्तविक रही
हो, ये दस—पांच
अनुगमन करते
हैं। क्योंकि
कल रात आपने
देखा, खासी
भी रुक गई। वह
कैसे रुकी? जब मैंने
कहा, खीसें
भी नहीं, तो
वह कैसे रुकी।
वह झूठी थी।
खांसी
भी नहीं चलने
देंगे। और जरा
प्रयोग करके
देखें, दस मिनट में
प्राण नहीं
निकल जाएंगे।
आपको पता नहीं
है कि मन
कितनी
तरकीबें करता
है! मन कहता है,
बड़ी खांसी आ
रही है, खांस
लो। वह उसने
विध्न डाल
दिया, आप
खांस लिए। आप
सोचे, क्या
करें, खांसी
तो मजबूरी थी।
मजबूरी
नहीं थी। आप
खयाल करते हैं
कि मैं यहां
डेढ़ घंटे
बोलता हू तब
आपको एक दफे
खांसी नहीं
आती! और जब दस
मिनट आपको चुप
रहने को कहता
हूं तो एकदम
खांसी आने
लगती है! अगर
खांसी ही आनी
चाहिए तो उसी
अनुपात में चलनी
चाहिए—पूरे
वक्त। वह नहीं
चलती। सिनेमा
में बैठे हैं, तीन घंटे
खांसी नहीं
आएगी। क्या, हो क्या
जाता है? और
मंदिर में गए,
कि एकदम
खांसी शुरू!
यह मंदिर में
कोई खांसी के
कीटाणु बैठे
हुए हैं? खांसी
सिनेमागृह
में चले, समझ
में आ सकता है,
क्योंकि
वहां कीटाणु
हैं काफी।
मंदिर में
चलती है, जहा
बिलकुल सब
स्वच्छ, सफाई
है!
कारण
मानसिक है; यह खांसी
शारीरिक नहीं
है जो आपको
आती है। यह
मानसिक है; इसको रोकें।
बिलकुल रोकें।
दस मिनट में
क्या होगा, ज्यादा से
ज्यादा प्राण
ही निकल जाएंगे
न! किसी के
निकलते कभी
सुने नहीं गए
कि दस मिनट
खांसी रोक ली
तो उनके प्राण
निकल गए। दस
मिनट खांसने
से भला निकल
गए हों, खांसी
रोकने से कभी
नहीं निकले
हैं। कृपा
करें, बिलकुल
रोक दें; बिलकुल
मुर्दा हो
जाएं। जब मैं
कहता हूं र
स्टाप, रुके!
तो रुक जाएं, बिलकुल जड़
हो जाएं; नहीं
तो काम व्यर्थ
हो जाता है।
वह शक्ति जगती
है, उसको
भीतर काम करने
का मौका नहीं
मिल पाता।
खासी—वासी में
निकाल कर अपने
घर वापस लौट
गए। फिर मेरे
पास आकर कहते
हैं कि कुछ
हुआ नहीं।
खांसो, इतना
भी क्या कुछ
कम हो रहा है!
मेरे पास आते
हैं कि ध्यान
नहीं हुआ और
मैं जानता हूं
कि वे खांस
रहे थे पूरे
वक्त। अब
ध्यान भी क्या
करे!
थोड़ा
मालकियत
स्थापित करें।
जब मैं कहता
हूं चुप, तो यहां ऐसा
सन्नाटा हो
जाना चाहिए कि
यहां कोई भी
नहीं है; मिट
गए। तो ही
परिणाम होगा।
जब
मैं अंग्रेजी
में बोलना
शुरू करता हूं, तो आप उठ
नहीं सकते हैं,
बैठ जाएं
वहीं। थोड़ी
समझ तो बरतें!
जब मैं हिंदी
में बोल रहा हूं
तो जो हिंदी
नहीं समझ सकते,
वे शांति से
बैठे हुए हैं।
और जब मैं
अंग्रेजी में
बोलता हूं तो
जो अंग्रेजी
नहीं समझते, वे फौरन उठे
और चले! इससे
बड़ा अधैर्य और
मूढूता पता
चलती है। यहौ
विदेशी मित्र
भी हैं पचास।
वे भी बैठे
सुन रहे हैं।
उनके चेहरों
की तरफ देखें।
जब मैं हिंदी
में बोल रहा
हूं तब जरा
उनके चेहरों
की तरफ देखें,
आपके चेहरे
से भी ज्यादा
समझते हुए
उनके चेहरे
मालूम पड़ते
हैं। क्यों?
समझ
वे बिलकुल
नहीं रहे हैं।
लेकिन इतना भी, इतना
धैर्य कि हम
नहीं समझ पा
रहे हैं, तो
भी कोई काम की
बात कही जा
रही है, तो
मौन से उसे
सुन तो लें।
समझ न पाएंगे,
लेकिन यह
घंटे भर का
मौन तो उपयोगी
हो जाएगा। समझ
न पाएंगे तो
भी घंटे भर का
यह धैर्य भी
तो ध्यान है।
लेकिन
जब मैं
अंग्रेजी में
बोलना शुरू
करता हूँ कि
बस—आप उठे।
उसका मतलब है
कि न धैर्य है, न थोड़ा शांत
बैठने की
प्रतीक्षा है,
न दूसरों के
बाबत, कि
दूसरों को
बाधा पड़ेगी
इसकी कोई
चिंता है।
थोड़ा सोचें!
मेरे
एक परिचित कवि
स्वीडन गए हुए
थे; उर्दू
के कवि हैं।
वे मुझे कह
रहे थे कि मैं
उर्दू में
कविता पढ़ता, कोई समझ न
पाता, लेकिन
हजारों लोग
शांत बैठे
रहते। वे
मुझसे बोले कि
मैं हैरान हुआ,
मैं तो समझ
रहा था कि कोई
सुनने ही नहीं
आएगा; अगर
कोई सुनने भी
आया तो लोग
चले जाएंगे
वापस। तो
उन्होंने
पूछा लोगों से
कि आपकी समझ
में तो नहीं
आता, फिर
आप चुप क्यों
बैठे रहते हैं?
तो
उन्होंने कहा, समझ में
तो हमें नहीं
आता, लेकिन
जब आप इतने
भाव से गाते
हैं, तब
आपकी आखें, आपका हाथ, आपकी मुद्रा,
वह हमारी
समझ में आती
है, कि
जरूर कोई काम
की और गहरी
बात कही जा
रही है। तो
इतने शिष्ट तो
हम हैं कि
आपके इस भाव
में, अवस्था
में हम बाधा न
डालें। तो यह
नहीं चलेगा।
रात मैं देखता
हूं कि कुछ
बाहर के लोग, मालूम पड़ता
है, आ जाते
हैं। जैसे ही
मैं अंग्रेजी
में बोलना
शुरू करता हूं
वे चल पड़ते
हैं! आज रात
कोई भी चल
नहीं सकेगा।
आपके पास कोई
उठे, उसे
फौरन बिठा दें।
और अगर वह
चलता है तो कल
रात से मैं
प्रवेश नहीं
करने दूंगा; मैं हिंदी
में बोलने के
पहले आपको कह
दूंगा कि जो
अंग्रेजी में
उठने वाले हैं,
वे पहले उठ
जाएं।
जीवन
को एक अनुशासन, एक
व्यवस्था
देने की जरूरत
है, नहीं
तो कुछ नहीं
हो पाएगा।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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