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मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--108

प्रेम को सम्हाल लो, सब सम्हल जाएगा—(प्रवचन—एकसौ आठवां) 

अध्याय 67 : खंड 2

तीन खजाने

यदि कोई प्रेम और अभय को छोड़ दे,
कोई मिताचार और आरक्षित शक्ति को छोड़ दे,
कोई पीछे चलना छोड़ कर आगे दौड़ जाए,
तो उसका विनाश सुनिश्चित है।
क्योंकि प्रेम आक्रमण में जीतता है, और सुरक्षा में वह अभेद्य है।
जिन्हें वह नष्ट होने से बचाना चाहता है,
स्वर्ग उन्हें प्रेम के कवच से सुसज्जित करता है।

प्रेम आत्मा का भोजन है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। प्रेम आत्मा में निहित परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है।
उसके बिना जो जीता है, भूखा ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, वह क्षुधातुर ही जीता है। उसके बिना जो जीता है, उसका शरीर भला जीता हो, उसका मन भला जीता हो, उसकी आत्मा मरी-मरी ही रहती है।
उसे आत्मा का कोई अनुभव भी नहीं होता। आत्मा उसके लिए केवल एक शब्द है--सुना गया, पढ़ा गया; लेकिन शब्द बिलकुल अर्थहीन है। क्योंकि बिना प्रेम के कभी किसी ने जाना ही नहीं कि वह कौन है। बिना प्रेम के तो आदमी अपने से बाहर-बाहर ही भटकता है; अपने घर को उपलब्ध नहीं हो पाता।
भीतर आने का एक ही द्वार है, वह प्रेम है। जैसे शरीर को श्वास की जरूरत है प्रतिपल; श्वास न मिले तो शरीर का जीवन से संबंध टूट जाता है। श्वास सेतु है। उससे हमारा शरीर अस्तित्व से जुड़ा है। श्वास भी दिखाई तो पड़ती नहीं, सिर्फ उसके परिणाम दिखाई पड़ते हैं कि आदमी जीवित है। श्वास चली जाती है तब भी परिणाम ही दिखाई पड़ते हैं, श्वास का जाना तो दिखाई नहीं पड़ता। यह दिखाई पड़ता है कि आदमी मुर्दा है। प्रेम और भी गहरी श्वास है, और भी अदृश्य; वह आत्मा और परमात्मा के बीच जोड़ है। जैसे शरीर और अस्तित्व के बीच श्वास ने जोड़ा है तुम्हें, वैसे ही प्रेम की तरंगें जब बहती हैं तभी तुम परमात्मा से जुड़ते हो। उस जुड़ने में ही पहली बार तुम्हें अपने होने के यथार्थ का पता चलता है। इसलिए प्रेम से महत्वपूर्ण कोई दूसरा शब्द नहीं। प्रेम से गहरी दूसरी कोई अनुभूति नहीं।
प्रेम है क्या? और जो इतना महत्वपूर्ण है, उसे हम कैसे समझें?
प्रेम की कीमिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
तुम अपने चेहरे को भी पहचानते हो तो इसीलिए कि दर्पण में तुमने चेहरे को देखा है। अन्यथा बताओ मुझे, कैसे अपना चेहरा पहचानते? अगर दर्पण में कभी चेहरा न देखा होता और कभी अनायास तुम्हारी तुमसे ही मुलाकात हो जाती, तो तुम पहचान न पाते। कैसे पहचानते? स्वयं को भी देखने के लिए एक दर्पण की जरूरत है।
प्रेम दूसरे की आंखों में अपने को देखना है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। जब किसी की आंखें तुम्हारे लिए आतुरता से भरती हैं, कोई आंख तुम्हें ऐसे देखती है कि तुम पर सब कुछ न्योछावर कर दे, किसी आंख में तुम ऐसी झलक देखते हो कि तुम्हारे बिना उस आंख के भीतर छिपा हुआ जीवन एक वीरान हो जाएगा, तुम ही हरियाली हो, तुम ही हो वर्षा के मेघ; तुम्हारे बिना सब फूल सूख जाएंगे, तुम्हारे बिना बस रेगिस्तान रह जाएगा; जब किसी आंख में तुम अपने जीवन की ऐसी गरिमा को देखते हो, तब पहली बार तुम्हें पता चलता है कि तुम सार्थक हो। तुम कोई आकस्मिक संयोग नहीं हो इस पृथ्वी पर; तुम कोई दुर्घटना नहीं हो। तुम्हें पहली बार अर्थ का बोध होता है; तुम्हें पहली बार लगता है कि तुम इस विराट लीला में सार्थक हो, सप्रयोजन हो; इस विराट खेल में तुम्हारा भाग है; यह मंच तुम्हारे बिना अधूरी होगी; यहां तुम न होओगे तो कुछ कमी होगी; कम से कम एक हृदय तो तुम्हारे बिना रेगिस्तान रह जाएगा, कम से कम एक हृदय में तो तुम्हारे बिना सब काव्य खो जाएगा; फिर कोई वीणा न बजेगी। ऐसा एक व्यक्ति की आंखों में, उसके हृदय में झांक कर तुम्हें पहली बार तुम्हारे मूल्य का पता चलता है। अन्यथा तुम्हें कभी मूल्य का पता न चलेगा।
तुम कितना ही धन इकट्ठा कर लो, तुम व्यर्थ ही लगोगे। क्या सार है? तुम कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाओ, भीतर तुम जानते ही रहोगे कि खोखले हो और पदों पर तुम जबरदस्ती पहुंचते हो। इसलिए अगर तुम लोगों की आंखों में पदों पर से देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे बिना वे कहीं ज्यादा आनंदित होंगे; तुम्हारे होने से ही उन्हें कष्ट है; तुम्हारे न होने से बड़ी शांति होगी। तुम्हारे पास धन हो और तुम लोगों की आंखों में देखो तो तुम्हें लगेगा कि तुम शत्रु हो; तुमने जैसे उनका कुछ छीन लिया है, जो तुम्हारे हटते ही उन्हें वापस मिल जाएगा।
प्रेम के अतिरिक्त तुम न केवल अपने को अकारण पाओगे, न केवल व्यर्थ पाओगे, बल्कि तुम हजारों आंखों में अनुभव करोगे कि तुम एक दुर्घटना हो, तुम्हारा होना एक अपशकुन है, कोई तुम्हारे कारण सौभाग्य से नहीं भरा है, तुम्हारे कारण सब तरफ दुर्भाग्य के चिह्न हैं। इन दुर्भाग्य के चिह्नों में, इन दुर्भाग्य की चीखती-पुकारती आवाजों के बीच तुम नर्क से घिर जाओगे। और अगर तुम्हें अपना जीवन नारकीय मालूम पड़ता है तो समझ लेना कि यही कारण है।
प्रेम में कोई उतरा कि स्वर्ग में उतरा। प्रेम के अतिरिक्त और सब स्वर्ग कल्पनाएं हैं, प्रतीक हैं। एक ही स्वर्ग है वास्तविक, और वह यह है कि तुम किसी के लिए इतने सार्थक हो उठो कि दूसरा अपना जीवन खोने को राजी हो जाए तुम्हारे लिए।
लेकिन इतने सार्थक तो तुम तभी हो सकोगे जब तुम दूसरे के लिए अपना जीवन खोने को राजी हो जाओ। प्रेम का अर्थ है जीवन से किसी बड़ी चीज को जान लेना, जिसके लिए जीवन भी गंवाया जा सकता है। जब तक जीवन तुम्हारे लिए सबसे बड़ी चीज है, तब तक तुम गरीब ही रहोगे। जीवन तो केवल अवसर है--जीवन से महत्तर को पा लेने का। जीवन तो केवल एक घड़ी है--अतिक्रमण के लिए; एक सीढ़ी है, जिससे तुम ऊपर उठ जाओ। जीवन मंदिर नहीं है, केवल मंदिर का द्वार है। द्वार से ही कोई कभी कैसे तृप्त हो सकेगा?
पर कैसे तुम जानोगे पहली झलक? पहली किरण कैसे उतरेगी तुम्हारे जीवन में जिससे तुम अनुभव कर पाओ कि तुम्हारे होने से कहीं कोई सौभाग्य फलित हुआ है?
यह थोड़ा सा बारीक है, नाजुक है, और एक-एक कदम सम्हाल कर रखना।
जब तुम किसी के प्रेम में उतर जाते हो--वह कोई भी हो, मित्र हो, मां हो, पति हो, पत्नी हो, प्रेयसी हो, प्रेमी हो, बच्चा हो, बेटा हो, तुम्हारी गाय हो, तुम्हारे बगीचे में खड़ा हुआ वृक्ष हो, तुम्हारे द्वार के पास पड़ी एक चट्टान हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई भी हो--जहां भी प्रेम की रोशनी पड़ती है, उस प्रेम की रोशनी में दूसरी तरफ से प्रत्युत्तर आने शुरू हो जाते हैं। प्रेम की घड़ी में तुम अकेले नहीं रह जाते; कोई संगी है, कोई साथी है। और कोई तुम्हें इतना मूल्यवान समझता है कि तुम्हें अपना जीवन दे दे; तुम किसी को इतना मूल्यवान समझते हो कि अपना जीवन दे दो। जरूर तुमने कुछ पा लिया जो जीवन से बड़ा है, जिसके सामने जीवन गंवाने योग्य हो जाता है। प्रेम का स्वर तुम्हारे जीवन में उतर आया।
ऐसा दूसरे की आंखों से घूम कर, दूसरे के दर्पण से घूम कर ही तुम्हें अपनी पहली खबर मिलती है कि मैं कौन हूं। अन्यथा तुम राह के किनारे पड़े कंकड़-पत्थर हो। प्रेम के माध्यम से गुजर कर ही पहली दफे तुम्हें अपने हीरे होने का पता चलता है। और जब ऐसी प्रतीति होने लगती है कि तुम मूल्यवान हो, तो यह बड़े राज की बात है कि जितना तुम्हें एहसास होता है तुम मूल्यवान हो, उतने ही मूल्यवान तुम होने भी लगते हो। क्योंकि अंततः तो तुम परमात्मा हो; अंततः तो तुम इस सारे जीवन का निचोड़ हो; अंततः तो तुम्हारी चेतना नवनीत है सारे अस्तित्व का। लेकिन प्रेम से ही तुम्हें पहली खबर मिलेगी कि तुम यहां यूं ही नहीं फेंक दिए गए हो। संयोगवशात तुम नहीं हो। कोई नियति तुमसे पूरी हो रही है। अस्तित्व की तुमसे कुछ मांग है। अस्तित्व ने तुमसे कुछ चाहा है। अस्तित्व ने तुम्हें कोई चुनौती दी है। अस्तित्व ने तुम्हें यहां बनाया है ताकि तुम कुछ पूरा कर सको।
दुकान और बाजार काफी नहीं हैं; उन्हें कोई दूसरा भी कर लेगा। धन इकट्ठा करना जरूरी भला हो, पर्याप्त नहीं है; क्योंकि जब तुम मरोगे, वह सब पड़ा रह जाएगा। कुछ ऐसा भी कमा लेना जरूरी है जो मौत न मिटा सके। और मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम एकमात्र संपदा है जिसे मृत्यु नहीं मिटा सकती। क्यों? क्योंकि प्रेम की संपदा के लिए तुम जीवन का दान देने को तैयार हो। जिस संपदा के लिए तुम जीवन का दान देने को तैयार हो, वह जीवन से बड़ी है। जो जीवन से बड़ी है वह मृत्यु से भी बड़ी है; क्योंकि मृत्यु तो जीवन का ही हिस्सा है।
प्रेम के क्षण में ही तुम्हें जीवन और मृत्यु के पार होने का पहला अनुभव होता है। अगर इससे तुम वंचित रह गए, अगर तुम जान ही न पाए कि प्रेम क्या है, तो तुम अकारण ही आए, अकारण ही गए; तुमने जीवन से कुछ सीखा न। तुमने फूल तो बहुत देखे, लेकिन सुवास तुम न पा सके। तुमने घटनाएं तो बहुत देखीं, बहुत ऊहापोह से गुजरे, बड़ी आपाधापी में रहे, बड़ी यात्रा की, लेकिन कहीं पहुंच न सके। अंत की यात्रा में किसी मंदिर में निवास न हो पाया; तुम राह पर ही मरे; तुम राह के भिखारी ही रहे; कोई घर न मिला, कोई जगह न मिली जहां तुम शांत हो जाते, जहां तुम आनंदित हो जाते।
प्रेम एक विराम है संसार के लिए। प्रेम के क्षण में संसार खो जाता है। प्रेम के क्षण में न बाजार है, न गणित है, न तर्क है। प्रेम के क्षण में जैसे इस बड़े मरुस्थल में एक मरूद्यान बन जाता है, एक छोटा सा हरा-भरा सरोवर! चारों तरफ रेगिस्तान है; उसके मध्य में तुम एक सरोवर में लीन हो जाते हो। उस सरोवर से तुम्हें और बड़े सरोवरों की खबर मिलती है। उस हरित उद्यान से तुम्हें और बड़ी हरियालियों के इशारे मिलते हैं। उस थोड़े से विश्राम से तुम्हें परम विश्राम की याद आती है।
प्रेम प्रशिक्षण है प्रार्थना के लिए। और जिसके पास प्रेम है, उसका भय खो जाता है। उसके पास डरने योग्य कुछ रहा ही नहीं। भयभीत तो तुम इसीलिए हो कि जीवन जा रहा है और संपदा तो तुमने कुछ कमाई नहीं। भयभीत तो तुम इसीलिए हो कि सांझ आने लगी, सूरज के ढलने का वक्त हुआ, पक्षी अपने घरों को लौटने लगे और तुम्हें अपने घर का पता भी नहीं है। भयभीत होकर तुम घबड़ा जाते हो। रात उतरने के करीब है! मौत आने लगी! और अभी तुम राह पर ही थे। अभी तुम कहीं भी पहुंचे न थे। इसलिए कंपता ही रहता है व्यक्ति, जिसके जीवन में प्रेम की छाया नहीं है। वह ऐसे ही कंपता है जैसे तूफान में वृक्ष के पत्ते कंपते हैं; या भयंकर उत्तुंग लहरें उठती हैं सागर की, छोटी सी नाव कंपती है। ऐसे ही तुम कंपते हो।
जीवन में बड़े तूफान हैं, बड़ी आंधियां हैं; और तुम्हारे पास प्रेम का लंगर भी नहीं है। नाव बड़ी छोटी है। जीवन बड़ा संघर्षपूर्ण है। लहरें भयंकर हैं; और तुम्हारे पास जीवन से पार की कोई कुंजी नहीं; एक भी ऐसा अनुभव नहीं जहां तुम्हारे अंधकार में कोई किरण उतरी हो जो तुम्हारे अंधकार का हिस्सा न हो, जहां तुम्हारे हृदय में कोई वाद्य बजा हो जो तुमने न बजाया हो, जो तुम्हारे हाथों की कृति न हो, जो अनंत ने बजाया हो।
प्रेम की एक खूबी है: तुम प्रेम कर नहीं सकते; हो जाए, हो जाए; घट जाए, घट जाए। तुम इतना ही कर सकते हो कि बाधा न डालो; जब प्रेम घटता हो तो तुम भाग मत जाओ; जब प्रेम घटता हो तो तुम पीठ न कर लो; जब प्रेम घटता हो तो तुम आंख बंद न करो। तुम इतना ही कर सकते हो कि तुम बाधा न डालो। लेकिन प्रेम को करने के लिए तुम और क्या कर सकते हो? कुछ भी नहीं।
इसलिए प्रेम तुम्हारे हाथों का संगीत नहीं है; तुमसे विराट अपनी अंगुलियां तुम्हारे ऊपर रखता है। हां, तुम चाहो तो बजने से इनकार कर सकते हो; तुम चाहो तो अकड़ में रह सकते हो; तुम इतने अकड़ सकते हो कि अनंत की अंगुलियां तुम्हारे भीतर कोई स्वर पैदा न कर पाएं।
इसलिए तो हम कहते हैं कि प्रेम पागलपन है, अंधापन है; क्योंकि पता नहीं, कहां से आता है, कहां ले जाता है। अनजान की पुकार है। अचानक तुम्हें लगता है, एक क्षण में--कोई तर्कयुक्त गणित नहीं बिठाना पड़ता कि इस व्यक्ति को मैं प्रेम करूं, कुछ सोचना नहीं पड़ता कि इस व्यक्ति में क्या-क्या प्रेम योग्य है, कुछ हिसाब नहीं लगाना पड़ता--अचानक एक क्षण में, समय का व्यवधान भी नहीं पड़ता, तुम पाते हो कि तुम प्रेम में हो, किसी व्यक्ति ने तुम्हारे हृदय को बजा दिया, किसी ने सोए तार छेड़ दिए। वह प्रेमी हो सकता है, वह गुरु हो सकता है, वह मित्र हो सकता है; लेकिन प्रेम का स्वर एक है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या नाता-रिश्ता बनाते हो; लेकिन अचानक घटना घटती है। यह मूल्यवान है समझ लेना। क्योंकि जिसे तुम घटाते हो, वह तुमसे बड़ा न होगा; जिसे तुम कर सकते हो, वह तुमसे छोटा होगा; जो तुमसे किया जाएगा, वह तुम्हारे जीवन के पार ले जाने वाला नहीं हो सकता।
इसलिए तो बहुत बार मुझे ऐसा लगता है कि ध्यान से भी गहन है प्रेम; क्योंकि ध्यान तो तुम शुरू करते हो, कुछ तुम करते हो। ऐसे भी ध्यान हैं जिन्हें तुम शुरू नहीं करते, अगर तुम्हारी समझ हो तो तुम उन्हें पहचान लोगे। लेकिन वैसे ध्यान तुम प्रेम के बिना न पहचान पाओगे। एक बार तुमने अपने को बह जाने दिया अनंत के हाथों में; एक बार तुमने सिर्फ रोका नहीं; जहां ले जाना चाहती थीं हवाएं, तुम्हें ले गईं; जिस तरफ उड़ाना चाहती थीं, तुम उड़ गए; तुमने यह न कहा कि मुझे तो पूरब जाना है और यह तो पश्चिम की यात्रा हो रही है; तुमने यह न कहा कि मेरी तो ये अपेक्षाएं हैं, ये शर्तें हैं; तुमने न कोई शर्त रखी, न कोई बाधा खड़ी की, तुम चुपचाप समर्पित बह गए; अगर एक बार तुमने प्रेम में बहना जान लिया तो तुम्हें ध्यान की कुंजी भी हाथ लग जाएगी। क्योंकि वह भी करने की बात नहीं है, वह भी बह जाने की बात है।
कर-करके तुम क्या करोगे? तुम्हीं तो करोगे। तुम्हारे अज्ञान से ही तो तुम्हारा कृत्य उठेगा। तुम्हारे रोग से ही तो उठेगा तुम्हारा ध्यान। तुम्हारा ध्यान भी रुग्ण होगा। तुम्हारा ध्यान भी अंधकारपूर्ण होगा। तुमसे ऊपर से कुछ आए तो ही प्रकाश हो सकता है। और तुमसे ऊपर से कुछ आए, इसकी तैयारी कैसे होगी?
ध्यान दूर है, अगर प्रेम पास नहीं। अगर प्रेम पास है, तो ध्यान भी बहुत पास है। इसलिए लाओत्से, जीसस, कृष्ण प्रेम पर बड़ी प्रगाढ़ता से जोर देते हैं। वह जोर महत्वपूर्ण है।
क्या घटता है प्रेम के क्षण में?
दो व्यक्ति इतने करीब आ जाते हैं कि उन्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दो हैं; अद्वैत घटता है प्रेम के क्षण में। ऐसा भी नहीं लगता कि हम एक हो गए, और ऐसा भी नहीं लगता कि हम दो हैं।
कबीर जो कहते हैं, कि एक कहूं तो है नहीं। कहना ठीक नहीं है; गलत होगा; क्योंकि एक है नहीं। दो कहूं तो गारी। और दो कह दूं तो गाली हो जाती है।
प्रेम के क्षण में तुम्हें पहली दफा पता चलता है--दो भी हो, एक भी हो। एक कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि दो हो; दो कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रेम का स्वर ऐसा बज रहा है कि जैसे एक ही तरंग के दो छोर हों। ये दोनों हृदयों के वाद्य अलग-अलग नहीं बज रहे हैं; एक आर्केस्ट्रा है, एक साथ बज रहे हैं। उनमें एक लयबद्धता है। एक के बीच दो का होना अनुभव होता है; दो के बीच एक का होना अनुभव होता है। प्रेम पहेली हो जाती है; और परम पहेली की पहली खबर मिलती है। और जब तुम एक बार किसी को करीब आने देते हो, इतने करीब कि खतरा हो सकता है...।
हम साधारणतः जीवन में करीब लोगों को आने नहीं देते। क्योंकि करीब का मतलब है दूसरे के हाथों में अपने को छोड़ना।
पश्चिम में वैज्ञानिकों ने अभी नयी-नयी एक खोज की है, उसको वे टेरीटोरियल इम्पेरेटिव कहते हैं। वे कहते हैं, हर पशु अपने आस-पास एक सुरक्षित क्षेत्र बना लेता है, जिसके भीतर किसी को प्रवेश नहीं करने देता। तुम भी गौर कर सकते हो। एक बंदर बैठा हो, तुम धीरे-धीरे उसके पास जाना शुरू करो, बहुत धीरे। एक सीमा तक वह बिलकुल बेपरवाह रहेगा। समझो तुम दस फीट करीब आ गए, वह बेपरवाह है, उसे कोई मतलब नहीं तुमसे। लेकिन दस फीट के भीतर तुमने एक कदम रखा कि वह सजग हो जाएगा: अब खतरा है। तुम इतने करीब आ रहे हो; कौन जाने, दोस्त हो कि दुश्मन हो। वैज्ञानिक कहते हैं, हर पशु की सीमा-रेखा है। उसके भीतर आने पर वह सजग हो जाता है और लड़ने को तत्पर हो जाता है।
वैसी ही सीमा-रेखा मनुष्य की भी है। समझो, एक स्त्री रास्ते पर खड़ी है। तुम उसके पास जाते हो। एक सीमा तक वह कोई फिक्र न लेगी। समझो कि तुम पांच फीट दूर हो, वह कोई फिक्र नहीं कर रही। लेकिन तुम तीन फीट दूर आ गए, अचानक वह सजग हो जाती है। अब वह तैयार है। अब तुम उसकी सीमा-रेखा के भीतर आ रहे हो, जहां खतरा हो सकता है, जहां डर है। एक स्त्री को तुम देखते रहो; वैज्ञानिक कहते हैं कि तीन सेकेंड तक वह बेचैन नहीं होती, तीन सेकेंड के बाद तुमको वह लुच्चा समझेगी। तीन सेकेंड सीमा-रेखा है। इतनी देर तक ठीक है। जीवन में देखना इतना तो होगा। लेकिन तीन सेकेंड के बाद अब तुम सीमा के बाहर जा रहे हो, अब तुम सज्जनता की, शिष्टाचार की, सभ्यता की सीमा तोड़ रहे हो।
लुच्चा का मतलब तुम जानते हो? मतलब होता है: घूर कर देखने वाला। और कोई मतलब नहीं होता। लुच्चा शब्द का ही मतलब होता है: घूर कर देखना। लुच्चा शब्द आता है लोचन से, आंख से। उसी से आता है आलोचक; वह भी घूर-घूर कर देखता है। तो लुच्चा और आलोचक में कोई बहुत फर्क नहीं है। शब्द की दृष्टि से दोनों एक ही धातु से आते हैं। कब आदमी लुच्चा हो जाता है, एक सीमा है।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है बड़े गौर से। तो वे कहते हैं कि अगर एक स्त्री तुम्हें एक बार देखे तो कोई बात नहीं; अगर लौट कर देखे तो खतरा है। तुम एक होटल में गए और एक स्त्री बैठ कर खाना खा रही है; उसने एक दफा तुम्हें देखा, यह ठीक है। एक दफा कोई भी देखता है: कौन आ रहा है? लेकिन अगर वह दुबारा देखे तो तुम सावधान हो जाना; वह तुम में उत्सुक है। खतरे की सीमा आ गई।
इसलिए जो लोग बहुत सी स्त्रियों के साथ खेल करते रहे हों, उन्हें बहुत सी बातों का पता चल जाता है, वे बहुत से आंतरिक कोड पहचानने लगते हैं। वे उस स्त्री के पास कभी भी न जाएंगे, जिसने एक ही दफा देखा। जिसने दुबारा देखा, उस स्त्री में निमंत्रण है; उसने कुछ कहा नहीं है, लेकिन स्त्री ने निमंत्रण दे दिया है, बड़ा अनजान। शायद उसे भी पता न हो, अचेतन में निमंत्रण दे दिया है। यह स्त्री राजी है; इससे आगे संबंध बढ़ाया जा सकता है।
अगर तुम एक स्त्री के पास खड़े हो, अगर वह तुममें उत्सुक नहीं है तो उसकी कमर पीछे की तरफ झुकी रहेगी, जैसे वह तुमसे दूर होना चाहती है। लेकिन अगर वह तुममें उत्सुक है तो वह आगे की तरफ झुकी रहेगी, जैसे वह तुम्हारे पास आना चाहती हो। उसे भी पता नहीं है, लेकिन वह निमंत्रण दे रही है; वह तुम्हें कह रही है कि पास आने को मैं तैयार हूं।
खतरा है। क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति पास आता है, तुम्हारे एकांत पर दूसरे का कब्जा होना शुरू हो जाता है। तुम्हारी प्राइवेसी समाप्त हुई, तुम्हारी निजता अब निजता न रही; एक दूसरा आदमी प्रविष्ट हुआ। अब तुम्हारा बुरा भी वह जान लेगा, भला भी जान लेगा। एक फासला रखना जरूरी है; तो हम भले बने रहते हैं, बुरे को हम छिपाए रखते हैं। निकट जो आता है उसके सामने बुरा भी प्रकट हो जाएगा; तुम अपनी सहज यथार्थता में जाहिर हो जाओगे। तुम डरते हो; वह दिखाने योग्य रूप नहीं तुम्हारा, वह बताने योग्य नहीं है।
तो जैसे घरों में तुम्हारा बैठकखाना होता है, जिसको तुम सजा कर रखते हो, ऐसे तुम्हारे व्यक्तित्व का बैठकखाना है, जिसको तुम सजा कर रखते हो। वहां तक मेहमानों को तुम ले जाते हो, उससे भीतर नहीं। क्योंकि उसके भीतर तुम्हारे जीवन का यथार्थ है। अपने जीवन के यथार्थ में जिसने बहुत कुछ छिपाया हो--रुग्ण, क्रोध, घृणा, हिंसा, वैमनस्य, द्वेष,र् ईष्या, मत्सर--वह किसी को पास न आने देगा। वह भयभीत होगा कि अगर कोई पास आया तो यह सब जान लेगा; वह जीवन के अंतःगृह में प्रवेश कर जाएगा। और वहां तो तुम खुद भी जाने से डरते हो, दूसरे को ले जाने की तो बात दूर। तुम खुद भी वहां पीठ किए रहते हो। तुम खुद भी देखने से डरते हो, क्योंकि इतना कूड़ा-कचरा, इतनी गंदगी, इतनी दुर्गंध वहां है।
प्रेम के लिए एक ही बाधा है कि तुम अपने से डरे हुए हो और शायद तुम दूसरे को पास न आने दो। तो हर आदमी ने कवच बना लिया है अपने चारों तरफ, वह उसके भीतर जीता है। उस कवच के बाहर वह हाथ निकालता है--लोहे के कवच के बाहर--हाथ मिला कर फिर हाथ को भीतर ले लेता है। उसी कवच के भीतर से थोड़ा सा मुस्कुराता है; उसी कवच के भीतर से देखता है।
लेकिन कवच के बाहर जब तक कोई न आए तब तक प्रेम नहीं घट सकता। प्रेम का अर्थ है: दूसरे को अपना इतना बना लेना कि कुछ छिपाने को न रहे, दूसरे को अपना इतना मान लेना कि जैसे वह तुम ही हो, अब उससे छिपाना क्या! अगर तुम अपने प्रेमी से कुछ छिपाते हो तो अभी प्रेम में फासला है--कुछ भी हो वह छिपाना। अगर तुमने अपने प्रेमी के सामने सब खोल दिया है--सब, बेशर्त, कुछ भी छिपाया नहीं है--तो ही तुम्हारे जीवन में वह घटना घटेगी जिसको प्रेम कहते हैं।
नहीं तो तुम अपनी सुरक्षा तैयार किए हुए हो। प्रेमी से भी तुमने बहुत सी बातें छिपा रखी हैं। और बड़े मजे की बात है, अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम अजनबियों से ऐसी बातें कह देते हो जो तुमने प्रेमियों से छिपा रखी हैं। ट्रेन में चलते हो, ऐसे ही ऐरा-गैरा कोई आदमी रास्ते में मिल जाता है, उससे तुम ऐसी बातें कह देते हो जो तुमने कभी अपनी मां से नहीं कहीं, अपने पिता से, अपनी पत्नी से नहीं कहीं। क्यों? क्योंकि अजनबी से कोई खतरा नहीं है, घड़ी भर बाद तुम अपने स्टेशन उतर जाओगे, वह कहीं और चला जाएगा। उससे कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन जिनसे चौबीस घंटे लेना-देना है उनसे तो छिपाना पड़ेगा; उनसे खतरा है।
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अजनबियों के साथ लोग अपने जीवन के बड़े गहरे कन्फेशन कर देते हैं, लेकिन निकट के लोगों से छिपाते हैं। क्योंकि अजनबी न तुम्हारा नाम-धाम जानता है, न तुममें उत्सुक है। तुम कहते हो तो इसलिए सुन लेता है कि चलो ठीक है, सफर है, साथ बैठे हैं तो सुन लो। अन्यथा तुम छिपाए रहते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा पर जा रहा था। और जैसा कि पति जानते हैं, उसने अपनी पत्नी से कहा कि बहुत जरूरी काम है, तीन दिन में निपट जाएगा, ऐसी आशा करते हैं। काम-धंधे की बात है, न भी निपटे, ज्यादा समय भी लग जाए, तो मैं तुम्हें वहां से कार्ड डाल दूंगा कि कितनी देर और रुकना पड़ेगा। पत्नी ने कहा, तुम फिक्र मत करो। तुम्हारे कोट में से कार्ड निकाल कर मैंने पढ़ लिया है। वह मिल गया कार्ड कि तुम पंद्रह दिन के पहले लौटने वाले नहीं हो। और यह कोई धंधे की यात्रा नहीं है।
पति हैं, पत्नी हैं, मित्र हैं, पिता हैं, बेटे हैं, एक-दूसरे से बहुत कुछ छिपा रहे हैं। उसी छिपाने में प्रेम मर जाता है, क्योंकि प्रेम किसी तरह की गुप्तता नहीं चाहता। प्रेम चाहता है प्रकटता, प्रेम चाहता है सहजता, प्रेम चाहता है खुला आकाश।
इसलिए तुम प्रेम को रोक सकते हो, ला नहीं सकते। ऐसे ही जैसे कोई अपना दरवाजा बंद कर ले; सूरज बाहर रहा आएगा, भीतर नहीं आ सकेगा। तुम कोई सूरज को भीतर थोड़े ही ला सकते हो; इतना ही कर सकते हो कि दरवाजा खोल दो; सूरज अगर है तो भीतर आ जाएगा। प्रेम को कोई पैदा नहीं कर सकता। प्रेम तो परमात्मा से अवतरित होता है। प्रेम तो परमात्मा की रोशनी है। तुम इतना ही कर सकते हो कि या तो दरवाजे बंद करके भीतर छिप रहो या दरवाजे खुले छोड़ दो ताकि प्रेम चला आए, जब भी चाहे चला आए।
लेकिन डर है, भय है। और दुष्टचक्र यह है कि जितना तुम भयभीत हो उतना ही प्रेम न आ सकेगा, दरवाजे तुम बंद रखोगे; और जितने तुम दरवाजे बंद रखोगे, उतने ही तुम भयभीत होते जाओगे। यह दुष्टचक्र है। इससे पार होना बड़ा मुश्किल मामला है। क्योंकि कहां से शुरू करें? जितना तुम अपने भीतर अपने को बंद रखोगे, प्रेम नहीं आ सकेगा; उतने ही ज्यादा तुम भयभीत होने लगोगे। क्योंकि प्रेम ही एकमात्र अभय है। प्रेम में ही तुम पहली दफा जानते हो, कोई मृत्यु नहीं है।
प्रेमी मर जाते हैं, प्रेम नहीं मरता। तो प्रेमी तो रूप थे, प्रेम ही था जो रूपायित हुआ था। मैं नहीं रहूंगा, तुम नहीं रहोगे; लेकिन जो हम दोनों के बीच घट रहा है, वह बचेगा। वह घटता ही रहेगा। किनारे खो जाते हैं, सरिता बचती है। ज्ञानी-ज्ञाता खो जाता है, ज्ञान बचता है। प्रेमी-प्रेयसी खो जाती है, प्रेम बचता है। प्रेम ही अनेक-अनेक बार रूप लेता है प्रेमी के और प्रेयसी के, ज्ञाता के और ज्ञेय के।
परमात्मा जीवन की ऊर्जा है; वह बचती है। सब रूप बनते हैं, मिटते हैं। तुम भयभीत रहोगे ही जब तक तुमने प्रेम को नहीं जाना; क्योंकि प्रेम में ही तो पहली दफे तुम्हें पता लगेगा: आ जाए मृत्यु, कुछ भी मिटेगा नहीं; आज आना हो आज आ जाए, क्योंकि जो पाना था वह पा लिया। प्रेम का एक क्षण बिना प्रेम के जीए हजारों जीवनों से बड़ा है। प्रेम का एक क्षण अनंत है। अगर तुमने एक क्षण को भी प्रेम जान लिया तो तुम मौत से कह सकते हो, अब आ जाओ, अब कोई अड़चन नहीं है; जो होना था हो गया, जो पाना था पा लिया। और वह समाधि जान ली जो मृत्यु के पार है; अब तुम आ जाओ; अब तुम्हारे आने से कुछ भी मिटेगा नहीं।
सिर्फ प्रेमी ही निश्चिंत मरता है; क्योंकि मृत्यु उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती। उसने अपनी प्रतिमा भी देख ली है प्रेम-पात्र के द्वारा, जो अमृत की है; और उसने अपने प्रेम-पात्र की भी प्रतिमा देख ली है, जो अमृत की है। भीतर तो तुम्हारे अमृत है, मृत्यु तो बाहर-बाहर है। प्रेम तुम्हें मौका देगा कि तुम्हारा भीतर खिल जाए; तुम्हारा भीतर फूल बन जाए और तुम देख लो।
प्रेम अभय करता है।
अब कठिनाई है जो वह यह है कि तुम शुरू कहां से करो? भयभीत रहोगे, प्रेम न हो सकेगा; प्रेम न होगा, और भयभीत होओगे; और भयभीत होओगे तो और तुम सुरक्षा कर लोगे, प्रेम के होने की और संभावना समाप्त हो जाएगी। कहां से शुरू करो?
साहस की जरूरत है; दुस्साहस की जरूरत है। भयभीत हो माना, फिर भी दरवाजा खोल दो। दरवाजा खोले बिना तुम अभय न हो सकोगे। इसलिए प्रतीक्षा मत करो कि जब अभय हो जाएंगे तब दरवाजा खोलेंगे; तब तो तुम कभी भी न खोल पाओगे। दरवाजा खोलो। कंपते हाथों से खोलो। कंपती छाती से खोलो। रोआं-रोआं भयभीत हो, लेकिन दरवाजा खोलो। इसलिए कहता हूं, दुस्साहस है। भय के बावजूद दरवाजा खोलना पड़ेगा। तुम यह अगर मांग रखोगे कि जब अभय हो जाऊंगा तब दरवाजा खोलूंगा, अभी तो बहुत भयभीत हूं, दरवाजा खोलने से पता नहीं कौन भीतर आ जाए! कैसी हवाएं, कैसे तूफान, कैसी आंधियां भीतर आ जाएं! अभी तो सुरक्षित हूं अपने घर में। तो सुरक्षा तुम्हारी कब्र बन जाएगी। फिर तुम दरवाजा कभी भी न खोल सकोगे।
छोटा बच्चा चलता है। वह यह नहीं कहता कि मैं तभी चलूंगा जब गिरने का सब डर मिट जाए। छोटे बच्चे अगर ऐसा कहें तो दुनिया में कोई फिर कभी चल ही न पाए। छोटे बच्चे बड़े दुस्साहसी होते हैं। छोटा बच्चा चलना शुरू कर देता है बिना भय के। और जानता है कि हाथ-पैर कंप रहे हैं, डगमगा रहा है, सहारे की जरूरत है, फिर भी छोटा बच्चा चाहता है, सहारा मत दो। मां सहारा देती है, छोटा बच्चा उसको छोड़ कर चलना चाहता है; क्योंकि सहारा अपमान है। और सहारे से कौन कब तक चलेगा? कितने दूर तक चलेगा? सहारा तो उधार है। दूसरे के सहारे पर कितनी देर टिका जा सकता है? छोटा बच्चा हाथ हिलाता है कि नहीं; वह अपनी तरफ से कोशिश करता है।
बड़ी महत्वपूर्ण घटना है छोटे बच्चे को चलते हुए देखना। उससे महत्वपूर्ण घटना जीवन में फिर दुबारा घटती ही नहीं, जब तक कि तुम आत्मा की यात्रा पर न निकलो। क्योंकि फिर एक नयी चाल शुरू होती है; अब वह शरीर की नहीं है, अब वह आत्मा की है। फिर तुम डगमगाते हो। छोटे बच्चे को देखो! उठाता है पैर, डरता है, सम्हालता है, कंप रहा है; फिर भी चलने की कोशिश करता है। वह यह नहीं कहता कि जब मैं चलना ठीक से कर सकूंगा, तभी चलूंगा। तो फिर ये पैर ठीक से चलेंगे कैसे? कब चलेंगे? छोटा बच्चा चलता है, गिरता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम भी नहीं गिरोगे। गिरोगे। क्योंकि कोई भी एकदम से नहीं चल सकता। चलना एक कला है जो धीरे-धीरे आती है। बच्चा गिरेगा, घुटने टूट जाएंगे, खून निकलेगा। लेकिन इससे कुछ बाधा न पड़ेगी। इससे चुनौती मिलेगी, बच्चा और चलने की कोशिश करेगा। अगर बच्चा तुम जैसा बुद्धिमान हो और एक दफा घुटने टूट जाएं और बिस्तर पर लेट जाए, और कह दे कि बस हो गया, अब यह काम दुबारा नहीं करना। नहीं, घुटने टूटते हैं तो और आकर्षण बढ़ता है; रस आता है चुनौती से। बच्चा फिक्र नहीं करता घुटने टूटने की; फिर चलता है, फिर-फिर चलता है। बहुत बार गिरता है। कोई हिसाब है बच्चे के गिरने का? लेकिन एक दिन खड़ा हो जाता है। जिस दिन बच्चा खड़ा होता है अपने पैरों पर, उस दिन उसकी शान देखने जैसी है। कितना छोटा, कितना कमजोर, असहाय; फिर अपने पैर पर खड़ा है। उसकी शान का कोई मुकाबला नहीं।
बस वैसी शान एक दफा और आती है जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। फिर छोटा सा दीया ऐसी शान से जगमगाता है जैसे महा सूरजों को फीका कर देगा। वह बोधिवृक्ष के नीचे जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, उस क्षण सब सूरज फीके हो गए। उस दिन एक छोटी सी बूंद ने सागर को छोटा कर दिया। उस दिन यह सारा अस्तित्व, इतना बड़ा होकर भी, बुद्धत्व से छोटा हो गया। क्योंकि एक बच्चा फिर अपने पैरों पर खड़ा हो गया; एक बच्चा फिर प्रौढ़ हुआ। अस्तित्व ने बुद्ध के द्वारा फिर से प्रौढ़ता का रस पाया। फिर से बोध का आनंद!
तो कथाएं हैं कि सारा गगन गूंज उठा अनंत-अनंत वाद्यों से; देवता नाच उठे; देवता बुद्ध के चरणों में झुके। क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो सारा अस्तित्व समारोह से भर जाता है; क्योंकि सारा अस्तित्व मां जैसा है। जैसे मां, जिस दिन पहले दिन उसका बच्चा खड़ा हो जाता है, अपने बल चलने लगता है, जैसी प्रफुल्लता से भर जाती है, वैसी प्रफुल्लता फूल-फूल पर, पत्ती-पत्ती पर, कण-कण पर छा जाती है। ये तो कथाएं इसी की सूचक हैं। कोई देवता हैं कहीं? कि कोई वाद्य बजाता है? कि कहीं कोई ब्रह्मा हैं जो आकर बुद्ध के चरणों में झुक जाते हैं? नहीं, ये तो सूचक हैं; ये तो काव्य-प्रतीक हैं। लेकिन इन्होंने बड़ी बात कही है।
आत्मा के पैरों के बल तुम जब खड़े हो जाओगे; जब तुम अपने दीपक स्वयं बन जाओगे। बुद्ध ने कहा है, अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बन जाओ।
कहां से शुरू करो? माना कि भय है, मान लो कि भय है; लेकिन भय को किनारे रखो और उठो। मान लो कि गिरोगे, निश्चित है कि गिरोगे; कभी कोई नहीं चल पाया बिना गिरे। बहुत बार चोट लगेगी; बहुत बार भटकोगे; भूल-चूक होगी। भूल-चूक होती ही है उससे जो चलने की कोशिश करता है; जो नहीं चलता उसी से भूल-चूक नहीं होती। तो मेरे हिसाब में तो एक ही भूल-चूक है, वह है न चलना। कोई भूल-चूक नहीं होती; तुम गोबर-गणेश की तरह बैठे रह जाते हो। हलन-चलन ही नहीं करते तो और आनंद से वंचित रह जाओगे। तुम कभी अमृत को उपलब्ध न हो सकोगे।
उठो! भय है, स्वीकार करो। भय के बावजूद खड़े होने की चेष्टा करो। भय है; द्वार खोलो। खतरा है, माना; मित्र भी आ सकता है, शत्रु भी आ सकता है। लेकिन शत्रु के भय से मित्र को गंवा देना बहुत बड़ी भूल है। आंधीत्तूफानों के डर से घर के भीतर बंद होकर जी लेना, तो जैसे जीए ही न; कब्र में ही रहे और मर गए। कब्र बड़ी सुरक्षित है; और जीवन में असुरक्षा है। दुस्साहस चाहिए। धीरे-धीरे कदम सम्हलने लगते हैं। और जब कदम सम्हल जाते हैं तो सब भय मिट जाता है।
प्रेम एकमात्र कवच है। और कोई कवच नहीं है, और कोई सुरक्षा नहीं है। और तुम जितने भी इंतजाम करोगे सुरक्षा के, सब गलत सिद्ध होंगे। तुम्हारे हाथों से बनाई गई सुरक्षा मृत्यु के पार न ले जा सकेगी। मृत्यु सब सुरक्षा को तोड़ देगी।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के घर डाका पड़ा। सब लोगों ने सोचा लुट गया। और बचाने की कोशिश में मुल्ला नसरुद्दीन बुरी तरह पीटा भी गया; ऐसा पीटा गया कि मरणासन्न अस्पताल में पड़ा है। जरा सा होश आया तो उसने अपनी पत्नी के नाम पत्र लिखा, जो दूसरे गांव गई थी। और लिखा, घबड़ाना मत। संयोग और सौभाग्य की बात समझो कि एक ही दिन पहले सब बैंक में सेफ डिपाजिट में जमा करवा दिया था। कुछ गया नहीं है। कुछ ले जाने को था भी नहीं। सिवाय मेरे जीवन के, कुछ भी नहीं गंवाया है। क्योंकि वह मरणासन्न है, और मर रहा है। सिवाय जीवन के और कुछ नहीं गंवाया है!
मरते वक्त तुम भी ऐसा ही पाओगे कि सिवाय जीवन के और कुछ नहीं गंवाया है। सब बचा है, सब तिजोरी में रखा है, बैंक में जमा है; सिर्फ तुम अपने को गंवा बैठे हो! लेकिन उस जमा का करोगे क्या? जीवन को ही खोकर अगर सब बचा लिया तो क्या बचाया? अगर सब खोकर भी जीवन बच सके तो बचा लेना। उसे ही मैं दुस्साहस कह रहा हूं।
लाओत्से के शब्दों को समझें।
"यदि कोई प्रेम और अभय को छोड़ दे...।'
और वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस तरफ प्रेम, उस तरफ अभय; आया प्रेम, पीछे चला आता है अभय।
"यदि कोई प्रेम और अभय को छोड़ दे, कोई मिताचार और आरक्षित शक्ति को छोड़ दे, कोई पीछे चलना छोड़ कर आगे दौड़ जाए, तो उसका विनाश सुनिश्चित है।'
लाओत्से यह कह रहा है कि जिसने प्रेम को छोड़ा, वह विनष्ट हो गया। और तुमने प्रेम को छोड़ कर सब बचा लिया है। तुमने अपनी होशियारी में प्रेम को छोड़ कर सब बचा लिया है। तुम अपनी होशियारी में सब गंवा बैठे हो। जिसने प्रेम को छोड़ा, उसका विनाश सुनिश्चित है। क्योंकि उसे जीवन का भोजन ही मिलना बंद हो गया।
पश्चिम में वैज्ञानिकों ने इधर बहुत सी खोजें की हैं, उनमें एक खोज प्रेम से संबंधित भी है। उन्होंने यह पाया है अनेक प्रयोगों के बाद...।
इजिप्त में एक प्रयोग चलता था, अनाथालय में। तो अनाथालय के दो हिस्से कर दिए थे उन्होंने; दो सौ बच्चे एक तरफ, दो सौ दूसरी तरफ। इन दो सौ बच्चों को पहले खंड में सब भोजन, कपड़े, सारी सुविधाएं दी जाती थीं, सिर्फ प्रेम को छोड़ कर। नर्स आएगी, दूध दे देगी, लेकिन किसी तरह का व्यक्तिगत संपर्क नहीं करेगी, मुस्कुराएगी नहीं; कठोर, यंत्रवत। डाक्टर आएंगे, इलाज कर देंगे, लेकिन इम्पर्सनल, अवैयक्तिक; व्यक्तिगत कोई संबंध बच्चों से नहीं बनाया जाएगा। न बच्चों को थपथपाया जाएगा, न उन्हें गले लगाया जाएगा। यह एक खंड; सारी वैज्ञानिक सुविधा दी जाएगी। और दूसरा खंड है, वहां भी उतनी ही सुविधा दी जाएगी, लेकिन बच्चों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए जाएंगे। डाक्टर आएगा तो मुस्कुराएगा, बैठ कर दो बात करेगा, कभी बच्चे को गले लगा लेगा। नर्स आएगी तो थपथपाएगी, कभी बच्चे को उठा कर उछालेगी
जो अनुभव हुआ तीन महीने के प्रयोग से वह यह हुआ कि पहले खंड के बच्चे सिकुड़ते गए। भोजन पूरा दिया जा रहा था, इलाज की पूरी व्यवस्था थी; लेकिन जीवनधारा सूखती गई। बच्चे तीन गुने ज्यादा बीमार पड़े पहले खंड में। करीब-करीब बच्चे बीमार रहे, स्वस्थ बच्चे धीरे-धीरे खो गए। दो सौ के दो सौ बच्चे धीरे-धीरे किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हो गए। दूसरे खंड के बच्चे धीरे-धीरे सभी बीमारियों के बाहर हो गए। और अगर बीमारी आती भी तो टिकती न। पहले खंड में बीमारी आ जाती तो हटती न। सब एक सा था, सिर्फ एक प्रेम के तत्व को हटा लिया था। और प्रेम भी क्या, कोई खास प्रेम नहीं दिया जा रहा था; थोड़ा थपथपा दिया, थोड़ा बच्चे से बात कर ली। लेकिन ऐसा अनुभव हुआ कि इन बच्चों को दूसरे खंड में कुछ मिल रहा था, अदृश्य, जो पहले खंड में नहीं मिल रहा था।
अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में वे एक प्रयोग कर रहे थे बंदर के बच्चों के साथ। तो एक तरफ उन्होंने बंदरिया बनाई थी, जो बिलकुल तारों की बनी थी। उसके स्तन से बच्चा दूध पी सकता था, लेकिन सिर्फ तार ही तार थे, ठंडे तार, कि बच्चा जब दूध पीने आए तो मां से कोई ऊष्मा न मिले, कोई गर्मी न मिले; दूध पी ले। और एक दूसरी मां उन्होंने बनाई थी, जिसके तारों पर गर्म कंबल चढ़ा हुआ था और जिसके भीतर बिजली का एक छोटा सा बल्ब जलता था जिससे थोड़ी गर्मी बनी रहती थी। जो बच्चे उसके पास दूध पीते थे, वे तो स्वस्थ रहे। कोई प्रेम न था, लेकिन बच्चों को भ्रांति थी। भ्रांति तक भी कि मां ऊष्ण है। और जो बच्चे ठंडी मां के पास दूध पी रहे थे--दूध वही था--लेकिन धीरे-धीरे सूखने लगे। फिर दोनों मां को एक जगह लाकर एक ही कमरे में रख दिया और सब बच्चों को उसी कमरे में रख दिया। बच्चे दूध तो पी आते ठंडी मां के पास, लेकिन लिपट कर सोते--सारे बच्चे लिपट कर सोते--कंबल वाली मां के पास। वहां थोड़ी ऊष्मा थी, वहां थोड़ा जीवन था, वहां थोड़ी गर्मी थी। और कंबल का स्पर्श थोड़ा सा मां की भ्रांति देता था। लेकिन यह भी कोई मां हुई?
हार्वर्ड में भी पाया गया कि बच्चे को अगर खयाल भी हो कि दूसरी तरफ से कुछ संवेदना है तो भी बच्चे को जीवन मिलता है। मां दूध ही नहीं दे रही है बच्चों को, दूध के साथ कुछ और भी दे रही है। वह और अदृश्य है, और वह और जीवन का सूत्र है। वह प्रेम है।
तुम्हारे जीवन में जितना ज्यादा प्रेम होगा उतना ही तुम पाओगे कि तुम जीवंत हो; जितना प्रेम कम होगा उतना ही तुम पाओगे, दीन, जर्जर, मुर्झाए हुए; किसी तरह चले जा रहे हो, कोई गति नहीं है; तुम ऐसी सरिता नहीं हो जो सागर तक पहुंच सके; तुम्हारे पैर ही नहीं उठ रहे हैं। तुम कहीं न कहीं किसी मरुस्थल में खो जाओगे।
इसलिए लाओत्से कहता है, जिन्होंने जीवन में प्रेम छोड़ दिया; और प्रेम छूटा कि अभय छूटा; और जिन्होंने मध्यमार्ग चलने की कला न सीखी, जो अतियों में डोलते रहे; और जिन्होंने महत्वाकांक्षा का जहर पी लिया; और जो पीछे रहने को राजी न रहे, और दौड़ कर आगे होने का पागलपन जिन पर सवार हो गया; उनका विनाश सुनिश्चित है।
"इफ वन फोरसेक्स लव एंड फियरलेसनेस, फोरसेक्स रेस्ट्रेंट एंड रिजर्व पावर, फोरसेक्स फालोइंग बिहाइंड एंड रशेज इन फ्रंट, ही इज़ डूम्ड!'
उसे बचाने का कोई उपाय नहीं। उसका विनाश बिलकुल निश्चित है। क्योंकि प्रेम, जब आक्रमण हो तब तुम्हें बचाता है, आक्रमण की घड़ी में प्रेम ही तुम्हारी जीत बनेगा। जब कोई तुम पर हमला करे तो प्रेम तुम्हें बचाता है।
इस बात को थोड़ा समझने की कोशिश करो।
पहली तो बात कि अगर तुम बहुत प्रेमपूर्ण हो तो हमले की संभावना सौ में से निन्यानबे प्रतिशत समाप्त हो जाती है। अगर तुम प्रेम दे रहे हो तो दूसरे में हमले की आकांक्षा को तुम वैसे ही नष्ट कर रहे हो। लेकिन फिर भी पागल लोग हैं। बुद्ध पर भी पत्थर फेंकने वाले लोग मिल ही जाते हैं। जीसस को भी आखिर सूली पर चढ़ाने वाले लोग मिल ही गए। सुकरात को जहर देने वाले लोग थे ही।
तो तुम अगर कितने ही प्रेम से भरे हो तो भी निन्यानबे प्रतिशत ही मौका कटता है; क्योंकि दूसरी तरफ ऐसे हृदय भी हैं, तुम जितने प्रेम से भरे हो उससे ज्यादा घृणा से भरे हैं। पाषाण हृदय भी हैं। इतने रुग्ण लोग भी हैं कि तुम्हारे प्रेम के कारण ही तुम पर हमला कर देंगे। उनकी बरदाश्त के बाहर होगा कि कोई इतने प्रेम में जीए। तुम उनके लिए शत्रु मालूम पड़ोगे। निन्यानबे प्रतिशत तो तुम्हारा प्रेम ही तुम्हारे ऊपर आक्रमण की संभावना को समाप्त कर देगा। एक प्रतिशत जो आक्रमण की संभावना शेष रह जाएगी, उस क्षण में भी अगर तुम्हारा हृदय प्रेम से भरा हो, तो वही तुम्हारी सुरक्षा है, और कोई सुरक्षा नहीं हो सकती।
बुद्ध पर पागल हाथी छोड़ दिया था। बड़ी हैरानी हुई कि पागल हाथी आकर बुद्ध के सामने ठिठक कर खड़ा हो गया।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक है: जोश देलगादो। उसने एक प्रयोग किया है सांड के साथ। उसने सांड के भीतर मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगा दिए थे और एक छोटे ट्रांजिस्टर रेडियो से उन भीतर लगे हुए तारों को संदेश दिया जा सकता था।
मस्तिष्क में केंद्र हैं; क्रोध का केंद्र है, घृणा का केंद्र है, प्रेम का केंद्र है, आक्रमण का केंद्र है, भय का केंद्र है; मस्तिष्क में सब केंद्र हैं। वैज्ञानिकों ने सारे केंद्र खोज लिए हैं। और उन केंद्रों पर अगर बिजली का प्रवाह डाला जाए, तो जिस केंद्र पर प्रवाह डाला जाता है वही केंद्र सक्रिय हो जाता है। तो अब ऐसा उपाय है कि तुम बिलकुल शांत बैठे हो और तुम्हारी खोपड़ी पर एक खास जगह जरा सी चोट की जाए कि तुम एकदम क्रोध से भर जाओगे, क्योंकि वहां से क्रोध का जहर तुम्हारे शरीर में फैलता है।
जोश देलगादो ने एक भयंकर सांड के भीतर इलेक्ट्रोड लगा दिए, दो इलेक्ट्रोड, एक क्रोध के ऊपर और एक भय के ऊपर। और दो बटन का एक छोटा सा रेडियो वह अपने हाथ में लिए है। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए थे इस प्रयोग को, क्योंकि यह खतरनाक से खतरनाक प्रयोग सिद्ध हो सकता है। कोई सौ कदम दूर खड़ा है सांड भयंकर। एक बटन देलगादो ने दबाया--किसी को पता नहीं कि वह क्या कर रहा है अपने हाथ में--उसने क्रोध का बटन दबाया। तो जैसे सांड को लाल झंडी दिखा दो और वह गुस्से में आ जाता है, वह कुछ भी नहीं है; क्योंकि भीतर जैसे ही बिजली का प्रवाह उसके क्रोध पर हुआ, सांड बिलकुल पागल हो गया। वह झपटा। अकेला एक आदमी खड़ा है उसके सामने। वह इतना विक्षिप्त भाव से भागा धुआंधार कि लाखों लोग जो देखने इकट्ठे हुए थे, उन्होंने समझा कि मारा गया यह आदमी। यह प्रयोग, यह इतना पागल सांड, इससे बचने का कोई उपाय नहीं। और देलगादो के हाथ में कोई तलवार नहीं है, कोई उपाय नहीं है। एक छोटा सा ट्रांजिस्टर रेडियो लिए है, वह भी किसी को दिखाई नहीं पड़ता, वह भी उसकी हथेली में छिपा है। लोग खड़े हो गए, सांसें रुक गईं। और ठीक दो कदम पर सांड आया और देलगादो ने उसका भय का बटन दबाया, वह वहीं ठिठक गया जैसे कि कोई भयंकर दीवाल सामने खड़ी हो गई हो। दो कदम! एक क्षण और, और उसके सींग देलगादो की छाती में घुस गए होते। वह एकदम कंपने लगा भय से।
देलगादो ने जो प्रयोग किया है वैसा प्रयोग कभी नहीं किया गया। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम रहा है, उनके आस-पास ऐसे प्रयोग बहुत बार अपने आप हो गए हैं।
ऐसा हुआ बुद्ध के जीवन में, पागल हाथी छोड़ दिया गया। अगर तुम मेरी बात समझ सको तो देलगादो ने जो यंत्र से किया है, वह बुद्ध ने सिर्फ भाव से किया। वह भी किया, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि बुद्ध तो प्रेम से भरे हैं। पागल हाथी आया भागा हुआ। बुद्ध के भीतर से जो जीवन-ऊर्जा का प्रवाह हो रहा है, वह तो प्रेम है; तो वह उस पागल हाथी के प्रेम के केंद्र पर चोट कर रहा है, जैसे देलगादो बिजली का प्रवाह दे रहा है। प्रेम भी तो विद्युत है; प्रेम भी तो बड़ी सूक्ष्म ऊर्जा है। बुद्ध का हृदय प्रेम से भरा है; उनके आस-पास प्रेम बरस रहा है। वह हाथी अचानक आकर ठिठक कर खड़ा हो गया। और न केवल खड़ा हुआ--क्योंकि यह कोई यंत्र के द्वारा खड़ा नहीं किया गया था--वह झुका और बुद्ध के चरणों में सिर टेक दिया।
किसने बचाया? प्रेम कवच है।
लेकिन आदमी हाथियों से ज्यादा खतरनाक है। हाथी पागल भी आदमी जितना पागल नहीं, स्वस्थ आदमी जितना भी पागल नहीं। क्योंकि जीसस प्रेम से भरे रहे और लोगों ने सूली लगा दी। आदमी के अंधेपन का मुकाबला नहीं है। आदमी बेजोड़ है। कोई जानवर आदमी के जानवरपन से मुकाबला नहीं कर सकता। जिसने भेजा था पागल हाथी, देवदत्त, वह बुद्ध का चचेरा भाई था। उस पर बुद्ध का प्रेम काम न कर पाया। पागल हाथी ठहर गया। देवदत्त नये आयोजनों में लग गया; वह जीवन भर बुद्ध को मारने की चेष्टा करता रहा। कभी पहाड़ से चट्टान सरका दी उसने। शायद चट्टान भी बुद्ध को छोड़ कर मार्ग से हट कर गिर गई हो, क्योंकि बुद्ध उससे मरे नहीं। चट्टानें भी आदमी के हृदय जैसी चट्टानें नहीं।
आदमी एक अनूठी बात है। आदमी उठे तो परमात्मा जैसा है; गिरे तो पाषाण भी काफी नहीं; उनसे भी नीचे गिर जाता है। आदमी गिरे तो ठीक नर्क निर्मित कर लेता है; उठे तो उसके चारों तरफ स्वर्ग है। आदमी इस छोर से उस छोर तक फैला हुआ है। आखिरी पशुता और आखिरी परमात्मा, आदमी में दोनों संभव हैं। आदमी एक सीढ़ी है, जिसका एक छोर आखिरी जमीन में लगा है, नर्क में टिका है, और दूसरा छोर आकाश में।
"यदि कोई प्रेम और अभय को छोड़ दे, कोई मिताचार और आरक्षित शक्ति को छोड़ दे, कोई पीछे चलना छोड़ कर आगे दौड़ जाए, तो उसका विनाश सुनिश्चित है। क्योंकि प्रेम आक्रमण में जीतता है।'
अगर तुम्हारे पास प्रेम ही न रहा तो तुम्हारे पास कोई सुरक्षा न रही। तुम बिलकुल असहाय हो फिर। और तुम उलटा ही कर रहे हो। तुम सुरक्षा के दूसरे इंतजाम जमा रहे हो जिनके कारण प्रेम भीतर न आ सकेगा। और प्रेम एकमात्र सुरक्षा है। तुम्हारे भय के कारण तुम अपनी एकमात्र सुरक्षा को बाहर कर दिए हो।
छोड़ो भय को! साहसी बनो! उठाओ कदम प्रेम में! खोने को कुछ भी नहीं है। पाने को सब कुछ है।
"और सुरक्षा में वह अभेद्य है।'
जिसके पास प्रेम है, उसकी सुरक्षा अभेद्य है। माना कि जीसस को लोगों ने सूली पर लटका दिया, मिटा दिया शरीर उनका; लेकिन जीसस के अंतप्र्राण में वे प्रवेश न कर पाए। जीसस अभेद्य ही रहे, क्योंकि आखिरी क्षण में भी जीसस ने कहा कि परमात्मा, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं ये क्या कर रहे हैं। जीसस का प्रेम अखंड रहा। जीसस का हृदय जरा भी डगमगाया, जरा भी क्रोध न उठा, जरा भी जहर की संभावना न बनी। ठीक हत्या की जा रही है, उस क्षण में भी जीसस की करुणा अपराजित, अजेय रही, अभेद्य रही।
इसलिए लाओत्से कहता है, "जिन्हें स्वर्ग नष्ट होने से बचाना चाहता है, उन्हें प्रेम के कवच से सुसज्जित करता है।'
यह तो कहने की बात है। यह तो सिर्फ कहने का ढंग है। अच्छा तो यही हो कि तुम यह समझो कि जो बचना चाहते हैं, वे अपने को प्रेम से सुसज्जित कर लेते हैं। स्वर्ग तो सिर्फ साथ देता है; तुम जो करना चाहते हो, उसी में साथ दे देता है। स्वर्ग तो सहयोग है। परमात्मा तो राजी है--तुम जो होना चाहो। तुम अगर नर्क में गिरना चाहते हो तो परमात्मा का हाथ तुम्हें सहारा दे देता है। क्योंकि परमात्मा तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट न करना चाहेगा। परमात्मा जबरदस्ती तुम्हें स्वर्ग में न उठाएगा। क्योंकि जबरदस्ती भी कहीं कोई स्वर्ग में गया है? अगर तुम जबरदस्ती स्वर्ग में भेज दिए जाओ तो स्वर्ग कारागृह मालूम पड़ेगा। क्योंकि जबरदस्ती परतंत्रता है। स्वतंत्रता से तुम नर्क में भी चले जाओ तो भी स्वर्ग मालूम पड़ेगा, तुमने ही चुना है।
परमात्मा किसी के साथ कोई जबरदस्ती नहीं करता। अस्तित्व सहयोग है, और परम स्वतंत्रता है। तुम जो होना चाहो, अस्तित्व कहता है, हम तुम्हारे साथ वहीं चलने को राजी हैं। अगर तुम अपने जीवन को कब्र बनाना चाहते हो तो कब्र के लिए ईंटें जुटा देगा अस्तित्व; तुम्हारे हाथों को बल दे देगा कि तुम सब रंध्र, द्वार, सब बंद कर दो। अगर तुम स्वर्ग में उठना चाहते हो तो अस्तित्व सीढ़ियां लगा देगा, पांव-पांखड़े बिछा देगा; अस्तित्व अपनी पलकें बिछा देगा कि आओ स्वागत है। लेकिन तुम्हारी स्वतंत्रता को अस्तित्व बाधा नहीं देता।
मनुष्य परम स्वतंत्र है। यही उसकी गरिमा भी है, यही उसका दुर्भाग्य भी। गरिमा; क्योंकि स्वतंत्रता से बड़ा और कुछ भी नहीं है। इसलिए तो हम मोक्ष की चर्चा करते रहे हैं सदियों से। गरिमा; कि मनुष्य उठ सकता है आखिरी छोर तक, जिसके पार और कुछ भी नहीं; वह बन सकता है शिखर उत्तुंग, गौरीशंकर। और दुर्भाग्य; क्योंकि स्वतंत्रता के कारण वह नर्कों की यात्रा भी कर सकता है। तुम्हारे हाथ में है सारी बाजी! शिकायत किसी से कर न सकोगे। नर्क गए तो अपने कारण; दुखी हो तो अपने कारण; सुखी होओगे तो अपने कारण। चाहो तो विषाद की मूर्ति बन सकते हो, कोई बाधा न डालेगा; चाहो तो समाधिस्थ आनंद की प्रतिमा बन सकते हो, सारा अस्तित्व साथ देगा। हर हाल में राजी है अस्तित्व; तुम जहां जाते हो, वहीं जाने को राजी है।
इसे स्मरण रखना। यह तो कहने का ढंग है लाओत्से का कि जिन्हें वह नष्ट होने से बचाना चाहता है स्वर्ग उन्हें प्रेम के कवच से सुसज्जित कर देता है। इसका कुल मतलब इतना है कि केवल वे ही बचते हैं जो प्रेम के कवच को उपलब्ध हो जाते हैं।
ये तीन खजाने हैं लाओत्से के। प्रेम पहला खजाना; सम्हालना, बचाना। जिंदगी में बहुत आंधियां आएंगी, उस छोटे से दीये को बुझाने की संभावनाएं बनेंगी; तुम उसे बचाना, क्योंकि वही जीवन की संपदा है। कुछ भी हो, तुम प्रेम को मत खो देना।
और तुम बड़े जल्दी खो देते हो। एक आदमी धोखा दे देता है, तुम कहते हो, हमारा आदमियत पर से विश्वास उठ गया। आदमियत पर से विश्वास उठ गया? एक आदमी ने धोखा दे दिया तुम्हें, तुम्हारा पूरी आदमियत पर से विश्वास उठ गया? जैसे तुम तैयार ही बैठे थे विश्वास उठाने को। तुमने यह न कहा कि एक आदमी ने धोखा दिया है, इससे आदमियत का क्या लेना-देना!
अगर तुम प्रेम को बचाना चाहते हो तो सारी मनुष्यता भी तुम्हें धोखा दे दे, और एक आदमी बच रहे जिसने धोखा न दिया, तो भी तुम भरोसा कायम रखोगे कि अभी एक आदमी बाकी है। अभी एक आदमी काफी है भरोसे को बचाने को, अगर भरोसा बचाना है। अन्यथा एक आदमी काफी है मिटाने को। एक जगह तुम असफल हो जाते हो, कि बस उसी असफलता को तुम अपना घर बना लेते हो कि असफल हो गए। जिंदगी में कोई सार नहीं है!
झेन फकीर जेनरेन ने कहा है कि जब पतझड़ आए और वृक्षों से पत्ते सब गिर जाएं और वृक्ष नग्न हो जाएं, तब तुम सावधान रहना, यह मत कहना कि सब जीवन उजाड़ है। क्योंकि यह केवल वसंत की तैयारी है। और जब पानी का बुलबुला फूटे तो तुम यह मत कहना कि सब जीवन पानी का बुलबुला है। तुम जल्दी मत करना निषेध को इकट्ठी करने की।
इस देश में निषेध भयंकर है। उसने तुम्हारे प्रेम को बिलकुल मार डाला है। सब संसार माया है। सब सुख दुख हैं। सब क्षणभंगुर है! कुछ सार नहीं। उससे तुम परमात्मा को उपलब्ध नहीं हुए हो; उससे तुम भयंकर विषाद में डूब गए हो। उससे तुम ऊपर उबरे नहीं हो; उससे तुम्हारी नाव पत्थरों से बोझिल हो गई है, और यात्रा कठिन हो गई है। उसके कारण तुम्हारे जीवन में परमात्मा का आनंद तो नहीं उतरा, केवल संसार की उदासी सघन हो गई है। तुम्हारे आस-पास वह शांति तो नहीं पैदा हुई जो कि आनंद की छाया है, तुम्हारे पास शांति पैदा हो गई है जो मरघट की छाया है। श्मशान जैसे तुम शांत हो गए हो--उदास, हारे-थके, पराजित।
नहीं; एक आदमी धोखा दे तो मनुष्यता से विश्वास मत उठा लेना। और अगर ठीक से समझो तो जिस आदमी ने धोखा दिया है, यह आदमी भी इसी कृत्य में पूरा नहीं हो जाता है; इसके जीवन में करोड़ों कृत्य हैं। एक आदमी जीवन में करोड़ों काम करता है; उसके एक काम ने धोखा दिया, उसके करोड़ों काम से क्यों आस्था उठा लेते हो? इस क्षण में इस आदमी ने धोखा दिया, लेकिन भविष्य तो सदा उन्मुक्त है; दूसरे क्षण यह बदल सकता है। जल्दी निर्णय क्यों ले लेते हो?
और धोखे से धोखा देने वाला आदमी भी पूरा तो धोखे में नहीं जीता; जी नहीं सकता। झूठ से झूठ बोलने वाला आदमी भी तो कभी-कभी सच बोलता है। बेईमान से बेईमान भी तो कभी-कभी ईमानदार होता है। तुम क्यों इसकी बेईमानी को आधार बना लेते हो?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम धोखा खाओ; मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम अपने प्रेम को मत मरने देना। प्रेम बड़ा छोटा दीया है, और आंधियां बहुत हैं। सब तरफ से बुझाने के लिए आंधियां हैं। और अगर तुमने बुझाने में खुद सहयोग दिया तो कौन तुम्हारे दीये को बचाएगा?
कैसी भी स्थिति हो, कैसा भी मनुष्य हो, कैसे भी लोग हों तुम्हारे आस-पास, कैसा ही परिवार हो, कैसे ही संबंधी हों, तुम एक बात खयाल रखना, उन सब के बावजूद तुम प्रेम के दीये को बचा लेना। क्योंकि उससे ही तुम बचोगे। इनके धोखे तो सपने जैसे हैं, पानी पर खींची लकीरें हैं--बनेंगी, मिट जाएंगी। किसी ने तुम्हारी जेब से चार पैसे निकाल लिए; क्या बनता-बिगड़ता है? थोड़ी-बहुत देर बाद तुम अपने ही हाथ से निकालते; किसी दूसरे हाथ ने वह काम कर दिया है। धन्यवाद देना और आगे बढ़ जाना।
जीसस ने कहा है, कोई तुमसे कोट छीन ले, कमीज भी दे देना; मगर प्रेम को बचाना। कोई तुमसे कहे एक मील बोझा ढो चलो, तुम दो मील तक साथ चले जाना; क्योंकि हो सकता है, संकोची आदमी, दो मील ले जाना चाहता हो और एक ही मील कहा; मगर प्रेम को बचा लेना। क्योंकि जो प्रेम करेगा, वह परमात्मा को जानेगा। क्योंकि परमात्मा प्रेम है।
अगर तुम एक ही बात को बचा लो जीवन में तो कुछ चिंता करने की जरूरत नहीं है। छोड़ दो फिक्र परमात्मा की, छोड़ दो फिक्र मोक्ष की; अगर प्रेम का दीया बच गया तो सब बच जाएगा। तुमने मूल आधार बचा लिया है, बुनियाद बचा ली है। भवन बना लेना बहुत कठिन नहीं है।
लेकिन बिना आधार के तुम भवन तो बना लेते हो, और आधार नहीं होता। आज नहीं कल, भवन गिरता है। और उसके गिरने में तुम भयंकर पीड़ा पाते हो। क्योंकि उसके गिरने में तुम्हारा सारा श्रम, सारी ऊर्जा, सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है।
प्रेम है एकमात्र अभेद्य सुरक्षा; उसे बचा लो।
और जो प्रेम में जीता है--यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि जीवन का गणित बहुत एक-दूसरे से शृंखलाबद्ध है--जो प्रेम में जीता है वह हमेशा संतुलित होता है। उसके जीवन में एक बैलेंस होता है। क्रोध में बैलेंस टूटता है, संतुलन टूटता है। क्योंकि क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जो नहीं करना था। क्रोध में तुम वह कर बैठते हो जिसके लिए तुम पछताओगे। प्रेम से कभी कोई नहीं पछताया है। और अगर तुम प्रेम के कारण पछताए हो तो समझना कि प्रेम नहीं, कुछ और रहा होगा। वासना रही होगी, मोह रहा होगा, लोभ रहा होगा, काम रहा होगा; प्रेम नहीं। प्रेम के कारण कोई कभी नहीं पछताया। प्रेम पछतावा जानता ही नहीं है। प्रेम का कोई पश्चात्ताप नहीं है।
प्रेम एक संतुलन देता है। क्योंकि प्रेम तुम्हारे व्यक्तित्व को एक माधुर्य देता है, एक स्निग्धता देता है। प्रेम तुम्हारे रोएं-रोएं को एक हलकी शांति, एक रस देता है। उस रस के कारण तुम अति पर जाने से बचने लगते हो। क्योंकि अगर अति पर जाओगे तो रस टूटता है। उस रस के कारण तुम अति पर नहीं जाते।
प्रेमी ऐसे चलता है जैसे गर्भवती स्त्री चलती है--ऐसा जीवन में चलता है। क्योंकि वह दौड़ नहीं सकती, उसे पता है कि एक और जीवन सम्हाल रही है; दौड़ेगी, गर्भपात हो सकता है। गर्भवती स्त्री कैसे चलती है, कभी गौर से देखा? कुछ उसके पास सम्हालने को है; वह कुछ सम्हाल कर चलती है। उसकी चाल में एक शालीनता है, एक खजाना है; अपने से भी महत्वपूर्ण कोई भीतर छिपा है--जिसके जन्म के लिए वह कितनी ही पीड़ा झेलने को तैयार है; जिसके जन्म के लिए वह अपने जीवन को भी खोने को तैयार हो सकती है। प्रेमी भी ऐसे ही जीता है; उसके भीतर कुछ सम्हालने के लिए कोई दीया जल रहा है भीतर।
ऐसी पुरानी कथा है कि एक संन्यासी ने सम्राट जनक को कहा कि मैं भरोसा नहीं कर सकता कि आप इस सब गोरखधंधे में--राज्य, महल, संपत्ति, शत्रु, मित्र, दरबार, राजनीति, कूटनीति, वेश्याएं, नाच-गान, शराब--इस सबके बीच, और आप परम ज्ञानी रह सकते हैं। मैं भरोसा नहीं कर सकता। क्योंकि हम तो झोपड़ों में भी रह कर न हो सके। और हम तो नग्न रह कर भी जंगलों में खड़े रहे और संसार से छुटकारा न मिला। तो आपको कैसे मिल जाएगा? भरे संसार में हैं, संसार के मध्य में खड़े हैं।
जनक ने बिना उत्तर दिए दो सैनिकों को आज्ञा दी: पकड़ लो इस संन्यासी को! संन्यासी बहुत घबड़ाया। उसने कहा, हद हो गई! हम तो सोचते थे कि आप महा करुणावान और ज्ञानी हैं। तो आप भी साधारण सम्राट ही निकले। पर जनक ने उनकी कुछ बात सुनी नहीं, और कहा कि आज रात नगर की सबसे सुंदर वेश्या नृत्य करने आने वाली है महल में, तो बाहर मंडप बनेगा, उसका नृत्य चलेगा। इससे सुंदर कोई स्त्री मैंने नहीं देखी। नृत्य चलेगा, दरबारी बैठेंगे, संगीत होगा, रात भर जलसा रहेगा। तुम्हें एक काम करना है। ये दो सैनिक तुम्हारे दोनों तरफ नंगी तलवार लिए चलेंगे और तुम्हारे हाथ में एक पात्र होगा--तेल से भरा, लबालब भरा, कि एक बूंद और न भरी जा सके--उसे सम्हाल कर तुम्हें सात चक्कर लगाने हैं। और अगर एक बूंद भी तेल की गिरी, ये तलवारें तुम्हारी गर्दन पर उसी वक्त उतर जाएंगी।
संन्यासी फंस गया, अब क्या करे! और यह आदमी कम से कम मौका दे रहा है एक सात दफे चक्कर लगाने का, वैसे भी मरवा सकता है। तो एक अवसर तो है कि शायद कोशिश कर लें। सुंदर स्त्री का नाच शुरू हुआ। उसने पहले अपने आभूषण फेंक दिए, फिर वह अपने वस्त्र फेंकने लगी, फिर वह बिलकुल नग्न हो गई। बड़ा मधुर संगीत था। बड़ा प्रगाढ़ आकर्षण था। लोग मंत्रमुग्ध बैठे थे। ऐसा सन्नाटा था, जैसा मंदिरों में होना चाहिए; लेकिन केवल वेश्याघरों में होता। दो तलवारें नंगी और वह संन्यासी बीच में फंसा हुआ बेचारा।
अब तुम सोच ले सकते हो, गृहस्थ होता तो भी चल लेता। संन्यासी! संन्यासी के मन में स्त्री का जितना आकर्षण होता है, गृहस्थ के मन में कभी नहीं होता। जैसे भूखे के मन में भोजन का आकर्षण होता है; भरे पेट के मन में क्या आकर्षण होता है? अगर वेश्या के घर में ही पड़े रहने वाले किसी आदमी को यह काम दिया होता, उसने मजे से कर दिया होता; इसमें कोई अड़चन न आती। लेकिन संन्यासी ने सपने में देखी थीं नग्न स्त्रियां; जब ध्यान करने बैठता था तब दिखाई पड़ती थीं। आज जीवन में पहला मौका मिला था जब देख लेता एक झलक। और कोई अड़चन न थी, बिलकुल किनारे पर ही सब घटना घट रही थी। आवाज सुनाई पड़ने लगी कि उसने अपने आभूषण फेंक दिए हैं। सैनिक बात करने लगे, जो दोनों तरफ चल रहे थे कि अरे, उसने कपड़े भी फेंक दिए! अरे, वह बिलकुल नग्न भी हो गई! और वह अपना दीया सम्हाले है और बूंद तेल न गिर जाए। उसने सात चक्कर पूरे कर लिए, एक बूंद तेल न गिरी। सम्राट ने उसे बुलाया और कहा, समझे? जिसके पास कुछ सम्हालने को हो, सारी दुनिया चारों तरफ नाचती रहे, कोई अंतर नहीं पड़ता। तुझे अपना जीवन बचाना था, तो वेश्या नग्न हो गई तो भी तेरी आंख उस तरफ न गई। ये सैनिक बड़ी रसभरी चर्चा कर रहे थे--ये मेरे इशारे थे कि तुम रसभरी चर्चा करना, लुभाना--और दोनों तरफ से बोल रहे थे, और इन दोनों के बीच तू फंसा था; फिर भी तूने ध्यान न छोड़ा, तूने ध्यान अपने पात्र पर रखा। भरा पात्र था, कुशल से कुशल व्यक्ति भी मुश्किल में पड़ जाता। बड़े सात लंबे चक्कर थे। एक बूंद तेल गिर जाती, गर्दन तेरी उतर जाती। जीवन तुझे बचाना था।
जनक ने कहा, कुछ मेरे पास है जिसे मुझे बचाना है।
और जब तुम्हारे पास कुछ बचाने को होता है तो वही तुम्हें बचाता है। प्रेम जब जिसके भीतर होता है, प्रेम को तुम बचाते हो, प्रेम तुम्हें बचाता है। तुम प्रेम को सम्हालते हो, प्रेम तुम्हें सम्हालता है। प्रेम को बचाना। प्रेम से संतुलन आ जाएगा, क्योंकि कुछ बचाने को है। तुम अतियों पर न जाओगे।
और जिसने प्रेम जान लिया, वह महत्वाकांक्षा पर हंसने लगता है; क्योंकि महत्वाकांक्षा प्रेम के अभाव में पैदा होती है। जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे धन पाना चाहते हैं। धन सब्स्टीटयूट है। प्रेम तो न मिला, किन्हीं आंखों ने ऐसा तो न कहा कि धन्यभाग हैं कि तुम हो; किन्हीं हाथों ने छुआ नहीं और कहा नहीं कि फूल की पंखुरियां भी इतनी कोमल नहीं; किसी ने गले न लगाया और कहा कि तुम्हीं मेरी आत्मा हो और तुम्हारे बिना सब सूना हो जाएगा। किसी ने तुम्हारे लिए गीत न गाए। किसी ने वीणा न बजाई। कोई आनंदमत्त होकर तुम्हारे चारों तरफ नाचा नहीं। अब एक कमी रह गई। तो अब तुम कोशिश कर रहे हो कि धन हो जाए तो लोग कहें कि हां, तुम कुछ हो; खूब धन है तुम्हारे पास, ऐसा किसी के भी पास नहीं। कि पद मिल जाए, कि तुम राष्ट्रपति हो जाओ, कि प्रधानमंत्री हो जाओ, कि सारी दुनिया कहे कि हां, सिद्ध कर दिया कि तुम कुछ हो।
मेरे जानने में, जिनका प्रेम असफल हो गया है, वे ही राजनीति में उतरते हैं; जिनका प्रेम असफल हो गया है, वे ही धन की दौड़ में लगते हैं; जिनका प्रेम असफल हो गया है, वे ही प्रसिद्धि की आकांक्षा करते हैं। वे सब्स्टीटयूट हैं, परिपूरक हैं। पर ध्यान रखना, प्रेम का कोई परिपूरक नहीं है। आखिर में तुम धन कमा लोगे, बड़ी से बड़ी कुर्सी पर बैठ जाओगे और भीतर पाओगे वही रिक्तता। क्योंकि प्रेम को सिर्फ प्रेम ही भर सकता है, कोई और नहीं। प्रेम की आकांक्षा को सिर्फ प्रेम ही तृप्त कर सकता है।
तुम थोड़ा सोचो, किसी को प्यास लगी है, वह पानी मांग रहा है; तुम उसे करेंसी नोट दे रहे हो। किसी को प्यास लगी है, वह पानी मांग रहा है; तुम कह रहे हो कि हम तुम्हें राष्ट्रपति बनाए देते हैं। वह कहेगा, हमें पानी चाहिए। पानी के लिए कुछ भी तो परिपूरक नहीं हो सकता। साधारण प्यास के लिए परिपूरक नहीं मिल सकता तो प्रेम की प्यास के लिए परिपूरक मिल जाएगा? कोई परिपूरक नहीं है।
इसलिए जिसने प्रेम को सम्हाला, उसका संतुलन सम्हल जाता है। जिसने संतुलन सम्हाल लिया, वह आगे होने की दौड़ में कभी भी उतरता ही नहीं। तुम उसे राजी ही न कर पाओगे।
च्वांगत्सु की कथा से पूरी करूं।
बैठा है च्वांगत्सु एक तालाब के किनारे; मारता है मछली। सम्राट ने भेजे हैं अपने मंत्री और कहा कि सुनो, राजा चाहता है कि तुम आ जाओ और प्रधानमंत्री हो जाओ। बैठा रहा च्वांगत्सु। आंख भी मछली से न हटाई। अपनी बंसी को सम्हाले रहा। देखा भी नहीं वजीरों की तरफ। इतना ही कहा कि देखते हो उस किनारे कछुए को? कीचड़ में कछुआ अपनी पूंछ हिला कर मजा कर रहा है, आनंदित हो रहा है। कछुए का मजा कीचड़ में है। देखते हो उस कछुए को? उन्होंने देखा और उन्होंने कहा, हम कुछ समझे नहीं, कछुए से इसका क्या लेना-देना?
तो च्वांगत्सु ने कहा, हमने सुना है कि सम्राट के महल में सोने में मढ़ा एक मरा हुआ कछुआ है तीन हजार साल पुराना। उसकी पूजा की जाती है। वह राज्य चिह्न है। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि अगर इस कछुए को तुम कहो कि चल राजमहल, सोने में मढ़ देंगे; तेरी पूजा होगी हजारों-हजारों साल तक; सम्राट झुकेंगे तेरे सामने। तो यह कछुआ वहां जाना पसंद करेगा या कीचड़ में अपनी पूंछ हिलाना ही पसंद करेगा?
उन वजीरों ने कहा कि कछुआ तो कीचड़ में पूंछ हिलाना ही पसंद करेगा। क्या सार मरने में? और क्या सार सोने में मढ़े जाने में? और क्या सार पूजा-पत्री में?
तो च्वांगत्सु ने कहा, जाओ। कह देना सम्राट से कि हम भी कीचड़ में ही पूंछ हिलाना पसंद करते हैं। जब कछुआ इतना समझदार है तो हम कोई उससे ज्यादा नासमझ हैं? हम मगन हैं अपने आनंद में! तुम्हारे महलों की, तुम्हारे सिंहासनों की, तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा की हमें जरूरत नहीं।
जो प्रेम में मगन है उसे किसी और चीज की जरूरत नहीं। प्रेम तृप्त कर जाता है; दौड़ छूट जाती है। और महत्वाकांक्षा जिसकी छूट गई, उसका मन गिर जाता है। मन महत्वाकांक्षा है। जिसकी महत्वाकांक्षा छूट गई, वह अ-मन हो जाता है, नो-माइंड हो जाता है। और उसी घड़ी में द्वार खुलते हैं जो सदा से बंद हैं, और तुम पाते हो, प्रभु द्वार पर खड़े हैं। प्रभु सदा से ही द्वार पर खड़े थे, लेकिन तुम्हारी नजर कहीं और थी। जब तुम प्रेम से भरे, संतुलन में डूबे, महत्वाकांक्षा-मुक्त खड़े हो जाते हो, तब कोई पर्दा न रहा, सब पर्दे उठ जाते हैं।
बहुत दौड़ लिए सिंहासनों की दौड़ में, बहुत तरह के स्वर्ण से ढंके जा चुके। और हर बार स्वर्ण ने कब्र बनाई, जीवन का संगीत और जीवन की समाधि न दी। अब समय है, जाग जाना चाहिए।
कबीर कहते हैं, जाग सके तो जाग।

आज इतना ही।


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