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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

अध्‍यात्‍म उपनिषद--(प्रवचन-08)

वैराग्‍य का फल ज्ञान है—आठवां प्रवचन

सूत्र :
 चित्तमूलो विकल्येष्यं चित्तभावे न कश्चन।
अतश्चित्तं समोधोहि प्रत्‍यग्रूपे परत्श्मिनि। 26।।
अखडानंदमात्मनं विज्ञाय स्वस्वरूपत:।
बहिरंत: सदानंदरसास्यादनमात्मीन।। 27।।
वैरण्यस्य फलं बोधो बोधस्योपरीत: फलम्।
स्यानंदानुभवाच्छान्तिरेषैवोपरते: फलम्।। 28।।
यद्युत्तरोत्तरभावे पूर्वपूर्वं तु निष्फलम्।
निवृफ्रि परमा तृप्‍तिरानन्द।एऽनुपम: स्वत:।। 29।।

 इस विकल्प (भेद) का मूल चित्त है, अगर चित्त न हो तो कोई भेद है ही नहीं, इसलिए प्रत्यक  स्‍वरूप परमात्मा में तू चित्त को एकाग्र कर दे।
अखंड आनंदरूप आत्मा को स्वस्वरूप जान कर इस आत्मा में ही बाहर और भीतर सदा आनंद रस का तू स्वाद ले।

वैराग्य का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल उपरति और आत्मानंद के अनुभव से जो शांति होती है, वही वह उस उपरति का फल है।
ऊपर बतलाई हुई वस्तुओं में से उत्तरोत्तर जो न हो तो उससे पहले की वस्तु निष्फल है। (ऐसा जानना।) विषयों से दूर जाना, यही परम तृप्ति है और आत्मा का जो आनंद है वह स्वयं ही अनुपम है।




 स सूत्र में कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं।
पहली : 'समस्त भेद और समस्त विकल्पों का मूल चित्त है। अगर चित्त न हो तो कोई भेद नहीं, इसलिए परमात्मा में तू चित्त को एकाग्र कर दे। '
चित्त और एकाग्रता, दो बातों के संबंध में गहरे से समझ लेना जरूरी है। चित्त जीवन की अनिवार्यता है। चित्त का अर्थ है, विचारों का प्रवाह। पूरे समय आपके भीतर चित्त बह रहा है। —
चित्त कोई वस्तु नहीं है; पहली बात खयाल ले लें। चित्त है प्रवाह, वस्तु नहीं। और फर्क कीमती है। एक पत्थर पड़ा है, वह एक वस्तु है; एक झरना बह रहा है, वह एक प्रवाह है। जो चीज पड़ी है, वह थिर है, जो बह रही है, वह प्रतिपल बदल रही है। चित्त वस्तु नहीं है, चित्त प्रवाह है। इसलिए चित्त प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वही नहीं है, जो क्षण भर पहले था। जैसे नदी बदलती जा रही है।
हेराक्लतु ने कहा है, एक ही नदी में दुबारा नहीं उतरा जा सकता। क्योंकि जब आप दुबारा उतरने जाएंगे तो जिस पानी में पहली बार उतरे थे, वह न मालूम कहां जा चुका। ऐसे ही एक ही चित्त को भी दुबारा नहीं पाया जा सकता; जो बह गया, वह बह गया। और पूरे समय भीतर धारा बह रही है। इस बहती धारा के पीछे खडे होकर हम देख रहे हैं जगत को। तो चित्त की छाया हर चीज पर पड़ती है। और बदलता हुआ चित्त, खंड —खंड हजार टुकडों में टूटा हुआ चित्त, सारे जगत को भी तोड़ देता है। तो पहली बात, चित्त एक प्रवाह है, बदलता हुआ। इसलिए चित्त के द्वारा उसे नहीं जाना जा सकता जो कभी बदलता नहीं है। जिसके द्वारा हम जान रहे हैं, अगर वह बदलता हुआ हौ, तो हम उसे? नहीं जान सकते जो कभी बदलता नहीं है। बदलती हुई चीज के माध्यम से हम जो भी जानेंगे वह भी बदलता हुआ ही दिखाई पड़ेगा।
जैसे आपकी आख पर एक चश्मा हो, और उस चश्मे का रंग बदल रहा हो —लाल से हरा हो जाए, हरे से पीला हो जाए, पीले से सफेद हो जाए—आपके चश्मे का रंग बदल रहा हो, तो उसके साथ ही बाहर का जो जगत है, उसका रंग बदलता चला जाएगा, क्योंकि जिस माध्यम से आप देख रहे हैं, वह आरोपित हो रहा है।
मन आपका बदल रहा है, प्रतिपल। इसी कारण मन से हम केवल उसी को जान सकते हैं, जो बदल रहा है, मन से उसे नहीं जान सकते, जो कभी नहीं बदलता है। और इस जीवन का जो परम गुह्य सत्य है, वह अपरिवर्तनीय है, वह शाश्वत है, वह कभी बदलता नहीं। इसलिए चित्त उसे जानने का मार्ग नहीं है।
जगत की जो पदार्थ सत्ता है, वह बदलती है, वह मन की तरह ही बदलती है। इसलिए मन से जगत के पदार्थ को जाना जा सकता है, लेकिन जगत में छिपे परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। जैसे वितान मन का उपयोग करता है, चित्त का उपयोग करता है खोज के लिए; विज्ञान मन के ही माध्यम से जगत की खोज करता है। और इसलिए वितान कभी भी नहीं कह पाएगा कि ईश्वर है। वितान सदा ही कहेगा, पदार्थ है। परमात्मा की कोई प्रतीति विज्ञान में उपलब्ध नहीं होगी। नहीं इसलिए कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि विज्ञान जिस माध्यम का उपयोग कर रहा है, वह माध्यम केवल परिवर्तनशील को ही जान पाता है, वह माध्यम अपरिवर्तनीय को नहीं जान पाएगा।
ऐसा समझें कि संगीत चल रहा हो, और आप आंख से सुनने की कोशिश करें, तो आप कभी भी न सुन पाएंगे, संगीत का पता ही नहीं चलेगा। ऑख देख सकती है, इसलिए आंख से रूप का पता चल सकता है। आंख सुन नहीं सकती, इसलिए ध्वनि का कोई पता नहीं चल सकता है। कान सुन सकते हैं, देख नहीं सकते। लेकिन कान से अगर कोई देखने की कोशिश करे, तो वह कहेगा, जगत में कोई रूप है ही नहीं। कान को तो ध्वनि ही पकड़ में आती है। माध्यम जो पकड सकता है, उसी को जान सकता है।
चित्त है परिवर्तन। चित्त का स्वभाव परिवर्तन, प्रवाह। इसलिए परिवर्तन से तो चित्त का तालमेल बैठ जाता है, लेकिन अपरिवर्तनीय को चित्त नहीं जान पाता। इसलिए जो लोग मन से ही परमात्मा की खोज पर निकलते हैं, वे आज नहीं कल, नास्तिक हो जाएंगे। अगर वे नास्तिक नहीं होते हैं, तो उसका मतलब केवल इतना ही है कि कमजोर हैं, और मन जो उन्हें कह रहा है, उसको पूरे मानने की उनकी हिम्मत नहीं है। लेकिन मन से चलने वाला आदमी आस्तिक हो ही नहीं सकता। उसकी आस्तिकता वैसी ही झूठी है, जैसे बहरा आदमी कहे कि मैंने आंख से संगीत सुना है, या अंधा आदमी कहे कि मैंने कान से रूप देखा है, प्रकाश का अनुभव किया है। मन से चलने वाले आदमी की आस्तिकता ऐसी ही झूठी होगी।
इसलिए दुनिया में इतने आस्तिक हैं, लेकिन सच्चा आस्तिक खोजना मुश्किल है। आप भी अगर आस्था लाते हैं तो मन से ही लाते हैं, सोच—विचार करके लाते हैं। सोच—विचार से कोई कभी आस्तिक नहीं होता, और हो, तो झूठा आस्तिक होता है।
सोच—विचार से, अगर ईमानदार रहना है, तो नास्तिकता ही आएगी। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि माध्यम ही अपरिवर्तनीय को पकड़ने वाला नहीं है, अपने को धोखा दें तो बात अलग। अपनी आस्तिकता पर सोचें! मानते हैं ईश्वर को आप, लेकिन वह भी सोचा—विचारा है, तर्क, अनुमान, विचार, शास्त्र, परंपरा, सिद्धात, इनसे ही निकाला हुआ है। वह ईश्वर वास्तविक नहीं है, और वह ईश्वर केवल आपकी बेईमानी की खबर देता है, क्योंकि मन से तो ईश्वर निकल ही नहीं सकता।
दुनिया में आस्तिक कहे जाने वाले लोग निन्यानबे प्रतिशत छिपे हुए नास्तिक हैं, उनकी आस्तिकता में कोई बल नहीं है, निर्वीर्य है, नपुंसक है। जरा सी चोट, और उनकी आस्तिकता टूट जाएगी! उसकी भीतर कोई जड नहीं है! आस्तिक तो तभी होता है कोई, जब मन को हटा कर जगत को देखता है। तो फिर जगत दिखाई नहीं पडता, क्योंकि मन के हटते ही जो परिवर्तनशील है फिर वह दिखाई नहीं पड सकता। मन के हटते ही, चेतना जब देखती है जगत को, तो चेतना का संबंध उसी से हो सकता है, जो परिवर्तनशील नहीं है।
चेतना शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है। तो चेतना का संगीत उसी से सधता है जो शाश्वत है। मन के हटाते ही जो दिखाई पड़ता है, वह परमात्मा है, मन के लाते ही जो दिखाई पडता है, वह संसार है। ऐसी परिभाषा करें कि मन के बिना जिन्होंने जाना है अस्तित्व को, उन्होंने कहा, परमात्मा है और कुछ भी नहीं है, मन से जिन्होंने जाना है अस्तित्व को, उन्होंने कहा, परमात्मा भर नहीं है और सब कुछ है।
तो मन से आप कभी जान न पाएंगे। जगत को जान पाएंगे; जगत को मन से ही जान पाएंगे, सत्य को नहीं। और मन से जो चीजें भी जानी जाती हैं, वे प्रतिपल बदलती रहेंगी। इसलिए विज्ञान घिर नहीं हो पाता। और विशान कभी थिर नहीं हो पाएगा। विज्ञान कभी भी यह नहीं कह सकेगा कि यह सत्य शाश्वत है। विज्ञान इतना ही कह सकेगा, टेंटेटिव, अस्थायी रूप से, अभी जितना हम जानते हैं उसमें यह सत्य है। कल जो हम जानेंगे, उससे क्या होगा परिणाम, नहीं कहा जा सकता।
इसलिए विज्ञान रोज बदल रहा है; कल जो था सच, वह आज झूठ हो जाता है। आज तो कठिनाई यह हो गई है कि स्कूल, कालेज में जो विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, वह तभी पढ़ाया जाता है जब वह करीब—करीब झूठ हो चुका होता है। क्योंकि बीस साल लग जाते हैं, कोई चीज खोजी जाए, तो उसको स्कूल तक लाने में कम से कम बीस साल लग जाते हैं। इस बीस साल में वह झूठ हो चुकी होती है। आज बड़ी किताब नहीं लिखी जा सकती विज्ञान की। क्योंकि अगर कोई हजार पृष्ठ की किताब लिखे, तो जब तक वह लिखता है, तब तक बहुत सी बातें गलत हो चुकी होती हैं। इसलिए विज्ञान धीरे—धीरे छोटी किताबों पर आता जा रहा है। छोटी किताबें भी अब नहीं लिख रहा है कोई विज्ञान में—छोटे लेख; क्योंकि वे तत्थण लिखे जा सकते हैं, और डर नहीं है कि उनके छपने के पहले वे गलत हो जाएंगे।
विज्ञान बदलेगा ही, क्योंकि मन से खोजी गई कोई भी चीज शाश्वत नहीं हो सकती है।
इसलिए पश्चिम में बहुत कठिनाई होती है विचारकों को कि महावीर ने कुछ कहा ढाई हजार साल पहले, उपनिषद के ऋषियों ने कुछ कहा पांच हजार साल पहले, अब तक वह सत्य कैसे है! पांच हजार साल! यहां तो पांच साल पहले जो बात कही गई, वहं भी झूठी हो जाती है, शइमल हो जाती है। तो पांच हजार साल पहले जो कहा, वह कब का झूठ हो चुका होगा!
उनका कहना संगत मालूम पड़ता है, क्योंकि पांच साल पहले की बात भी संदिग्ध जब हो जाती हो, तो पाच हजार साल पहले की बात का संदिग्ध होना स्वाभाविक है।
लेकिन नहीं, उपनिषद ने जो कहा है वह अब भी वैसा ही सच है, और वह कल भी वैसा ही सच रहेगा। तो इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक मतलब तो यह है कि भारत की बुद्धि कुंठित हो गई है। वह विकसित नहीं होती; वह पांच हजार साल पहले ठहर गई है। जो खोज लिया था उसी को पकड़ कr बैठे हैं, उससे आगे नहीं गए; नहीं तो कभी का गलत हो जाता। आज तो भारत में भी जो सोच—विचार करते हैं—और सोच—विचार कम ही लोग करते हैं, और जो करते हैं वे भी करीब—करीब उधार करते हैं, वे भी करीब—करीब पश्चिम की छाया होती है। तो पश्चिम में, चाहे भारत में, जो आज सोचने का ढंग है, विज्ञान, उसके हिसाब से ऐसा ही लगेगा कि यह भारत की जो बातें हजारों साल पुरानी हैं, ये कब की झूठ हो चुकी होंगी, लेकिन चूंइक भारत ने चिंतन करना बंद कर दिया है, इसलिए इनको बदल नहीं पाया, वहीं रुका हुआ है।
जो मन से सोचता है, उसका यह कहना ठीक भी है। लेकिन ये सत्य कभी मन से पाए नहीं गए, यह अड़चन है। ये पांच हजार साल पहले या पचास हजार पहले पाए गए हों, या पांच हजार साल बाद या पचास हजार साल बाद पाए जाएं, ये मन से नहीं पाए गए हैं। और जो मन से नहीं पाया जाता, वह बदलता नहीं है; उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मन को छोड़ते ही हम उस जगत में प्रवेश करते हैं, जो शाश्वत है, सनातन है, जहां कभी कुछ बदलता नहीं है; जहा सब अपरिवर्तित है, जहा समय ठहर गया है, जहां समय में कोई गति नहीं है; जहा समय जम गया है। ये सत्य सदा ही सत्य रहेंगे। अगर ये मन के बाहर पाए गए हैं, तो दुनिया का कोई परिवर्तन इनमें परिवर्तन न ला सकेगा। अगर ये भी मन के भीतर ही पाए गए हैं, तो दुनिया का परिवर्तन इनमें परिवर्तन लाता रहेगा।
भारत की मौलिक खोज यही है कि अस्तित्व को मन के बिना भी जाना जा सकता है, अस्तित्व को मन के बिना भी जाना जा सकता है। धर्म और विज्ञान का यह फर्क है। विज्ञान कहता है, जो भी जाना जा सकता है, मन से जाना जा सकता है। धर्म कहता है, मन से जो भी जाना जाता है, वह कामचलाऊ है; लगभग सत्य है। मन के पार जो जाना जाता है, वही सत्य है। और मन के पार ही वास्तविक जानना संभव होता है।
तो इस चित्त को कैसे मिटा दें? इस चित्त को कैसे शून्य कर दें? शांत कर दें?
यह सूत्र कहता है, इसे एकाग्र कर दें तो यह शून्य हो जाएगा, शांत हो जाएगा।
यह दूसरी बात समझने की है। चित्त का स्वभाव ही है एकाग्र न होना; यह चित्त का स्वभाव है कि एकाग्र न होना। आप एक क्षण भी चित्त को एकाग्र करें, वह एकाग्र नहीं होगा, उसमें भी वह प्रवाह खोज लेगा। अगर मैं आपसे कहूं कि राम पर चित्त को एकाग्र कर दें! तो जब आप राम पर चित्त एकाग्र करेंगे, पूरी रामलीला भीतर आने लगेगी! सीता आ जाएगी पीछे से, हनुमान झांकने लगेंगे, सब उपद्रव खड़ा हो जाएगा। राम पर चित्त एकाग्र करेंगे तो दशरथ आ जाएंगे और रावण आ जाएगा और सब आ जाएंगे।
जरा कोशिश करें, राम को छांट लें अलग—न दशरथ, न रावण, न सीता, न हनुमान, न लक्ष्मण, कोई भी नहीं; पूरी रामलीला काट दें —सिर्फ राम। तो चित्त मुश्किल में पड़ जाएगा। तो फिर एक उपाय है कि राम में कई टुकडे कर लें, पैर से शुरू करें; राम के पैर देखें, फिर उनका शरीर देखें, फिर उनका चेहरा देखें, फिर उनकी आंखें देखें, तो चित्त को सुविधा मिल जाएगी, क्योंकि फिर प्रवाह शुरू हो गया। राम की आंख ही चुन लें। तो अगर दो आंखें भी हों तो चित्त एक से दूसरी पर जाता रहेगा। तो एक ही आंख बचा लें, काने राम को चुन लें। तो एक ही आंख पर चित्त को लगाएंगे तो आंख के संबंध में चिंतन शुरू हो जाएगा।
चित्त का स्वभाव है प्रवाह। इसलिए आप कुछ भी करें, चित्त उसमें से प्रवाह निकाल लेगा; तत्काल प्रवाह निकाल लेगा, और चिंतन करने लगेगा। ध्यान और चिंतन का यही फर्क है। ध्यान का अर्थ है, चिंतन का ठहर जाना, प्रवाह का रुक जाना; एकाग्रता का अर्थ है, एक ही रह जाए, उसके संबंध में कोई चिंतन न रहे। 
तो क्या होगा? यह मन के स्वभाव के प्रतिकूल है; असंभव है मन के लिए। अगर आप आग्रह करेंगे और चेष्टा करेंगे असंभव की, तो एक ही उपाय है; पहले तो मन बहुत संघर्ष करेगा और वह सब तरह से आपको समझाएगा, बुझाका और तरकीब निकालेगा चिंतन की। वह कहेगा, कोई हर्जा नहीं, राम पर ही चिंतन करो; बडा अच्छा है, बड़ी धार्मिक बात है; राम पर ही चिंतन करें! वह कहेगा कि कोई हर्ज नहीं, अगर राम पर चिंतन भी नहीं करना, तो राम—राम, राम—राम ऐसा जप करें। क्योंकि राम—राम, राम —राम प्रवाह शुरू हो गया। एक राम! दूसरा राम आया कि प्रवाह शुरू हो गया, मन को गति मिल गई, अब वह चलने लगा!
तो मन पहले तो कोशिश करेगा प्रवाह को खोजने की, क्योंकि वह उसका स्वभाव है। अगर आप माने ही नहीं और सजग रहे, और आपने कहा कि प्रवाह तो हम पैदा होने ही न देंगे, हम तो एक बिंदु पर ही ठहर जाएंगे, उससे हिलेंगे ही नहीं यहां —वहां। अगर आपने जिद्द जारी रखी, तो दूसरा उपाय यह है कि मन गिर जाएगा; क्योंकि एकाग्र तो मन हो ही नहीं सकता।
यह आपको अजीब लगेगी बात जान कर, मन एकाग्र तो हो ही नहीं सकता। इसीलिए एकाग्र करने के लिए कहा जाता है, कि एकाग्र अगर आप हो गए, तो मन समाप्त हो जाएगा। मन के लिए असंभव है एकाग्र होना। जब आप एकाग्र होते हैं, तो मन होता ही नहीं, जब तक मन होता है, तब तक एकाग्र नहीं होते। एकाग्र का मतलब है ठहर जाना, रुक जाना, प्रवाह का बंद हो जाना, समय का समाप्त हो जाना, सब गति का खो जाना—एकाग्र का अर्थ है।
तो अगर आप एकाग्र करने की चेष्टा करते गए, करते गए, करते गए, न माने मन की और सजग रहे कि मन कोई तरकीब तो नहीं खोज रहा है जिससे प्रवाह पैदा हो जाए, तो एक दिन वह घड़ी आ जाती है कि एकाग्र करने की चेष्टा सें—मन एकाग्र नहीं होता—एकाग्र करने की चेष्टा से मन नाश हो जाता है; मन शांत हो जाता है; मन विलीन हो जाता है। जब आप मानते ही नहीं और एकाग्र करने के ही प्रयास में लगे रहते हैं, तो मन बैठ जाता है। मन का न हो जाना एकाग्र होना है।
इसलिए जब भी हम कहते हैं कि मन को एकाग्र करो, तो हम बडी गलत बात कहते हैं। इसलिए मैंने कहा कि बुद्ध और महावीर लगभग झूठी बातें कहते हैं। कहनी पड़ती हैं। जब हम कहते हैं मन को एकाग्र करो, तो हम बड़ी गडबड बात कह रहे हैं, क्योंकि मन एकाग्र हो ही नहीं सकता। और हो गया, तो मन नहीं रह जाता।
एकाग्रता और मन विपरीत घटनाएं हैं। विपरीत की चेष्टा करने से मन मर जाता है। पर बडी कठिन बात है! कठिन इसलिए है कि एकाग्रता को समझ लेना जरूरी है, प्रवौह पैदा न हो पाए। चिंतन प्रवाह है, ध्यान प्रवाह का रुक जाना है। नदी बह रही है। नदी को जमा दिया बर्फ की तरह; सब प्रवाह ठहर गया; अब कोई गति नही है। ऐसा ही मन ठहर जाए, सारा प्रवाह रुक जाए, जम जाए बर्फ की तरह; तो उसी क्षण मन नहीं है; मन खो गया। और जो बचता है, वही चैतन्य है, जो बचता है, वही चैतन्य है
यह सूत्र कहता है ' 'विकल्प का, भेद का मूल है चित्त, मन! चित्त न हो, कोई भेद नहीं। प्रत्येक स्वरूप परमात्मा में तू चित्त को एकाग्र कर दे। '
परमात्मा का तो हमें ठीक—ठीक कोई पता नहीं है। पर पता की कोई जरूरत भी नहीं है। परमात्मा है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है; चित्त को एकाग्र करना बड़ा सवाल है। किसी भी चीज पर कर दें। कल्पित चीज पर भी करें तो भी काम हो जाएगा। इसलिए यह सवाल नहीं है कि कोई वास्तविक चीज पर ही करेंगे तो ही हल होगा। इसलिए यह सूत्र यह नहीं कहता कि पहले परमात्मा को खोजो फिर चित्त को एकाग्र करो। यह कहता है, अगर तुम्हें लगता है कि परमात्मा काल्पनिक है, तो भी कोई चिंता नहीं। काल्पनिक बिंदु पर भी अगर चित्त एकाग्र हो जाए, तो मन खो जाएगा। और मन के खोते ही उसका दर्शन शुरू हो जाएगा जो वास्तविक है। इसलिए मान कर चलने में हर्ज नहीं है।
परमात्मा ध्यान की एक हाइपोथीसिस है। परमात्मा आस्था नहीं है खोजियों के लिए, परमात्मा भी ध्यान को एकाग्र करने का एक कल्पित बिंदु है। और जब मैं कहता हूं कल्पित बिंदु, तो आप यह मत समझना कि मैं यह कह रहा हूं कि परमात्मा है नहीं। आपके लिए नहीं है अभी। आप तो एक कल्पित बिंदु पर ध्यान एकाग्र करते हैं। वह बिंदु कोई भी हो सकता है। उसका कोई भी रूप हो, उसका नाम राम हो कि कृष्ण हो कि अल्लाह हो, कुछ भी हो, चलेगा। उससे कोई भेद नहीं पडता। महत्व यह नहीं है कि आप किस पर एकाग्र कर रहे हैं, महत्व यह है कि आप एकाग्र कर रहे हैं।
इसलिए सारे दुनिया के धर्म काम आ जाते हैं। उनके सिद्धातों में कोई भी मतभेद हो, कोई अंतर नहीं पड़ता—खोजी के लिए। वे सारे भेद पंडित के लिए, व्यर्थ बकवास जिन्हें करनी है, उनके लिए भेद हैं, खोजी के लिए कोई भेद नहीं पड़ता। अल्लाह, कि राम, कि याहवे—कोई भी नाम हो।
विज्ञान, धर्म का जो विज्ञान है, धर्म की जो प्रक्रिया है, उसका मूल्य आप किस चीज पर एकाग्र कर रहे हैं उससे है ही नहीं, वह असंगत है। महत्व यही है कि आप एकाग्र कर रहे हैं—अ, , , , कुछ भी हो, आप एकाग्र कर रहे हैं। एकाग्र करने की प्रक्रिया में ही मनोनाश हो जाता है। और मनोनाश होकर जो जाना जाता है, उसका नाम न तो अल्लाह है, उसका नाम न राम है, उसका नाम न कृष्ण है। उसका कोई नाम नहीं है। सब नाम कल्पित हैं, उपयोगी हैं, ताबीज हैं, काम करते हैं। और जब समझ आ जाती है तो उन्हें फेंका जा सकता है, उन्हें हटाया जा सकता है। फिर उनकी कोई जरूरत नहीं है।
यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। आम धार्मिक आदमी को समझ में भी नहीं आता कि उसके राम, उसके कृष्ण, उसकी मूर्तियां, उसके मंदिर, सब काल्पनिक हैं। काल्पनिक का अर्थ झूठे नहीं, काल्पनिक का अर्थ हाइपोथेटिकल हैं। उनका उपयोग किया जा सकता है। वहां से यात्रा शुरू की जा सकती है। यात्रा के अंत पर तो पता चलता है कि उनके बिना भी यात्रा हो सकती थी। और यात्रा के अंत पर यह भी पता चलता है कि ये किन्हीं दूसरे नामों से भी हो सकती थी। लेकिन यात्रा के शुरू में यह पता नहीं चल सकता। इसकी कोई जरूरत भी नहीं है। हिंदू हिंदू की तरह चल पड़े, मुसलमान मुसलमान की तरह चल पड़े, ईसाई ईसाई की तरह चल पड़े। मंजिल पर जाकर पता चलेगा कि हिंदू र मुसलमान, ईसाई, सब उपयोगिताएं थीं। उनका कोई वास्तविक, परम सत्य के साथ संबंध न था।
उनका संबंध था हमारे अज्ञान के साथ, शान के साथ नहीं। उनका संबंध था, जहां हम खड़े थे संसार में, वहां से यात्रा शुरू करने के लिए। उनका संबंध उस मंजिल के साथ नहीं था, जहां हम पहुंचे। इसलिए पहुंच कर न कोई हिंदू रह जाता, न कोई ईसाई रह जाता, न कोई मुसलमान रह जाता। पहुंच कर केवल धार्मिक रह जाता है आदमी।
इसलिए ध्यान रखें, जब तक आप ईसाई हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, तब तक समझना, अभी धार्मिक नहीं हैं। यह तो धर्म की तरफ यात्रा है।
गुरजिएफ बहुत कीमती बात कहा है। गुरजिएफ से जब भी कोई आकर पूछता था कि मार्ग क्या है? सत्य तक पहुंचने का मार्ग क्या है? तो गुरजिएफ कहता था, बड़ी बातें मत करो, हम तो मार्ग तक पहुंचने का मार्ग बताते हैं सिर्फ, फिर आगे तुम जानना। अभी तो तुम मार्ग तक ही पहुंच जाओ, यही काफी है। मार्ग क्या है, यह मत पूछो; मार्ग तक पहुंचने की पगडंडी क्या है! पहले तुम मार्ग पर पहुंच जाओ, अभी तो इसकी फिक्र करो!
ध्यान रहे, हिंदू मुसलमान, ईसाई, सब पगडडिया हैं मार्ग पर पहुंचने की। कोई भी मार्ग नहीं हैं वे; मार्ग तो है धर्म। हिंदू है पगडंडी, मुसलमान है पगडंडी, ईसाई है पगडंडी; मार्ग है धर्म। सब पगडंडियों से आप धर्म के मार्ग पर पहुंच जाएं, फिर पगडंडी खो जाती है।
एकाग्र होना है मूल्यवान, क्योंकि एकाग्र होने की चेष्टा मन के प्रतिकूल है। पर बडा ध्यान रखना जरूरी है, क्योंकि एकाग्र होने की दो कठिनाइयां हैं। एक, कि आप चिंतन पैदा कर लेंगे। चिंतन पैदा हुआ, व्यर्थ हो गई बात। दूसरी कठिनाई है कि अगर चिंतन पैदा न कर पाए, तो आप तत्काल सो जाएंगे।
आपने खयाल किया हो, किसी रात अगर मन में ज्यादा चिंतन चलता रहे, तो नींद नहीं आती। मन में कोई विचार चल रहा है, कोई चिंता है, कोई धारा बह रही है, तो नींद नहीं आती, क्योंकि नींद में बाधा पड़ती है। जिस रात मन में कोई चिंतन नहीं, कोई विचार नहीं, मन खाली—खाली है—नींद गहरी आती है और जल्दी आ जाती है। पड़े बिस्तर पर कि आ गई।
इसलिए मजदूर है, किसान है, गहरी नींद सोता है। गहरी नींद सोने का कारण यह है कि चिंता और चिंतन और विचार और मानसिक ऊहापोह, उसके काम से इनका कोई ज्यादा संबंध नहीं है; इनकी उसे कोई जरूरत नहीं पड़ती। गड्डा खोद रहा है, खेत में काम कर रहा है—ये बंधे हुए काम हैं; इनके लिए चिंतन की कोई जरूरत नहीं है; इसलिए चिंतन की धारा ज्यादा नहीं चलती। सांझ आता है, थका—मादा बिस्तर पर गिरता है, चिंतन होता नहीं, नींद गहरी लग जाती है। जो काम चिंतन का ही करते हैं लोग, उनकी खास बीमारी अनिद्रा हो जाती है। जो सोच—विचार में ही चौबीस घंटे लगे रहते हैं, रात सोच—विचार चलता ही चला जाता है और नींद नहीं आ पाती।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं, ताकि इससे विपरीत बात आपकी समझ में आ जाए। मन के साथ प्रयोग करने में एकाग्रता का दूसरा खतरा यह है कि पहले तो मन कोशिश करेगा कि चिंतन पैदा हो जाए, तो मन को सुविधा है, मन का स्वभाव है। अगर यह नहीं हुआ, और आपने जिद बांधी, तो दूसरी घटना यह घटेगी कि अगर चिंतन बंद हुआ तो बजाय ध्यान में जाने के आप निद्रा में चले जाएंगे। क्योंकि. जैसे ही चिंतन बंद होता है, सदा की आदत है कि जब भी चिंतन बंद होता है, नींद पकड़ लेती है।
इसलिए अनेक लोग ध्यान के नाम पर सोए रहते हैं; नींद लेते रहते हैं। मंदिरों में बैठे हैं, झपकी खा रहे हैं। उनका कसूर नहीं है। उन्हें पता नहीं कि बात क्या हो रही है। वे कोशिश कर रहे हैं एकाग्र होने की। एकाग्र होने की कोशिश से दो दुर्घटनाएं घट सकती हैं : या तो चिंतन शुरू हो, और अगर चिंतन शुरू न हो तो झपकी आ जाए।
तो चिंतन से बचना है और झपकी से बचना है। ये दो खाइयां हैं और इनके बीच में ध्यान है। झेन फकीर तो अपने आश्रमों में संन्यासियों को. डंडा लेकर घुमाते रहते हैं। जब कोई ध्यान करता है तो एक संन्यासी डंडा लेकर घूमता रहता है। वह जैसे ही देखता है कि झपकी खाई, सिर पर एक डंडा पड़ता है!
जल्दी ही हम भी इंतजाम करेंगे! और ऐसा नहीं है कि उसका उपयोग नहीं है, उसका बड़ा उपयोग है। क्योंकि झपकी एकदम से टूट जाती है। चिंतन चल रहा था, चिंतन छूट गया, झपकी आ गई। एक खाई से बचे, दूसरी खाई में गिर गए। और झपकी तभी आती है जब चिंतन की धारा टूट जाए। और फिर गुरु आया और उसने एक डंडा सिर पर मारा। चिंतन की धारा बंद हो गई थी, झपकी आ गई थी, उसने डंडा मारा, झपकी की धारा एक क्षण को टूट गई। उस एक क्षण में ध्यान की झलक मिल जाती है। और एक क्षण भी झलक मिल जाए, तो सहारा मिल जाता है। तो फिर लगने लगता है कि जहा जा रहे हैं, वह कोई अंधेरे का रास्ता नहीं है, मामला साफ है।
कभी—कभी ऐसा होता है कि बहुत साधक होते हैं और गुरु खयाल भी नहीं रख पाता, कौन झपकी खा रहा है, कौन क्या कर रहा है। तो झेन में व्यवस्था है कि जब भी किसी साधक को ऐसा लगता है कि झपकी आ रही, तो वह दोनों हाथ अपनी छाती के पास कर लेता है। इससे गुरु देख लेता है कि ठीक, उसको भीतर झपकी का डर पैदा हो रहा है। यह निमंत्रण है कि मुझे डंडा मारो। भीतर झपकी पकड़ रही है, नींद की हलकी लहर आनी शुरू हो गई है, तरंगें आने लगी हैं और डर है कि अब मैं नींद में खो जाऊंगा। चिंतन पैदा न हो और झपकी न लगे, बस तो फिर ध्यान लग जाएगा। ध्यान का अर्थ हुआ, चिंतन और झपकी का अभाव। चिंतन और नींद का अभाव, तो ध्यान लग जाएगा। कोई भी हो बिंदु एकाग्रता का, ये दो बातें खयाल में रहें।
'अखंड आनंदरूप आत्मा को स्वस्वरूप जान कर इस आत्मा में ही बाहर और भीतर सदा आनंद रस का तू स्वाद ले।'
दूसरी बात भी बहुत कीमती है। हम स्वाद लेते हैं। अपने में कभी नहीं लेते, सदा दूसरे में लेते हैं। यह बड़ी मजेदार बात है। हम स्वाद लेते हैं, हम रस भी लेते हैं। हम कभी—कभी सुख भी पाते हैं। लेकिन सदा दूसरे में। कभी आपने अपना स्वाद लिया? नहीं लिया। अपनी तरफ तो हम ध्यान ही नहीं देते!
यह सूत्र कहता है कि साधक को धीरे—धीरे दूसरे में स्वाद लेना छोड़ कर अपने में स्वाद लेना चाहिए। खाली बैठे हैं, तब आप कभी आनंदित नहीं होते। सोचते हैं, मित्र आ जाएं तो थोड़ा मजा हो; संगी—साथी मिल जाएं तो थोड़ी खुशी हो। अकेले में उदासी पकड़ने लगती है। अकेले में आप खुश नहीं दिखाई पड़ते। अकेले में ऊब हो जाती है, अपने से ऊब हो जाती है। कोई अपने को पसंद करता ही नहीं! और बड़ा मजा यह है कि सब यह चाहते हैं कि दूसरे हमें पसंद करें! और आप खुद अपने को पसंद नहीं करते! खुद से ऊब जाते हैं और चाहते हैं कि दूसरे बड़े प्रसन्न हों जब आपका दर्शन हो। यह कैसे होगा? यह असंभव है। सोचते हैं कि दूसरों को आप बड़ा आनंद दें। अपने को नहीं दे पाते, दूसरों को कैसे देंगे! और जो नहीं है पास अपने, उसे देने का कोई उपाय नहीं है।
यह सूत्र कहता है, अपने स्वभाव में रस, स्वाद, आनंद का अनुभव करें। अकेले बैठे हैं, आनंदित हों। इस अवस्था को फकीरों ने मस्ती कहा है। मस्ती का मतलब यह है, कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता और मस्त हो रहे हैं; प्रसन्न हो रहे हैं। कोई रस की धार जैसे भीतर अपने ही चल रही है, अपना ही आनंद ले रहे हैं; अपने से ही ले रहे हैं, कोई दूसरे का कोई माध्यम नहीं है।
मस्ती की अलग साधना—पद्धतिया हैं। सूफियों ने बहुत उपयोग किया है मस्ती की साधना का। मस्तों के अलग मार्ग हैं। उनका सूत्र यही है, उनका आधार—सूत्र यही है कि दूसरे से अपने सुख को मत जोड़ो।
जो आदमी दूसरे से अपने सुख को जोड़ता है, उसका दुख भी दूसरे से जुड जाता है। दूसरे से सुख जोड़ो ही मत, सुख जोड़ो अपने से। खाली वृक्ष के नीचे बैठे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं। बड़ा मुश्किल लगेगा, कैसे प्रसन्न होंगे, जब कोई प्रसन्नता का कारण ही नहीं है! क्योंकि हम सदा कारण से प्रसन्न होते हैं, कि मित्र चला आ रहा है; बहुत दिन बाद दिखाई पड़ा, प्रसन्न हो गए।
हम सदा कारण से प्रसन्न होते हैं। अकारण प्रसन्नता का नाम मस्ती है। कोई कारण नहीं है; कोई विजिबल, कोई दिखाई पड़ने वाली वजह नहीं है। भीतर ही स्वाद ले रहे हैं। पागलों को कभी —कभी ऐसा होता है। इसलिए मस्तों में और पागलों में फर्क करना तक मुश्किल हो जाता है। जिनको हमने मस्त कहा है, उनमें से कई लोग, ठीक उन जैसे लोग, पश्चिम में पागलखानों..में पड़े हैं। क्योंकि उनके पास कोई विभाजन करने का उपाय नहीं है। उनके पास कोई उपाय नहीं है कि वे कैसे विभाजन करें। यह आदमी पागल मालूम पड़ता है! क्योंकि उन्होंने इस बात को स्वस्थ होने की परिभाषा बना लिया है कि सुख कारण से होता है तो आपका मस्तिष्क ठीक है, और अकारण सुख हो रहा है तो आपका दिमाग खराब है; क्योंकि अकारण सुख हो कैसे सकता है!
लेकिन मस्तों की परंपरा कहती है कि अकारण ही सुख हो सकता है, कारण से तो कभी सुख हुआ ही नहीं है। यह बड़ी मुश्किल बात है। मस्तों की परंपरा कहती है कि कारण से तो कभी सुख हुआ ही नहीं है, सिर्फ वहम होता है। कारण से सदा दुख हुआ है।
इसे समझ लें, इसका पूरा मनस —शास्त्र है।
जब आप कारण में सुख खोजते हैं—किसी और में, किसी वस्तु में, किसी घटना में, किसी व्यक्ति में —तो अंतिम परिणाम सिवाय दुख के और कुछ नहीं होता, दुख ही दुख होता चला जाता है। पत्नी पति में सुख खोज रही है, मां बेटे में सुख खोज रही है, बाप बेटे में, बेटी में सुख खोज रहा है, संबंधियों में, धन में, पद में, प्रतिष्ठा में—कहीं और। अपने को छोड कर हम सब सुख खोज रहे हैं कहीं और। और मजा यह है कि जिनमें हम सुख खोज रहे हैं, वे खुद कहीं और सुख खोज रहे हैं! हम एक खदान खोद रहे हैं जिसको हम सोचते हैं, हीरे की खदान है, और वह खदान खुद हीरों की तलाश में गई है! और वह खदान जहां जाकर तलाश कर रही है, वे खुद कहीं और तलाश में गए हैं।
हम उन बैरंग चिट्ठियों की तरह हैं जिन पर कोई पता ही नहीं है; खोज रहे हैं! किसकी तरफ जा रहे हैं, उसका कोई पता नहीं है! और जिसके घर जा रहे हैं, पहले पूछा भी नहीं है कि वह खुद भी तो कहीं गए हुए नहीं हैं!
हर आदमी कहीं और है, इसलिए किसी से' भी मिलना नहीं हो पाता। जिसके घर जाओ, वह वहा नहीं है। जिसका हाथ हाथ में लो, वह वहा नहीं है। जिसको हृदय से लगाओ, वह वहा नहीं है, वह कहीं और गया हुआ है। सब कहीं और गए हुए हैं, इसलिए किसी का किसी से मिलना हो ही नहीं पाता, होगा भी नहीं। और जो कारण में खोज रहा है, वह आज नहीं कल, गहरे से गहरे दुख में पड़ता जाएगा। क्योंकि हर बार आशा बंधेगी कि यह कारण सुख देगा, और जब मिल जाएगा, आशा टूट जाएगी।
मस्ती का शास्त्र कहता है कि दूसरे से तो दुख मिलता है, सुख कभी मिलता नहीं, सुख मिलता है सदा अपने से। और जब कभी आपको दूसरे से भी मिलता हुआ लगता है, तो मस्ती की परंपरा कहती है कि उसका कारण दूसरा नहीं होता, आप ही होते हैं!

इसे भी थोड़ा समझ लें।
लगता है, किसी से आपका प्रेम है। उसकी उपस्थिति सुखद मालूम पडती है। यह उसकी उपस्थिति ओं। कारण आपको सुख मिल रहा है कि आपकी यह धारणा आपको सुख दे रही है कि मेरा प्रेम है और रार्गस्थति से मुझे सुख मिलता है? क्योंकि अगर उस व्यक्ति की उपस्थिति से सुख मिलता हो, तो उस नर्गक्त की उपस्थिति से सभी को सुख मिलना चाहिए। लेकिन यह नहीं होता। उसी व्यक्ति की उपस्थिति से किसी को दुख मिलता है भारी।
अगर पानी से प्यास बुझती है तो सभी की प्यास बुझनी चाहिए। अगर आप कहें कि इस पानी से हमारी प्यास बुझती है, और किसी की नहीं बुझती, तो इसमें मामला आपका ही है, पानी का नहीं हो सकता। आब्जेक्टिव टडथ और सब्जेक्टिव टूथ, विषयगत सत्य और आत्मगत सत्यों में फर्क करना सीखना चाहि।र। अगर पानी पानी है, तो मेरी प्यासँ भी बुझाका, आपकी भी बुझाका, किसी की भी बुझाका; प्यास बुझाएगा, आदमियों से कोई संबंध नहीं है। जिसकी भी प्यास होगी, बुझ जाएगी।
किसी का सौंदर्य मुझे सुख देता है, किसी और को नहीं देता। अगर सौंदर्य है, तो जिनको भी सौंदर्य की तलाश है, प्यास है, उन सबको सुख मिलना चाहिए। यह नहीं होता। उसी सौंदर्य से किसी को काटे छिदते हैं और ऐसा लगता है कि भाग खड़े हों, दूर हट जाएं। उसी सौंदर्य से आपको सुख मिलता है! किसी को दुख मिलता है। किसी को पता ही नहीं चलता कि सौंदर्य है भी! किसी को सिर्फ हंसी आती है दिमाग खराब है, कहां सौंदर्य देख रहे हो, वहां कुछ भी नहीं है।
मतलब क्या हुआ इसका? मतलब यह हुआ कि जो सौंदर्य आपको दिखाई पड़ रहा है वह आपका ही दिया हुआ है, वहां कुछ है नहीं, आप ही कारण हैं। और इसलिए यह भी हो जाता है कि जिसके सौंदर्य से सुबह सुख मिला, दोपहर दुख मिलने लगता है। और सांझ फिर सुख मिलने लगता है। और आज सुख मिला, कल दुख मिलने लगता है!
एक मजेदार घटना घटी। एक फिल्म अभिनेत्री मेरे पास आई और उसने मुझे कहा कि मैं बड़ी मश्किल में पड़ गई हूं इसलिए आपसे सलाह लेने आई हूं। मुश्किल यह है कि मैंने किया था प्रेम विवाह; लेकिन वर्ष, दो वर्ष में ही लगा कि भूल हो गई और कलह के सिवाय कुछ हाथ न लगा। फिर भी खींचा, दस साल खींचा; लेकिन कलह और नर्क गहरा होता चला गया। और फिर खींचने का भी कोई उपाय न रहा, कोई अर्थ न रहा। हैरानी उसे हुई, क्योंकि पति ने बड़े आग्रह से यह प्रेम किया था, और बड़े आग्रह से यह विवाह किया था। और पति का मन उचाट हो गया! फिर दस साल बाद तलाक हुआ। तो तलाक हुए भी दस साल हो गए। एक बच्ची थी, वह बडी हुई। अभी उसका विवाह हुआ। तो उस विवाह में पति—पत्नी का फिर से मिलना हो गया, क्योंकि दोनों मौजूद हुए विवाह में। और वह अभिनेत्री मेरे पास आई थी कि मेरा पति फिर दुबारा मेरे प्रेम में पड़ गया है! और वह कहता है, हम फिर से विवाह कर त्नें! अब मैं क्या करूं?
कठिनाई साफ है। कोई किसी के प्रेम में नहीं पड़ता। दूसरे तो पर्दे होते हैं, हम अपनी ही छाया देख कर उनमें प्रेम में पड़ते चले जाते हैं। जब हमें लगता है कि दूसरे से सुख मिल रहा है, तब भी हमारा ही आभास होता है। जितना हम गहरे जाएंगे उतना हम पाएंगे कि सुख की सारी घटना अपना ही फैलाव है। और चूकि हम दूसरे में सुख मानते हैं और दूसरे से सुख होता ही नहीं, इसलिए दुख भोगना पड़ता है।
जो आदमी यह खोज लेता है कि सुख का स्रोत मेरे भीतर है, कहीं उसे खोजने नहीं जाता। अपने को ही सुख में डूबा हुआ अनुभव करने लगता है। नाचता है किसी और कारण से नहीं, सिर्फ अपने होने के कारण; सिर्फ अपना होना ही काफी प्रसन्नता है; अपना होना मात्र ही काफी आनंद है; कोई और कारण खोजने की जरूरत नहीं है। श्वास चल रही है, यह भी परम आनंद है; हृदय धड़क रहा है, यह भी परम आनंद है।
इसका थोड़ा प्रयोग करें। एक वृक्ष के नीचे एकांत में बैठ जाएं और पहली दफे अपने प्रेम में गिरे; भूलें संसार को, अपने प्रेम में पड़े।
अध्यात्म की खोज असल में अपने ही प्रेम में पड़ने की खोज है। संसार दूसरे के प्रेम में पड़ने की यात्रा है, अध्यात्म अपने प्रेम में पड़ने की। अध्यात्म बड़ा स्वार्थी है। स्वयं की ही खोज है, स्वयं के ही अर्थ की खोज है; स्वयं का ही रस पाना है, स्वाद पाना है। और जब यह स्वाद भीतर आने लगता है...। थोड़ी प्रतीक्षा करें, थोड़ी खोज करें, होने का आनंद लें कि मैं हूं, यह भी क्या अनूठी घटना है! मैं न होता तो क्या करता? मैं न होता तो कौन सी शिकायत थी? किससे शिकायत थी? मैं हूं इस अस्तित्व में, यह होना भी, यह होश, यह इतना बोध कि मैं हूं, यह आनंद की झलक की संभावना, इसका थोडा स्वाद लें। इसके स्वाद को जरा भीतर रोएं —रोएं में डूबने दें। इसकी पुलक में बह जाएं। नाचने का मन हो नाचने लगें, हंसने का मन हो हंसने लगें, गीत गाने का मन हो गीत गाने लगें। लेकिन एक ध्यान रखें, केंद्र खुद ही बने रहें। और सुख के स्रोत को भीतर से ही बहने दें, बाहर से नहीं। यह धीरे — धीरे अनुभव में. उतर जाता है। और तब जो अवस्था आती है, वह है मस्त की अवस्था। मस्त का मतलब है कि जो अपने में मस्त हो गया।
यह सूत्र मस्ती का आधार—सूत्र है।
'आनंदरूप आत्मा को स्वस्वरूप जान कर इस आत्मा में ही बाहर और भीतर सदा आनंद रस का तू स्वाद ले। '
'वैराग्य का फल ज्ञान है।'
यह सूत्र बहुत बहुमूल्य है।
'वैराग्य का फल ज्ञान है, शान का फल उपरति, और आत्मानंद के अनुभव से जो शांति होती है, वही उपरति का फल है।'.
'ऊपर बतलाई हुई वस्तुओं में उत्तरोत्तर जो न हो, तो उससे पहले की वस्तु निष्फल है, ऐसा जानना। विषयों से दूर जाना, यही परम तृप्ति है और आत्मा का जो आनंद है वह स्वयं ही अनुपम है।'
एक—एक चरण को समझ लें। और साधक के लिए एक—एक चरण स्मरण रखने जैसा है। और निरंतर उसकी परीक्षा करते रहने जैसी है। यह कसौटी है, निकष है।
'वैराग्य का फल शान है।'
जैसा मैंने कहा, शरीर की व्यर्थता का. पता चले। शरीर व्यर्थ है, आख गड़ा कर देखेंगे, पता चल जाएगा। संसार सुख नहीं दे पाता, ऐसी प्रतीति गहन और साफ हो जाए। और अड़चन नहीं है, खोजेंगे तो साफ हो ही जाएगी; क्योंकि ऐसा है ही। जैसे हम किसी आख बंद आदमी को कहें कि तू आख खोल और देख प्रकाश है! ऐसी ही ये बातें हैं। ऐसा है ही। संसार से कभी कोई सुख नहीं मिलता, शरीर से कभी कोई सुख नहीं मिलता, दूसरे से कभी कोई शाति नहीं मिलती—ऐसा है ही; आंख खोल कर खोजने की जरूरत है। डर के मारे कि कहीं सत्य पता न चल जाए, हम आंख बंद किए हैं जन्मों—जन्मों से। यह हमारा आंख बंद करना सप्रयोजन है। हमें डर है।
एक मित्र मेरे पास आए; विवाह करना चाहते थे; प्रेम है किसी से। मैं पूछा, सच में ही प्रेम है? थोड़ा सोच—विचार कर लो। उन्होंने कहा, सोच—विचार! प्रेम है, इसमें क्या सोच—विचार करना?
फिर भी, मैंने कहा, हर्ज क्या है? पीछे करने से पहले कर लेना ज्यादा अच्छा है। जल्दी भी क्या है, एक पंद्रह दिन रुको।
वे कुछ बेचैन और घबडाए मालूम पड़े।
मैंने कहा, अगर प्रेम है ही तो पंद्रह दिन तो टिकेगा ही, इतनी घबड़ाहट क्या है?
पंद्रह दिन वे रुके। और मैंने कहा, पंद्रहवें दिन तुम आना। और पंद्रह दिन सोचो. प्रेम है? सच में! पंद्रह दिन बाद आकर उन्होंने कहा कि आपने मुझे बहुत कनक्यूज कर दिया। मेरा मन बड़ा भ्रम में पड़ गया। पंद्रह दिन पहले मैं बिलकुल आश्वस्त था, चीजें साफ थीं। और यह क्या मामला आपने लगा दिया! मैं आया था आशीर्वाद लेने, कि मुझे आशीर्वाद दें कि मेरा यह प्रेम—विवाह सफल हो जाए।
मैंने कहा, वह आशीर्वाद मांगने आए थे इसी डर से तो मैंने कहा पहले सोच लो। क्योंकि आशीर्वाद मांगने जाता ही तब कोई है, जब अपने पर भरोसा नहीं होता। इसलिए तुम आशीर्वाद न मांगते तो मैं कोई तुमसे कहने वाला नहीं था। तुम भीतर आश्वस्त नहीं हो कि सुख मिलेगा, इसलिए आशीर्वाद मांगते हो, कि किसी और पर जिम्मा जाए, अपना जिम्मा हटे। तो तुम मुझे फंसा रहे थे, प्रेम तुम कर रहे थे, फंसा मुझे रहे थे। अब तुम और सोच लो। अगर उलझन पड़ गई है, तो पंद्रह दिन और सही।
उन्होंने कहा, अब नहीं रुक सकता, क्योंकि अगर पंद्रह दिन रुका तो विवाह के पहले तलाक हो जाएगा।
हम डरे हुए हैं। हम आंख खोल कर देखते भी नहीं चारों तरफ कि मामला क्या है? क्योंकि भय हमें है कि जो भी हम देख रहे हैं वह वहा है नहीं। हम अपने घावों को छिपाए हैं, कि जरा उघाड़ कर देखा तो पता चल जाएगा, घाव है। घाव छिपा लिया है, ऊपर सोने का कंगन बाध लिया है। कंगन दिखाई पड़ता है, घाव दिखाई नहीं पड़ता। कंगन को देख कर सोचते हैं, सब ठीक है। लेकिन कंगन से कहीं घाव मिटे? वह घाव तो भीतर बढ़ता ही जाता है; वह नासूर बनता चला जाता है।
हमारी सारी जिंदगी आत्म —प्रवंचना है, जहा कुछ भी नहीं है। हमें भी लगता है कि कुछ भी नहीं है, लेकिन यह भी डर लगता है कि इसी के सहारे जी रहे हैं, अगर आंख खोल कर देखा और दिखाई पड़ा कि यह भी नहीं है, तो जीएंगे कैसे?
पश्चिम में यह मुसीबत खड़ी हुई है। इसे थोड़ा खयाल में लें। पश्चिम में यह मुसीबत खड़ी हुई है। पश्चिम ने पिछले तीन सौ सालों में, चीजें जैसी हैं उनको वैसा देखने की कोशिश की है—जैसी हैं वैसा देखने की कोशिश की है! अब पश्चिम बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। मुश्किल यह हो गई है कि देखने की कोशिश कई मायनों में दूर तक सफल हो गई है, और चीजें साफ हो गई हैं कि वहां उनमें कुछ भी नहीं है। अब क्या करें? तो पश्चिम में एक ही भाव है कि सब रिक्त हो गया और सब फिजूल हो गया, कोई सार्थकता नहीं मालूम पड़ती; अब करें क्या?
इन तीन सौ साल में पश्चिम ने गहन चिंतन किया है जीवन के संबंधों पर और परिणाम यह हुआ कि सब संबंध संदिग्ध हो गए हैं। आज पश्चिम में कोई प्रेमी हिम्मत करके यह नहीं कह सकता अपनी प्रेयसी से कि मेरा प्रेम शाश्वत है। असंभव हो गया है कहना। क्योंकि इधर प्रेम की जितनी खोज—बीन हुई, पता चला कि प्रेम से ज्यादा क्षणभंगुर और कुछ भी नहीं है। वे बातें कवियों की थीं और अंधों की थीं, जो कहते थे प्रेम शाश्वत है।
आख बंद चाहिए, तो ही आप कह सकते हैं प्रेम शाश्वत है। दिखता है, होता नहीं। जब आप प्रेम में होते हैं किसी के तो ऐसा ही लगता है कि यह प्रेम अब सदा —सदा चलेगा, दुनिया की कोई ताकत इसे तोड़ नहीं सकती। आप बड़ी गलती में हैं! बड़ी ताकतों की कोई जरूरत नहीं, किसी ताकत को तोड़ने की जरूरत नहीं है, आप ही तोड लेंगे, आप ही काफी हैं।
और प्रेम बहुत क्षणभंगुर है। सुबह जब फूल खिलता है तो कौन मान सकता है कि घड़ी भर बाद मुर्झा जाएगा! उसका खिलापन धोखा दे जाता है और लगता है सदा खिला रहेगा। वह कभी नहीं खिला रहता। जो खिला है, वह मुर्झाता है। जब प्रेम खिलता है, वह भी फूल है, वह भी मुर्झाका।
पश्चिम ने जान लिया ठीक से, समझ लिया ठीक से, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। प्रेम करना मुश्किल हो गया, क्योंकि प्रेम करने के लिए वह भ्रम जरूरी था कि शाश्वत है। उस भ्रम के बिना प्रेम नहीं हो सकता। अगर वह भ्रम टूट जाए, तो प्रेम टूट जाता है।
इसलिए पश्चिम में सेक्स रह गया है, प्रेम की कोई संभावना नहीं मालूम पड़ती, सिर्फ कामवासना रह गई है। लेकिन कामवासना के आधार पर जीवन को गहराई देना मुश्किल है। और कामवासना के आधार पर परिवार का निर्माण करना मुश्किल है। और अगर कामवासना ही सत्य है, तो कामवासना के ही कारण परिवार का इतना उपद्रव, इतना दायित्व लेना व्यर्थ है।
इसलिए पति—पत्नी पश्चिम में खोते जा रहे हैं, व्वाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड बढ़ते जा रहे हैं। पति—पत्नी उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है, व्याय फ्रेंड! उसका मतलब यह है कि अभी दोस्ती चलती है, कल बदल जाए तो कोई कानूनन उपद्रव नहीं है।
मगर तब रिक्तता मालूम होती है। प्रेम उखड़ गया और अगर ध्यान न दिया जा सके तो बडी अड़चन हो जाएगी। शक्ति मुक्त हो गई है और उसके लिए कोई दूसरी यात्रा का पथ नहीं है।
इसलिए आख बंद किए रहते हैं कि जहां चल रहे हैं स्वर्ग है। नर्क में भी चल रहे हैं तो स्वर्ग है। आख बंद रहे तो क्या फर्क पड़ता है कि नर्क है! हम भीतर अपना स्वर्ग बनाए रखते हैं। कभी—कभी मजबूरी में टक्कर लग जाती है, पैर टकरा जाता है, कहीं पत्थर से चोट खा जाते हैं, आख खुल जाती है। फिर तत्काल बंद कर लेते हैं कि स्वर्ग है। क्योंकि वह आख जब खुलती है तब नर्क दिखाई पडता है। आपको भी रोज मौके आते हैं नर्क देखने के, फिर आप आख बंद कर लेते हैं, चेष्टा से आख बंद रखते हैं। यह डर है और इसलिए वैराग्य उत्पन्न नहीं हो पाता है, नहीं तो जीवन प्रत्येक को वैरपय उत्पन्न कर दे, ऐसा है।
जीवन ऐसा है कि वैरपय उत्पन्न होगा ही, कोई वैराग्य उत्पन्न करने के लिए आपको अथक चेष्टा नहीं करनी है। वैराग्य उत्पन्न न हो, इसके लिए आप अथक चेष्टा कर रहे हैं। सोचें, अपनी जिंदगी पर एक सिंहावलोकन करें, लौट कर अपनी जिंदगी देखें और खयाल करें! सारी जिंदगी वैराग्य की तरफ ले जा रही है। जिंदगी का संदेश वैराग्य है, इंगित वैराग्य है। सब तरह से जिंदगी दुख देती है, फिर भी विराग पैदा नहीं होता! फिर भी विराग पैदा नहीं होता! सब तरह से जिंदगी असफल करती है, तोड़ती है, सब तरह से जिंदगी खंड—खंड कर देती है, अंग— भंग कर देती है, फिर भी वैराग्य उत्पन्न नहीं होता; चमत्कार है! नहीं तो जिंदगी का सहज स्वर वैराग्य का है।
राग में है जन्म जीवन का, वैराग्य में है परिणति। राग से हम पैदा होते हैं, लेकिन अगर राग में ही मर जाएं, तो उसका मतलब है कि जीवन का संदेश हमें सुनाई नहीं पड़ा।
वैराग्य जीवन का स्वर है। खोजें, अपने को धोखा न दें, तो सब सहयोगी हैं। सब सहयोगी हैं—मित्र भी, शत्रु भी; अपने भी, पराए भी—सब सहयोगी हैं आपको वैराग्य की तरफ ले जाने के लिए।
और वैराग्य का फल शान है।
और जिस दिन आप विराग में खड़े हो जाते हैं, और इस जगत के प्रति कोई वासना नहीं रह जाती, और इस जगत से कोई मांग नहीं रह जाती, और इस जगत की व्यर्थता स्पष्ट सामने हो जाती है, इसका फल ज्ञान है। तब आप जागते हैं। तब आप प्रज्ञान से भरते हैं। तब पहली दफे प्रज्ञा का उदय होता है। तब आपके भीतर दीया जलता है।
वैराग्य की स्थिति में ज्ञान का दीया जलता है। और अगर शान का दीया न जले तो समझना कि वैराग्य झूठा है। यह सूत्र का दूसरा हिस्सा है, कि अगर दूसरी बात घटित न हो तो पहली झूठी है, असफल गई, यह समझ लेना।
हमारे मुल्क में विरागी कम नहीं हैं, लेकिन ज्ञानी खोजना मुश्किल है। विरागी तो हर मठ—मंदिर में बैठे हुए हैं। मैं न मालूम कितने साधु —संन्यासियों को मिलता रहा हूं। वर्षों से भाग गए हैं। लेकिन कहते हैं, अभी कुछ हुआ नहीं, ज्ञान नहीं हुआ! मगर वे भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि उनका वैराग्य मिथ्या है, इसलिए ज्ञान नहीं हुआ। वे मानते हैं, वैराग्य तो हमारा पूरा है, ज्ञान नहीं हुआ।
अगर ज्ञान नहीं हुआ, तो पहला चरण मिथ्या गया है, तुम्हारा वैराग्य झूठा है। तुम्हारा वैराग्य पका हुआ राग नहीं है। तुम्हारा वैराग्य पके हुए राग से नहीं निकला है, तुम कच्चे भाग खड़े हुए हो। तुम बिना आंख खोले भाग खड़े हुए हो। इसको खयाल रखें।
एक आदमी है, नर्क में चल रहा है आंख बंद करके, भीतर सपने संजोए है, उसमें स्वर्ग देख रहा है। आंख खोलता नहीं, क्योंकि डर है कि नर्क दिखाई न पड़ जाए। सुनता है खबरें ऋषियों की, मुनियों की, कि संसार नर्क है। भीतर खुद को भी लगता है कि होगा, क्योंकि आंख खोलने में डर लगता है। या कभी—कभी अचानक आंख खुल जाती है किसी दुर्घटना में तो नर्क दिखाई पड़ता है, ऋषि—मुनि सच मालूम पड़ते हैं। आंख खोलता नहीं लेकिन।
फिर घबराहट बढती जाती है और ऋषि—मुनियों का स्वर भीतर छिपता चला जाता है। और यह आवाज भीतर से लगने लगती है कि सब गड़बड़ है। तो भाग खड़ा होता है। लेकिन आंख बंद किए ही भाग खड़ा होता है। तो वैराग्य ले लेता है। लेकिन आंख खोल कर राग को देखा नहीं। आंख बंद किए ही राग में था, आंख बंद किए ही वैराग्य में चला जाता है। तो फिर शान का फल नहीं आएगा। क्योंकि इस आदमी की अवस्था में फर्क नहीं आया। आंख बंद ही है। कल राग में चलता था अंधे की तरह, अब वैराग्‍य में चल रहा है अंधे की तरह।
राग में आख खुलने से जो वैराग्य होता है, वह पका हुआ वैराग्य है; प्रौढ़। उस प्रौढ़ता में ही ज्ञान का दीया जलता है।
'ज्ञान का फल है उपरति।'
और जब ज्ञान का दीया जलता है तो उसका क्या फल है? ज्ञान का फल है विश्राम, उपरति। चित्त, चैतन्य, शरीर, अस्तित्व, सब उपरति को उपलब्ध हो जाते हैं। कहीं कोई श्रम नहीं रह जाता। कहीं कोई तनाव नहीं रह जाता। कोई स्ट्रेन, कोई रेखा मात्र भी तनाव की भीतर नहीं रह जाती। उपरति हो जाती है। विश्राम हो जाता है।
अगर ज्ञान से विश्राम न हो, तो समझना कि ज्ञान झूठा है। एक—एक कदम पीछे का झूठा होगा। अगर ज्ञानी भी तनाव से भरा हुआ मालूम पड़े; अगर ज्ञानी का व्यक्तित्व भी विश्राम को उपलब्ध हुआ हुआ न हो, रिलैक्स न हो; अगर ज्ञानी को भी अभी अनुशासन रखना पड़ता हो अपने ऊपर, तो समझना कि ज्ञान शास्त्रों से मिला होगा, अनुभव से नहीं मिला। जान सुन कर पा लिया होगा, जान कर नहीं पाया। तो ज्ञान बुद्धि में होगा, अभी व्यक्तित्व में नहीं आया। तो ज्ञान सिर पर बोझ है, ज्ञान पंख नहीं बना कि उससे आकाश में उड़ा जा सकता।
ज्ञान का फल है विश्राम कि भीतर कोई भी श्रम न रह जाए। कोई इफर्ट, किसी तरह की चेष्टा, किसी भी तरह की चेष्टा न रह जाए, निश्चेष्ट हो जाए। जो होता है, ठीक है। तथाता आ जाए। उपरति हो जाए। जो है, ठीक है। कुछ पाने की चेष्टा न हो। कुछ खोने का डर न हो। कुछ गलत न हो जाए, इसका भय न पकड़े। कुछ भूल न हो जाए, इसकी बेचैनी न बनी रहे। कहीं चूक न जाऊं, कहीं गिर न जाऊं, कहीं भटक न जाऊं, इसका कोई तनाव न हो। इसका नाम है उपरति।
उपरति बड़ी गहन बात है। विरागी मिल जाएंगे लाखों, शान की कोई झलक न मिलेगी। ज्ञानी भी मिल जाएंगे हजारों, लेकिन उपरति की कोई झलक न मिलेगी। पंडितों की क्या कमी है? जानकारों की क्या कमी है?
लेकिन बड़े मजे की बात है कि जानकार से कभी—कभी अज्ञानी और गैर—जानकार ज्यादा विश्राम को उपलब्ध मालूम होते हैं। पंडित की खोपडी की जांच करवाएं और एक अज्ञानी की खोपड़ी की, तो अशानी की खोपड़ी विश्राम में मिलेगी और पंडित की खोपड़ी बड़े ऊहापोह में होगी। यह तो उलटा मामला मालूम पड़ता है। इससे तो अज्ञान भी बेहतर था, क्योंकि कम से कम अज्ञान अपना तो था। यह ज्ञान उधार है, इसलिए बोझ है। जो अपना है, वह हलका करता है, और जो उधार है, वह बोझिल कर जाता है। जो अपना है, वह हमेशा खिलावट देता है; जो पराया है, वह दबा देता है।
'ज्ञान का फल उपरति, उपरति का फल शांति।'
और जो विश्राम को उपलब्ध है, वही धीरे—धीरे विश्राम में डूबते —डूबते—डूबते उस केंद्र को पा लेता है, जिसे शांति कहा है।
एक आदमी तैर रहा है। जो तैर रहा है, वह पानी की सतह पर रहेगा। तैरना चेष्टा है, श्रम है। एक आदमी ने हाथ—पैर छोड़ दिए; तैरता नहीं, पड़ा है; जहा ले जाए नदी। न ले जाए, तो भी ठीक; ले जाए, तो भी ठीक। वह उपरति को उपलब्ध हुआ। जो आदमी पड़ा है, वह धीरे—धीरे नदी में डूबने लगेगा। डूबता जाएगा। आखिरी गहराई, जब सतह आ जाएगी, तब टिकेगा। उस सतह का नाम शांति है।
वैराग्य से ज्ञान। अगर वैरपय सही है, शान होगा ही। अगर शान सही है, उपरति होगी ही। अगर उपरति सही है, शांति अनिवार्य है। और अगर आपके विश्राम से शांति न आती हो, तो जानना कि विश्राम भी आरोपित है।
पश्चिम में बहुत किताबें लिखी जाती हैं। उनके नाम ऐसे होते हैं, यू मस्ट रिलैक्स। अब यह किताब का नाम ही बेहूदा है। मस्ट! शब्द में ही तनाव आ गया। तुम्हें विश्राम करना ही चाहिए! अब यह करना ही चाहिए, यही तो उपद्रव हो जाएगा, यही विश्राम न करने देगा। और उन किताबों को पढ़ कर लोग पड़े हैं बिस्तरों पर! शवासन साध रहे हैं; कह रहे हैं, विश्राम करना ही चाहिए! विश्राम कर रहे हैं।
वे थोप भी सकते हैं अपने ऊपर विश्राम, बिलकुल मुर्दे की तरह अकड़ कर पड़ भी सकते हैं। लेकिन भीतर वह तनाव जारी रहेगा, क्योंकि विश्राम को भी संभालना पड़ेगा। विश्राम को भी निर्मित करेंगे आप, तो उसमें भी तो श्रम लगेगा। और ध्यान रखिए, अगर विश्राम आपको संभालना पड़े, तो उसके बाद आप थके हुए वापस निकलेंगे। क्योंकि वह जो चेष्टा है, वही तो थकाती है। अब संभाले हैं अपने को कि।rवश्राम कर रहे हैं! जरा भी चेष्टा नहीं करनी है!
जरा भी चेष्टा नहीं करनी है —यह चेष्टा है। विश्राम को संभाल कर रखना है, कहीं विश्राम खो न जाए—यह श्रम है।
तो ऐसे विश्राम से शांति उपलब्ध नहीं होगी। विश्राम एक अस्तित्वगत घटना है। विश्राम का अर्थ है कि आपकी चेतना को कुछ पाने योग्य न रहा, आपकी चेतना की कोई मांग न रही, कुछ होने की दौड़ न रही। शांत होने की भी कोई दौड़ नहीं है। विश्राम आए, इसका भी कोई आग्रह नहीं है। आ जाए, राजी, न आए, उतने ही राजी।
मुसलमान फकीरों को कभी आपने रास्तों पर कहते हुए सुना होगा : जो दे, उसका भला; जो न दे, उसका भला। ऐसे तो भिखारी भी उसको दोहराते हैं, लेकिन वह वचन सूफियों का है। भिखारी बिलकुल झूठा दोहराता है। जब वह कहता है, जो दे, उसका भला, तब उसकी आख की चमक और होती है; जब वह कहता है, जो न दे, उसका भला, तब उसकी आख में कोई चमक नहीं होती! उसको देकर देखें और न देकर देखें; फर्क पता चल जाएगा।

एक सूफी फकीर हुआ बायजीद। उसने तो इस वाक्य में थोड़ा और फर्क कर दिया था। वह कहता था, जो दे उसका भला, जो न दे उसका और भी ज्यादा भला।
किसी ने उससे पूछा कि बायजीद, जो दे उसका भला, जो न दे उसका भला, यह तो हमने सुना था। यह तुमने इसमें और क्या जोड़ दिया कि जो दे उसका भला, जो न दे उसका और भी भला!
तो बायजीद ने कहा कि जो देता है उसमें तो प्रसन्नता होती ही है, लेकिन जब कोई नहीं देता और तब प्रसन्नता होती है, तब तो धन्यवाद का भाव बहुत बढ़ जाता है। जब कोई देता है, तो ठीक है, प्रसन्नता होती ही है; लेकिन जब कोई नहीं देता और तब भी भीतर प्रसन्नता होती है, तब तो उसके पैर पकड़ने का मन होता है कि अगर यह देता तो इतनी प्रसन्नता से वंचित रह जाते, न देकर जब जो प्रसन्नता हो जाती है। इसलिए कहते हैं कि जो न दे उसका और भी भला। उसकी भी बड़ी कृपा है। उसने भी एक मौका दिया, कि जब कोई न दे, तब भी सुख की धारा में कोई अंतर नहीं पड़ता।
विश्राम का अर्थ अस्तित्वगत है, चेष्टागत नहीं। इसलिए एक—एक सीडी! सभी विश्राम चाहते हैं। लेकिन वैराग्य, वह पहली सीडी है; उपद्रव उपनिषद ने रख दी, शर्त कठिन रख दी। विश्राम कौन नहीं चाहता? सभी तलाश में हैं कि विश्राम कैसे मिले? सभी खोज रहे हैं, शांति कैसे मिले?

लेकिन विज्ञान पूरा आपको करना पड़ेगा। फूल चाहते हैं, बीज बोते नहीं! बीज बो दें, पानी नहीं डालते! पानी डाल दें, कोई बागुड़ नहीं लगाते कि वृक्ष को जानवर न चर जाएं! सारी एक—एक... एक—एक चरण से चलना पड़े। वैराग्य का अर्थ, हटा लिया मन दौड़ से। दौड़ से हटते ही मन, जो ऊर्जा भाग—दौड़ में नष्ट हो रही थी, वही ऊर्जा बच जाती है और ज्योति बन जाती है।

'... ज्ञान, ज्ञान का फल उपरति। '
जो जान लेता है, उसके लिए तनाव का कोई भी कारण नहीं है। जो जान लेता है, उसके लिए बेचैन होने का कोई भी कारण नहीं है। इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिसके लिए बेचैन हुआ जाए।
'ज्ञान का फल उपरति, उपरति का फल शांति।'
'ऊपर बतलाई हुई वस्तुओं में उत्तरोत्तर जो न हो, तो जानना कि पहले की वस्तु निष्फल है।
विषयों से दूर जाना, यही परम तृप्ति है और आत्मा का जो आनंद है वह स्वयं ही अनुपम है।'

आज इतना हीं।




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