अध्याय
66
घाटियों
के स्वामी
यह
कैसे हुआ कि
महान नदी और
समुद्र
खड्डों के,
घाटियों
के स्वामी बन
गए?
झुकने
और नीचे रहने
में कुशल होने
के कारण।
इस
तरह वे
खड्डों-घाटियों
के स्वामी बन
गए।
इसलिए
लोगों के बीच
प्रधान होने
के लिए
किसी
को उनके अनुगत
की तरह बोलना
चाहिए।
लोगों
के बीच उनका
अगुआ होने के
लिए
किसी
को उनके
पीछे-पीछे
चलना चाहिए।
इस
तरह संत ऊपर
होते हैं,
और
लोग उनका बोझ
अनुभव नहीं
करते;
वे
आगे-आगे चलते
हैं, और लोग
उनकी हानि
नहीं चाहते।
और
तब संसार के
लोग खुशी-खुशी
और
सदा के लिए
उन्हें
सिर-आंखों पर
रखते हैं।
क्योंकि
वे कलह नहीं
करते,
इसलिए
संसार में कोई
उनके विरुद्ध
संघर्ष नहीं
कर पाता।
इस
सदी के एक
बहुत बड़े मनसविद
अल्फ्रेड
एडलर ने
मनुष्य के
जीवन की सारी
उलझनों का मूल
स्रोत हीनता
की ग्रंथि में
पाया है। हीनता
की ग्रंथि का
अर्थ है कि
जीवन में तुम
कहीं भी रहो, कैसे
भी रहो, सदा
ही मन में यह
पीड़ा बनी रहती
है कि कोई
तुमसे आगे है,
कोई तुमसे
ज्यादा है, कोई तुमसे
ऊपर है। और
इसकी चोट पड़ती
रहती है। इसकी
चोट भीतर के
प्राणों को
घाव बना देती
है। फिर तुम
जीवन के
आस्वाद को भोग
नहीं सकते; फिर तुम
सिर्फ जीवन से
पीड़ित, दुखी
और संत्रस्त
होते हो।
हीनता
की ग्रंथि, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स,
अगर एक ही
होती तो भी
ठीक था। तो
शायद कोई हम
रास्ता भी बना
लेते। अल्फ्रेड
एडलर ने तो
हीनता की
ग्रंथि शब्द
का प्रयोग किया
है; मैं तो
बहुवचन का प्रयोग
करना पसंद
करता हूं: हीनताओं
की
ग्रंथियां।
क्योंकि कोई
तुमसे ज्यादा
सुंदर है। और
किसी की वाणी
में कोयल है, और तुम्हारी
वाणी में
नहीं। और कोई
तुमसे ज्यादा
लंबा है; कोई
तुमसे ज्यादा
स्वस्थ है।
किसी के पास
ज्यादा धन है;
किसी के पास
ज्यादा ज्ञान
है; किसी
के पास ज्यादा
त्याग है। कोई
गीत गा सकता
है; कोई
संगीतज्ञ है;
कोई
प्रतिमा गढ़ता
है; कोई
चित्रकार है;
कोई
मूर्तिकार
है। करोड़-करोड़
लोग हैं
तुम्हारे
चारों तरफ, और हर आदमी
में कुछ न कुछ
खूबी है। बिना
खूबी के तो
परमात्मा
किसी को पैदा
करता ही नहीं।
और जिसके भीतर
हीनता की
ग्रंथि है
उसकी नजर सीधी
खूबी पर जाती
है कि दूसरे
आदमी में कौन
सी खूबी है।
क्योंकि
जाने-अनजाने
वह हमेशा तौल
रहा है कि मैं
कहीं किसी से
पीछे तो नहीं
हूं! तो उसकी
नजर झट से पकड़
लेती है कि
कौन सी चीज है
जिसमें मैं
पीछे हूं। तो
जितने लोग हैं
उतनी ही हीनताओं
का बोझ
तुम्हारे ऊपर
पड़ जाता है।
तुम करीब-करीब
हीनताओं
की कतार से
घिर जाते हो।
एक भीड़
तुम्हें चारों
तरफ से दबा
लेती है। तुम
उसी के भीतर तड़फड़ाते
हो। और बाहर
निकलने का कोई
भी उपाय नहीं
है। क्योंकि
क्या करोगे
तुम?
एक
आदमी ने मुझे
कहा,
कहा कि बड़ी
मुश्किल में
पड़ा हूं। दो
साल पहले अपनी
प्रेयसी के
साथ समुद्र के
तट पर बैठा
था। एक आदमी
आया, उसने
पैर से रेत
मेरे चेहरे
में उछाल दी
और मेरी
प्रेयसी से
हंसी-मजाक
करने लगा। तो
मैंने पूछा कि
तुमने कुछ
किया? उसने
कहा, क्या
कर सकता था? मेरा वजन सौ
पौंड, उसका
डेढ़ सौ
पौंड। फिर भी
तुमने कुछ तो
किया होगा? उसने कहा, मैंने किया
यह कि
स्त्रियों की
तो फिक्र ही
छोड़ दी उस दिन
से। हनुमान अखाड़े में
भर्ती हो गया।
हनुमान
चालीसा पढ़ता
हूं और
दंड-बैठक
लगाता हूं।
फिर डेढ़
सौ पौंड मेरा
भी वजन हो गया
दो साल में।
फिर मैंने एक
स्त्री खोजी,
गया समुद्रत्तट
पर। वहां बैठा
भी नहीं था कि
एक आदमी आया, उसने फिर
लात मारी रेत
में, मेरी
आंखों में धूल
भर दी, फिर
मेरी प्रेयसी
से हंसी-मजाक
करने लगा।
मैंने
कहा,
अब तो तुम
कुछ कर सकते
थे।
उसने
कहा,
क्या कर
सकते थे? मैं
डेढ़ सौ
पौंड का, वह
दो सौ पौंड
का।
तो अब क्या
करते हो?
उसने
कहा,
फिर अब
हनुमान
चालीसा पढ़ता
हूं; फिर
हनुमान अखाड़े
में व्यायाम
करता हूं।
लेकिन अब आशा
छूट गई। क्योंकि
दो सौ पौंड का
हो जाऊंगा,
क्या भरोसा
कि ढाई सौ
पौंड का आदमी
नहीं आ जाएगा।
तुम
कभी भी हीनता
के बाहर नहीं
हो सकते उस
रास्ते से।
कितने लोग
हैं! कितने
विभिन्न रूप
हैं! कितनी
विभिन्न कुशलताएं
हैं,
योग्यताएं
हैं! तुम
उसमें दब
मरोगे। अल्फ्रेड
एडलर ने
मनुष्य की
सारी पीड़ाओं
और चिंताओं का
आधार दूसरे के
साथ अपने को
तौलने में
पाया है।
गहरे
जैसे-जैसे एलडर
गया उसको समझ
में आया कि
आदमी क्यों
आखिर अपने को
दूसरे से तौलता
है?
क्या जरूरत
है? तुम
तुम जैसे हो; दूसरा दूसरा
जैसा है। यह
अड़चन तुम
उठाते क्यों
हो? पौधे
नहीं उठाते।
छोटी सी झाड़ी
बड़े से बड़े
वृक्ष के नीचे
निश्चिंत बनी
रहती है; कभी
यह नहीं सोचती
कि यह वृक्ष
इतना बड़ा है।
छोटा सा पक्षी
गीत गाता रहता
है; बड़े से
बड़ा पक्षी
बैठा रहे, इससे
गीत में बाधा
नहीं आती कि
मैं इतना छोटा
हूं, क्या
खाक गीत गाऊं!
पहले बड़ा होना
पड़ेगा। छोटे
से घास में भी
फूल लग जाते
हैं; वह
फिक्र नहीं
करता कि
इतने-इतने बड़े
वृक्षों के
नीचे तुम फूल
उगाने की
कोशिश कर रहे
हो, पागल
हुए हो! पहले बड़े
हो जाओ; फिर
फूल लाना।
नहीं, प्रकृति
में तुलना है
ही नहीं; सिर्फ
आदमी के मन
में तुलना है।
तुलना
क्यों है? तो
एडलर ने कहा
कि तुलना
इसलिए है कि
तुम--और सारी
मनुष्यता--एक
गहन दौड़ से
भरी है। उस
दौड़ को एडलर
कहता है: दि
विल टु पावर, शक्ति की
आकांक्षा।
कैसे मैं
ज्यादा
शक्तिवान हो
जाऊं! फिर
चाहे वह धन हो,
पद हो, प्रतिष्ठा
हो, यश हो, कुशलता हो, कुछ भी हो।
कैसे मैं
शक्तिशाली हो
जाऊं, यही
मनुष्य की
सारी दौड़ का
आधार है। और
जब तुम शक्तिशाली
होना चाहोगे
तो तुम पाओगे
कि तुम शक्तिहीन
हो। जितना ही
तुम
शक्तिशाली
होना चाहोगे
उतनी ही
तुम्हारी
अशक्ति का
तुम्हें पता चलेगा।
क्योंकि
जगह-जगह
तुम्हारी
शक्ति की सीमा
आ जाएगी।
सिकंदर और
नेपोलियन और
हिटलर भी चुक
जाते हैं।
उनकी भी शक्ति
की सीमा आ
जाती है। आज
तक कोई भी
व्यक्ति ऐसी
जगह नहीं
पहुंच पाया
जहां वह कह
सके कि शक्ति
की मेरी आकांक्षा
तृप्त हो गई।
जो कभी नहीं
हुआ वह कभी
होगा भी नहीं।
और तुम अपने
को अपवाद
मानने की कोशिश
मत करना।
लाओत्से
है मार्ग।
एडलर ने
प्रश्न तो खड़ा
कर दिया, उलझन
भी साफ कर दी, लेकिन मार्ग
एडलर को भी
नहीं सूझता कि
बाहर इसके
कैसे हुआ जाए।
पश्चिम के
मनोविज्ञान
के पास मार्ग
है ही नहीं।
अभी पश्चिम का
मनोविज्ञान समस्या
को समझने में
ही उलझा है।
अभी समस्या ही
समझ में नहीं
आई है पूरी
तरह तो उसके
बाहर जाने की
तो बात ही
बहुत दूर है।
कैसे कोई बाहर
जाए? तो
एडलर का तो
सुझाव इतना ही
है कि तुम्हें
अतिशय की
आकांक्षा
नहीं करनी
चाहिए; सामान्य
रूप से जो
उपलब्ध हो
सकता है उसका
प्रयास करना
चाहिए।
लेकिन
इससे कुछ हल न
होगा।
क्योंकि कहां
अतिशय की सीमा
शुरू होती है? कौन
सी चीज
सामान्य है? जो तुम्हारे
लिए सामान्य
है वह मेरे
लिए सामान्य
नहीं। जो मेरे
लिए सामान्य
है, तुम्हारे
लिए अतिशय हो
सकती है। एक
आदमी एक घंटे
में पंद्रह
मील दौड़ सकता है;
वह उसके लिए
सामान्य है।
तुम एक घंटे
में पांच मील
भी दौड़ गए तो
मुसीबत में
पड़ोगे। वह
तुम्हारे लिए
सामान्य नहीं
है। कौन तय
करेगा? कहां
तय होगी यह
बात कि क्या
सामान्य है? औसत क्या है?
एडलर कहता
है, औसत
में जीना चाहिए;
तो तुम इतने
ज्यादा पीड़ित
न होओगे।
लेकिन औसत कहां
है? कैसे
तय करोगे? और
तुम ही तो तय
करने वाले हो
और तुम ही
रुग्ण हो।
तुम्हारे रोग
से ही तय होगा
कि औसत क्या
है। अगर तुमसे
कोई पूछे कि
एक आंकड़ा
बता दो, कितने
रुपये से तुम
राजी हो जाओगे;
कैसे बता
पाओगे? और
अगर कोई कहता
हो कि जितना
तुम बताओगे
उतना हम देने
को तैयार हैं;
तब तुम और
मुसीबत में पड़
जाओगे। दस
हजार? मन
कहेगा, क्यों
दस हजार की
बात कर रहे हो
जब बीस मांगे
जा सकते हैं?
एक बड़ी
पुरानी कहानी
है। एक युवक
सत्य की खोज में
था। वह सभी
परीक्षाएं
उत्तीर्ण हो
गया। उसको
भरोसा था कि
अब गुरु कह
देगा कि अब
तुम जा सकते
हो संसार में, अब
तुम योग्य हो
गए। लेकिन
गुरु ने कहा, तू सब
परीक्षाएं
उत्तीर्ण हो
गया; आखिरी
बाकी रह गई
है। और आखिरी
परीक्षा मैं
नहीं ले सकता
हूं; उस
परीक्षा का
स्वभाव ही ऐसा
है--वह तू पीछे
समझ पाएगा--कि
उस परीक्षा के
लिए मुझे तुझे
कहीं भेजना
होगा। तो युवक
ने कहा, भेजें।
उसने सम्राट
के पास भेजा।
गांव
में जो सम्राट
था,
उसका नियम
था कि जो
व्यक्ति भी
पहले उसके
द्वार पर आ
जाए सुबह, वह
जो भी मांगे, वह सम्राट
दे देता था।
लेकिन लोग
सुखी थे, सरल
थे, और
महत्वाकांक्षा
का ज्वर पकड़ा
न था। इसलिए
कोई आता ही न
था। कई दिन तो
ऐसे ही निकल
जाते थे कि
सम्राट उठता और
दरवाजे पर कोई
होता ही नहीं।
लोग उस अवस्था
में रहे होंगे
जिसकी
लाओत्से बात
करता है कि जब
ज्ञान की
बीमारी
उन्हें पकड़ी
न थी।
लेकिन
यह युवक तो
ज्ञान की
बीमारी में पड़
गया था। यह तो
सब परीक्षाएं
उत्तीर्ण कर
आया था। यह तो
सुशिक्षित हो
गया था। तो
उसने सोचा कि
सुबह ही वहां
पहुंच जाना
चाहिए, जब
सम्राट के पास
ही जा रहे
हैं। तो वह
तीन बजे रात
से ही वहां
जाकर खड़ा हो
गया कि कहीं
ऐसा न हो कि
कोई और पहले
पहुंच जाए।
कोई आया भी
नहीं, कोई
क्यू भी न
लगा। सुबह जब
भोर हुई, सम्राट
बाहर आया, तो
वह अकेला ही
था। पता था
उसे कि सम्राट
पूछेगा, क्या
चाहते हो? तो
वह सोचता रहा;
सोच-सोच कर
उसका सिर
घूमने लगा।
जितना उसने सोचा
उतने ही आंकड़े
बड़े होते गए। आंकड़ों की
कोई कमी है!
सम्राट
आया। उसने कहा, क्या
चाहते हो? उस
युवक ने कहा
कि तय नहीं कर
पा रहा हूं।
क्या आप इतनी
कृपा करेंगे
कि आप बगीचे
का एक चक्कर
लगा लें, तब
तक मैं और सोच
लूं।
सम्राट
एक चक्कर लगा
कर लौट आया।
उस युवक ने कहा
कि नहीं, मैं न
सोच पाऊंगा, क्योंकि मैं
बड़ी मुश्किल
में पड़ा हूं।
मैं जितना ही
सोचता हूं, पाता हूं वह
कम है।
अरबों-खरबों
पर पहुंच गया है
हिसाब भीतर, लेकिन फिर
भी मैं सोचता
हूं, यह भी
हो सकता है कि
सम्राट के पास
इससे ज्यादा
हो। और जो शेष
रह जाएगा वह
जिंदगी भर खलेगा।
तो अब तो मैं
एक ही
प्रार्थना
करता हूं कि
जो भी आपके
पास है सब
मुझे दे दें।
आप जो कपड़े
पहने हैं
इन्हीं को
पहने हुए बाहर
निकल जाएं।
सोचा
था कि सम्राट
घबरा जाएगा, बचने
की तरकीब
करेगा। लेकिन
सम्राट
प्रफुल्लित
हो गया। उसने
आकाश की तरफ
हाथ उठाया और
कहा, परमात्मा,
धन्यवाद!
जिस आदमी की
मुझे
प्रतीक्षा थी
वह आ गया।
वह
लड़का थोड़ा घबराया।
उसने कहा, बात
क्या है? आप
बड़े प्रसन्न
मालूम होते
हैं! उसने कहा,
मैं बहुत थक
गया इस महल, इस
साम्राज्य, इस उपद्रव
से। कोई
मांगने ही
नहीं आता। अब
किसी को
जबरदस्ती तो
दिया नहीं
जाता। अब तुम
आ ही गए अपनी
तरफ से, तुम्हारी
बड़ी कृपा है।
तुम भीतर जाओ;
मैं बाहर
जाता हूं।
उसने कहा कि
एक कृपा और
करें, आप
एक चक्कर और
लगा आएं, मुझे
एक बार और सोच
लेने दें।
इतना समय दिया,
थोड़ा समय
और! सम्राट ने
कहा कि नहीं, अब तुम कह ही
चुके हो। पर
युवक ने पैर
पकड़ लिए। तो
सम्राट ने कहा,
तुम्हारी
मर्जी।
सम्राट एक
चक्कर लगा कर
आया, वहां
युवक को उसने
पाया नहीं।
दरबान को वह
कह गया था कि
जब सम्राट ही
भागने को
उत्सुक है तो
हम क्यों फंसें!
वह भाग गया
था।
कहां
तय करोगे? सब
पर ही जाकर तय
होगा। और सब
पाकर भी
तृप्ति नहीं
होती। सम्राट
प्रसन्न है
देने को। सब
भी मिल जाए तो
तुम्हारी
हीनता का कुआं
भरेगा नहीं; वह दुष्पूर
है। वह खड्ड
ऐसा है कि
उसमें कोई
तलहटी नहीं है।
तुम जितना
डालते जाओगे
उतना ही वह
पीता जाएगा।
और जितना
ज्यादा तुम
पीते जाओगे
उतना ही पता
चलेगा कैसे
हीन हो।
नहीं, एडलर
के पास सुझाव
नहीं है। एडलर
कहता है, समझाने-बुझाने
से, एक
बौद्धिक प्रौढ़ता
से सब ठीक हो
जाएगा। लेकिन
सब ठीक हुआ
नहीं है, खुद
एडलर के जीवन
में ही ठीक न
हुआ। एडलर था
शिष्य फ्रायड
का। लेकिन फिर
महत्वाकांक्षा
पकड़ गई कि यह
तो शिष्य ही
रहूंगा; कितना
ही बड़ा हो
जाऊं; गुरु
फ्रायड ही
रहेगा। तो
गुरु से झगड़
कर अलग हो
गया। और फिर
पूरी जिंदगी
कोशिश की कि
एक अलग ही
मनोविज्ञान
को निर्मित कर
ले। वही
महत्वाकांक्षा
जिसको वह
दूसरों में हल
करने जा रहा
है, वही
महत्वाकांक्षा
खुद पकड़ ली।
और फ्रायड और एडलर
के बीच बड़ी
वैमनस्य की
स्थिति बनी
रही।
जो
अपना नहीं हल
कर पाता वह
दूसरे का कैसे
हल कर पाएगा?
एक बड़ा
प्रसिद्ध
मजाक है एडलर
के संबंध में
कि वह एक सभा
में बोलता था
तो उसने अपना
सिद्धांत समझाया।
और जब भी वह
सिद्धांत
समझाता था तो
वह यह कहता था
कि जिन-जिन
लोगों में
किसी तरह की
कमी होती है, वे
ही लोग उस कमी
को पूरी करने
के लिए
महत्वाकांक्षा
से भर जाते
हैं।
अक्सर
देखा गया है
कि काना आदमी
चालाक हो जाता
है। पुरानी
कहावतें हैं
कि काने से
जरा सावधान
रहना। काना
सुबह मिल जाए
तो अपशगुन
रहा है--सारी
दुनिया में।
क्या कारण है? क्योंकि
काने के पास
एक आंख कम है, उस आंख की
कमी वह कैसे
पूरी करेगा? उसे पूरा
करना ही
पड़ेगा। वह
चालाकी से
पूरी करता है;
वह ज्यादा
चालाक हो जाता
है। वह एक ही
आंख से दो आंख
का काम लेने
की कोशिश करने
लगता है। इससे
चालाकी पैदा
होती है। वह कनिंग हो
जाता है।
इसलिए काने
आदमी को तुम
सीधा-सरल न
पाओगे; उसमें
कुछ न कुछ
तिरछापन
होगा। और काने
सब तरह की
कोशिश करेंगे
कि आंख वालों
को कैसे हरा
दें। क्योंकि
इसके सिवा वे
अपनी
श्रेष्ठता
कैसे सिद्ध कर
पाएंगे? एडलर
कहता था कि
बचपन में जो
लोग ठीक से
नहीं चल पाते
या जो बच्चे
देर से चलते
हैं, वे
बड़े दौड़ाक
हो जाते हैं
बाद में। वे
दुनिया में जो
ओलंपिक
प्रतियोगिताएं
जीतते हैं वे
वही बच्चे हैं
जो बचपन में
देर से चले।
क्योंकि उनको
कमी पूरी करनी
है; उनको
दुनिया को
दिखला देना है
कि तुम यह मत
समझना कि हम
कोई धीमे-धीमे
चलने वाले
हैं। हमारा
कोई मुकाबला
ही नहीं है।
यह समझा रहा
था एडलर एक
सभा में। एक
आदमी ने उठ कर
कहा, और
क्या हम यह
समझें कि
जिनके मन में
कुछ खराबी
होती है वे
मनोवैज्ञानिक
हो जाते हैं?
इस
मजाक में थोड़ी
सचाई मालूम
पड़ती है।
क्योंकि न तो
फ्रायड
स्वस्थ है मन
से जिसने इस
सदी के मनोविज्ञान
को जन्म दिया।
न उसका
प्रतिस्पर्धी
एडलर, जुंग, वे स्वस्थ
हैं। मानसिक
रूप से वे सभी
रुग्ण मालूम
होते हैं।
पूरब
के पास हल है।
लाओत्से के
पास हल है।
लाओत्से
कहता है कि
शक्ति की
आकांक्षा में
ही रोग है। दि
विल टु पावर, वहीं
सारी बीमारी
है। और जब तक
वह आकांक्षा
ही न छूट जाए
तब तक तुम कोई
हल न खोज
पाओगे। इतना कर
सकते हो कि
कुछ लोग थोड़े
कम बीमार, कुछ
लोग थोड़े
ज्यादा
बीमार। लेकिन
फासला मात्रा
का रहेगा, गुण
का अंतर नहीं
होगा। कुछ लोग
सामान्य रूप से
अस्वस्थ, कुछ
लोग असामान्य
रूप से
अस्वस्थ।
लेकिन फासला
मात्रा का
होगा, गुण
का न होगा।
लाओत्से
कहता है, एक और
ही रास्ता है।
और वह रास्ता
है: घाटी के राज
को जान लेना।
वर्षा होती है;
पहाड़ खाली
रह जाते हैं, घाटियां भर जाती हैं,
लबालब भर
जाती हैं। राज
क्या है? राज
यह है कि घाटी
पहले से ही
खाली है। जो
खाली है वह भर
जाता है। पहाड़
पहले से ही
भरे हैं, वे
खाली रह जाते
हैं। अहंकार
रोग है, तो निरहंकारिता
में राज है, कुंजी है।
तुम जब
तक दूसरे से
अपने को तौलोगे
और दूसरे से
आगे होना
चाहोगे तब तक
तुम पाओगे कि
तुम सदा पीछे
हो। जिसने आगे
होना चाहा, वह
सदा पाएगा कि
वह पीछे है।
जिसने
प्रतिस्पर्धा
की, वह सदा
पाएगा कि हार
गया। लेकिन जो
पीछे होने को
राजी हो गया, जीवन की इस
व्यर्थ दौड़ को
देख कर, समझ
कर, ध्यान
से जो पीछे
खड़ा हो गया, और जिसने
कहा हम दौड़ते
नहीं आगे होने
को, लाओत्से
कहता है, एक
अनूठा
चमत्कार घटित
होता है कि जो
आगे होने की
दौड़ में होते
हैं वे हीन हो
जाते हैं और
जो पीछे खड़े
हो जाते हैं
उनकी
श्रेष्ठता की
कोई सीमा नहीं
है।
सच तो यह
है कि पीछे
तुम खड़े ही
जैसे होते हो
वैसे ही श्रेष्ठ
हो जाते हो, हीनता
मिट जाती है।
क्योंकि
तुलना ही न
रही तो हीन
कैसे हो सकते
हो? किसी
से तौलोगे
तो पीछे हो
सकते हो।
तौलते ही नहीं
किसी से, पीछे,
सबसे पीछे
ही खड़े हो गए, अपने तईं
खड़े हो गए, अपने
हाथ से ही संघर्ष
छोड़ दिया और
पीछे आ गए, अब
तो तुम्हें
हीनता का कैसे
बोध होगा? हीनता
का घाव भर
जाएगा; और
श्रेष्ठता के
फूल उस घाव की
जगह प्रकट
होने शुरू हो
जाते हैं।
श्रेष्ठ केवल
वे ही हो पाते
हैं जो
श्रेष्ठ होने
की दौड़ में
नहीं पड़ते। और
हीन से हीनतर
होता जाता है
मनुष्य, जितनी
ही दौड़ में
पड़ता है।
अब
लाओत्से के
वचन हम समझने
की कोशिश
करें।
"यह
कैसे हुआ कि
महान नदी और
समुद्र
खड्डों के, घाटियों के
स्वामी बन गए? झुकने
और नीचे रहने
में कुशल होने
के कारण।'
उनकी
कला एक ही है
कि वे झुकना
जानते हैं।
झुकना बड़ी से
बड़ी कला है।
वस्तुतः जहां
जितनी झुकने
की क्षमता
होगी उतना जीवन
होगा। जीवन का
लक्षण ही
झुकना है।
छोटा
बच्चा, देखो,
कितना लोचपूर्ण
है। जैसा चाहो
वैसा झुक जाए,
हाथ-पैर के
पीछे जैसे
हड्डियां
नहीं हैं। लेकिन
बूढ़ा आदमी
हड्डी ही
हड्डी हो जाता
है। लोच खो
जाती है; झुकना
बंद हो जाता है;
सख्त हो
जाता है।
पक्षाघात की
अवस्था आ गई।
बूढ़ा आदमी झुक
नहीं सकता
शरीर से। यही
तो मौत का लक्षण
है कि अब मौत
करीब आ रही
है। क्योंकि
जीवन तो वहीं
बहता है जहां
झुकना है। और
न केवल शरीर
के संबंध में
यह सच है, मन
के संबंध में
भी यही सच है।
छोटा बच्चा मन
से झुकने को
हमेशा राजी
है। इसीलिए तो
छोटे बच्चे
सीखने में
समर्थ हैं।
बूढ़ा आदमी
सीखने में असमर्थ
हो जाता है।
मन भी नहीं
झुकता।
बगीचे
में जाकर माली
से पूछो! तो वह
कहता है कि
वृक्ष को अगर
झुकाना हो, कोई
ढंग देना हो, तो वह तभी
दिया जा सकता
है जब पौधा
छोटा हो और लोचपूर्ण
हो। जब पौधा
सख्त हो जाएगा,
फिर झुकाओगे
तो शाखाएं टूट
जाएंगी। कभी
तेज तूफान आता
है तो बड़े
वृक्ष गिर
जाते हैं, छोटे-छोटे
घास के पौधे
बच जाते हैं।
होना तो उलटा
चाहिए था कि
निर्बल घास के
छोटे-छोटे
पौधे, जिनमें
कोई प्राण
नहीं, जिनमें
कोई बल नहीं
दिखाई पड़ता, तूफान इनको
मिटा जाता, ये नष्ट हो
जाते। बड़े
वृक्ष जो आकाश
को छूते हैं, जिनकी
शाखाओं ने बड़ा
जाल फैलाया है,
जिनके
अहंकार की कोई
सीमा नहीं, जो उठे हैं
उत्तुंग, चांद-सूरज
को छूने की
जिनकी दौड़ है,
वे गिर जाते
हैं। तूफान
उन्हें मिटा
जाता है। कोई
तरकीब घास का
पौधा जानता है
जो बड़े वृक्ष
को भूल गई।
बड़ा वृक्ष
सख्त हो गया
है; टूट
सकता है, झुक
नहीं सकता।
अकड़
वाले आदमी के
लिए हम यही तो
कहते हैं कि
वह आदमी ऐसी
अकड़ वाला है
कि टूट सकता
है,
झुक नहीं
सकता। और
समस्त
अहंकारियों
की शिक्षा यही
है कि टूट
जाना, मगर
झुकना मत।
लाओत्से
की शिक्षा
बिलकुल भिन्न
है। लाओत्से कहता
है,
ऐसा टूटने
की जल्दी
क्या! ऐसा
टूटने का
आग्रह क्या!
आत्मघात के
लिए इतनी
उत्सुकता
क्यों है? झुक
जाना, क्योंकि
झुकने में ही
तुम तूफान को
जीत सकोगे।
तुम टूटो कि न
टूटो; तूफान
तुम्हारी
फिक्र करता है?
तूफान को पता
भी न चलेगा कि
तुम टूट गए।
तूफान अपनी
राह से चला
जाएगा। तुम
नाहक मिट
जाओगे।
छोटे
घास के पौधे
की भांति हो
जाना। तूफान
आता है, घास
का पौधा जमीन
पर लेट जाता
है। अकड़ रखता
ही नहीं; जरा
भी ना-नुच
नहीं करता। यह
भी नहीं कहता
कि कैसे करूं,
यह ठीक नहीं
है। क्यों मुझे
झुका रहे हो? बात ही नहीं
उठाता। तूफान
आता है, तूफान
के साथ ही झुक
जाता है।
तूफान बाएं बह
रहा हो तो
बाएं, तूफान
दाएं तो दाएं;
दक्षिण तो
दक्षिण, उत्तर
तो उत्तर।
तूफान जहां जा
रहा हो, घास
का छोटा पौधा
तूफान के साथ
मैत्री कर
लेता है, सहयोग
कर लेता है।
तूफान के
विरोध में खड़ा
नहीं होता, तूफान की
धारा में बह
जाता है। और
जिस घास के पौधे
ने तूफान में
बहने की कला
जान ली, वह
तूफान पर सवार
हो गया; उसे
तूफान मिटा न
सकेगा। अब आ
जाएं और बड़े
तूफान भी, अब
महा तूफान और
आंधियां उठें,
तो भी इस
पौधे को कुछ
भी न कर
सकेंगे। वह सो
जाएगा जमीन पर,
तूफान गुजर
जाएगा।
तूफान
सदा नहीं रहते; आते
हैं, चले
जाते हैं।
तूफान के जाने
के बाद तुम देखोगे,
बड़े-बड़े
वृक्ष उखड़े
पड़े हैं, उनकी
जड़ें टूट गईं,
उनके
प्राण-पखेरू
उड़ गए; छोटे-छोटे
घास के पौधे
वापस लहलहा
रहे हैं--पहले
से भी ज्यादा
ताजे। तूफान
सिर्फ उनकी
धूल झड़ा
गया; इससे
ज्यादा कुछ भी
तूफान न कर
पाया।
लाओत्से
को बहुत प्रिय
है झुकने की
कला। वह कहता
है,
जब तुम्हें
कोई झुकाने आए
तुम पहले से
ही झुक जाना।
तुम उसे इतना
भी मौका मत
देना कि
झुकाने की
कोशिश उसे
करनी पड़े।
जैसे
कभी-कभी छोटा
बच्चा अपने बाप
से कुश्ती
लड़ता है तो
बाप क्या करता
है?
कुश्ती
लड़ता है; बाप
जरा खेल-खाल
करके लेट जाता
है; छोटा
बच्चा छाती पर
सवार हो जाता
है। और वह कहता
है, जीत गए!
बाप का गौरव
इसमें है कि
वह छोटे बच्चे
के साथ झुक
जाता है। यही
उसकी
श्रेष्ठता
है। जो बाप
छोटे बच्चे से
लड़ने लगे उसको
तुम मूढ़
कहोगे। लड़ने
में मूढ़ता
है; झुक
जाने में बोध
है, समझ
है। और बेटा
अगर यह भी
अनुभव कर ले
कि हम जीत गए
तो हर्ज क्या
है? जितनी
तुम्हारी समझ
गहरी होगी
उतना ही तुम
दूसरे को
जीतने का मौका
दोगे। अभी
नासमझ है, बच्चा
है। अभी जीतने
में रस है।
जीत लेने दो।
उतना ही
तुम्हारे
जीवन से
संघर्ष और प्रतिरोध
कम हो जाएगा।
तुम सभी को
जीतने का मजा
लेने दोगे।
और
लाओत्से कहता
है,
आखिर में वह
उन्होंने जो
जीतना समझा था,
वे पाएंगे
कि जीते तुम
और हारे वे।
बच्चा कभी तो
बड़ा होगा। तब
जानेगा कि बाप
का कितना गहन
प्रेम था कि
वह हार गया
था। बच्चा कभी
तो जागेगा
और समझेगा।
बच्चे को
हराने की
कोशिश मत करना,
क्योंकि
उसमें तुम
बच्चे के
विकास की
संभावना को
तोड़ दोगे।
लड़ते वे ही
हैं जो बचकाने
हैं। और लड़ने
वाला कभी
जीतता नहीं, क्योंकि एक
बार तुम्हें
लड़ने की लत पड़
गई तो तुम
मुश्किल में पड़ोगे।
प्रसिद्ध
कहानी है
मुल्ला नसरुद्दीन
के जीवन में
कि वह जिस
चाय-घर में
चाय पीने आता था
उसके सामने
बैठा रहता
अक्सर एक लड़का
था शैतान, वह
आता और उसकी पगड़ी को
हाथ मार देता।
पगड़ी
नीचे गिर जाती;
वह उठा कर
अपनी पगड़ी
फिर बांध
लेता। न तो
उसने कभी उस
लड़के को कुछ कहा,
जैसे कुछ
हुआ ही नहीं।
चाय-घर के
दूसरे लोगों ने
भी कई दफे कहा
कि नसरुद्दीन,
यह जरा
जरूरत से
ज्यादा बात
हुई जा रही
है। और तुम इस
लड़के को बिगाड़
रहे हो। और अब
यह इसने नियम
बना लिया; यह
रोज आता है।
तुम आए नहीं
कि वह आया
नहीं। और यह
क्या बात है!
एक दफा एक चांटा
उसको रसीद कर
दो। नसरुद्दीन
ने कहा, ठहरो,
जिंदगी खुद
ही उसको चांटा
रसीद कर देगी।
कई दिन
बीत गए। लोग
पूछते भी, कब
जिंदगी चांटा
रसीद करेगी? कहां है
जिंदगी? पर
एक दिन वह घड़ी
आ गई। एक
अफगान सैनिक,
जहां नसरुद्दीन
बैठा करता था,
एक दिन सुबह
आकर वहीं
चाय-घर में
बैठा। उसने
उसी रंग की पगड़ी
बांध रखी थी
जैसी नसरुद्दीन
की थी। पीठ के
पीछे से लड़के
को कुछ दिखाई
न पड़ा। उसने पगड़ी को एक
हाथ मारा। उस
अफगान सैनिक
ने तलवार निकाली
और लड़के की
गर्दन काट दी।
नसरुद्दीन
ने कहा, देखते
हो! बुरी लत
आखिर बुरा
परिणाम ले आती
है। हमारा तो
कुछ भी न बिगड़ा,
लड़का जान खो
बैठा।
नासमझ
अगर जीत भी
जाए तो अंततः
बुरी तरह
हारेगा।
क्योंकि
जीतने की लत
पकड़ गई, स्वाद
लग गया।
समझदार हारता
चला जाता है, समझदार अपने
को अस्तित्व
के विपरीत खड़ा
नहीं करता। वह
धारा के
विपरीत नहीं
बहता; जिस
तरफ नदी बहती
है उसी तरफ
बहता है। और
जिसने धारा के
साथ बहना सीख
लिया उसकी
शक्ति नष्ट
नहीं होती।
तैरने में
शक्ति नष्ट
होती है। और
धारा के
विपरीत बहने
में तो बहुत
शक्ति नष्ट
होती है।
क्योंकि धारा
से लड़ना पड़ता
है। और आज
नहीं कल तुम
हार जाओगे, थक जाओगे, और तब धारा
तुम्हें अवश
बहा कर ले
जाएगी। तब तुम
दुखी, पीड़ित,
संतप्त, विषाद
में, हारे
हुए, सर्वहारा,
पराजित
विदा होओगे।
लेकिन जो धारा
के साथ बहता
रहा उसे धारा
कभी भी पराजित
न कर पाएगी।
जो हार ही गया
उसको तुम हराओगे
कैसे? जो
पहले से ही
अंतिम बैठ गया
उसे तुम अब और
कहां पीछे
हटाओगे? जिसने
दावा न किया
उसके दावे का
खंडन नहीं
किया जा सकता।
और जिसने कभी
घोषणा न की
अपने अहंकार
की उसके
अहंकार को तुम
चोट कैसे
पहुंचाओगे?
लाओत्से
कहता है कि
खड्ड और घाटियां
समुद्रों और महानदियों
से भर गए हैं।
कैसे हुआ यह? झुकने
और नीचे होने
में कुशल होने
के कारण। सागर
की सारी
कुशलता यही है
कि वह नीचे
है। छोटे-छोटे
झरने भी उससे
ऊपर हैं। इतना
विराट सागर है,
और नीचे है।
और जितना नीचे
है उतनी ही
उसकी विराटता
बढ़ती जाती है।
क्योंकि उसके
नीचे होने के
कारण सभी
झरनों को उसी
में आकर गिर
जाना पड़ता है।
जो ऊंचा रहेगा
वह सूख जाएगा।
जो नीचा रहेगा
उसकी तरफ सारे
झरने बहते
रहते हैं।
जीवन
में,
पूरब ने, झुकने का
राज बहुत-बहुत
रूपों में
समझा। और बहुत-बहुत
रूपों ने पूरब
की आत्मा को सागरों और
नदियों से भर
दिया।
पश्चिम
से युवक मेरे
पास आते हैं
तो वे पूछते हैं
कि गुरु के
चरणों में
झुकने में क्या
फायदा?
गुरु
के चरणों का
सवाल नहीं है।
वह प्रासंगिक ही
नहीं है।
प्रासंगिक तो
इतना है कि
झुकने में
क्या फायदा? और
झुकने के
फायदे का कोई
अंत नहीं है।
क्योंकि जब
तुम झुकते हो
तभी कुछ तुम
में बहना शुरू
होता है। सागर
में ही नदियां
नहीं बहतीं
जब वह नीचे
झुका होता है,
तुम भी जब
झुके होते हो
तो अनंत-अनंत
चेतना की नदियां
तुम्हारी तरफ
बहनी शुरू हो
जाती हैं। और
गुरु के चरणों
में जो सचमुच
झुका है...।
क्योंकि
सिर झुकाने का
नाम सचमुच
झुकना नहीं है।
क्योंकि हो
सकता है तुम
औपचारिक रूप
से झुका रहे
हो। क्योंकि
घर में परंपरा
रही,
बड़े-बूढ़ों
ने सिखाया है;
सदा से चला
आया है इसलिए
झुक रहे हो।
झुकना चाहिए,
कर्तव्य है,
इसलिए झुक
रहे हो। और
लोग क्या
कहेंगे, इसलिए
झुक रहे हो।
और लोग झुक
रहे हैं, इसलिए
झुक रहे हो, क्योंकि
अनुकरण नहीं
तो अच्छा न
मालूम पड़ेगा।
जैसा देश वैसा
वेश। अब इतने
लोग झुक रहे
हैं तो हम भी
झुक जाओ।
लेकिन यह झुकना
नहीं है। सिर
का झुकना
अहंकार का
झुकना नहीं
है।
अगर
तुम भीतर से
भी झुक जाओ, किसी
औपचारिकता से
नहीं, बल्कि
इस कुंजी को
समझ कर कि
झुकने में
मिलता है, झुकने
में तुम गङ्ढे
बन जाते हो।
और चेतना भी
ऐसे ही बहती है
जैसा जल बहता
है। और जब
तुम्हारी
चेतना गङ्ढे
की तरह किसी
के सामने झुक
जाती है तो
तत्क्षण चेतना
का प्रवाह
शुरू हो जाता
है।
मेरे
पास इतने लोग
आते हैं; इतने
लोग झुकते
हैं। मैं
अलग-अलग उनको
बता सकता हूं
कि किसकी
चेतना भीतर
झुकी और किसने
सिर्फ सिर
झुकाया। क्योंकि
उनके
वास्तविक
झुकने में
तत्क्षण मेरे भीतर
कुछ होना शुरू
हो जाता है।
अगर वे यूं ही झुके
हैं तो मेरे
भीतर कुछ भी
नहीं होता।
जैसे ही कोई
व्यक्ति सच
में ही झुकता
है, तत्क्षण
मेरी ऊर्जा
उसकी तरफ बहनी
शुरू हो जाती
है।
जीवन
ऊर्जा का
प्रवाह है।
ऊर्जा भी
तलहटी खोजती
है--नदियों की
भांति।
शिष्यत्व का
अर्थ है इस
रहस्य को समझ
लेना। और जब
तुम झुकोगे
वस्तुतः, जैसा
मुझे अनुभव
होता है, तुम्हें
भी अनुभव
होगा। तुम भी
तत्क्षण पाओगे:
कोई चीज बही
जाती है तुम
में; भरे
देती है
तुम्हें; लबालब
हुए जाते हो
तुम।
तुम्हारे
पात्र के ऊपर
से बहने लगेगी,
इसे तुम
पाओगे। और एक
दफा इसका
स्वाद
तुम्हें आ गया
तब तुम जिंदगी
में सब तरफ
झुकना सीख लोगे।
एक और
बड़े रहस्य की
बात है। अगर
तुम किसी संत
के चरणों में
झुको तो लाभ
होता है। और
लाभ यह होता
है कि उसकी
ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
बहती है। अगर
तुम किसी असंत
के चरणों में
झुको तो भी
लाभ होता है।
उसकी जो
दुर्गंध से
भरी ऊर्जा है
तुम्हारी तरफ
नहीं बह सकती।
क्योंकि
दुर्गंध
हमेशा ऊपर उठना
चाहती है, नीचे
नहीं जाना
चाहती। असंत
का
व्यक्तित्व तो
अहंकार का
व्यक्तित्व
है। असंत से
कुछ सीखना हो
तो अकड़ कर
जाना। तो
तुम्हारी
दोस्ती
बनेगी। तब तुम
एक ही जैसे
रहोगे। तब
तालमेल
बैठेगा। अगर
बुरे के पास
जाना हो तो अहंकारी
होकर जाना।
तभी बुरे से
संबंध बनेगा।
क्योंकि बुरे
का अर्थ है दो
अहंकार। अगर
बुरे के चरणों
में तुम झुके
तो बुरा
तुम्हें बिगाड़
न पाएगा। यह
बड़े रहस्य की
बात है।
इसलिए
हमने पूरब में
एक हिसाब बना
रखा था; चरणों
में झुकना सहज
कर दिया था।
किसी के भी चरणों
में झुक जाना
है। कोई अड़चन
की बात नहीं है।
अगर भला होगा
आदमी तो लाभ
होगा; अगर
बुरा होगा तो
तुम उसकी
बुराई से
सुरक्षित रहोगे।
बुरा आदमी
अहंकार से ही
संबंध बना सकता
है, निरहंकार
से नहीं। वे
आयाम मिलते
नहीं। अगर तुम
विनम्र होकर
शैतान के
चरणों में भी
झुक जाओ तो
शैतान
तुम्हारा कुछ
बिगाड़ न
सकेगा।
फकीर
हुई है एक औरत, राबिया।
कुरान में वचन
है कि शैतान
को घृणा करो।
उसने काट दिया
था। एक दूसरा
फकीर, हसन,
घर में
मेहमान था।
उसने कुरान
देखी और उसने
कहा कि यह तो
कुफ्र है। यह
किस काफिर ने
वचन काटा? कुरान
में कोई सुधार
नहीं किया जा
सकता।
राबिया ने
कहा,
यह मुझे ही
करना पड़ा।
पहले तो सब
ठीक था। लेकिन
जब परमात्मा
के चरणों में
झुकने का राज
जाना, जब
परमात्मा के
प्रेम का राज
जाना, तो
एक बात और भी
समझ में आ गई:
परमात्मा
प्रेम करने से
मिलता है और
शैतान घृणा
करने से। अगर
शैतान को घृणा
की तो वह
मिलता रहेगा;
अगर शैतान
के साथ अहंकार
का कोई भी
संबंध बना कर
रखा तो वह
जगह-जगह मिलता
रहेगा। तो राबिया
ने कहा, अब
तो शैतान भी
सामने खड़ा हो
तो मैं ऐसे ही
उसके चरणों
में झुकती हूं
जैसे
परमात्मा के
चरणों में। अब
मुझे कुछ फर्क
न रहा। और जब
से ऐसा हुआ तब से
मैं शैतान से
सुरक्षित हूं
और परमात्मा
मेरी तरफ बहा
चला जा रहा
है।
तो मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि तुम
गुरु के ही चरणों
में झुकना। वह
एक हिस्सा है, पहलू।
तुम बुरे से बुरे
आदमी के चरणों
में भी झुकना,
वह दूसरा
पहलू है। और
तुम ऐसी अदभुत
अनुभूतियों
से गुजरोगे
जिसका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
बुरे आदमी के चरणों
में झुक कर
देखना, और
तुम अचानक
पाओगे उसकी
बुराई
तुम्हारे लिए निरस्त्र
हो गई। बुरे
आदमी के चरणों
में तुम झुके
नहीं कि बुरा
आदमी भी
तुम्हारे लिए
भला हो गया; वह दुनिया
भर के लिए
बुरा हो।
इसलिए तुम
शर्त मत रखना
कि किसके
चरणों में
झुकना है।
झुकना ऐसी
कीमिया है, इतनी बड़ी
कीमिया है, कि तुम जहां
भी झुकोगे
लाभ ही होगा।
और एक
बार पूरब ने
झुकने का राज
समझ लिया तो
फिर पूरब कहीं
भी झुकने
लगा--नदी, पहाड़,
पत्थर, वृक्ष--कहीं
भी झुकने लगा।
क्योंकि तब
उसने पाया कि
झुकने में तो
पाना ही पाना
है; जितना
झुका उतना
पाया। यह थोड़ा
कठिन है। क्योंकि
वैज्ञानिक
कोई उपाय नहीं
है इसे सिद्ध
करने का। अगर
तुम जाकर एक
वृक्ष के पास
भी विनम्रता
से, अहोभाव
से झुक जाते
हो, तो
वृक्ष की
ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
प्रवाहित होने
लगती है। और
वृक्ष के पास
बड़ी शुद्ध
ऊर्जा है। अभी
वृक्ष मनुष्य
नहीं हुआ है; अभी वृक्ष
विकृत नहीं
हुआ है। एक भी
वृक्ष ऐसा
नहीं है जो
पागल हो। सभी
वृक्ष स्वस्थ
हैं। आदमियों
में पागल होते
हैं। जानवरों
में भी थोड़े
होते हैं जो
अजायबघरों
में रहते हैं।
लेकिन
वृक्षों में
तो कोई पागल
होता ही नहीं।
वहां ऊर्जा
बड़ी शुद्ध और
हरी है, ताजी
है। वृक्ष की
पत्तियां ही
हरी नहीं हैं,
वृक्ष के
भीतर बहता हुआ
हरित-प्रवाह
है ऊर्जा का।
अगर तुम झुके,
तुम वृक्ष
के पास से
ताजे होकर
लौटोगे, तुम
नये होकर
लौटोगे।
वृक्ष भी
व्यक्ति है। और
बड़ा आदिम है; इसलिए बड़ा
शुद्ध है।
स्रोत के
ज्यादा करीब
है; अभी
यात्रा पर
नहीं निकला
है। तुम तो
काफी यात्रा
कर चुके हो, बहुत दूर जा
चुके हो। पहाड़
और भी करीब
हैं। नदियां...सभी
कुछ। एक दफा
पूरब को पता
चल गई कुंजी, तो कुंजी
कोई साधारण न
थी, "मास्टर
की' थी।
उससे सभी ताले
खुल सकते थे।
उससे बुरे से सुरक्षा
थी, भले का
प्रवाह था; जीवन की
ऊर्जा को ताजा
करने के उपाय
थे। तुम जरा
कोशिश करके
देखो। पहले तो
तुमको लगेगा
कि बड़ा पागलपन
है कि एक
वृक्ष के पास
झुके बैठे हैं।
लेकिन जल्दी
ही तुम्हें
अनुभव होगा कि
कुछ बहा आ रहा
है जो
तुम्हारे
मस्तिष्क को
तरोताजा कर
जाता है, जो
भीतर की धूल
को झड़ा
देता है। और
एक दफा तुम
समझ गए झुकने
का मजा और झुकने
का आनंद, फिर
तुम्हें कोई
राजी न कर
पाएगा कि तुम
अकड़ कर खड़े हो
जाओ। क्योंकि
तब तुम जानोगे:
अकड़ मौत है; झुकना जीवन
है। लोच आत्मा
है; बे-लोच
हो जाना जड़ता
है।
लाओत्से
कहता है, "झुकने
और नीचे रहने
में कुशल होने
के कारण।'
झुकना
सीखो। लेकिन
झुकना तो
कभी-कभी होगा।
चौबीस घंटे
झुके रहो। तब
तुमने दूसरी
बात सीख ली:
नीचे रहना।
गुरु मिला, तुम
झुके। वृक्ष
पास आया, तुम
झुके। नदी के
पास गए, तुम
झुके। झुकोगे;
फिर खड़े हो
जाओगे। तो
झुकना शुरुआत
है। और जब कभी-कभी
झुकने में
इतना मिलता है
तो फिर दूसरा
कदम है नीचे
हो जाना। फिर
झुकने की
जरूरत ही नहीं;
तुमने होना
ही अपना नीचे
बना लिया। तुम
एक गङ्ढे
की भांति हो
रहे। अब
तुम्हें
रोज-रोज झुकना
नहीं पड़ता, घड़ी-घड़ी
झुकना नहीं
पड़ता। तुम गङ्ढे
की भांति हो
रहे।
ऐसा
हुआ कि जुन्नून, इजिप्त
का एक बहुत
बड़ा फकीर, अपने
गुरु के पास
था। वह रोज
आता, रोज
झुकता। जितने
बार मौके
मिलते उतने
बार झुकता।
गुरु कुछ काम
के लिए भेजते,
फिर लौट कर
आता तो फिर
झुकता। गुरु
कहते, पानी
ले आओ! पानी
लेने जाता तो
जाते वक्त
झुकता, लौट
कर आता तो फिर
झुकता। लोगों
में, और
शिष्यों में
तो मजाक हो गई
थी कि जुन्नून
पागल है। एक
दफा आए, झुक
गए। अब दिन भर
गुरु के पास
रहना हो और
दिन भर झुकना
हो, तो यह
तो पागलपन है।
फिर एक दिन
लोगों ने देखा
बीस साल के
बाद--बीस साल ऐसे
ही जुन्नून
झुकता रहा--एक
दिन लोगों ने
देखा कि वह
आकर चुपचाप
गुरु के पास
बैठ गया और
झुका नहीं।
लोग समझे कि
अब यह बिलकुल
ही पागल हो
गया। अब तक एक
अति की, अब
दूसरी अति कर
रहा है।
शिष्यों ने
गुरु से पूछा
कि जुन्नून
क्या बिलकुल
पागल हो गया
है? गुरु
ने कहा, नहीं,
झुकने का
अभ्यास पूरा
हो गया। अब वह
झुका ही हुआ
है। अब झुकने
की जरूरत नहीं;
अब उसने
दूसरी अवस्था
पा ली जहां वह
नीचा ही है।
झुकना तो पड़ता
है, क्योंकि
तुम बार-बार
खड़े हो जाते
हो, बार-बार
ऊंचे हो जाते
हो। इसलिए
झुकना पड़ता
है।
तिब्बत
में एक पूरा
ध्यान का
प्रयोग है जिस
प्रयोग में
शिष्य को एक
हजार बार गुरु
के सामने झुकना
पड़ता है। दो
हजार बार, तीन
हजार बार, पांच
हजार बार।
गुरु बैठा है
अपने कमरे में,
शिष्य बाहर
है, काम कर
रहा है। लेकिन
उसको दिन में
पांच हजार बार
गुरु की दिशा
में साष्टांग
दंडवत करनी
है। क्या राज
है उस पांच
हजार बार
झुकने का? और
इतना ध्यान लग
जाता है उस
झुकने से, कुछ
और करना नहीं
पड़ता। बस इतना
ही याद रखना है
कि पांच हजार
बार दिन में
झुक जाना है।
ऐसा भी नहीं
है कि गुरु के
चरण वहीं हों;
मील, दो
मील दूर भी हो
सकता है शिष्य;
लेकिन जिस
दिशा में गुरु
है उस तरफ
झुकते रहना
है। गुरु से
कुछ लेना-देना
भी नहीं है।
गुरु तो बहाना
है। असली बात
तो झुकना है।
गुरु तो खूंटी
है। कोई भी
खूंटी काम कर
देगी। झुकने
को टांगना है।
पश्चिम
के लोग बड़ी
मुश्किल में
रहे हैं।
क्योंकि वे
समझ ही नहीं
पाते, हिंदू
देखो सूरज के
सामने
सूर्य-नमस्कार
कर रहे हैं!
सूर्य को कुछ
नमस्कार करने
से होने वाला
है। वह कोई
सवाल ही नहीं
है। नमस्कार
करने की कला
है, उसको
सीखना है।
सूरज भी काफी
ठीक है।
सूर्य-नमस्कार
ध्यान का एक
गहरा प्रयोग
है। सूरज के
कारण नहीं, अगर तुमने
सूरज के कारण
समझा तो तुम
भूल गए, झुकने
के कारण।
तो
पहला कदम है
कि झुको। फिर
दूसरा कदम है
कि नीचे होने
में कुशल हो
जाओ। तब सारा
संसार तुम्हारी
तरफ बहता
रहेगा; तुम्हारी
संपदा का अंत
न होगा। तुम
कितनी ही उलीचो
और बांटो अपने
आनंद की संपदा
को, वह
बढ़ती ही
जाएगी।
क्योंकि
तुमने गङ्ढा
बना लिया।
अमृत चला आ
रहा है। तुम
दोनों हाथ उलीचते
रहो, कुछ
भी चुकेगा न।
जितना उलीचोगे
उतना पाओगे, बढ़ता चला
जाता है।
"इस
तरह वे
खड्डों-घाटियों
के स्वामी बन
गए। लोगों के
बीच प्रधान
होने के लिए
किसी को उनके
अनुगत की तरह
होना चाहिए।'
अगर
तुमने लोगों
के आगे होने
की कोशिश की
तो लोग
तुम्हें पीछे
पहुंचा
देंगे। लोग
यानी अहंकार
से भरी हुई
प्रतिमाएं
हैं;
पागल हैं।
तुमने अगर आगे
होने की कोशिश
की तो वे घसीट
कर तुम्हें
पीछे कर
देंगे। तुमने
अगर पीछे होने
की कोशिश की
तो वे तुम्हें
सिर-आंखों पर
उठा लेंगे। जब
तुम उनके
अहंकार पर चोट
नहीं करते तब
वे तुम्हें
स्वीकार कर लेते
हैं, जब
तुम उनके
अहंकार पर चोट
करते हो तब
उनका अहंकार
प्रतिशोध से
भर जाता है।
और लोग तो
पागल हैं।
तो
लाओत्से कहता
है,
अगर तुम
चाहते हो कि
सच में ही तुम
लोगों के आगे
हो जाओ तो कला
है पीछे हो
जाना। लेकिन
यहां एक बात
समझ लेना कि
अगर तुम आगे
होने के लिए
ही पीछे हो
रहे हो तो तुम
चूक जाओगे।
क्योंकि वह तो
कोई बात न
हुई। तुम
किसको धोखा
दोगे? तो
इसको ऐसा मत
समझना कि अगर
तुम चाहते हो
आगे होना तो
पीछे हो जाओ।
क्योंकि अगर
आगे होने की
चाह है और
पीछे होना
केवल एक साधन
है, तो तुम
पीछे हो ही
नहीं रहे।
बायजीद
के एक शिष्य
ने उससे कहा
कि मैंने तुम्हारे
वचनों में पढ़ा
और तुमसे सुना
कि अगर तुम स्त्रियों
को छोड़ दोगे
तो स्त्रियां
तुम्हारे
पीछे आएंगी, अगर
तुम धन छोड़
दोगे तो धन की
देवी तुम्हारा
पीछा करेगी।
आज बीस साल हो
गए, और अभी
तक कोई आया
नहीं। तो
बायजीद ने कहा,
वह आएगा भी
नहीं, क्योंकि
तुम पीछे
लौट-लौट कर
देख रहे हो।
वह धन की देवी
आएगी भी नहीं,
क्योंकि
तुम धोखा नहीं
दे सकते धन की
देवी को। तुम
पीछे लौट कर
देख रहे हो।
तो तुम धोखा
अपने को ही दे
रहे हो।
अगर
तुम श्रेष्ठ
होना चाहो
लोगों में
इसलिए पीछे
खड़े हो जाओ, तो
तुम कभी भी
लाओत्से को न
समझ पाओगे।
हां, अगर
तुम पीछे खड़े
हो जाओ तो तुम
श्रेष्ठ हो जाओगे।
वह बाइ-प्रोडक्ट
है, वह
परिणाम है। वह
जो पीछे हो
जाता है उसको
लोग सिर-आंखों
पर उठा लेते
हैं। इसलिए
नहीं कि उसकी
चाह थी, बल्कि
इसलिए कि जो
पीछे हो जाता
है वह श्रेष्ठ
हो जाता है।
उसे श्रेष्ठ
होने की चाह
नहीं है। पीछे
हो जाने में
श्रेष्ठ हो
जाना छिपा है।
श्रेष्ठ होने
की चाह तो
निकृष्ट मन की
चाह है।
श्रेष्ठ होने
की चाह तो
हीनता की चाह
है। उसने सब
हीनता छोड़ दी;
उसने हीनता
इस तरह छोड़ दी
कि अब वह सब के
पीछे खड़ा हो
सकता है--अपनी
महा गरिमा
में। अब वह
अपनी गरिमा को
अपने भीतर
सम्हाले हुए
है। अब किसी के
आगे होने से
आगे होने का
सवाल नहीं है।
अब वह अपने
भीतर है, और
परम आनंदित
है। और उसका
दीया जल गया
है। अब वह
श्रेष्ठ है।
लोग उसे
सिर-आंखों पर
उठा लेंगे।
लेकिन
इस कामना से
तुम पीछे मत
खड़े होना, नहीं
तो तुम्हारा
दीया बुझा ही
रहेगा। तुम पीछे
खड़े ही नहीं
हो। तुम तो
प्रतीक्षा
करोगे कि कब
लोग आएं, कब
आंखों पर
उठाएं। तुम
बार-बार
लाओत्से की किताब
पढ़ोगे कि
कहीं कुछ
भूल-चूक तो
नहीं हो गई
पढ़ने में! अभी
तक लोग आए
नहीं! अभी तक सिर-आंखों
पर उठाया
नहीं! कितनी
देर हुई जाती है!
जीवन खोया जा
रहा है!
"किसी
को उनके अनुगत
की तरह बोलना
चाहिए।'
इसलिए
संत आदेश नहीं
देते, सिर्फ
उपदेश देते
हैं। आदेश तो
सम्राट देते हैं;
उनकी
मालकियत है।
उपदेश का तो
अर्थ होता है
केवल सलाह।
मानो तो ठीक, न मानो तो भी
ठीक है। और
संत बिना
मांगे सलाह भी
नहीं देते।
बुद्ध का तो
नियम था कि जब
तक कोई तीन
बार न पूछे वे
जवाब न देते
थे। इसलिए
बुद्ध की
किताबों को पढ़ना बड़ा
मुश्किल हो
जाता है।
क्योंकि तीन
बार आदमी सवाल
पूछता है, और
तब बुद्ध तीन
बार जवाब देते
हैं। बहुत
लंबा हो जाता
है, छः
गुना हो जाता
है काम।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा कि आप
तीन बार के
लिए क्यों
रुकते हैं?
बुद्ध
ने कहा कि जो
मांगता है उसी
को मिल सकता है।
और तीन बार
पूछने का केवल
इतना ही
प्रयोजन है कि
वस्तुतः तुम
पूछना ही
चाहते हो, ऐसे
ही जिज्ञासा
से नहीं आ गए
हो। तुम्हारे
प्राण दांव पर
लगे हैं, तभी
सलाह दी जा
सकती है। लेने
वाला तैयार हो,
तभी दी जा
सकती है। लेने
वाला आतुर हो,
तभी दी जा
सकती है। लेने
वाला प्यासा
हो, तभी।
और
पूछा गया कि
आप तीन बार
फिर उत्तर
क्यों देते हैं?
बुद्ध
ने कहा, लेने
वाला कितना ही
तैयार हो, पर
सोया हुआ है।
एक बार में न
सुन पाए शायद,
दोबारा सुन
ले। दोबारा न
सुन पाए तो
शायद तीसरी
बार सुन ले।
जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा कि कोई
तुम्हारे साथ दर्ुव्यवहार
करे तो सात
बार क्षमा कर
देना। एक
शिष्य ने पूछा
कि ठीक, फिर
आठवीं बार
क्या करना? सात बार
क्षमा कर दिया,
फिर आठवीं
बार? तो
जीसस ने कहा, सात बार
नहीं, सतहत्तर
बार। और अगर
तुम पूछोगे कि
अठहत्तरवीं
बार क्या करना
तो मैं कहूंगा
सात सौ
सतहत्तर बार।
क्योंकि वह तो
बात ही न हुई।
तुम समझे ही नहीं;
चूक गए। सात
बार तो सिर्फ
प्रतीक है
क्षमा कर देने
का। क्षमा कर
देना, यह
मतलब है। सात
बार तो इसलिए
कह रहे हैं कि
तुम्हारा
भरोसा नहीं
है।
एक
ईसाई फकीर के
संबंध में
कहानी है कि
एक आदमी आया
और उसने उसके
एक गाल पर
चांटा मारा।
तो उसने दूसरा
गाल सामने कर
दिया, जैसा कि
जीसस का उपदेश
है, कि जो
तुम्हारे
बाएं गाल पर
चांटा मारे, दायां उसके
सामने कर
देना। वह आदमी
भी दुष्ट था।
उसने भी जीसस
की किताब पढ़ी
थी। उसने कहा
कि तुम हमको न
धोखा दे
सकोगे। उसने
दाएं गाल पर भी
एक चांटा मार
दिया। जैसे ही
उसने दाएं गाल
पर चांटा मारा,
वह फकीर
झपटा और उस आदमी
की छाती पर
सवार हो गया।
उसने कहा, अरे
यह तुम क्या
करते हो? जीसस
को मानने वाले
होकर और यह
तुम क्या कर
रहे हो? उसने
कहा कि जीसस
ने कहा है कि
जब बाएं पर
कोई मारे, दायां
कर देना। अब
दाएं पर जब
कोई मारे, उसके
आगे उन्होंने
कुछ कहा भी
नहीं है। और
दाएं के आगे
कुछ है भी
नहीं। अब हम
स्वतंत्र
हैं। जीसस का वचन
कर दिया, निपटा
दिया। अब तुम
हमसे मुकाबला
करो।
तुम
सभी
सिद्धांतों
को चुका देते
हो,
और जल्दी ही
तुम प्रकट हो
जाते हो।
ऐसी
भूल मत करना।
प्रथम होने के
लिए अंतिम खड़े
मत हो जाना।
नहीं तो बहुत
पछताओगे।
उससे तो बेहतर
तुम कोशिश में
ही लगे रहना
प्रथम होने
की। तो कम से
कम लाओत्से को
तो दोष न दोगे
कि हम इसकी
किताब की उलझन
में पड़ गए, पीछे
खड़े हो गए। न
कोई आया, न
बैंड-बाजे बजे,
न कोई
स्वागत-समारंभ
हुआ।
"लोगों
के बीच उनका
अगुआ होने के
लिए किसी को उनके
पीछे-पीछे
चलना चाहिए।'
ध्यान
रखना, यह
लाओत्से
परिणाम की बात
कर रहा है, चाह
की बात नहीं
कर रहा है।
अगर तुम
पीछे-पीछे चलोगे
तो तुम अचानक
पाओगे कि तुम
अगुआ हो गए हो।
यह परिणाम है
पीछे चलने का।
इसके लिए
तुम्हारी चाह
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। तुम्हारी
चाह आई कि
लाओत्से का
सिद्धांत काम
न करेगा।
क्योंकि तुम
फिर पीछे चल
ही नहीं रहे, तुम चल तो
रहे हो आगे
ही।
लाओत्से
का उपयोग साधन
की तरह नहीं
किया जा सकता।
किसी ज्ञानी
का उपयोग साधन
की तरह नहीं
किया जा सकता।
ज्ञानी साध्य
है,
वह साधन
नहीं है। और
लोग उनका साधन
की तरह उपयोग
करते हैं।
साधन की तरह
उपयोग करते
हैं, बस
इसलिए चूक
जाते हैं। और
फिर उनको जीवन
में अनुभव
होता है कि
नहीं, ये
बातें तो सही
सिद्ध नहीं
होतीं। ये
होंगी भी
नहीं।
लाओत्से, कृष्ण,
क्राइस्ट
साध्य हैं; तुम उनका
अपने लोभ, अपनी
वासना, अपनी
तृष्णा के लिए
उपयोग नहीं कर
सकते हो। तुम
अगर उनकी मान
कर चलो तो तुम
एक दिन अचानक
पाओगे कि जो-जो
उन्होंने कहा
था वह
रत्ती-रत्ती,
सौ प्रतिशत
सही उतरता है।
क्योंकि जो
उन्होंने कहा
है वह उनके
जीवन में सही
उतरा है, तभी
कहा है।
"इस
तरह संत ऊपर
होते हैं, और
लोग उनका बोझ
अनुभव नहीं
करते।'
अगर
तुम किसी के
ऊपर रहोगे तो
लोग तुम्हारा
बोझ अनुभव
करेंगे। और बोझ
को कौन सहना
चाहता है? बोझ
को फेंक देना
चाहता है कोई
भी। बोझ तो
आत्मघाती हो
जाता है।
उसमें तो
तुम्हारी
आत्मा तड़फने
लगती है, तुम्हारे
पंख कट जाते
हैं। पति
पत्नी के ऊपर
है तो बोझ है।
पत्नी पति के
ऊपर है तो बोझ
है। पिता बेटे
के ऊपर है तो
बोझ है। और
बेटा कोशिश
करेगा, कब
इस बोझ को
उतार कर रख
दे। और सारी
जिंदगी में हर
आदमी की कोशिश
है कि कैसे
ऊपर हो जाए।
और इसलिए तुम
सभी पर बोझ बन
जाते हो, पत्थर
की तरह लटक
जाते हो गर्दनों
में। और हरेक
चाहता है कि
तुमसे
छुटकारा कैसे
हो।
लाओत्से
कह रहा है, संत
भी ऊपर होते
हैं, लेकिन
उनके होने की
कला बड़ी अनूठी
है। वे नीचे
हो जाते हैं, और इसलिए
लोग उन्हें
सिर-आंखों पर
ले लेते हैं।
वे खुद ऊपर
नहीं बैठते, लोग उन्हें
ऊपर बिठा देते
हैं। और जब
कोई अपनी ही
मौज से किसी
को अपने सिर
पर लेता है तब बोझ
मालूम नहीं
पड़ता। जब कोई
जबरदस्ती
तुम्हारे सिर
पर होता है तब
बोझ मालूम
पड़ता है। इसलिए
प्रेम
निर्बोझ कर
देता है।
और संत
बड़ा प्रेम
जगाते हैं।
क्योंकि जो
आदमी सबसे
पीछे बैठा है
वह तुम्हारे
अहंकार को तो
चोट देता ही
नहीं; उससे
तुम्हारा कोई
संघर्ष ही
नहीं है।
अचानक उसकी
विनम्रता
तुम्हें छूने
लगती है। उसके
पास एक
विनम्रता का
वातावरण होता
है; एक अलग
ही ऊर्जा का
प्रवाह होता
है। अहंकारी आदमी
को कहने की
जरूरत भी नहीं
पड़ती कि
अहंकारी है, तुम फौरन
समझ जाते हो
कि अहंकारी
है। उसकी चाल
में, उसके
उठने-बैठने
में, हर
तरफ अकड़ है।
हर तरफ वह
दिखला रहा है
कि मैं कुछ
हूं, समझे?
जानते हो
मैं कौन हूं? विनम्र आदमी
ऐसे है जैसे
छिपा है, जैसे
नहीं चाहता कि
तुम्हारी आंख
में पड़े, जैसे
नहीं चाहता कि
तुम्हारे
रास्ते को
काटे, जैसे
नहीं चाहता कि
आवाज हो जाए, पगध्वनि भी
तुम्हें
सुनाई पड़े और बाधा
पड़े।
झेन
फकीर कहते हैं
कि जब किसी
व्यक्ति को
ज्ञान हो जाता
है--और वे ठीक
कहते हैं--तो
शिष्य को बताना
नहीं पड़ता
गुरु को आकर
कि ज्ञान हो
गया;
शिष्य के
आते ही गुरु
कह देता है कि
तो हो गया, बात
पूरी हो गई।
ऐसा भी हुआ है
कि रिंझाई जब
ज्ञानी हुआ और
अपने गुरु के झोपड़े की
तरफ गया, तो
वह बाहर सीढ़ियां
चढ़ रहा था और
गुरु ने भीतर
कोठे से
चिल्ला कर कहा,
तो रिंझाई
पा गया! अभी
गुरु ने देखा
नहीं, सिर्फ
पगध्वनि सुनी
थी। रिंझाई
चकित हुआ। और शिष्य
चकित हुए।
उन्होंने
गुरु से पूछा
कि बात क्या
है? तो
उन्होंने कहा
कि जब अहंकारी
चलता है तो
उसकी पगध्वनि
अलग होती है, उसके पैर
में भी चोट
होती है। वह
पैर की आवाज से
भी कहता है, मैं आता हूं,
राह करो! और
जब विनम्र
आदमी आता है
तो उसके पैरों
में वह चोट
नहीं होती, उसके पैरों
में माधुर्य आ
जाता है। उसके
पैर ऐसे आते
हैं कि किसी
को बाधा न पड़
जाए, किसी
के सुर-संगीत
में कोई
व्यवधान न आ
जाए, मेरे
चलने से भी
किसी को कोई
अड़चन न हो
जाए। वह ऐसे
आता है जैसे
छाया आती है।
रिंझाई
ने खुद एक गीत
लिखा है कि जब
कोई ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है तो वह
ऐसे हो जाता
है जैसे वृक्ष
की छाया
सीढ़ियों को
बुहारती है, लेकिन
धूल उड़ती
नहीं। वृक्ष
की छाया
सीढ़ियों को बुहारती
है, लेकिन
धूल उड़ती
नहीं। एक
दूसरे गीत में
रिंझाई ने कहा
है, जैसे
बगुलों की
कतार आकाश में
उड़ती है। न तो
बगुले चाहते
हैं कि झील
में
प्रतिबिंब
बने और न झील
की कोई
आकांक्षा है
प्रतिबिंब
बनाने की। प्रतिबिंब
बनता है और
मिट जाता है; न झील को पता
चलता, न
बगुलों को पता
चलता। ऐसा है
व्यक्ति जो
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है। किसी
को पता न चले; प्रतिबिंब
भी बने तो आहट
न हो। छाया भी बुहारे तो
धूल का एक कण
भी कंपे
न। इतनी भी
हिंसा नहीं
चाहता।
निश्चित
ही,
उसके पैर की
गति, उसके
पैर की आवाज, सब बदल जाती
है। उसकी
पगध्वनि में पैसिविटी
होती है, एक्टिविटी
नहीं। उसकी
पगध्वनि में
कर्म नहीं
होता, अकर्म
की दशा होती
है। वह चलता
नहीं, जैसे
कोई उसे चला
रहा है। वह
भीतर खाली हो
गया है, शून्य।
और उसके शून्य
की
प्रतिध्वनि
उसके प्रत्येक
कृत्य में
मिलती है।
"संत
ऊपर होते हैं,
और लोग उनका
बोझ अनुभव
नहीं करते।'
क्योंकि
लोग स्वयं ही
उन्हें ऊपर
उठा लेते हैं।
तुम किसी के
ऊपर बैठने की
कोशिश मत
करना। तुम
जिसके भी ऊपर
बैठ जाओगे वही
तुम्हारा
दुश्मन हो
जाएगा। और इसी
तरह तो तुमने
हजार तरह के दुश्मन
अपने आस-पास
इकट्ठे कर लिए
हैं। और
तुम्हारी
पूरी चेष्टा
यह है कि किसी
के भी ऊपर बैठ
जाएं। छोटा सा
बच्चा भी घर
में पैदा होता
है तो मां और
बाप उसके ऊपर चढ़ने की
कोशिश शुरू कर
देते हैं।
छोटे से बच्चे
को भी तुम
छोड़ते नहीं, उसकी
भी सवारी करते
हो। और तब अगर
बच्चे मां-बाप
के दुश्मन हो
जाते हैं तो
कुछ आश्चर्य
नहीं। अगर
पति-पत्नी के
बीच तालमेल खो
जाता है तो कुछ
आश्चर्य
नहीं।
क्योंकि
दोनों
एक-दूसरे के ऊपर
सवारी की
कोशिश में
संलग्न
हैं--कौन
किसको डॉमिनेट
करे, कौन
किसको चलाए, कौन असली
मालिक है?
क्या
तुम इतने हीन
हो कि तुम्हें
छोटे बच्चे से
भी
प्रतिस्पर्धा
करनी पड़ती है? क्या
तुम इतने हीन
हो कि तुम
अपनी पत्नी के
ऊपर भी
निर्बोझ नहीं
हो सकते? क्या
तुम इतने हीन
हो कि तुम
अपने पति को
भी निर्बोझ
नहीं छोड़ पाते?
जितनी
श्रेष्ठता
होती है उतना
ही आदमी दूसरे
को निर्बोझ
छोड़ देता है।
और जितनी
हीनता होती है
उतना ही आदमी
दूसरे की छाती
पर सवार होता
है। क्यों? क्योंकि
जब तुम
श्रेष्ठ होते
हो, लोग
स्वयं ही
तुम्हें सिर
पर उठा लेते
हैं। जब तुम
निकृष्ट होते
हो तभी
तुम्हें खुद
सीढ़ी लगा कर
लोगों के सिर
पर चढ़ना
पड़ता है।
क्योंकि
निकृष्ट को
कौन सिर पर
रखेगा!
इसलिए
तो तुम्हारी
राजनीति
निकृष्ट
लोगों का धंधा
हो जाती है।
उसमें जो
निम्नतम हैं
समाज में, वे
संलग्न हो
जाते हैं।
क्योंकि
राजनीति सीढ़ी
है जिससे पूरे
मुल्क की छाती
पर और सिर पर
चढ़ कर बैठा जा
सकता है। अगर
दुनिया की राजधानियां,
परमात्मा
कुछ तरकीब करे,
और एकदम से
विलीन हो जाएं,
सिर्फ राजधानियां,
तो दुनिया
में नब्बे
प्रतिशत पाप
एकदम विलीन हो
जाएंगे।
दिल्ली, लंदन,
वाशिंगटन, मास्को,
पेकिंग एकदम से
समाप्त हो
जाएं।
क्योंकि वहां
सब पागल, सब
तरह के
हीन-ग्रंथि से
भरे लोग
इकट्ठे हो गए हैं।
राजधानियां
घेर ली जानी
चाहिए, और
उनको मानसिक
अस्पतालों
में बदल दिया
जाना चाहिए।
वहां सब के
इलाज की जरूरत
है। और वे निकृष्टतम
लोग हैं, क्योंकि
निकृष्ट ही
सिर पर चढ़ना
चाहता है।
श्रेष्ठ
को तो तुम सिर
पर बिठा लो तो
भी वह कहता है
कि क्षमा करो, मुझे
नीचे उतरने दो,
क्यों नाहक
कष्ट कर रहे हो!
क्या कारण है
इसका? कारण
यह है कि
श्रेष्ठ इतना
श्रेष्ठ है
अपने भीतर कि
अब किसी के
सिर पर बैठ कर
थोड़े ही श्रेष्ठ
होना है। और
किसी के सिर
पर बैठ कर कभी
कोई श्रेष्ठ
हुआ है? श्रेष्ठता
जब वस्तुतः
होती है तो
उसकी गरिमा आंतरिक
है; किसी
दूसरे से उसका
कोई संबंध नहीं।
दूसरे के मत, दूसरे के
सहारे की कोई
भी जरूरत
नहीं। श्रेष्ठता
अकेली जी सकती
है। श्रेष्ठ
व्यक्ति हिमालय
के एकांत में
भी उतना ही
श्रेष्ठ
होगा।
तुम्हारे
प्रधानमंत्री
को,
तुम्हारे
राष्ट्रपति
को जंगल के
एकांत में ले
जाओ।
जैसे-जैसे भीड़
छंटने
लगेगी
वैसे-वैसे राष्ट्रपति
छोटा होने
लगेगा। जब ठेठ
तुम जंगल में
ले जाओगे, और
वहां कोई भी न
रहेगा, अकेला
राष्ट्रपति
रह जाएगा, तो
वृक्षों के
कौए भी ज्यादा
श्रेष्ठ
मालूम पड़ेंगे।
वह कुछ भी
नहीं है, ना-कुछ
है। उसकी सारे
होने की ताकत
तो लोगों की
भीड़ पर थी, जिनके
सिर पर वह चढ़ना
सीख गया था।
जब लोग ही जा
चुके, सीढ़ी
गिर गई।
नेपोलियन
जब हार गया तो
उसे सेंट हेलेना
के द्वीप में
बंद कर दिया
गया। हारे
नेपोलियन की
बड़ी दुर्दशा
होती है। जीत
थी तो वह
संसार का
मालिक था, हार
गया तो दो कौड़ी
का हो गया।
लेकिन फिर भी,
जैसे रस्सी
जल जाती है और
अकड़ रह जाती
है; रस्सी
तो जल गई, लेकिन
मरते दम तक
नेपोलियन ने
कपड़े न बदले। सड़ गए, गंदे
हो गए; फट
गए। बहुत बार
कहा गया कि
नये कपड़े आपके
लिए उपलब्ध
हैं, आप
पहन लें। उसने
कहा कि नहीं।
मरते वक्त
उसने अपनी
डायरी में
लिखा है कि ये
कपड़ों की बात
ही और, ये
सम्राट के
कपड़े हैं। और
तुम कितने ही
ताजे और नये
कपड़े ले आओ, वे एक कैदी
के कपड़े
होंगे।
राख हो
गई सब, लेकिन
अकड़ बाकी है।
अभी भी वह
चलता है तो
उसी अकड़ से।
फटे हैं कपड़े,
पुराने हैं
कपड़े, जराजीर्ण
हो गए, लेकिन
वह अब भी अपने
को सोच रहा है
कि सम्राट है।
मरते समय उसने
लिखा है कि
मान लिया कि
मैं अब सम्राट
नहीं हूं, लेकिन
इसे तो कोई भी
इनकार न करेगा
कि मैं एक हारा
हुआ सम्राट
हूं। हारा हुआ
हूं माना, मगर
हूं तो सम्राट
ही। मगर हारे
हुए सम्राट का
क्या मतलब
होता है?
आदमी
जितना भीतर
अभाव अनुभव
करता है हीनता
का,
हीनता का
कीड़ा जितना
भीतर काटता है,
उतने ही
बाहर उपाय
करता है कि
कैसे उसे ढांक
ले। बाहर
रोशनियां
जलाता है ताकि
भीतर का अंधेरा
न दिखाई पड़े।
भीतर तो हर
कोई जानता है
कि मैं ना-कुछ
हूं, इसलिए
दूसरों पर अकड़
जताता है। और
ध्यान रखना, जितना ही
कोई अकड़ जताए
दूसरों पर
उतना ही छोटा
आदमी भीतर
छिपा है। बड़े
आदमी की तो
अकड़ होती ही
नहीं। बड़ा
आदमी तो ऐसा
होता है जैसे
हो ही न।
महानता शून्यता
है। और जब तुम
कहीं भी उस
शून्यता को देखते
हो तब अचानक
तुम्हारा सिर
झुक जाता है।
तब तुम किसी
को सिर पर रख
लेना चाहते
हो।
संत
ऊपर होते हैं, अपने
कारण नहीं, लोग उन्हें
ऊपर उठा लेते
हैं। लोग
उन्हें बिना
ऊपर उठाए रह
नहीं सकते; क्योंकि
उनको ऊपर
उठाने में ही
पंख मिलते हैं,
उनको ऊपर
उठाने में तुम
उनके साथ उड़ना
शुरू करते हो।
उनको तुम
जितना ऊपर
उठाते हो उतना
ही तुम भी ऊपर
उठते हो।
निकृष्ट
आदमी को ऊपर
बिठाना
खतरनाक है।
क्योंकि
जितना ही तुम
निकृष्ट को
ऊपर बिठाते हो, तुम
नीचे दबते हो,
तुम और छोटे
होते जाते हो।
गुलाम होना
बुरा है, क्योंकि
तुम जब भी
गुलाम होने को
राजी हो जाते
हो किसी के, तभी
तुम्हारे
भीतर सब सिकुड़ने
लगता है; तुम
और गुलाम होने
लगते हो।
लेकिन
दास होने का
मजा और।
गुलामी और
दासता में
फर्क है।
गुलाम तो
जबरदस्ती
बनाया जाता है, दूसरा
तुम्हारी
छाती पर सवार
हो जाता है।
और दास होने
का मतलब है, तुम किसी को
अपने सिर पर
उठा लेते हो।
तो गुलामी
परतंत्रता है,
और दास हो
जाने से बड़ी
स्वतंत्रता
नहीं।
इसलिए
कबीर कहते हैं, कहे
दास कबीर।
यह जो
दास है कबीर
का यह गुलाम
नहीं है; यह
दासता
अंगीकार की है,
यह छोटा
होना अपनी तरफ
से स्वीकार
किया है, यह
पीछे होना
अपनी तरफ से
साधा है; अपने
को ना-कुछ
बनाने में
स्वेच्छा से
चेष्टा की है।
"वे
आगे-आगे चलते
हैं, और
लोग उनकी हानि
नहीं चाहते।'
जब तुम
लोगों के आगे
चलना चाहोगे
तो लोग
तुम्हारी हानि
चाहेंगे।
क्योंकि तुम
उन्हें आगे
होने देने में
बाधा हो, तुम
उनके दुश्मन
हो। इसलिए
राजनीति में
कोई दोस्त
नहीं होता।
राजनीति में
दो तरह के
दुश्मन होते
हैं: प्रकट
दुश्मन, अप्रकट
दुश्मन।
प्रकट दुश्मन
से भी अप्रकट
दुश्मन
ज्यादा
खतरनाक होता
है।
इसलिए
मैक्यावेली
ने,
जिसने कि
राजनीति की
बाइबिल या वेद
लिखा, अपनी
किताब दि
प्रिंस में
कुछ सुझाव दिए
हैं। उसने कहा
है कि
राजनीतिज्ञ
को, राजा
को, सम्राट
को, किसी
को भी भूल कर
कभी मित्र
नहीं मानना
चाहिए, अन्यथा
वह पछताएगा।
क्योंकि जो आज
मित्र है वह
कल शत्रु हो
सकता है। और
उसने यह भी
कहा कि शत्रु
के संबंध में
भी ऐसी बात नहीं
कहनी चाहिए कि
कभी मित्रता
बनने का मौका
आए तो वह बात
बाधा बने।
क्योंकि वहां
कोई भी शत्रु
हो सकता है, कोई भी
मित्र हो सकता
है।
राजनीतिज्ञ
के आस-पास जो
लोग होते हैं
वे भी शत्रु
हैं,
क्योंकि वे
भी कोशिश कर
रहे हैं कि
तुम जिस सिंहासन
पर हो, वे
हो जाएं। तो
कुछ शत्रु
बाहर चेष्टा
करते हैं, वहां
से आने की; और
कुछ शत्रु घर
के भीतर होते
हैं और वहां
से चेष्टा
करते हैं।
राजनीतिज्ञ
का मित्र कोई
हो ही नहीं
सकता, क्योंकि
जो महत्वाकांक्षा
तुम्हें ले आई
है वही दूसरों
को भी ले आई
है।
तो
इंदिरा को डर
कोई जयप्रकाश
से ही नहीं है, यशवंतराव चव्हाण
से भी उतना ही
है; ज्यादा।
और बाहर के
दुश्मन से तो
सुरक्षा करना
आसान है, भीतर
के दुश्मन से
सुरक्षा करना
मुश्किल है; क्योंकि वह
भीतर है।
इसलिए तो
इंदिरा को
रोज-रोज पोर्टफोलियो
बदलने पड़ते
हैं कि किसी
को भी यह
भ्रांति न हो जाए
कि तुम जम गए। उखाड़ते
रहना पड़ता है।
तुमको पक्का
पता रहना
चाहिए कि तुम
जम नहीं गए हो,
कि तुम और
आगे जाने की
कोशिश करने
लगो। तुम जहां
हो वहीं रहने
में तुम्हें
लगाए रखना
पड़ता है, कि
तुम किसी तरह
वहीं बने रहो।
क्योंकि
तुम्हें अगर
यह पक्का
भरोसा हो जाए
कि तुम जहां
हो वहां से
तुम्हें कोई
नहीं हटा सकता,
तो तुम और
ऊपर चढ़ने
की कोशिश शुरू
कर दोगे।
इसलिए
हर
राजनीतिज्ञ
को अपने
कैबिनेट को
हमेशा उखड़ी
हालत में रखना
पड़ता है, कंपाए रखना पड़ता है।
तो किसी को भी
पक्का भरोसा न
हो जाए कि यह
कुर्सी तय हो
गई। अगर यह तय
हो गई तो
तुम्हारी शक्ति
ऊपर वाली
कुर्सी की तरफ
जाने में
संलग्न हो
जाएगी। इसलिए
इस कुर्सी को
हिलाए रखना
पड़ता है कि
तुम्हारी
ताकत इसी पर
बैठे रहने में
लगी रहे, और
तुम्हारी
ताकत आगे न जा
पाए। राजनीति
में मित्रता
संभव नहीं है।
क्योंकि
महत्वाकांक्षी
की क्या
मित्रता हो
सकती है!
हम सब
महत्वाकांक्षी
हैं अगर, हम सब
एक-दूसरे के
दुश्मन हैं
तब। क्योंकि
हम वही पाने
की कोशिश कर
रहे हैं जो
दूसरे भी कर रहे
हैं। और वह
न्यून
है--चाहे धन हो,
चाहे पद हो।
सारा संसार
उसी को पाना
चाह रहा है; इसलिए सारा
संसार
एक-दूसरे का
दुश्मन है। और
एक कलह सतत
चलती रहती है।
शिष्टाचार
में छिपी, संस्कृति
में ढंकी, वस्त्रों
में, शब्दों
में, बातों
में छिपाई हुई,
लेकिन भीतर
एक संघर्ष चल
रहा है।
"संत
आगे-आगे चलते
हैं, और
लोग उनकी हानि
नहीं चाहते।'
क्योंकि
संत तो पीछे
चलता है, लोग
ही उसको पकड़
कर आगे ले आते
हैं। और जैसे
ही लोग उसे
छोड़ दें, वह
फिर पीछे चला
जाता है। ऐसी
अनूठी घटना इस
देश में घटी
है कि सम्राट
से भी ऊपर
जंगल में बसे
ऋषि का स्थान
हो गया था। वह
हट गया था
पीछे। लेकिन
सम्राट जाकर
उसके चरण
छूता। जिसके
पास कुछ भी न
था उसके चरण
वह छूता जिसके
पास सब कुछ
था। एक बड़ा अनूठा
प्रयोग था।
ऐसा
हुआ कि एक
गांव में
बुद्ध का आगमन
हुआ। जो सम्राट
था उसके वजीर
ने कहा कि आप
चलें, नगर के
बाहर स्वागत
करें। सम्राट
नया-नया था, अकड़ से भरा
था। उसने कहा कि
क्यों मैं
जाऊं? आखिर
बुद्ध एक
भिखारी ही
हैं। और आना
होगा तो खुद
महल आ जाएंगे।
और मेरी क्या
जरूरत है जाने
की? उस
बूढ़े वजीर ने
तुरंत
इस्तीफा लिख
दिया। उसने
कहा कि फिर
मेरा इस्तीफा
सम्हाल लें।
क्योंकि इतने
छोटे आदमी के
नीचे काम करना
फिर मुझे मुश्किल
है। तुम में
बड़प्पन है ही
नहीं। वह
सम्राट बोला,
बड़प्पन
नहीं है? बड़प्पन
की वजह से ही
तो मैं जा
नहीं रहा हूं।
उस
बूढ़े वजीर ने
कहा,
इसे हम
बड़प्पन नहीं
कहते। बुद्ध
कभी सम्राट थे,
और
उन्होंने उस
सम्राट होने
को छोड़ कर
भिक्षुक का
पात्र लिया।
इसलिए
भिक्षुक का
पात्र साम्राज्य
से बड़ा है।
साम्राज्य को
छोड़ दिया इस
पात्र के लिए।
अगर तुम्हें
दिखाई पड़ता हो
तो तुम एक
अवस्था पीछे
हो अभी बुद्ध
से। क्योंकि
सम्राट होने
के बाद वे
भिक्षु हुए
हैं। अभी तुम
सम्राट ही हो,
अभी भिक्षु
होने में
तुम्हें बहुत
देर है। और तुम्हें
चलना होगा
प्रणाम करने
को, और
झुकना होगा
चरणों में।
अन्यथा मेरा
इस्तीफा
सम्हाल लें।
एक
अनूठा प्रयोग
पूरब में हुआ
है,
और वह यह कि
जो सबसे पीछे
है उसके चरणों
में वह झुके
जो सबसे आगे
है। क्योंकि
सबसे आगे, तो
अभी भी बचकाना
है, महत्वाकांक्षा
की दौड़ है, ज्वर
है। जो सबसे
पीछे खड़ा है
वह प्रौढ़ हो
गया। अब उसकी
कोई
प्रतियोगिता
किसी से भी न
रही। अब
प्रतिस्पर्धा
बिलकुल शून्य
हो गई। इस
शून्य
प्रतिस्पर्धा
में ही तो पहली
दफा आत्म-गौरव
का जन्म होता
है। अब कोई छीना-झपटी
नहीं है। अब
धन बाहर नहीं
है, धन
भीतर है। अब
किसी से कुछ
पाना नहीं है,
अब जो पाना
है वह मिला ही
हुआ है। अब
भीतर का दीया जलता
है, अब
बाहर की रोशनियों
का कोई सवाल न
रहा। अब हो
जाए गहन
अंधकार बाहर,
तो भी अंतर
न पड़ेगा। कोई
भी न हो बाहर, सारी पृथ्वी
खाली हो जाए, तो भी इसके
एकांत में वही
शांति और वही
आनंद होगा जो
भीड़ के रहते
था। अब जंगल
और बाजार में
कोई फर्क न
रहा। अब तुम
क्या कहते हो,
अच्छा या
बुरा, कोई
उसकी संगति
नहीं है।
इतनी
आत्म-गरिमा
में
प्रतिष्ठित
जो है उसी का नाम
संत है।
"वे
आगे-आगे चलते
हैं, और
लोग उनकी हानि
नहीं चाहते।
और तब संसार
के लोग
खुशी-खुशी और
सदा के लिए
उन्हें सिर-आंखों
पर रखते हैं।
क्योंकि वे
कलह नहीं करते,
इसलिए
संसार में कोई
उनके विरुद्ध
संघर्ष नहीं
कर पाता।'
संत से
लड़ना मुश्किल
है। लड़े कि
हारे। संत से अगर
लड़े कि हारना
सुनिश्चित
है। संत को
हराया नहीं जा
सकता। क्यों? क्योंकि
संत की कोई
जीतने की
आकांक्षा
नहीं है। जो जीतना
ही नहीं चाहता
उसे तुम हराओगे
कैसे?
रामकृष्ण
से विवाद करने
आए थे केशवचंद्र।
हराने आए थे; हार
कर लौटे।
क्योंकि
रामकृष्ण ने
विवाद किया ही
नहीं। उलटी ही
हो गई बात सब। केशवचंद्र
करने लगे तर्क
की बात कि
ईश्वर नहीं है,
सिद्ध करने
लगे। और हर
तर्क पर
रामकृष्ण
उठ-उठ कर उनको
गले लगाने लगे
और कहने लगे, वाह-वाह, बिलकुल
ठीक कहा। थोड़ी
देर में केशवचंद्र
मुरझा गए कि
अब करना क्या?
जो भीड़
देखने आई थी
रामकृष्ण की
पराजय को, वह
भी बड़ी बेचैन
हो गई कि यह
किस तरह का
विवाद हो रहा
है!
तो केशवचंद्र
ने कहा, आप
मेरी सब बातों
को हां कहते
हैं तो आप
पराजय
स्वीकार करते
हैं?
रामकृष्ण
ने कहा, मैंने
कभी दावा ही
कहां किया
तुम्हें
जीतने का? तुम्हारी
जैसी प्रतिभा
को और मुझ
जैसा गंवार जीत
सकेगा? असंभव!
मगर एक बात
तुमसे कहता
हूं कि मैं तो बेपढ़ा-लिखा
हूं, परमात्मा
की कोई बहुत
बड़ी प्रतिभा
मुझसे प्रकट
नहीं हो रही
है; तुम्हें
देख कर मुझे
पक्का भरोसा आ
गया कि परमात्मा
है। इतनी
प्रतिभा! ऐसा
तर्क! कैसे
गजब की बातें
तुमने कहीं!
जहां इतनी
प्रतिभा हो
सकती है वहां
परमात्मा
होना ही
चाहिए।
क्योंकि पदार्थ
से ऐसी
प्रतिभा कैसे
पैदा होगी? और यह मानने
को मैं राजी
नहीं हूं केशव,
कि तुम
सिर्फ
मिट्टी-पत्थर
हो। तुम्हारे
भीतर ऐसा
संगीत बज रहा
है
बुद्धिमत्ता
का, वह
संगीत खबर
देता है कि
परमात्मा है।
इसके पहले
मुझे
थोड़ा-बहुत शक
भी रहा हो, तुम्हारे
आने से वह भी
मिट गया।
केशवचंद्र
हार कर लौटे।
क्योंकि संत
की कलह क्या
है?
उसका दावा
क्या है? उसे
कुछ सिद्ध
करना नहीं है।
संत का कोई
सिद्धांत
थोड़े ही है
जिसे सिद्ध
करना है, कोई
शास्त्र थोड़े
ही है जिसे
सिद्ध करना
है। संत का तो
एक जीवन है।
और उस घड़ी में
केशव की आंखें
खुल गईं, और
देखा संत के
जीवन को, और
देखी इस महिमा
को, जिसे
कि विरोध भी
हरा नहीं सकता,
जिसे विवाद
से मिटाया
नहीं जा सकता;
देखी इस
आस्था को कि
कितने ही
तूफान उठाए
जाएं तर्क के,
आस्था का
दीया डगमगाता
भी नहीं, उलटे
तूफान से भी
जीवन ले लेता
है।
तुमने
देखा कभी, कि
छोटे दीये बुझ
जाते हैं हवा
के झोंके में,
लेकिन बड़ी
आग लगी हो तो
हवा घी का काम
करती है। आग
लग गई हो मकान
में तो उस
वक्त एक ही
सुरक्षा है कि
हवा न चले।
क्योंकि आग
लगी हो मकान
में और हवा चल
जाए तो आग बढ़ जाएगी;
बुझना
मुश्किल हो
जाएगा। लेकिन
गणित तो देखो! छोटा
सा दीया, हवा
आती है तो बुझ
जाता है। बड़ी
आग, हवा
आती है तो और जलती
है।
संत
इतनी बड़ी आग
है कि बुझाने
को तुम अगर
तूफान लाओगे
तो घी का काम
होगा।
छोटे-छोटे
दीये विवाद से
हार जाते हैं।
बड़ी आग विवाद
से बढ़ती है।
छोटे-छोटे
दीये, लड़ो तो हरा सकते
हो उन्हें।
बड़ी आग से लड़ोगे
तो जलोगे,
हारोगे।
लेकिन
सौभाग्य है कि
अगर बड़ी आग के
करीब पहुंच
जाओ और हार
जाओ। संत के
पास हार जाने
से बड़ा और कोई
सौभाग्य है भी
नहीं। वहां से
तुम जीत की
अकड़ लेकर लौट
जाओ,
वही पराजय
है। वहां तुम
हार आओ, वहां
तुम समर्पित
हो जाओ, वही
जीत है। जैसे
प्रेम में हार
जीत होती है वैसे
ही श्रद्धा
में भी हार
जीत होती है। क्योंकि
श्रद्धा
प्रेम की ही
बड़ी आग है।
संत के
विरुद्ध
संघर्ष करना
मुश्किल है, क्योंकि
संत है नहीं
भीतर जिससे
तुम टकरा सको।
तुम संत के
भीतर पाओगे
महाशून्य, तुम्हें
कहीं अवरोध न
मिलेगा, कोई
दीवाल नहीं
होगी जो तुमसे
लड़ने को तैयार
है। तुम संत
के भीतर जितने
जाओगे उतना ही
पाओगे कि और
भीतर का आकाश
खुलता चला
जाता है। संत
के पास जाकर
तुम खो ही
जाओगे। वह तो
ऐसे ही है
जैसे बूंद
सागर में
गिरती है और खो
जाती है।
सौभाग्य है कि
संत के पास
पहुंच जाओ।
क्यों कहता
हूं सौभाग्य?
क्योंकि जो
लोग बहुत
चालाक हैं, समझते हैं
बहुत होशियार
हैं, वे
संत के पास
आते ही नहीं।
संत से बचने
का वही एक
उपाय है, कि
पास ही मत आओ, दूर-दूर रहो,
सुनी बातों
को समझो। संत
के संबंध में
लोग क्या कह
रहे हैं उन
बातों को मान
लो, संत के
सामने
सीधे-सीधे मत
आओ। तो ही बच
सकते हो। अगर
सीधे आ गए तो
मिटोगे। और
इसलिए जो बहुत
चालाक
हैं--अपनी मूढ़ता
में चालाक
हैं--वे सुनी
बातों से जीते
हैं। वे पास
आकर देखने की
हिम्मत भी
नहीं जुटा
पाते। वे आंख
में आंख डाल
कर देखने के
लिए तैयार भी
नहीं होते।
खतरा है। और
एक लिहाज से
वे ठीक हैं, क्योंकि पास
आएंगे तो उनकी
जीत तो
मुश्किल है। वह
तो असंभव है।
संत के पास
आकर हारने के
सिवाय और कोई
संभावना ही
नहीं है।
और
जैसे-जैसे पास
आओगे, और पास
आना पड़ेगा।
जैसे-जैसे पास
आओगे, और
प्यास बढ़ेगी,
और तड़फ
लगेगी।
जैसे-जैसे पास
आओगे
वैसे-वैसे
मिटने की बड़ी
तीव्र
आकांक्षा गहन
होगी। एक दिन
संत में
डूबोगे। और जिस
दिन संत में
डूब जाओ उस
दिन तुम्हारे
भीतर भी
संतत्व का उदय
हो गया। उस
दिन तुम वही न
रहे जो आए थे।
उस दिन आग से
तुम गुजर गए
और तुम्हारा
सोना निखर
आया। तुम
शुद्ध कुंदन
हो गए, सब
कचरा जल गया।
संत एक
क्रांति है, जिससे
तुम गुजर सकते
हो। और मिटने
की तैयारी हो
तो ही पास आना
चाहिए। लोग
ऐसे हैं कि
पास भी आ जाते
हैं, मिटने
की तैयारी
नहीं है। तब
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। तब उनकी
दुविधा मैं
देखता हूं, उनकी तकलीफ
मैं देखता
हूं। एक कदम
पास आते हैं
मेरे, एक
कदम दूर जाते
हैं। एक हाथ
से पास आते
हैं, दूसरे
हाथ से अपने को
सम्हाले रखते
हैं।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी एक
दिन आई और
उसने कहा, जल्दी
करें! और खतरे
की घड़ी है, मुल्ला
फांसी लगाने
की कोशिश कर
रहा है। मैं उसके
साथ मुल्ला के
घर तक गया।
राह में वह
बार-बार कहने
लगी, जल्दी
चलें! यह आपकी
चाल ठीक नहीं;
यह मामला
संकट का है।
मैंने कहा, तू घबरा मत।
जो आदमी कभी
किसी चीज में
सफल नहीं हुआ
वह आत्महत्या
में भी सफल
होगा नहीं; तू बिलकुल
बेफिक्र रह।
पर उसको पसीना
चू रहा है
और हाथ-पैर
कंप रहे हैं।
वह बोली कि
आत्महत्या
बात और है। और
चीज में सफल न
हुआ हो, क्योंकि
दूसरों का सवाल
था। यह तो
अकेले, आत्महत्या
तो खुद ही
करनी है। कोई
बाधा भी देने
वाला नहीं है।
कमरा उसने बंद
कर रखा है।
मैंने कहा, तू बिलकुल
फिक्र मत कर, मैं उसे
भलीभांति
जानता हूं, वह सफल किसी
चीज में हो ही
नहीं सकता।
उसके
घर पहुंचे।
देखा तो
इंतजाम उसने
पूरा कर रखा
था। रस्सी
बांध रखी थी
छप्पर से; एक
स्टूल पर खड़ा
था और रस्सी
अपनी कमर में
बांध रहा था।
मैंने कहा, नसरुद्दीन,
अगर मरना है
तो कमर में
रस्सी क्यों
बांध रहे हो? उसने कहा कि
पहले गले में
बांधने की
कोशिश की, पर
बड़ी बेचैनी
होती है। और
मरना तो है ही,
तो मैं कमर
में बांध रहा
हूं। क्या कोई
ऐसी तरकीब
नहीं है कि आदमी
आराम से मर
सके?
बस ऐसी
दुविधा में
हैं बहुत लोग।
संत के पास पहुंच
जाते हैं और
फिर अपने को
बचाना भी
चाहते हैं; कमर
में रस्सी बांधते
हैं। कहते हैं,
गर्दन में बांधते
हैं तो बेचैनी
होती है।
बचाते भी हैं
अपने को, और
बचा भी नहीं
सकते हैं।
क्योंकि
आमंत्रण सुन लिया
गया है; पुकार
आ गई है; बुलावा
आ गया है। और
भीतर लग रहा
है कि तैयार हैं,
कूद लेना
चाहिए, छलांग
ले लेनी
चाहिए। खड़े
हैं गङ्ढ
के पास, एक
क्षण में घटना
घट सकती है, सिर्फ साहस
चाहिए। लेकिन पकड़े हैं
किनारे को।
नाव में सवार
हो गए हैं, और
नाव की
खूंटियां
किनारे से
बंधी हैं, उन्हें
खोल नहीं रहे
हैं। नाव में
बैठे हैं, पतवार
चला रहे हैं; और खूंटियां
किनारे से
बंधी हैं, रस्सियां किनारे से
बंधी हैं। नाव
कहीं जा नहीं
रही।
ऐसी
दुविधा में
तुम मत पड़ना।
या तो भाग खड़े
होना, लौट कर
पीछे देखना ही
मत। और या फिर
छलांग ले लेना,
और फिर मत
भय करना कि
क्या होगा। इन
दो के बीच रहोगे
तो न घर के न
घाट के, न
संसार के न
संन्यास के, न पदार्थ के
न परमात्मा
के। तब तुम
बड़ी उलझन में
रहोगे। वह
किनारा छूट
गया और दूसरा
किनारा मिलता
नहीं। और
मझधार में डूबने
जैसी गति हो
जाएगी।
संत के
पास आना हो तो
पूरे, न आना हो
तो भी पूरे न
आना। मध्य में
बड़ा तनाव पैदा
हो जाता है, बड़ा संताप
पैदा होता है।
और कमर में रस्सियां
बांध कर कोई
फांसी नहीं
लगती। और
बेचैनी तो होगी,
क्योंकि
सारे अतीत को
मार डालना है।
बेचैनी तो
होगी, क्योंकि
सारी वासनाओं
को जला डालना
है। बेचैनी तो
होगी, क्योंकि
अब तक की सारी
महत्वाकांक्षाओं
और पागलपन को
आग में गिरा
देना है; राख
कर देना है
अहंकार को।
बेचैनी तो
निश्चित है।
लेकिन उसी
बेचैनी के बाद,
उसी अंधेरी
रात के बाद
सुबह का जन्म
है। और जिन्हें
सुबह देखनी है
उन्हें
अंधेरी रात से
गुजरने का
साहस चाहिए
ही।
आज
इतना ही।
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