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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

बुद्ध का एक भिक्षु ‘दहर’—(कथा यात्रा—107)

बुद्ध का एक भिक्षु ‘दहर’-(एस धम्‍मो सनंतनो)



पहले सूत्र—

            क कहापणवस्सेन तिति कामेसु विज्जति ।
            अप्पस्सादा दुखाकामा इति विज्जाय पंडितो ।।
            अपि दिब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।
            तण्हक्सयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको ।।

'यदि रुपयों की वर्षा भी हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती। सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं, ऐसा जानकर पंडित देवलोक के भोगों में भी रति नहीं करता है। और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।इसके पहले कि हम सूत्र समझें, सूत्र की पृष्ठभूमि समझ लेनी चाहिए—कब बुद्ध ने यह सूत्र कहा, कब यह गाथा कही?

क भिक्षु था बुद्ध का उसका नाम था, दहर। उस भिक्षु का पिता मरते समय अपने बेटे को देखना चाहता था लेकिन दहर गांव के बाहर गया था। तो देखना चाहते हुए भी पिता देख नहीं पाया। मरते— मरते इस बेटे का नाम ही उसकी जबान पर उसके मन उसके चित्त में था।
नाम लेकर रोते— रोते ही वह मरा। मरने के पहले उसने अपने छोटे बेटे को सौ स्वर्णमुद्राएं दीं और कहा कि जब दहर आए तो मेरी तरफ से उसे भेट कर देना।
पीछे कुछ दिनों बाद दहर गांव वापस लौटा। उसके छोटे भाई ने रोकर सारा समाचार कहा और उन स्वर्णमुद्राओं को दिया। लेकिन दहर ने स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं। भिक्षु कहीं स्वर्णमुद्राएं छूता! और उसने कहा कि तू भी किस तरह की बात कर रहा है मुझे भ्रष्ट करना चाहता है? कामिनी और कांचन तो त्याज्य हैं। यह मिट्टी है तू इनको सोना समझता है?
इस इनकार में बोध कम था अहंकार ज्यादा था। वह कुछ दिनों तक अन्य भिक्षुओं से अपने इस त्याग की घमंडपूर्वक चर्चा भी करता रहा। लेकिन कुछ दिनों बाद वह उदास रहने लगा। वे स्वर्णमुद्राएं उसका पीछा करने लगीं। रात उनके सपने भी आते। दिन में विचार भी बार— बार आता। सोचने लगा क्यों छोड़ दीं स्वर्णमुद्राएं? किसको पता चलता ले ही लेता! सम्हालकर रख लेता वक्त— बेवक्त काम पड़ जातीं। फिर रोज— रोज यह भिक्षा मांगना दीन की भांति घर— घर से भिक्षा मांगना इससे तो बेहतर था कि उन स्वर्णमुद्राओं के सहारे सुख— सुविधा से जीता। रखा भी क्या है इस भिक्षु होने में! मुझसे बडी भूल हो गयी और एक रात यह विचार इतनी तीव्रता से उसे पकड़ा कि उसने सोच ही लिया कि कल सुबह बुद्ध से क्षमा मां गकर भिक्षु का भेष त्यागकर गृहस्थ हो जाऊंगा।
भिक्षुओं ने जाकर बुद्ध को खबर दी। उन्होंने कहा यह होगा ऐसा निश्चित ही था। धन के त्याग में जो प्रशंसा लेना चाहता है वह धन में अपने रस की घोषणा करता है। भोगी और त्यागी में बहुत भेद नहीं है, भोगी धन को पकडता त्यागी धन को छोड़ता लेकिन दोनों के मन में धन का मूल्य है। दोनों मानते हैं कि धन कुछ है धन धन है। भोगी लोलुप होकर दौड़ता है धन की तरफ त्यागी भयभीत होकर भागता है धन की तरफ से। दोनों की दिशाएं अलग— अलग लेकिन दोनों का राग— रंग एक ही है। धन अभी सार्थक है व्यर्थ नहीं हुआ। इसलिए मैं सोचता था कि यह घड़ी आएगी। असली बोध तो त्याग और भोग दोनों से मुक्ति है। असली बोध न तो धन को पकड़ता है न धन को छोड़ता है; धन में न पकड़ने योग्य कुछ है न छोड़ने योग्य कुछ है।
फिर उन्होंने दहर को बुलाकर कहा पागल इतनी सी स्वर्णमुद्राओं से होगा भी क्या! सौ स्वर्णमुद्राएं कितने दिन चलेंगी? इससे तेरी तृष्णा तृप्त होगी? तृष्णा दुष्‍पुर है। ये थोड़ी सी स्वर्णमुद्राएं तो और भी अग्नि में घी का काम करेगी।
और तब उन्होंने यह गाथा कही। ये भिक्षु दहर को कहे गए वचन हैं।
तो पहले तो इस घटना को ठीक से समझ लें, आत्मसात कर लें। पहली बात, पिता मर रहा है, लेकिन अपना स्मरण नहीं है उसे। मरते वक्त भी आदमी और का ही स्मरण करता रहता है। यह भी कैसा पागलपन है! जीवन गंवाते हम, मौत का अपूर्व क्षण भी गंवा देते हैं—दूसरे का ही स्मरण चल रहा है मरते क्षण भी, रो रहा है बेटे के लिए। अपने लिए कब रोओगे? मरते क्षण भी बेटे की याद कर रहा है, अपनी याद कब करोगे? जीवन भी गंवाया दूसरों की याद में, मरने की घड़ी भी होश नहीं आता! मौत जैसी पीड़ादायी घड़ी में भी तुम जागते नहीं! मौत का त्रिशल तुम्हारे प्राणों में छिदा जाता है, फिर भी तुम जागते नहीं, तुम्हारी नींद अदभुत है।
मरते समय आदमी अक्सर ही वही—वही याद करता—करता मरता है, जो जीवनभर किया, जो 'जीवनभर का सार—निचोड़ है। अनेक लोग सोचते हैं कि मरते समय प्रभु का स्मरण कर लेंगे। इतना आसान नहीं। अगर जीवन भर प्रभु का स्मरण किया हो, तो ही मरते समय स्मरण प्रभु का होगा। क्योंकि मृत्यु में तो वही सिकुड़कर बीज बन जाता है जो जीवनभर बोया है। मृत्यु तो तुम्हारे सारे जीवन की परीक्षा है, परीक्षा की घड़ी है। ऐसा थोड़े ही कि जीवनभर कुछ भी किया और मृत्यु के क्षण में प्रभु को स्मरण कर लिया। किसको धोखा दे रहे हो! मृत्यु तो सील—मोहर बंद कर देगी, तुमने जीवनभर जो किया है, उस पर पूरी सील—मोहर लगा देगी कि यह तुम्हारी कथा है। मृत्यु तो संक्षिप्त में, एक वक्तव्य में तुम्हारे जीवन को निचोड़ लेगी।
लेकिन लोभी आदमी सोचता है, कल। प्रभु का स्मरण करेंगे, जरूर करेंगे, कल। अभी तो घर है, द्वार है, बच्चे हैं, बेटे हैं, पत्नी है, दुकान है, बाजार है, अभी तो और हजार काम हैं। प्रभु को देख लेंगे आखिर में। तुम्हारी जीवन की फेहरिश्त में प्रभु का नाम अंत में लिखा है।
और जिसकी जीवन—फेहरिश्त पर प्रभु का नाम अंत में लिखा है, वह कभी स्मरण न कर सकेगा। वह जीवन की फेहरिश्त कभी पूरी ही नहीं होती। वह फेहरिश्त बढ़ती चली जाती है। वह बड़ी होती चली जाती है। एक में से दो चीजें, दो में से चार, चार में से दस, दस में से हजार निकलती आती हैं। हर रास्ते से दो नए रास्ते निकल आते हैं और हर शाखा दो शाखाओं में टूट जाती है और तुम दौड़ते चले जाते हो, दौड़ते चले जाते हो। जाल बड़ा होता चला जाता है। और जीवन की संपदा और शक्ति और ऊर्जा कम होती चली जाती है। और तुम सोचते हो, अंत में प्रभु का स्मरण कर लेंगे। या अपना स्मरण कर लेंगे। या अंत में कर लेंगे ध्यान।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि संन्यास तो लेना है, लेकिन अभी नहीं—। अभी तो बहुत कुछ जीवन में करने को पड़ा है। जैसे कि संन्यास तब लेना है जब जीवन में कुछ करने को न रह जाएगा। कभी ऐसा हुआ है? कभी किसी के जीवन में ऐसा हुआ है कि ऐसी घड़ी आ गयी हो कि अब करने को जीवन में कुछ भी नहीं रह गया? कभी ऐसा नहीं हुआ। जीवन ऐसा मौका ही नहीं देता। जीवन तो एक काम पूरा नहीं हुआ कि दस नए काम शुरू करवा देता है। एक वासना चुकने के करीब आती नहीं कि दस वासनाएं पैदा हो जाती हैं।
वासना बड़ी जन्मदात्री है। दस बच्चे पैदा कर जाती है। ध्यान बांझ है। विचार बांझ नहीं है। समाधि बांझ है, उसमें से फिर कुछ पैदा नहीं होता। लेकिन वासना बांझ नहीं है। वासना तो खूब पैदा करती है—एक वासना से दूसरी, दूसरी से तीसरी, चलता जाता है। श्रृंखला का कोई अंत नहीं।
ऐसा ही समझो कि तुमने एक कंकड़ झील में फेंका, शात झील, एक कंकड़ फेंका। जरा सी लहर उठती है, लेकिन एक लहर दूसरी लहर को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठाती है—एक छोटा सा कंकड़ मीलों लंबी झील पर लहरें उठा देता है। ऐसी वासना है। एक छोटा सा भाव वासना का और लहर ही लहर तुम्हारी चेतना की झील पर फैल जाती है। वासना उठानी तो बहुत आसान, हटानी बहुत कठिन। क्योंकि जब तुम उठाते हो तब छोटा सा कंकड़ काम दे देता है, लेकिन जब बिठाने चलोगे तो सारी झील! झील बडी है, सारी लहरों को बिठाना बहुत मुश्किल हो जाता है। और लोग सोचते हैं कि अंत में याद कर लेंगे। और इन्हीं लोगों ने इस तरह की कहानियां भी गढ रखी हैं कि अंत में याद करने से सब हो जाता है।
तुमने कहानी सुनी है न अजामिल की, कि अजामिल मरा। उसने कभी जीवन में परमात्मा का नाम न लिया, लेकिन उसके बेटे का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने बुलाया, नारायण! नारायण तू कहां  है? और ऊपर के नारायण समझे कि मुझे बुला रहा है। वह अपने बेटे को बुला रहा था, उसको ऊपर के नारायण से कुछ लेना—देना न था। मर गया नारायण को पुकारते और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए और वह स्वर्ग गया।
यह जिन ने कहानी गढ़ी है, इनसे सावधान रहना! इस तरह के लोगों से सावधान रहना! किसको तुम धोखा दे रहे हो? और अगर तुम्हारा परमात्मा इस तरह धोखे में आता है तो दो कौड़ी का परमात्मा है। इस तरह के परमात्मा का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी आत्मा जिस दशा में होगी, वही अंकित होगा अस्तित्व पर, उससे अन्यथा कुछ भी अंकित नहीं हो सकता।
तो यह दहर का बाप मर रहा था। बेटा भिक्षु हो गया है, तो भी इसे याद नहीं आती कि कुछ अपनी सोचे, कुछ अपनी सुध ले। बल्कि मरते वक्त आदमी और— और तीव्रता से दूसरी बातें— सोचने लगता है। यह भी एक तरकीब है, ताकि मौत दिखायी न पड़े। जैसे—जैसे मौत करीब आने लगती है आदमी की, वैसे—वैसे आदमी सब तरह से अपने को उलझा लेता है विचारों में, ताकि मौत दिखायी न पड़े। यह भी सांत्वना की तरकीब है। यह अपने को दूसरी दिशा में लगा लेने का उपाय है।
तो मरता था, बेटे को देखना चाहता था। मौत भी तुम्हें नहीं बताती कि सब संबंध टूट जाने वाले हैं, सब संबंध मनगढ़ंत हैं। कौन बेटा, कौन बाप! मौत आ गयी, तुम चलने को तैयार हो गए हो, फिर भी इस संसार में पैर रोपे रखना चाहते हो। मरता था बाप, बेटे को देखना चाहता था, लेकिन भिक्षु गया था गांव के बाहर, तो बाप रोता हुआ, अपने बेटे का नाम ले—लेकर मर गया। और सौ स्वर्णमुद्राएँ छोड़ गया। खुद भी जीवनभर धन इकट्ठा किया होगा और अब सब धन छूटा जा रहा है तो भी अभी उसे समझ में नहीं आया कि धन निर्मूल्य है। अभी वह धन छोड़ जाता है अपने बेटे के लिए।
अगर बाप में थोड़ी समझ हो तो बेटे के लिए बोध छोड़ जाएगा, धन क्या छोड़ जाना! धन में खुद अपना जीवन गंवाया और अब बेटे के लिए भी उपाय किए जा रहे हो! अगर बाप में थोडा बोध हो तो अपने जीवन की पूरी असली संपदा—असली संपदा यानी अनुभव की संपदा—कि धन व्यर्थ है, कि भोग व्यर्थ है, कि दौड व्यर्थ है, कि दौड़ा— धापी, आपाधापी, सब कुछ काम नहीं आती, मौत सब छीन लेती है, ऐसा सूत्र अपने बेटे को छोड़ जाएगा। मरते वक्त अगर बाप में थोड़ी भी समझ हो तो वह कह जाएगा कि मेरे बेटे को इतनी बात कह देना कि जो —जो मैंने किया, सब व्यर्थ गया, तू समय मत गंवाना, इसमें मत उलझना।
लेकिन कब बाप ऐसी समझ की बात कह पाते हैं! हालांकि हर बाप समझता है कि वह समझदार है। उम्र बढ़ने से कोई समझदार नहीं होता, का होने से कोई समझदार नहीं होता, समझदारी का बुढ़ापे से कुछ लेना—देना नहीं है। समझदारी कुछ और ही बात है। अनुभवों की बहुत बड़ी श्रृंखला से कोई समझदार नहीं होता, लेकिन अनुभवों के बीच में से सारसूत्र खोज लेने से कोई समझदार होता है।
तुमने एक बार क्रोध किया, तुमने दो बार क्रोध किया, तुमने हजार बार क्रोध किया, इससे थोड़े ही समझ बढ़ेगी। सच तो यह है कि तुमने हजार बार क्रोध किया, यह यही बताता है कि तुम्हारी समझ घटी, बढ़ी नहीं। समझदार होते तो एक बार क्रोध कर लेते और समझ जाते कि बात व्यर्थ है। दुबारा करने की क्या जरूरत पड़ती! दुबारा करना पड़ा, क्योंकि पहली बार समझ न आयी। तीसरी बार करना पड़ा, क्योंकि दूसरी बार समझ न आयी। लाख बार करना पड़ा। और जैसे—जैसे समझ न आयी वैसे —वैसे तुम्हारा क्रोध करने का अभ्यास बढ़तो गया। आखिर में तुम पाते हो, क्रोध तो बहुत किया, लेकिन समझे कुछ भी नहीं। लोभ तो बहुत किया, समझे कुछ भी नहीं। काम में बहुत तडूफे, लेकिन समझे कुछ भी नहीं।
तो उम्र को तुम समझदारी मत समझ लेना। उस भूल में मत पड़ना। इस संसार में लोग उस भूल में पड़ जाते हैं। लोग सोचते हैं कि उम्र बडी हो गयी तो समझदार हो गए। समझदारी अनुभव के प्रति जागने से पैदा होती है, मात्र अनुभव की राशि बड़ी होती चली जाए, इससे पैदा नहीं होती। जो तुम कर रहे हो, जो तुम्हारे जीवन में हो रहा है, उसे खूब बोधपूर्वक करो, उसे खूब समझकर करो, सब तरफ से परख करके करो। एक बार जो किया है, फिर उसका खूब विश्लेषण करो, निदान करो कि क्या मिला, क्या पाया, क्या हुआ? अगर कुछ न पाया हो, तो दुबारा थोड़ी सावधानी रखो। नहीं तो जाल अंधी आदत का बड़ा हो जाएगा।
मर रहा है बाप, सब संपत्ति छूटी जा रही है, मरते वक्त भी इस व्यर्थ की संपदा को बेटे के लिए छोड़ जाता है। तुमसे मैं कहूंगा, ऐसा मत करना। तुम्हारे भी बेटे होंगे, उनके लिए कुछ और बहुमूल्य छोड़ जाना, कोई और बड़ी वसीयत छोड़ जाना। कुछ दिनों बाद बेटा वापस लौटा—भिक्षु दहर गांव आया। तो उसके छोटे भाई ने रोकर समाचार कहा, उन स्वर्णमुद्राओं को दिया, लेकिन भिक्षु ने स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं।
यह बात भी अज्ञान की है। अगर स्वर्णमुद्राओं में कुछ भी नहीं है, तो फेंकने का इतना उत्साह क्या। इसलिए मैं कहता हूं कि घर छोड्कर भागना मत, क्योंकि घर छोड़ने का उत्साह यही बताता है कि तुम्हें अब भी घर में कुछ दिखायी पड़ता है। मैं तो कहता हूं घर में कुछ है ही नहीं, भागकर जाना कहा है? है ही नहीं वहां कुछ, हिमालय पर तुम हो ही, घर में सूना है, कुछ भी नहीं है वहां।
इसलिए मैं कहता हूं पत्नी को छोड्कर मत भाग जाना। पत्नी की मान्यता गिर जाए, बस काफी है। पत्नी के प्रति पत्नी— भाव गिर जाए, बस काफी है। पत्नी में भी परमात्मा दिखायी पड़ने लगे, बस काफी है। मेरा—तेरा गिर जाए, वही झूठ है। लेकिन वह झूठ तो नहीं छोड़ते। अगर तुम हिमालय भी भाग गए, तो भी तुम्हारी पत्नी तुम्हारी है, यह झूठ तो तुम्हारे साथ जाता है, पत्नी छोड़ जाते हो।
स्वामी राम के जीवन में एक उल्लेख है, वह अमरीका से लौटे हैं। सरदार पूर्णसिंह उनके शिष्य थे और उनके पास हिमालय में रहते थे। एक दिन उनकी पत्नी दूर पंजाब से मिलने आयी। पत्नी बड़ी गरीब हालत में थी। स्वामी राम छोड्कर घर भाग गए, पत्नी किसी तरह पाल रही थी बच्चों को, किसी तरह अपना जीवन चला रही थी। किसी तरह थोड़े पैसे इकट्ठे करके कि स्वामी राम वापस आए हैं, उनके दर्शन कर आए, वह हिमालय गयी।
स्वामी राम को पता चला तो उन्होंने सरदार पूर्णसिंह को कहा कि यह झंझट कहां से आ गयी। मैं इससे मिलना नहीं चाहता। तुम किसी तरह इसको टालो। सरदार पूर्णसिंह तो बहुत हैरान हुए, क्योंकि स्वामी राम ने कभी किसी से मिलने से इनकार नहीं किया। कोई भी आया, पुरुष हो कि स्त्री। इस स्त्री से मिलने के इनकार का तो मतलब ही यही होता है कि इसके प्रति अभी भी पत्नी— भाव है। और तो क्या अर्थ होता है! अगर पत्नी— भाव गिर गया तो यह भी वैसी स्त्री है जैसी और स्त्रियां हैं। जब किसी और से मिलने में कोई रुकावट नहीं, तो इससे मिलने में क्या रुकावट है? इस बिचारी का क्या कसूर है?
तो सरदार पूर्णसिंह ने कहा कि अगर आप इस स्त्री से नहीं मिलेंगे, तो मैं आपको छोड्कर जाता हूं। मेरी श्रद्धा डावाडोल हो गयी। क्योंकि आप तो कहते हैं कि सब छोड़ चुके, अगर छोड़ चुके तो यह भाव अब तक मन में क्यों है कि यह झंझट कहां से आ गयी? तो झंझट जरूर कहीं भीतर है।
स्वामी राम को भी समझ में आया—वह बड़े समझदार, बोधवान व्यक्ति थे। उनकी आंख से आंसू गिर गए और उन्होंने कहा, तुम ठीक कहते हो, थोड़ी झंझट मेरे भीतर थी। तुमने मुझे खूब ठीक समय पर चेताया। तुमने मुझे चेता दिया। उसे बुलाओ। वह आयी तो उसके पैर छुए। और उसी दिन उन्होंने संन्यासी का जो पुराना रूप—ढंग था, वह छोड़ दिया। क्योंकि उन्होंने कहा कि उसमें वह जो त्याग की अकड़ है, वही भ्रांत है।
तुम जानकर यह हैरान होओगे कि स्वामी राम गैरिक वस्त्रों में नहीं मरे। जब वह मरे तो वह साधारण वस्त्र पहने हुए थे। पर मैं तुमसे कहता हूं कि वह परम संन्यासी होकर मरे। उनको एक बात समझ में आ गयी कि यह भी अकड़ है मेरी कि मैं त्यागी, कि मैंने सब छोड़ दिया, इसमें भी भ्रांति है। छोड़ने को क्या है, पकड़ने को क्या है!
तो यह जो भिक्षु दहर ने स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं, यह तो लक्षण है इस बात का कि इसे स्वर्णमुद्राओं में अभी भी रस है। छिपा हुआ रस है, दबाया हुआ रस है, दमन किया हुआ रस है, अचेतन में दबा पड़ा है, ऊपर तो छोड़ दिया है, मगर भीतर है। तुम इस बात को जरा जांचना अपने जीवन में, तुम जिन चीजों से भागते हो, उनमें तुम्हारा रस होगा। अगर एक सुंदर स्त्री राह से गुजरती है, और तुम आंखें बचा लेते हो, आंख बचाने से क्या होगा? तुम्हारा आंख बचाना बता रहा है कि तुम्हारा सुंदर स्त्री में रसहै। अगर रस खतम हो गया है, तो आंख बचाने की झंझट भी क्या है? किससे आंख बचानी, क्यों बचानी! तुम ऐसे ही चलते रहोगे जैसे तुम चल रहे थे, एक सुंदर स्त्री निकली कि कुरूप स्त्री निकली, स्त्री निकली कि पुरुष निकला, कौन निकला, कौन नहीं निकला, तुम क्या हिसाब रखोगे!
लेकिन सुंदर स्त्री देखकर तुम आंख बचा लेते हो। क्यों? किससे आंख बचा रहे हो? सुंदर स्त्री से या अपनी अचेतन कामना से? अचेतन कामन: से अगर आंख बचा रहे हो, तो कब तक बचाओगे? वह अचेतन कामना बार —बार आएगी, बार—बार आएगी, इकट्ठी होकर और मजबूत होगी, और बलशाली हो जाएगी। नहीं, आंखें मत बचाओ। यह धोखा महंगा पड़ेगा। अगर स्त्री में रस है, तो समझने की कोशिश करो। फिर से समझने की कोशिश करो कि रस क्यों है? इस रस पर ध्यान को लगाओ, पहचानो कि रस क्यों हैं? और तुम्हारे ध्यान की गहराई बढ़ते —बढ़ते एक दिन तुम पाओगे—रस जा चुका। क्योंकि रस भ्रांति है। इसलिए जाएगा ही। रस तो अंधेरा जैसा है, रोशनी ले आओगे तो अंधेरा चला जाएगा। और जब रस चला जाएगा, तब तुम्हारे जीवन में एक क्रांति घटित होती है, तब तुम बाहर— भीतर एक जैसे होते हो, तब चेतन—अचेतन की सीमा टूट जाती है, तब तुम्हारा अंतःकरण एक होता है। और उस एकता में ही आनंद है। उस एकता में ही तुम्हारे सब खंड, तुम्हारी सब विक्षिप्तताएं गिर जाती हैं, तुम अखंड हो जाते हो। तुम अद्वैत को उपलब्ध हो जाते हो। उस स्थिति का नाम ही ब्रह्मभाव है।
इसने फेंक दीं स्वर्णमुद्राएं, नाराज हुआ और कहा कि तूने मुझे समझा क्या है? मैं त्यागी हूं स्वर्णमुद्राएं मुझे देता है, नासमझ! इनमें रखा क्या है, यह तो मिट्टी है।
मगर मिट्टी को तो इस भांति कोई फेंकता नहीं। या कि फेंकते हो? अगर मिट्टी मैं तुम्हारे हाथ में दे दूं तो तुम फेंकोगे? तुम शायद रख दोगे, तुम कहोगे, मिट्टी है। बात खतम हो गयी। फेंकने में तो जोश—खरोश है, फेंकने में तो उत्साह है, फेंकने में तो मजा है, फेंकना तो खबर दे रहा है कि तुम डर गए हो। जल्दी छूट जाओ, कहीं ज्यादा देर हाथ में रह गयीं स्वर्णमुद्राएं, तो कहीं ऐसा न हो कि मुट्ठी बंध जाए। इसके पहले कि मुट्ठी बंधे, फेंक दो। लेकिन मुट्ठी तो बंध ही गयी। तुम्हारे फेंकने में ही बंध गयी। इस भ्रांति को अपने जीवन में खयाल में रखना, यह सबकी भ्रांति है, इसलिए इस कहानी को मैं विश्लिष्ट कर रहा हूं ताकि तुम्हें समझ में आ जाए।
स्वाभाविक था कि वह भिक्षुओं से अपने त्याग की घमंडपूर्वक चर्चा करने लगा। वह कहने लगा, देखा, यूं फेंक दीं सौ स्वर्णमुद्राएं! जानते हो सौ स्वर्णमुद्राएं कितनी होती हैं? उस जमाने में सौ स्वर्णमुद्राएं बहुत थीं। पूरा जीवन आदमी मजे से रह सकता था। काफी थीं। तो वह चर्चा करने लगा। शायद धीरे — धीरे वह सौ की दो सौ बताने लगा हो, पांच सौ बताने लगा हो, हजार बताने लगा हो, कि देखा! क्योंकि ऐसे ही तो बढ़ता है आदमी। धीरे — धीरे झूठ बड़ा होता जाता है। अब तो फेंक ही चुका था, सौ थीं कि हजार, हिसाब भी भूल गया होगा, कहने लगा होगा—हजारों स्वर्णमुद्राएं फेंक दीं।
मैं एक सज्जन को जानता हूं जिन्होंने घर—द्वार छोड़ दिया। होमियोपैथी के डाक्टर थे। अब आप समझते हैं कि होमियोपैथी के डाक्टर की कोई खास कमाई तो होती नहीं। होमियोपैथी के डाक्टर की कमाई एलोपैथी के कंपाउंडर से कम होती है। कुछ चलती—वलती भी दुकान नहीं थी, उनको मैं भलीभांति जानता था। कोई दुकान चलती भी नहीं थी, ऐसे ही मक्खियां उड़ाया करते थे और अखबार पढ़ा करते थे। फिर पत्नी मर गयी, सो उन्होंने संन्यास ले लिया।
जब दो साल बाद मेरा उनसे मिलना हुआ तो वह किसी को कह रहे थे—वह तो मैं संयोग से पहुंच गया—किसी को कह रहे थे, कि देखा, मैंने लाखों पर लात मार दी। मैंने उनसे कहा कि महाराज, मैं आपको भलीभांति जानता था। उन्होंने न सोचा था कि मैं ऐसी बात बीच में उठा दूंगा। उनके शिष्य वगैरह बैठे थे और उन्होंने सोचा कि यह तो शिष्टाचारवश भी कोई नहीं कहेगा, इसलिए वे कह गए थे। अब कोई हिसाब से थोड़े ही कहा था, लाखों यानी कोई ऐसा थोड़े ही कि लाखों, थोड़े झिझके। मैंने कहा कि आप जरा ठीक से कहें, कितने रुपए पोस्ट आफिस में थे जब आपने छोड़े? क्योंकि मुझे पक्का पता है। अगर रुपए होते तो आप छोड़ते ही नहीं, यह भी मुझे पता है। कुछ था ही नहीं, छोड़ने का मजा ले लिया है। लाखों छोड़ दिए आप कहते हैं! लाखों होते तो आप बैठकर होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते? किसको दे आए लाखों? कहां हैं वह लाखों?
बहुत नाराज हो गए। गुस्से में आ गए। मैंने कहा कि गुस्से की कोई बात नहीं है, लेकिन कैसे आपने बढ़ा लिया यह? क्योंकि जहा तक मुझे खयाल है, तीन सौ चौदह रुपए आपके पोस्ट आफिस में जमा थे। क्योंकि मुझसे आपकी रोज बात होती रहती थी। और जब आपने देखा कि यह भी खतम होने के करीब आ रहे हैं, तो आपने यह त्याग ले लिया। और जहां तक मैं जानता हूं वह पोस्ट आफिस की किताब अब भी आप अपने साथ रखे होंगे, छोड़े कहां  हैं? वक्त—बेवक्त कब काम पड़ जाए!
और फिर मैंने कहा, समझ लो कि लाखों भी थे, तो आप कह रहे हैं कि लाखों पर लात मार दी, तो दो साल हो गए, अब तक इसकी बात क्यों कर रहे हैं? जब लात मार ही दी तो मार ही दी, बात खतम हो गयी। अब कोई लात मार दी तो वह दो साल तक गुणगान थोड़े ही करता रहता है। छोड़ो! लग गयी लात, बात खतम हो गयी। लगी कि नहीं लगी? लग नहीं पायी। एक तो थे ही नहीं, दूसरे लात भी नहीं लग पायी, किस झूठ में अपने को रचाए बैठे हो!
उस समय तो नाराज हो गए, लेकिन फिर सोचा होगा। ऐसे आदमी सरल हैं। रात मुझे फिर बुलाया, कहा, क्षमा करना। ठीक मुझे याद दिला दी, सच में कहां के लाख। और तीन सौ चौदह, तुमने भी हइ कर दी कि याद रखा! और कापी भी मेरे पास है, वह भी सच है। छोड़ा भी कुछ नहीं। पर मैं पहले हजारों कहता था, फिर कब लाखों हो गए, मुझे पता नहीं है।
ऐसा आदमी चलता है।
तो हो सकता है, वह दहर धीरे— धीरे कहने लगा हो, लाखों पर लात मार दी, हजारों पर लात मार दी। मगर भीतर जो रस था, वह पीछा तो छोड़ नहीं देगा। वासनाएं इतनी आसानी से तो छूटती नहीं। इतना सुगम और सस्ता अगर होता तो दुनिया में सभी लोग वासनामुक्त हो जाते।
तो धीरे — धीरे कुछ दिनों बाद वह उदास रहने लगा, क्योंकि बार—बार उन्हीं रुपयों की बात करता था। शायद चर्चा करता था जब दूसरों से, तब भी तो याद ही करने का एक ढंग था, वह भी तो एक याद करने का ढंग था। कहते—कहते कि कितना बड़ा त्याग किया, खुद को भी लगने लगा होगा कि काहे को किया इतना बड़ा त्याग! गांव—गांव जाकर भिक्षा मांगनी पड़ती है!
बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु बना दिया था। कारण से। हिंदू अमने संन्यासी को स्वामी कहते हैं। उसका भी कारण है। क्योंकि हिंदू कहते हैं, जो अपना मालिक हो गया, वह स्वामी। और बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा, वह भी कारण से। दूसरी तरफ से। जो संसार में है, जिसकी कोई पकड़ न रह गयी, जो संसार के सामने बिलकुल भिखारी हो गया, जिसका संसार में कुछ भी न रहा। और ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं—जिसका संसार में कुछ भी नहीं रह गया, जो संसार की दृष्टि से भिखारी हो गया, वही भीतर की दृष्टि से मालिक होता है।
तो हिंदुओं ने भीतर से पकड़ी बात, स्वामी कहा। बुद्ध ने बाहर से पकड़ी बात और भिक्षु कहा! लेकिन बुद्ध की बात ज्यादा उपयोगी है। पहले तो वही याद रखनी चाहिए, तभी भीतर का स्वामित्व पैदा होगा। पहले तो आदमी को संसार की दृष्टि में बिलकुल दीन हो जाना है। कुछ है ही नहीं, ऐसे दीन हो जाना है। त्याग' भी नहीं, कुछ भी नहीं, एक खाली, कोरी स्लेट जिस पर कुछ नहीं लिखा हुआ है। ऐसा भिक्षु का अर्थ है कि जिसने सब मान लिया कि यहां कुछ भी नहीं है, अपना क्या, अपनी मालकियत का उपाय कहां है?
तो सोचने लगा होगा कभी राह पर भीख मांगते। किसी द्वार पर भीख मांगता होगा, कोई कह देता होगा, आगे जाओ, तो याद आती होगी सौ स्वर्णमुद्राओं की। वह घाव बन गया। दो—दो पैसे मांगने पड़ते हैं, रोज रोटी मांगनी पड़ती है, तो सोचने लगा होगा—स्वाभाविक, तुम भी होते तो सोचने लगते—कि क्या रखा है इसमें! इससे तो बेहतर हुआ होता कि वे सौ स्वर्णमुद्राएं ले ली होतीं, मजा करते, अपने घर चांदर तानकर, ओढ़कर सोते, कुछ करने की जरूरत नहीं थी जिंदगीभर। अब यह रोज—रोज मांगना—बुढ़ापा भी करीब आ रहा होगा—फिर बुढ़ापे में भी मांगना पड़ेगा। कभी बीमार भी हो जाता है भिक्षु, मांगने नहीं भी जा सकता, तो भूखा भी रह जाना पड़ता है।
और बुद्ध कहते थे, कल के लिए इकट्ठा भी मत करना। आज जो मिल गया, भोजन कर लिया, अगर कुछ बच गया तो बांट देना। कल फिर माग लेना। रोज—रोज जीना, क्षण— क्षण जीना, कल का हिसाब मत रखना, भविष्य है कहां? भविष्य में तो सिर्फ मौत है। मौत तुम्हें खाली पाए। मौत जब आए तो तुम्हारे हाथ में कुछ भी न पाए, तो मौत तुमसे कुछ भी न छीन सकेगी। मौत जब आए, तुम्हें शन्यभाव में पाए, तो तुम अचानक हैरान हो जाओगे कि मौत आयी भी और तुम मरे भी नहीं और तुम्हारे भीतर कुछ अमृत स्वर बजने लगा।
अक्सर यही होता है कि मौत जब आती है तब हम चिंतित हो जाते हैं—मेरे मकान का क्या होगा? मेरे बेटे का क्या होगा? मेरी दुकान का क्या होगा? इसलिए हम चूक जाते हैं भीतर के अमृत को देखने में। हम उन्हीं चीजों में उलझ जाते हैं जो मौत हमसे छीन लेगी। यह पत्नी, ये बेटे, यह धन, यह दौलत, ये सब जा रहे हैं, हम इसी में उलझ जाते हैं। हम हिसाब लगाने लगते हैं कि जीवनभर गंवाया, इतना कमाया; मौत यूं लिए जा रही है!
वह जो क्षणभर का मौका मिलता है, जब मौत हमसे सब छीनती है, अगर उस वक्त हमारे पास कुछ भी न हो—मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम मकान में न रहो, दुकान में न रहो—अगर सिर्फ तुम्हारे पास यह साफ बोध हो कि अपना यहां कुछ भी नहीं है, खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है, मौत क्या खाक छीन लेगी! हमने कभी अपना कुछ बनाया ही नहीं तो मौत क्या छीन लेगी! हम अकेले आए, अकेले जाते, ऐसी भावदशा हो, तो जब मौत तुमसे छीनने की कोशिश करेगी, तब तुम्हारी सारी दृष्टि अपने भीतर के अमृत पर पड़ेगी।
मौत शरीर छीन लेगी, मौत और क्या छीन सकती है! लेकिन तुम शरीर तो नहीं हो। उस घड़ी अगर संसार का प्रपंच तुम्हारे मन में न रहा, मन शात रहा, तो तुम अमृत के दर्शन को उपलब्ध हो जाओगे। तो मौत फिर मोक्ष बन जाती है। जीने की भी एक कला है और मरने की भी एक कला है। न तो लोग जीते ठीक से, न लोग मरते ठीक से।
तो वह सोचने लगा कि दीन की भांति जीने से तो अच्छा था कि स्वर्णमुद्राएं ले लेता। फिर एक रात तो बात बहुत हो गयी, सो ही न सका होगा, सोचते—सोचते उसने तय ही कर लिया, सुबह अपने मित्रों को कहा कि आज तो जाकर भगवान के चरणों में निवेदन कर दूंगा कि सम्हालो अपना यह संन्यास, अब मैं तो चला, वे स्वर्णमुद्राएं मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। मैं सुख से जीयूंगा, हो गया अब बहुत। यह झंझट अपने से नहीं होती! फिर सार भी क्या है? पाया भी क्या?
मेरे पास लोग आ जाते हैं, कि संन्यास लिया था सालभर हो गया, अभी तक कुछ मिला नहीं। तो छोड दें संन्यास? मैं उनसे पूछता हू संसार में रहते जन्म—जन्म हो गए, कुछ न मिला, और संन्यास सालभर हुआ और कुछ न मिला और छोड़ने की तैयारी है, तो शायद लिया ही न होगा।
छोड़ते वही हैं जिन्होंने कभी लिया ही नहीं। जिसने लिया है, छोडने को है भी क्या! संसार में पकड़ने को बाकी क्या है? जिसने समझकर लिया कि संसार में कुछ भी नहीं है—अब संन्यास का और क्या मतलब होता है—संन्यास का इतना ही अर्थ होता है, संसार में कुछ भी नहीं है। अगर तुम कहते हो कि संन्यास छोड़ना है, तो इसका अर्थ हुआ कि संन्यास छोड़ना है अर्थात संसार में कुछ है, वापस जाते हैं। यह दहर भिक्षु वस्तुत: संन्यासी नहीं था। होता तो यह बात ही न उठती। होता तो दीनता पता ही न चलती। लेकिन ये सौ स्वर्णमुद्राओं ने सब डावाडोल कर दिया। छोटी—छोटी बातें दिक्कत में डाल देती हैं।
मेरे एक मित्र सामने बैठे हैं। संन्यासी थे, फिर कुछ छोटी सी बात के लिए छोड़ दिया। छोटी सी बात, सौ स्वर्णमुद्राओं की ही बात! अड़चन थी। संन्यासी रहकर शायद समाज में जो मिल सकता था, वह नहीं मिल रहा था। किसी कालेज के प्रिंसिपल हो सकते थे, वह नहीं हो पा रहे थे, असुविधा आ रही थी, छोड़ दिया। लेकिन प्रिंसिपल होकर क्या हो जाएगा? धन पा लोगे थोड़ा ज्यादा तो क्या हो जाएगा? ऐसे आदमी अपने को गंवाता है। और ध्यान रखना कि संन्यास कोई साल, दो साल, तीन साल का संबंध नहीं है, यह तो बोध है कि संसार में कुछ भी नहीं है। तो एक दफा जो संन्यास में उतरा सो उतरा, लौटने की कोई जगह नहीं है। पीछे जाएगा कहा? लौटने को कोई स्थान नहीं बचता।
तो उसकी तकलीफ तुम समझना, वह तकलीफ तुम्हारी भी है, बहुतो की है। आज तुमने संन्यास ले लिया है, कल तुम जिस दफ्तर में काम करते हो, अगर उन्होंने कहा कि देखो, अगर संन्यासी रहे तो पदोन्नति नहीं होगी। रहे आओ! क्लर्क हो तो क्लर्क ही रहोगे, हेडक्लर्क न हो पाओगे। शिक्षक हो तो शिक्षक रहोगे, हेडमास्टर न हो पाओगे। बाधा डालेंगे, अड़चन डालेंगे। मन कई बार होगा कि यह कहां  की झंझट में पड़ गए, छोड्कर हेडमास्टर ही हो जाते। लेकिन हेडमास्टर हो जाओगे, कि हेडक्लर्क हो जाओगे, पाओगे क्या? थोड़ी स्वर्णमुद्राएं और। मौत सब छीन लेगी, थोड़ी कि ज्यादा। कोई अंतर नहीं करेगी मौत।
तो उस आदमी की तकलीफ समझना, वह तुम्हारी भी तकलीफ है। भिक्षुओं ने बुद्ध को खबर दी। बुद्ध ने कहा, ऐसा होगा, यह निश्चित था। क्योंकि धन के त्याग में जो प्रशंसा लेना चाहता है, वह धन में अपने रस की घोषणा करता है। धन छोड़ने में प्रशंसा क्या है? तो जब इसने धन फेंका और कहा कि हटाओ, यह मिट्टी है और जब यह लोगों से कहने लगा कि देखो मैंने कैसा धन छोड़ दिया, कैसा महात्यागी हूं तभी से मैं सोच रहा हूं कि आज नहीं कल, यह भिक्षु संन्यास छोडने की तैयारी करेगा। भोगी और त्यागी में बहुत भेद नहीं। असली बात तो तब घटती है जब बोधपूर्वक तुम्हें दिखायी पड़ता है कि संसार खाली है, यहां कुछ भी नहीं है। तब न तो छोड़ना है, न पकड़ना है। तब एक नया ढंग है जीवन का, होने की एक नयी शैली है।
फिर उन्होंने दहर को बुलाकर कहा, पागल, इतनी सी स्वर्णमुद्राओं से क्या होगा? सौ स्वर्णमुद्राएं, चलो, ठीक, लेकिन इससे क्या होगा! इससे तेरी तृष्णा तृप्त होगी? सौ मिल जाने पर तू और न मांगेगा? जब एक—एक स्वर्णमुद्रा खतम होने लगेगी खर्च से, तो तेरे मन में पीड़ा न आएगी कि अब थोड़ा कमाकर सौ तो कम से कम पूरी रखूं र नहीं तो ऐसे तो धीरे — धीरे सब खतम हो जाएगा, एक दिन फिर तू भिखारी का भिखारी हो जाएगा। और वह भिखारी भिखारीपन होगा, और यह भिक्षुपन भिक्षुपन है। इन दोनों में फर्क है। भिखारी और भिक्षु में फर्क है। भिखारी वह है, जिससे धन छिन गया। और भिक्षु वह है, जिसने धन की व्यर्थता जानकर छोड़ दिया। तो भिखारी दीन है, भिक्षु दीन नहीं है। भिखारी रो रहा है, भिक्षु प्रसन्न है। भिखारी अपमानजनक शब्द है, भिक्षु सम्मानजनक शब्द है।
इसलिए हमने बुद्ध को भिक्षु कहा, महावीर को भिक्षु कहा, हमने बड़ा सम्मान दिया। सम्राटों से ज्यादा सम्मान हमने भिक्षुओं को दिया।
दुनिया की और किसी भाषा में भिखारी के लिए दो शब्द नहीं हैं, सिर्फ भारत की भाषा में हैं। क्योंकि दुनिया ने कभी बुद्ध जैसा भिक्षु जाना ही नहीं। दूसरे मुल्कों ने ऐसा भिक्षु जाना ही नहीं। उन्होंने तो भिखारी जाने हैं। बड़ी कठिनाई होती है। पश्चिम की भाषाओं में जब अनुवाद करते हैं लोग बुद्ध का साहित्य, तो उनको बड़ी कठिनाई होती है कि भिक्षु को क्या कहें, कौर कहें? यह बात जंचती नहीं। भिखारी कहें! यह बात तो जंचती नहीं। यह तो बात, यह भिखारी है ही नहीं आदमी, यह तो मालिक है। इससे बड़ा मालिक और कौन होगा? यह तो सम्राट है। यह तो शहंशाहों का शहंशाह है। चक्रवर्ती इसके पैरों में सिर झुकाते हैं, इसको भिखारी कहें? नहीं, भिखारी—तो नहीं कह सकते हैं। फिर इसको कहें— क्‍या? कोई दूसरा शब्द नहीं है। भिक्षु बड़ा अदभुत शब्द है।
दोनों का शाब्दिक अर्थ तो एक ही है, लेकिन अस्तित्वगत अर्थ बड़ा भिन्न है। कहा भिखारी, कहां भिक्षु! भिखारी वह है, जिसका सब खो गया, रो रहा है, उदास, खिन्नमना। भिक्षु वह है, जिसने देखकर कि सब व्यर्थ है, अपने हाथ हटा लिए। आनंदित है कि झंझट, व्यर्थ का उपद्रव, व्यर्थ का प्रपंच—जाग गया, प्रभु की अनुकंपा।
तो कहा, इन सौ स्वर्णमुद्राओं से तेरी तृष्णा मिट जाएगी? तृष्णा तृप्त होगी? तृष्णा तो कभी तृप्त होती नहीं। तृष्णा दुष्‍पुर है। उसे कभी कोई भर नहीं पाया। सौ स्वर्णमुद्राओं से तू सोचता है भर जाएगी? तो मेरी तरफ देख, बुद्ध ने कहा होगा, मेरे पास तो अरबों—खरबों स्वर्णमुद्राएं थीं। तो मैंने गलती की छोड्कर? मेरे पास तो बहुत था, पर दिखा कि उतने से भी भरेगा नहीं मन। तो तू सौ स्वर्णमुद्राओं से भर लेगा! यह तेरे मन की प्यास इतनी बड़ी है और यह तू सौ बूंदों से भर लेगा! सागर छोड्कर मैं आ रहा हूं, मैं तुझसे कहता हूं कि सागर से भी नहीं भरती। यह भरती ही नहीं, यह दुयूर है। क्योंकि मन में कोई पेंदी नहीं है। कितना ही डालते चले जाओ, सब गिरता चला जाता है। मन खाली का खाली रहता है। ही, इतना हो सकता है कि ये थोड़ी सी स्वर्णमुद्राएं तेरी अग्नि में और घी का काम कर दें, और उसे प्रज्वलित कर दें। फिर तेरी मर्जी।
तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
'यदि स्वर्ण की वर्षा हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती।'

            न कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति।

सौ से तो क्या होगा, अगर वर्षा भी हो जाए, वर्षा ही होती रहे स्वर्णमुद्राओं की तेरे घर पर, तो भी तेरी तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि मैं ऐसे ही घर से आता हूं जहा स्वर्ण की वर्षा ही हो रही थी। मेरी तरफ देख, बुद्ध ने कहा।
'सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं। '
स्वाद है काम में, कामना में, वासना में, लेकिन अल्पस्वाद है। जब जीभ पर रखते हो तभी क्षणभर को लगता है, मीठा, और फिर तत्सण कडुवा हो जाता है। वह मीठा बहाना है।
तुमने देखा न, डाक्टर गोलियां देता है, कड्वी गोलियां, उनके ऊपर शक्कर की थोड़ी सी पर्त चढ़ी होती है, शक्कर का कोट चढ़ा होता है। उस शक्कर के कोट की वजह से तुम गटक जाते हो। जरा मुंह में रखकर देखना, थोड़ी देर रखे रहना, शक्कर का कोट गल जाने देना, तब तुम्हारा मुंह एकदम कडुवेपन से भर जाएगा। ऐसा ही है, जिसको तुम सुख कहते हो, वह शक्कर की पर्त है। जहर पी रहे हो सुख के नाम से। अल्पस्वाद!

            अप्पस्सादा दुखाकामा इति विज्जाय पंडितो।

और पंडित, बुद्ध कहते हैं, वही है—वह नहीं जिसको बहुत शास्त्रों का ज्ञान है—पंडित वही है, जो इस बात को जानता है कि सभी काम अल्पस्वाद हैं और दुखदायी हैं, अंततः दुखदायी हैं।
क्या तुमने भी ऐसा जीवन में नहीं पाया? जहां —जहां सुख पाया, वहीं—वहीं दुख नहीं पाया? जिस—जिस से सुख की आशा बांधी, उसी—उसी से दुख नहीं मिला? जहा सुख की आशा ने पैर जमाए, वहीं तुमने दुख का नर्क नहीं पाया? अपने भीतर ही तलाशो, क्योंकि ये जो बुद्ध के वचन हैं, ये कोई तर्क, सिद्धात और शास्त्र की बात नहीं है, यह तो जीवन का शुद्ध अनुभव है। बुद्ध तो बड़े वैज्ञानिक हैं, वह तो उतना ही कहते हैं जितना जीवन का अनुभव है। तुम भी पाओगे, तुम भी अपने अनुभव से गवाही दे सकोगे कि बुद्ध ठीक कहते हैं।
'ऐसा जानकर पंडित देवलोकों के भोगों में भी रति नहीं करता है।'
इस संसार का सुख तो व्यर्थ है ही, बुद्ध कहते हैं, स्वर्ग का सुख भी व्यर्थ है। क्योंकि वह बहुत काल तक चलता है, लेकिन फिर एक दिन चुक ही जाता है। और जब सुख चुकता है तो आदमी पुन: दुख में गिर जाता है। कुछ ऐसा सुख खोज, जो फिर कभी चुके न। कुछ ऐसा सुख खोज कि जो सिर्फ शक्कर की पर्त न हो। कुछ ऐसा सुख खोज जिसमें जहर हो ही न, अमृत हो, कुछ ऐसा सुख खोज। उसी सुख की खोज धर्म है।
'और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।'
इसलिए जो बुद्धपुरुषों के सत्संग में पड़ा है, सम्यक संबुद्ध का श्रावक, जिसने बुद्धपुरुष की वाणी सुनी है, जिसके कानों में बुद्ध की वाणी का अमृत पड़ा है, वह तृष्णा का क्षय करने में लगता है, पागल! सौ स्वर्णमुद्राओं से कुछ भी न होगा।

            न कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विज्जति।

हो जाए वर्षा स्वर्ण की तो भी कुछ नहीं।

            अप्पस्सादा दुखाकामा इति विज्जाय पंडितो।

पंडित यहां की तो बात ही छोड़, स्वर्ग का सुख भी नहीं मांगता है। तू मूढ़ मत बन। पंडित शब्द आता है प्रज्ञा से। जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हो गयी, वही पंडित।

            अपि दिबेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।
            तण्हक्सयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको ।।

और तू तो बुद्ध का श्रावक, बुद्ध को सुनने वाला, बुद्ध को छोड्कर सौ स्वर्णमुद्राओं को चुनने जा रहा है, पागल! अमृत को छोड्कर जहर की तरफ लुभा रहा है, पागल!
            एक स्‍वर पास आता रहा रात भर
            दूर मन—प्राण जाता रहा रात भर
            गीत कोई कहीं गुनगुनाता रहा
            मैं घरौंदे बनाता रहा रात भर
            माधवी की मधुर गंध आती रही
            उस सनातन तृषा को जगाती रही
            चांदनी शौक सांकल हिला देह की
            क्षण यहां क्षण वहां मुस्कुराती रही
            और रूठी हुई फूल की स्वामिनी को
            बियाबा मनाता रहा रात भर
            गीत कोई कहीं गुनगुनाता रहा
            मैं घरौंदे बनाता रहा रात भर
            चांद की हाट सजती—सवरती रही
            एक तस्वीर बनती—बिगड़ती रही
            कुछ उमडता—घुमड़ता रहा प्राण में
            लोचनों में सुई एक गड़ती रही
            एक अंधे कुएं में पडा चंद्रमा
            राह अपनी न पाता रहा रात भर
            गीत कोई कहीं गुनगुनाता रहा
            मैं घरौंदे बनाता रहा रात भर
            कुछ कहे— अनकहे एक वचन के लिए
            कुछ गढ़े— अनगढ़े एक सपन के लिए
            स्नेह के सिर्फ दो —चार कण के लिए
            सिर्फ अपनत्व की एक छुअन के लिए
            एक संभावना की किरण देखकर
            कश्तियां मैं बहाता रहा रात भर
            गीत कोई कहीं गुनगुनाता रहा
            मैं घरौंदे बनाता रहा रात भर
            बारजे पर खड़ी उमर ढलती रही
            हर घड़ी सामने से निकलती रही
            आंख फाड़े निहारा करी कामना
            जंगलों में कहीं रेल चलती रही
            बस हवा चीखती जंगलों में रही
            बस दीया टिमटिमाता रहा रात भर
            एक संभावना की किरण देखकर
            कश्तियां मैं बहाता रहा रात भर
            गीत कोई कहीं गुनगुनाता रहा
            मैं घरौंदे बनाता रहा रात भर
ऐसा ही है हमारा जीवन। मिट्टी के घर, बालू के घर। ऐसा ही है हमारा जीवन, कागज की कश्तिया तैराते, सपनों के जाल बुनते। और अपने ही बुने जालों में भटक जाते।

ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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