दिनांक 17 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
योग सूत्र: (साधनापाद)
योग सूत्र: (साधनापाद)
क्लेशमल:
कर्माशयो
दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय:।।
12।।
चाहे
वर्तमान में
पूरे हों या
कि भविष्य में,
कर्मगत
अनुभवों की जड़ें
होती हैं पाँच
क्लेशों में।
सति
मूले
तद्विपाको
जात्यायुर्भोग:।।
13।।
जब तक
जड़ें बनी
रहती है, पुनर्जन्म
से कर्म की
पूर्ति होती
है—
गुणवत्ता, जीवन का
विस्तार और
अनुभवों के
ढंग द्वारा।
ते
ह्लादपारिताफला:
पुण्यापुण्यहेतुत्वात्।।
14।।
पुण्य
लाता है सुख:
अपुण्य लाता
है दुःख।
मनुष्य
वर्तमान में
रहता दिखाई
पड़ता है, लेकिन वह
बात केवल एक
प्रतीति ही है।
मनुष्य जीता
है अतीत में।
वर्तमान में
से वह गुजरता
है, लेकिन
वह बद्धमूल
रहता है अतीत
में। वर्तमान
वास्तविक समय
नहीं है
सामान्य चेतना
के लिए।
सामान्य
चेतना के लिए
तो अतीत है
वास्तविक समय,
वर्तमान तो
केवल एक
रास्ता है
अतीत से
भविष्य तक
जाने तक का, मात्र एक क्षणिक
मार्ग। अतीत
वास्तविक हो
जाता है और
भविष्य भी, लेकिन
वर्तमान
अवास्तविक
होता है
सामान्य चेतना
के लिए।
भविष्य और कुछ
नहीं है सिवाय
अतीत के फैलाव
के। भविष्य
कुछ नहीं है
सिवाय अतीत के
फिर —फिर
प्रक्षेपित
होने के।
वर्तमान
का अस्तित्व
नहीं जान पड़ता
है यदि तुम
सोचते हो
वर्तमान के
बारे में, तो तुम
उसे पाओगे ही
नहीं बिलकुल।
क्योंकि जिस
क्षण तुम पाते
हो उसे, वह
पहले से ही
गुजर गया होता
है। जब तुमने
पाया नहीं था
उसे, तो
जरा उससे एक
क्षण पहले ही,
वह चला गया
भविष्य में।
बुद्ध की
चेतना के लिए,
जागे हुए
व्यक्ति के लिए
वर्तमान का
अस्तित्व
होता है।
सामान्य
चेतना के लिए,
न जागे हुए,
निद्राचारी
जैसे सोए हुए
के लिए अतीत
और भविष्य
सत्य होते हैं,
वर्तमान
असत्य होता है।
जब कोई जाग
जाता है तो
वर्तमान ही
सत्य होता है;
अतीत और
भविष्य दोनों
असत्य बन जाते
हैं।
ऐसा
क्यों होता है? तुम
क्यों जीते हो
अतीत में?—क्योंकि
मन और कुछ
नहीं है सिवाय
अतीत के संग्रह
के। मन स्मृति
है : वह सब जो
तुमने किया है,
वह सब जिसका
स्वप्न
तुमने देखा है,
वह सब जो
तुम करना
चाहते थे और
कर न सके, वह
सब जिसकी
तुमने कल्पना
की अतीत में —वह
सब तुम्हारा
मन है। मन एक
मृत तत्व है।
यदि तुम देखते
हो मन के
द्वारा, तो
तुम कभी न
पाओगे
वर्तमान को, क्योंकि
वर्तमान है
जीवन, और
जीवन तक कभी
नहीं पहुंचा
जा सकता है
मृत माध्यम के
द्वारा। जीवन
तक कभी नहीं
पहुंचा जा
सकता है मरे
हुए साधनों
द्वारा। जीवन
को नहीं छुआ
जा सकता है
मृत्यु
द्वारा।
मन मरी
हुई चीज है।
मन है दर्पण
पर एकत्रित
हुई धूल की
भांति ही।
जितनी ज्यादा
धूल इकट्ठी
होती है, उतना ही
दर्पण दर्पण
जैसा कम होता
है। और यदि
धूल की पर्त
बहुत मोटी
होती है जैसी
कि वह तुम पर
जमी है, तब
दर्पण में
प्रतिबिंब
बिलकुल ही
नहीं पड़ता।
हर कोई
इकट्ठी कर
लेता है धूल।
न केवल तुम
उसे इकट्ठा
करते, तुम
चिपकते भी हो
उससे, तुम
सोचते हो कि
वह कोई खजाना
है। अतीत जा
चुका होता है;
तो क्यों
तुम चिपकते हो
उससे? तुम
कुछ नहीं कर
सकते उस बारे
में। तुम पीछे
नहीं लौट सकते।
तुम उसे
अनकिया नहीं
कर सकते।
क्यों चिपकते
हो तुम उससे? वह कोई
खजाना नहीं है।
और यदि तुम
चिपकते हो
अतीत से और
तुम सोचते हो कि
वह खजाना है, तो
निस्संदेह
तुम्हारा मन
उसे फिर —फिर
जीना चाहेगा
भविष्य में।
भविष्य औr कुछ
नहीं हो सकता
है सिवाय
तुम्हारे
परिवर्तित
अतीत के —जो
थोड़ा
परिष्कृत
होता है, थोड़ा
ज्यादा सजा —संवत
हुआ होता है।
लेकिन वह वही
होगा क्योंकि
मन अज्ञात के
बारे में सोच
ही नहीं सकता;
मन
प्रक्षेपित
कर सकता है
केवल ज्ञात को
ही, उसे
जिसे तुम
जानते हो।
तुम
प्रेम में पड़
जाते किसी
स्त्री के और
वह स्त्री मर
जाती है, अब तुम्हें
कैसे मिलेगी
कोई दूसरी
स्त्री? वह
दूसरी स्त्री
तुम्हारी मृत
पत्नी का ही
एक परिवर्तित
रूप होगी, वही
एकमात्र ढंग
है जिसे कि
तुम जानते हो।
भविष्य में जो
कुछ भी तुम
करो और कुछ
नहीं होगा
सिवाय अतीत की
पुनरावृत्ति
के। तुम थोड़ा
बदल सकते हो —एक
टुकड़ा यहां, एक टुकड़ा
वहा, लेकिन
मुख्य बात वही
रहेगी, एकदम
वही। जब
मुल्ला नसरुद्दीन
पड़ा था अपनी
मृत्यु शय्या
पर, किसी
ने पूछा उससे,
'यदि
तुम्हें फिर
से जीवन दे
दिया जाए तो
कैसे तुम
जीयोगे उसे, नसरुद्दीन?
क्या तुम
कोई परिवर्तन
करोगे?' नसरुद्दीन
ने सोच —विचार
किया, आंखें
बंद करके
सोचता रहा, ध्यान किया,
फिर खोली
अपनी आंखें और
बोला, 'ही, यदि मुझे
फिर जीवन दिया
जाए, तो
मैं अपने
बालों के बीच
में से
निकालूंगा मांग।
सदा वही रही
है मेरी इच्छा,
लेकिन मेरे
पिता सदा जोर
देते रहे कि
मैं ऐसा न
करूं। और जब
मेरे पिता मरे,
तो बाल एक
ही दिशा में
इतने जम गए थे
कि उनके बीच
से मांग
निकाली न जा
सकती थी।’
हंसों
मत। यदि तुम
सें पूछा जाए
कि तुम फिर से
क्या करोगे
तुम्हारे
जीवन में तो
तुम थोड़े —बहुत
परिवर्तन कर
लोगे बिलकुल
इसी तरह के
पति होगा तो
जरा —सी अलग
नाक वाला, पत्नी
होगी तो थोड़े
से अलग रूप —रंग
की; थोड़ा
बड़ा या थोड़ा
छोटा घर होगा;
लेकिन वे
तुम्हारे
बालों की मांग
बीच में से निकालने
से ज्यादा बड़ी
बातें नहीं
हैं — क्षुद्र,
हल्की, महत्वपूर्ण
नहीं।
तुम्हारा
मौलिक जीवन
वैसा ही बना
रहेगा।
मैं
झाकता हूं
तुम्हारी आंखों
में और मैं
देखता हूं यही।
तुमने ऐसा
किया है बहुत—बहुत
बार, तुम्हारा
मूलभूत जीवन
वैसा ही बना
रहा है। बहुत
बार तुम्हें
मिले हैं जीवन,
तुम जीए हो
बहुत बार; तुम
वहुत ज्यादा
प्राचीन हो।
तुम नए नहीं
इस पृथ्वी पर,
तुम पृथ्वी
से ज्यादा
पुराने हो, क्योंकि तुम
दूसरी
पृथ्यियों पर
भी, दूसरे
ग्रहों पर भी
जीए हो। तुम
उतने ही पुराने
हो जितना
अस्तित्व।
ऐसी ही है यह
बात, क्योंकि
तुम उसके
हिस्से हो।
तुम बहुत
पुराने हो, लेकिन फिर —फिर
वही ढाचा
दोहराए जा रहे
हो।
इसलिए
हिंदू इसे
कहते —चक्र, जीवन और
मृत्यु का, 'चक्र' क्योंकि
यह स्वयं को
दोहराए चला
जाता है। यह
एक दोहराव है :
चक्र के वही
आरे ऊपर आते
और नीचे जाते,
नीचे जाते
और ऊपर आते।
मन स्वयं का
प्रक्षेपण
करता है। मन
अतीत है, इसलिए
तुम्हारा
भविष्य, अतीत
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
होने वाला।
और
अतीत क्या है? क्या
किया है तुमने
अतीत में? जो
कुछ भी तुमने
किया है —अच्छा,
बुरा, ऐसा,
वैसा—जों
तुम करते हो
वह अपनी
पुनरावृत्ति
बना लेता है, यही है कर्म
का सिद्धांत।
यदि तुम कल से
एक दिन पहले
क्रोधित हुए
थे, तो
तुमने एक
निश्चित
क्षमता क्रोध
के लिए निर्मित
कर ली—कल फिर
से क्रोधित
होने की। तो
तुमने दोहरा
दिया उसे, तुम
ज्यादा ऊर्जा
दे देते हो
क्रोध को, क्रोध
की भावदशा को,
तुमने उसे
और बद्धमूल कर
दिया, तुमने
उसे सींच दिया।
अब आज तुम फिर दोहराओगे
उसे ज्यादा
शक्ति के साथ।
तब कल तुम फिर
शिकार हो
जाओगे आज के।
प्रत्येक
कार्य जिसे
तुम करते हो
या जिसके बारे
में सोचते भी
हो, उसके
अपने ढंग होते
हैं, फिर—फिर
आ बनने के, क्योंकि
वह एक मार्ग
निर्मित कर
देता है
तुम्हारे
अंतस में। वह
तुमसे ऊर्जा
को सोखने लगता
है। तुम
क्रोधित हो
जाते हो, फिर
वह भावदशा चली
जाती है और
तुम सोचते हो
कि तुम अब
क्रोधित नहीं
रहे; तब
तुम सार को
चूक जाते हो।
जब भावदशा जा
चुकी होती है
तो कुछ नहीं
घटा होता; केवल
चक्र घूम गया
होता है और
चक्र का जो
आरा ऊपर था, नीचे चला
गया होता है।
कुछ क्षण पहले
क्रोध मौजूद
था सतह पर, क्रोध
अब नीचे चला
गया अचेतन में,
तुम्हारी
अंतस सत्ता की
गहराई में। वह
उसका समय फिर
से आने की
प्रतीक्षा
करेगा। यदि
तुम उसके
अनुसार चलते
हो, तो तुम
उसे सहारा दे
मजबूत कर देते
हो, तब
तुमने फिर
उसके जीवन के
लिए नाम और
समय लिख दिया
होता है। तुम
उसे फिर शक्ति
दे देते हो, ऊर्जा दे
देते हो। वह
स्पंदित हो
रहा है, मिट्टी
के नीचे पड़े
बीज की भांति
प्रतीक्षा कर
रहा है सही
अवसर और मौसम
की, जब वह
प्रस्फुटित
होगा।
हर
कार्य स्व—सातत्य
पाने वाला
होता है, हर विचार
स्व —सातत्यवान
है। यदि एक
बार तुम उसे
सहयोग देते हो,
तो तुम उसे
ऊर्जा दे रहे
होते हो। देर —
अबेर वह बात
एक आदत का रूप
ले लेगी। तुम
करोगे उसे और
तुम कर्ता न
रहोगे, तुम
करोगे उसे
केवल आदत के
जोर के कारण
ही। लोग कहते
हैं कि आदत
द्वितीय
स्वभाव होती
है। यह कोई
अतिशयोक्ति
नहीं। इसके
विपरीत यह एक
न्यूनोक्ति
है। वस्तुत:
आदत अंत में
बन जाती है
पहला स्वभाव,
और स्वभाव
हो जाता है
दूसरे नंबर की
बात। स्वभाव
बन जाता है
किताब के
परिशिष्ट की
भांति या किसी
किताब की
टिप्पणियों
की भांति, और
आदत बन जाती.
है मुख्य भाग,
किताब का
मुख्य अंग।
तुम
जीते हो आदत
के द्वारा, उसका
अर्थ होता है
कि आदत मूल
रूप से
तुम्हारे
द्वारा जीती
है। आदत स्वयं
बनी रहती है, उसकी अपनी
ही ऊर्जा होती
है।
निस्संदेह वह
ऊर्जा लेती है
तुमसे, लेकिन
तुमने सहयोग
दिया होता है
अतीत में, तुम
सहयोग दे रहे
होते हो
वर्तमान में।
धीरे — धीरे
आदत मालिक बन
जाती है और
तुम केवल एक
नौकर बने
रहोगे, एक
छाया। आदत
देगी निश्चित
आदेश, आशा
देगी, और
तुम रहोगे
मात्र एक
आज्ञाकारी
नौकर।
तुम्हें
अनुसरण करना
होगा उसका।
ऐसा
हुआ कि एक
हिंदू रहस्यवादी
संत, एकनाथ
जा रहे थे
तीर्थयात्रा
को।
तीर्थयात्रा
चलने वाली थी
कम से कम एक
वर्ष तक, क्योंकि
उन्हें दर्शन
करना था देश
के सारे पवित्र
स्थलों का।
निस्संदेह
एकनाथ के संग
होना एक
सौभाग्य था, तो बहुत
सारे लोग, हजारों
लोग, यात्रा
कर रहे थे
उनके साथ। शहर
का चोर भी आया
और बोला, 'मैं
जानता हूं कि
मैं एक चोर
हूं और आपके
धार्मिक दल का
सदस्य होने के
योग्य नहीं
हूं लेकिन
मुझे भी अवसर
दें। मैं चलना
चाहूंगा
तीर्थयात्रा
के लिए।’ एकनाथ
ने कहा, 'यह
बात कठिन होगी,
क्योंकि एक
वर्ष कुछ लंबा
समय है और हो
सकता है तुम
लोगों की
चीजें चुराने
लगो। तुम
मुसीबत खड़ी कर
सकते हो। तो
कृपया छोड़ दो
ऐसा खयाल।’ लेकिन उस
चोर ने तो
बहुत आग्रह
किया। वह बोला,
'एक साल के
लिए मैं छोड़
दूंगा चोरी, लेकिन मुझे
चलना तो जरूर
है। और मैं
वादा करता हूं
आपसे कि एक
साल तक मैं किसी
की एक भी चीज
नहीं
चुराऊंगा।’ एकनाथ ने
मान ली बात।
लेकिन
एक हफ्ते के
भीतर ही तकलीफ
शुरू हो गई और
तकलीफ यह थी.
लोगों की
चीजें गायब होने
लगीं। और
ज्यादा ही
रहस्यमयी बात
थी—क्योकि कोई
चुरा नहीं रहा
था उन्हें—चीजें
गायब हो जातीं
किसी के झोले
से और कुछ
दिनों बाद वे
मिल जातीं
किसी और के झोले
में। जिस आदमी
के झोले में
वे मिलती वह
कहता, 'मैंने
कुछ नहीं किया
है। मैं सचमुच
ही नहीं जानता
कि ये चीजें
कैसे आ गई हैं
मेरे झोले
में!' एकनाथ
को शक हुआ, इसलिए
एक रात
उन्होंने
दिखावा किया
कि वे सोए हुए
हैं लेकिन वे
जागे हुए थे, वे निगरानी
करते थे। चोर
आया करीब आधी
रात को, मध्यरात्रि
में, और वह
एक व्यक्ति की
पेटी से दूसरे
व्यक्ति की
पेटी में
चीजें रखने
लगा। एकनाथ ने
उसे रंगे
हाथों पकड़
लिया और बोले,
'क्या कर
रहे हो तुम? और तुमने तो
वादा किया था।’
वह चोर बोला,
'मैं अपने
वादे के
अनुसार चल रहा
हूं। मैंने एक
भी चीज नहीं
चुराई है
लेकिन यह मेरी
पुरानी आदत है।
आधी रात को
यदि मैं कोई
खुराफात नहीं
करता, तो
असंभव होता है
मेरे लिए सोना।
और एक साल तक न
सोऊ? आप तो
करुणामय हैं।
आपको तो मुझ
पर करुणा होनी
चाहिए। और मैं
चुरा नहीं रहा
हूं; चीजें
तो फिर से मिल
जाती हैं। वे
कहीं जाती तो
नहीं, केवल
एक व्यक्ति से
दूसरे
व्यक्ति तक
पहुंच जाती
हैं। और इसके
अलावा यह भी
कि एक साल बाद
मुझे चोरी करनी
होगी तो यह एक
अच्छा खासा
अभ्यास भी
रहेगा।’
आदत
तुम्हें कुछ
चीजें करने को
मजबूर कर देती
है : तुम उसके
शिकार हो जाते
हो। हिंदू इसे
कहते हैं —कर्म
का सिद्धांत :
हर वह कार्य
जिसे तुम
दोहराते हो, या कि हर
एक विचार—क्योंकि
विचार भी मन
का एक सूक्ष्म
कर्म होता है —और
ज्यादा मजबूत
हो जाता है।
तब तुम उसकी
पकड़ में होते
हो। तब तुम
कैद हो जाते
हो आदत में।
तब तुम एक
कैदी का, एक
गुलाम का जीवन
जीते हो। और
कारा बड़ी
सूक्ष्म होती
है, वह
तुम्हारी
आदतों की और
संस्कारबद्धताओं
की और कर्मों
की होती है
जिन्हें कि
तुम करते हो।
वह तुम्हारे
शरीर के चारों
ओर बनी रहती
है। और तुम
उसमें उलझे
रहते हो।
लेकिन तुम
सोचते जाते हो
और स्वयं को
धोखा देते
जाते हो कि
तुम कर रहे हो
ऐसा।
जब तुम
क्रोधित होते
तो तुम सोचते
हो कि तुम कर
रहे हो यह बात।
तुम उसका तर्क
बैठाते और तुम
कहते कि
स्थिति की
मांग ही ऐसी
थी मुझे क्रोध
करना ही था, वरना तो
बच्चा भटक
जाएगा; यदि
मैं क्रोध
नहीं करता तो
चीजें गलत हो
जातीं, तो
आफिस अस्त —व्यस्त
हो जाता, तो
फिर नौकर
सुनते ही नहीं।
मुझे क्रोध
करना ही था
चीजों को
संभालने के लिए,
बच्चे को
अनुशासित
करने के लिए।
पत्नी को ठीक
स्थिति में
लाने को मुझे
क्रोध करना ही
था। ये बुद्धि
के हिसाब हैं।
इसी तरह
तुम्हारा
अहंकार सोचता
चला जाता है कि
तुम फिर भी
मालिक ही हो, लेकिन तुम
होते नहीं।
क्रोध आता है
पुराने
ढांचों के
कारण, अतीत
से। और जब
क्रोध आता है
तो तुम उसके
लिए कोई बहाना
ढूंढने की
कोशिश करते हो।
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग करते
रहे हैं और वे
उन्हीं
तथ्यों तक
पहुंचे हैं
जिन तक पूरब
का गुह्य
मनोविज्ञान
पहुंचा है :
आदमी अधीन है, मालिक नहीं।
मनोवैज्ञानिको
ने लोगों को
पूरे एकांत
में रख दिया
हर संभव
सुविधा के साथ।
जिस चीज की
जरूरत थी
उन्हें दे दी
गई, लेकिन
उनका दूसरे
मनुष्यों के
साथ कोई संपर्क
नहीं रहा। वे बिलकुल
अलग — थलग जीए
वातानुकूलित
कोठरी में —कोई
काम नहीं, कोई
अड़चन नहीं, कोई समस्या नहीं,
लेकिन वही
आदतें चलती
चली गयीं। एक
सुबह, अब
कोई कारण न था —क्योंकि
सुविधा पूरी
हो गई थी, कोई
चिंता न थी, क्रोधित
होने का कोई
बहाना नही—और
आदमी अचानक
पाता कि क्रोध
उठ रहा है।
वह
तुम्हारे
भीतर होता है।
कई बार अचानक
बिना किसी
प्रत्यक्ष
कारण के ही
उदासी चली आती
है। और कई बार
व्यक्ति
प्रसन्नता
अनुभव करता है, कई बार वह
अनुभव करता है
सुखी, आनंदित।
सारे सामाजिक
संबंधों से
छूटा हुआ आदमी,
पूरी
सुविधाओं में
अलग पड़ा हुआ, हर जरूरत
पूरी होने के
साथ सारी
भावदशाओं के बीच
से गुजरता
जिनसे कि तुम
संबंधों में
गुजरते हो। इसका
अर्थ हुआ कि
कोई चीज भीतर
से आती है और
तुम उसे टाग
देते हो किसी
दूसरे
व्यक्ति पर।
यह तो मात्र
एक बुद्धि की
व्याख्या
होती है। तुम
अच्छा अनुभव
करते, तुम
बुरा अनुभव
करते, और
ये
अनुभूतियां
तुम्हारे
अचेतन से फूट
पड़ रही होतीं,
तुम्हारे
अपने अतीत से।
तुम्हारे सिवाय
कोई और
जिम्मेदार
नहीं। कोई
तुम्हें
क्रोधी नहीं
बना सकता। और
कोई तुम्हें
प्रसन्न नहीं
बना सकता। तुम
प्रसन्न होते
हो अपने से ही।
तुम क्रोधित
होते हो अपने
से, और तुम
उदास होते हो
अपने से ही।
यदि तुम इस
बात को नहीं
जान लेते, तो
तुम सदा गुलाम
बने रहोगे।
स्वयं
पर मालकियत तब
मिलती है, जब कोई
जान लेता है
कि मैं पूरी
तरह
जिम्मेदार
हूं जो भी
मुझे घटित हुआ
है, बेशर्त
तौर पर। मैं
जिम्मेदार हू
पूसई तरह।
शुरू में यह
बात तुम्हें
बहुत ज्यादा
उदास और दुखी
कर देगी।
क्योंकि यदि
तुम
जिम्मेदारी
दूसरे पर फेंक
सकते हो, तो
तब तुम ठीक
अनुभव करते हो
कि तुम गलत
नहीं। क्या कर
सकते हो तुम
जब पत्नी इतने
गंदे ढंग से
व्यवहार कर
रही हो? तुम्हें
क्रोध करना ही
पड़ता है।
लेकिन याद
रखना ठीक से, पत्नी गंदे
ढंग का
व्यवहार कर
रही होती है
उसकी अपनी
संरचना के
कारण। वह
तुम्हारे
प्रति अप्रिय
व्यवहार नहीं
करती है। यदि
तुम न होओगे
मौजूद तो वह
अप्रिय
व्यवहार करेगी
बच्चे के साथ।
यदि बच्चा वहा
नहीं होगा तो
वह बरस पड़ेगी
प्लेटों पर, वह फेंक ही
देगी उन्हें
जमीन पर। उसने
तोड़ दिया होगा
रेडियो। उसे
करना ही था
कुछ न कुछ, उपद्रव
उठ रहा था। यह
मात्र एक
संयोग था कि
तुम अखबार
पढ़ते पकड लिए
गए और वह बिगड़
गई तुम पर। यह
मात्र एक
संयोग था कि
तुम मौजूद थे
गलत क्षण में।
तुम इस
कारण क्रोधित
नहीं होते कि
पत्नी दुष्ट
है, हो
सकता है उसने
कोई स्थिति
बना दी हो, बस
इतना ही। उसने
शायद तुम्हें
कोई संभावना
दे दी हो; लेकिन
क्रोध कुलबुला
रहा था। यदि
पत्नी वहां न
होती तो भी
तुम उतने ही
क्रोधित होते —किसी
और चीज के
प्रति, किसी
विचार के
प्रति, लेकिन
क्रोध तो आना
ही था। वह कुछ
ऐसी बात थी जो
तुम्हारे
अपने अचेतन से
आ रही थी।
हर कोई
जिम्मेदार है, पूरी तरह
जिम्मेदार
होता है उसके
अपने लिए और अपने
व्यवहार के
लिए। शुरू में
यह बात
तुम्हें बहुत
उदास भावदशा
देगी कि तुम
जिम्मेदार हो,
क्योंकि
तुमने सदा
सोच्ग कि तुम
सुखी होना चाहते
हो, तो तुम
कैसे
जिम्मेदार हो
सकते हो
तुम्हारे दुख
के लिए? तुम
सदा आकांक्षा
करते हो आनंदपूर्णता
की, तो
कैसे तुम
क्रोध कर सकते
हो अपने से ही?
और इस कारण
तुम
जिम्मेदारी
फेंकते जाते
हो दूसरे पर
ही। यदि तुम
दूसरे पर ही
जिम्मेदारी
डालते जाते हो,
तो याद रखना
कि तुम सदा
गुलाम बने
रहोगे।
क्योंकि कोई
भी दूसरे को
नहीं बदल सकता
है। कैसे तुम
बदल सकते हो
दूसरे को? क्या
कभी किसी ने
दूसरे को बदला?
दुनिया की
सबसे अधूरी
इच्छाओं में
से एक इच्छा
है दूसरे को
बदलने की।
किसी ने ऐसा
कभी किया नहीं।
यह बात असंभव
होती है।
क्योंकि
दूसरा
अस्तित्व
रखता है उसके
अपने ठीक ढंग
से —तुम बदल
नहीं सकते उसे।
तुम
जिम्मेदारी
डालते जाते हो
दूसरे पर, लेकिन
तुम दूसरे को
बदल नहीं सकते।
और क्योंकि
तुम दूसरे पर
जिम्मेदारी
डाल देते हो, तो तुम कभी न
जान पाओगे कि
बुनियादी
जिम्मेदारी
तुम्हारी
होती है।
बुनियादी
परिवर्तन की
जरूरत होती है
तुम्हारे
भीतर।
इसी
तरह तो तुम
फंसते हो यदि
तुम सोचने लगो
कि तुम
जिम्मेदार हो
तुम्हारे
सारे कार्यों
के लिए, तुम्हारे
सभी भावों के
लिए तो शुरू
में एक उदासी
छा जाएगी।
लेकिन यदि तुम
गुजर सकी उस
उदासी में से,
तो जल्दी ही
तुम हल्का
अनुभव करोगे,
क्योंकि अब
तुम मुक्त हो
जाते हो
दूसरों से, अब तुम काम
कर सकते हो
अपने से। तुम
मुक्त हो सकते
हो। चाहे सारा
संसार दुखी हो
और अमुक्त हो
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता।
अन्यथा किसी
बुद्ध की
संभावना कैसे
बनती? और
कैसे कोई
पतंजलि संभव
होते? कैसे
मैं संभव होता?
सारा संसार
वैसा ही है।
वह एकदम वैसा
ही है जैसा
तुम्हारे लिए
है, लेकिन
कृष्ण तो
नृत्य करते
हैं और गीत
गाते हैं; वे
मुक्त हैं। और
पहली मुक्ति
है दूसरे पर
जिम्मेदारी
डालने की बात
समाप्त करना।
पहली मुक्ति
है यह जानना
कि तुम
जिम्मेदार हो।
तो बहुत सारी
चीजें तुरंत
संभव हो जाती
हैं।
कर्म
का पूरा सिद्धांत
यही है कि तुम
जिम्मेदार हो, जो कुछ भी
तुमने बोया, तुम वही काट
रहे हो। शायद तुम
कार्य —कारण
के संबंध को न
समझ पाओ, लेकिन
यदि कार्य है
मौजूद, तो
कारण जरूर
कहीं होगा ही।
यही है
प्रति—प्रसव
की सारी विधि :
कैसे परिणाम
से कारण की ओर
सरकें, कैसे पीछे
की ओर जाएं और
कारण को ढूंढ
लें, जहां
से कि वह आया
होता है। जो
कुछ भी घटता
है तुमको —तुम
उदास अनुभव
करते हो, तो
बस मूंद लेना आंखें
और देखते रहना
तुम्हारी
उदासी को। जहां
वह ले जाए
उसके पीछे
जाना, उसमें
और गहरे जाना।
जल्दी ही तुम
कारण तक पहुंच
जाओगे। शायद
तुम्हें लंबी
यात्रा करनी
पड़ेगी, क्योंकि
यह सारा जीवन
जुड़ा होता है;
और न ही
केवल यह जीवन,
लेकिन और
दूसरे जीवन
अंतर्ग्रस्त
होते हैं। तुम
बहुत से घाव
पाओगे तुममें
जो पीड़ा देते
हैं, और
उन्हीं घावों
के कारण तुम
उदास अनुभव
करते हो; वे
उदास होते हैं।
वे घाव अभी भी
सूखे नहीं, वे जीवंत
हैं। प्रति —प्रसव
की विधि, स्रोत
तक लौटने की
विधि, कार्य
से कारण तक लौटने
की विधि
उन्हें भर
देगी, ठीक
कर देगी। कैसे
ठीक करती है
वह? कौन —सी
घटना है जो
उसमें समायी
होती है।
जब कभी
तुम पीछे की
ओर जाते हो, पहले तो
तुम दूसरों पर
जिम्मेदारी
डालने की बात
गिरा देते हो,
क्योंकि
यदि तुम
दूसरों पर
जिम्मेदारी
डालते हो तो
तुम बाहर की ओर
जाते हो। तब
सारी
प्रक्रिया
गलत हो जाती
है। तुम कारण
को दूसरे में
ढूंढने की
कोशिश करते हो
: 'पत्नी
गलत क्यों है?'
तब यह 'क्यों'
पत्नी के
व्यवहार में
उतरता जाता है।
तुम चूक गए
पहला चरण और
तब सारी
प्रक्रिया ही गलत
हो जाएगी।
क्यों मैं
दुखी हूं? क्यों
मैं क्रोध में
हूं?—आंखें
बंद कर लो और
इसे एक गहन
ध्यान बनने दो।
जमीन पर लेट
जाओ, आंखें
बंद कर लो, शरीर
को शिथिल करो
और अनुभव करो
कि तुम क्यों क्रोधित
हो। पत्नी को
तो बिलकुल भूल
ही जाओ; वह
तो एक बहाना
है—क, ख, ग,
जो भी हो, भूल जाओ उस
बहाने को। जरा
और गहरे उतरना
अपने में, क्रोध
में उतरते
जाना। स्वयं
क्रोध का ही
प्रयोग करना
नदी की भांति।
क्रोध में तुम
बहते हो और
क्रोध
तुम्हें ले जाएगा
भीतर। तुम
सूक्ष्म घाव
पाओगे तुममें।
पत्नी
गलत जान पड़ती
है, क्योंकि
उसने छू दिया
था तुम्हारा
कोई सूक्ष्म
घाव, कोई
ऐसी चीज जो
चोट करती है।
तुमने सदा
सोचा कि तुम
सुंदर नहीं, तुम्हारा
चेहरा कुरूप
है, और
भीतर घाव है।
जब पत्नी
नाराज होती है,
तो वह
तुम्हें सचेत
कर देगी
तुम्हारे
चेहरे के
प्रति। वह
कहेगी, 'जाओ
और देखो दर्पण
में!' चोट
पड़ती है।
तुमने
विश्वासघात
किया होता है
पत्नी के साथ और
जब वह तंग
करना चाहती है,
तब यह बात
फिर उठाएगी वह
कि 'तुम उस
स्त्री के साथ
हंस—हंस कर
क्यों बोल रहे
थे? क्यों
तुम इतनी खुशी
से बैठे हुए
थे उस स्त्री
के साथ?' एक
घाव छू दिया
गया। तुम
विश्वासघाती
रहे हो, तुम
अपराधी अनुभव
करते हो। घाव
जीवंत होता है।
तुम बंद कर लो आंखें,
अनुभव करो
क्रोध को, उसे
अपनी समग्रता
में उठने दो
ताकि तुम उसे
पूरी तरह देख
सको, कि वह
क्या है। तब
उस ऊर्जा को
तुम्हारी मदद
करने देना
अतीत की ओर
सरकने में, क्योंकि
क्रोध आ रहा
होता है अतीत
से।
निस्संदेह वह
भविष्य से तो
आ नहीं सकता
है। भविष्य का
तो अभी अस्तित्व
ही नहीं बना
है। वह नहीं आ
रहा है
वर्तमान से।
यही है
सारा
दृष्टिकोण
कर्म का, यह भविष्य
से नहीं आ
सकता क्योंकि
भविष्य अभी आया
ही नहीं है।
और यह वर्तमान
से नहीं आ
सकता, क्योंकि
तुम बिलकुल
जानते ही नहीं
कि वह क्या है।
वर्तमान तो
जाना जा सकता
है केवल जागे
हुओं द्वारा।
तुम जीते हो
केवल अतीत में,
तो यह जरूर
कहीं न कहीं
अतीत से ही आ
रहा होगा। घाव
रहा होगा कहीं
तुम्हारी
स्मृतियों
में। वापस
लौटो। कोई एक
घाव नहीं होगा,
बहुत सारे
होंगे, छोटे,
बड़े।
ज्यादा गहरे
जाना और ढूंढ
लेना पहला घाव,
सारे क्रोध
का मूल स्रोत।
तुम खोज पाओगे
उसे यदि तुम
कोशिश करो तो,
क्योंकि वह
पहले से ही
वहां होता है।
वह वहा मौजूद
है; तुम्हारा
सारा अतीत अभी
भी है वहा। वह
फिल्म की भाति
है रोल किया
हुआ, लपेट
कर बंद किया
हुआ और
प्रतीक्षा कर
रहा है भीतर।
तुम खोल दो
उसे, तुम
देखने लगो
फिल्म को। यही
प्रक्रिया है
प्रति—प्रसव
की। इसका अर्थ
है पीछे की ओर
एकदम मूल कारण
तक लौटना। और
यही सौंदर्य
है प्रक्रिया
का यदि तुम
चेतन रूप से
पीछे की ओर जा
सको, यदि
तुम चेतन रूप
से घाव को
अनुभव कर सको,
तो घाव
तुरंत भर जाता
है।
क्यों
भर जाता है वह?—क्योंकि
घाव निर्मित होता
है अचेतन
द्वारा, असजगता
द्वारा। घाव
हिस्सा है
अज्ञान का, निद्रा का।
जब तुम
होशपूर्वक
पीछे की ओर
जाते हो और
देखते हो घाव
को, तो वही
होश
स्वास्थ्यदायी
शक्ति होता है।
अतीत में, जब
घाव बना था, वह बना था
अचेतन में।
तुम क्रोधित
थे, क्रोध
ने तुम पर
अधिकार जमा
लिया था।
तुमने कुछ
किया था; तुमने
मार डाला था
एक आदमी को और
तुम दुनिया से
यह सच्चाई
छुपाते रहे।
तुम इसे छुपा
सकते हो पुलिस
से, तुम
इसे छुपा सकते
हो न्यायालय
और कानून से, लेकिन इसे
तुम स्वयं से
ही कैसे छुपा
सकते हो? तुम
जानते हो यह
बात चोट करती
है। जब कभी कोई
तुम्हें अवसर
देता है
क्रोधित होने
का तो तुम
भयभीत हो जाते
हो, क्योंकि
वह बात फिर घट
सकती है, तुम
मार सकते हो
पत्नी को।
वापस लौटो, क्योंकि उस
क्षण जब तुमने
खून किया किसी
व्यक्ति का या
कि तुमने
व्यवहार किया
बहुत क्रोधपूर्ण
और पागल ढंग
से, तो तुम
होश में न थे।
अचेतन में वे
घाव बचे ही
रहे हैं। अब
होशपूर्वक
चलना।
प्रति —प्रसव, पीछे
लौटना, इसका
अर्थ है उन
चीजों तक
होशपूर्वक
जाना जिन्हें
तुमने होश के
बिना किया है।
पीछे जाओ—केवल
होश का, चेतना
का प्रकाश ही
स्वस्थ करता
है। वह एक
स्वास्थ्यदायक
शक्ति होती है।
जिस किसी चीज
को भी तुम
होशपूर्वक
बना सको वह
भली—चंगी हो
जायेगी। और
फिर वह और
पीड़ा न देगी।
वह
आदमी जो पीछे
की ओर आता है, अतीत को
निर्मुक्त कर
देता है। फिर
अतीत
क्रियान्वित
नहीं हो रहा
होता, तब
अतीत की उस पर
कोई पकड़ नहीं
रहती और अतीत
समाप्त हो
जाता है। अतीत
का उसकी अंतस
—सत्ता में
कोई स्थान
नहीं होता। और
जब अतीत का
तुम्हारी
अंतस—सत्ता
में कोई स्थान
नहीं रहता तभी
तुम वर्तमान
के प्रति
उपलब्ध होते
हो —उससे पहले
कभी नहीं।
तुम्हें थोड़ी
खाली जगह की
जरूरत है, अतीत
इतना ज्यादा
होता है
भीतर—एक
कबाड़खाना, मरी
हुई चीजों का।
वर्तमान के
प्रवेश होने
को कोई स्थान
नहीं। वह कूड़ा—करकट
भविष्य के
बारे में ही
स्वप्न देखता
जाता है। तो
आधी जगह तो
उसी से भरी
होती है जो अब
है ही नहीं, और आधी जगह
उससे भरी होती
है जो अभी आया
ही नहीं। और
वर्तमान? —वह
केवल
प्रतीक्षा
करता है द्वार
के बाहर। इसीलिए
वर्तमान और
कुछ नहीं
सिवाय एक
रास्ते के, अतीत से
भविष्य तक का
रास्ता, मात्र
एक क्षणिक
रास्ता।
खत्म
करो अतीत की
बात! यदि तुम
अतीत से नहीं
टूटते, तो
तुम एक
प्रेतात्मा
का जीवन जी
रहे होते हो।
तुम्हारा
जीवन सच्चा
नहीं होता, वह
अस्तित्वगत
नहीं होता।
अतीत जीता है
तुम्हारे
द्वारा; मृत
तुम पर
मंडराता रहता
है। पीछे की
ओर जाओ —जब कभी
तुम्हारे पास
अवसर हो, जब
कभी तुम को
कुछ घटित हो
प्रसन्नता, अप्रसन्नता,
उदासी, क्रोध,
ईर्ष्या तो
आंखें बंद कर
लेना और पीछे
की ओर वापस
जाना। जल्दी
ही तुम पीछे
की ओर यात्रा
करने में कुशल
हो जाओगे।
जल्दी ही तुम
पीछे समय में
लौटने योग्य
हो जाओगे और
तब बहुत सारे
घाव खुलेंगे।
जब वे घाव
खुलते हैं
तुम्हारे
भीतर, तो
कुछ करने मत
लग जाना। करने
की कोई जरूरत
नहीं। तुम
केवल देखो
ध्यान से; घाव
वहां मौजूद
होता है। तुम
केवल ध्यान
देना, तुम्हारी
ध्यान—ऊर्जा
ले जाना घाव
की ओर, उसकी
ओर देखना।
उसकी ओर देखना
बिना कोई
निर्णय दिए।
क्योंकि यदि
तुम निर्णय
देते हो, यदि
तुम कहते हो, 'यह बुरा है, यह ऐसा नहीं
होना चाहिए,' तो घाव फिर
से बंद हो
जाएगा। तब उसे
छिप जाना पड़ेगा।
जब भी तुम
निंदा करते हो
तो मन चीजों
को छिपाने की
कोशिश करता
है। इसी भांति
निर्मित होते
हैं चेतन और
अचेतन।
अन्यथा, मन
तो एक है; किसी
विभाजन की कोई
जरूरत नहीं।
लेकिन तुम तो निंदा
करते। तब मन
को बांट देना
पड़ता है और चीजों
को अंधकार में
रखना पड़ता है,
तलघर में, ताकि तुम
देख न सकी
उन्हें —और तब
कोई जरूरत नहीं
रहती त्यइंदा
करने की।
निंदा
मत करना, प्रशंसा
मत करना। तुम
केवल साक्षी
बने रही, एक
अनासक्त
द्रष्टा।
अस्वीकृत मत
करना। मत कहना,
'यह अच्छा
नहीं है', क्योंकि
वह बात एक
अस्वीकृति
होती है और
तुमने दमन
शुरू कर दिया
होता है।
निर्लिप्त हो
जाओ। केवल
ध्यान दो उस
पर और देखो।
करुणापूर्ण
देखो और
स्वस्थता
घटित हो
जाएगी।
मत
पूछना मुझसे
कि ऐसा क्यों
घटता है, क्योंकि
यह एक
स्वाभाविक
घटना है। यह
ऐसी ही है
जैसे सौ
डिग्री पर
पानी का
वाष्पीकरण हो
जाता है। तुम
कभी नहीं
पूछते, 'निन्यानबे
डिग्री पर
क्यों नहीं
होता?' कोई
नहीं उत्तर दे
सकता है इसका।
ऐसा होता ही
है कि सौ
डिग्री पर
पानी वाष्प बन
जाता है। इस
पर कोई प्रश्न
नहीं, और
प्रश्न होता
है
अप्रासंगिक।
यदि यह वाष्पीकरण
होता
निन्यानबे
डिग्री पर, तो तुम
पूछते, क्यों?
यदि यह
वाष्पीकरण
अट्ठानबे
डिग्री पर
होता तो तुम
पूछते, क्यों।
यह एकदम
स्वाभाविक है
कि सौ डिग्री
पर पानी का
वाष्पीकरण हो
जाता है।
यही
बात आंतरिक
स्वभाव के
विषय में सत्य
है। जब कोई
अनासक्त, करुणामयी
चेतना घाव तक
चली जाती है, घाव तिरोहित
हो जाता है, वाष्प बन
जाता है। उस
पर क्यों का
कोई प्रश्न—चिह्न
नहीं होता है।
यह तो बस स्वाभाविक
है, ऐसा ही
होता है, यह
इसी तरह घटता
है। जब मैं
ऐसा कहता हूं
तो अनुभव से
कहता हूं।
आजमाना इसे और
अनुभव तुम्हारे
लिए संभव है, यही है
मार्ग।
प्रति
—प्रसव द्वारा
व्यक्ति
कर्मों से
मुक्त हो जाता
है। कर्म
भविष्य पर जोर
देने की कोशिश
करते हैं। वे
तुम्हें अतीत
में नहीं जाने
देते। वे कहते
हैं,
'भविष्य में
सरको। अतीत
में तुम क्या
करोगे? कहा
जा रहे हो तुम?
क्यों
व्यर्थ करते
हो समय? कुछ
करो भविष्य के
लिए!' कर्म
सदा जोर देते
हैं कि 'भविष्य
में जाओ ताकि
अतीत अचेतन
में छिपा रहे।
' उलटी
प्रक्रिया
शुरू
करो—प्रति—प्रसव।
मन की बात मत
सुनना जो कि
भविष्य में
जाने को कहता
है। जरा ध्यान
देना—मन सदा
भविष्य के बारे
में कुछ कह
रहा होता है।
वह तुम्हें
कभी यहीं नहीं
होने देता। वह
सदा तुम्हें
भविष्य में
सरकने को
मजबूर कर रहा
होता है।
पीछे
अतीत में जाओ।
और जब मैं
पीछे अतीत में
जाने को कहता
हूं र तो मैं
यह नहीं कह
रहा कि तुम्हें
अतीत का स्मरण
करना चाहिए।
स्मरण करना मदद
न देगा, स्मरण
करना एक
नपुंसक
प्रक्रिया
है। यह भेद याद
रखना है स्मरण
से कोई मदद
नहीं मिलती।
वह शायद
हानिकारक ही
होगा—लेकिन यह
पुन: जीना, वह
समग्रतया
विभिन्न है।
भेद बहुत
सूक्ष्म है।
और उसे समझ
लेना है।
तुम
कोई चीज याद
करते हो तुम
याद करते हो
तुम्हारा
बचपन। जब तुम
बचपन याद करते
तो तुम रहते हो
यहीं और अभी।
तुम बच्चे
नहीं बन जाते।
तुम याद कर
सकते हो, तुम
बंद कर सकते
हो तुम्हारी
आंखें और तुम
याद कर सकते
हो जब कि तुम
सात वर्ष के
थे और दौड़ रहे
थे बगीचे
में—तुम देखते
हो उसे। तुम
यहीं होते हो
और अतीत दिखता
है फिल्म की
भाति, तुम
दौड रहे हो, बच्चा दौड
रहा है
तितलियों को
पकड़ने की
कोशिश कर रहा
है। तुम
द्रष्टा हो और
बच्चा दृश्य
है। नहीं, यह
बात ठीक नहीं,
यह स्मरण
करना हुआ। यह
बात नपुंसक है,
यह मदद न
देगी।
घाव
ज्यादा गहरे
हैं। वे प्रकट
नहीं किए जा
सकते याद करने
से,
और स्मरण
चेतन मन का ही
एक हिस्सा बना
रहता है। वह
सब जो कि बहुत
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है छिपा रहा
है अचेतन में,
तो तुम याद
करते हो केवल
फिजूल बातें,
या तुम याद
करते हो केवल
वे बातें
जिन्हें
तुम्हारा मन
स्वीकार करता
है। इसलिए हर
व्यक्ति कहता
है कि उसका
बचपन एक स्वर्ग
था। किसी का
भी बचपन
स्वर्ग न था।
क्यों सब कहते
हैं कि बचपन
एक स्वर्ग था?
तुम फिर से
बच्चा बनना
चाहोगे, लेकिन
पूछो जरा
बच्चों से।
कोई बच्चा
नहीं होना
चाहता फिर से
बच्चा। हर
बच्चा बड़ा
होने की कोशिश
कर रहा है और
सोच रहा है कि
कितनी जल्दी
वह ऐसा कर
सकता है। कोई
बच्चा बचपन से
प्रसन्न नहीं,
क्योंकि वह
कहता है, 'बड़े
शक्तिशाली
हैं। ' हर
बच्चा असहाय
अनुभव करता है
और असहायपन
कोई अच्छी
अनुभूति नहीं
हो सकती है।
हर बच्चा यहा —वहां
से खींचा और
धकियाया जा
रहा अनुभव
करता है, जैसे
कि उसकी कोई
स्वतंत्रता
ही नहीं। बचपन
एक गुलामी जान
पड़ता है। हर
एक चीज के लिए
उसे दूसरों पर
निर्भर होना
पड़ता है। यदि
उसे आइसक्रीम
चाहिए तो उसे
कहना पड़ता और
मांगना पड़ता
है। और यह
शिक्षा देने
को हर कोई
मौजूद है कि
आइसक्रीम
बुरी चीज है।
बच्चा सोचता
है, 'तो फिर
ईश्वर बनाता
ही क्यों है
आइसक्रीम?' वे सारी
चीजें
जिन्हें खाने
के लिए मां
—बाप उसे
मजबूर करते
हैं, बुरी
होती हैं, वह
उन्हें पसंद
नहीं करता है।
और जिन सारी
चीजों को वह
खाना चाहता है,
मां —बाप को
बुरी लगती
हैं। वे कहते
हैं, 'यह तो
बहुत गड़बड़ हो
जाएगी, तुम्हारा
पेट खराब हो
जाएगा, और
यह हो जाएगा। 'बच्चे को
ऐसा जान पड़ता
है कि सारे
अच्छे— अच्छे
विटामिन गंदी
चीजों में डाल
दिए गए हैं, और गंदी
चीजें अच्छी
चीजों में डाल
दी गयी हैं।
बच्चा बिलकुल
खुश नहीं है।
वह इस सारी
व्यर्थ की
मुसीबत को समाप्त
कर देना चाहता
है, वह
बड़ा हो जाना
चाहता है और
एक स्वतंत्र
व्यक्ति बनना
चाहता है।
लेकिन आगे चल
कर ये ही
बच्चे कहेंगे
कि 'बचपन
स्वर्ग था!' क्या घटित
हुआ?
जो कुछ
बुरा है, असुंदर है, फेंक दिया
गया है अचेतन
में क्योंकि
अहंकार उसकी
ओर देखना ही
नहीं चाहता है।
सारे दुख भुला
दिए गए हैं और
सारी खुशी याद
रखी गयी है।
तुम खुशी को
संजोए रहते हो
और भूलते जाते
हो दुखों को।
यह चुनाव होता
है। इसलिए बाद
में हर कोई
कहता है कि
बचपन स्वर्ग था,
क्योंकि
तुमने वह सब
भुलाने की
कोशिश की है
जो बुरा था।
तुम्हारा बचपन
जैसा कि
तुम्हें याद
है वह सत्य
नहीं, वह
मनगढ़ंत होता
है। वह अहंकार
द्वारा
निर्मित
कल्पित कथा है।
इसलिए
यदि तुम याद
करते हो तो
तुम याद करोगे
खुशी देने
वाली चीजों को, दुख देने
वाली चीजों को
नहीं। यदि तुम
फिर जीते हो, तो तुम
जीयोगे समग्र
को —सुख, दुख—सब
कुछ है।
और पुन:
जीना होता
क्या है? फिर से जीना
है, फिर से
बच्चा बन जाना,
बच्चे को
बगीचे में
दौड़ते हुए
नहीं देखना, बल्कि दौड़ता
हुआ बच्चा ही
बन जाना।
द्रष्टा मत
बनो —वही हो
जाओ। ऐसा संभव
है क्योंकि
बच्चा अभी भी
अस्तित्व रखता
है तुममें, वह हिस्सा
.होता है तुम्हारा।
परत —दर—परत, वह सब जिसे
तुमने जीया है
अस्तित्व रखे
रहता है
तुममें। तुम
बच्चे थे, वह
मौजूद है। फिर
तुम युवा हुए,
वह मौजूद है।
फिर तुम वृद्ध
हो गए, वह
मौजूद है। हर
चीज वहां है, पर्त के ऊपर
पर्त। तुम काट
दो पेडू के
तने को और
पर्त होती है
वहा। गहराई
में एकदम
केंद्र में
तुम पाओगे
पहली पर्त, जब वृक्ष
बहुत छोटा —सा
पौधा था। पहली
पर्त होती है
वहां, दूसरी
पर्त होती है
वहां। तुम गिन
सकते हो वर्ष,
क्योंकि हर
वर्ष है एक
पर्त और वृक्ष
संचय करता है।
तुम गिन सकते
हो वृक्ष की
आयु के वर्ष
कि कितना
पुराना है।
केवल वृक्ष की
ही नहीं, बल्कि
पत्थरों, चट्टानों
की भी पर्तें
होती हैं।
हर चीज
एक संचित घटना
होती है। तुम
पहले बीज थे
जो घटित हुआ
तुम्हारी मा
की गर्भ में।
अभी भी वह
मौजूद है वहां।
और फिर इसके
बाद हर रोज
लाखों पर्तें
जुड़ती गयीं, हजार
बातें घटती
रहीं। वे सभी
वहा हैं, संचित।
तुम फिर वही
हो सकते हो, क्योंकि तुम
वह थे।
तुम्हें बस
कदम पीछे
लौटाने हैं।
तो आजमाओ फिर
से जीने को।
प्रति—प्रसव
है अतीत को
फिर से जीना।
तुम बंद कर
लेना अपनी आंखें, लेट जाना
और पीछे की
तरफ लौट चलना।
तुम इसे आजमा
सकते हो सीधे —सरल
रूप से। यह
बात तुम्हें
उसके सारे ढंग
का पता देगी।
हर रात तुम सो
सकते हो
बिस्तर पर और
पीछे सुबह की
ओर लौट सकते
हो। बिस्तर पर
लौटना अंतिम
बात है —उसे
पहली बात बना
लेना, और
अब पीछे की ओर
लौट चलना।
लेटने से पहले
तुमने क्या
किया था? तुमने
एक प्याला दूध
पीया था, उसे
फिर से पीयो, फिर से जीयो।
उसके पहले
पत्नी के साथ
झगड़ा किया था,
उसे फिर से
घटने दो भीतर।
मूल्यांकन मत
करना क्योंकि
अब मूल्यांकन
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
वह घट चुका है।
मत कहना अच्छा
या बुरा, मूल्यांकन
को मत लाना
बीच में। तुम
तो बस फिर से
जीयो, वह
घट चुका है।
तुम पीछे की ओर
जाओ. एकदम
सुबह, जब
एलार्म घड़ी ने
तुम्हें
जगाया, फिर
से सुनो उसे।
इसी तरह करते
चलो और कोशिश
करो दिन की हर
घड़ी को जीने
की, समय की
घड़ी को खोलते
हुए। तुम बहुत
ज्यादा ताजा
अनुभव करोगे
और तुम्हें
सुंदर नींद
आएगी, क्योंकि
दिन का और
तुम्हारा लेन—देन
समाप्त हुआ।
अब दिन
तुम्हारे सिर
पर सवार नहीं
है। तुमने उसे
होशपूर्वक जी
लिया है फिर
से।
दिन
में यह कठिन
था होशपूर्ण
बने रहना; तुम बहुत
सारी चीजों से
जुड़े थे। और
तुम्हारे पास
ऐसी चेतना
नहीं है जिसे
कि अभी तुम
बाजार में साथ
रख सको। शायद
मंदिर में, कुछ पलों के
लिए घटती है
वह, शायद
ध्यान में, कुछ पलों को
तुम सजग हो
जाओगे।
तुम्हारे पास
कोई इतनी
ज्यादा चेतना
नहीं है कि
तुम बाजार में,
दुकान में,
सांसारिक
झंझटों में
साथ रख सको, जहां कि तुम
होशपूर्ण
नहीं रहते हो।
फिर तुम
निद्राचारिता
की उसी पुरानी
आदत में जा
पड़ते हो।
लेकिन बिस्तर
पर लेटे हुए, तुम
होशपूर्ण रह
सकते हो। जरा
ध्यान दो, फिर
से जीओ, हर
चीज को घटने
दो फिर से।
वस्तुत: ऐसा
ही घटता है
बुद्ध को।
तुम
रात
होशपूर्वक
फिर से जीते
हो. पत्नी ने कहा
था कुछ, फिर तुमने
कुछ कहा था, फिर उसने
प्रतिक्रिया
की, फिर
उसी तरह सारी
बात आ खड़ी हुई।
कैसे तुम
क्रोधित हुए
थे और उसे
मारा था, और
कैसे उसने
रोना शुरू कर
दिया था।
और फिर
तुम्हें उससे
संभोग करना
पड़ा। पल —पल
ब्यौरे में
जाओ, उतरो
हर चीज में।
ध्यानपूर्ण
बने रहो, यह
कहीं ज्यादा
आसान होता है
क्योंकि किसी
चीज से कुछ
खास लेना —देना
नहीं होता। वह
संसार अब
मौजूद नहीं।
तुम उसे देख
सकते हो और
फिर से जी
सकते हो, जिस
घड़ी तुम पहुंच
रहे होते हो
सुबह तक तो
तुम बड़ी शाति
अनुभव करोगे
और निद्रा की
विस्मरण भरी
शाति तुम पर
उतर रही होगी,
किसी
बेहोशी की
भाति नहीं, बल्कि मखमल
जैसे सुंदर
अंधेरे की
भांति—तुम उसे
छू सकते हो, तुम उसे
महसूस कर सकते
हो। वह
स्नेहार्द्रता
एक मां की
भांति
तुम्हारे चारों
ओर छा जाती है
और फिर तुम
उतर जाते हो
रात्रि में।
तुम कम स्वप्न
देखोगे
क्योंकि
स्वप्न
निर्मित होते
हैं अनजीए दिन
के द्वारा।
लाखों चीजें
घट रही होती
हैं। तुम उन
सभी को नहीं जी
सकते और तुम
उन्हें किसी
सजगता सहित
नहीं जी सकते।
वे झूलती रहती
हैं। सारे
अनजीए दिन की
या कि बेहोशी
में जीए दिन की
मंडराती रह
गयी
प्रक्रिया
होती है
स्वप्न, बात एक ही है।
आधे मन से
जीया दिन, किसी
तरह घिसटते
हुए जीया गया
दिन, जैसे
कि तुमने शराब
पी हुई हो, इसी
तरह निर्मित
होते हैं
स्वप्न। जो
प्रक्रिया
अधूरी पड़ी रही
दिन में उसे
ही पूरा करने
को स्वप्न
होते हैं।
मन
पूर्णतावादी
है वह कोई चीज
अधूरी नहीं
रहने देना
चाहता। वह उसे
पूरा करना
चाहता है और
इसीलिए सारी
रात तुम
स्वप्न देखते
हो। लेकिन यदि
तुम दिन को
फिर से जी सको
तो स्वप्न गिर
जाएंगे, और एक दिन आ
जाता है जब
अचानक वहा
स्वप्न नहीं बनते।
जब स्वप्न
नहीं होते, तो पहली बार
तुम स्वाद
लेते हो कि
निद्रा कैसी
होती है।
पतंजलि
कहते हैं कि
समाधि निद्रा
की भांति ही होती
है, परम
आनंद निद्रा
की ही भाति
होता है, केवल
एक अंतर है
निद्रा अचेतन
है और समाधि
चेतन है।
निद्रा
सर्वाधिक
सुंदर घटनाओं
में से है, लेकिन
तुम कभी सोए
नहीं क्योंकि
तुम निरंतर इतने
निर्विरोध
रूप से स्वप्न
देख रहे हो।
सारी
रात में लगभग
आठ आवर्तन
होते हैं
स्वप्न के और
प्रत्येक
आवर्तन बना
रहता करीब—करीब
चालीस मिनट तक।
यदि तुम सोते
हो आठ घंटे तो
आठ आवर्तन तो
स्वप्न के ही
होते हैं और
हर एक स्वप्न
— आवर्तन बना
रहता है चालीस
मिनट तक। दो
स्वप्नों के
बीच तुम्हारे
पास केवल बीस
मिनट होते हैं, और वे भी
कोई बहुत गहरे
नहीं होते
क्योंकि कोई
दूसरा स्वप्न
तैयार हो रहा
होता है। एक
स्वप्न
समाप्त होता
है, अभिनेता
जा चुके होते
हैं, पर्दे
के पीछे, लेकिन
वहां बहुत
ज्यादा
सरगरमी होती
है क्योंकि वे
तैयार हो रहे
होते हैं, अपने
चेहरे पोत रहे
होते हैं और
अपने कपड़े बदल
रहे होते हैं।
वे तैयार हो
रहे होते हैं
और जल्दी ही
परदा उठ जाएगा;
उन्हें आना
होगा।
तो जब
दो स्वप्नों
के बीच बीस
मिनट का
अंतराल तुम्हें
दिया जाता है
तो वह भी कोई
बहुत ज्यादा
शांतिपूर्ण
नहीं होता है।
पीछे तलघर
छिपा है.
तैयारी चल रही
होती है। यह
बात तो दो
युद्धों के
बीच की शाति
जैसी ही होती
है पहला
विश्वयुद्ध, दूसरा
विश्वयुद्ध, और दोनों के
बीच की शाति।
लोगों ने
उन्हें समझा
शांतिपूर्ण
दिनों की भाति—वे
थे नहीं। वे
हो नहीं सकते
थे। वरना कैसे
तुम तैयार हो
सके दूसरे
विश्वयुद्ध
के लिए? वे
शांतिपूर्ण
दिन नहीं थे।
अब उन्होंने
ढूंढ लिया है
एक सही शब्द, वे इसे कहते
हैं 'शीत —युद्ध'। उग्र गर्म
युद्ध होता है,
और दो
युद्धों के
बीच होता है
शीत —युद्ध, यही है
पर्दे के पीछे
की तैयारी।
दो
स्वप्न —चक्रों
के बीच होता
है बीस मिनट
का अंतराल; वह किसी
मध्यांतर की
भांति होता है।
हर चीज तैयार
हो रही होती
है और तुम भी
तैयार हो रहे
होते हो। यह
कोई गैर —सक्रियता
नहीं होती, यह होती है
बेचैन
सक्रियता।
जब तुम
दोबारा जीते
हो सारे दिन
को, तो
स्वप्न ठहर
जाते हैं। तब
तुम बहुत ही
अतल गहराई में
जा पड़ते हो।
तुम गिरते
जाते और गिरते
जाते और गिरते
जाते हो जैसे
कि कोई पंख
किसी अतल
शून्य में गिर
रहा हो —ऐसा ही
होता है। इसका
बड़ा सौंदर्य
होता है, लेकिन
यह तभी होता
है जब तुम
पीछे दिन में
उतरते हो। यह
उसके पूरे
ढर्रे —ढांचे
को जानने
मात्र के लिए
है, फिर
तुम ऐसा कर
सकते हो
तुम्हारे
पूरे जीवन भर
तक।
ठीक उस
घड़ी तक लौट
जाओ जब तुम
चीखे थे और
तुम पैदा हुए
थे। ध्यान रहे, उसे फिर से
जीना होता है,
स्मरण नहीं
करना होता है—क्योंकि
कैसे तुम
स्मरण कर सकते
हो? और फिर
से चीख सकते
हो वह पहली
चीख—जिसे
जैनोव कहता है
आदिम चीख, प्राइमल
स्कीम। तुम
फिर से चीख
सकते हो जैसे
कि तुम फिर से
जन्मे हो।
जैसे कि तुम
फिर से मां के
गर्भ —मार्ग
से निकलते हुए
बच्चे बन गए।
वह मार्ग बड़ा
कठिन, दुरूह
होता है। तुम
बाहर आने के
लिए संघर्ष
करते हो और यह
बात तकलीफ भरी
होती है, क्योंकि
नौ महीने तुम
रहते रहे गर्भ
जैसे स्वर्ग
में।
हमारा
सारा विज्ञान
अभी तक
गर्भाशय से
ज्यादा
सुविधापूर्ण
चीज निर्मित
नहीं कर पाया
है। वह परिपूर्ण
है। बच्चा
बिलकुल
जिम्मेदारी
के बिना जीता
है, बिना
किसी चिंता के,
रोजी—रोटी
की कोई फिक्र
नहीं, संसार
की या कि
संबंध की—कोई
चिंता ही नहीं।
क्योंकि कोई
और दूसरा है
ही नहीं, किसी
संबंध का कोई
प्रश्न ही
नहीं। वह मा
द्वारा पोषित
होता है, किसी
चीज को पचाने
तक की भी
फिक्र नहीं
होती। मां पचा
लिया करती है
और बच्चा केवल
पाता है पचाया
हुआ भोजन।
सांस लेने तक
की चिंता नहीं
होती। मां सास
लेती है, बच्चा
आक्सीजन पाता
है और वह
तैरता है पानी
में।
हिंदुओं
के पास एक
वर्णनात्मक
चित्र है विष्णु
का। वे कहते
हैं कि विष्णु
सागर पर तिरते
हैं। तुमने
देखा ही होगा
चित्र : नाग—शय्या
पर वे विश्राम
करते हैं; सर्प
रखवाली करता
है और विष्णु
सोते हैं। वह
चित्र वस्तुत:
प्रतीक—रूप है
गर्भ का। हर
बालक विष्णु
है, भगवान
की मूरत है—कम
से कम गर्भ
में तो। हर
चीज पूरी है, कुछ भी कमी
नहीं। वह पानी
जिसमें कि वह
तैरता है
बिलकुल सागर—जल
की भांति होता
है, वही
रसायन होते
हैं, वही
नमक। इसीलिए
गर्भवती
स्त्री
ज्यादा नमक और
नमकीन चीजें खाने
लगती है, नमकीन
चीजों के लिए
लालायित रहती
है गर्भाशय को
जरूरत रहती है
ज्यादा नमक
की। वह ठीक
वैसी ही
रासायनिक
स्थिति होती
है जैसी कि
सागर की होती
है और बच्चा
तैरता है सागर
में, एकदम
आराम से।
तापमान
बिलकुल वही
बना रहता है।
बाहर चाहे ठंड
हो या गरम, उसे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता, मां
का गर्भ बच्चे
के लिए बिलकुल
उतना ही तापमान
बनाए रखता है।
वह पूरे ऐश्वर्य
में जीता है।
उस ऐश्वर्य से
बाहर निकल
अंधेरे, संकरे,
पीड़ा भरे
मार्ग में आकर
बच्चा चीख
उठता है।
यदि
तुम पीछे जा
सको तुम्हारे
जन्म की चोट
तक तो तुम चीख
पड़ोगे, और तुम
चीखोगे यदि तुम
फिर से जीयो
तो। एक घड़ी
आएगी जब तुम
अनुभव करोगे
कि तुम बच्चे ही
हो, वह नहीं
जो कि स्मरण
कर रहा है।
तुम बाहर
आ रहे होते हो
जन्म —मार्ग
से, एक
चीख चली आती
है। यह चीख
तुम्हारे
सारे अस्तित्व
को आंदोलित कर
देती है, यह
बिलकुल
तुम्हारे मूल
अस्तित्व से
ही आती है, तुम्हारे
अस्तित्व की
मूल जड़ों से।
वह चीख
तुम्हें बहुत
सारी चीजों से
मुक्त करा
देगी। तुम फिर
से बच्चे बन
जाओगे, निर्दोष! यह होता है
पुनर्जन्म।
यह भी
पर्याप्त
नहीं होता, क्योंकि
यह केवल एक
जन्म का होता
है। यदि तुम
ऐसा एक जन्म
के साथ कर
सकते हो, तो
तुम दूसरे
जन्मों में
प्रवेश कर
सकते हो। तुम
चले जाते हो
बिलकुल ही पहर—नें
दिन तक, सृष्टि
के दिन के दिन
तक। या, अगर
तुम ईसाई हो
तब आदम की
परिभाषा
अच्छी रहेगी तार
जाते हो पीछे
की ओर, फिर
तुम होते हो
ईदन के बगीचे
में। तुम बन
गए होते हो
आदम और हब्बा।
तब तुम्हारे
पिछले सारे
कर्म, आदत,
संस्कार
तिरोहित हो
जाते हैं, विलीन
हो जाते हैं।
तुम फिर से
प्रवेश कर गए
स्वर्ग में।
यही है
प्रक्रिया
प्रति —प्रसव
की। अब इन
सूत्रों में
प्रवेश करें।
चाहे
वर्तमान में
पूरे हों या
भविष्य में
कर्मगत
अनुभवों की
जड़ें होती हैं
पांच क्लेशों
में।
हमने
बात की पांच
क्लेशों की, पाच
दुखों की, पांच
कारणों की जो
कि दुख
निर्मित करते
हैं। सारे
कर्म, चाहे
वे वर्तमान
में पूरे हों
कि भविष्य में,
कर्मगत
अनुभवों की
जड़ें होती हैं
पांच दुखों में।
पहला क्लेश है
अविद्या, जागरूकता
का अभाव और
बाकी चार तो
उसी से आए परिणाम
हैं। अंतिम है
' अभिनिवेश'
जीवन की
लालसा। वे
सारे कर्म
जिन्हें तुम
करते हो, मूलत:
उत्पन्न होते
हैं जागरूकता
के अभाव से।
इसका
अर्थ क्या
होता है, और उसे क्या
कहा जाएगा जब
बुद्ध चलते, खाते, सोते?
क्या वे
बातें कर्म
नहीं? नहीं,
वे नहीं हैं।
वे कर्म नहीं
हैं क्योंकि
वे उत्पन्न
होते जागरूकता
से। वे भविष्य
के लिए कोई
बीज साथ नहीं
लिए रहते। यदि
बुद्ध चलते
हैं, तो वह
चलना वर्तमान
का होता है।
उसका अतीत में
चलने से कोई
संबंध नहीं
होता। यह बात
अतीत से नहीं
जुड़ी होती, कि जिसके
कारण वे चल
रहे होते हैं।
वह एक वर्तमान
की जरूरत होती
है, बिलकुल
अभी की, यहीं
और अभी की। वह
सहज —
स्वाभाविक
होती है। यदि
बुद्ध भूख
अनुभव करते हैं,
तो वे भोजन
करते हैं।
लेकिन यह बात
स्वत:प्रवाहित
होती है, यहीं
और अभी। अंतर
को समझ लेना
है।
पूरब
के अध्यात्म
विज्ञान की
समस्याओं में
से एक रही है
यह समस्या
बुद्ध चालीस
वर्षों तक
जीवित
रहे उनके
बुद्धत्व को
उपलब्ध होने
के बाद, उन कर्मों
का क्या होगा
जिन्हें
उन्होंने
किया उन चालीस
वर्षों के
दौरान? यदि
वे बीज बन गए
होते तो
उन्हें फिर से
जन्म लेना
पड़ता या कि
कुछ और अंतर
होता है?
वे
नहीं बनते बीज, वे नहीं
बनते तुम रोज
भोजन करते हो
दिन के एक बजे।
वह दो ढंग से
किया जा सकता
है। तुम देखते
हो घड़ी की तरफ
और अचानक तुम
अनुभव करते हो
कि पेट में
भूख कराह रही
है। यह भूख
जुड़ी है अतीत
से। यह
स्वतःस्फूर्त
नहीं है
क्योंकि हर
रोज तुम भोजन
करते रहे हो
एक बजे। एक
बजे का समय
तुम्हें याद
दिलाता है, यह शरीर को
एकदम उकसा
देता है और
सारे शरीर को भूख
लगने लगती है।
तुम कहोगे कि
मात्र याद
दिलाने से
किसी को भूख
नहीं लग सकती —ठीक।
लेकिन शरीर
तुम्हारे मन
के पीछे चलता
है। तुरंत
शरीर को याद आ
जाता है कि एक
बजा है, मुझे
भूख लगनी ही
चाहिए। शरीर
इसका अनुसरण
करता है : पेट
में तुम भूख
का मंथन अनुभव
करते हो, यह
होती है अतीत
के कारण
निर्मित हुई
एक झूठी भूख।
यदि घड़ी कहती
है कि केवल
बारह ही बजे
हैं, यदि
किसी ने घड़ी
को एक घंटा
पीछे कर दिया
हो, तो तुम
उसको देखोगे
और कहोगे कि
अभी भी एक घंटा
बाकी है —मैं
किए चला जा
सकता हूं अपना
काम — भूख नहीं
लगी है।
तुम
जीते हो अतीत
के कारण और
आदत के कारण।
तुम्हारी भूख एक
आदत है, तुम्हारा
प्रेम एक आदत
है, तुम्हारी
प्यास एक आदत
है, तुम्हारी
प्रसन्नता एक
आदत है, तुम्हारा
क्रोध एक आदत
है। तुम जीते
हो अतीत के
कारण। इसीलिए
तुम्हारा
जीवन इतना
अर्थहीन होता
है, कोई
अर्थ नहीं, उसमें कोई
चमक नहीं। कोई
महिमा नहीं।
यह एक बिना
मरूद्यान
वाले
रेगिस्तान
जैसी घटना है।
बुद्ध
जीते हैं क्षण
की सहज
स्फुरणा में।
यदि उन्हें
भूख लगती है
तो उन्हें
अतीत के कारण
भूख नहीं लगती, ठीक अभी
भूख लगी होती
है। उनकी भूख
वास्तविक
होती है, सच्ची
होती है। ठीक
अभी वे प्यास
अनुभव करते
हैं। प्यास
मौजूद होती है;
वह मन के
द्वारा
प्रेरित नहीं
हुई होती। तुम
जीते हो मन के
द्वारा।
बुद्ध के पास
कोई मन नहीं; मन धुल कर
साफ हो गया है।
वे जीते हैं
अपनी अंतस
सत्ता के
द्वारा, जो
कुछ घटता है
उसके द्वारा,
जो कुछ जैसा
वे अनुभव करते
हैं उसके
द्वारा।
इसीलिए
बुद्ध जैसे
लोग कह सकते
हैं अब मैं
मरूंगा। तुम
नहीं कह सकते
ऐसा। कैसे कह
सकते हो इम यह? तुमने
कभी अनुभव
नहीं की
स्वत:स्फूर्तता।
तुम्हें भूख
अनुभव होती है
—क्योंकि समय
आ पहुंचा; तुम्हें
प्रेम अनुभव
होता है, क्योंकि
पुरानी आदतों
का ढांचा
दोहराया जाता
है। तुमने
मृत्यु को
नहीं जाना अतीत
में, तो
कैसे तुम
पहचानोगे
मृत्यु को जब
मृत्यु आ जाएगी?
तुम नहीं
पहचान पाओगे
उसे, मृत्यु
आ जाएगी।
बुद्ध
पहचानते हैं
मृत्यु को।
जब
मृत्यु आयी, बुद्ध ने
कहा अपने
शिष्यों से, यदि तुम्हें
कुछ पूछना है
तो तुम पूछ
सकते हो, क्योंकि
मैं मरने वाला
हूं। वह आदमी
जो सहजता में
जीया है, भूख
अनुभव करेगा
जब शरीर को
भूख लगी होती
है, प्यास
अनुभव करेगा
जब शरीर को
प्यास लगती है,
मृत्यु का
आना अनुभव
करेगा जब शरीर
मर रहा होता
है। यह एक
अजीब —सी बात
है कि लोग
मरते हैं और
वे नहीं जान
सकते कि शरीर
मर रहा है, वे
अनुभव नहीं कर
सकते। वे इतने
अनुभूतिविहीन
हो चुके होते
हैं —इतने
यंत्रवत, मशीनी
आदमी जैसे।
मृत्यु
एक बड़ी घटना
है। जब
तुम्हें भूख
अनुभव हो सकती
है, तो
तुम मृत्यु को
क्यों नहीं
अनुभव कर सकते?
जब तुम
अनुभव कर सकते
हो कि शरीर सो
रहा है, तो
तुम क्यों
नहीं अनुभव कर
सकते कि शरीर
उतरता जा रहा
है मृत्यु में?
नहीं, तुम
नहीं कर सकते
अनुभव। तुम
अनुभव कर सकते
हो केवल अतीत
से आयी चीजों को,
और अतीत में
कहीं कोई
मृत्यु नहीं
रही, इसलिए
तुम्हारे पास
कोई अनुभव
नहीं। मन में
इसकी कोई
स्मृति है
नहीं, इसलिए
जब मृत्यु आती
है, तो वह
आती है लेकिन
मन होशपूर्ण
नहीं होता।
बुद्ध कहते
हैं, 'अब
तुम पूछ सकते
हो यदि
तुम्हें कुछ
पूछना हो तो, क्योंकि मैं
मरने ही वाला
हूं।’ और
फिर वे लेट
जाते हैं
वृक्ष के नीचे
और होशपूर्वक
मरते हैं।
पहले
तो वे अपने को
हटा लेते हैं
शरीर से, फिर होती
हैं सूक्ष्म
पर्तें, सूक्ष्म
शरीर, फिर
वे उतरते चले
जाते हैं भीतर।
चौथे चरण में
वे विलीन हो
जाते हैं; वे
चार चरण चल
लेते हैं भीतर
की ओर। चौथे
चरण पर वे
विलीन हो जाते
हैं। वे चार
चरण चलते हैं
भीतर की ओर।
बुद्ध मृत्यु
के कारण नहीं
मरते हैं, वे
मरते हैं
स्वयं। और जब
तुम मरते हो
स्वयं ही तो उसका
अपना सौंदर्य
होता है, उसमें
एक गरिमा होती
है। तब कोई
संघर्ष नहीं
रहता है।
जब
आदमी को होश
होता है, तो वह जीता
है इसी क्षण
में, अतीत
के कारण नहीं।
यही है भेद
यदि तुम जीते
हो अतीत में
तब भविष्य
निर्मित होता
है, कर्म
का चक्र बढ़ता
चलता है, यदि
तुम जीते हो वर्तमान
को तो फिर
कर्म का चक्र
नहीं बना रहता।
तुम उसके बाहर
होते हो, तुम
उससे बाहर आ
जाते हो। कोई
भविष्य
निर्मित नहीं
होता।
वर्तमान
कभी निर्मित
नहीं करता
भविष्य को, केवल
अतीत निर्मित
करता है
भविष्य को। तब
जीवन बन जाता
है अतीत की
किसी
अविच्छिन्न धारा
से रहित पल —प्रतिपल
की घटना। तुम
जीते हो इसी
क्षण को। जब
यह क्षण चला
जाता है तो एक
दूसरा क्षण
मौजूद हो जाता
है। तुम जीते
हो दूसरे क्षण
को अतीत के
माध्यम से नहीं,
बल्कि
तुम्हारे
जागरण, सजगता,
तुम्हारी
अनुभूति, तुम्हारी
अंतस—सत्ता से।
तब कोई चिंता
नहीं रहती, कोई स्वप्न
नहीं, अतीत
का कोई प्रभाव
नहीं। तुम
बिलकुल
निर्भार होते
हो, तुम उड़
सकते हो।
गुरुत्वाकर्षण
अपने अर्थ खो
देता है। तुम
अपने पंख खोल
सकते हो। तुम
आकाश में
विचरते पक्षी
हो सकते हो, और तुम आगे
और आगे और आगे
चले चल सकते
हो। पीछे
लौटने की कोई
जरूरत नहीं
रहती। वापस आ
जाने को कोई
जगह न रही, वह
स्थल आ पहुंचा
है, जहां
से कोई वापसी
नहीं। क्या
करना होगा? पिछले संचित
कर्मों के साथ
तुम्हें
अपनानी होगी
प्रति —प्रसव
की विधि।
तुम्हें
लौटना होता है
पीछे की ओर
उसे जीते हुए,
फिर से जीते
हुए ताकि घाव
भर जाएं। अतीत
की बात खत्म
हो गयी
तुम्हारे लिए—घाव
बंद हो जाता
है।
दूसरी
बात यह होती
है कि जब
पिछला खाता
बंद हो जाता
है, तो
तुम्हारे लिए
खत्म हो जाती
वह बात सारा
संचित जल गया,
बीज जल गए, जैसे कि
तुम्हारा कभी
अस्तित्व ही न
था, जैसे
कि तुम बिलकुल
इसी क्षण
उत्पन्न हुए
हो, ताजे, सुबह की ओस
की बूंदों से
ताजे। तब जीना
जागरूकता
सहित। जो कुछ
भी तुमने किया
तुम्हारी
पिछली स्मृतियों
के साथ, अब
वही कुछ करना
वर्तमान घटना
के साथ। तुम
फिर से जीए
चैतन्य सहित,
अब हर क्षण
जीयो चैतन्य
सहित। यदि तुम
हर क्षण को जी
सकते हो
चैतन्य सहित
तो तुम कर्मों
को संचित नहीं
करते, बिलकुल
ही संचित नहीं
करते। तुम
जीते हो एक
निर्भार जीवन।
यही
अर्थ है
संन्यास का
निर्भार होकर
जीना। हर क्षण
दर्पण साफ कर
देना ताकि कोई
धूल इकट्ठी न
हो, और
जैसा जीवन हो,
दर्पण सदा
उसे ही
प्रतिबिंबित
करे। एक
निर्भार जीवन
जीना, बिना
किसी
गुरुत्वाकर्षण
के जीना, पंखों
सहित जीना, खुले आकाश —सा
जीवन जीना ही
संन्यासी
होना है।
पुरानी
किताबों में
यह कहा गया है
कि संन्यासी
आकाश —पक्षी
है —वह है।
जैसे कि आकाश
के पक्षी कोई
पदचिह्न नहीं
छोड़ते, वह
कोई पदचिह्न
नहीं छोड़ता है।
यदि तुम जमीन
पर चलते हो तो
तुम्हारे
पदचिह्न छूट
जाते हैं।
वह
आदमी जो जागा
नहीं है, चलता है
धरती पर—न ही
केवल धरती पर
बल्कि गीली
धरती पर चलता
है, छोड़ता
चलता है
पदचिह्न —
अतीत। जागरण
पाने वाला
व्यक्ति उड़ता
है पक्षी की
भांति; वह
कोई पदचिह्न
नहीं छोड़ता
आकाश में, कुछ
नहीं छोड़ता वह।
यदि तुम देखो पीछे
की ओर तो वहां
आकाश होता है,
यदि तुम
देखो आगे तो
वहां आकाश
होता है —कोई
पदचिह्न नहीं,
कोई
स्मृतियां
नहीं।
जब मैं
ऐसा कहता हूं
तो मेरा यह
अर्थ नहीं होता
कि यदि बुद्ध
तुम्हें
जानते हों तो
वे तुम्हें
याद न रखेंगे।
उनके पास होती
हैं
स्मृतियां, लेकिन
मनोवैज्ञानिक
स्मृतियां
नहीं होतीं।
मन कार्य करता
है, लेकिन
वह कार्य करता
है यंत्रवत
अलग — थलग।
उनका कोई
तादात्म्य
नहीं मन के
साथ। यदि तुम
जाओ बुद्ध के
पास और तुम
कहो, 'मैं
यहां पहले आता
रहा हूं। क्या
आपको मेरी याद
है?' उन्हें
याद आ जाएगी
तुम्हारी। वे
तुम्हें याद
कर पाएंगे
किसी दूसरे से
ज्यादा बेहतर
ढंग से, क्योंकि
उन पर कोई बोझ
नहीं होता।
उनके पास साफ,
दर्पण जैसा
मन होता है।
तुम्हें
इस भेद को समझ
लेना है, क्योंकि कई
बार लोग सोचते
हैं कि जब कोई
आदमी संपूर्णतया
सजग और
होशपूर्ण हो
जाता है और मन मिट
जाता है, तो
वह सब कुछ भूल
जाता होगा।
नहीं, वह
कोई चीज साथ
नहीं रखता, वह याद रखता
है। उसकी
क्रियाशीलता
बेहतर होती है,
मन ज्यादा
साफ होता है, दर्पण समान
होता है। उसके
पास
अस्तित्वगत
स्मृतियां
होती हैं, लेकिन
उनके पास
मनोवैज्ञानिक
स्मृतियां नहीं
होती हैं। भेद
बहुत सूक्ष्म
है।
उदाहरण
के लिए तुम कल
मेरे पास आए
और तुम्हें क्रोध
आया था मुझ पर।
तुम आज फिर आ
गए और मैं
तुम्हें याद
रखूंगा
क्योंकि तुम
कल आए थे।
मुझे याद
रहेगा
तुम्हारा
चेहरा, मैं पहचान
लूंगा
तुम्हें, लेकिन
मैं तुम्हारे
क्रोध का घाव
साथ नहीं लिए
रहता। वह
तुम्हारे किए
की बात है।
मैं यह घाव
साथ नहीं लिए
रहता कि तुम
क्रोधित थे।
पहली बात तो
यह है कि
मैंने घाव को
कभी मौजूद होने
ही नहीं दिया।
जब तुम
क्रोधित थे, तब वह कुछ
ऐसी बात थी
जिसे तुम
स्वयं के साथ
कर रहे थे, मेरे
साथ नहीं। यह
मात्र एक
संयोग था कि
मैं वहां
मौजूद था। मैं
घाव साथ नहीं
लिए रहता। मैं
ऐसा व्यवहार
नहीं करूंगा
जैसे कि तुम
वही आदमी हो
जो कि कल
क्रोधित था।
क्रोध मेरे और
तुम्हारे बीच
नहीं होगा।
क्रोध
वर्तमान
संबंध को नहीं
रंगेगा। यदि
क्रोध रंग
देता है
वर्तमान
संबंध को, तो
यह एक
मनोवैज्ञानिक
स्मृति होती
है, घाव
साथ ही बना
रहता है।
और
मनोवैज्ञानिक
स्मृति एक
बहुत झुठलाने
वाली
प्रक्रिया
होती है। तुम
शायद आए हो
माफी मांगने
और यदि मैं
घाव लिए रहूं, तो मैं
नहीं देख सकता
तुम्हारा आज
का चेहरा जो
माफी मांगने
आया होता है, जो कि
पछताने आया
होता है। यदि
मैं देखता हूं
बीते कल का पुराना
चेहरा तो मैं
अभी भी आंखों
में क्रोध ही
देखूंगा, मैं
अभी भी तुममें
शत्रु को ही
देखूंगा, और
तुम फिर शत्रु
तो नहीं रहते
यदि तुममें
पछतावा होता
है तो। सारी
रात तुम सो न
सके, और
तुम आए हो
माफी मांगने।
मैं उस ढंग से
व्यवहार
करूंगा
क्योंकि मैं
बीते कल को प्रक्षेपित
कर दूंगा
तुम्हारे
चेहरे पर। वह
बीता कल नयी
बात के
उत्पन्न होने
की सारी संभावना
को ही नष्ट कर
देगा। मैं
स्वीकार नहीं
करूंगा
तुम्हारे
पछतावे को, मैं नहीं
स्वीकारूंगा
कि तुम्हें
अफसोस हो रहा
है। मैं
सोचूंगा कि
तुम कोई
चालाकी कर रहे
हो। मैं
सोचूंगा कि
इसके पीछे
जरूर कोई और
बात होगी।
क्योंकि
क्रोध, क्रोधी
आदमी का चेहरा
अभी भी मौजूद
है मेरे और
तुम्हारे बीच।
मैं उसे इतना
ज्यादा
प्रक्षेपित
कर सकता हूं कि
तुम्हारे लिए
असंभव हो
जाएगा पछताना।
या, मैं
उसे इतने गहन
रूप से
प्रक्षेपित
कर सकता हूं
कि तुम पूरी
तरह भूल ही
जाओगे कि तुम
माफी मांगने
आए थे। मेरा
व्यवहार फिर
एक स्थिति बन
सकता है जिसमें
कि तुम
क्रोधित हो
जाओ। और यदि
तुम क्रोधित
होते हो, तो
मेरा
प्रक्षेपण
पूरा हो जाता
है, मजबूत
हो जाता है।
अस्तित्वगत
स्मृति तो ठीक
होती है, उसे तो
मौजूद रहना ही
होता है। बुद्ध
को याद रखना
ही है अपने
शिष्यों को।
आनंद आनंद है
और सारिपुत्र
है सारिपुत्र।
वह इस विषय को
लेकर कभी उलझन
में नहीं पड़े
कि कौन आनंद
है और कौन
सारिपुत्र है।
वे स्मृति
बनाए रहते हैं,
लेकिन वह तो
बस हिस्सा
होती है
मस्तिष्क के
ढांचे का, अलग
— थलग कार्य
करती हुई, जैसे
कि तुम्हारी
जेब में
कंप्यूटर हो
और कंप्यूटर
स्मृति को साथ
रखता हो।
बुद्ध का
मस्तिष्क जेब
में पड़ा
कंप्यूटर बन गया
है, एक अलग
घटना। वह उनके
संबंधों में
नहीं आता, वे
उसे सदा साथ
लिए नहीं रहते।
जब उसकी जरूरत
होती है तो वे
देख लेते हैं
उसमें, लेकिन
वे कभी
तादात्म्य
नहीं बनाते
उसके साथ।
जब कोई
व्यक्ति पूरी
जागरूकता
सहित जीता है
वर्तमान में —
और पूरी
जागरूकता के
साथ तुम किसी
और जगह नहीं
जी सकते
क्योंकि जब
तुम जागरूक
होते हो तो केवल
वर्तमान ही
बचता है वहा, अतीत न
रहा, भविष्य
न रहा अब।
सारा जीवन बन
जाता है वर्तमान
की घटना—तब
कोई कर्म, कर्म
के कोई बीज, संचित नहीं
होते। तुम
मुक्त होते हो
तुम्हारे
अपने संबंध से।
तुम्हारे
अपने से ही
निर्मित हुआ
था बंधन।
और तुम
मुक्त हो सकते
हो। तुम्हें
पहले सारी
दुनिया के
मुक्त हो जाने
की प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं। तुम
आनंदित हो
सकते हो। सारी
दुनिया दुखों
से मुक्त हो
जाए तुम्हें इसके
लिए
प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं। यदि तुम
प्रतीक्षा
करते हो, तो तुम
प्रतीक्षा
करोगे व्यर्थ
ही —यह बात
घटित न होगी।
यह एक आंतरिक
घटना है. बंधन
से मुक्त होना।
तुम
संपूर्णतया
मुक्त होकर जी
सकते हो संपूर्णतया
अमुक्त संसार
में। तुम
समग्ररूपेण
मुक्त होकर जी
सकते हो, कैद में भी
हो तो इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता, क्योंकि
यह एक आंतरिक
दृष्टिकोण
होता है। यदि
तुम्हारे
अंतरबीज टूट
जाते हैं, तुम
मुक्त होते हो।
तुम बुद्ध को
कैदी नहीं बना
सकते। डाल दो
उन्हें जेल
में लेकिन तो
भी तुम नहीं
बना सकते
उन्हें कैदी।
वे जीएंगे
वहां, वे
जीएंगे वहां
जागरूकता
सहित। यदि तुम
होते हो
संपूर्ण
जागरण में तो
तुम सदा ही
होते हो मोक्ष
में, सदा
ही जीते हो
स्वतंत्रता
में।
जागरूकता है
स्वतंत्रता, अजागरूकता
है बंधन।
जब
तक जड़ें बनी
रहती हैं पुनर्जन्म
से कर्म की
पूर्ति होती
है— गुणवत्ता
जीवन के
विस्तार और
अनुभवों के
ढंग द्वारा।
यदि तुम
बनाए रहते हो
कर्म के बीजों
को तो उन
बीजों की
पूर्ति होगी
फिर—फिर लाखों
तरीकों से। तुम
फिर पा लोगे
स्थितियों को
और अवसरों को
जहां कि
तुम्हारे
कर्मों की
परिपूर्ति हो
सकती है।
उदाहरण
के लिए, तुम्हारे
पास शायद बड़ी
धन—संपत्ति हो,
शायद तुम
धनी व्यक्ति
होओ। तुम
धनवान हो सकते
हो लेकिन तुम
कंजूस हो और तुम
जीते हो
दरिद्र
व्यक्ति का
जीवन—यह है
कर्म। पिछले
जन्मों में
तुम जीए हो
दरिद्र
व्यक्ति की
भांति। अब
तुम्हारे पास
धन —दौलत है
लेकिन तुम जी
नहीं सकते उस
दौलत को। तुम
ढूंढ लोगे
तर्कपूर्ण
उत्तर। तुम
सोचोगे कि
सारा संसार
दरिद्र है
इसलिए तुम्हें
जीना ही है एक
दरिद्र जीवन।
लेकिन तुम
गरीब को नहीं
दे दोगे
तुम्हारी दौलत.
तुम जीयोगे
गरीब का जीवन,
और धन पड़ा
रहेगा बैंक
में। या, तुम
सोच सकते कि
गरीबी की
जिंदगी ही
होती है
धार्मिक जिंदगी,
इसलिए
तुम्हें जीनी
ही है गरीबी
की जिंदगी। यह
कर्म होता है;
दरिद्रता
का एक बीज।
तुम्हारे पास
शायद धन —दौलत
हो, लेकिन
तो भी तुम उसे
जी न सको; बीज
बना रहेगा।
तुम
शायद भिखारी
हो और तुम जी
सकते हो
समृद्ध जीवन। तुम
भिखारी हो
सकते हो, और कई बार
भिखारी
ज्यादा
समृद्ध होते
हैं धनवान
लोगों से। वे
स्वतंत्रतापूर्वक
जीते हैं। वे
इसकी चिंता
नहीं करते कि
क्या घटने को
है। खोने को
उनके पास कुछ
होता नहीं, इसलिए जो
कुछ भी उनके
पास होता है, वे आनंदित
होते हैं उससे।
जितना है उससे
कम तो नहीं हो
सकता, इसलिए
वे आनंद मनाते
हैं। एक गरीब
आदमी समृद्ध
जीवन जीता है
यदि वह समृद्ध
जीवन के बीज
साथ लिए रहता
हो, और वे
बीज सदा ढूंढ
लेंगे
संभावनाओं को,
पूरा करने
वाले अवसरों
को। जहां कहीं
तुम हो, उससे
कुछ अंतर न
पड़ेगा।
तुम्हें जीना
होगा
तुम्हारे अतीत
द्वारा।
पुण्य
लात' है सुख; अपुण्य
लात' है दुःख।
यदि
तुमने पुण्य
कर्म किए होते
हैं, अच्छे
कार्य किए
होते हैं, तो
तुम्हारे
आसपास ज्यादा
सुख होगा।
तुम्हारे
आसपास कुछ भी
न हो, जीवन
के प्रति एक
सुखद
दृष्टिकोण तो
होगा, एक
प्रीतिकर
संभावना। तुम
देख पाओगे
अंधेरे
बादलों में
छिपी रजत—रेखा।
तुम आनंदित हो
जाओगे साधारण
चीजों से, छोटी—छोटी
चीजें, लेकिन
तुम इतने
ज्यादा
आनंदित होओगे
उनसे कि वे
समृद्ध हो
जाएंगी, समृद्ध
चीजों से
ज्यादा
समृद्ध।
भिखारी का
चोला पहने तुम
चल सकते हो
किसी सम्राट
की भांति। यदि
तुमने पुण्य—कर्म
किए होते हैं,
तो सुख पीछे
चला आता है।
यदि तुमने पाप
किया, बुरे
कर्म —हिंसात्मक,
आक्रामक, दूसरों को
नुकसान
पहुंचाने
वाला काम, तो
पीड़ा चली आती
है। ध्यान रहे,
यह तो उसका
फल है—एक
स्वाभाविक
परिणाम।
ईसाई, यहूदी, मुसलमान
सोचते हैं कि
ईश्वर
तुम्हें सजा
देता है
क्योंकि तुम
बुरा करते हो।
तुम अच्छा
करते हो और
ईश्वर
तुम्हारी
प्रशंसा करता
है, तुम्हें
उपहार देता है
—खुशनुमा
चीजों का
उपहार। हिंदू
ज्यादा कुशल
हैं, वे
ईश्वर को नहीं
लाते बीच में।
वे तो बस कहते
हैं, 'यह
नियम है,' —जैसे
कि
गुरुत्वाकर्षण
का नियम है, यदि तुम
संतुलित होकर
चलते हो, तो
तुम गिरते
नहीं, तुम
आनंदित होते
चलने से; यदि
तुम किसी
शराबी की
भांति
असंतुलित
होकर चलते हो,
तो तुम गिर
पड़ते हो और
हड्डी टूट
जाती है। ऐसा
नहीं है कि
ईश्वर
तुम्हें सजा
दे रहा होता
है क्योंकि
तुमने कुछ गलत
किया; यह
तो एक सीधा—साफ
नियम होता है
गुरुत्वाकर्षण
का। तुम अच्छा
भोजन करते, अच्छी चीजें
खाते, स्वास्थ्य
बनता; तुम
गलत ढंग से
खाते, गलत
चीजें, तो
बीमारी चली
आती। ऐसा नहीं
कि कोई
तुम्हें सजा
दे रहा होता
है। कोई नहीं
है वहां
तुम्हें सजा
देने को, बस
नियम है, केवल
प्रकृति—ताओ,
ऋत्।
कर्म
का नियम सीधा —साफ
है। यदि तुम
ईश्वर की बात
करने लगते हो, तो चीजें
जटिल हो जाती
हैं, बहुत
जटिल। कई बार
हम देखते हैं
कि बुरा आदमी
जीवन में आनंदित
हो रहा है, और
कई बार हम
अच्छे आदमी को
पीड़ा भोगते
देखते हैं तो
प्रश्न उठता
है इस बारे
में कि ईश्वर
कर क्या रहा है
२: वह अन्यायी
जान पड़ता है।
यदि वह न्यायी
है, तब तो
बुरे व्यक्ति
को पीड़ा भोगनी
चाहिए और अच्छे
को जीवन का
ज्यादा आनंद
मनाना चाहिए।
जटिलता
यह है यदि
परमात्मा
बिलकुल
न्यायपूर्ण
है तब तुम उसे
करुणापूर्ण
नहीं जान सकते
क्योंकि तब
करुणा कैसे
न्याययुक्त
बनेगी? यदि
परमात्मा
न्यायपूर्ण
है तो वह
करुणापूर्ण
नहीं हो सकता
क्योंकि
करुणा का अर्थ
होता है कि
यदि किसी ने
कुछ गलत किया,
पर फिर भी
प्रार्थना
किए जाता है
तो तुम उसे माफ
कर देते हो।
इसलिए
प्रार्थना
बहुत
अर्थपूर्ण बन
जाती है ईसाइयों,
यहूदियों
और मुसलमानों
की दुनिया में
— 'प्रार्थना
करो, क्योंकि
यदि तुम
प्रार्थना
करते हो तो
परमात्मा
तुम्हें माफ
कर देगा। वह
स्वयं करुणा
है।’ इसका
अर्थ हुआ कि
वह अन्यायी
होगा। यदि
किसी व्यक्ति
ने प्रार्थना
नहीं की .और वह
पापी रहा है, उसे सजा
मिलेगी और
नर्क में फेंक
दिया जाएगा।
और वह आदमी
जिसने कि
प्रार्थना की
है और ज्यादा
बड़ा पापी रहा
है, स्वर्ग
में प्रवेश
पाएगा। यह बात
अन्यायपूर्ण
मालूम पड़ती है।
मात्र
प्रार्थना
करने से? और
प्रार्थना
चीज क्या है? क्या यह
किसी प्रकार
की खुशामद है? तुम
प्रार्थना
में करते क्या
हो? —तुम
खुशामद करते
हो परमात्मा
की।
हिंदू
कहते हैं, 'नहीं, परमात्मा को
बीच में मत
लाओ क्योंकि
उलझनें आ बनेंगी।
या तो वह
न्यायपूर्ण
होगा—तब तो
करुणा के लिए
कोई स्थान ही
न रहेगा, या
उसमें करुणा
होगी —तो वह
न्यायपूर्ण
नहीं हो सकता।’
इस कारण लोग
सोचेंगे कि
अच्छे और बुरे
काम—इनका
वस्तुत: कोई
सवाल नहीं, केवल
प्रार्थना, पवित्र
स्थानों की
तीर्थयात्रा
ठीक है। हिंदू
कहते हैं : यह
तो एक सीधा —साफ
प्राकृतिक
नियम है, प्रार्थना
कोई मदद न
देगी। यदि
तुमने कुछ
बुरा किया है
तो तुम्हें
दुख भोगना
होगा। कोई
प्रार्थना
मदद नहीं कर
सकती। तो मत
प्रतीक्षा
करना प्रार्थना
के लिए, और
मत गंवाना
तुम्हारा समय
प्रार्थना
में। यदि
तुमने कुछ
बुरा किया है
तो तुम्हें
पीड़ा भोगनी ही
होगी; यदि
तुमने अच्छा
काम किया है
तो तुम आनंद
मनाओगे।
लेकिन
कोई उन चीजों
को बांट नहीं
रहा होता तुम्हारे
लिए, संसार
में कहीं कोई
व्यक्ति नहीं—यह
एक नियम है, अव्यक्तिगत।
यह बात ज्यादा
वैज्ञानिक है।
यह जटिलताएं
कम निर्मित
करती है और
समस्याओं को
सुलझाती
ज्यादा है।
प्रकृति के
नियम के विषय
में हिंदुओं
की जो अवधारणा
है, ऋत्, वह संसार के
प्रति बने
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के
साथ हर ढंग से
अनुकूल बैठती
है। तो क्या
कर सकते हो
तुम? तुमने
बुरा किया, तुमने अच्छा
किया; दुख
और सुख पीछे —पीछे
चले आएंगे
छाया की भाति।
कैसे होता है
यह? क्या
करना होगा?
दो
दृष्टिकोण
हैं पूरब में
एक तो पतंजलि
का और दूसरा
है महावीर का।
महावीर कहते
हैं, 'यदि
तुमने कुछ गलत
किया है तो
तुम्हें कुछ सही
करना होगा
संतुलन लाने
को, अन्यथा
तो तुम पीड़ा
भोगोगे।’ यह
बात तो जरा
ज्यादा बड़ी
लगती है, क्योंकि
बहुत जन्मों
से तुम लाखों
चीजें करते
रहे हो। यदि
हर चीज का
हिसाब —किताब
चुकाना हो, तो इसमें
लाखों जन्म
लगेंगे। और
फिर भी खाता
बंद न होगा
क्योंकि
तुम्हें जीने
पड़ेंगे ये
लाखों जन्म, और तुम
निरंतर रूप से
वे चीजें करते
रहोगे जो ज्यादा
भविष्य
निर्मित कर
देंगी। हर चीज
ले जाती किसी
दूसरी चीज तक,
एक चीज से
दूसरी चीज तक,
हर चीज
परस्पर जुड़ी
होती है। तब
तो
स्वतंत्रता
की कोई
संभावना ही
नहीं जान पड़ती।
पतंजलि
का दृष्टिकोण
एक दूसरा
दृष्टिकोण है।
वह ज्यादा
गहरे उतरता है।
सवाल अच्छाई
द्वारा
संतुलन बनाने
का नहीं, अतीत अनकिया
नहीं किया जा
सकता है।
तुमने अतीत
में एक
व्यक्ति को
मार दिया—महावीर
का दृष्टिकोण
ऐसा है, अब
तुम संसार में
अच्छी — अच्छी
बातें करो।
लेकिन तुम
अच्छी बातें
करते भी हो, तो वह आदमी
फिर से जी
नहीं उठता है।
वह आदमी मर
गया, सदा
के लिए मर गया।
वह हत्या सदा
के लिए
तुम्हारे
भीतर एक जख्म
की भाति बनी
रहेगी। शायद
तुम स्वयं को
तसल्ली दे
सकते हो कि
तुमने इतने
सारे मंदिर और
धर्मशालाएं
बनाई हैं, और
तुमने लाखों
रुपये दान दे
दिए हैं लोगों
को। शायद यह
बात एक
सांत्वना
होगी, लेकिन
अपराध तो
मौजूद रहेगा
ही। कैसे तुम
हत्या का
हिसाब बराबर
कर सकते हो? उसे
निष्प्रभाव
नहीं किया जा
सकता। तुम
अतीत को
अनकिया नहीं
कर सकते।
पतंजलि
कहते हैं, 'अतीत
स्मृति के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं है, वह एक स्वप्निल
घटना है, वह
अब मौजूद नहीं।
तुम उसे
अनकिया कर
सकते हो मात्र
प्रति—प्रसव
में जाने से
ही। तुम जाते
हो पीछे की ओर,
उसे फिर से
जीते हो
तुम्हारी
स्मृति में
तुम फिर से उस
व्यक्ति की
हत्या कर देते
हो। उस घाव को
अनुभव करो फिर
से। जब तुमने
उस आदमी की
हत्या की तो उस
क्षण की पीड़ा
को अनुभव करना।
सारी पीड़ा को
फिर से जीना
और इसी तरह भर
जाएगा घाव और
अतीत धुल
जाएगा।’
पतंजलि
के साथ मुक्ति
संभव जान पड़ती
है; महावीर
के साथ वह
असंभव मालूम
पड़ती है।
इसीलिए जैन
धर्म ज्यादा
नहीं फैल पाया।
मोक्ष करीब —करीब
असंभव ही जान
पड़ता है, अविश्वसनीय।
पतंजलि पूरब
की गढ़
रहस्यवादिता
के आधारों में
से एक बन गए
हैं।
महावीर
रहे किनारे पर, सीमा पर
ही। वे कभी न
बन सके
केंद्रीय
शक्ति। वे
बहुत ज्यादा
जुड़े है
क्रिया के साथ,
और वे
कर्मों की
वास्तविकता
में बहुत
ज्यादा विश्वास
रखते हैं।
पतंजलि कहते
हैं, 'कर्म
होते हैं एकदम
स्वप्नों की
भाति। सारा
संसार और कुछ
नहीं सिवाय एक
बड़े रंगमंच के,
और सारा
जीवन और कुछ
नहीं सिवाय एक
नाटक के। तुम
उसे खेलते रहे
क्योंकि
तुम्हें होश
नहीं था। यदि
तुम सजग रहे
होते, तो
कोई समस्या न
होती।’
अब होश
में आओ और
होशपूर्ण
ऊर्जा को
तुम्हारे
अतीत तक ले आओ।
वह सारे अतीत
को जला देगी :
दुख और सुख
दोनों तिरोहित
हो जाएंगे, अच्छी —बुरी
दोनों चीजें
तिरोहित हो
जाएंगी। और जब
दोनों मिट
जाती हैं, जब
तुम अच्छे —बुरे
के द्वैत के
पार हो जाते
हो, तुम
मुक्त हो जाते
हो। तब न तो
सुख होता है
और न दुख। तब
एक शाति उतरती
है, गह से
शाति। इस शाति
में एक नयी
घटना घटती है —सच्चिदानंद
की। उस गहन
शाति में सत्य
थी टच होता है
तुममें, होश
घटता है
तुममें; आनंद
घटित होता है
तुममें। मैं
पूरी तरह राजी
हूं पतंजलि से।
इसीलिए
महावीर का
सारा
दृष्टिकोण
अधिकाधिक नैतिक
हो गया। जैन धर्म
तो बिलकुल ही
भूल गया है
योग को। तुम
जैन मुनियों
को योग करते
हुए नहीं
पाओगे —कभी
नहीं। वे तो
बस अपने कर्म का
संतुलन बैठा
रहे होते हैं!
वे निरंतर सोच
रहे हैं कि क्या
करें और क्या
न करें। कैसे
घटित हो अंतस—सत्ता
यह वे बिलकुल
भूल ही चुके
हैं। क्या
करना है और
क्या नहीं करना
है,
कर्तव्य और अकर्तव्य—उनका
सारा
दृष्टिकोण
कर्मों से
जुड़ा होता है—अंधेरे
में मत चलो, क्योंकि
कहीं कोई कीट—पतंगा
मर जाएगा तो
और फिर वही
कर्म, रात
में मत खाओ, क्योंकि
अंधेरे में
शायद कोई
कीड़ा गिर जाए,
कोई मक्खी
गिर जाए भोजन
में और शायद
तुम उन्हें खा
लो, और
हिंसा हो जाए।
इस खाओ, उसे
मत करो। बारिश
में भी मत चलो
क्योंकि जब
जमीन गीली होती
है, बहुत
बार कीड़े—पतंगे
जमीन
पर चलते रहते
हैं, बहुत
से कीड़े पैदा
होते हैं
वर्षा में। वे
निरंतर
चिंतित रहते
है कार्यों के
विषय में, क्या
करना और क्या
नहीं करना।
उनका सारा
दृष्टिकोण
जुड़ा होता है
केवल घटना के
साथ। वे बिलकुल
ही भूल गए हैं
कि कैसे होना
है, केंद्र
में कैसे
अवस्थित होना
है। वे योग
नहीं करते, वे स्थान
नहीं करते। वे
कर्म से जुड़े
हैं, पतंजलि
जुड़े हैं
चेतना से।
ज्यादा
लोग निर्वाण
को उपलब्ध
होते हैं
पतंजलि के
द्वारा।
महावीर के
द्वारा, विरले ही, बहुत थोड़े
से, सारा
दृष्टिकोण
असंभव जानू
पड़ता है।
इसलिए पतंजलि
की सुनना ठीक
से। न ही केवल
सुनना, बल्कि
कोशिश करना
सार तत्व को
आत्मसात करने
की। बहुत कुछ
संभव है उनके
द्वारा। वे इस
पृथ्वी पर
हुए
अंतर्यात्रा
के महानतम
वैज्ञानिकों
में से एक हैं।
आज इतना ही।
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