दिनांक
7 मार्च 1975;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
योगसूत्र—(समाधिपाद)
ता
एव सबीज
समाधि:।। 46।।
ये
समाधियां जो
फलित होती है।
किसी विषय पर
ध्यान करने
से वे सबीज
समाधियां
होती है। और
आवागमन के
चक्र से मुक्त
नहीं
करती।
निर्विचार
वैशारद्ये
अध्यात्म
प्रसाद:।। 47।।
समाधि
की निर्विचार
अवस्था की
परम शुद्धता
उपलब्ध होने
पर प्रकट होता
है आध्यात्मिक
प्रसाद।
ऋतम्भरा
तत्र
प्रज्ञा।।
49।।
चिंतन—मनन
ध्यान नहीं है।
इनमें बड़ा भेद
है और केवल
परिमाणात्मक
ही नहीं बल्कि
गुणात्मक भेद
है। वे भिन्न
धरातलों पर
अस्तित्व
रखते हैं।
उनके आयाम
बिलकुल ही
भिन्न होते
हैं;
केवल भिन्न
ही नहीं, बल्कि
एकदम ही
विपरीत होते
हैं। यह पहली
बात है समझ
लेने की; चिंतन
संबंध रखता है
किसी विषय—वस्तु
से। यह दूसरे
की ओर जाती
चेतना की एक
गति है। चिंतन
बहिर्मुखी
ध्यान है,
परिधि
की ओर बढ़ता
हुआ, केंद्र
से दूर होता
हुआ। ध्यान है
केंद्र की ओर
बढ़ना, परिधि
से दूर हटना, दूसरे से
दूर होना।
चिंतन लक्षित
होता है दूसरे
की ओर, ध्यान
लक्षित होता
है स्वयं की
ओर। चिंतन में
द्वैत
विद्यमान
होता है। वहां
दो होते हैं, चिंतन और चिंतनगत।
ध्यान में
केवल एक ही
होता है।
ध्यान
के लिए
अंग्रेजी
शब्द 'मेडिटेशन'
बहुत अच्छा
नहीं है। यह 'ध्यान' या
'समाधि' का वास्तविक
अर्थ नहीं
देता, क्योंकि
'मेडिटेशन'
शब्द से ही
ऐसा प्रकट
होता है कि
तुम किसी चीज पर
ध्यान कर रहे
हो। इसलिए
समझने की
कोशिश करना :
चिंतन है किसी
चीज पर ध्यान
करना; ध्यान
है किसी चीज
पर ध्यान नहीं
करना, बस
स्वयं भर हो
रहना। केंद्र
से हटकर कोई
गति नहीं होती,
बिलकुल ही
नहीं होती। यह
तो बस इतने समग्र
रूप से स्वयं
जैसा हो जाना
है कि एक
कंपकपाहट भी
नहीं होती; आंतरिक ली
अकंप बनी रहती
है। दूसरा खो
चुका होता है,
और केवल तुम
होते हो। एक
भी विचार वहां
नहीं रहता।
सारा संसार जा
चुका होता है।
मन अब वहां
रहता ही नहीं;
केवल तुम
होते हो, तुम्हारी
परम शुद्धता
में। चिंतन तो
किसी चीज की
प्रतिच्छवि
दिखलाते दर्पण
की भांति है; ध्यान है
केवल दर्पण
होना, किसी
चीज की
प्रतिच्छवि
नहीं दिखलाता।
वह केवल
विशुद्ध
क्षमता है
दर्पण होने की;
लेकिन
वास्तव में
कोई चीज
प्रतिबिंबित
नहीं की जा
रही होती।
चिंतन
सहित उपलब्ध
हो सकते हो
निर्विचार
समाधि को, बिना
विचार की
समाधि। लेकिन
निर्विचार
में एक विचार
बना रहता है, और वह होता
है अ—विचार का
विचार। वह भी
अंतिम विचार
होता है, एकदम
अंतिम, तो
भी वह बना तो
रहता है, व्यक्ति
सचेत होता है
इसके प्रति कि
कोई विचार
नहीं है, वह
जानता है कि
कोई विचार नहीं
है। किंतु अ—विचार
को जानना क्या
होता है? एक
बड़ा परिवर्तन
आ चुका होता
है—विचार मिट
चुके होते हैं,
लेकिन अब स्वयं
अ—विचार ही एक
विषय बन
जाता
है। यदि तुम
कहते हो, 'मैं जानता
हूं शून्य को',
तो
पर्याप्त शून्य
नहीं होता; शून्यता का
विचार वहां
रहता है। मन अभी
भी काम कर रहा
होता है, बहुत,
बहुत निष्क्रिय
नकारात्मक
ढंग से काम कर
रहा होता है—लेकिन
अभी भी काम तो
कर ही रहा है।
तुम सजग हो कि वहां
शून्यता है।
अब यह शून्यता
होती क्या है
जिसके बारे
में तुम सजग
होते हो? यह
बहुत सूक्ष्म
होती है।
सर्वाधिक
सूक्ष्म, अंतिम
होती है; जिसके
बाद विषय
संपूर्णतया
तिरोहित हो
जाता है।
अत:
जब कभी कोई
शिष्य झेन
गुरु के पास
अपनी उपलब्धि
सहित बड़ी
प्रसन्नता से
आता है और
कहता है, 'मैंने
पा लिया है
शून्यता को', तो गुरु
कहता है, 'जाओ
और दूर फेंक
दो इस शून्यता
को। फिर मत
लाना इसे मेरे
पास। यदि तुम
सचमुच ही खाली
हुए हो तो वहां
शून्यता का
कोई विचार भी
नहीं होता।’
ऐसा
ही हुआ है
सुभूति की उस
प्रसिद्ध कथा
में। वह वृक्ष
तले बैठा हुआ
था बिना किसी
विचार के, अ—विचार
का विचार भी न
था। अकस्मात,
फूल बरस पड़े।
वह चकित हो
गया—'क्या
घट रहा है?' उसने
देखा चारों ओर;
फूल ही फूल
झरते थे आकाश
से। उसे चकित
हुआ देखकर
देवताओं ने
कहा उससे, 'चकित
मत होओ। हमने,
आज शून्यता
पर सबसे बड़ा
प्रवचन सुना
है। तुमने
दिया है उसे।
हम उत्सव मना
रहे हैं और हम
तुम पर ये फूल
बरसा रहे हैं
प्रतीक के रूप
में, शून्यता
पर दिए
तुम्हारे
प्रवचन पर
उत्सव मना रहे
हैं और उसका
सम्मान कर रहे
हैं।’ सुभूति
ने कंधे उचका
दिए और बोला, 'मगर मैं तो
कुछ बोला ही
नहीं।’ देवताओं
ने कहा, 'ही
तुम तो नहीं
बोले, और न
ही हमने सुना
है—यही तो है, शून्यता पर
दिया गया सबसे
बड़ा प्रवचन।’
यदि
तुम बोलते हो, यदि
तुम कहते हो, 'मैं खाली है,
तो तुम चूक
गए। अ—विचार
के विचार तक
निर्विचार
समाधि होती है,
कोई चिंतन—मनन
नहीं। लेकिन
फिर भी अंतिम
अंश तो बाकी
है; हाथी
गुजर गया है
दुम रह गयी है,
मगर अंतिम
अंश। और कई
बार दुम
ज्यादा बड़ी
सिद्ध होती है
हाथी से, क्योंकि
वह बहुत
सूक्ष्म होती है।
विचारों को
फेंक देना
आसान है, लेकिन
शून्यता को
कैसे फेंकें,
अ—विचार को
कैसे फेंकें?
वह बहुत—बहुत
सूक्ष्म होता
है; उसे
कैसे पूरी तरह
समझोगे? ऐसा
ही हुआ जब झेन
गुरु ने शिष्य
से कहा, 'जाओ
और फेंक दो इस
शून्यता को!' शिष्य कहने
लगा, 'पर
कैसे फेंकना
होगा शून्यता
को?' गुरु
कहने लगा, 'तो
ले जाओ इसे।
जाओ फेंको इसे,
पर अपने सिर
में शून्यता
लेकर मत खड़े
रहना मेरे पास।
कुछ करो इस
बारे में।’
यह
बहुत सूक्ष्म
होता है। कोई
चिपक सकता है
इससे; लेकिन
तब मन ने
तुम्हें धोखा
दे दिया अंतिम
स्थल पर।
निन्यानबे
प्याइंट नौ
प्रतिशत तुम
पहुंच चुके; बस आखिरी
चरण ही बाकी
था। सौ डिग्री
पर तो वह
संपूर्ण हो
चुका होता और
तुम तिरोहित
हो चुके होते।
अब
तक तो पतंजलि
कहते हैं कि
यह चिंतन—रहित
समाधि है—निर्विचार
समाधि। यदि
तुम उपलब्ध हो
चुके होते हो
इस समाधि को, तो
तुम हो जाओगे
बहुत—बहुत
प्रसन्न, मौन,
शात। तुम
भीतर सदा
रहोगे अपने
में स्थिर, अपने से
जुड़े हुए। तुम
पाओगे एक
निश्चित
संगठित
केंद्रीकरण; तुम नहीं
रहोगे साधारण
मनुष्य। तुम
लगभग अतिमानव
जान पड़ोगे, लेकिन तो भी
तुम्हें फिर—फिर
लौटना होगा।
तुम जन्म लोगे,
तुम्हारी
मृत्यु होगी।
आवागमन
का चक्र थमेगा
नहीं क्योंकि
अ—विचार
सूक्ष्म बीज
की भांति ही
होता है; बहुत
सारे जन्म
इसमें से चले
आएंगे। बीज
बहुत सूक्ष्म
होता है, वृक्ष
बड़ा होता है, लेकिन सारा
वृक्ष छिपा है
बीज में ही।
राई का बीज हो
सकता है बहुत—छोटा,
लेकिन वह
वृक्ष लिए रहता
है अपने भीतर।
वह भरा हुआ होता,
उसका पूरा
खाका लिए रहता
है; वह
सारे वृक्ष को
ला सकता है।
फिर और फिर, और फिर। और
एक बीज से
लाखों बीज आ
सकते हैं; एक
छोटा—सा राई
का बीज सारी
पृथ्वी को भर
सकता है पेड़—पौधों
से।
अ—विचार
सूक्ष्मतम
बीज होता है।
और यदि
तुम्हारे पास
होता है वह, तो
पतंजलि कहते
हैं इसे 'बीज
सहित समाधि, सबीज समाधि।’
तुम आना
जारी रखोगे, चक्र चलना
जारी रहेगा—जन्म
और मृत्यु, जन्म और
मृत्यु। यह
बात दोहराई
जाती रहेगी।
अभी तक तुमने
बीज जलाए नहीं
हैं।
यदि
तुम जला सकते
हो अ—विचार के
इस विचार को, यदि
तुम अनात्म के
इस विचार को
जला सकते हो, यदि तुम न—अहंकार
के इस विचार
को जला सकते
हो केवल तभी निर्बीज
समाधि घटती है,
बिना बीज की
समाधि। तब कोई
जन्म नहीं
होता, कोई
मृत्यु नहीं
होती। तुम
संपूर्ण चक्र
के ही बाहर हो
जाते हो, तुम
उसके पार चले
जाते हो। अब
तुम होते हो
विशुद्ध
चेतना। द्वैत
गिर चुका; तुम
एक हो चुके।
यह एकमयता, द्वैत का यह
गिरना ही होता
है मृत्यु और
जीवन का गिर
जाना। सारा
चक्र अकस्मात
थम जाता है—तुम
दु:खस्वप्न के
बाहर हो जाते
हो।
अब
हम इन सूत्रों
में प्रवेश
करेंगे। वे
बहुत—बहुत
सुंदर हैं।
उन्हें समझने
की कोशिश करना।
गहरा है उनका
अर्थ। तुम
बहुत—बहुत सजग
होना उस
सूक्ष्म अर्थ—
भेद को समझने
के लिए।
ये
समाधियां जो
फलित होती हैं
किसी विषय पर
ध्यान करने से
वे सबीज
समाधियां हैं
और आवागमन के
चक्र से मुक्त
नहीं करतीं।
'ये
समाधियां जो
फलित होती हैं
किसी विषय पर
ध्यान करने
से...।’
तुम
ध्यान कर सकते
हो किसी विषय
पर,
वह
पौद्गलिक हो
या कि
आध्यात्मिक।
वह विषय धन हो,
या कि वह
विषय मोक्ष हो,
उस अंतिम
उपलब्धि का
विषय; कोई
पत्थर हो सकता
है या कोहिनूर
हीरा हो सकता
है विषय; इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता। यदि
विषय वहां
होता है, तो
मन वहां होता
है; और
विषय होता है,
तो मन जारी
रहता है। मन
की निरंतरता
होती है विषय
द्वारा।
दूसरे के
द्वारा, मन
निरंतर पोषित
होता है। और
जब दूसरा वहां
होता है, तो
तुम स्वयं को
नहीं जान सकते;
संपूर्ण मन
केंद्रित हुआ
होता है, दूसरे
पर ही। दूसरे
को हटा देना
होता है, बिलकुल
हटा देना होता
है जिससे कि
तुम्हारे लिए
सोचने को कुछ
रहे ही नहीं, तुम्हारे
लिए तुम्हारा
ध्यान देने को
कुछ न रहे, कोई
जगह ही न हो
जहां तम सरक
सको।
'विषय के साथ,
' पतंजलि
कहते हैं, 'बहुत
सारी
संभावनाएं
होती हैं।’ तुम विषय के
साथ संबंध में
जुड़ सकते हो
बौद्धिक
प्राणी के रूप
में; तुम
तार्किक रूप
से विषय के
बारे में सोच
सकते हो। तब पतंजलि
इसे— नाम देते
हैं सवितर्क
समाधि। ऐसा
बहुत बार घटता
है : जब कोई
वैज्ञानिक
किसी विषय—वस्तु
का परीक्षण कर
रहा होता है
तो वह बिलकुल
मौन हो जाता
है। वह विषय
के साथ इतना
तल्लीन होता
है कि उसके
अंतस आकाश में,
उसकी अंतस
सत्ता में कोई
विचार घुमड़ता
ही नहीं। कई
बार जब कोई
बच्चा अपने
खिलौने के साथ
खेल रहा होता
है, वह इतना
तल्लीन हो
जाता है कि मन संपूर्णतया,
लगभग
समाप्त हो
जाता है। एक
बड़ी गहरी
शांति
विद्यमान
रहती है। विषय
तुम्हारा
सारा ध्यान
थाम लेता है; कोई चीज
पीछे नहीं बच
रहती। किसी चिंता
की संभावना
नहीं, कोई
तनाव संभव
नहीं होता, कोई पीड़ा
संभव नहीं
होती, क्योंकि
तुम समग्र रूप
से समाए होते
हो विषय में, तुम उतर
चुके होते हो
विषय में।
ऐसा
घटा सुकरात को, वह
था वैज्ञानिक,
वह था बड़ा
दार्शनिक, वह
बाहर खड़ा था
एक रात। वह एक
पूर्णिमा की
रात थी और वह
देख रहा था
चांद की ओर।
वह इतना
तल्लीन हो गया—वह
जरूर उसी में
डूबा होगा
जिसे पतंजलि
कहते हैं
सवितर्क
समाधि। जो
सर्वाधिक
तार्किक
व्यक्ति हुए
हैं, वह
उनमें से ही
एक था; सर्वाधिक
बौद्धिक मन जो
होते हैं
उनमें से एक; वह बुद्धि
संपन्नता का
शिखर था। वह
सोच रहा था
चांद के बारे
में, सितारों
के बारे में, रात के बारे
में और आकाश
के बारे में
और वह बिलकुल
भूल ही गया
स्वयं को।
बर्फ गिरने
लगी और सुबह
तक करीब—करीब
मरा हुआ ही
पाया गया, उसका
आधा शरीर बर्फ
से ढका हुआ था,
जमा हुआ था,
और अब तक वह देख
रहा था आकाश
की ही तरफ। वह
जिंदा था, पर
ठंड के मारे
जम गया था।
लोग आए थे
खोजने को कि
वह कहां चला
गया, और
उन्होंने उसे
पाया खड़े हुए।
सारी रात वह
वृक्ष के नीचे
खड़ा रहा था।
जब उन्होंने
पूछा, 'तुम
घर वापस क्यों
नहीं लौटे? —और बर्फ गिर
रही है और मर
सकता है व्यक्ति।’
वह बोला, 'मैं तो
बिलकुल भूल ही
गया था इसे
बारे में।
मेरे लिए तो
यह गिरी ही
नहीं। मेरे
लिए तो समय
गुजरा ही नहीं।
मैं रात के
सौंदर्य में,
और सितारों
में और
अस्तित्व की
सुसंबद्धता में
और ब्रह्मांड
में ही इतना
डूबा हुआ था।’
तर्क
सदा घुलमिल
जाता है सुव्यवस्था
के साथ, उस
समस्वरता के
साथ जो
ब्रह्मांड
में अस्तित्व
रखती है। तर्क
विषय के चारों
ओर घूमता रहता
है। वह उसके
ही चारों तरफ
और इधर—उधर और
आस—पास चक्कर
लगाता रहता है।
सारी ऊर्जा
विषय द्वारा
ले ली जाती है।
यह तर्कमय
समाधि होती है
सवितर्क, पर
विषय तो होता
ही है वहां।
वैज्ञानिक, बौद्धिक, दार्शनिक मन
प्राप्त करता
है इसे।
फिर
पतंजलि कहते
कि एक और
समाधि है, 'निर्वितर्क',
आनंद में
डूबे मन की; कवि, चित्रकार,
संगीतकार
उपलब्ध करते
हैं इसको। कवि
सीधे—सीधे उतर
जाता है विषय
में, उसके
इधर और उधर ही
नहीं रहता, पर फिर भी
विषय वहां
होता है। वह
शायद उसके
बारे में सोच
नहीं रहा होता,
लेकिन उसका
ध्यान
केंद्रित
होता है उस पर।
सिर
क्रियान्वित
नहीं रहा होगा,
तो शायद
हृदय ही
क्रियान्वित
होता होगा, पर फिर भी
विषय तो मौजूद
होता है, दूसरा
होता ही है वहां।
एक कवि बहुत
गहन, आनंदमयी
अवस्थाओं को
उपलब्ध हो
सकता है, लेकिन
न तो
वैज्ञानिक के
लिए, न ही
कवि के लिए
पुनर्जन्म का
चक्र समाप्त
हो सकता है।
फिर
पतंजलि पहुंच
जाते हैं 'सविचार
समाधि' तक;
तर्क गिरा
दिया गया, मात्र
शुद्ध मनन
रहता है। किसी
के बारे में
नहीं—केवल उसे
देखना, उस
पर ध्यान करना,
उसके
साक्षी बने
रहना। ज्यादा
गहरे आयाम
खुलते हैं; तो भी विषय
बना रहता, और
तुम आविष्ट
रहते विषय
द्वारा ही।
तुम अभी भी
तुम्हारे
अपने 'स्व'
में नहीं
होते—दूसरा
होता है वहां।
फिर पतंजलि आ
पहुंचते
निर्विचार तक।
निर्विचार
में धीरे—
धीरे विषय
सूक्ष्म बन
जाता है। यह
सब से
महत्वपूर्ण
बात है समझ
लेने की : निर्विचार
में विषय
ज्यादा और
ज्यादा
सूक्ष्म हो जाता
है। स्थूल
विषय—वस्तुओं
से तुम सरकते
हो सूक्ष्म विषय
की ओर—चट्टान
से फूल की ओेर,
फूल से
सुवास की और ।
तुम सरकते हो
सूक्ष्म की ओर।
धीरे—धीरे एक
घड़ी आती है, जब विषय
बहुत सूक्ष्म
हो जाता है।
लगभग ऐसे ही
जैसे कि वह हो
ही नहीं।
उदाहरण
के लिए. यदि
तुम ध्यान—मनन
करते हो
शून्यता का, यदि
विषय लगभग हो
ही नहीं, तुम
ध्यान करते हो
ना—कुछ पर।
ऐसी बौद्ध—पद्धतियां
हैं जो जोर
देती हैं केवल
ध्यान पर, और
जो है, 'नहीं—कुछ—होने'
पर ध्यान
करना।
व्यक्ति को
सोचना होता है,
व्यक्ति को
ध्यान करना
होता है, व्यक्ति
को यह धारणा
आत्मसात करनी
होती है कि कोई
चीज अस्तित्व
नहीं रखती।
निरंतर 'नहीं—कुछ'
पर ध्यान
करते हुए, एक
घड़ी आती है तब
विषय इतना
सूक्ष्म हो
जाता है कि वह
तुम्हारे
ध्यान को पकड़
नहीं सकता, वह इतना
सूक्ष्म होता
जाता है कि
चिंतन—मनन
करने को कुछ
बचता ही नहीं,
और व्यक्ति
इसी तरह चलता
जाता है और
चलता चला जाता
है। अचानक, एक दिन
चेतना स्वयं
पर उछल जाती
है। वहां विषय
में कोई
स्थायी जगह न
पाकर, कोई
आधार न पाकर, चेतना उछल
पड़ती है स्वयं
पर; वह लौट
आती है, स्वयं
अपने केंद्र
पर वापस लौट
आती है। तब वह
उच्चतम, 'शुद्धतम,
निर्विचार
हो जाती है।
उच्चतम
निर्विचार
अवस्था तब
होती है जब
चेतना स्वयं
पर ही उछल आती
है। यदि तुम
सोचने लगते हो, 'मैंने
प्राप्त कर
लिया अ—विचार
को और मैंने
पा लिया है
नहीं—कुछ होने
को', तो फिर
तुमने
निर्मित कर
लिया होता है
एक विषय और
चेतना दूर सरक
चुकी होती है।
ऐसा बहुत बार
घटता है खोजी
को।
अंत:रहस्यों
को न जानते
हुए, बहुत
बार तुम छलांग
लगा जाते हो
स्वयं पर, कई
बार तुम छू
लेते हो अपने
केंद्र को, और फिर तुम
बाहर चले जाते
हो। अकस्मात,
विचार उदित
होता है, 'ही,
मैंने पा
लिया है।’ अकस्मात,
तुम अनुभव
करने लगते, 'ही, यही
है वह। सतोरी
घट गई, समाधि
उपलब्ध हो गई।’
तुम इतना आनंदपूर्ण
अनुभव करते हो
कि ऐसे विचार
का उदित होना
स्वाभाविक
होता है।
लेकिन यदि
विचार उठता है,
तो फिर तुम
किसी उस बात
की पकड़ में आ
गए जो कि
वस्तुगत होती
है।
आत्मपरकता
फिर खो जाती, एकत्व दो हो
चुका। द्वैत
फिर आ पहुंचा वहां।
व्यक्ति
को सजग होना
होता है अ—विचार
के विचार को न
आने देने के
लिए। कोशिश मत
करना—जब कभी
ऐसा कुछ घटे, उसी
में बने रहना।
उसके बारे में
सोचने की
कोशिश मत करना,
उसके बारे
में कोई धारणा
मत बनाना; उसका
आनंद मनाना।
तुम कर सकते
हो नृत्य, उससे
कोई अड़चन न
होगी, लेकिन
शब्दों
द्वारा बनी
अभिव्यक्ति
को मत आने
देना, भाषा
को मत आने
देना। नृत्य
अड़चन नहीं
देगा, क्योंकि
नृत्य में तुम
एक हो जाते हो।
सूफी
परंपरा में, नृत्य
का प्रयोग
किया जाता है
मन से बचने के
लिए। अंतिम
अवस्था में, सूफी गुरु
बताते हैं, 'जब तुम उस
स्थल तक आ
पहुंचो जहां
कि विषय
तिरोहित हो
जाए तो तुरंत
नृत्य करने लगना
जिससे कि
ऊर्जा शरीर
में बहे और मन
में नहीं बहे।
तुरंत कुछ
करने लगना, कुछ भी चीज
मदद देगी।’
जब
झेन गुरु
उपलब्ध होते
हैं,
तो वे पेट
भरकर सच्ची
हंसी हंसना
शुरू कर देते
हैं, बहुत
गर्जन— भरी, एक सिंह
गर्जना। क्या
कर रहे होते
हैं वे? ऊर्जा
वहां है और
पहली बार
ऊर्जा एक हो
गयी है। यदि
तुम मन में
कुछ और आने
देते हो, तो
तुरंत भेद फिर
वहां आ बनता
है, और भेद
बनाना तुम्हारी
पुरानी आदत है।
कुछ दिनों तक
डटी रहेगी वह।
कूदो, दौड़ो,
नाचो, अच्छी
पेट भर हंसी
हंसो, कुछ
करो जिससे कि
ऊर्जा शरीर
में सरके और
सिर में न
सरके।
क्योंकि
ऊर्जा है वहां,
पुराना
ढांचा है वहां,
वह फिर से
पुराने ढंग
मैं सरक सकती
है।
बहुत
से लोग आते
हैं मेरे पास।
और जब कभी ऐसा
घटता है, तो सब
से बड़ी समस्या
उठ खड़ी होती
है। मैं कहता
हूं सब से
बड़ी, क्योंकि
यह कोई साधारण
समस्या नहीं
होती। मन फौरन
उसे धर पकड़ता
है और कहता है,
'हां तुम
उपलब्ध हो गए!'
अहंकार
प्रवेश कर
चुका, मन
प्रवेश कर गया
और हर चीज खो
जाती है। एक
ही विचार और
बड़ा भेद तुरंत
वहां आ
पहुंचता है।
नृत्य अच्छा
होता है। तुम
कर सकते हो
नृत्य—कुछ
गड़बड़ाएगा
नहीं उससे।
तुम आनंदित हो
सकते हो। तुम
उत्सव मना
सकते हो।
इसीलिए मेरा
जोर है उत्सव
पर।
प्रत्येक
ध्यान के बाद
उत्सव मनाओ, जिससे
कि उत्सव
तुम्हारा
हिस्सा बन जाए।
जब अंतिम घटता
है, तो
तुरंत तुम
उत्सव मना
पाओगे।
वे
समाधियां जो
किसी विषय पर
ध्यान करने से
फलित होती हैं
सबीज
समाधियां
होती हैं और
आवागमन के
चक्र से मुक्त
नहीं करतीं।
सारी
समस्या यही
होती है कि
दूसरे से, विषय
से, कैसे
मुका हों? विषय
ही होता है
सारा संसार।
तुम आओगे फिर—फिर
यदि विषय वहां
होता है तो, क्योंकि
विषय के साथ
ही विद्यमान
होती है आकांक्षा,
विषय के साथ
ही जीवन बना
रहता है विचार
का, विषय
के साथ ही
अस्तित्व
होता है
अहंकार का, विषय के साथ
ही अस्तित्व
रखते हो 'तुम'। यदि विषय
गिर जाता है, तुम गिर
पड़ोगे अचानक
ही क्योंकि
विषय और
व्यक्ति एक
साथ ही अस्तित्व
रखते हैं। वे
एक दूसरे के
हिस्से हैं; एक का
अस्तित्व
नहीं बना रह
सकता है। ऐसा
सिक्के की
भांति ही है।
चित्त और पट
एक साथ
अस्तित्व
रखते हैं। तुम
एक को बचा, दूसरे
को नहीं फेंक
सकते। तुम
चित्त को नहीं
बचा सकते और
पट को नहीं
फेंक सकते—वे
दोनों इकट्ठे
ही हैं। या तो
तुम उन दोनों
को रख लो और या
फिर दोनों को ही
फेंक दो। यदि
तुम एक को
फेंकते हो तो
दूसरा फिंक
जाता है।
व्यक्ति और
विषय साथ—साथ
होते हैं, वे
एक होते हैं
एक ही चीज के
पहलू होते हैं।
जब विषय गिर
जाता है, तुरंत
व्यक्ति—परकता
का संपूर्ण घर
ही ढह जाता है।
तब तुम फिर
वही पुराने न
रहे। तब तुम
पार चले गए, और केवल 'पार'
ही जीवन—मृत्यु
के पार है।
तुम्हें
मरना होगा, तुम्हें
होना होगा
पुनर्जीवित।
जब मर रहे
होते हो, तो
वृक्ष की
भांति तुम फिर
से बीज में
एकत्रित कर
लेते हो अपनी
आकांक्षाओं, अभीप्साओं
को। तुम नहीं
जाते दूसरे
जन्म में, बीज
उड़ जाता है और
जा पहुंचता है
दूसरे जन्म में।
वह सब जिसे
तुमने जीया
होता है, चाहा
होता है—तुम्हारी
कुंठाएं, तुम्हारी
विफलताएं, तुम्हारी
सफलताएं, तुम्हारे
प्रेम, घृणा—जब
तुम मर रहे
होते हो तो
सारी ऊर्जा
इकट्ठी हो
जाती है एक
बीज में। वह
बीज होता है
ऊर्जा का। वह
बीज कूद पड़ता
है तुम में से
और सरक जाता
है किसी गर्भ
में। फिर वह
बीज
पुनर्निर्मित
कर देता है
तुम्हें, वृक्ष
के बीज की
भांति ही। जब
वह वृक्ष मरने
वाला होता है,
वह
सुरक्षित
रखता है स्वयं
को बीज में।
बीज के द्वारा
वृक्ष डटा
रहता है; बीज
के द्वारा 'तुम' डटे
रहते हो, अटके
रहते हो।
इसीलिए
पतंजलि इसे
कहते हैं, 'सबीज'
समाधि। यदि
विषय वहां
होता है, तो
तुम्हें फिर—फिर
जन्म लेना
होगा, तुम्हें
गुजरना पड़ेगा
उसी दुख में
से, उसी
नरक में से जो
है जीवन, जब
तक कि तुम बीज—विहीन
ही न हो जाओ।
और
बीज—विहीनता
होती क्या है? यदि
विषय वहां
नहीं होता, तो बीज नहीं
होता। तब
तुम्हारे
पिछले सारे
कर्म बिलकुल
तिरोहित हो— जाते हैं, क्योंकि
वस्तुत: तुमने
तो कभी कुछ
किया ही नहीं।
हर चीज होती
रही है मन के द्वारा—मगर
तुम तादात्म्य
बना लेते हो, तुम सोचते
हो, तुम्हीं
मन हो। हर चीज की
गयी है शरीर
के द्वारा—लेकिन
तुम बना लेते
हो तादात्म्य,
तुम सोच
लेते हो कि
तुम शरीर हो।
बीज—विहीन
समाधि में, निर्विचार
समाधि में, जब केवल
चेतना
अस्तित्व
रखती है अपनी
परम शुद्धता
में, तो
पहली बार तुम्हें
सारी बात समझ
में आती है. कि
तुम कभी नहीं रहे
कर्ता। तुमने
कभी एक भी चीज
नहीं चाही।
चाहने की कोई
जरूरत नहीं
क्योंकि हर
चीज तुममें है।
तुम आत्यंतिक
सत्य हो। यह
तुम्हारी
मूढ़ता थी कुछ
चाहना, और
क्यौंकि
तुमने चाहा, तुम भिखारी
हो गए।
साधारणतया
तुम उलटे ढंग से
सोचते हों—तुम
सोचते कि तुम
आकांक्षा
करते हो
क्योंकि तुम
भिखारी हो।
लेकिन
निर्बीज
समाधि में यह
समझ अवतरित
होती है कि यह
तो बिलकुल
दूसरी ही बात
है : क्योंकि तुम
आकांक्षा
करते हो, तो
तुम भिखारी हो।
तुम
संपूर्णतया
सिर के बल खड़े
होते हो, उलटे
खड़े होते हो।
यदि आकांक्षा
तिरोहित हो
जाती है, तो
तुम एकदम
अकस्मात
सम्राट हो
जाते हो।
भिखारी तो कभी
वहां था ही
नहीं। वह था
तो केवल
इसीलिए कि तुम
आकांक्षा कर
रहे थे। वह था
क्योंकि तुम
बहुत ज्यादा
सोच रहे थे विषय
को लेकर। तुम
इतने ज्यादा
आविष्ट थे
विषय और
विषयों द्वारा,
कि तुम्हारे
पास समय न था
और कोई सुअवसर
न था और कोई
स्थान न था
भीतर देखने को।
तुम बिलकुल
भूल ही गए थे
कि भीतर कौन
है। भीतर है
वह परम दिव्य,
और भीतर है
स्वयं
परमात्मा।
इसीलिए
हिंदू कहे चले
जाते हैं, 'अहं
ब्रह्मास्मि।’
वे कहते हैं,
'मैं हूं
अंतिम सत्य।’
लेकिन मात्र
ऐसा कहने से, उसे नहीं
पाया जा सकता
है। व्यक्ति
को पहुंचना
होता है
निर्विचार
समाधि तक।
केवल तभी
उपनिषद सत्य
हो जाते हैं, केवल तभी
सत्य हो जाते
हैं बुद्ध—पुरुष।
तुम हो जाते
हो साक्षी।
तुम कहते, 'ही
वे ठीक हैं', क्योंकि अब
यह बात
तुम्हारा
अपना अनुभव बन
चुकी होती है।
समाधि की
निर्विचार
अवस्था की परम
शुद्धता उपलब्ध
होने पर प्रकट
होता है
आध्यात्मिक
प्रसाद।
'निर्विचार
वैशारद्ये
अध्यात्म
प्रसाद:।’
यह
शब्द 'प्रसाद'
बहुत—बहुत
सुंदर है। जब
कोई स्वयं की
सत्ता में
स्थिर हो जाता
है, घर आ
जाता है, अकस्मात
वहां चला आता
है आशीष, एक
प्रसाद। वह सब
जिसे किसी ने
सदा से चाहा
होता है अकस्मात
पूरा हो जाता
है। जो तुम
होना चाहते थे,
अचानक तुम
हो जाते हो, और तुमने
कुछ किया नहीं
होता उसके लिए,
तुमने कोई
प्रयास नहीं
किया होता
उसके लिए! निर्विचार
समाधि में
व्यक्ति जान
लेता है कि अपने
सच्चे स्वभाव
में, गहनतम
स्वभाव में
व्यक्ति सदा
ही संपूरित होता
है। वहां होता
है एक संपूरित
नृत्य!
'निर्विचार
समाधि की परम
शुद्धता
उपलब्ध होने
पर......!'
और
परम शुद्धता
होती क्या है? —जहां
अ—विचार का
विचार तक भी
विद्यमान
नहीं होता है।
वही छै परम
परिशुद्धता जहां
दर्पण बस
दर्पण ही होता
है, उसमें
कुछ
प्रतिबिंबित
नहीं हो रहा
होता—क्योंकि
प्रतिबिंब भी
एक अशुद्धता
ही होती है।
वस्तुत: वह
दर्पण के साथ
कुछ जोड़ता
नहीं, पर
फिर भी दर्पण
परिशुद्ध
नहीं रहता।
प्रतिबिंब
कुछ बिगाड़
नहीं सकता
दर्पण का। वह
कोई पदचिह्न,
कोई अवशेष न
छोड़ेगा, वह
कोई छाप न छोड़ेगा
दर्पण पर, लेकिन
जब वह होता है
तो दर्पण भरा
रहता है किसी
दूसरी ही चीज
से। कोई बहारी
चीज वहां होती
है? दर्पण
अपनी परम
शुद्धता में,
अपनी परम
एकांतिकता
में नहीं होता।
दर्पण
निर्दोष न रहा;
कोई चीज
मौजूद है वहां।
जब
मन संपूर्णतया
जा चुका होता
है और वहां अ—मन
भी नहीं होता; किसी
भी, कोई भी
चीज का विचार
मात्र भी वहां
नहीं होता; इतने आनंदपूर्ण
क्षण में होने
की तुम्हारी
अवस्था का विचार
भी नहीं होता,
जब तुम
समाधि की
निर्विचार
अवस्था की इस
परम शुद्धता
में ही होते
हो, तो
प्रकट होता है
आध्यात्मिक
प्रसाद। बहुत—सी
चीजें घटती
हैं।
ऐसा
ही घटा था
सुभूति को :
अचानक फूलों
की वर्षा हो
गई बिना किसी
ज्ञात कारण के
ही,
और उसने कुछ
नहीं किया था।
यदि वह होता, तो फूलों की
वर्षा न हुई
होती। वह तो
बस विस्मरण से
भरा था किसी
भी चीज के लिए।
वह इतना
ज्यादा अवस्थित
था स्वयं में—चेतना
की सतह पर कोई
छोटी—सी लहर
तक न उठी थी, दर्पण में
एक भी
प्रतिबिंब न
था, आकाश
में कोई श्वेत
बादल तक न था—कुछ
नहीं। बरस गए
फूल..।
ऐसा
ही कहते हैं
पतंजलि, 'निर्विचार
वैशारद्ये
अध्यात्म
प्रसाद:।’ अचानक
उतर आता है
प्रसाद।
वास्तव में, वह उतरता ही
रहा है सदा से।
तुम
सजग नहीं हो, बिलकुल
अभी फूल बरस
रहे हैं तुम
पर, लेकिन
तुम खाली नहीं
हो अत: तुम
नहीं देख सकते
हो उन्हें।
केवल शून्यता
की आंखों से
वे दिखाई पड़
सकते हैं, क्योंकि
वे इस संसार
के फूल नहीं
हैं, वे
फूल हैं किसी
दूसरे ही
संसार के।
वै
सब जो उपलब्ध
हुए हैं इस
बिंदु पर सहमत
हैं : कि उस अंतिम
उपलब्धि में
व्यक्ति
अनुभव करता है
कि बिलकुल
किसी कारण के
बिना ही, हर
चीज परिपूरित
होती है।
व्यक्ति इतना
आनंदित अनुभव
करता है, और
उसने कुछ किया
नहीं होता है
इसके लिए।
तुमने कुछ तो
किया ही होता
है ध्यान के बारे
में, तुमने
कुछ न कुछ तो
किया ही होता
है चिंतन—मनन
के बारे में; तुमने कुछ
तो किया ही
होता है इस
बारे में कि
विषय से कैसे
न चिपका जाए; तुमने कुछ न
कुछ किया ही
होता है इन
दिशाओं में, लेकिन तुमने
कुछ नहीं किया
होता उस अचानक
प्रसाद के तुम
पर बरस जाने
के लिए। तुमने
कुछ नहीं किया
होता —तुम्हारी
इच्छाओं को
पूरा करने के
लिए।
विषय
के साथ दुख
बना रहता है, आकांक्षा
के साथ दुखी
मन बना रहता
है; मांग
के साथ, शिकायती
मन के साथ, नरक
बना रहता है।
अचानक जब विषय
जा चुका होता
है, नरक भी
मिट चुका होता
है और स्वर्ग
बरस रहा होता
है तुम पर। यह
घड़ी होती है
प्रसाद की।
तुम नहीं कह
सकते कि तुमने
उपलब्ध किया
इसे। तुम केवल
यही कह सकते
हो कि तुमने
कुछ नहीं किया।
यही अर्थ है
प्रसाद का :
तुम्हारे
अपने से कुछ किए
बिना वह घट
रहा होता है।
वस्तुत: वह
सदा घटता ही
रहता है, लेकिन
तुम किसी न किसी
तरह चूकते ही
रहे। तुम बहुत
तन्मय होतै हो
विषय के साथ, और इसलिए
तुम भीतर देख
ही नहीं सकते,
नहीं देख
सकते उसे जो
घट रहा होता
है वहां।
तुम्हारी आंखें
भीतर की ओर
नहीं देख रही
होतीं।
तुम्हारी आंखें
देख रही होती
हैं बाहर की
ओर। तुम
उत्पन्न हुए
होते हो पहले
से ही
परिपूर्ण
होकर।
तुम्हें कुछ
करने की जरूरत
नहीं, तुम्हें
एक कदम भी
बढ़ाने की
जरूरत नहीं।
यही अर्थ है
प्रसाद का।
'...
प्रकट होता
है आध्यात्मिक
प्रसाद।’
सदा
ही तुम घिरे
रहे हो अंधकार
से। जागरूकता
सहित भीतर
बढ़ने पर, वहां
प्रकाश होता
है और उस
प्रकाश में तुम
जान लेते हो
कि कोई अंधकार
कहीं था ही
नहीं। तुम्हारा
बस अपना
तालमेल नहीं
बैठा हुआ था
स्वयं के साथ;
वही था
एकमात्र
अंधकार।
यदि
तुम समझ लेते
हो इसे, तब तो
मात्र मौन
होकर बैठने से
ही हर चीज
संभव हो जाती
है। तुम
यात्रा करते
ही नहीं और
तुम पहुंच
जाते हो लक्ष्य
तक। तुम कुछ
नहीं करते और
हर चीज घट
जाती है। कठिन
है समझना
क्योंकि मन तो
कहता है, 'कैसे
संभव होता है
यह? और मैं
करता रहा हूं
इतना कुछ! तब
भी परम आनंद घटित
नहीं हुआ, तो
कैसे यह घट
सकता है बिना
कुछ किए ही? हर कोई खोज
रहा है
प्रसन्नता को
और हर कोई चूक रहा
है उसे। और मन
कहता है, निस्संदेह
तर्कपूर्ण
रूप से कहता
है कि यदि इतनी
ज्यादा खोज से
वह नहीं घटता
है तो कैसे वह घट
सकता है बगैर
खोजे ही? लोग
जो बातें कर
रहे हैं इन
चीजों के बारे
में वे जरूर
पागल हो गए
हैं : 'मनुष्य
को तो बहुत
परिश्रमपूर्वक
खोजना होता है,
केवल तभी
ऐसा संभव होता
है।’ और
फिर मन कहे
चला जाता है; 'परिश्रम से
खोजो। ज्यादा
प्रयास करो।
तेज दौड़ो। गति
पाओ। क्योंकि
लक्ष्य तो
बहुत दूर है।’
लक्ष्य
तुम्हारे
भीतर है। किसी
तेज गति की
कोई आवश्यकता
नहीं, और कहीं
जाने की कोई
आवश्यकता
नहीं। कुछ भी
तो करने की आवश्यकता
नहीं।
आवश्यकता है
केवल अ—क्रियात्मक
अवस्था में
मौनपूर्ण ढंग
से बैठ जाने
की, बिना
किसी विषय के,
संपूर्ण
रूप से मात्र
स्वयं हो जाने
की, इतने
पूर्णरूप से
केंद्रस्थ हो
जाने की, कि
एक छोटी—सी
लहर भी न उठती
हो सतह पर, तब
वहां होता है
प्रसाद। तब
प्रसाद उतर
आता है तुम पर,
कृपा की
वर्षा हो जाती
है और
तुम्हारा
पूरा अस्तित्व
भर जाता है एक
अज्ञात
प्रसाद से। तब
यही संसार हो
जाता है
स्वर्ग। तब
यही जीवन हो
जाता है दिव्य,
और कोई चीज
गलत नहीं होती।
तब हर चीज उसी
तरह होती है
जैसी कि होनी
चाहिए।
तुम्हारे आंतरिक
परम आनंद सहित
तुम हर कहीं
आनंद अनुभव
करते हो। एक
नए बोध के साथ,
एक नयी
स्पष्टता के
साथ, कोई
दूसरा संसार न
रहा, कोई
दूसरा जीवन
नहीं, कोई
दूसरा समय नही।
केवल यही क्षण,
यही
अस्तित्व है
सत्य।
लेकिन
जब तक तुम
स्वयं अनुभव
नहीं करते, तुम
चूकते चले
जाओगे उन सब
प्रसादों को
जिन्हें कि
अस्तित्व
देता है
उपहारों के रूप
में।
'प्रसाद' का
अर्थ है कि यह
अस्तित्व की
ओर से एक
उपहार है।
तुमने इसे
अर्जित नहीं
किया है, तुम
इसे दावे से
मांग नहीं
सकते। वस्तुत:
जब दावेदार
चला जाता है, तो अचानक यह वहां
मौजूद हो जाता
है।
'समाधि की
निर्विचार
अवस्था की परम
शुद्धता
उपलब्ध होने
पर प्रकट होता
है
आध्यात्मिक
प्रसाद।’
और
तुम्हारी
अंतरतम सत्ता
प्रकाश के
स्वभाव की है।
चेतना प्रकाश
है। चेतना ही
है एकमात्र
प्रकाश। तुम
जी रहे हो
बहुत अचेतन
रूप से : कई
चीजें कर रहे
हो न जानते
हुए कि क्यों
कर रहे हो, आकांक्षा
कर रहे हो
चीजों की, न
जानते हुए कि
क्यों; मांग
कर रहे हो
चीजों की, न
जानते हुए कि
क्यों! एक
अचेतन निद्रा
में बहे चले
जा रहे हो।
तुम सब नींद
में चलने वाले
हो।
निद्राचारिता
एकमात्र
आध्यात्मिक
रोग है—निद्रा
में चल रहे हो
और जी रहे हो!
ज्यादा
बोधपूर्ण हो
जाओ। विषयों
के साथ ज्यादा
बोधपूर्ण, चेतन्यपूर्ण
होना शुरू करो।
चीजों की ओर
ज्यादा सजगता
से देखो। तुम
गुजरते हो एक
वृक्ष के निकट
से; वृक्ष
को ज्यादा
सजगता से देखो,
रुक जाओ कुछ
देर को,
देखो वृक्ष की
और। आंखें मल
लो अपनी,
ज्यादा
सजगता से देखो
वृक्ष की और तुम्हारी
जागरूकता को
इकट्ठा करो, देखो वृक्ष
की तरफ। और
भेद पर ध्यान
देना।
अकस्मात
जब तुम सचेत
हो जाते हो, वृक्ष
कुछ अलग ही हो
जाता है : वह
ज्यादा हरा
होता है,
वह ज्यादा
जीवंत होता है,
वह ज्यादा
सुंदर होता है।
वृक्ष वही है,
केवल तुम
बदल गए।
एक
फूल की ओर देखो, ऐसे
जैसे कि
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व इस
देखने पर
निर्भर करता
हो। तुम्हारी
सारी
जागरूकता को
उस फूल तक ले
आओ और अचानक
फूल महिमावान
हो जाता है—वह
ज्यादा
चमकीला होता
है, वह
ज्यादा
प्रदीप्त
होता है।
उसमें शाश्वत
की कोई आभा
होती है जैसे
कि शाश्वता आ
पहुंचा हो
लौकिक संसार
में किसी फूल
के रूप में ही।
सजगता
से देखना
तुम्हारे पति
के,
तुम्हारी
पत्नी के, तुम्हारे
मित्र के, तुम्हारी
प्रेमिका के
चेहरे कि तरफ;
ध्यान करना
उस पर और
अचानक तुम
देखोगे न ही
केवल शरीर को
बल्कि उसको
जों शरीर के
पार का है, जो
झर रहा है
शरीर के भीतर
से। दिव्यता
का एक आभामंडल
होता है शरीर
के चारों ओर।
प्रेमिका का
चेहरा अब
तुम्हारी
प्रेमिका का चेहरा
न रहा; प्रेमिका
का चेहरा
परमात्मा का
चेहरा बन चुका
है। देखना
तुम्हारे
बच्चे की ओर, पूरी सजगता
से, जागरूकता
से, उसे
देखना खेलते
हुए और अचानक
विषय रूपांतरित
हो जाता है।
पहले
तो विषय—वस्तुओं
के साथ काम
करना शुरू करो।
इसीलिए
पतंजलि दूसरी
समाधियों की
बात करते हैं, इससे
पहले कि वे
बात करें
निर्विचार
समाधि की समाधि
जो है बीज
रहित। विषयों
के साथ आरंभ
करो और बढ़ो
ज्यादा
सूक्ष्म
विषयों की ओर।
उदाहरण
के लिए एक
पक्षी गाता है
एक वृक्ष पर :
सजग हो जाओ, जैसे
कि उसी पल में
और पक्षी के
उसी गान में
अस्तित्व हो
तुम्हारा—समष्टि
अस्तित्व
नहीं रखती।
अपनी समग्र
सत्ता को
केंद्रित करो
पक्षी के गान
की तरफ और तुम
जान जाओगे
अंतर को।
यातायात के
शोर का कोई
अस्तित्व न
रहा या फिर वह
अस्तित्व
रखता है परिधि
पर ही—दूर, कहीं
बहुत दूर। वह
छोटा—सा पक्षी
और उसका गान
तुम्हारे
अस्तित्व को भर
देता है
संपूर्णतया—केवल
तुम्हारा और
पक्षी का
अस्तित्व बना
रहता है। और
फिर जब गान
समाप्त हो
जाता है, तो
सुनो गाने की
अनुपस्थिति
को। तब विषय
सूक्ष्म बन
जाता है।
सदा
स्मरण रख लेना
कि जब गान
समाप्त होता
है तो वह
वातावरण में
एक निश्चित
गुणवत्ता छोड़
जाता है—वह
अनुपस्थिति।
वातावरण अब
वही नहीं रहा।
वातावरण
संपूर्णतया
बदल गया
क्योंकि गाने
का अस्तित्व
था और फिर गान
तिरोहित हो
गया—अब है
गाने की
अनुपस्थिति।
ध्यान देना इस
पर सारा
अस्तित्व भरा
हुआ है गाने
की अनुपस्थिति
से। और यह
ज्यादा सुंदर
है किसी भी
गाने से
क्योंकि यह
गान है मौन का।
एक गान उपयोग
करता है ध्वनि
का और जब
ध्वनि तिरोहित
हो जाती है तो अनुपस्थिति
उपयोग करती है
मौन का। पक्षी
गा चुका होता
है तो उसके
बाद मौन ज्यादा
गहन होता है।
यदि तुम देख
सकते हो इसे, यदि
तुम सचेत रह
सकते हो, तो
अब तुम ध्यान
कर रहे होते
हो सूक्ष्म
विषय पर, बहुत
ही सूक्ष्म
विषय पर।
एक
व्यक्ति चल
रहा होता है, बहुत
सुंदर
व्यक्ति—ध्यान
देना उस
व्यक्ति पर।
और जब वह चला
जाता है,
तो ध्यान देना
अनुपस्थिति पर।
वह पीछे छोड़
गया है कोई
चीज। उसकी
ऊर्जा ने बदल
दिया होता है
कमरे को; अब
वह वही कमरा
नहीं रहा।
जब
बुद्ध
मृत्युशय्या पर
थे, आनंद जो कि
चीख रहा था और
रो रहा था,
पूछने लगा
उनसे, अब हमारा
क्या होगा? आप यहां थे
और हम उपलब्ध
न हो सके। अब
आप यहां नहीं
रहेंगे। क्या
करेंगे हम?' कहा जाता है
कि बुद्ध बोले,
'अब मेरी
अनुपस्थिति
से प्रेम करना,
मेरी
अनुपस्थिति
के प्रति
एकाग्र रहना।
पांच
सौ वर्ष तक
बुद्ध की कोई
प्रतिमा नहीं
बनाई गयी ताकि
अनुपस्थिति
की अनुभूति
पाई जा सके।
प्रतिमाओं के
स्थान पर केवल
बोधिवृक्ष
चित्रित किया
गया। मंदिरों
का अस्तित्व
रहा,
लेकिन
बुद्ध की
प्रतिमा के
साथ नहीं।
मात्र
बोधिवृक्ष
होता था, पत्थर
का बोधिवृक्ष
जिसके नीचे
अनुपस्थित बुद्ध
होते। लोग
जाते बैठने को
और ध्यान देते
वृक्ष पर और वृक्ष
के नीचे बुद्ध
की
अनुपस्थिति
पर ध्यान करने
की कोशिश करते।
बहुत से
उपलब्ध हो गए
बहुत गहन मौन
को और ध्यान
को। फिर धीरे—
धीरे वह
सूक्ष्म विषय
खो गया और
लोगों ने कहना
शुरू कर दिया,
'वहां ध्यान
करने को क्या
है? केवल
एक वृक्ष ही
है वहां, लेकिन
बुद्ध कहां
हैं?' क्योंकि
अनुपस्थिति
में बुद्ध की
प्रतीति पाने
के लिए बहुत
गहरी स्पष्टता
और एकाग्रता
की आवश्यकता
होती है। तब
फिर यह अनुभव
करते हुए कि
अब लोग
सूक्ष्म अनुपस्थिति
पर ध्यान नहीं
कर सकते, प्रतिमाओं
का निर्माण कर
दिया गया।
ऐसा
तुम कर सकते
हो तुम्हारी
किन्हीं भी
इंद्रियों के
साथ,
क्योंकि
लोगों के पास
विभिन्न
क्षमतायें और संवेदन
शक्तियां
होती हैं।
उदाहरण के लिए,
यदि
तुम्हारे पास
संगीतप्रिय
कान हों, तो
यह अच्छा होता
है पक्षी के
गाने पर ध्यान
देना और उसके
प्रति सतर्क
होना, एकाग्र
होना। कुछ
क्षणों तक वह वहां
होता है और
फिर वह जा
चुका होता है।
तब ध्यान करना
अनुपस्थिति
पर। अकस्मात
विषय बहुत
सूक्ष्म हो
चुका होता है।
पक्षी के
वास्तविक
गाने की
अपेक्षा
इसमें ज्यादा
ध्यान और
ज्यादा सजगता
की आवश्यकता
होगी।
यदि
तुम्हारे पास
संवेदनशील
नाक है—बहुत
थोड़े से लोगों
के पास होती
है;
मानवता
अपनी नाक लगभग
बिलकुल ही खो
चुकी है। पशु
बेहतर हैं, उनकी घ्राण—शक्ति
कहीं ज्यादा
संवेदनशील है,
ज्यादा
क्षमतापूर्ण
है आदमी से।
आदमी की नाक
को कुछ हो गया
है, कुछ
गलत घट गया है।
बहुत थोड़े से
आदमियों के
पास
संवेदनशील
नाक होती है।
लेकिन यदि
तुम्हारे पास
है—तो जरा
नजदीक रहना
फूल के। सुवास
भरने देना
स्वयं में।
फिर, धीरे—
धीरे सरकते
जाना फूल से
दूर, बहुत
धीमे से, लेकिन
महक के प्रति,
सुवास के
प्रति सचेत
रहना जारी
रखना। जैसे—जैसे
तुम दूर होते
जाते हो, सुवास
अधिकाधिक
सूक्ष्म होती
जायेगी, और
तुम्हें
ज्यादा
जागरूकता की
आवश्यकता होगी,
उसे अनुभव
करने के लिए
नाक ही बन
जाना। भूल
जाना सारे
शरीर के बारे
में और अपनी
सारी ऊर्जा ले
आना नाक तक, जैसे कि
केवल नाक का
ही अस्तित्व
हो। यदि तुम
खो देते हो
गंध का बोध, तो फिर कुछ
कदम और आगे
बढ़ना; फिर
पकड़ लेना गंध
को। फिर आ
जाना पीछे, पीछे की ओर।
धीरे— धीरे
तुम बहुत, बहुत
दूर से फूल को
सूंघने योग्य
हो जाओगे। कोई
और दूसरा वहां
से सूंघ नहीं
पाएगा फूल को।
फिर और दूर
हटते चले जाना।
बहुत सीधे—सरल
ढंग से तुम
विषय को
सूक्ष्म बना
रहे होते हो।
फिर एक घडी आ
जाएगी था व
तुम गंध को
सूंघ न पाओगे.
अब सूंघ लेना
अनुपस्थिति
को। अब सूंघना
उस अभाव को।
जहां सुवास
अभी कुछ देर
पहले थी; अब
वह वहां नहीं
रही; उसी
के अस्तित्व
का वह दूसरा
हिस्सा है,
वह अनुपस्थित
हिस्सा, वह
अँधेरा हिस्सा।
यदि तुम सूंध
सको महक की
अनुपस्थिति
को, यदि
तुम अनुभव कर
सको कि इससे अंतर
पड़ता है—पड़ता
ही है। इससे
अंतर—तब विषय बहुत
सूक्ष्म बन
जाता है। अब
वह निर्विचार
अवस्था के, समाधि की अ—विचार
की अवस्था के
निकट पहुंच
रहा होता है।
केवल
एक
बुद्धपुरुष
ने,
मोहम्मद ने
सुगंधित
द्रव्य को
ध्यान के विषय
की भांति
प्रयुक्त
किया। इसलाम
ने उसे ध्यान
का विषय बना
लिया। सुंदर
है यह बात!
और
क्यों घ्राण
शक्ति खो गयी
आदमी से? बहुत
सारी जटिल
चीजें जुड़ी
हैं इस बात से,
तो मैं
उन्हें भी कह
देना चाहूंगा
तुम से प्रसंगवश
ही, ताकि
तुम उन्हें
याद रख सको।
यदि तुम पार
कर जाते हो उन
अवरोधों को, तो अचानक
तुम्हारी
सूंघने की
क्षमता वापस
लौट आएगी। वह
दबाई गई है।
तुम्हें
पता होना
चाहिए कि
सूंघना गहरे
रूप से
संबंधित होता
है कामवासना
से। कामवासना
का दमन बन
जाता है
सूंघने का दमन।
प्रेम करने से
पहले जानवर
शरीर को सबसे
पहले सूंघते
हैं। वास्तव
में,
वे काम—केंद्र
को सूंघ लेते
हैं इससे पहले
कि वे प्रेम
करें। यदि काम—केंद्र
उन्हें संकेत
दे रहा होता
है कि 'ही, तुम्हें
स्वीकार कर
लिया गया, आने
दिया गया', केवल
तभी वे प्रेम
करते हैं
अन्यथा नहीं।
मानव
शरीर भी महक
देता है—निमत्रण
की,
विकर्षण की,
आकर्षण की।
शरीर की अपनी
भाषा होती है
और प्रतीक
होते हैं।
लेकिन समाज
में, ऐसा
बहुत कठिन हो
जाये यदि तुम
महक सको तो।
यदि तुम बात
कर रहे हो
मित्र से, और
उसकी पत्नी
महकना शुरू कर
दे जैसे कि
तुम्हें
निमंत्रण दे
रही हो
कामवासना के
लिए तो क्या
करोगे तुम? खतरनाक होगा
ऐसा। एकमात्र
ढंग जिससे कि
सभ्यता सामना
कर सकती है
इसका, यही
है कि महक को
पूरी तरह नष्ट
कर दिया जाए, क्योंकि यह
एक कामवासना
से संबंधित
घटना है।
तुम
गुजर रहे होते
एक सड़क पर से
और एक स्त्री
गुजर जार्ता
है पास से। हो
सकता हैं वह
चेतन रूप से
तुम्हारी ओर
आकर्षित न हो, तो
भी वह देती है
यह महक, निमंत्रण
की महक। क्या
करोगे? तुम
अपनी पत्नी से
संभोग करना
चाहते हो। वह
तुम्हारी
पत्नी है तो
निस्संदेह जब
तुम संभोग
करना चाहते हो,
तो उसे करना
ही होगा संभोग,
लेकिन उसका
शरीर तुम्हें
संकेत देता है
अ—प्रेम का, अ—निमंत्रण
का, मात्र
अरुचि का।
क्या करोगे
तुम? और
शरीर
अनियंत्रित
होते हैं; तुम
उन्हें
नियंत्रित
नहीं कर सकते
केवल मन के
द्वारा ही।
महक
खतरनाक बन गई।
वह
कामवासनामयी
बन गयी, वह
होती है
कामवासनामयी।
इसीलिए
सुगंधित
द्रव्यों के
नाम कामवासना
से जुड़े होते
हैं। जाओ किसी
दुकान पर और
देखो जरा
सुगंधियों के नामों
को—सभी
कामवासनामय
होते हैं। सुगंधिया
काम— भाव युक्त
हैं,
और नाक पूरी
तरह बंद है।
क्योंकि
इसलाम
कामवासना को
अलग नहीं करता
बल्कि उसे
स्वीकारता है,
और इसलाम
कामवासना को
अस्वीकार
नहीं करता बल्कि
उसे स्वीकार
करता है, और
इसलाम
कामवासना के
संसार को
त्यागने की बात
नहीं करता, इसलिए इसलाम
थोड़ी आजादी दे
सकता था सूंघने
के बोध को।
दुनिया का कोई
धर्म ऐसा नहीं
कर सका।
किंतु
सुगंध बहुत, बहुत
सुंदर हो सकती
है यदि तुम
इसे ध्यान का
विषय बना लेते
हो। यह एक बड़ी
सूक्ष्म घटना
होती है, और
धीरे— धीरे
तुम पहुंच
सकते हो
सूक्ष्मतम तक।
हिंदुओं
ने विशेष
प्रकार की
सुगंधियों के
लिए कहा है, विशेषकर
मंदिरों के
सुगंध भरे लोबान
के लिए लेकिन
उनकी लोबानें
अलग तरह की
हैं। जैसे कि
कामवासनामय सुगंधियां
होती हैं, आध्यात्मिक
सुगंधियां भी
होती है,
और दोनों
संबंधित है।
बहुत लंबे समय
की खोज के बाद
हिंदुओं ने
विशेष प्रकार की
सुगंधियों को
जो कि कामवासनामय
नहीं हैं, खोज
निकाला।
उल्टे, ऊर्जा
ऊपर सरकती है,
न कि नीचे।
लोबान और चंदन
की अगरबत्ती
बहुत—बहुत
सार्थक बन गए।
वे प्रयोग
करते रहे उसका
मंदिर में और
मदद मिली इससे।
जैसे कि ऐसा
संगीत होता है
जो तुम्हें
कामवासनायुक्त
बना सकता है।
ऐसा संगीत भी
है जो तुम्हें
आध्यात्मिक
भाव की
अनुभूति दे
सकता है।
विशेषकर
आधुनिक संगीत
बहुत
कामवासनामय
होता है।
शास्त्रीय
संगीत बहुत
आध्यात्मिक
है। यही बात
अस्तित्व
रखती है सभी
इंद्रियों के
साथ. ऐसे
चित्र हैं जो
कि
आध्यात्मिक
हो सकते या
कामवासनायुक्त;
ध्वनियां
हैं, महकें
हैं, जो कि कामवासना
से भरी हो
सकती हैं या
आध्यात्मिक हो
सकती हैं।
प्रत्येक
इंद्रिय की दो
संभावनाएं
हैं : यदि ऊर्जा
नीचे की ओर
चली जाती है, तब वह होती
है
कामवासनामय, यदि ऊर्जा
ऊपर की ओर
उठती है, तब
वह होती है
आध्यात्मिक।
तुम
ऐसा कर सकते
हो लोबान के
साथ। जलाओ
लोबान को, ध्यान
करो उस पर, महसूस
करो उसको, सुगंध
महसूस करो
उसकी, भर
जाओ उससे, और
फिर पीछे हटते
जाओ, दूर
हटते जाओ उससे।
और उस पर
ध्यान करते
जाओ, करते
चले जाओ और
होने दो उसे
अधिक से अधिक
सूक्ष्म। एक
घड़ी आती है जब
तुम किसी चीज
की
अनुपस्थिति को
अनुभव कर सकते
हो। तब तुम आ
पहुंचे होते
हो बड़ी गहन
जागरूकता तक।
'समाधि की
निर्विचार
अवस्था की परम
शुद्धता उपलब्ध
होने पर प्रकट
होता है
आध्यात्मिक
प्रसाद।’ लेकिन
जब विषय
संपूर्णतया
तिरोहित हो
जाता है—विषय
की उपस्थिति
समाप्त हो
जाती है और
विषय की
अनुपस्थिति
भी समाप्त हो
जाती है; विचार
मिट जाता है
और अ—विचार भी
मिट जाता है, मन तिरोहित
हो जाता है और
अ—मन की धारणा
तिरोहित हो
जाती है—केवल
तभी तुम
उपलब्ध होते
हो उस उच्चतम
को। अब यही है
वह घड़ी जब
अकस्मात ही
प्रसाद तुम पर
उतरता है। यही
है वह घड़ी जब
फूलों की
वर्षा हो जाती
है। यही है वह
क्षण जब तुम
जुड़ जाते हो
अंतस सत्ता और
जीवन के मूल स्रोत
के साथ। यही
है वह क्षण जब
तुम भिखारी
नहीं रहते; तुम सम्राट
हो जाते हो।
यही है वह
क्षण जब तुम
संपूर्ण रूप
से अभिषेकित
हो जाते हो।
इससे पहले तो
तुम सूली पर
थे; यही
होता है वह
क्षण जब सूली
तिरोहित हो
जाती है और
तुम सम्राट हो
जाते हो।
निर्विचार
समाधि में
चेतना
संपूरित होती
है सत्य से
ऋतम्भरा से।
अत: सत्य
कोई निष्कर्ष
नहीं है जिस
पर कि पहुंचा
जाए,
सत्य एक
अनुभव है जिसे
उपलब्ध करना
होता है। सत्य
कोई ऐसी चीज
नहीं है जिसके
बारे में तुम सोच
सको, यह
कुछ ऐसा है जो
कि तुम हो
सकते हो। सत्य
एक अनुभव है
स्वयं के
संपूर्ण रूप
से अकेले होने
का, बिना
किसी विषय के।
तुम्हारी परम
शुद्धता में
तुम्हीं हो
सत्य। सत्य
कोई दार्शनिक
निष्कर्ष
नहीं है। कोई
सैद्धातिक
तर्क तुम्हें
सत्य नहीं दे
सकता। कोई
सिद्धात, कोई
परिकल्पना
तुम्हें नहीं
दे सकते सत्य
को। सत्य तुम
तक आता है जब
मन तिरोहित हो
जाता है। सत्य
वहां मन में
पहले से ही
छिपा हुआ है? और मन
तुम्हें
देखने न देगा
उसकी ओर, क्योंकि
मन बाहर—बाहर जाने
वाला होता है
और विषयों कि तरफ
देखने में मदद
करता है
तुम्हारी।
निर्विचार
समाधि में चेतना
संपूरित होती है
सत्य से, ऋतम्भरा
से।
'ऋतम्भरा
तत्र प्रज्ञा।’
'ऋतम्भरा' बहुत सुंदर
शब्द है। यह 'ताओ' की
भांति ही है।
शब्द 'सत्य'
पूरी तरह
इसकी
व्याख्या
नहीं कर सकता
है। वेदों में
इसे कहा है : 'ऋत्'।
ऋत् का मतलब
होता है—अस्तित्व
का मूल आधार। ’ऋत्' का
मतलब होता है—अस्तित्व
का गहनतम नियम।
’ऋत्' केवल
सत्य नहीं; सत्य बहुत
ही रूखा—सूखा
शब्द है और
काफी तार्किक
गुणवत्ता लिए
रहता है अपने
में। हम कहते
हैं, 'यह
सत्य है और वह
असत्य है।’ और हम
निर्णय करते
हैं कि कौन—सा सिद्धात
सत्य है और
कौन—सा
सिद्धात
असत्य है।
सत्य अपने में
ज्यादा भाग
तर्क का लिए
रहता है। यह
एक तर्कमय
शब्द है। ’ऋत्'
का अर्थ है.
ब्रह्मांड की
समस्वरता का
नियम; वह
नियम जो कि
सितारों को
गतिमान करता
है; वह
नियम जिसके
द्वारा मौसम
आते और चले
जाते, सूर्य
उदय होता और
अस्त हो जाता,
दिन के पीछे
रात आती, और
मृत्यु चली
आती जन्म के
पीछे। मन
निर्मित कर
लेता है संसार
को और अ—मन
तुम्हें उसे
जानने देता है
जो कि है। ’ऋत्'
का अर्थ है
ब्रह्मांड का
नियम, अस्तित्व
का ही अंतस्तल।
उसे
सत्य कहने की
अपेक्षा, उसे
अस्तित्व का
आत्यंतिक
आधार कहना
बेहतर होगा।
सत्य जान पड़ता
है कोई दूर की
चीज, कोई
ऐसी चीज जो
तुम से अलग
अस्तित्व
रखती है।
ऋत्
है तुम्हारा
अंतरतम
अस्तित्व और
केवल अंतरतम
अस्तित्व
तुम्हारा ही
नहीं है, बल्कि
अंतरतम
अस्तित्व है
सभी का—ऋतम्मरा।
निर्विचार
समाधि में
चैतन्य
आपूरित होता
है ऋतम्भरा से, ब्रह्मांड
की समस्वरता
से। कुछ निकाल
फेंका नहीं
गया होता। कोई
द्वंद्व नहीं।
हर चीज
सुव्यवस्था
में उतर चुकी
होती है। गलत
भी विलीन हो
जाता है, वह
अलग निकाल
नहीं दिया
जाता; विष
भी विलीन हो
जाता है, वह
अलग नहीं किया
जाता है। कोई
चीज अलग नहीं
की जाती है।
सत्य
में,
असत्य अलग
कर दिया जाता
है। ऋतम्भरा
में
संपूर्णता ही
स्वीकृत होती
है। और
संपूर्ण की
घटना इतनी
समस्वरीय है
कि विष भी
अपनी भूमिका
निभाता है।
केवल जीवन ही
नहीं, बल्कि
मृत्यु भी, हर चीज नये
प्रकाश में
देखी जाती है।
पीड़ा भी, दुख
भी, स्वयं
में एक नयी
गुणवत्ता
धारण कर लेता
है। असुंदर भी
हो जाता है
सुंदर
क्योंकि
ऋतम्भरा के
अवतरण की घड़ी
में, तुम्हें
पहली बार समझ
में आता है कि
विपरीत का
अस्तित्व
क्यों होता है।
और विपरीतताए
फिर
विपरीतताए
नहीं रहतीं; वे सब पूरक
बन चुकी होती
हैं; वे
मदद पहुंचाती
हैं एक दूसरे
को।
अब
तुम्हें कोई
शिकायत न रही, अस्तित्व
के विरुद्ध
कोई शिकायत
नहीं। अब
तुम्हें समझ आ
जाती है कि
क्यों वे
चीजें वैसी
हैं जैसे कि
वे हैं; मृत्यु
का अस्तित्व
क्यों है। अब
तुम जान लेते
हो कि जीवन
अस्तित्व
नहीं रख सकता
बिना मृत्यु
के। और मृत्यु
के बिना जीवन
होगा क्या? जीवन तो बस
असह्य हो
जाएगा बिना
मृत्यु के; जीवन तो
असुंदर ही हो
जाएगा बिना
मृत्यु के; जरा सोचकर
देखना।
एक
कथा है सिकंदर
महान के विषय
में। वह किसी
ऐसी चीज की
तलाश में था
जो उसे अमर
बना सके। हर
कोई होता है
किसी ऐसी ही
चीज की तलाश
में,
और जब सिकंदर
ने खोजा, तो
पाया उसने। वह
बहुत
शक्तिशाली
व्यक्ति था।
वह खोजता गया
और खोजता गया,
और एक बार
वह पहुंच गया
उस गुफा में
जहां किसी फकीर
ने उड़ने.
बताया कि वहां
एक नदी की—
धारा है, और
कि यदि वह उस
गुफा का पानी पी
ले, तो वह अमर
हो जाएगा। सिकंदर
जरूर मूढ़ रहा
होगा। सारे सिकंदर
मूढ़ होते है।
अन्यथा उसने पूछ
लिया होता उस फकीर
से कि उसने भी उस
धारा का पानी पीया
है या नहीं पूछा;
इतनी जल्दी
में था वह! और
कौन जाने? —वह
शायद गुफा तक
पहुंच ही न
पाया हो मरने
के पहले, अत:
वह धावा बोलता
दौड़ पड़ा। वह
पहुंच गया
गुफा तक।
वह
पहुंचा अंदर, वह
बहुत प्रसन्न
था। वहां
स्फटिक की
भांति साफ जल
था। उसने कभी
न देखा था ऐसा
जल। वह जल
पीने को ही था,
तब गुफा में
बैठा हुआ एक
कौआ अचानक
बोला, 'ठहरो!
ऐसा मत करना।
मैंने किया
ऐसा और मैं
भुगत रहा हूं।’
सिकंदर ने
देखा कौए की
तरफ और बोला, 'क्या कह रहे
हो तुम? तुमने
पीया और दुख
तकलीफ क्या है?'
वह कहने लगा,
'अब मैं मर
नहीं सकता और
मैं मरना चाहता
हूं। हर चीज
समाप्त हो गई।
मैंने जान
लिया हर चीज
को जो कि यह
जीवन दे सकता
है। मैंने जान
लिया है प्रेम
को और मैं आगे
बढ़ गया हूं
उससे। मैंने
जान लिया है
सफलता को; मैं
राजा था कौओं
का। मैं थक कर
तंग आ चुका और
जो—जो कुछ
जाना जा सकता
है जान लिया
है मैंने। और
हर वह व्यक्ति
जिसे मैं
जानता था, मर
चुका है। वे
लौट गए, शांति
पा गए, और
मैं शात हो
नहीं सकता।
मैंने सारी
कोशिशें कर ली
हैं
आत्महत्या
करने की, पर
हर चीज असफल
हो जाती है।
'मैं मर नहीं
सकता क्योंकि
मैंने इस
दोषित गुफा से
जल पी लिया है।
बेहतर है कि
कोई न जाने इसके
बारे में।
इससे पहले कि
तुम पीयो, तुम
जरा ध्यान कर
लेना मेरी
स्थिति पर और
फिर तुम पी
सकते हो।’ ऐसा
कहा जाता है
कि सिकंदर ने
पहली बार सोचा
इसके बारे में
और उस गुफा की
उस जल धारा से
पानी पीए बिना
ही चला आया।
जीवन
बिलकुल
असहनीय हो गया
होता, यदि
मृत्यु न होती।
प्रेम असहनीय
हो गया होता, यदि उसके
विपरीत कुछ न
होता। यदि तुम
अपनी
प्रेमिका से
अलग न हो सको, तो ऐसा
असहनीय हो
जाएगा। सारी
बात ही इतनी
एकरस हो जाएगी;
वह
अर्थहीनता
निर्मित कर
देगी।
जीवन
अस्तित्व
रखता है
विपरीतताओ
सहित—इसीलिए
वह इतना
दिलचस्प है।
एक साथ होना
और दूर हो
जाना, फिर साथ—साथ
होना और दूर
हो जाना; चढ़ना
और उतरना। जरा
सागर की उस
लहर के बारे
में सोचना जो
चढ़ चुकी और
गिर नहीं
सकती! जरा उस
सूर्य की
सोचना जो उदय
हो जाता है और
अस्त नहीं हो
सकता! एक से
दूसरी
ध्रुवता तक की
गति इस बात का
रहस्य है कि
क्यों जीवन
दिलचस्प बना
रहता है।
जब
कोई जान लेता
है ऋतम्भरा को, सब
चीजों के
आधारभूत नियम
को, सबकी
असली नींव को,
तो हर. चीज
सुव्यवस्था
में उतरने
लगती है और समझ
आ जाती है। तब
कोई शिकायत
नहीं रहती।
व्यक्ति
स्वीकार कर
लेता है कि जो
कुछ है सुंदर
है।
इसीलिए
जिन्होंने
जाना है, वे सब
कहते हैं, जीवन
संपूर्ण है; तुम उसमें
और संशोधन
नहीं कर सकते।
'निर्विचार
समाधि में
चैतन्य
आपूरित हो
जाता है सत्य
से, ऋतंभरा
से।’
इसे
कहना ताओ। ताओ
ज्यादा सही
ढंग से अर्थ
दे सकता है
ऋतम्भरा का, किंतु
यदि तुम बने
रह सकते हो 'ऋतम्भरा' शब्द के साथ,
तो ऐसा
ज्यादा सुंदर
होगा। इसे
रहने दो मौजूद।
इसकी ध्वनि भी—ऋतम्भरा—समस्वरता
की कछ गुणवत्ता
लिए रहती है।
सत्य कही
ज्यादा रूखा—सूखा
होता है, एक
तार्किक
अवधारणा।
यदि
तुम सत्य और प्रेम
के जोड़ से कुछ
बना सको, तो वह ऋतम्भरा
से ज्यादा निकट
होगा। यह है हेराक्लाइटस
की 'छिपी
हुई समस्वरता'। लेकिन ऐसा
घटता है केवल
तभी जब चेतना
का विषय संपूर्णतया
तिरोहित हो
चुका होता है।
तुम अकेले
होते हो
तुम्हारी
चेतना के साथ
और दूसरा कोई
नहीं
होता।
बिना
प्रतिबिंब का
दर्पण!
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें