कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--41

योग है परम मिलन—(प्रवचन—पहला)

दिनांंक  1 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र  (साधनपाद)

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्‍द्रियात्‍मकं भोगापवर्गार्थं दृश्‍यम्।।18।।

दृश्य, जो कि प्राकृतिक तत्‍वों से और इंद्रियों से संघटित होता है,
उसका स्वभाव होता है—प्रकाश थिरता सक्रियता और निष्‍क्रियता।
और द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंतत: मुक्‍ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।

विशेषाविशेषलिड्गमात्रालिड्गानि गुणपर्वाणि।।19।।

ये तीन गुण--प्रकाश (थिरता) सक्रियता और निष्‍क्रियता
इनकी चार अवस्‍थाएं हैं : निश्चित, अनिश्चित, सांकेतिक और अव्यक्त।

द्रष्‍टादृशिमात्र: शुद्धोउपि प्रत्‍यानुपश्‍य।।20।।

द्रष्‍टा यद्यपि शुद्ध चेतना है, फिर भी मन की विकृतियों के मध्‍यम से वह देखा करता है।


तदर्थ एव दृश्‍यस्‍यात्‍मा।।21।।

दृश्‍य का अस्‍तित्‍व होता है मात्र द्रष्‍टा के लिए।

कृतार्थं प्रति नष्‍टमप्‍यनटं तदन्‍यसाधारणत्‍वात् ।।22।।

यद्यपि दृष्‍य उसके लिए मृत हो जाता है जिसने मुक्‍ति पा ली है। फिर भी बाकी दूसरों के लिए वह जीवित रहता है, क्‍योंकि यह सर्वनिष्‍ठ होता है।

स्‍वस्‍वामीशक्‍त्‍यो: स्‍वरूपोपलब्‍धि हेतु: संयोग:।।23।।
द्रष्‍टा और दृश्‍य साथ—साथ होते है, ताकि प्रत्‍येक का वास्‍तविक स्‍वभाव जाना जा सके।

तस्य हेतु: अविद्या।। 24।।

इस संयोग का कारण है अविद्या, अज्ञान।

वैज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक—ठीक अर्थ हुआ करता था।अव्यक्तिगत ज्ञान' का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग — थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है।
लेकिन अब बात ऐसी नहीं रही। वितान प्रौढ़ हुआ है। इन थोड़े से दशकों में, पिछले तीन—चार दशकों में विज्ञान अपने भ्रमपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति सचेत हुआ है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो अव्यक्तिगत हो। ज्ञान का स्वभाव ही है व्यक्तिगत होना। और ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो असंबद्ध हो, क्योंकि जानने का अर्थ ही है संबद्ध होना। केवल दर्शक की भांति किसी चीज को जानने की कोई संभावना नहीं है; सहभागिता अनिवार्य है। इसलिए अब सीमाएं उतनी स्पष्ट नहीं रही हैं।
पहले कवि कहा करता था कि उसके जानने का ढंग व्यक्तिगत है। जब एक कवि किसी फूल को जानता है तो वह उसे पुराने वैज्ञानिक ढंग से नहीं जानता। वह बाहर—बाहर से ही देखने वाला नहीं होता। किसी गहरे अर्थ में वह वही बन जाता है : वह उतरता जाता है फूल में और फूल को उतरने देता है अपने में, और एक गहन मिलन घटता है। उस मिलन में फूल का स्वरूप जाना जाता है।
अब विज्ञान भी कहता है कि जब तुम किसी चीज को ध्यानपूर्वक देखते हो तो तुम सहभागी होते हों—चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो वह सहभागिता, लेकिन फिर भी तुम सहभागी होते हो। कवि कहा करता था कि जब तुम किसी फूल की तरफ देखते हो तो वह फिर वही फूल नहीं रहता जैसा कि वह तब था जब किसी ने उसकी ओर देखा न था, क्योंकि तुम उसमें प्रवेश कर चुके हो, उसका हिस्सा बन चुके हो। तुम्हारी दृष्टि भी अब उसका हिस्सा हो जाती है; पहले वह वैसा न था। जंगल में किसी अज्ञात पगडंडी के किनारे खिला एक फूल, जिसके पास से कोई गुजरा नहीं, वह एक अलग ही फूल होता है; फिर अचानक कोई आ जाता है जो देखता है उसकी तरफ—वह फूल अब वही न रहा। फूल बदल देता है द्रष्टा को, और दृष्टि बदल देती है फूल को। एक नई गुणवत्ता प्रवेश कर गई।
लेकिन यह ठीक था कवियों के लिए—कोई भी उनसे बहुत तार्किक और वैज्ञानिक होने की आशा नहीं रखता—लेकिन अब तो विज्ञान भी कहता है कि यही प्रयोगशालाओं में घट रहा है : जब तुम निरीक्षण करते हो तो निरीक्षण की वस्तु वही नहीं रह जाती, उसमें देखने वाला शामिल हो जाता है और गुणवत्ता बदल जाती है। अब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि जब कोई उन्हें देख नहीं रहा होता तो परमाणु अलग ही ढंग से व्यवहार करते हैं। जैसे ही तुम उन्हें देखते हो, वे तुरंत अपनी गतिया बदल देते हैं। बिलकुल ऐसे ही जैसे कि जब तुम अपने स्नानगृह में होते हो तो तुम एक अलग ई व्यक्ति होते हो, फिर अचानक ही तुम्हें लगता है कि चाबी के छेद से कोई देख रहा है —तत्‍क्षण तुम बदल जाते हो। परमाणु भी जब अनुभव करता है कि कोई देखने वाला है, तो फिर वह वही नहीं रहे जाता; वह अलग ही ढंग से गति करने लगता है। यही थीं सीमाएं : विज्ञान को समझा जाता था बिलकुल अव्यक्तिगत, कला थी विज्ञान और धर्म के मध्य में और समझा जाता था कि उसकी आशिक सहभागिता होती है; और धर्म था समग्र सहभागिता।
एक कवि देखता है फूल को, तब ऐसी झलकियां मिलती हैं जब वह भी खो जाता द्वै, फूल भी खो जाता है। लेकिन ये केवल झलकियां ही होती हैं, कुछ क्षणों के लिए मिलन घटता है, और—फिर वे अलग हो जाते हैं, फिर वे पृथक हो जाते हैं। जब एक रहस्यदर्शी, एक धार्मिक व्यक्ति फूल को देखता है तब क्या घटता है? तब सहभागिता समग्र होती है, आशिक नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं; बच रहती है केवल वह ऊर्जा जो दोनों के बीच आंदोलित हो रही होती है। अनुभूति बच रहती है, अनुभव करने वाला नहीं बचता, न ही अनुभव की विषय—वस्तु बचती है। विपरीतताए खो जाती हैं, विषय और विषयी मिट जाते हैं, सारी सीमाएं खो जाती हैं।
धर्म एक समग्र सहभागिता है। कविता या कला या चित्रकला आशिक सहभागिता है।
विज्ञान बिलकुल भी भागीदार न था। अब बात ऐसी नहीं है। विज्ञान को वापस कविता के, धर्म के ज्यादा निकट आना पड़ा है। अब सारी सीमाएं एक—दूसरे में घुल—मिल गई हैं। केवल पचास वर्ष पहले तक वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित व्यक्ति हंस देता पतंजलि पर, खिलखिला कर हंस पड़ता शंकर और वेदांत पर और अपने भीतर सोचता कि ये लोग पागल हो गए हैं। अब असंभव है पतंजलि पर हंसना। वे ज्यादा ठीक सिद्ध हो रहे हैं।
जैसे —जैसे विज्ञान ज्यादा गहरे विकसित होता जाता है, योग ज्यादा प्रामाणिक और ज्यादा सत्य मालूम हो रहा है। क्योंकि योगी की सदा यही दृष्टि रही है. कि अस्तित्व अखंड है। पृथकता, सीमाओं का विभाजन कामचलाऊ है—यह अज्ञानवश है। इसकी जरूरत है; यह एक आवश्यक प्रशिक्षण है। तुम्हें g)जरना ही है इसमें से, तुम्हें भोगना है इसे और अनुभव करना है इसे—लेकिन तुम्हें गुजर जाना है इसमें से। यह कोई घर नहीं है; यह केवल एक मार्ग है। यह संसार पृथकता का, वियोग का मार्ग है। यदि तुम गुजर जाते हो इसमें से और तुम समझने लगते हो पूरे अनुभव को, तो मिलन और विवाह पास आता जाता है—और पास, और पास। और एक दिन अचानक ही तुम विवाहित होते हो, संपूर्ण सृष्टि से मिलन होता है और सारे वियोग मिट जाते हैं। और उस मिलन में ही आनंद है। इस अलगाव में पीड़ा है, क्योंकि यह अलगाव झूठा है। अलगाव है, क्योंकि तुम्हें बोध नहीं है। तुम्हारे अज्ञान में ही उसका अस्तित्व है। यह एक स्वप्न की भांति है।
तुम सोए हुए हो : फिर तुम स्वप्न देखते हो हजारों चीजों के, और सुबह वे सभी तिरोहित हो जाती हैं। और अचानक तुम हंसने लगते हो स्वयं पर ही। सारी बात ही इतनी बेतुकी मालूम पड़ती है। तुम्हें विश्वास नहीं आता कि ऐसा हुआ कैसे! तुम्हें विश्वास नहीं आता कि तुम भ्रांति में कैसे पड़ गए, जैसे कि वह सब वास्तविक हो! तुम्हें विश्वास नहीं आता कि ऐसा कैसे संभव हुआ कि तुम मन में तैरते उन चित्रों द्वारा इतने अभिभूत हो गए! वे विचारों के बुदबुदों के सिवाय और कुछ नहीं थे। और वे कैसे लगते थे—यथार्थ, ठोस, और वास्तविक!
ऐसा ही घटता है जब कोई सत्य के अनुभव में उतरता है! लेकिन सत्य जाना जाता है गहरी सहभागिता द्वारा। यदि तुम सहभागी नहीं होते तो तुम सत्य को बाहर—बाहर से ही जानोगे, किसी अजनबी की भांति, किसी बाहरी व्यक्ति की भांति। तुम इस घर के पास आ सकते हो; तुम घर के चारों तरफ घूम सकते हो; और तुम घर के बारे में कुछ बातें जान भी लोगे। लेकिन तुम घूमते रहे बाहर ही, सतह पर ही। तुमने दीवारों को बाहर से ही देखा। तुम घर को भीतर से नहीं जानते। कभी—कभी, रात के अंधेरे में आए चोर की भांति, तुम घर में प्रवेश भी कर सकते हो।
कवि चोर होता है। वैज्ञानिक अजनबी बना रहता है। धार्मिक आदमी मेहमान होता है; वह रात के अंधेरे में नहीं आता है : वह घर में चोरी से नहीं आता है। हालाकि कुछ बातों को चोर की भांति भी जाना जा सकता है, इसलिए कवि बेहतर होगा उस वैज्ञानिक व्यक्ति से जो कि बाहर—बाहर ही घूमता रहा और कभी भीतर नहीं आया। तो कवि भी थोड़ा—बहुत जान लेगा जिसे एक वैज्ञानिक कभी नहीं जान सकता, क्योंकि कवि प्रवेश कर चुका है घर में—चाहे रात में ही सही, अंधेरे में ही सही, चाहे अनिमंत्रित ही, अतिथि के रूप में नहीं, सामने के द्वार से नहीं।
धार्मिक आदमी घर में प्रविष्ट होता है अतिथि की भांति। वह उसे अर्जित करता है। और वह न केवल घर के बारें में ही जानता है, बल्कि मालिक के बारे में भी जानता है—क्योंकि वह मेहमान होता है। वह न केवल उस भौतिक घर के बारे में जानता है, बल्कि वह उस अभौतिक मालिक के बारे में भी जानता है जौ कि वस्तुत: केंद्र है घर का। वह घर के मालिक को भी जानता है।
विज्ञान जानता है केवल पदार्थ को। कला को कई बार झलकें मिलती हैं अभौतिक की। क्योंकि चोर भी देख सकता है मालिक को, लेकिन मालिक सोया हुआ होगा। वह भी देख सकता है उसका चेहरा, लेकिन केवल अंधकार में, क्योंकि वह भयभीत होता है, सदा भयभीत होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए। वह चोर होता है और सदा भयभीत होता है और कैप रहा होता है। लेकिन जब तुम घर में अतिथि की भांति आमंत्रित होकर आते हो, तुमने उसे अर्जित किया होता है, तो मालिक तुम्हारा आलिंगन करता है; तुम्हारा स्वागत करता है। तब तुम जानते हो सत्य के अंतरतम केंद्र को।
भारत में हमारे पास कवि के लिए दो शब्द हैं। किसी अन्य भाषा में कवि के लिए दो शब्द नहीं हैं, क्योंकि कोई जरूरत नहीं पडी। एक ही शब्द पर्याप्त होता है। वही इशारा कर देता है काव्य की घटना की तरफ—'कवि' पर्याप्त है। लेकिन संस्कृत में हमारे पास दो शब्द हैं : 'कवि' और 'ऋषि'। और भेद बहुत सूक्ष्म है और समझने जैसा है।कवि' वह है जो चोर की भांति आता है। वह सहभागी तो होता है, इसलिए वह कवि है। लेकिन उसका ज्ञान होता है टुकड़ों में। किन्हीं खास क्षणों में जैसे कि कोई चोर घर के भीतर हो और अचानक आकाश में बिजली कौंध जाए और वह सारे घर को
भीतर से भी देख सके—लेकिन ऐसा होता है क्षण भर को ही। फिर बिजली खो जाती हैं और हर चीज स्‍वप्‍नवत हो जाती है।
तो कभी—कभी कवि का सामना हो जाता है सत्य से, लेकिन इसी तरह जैसे कि उसने उसे अर्जित न किया हो। इसीलिए कई बार आश्चर्य करोगे तुम; तुम किसी की कविता पढ़ते हों—कोई भी कविता, किसी की भी—वह तुम्हें छूती है, तुम्हारे हृदय में उतर जाती है, तुम आंदोलित हो जाते हो और तुम मिलना चाहते हो इस आदमी से जिसमें कि ये पंक्तियां अवतरित हुई हैं। लेकिन जब तुम उस आदमी से, उस कवि से मिलते हो, तो — तुम्हें निराशा होती है—वह एकदम सामान्य आदमी होता है—साधारण, कुछ खास नहीं। अपनी कविता की उड़ान में वह बड़ा असाधारण था, लेकिन यदि. तुम मिलते हो उस कवि से तो वह साधारण ही होता है। क्या हुआ? तुम नहीं मान सकते कि ऐसा सुंदर काव्य पैदा हो सकता है एक साधारण आदमी से!
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कवि कोई स्थायी निवासी नहीं होता मंदिर का। वह चोर होता है। कई बार वह प्रवेश करता है, लेकिन अंधेरे में ही। निश्चित ही, चारों ओर घूमने से तो बेहतर है यह; कम से कम उसे एक झलक तो मिलती है। बस वह उस झलक के गीत गाता है। उसके हृदय में सतत एक टीस बनी रहती है उस आंतरिक झलक के लिए जिसे उसने एक बार देखॉ है। वह फिर—फिर उसी के गीत गाता है, लेकिन अब यह उसका अनुभव नहीं है। यह अतीत की बा_त हो गई—एक स्मृति, एक स्मरण, कोई वास्तविकता नहीं।
'ऋषि' वह कवि है जिसका स्वागत हुआ है मेहमान की भांति। ऋषि शब्द का अर्थ है द्रष्टा, और कवि शब्द का भी अर्थ है द्रष्टा। उन दोनों का ही अर्थ होता है : वह जिसने कि देख लिया। तो भेद क्या है? भेद यह है कि ऋषि ने उसे अर्जित किया होता है। वह दिन के प्रकाश में प्रविष्ट हुआ घर में, वह सामने के दरवाजे से प्रविष्ट हुआ। वह कोई अनिमंत्रित मेहमान नहीं है; वह किसी दूसरे के घर में अनधिकार प्रवेश नहीं कर रहा है। वह निमंत्रित है। मालिक ने उसका स्वागत किया। वह भी गीत गाता है, लेकिन उसका गीत पूरी तरह से अलग होता है साधारण कवि से।
उपनिषद ऐसे ही गीत हैं, वेद ऐसे ही गीत हैं—वें आए हैं ऋषियों के हृदयों से। वे कोई साधारण कवि न थे, वे असाधारण कवि थे। असाधारण इस अर्थ में कि उन्होंने अर्जित किया था उस झलक को; वह कोई चुराई हुई चीज न थी। लेकिन ऐसा केवल तभी संभव होता है जब तुम सीख लेते हो कि पूरे प्राणों से सहभागी कैसे होना है—यही है योग। योग का अर्थ है सम्मिलन; योग का अर्थ है विवाह; योग का अर्थ है जोड़। योग का अर्थ है : फिर से निकट कैसे आना, पृथकता को कैसे मिटा देना, सारी सीमाओं को कैसे विलीन कर देना, उस अवस्था तक कैसे आ जाना जहां ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाएं। यही है योग की खोज।
इन थोड़े से दशकों में विज्ञान और— और सजग हुआ है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत होता है। योग कहता है कि ज्ञान मात्र व्यक्तिगत होता है और जितना ज्यादा व्यक्तिगत होता है, उतना बेहतर होता है। तुम्हें उससे एकात्म हो जाना होगा : .तुम्हें फूल हो जाना होगा; तुम्हें चट्टान हो जाना होगा; तुम्हें चांद हो जाना होगा; तुम्हें सागर, रेत हो जाना होगा। तुम जहां कहीं देखो, तुम्हें विषय और विषयी दोनों हो जाना होगा। तुम्हें सम्मिलित होना होगा। तुम्हें सहभागी होना होगा। केवल तभी जीवन स्पंदित होता है, जीवन अपनी लय के साथ स्पंदित होता है। तब तुम उस पर कुछ आरोपित नहीं कर रहे होते।
विज्ञान आक्रमण है, कविता चोरी है और धर्म सहभागिता है।
अब हम पतंजलि के इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।

 दृश्य जो कि प्राकृतिक तत्वों से और इंद्रियों से संघटित होता है उसका स्वभाव होता है— प्रकाश ( थिरता), सक्रियता और निष्कियता। और द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंतत: मुक्ति फलित हो इस हेतु वह होता है।

 हली बात जो समझने जैसी है वह यह है कि यह संसार इसलिए है ताकि तुम्हें मुक्ति फलित हो सके। बहुत बार यह प्रश्न उठा है तुम में. 'यह संसार क्यों है? इतनी ज्यादा पीड़ा क्यों है? यह सब किसलिए है? इसका प्रयोजन क्या है?' बहुत से लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, 'यह मूलभूत प्रश्न है कि हम आखिर है ही क्यों? और अगर जीवन इतनी पीड़ा से भरा है, तो प्रयोजन क्या है इसका? यदि परमात्मा है, तो वह इस सारी की सारी अराजकता को मिटा क्यों नहीं देता? क्यों नहीं वह मिटा देता इस सारे दुख भरे जीवन को, इस नरक को? क्यों वह लोगों को विवश किए चला जाता है इस में जीने के लिए?
योग के पास उत्तर है। पतंजलि कहते हैं, 'द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।
यह एक प्रशिक्षण है? पीड़ा एक प्रशिक्षण है, क्योंकि बिना पीड़ा के परिपक्व होने की कोई संभावना नहीं। यह आग है, सोने को शुद्ध होने के लिए इसमें से गुजरना ही होगा। यदि सोना कहे, क्यों? तो सोना अशुद्ध और मूल्यहीन ही बना रहता है। केवल आग से गुजरने पर ही वह सब जल जाता है जो कि सोना नहीं होता और केवल शुद्धतम स्वर्ण बच रहता है। मुक्ति का कुल मतलब इतना ही है : एक परिपक्वता, इतना चरम विकास कि केवल शुद्धता, केवल निर्दोषता ही बचती है, और वह सब जो कि व्यर्थ था, जल जाता है।
इसे जानने का कोई और उपाय नहीं है। कोई और उपाय हो भी नहीं सकता इसे जानने का। यदि तुम जानना चाहते हो कि तृप्ति क्या है, तो तुम्हें भूख को जानना ही होगा। यदि तुम बचना चाहते हो भूख से, तो तुम तृप्ति से भी बच जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो कि गहन तृप्ति क्या होती है, तो तुम्हें जानना होगा प्यास को, गहन प्यास को। यदि तुम कहते हो, 'मैं नहीं चाहता मुझे प्यास लगे', तो तुम प्यास के बुझने की, उस गहन तृप्ति की सुंदर घड़ी को चूक जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो कि प्रकाश क्या है, तो तुम्हें गुजरना ही पड़ेगा अंधेरी रात से। अंधेरी रात तुम्हें तैयार करती है जानने के लिए कि प्रकाश क्या है। यदि तुम जानना चाहते हो कि जीवन क्या है, तो तुम्हें गुजरना होगा मृत्यु से। मृत्यु तुम में जीवन को जानने की संवेदनशीलता निर्मित करती है।
वे विपरीत नहीं हैं, वे परिपूरक हैं। ऐसा कुछ नहीं है संसार में जो कि विपरीत हो; हर चीज परिपूरक है।यह' संसार अस्तित्व रखता है ताकि तुम जान सको 'उस' संसार को।इसका' अस्तित्व है 'उसको' जानने के लिए। भौतिक है आध्यात्मिक को जानने के लिए; नरक है स्वर्ग तक आने के
लिए। यही है प्रयोजन। और यदि तुम एक से बचना चाहते हो तो तुम दोनों से बच जाओगे, क्योंकि वे एक ही चीज के दो पहलू हैं। एक बार तुम इसे समझ लेते हमे तो कोई पीड़ा नहीं रहती. तुम जानते हो कि यह एक प्रशिक्षण है, एक अनुशासन है। अनुशासन कठिन होता है। कठिन होगा ही, क्योंकि केवल तभी उससे सच्ची परिपक्वता आएगी।
योग कहता है कि यह संसार एक ट्रेनिंग स्कूल की भांति है, एक पाठशाला। इससे बचो मत और इससे भागने की कोशिश मत करो। बल्कि जीओ इसे, और इसे इतनी समग्रता से जीओ कि इसे फिर से जीने को विवश न होना पड़े तुम्हें। यही है अर्थ जब हम कहते हैं कि एक बुद्ध पुरुष कभी वापस नहीं लौटता। कोई जरूरत नहीं रहती। वह गुजर गया जीवन की सभी परीक्षाओं से। उसके लौटने की जरूरत न रही।
तुम्हें फिर—फिर उसी जीवन में लौटने को विवश होना पड़ता है, क्योंकि तुम सीखते नहीं। बिना सीखे ही तुम अनुभव की पुनरुक्ति किए चले जाते हो। तुम फिर—फिर दोहराते रहते हो वही अनुभव—वही क्रोध। कितनी बार, कितने हजारों बार तुम क्रोधित हुए हो? जरा गिनो तो। क्या सीखा तुमने इससे? कुछ भी नहीं। फिर जब कोई स्थिति आ जाएगी तो तुम फिर से क्रोधित हो जाओगे—बिलकुल उसी तरह जैसे कि तुम्हें पहली बार क्रोध आ रहा हो!
कितनी बार तुम पर कब्जा कर लिया है लोभ ने, कामवासना ने रूम फिर कब्जा कर लेंगी ये चीजें। और फिर तुम प्रतिक्रिया करोगे उसी पुराने ढंग से—जैसे कि तुमने न सीखने की ठान ही ली हो। और सीखने के लिए राजी होने का अर्थ है योगी होने के लिए राकँई होना। यदि तुमने न सीखने का ही तय कर लिया है, यदि तुम आंखों पर पट्टी ही बांधे रखना चाहते हो, यदि तुम फिर—फिर दोहराए जाना चाहते हो उसी नासमझी को, तो तुम वापस फेंक दिए जाओगे। तुम वापस भेज दिए जाओगे उसी कक्षा में जब तके कि तुम उत्तीर्ण न हो जाओ।
जीवन को किसी और ढंग से मत देखना। यह एक विराट पाठशाला है, एकमात्र विश्वविद्यालय है।विश्वविद्यालय' शब्द आया है 'विश्व' से। असल में किसी विश्वविद्यालय को स्वयं को विश्वविद्यालय नहीं कहना चाहिए। यह नाम तो बहुत विराट है। संपूर्ण विश्व ही है एकमात्र विश्वविद्यालय। लेकिन तुमने बना लिए हैं छोटे—छोटे विश्वविद्यालय और तुम सोचते हो कि जब तुम वहां से उत्तीर्ण होते हो तो तुम जान गए सब, जैसे कि तुम बन गए ज्ञानी!
नहीं, ये छोटे—मोटे मनुष्य—निर्मित विश्वविद्यालय न चलेंगे। तुम्हें इस विराट विश्वविद्यालय से जीवन भर गुजरना होगा।
पतंजलि कहते हैं, '.. अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो..।
अनुभव मुक्ति लाता है। जीसस ने कहा है, 'सत्य को जान लो और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा।जब भी तुम किसी बात को सजग होकर, होशपूर्वक, पूरी तरह ध्यान देते हुए अनुभव करते हो कि क्या घट रहा है — ध्यान दे रहे होते हो और साथ—साथ सहभागी हो रहे होते हो—तो वह अनुभव मुक्तिदायी होता है। तुरंत कोई चीज उमगती है उसमें से : एक अनुभव, जो सत्य बन जाता है। तुमने उसे शास्त्रों से उधार नहीं लिया होता; तुमने उसे किसी दूसरे से उधार नहीं लिया होता। अनुभव उधार नहीं लिया जा सकता; केवल सिद्धात उधार लिए जा सकते हैं।
इसीलिए सारे सिद्धात गंदे होते हैं, क्योंकि वे बहुत से हाथों से गुजरते रहते हैं—लाखों हाथों से। वे गंदे नोटों की भांति होते हैं। अनुभव सदा ताजा होता है—सुबह की ओस जैसा ताजा, सुबह खिले गुलाब की भांति ताजा। अनुभव सदा निर्दोष और कुंआरा होता है, किसी ने कभी छुआ नहीं है उसे। तुम पहली बार उसके सामने आए हो। तुम्हारा अनुभव तुम्हारा है, वह किसी दूसरे का नहीं है, और कोई उसे दे नहीं सकता तुम्हें।
बुद्ध पुरुष मार्ग दिखा सकते हैं, लेकिन चलना तो तुम्हें ही है। कोई बुद्ध पुरुष तुम्हारी जगह नहीं चल सकता है; ऐसी कोई संभावना नहीं है। कोई बुद्ध पुरुष अपनी आंखें तुम्हें नहीं दे सकता कि तुम उनके द्वारा देख सको। और यदि कोई बुद्ध पुरुष तुम्हें आंखें दे भी दे, तो तुम बदल दोगे आंखों को—आंखें तुम्हें न बदल पाएंगी। जब आंखें तुम्हारे ढांचे में बिठाई जाएंगी, तो तुम्हारा ढांचा आंखों को ही बदल देगा, लेकिन आंखें तुम्हें नहीं बदल सकतीं। वे अंश हैं; तुम एक बहुत बड़ी घटना हो।
मैं अपना हाथ तुम्हें उधार नहीं दे सकता। यदि मैं दूं भी, तो स्पर्श मेरा न रहेगा, वह तुम्हारा होगा। जब तुम छुओगे और स्पर्श करोगे कुछ—चाहे मेरे हाथ द्वारा ही—तो वह तुम्हीं स्पर्श कर रहे होओगे, मेरा हाथ न होगा। सत्य को उधार पाने की कोई संभावना नहीं है। अनुभव मुक्त कर्ता है।
रोज मुझसे लोग मिलते हैं और कहते हैं, 'कैसे कोई क्रोध से मुक्त हो? कैसे कोई काम से, वासना से मुक्त हो? कैसे कोई मुक्त हो इससे, कैसे कोई मुक्त हो उससे?' और जब मैं कहता हूं 'इसे जीओ', तो उन्हें धक्का लगता है। वे मेरे पास आए थे उन बातों का दमन करने की किसी विधि की खोज में। और यदि वे भारत में किसी दूसरे गुरु के पास गए होते तो उन्हें अपना दमन करने के लिए कोई न कोई विधि मिल गई होती। लेकिन दमन कभी मुक्ति नहीं बन सकता, क्योंकि दमन का अर्थ है अनुभव से बचना। दमन का अर्थ है अनुभव की तमाम जड़ों को ही कांट देना। दमन कभी भी मुक्ति नहीं बन सकता। दमन सब से बड़ा बंधन है जो. तुम कहीं पा सकते हो। तुम जीते हो एक पिंजरे में। अभी एक दिन एक नए संन्यासी ने मुझसे कहा, 'मैं पिंजरे में बंद जानवर जैसा अनुभव करता हूं।इसकी पूरी संभावना है कि उसका मतलब यही शा कि वह चाहता था कि मैं उसकी मदद करूं ताकि जानवर मर जाए, क्योंकि हम 'जानवर' तभी कहते हैं जब हम निंदा करते हैं। वह शब्द ही निंदित है। लेकिन जब मैंने संन्यासी से कहा, 'ही, मैं तुम्हारी मदद करूंगा। मैं तोड़ दूंगा पिंजरा और पूरी तरह स्वतंत्र कर दूंगा जानवर को,' तो उसे थोड़ा धक्का लगा; क्योंकि जब तुम कहते हो जानवर, तो तुमने उसकी निंदा, उसका मूल्यांकन कर ही दिया होता है। यह कोई महज तथ्य नहीं है। पशु या पशुता शब्द में ही तुमने वह सब कुछ कह दिया जो तुम कहना चाहते थे। तुम उसे स्वीकार नहीं करते। तुम उसे जीना नहीं चाहते।
इसीलिए तुमने पिंजरा बना लिया है। वह पिंजरा है—चरित्र। सारे चरित्र पिंजरे हैं, कारागृह हैं, तुम्हारे चारों ओर बंधी जंजीरें हैं। और चरित्र वाला आदमी कैदी आदमी है। वास्तविक रूप से जागा हुआ व्यक्ति चरित्र वाला व्यक्ति नहीं होता है। वह जीवंत होता है। वह पूरी तरह जागा हुआ होता है, लेकिन उसका कोई चरित्र नहीं होता, क्योंकि उसके आस—पास कोई पिंजरा नहीं होता। वह सहजस्फूर्त भाव से जीता है। वह जागा हुआ जीता है इसलिए कोई गलती नहीं हो सकती, लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कोई पिंजरा नहीं होता आस—पास।
पिंजरा सजगता का झूठा विकल्प है। यदि तुम सोए—सोए जीना चाहते हो तो तुम्हें चरित्र की जरूरत है, ताकि चरित्र तुम्हें मार्ग—निर्देश दे सके। तब तुम्हें सजग रहने की जरूरत नहीं होती। जैसे, तुम कोई चीज चुराने ही वाले हो—कि चरित्र एकदम रोक देता है तुम्हें वह कहता है, 'नहीं! यह गलत है! यह पाप है! तुम सडोगे नरक में! क्या तुम भूल गए सारी बाइबिल? क्या तुम भूल गए सभी दंड जिन्हें भुगतना पड़ता है आदमी को?' यह 'है चरित्र। यह रोक देता है तुम्हें। तुम चोरी करना चाहते हो, चरित्र एक रुकावट बन जाता है।
सजग व्यक्ति भी चोरी नहीं करेगा, लेकिन यह उसका चरित्र नहीं है; और यही है चमत्कार और सौंदर्य। उसके पास कोई चरित्र नहीं है और फिर भी वह चोरी नहीं करेगा?ँ क्योंकि उसके पास बोध है। ऐसा नहीं है कि वह भयभीत है पाप से—पाप जैसा कुछ है ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा कह सकते हो कि गलतियां हैं। पाप जैसा तो कुछ है ही नहीं। वह दंड से भयभीत नहीं है, क्योंकि दंड कहीं भविष्य में नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि पापों के लिए दंड मिलता है। असल में पाप ही दंड है।
ऐसा नहीं है कि तुम आज क्रोधित होते हो और दंड तुम्हें कल मिलेगा या अगले जन्म में मिलेगा—कोरी बकवास है यह सब। तुम अपना हाथ आग में अभी डालते हो, तो क्या सोचते हो कि वह अगले जन्म में जलेगा? जब तुम अपना हाथ आग में डालते हो, तो वह अभी जलता है; वह तत्‍क्षण जलता है। हाथ का वहा रखा जाना और उसका जल जाना साथ—साथ घटता है। एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता। जीवन का भविष्य में कोई विश्वास नहीं, क्योंकि जीवन केवल वर्तमान में है। ऐसा नहीं है कि पापों की सजा भविष्य में मिलेगी, पाप ही सजा हैं। सजा अंतर्निहित है : तुम चोरी करते हो और तुम्हें सजा मिल जाती है। उस चोरी करने में ही तुम सजा पाते हो—क्योंकि तुम ज्यादा बंद हो जाते हो : तुम ज्यादा भयभीत हो जाओगे, तुम संसार का सामना न कर पाओगे। निरंतर तुम एक अपराध— भाव अनुभव करोगे, कि तुमने कुछ गलत किया है, किसी भी घड़ी तुम पकड़े जा सकते हो। तुम पकड़े ही गए हो! हो सकता है कभी किसी ने तुम्हें पकड़ा न हो और किसी न्यायालय ने तुम्हें कभी सजा न दी हो—और कहीं कोई पारलौकिक न्यायालय नहीं है—लेकिन फिर भी तुम पकड़े गए हो। तुम स्वयं के द्वारा ही पकड़े गए हो। इसे कैसे भूल पाओगे तुम? कैसे तुम क्षमा करोगे स्वयं को? कैसे तुम उस बात को अनकिया कर दोगे जिसे कि तुमने किया है? वह तुम्हारे चारों ओर छाई रहेगी। यह बात छाया की भांति तुम्हारा पीछा करेगी। किसी प्रेत की भांति यह तुम्हारे पीछे पड़ी रहेगी। यह स्वयं ही एक सजा है।
तो चरित्र तुम्हें गलत बातें करने से रोकता है, लेकिन वह तुम्हें उनके बारे में सोचने से नहीं रोक सकता। लेकिन चोरी करना या उसके बारे में सोचना एक ही बात है। सचमुच हत्या कर देना और उसके बारे में सोचना एक ही बात है। क्योंकि जहां तक तुम्हारी चेतना का प्रश्न है तुमने वह बात कर ही दी है —यदि तुमने उसके बारे में सोचा है। वह कृत्य न बनी क्योंकि चरित्र ने तुम्हें रोक लिया, यदि चरित्र वहा न होता तो वह बात कृत्य बन गई होती।
तो असल में चरित्र ज्यादा से ज्यादा यही करता है : वह रोक लगा देता है विचार पर; वह उसे कृत्‍य मैं नहीं बदलने देता। यह समाज के लिए ठीक है, लेकिन तुम्हारे लिए जरा भी ठीक नहीं है। यह समाज की सुरक्षा करता है; तुम्हारा चरित्र समाज की सुरक्षा करता है। तुम्हारा चरित्र दूसरों की सुरक्षा करता है, बस इतना ही। इसीलिए प्रत्येक समाज जोर देता है चरित्र पर, नैतिकता पर, ऐसी ही चीजों पर; लेकिन वह तुम्हारी सुरक्षा नहीं करता।
तुम्हारी सुरक्षा केवल होश में हो सकती है। और यह होश कैसे पाया जाता है? दूसरा कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके किं जीवन को उसकी समग्रता में जीया जाए।
'द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।
'दृश्य, जो कि प्राकृतिक तत्वों से और इंद्रियों से संघटित होता है, उसका स्वभाव होता है..
तीन गुण। योग तीन गुणों में विश्वास करता है. सत्य, रजस, तमस। सत्व वह गुण है जो चीजों को स्थिर बनाता है, रजस वह गुण है जो सक्रियता देता है; और तमस का गुणधर्म है अक्रिया। ये तीन आधारभूत गुण हैं। इन तीनों के द्वारा यह सारा संसार अस्तित्व में है। यह है योग की त्रिमूर्ति।
अब भौतिकशास्त्री भी योग के साथ राजी होने को तैयार हो गए हैं। उन्होंने परमाणु को तोड़ लिया है और उन्हें पता चला है तीन चीजों का. इलेक्ट्रान, न्‍यूट्रान, प्रोट्रान। ये तीनों वही तीन गुण हैं : एक की गुणवत्ता है प्रकाश की—सत्व, स्थिरता; दूसरे की गुणवत्ता है रजस की—क्रिया, ऊर्जा, शक्ति, और तीसरे की गुणवत्ता है अक्रिया की—तमस। सारा संसार बना है इन तीन गुणों से; और इन तीन गुणों से गुजरना पड़ता है सजग व्यक्ति को। उसे अनुभव लेना होता है इन तीनों गुणों का। और यदि तुम उनको एक लयबद्धता में अनुभव करते हो, जो कि वास्तविक अनुशासन है योग का.....।
हर कोई इन्हें अनुभव करता है. कई बार तुम आलस्य अनुभव करते हो, कई बार तुम ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करते हो; कई बार तुम अच्छा और हलका अनुभव करते हो, और कई बार तुम अशुभ और बुरा अनुभव करते हो; कई बार तुम अंधकार होते हो और कई बार तुम सुबह का उजाला होते हो। तुम्हें प्रतीति होती है इन तीनों गुणों की। उनकी घड़ियां निरंतर आती रहती हैं; तुम एक चक्र में घूमते रहते हो; लेकिन वे अनुपात में नहीं होते।
एक आलसी आदमी नब्बे प्रतिशत आलसी होता है। वह सक्रिय भी होता है—उसे होना ही पड़ेगा, क्योंकि आलस्य का जीवन जीने के लिए भी उसे थोड़ा काम तो करना होगा। उसकी सारी सक्रियता बस इतनी ही होती है—उसकी निष्‍क्रियता को सहारा देने के लिए। और उसे लोगों के साथ थोड़ा भला भी रहना पड़ता है, .अन्यथा तो लोग बहुत ही बुरी तरह पेश आएंगे उसके साथ। लोग बरदाश्त नहीं करेंगे उसकी निष्‍क्रियता को।
क्या तुमने ध्यान दिया? जो लोग बहुत सक्रिय नहीं होते .उदाहरण के लिए, बहुत मोटे लोग सदा मुस्कुराते रहते हैं। यह बात उनके लिए एक रक्षी—कवच होती है। वे जानते हैं कि वे लड़ नहीं सकते। वे जानते हैं कि यदि लड़ाई हो जाए तो वे बच कर भाग नहीं सकते, दौड़ नहीं सकते। तुम बहुत मोटे लोगों को सदा मुस्कुराते हुए देखते हो—प्रसन्न! कारण क्या है? क्यों पतले व्यक्ति दुखी मालूम पड़ते हैं, और क्यों मोटे व्यक्ति कभी बहुत दुखी नहीं मालूम पड़ते, सदा प्रसन्न दिखते हैं?
मनस्विद और शरीर—शास्त्री कहते हैं कि यह बात मोटे व्यक्ति के लिए एक सुरक्षा है, क्योंकि जीवन—संघर्ष में उनके लिए सदा लड़ने की भाव—दशा में रहना बहुत कठिन होगा, जिसमें कि दुबले—पतले लोग सदा ही रहते हैं। वे लड़ सकते हैं—यदि दूसरा आदमी कमजोर है तो वे पीट देंगे उसे; यदि दूसरा आदमी शक्तिशाली है तो वे बच कर भाग निकलेंगे। वे दोनों बातें कर सकते हैं, और मोटा आदमी इन दोनों में से कुछ भी नहीं कर सकता, तो वह मुस्कुराता रहता है; वह हर किसी के साथ अच्छा बना रहता है। यह उसकी सुरक्षा है, ताकि दूसरे उसके साथ अच्छा व्यवहार करें।
आलसी व्यक्ति सदा भले होते हैं। उन्होंने कभी कोई पाप नहीं किया, क्योंकि पाप करने के लिए भी व्यक्ति को थोड़ा सक्रिय होना पड़ता है। तुम किसी आलसी आदमी को हिटलर नहीं बना सकते, असंभव है। तुम किसी आलसी आदमी को नेपोलियन या सिकंदर नहीं बना सकते। यह असंभव है। आलसी आदमियों ने कोई बड़ा पाप नहीं किया है. वे कर नहीं सकते। एक तरह से वे बहुत भले लोग होते हैं, क्योंकि पाप करने के लिए भी उन्हें सक्रिय होना होगा—वह बात उनके अनुकूल नहीं पड़ती।
फिर सक्रिय व्यक्ति हैं, असंतुलित; वे सदा कुछ न कुछ करते रहते हैं। उन्हें कहीं पहुंचने की कोई चिंता नहीं होती; उन्हें केवल यही चिंता होती है कि तेजी से चलते रहें। उन्हें बिलकुल चिंता नहीं होती कि वे कहीं पहुंच रहे हैं या नहीं—इसका कोई सवाल ही नहीं है। यदि वे तेजी से चल रहे हैं तो फिर ठीक है। मत पूछना कि 'कहा जा रहे हो तुम?' वे कहीं नहीं जा रहे हैं; वे तो बस जा रहे हैं। उनका कोई लक्ष्य नहीं है। उनके पास केवल ऊर्जा है कुछ न कुछ करते रहने के लिए। ये लोग संसार के खतरनाक लोग हैं—आलसी लोगों से ज्यादा खतरनाक। इस दूसरी श्रेणी से ही आए हैं सारे एडोल्फ हिटलर, मुसोलिनी, नेपोलियन, सिकंदर। सारे उपद्रवी आते हैं इस दूसरी श्रेणी से, क्योंकि उनके पास ऊर्जा होती है—एक बेचैन ऊर्जा।
फिर तीसरी तरह के लोग हैं, जिन्हें ढूंढ निकालना दुर्लभ है : कहीं कोई लाओत्सु बैठा होता है मौन—अकर्मण्य नहीं—निश्चेष्ट। न सक्रिय, न अकर्मण्य—निष्किय; ऊर्जा से भरा—पूरा, एक ऊर्जा—कुंड, लेकिन मौन बैठा हुआ। क्या तुमने ध्यान से देखा है किसी को शांत—मौन बैठे हुए, ऊर्जा से आपूरित? तुम एक आभामंडल अनुभव करते हो उसके चारों ओर, जीवंतता से दीप्तिमान, लेकिन फिर भी शांत—कुछ न करते हुए, मात्र होने में थिर।
और योग है इन तीनों के बीच संतुलन पा लेना। यदि तुम इन तीनों के बीच संतुलन पा लो तो अचानक तुम इनके पार चले जाते हो। यदि कोई एक गुण ज्यादा होता है बाकी दो गुणों से तो वही तुम्हारी समस्या बन जाता है। यदि तुम सक्रिय कम और आलसी ज्यादा हो तो आलस्य तुम्हारी समस्या बन जाएगा. तुम उसके द्वारा पीड़ा पाओगे। यदि सक्रियता ज्यादा है आलस्य से तो तुम अपनी सक्रियता द्वारा दुख पाओगे। और तीसरा कभी ज्यादा नहीं होता, वह सदा कम ही होता है, लेकिन यदि यह सिद्धांततः संभव भी हो—कि कोई जरूरत से ज्यादा अच्छा हो—तो यह बात भी एक दुख बन जाएगी उसके लिए, यह भी एक असंतुलन निर्मित करेगी। एक सम्यक जीवन संतुलन का जीवन होता है।
बुद्ध के पास आठ सिद्धात हैं अपने शिष्यों के लिए। प्रत्येक सिद्धात के आगे वे जोड़ देते हैं एक शब्द—सम्यक। यदि वे कहते हैं 'होशपूर्ण होओ' तो केवल 'स्मृति' नहीं कहते; वे कहते हैं, 'सम्यक स्मृति'। अंग्रेजी में सदा इसका अनुवाद किया जाता रहा है 'राइट मेमोरी'। यदि वे कहते 'श्रम', तो वे सदा यही कहते, 'सम्यक श्रम'सम्यक' का अर्थ है संतुलन।सम्यक' का अर्थ है समता। समाधि के लिए भी, ध्यान के लिए भी बुद्ध कहते हैं, 'सम्यक समाधि'। समाधि भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी। अच्छाई भी अति हो सकती है, और तब यह खतरनाक हो जाएगी।
समता मुख्य तत्व होना चाहिए। जो कुछ भी करो, तुम सदा संतुलित रहना रस्सी पर चलते आदमी की भांति, निरंतर संतुलन बनाए रखना। यही है सम्यकत्व, संतुलन का तत्व। वह व्यक्ति जो परम मिलन को, परम योग को उपलब्ध होना चाहता है, उसे गहन संतुलन में रहना होता है। संतुलन में तुम तीनों गुणों के पार चले जाते हो। तुम गुणातीत हो जाते हो : तुम इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाते हो। तुम अब इस संसार के हिस्से नहीं रहते; तुम इसके पार चले जाते हो।

 ये तीन गुण—प्रकाश (थिरता), सक्रियता और निष्कियता—इनकी चार अवस्थाएं हैं. निश्चित अनिश्चित सांकेतिक और अव्यक्ता

 न तीनों गुणों की चार अवस्थाएं हैं। पहली को पतंजलि कहते हैं, निश्चित। तुम इसे पदार्थ कह सकते हो; यह तुम्हारे आस—पास की सर्वाधिक निश्चित चीज है। फिर है अनिश्चित, तुम इसे मन कह सकते हो; वह भी वहां है, निरंतर तुम्हें उसकी अनुभूति होती है, फिर भी वह एक अनिश्चित तत्व है। तुम निश्चित नहीं कह सकते कि मन क्या है। तुम जानते हो उसे, तुम निरंतर जीते हो उसे, लेकिन तुम उसे परिभाषित नहीं कर सकते। पदार्थ को परिभाषित किया जा सकता है लेकिन मन को नहीं। और फिर है 'सांकेतिक'। अनिश्चित से भी ज्यादा सूक्ष्म है सांकेतिक : यह है आत्मा। तुम केवल संकेत दे सकते हो उसका। तुम यह भी नहीं कह सकते कि वह अपरिभाषित है। यह भी सूक्ष्म ढंग से उसे परिभाषित करना ही हुआ, क्योंकि यह बात भी एक परिभाषा हो जाती है। यह कहना कि कोई चीज अपरिभाषित है—तुमने परोक्ष रूप से उसे परिभाषित कर ही दिया; तुमने कुछ कह ही दिया उसके बारे में। तो यही है अस्तित्व की सूक्ष्म पर्त जो आत्मा है, जो सांकेतिक है। और फिर इसके पार है सूक्ष्मतम, जो है 'अव्यक्त'—असांकेतिक—जो अनात्मा है।
तो पदार्थ, मन, आत्मा, अनात्मा—ये चार अवस्थाएं हैं इन तीन गुणों की।
यदि तुम गहन आलस्य में हो तो तुम पदार्थ की भांति छई हो। आलस्य से भरा आदमी करीब—करीब पदार्थ होता है, जड़ जीवन होता है उसका, तुम उसे जीवंत नहीं देखते। फिर है दूसरा गुण—मन। यदि रजस गुण बहुत ज्यादा हो, तो तुम मन से बहुत ज्यादा भर जाते हो। तब तुम बहुत ज्यादा सक्रिय होते हो—मन निरंतर सक्रिय रहता है, क्रिया से घिरा रहता है, निरंतर नई—नई व्यस्तताओं की खोज में रहता है।
एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वाले पहले आदमी एडमंड हिलेरी से किसी ने पूछा, 'क्यों? आखिर क्यों आपने इतना खतरा उठाया?' वह कहने लगा, 'क्योंकि एवरेस्ट मौजूद था, तो आदमी को चढ़ना ही था।वहा कुछ है नहीं...। चांद पर क्यों जा रहा है आदमी? क्योंकि चांद है। कैसे तुम बच सकते हो उससे? तुम्हें जाना ही है। सक्रियता से भरा आदमी निरंतर काम की खोज में रहता है। वह बिना काम के नहीं रह सकता। यह उसकी समस्या है। बिना काम के वह नरक में होता है; काम में तल्लीन होकर वह भूल जाता है स्वयं को।
यदि तमस, अक्रिया बहुत हो, तो तुम पदार्थ की भांति हो जाते हो। यदि रजस बहुत हो तो तुम मन हो जाते हो. मन है सक्रियता। इसीलिए मन पागल हो जाता है। फिर यदि सत्व बहुत ज्यादा हो जाए तो तुम आत्मा हो जाते हो। लेकिन वह भी एक असंतुलन है। यदि ये तीनों ही संतुलन में हों तो फिर आती है चौथी बात : अनात्मा। वही है तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व जहां 'मैं ' की अनुभूति भी अस्तित्व नहीं रखती! इसीलिए इसे 'अनात्मा' कहा गया है।
ये हैं चार अवस्थाएं—तीन हैं असंतुलन की और चौथी है संतुलन की। पहली निश्चित है, दूसरी अनिश्चित है, तीसरी सांकेतिक है, चौथी सांकेतिक भी नहीं, अव्यक्त है। और यही चौथी सब से अधिक वास्तविक है। पहली सब से अधिक वास्तविक मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो पहली में। दूसरी बहुत निकट मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीते हो मन में। तीसरी थोड़ी दूर मालूम पड़ती है, लेकिन तुम समझ सकते हो उसे। चौथी तो बिलकुल अविश्वसनीय मालूम पड़ती है—अनात्मा? ब्रह्म कहो, या परमात्मा, या तुम जो भी नाम दे दो इसे, बहुत दूर मालूम पड़ता है, करीब—करीब असंभव मालूम पड़ता है; और जो सबसे ज्यादा सच है।

 द्रष्टा यद्यपि शुद्ध चेतना है फिर भी मन की विकृतियों के माध्यम से वह देखा करता है।

 र वह चौथी अवस्था, चाहे तुम उसे उपलब्ध भी हो जाओ—जब तक तुम देह में हो तब तक तुम्हें अपने अस्तित्व की सभी पर्तों का उपयोग करना होगा। बुद्ध भी जब तुम से बात करते हैं तो उन्हें मन के द्वारा ही बात करनी पड़ती है। बुद्ध भी जब चलते हैं तो उन्हें शरीर के द्वारा चलना पड़ता है। लेकिन अब, जब एक बार तुम जान लेते हो कि तुम मन के पार हो, तो मन तुम्हें कभी धोखा नहीं दे सकता। तुम उसका उपयोग कर सकते हो और तुम उसके द्वारा कभी उपयोग नहीं किए जाते। यही अंतर होता है। ऐसा नहीं. है कि बुद्ध मन का उपयोग नहीं करते, वे करते हैं। वे मन का उपयोग करते हैं; मन तुम्हारा उपयोग करता है। ऐसा नहीं है कि वे देह में नहीं जीते हैं, वे जीते हैं। तुम घसिटते हों—देह मालिक होती है और तुम गुलाम होते हो। बुद्ध होते हैं मालिक; देह होती है गुलाम। एक समग्र क्रांति, एक समग्र रूपांतरण घटित होता है—जो ऊपर होता है वह नीचे चला जाता है और जो नीचे होता है वह ऊपर आ जाता है।

दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।

 यह योग का या वेदांत का चरम शिखर है. 'दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।जब द्रष्टा खो जाता है, तो दृश्य भी खो जाता है, क्योंकि वह तो केवल द्रष्टा के मुक्त होने के लिए ही था। जब मुक्ति घट जाती है तो उसकी आवश्यकता नहीं रहती।
यह बात बहुत से प्रश्न उठा देगी। क्योंकि बुद्ध पुरुष—उनके लिए दृश्य तिरोहित हो चुका है, लेकिन तुम्हारे लिए वह अभी भी है। एक फूल है, तुम में से कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है. उसके लिए वह फूल तिरोहित हो चुका, लेकिन तुम्हारे लिए वह अभी भी है। तो यह कैसे संभव है
कि किसी के लिए वह तिरोहित हो जाता है और तुम्हारे लिए वह बना रहता है?
यह बिलकुल ऐसा ही है : रात तुम सभी सो जाते हो, तुम सभी स्वप्न देखने लगते हो, फिर एक आदमी जाग जाता है—उसकी नींद टूट जाती है, उसका स्वप्न खो जाता है—लेकिन बाकी सभी के स्वप्न जारी रहते हैं। उसके स्वप्न के तिरोहित होने की घटना तुम्हारे स्वप्नों के टूटने में किसी प्रकार से मदद नहीं करती; वे चलते रहते हैं। इसीलिए बुद्धत्व व्यक्तिगत होता है। एक व्यक्ति जाग जाता है; बाकी सब अपने— अपने अज्ञान में जीए जाते हैं। वह दूसरों की मदद कर सकता है जाग जाने में। अपनी नींद से तुम बाहर आ सको उसके लिए मदद के उपाय वह तुम्हारे चारों ओर निर्मित कर सकता है, लेकिन जब तक तुम अपनी नींद से बाहर नहीं आ जाते तब तक तुम्हारे स्वप्न बने रहेंगे।
'दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए।

 यद्यपि दृश्य उसके लिए मृत हो जाता है जिसने मुक्ति पा ली है फिर भी बाकी दूसरों के लिए यह जीवित रहता है क्योंकि यह सर्वनिष्ठ होता है।

 भारत में हमने स्वप्न और तुम्हारी तथाकथित वास्तविकता के बीच केवल एक भेद किया है, और यह है वह भेद. कि स्वप्न निजी वास्तविकता हैं और यह वास्तविकता जिसे कि तुम संसार कहते हो एक सार्वजनिक स्वप्न है, बस इतना ही। जब तुम स्वप्न देखते हो तो तुम निजी संसार के स्वप्न देखते हो। रात में तुम निजी संसार को जीते हो; तुम किसी और को नहीं बुला सकते अपने स्वप्न में साझीदार होने के लिए। तुम्हारा निकटतम मित्र या तुम्हारी पत्नी या तुम्हारी प्रेयसी भी बहुत दूर होते हैं। जब तुम स्वप्न देख रहे होते हो तो तुम अकेले ही स्वप्न देख रहे होते हो। तुम किसी को नहीं ले जा सकते वहां; वह एक निजी संसार है। तो फिर यह संसार क्या है? क्योंकि भारत में हम ने इस संसार को भी स्वप्‍नवत कहा है। यह एक सामूहिक स्वप्न है। हम सब एक साथ स्वप्न देखते हैं, क्योंकि हमारे मन एक ही ढंग से काम करते हैं।
कभी नदी पर जाओ। अपने साथ एक सीधी छड़ी ले जाना। तुम जानते हो कि छड़ी सीधी है। उसे डुबाना नदी में तत्‍क्षण तुम देखोगे कि वह टेढ़ी हो गई है, मुड़ गई है। बाहर निकालना उसे; तुम देखते हो कि वह सीधी ही है। फिर पानी में डालना उसे; वह फिर मुड़ जीती है। अब तुम अच्छी तरह जानते हो कि छड़ी सीधी ही रहती है, लेकिन तुम्हारे मन का ढंग और प्रकाश—किरणों का व्यवहार एक धोखा निर्मित कर देता है—एक भ्रम—कि वह मुड़ गई है। तुम जानते भी हो कि वह सीधी ही है, तो भी वह पानी के भीतर मुड़ी हुई ही दिखेगी। तुम्हारा ज्ञान काम न आएगा। तुम अच्छी तरह, खूब अच्छी तरह जानते हो कि वह मुड़ी हुई नहीं है, लेकिन वह दिखेगी मुड़ी हुई—क्योंकि आंखों का और प्रकाश की किरणों का व्यवहार ऐसा है कि भ्रम निर्मित हो जाता है। फिर अपने कुछ मित्रों को ले जाना अपने साथ : तुम सभी उसे मुड़ा हुआ देखोगे। यह एक सामूहिक भ्रम है। इसी तरह संसार एक सामूहिक स्वप्न है।

 द्रष्टा और दृश्य साथ— साथ होते हैं ताकि प्रत्येक का वास्तविक स्वभाव जाना जा सके।
इस संयोग का कारण है अविद्या अज्ञान।

इस स्‍वप्‍नवत संसार के साथ जुड़ना, देह के साथ जुड़ना, मन के साथ जुड़ना—जो कि तुम हो नहीं—एक आवश्यकता है। इस जोड़ के द्वारा तुम तैयार होओगे ज्यादा बड़े जोड़ के लिए। इस जोड़ के द्वारा तुम जान लोगे कि यह जोड़ झूठा है। जिस दिन तुम जान लोगे कि यह जोड़ झूठा है, परम मिलन घटित होगा।
जब संसार से तुम्हारा तलाक हो जाता है तो परमात्मा से तुम्हारा विवाह हो जाता है। जब तुम्हारा विवाह होता है संसार के साथ, तो परमात्मा से तुम्हारा तलाक हो जाता है। इसीलिए सारे संत—मीरा, चैतन्य, कबीर, पश्चिम में थेरेसा—वे सभी बात करते हैं विवाह की भाषा में, दूल्हा और दुलहन की भाषा में। और वे सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं परम मिलन की।
इस प्रतीक का बहुत उपयोग किया गया है। मनस्विद तो इस विषय में संदेह भी करते हैं कि क्यों रहस्यदर्शी संत प्रेम, विवाह, आलिंगन, चुंबन आदि प्रतीकों का प्रयोग करते हैं! भारत में तो संभोग तक का प्रयोग किया गया है प्रतीक के रूप में : जब परम मिलन घटित होता है तो आनंद का चरम शिखर अनुभव होता है—व्यक्ति का समग्र के साथ परम संभोग, लहर का सागर के साथ परम मिलन होता है। क्यों ये लोग यौन प्रतीकों का प्रयोग करते हैं? मनस्विद संदेह करते हैं कि जरूर कहीं कामवासना का दमन रहा होगा।
वे गलत हैं। कामवासना का कोई दमन नहीं है, लेकिन कामवासना इतनी बुनियादी घटना है कि धर्म कैसे बच सकता है उससे? उसका प्रयोग करना पड़ता है। और संभोग एकमात्र गहनतम घटना है जहां तुम स्वयं को पूरी तरह से खो देते हो। तुम ऐसी कोई और घटना नहीं जानते जिसमें तुम इतनी समग्रता से अपने को खो देते होओ। और परमात्मा में या अस्तित्व में व्यक्ति स्वयं को पूरी तरह खो देता है—अनात्मा हो जाता है। संभोग में उसकी एक हलकी सी झलक मिलती है तुम्हें। तो विवाह के प्रतीक का, दूल्हा—दुलहन के प्रतीक का प्रयोग करना अच्छा है।
संसार से विवाहित रहने पर परमात्मा से तुम्हारा तलाक हुआ रहता है। गुजरो संसार के अनुभव से—समृद्ध होओ, मुक्त होओ—अचानक तुम जान जाते हो कि यह विवाह एक भ्रम था, एक स्वप्न था। अब तुम्हारे सच्चे विवाह की तैयारी हो रही है। प्रियतम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

 आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें