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सोमवार, 22 दिसंबर 2014

अध्‍यात्‍म उपनिषद--(प्रवचन-14)

आकाश के समान असंग है जीवन्‍मुक्‍त–चौदहवां प्रवचन

सूत्र:

स्यमसंगमुदासीनं परिज्ञाय नत्रो यथा।
न श्लिष्यते यति: किंचित् कदाचिद्भाविकर्मभि:।। 51।।
न नभो घटोयोगेन सुरणन्धेन लिप्यते।
तथऽऽत्मोपाधियोगेन तद्धमैंनेव लिप्यते।। 52।।
ज्ञानोदयात् पुराऽऽरब्‍धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति।
यदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टवाणवत्।। 53।।
व्याघ्रबुद्धया विनिर्मुक्तो वाण: पश्चातु गोमतै।।
न तिष्ठति भिनत्येव लक्ष्मं वेगेन निर्भरम्।। 54।।
अजरोऽस्टयमरोऽध्स्मीति व आत्मानं प्रयद्यते।
तदात्मना तिष्ठतोध्स्य कुत: प्रारब्ध कल्पना।। 55।।


आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।
जिस प्रकार मदिरा के घड़ों में रहा हुआ आकाश मदिरा की गंध से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा उपाधि का संयोग होने पर भी उसके धर्मों से लिप्त नहीं होता।
जिस प्रकार लक्ष्य को उद्देश्य करके छोड़ा बाण लक्ष्य को बींधे बिना नहीं रहता, वैसे ही शान के उदय होने के पहले किया गया कर्म, जान का उदय होने के बाद भी उसका फल दिए बिना नहीं रहता।  (अर्थात, किए हुए कर्म का फल तो ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी भोगना पड़ता है। ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं हो सकता। )
बाघ समझ कर छोड़ा हुआ बाण, छूटने के बाद, यह बाघ नहीं है वरन गाय है, ऐसी बुद्धि होने पर भी रुक नहीं सकता, पर वेगपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण तरह बेधता ही है। इसी प्रकार किया हुआ कर्म ज्ञान हो जाने के बाद भी फल प्रदान करता है।
मैं अजर हूं,  मैं अमर हूं—इस प्रकार जो अपने को आत्मारूप स्वीकार करता है तो वह आत्मारूप ही रहता है, अर्थात उसको प्रारब्ध कर्म की कल्पना कहां से हो? (अर्थात ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहता।)


चैतन्य के स्वरूप के संबंध में कुछ गहरे इशारे हैं। जीवनमुक्‍त ही इन अनुभवों से गुजरता है। जीवनमुक्‍त ही जान पाता है इन सूत्रों को। क्योंकि हमें चैतन्य का सीधा कोई अनुभव नहीं है। जो भी हम चेतना के संबंध में जानते हैं, वे भी मन में पड़े हुए प्रतिबिंब ही हैं। इस बात को पहले समझ लें, फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।
मन एक अदभुत यंत्र है। और अब तो इस बात को वैज्ञानिक आधार भी मिल गए हैं कि मन यंत्र से ज्यादा नहीं है। अब तो कंप्यूटर मन से भी ज्यादा कुशल काम करता है। आदमी को चांद पर भेजने की जरूरत नहीं है, एक यंत्र भी भेजा जा सकता है। रूस ने यंत्र भेजे हुए हैं, वे कंप्यूटर हैं। वे चांद के संबंध में सूचनाएं इकट्ठी करके रूस को भेज देते हैं। यंत्र मात्र है, लेकिन मन जैसा ही सूक्ष्म है और आस—पास जो भी घटित होता है उसको संगृहीत कर लेता है।
मैंने पीछे आपको कहा कि जब समाधि से लौटता है जीवनमुक्‍त वापस, तो एक मित्र पूछने आए थे कि जब समाधि में जाती है चेतना, तो मन तो पीछे छूट जाता है, और मन ही स्मृति रखता है, तो जो अनुभव चेतना को घटित होते हैं, जब चेतना मन में लौटती है, तो किसे उनका स्मरण आता है? क्योंकि चेतना गई थी अनुभव में, और चेतना कोई स्मृति रखती नहीं, चेतना पर कोई रेखा छूटती नहीं, और मन गया नहीं अनुभव में, मन पीछे रह गया था, तो स्मरण किसको आता है? फिर कौन पीछे लौट कर देखता है?
मन अनुभव में नहीं गया, लेकिन अनुभव के द्वार पर ही छूट गया था। लेकिन द्वार से ही जो भी घटना घट रही है उसे पकड़ता है। मन तो यंत्र है, और उसका उपयोग दोतरफा है बाहर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकड़ता है, भीतर के जगत में जो घट रहा है उसे भी मन पकडता है। मन तो दोनों तरफ, उसकी परिधि में जो भी घटता है, उसे पकड़ता है। इससे कोई संबंध नहीं है कि मन जाए। वहां दूर कैमरा रखा हो, तो यहां जो घट रहा है वह कैमरा पकड़ता रहेगा। वहां दूर टेपरिकार्डर रखा हो, यहां जो मैं बोल रहा हूं,  पक्षी गीत गाएंगे, हवाएं गुजरेंगी वृक्षों से, पत्ते गिरेंगे, वह टेपरिकार्डर उन्हें पकड़ता रहेगा।






मन को ठीक से समझ लें कि मन सिर्फ एक यंत्र है, मन में कोई चेतना नहीं है, मन में कोई आत्मा नहीं है, मन प्रकृति के द्वारा विकसित जीव—यंत्र है, जैविक यंत्र है, बायोलाजिकल मशीन है। मन, हमारी आत्मा और जगत के बीच में है। यह यंत्र जो है, शरीर में छिपा है और जगत और आत्मा के बीच में है। जगत में जो घटता है मन उसे भी पकड़ता है। इसे पकड़ने के लिए उसने पांच इंद्रियों के द्वार खोले हुए हैं।
इंद्रियां आपके मन के द्वार हैं। जैसे कि टेपरिकार्डर है, तो उसका माइक मेरे पास लगा हुआ है। टेपरिकार्डर हजारों मील दूर रख दें, यह माइक पकड़ता रहेगा और टेपरिकार्डर तक खबर पहुंचती रहेगी।
आपकी इंद्रियां माइक की तरह हैं मन के। पांच इंद्रियां मन के पांच द्वार हैं। रंग के जगत में, प्रकाश के जगत में, रूप के जगत में कुछ भी घटित होता है, तो मन ने शरीर तक आंख पहुंचाई हुई है, वह आंख पकड़ती रहती है। आंख का कैमरा घूमता रहता है, वह पकड़ता रहता है। ध्वनि के जगत में कुछ घटित होता है, संगीत होता है, शब्द होता है, मौन होता है, तो कान पकड़ता रहता है। और प्रतिपल जो पकड़ा जा रहा है, वह मन को सवांदित किया जा रहा है। मन उसे संगृहीत करता रहता है। हाथ छूता है, जीभ स्वाद लेती है, नाक गंध लेती है, वह सब मन तक पहुंच रहे हैं।
आपकी सारी इंद्रियां मन के द्वार हैं। ये पांच इंद्रियां मन के द्वार हैं। एक और इंद्रिय है, जिसका नाम आपने सुना होगा, लेकिन कभी इस भांति नहीं सोचा होगा, वह है अंतःकरण। वह इंद्रिय, भीतर जो भी घटित होता है, उसको पकड़ती है। वह भी इंद्रिय है। भीतर जो भी घटित होता है, जब एक आदमी समाधि में डूब जाता है, तो अंतःकरण पकड़ता रहता है—क्या घट रहा है! शांत , मौन, आनंद, परमात्मा की प्रतीति—क्या हो रहा है!
अंतःकरण भीतर की तरफ खुला हुआ माइक है। वह भीतर की तरफ गई रिसेप्टिविटी है। और वहां एक की ही जरूरत है, वहां पांच की जरूरत नहीं है। पांच की तो जरूरत इसलिए है कि पंच महाभूत हैं बाहर और हर महाभूत को पकड़ने के लिए एक अलग इंद्रिय चाहिए। भीतर तो एक ब्रह्म ही है, इसलिए पांच इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं, एक ही अंतःकरण भीतर के अनुभव को पकड़ लेता है।
तो छह इंद्रियां हैं आदमी की पांच बहिर्मुखी, एक अंतर्मुखी। और मन यंत्र है बीच में खड़ा हुआ; एक शाखा भीतर गई है, वह पकड़ती रहती है। भीतर कुछ भी घटित हो, मन पर सब अंकन हो जाते हैं। मन के जाने की जरूरत नहीं है। और इसीलिए जब समाधि से साधक लौटता है मन में, तो मन ही अपने रिकार्ड उसे दे देता है कि यह—यह भीतर हुआ। तुम जब यहां नहीं थे, तब यह—यह भीतर हुआ।
आप यहां चले जाएं अपने टेपरिकार्डर को छोड़ कर, घंटे भर बाद आप लौटें, टेपरिकार्डर आपको बता देगा यहां क्या—क्या शब्द बोले गए, क्या—क्या ध्वनि हुई। टेपरिकार्डर का जीवंत होना जरूरी नहीं है। मन भी जीवंत नहीं है, मन भी पदार्थ है और सूक्ष्म यंत्र है। यह जो पदार्थ यंत्र है, यह दोनों तरफ से संगृहीत करता चला जाता है। इसलिए समाधि से लौटा हुआ साधक मन के द्वारा ही अनुमान करता है, मन से ही जानता है।
तो जितना परिशुद्ध मन हो, उतनी मन की खबर सही होती है; और जितना अशुद्ध मन हो, उतनी गलत होती है। जैसे कि टेपरिकार्डर आपका बिगड़ा हो, तो जो कहा जाए वह रिकार्ड तो करे, लेकिन पीछे समझ में न आए कि क्या कहा गया। रूप बिगड़ जाए, आकार बिगड़ जाए, ध्वनि बिगड़ जाए—कुछ समझ में आए, कुछ समझ में न आए।
तो सूफी कहेगा फना, हिंदू कहेगा समाधि, बौद्ध कहेगा निर्वाण। ये शब्द तो मन के पास हैं। तो मन तत्काल अपनी भाषा में अनुवादित कर लेगा; जो भी भीतर घटित होगा, मन का यंत्र अनुवादित कर लेगा। हमें कठिनाई लगती है कि यंत्र कैसे अनुवादित करता होगा?
तो आपको यंत्रों के संबंध में बहुत पता नहीं है, इसलिए कठिनाई लगती है। नवीनतम जो यंत्रों की शोध है, वह बहुत अदभुत है। जो मन कर सकता है, वह काम सभी यंत्र कर सकता है। ऐसा कोई भी काम मन का नहीं है, जो यंत्र न कर सके। इससे एक बड़ी खतरनाक बात हो गई कि अगर मन का सारा काम यंत्र कर लेता है तो मन तो यांत्रिक हो गया। तो जो लोग मानते हैं कि मन के पार कोई आत्मा नहीं है, उनके लिए आदमी यंत्र हो गया, फिर उसमें कुछ बचा नहीं। अगर यह सच है कि कोई आत्मा नहीं है, तो आदमी सिर्फ एक यंत्र है। और बहुत कुशल यंत्र भी नहीं, उससे ज्यादा कुशल यंत्र हो सकते हैं। यू. एन. ओ. में पांच भाषाओं में यंत्र अनुवाद कर देते हैं। मैं यहां बोल रहा हूं हिंदी में, तो पांच भाषाओं में अनुवाद करने की व्यवस्था यू. एन. ओ में की गई है, पांच बड़ी भाषाओं में तत्काल अनुवाद हो जाता है। कोई अनुवादक नहीं करता, यंत्र ही। मैं यहां कहता हूं प्रेम, तो अंग्रेजी में अनुवाद करने वाला यंत्र तत्काल लव कर देता है। यह प्रेम की जो चोट पड़ती है भीतर यंत्र पर, यंत्र वैद्युतिक रूप से इसको दूसरी चोट में बदल देता है, जो लव का उदघोष कर देती है।
तो यंत्र अनुवाद करते हैं; यंत्र गणित करते हैं, यंत्र स्मृति रखते हैं, यंत्र सभी काम करने लगे हैं जो मनुष्य का मन करता है। इसलिए जब पहली दफा योगियों ने, उपनिषदों ने, तांत्रिकों ने कहा था कि मन एक यंत्र है, तो दुनिया की समझ में नहीं आया था। लेकिन अब तो विज्ञान ने यंत्र बना दिए हैं, और कोई अड़चन नहीं है।
यह मन दोतरफा संग्रह करता है—समाधि का भी, संसार का भी। संसार की खबर भी मन से मिलती है और ब्रह्म की खबर भी मन से मिलती है।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। जिसको यह अनुभव हो जाता है कि सारे प्रतिबिंब मन पर निर्मित होते हैं, जिसे यह अनुभव हो जाता है कि जितने भीतर मैं प्रवेश करता हूं,  केंद्र पर जाकर, मेरे ऊपर कोई भी संस्कार निर्मित नहीं होते हैं, सारे संस्कार मन पर ही निर्मित होते हैं, स्वयं पर नहीं—तब यह सूत्र समझ में आएगा। ‘ आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।’
बहुत बातें हैं इसमें समझने की।
'आकाश के समान अपने को असंग तथा उदासीन जान कर......।’
आकाश को हम देखते हैं रोज। एक पक्षी आकाश में उड़ता है, कोई चिह्न पीछे नहीं छूट जाते। जमीन पर चलते हैं, पदचिह्न छूट जाते हैं। गीली जमीन हो, और ज्यादा छूट जाते हैं। पत्थर की जमीन हो, हलके छूटते हैं। लेकिन कोशिश करके गहरे किए जा सकते हैं। लेकिन आकाश में पक्षी उड़ता है तो कोई पदचिह्न नहीं छूटते। पक्षी उड़ जाता है, आकाश वैसा का वैसा होता है, जैसा पहले था पक्षी के उड़ने के। कोई उपाय नहीं है पता लगाने का कि यहां से पक्षी उड़ा है। आकाश में बादल घिरते हैं, आते हैं, चले जाते हैं, आकाश वैसा ही बना रहता है जैसा था।
आकाश को अशुद्ध करने का, संस्कारित करने का, आकाश में निशान बनाने का कोई उपाय नहीं है। पानी में हम बनाते हैं लकीरें, बनती हैं, बनते ही मिट जाती हैं। पत्थर पर बनाते हैं, बनती हैं, मिटने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। आकाश में लकीर ही नहीं खिंचती। बनती ही नहीं, मिटने का कोई सवाल नहीं है। फर्क को समझ लें? आकाश में लकीर बनती ही नहीं। मैं अपनी अंगुली खींचता हूं आकाश में, अंगुली खिंच जाती है, लकीर नहीं बनती, मिटने का कोई सवाल नहीं है।
जिस दिन कोई व्यक्ति मन के पार उठता है, जिस दिन चेतना मन के पीछे सरक जाती है, उस दिन अनुभव होता है कि इस आत्मा पर आकाश की भांति अब तक कोई भी—कोई भी—निशान निर्मित नहीं हुआ है, यह सदा से शुद्ध, और सदा से बुद्ध, इस पर कोई विकृति घटित नहीं हुई है।
'आकाश की तरह अपने को असंग।’
असंग बड़ा कीमती शब्द है। असंग का अर्थ है, सबके साथ है और फिर भी साथ नहीं है। आकाश सब तरफ मौजूद है। वृक्ष को भी आकाश ने घेरा है, आपको भी आकाश ने घेरा है, साधु को भी आकाश घेरे हुए है, असाधु को भी आकाश घेरे हुए है, अच्छा कर्म हो रहा हो तो भी आकाश मौजूद है, बुरा कर्म हो रहा हो तो भी आकाश मौजूद है, पाप करो, पुण्य करो, जीयो, मरो, आकाश मौजूद है, लेकिन असंग। आपके साथ मौजूद है, लेकिन संगी नहीं है आपका। आपसे कोई संबंध नहीं बनाता। मौजूद है, लेकिन मौजूदगी असंग है। हमेशा मौजूद है, फिर भी आपसे कोई दोस्ती नहीं बनती, कोई संबंध निर्मित नहीं होता। असंग का अर्थ है असंबंधित। है तो, लेकिन कोई संबंध नहीं है। आप हट जाएं, तो आकाश को पता भी नहीं चलता कि आप कभी थे।
कितनी पृथ्वियां बनती हैं और खो जाती हैं! कितने लोग जन्मते हैं और मर जाते हैं! कितने महल खड़े होते हैं, धूल—धूसरित हो जाते हैं! कितना हो चुका है, आकाश के पास कोई भी हिसाब नहीं है। आकाश से पूछो, आकाश के पास कोई इतिहास नहीं है, सब खाली है। जैसे कभी कुछ न हुआ हो, आकाश ऐसा ही है। लौट कर पीछे देखें, अरबों—खरबों वर्ष! कहते हैं पृथ्वी को ही हुए चार अरब वर्ष हो गए! इस चार अरब वर्ष में इस छोटी सी पृथ्वी पर कितना नहीं घटा है, कितने युद्ध, कितने प्रेम, कितनी मित्रताएं, कितनी शत्रुताएं, कितनी जीत, कितनी हार, कितने लोग। आकाश के पास कोई हिसाब नहीं। जैसे कभी कुछ न हुआ हो, कोई रेखा नहीं छूट गई।
भारतीयों ने इतिहास नहीं लिखा। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते हैं कि भारत के पास ऐतिहासिक बुद्धि क्यों नहीं है! हमें कुछ पक्का पता नहीं कि राम कब हुए। हमें कुछ पक्का हिसाब नहीं कि कृष्ण की जन्मतिथि सच में, ऐतिहासिक रूप से क्या है। कोई पक्का नहीं है। कथाएं हमारे पास हैं, लेकिन ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं।
इतिहास को मनुष्य की दुनिया में प्रवेश कराने का श्रेय ईसाइयत को है। जीसस जिस अर्थ में ऐतिहासिक हैं, उस अर्थ में बुद्ध, कृष्ण, परशुराम ऐतिहासिक नहीं हैं। जीसस के साथ दुनिया दो हिस्सों में बंट जाती है। पहली दुनिया, उसके पहले की दुनिया गैर—ऐतिहासिक हो जाती है, प्रि—हिस्टारिकल, पूर्व—ऐतिहासिक; और जीसस के बाद की दुनिया ऐतिहासिक हो जाती है, हिस्टारिकल हो जाती है। इसलिए उचित ही है कि सन जीसस का चले। ईसवी सन चले, यह उचित ही है, क्योंकि जीसस के साथ जगत में इतिहास प्रवेश करता है। इसलिए हम कहते हैं जीसस के पूर्व और जीसस के बाद—रेखा खिंच जाती है।
भारत ने कभी इतिहास नहीं लिखा है, उसका कारण है। उसका एक कारण बुनियादी यही है कि भारत ने यह अनुभव किया है कि जिसके भीतर सब घटता है—जिस आकाश के भीतर—वही कोई हिसाब नहीं रखता, तो हम व्यर्थ का हिसाब क्यों रखें? जिसके भीतर सब घटता है, उसके पास ही कोई हिसाब नहीं रहता, तो हम फिजूल पंचायत में क्यों पड़े हिसाब रखने की कौन कब पैदा हुआ और कौन कब मरा!
तो हमने इतिहास नहीं रखा, हमने पुराण निर्मित किया। पुराण भारतीय घटना है। पुराण भारतीय घटना है, इतिहास नहीं। पुराण का मतलब कुछ और होता है। पुराण का मतलब हमने तिथि, तारीखें, जन्मदिन, मृत्युदिन, इनकी फिक्र नहीं की। हमने तो जो सार था—राम हुए, हमने इसकी फिक्र नहीं की कि कब हुए, किस सन में हुए, कब पैदा हुए, कब पढ़ने गए, कब विवाह हुआ, इस सबकी हमने फिक्र नहीं की, क्योंकि इसका तो कोई हिसाब रखने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ा। लेकिन राम के होने की जो भीतरी घटना घटी—कि एक व्यक्ति राम हो गया, एक दीया जल उठा और प्रकाशित हो गया—हमने बस उतना स्मरण रख लिया। हमने बाकी खोल का, शरीर का कोई हिसाब नहीं रखा। हमने इतना स्मरण रख लिया कि बुझा हुआ दीया जल सकता है, प्रकाशित हो सकता है। मनुष्य का जीवन दुर्गंध ही नहीं है, वहां सुगंध भी घटी है—बस इतना हमने हिसाब रख लिया। फिर, फिर हमने बाकी सब व्यर्थ की बातें छोड़ दी हैं, हमने उनका कोई हिसाब नहीं रखा।
तो हम यह जरूरी नहीं मानते कि राम हुए ही हों, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं है। राम हो सकते हैं, बस इतना काफी है। राम के होने की घटना घट सकती है, हमने इतना स्मरण रखा है। यह स्मरण काफी है। कृष्ण हो सकते हैं। हुए हैं, नहीं हुए हैं, यह गौण है। हुए को भी हम खयाल रखते हैं तो सिर्फ इसीलिए ताकि याद रहे कि हो सकते हैं, यह हमारे भीतर भी यह फूल खिल सकता है, और हमारे भीतर भी यह आनंद का झरना घट सकता है। इसलिए हमने पुराण—पुराण का मतलब, वह जो सारभूत है, उतना ही। चैतन्य में प्रवेश करके पता लगता है कि आकाश में कोई रेखा नहीं छूटती, लेकिन आपका जो सार है वह छूट जाता है। इसे थोड़ा समझ लें. आकाश में कोई रेखा नहीं छूटती, लेकिन आपकी जो सार—सुगंध है वह छूट जाती है। और वह इसीलिए छूट जाती है कि उसका आकाश से कोई विजातीय मामला नहीं है, वह स्वयं ही आकाश है आपके भीतर। आप जब मरते हैं, तो आपके भीतर का आकाश ही केवल आकाश में छूट जाता है, बाकी सब खो जाता है। उस भीतरी आकाश को हम आत्मा कहते हैं।
एक विस्तार है बाहर, एक विस्तार भीतर भी है। बाहर के आकाश में भी बादल घिरते हैं और आच्छादित मालूम पड़ता है आकाश। वर्षा के दिन में आषाढ़ के सांझ में, सब ढंक जाता है। और कोई सोच भी नहीं सकता कि वह नीला आकाश कभी था, या वह नीला आकाश फिर कभी मिलेगा। जब काले बादल घेर लेते हैं आकाश को, तो आकाश बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, बादल ही दिखाई पड़ते हैं।
बाहर का आकाश भी बादलों से घिरता है, भीतर का आकाश भी बादलों से घिरता है। भीतर के आकाश के जो बादल हैं, उनको ही विचार, विकल्प, विकार—जो भी हम नाम देना चाहें—वे भीतर घिर जाते हैं। जब भीतर के आकाश पर भी बादल घिर जाते हैं, तो वहां भी ऐसा लगता है कि पीछे कोई निरभ्र आकाश नहीं है। इन बादलों को हटाना ही साधना है। इन बादलों को हटा कर ही नीले आकाश में झांक लेना, असंग आकाश में झांक लेना उपलब्धि है, सिद्ध—अवस्था है।
यह सूत्र कहता है’ आकाश के समान अपने को असंग और उदासीन।’
आकाश न आपके साथ हंसता है, न आपके साथ रोता है। आप मरें, तो आकाश से आंसू की बूंद नहीं टपकती, आप जीएं, प्रफुल्लित हों, तो आकाश आपकी खुशी में नूपुर बांध कर नाचता नहीं। आकाश बिलकुल उदासीन है। क्या घट रहा है, इस पर आकाश कोई वक्तव्य ही नहीं देता। मुर्दे को मरघट की तरफ ले जा रहे हैं तो, नए जन्मे बच्चे की खुशी में बैंड—बाजा बजा रहे हैं तो, विवाह हो गया है और घर को फूलों से सजा लिया है तो, प्रियजन खो गया है और जीना व्यर्थ मालूम पड रहा है तो—आकाश उदासीन है। क्या घट रहा है, इससे कोई संबंध नहीं है।
जैसे ही कोई भीतर के अंतर— आकाश में प्रवेश करता है, वह भी ऐसा ही उदासीन हो जाता है। क्या हो रहा है, इससे कोई संबंध नहीं रह जाता। आकाश की तरह देखने लगता है जगत को।
आकाशी—भाव आ जाए, तो ही जानना कि जीवन्मूक्ति हुई। आकाश की तरह भीतर कोई रेखा न खिंचे, कुछ भी हो जाए बाहर, सब नाटक रह जाए; सब परिधि पर होने लगे, केंद्र पर कोई भी स्पर्श न पहुंचे। मन के पीछे हटते ही, ऐसा हो ही जाता है।
' आकाश के समान अपने को असंग, उदासीg जान कर योगी भविष्य के कर्मों में लेशमात्र लिप्त नहीं होता।’
यह दूसरा हिस्सा इस सूत्र का। जब कोई जान लेता है कि अतीत का कोई भी कर्म मुझे स्पर्श नहीं कर सका—हारा, तो मेरी आत्मा हारी नहीं, और जीता, तो मेरी आत्मा जीती नहीं, सम्मान हुआ, तो मेरी आत्मा में कुछ बढ़ा नहीं, अपमान हुआ, तो मेरी आत्मा में कुछ घटा नहीं—ऐसी जिसकी प्रतीति हो जाए, स्वभावत:, भविष्य के कर्म उसके लिए व्यर्थ हो जाएंगे। जब अतीत के कोई कर्म मुझे छू नहीं सके तो भविष्य के भी कोई कर्म मुझे छू नहीं सकेंगे। इसलिए भविष्य की योजना बंद हो जाएगी। फिर वह नहीं सोचेगा कि मैं सफल हो जाऊं। फिर वह नहीं सोचेगा कि कहीं मैं असफल न हो जाऊं! फिर वह नहीं सोचेगा कि मेरी प्रतिष्ठा रहे। फिर वह नहीं सोचेगा कि कहीं कोई अप्रतिष्ठित न कर दे, कोई अपमान न कर जाए! जिसने देख लिया स्वयं को, देखते ही सारा अतीत असंबंधित हो गया, उसी क्षण सारा भविष्य भी असंबंधित हो गया।
भविष्य अतीत का ही विस्तार है। जो—जो हमने भविष्य में जाना है—सुखद पाया है, दुखद पाया है—उसको ही हम भविष्य में पुन:—पुन: आयोजन करते हैं। जिसे सुखद पाया है, उसकी चाह करते हैं भविष्य में, और जिसे दुखद पाया है, उसे भविष्य में भोगना न पड़े, इसकी चाह करते हैं। हमारा भविष्य क्या है? अतीत का ही प्रतिफलन है, अतीत का ही थोड़ा सुधारा हुआ रूप है। कल कुछ किया था, उसमें दुख पाया, तो हम कल उसे नहीं करना चाहते हैं। कल कुछ किया था, सुख पाया, तो हम उसे कल और ज्यादा मात्रा में करना चाहते हैं।
अगर पूरा अतीत ऐसा दिखाई पड़ जाए कि सुख और दुख, शुभ और अशुभ, कोई भी नहीं छू सके मुझे, मैं आकाश की तरह खाली का खाली हूं,  शून्य का शून्य, कोई रेखा नहीं खिंची मुझ पर, असंस्कारित, अनकंडीशड रह गया हूं—सारी की सारी यात्रा हो गई इतनी और मैं भीतर अस्पर्शित कुंआरा का कुंआरा रह गया हूं—तो फिर भविष्य व्यर्थ हो गया।
ध्यान रहे, जीवनमुक्‍त का कोई भविष्य नहीं है। और अगर आपका थोड़ा सा भी भविष्य बाकी है, तो समझना कि अभी अंतर—आकाश का अनुभव नहीं हुआ है। अगर कोई योगी अभी भी सोच रहा है कि मोक्ष कैसे पाऊं? अभी भी सोच रहा है कि कैसे परमात्मा का दर्शन हो? तो अभी जानना कि अंतर—आकाश का अनुभव नहीं हुआ है। यह सब योजना है—भविष्य की योजना है। अभी भविष्य है। जरा सा इंच भर भी भविष्य है तो काफी भविष्य है। इंच भर भी भविष्य इस बात की खबर देता है कि अभी यह अनुभव नहीं हुआ कि आत्मा को कोई भी कर्म छूता नहीं है। मोक्ष भी नहीं छुएगा, ईश्वर भी नहीं छुएगा। असल में यह अछूतापन, यह शाश्वत अछूतापन ही मोक्ष है। यह शाश्वत अस्पर्शित रह जाना ही भगवत्ता है; यही भगवान होना है, कुछ और भगवान का अर्थ नहीं है।
कृष्ण को अगर हम भगवान कहते हैं, या महावीर को भगवान कहते हैं, या बुद्ध को भगवान कहते हैं, तो क्या अर्थ है? कोई बुद्ध ने दुनिया बनाई है, इसलिए भगवान? क्या भगवान का अर्थ है? बुद्ध को भी बीमारी आती है, बुद्ध भी जीर्ण होते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, शरीर बिखरता है—कैसे भगवान? दुख आता है, बीमारी आती है, जीर्ण होते हैं, मरते हैं। भगवान को तो मरना नहीं चाहिए; भगवान को तो वृद्ध नहीं होना चाहिए; भगवान को तो बीमारी नहीं लगनी चाहिए। बुद्ध को भी भूख लगती है, प्यास लगती है, चाकू मार दें तो खून बहता है। कैसे भगवान? क्या अर्थ भगवान का?
भगवान का यही अर्थ है कि यह सब होता है, और भीतर जो छिपा है वह जानता है कि कुछ भी नहीं छूता। यह सब होता है। हाथ काट दो तो खून बहता है, भूख लगती है, प्यास लगती है, बुढ़ापा आता है, मृत्यु आती है—लेकिन भीतर जो अंतर— आकाश है बुद्ध के, वह जानता है कि कुछ भी छूता नहीं। न मौत छूती है, न जीवन छूता है। जीवन भी निकल जाता है, मौत भी निकल जाती है; जवानी भी, बुढ़ापा भी; और भीतर वह जो कुंआरापन है, वह अछूता, अस्पर्शित रह जाता है। उसमें कोई भंग नहीं होता, वहां कोई खबर ही नहीं पहुंचती कि बाहर क्या हो गया है। इस अनुभव का नाम भगवत्ता है।
तो कोई आदमी अगर भगवान के दर्शन की तलाश कर रहा है, तो उसका भविष्य है। जिसका भविष्य है, उसका भगवान से कभी कोई मिलन नहीं है। भविष्य यानी संसार। भविष्य का अर्थ है अतीत का सत्य अभी दिखाई नहीं पड़ा, अभी यह अनुभव में नहीं आया कि मैं आकाशवत हूं।
इसलिए यह सूत्र कहता है कि योगी के लिए भविष्य के कर्मों में लेशमात्र रस नहीं रह जाता। कल योगी के लिए है ही नहीं, बस आज है। आज भी बड़ा है, कहना चाहिए यही क्षण है—पल मात्र। अभी और यहीं उसका होना है। उसकी कोई दौड़ आगे की तरफ नहीं है।
'जिस प्रकार मदिरा के घड़ों में रहा हुआ आकाश मदिरा की गंध से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा उपाधि का संयोग होने पर भी उसके धर्मों से लिप्त नहीं होती।’
घडा है, शराब भरी है। तो घड़ा तो प्रभावित हो जाता है शराब से। घड़े की मिट्टी तो शराब को पी जाती है। घड़े के रोएं—रोएं में शराब भर जाती है। और अगर बहुत पुराना घड़ा हो और बहुत शराब रही हो, तो घड़े की मिट्टी भी खा जाएं तो नशा चढ़ सकता है। तो घड़े की मिट्टी तो आच्छादित हो जाती है शराब से, भर जाती है। क्यों? मिट्टी पोरस है। समझ लें थोड़ा। मिट्टी में छिद्र हैं’। उन छिद्रों में शराब भर जाती है और छिप जाती है। घड़ा शराब पी लेता है और शराबी हो जाता है। घड़ा भी मतवाला हो जाता है पीकर। लेकिन घड़े में एक और तत्व भरा हुआ है—आकाश, घड़े का खालीपन।
अब यह बड़े मजे की बात है कि घड़े की मिट्टी में शराब भरी नहीं जाती, शराब तो भरी जाती है घड़े के भीतर के खालीपन में। शराब तो भरती है—घड़े में नहीं—घड़े के भीतर जो आकाश है, उसमें। शराब को जब हम भरते हैं, तो किस में भरते हैं, मिट्टी में? नहीं, मिट्टी तो केवल उस आकाश को चारों तरफ से बांधने का उपाय है। आकाश है बडा, और शराब है थोड़ी, पूरे आकाश को आप भर न सकेंगे, इसलिए छोटे से आकाश को चुनते हैं। मिट्टी की दीवाल बनाते हैं, छोटा सा आकाश चुन लेते हैं भीतर, उसमें शराब भरते हैं।
शराब भरी जाती है आकाश में, मिट्टी में नहीं। मगर मजा यह है कि मिट्टी दीवानी हो जाती है और पागल, और जिसमें भरी जाती है, आकाश, वह अछूता रह जाता है। शराब बाहर निकाल लें घड़े के, तो वह जो खाली जगह है, उसमें जरा भी शराब की गंध नहीं होती। मिट्टी में होती है। मिट्टी तो सन्निधि से भी दीवानी हो जाती है। सिर्फ सत्संग का परिणाम पड़ जाता है। और आकाश में भरा हुआ है सब, और वह अस्पर्शित रह जाता है।
तो जो भी आपने किया है, वह सब आपके शरीर को छुआ है, बस। वह आपकी मिट्टी में गया है। जो भी आपने किया है, वह आपके भीतर के आकाश, आपकी आत्मा को नहीं छुआ है। किए हों पाप, किए हों पुण्य; किया हो अच्छा, किया हो बुरा, जो भी किया है, वह आपकी मिट्टी में, आपके घड़े में समा गया है। मन भी आपकी मिट्टी है और आपका शरीर भी। इन दोनों के बीच में जो रिक्त है, शून्य है, वह है आपकी आत्मा। वहां तक कुछ भी नहीं पहुंचा है। कभी नहीं पहुंचा है। ऐसा जान लेना, ऐसा अनुभव कर लेना, तो उपाधि से मुक्त हो जाना है। उपाधि कभी आपको है ही नहीं, सब उपाधियां शरीर, मन की हैं।
लेकिन जो शरीर पी गया है, वह शरीर भोगेगा। आत्मज्ञानी का शरीर भी वह भोगेगा, जो शरीर पी गया है। अच्छा है, बुरा है, सुख है, दुख है; जो किया है, जो घटा है, अतीत रोएं—रोएं में समाया है। तो जिस दिन यह परम ज्ञान की घटना भी घटती है और व्यक्ति जाग कर आकाशवत हो जाता है, उस दिन भी शरीर में जो होता रहा है, उसकी यात्रा पूरी होगी।
यह करीब—करीब ऐसा कि आप साइकिल चला रहे हैं, और आपने पैडल मारने बंद कर दिए, आपको समझ में आ गया, यात्रा व्यर्थ है, कहीं जाना नहीं है। लेकिन साइकिल में एक मोमेंटम है, हजारों मील से आप चलाते चले आ रहे थे, तो साइकिल ने गति अर्जित कर ली है। आपने पैडल बंद कर दिए तो साइकिल अभी नहीं रुक जाएगी। साइकिल तो थोड़ा चलेगी, बिना पैडल के चलेगी। आप नहीं चला रहे हैं तो भी चलेगी; क्योंकि साइकिल ने गति अर्जित कर ली है। वह गति साइकिल के भीतर भर गई है। वह गति जब तक पूरी न निकल जाए, तब तक साइकिल चलेगी। फिर गिरेगी, जब पूरी गति निकल जाएगी। अगर आप गति देते चले जाएं, तो कभी नहीं गिरेगी। आप गति बंद कर लें तो उसी वक्त नहीं गिरेगी, थोड़ा समय लेगी।
तो हम तो जन्मों—जन्मों से शरीर पर सवार हैं, और जन्मों—जन्मों से मन की यात्रा कर रहे हैं। आज अगर जाग कर अलग भी हो जाएंगे, तो इसी वक्त मन और शरीर नहीं गिर जाएगा। मन और शरीर ने तो जो गति अर्जित कर ली है, मोमेंटम, उसको पूरा करेगा।
‘जिस प्रकार लक्ष्य को उद्देश्य करके छोड़ा गया बाण लक्ष्य को बींधे बिना नहीं रहता, वैसे ही ज्ञान के उदय होने के पहले किया गया कर्म, ज्ञान के उदय होने के बाद भी उसका फल दिए बिना नहीं रहता।’
तो चाहे बुद्ध हों, और चाहे कृष्ण हों, और चाहे कोई हो, वह जो पीछे किया है, उसका फल, उसकी पूर्ण निष्पत्ति होगी, उसका परिपाक होगा।

'अर्थात किए हुए कर्म का फल तो ज्ञान उत्पन्न हो जाने के बाद भी भोगना ही पड़ता है। ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं होता। '
शान द्वारा अनुभव होता है कि मैं कर्ता नहीं हूं, लेकिन ज्ञान द्वारा कर्म का नाश नहीं होता। वह जो कर्म किया है, वह पूरा होगा। उदाहरण लिया है कि जैसे तीर छोड़ दिया, निशाना लगाया, तीर छोड़ दिया। छोड़ते ही तीर खयाल आया, बोध आया कि यह मैं हिंसा कर रहा हूं, न करूं। तो भी अब कुछ होगा नहीं, तीर अपनी यात्रा पूरी करेगा।
एक शब्द मैंने बोला, और बोलते ही मुझे लगा कि नहीं बोलना था, लेकिन अब शब्द अपनी यात्रा पूरी करेगा। बोलते ही जो गति शब्द को मिल गई है, जब तक वह गति समाप्त न हो जाएगी, तब तक शब्द चलता रहेगा। एक पत्थर हम फेंकते हैं, तो पत्थर जब हम फेंकते हैं तो अपनी शक्ति पत्थर को दे देते हैं। उसी शक्ति के सहारे पत्थर जाता है, जहां तक शक्ति रहती है वहां तक यात्रा करता है, फिर गिर जाता है। हमें बीच में खयाल भी आ जाए कि नहीं फेंकना था, तो भी अब उसे लौटाने का कोई उपाय नहीं है। कर्म छूटे हुए बाण हैं। बीच में स्मरण आने से कुछ भी न होगा, वे अपनी यात्रा पूरी करके ही गिरेंगे। और जब तक उनकी पूरी, सारे कर्मों की यात्रा पूरी नहीं हो जाती, तब तक जीवगक्ति रहेगी, मोक्ष नहीं होगा। इसे समझ लें। तब तक व्यक्ति मुक्त — भाव में रहेगा, लेकिन उसके आस—पास शरीर और मन का कर्मजाल चलता रहेगा। नया पोषण नहीं होगा अब, लेकिन पुराना जो पोषण है, वह जब तक रिक्त, चुक न जाए, तब तक चलता रहेगा।
ऐसा समझें कि अगर आप उपवास करके जीवन छोड़ देना चाहें, तो आज आप उपवास करेंगे तो आज ही नहीं मर जाएंगे। तीन महीने लगेंगे, कम से कम, ज्यादा भी लग सकते हैं, लेकिन तीन महीने तो लगेंगे ही। नब्बे दिन के उपवास के बाद ही मृत्यु घटित हो सकती है।
क्यों? आपने आज उपवास किया, आज ही मर जाना चाहिए! लेकिन आपके शरीर के पास अर्जित मांस है, वह जो आपने पीछे इकट्ठा कर लिया है। तीन महीने लग जाएंगे उस मास के पचने में। तीन महीने में आपकी हड्डी—हड्डी रह जाएगी। आपका अर्जित भोजन जो शरीर में इकट्ठा था, वह आप पचा लेंगे। इसलिए एक दिन आप उपवास करते हैं तो एक पौंड वजन कम हो जाता है। तो जितना मोटा आदमी हो, उतनी देर टिक जाएगा। संग्रह है उसके पास ज्यादा। संग्रह उसके पास ज्यादा है, वह उसको एक—एक पौंड पचाता जाएगा। जब तक उसका संगृहीत नहीं पच जाता तब तक शरीर से छुटकारा नहीं होगा, शरीर नहीं टूटेगा। तीन महीने लगेंगे।
ठीक ऐसे ही, जब चेतना जाग जाती है पूरी, उसी वक्त मोक्ष हो जाना चाहिए, पर नहीं होता। कभी—कभी हुआ है। बहुत, बहुत न्यून घटनाएं हैं, न के बराबर, कि शान के साथ और मोक्ष हो गया है। उसका मतलब यह हुआ कि कोई ऐसा आदमी हो बिलकुल हड्डी—हड्डी, कुछ अर्जित ही न हो, कि पहले ही दिन उपवास करे और प्राणांत हो जाएं। उसका मतलब हुआ कि भीतर बिलकुल हो ही न कुछ, मरने को तैयार ही थे। पर ऐसा आदमी खोजना कठिन है। भिखारी से भिखारी के पास भी थोड़ी संपदा रहती है। भूखे से भूखा आदमी भी थोड़ा सा अर्जित कोष रखता है। वह इमरजेंसी के लिए जरूरी है। इसलिए उसको बचाए रखता है।
संयोग से कभी ऐसा हो सकता है कि किसी व्यक्ति के कर्मों की भी समाप्ति उसी क्षण में हो, जिस क्षण में उसको बोध हो। लेकिन यह बहुत मुश्किल मामला है; बहुत, कभी ऐसा हुआ है। साधारणत: तो—चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे कोई और—रुका है, जीया है, ज्ञान के बाद वर्षों तक। वह जीने का कारण, मुक्ति तो घटित हो गई, लेकिन अतीत के कर्मों का बोझ, और अतीत की शक्ति शरीर को धकाए लिए जाती है यात्रा में। जब वह शक्ति चुक जाएगी, उस वक्त जीवन्यूक्ति मोक्ष बन जाएगी।
पर जरूरी भी है, और उपयोगी भी है, क्योंकि जीवनमुक्‍त अगर उसी वक्त मोक्ष को उपलब्ध हो जाए, तो जीवनमुक्‍त ने जो जाना है, वह हमें बता भी नहीं पाएगा। जीवनमुक्‍त हमें बता पाता है इसीलिए कि उसकी मुक्ति और मोक्ष के बीच अंतर है, समय है। चालीस साल बुद्ध जीए, चालीस साल महावीर जीए। ये चालीस साल ही हमारे काम पड़े। इन चालीस साल में जो उन्होंने जाना है, जो अनुभव किया है, वह उनका मन हम तक सवादित कर सका।
'बाघ समझ कर छोड़ा हुआ बाण भी छूटने के बाद, यह बाघ नहीं है वरन गाय है, ऐसी बुद्धि आ जाने पर भी रुक नहीं सकता, वेगपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण तरह बेधेगा ही। इसी प्रकार किया हुआ कर्म ज्ञान हो जाने के बाद भी फल प्रदान करता है।’
इसलिए अगर आपको कभी ज्ञानी भी कई तरह के दुख में पड़ता हुआ दिखाई पड़े, तो आप यह मत सोचना कि इतना जानी, इतना सात्विक, फिर परमात्मा इसको क्यों सता रहा है! कोई किसी को सता नहीं रहा है। क्योंकि कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, अज्ञान की लंबी यात्रा तो पीछे है ही। ज्ञानी होने का मतलब ही यह है कि काफी अज्ञान में यात्रा हो गई है। उस यात्रा में जो धूल— धवांस इकट्ठी हो गई है उसे तो भोगना ही पड़े। पर ज्ञानी उसे भोगता है आकाश— भाव से। ही, उसके आस—पास जो लोग इकट्ठे होते हैं, वे आकाश— भाव से नहीं भोग पाते।
रामकृष्ण को कैंसर हुआ तो विवेकानंद तो रोते ही थे। अभी विवेकानंद को आकाश— भाव उत्पन्न नहीं हुआ था। रमण को कैंसर हुआ तो पूरा आश्रम तो दुखी होगा ही, क्योंकि जो इकट्ठे थे उनका तो कोई आकाश—भाव नहीं है।
रमण ने मरते वक्त, जैसे ही वे श्वास छोड़ रहे थे, किसी ने पूछा, अब हमारा क्या होगा? तो रमण ने कहा, क्या होगा! मैं यहीं रहूंगा—आई विल बी हियर, मैं यहीं रहूंगा।
आश्वासन आ गया। आंसू रुक गए रोने वालों के कि भरोसा उन्होंने दे दिया कि मैं यहीं रहूंगा, मतलब वे नहीं मरने वाले हैं। और वे मर गए! समझ में भूल हो गई। वे जो कह रहे थे, मैं यहीं रहूंगा, वे उस आकाश की बात कर रहे थे जो घड़े के फूट जाने पर भी कहां जाएगा! घडा ही फूटता है।
रमण कहते हैं, मैं यहीं रहूंगा। किसलिए रोते हो!
पर यह आकाश का वचन है मैं यहीं रहूंगा। यह घड़े का वचन नहीं है। पर जो आस—पास थे उन्होंने समझा घड़े का वचन है, घड़ा यहीं रहेगा। फिर घड़ा फूट गया। फिर वे सोचने लगे कि क्या रमण धोखा दे गए? क्या हमको समझाने को कहा था? क्या सांत्वना थी यह?
यह सांत्वना नहीं थी, यह सत्य था। लेकिन अब इस आकाशवत रमण को अनुभव करने का उपाय आपके पास तब तक नहीं है, जब तक आप अपने आकाश को अनुभव न कर लें। जब तक आप अपने को घड़ा ही समझते हैं, तब तक रमण तो गए।
रामकृष्ण मरने लगे, तो उनकी पत्नी शारदा रोने लगी, छाती पीटने लगी। तो रामकृष्ण ने कहा, तू क्यों रोती है? तू तो सधवा ही रहेगी, तू विधवा नहीं होगी।
खुश हो गई होगी शारदा। और रामकृष्ण मर गए। पर कह गए कि तू सधवा ही रहेगी; मैं कहीं मरने वाला हूं! पर शारदा अदभुत स्त्री थी। रामकृष्ण मर गए, रामकृष्ण दफना दिए गए, लेकिन शारदा की आंख से आंसू न टपका। बंगाल का जैसा रिवाज था, लोग आ गए चूइड्यां तोड़ने। शारदा ने कहा, रहने दो, क्योंकि मैं सधवा हूं। लोगों ने कहा, अब सफेद कपड़े पहन लो। शारदा ने कहा, बात ही मत करना। क्योंकि जिसने कहा है, उसके वचन का मुझे भरोसा है। वह कोई सांत्वना के लिए नहीं कहा था।
तो बड़ी मीठी कथा घटी है। शारदा जितने दिन जिंदा रही, उसने माना ही नहीं कभी स्वप्न में भी कि रामकृष्ण मर गए हैं। लोग हैरान होते थे कि या तो शारदा पागल हो गई है। लेकिन पागल नहीं थी। क्योंकि पागल का कोई और लक्षण न था। बल्कि सच तो यह है कि जिस दिन से रामकृष्ण मरे, और जिस दिन से रामकृष्ण की मृत्यु को शारदा ने स्वीकार नहीं किया, उसी दिन से वह स्वयं अमृतधर्मा हो गई। उस दिन से वह स्वयं ही आकाशवत हो गई। वह अनुभव, रामकृष्ण की मृत्यु का, सिर्फ घड़े के मिटने का अनुभव रहा। और घड़े से तो कुछ लेन—देन भी न था। यह रामकृष्ण और शारदा का विवाह असाधारण विवाह था। इसमें घड़ों का तो कभी कोई संपर्क ही नहीं हुआ था। रामकृष्ण तो शारदा को मां की तरह ही मानते रहे थे। इसमें शरीर का तो कोई लेन—देन ही न था। यह तो दो आकाश का ही मिलन था।
मीठी है बात, बड़ी अदभुत, वर्षों शारदा जीयी रामकृष्ण के मरने के बाद। लेकिन जैसे रोज वह भोजन बनाती थी और रामकृष्ण के पलंग के पास जाकर कहती थी कि परमहंसदेव, भोजन तैयार है। यह सब ऐसा ही जारी रहा, भोजन बनता रहा। शारदा रोज जाती पलंग के पास। कोई भी नहीं, किसी को रामकृष्ण लोग रोते शारदा की बात सुन कर कि वह कहती, परमहंसदेव, भोजन तैयार है। फिर जैसे रामकृष्ण के लिए रुकी रहती, जैसा वह सदा रुकती थी। फिर वह उठते। जब तक वे उठते न, तब तक वह खड़ी रहती। फिर रामकृष्ण आगे जाते तो वह पीछे जाती। यह उसी को दिखाई पड़ता, यह किसी और को दिखाई नहीं पड़ता। फिर वह थाली पर बिठाती, फिर वह पंखा झलती रहती, फिर वह रोज उन्हें सुलाती, फिर रोज सुबह उठाती। वह सब क्रम वैसा ही चलता रहा।
किसी ने शारदा से पूछा है कि किसको उठाती हो? किसको सुलाती हो? किसको खिलाती हो? यह सब क्या है? तो शारदा ने कहा, जिसको पहले सुलाती थी, वही। अब देह खो गई है, अब सिर्फ आकाश रह गया है। जिसे खिलाती थी, उसे ही।
शारदा सधवा ही बनी रही! पूरे मनुष्य—जाति के इतिहास में यह अकेली घटना है। किसी पत्नी ने पति के मर जाने पर सधवा रहने का जो अनूठा अनुभव किया है, वह अकेली घटना है। इसलिए शारदा जैसी स्त्री खोजनी बहुत मुश्किल है।
कर्म तो पूरे होते हैं ज्ञान हो जाने पर भी, पर जिसे अनुभव हो गया भीतर के शून्य का वह देखता रहता है साक्षी—भाव से, जो भी होता है। अब उसकी कोई मर्जी और इच्छा नहीं है कि ऐसा हो और ऐसा न हो, जो होता है, वह स्वीकार कर लेता है। साक्षी अर्थात तथाता। अब जो हो रहा है, ठीक है। नहीं हो रहा है, वह भी ठीक है। और कुछ भी मेरे भीतर कभी नहीं हुआ है और कभी नहीं हो सकता है, यह अनुभव में निष्ठा बनी रहती है।
'मैं अजर हूं, मैं अमर हूं, इस प्रकार जो अपने को आत्मारूप स्वीकार करता है, तो वह आत्मारूप ही रहता है। अर्थात उसको प्रारब्ध कर्म की कल्पना कहां से हो? अर्थात ज्ञानी को प्रारब्ध कर्म का संबंध नहीं रहता।’
इसे समझ लें। यह सूत्र विपरीत सा दिखाई पड़ेगा। विपरीत नहीं है। कर्म तो रहते हैं, लेकिन तानी को उनसे संबंध नहीं रहता। जो जान लेता है मैं आकाशवत हूं—अजर और अमर, सदा अलिप्त, असंग, उदासीन, तटस्थ; कभी अपने बाहर नहीं गया, कभी कोई मेरे भीतर नहीं आया, न जन्मा हूं,  न मरूंगा, सिर्फ होना मात्र ही मेरी अवस्था है—ऐसा जो अनुभव कर लेता है, उसे कर्म घटित होते रहते हैं अतीत की श्रृंखला से, लेकिन उसका संबंध उनसे टूट जाता है।
दुख आता है, शरीर में पीड़ा होती है, बुढापा आता है, तो वह ऐसा नहीं कहता कि मैं का हो रहा हूं; वह ऐसा ही कहता है कि मैं देखता हूं, शरीर का हो रहा है। बीमारी आती है तो वह कहता है, मैं देखता हूं कि शरीर बीमार हो रहा है। दुख आता है तो वह कहता है, मैं देखता हूं दुख आया। और सुख आता है तो वह कहता है, मैं देखता हूं सुख आया। वह अपने देखने में ही घिर होता है, वह जुड़ता नहीं। और जब कोई कर्म से नहीं जुड़ता, तो कर्म अपनी गति को पूरा करके लीन हो जाते हैं, शरीर अपनी यात्रा पूरी करके गिर जाता है; मन अपने संचित वेग को दौड़—दौड़ कर तोड़ लेता है, नष्ट हो जाता है; और साक्षी शून्य आकाश के साथ एक हो जाता है।
जब तक शरीर है, तब तक जीवनमुक्‍ति, जब शरीर भी गिर जाता है, तो मोक्ष।
आज इतना ही


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