दिनांक
10 सितम्बर, 1973;
तृतीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई
मोक्षमार्ग-सूत्र
: 3
जया
निव्विंदए
भोए जे दिव्वे जे
य माणुसे।
तया
चयइ संजोगं, सब्भिन्तरं बाहिरं।।
जया
चयइ संजोगं, सब्भिन्तरं बाहिरं।
तया
मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अणगारियं।।
जया
मुण्डे भवित्ताणं, पव्वयइ अणगारियं।
तया
संवरमुक्किट्ठं
धम्मं फासे अणुत्तरं।।
जया
संवरमुक्किट्ठं, धम्मं फासे अणुत्तरं।
तया
धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं।।
जया
धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं।
तया
सव्वत्तगं
नाणं दंसणं
चाभिगच्छइ।।
जब
देवता और
मनुष्य
संबंधी समस्त
काम-भोगों से
(साधक) विरक्त
हो जाता है, तब अंदर और
बाहर के सभी
सांसारिक
संबंधों को छोड़
देता है।
जब
अंदर और बाहर
के समस्त
सांसारिक
संबंधों को
छोड़ देता है, तब मुण्डित
(दीक्षित)
होकर (साधक)
पूर्णतया अनगार
वृत्ति (मुनिचर्या)
को प्राप्त
करता है।
जब मुण्डित
होकर अनगार
वृत्ति को
प्राप्त करता
है, तब (साधक)
उत्कृष्ट
संवर एवं
अनुत्तर धर्म
का स्पर्श
करता है।
जब
(साधक)
उत्कृष्ट
संवर एवं
अनुत्तर धर्म
का स्पर्श
करता है, तब
(अंतरात्मा पर
से) अज्ञानकालिमाजन्य
कर्म-मल को
झाड़ देता है।
जब
(अंतरात्मा पर
से) अज्ञानकालिमाजन्य
कर्म-मल को
दूर कर देता
है, तब सर्वत्रगामी
केवलज्ञान
और केवलदर्शन
को प्राप्त कर
लेता है।
काम-भोग
से विरक्ति
महावीर के
साधना-पथ की
अत्यंत
अनिवार्य
भूमिका है। कामवृत्ति
का अर्थ है, मैं अपने से
बाहर जा रहा हूं।
कामवृत्ति
का अर्थ है, मेरा सुख
किसी और में
निर्भर है। कामवृत्ति
का अर्थ है, मैं स्वयं
अपने में
पर्याप्त
नहीं हूं, कोई
और मुझे पूरा
करने को जरूरी
है।
साफ है
कि कामवृत्ति
से घिरा हुआ
व्यक्ति कभी
भी मुक्त नहीं
हो सकता। जब
तक दूसरा मेरे
सुख का कारण
है, तब तक
दूसरा ही मेरे
दुख का कारण
भी होगा। और
जब तक दूसरा
मेरे जीवन का
कारण बना है, तब तक मैं
स्वतंत्र
नहीं हूं।
जब तक
हम दूसरे पर
निर्भर रहे
चले जाते हैं, तब तक
स्वतंत्रता
का कोई स्पर्श
भी नहीं हो सकता।
इसलिए कामवृत्ति
मौलिक बंधन
है। और जो कामवृत्ति
से विरक्त हो
जाता है, वह
अनिवार्यतः
अपनी ओर मुड़ना
शुरू हो जाता
है। लेकिन लोग
कामवृत्ति
से विरक्त
क्यों नहीं हो
पाते? सुख
की झलक दिखाई
पड़ती है, सुख
कभी मिलता
नहीं; दुख
काफी मिलता
है। लेकिन सुख
की आशा में
आदमी झेले चला
जाता है।
इस बात
को थोड़ा ठीक
से, गौर से
देख लेना
जरूरी है कि
हम जीवन की
इतनी पीड़ाएं
क्यों झेले
चले जाते हैं।
आशा में कि आज
सुख नहीं मिला,
कल मिलेगा;
इस व्यक्ति
से सुख नहीं
मिला, दूसरे
व्यक्ति से
मिलेगा; इस
संबंध से सुख
नहीं मिला तो
दूसरे संबंध
से सुख
मिलेगा।
लेकिन सुख
दूसरे से मिल
सकता है, यह
हमारी
स्वीकृत
धारणा है। और
यही धारणा
सबसे ज्यादा
खतरनाक धारणा
है।
सुख
मिल सकता है, दूसरे से
कभी किसी को
नहीं मिला।
कभी यह घटना ही
इतिहास में
नहीं घटी कि
कोई दूसरे से
सुखी हो गया
हो। हां, दूसरे
से सुख मिलने
की आशा बांधे
हुए व्यक्ति बहुत
दुखी जरूर
होता है।
लेकिन फिर भी
आशा बंधी रहती
है। हम भविष्य
में ताकते
रहते हैं, झांकते
रहते हैं।
यह आशा
जब तक न टूट
जाये जीवन के
अनुभव से, तब तक
विरक्ति का
कोई जन्म नहीं
है। और जब हम दूसरे
से सुख पाने
की आशा रखते
हैं, तो
स्वभावतः जो
भी हमारे जीवन
में घटित हो, हम दूसरे को
ही उसके लिए
जिम्मेवार
माने चले जाते
हैं। इसलिए
खुद की अंतरजीवनधारा
से सम्पर्क
स्थापित नहीं
होता। और वही
सम्पर्क
क्रांति ला
सकता है।
चाहे
सुख हो, चाहे
दुख; चाहे
सुविधा हो, चाहे
असुविधा; हम
सदा दूसरे की
तरफ आंखें
लगाये रखते
हैं। यह दूसरे
की तरफ लगी
हुई आंखें ही कामवृत्ति
है। अगर कोई परमात्मा
की तरफ भी
आंखें लगाये
हुए है कि उससे
सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा,
तो महावीर
कहेंगे, वह
भी कामवृत्ति
है; वह भी
कामना का ही
दिव्य रूप
है--लेकिन
कामना ही है।
इस मन
की साधारण जकड़
को अपने ही
जीवन के अनुभव
में खोजना
चाहिए। जब भी
कुछ घटता है, आप तत्क्षण
दूसरे को
जिम्मेवार
ठहरा देते
हैं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी अपने
वकील के पास
गयी थी । और
उससे बोली कि
अब बहुत हो
चुका, और
अब आगे सहना
असंभव है। अब
तलाक का
इंतजाम करवा
ही दें।
उसके
वकील ने पूछा
कि ऐसा क्या
कारण आ गया है? तो उसने कहा
कि मुल्ला नसरुद्दीन
विश्वासघाती
है। उसने मुझे
धोखा दिया है।
निश्चित ही
उसके दूसरी
स्त्रियों से
संबंध हैं। और,
अब और सहना
असंभव है।
वकील
ने पूछा, "कोई
प्रमाण ? क्योंकि
प्रमाण की
जरूरत होगी ।
और कैसे तुम्हें
पता चला, इसका
कोई ठीक-ठीक
सबूत, कोई
गवाह?'
उसकी
पत्नी ने कहा, "किसी गवाह
की कोई जरूरत
नहीं है। आइ
ऐम प्रेटी
श्योर
दैट ही इज
नॉट दि फादर
ऑफ माइ
चाइल्ड--पूर्ण
निश्चय है
मुझे कि मेरे
बच्चे का पिता
मुल्ला नसरुद्दीन
नहीं है।'
लेकिन
हमारा जैसा मन
है, उसमें हम
सदा दूसरे को
ही जिम्मेवार
ठहराते हैं।
हम दूसरे को
परदे की तरह
बना लेते हैं
और जो कुछ भी
है उसे
प्रोजेक्ट
करते हैं, उसे
परदे पर डालते
चले जाते हैं।
धीरे-धीरे प्रोजेक्टर
तो दिखाई पड़ना
बंद हो जाता है्र।
आप
फिल्म गृह में
बैठते हैं, तो आप पीछे
लौटकर कभी
नहीं देखते
जहां असली फिल्म
चल रही है; परदे
पर ही देखते
रहते हैं, जहां
केवल छाया पड़
रही है।
प्रोजेक्टर
तो आपकी पीठ
के पीछे लगा
होता है--जहां
से फिल्म आ
रही है; जहां
से प्रकाश की
किरणें आ रही
हैं; लेकिन
दिखाई परदे पर
पड़ती हैं। आप
वहीं देखते रहते
हैं। परदा सब
कुछ हो जाता
है, जो मूल
नहीं है।
हर
दूसरा
व्यक्ति, जिससे
हम संबंधित
होते हैं, परदे
का काम करता
है। भीतर से
वृत्तियां
आती हैं, जो
हम उस पर
ढालते चले
जाते हैं।
इसलिए जो हमारे
निकट होते हैं,
वे ही हमारे
लिए परदा बन
जाते हैं। और
फिर हम यह भूल
ही जाते हैं
कि हमारे भीतर
कुछ घट रहा है,
जो उनमें
दिखाई पड़ता है;
उनकी आंखों
में, उनके
चेहरों में, उनके
व्यवहार में।
यह
सारा जगत एक
परदा है और
सारे संबंध
परदे हैं और
प्रोजेक्टर
हमारा अपना मन
है। और अगर इस परदे
पर हम कुछ
बदलाहट करना
चाहें तो
असंभव है। अगर
कोई भी बदलाहट
करनी हो तो
पीछे
प्रोजेक्टर
को ही बदलना
होगा, जहां
से स्रोत है।
धर्म
की खोज ही तब
शुरू होती है, जब मैं परदे
को भूलकर उसे
देखना शुरू कर
देता हूं जहां
से मेरे जीवन
का स्रोत है; जहां से
सारी
वृत्तियां आ
रही हैं और जग
रही हैं। जैसे
ही मुझे यह
दिखाई पड़ने
लगता है कि मैं
ही जिम्मेवार
हूं, सुख
और दुख मैं ही
पैदा कर रहा
हूं, मेरे
संबंध भी मेरे
ही भीतर से आ
रहे हैं, दूसरा
केवल बहाना है,
वैसे ही
व्यक्ति कामवृत्ति
के ऊपर उठना
शुरू हो जाता
है।
लेकिन, जीवन के
गणित को पकड़ने
में थोड़ी सी
कठिनाई है। एक
स्त्री को आप
प्रेम करते
हैं, दुख
पाते हैं; कलह
है, संघर्ष
है।
बाइबिल
में पुरानी
कथा
है--बाइबिल
में दो कथाएं
हैं--एक कथा
आपने सुनी है, दूसरी आमतौर
से प्रचलित
नहीं है; उसे
भुला दिया गया
है।
एक कथा
है कि
परमात्मा ने
अदम को बनाया
और अदम के साथ
ही लिलिथ
नाम की स्त्री
को बनाया ।
दोनों को एक
सा बनाया, समान बनाया।
बनाकर वह
निपटा भी नहीं
था कि दोनों
में झगड़ा
शुरू हो गया। झगड़ा इस
बात का था कि
कौन ऊपर सोये,
कौन नीचे
सोये। लिलिथ
ने कहाः
मैं तुम्हारे
समान हूं।
मुझे भी
परमात्मा ने बनाया
है, और उसी
मिट्टी से
बनाया है जिस
मिट्टी से
तुम्हें
बनाया। और
मेरे भी
प्राणों में
श्वास डाली; और तुम्हारे
भी प्राणों
में श्वास
डाली; हम
दोनों एक के
ही निर्माण
हैं और एक ही
मिट्टी और एक
ही प्राण से
बने हैं। तो
नीचे-ऊपर कोई
भी नहीं है।
यह कलह
इतनी बढ़ गयी
कि इस कलह को
सुलझाने का कोई
उपाय न रहा।
तो लिलिथ
ने परमात्मा
से प्रार्थना
की कि मुझे
अपने में
विलीन कर लो । लिलिथ
विलीन हो गयी।
फिर दूसरी कथा
यह है कि फिर
आदमी अकेला हो
गया और अकेले
में भी उसको
बेचैनी होने
लगी।
आदमी
की बड़ी कठिनाई
है। अकेला भी
नहीं रह सकता
और किसी के
साथ भी नहीं
रह सकता।
अकेला रहे तो लगता
है, जीवन में
कुछ भी नहीं
है और किसी के
साथ रहे तो जीवन
कलह से भर
जाता है।
तो
उसको अकेला, उदास, परेशान
देखकर
परमात्मा ने
फिर स्त्री
बनायी । लेकिन
इस बार उसका
ही एक स्पेअर
पार्ट, उसकी
एक हड्डी
निकालकर
बनायी । दूसरी
स्त्री ईव, यह दूसरी
स्त्री
परमात्मा ने
बनायी नम्बर
दो, ताकि
कलह न हो।
ये
दोनों
कहानियां बड़ी
प्रीतिकर
हैं। पहली कहानी
भूल गयी है, दूसरी कहानी
जारी है। सोचा
उसने जरूर
होगा कि अब
कलह न होगी, क्योंकि
मनुष्य की ही
हड्डी से
बनायी हुई स्त्री
है। लेकिन कलह
में इससे कोई
अंतर नहीं पड़ता।
असल
में जब भी हम
दूसरे पर
निर्भर होते
हैं, तो कलह
शुरू हो चुकी;
और दूसरा हम
पर निर्भर हो
चुका । और जिस
पर हम निर्भर
होते हैं, उसके
साथ बेचैनी, तकलीफ, क्योंकि
हमारी
स्वतंत्रता
खो रही है; हमारी
आत्मा खो रही
है।
सभी
संबंध
आत्माओं का
हनन करते हैं।
जैसे ही हम
संबंधित होते
हैं कि मेरी
जो निजता थी, मेरा जो
अपना होना था,
टू बी माइ
सेल्फ, वह
नष्ट होने
लगा। दूसरा
प्रविष्ट हो
गया। दूसरा भी
अपना काम शुरू
करेगा। वह चाहेगा
कि मैं ऐसा
होऊं। और मैं
भी यही
चाहूंगा कि
दूसरा ऐसा हो।
कलह शुरू हो
गयी।
बाइबिल
की कथा के
हिसाब से
पिछले पांच
हजार सालों
में अदम और
उसकी स्त्री, दोनों के
बीच जो संबंध
थे, उसमें
अदम मालिक था
और स्त्री
गुलाम थी। यह
अदम और ईव की
कथा चलती रही।
लेकिन अब पश्चिम
में ईव ने लिलिथ
बनना शुरू कर
दिया है। अब
वह समान हक
मांग रही है।
दूसरी कहानी
आनेवाली सदी
में
महत्वपूर्ण
हो जायेगी।
स्त्रियां
यहां तक
पश्चिम में
दावा कर रही
हैं, जो बड़े
महत्वपूर्ण
हैं, सही
भी
हैं--समानता
के दावे।
लेकिन जैसे ही
समानता खड़ी
होती है, कलह
कम नहीं होती
और बढ़ जाती
है।
स्त्रियां सोचती
हैं, समानता
हो जाये तो
कलह कम हो
जायेगी।
असल
में दो
व्यक्ति जब भी
संबंधित
होंगे और एक-दूसरे
पर निर्भर
होंगे, और
एक-दूसरे को
बदलने की
कोशिश करेंगे
अपने अनुसार,
तब कलह होगी
ही--क्योंकि
एक व्यक्ति
दूसरे
व्यक्ति की आत्मा
में प्रवेश कर
रहा है और
गुलामी
निर्मित करने
की कोशिश कर
रहा है।
पश्चिम
में एक स्त्री, जो कि एक
समूह का
नेतृत्व कर
रही थी, और
पुलिस ने उस
समूह पर हमला
किया और उस
स्त्री के पास
खड़ी एक स्त्री
को चोट लग गयी
और वह रोने
लगी, तो उस
स्त्री ने कहाः
घबड़ाओ मत,
गॉड इज सीइंग
एवरीथिंग। ऐण्ड शी
विल डू
जस्टिस।
ईश्वर सब देख
रहा है--लेकिन शी विल डू।
ईश्वर
को भी "ही' कहना पश्चिम
में
स्त्रियों ने
बंद कर दिया
है, क्योंकि
वह पुरुष सूचक
है। परमात्मा
भी स्त्री है।
और पुरुषों ने
ज्यादती की है
अब तक उसको
पुरुष कहकर।
कलह
आखिरी सीमा पर
पश्चिम में
आकर खड़ी है, जहां परिवार
पूरी तरह टूट
जाने को है।
लेकिन परिवार
पूरी तरह टूट
जाये, इससे
कलह बंद नहीं
होती, कलह
सिर्फ फैल
जाती है; एक
स्त्री से न
होकर बहुत
स्त्रियों से
होने लगती है।
संबंध
के भीतर कलह
क्यों है, इसे थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है। और
संबंध को हम कैसा
ही बनायें,
कलह होगी।
महावीर का
क्या सूत्र है
इस कलह के बाहर
जाने का?
महावीर
कहते हैं : कलह
दूसरे के कारण
नहीं है, कलह
मेरी ही कामना
के कारण है।
अगर ऐसा संबंध
कोई हो सके, जहां दोनों
ही व्यक्ति कामवृत्ति
से भरे हुए
नहीं हैं, तो
कलह विदा हो
जायेगी। अगर
जरा सी भी कामवृत्ति
मौजूद है, तो
कलह जारी
रहेगी।
जो
आदमी दूसरे से
सुख या दुख
पाने की कोशिश
कर रहा है, या स्त्री
सुख या दुख
पाने की कोशिश
कर रही है, वे
दुख में और
पीड़ा में, और
नर्क में अपने
को उतार ही रहे
हैं। क्योंकि
महावीर कहते
हैं, और
सभी
ज्ञानियों की
सहमति है, कि
आनंद का
स्त्रोत भीतर
है, दूसरे
की तरफ आंख
रखना भ्रांति
है, वहां
भिक्षा-पात्र
फैलाना
व्यर्थ है, वहां से न
कुछ कभी मिला
है और न मिल
सकता है।
इसे हम
अनुभव भी करते
हैं। लेकिन जब
एक स्त्री से
दुख पाते हैं; एक पुरुष से
दुख पाते हैं,
तो हम सोचते
हैं कि यह
स्त्री गलत है,
यह पुरुष
गलत है; इतनी
बड़ी पृथ्वी है,
जरूर कोई
ठीक पुरुष, कोई ठीक
स्त्री होगी,
जिससे मेरा
संबंध हो तो
यह पीड़ा नहीं
होगी।
यही
सारी भूल का
गणित है। और
हम कितनी ही
स्त्रियों को
बदलते चले
जायें, तो
भी पृथ्वी बड़ी
है। और कितने
ही पुरुषों को
बदलते चले
जायें--पृथ्वी
बड़ी है।
स्त्रियां सदा
बाकी रहेंगी,
पुरुष सदा
बाकी रहेंगे,
और वह
भ्रांति कायम
रहेगी कि शायद
कोई न कोई पुरुष,
कोई न कोई
स्त्री हो
सकती थी, जिससे
मेरा संबंध
स्वर्ग बन
जाता!
वह कभी
नहीं हुआ है।
वह कभी होगा
भी नहीं।
लेकिन आशा को
उपाय है। और
वह आशा भटकाये
चली जाती है।
जब तक यह आशा न
टूट जाये; जब तक एक
स्त्री का
अनुभव स्त्री
मात्र का अनुभव
न समझ लिया
जाये; और
जब तक एक
पुरुष का
अनुभव पुरुष
मात्र का अनुभव
न बन जाये; जब
तक एक संबंध
की व्यर्थता
सारे संबंधों
को व्यर्थ न
कर दे, तब
तक कोई
व्यक्ति कामवृत्ति
से ऊपर नहीं
उठता।
हम कभी
भी पूरा अनुभव
नहीं कर पाते।
पूरा अनुभव कर
भी नहीं सकते।
विज्ञान तक, जो कि
सार्वभौम--युनिवर्सल
नियम खोजने की
कोशिश करता है,
वह भी पूरे
अनुभव नहीं कर
पाता। और
संदेह जो लोग
करते हैं, वे
किये जा सकते
हैं।
डेविड हयूम--बहुत
कीमती विचारक
हुआ इंग्लैंड
में, उसने
संदेह किया है
विज्ञान के
ऊपर। हयूम
कहता है कि
विज्ञान कहता
है कि कहीं भी
पानी को गर्म
करो सौ डिग्री
पर, तो
पानी भाप बन
जायेगा।
लेकिन हयूम
कहता हैः क्या
तुमने सारे
पानी को भाप
बनाकर देख
लिया है? क्या
तुमने सारे
जगत के पानी
को भाप बनाकर
देख लिया है? तो जल्दी मत
करो! क्योंकि
कहीं ऐसा पानी
मिल भी सकता
है, जो सौ
डिग्री पर भाप
न बने। तो यह
वैज्ञानिक नहीं
है घोषणा।
तुमने जितने
पानी को भाप
बनाकर देखा है,
उतने पानी
के बाबत कहो
कि यह भाप बन
जाता है सौ
डिग्री पर; लेकिन शेष
पानी बहुत है।
उस पानी के
संबंध में
तुम्हारी कोई
भी घोषणा
अवैज्ञानिक
है।
बात तो
वह ठीक कह रहा
है। विज्ञान
की भी सामर्थ्य
नहीं है कि वह
सारे पानी को
पहले भाप बनाकर
देखे। दस पचास
हजार बार
प्रयोग
दोहराया जा सकता
है और फिर
विज्ञान मान
लेता है कि यह
असंदिग्ध है; क्योंकि सभी
जगह पानी एक
ही नियम का
पालन करेगा।
पानी का
स्वभाव सौ
प्रयोगों से
पकड़ लिया जाता
है। अब सारे
पानी को भाप
बनाने की
जरूरत नहीं
है। लेकिन
तर्क की तरह
तो ठीक कह रहा
है हयूम।
ठीक वही
मुसीबत आदमी
के मन की भी
है।
एक
स्त्री का
अनुभव
स्त्रैण तत्व
का अनुभव है।
लेकिन हम
समझते हैं यह
केवल, एक
व्यक्ति-स्त्री
का अनुभव है।
गलत खयाल है!एक-एक
स्त्री उसी
तरह स्त्रैण
तत्व का
प्रतीक है, जैसे पानी
की एक बूंद
सारे जगत के
पानी का प्रतीक
है; एक
पुरुष सारे
पुरुष तत्व का
प्रतीक है। जो
फासले हैं, फर्क हैं, वे गौण हैं, मौलिक बात
एक पुरुष में
मौजूद है।
और
जैसे एक पुरुष
का स्वभाव जिस
ढंग से बरतता है, उसी ढंग से
सारे पुरुष
बरतते हैं।
उनमें जो फर्क
हैं वे डिटेल्स
के हैं, विस्तार
के हैं कि
कहीं किसी नदी
का पानी थोड़ा
नीला है, और
किसी नदी का
पानी थोड़ा
मटमैला है, और किसी नदी
का पानी थोड़ा
हरा है, और
किसी नदी का
पानी थोड़ा
शुभ्र है--ये डिटेल्स
के फर्क हैं।
इनसे सौ
डिग्री पर
पानी गर्म होगा,
इसमें कोई
भेद नहीं
पड़ता।
किसी
स्त्री की नाक
थोड़ी लंबी है
और किसी स्त्री
की नाक थोड़ी
छोटी है, और
कोई स्त्री
थोड़ी गोरी है,
और कोई
स्त्री थोड़ी
काली है--इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। और कोई
स्त्री हिंदू
घर में पैदा
हुई है और कोई
मुसलमान घर
में--इसमें भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। उसकी जो
मौलिक स्थिति
है--स्त्रैणता--वह
वैसी ही है, जैसे सारे
जगत का पानी।
एक बूंद खबर
दे देती है; लेकिन हम
जन्मों-जन्मों
से अनेक
बूंदों का अनुभव
करके भी
निष्कर्ष
नहीं ले पाते;
क्योंकि
सारे जगत का
पानी तो कायम
रहता है।
महावीर
कहते हैं कि
जो व्यक्ति एक
अनुभव को इतना
गहराई से ले
और उसको
सार्वभौम बना
ले, उसको
फैला ले पूरे
जीवन पर--वही कामवृत्ति
से मुक्त हो
पायेगा--अन्यथा
स्त्रियां
सदा शेष हैं, पुरुष सदा
शेष हैं, संबंध
सदा शेष हैं; आशा कायम
रहती है।
जैसा
विज्ञान तय
करता है थोड़े
से अनुभव के
बाद सार्वभौम
नियम, वैसे
ही धर्म भी तय
करता है थोड़े
से अनुभव के बाद
सार्वभौम
नियम। मैं न
मालूम कितने
लोगों का निकट
से अध्ययन
करता रहा हूं।
सारे फर्क
ऊपरी हैं, भीतर
रंचमात्र
फर्क नहीं है।
सारे फर्क
वस्त्रों के
हैं, कहना
चाहिए--भाषा
के, व्यवहार
के, आचरण
के--सब ऊपर
हैं। क्योंकि
हरेक व्यक्ति
का जन्म अलग
ढंग में हुआ
है, अलग
व्यवस्था में,
अलग नियम, नीति, समाज--सब
फर्क ऊपरी
हैं। जरा ही
चमड़ी के भीतर
प्रवेश करो, वहां एक ही
पानी बह रहा
है।
एक का
अनुभव ठीक से
ले लिया जाये
तो हम इस बोध को
उपलब्ध हो
सकते हैं कि
बहुत अनुभवों
में भटकने की
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन
कोई चाहे तो
बहुत अनुभवों
में भी भटके, लेकिन कभी न
कभी उसे यह
नियम की तरह
स्वीकार कर
लेना पड़ेगा कि
इतने अनुभव
काफी हैं, अब
मैं कुछ
निष्कर्ष
लूं। जिस दिन
व्यक्ति सोचता
है, इतने
अनुभव काफी
हैं, अब
मैं कुछ
निष्कर्ष लूं,
उस दिन जीवन
में क्रांति
शुरू हो जाती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
काफी बूढ़ा हो
गया था। वह और
उसकी पत्नी
अदालत में खड़े
हैं। और मजिसटरेट
ने कहा कि "हद
कर दी नसरुद्दीन!
अब इस उम्र
में तलाक देने
का पक्का किया?'
नसरुद्दीन
ने कहा कि
"उम्र से इसका
क्या संबंध?'
मजिसटरेट
ने पूछा कि
"तुम्हारी
उम्र कितनी है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, "कि
चौरानबे
वर्ष।' और
उसकी पत्नी से
पूछा। उसने
शर्माते हुए
कहा, "चौरासी
वर्ष।'
मजिसटरेट
भी थोड़ा बेचैन
हुआ। उसने नसरुद्दीन
से पूछा, "और
तुम्हारी
शादी हुए
कितना समय हुआ?'
नसरुद्दीन
ने कहा, "कोई
सड़सठ
वर्ष!'
मजिसटरेट
बड़े अविश्वास
से भर गया, उसने कहा कि
"करीब-करीब
सत्तर साल
तुम्हारी शादी
को हो चुके
हैं, और अब
तुम तलाक करना
चाहते हो? सत्तर
साल साथ रहने
के बाद!'
नसरुद्दीन
ने कहा, "योर आनर,
व्हिचएवर वे यू लुक, इनफ इज इनफ--अब,
बहुत हो गया,
काफी हो
गया। और काफी काफी है!'
आप
अपने जीवन में
करीब-करीब
पुनरुक्त
करते चले जाते
हैं चीजों को, और इनफ इज इनफ
कभी भी नहीं आ
पाता। ऐसा कभी
अनुभव नहीं
होता कि अब
काफी है। और
जिस व्यक्ति
को ऐसा अनुभव
हो, उसके
जीवन में
विरक्ति की
पहली किरण
उतरती है।
महावीर
कहते हैं: "जब
देवता और
मनुष्य
संबंधी समस्त
काम-भोगों से
साधक विरक्त
हो जाता है, तब अंदर और
बाहर के सभी
सांसारिक
संबंधों को छोड़
देता है।'
"विरक्त
हो जाता है।' विरक्ति कोई
आयोजना नहीं
हो सकती। आप
चेष्टा करके
विरक्त नहीं
हो सकते।
अनुभव की
परिपक्वता ही
विरक्ति ला
सकती है। आप
कच्चे में ही
विरक्त नहीं
हो सकते। आप
जीवन से भागकर
और पलायन करके
विरक्त नहीं
हो सकते। आप
ऐसा सोचकर, महावीर को
पढ़कर, ज्ञानियों
को सुनकर
विरक्त नहीं
हो सकते। उतना
काफी नहीं है।
आपके अनुभव से
मेल बैठना
चाहिए।
ज्ञानी
तो कहते रहे
हैं, कहते चले
जाते हैं, लेकिन
आपको कोई फर्क
नहीं पड़ता।
हां, आपमें
से कुछ नासमझ
कभी-कभी बिना
परिपक्व हुए,
बिना जीवन
के अनुभव से
विरक्ति को
निकाले, प्रभावित
होकर किसी की
चर्चा, विचार
तर्क से
संन्यस्त हो
जाते हैं।
उनका संन्यास
कच्चा है। और
उनका संन्यास
कभी भी मुक्ति
नहीं बन
सकेगा। उनके
संन्यास का
मूल आधार ही
गलत है। वे
जीवन से
विरक्त होकर
संन्यस्त नहीं
बने हैं, बल्कि
साधु से आसक्त
होकर
संन्यस्त बने
हैं। इसे थोड़ा
ठीक से समझ
लें।
साधु
में बड़ा
प्रभाव है।
साधुता का
अपना आकर्षण
है। साधुता मैगनेटिक
है। उससे बड़ा
कोई मैगनेट
दुनिया में
होता नहीं।
महावीर खड़े
हों तो आप साधु
हो जायेंगे।
लेकिन
ध्यान रहे, यह साधुता
आपके अनुभव से
आ रही है या
महावीर के
आकर्षण से, प्रबल
आकर्षण से? अगर महावीर
के प्रबल
आकर्षण से यह
साधुता आ रही
है तो विरक्ति
को थोपना
पड़ेगा। जो
महावीर के लिए
सहज है, वह
हमारे लिए
प्रयास होगा।
सहज
मोक्ष तक ले
जाता है, प्रयास
कहीं भी नहीं
ले जाता।
प्रयास सिर्फ
असत्य तक ले
जाता है। जिस
चीज को भी
हमें प्रयास
कर-करके थोपना
पड़ता है वह
झूठ हो जाता
है। हमारा
पूरा जीवन इसी
तरह झूठ हो
गया है प्रयास
कर-करके।
मां कह
रही है कि मैं
तेरी मां हूं, प्रेम करो।
तो बेटा
प्रयास करके
प्रेम कर रहा है।
बाप कह रहा है,
मैं तेरा
बाप हूं, प्रेम
करो। तो बेटा
प्रयास करके
प्रेम कर रहा है।
जिस दिन उसके
जीवन में
प्रेम का फूल
खिलता, उस
दिन वह अनायास
होता। अभी यह
सब प्रयास हो
रहा है। और
खतरा यह है कि
इस प्रयास से
वह इतना आवृत
हो जायेगा कि
उसके जीवन में
प्रेम का सहज फूल
कभी खिल ही न
सकेगा।
इस
दुनिया में
हजारों में
कभी एकाध आदमी
प्रेम को
उपलब्ध हो
पाता है, नौ
सौ निन्यानबे
नष्ट हो जाते
हैं। वे बीज
कभी अंकुरित
ही नहीं होते;
क्योंकि
इसके पहले कि
बीज से अंकुर
फूटता, उन
पर जबरदस्ती
थोप-थोपकर
कुछ चीजें लाद
दी गयीं, जिनकी
वे चेष्टा
करने लगे। फिर
चेष्टा इतनी प्रगाढ़ हो
जाती है कि
सहजता को जन्मने
का मौका नहीं
रहता।
सहज और
चेष्टा में
विपरीतता है।
एक विरक्ति है, जो आपके
अनुभव से आती
है--जीवन के
दुख का प्रगाढ़
अनुभव, जीवन
की पीड़ा का प्रगाढ़
अनुभव, जीवन
की व्यर्थता
की प्रतीति, स्पष्ट आपके
ही जीवन और
बोध में।
महावीर के वचन
और बुद्ध के
वचन काम कर
सकते हैं कि
आपके अनुभव को
सही साबित
करें, गवाह
बन जायें तब
तो ठीक है; कि
आपने अपने
जीवन में जो
जाना, उनके
वचनों से आपको
लगा कि ठीक
आपने जो अपने
जीवन में जाना
था, महावीर
भी वही कह रहे
हैं कि जीवन
व्यर्थ है।
यह
आपकी प्रतीति
पहले थी, महावीर
केवल गवाही
हैं--इस फर्क
को थोड़ा ठीक से
समझ लें। वे
सिर्फ एक
विटनेस हैं।
उनका कहना भी
आपके ही अनुभव
को प्रगाढ़
कर रहा है। तो
विरक्ति जो
आपमें खिलेगी
वह अनायास
होगी, सहज
होगी। उसकी
सुगंध अलग है।
और अगर महावीर
आपको आकृष्ट
कर लेते
हैं--उनका
आनंद, उनकी
शांति, उनका
उठना, उनका
बैठना, उनका
मोहक जादू भरा
व्यक्तित्व, वह आपको
आकर्षित कर
लेता है--तो आप
उस आसक्ति में
अगर संसार से
विरक्त होते
हैं, तो आप
कच्चे ही टूट
जायेंगे और आप
बुरी तरह भटकेंगे;
क्योंकि
आपके पैर के
नीचे जमीन
नहीं है। और
यह विरक्ति
झूठी है। सच
में तो यह एक
नयी तरह की आसक्ति
है। गुरु की
आसक्ति है, ज्ञानी की
आसक्ति है--तीथकर,
पैगंबर, अवतार
की आसक्ति है।
और
ध्यान रहे, कोई स्त्री
क्या आकर्षित
करेगी किसी
पुरुष को, कोई
पुरुष क्या
आकर्षित
करेगा किसी
स्त्री को, जैसा कि एक तीथकर
लोगों को
आकर्षित कर
लेता है। नहीं
कि वह करना
चाहता
है--उसका होना
ही, उसकी
मौजूदगी
चुंबक की तरह
आपको खींचने
लगती है।
जो
व्यक्ति किसी
से प्रभावित
होकर धार्मिक
हो जाता है, वह धार्मिक
होने का अवसर
खो देता है।
बहुत सचेत
होने की जरूरत
है। और जब तीथकरों
और पैगंबरों
के करीब से
गुजरने का
मौका मिले, तब तो बहुत
सचेत होने की
जरूरत है; तब
बहुत सावधान
होने की जरूरत
है। नहीं तो
खाई से निकले
और गङ्ढे
में गिरे। कोई
फर्क नहीं रह
जाता। मोह नये
ढंग से पकड़
लेता है, आसक्ति
नये ढंग से
पकड़ लेती है।
अगर
आपके अनुभव
में ऐसी रेखा
आ गयी है कि
जीवन सिर्फ
दुख है।
बहुत
लोगों को लगता
है कि जीवन
दुख है। लेकिन
उनके लगने से
विरक्ति पैदा
नहीं होती।
क्या कारण
होगा? आपको
भी बहुत बार
लगता है, जीवन
दुख है, लेकिन
ऐसा नहीं लगता
कि जीवन का
स्वभाव दुख है।
आपको ऐसा लगता
है कि मैं
असफल हो गया, इसलिए दुख
है; कि ठीक
परिवार न मिला,
ठीक जगह न
मिली, ठीक
समय न मिला, सहयोग न
मिला, संगी-साथी
न मिले, प्रेमी
न मिले, मैं
असफल हो गया, इसलिए जीवन
दुख है।
जीवन
दुख है, ऐसा
आपको नहीं
लगता। अपनी
असफलता मालूम
पड़ती है, क्योंकि
कई लोगों का
जीवन सुख
मालूम होता
है। यह बड़े
मजे की बात है
कि अपने को
छोड़कर सभी का
जीवन लोगों को
सुख मालूम
पड़ता है। और
यह सभी को ऐसा
लगता है। खुद
को छोड़कर सब
लोग लगते हैं
कि सुखी
हैं--कैसे
मुस्कुराते, आनंदित
सड़कों पर गीत
गाते चल रहे
हैं! एक मैं दुखी
हूं। मगर यही
प्रतीति सबकी
है।
बहुत
लोग हैं, जो
आपको भी सुखी
मान रहे हैं।
बहुत लोग आपसेर्
ईष्या कर रहे हैं।र्
ईष्या पैदा ही
न हो, अगर
यह प्रतीति हो
जाये कि सभी
लोग दुखी हैं।
कोई अपनी
गरीबी में
दुखी है, कोई
अपनी अमीरी
में दुखी है।
कोई सफलता में
दुखी है, कोई
असफलता में
दुखी है, लेकिन
दुख का कोई
भेद नहीं है, लोग दुखी
हैं।
जीवन
दुख है, व्यक्ति
का कोई सवाल
नहीं है। अगर
आपको ऐसा लगता
है कि मैं दुखी
हूं, तो
फिर आप विरक्त
नहीं हो सकते,
आप नये जीवन
की तलाश
करेंगे। यही
तो हम करते रहे
हैं। यही तो
हम करते रहे
हैं
जन्मों-जन्मों
से। ऐसे जीवन
की तलाश
करेंगे--जहां
सफलता मिले, धन मिले, समृद्धि
मिले, यश
मिले, पद-प्रतिष्ठा
मिले। इस बार
चूक गये, कोई
हरजा
नहीं, अगली
बार नहीं चूकेंगे।
जीवन
व्यर्थ नहीं
होता, एक
जीवन व्यर्थ
होता
है--लेकिन हम
दूसरे जीवन की
तलाश में निकल
जाते हैं।
पुनर्जन्म का
सूत्र यही है
कि हमारी
वासना जीवन से
नहीं छूटती।
एक जीवन
व्यर्थ होता
है तो दूसरे
जीवन को पकड़ती
है, दूसरा
व्यर्थ होता
है तो तीसरे
को पकड़ती
है। अंतहीन है
यह शृंखला।
जब
महावीर कहते
हैं, जीवन
व्यर्थ है या
बुद्ध कहते
हैं, जीवन
दुख है, तो
उनका मतलब
नहीं है कि
आपका जीवन दुख
है। उनका कहना
यह है कि जीवन
का स्वभाव, जीवन के
होने का ढंग
ही पीड़ा है।
जब ऐसा स्पष्ट
दिखाई पड़ने
लगे तो जो
विरक्ति पैदा
होती है, वह
विरक्ति अंदर
और बाहर के
सभी सांसारिक
संबंधों को
तोड़ देती है।
यहां
एक और मजे की
बात समझ लेना
है। महावीर यह
नहीं कहते कि
संबंधियों को
छोड़ देती है, कहते हैं, संबंधों को
छोड़ देती है।
यह जरा गहन है,
नाजुक है।
मेरी
पत्नी है, तो जब मुझे
विरक्ति का
अनुभव होगा तो
मैं पत्नी को
छोड़ दूंगा--यह
बहुत गौण और
सीधी दिखाई
पड़ने वाली बात
है, स्थूल
है। लेकिन
महावीर यह
नहीं कहते कि
संबंधियों को
छोड़ देती है, महावीर कहते
हैं, संबंधों
को छोड़ देती
है।
संबंध
बड़ी अलग बात
है। पत्नी
वहां है, और
पत्नी से मैं
हजार मील दूर भी
हो जाऊं, तो
भी संबंध के
टूटने का कोई
मतलब नहीं है।
संबंध बहुत
इलास्टिक है;
इन्फिनिटली इलास्टिक
है। पत्नी दस
हजार मील दूर
हो, तो दस
हजार मील दूर
तक मेरा संबंध
फैल जायेगा।
वह धागा बना
रहेगा। उसको
तोड़ना
मुश्किल है।
पत्नी
को चांद पर
भेज दो--कोई
फर्क नहीं पड़ता, यहां से
लेकर चांद तक
संबंध का धागा
फैल जायेगा।
वह कोई भौतिक
घटना नहीं है
कि उसको कोई
अड़चन हो। वह
मानसिक घटना
है। शायद
पत्नी दूर हो,
तो संबंध
ज्यादा भी हो
जाये।
अकसर
तो ऐसा ही
होता है लोगों
को। पत्नी को
फिर से प्रेम
करना हो, तो
मायके भेज
देना जरूरी
होता है। थोड़ा
फासला हो, फिर
रस भर आता है।
थोड़ा फासला हो,
फिर
आकांक्षा जग
जाती है।
व्यक्ति दूर
हो, तो
उसकी बुराइयां
दिखनी
बंद हो जाती
हैं, और भलाइयों
का खयाल आने
लगता है।
व्यक्ति पास
हो, तो बुराइयां
दिखती हैं और भलाइयां
भूल जाती हैं।
थोड़ा
फासला चाहिए।
ज्यादा फासला
कभी-कभी हितकर
हो जाता है।
महावीर कहते
हैं, संबंधी
नहीं, संबंध
छूट जाते हैं।
वह जो मेरे
भीतर से निकलता
है धागा संबंध
का, वह गिर
जाता है।
पत्नी अपनी
जगह होगी, मैं
अपनी जगह
होऊंगा। कोई
घर से भाग
जाना भी आवश्यक
नहीं है; लेकिन
बीच से वह जो
पति और पत्नी
का पागलपन था,
वह विदा हो
जायेगा। वह जो
"पजेस' करने की
धारणा थी, वह
छूट जायेगी।
वह जो दूसरे
का शोषण करने
की व्यवस्था
थी, वह टूट
जायेगी।
दूसरे से सुख
या दुख मिलता
है, यह भाव
गिर जायेगा।
पत्नी पहली
दफा एक व्यक्ति
बनेगी, और
मैं भी पहली
दफा एक
व्यक्ति
बनूंगा, जिनके
बीच खुला आकाश
है, कोई
संबंध नहीं; जिनके बीच
संबंधों की
जंजीरें नहीं
हैं; जो दो
निजी
व्यक्तित्व
हैं और
परिपूर्ण
स्वतंत्र
हैं।
जब दो
व्यक्ति
परिपूर्ण
स्वतंत्र हो
जाते हैं, तो छोड़ने या पकड़ने का
दोनों ही सवाल
नहीं रह जाते।
तब यह भी आवश्यक
नहीं है कि
मैं पत्नी के
साथ घर में
रहूं ही और यह
भी आवश्यक
नहीं है कि
मैं पत्नी को
छोड़कर चला ही
जाऊं। दोनों
घटनाएं घट
सकती हैं। जनक
घर में ही रह
जाते हैं, महावीर
घर छोड़कर चले
जाते हैं। यह
व्यक्तियों
पर निर्भर
होगा। लेकिन
इसको थोड़ा समझ
लेना जरूरी
है।
जो
आसक्त
व्यक्ति है, उसके लिए यह
समझना बहुत
कठिन है।
आसक्त दो काम
कर सकता हैः
या तो जिससे
आसक्त है, उसके
पास रहे और
अगर विरक्त हो
जाये, तो
उससे दूर
जाये।
आसक्ति
जिससे है, उसके हम पास
रहना चाहते
हैं। इसे थोड़ा
समझें। जिससे
हमारी आसक्ति
है, हम
चाहते हैं
चौबीस घण्टे
उसके पास रहें,
क्षणभर को न
छोड़ें। और
अकसर हम अपने
प्रेम को इसी
में नष्ट कर
लेते हैं।
क्योंकि
चौबीस घण्टे
जिसके साथ
रहेंगे, उसके
साथ रहने का
मजा ही खो
जायेगा। और
चौबीस घण्टे
जिसके साथ
रहेंगे, उसके
साथ सिवाय कलह
और दुख के कुछ
भी न बचेगा।
लेकिन
आसक्ति का एक
स्वभाव है कि
जिससे हमारा
लगाव है, उसके
पास ही रहें
चौबीस घण्टे,
एक क्षण को
न छोड़ें।
विरक्ति
जिससे हमारी
हो जाये, जिसको
हम विरक्ति
कहते हैं, मतलब
आसक्ति उलटी
हो जाये--तो
उसके हम पास
नहीं होना
चाहते
क्षणभर। उससे
हम दूर हटना
चाहते हैं।
जो
विरक्ति दूर
हटना चाहती है, वह आसक्ति
का ही उलटा
रूप है। वह
वास्तविक
विरक्ति नहीं
है। क्योंकि
नियम काम कर
रहा है; नियम
वही है कि
जिसे हम चाहते
हैं, उसके
पास और जिसे
हम नहीं चाहते
उससे दूर। लेकिन
चाह, और
चाह के विपरीत
जो चाह है, उनमें
कोई फर्क नहीं
है।
विरक्ति
का अर्थ यह है
कि न तो हमें
पास होने से
अब फर्क पड़ता
है, न दूर
होने से फर्क
पड़ता है। अब
हम पास हों तो
ठीक, और
दूर हों तो
ठीक। दूर हों
तो याद नहीं
आती, पास
हों तो रस
नहीं आता। न
तो दूर होने
में अब कोई रस
है और न पास
होने में कोई
रस है। तब आप
संबंध के ऊपर
उठे। अगर दूर
होने में रस
है, तो अभी
आसक्ति मौजूद
है--सिर्फ
उलटी हो गयी
है।
तो
बुद्ध ने कहा
है कि
प्रियजनों के
पास होने से
सुख मिलता है; अप्रियजनों के दूर होने
से सुख मिलता
है--लेकिन सुख
दोनों ही हालत
में दूसरे से
मिलता है।
प्रियजन दूर जायें
तो दुख देते
हैं, अप्रियजन पास आयें तो
दुख देते
हैं--लेकिन
दुख दूसरे से
ही मिलता है
दोनों हालत
में।
"प्रिय'
का भी संबंध
है, "अप्रिय'
का भी संबंध
है। विरक्ति
का अर्थ
अप्रिय का पैदा
हो जाना नहीं
है; क्योंकि
अप्रिय एक
संबंध है।
विरक्ति का
अर्थ है, संबंध
ही न रहा, निर्भरता
न रही; पास
हूं कि दूर
हूं, बराबर
है। पास और
दूरी में
रंचमात्र का
फर्क न रह
जाये; निकट
हूं या न निकट
हूं, रंचमात्र
का फर्क न रह
जाये, तो
व्यक्ति
संबंध के ऊपर
गया। अब दूसरा
मूल्यवान
नहीं रहा। अब
मैं अपने लिए
मूल्यवान हूं,
दूसरा अपने
लिए मूल्यवान
है। दूसरे की
आत्मा स्वतंत्र
है, मेरी
आत्मा
स्वतंत्र है।
ऐसी दो
स्वतंत्रताओं
का जन्म जब हो
जाता है, तो
बीच की गुलामी
गिर जाती है।
महावीर कहते
हैं कि सभी
सांसारिक
संबंधों को
छोड़ देता है, अंदर और
बाहर के।
क्योंकि
ध्यान रहे, आप उनसे ही
नहीं बंधे हैं
जिनके पास हैं,
उनसे भी
बंधे हैं
जिनके आप पास
नहीं हैं। जिस
फिल्म
अभिनेत्री को
आप चित्रपट पर,
तस्वीर पर
देख लेते हैं,
उससे भी
बंधे हैं।
उससे कोई
मुलाकात नहीं
है, पहचान
नहीं है, कभी
देखा नहीं है;
तस्वीर
देखी है--उससे
भी बंधे हैं।
सपना देखते
हैं उसका, उससे
भी बंधे हैं।
तो
बाहर के ही
संबंध नहीं है
कि जिस घर में
आप बैठे हैं, जो बच्चा
आपका है, जो
पत्नी आपकी है,
पति आपका है,
पिता-मां
हैं--उनसे ही
आप बंधे हैं, ऐसा नहीं
है। शायद उनका
तो आपको कभी
स्मरण भी नहीं
आता।
ऐसा
पति खोजना
मुश्किल है, जिसको पत्नी
का सपना आता
हो! खोज लें तो
मुझे आप
बताना। पत्नी
का सपना आता
ही नहीं। पति
का भी सपना
नहीं आता।
सपने तो उनके
आते हैं, जिनसे
हमारी वासना
अतृप्त है।
सपने का मतलब
ही अतृप्त
वासना होती
है। जिसको हम
नहीं उपलब्ध
कर पाते, उसका
सपना आता है।
जिसे उपलब्ध
ही कर लिया, उसके सपने
का कोई सवाल
ही नहीं है।
जिसका पेट भरा
है, उसे
रात भोजन के
सपने नहीं
आते। भूखे पेट
आदमी को भोजन
के सपने आते
हैं। जो कमी
है, अभाव
है, उसका
सपना निर्मित
होता है।
तो जो
आपके पास हैं
स्थूल रूप से, जिनसे आप
जुड़े हैं, उनसे
शायद ज्यादा
जोड़ है भी
नहीं। लेकिन
जिनसे आप नहीं
जुड़े हैं, उनसे
आपके सपने
जुड़े हैं और
भीतरी जोड़ है।
एक
परिवार आपके
आसपास दिखाई
पड़ता है, जो
वस्तुतः है।
और एक परिवार
आपके चित्त का
है, जो आप
बना रखे हैं।
जो आप चाहते
हैं कि होता।
जो आपकी कामना
का है।जो
कभी पूरा नहीं
होगा।
क्योंकि पूरा
होते ही वह
आपकी कामना का
नहीं रह
जायेगा। पूरा
होते ही आप दूसरा
परिवार अपने
आसपास बसाने
लगेंगे। तो एक
तो बाहर के
संबंधों का
जाल है और एक
भीतर के संबंधों
का जाल है।
बायरन
अंग्रेज कवि
था, बहुत सी
स्त्रियां
उसके लिए
दीवानी थीं और
पागल थीं। जब
बायरन को
इंगलैंड से
निष्कासित कर दिया
गया, तो
अनेक
स्त्रियों ने
आत्महत्या कर
ली, जिन्होंने
उसे देखा भी
नहीं
था--तस्वीर
देखी थी या
कभी दूर से
किसी
कवि-सम्मेलन
में भीड़ में से
देखा था। वे
अपने निकटतम
पति के लिए
आत्महत्या
करनेवाली
नहीं थी।
लेकिन इस आदमी
से कोई संबंध
नहीं था, किसी
तरह का स्थूल
संबंध नहीं
था--लेकिन मन
के जाल थे।
बायरन को उनका
पता ही नहीं
था, जिन्होंने
उसके लिए
आत्महत्या कर
ली। जो अपने
जीवन को दे
सकते हैं, जरूर
उनके बड़े गहरे
भीतरी संबंध
रहे होंगे, उनके सपनों
में बायरन
समाया रहा
होगा।
बाहर
के संबंध हैं; भीतर के
संबंध हैं। आप
बाहर के संबंध
से भाग सकते
हैं, बहुत
आसान है। क्योंकि
घर से भाग
जाने में कोई
बड़ी अड़चन नहीं
है। लेकिन
भीतर के
संबंधों से
भागकर कहां जाइयेगा? वह तो जब तक
विरक्ति पैदा
न हो जाये, तब
तक भीतर के
संबंध से कोई
भी भाग नहीं
सकता है।
इसलिए साधु हो
जाते हैं लोग,
जंगल में
बैठे जाते हैं,
लेकिन मन की
गृहस्थी जारी
रहती है--और
फैल जाती है
सच तो; और
बड़ी हो जाती
है; और
रसपूर्ण हो
जाती है।
संसार
जितना
रसपूर्ण
अधूरे भागे
साधु को मालूम
पड़ता है, उतना
गृहस्थ को कभी
मालूम नहीं
पड़ता। थोड़े दिन
छोड़कर देखें,
संसार से
थोड़े दिन हटकर
देखें, और
आप पायेंगे कि
सब चीजों में
रस आना शुरू हो
गया।
मुल्ला
नसरुद्दीन
कभी-कभी पहाड़
पर जाता था
एकांतवास के
लिए। कभी अपने
मालिक को कहकर
जाता कि
पंद्रह दिन
बाद लौटूंगा
और पांच दिन
में लौट आता; और कभी कहकर
जाता, पांच
दिन में
लौटूंगा और
पंद्रह दिन
में लौटता। तो
उसके मालिक ने
एक दिन पूछा
कि मामला क्या
है, तुम
छुट्टी
पंद्रह दिन की
मांगते हो, फिर पांच
दिन में लौट
क्यों आते हो?
जब तय ही
करके पंद्रह
दिन का गये, तो तुम्हारा
हिसाब क्या है?
नसरुद्दीन
ने कहा, वह
जरा एक भीतरी
गणित है, आपकी
शायद समझ में
भी न आये।
पहाड़ पर मैंने
एक छोटा बंगला
ले रखा है और
एक बूढ़ी
बदशक्ल औरत को
उसकी देखभाल
के लिए रख
दिया है। और
यह मेरा गणित
है। वह इतनी
बदशक्ल
स्त्री है कि
उसके पास
बैठने का भी
मन नहीं हो
सकता-- दांत
बाहर निकले
हैं, हड्डी-हड्डी
हो गयी है, काफी
बूढ़ी है, कुरूप
है। यह मेरा
नियम है कि जब
मैं पहाड़ पर जाता
हूं, तो एक
दिन, दो
दिन, तीन
दिन, चार
दिन, पांच
दिन--धीरे-धीरे
उस स्त्री में
भी मुझे सौंदर्य
दिखाई पड़ने
लगता है। और
जिस दिन वह
स्त्री मुझे
सुंदर मालूम
पड़ती है, मैं
भाग खड़ा होता
हूं। मैं
समझता हूं बस,
एकांत पूरा
हो गया, अब
यहां रुकना
खतरनाक है।
तो कभी
ऐसा पनदरह
दिन में होता
है, कभी पांच
दिन में हो
जाता है। तो
वह मेरा भीतरी
हिसाब है। वह
स्त्री मेरा
थर्मामीटर
है। जैसे ही
मुझे लगता है
कि इस स्त्री
में भी रस आने
लगा है मुझे, मैं भाग खड़ा
होता हूं।
क्योंकि अब हद
हो गयी! अब
यहां रुकना
खतरे से खाली
नहीं है। और
अब मैं एकांत
नहीं चाह रहा
हूं। तो मैं
वापिस लौट आता
हूं।
आप
अपने भीतर के
संसार का थोड़ा
खयाल करेंगे
तो आपकी समझ
में आ जायेगा।
बाहर की भीड़
में आप भूले
रहते हैं भीतर
के संसार को, लेकिन वह
आपके भीतर है।
वह आपके भीतर
काम करता है।
और भीतर का
संसार भी थोड़ा
समय नहीं
लेता। आदमी
अगर साठ साल जीये तो
बीस साल सोता
है; बीस
साल सपनों में
होता है। बीस
साल थोड़ा वक्त
नहीं है। सच
तो यह है कि
चालीस साल जिस
समय वह जागता
है, उस समय
कितने लोगों
से कितना
संबंध बना
पाता है--अधिक
समय तो भोजन
कमाने में, मकान बनाने
में, व्यवस्था
जुटाने में, दफतर से घर आने और
घर से दफतर
जाने में
व्यतीत हो
जाता है। अगर
हम ठीक से हिसाब
लगायें
तो चालीस साल
में मुश्किल
से चार साल
उसको मिलते
होंगे, जिनमें
वह अपने स्थूल
संबंधों में
डूबता है; लेकिन
बीस साल अपने
सूम संबंधों
में डूबता है,
जो उसके
स्वप्न का जाल
है। वह ज्यादा
उसकी गहरी पकड़
है और ज्यादा
उसे समय और
अवसर है।
और ऐसे
जब आप अपने
स्थूल
संबंधों में
डूबे होते हैं, तब भी भीतर
आपके सूम
संबंध चलते
रहते हैं।
मनोवैज्ञानिक
जानते हैं
हजारों
घटनाओं के
आधार पर कि
पति पत्नी से
संभोग करता
रहता है, तब
भी वह किसी
फिल्म
अभिनेत्री की
धारणा करता रहता
है। पत्नी पति
से संभोग करती
रहती है, लेकिन
मन में किसी
और से संभोग
करती रहती है।
और जब तक उसके
मन में धारणा
न आ जाये उसके
प्रेमी की या
प्रेयसी की, तब तक
पति-पत्नी में
कोई रस-संबंध
निर्मित नहीं
हो पाता।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, बड़ी
अजीब घटना हैः
बाहर का संबंध
बहुत गौण
मालूम पड़ता है
और भीतर के
संबंध बहुत
गहन मालूम
पड़ते हैं।
महावीर
कहते हैं, विरक्त जब
कोई होगा, तो
बाहर और भीतर
के सारे
सांसारिक
संबंध छूट जाते
हैं। एक ढंग
से जैसे जाल
हमें पकड़े
था, वह गिर
जाता है। जैसे
मछली जाल के
बाहर आ जाती है।
लेकिन
अभी तो हम
कामवासना में
इस तरह घिरे
हुए हैं, कामवृत्ति में इस तरह
डूबे हुए हैं
कि हम सोच ही
नहीं सकते
विरक्त आदमी
को क्या रस
होगा। विरक्त
आदमी तो रसहीन
हो
जायेगा--क्योंकि
हम एक ही रस
जानते हैं।
हमारी हालत
वैसी ही है, जैसे नाली
का कीड़ा हो; उसे नाली
में ही रस है।
वह सोच भी
नहीं सकता कि
आकाश में उड़ते
पक्षी क्यों
जीवन व्यर्थ गवां रहे
हैं! नाली में
सारा रस है!
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक व्याख्यान
सुनने गया है।
एक वैज्ञानिक
बोल रहा है।
वह मछलियों के
संबंध में कुछ
समझा रहा है।
और वह कहता है
कि मादा मछलियां
अंडे रख देती
हैं और फिर नर मछलियां
उन अंडों के
ऊपर से गुजरते
हैं और उन
अंडों को वीर्यकण
दे देते हैं, और तब वह
अंडा सजीव हो
जाता है।
तो नसरुद्दीन
बड़ा बेचैन
होता है। आखिर
जब व्याख्यान
खत्म हो जाता
है, वह
पहुंचता है
वैज्ञानिक के
पास और उससे
कहता है, क्या
आपका मतलब है
कि मछलियां
संभोग नहीं
करतीं ?
उस
वैज्ञानिक ने
कहा, आप
बिलकुल ठीक
समझे। मादा
अंडे दे देती
है, पुरुष
अंडों को आकर फर्टिलाइज
कर देता है।
कोई संभोग
नहीं होता।
तो नसरुद्दीन
थोड़ी देर
चिंतित रहा और
फिर उसके
चेहरे पर चमक
आ गयी! उसने
कहा कि नाउ
आइ अंडरस्टैंड, व्हाइ पीपुल
कॉल फिशे
पुअर
फिश--क्यों
लोग मछली को
गरीब मछली
कहते हैं, मैं
समझ गया । यही
कारण है !
वह जो
काम में डूबा
हुआ है, उसके
लिए सारा जीवन
दीन-हीन है
अगर कामवासना
नहीं है। तब
जीवन में कोई
अर्थ नहीं
दिखाई पड़ेगा ।
क्योंकि सारा
अर्थ ही हमारे
जीवन का कामवासना
के आधार पर टिका
हुआ है। हम
सारी चीजों को
तौल ही रहे
हैं एक ही जगह
से।
तो हम
सोच भी नहीं
सकते कि
महावीर का
आनंद क्या हो
सकता है। एक
आनंद ऐसा भी
है, जो किसी
पर निर्भर
नहीं है और
किसी का
मुहताज नहीं
है,और किसी
की मांग नहीं
करता, और
किसी के सामने
भिक्षा का
पात्र नहीं
फैलाता।
एक ऐसा
निज में डूबने
का आनंद भी
है। उसकी हमें
कोई खबर नहीं
है; उसकी खबर
हो भी नहीं
सकती। उसकी
खबर हमें तभी होगी,
जब हमारी
आसक्ति शुद्ध
पीड़ा बन जाये
और हमें दिखाई
पड़ने लगे कि
हम जो भी कर
रहे हैं, वह
सब दुख है। और
यह प्रतीति
इतनी सघन हो
जाये कि यह
प्रतीति ही
हमें उपर उठा
दे।
और एक
क्षण को भी
हमें अनुभव हो
जाये अपने शुद्ध
होने का, जहां
दूसरे की कोई
मौजूदगी नहीं
थी, कल्पना
में भी कोई
दूसरा मौजूद
नहीं था, हम
अकेले
थे--टोटल लोनलीनेस--एकांत
पूरा भीतर
अनुभव हो जाये
एक क्षण को भी,
तो आपने
खुला आकाश जान
लिया। फिर आप
कामवासना के
कारागृह में
लौटने को राजी
नहीं होंगे।
महावीर
कहते हैं, "जब साधक
विरक्त हो
जाता है, तब
अंदर-बाहर के
सभी सांसारिक
संबंधों को
छोड़ देता है।'
"जब
अंदर और बाहर
के समस्त
सांसारिक
संबंधों को
छोड़ देता है, तब दीक्षित
होकर
पूर्णतया अनगार
वृत्ति को प्राप्त
होता है।'
और जब
तक विरक्ति न
हो, तब तक
दीक्षा का कोई
उपाय नहीं है।
दीक्षा का अर्थ
है, उस
विराट में इनिशिएशन
। जब तक आप
संसार से जकड़े
हुए हैं, तब
तक गुरु से
कोई संबंध
नहीं हो सकता;
तब तक गुरु
से कोई
लेना-देना
नहीं है; तब
तक आप गुरु के
पास भी संसार
के लिए ही
जाते हैं।
इसलिए
जो गुरु आपका
संसार बढ़ाता
हुआ मालूम पड़ता
है, आश्वासन
देता है, भरोसा
दिलाता है, उसके पास
बड़ी भीड़
इकट्ठी होदजाती
है। अगर सत्य साइबाबा
जैसे लोगों के
पास लाखों लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं, तो
उसका कुल कारण
इतना ही है कि
सत्य साइबाबा
से किसी विरक्ति
की आशा नहीं
है; आपके
आसक्ति के जाल
को सघन करने
की संभावना है।
किसी को लड़का
चाहिए, किसी
को बीमारी मिटानी
है, किसी
को धन पाना है,
किसी को
लंबी उम्र
पानी है, किसी
को मुकदमा
जीतना है-- वे
सारे लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं।
जिस
साधु के पास
ज्यादा भीड़
मालूम पड़े, समझ लेना कि
जरूर उस साधु
के पास संसार
की घटना घट
रही है।
अन्यथा साधु
के पास ज्यादा
भीड़ नहीं हो
सकती; होनी
मुश्किल है।
इस विराट
संसार में
बहुत थोड़े से
लोग हैं, जो
विरक्त हैं।
वे ही लोग
साधु के पास
हो सकते हैं--चूजॅन फयू।
बहुत चुने हुए
लोगों का
मामला है। गुरु
के पास आना
बहुत थोड़े से
लोगों का
मामला है--करोड़ों
में एक!
लेकिन
जिस गुरु के
पास एक को
छोड़कर पूरा करोड़
पहुंच जाता हो, समझना कि
वहां गुरु
मूल्यवान
नहीं है, वहां
इस भीड़ में
इकट्ठे हुए
लोगों की
वासना मूल्यवान
है। इतनी बड़ी
भीड़ विरक्त
नहीं है, नहीं
तो यह संसार
दूसरा हो
जाये। इतनी
बड़ी भीड़ गहरी
तरह से आसक्त
है--इसकी
आसक्ति में
कोई भी सहारा
देता हो ।
मेरे
पास मित्र आते
हैं--भले, शुभ,
चाहक--वे
मुझसे कहते
हैं कि आप कब
तक थोड़े से लाोगों
को समझाते
रहेंगे। आप
कोई चमत्कार
क्यों नहीं
दिखाते कि
लाखों लोग आ
जायें।
मगर जो
लाखों लोग
चमत्कार के
कारण आते हैं, उनसे मेरा
कोई संबंध
नहीं जुड़ सकता;
उनसे मेरा
कोई लेना-देना
नहीं है। वे
मेरे लिए आ ही
नहीं रहे हैं।
वे किसी और
वासना से
पीड़ित होकर आ
रहे हैं। उनका
इनिशिएशन,
उनकी
दीक्षा नहीं
हो सकती। भीड़
दीक्षित नहीं हो
सकती। बहुत
चुने हुए लोग,
जिनके जीवन
का अनुभव
परिपक्व हुआ
है और जिन्होंने
अपने अनुभव से
जाना है कि
व्यर्थ है सब
कुछ जो हम कर
रहे हैं, जिनको
यह दिखाई पड़
जाता है कि
जहां हम हैं
वहां
व्यर्थता है,
वे ही उस
यात्रा पर
निकलने की
चेष्टा करते
हैं जहां
सार्थक का
जन्म हो सके।
दीक्षा
का अर्थ है, इनिशिएशन का अर्थ हैः
यह संसार
व्यर्थ हुआ, अब हमारी
चेतना किस
आयाम में
प्रवेश करे? ऐसे लोग
द्वार खोजते
हैं। तभी गुरु
ऐसे लोगों को
द्वार दिखा
सकता है।
आप
मंदिर में भी
जाते हैं, गुरु के पास
भी जाते हैं, तो कुछ
मांगने जाते
हैं, कुछ
होने नहीं
जाते; चाहते
हैं अदालत में
मुकदमा जीत
जायें; टी्रबी्र हो गया, कैन्सर
हो गया--दूर हो
जाये। कुछ
संसार का
हिस्सा आपका
अधूरा लग रहा
है, वह
गुरु पूरा कर
दे। और जो
गुरु आपके
संसार के हिस्से
को पूरा करता
है या करता
हुआ दिखाने का
धोखा देता है,
वह आपका
मित्र नहीं है,
वह आपका
शत्रु है!
क्योंकि वह
जीवन में आपको
धक्का दे रहा
है--उसी संसार
में। जहां से
शायद कैन्सर
आपको उबा
देता। उसका
चमत्कार वापस
लौटा रहा है।
जहां शायद टी्रबी्र
आपको कह देती
कि शरीर
व्यर्थ है और सड़ा हुआ है,
और इसके पार
होना उचित है,
वहां उसका
चमत्कार आपको
शरीर में वापस
भेज रहा है।
चमत्कारी
गुरु धर्म की
तरफ नहीं ले
जाते, वे
संसार के ही
एजेंट हैं।
लेकिन उसमें
एक सुविधा है,
म्युचुऍ?ल संबंध है।
क्योंकि
जितनी बड़ी भीड़
इकट्ठी होती
है, उतना
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है गुरु के।
लगता है मैं
कुछ हूं। और
भीड़ इकट्ठी
करनी हो तो भीड़
सिर्फ
चमत्कार से
इकट्ठी होती
है।
ज्ञान
से किसी को
प्रयोजन नहीं
है; महात्मा
से किसी का
संबंध नहीं है,
मदारी की
मांग है। और
जब महात्मा के
वेश में मदारी
दिखता है, तो
आपकी आत्मा को
बड़ी तृप्ति
होती है।
क्योंकि आशा बंधती है
कि जो-जो हम
नहीं कर पाये,
शायद इस आदमी
की कृपा से हो
जाये।
एक भी
ऐसा
राजनीतिज्ञ
नहीं है
दिल्ली में, जो किसी न
किसी महात्मा
के चरणों में
जाकर न बैठता
हो। और जो
हारे हुए
राजनीतिज्ञ
हैं, वे तो
अनिवार्य रूप
से महात्माओं
के पास मिलेंगे।
अगले इलेक्शन
की वे तैयारी
कर रहे हैं
महात्मा के
द्वारा--आशा!
और महात्मा कह
रहा है कि मत घबड़ाओ, सब
हो जायेगा।
जरूरी नहीं है
कि महात्मा
कुछ करता हो।
जब कहा जाता
है, सब हो
जायेगा--सौ
आदमियों से
कहो, पचास
को तो हो ही
जाता है। न
कहते तो भी हो
जाता!
यह
महात्मा का
काम ऐसा है, जैसा
इंगलैंड में
वे कहते हैं
कि सद-जुकाम
का अगर इलाज
करो, तो
सात दिन में
ठीक हो जाता
है; और अगर
इलाज न करो, तो एक
सप्ताह में
ठीक हो जाता
है।
एक
सप्ताह में
ठीक हो ही
जाता है। सवाल
यह नहीं है कि
आप इलाज करो
कि न करो। अगर
मेरे पास सौ लोग
आयें बीमार और
उनको मैं कहूं
कि आशीर्वाद, जाओ, ठीक
हो
जाओगे--पचास तो
होते ही हैं।
इससे मेरा कोई
लेना-देना
नहीं है। वे
कहीं भी न
जाते, तो
भी होते।
जिंदगी
में आदमी
हजारों दफे
बीमार पड़ता है, तब मरता है।
कोई पहली
बीमारी में तो
कोई मरता हुआ
देखा नहीं
जाता। उन्हीं
हजारों
बीमारियों पर
जिनसे आप ठीक
होते चले जाते
हैं, महात्मा
जीते हैं।
मुकदमे
में जब लोग
लड़ते हैं, तो कोई न कोई
जीतता ही है।
और अकसर तो
ऐसा हो जाता
है कि एक ही
महात्मा के
पास दोनों पाट
पहुंच जाती
हैं। और वे
दोनों को
आशीर्वाद दे
देते हैं!
मेरे
एक मित्र
ज्योतिषी
हैं। और जब सुब्बाराव
राषटरपति
के लिए खड़े
हुए, तो मेरे
वे मित्र सुब्बाराव
और जाकिर हुसेन
दोनों के पास
गये। और जाकिर
हुसेन को
भी कह आये कि
आपकी जीत
सुनिश्चित है,
यह ज्योतिष
में साफ है; सुब्बाराव को भी कह आये
कि आपकी जीत
सुनिश्चित है,
यह ज्योतिष
से साफ है। और
दोनों से
लिखवा लाये कि
यह
भविष्यवाणी
मैं कर रहा
हूं, आप लिखित
दें।
सुब्बाराव
हार गये, उनका
लिखा हुआ फाड़कर
फेंक दिया।
फिर जाकिर हुसेन
के पास गये और
कहा कि
देखिये! और
जाकिर हुसेन
ने कहा कि
आपकी
भविष्यवाणी
बिलकुल सच
निकली, आप
महान
ज्योतिषी हैं!
सर्टिफिकेट
लिखकर दिया, साथ में
फोटो उतरवायी।
अब सुब्बाराव
तो उनका कोई पता
लगाते फिरेंगे
नहीं। जो हार
गया वह तो
फिक्र ही नहीं
करता।
वे उस
दिन से महान
ज्योतिषी हो
गये हैं। उनके
पास
मिनिस्टरों
ने आना जाना
शुरू कर दिया
है। क्योंकि
जो आदमी राषटरपति
को घोषणा कर देऔर उनके
पास
सर्टिफिकेट
है, फोटो
है--सब प्रमाण
है। लेकिन
भीतरी राज किसी
को पता नहीं
है कि वे
दोनों को जाकर
घोषणा कर आये।
लेकिन
वासनाओं से
भरा हुआ आदमी
उसकी पूर्ति की
तलाश कर रहा
है। वह साधना
के माध्यम से
भी वासना को
ही खोजता है।
ऐसा व्यक्ति
दीक्षित नहीं
हो सकता। तो
महावीर कहते
हैं, अंदर-बाहर
के समस्त
सांसारिक
संबंध जब छूट
जाते हैं, तब
कोई दीक्षित
हो सकता है।
और दीक्षित
होकर पूर्णतया
अनगार
वृत्ति को
प्राप्त होता
है।
अनगार
वृत्ति का
अर्थ है : इस
जगत में मेरा
कोई घर नहीं
है, मैं अगृही
हूं। यह जगत
घर नहीं
है--ऐसी
वृत्ति का
नाम--दिस वर्ल्ड
इ नॉट द होम।
यह संसार जो
दिखाई पड़ रहा है,
यह घर नहीं
है। यहां मैं
बेघरबार हूं।
मेरा घर कहीं
और है। चेतना
के किसी लोक
में मेरा घर
है। और यहां
जब तक मैं घर
खोज रहा हूं
और घर बना रहा
हूं, तब तक
मैं व्यर्थ
समय नष्ट कर
रहा हूं। यहां
मैं विदेशी
हूं। यहां मैं
एक अजनबी हूं,
एक आउट साइडर
हूं। यह
यात्रा है, मंजिल नहीं
है।
महावीर
कहते हैं, जब कोई
पूर्ण साधक
होकर दीक्षित
होता है किसी गुरु
के माध्यम से,
उस द्वार को
खटखटाता है
जहां से असली
घर खुलेगा।
लेकिन वह तभी
उस द्वार को
खटखटा सकता है,
जब यहां से अनगार
वृत्ति हो
जाये, इस
जगत में घर
खोजने की
धारणा
खो
जाये। इस जगत
में जो घर खोज
रहे हैं, वे
तो नया शरीर
खोजते चले
जायेंगे। वे जन्मेंगे,
फिर
मरेंगे--जन्मेंगे,
फिर मरेंगे
और घर को
खोजते
रहेंगे।
इस जगत
में दो तरह के
लोग हैं--वे जो
यहां घर खोज रहे
हैं, और वे जो
यहां घर नहीं
खोज रहे हैं।
जो यहां घर नहीं
खोज रहा है, वह अनगार
हो गया है। और अनगार
होकर यह
पात्रता
मिलती है कि
दूसरा, असली
घर खोजा जा
सके। वह भीतर
है, वह
बाहर नहीं है।
उसे बनाने की
भी कोई जरूरत
नहीं है, वह
मौजूद है। वह
मेरे जीवन का
मूल उत्स और
स्त्रोत है।
उसे कहीं भी
पाने जाने का
कोई सवाल नहीं
है। वह सदा से
मौजूद है, सिर्फ
मैं भीतर मुडूं।
दीक्षा
का अर्थ है, वह व्यक्ति,
वह गुरु जो
तुम्हें भीतर
मोड़ दे।
"जब
दीक्षित होकर
कोई अनगार
वृत्ति को
प्राप्त करता
है, तब
साधक
उत्कृष्ट
संवर एवं
अनुत्तर धर्म
का स्पर्श
करता है।'
एक तो
धर्म है जिसे
हम शास्त्रों
से सुनते हैं, सदगुरुओं से सुनते
हैं, जो
प्रचलित है।
वह साधारण
धर्म है। और
जब कोई व्यक्ति
दीक्षित होकर
भीतर जाता है
तो अनुत्तर
धर्म का
स्पर्श करता
है। तो उसे
वास्तविक धर्म
की खबर मिलती
है। इसे हम
ऐसा समझें, वह साधारण
धर्म भी, जो
बाहर हमें
दिखाई पड़ता
है--चर्च है, मंदिर है, गुरुद्वारा
है, मस्जिद
है, कुरान
है, बाइबिल
है, गीता
है, महावीर-बुद्ध
के वचन हैं, सदगुरु हैं, जो
कह रहे हैं, बोल रहे
हैं। यह कितना
ही सही हो तो
भी मूल नहीं
है--मूल से
थोड़ा हटकर है,
सेकेंड
हैंड है।
और कुछ
भी कहें--वह जो
सेकेंड हैंड
है, वह जीवन
में क्रांति
नहीं ला सकता।
और उससे आप
अपने को
समझाने की
कोशिश मत
करना। लोग हैं,
जो अपने को
समझा लेते
हैं।
एक
मित्र मुझसे
आकर कह रहे थे, मुझसे आकर
बोले कि, "आइ
हैव परचेज्ड
ए ब्रैंड
न्यू सेकेंड
हैंड कार।'
ब्रैंड
न्यू सेकेंड
हैंड कार!
बिलकुल नयी
सेकेंड हैंड
गाड़ी खरीदी
है। अब सेकेंड
हैंड गाड़ी
बिलकुल नयी
कैसे हो सकती
है।
लेकिन
आप महावीर के
वचन कितने ही
समझ लें, कृष्ण
को कितना ही
पी जायें, वे
सेकेंड हैंड
हैं। उनसे
वास्तविक
धर्म का संबंध
नहीं हो रहा
है। वास्तविक
धर्म की खबर
मिल रही
है--संबंध
नहीं हो रहा
है। वास्तविक
धर्म की तरफ
से चुनौती, निमंत्रण
मिल रहा
है--संबंध
नहीं हो रहा
है। यात्रा
करनी पड़ेगी।
तो
महावीर कहते
हैं, जब कोई
दीक्षित होकर
भीतर प्रवेश
करता है, तब
अनुत्तर
धर्म--शुद्ध, वास्तविक, मौलिक, निज
का धर्म अनुभव
होता है।
"जब
साधक
उत्कृष्ट
संवर एवं
अनुत्तर धर्म
का स्पर्श
करता है, तब
अंतरात्मा पर
से अज्ञानकालिमाजन्य
कर्म-मल सब झड़
जाते हैं।'
"जब
अंतरात्मा से अज्ञानकालिमाजन्य
कर्म-मल दूर
हो जाता है, तब सर्वत्रगामी,
केवलज्ञान और केवलदर्शन
प्राप्त होता
है।'
इसे
थोड़ा समझ लें।
महावीर और सभी
जाननेवालों
की यह दृष्टि
है कि आपकी
अंतरात्मा शुद्ध
ज्ञान है--प्योर
नोइंग।
अगर आपको उस
शुद्ध ज्ञान
का पता नहीं
चल रहा है, तो उसका
कारण है कि
आपके आसपास
बहुत से
कर्मों का जाल
है। जैसे एक
दीया जल रहा
है, एक
लालटेन जली है
और कांच पर
कालिमा है, तो प्रकाश
बाहर नहीं आता;
अंधेरा है
कमरे में।
दीया जल रहा
है और कमरे
में अंधेरा
है। लेकिन
अंधेरे का
कारण यह नहीं
है कि भीतर
ज्योति नहीं
है। अंधेरे का
कुल कारण इतना
है कि ज्योति
बाहर आ सके, इसके बीच
में बाधाएं
हैं।
तो
धर्म सिर्फ
बाधाओं को अलग
करने का नाम
है। भीतर
ज्योति जली
हुई है, सिर्फ
बाधाएं गिर
जायें। वह जो
लैम्प के कांच
पर जम गयी
कालिख है, काजल
है, वह हट
जाये तो
प्रकाश प्रगट
हो जाये।
प्रकाश को
किसी से
मांगने नहीं
जाना है, उसे
आप लेकर
ही
पैदा हुए हैं, वही आप हैं।
वह आपका
स्वरूप है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, जब कोई
अनुत्तर धर्म
से संस्पर्शित
होता है जब
भीतर की निजता
का स्वभाव समझ
में आता है और
जब भीतर के
जीवन की वास्तविकता
प्रतीत होती
है, और जब
भीतर का
स्पर्श और
स्वाद मिलता
है, तो
सारे कर्म की
जो कालिमा है
चारों तरफ से,
वह गिर जाती
है। वह इसीलिए
थी कि हमें
भीतर का कोई
स्वाद न
था--इसलिए
बाहर के स्वाद
की तड़प
थी। और उसके
लिए हमने सारे
कर्मों का जाल
निर्मित किया
था। वह इसीलिए
थी कि भीतर का
आनंद जाना
नहीं--इसलिए बाहर
के सुख की दौड़
थी। उस दौड़
में हमने
बड़ी-बड़ी
दीवालें खड़ी
कर ली थीं। उस
दौड़ के लिए
हमने बड़े
साधन-सामग्री
जुटा ली थी।
वही सारे
सामग्री-साधन
हमारे चारों
तरफ घिर गये
थे और हम भीतर
अंधेरे में
बंद हो गये
थे। रोशनी कहीं
दिखाई नहीं
पड़ती थी, और
रोशनी सदा
भीतर मौजूद
थी।
यह जो
भीतर की रोशनी
है, इसको
महावीर कहते
हैं कि जैसे
ही कर्म-मल झड़
जाते हैं, सर्वत्रगामी केवलज्ञान
और केवलदर्शन
प्राप्त होता
है। और तब सब
दिशाओं में
जानेवाला प्रकाश
उपलब्ध हो
जाता है। तब
कोई दिशा
अंधेरी नहीं
रह जाती। और
तब कोई कोना
अज्ञान से भरा
नहीं रह जाता।
तब जीवन पूरा प्रकाशोज्वल
हो जाता है।
तब पूरा जीवन
एक सूर्य बन
जाता है।
ऐसा
महावीर किसी
सिद्धांत के
कारण नहीं कह
रहे हैं।
महावीर कोई
दार्शनिक
नहीं हैं, कोई फिलासफर
नहीं हैं। यह
उनकी कोई हाइपोथिसिस,
कोई
परिकल्पना
नहीं है। ऐसा
महावीर अपने
निज के अनुभव
से कह रहे
हैं। वे एक
यात्री हैं, जो उसी
रास्ते से
गुजरे हैं, जहां से आप
गुजर रहे हैं।
लेकिन ऐसे
यात्री हैं, जो मंजिल पर
पहुंच गये हैं
और जो अपने पीछेवाले
लोगों को कह
रहे हैं कि
जिस यात्रा पर
तुम चल रहे हो
उसमें वर्तुल
में मत घूमते
रहना, नहीं
तो तुम कहीं
पहुंच न पाओगे,
घूमते ही
रहोगे। सीधी
रेखा पकड़ना।
और सीधी रेखा पकड़ने के
सूत्र दे रहे
हैं। और मंजिल
दूर नहीं है।
अगर
आसक्ति का
वर्तुल टूट
जाये, तो
मंजिल बहुत
निकट है। और
आसक्ति का
वर्तुल न टूटे,
तो मंजिल
निकट होकर भी
बहुत दूर है।
आप ऐसा
समझिए कि इस
कमरे में हम
एक गोल घेरा
खींच दें और
आप उस गोल
घेरे में
घूमते रहें,घूमते
रहें--कमरे से
बाहर जाना है
और घूमते रहें,
घूमते
रहें--और कोई
आपको कहे कि
कितना ही चलो,
इससे आप
कहीं पहुंच न
पाओगे। लेकिन
आप कहोगे कि
चलने से आदमी
पहुंचता है।
अगर मैं नहीं
पहुंच पा रहा
हूं, तो
उसका मतलब है
कि मैं ठीक से
नहीं चल रहा
हूं। वह आदमी
कहेगा, आप
ठीक से भी चलो,
तो भी जिस
रेखा-पथ पर आप
चल रहे हो, ठीक
से चलकर भी
नहीं पहुंच
पाओगे। तो
आपको उसकी बात
समझ में नहीं
आयेगी। आप
कहोगे, यह
हो सकता है कि
ठीक से चलकर
भी न पहुंच पाऊं,
क्योंकि
मेरी चाल की
गति धीमी है।
तो मुझे दौड़ना
चाहिए। तो अगर
मैं दौडूंगा
तो जरूर पहुंच
जाऊंगा--क्योंकि
ऐसी कोई भी
मंजिल हो, कितनी
ही दूर हो, आखिर
दौड़ने से मिल
ही जायेगी। वह
आदमी आपसे कहे
कि आप दौड़ो,
तो भी नहीं
पहुंचोगे, सिर्फ
थककर
गिरोगे।
क्योंकि जिस
वर्तुल में आप
चल रहे हो, वह
वर्तुल बाहर
जाता ही नहीं
है। इस वर्तुल
को छोड़ो, दरवाजे को
देखो और
दरवाजे से
बाहर निकलने
की कोशिश
करो--तो इतना
चलने की जरूरत
नहीं है, दरवाजा
बहुत निकट है।
आपका
वर्तुल कई बार
दरवाजे के
करीब से ही
जाता है। बिलकुल
दरवाजे के
करीब
से--लेकिन आप
अपने वर्तुल में
मुड़ जाते हैं।
कितनी बार
आपकी आसक्ति
आपको विरक्ति
के करीब नहीं
ले आती। कितनी
बार आपका जीवन
आपको आत्मघात
के करीब नहीं
ले आता! और कितनी
बार संसार
व्यर्थ नहीं
होने लगता, लेकिन
व्यर्थ होते
ही होते आप
फिर मुड़ जाते
हैं। नयी
आसक्ति और
वर्तुल फिर
वापस निर्मित
हो जाता है।
दरवाजा बहुत
बार करीब आता
है, लेकिन
छूट जाता है।
यह
होता रहेगा।
महावीर इसलिए
विरक्त के लिए
ही कहते हैं
कि द्वार खुल
सकता है।
आसक्ति जिसे
व्यर्थ हुई
अनुभव से, वह विरक्त।
जो विरक्त हुआ,
वह अब द्वार
खोजेगा नया।
इस संसार में
जिसका कोई घर
न रहा, वह
हुआ अनगार,
अगृही। अब वह असली
घर की खोज में
लगेगा। यह खोज
दीक्षा बन
सकती है।
तो
जिन्होंने वह
घर पा लिया है, जो उस घर में
प्रवेश कर गये
हैं--अब वह
उनकी आवाज
समझने की
कोशिश करेगा,
उनके
इशारे।
और जो
व्यक्ति
दीक्षित हो
जाता है, उसे
अनुत्तर धर्म
का अनुभव शुरू
होता है। महावीर
धर्म का अर्थ
करते हैं
"स्वभाव'।
महावीर कहते
हैं जैसे आग
का स्वभाव है
उष्णता और जल
का स्वभाव है
नीचे की तरफ
बहना, ऐसे
ही प्रत्येक
आत्मा का
स्वभाव है,ज्ञान,
बोध, बुद्धत्व।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति भीतर मुड़ता है, इस ज्ञान की
किरणें उसे
घेर लेती हैं।
और इस ज्ञान
की किरणों का
अनुभव
अनुत्तर धर्म
का, कभी न
जाने गये धर्म
का अनुभव है।
दूसरों ने जाना
है, आपने
कभी नहीं जाना
है। आपके लिए
नयी घटना है, एक मौलिक
घटना है। और
यह कोई उधार
बात नहीं है
अब। अब आपको
गीता और कुरान
और बाइबिल में
खोजने की
जरूरत नहीं
है। अब आपको
वह मिल गया है,
जो जीसस को
पता था, कृष्ण
को पता था, मुहम्मद
को पता था। अब
आप वहां खड़े
हैं, जहां
खड़े होनेवालों
ने बोला है, और बोलकर
नंबर दो के, द्वितीय
मूल्य के
शास्त्र
निर्मित हुए
हैं।
महावीर
कहते हैं, शास्त्र
प्रतिध्वनि
है, मूल
नहीं। और जब
कोई व्यक्ति
अपने भीतर
प्रवेश करता
है, तो मूल
में प्रवेश
करता है। इस
व्यक्ति से प्रतिध्वनियां
होंगी, वे
शास्त्र बन
जायेंगे। और
जो लोग प्रतिध्वनियां
को ही सब कुछ
समझकर जी लेते
हैं, वे
भटक जाते हैं।
मूल की
खोज जरूरी है।
गीता पढ़कर, कृष्ण कहां
थे, उस जगह
की खोज करनी
चाहिए।
महावीर को
सुनकर, अंधे
की तरह महावीर
को मान लेने
की जरूरत नहीं
है। महावीर
कहां थे, उस
जगह की खोज की
जरूरत है।
मोहम्मद को
सुनकर मुसलमान
बनने से कुछ
भी न होगा, मुहम्मद
बनना पड़ेगा।
दुनिया
में मुसलमान
बहुत हैं, जैनी बहुत
हैं, हिंदू
बहुत हैं, ईसाई
बहुत
हैं--उनसे कुछ
भी नहीं होता।
क्राइस्ट को
सुनकर क्रिस्चियन
बनना धोखा है,
क्राइस्ट
बनने की जरूरत
है। तो
अनुत्तर धर्म उपलब्ध
होगा। लेकिन
कोई क्राइस्ट
नहीं बनना चाहता।
क्रिस्चियन
बनने में
सुविधा है, क्योंकि क्रिस्चियन
बनने में सारी
जिम्मेवारी
क्राइस्ट पर
है, हम तो
सिर्फ पीछे चल
रहे हैं। अगर
भटके तो तुम जिम्मेवार।
और क्रिस्चियन
को बड़ी
सुविधाएं है
जीवन में--कुछ
बदलना नहीं पड़ता।
क्रिस्चियन
को क्राइस्ट
को मानने तक
की जरूरत नहीं
है। जैन को
कहां महावीर
को मानने की
जरूरत है!
सिर्फ इतना
मानने की
जरूरत है कि
हम मानते हैं।
और कुछ करने
की जरूरत नहीं
है। एक
रत्तीभर बात
मानने की
जरूरत नहीं
हैं।
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है, तब बायन्ड
विन इंगलैंड
का
प्रधानमंत्री
था। बायन्ड
विन
निष्ठावान क्रिस्चियन
था और रसेल ने
मजाक में लिखा
है कि बायन्ड
विन
निष्ठावान क्रिस्चियन
है, हर
रविवार चर्च
में मौजूद
होता
है--प्रधानमंत्री
हो जाने के
बाद भी। रोज
बाइबिल पढ़कर
सोता है।
लेकिन, ध्यान
रखना, कोई
जाकर बायन्ड
विन को चांटा
मत मार देना।
हालांकि जीसस
ने कहा है कि
जो चांटा मारे,
उसके सामने
तुम दूसरा गाल
कर देना। बायन्ड
विन नहीं
करेगा तब तुम
भूल में पड़ोगे।
वह
मजाक कर रहा
है। वह यह कह
रहा है कि
चर्च में जाने
से क्या होगा!
बाइबिल पढ़ने
से क्या होगा! बाइन्ड
विन को भी अगर
चांटा मारोगे
तो दिक्कत में
पड़ जाओगे। वह
गाल आगे नहीं
करनेवाला है
दूसरा!
क्राइस्ट
होना एक बात
है, क्रिस्चियन होना एक बात
है। क्रिस्चियन
होना शायद खुद
को धोखा देना
है, आत्मवंचना है। अगर
महावीर से
प्रेम ही है, तो जिन होने
की कोशिश करनी
चाहिए, जैन
होने की नहीं।
अगर महावीर से
प्रेम ही है, तो महावीर
जहां है, वहां
पहुंचने की
चेष्टा करनी
चाहिए।
महावीर
कहते हैं कि
जो व्यक्ति
भीतर के धर्म
का स्पर्श कर
लेता है, उसके
सारे कर्म-मल
गिर जाते हैं।
कुछ करना नहीं
होता। जैसे
यहां कोई
रोशनी जला दे,
तो अंधेरा
समाप्त हो
जायेगा। ऐसे
ही भीतर की रोशनी
जलते ही जीवन
का सारा
अंधेरा गिर
जाता है। उस
अंधेरे में
जितने उपद्रव
हमने पाले थे,
वे भी गिर
जाते हैं। जो
भय, जो
आसक्तियां, जो मोह
बनाये थे
अंधेरे के
कारण, अंधेरे
के गिरते ही
खो जाते हैं।
जैसे
इस कमरे में
अंधेरा हो, और आप डरते
हैं कि पता
नहीं कमरे में
कोई छिपा न
हो। तो भय है।
या आप सोचते
हैं कि मेरी
प्रेयसी इस
कमरे के भीतर
होगी, तो
आप अंधेरे में
बड़े रस से टटोलकर
खोज रहे हैं।
फिर रोशनी हो
जाये, वहां
कोई भी नहीं
है। तो भय भी
खो गया, प्रेम
भी खो गया और
अंधेरा भी चला
गया। हमने अंधेरे
में जी-जीकर
संसार के जो
भी संबंध
बनाये हुए हैं,
वे ऐसे ही
हैं। जिस दिन
भीतर की रोशनी
होती
है--अंधेरा भी
खो जाता है, वे सारे
संबंध और
कर्मों का जाल
भी गिर जाता है।
महावीर
कहते हैं, उस दिन सब
दिशाओं को
आलोकित
करनेवाला
प्रकाश जन्मता
है। वही सिद्ध
की अवस्था है।
उसे महावीर ने
केवलज्ञान
कहा है। वह
परम निर्वाण,
परम मुक्त
चेतना का
अनुभव है।
जहां सिर्फ
ज्ञान ही रह
जाता है। जहां
सिर्फ प्रकाश
ही रह जाता
है। कोई चीज
प्रकाशित भी
नहीं रह जाती,
सिर्फ
शुद्ध प्रकाश
रह जाता है।
और अनंत आयामों
तक प्रकाश फैल
जाता
है--जिसके लिए
कोई बाधा नहीं
रहती।
निर्बाध
प्रकाश का
सागर।
लेकिन
विरक्ति से
शुरुआत है
यात्रा की और
निर्बाध
प्रकाश के
सागर पर अंत
है।
जो
विरक्ति में
कच्चा है, वह यहां तक
कभी भी नहीं
पहुंच
पायेगा। पहला
कदम ही जिसका
भटक गया है, उसकी मंजिल
कभी आनेवाली
नहीं है। और
जो उधार धर्म
को ही लेकर चल
रहा है, वह
भी कभी सत्य
तक नहीं पहुंच
पायेगा। धर्म
प्रतिध्वनि
है जाननेवालों
की। मगर हमारी
बड़ी अजीब हालत
है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
बैठा है एक
रेलवे स्टेशन
के
विश्रामालय
में। उसका
मित्र पण्डित
रामशरण
दास उसके पास
ही अखबार पढ़
रहा है। नसरुद्दीन
कहता है, "पण्डित
जी, कागज
तो नहीं है?'
वह
अपने खीसे से बिना
आंख उठाये एक
कागज निकालकर नसरुद्दीन
को दे देता
है।
फिर
थोड़ी देर बाद नसरुद्दीन
कहता है, "पण्डित
जी, कलम तो
नहीं है?'
तो वह
एक कलम
निकालकर अपने
खीसे से दे
देता है।
नसरुद्दीन
कुछ लिखता है; फिर कहता है,
"लिफाफा?'
तो पण्डित
रामशरण
दास लिफाफा दे
देते हैं।
फिर वह
लिफाफा में
रखकर कहता है, "स्टैम्प?'
तो वे
क्रोध में
अपनी डायरी
खोलकर
स्टैम्प निकालकर
दे देते हैं।
तो वह स्टैम्प
लगा देता है।
फिर वह कहता
है, "पण्डित जी, व्हाट
इज दि ऐड्रेस
आफ योर
गर्ल फ्रेन्ड--तुम्हारी
प्रेयसी का
पता क्या है?'
वे
चिट्ठी लिख
रहे हैं। कागज
भी उधार, कलम
भी उधार, लिफाफा
भी उधार, स्टैम्प
भी उधार। यहां
तक भी ठीक। वह
प्रेयसी भी
उनकी नहीं है,
जिसको वे
पत्र लिख रहे
हैं। वह भी पण्डित
जी की
प्रेयसी! और
उनकी प्रेयसी
का पता पूछ रहे
हैं।
करीब-करीब
हमारी जिंदगी
ऐसी ही उधार
है।
परमात्मा
को भी चिट्ठी लिखते
हैं, तो वह
परमात्मा
शंकर का, नागार्जुन
का, वसुबंधु का। मोक्ष
को चिट्ठी
लिखने की
कोशिश करते
हैं, वह
मोक्ष महावीर
का, बुद्ध
का। ब्रह्म की
कुछ खोज-खबर
लेते हैं--तो वह
ब्रह्म कृष्ण
का!
किसी
और का हमेशा!
प्रेयसी
भी अपनी न हो, तो पत्र
लिखना व्यर्थ
है। परमात्मा
अपना न हो, तो
सारी
प्रार्थनाएं
व्यर्थ हो
जाती हैं। इसे
स्मरण जो
व्यक्ति रखता
है, आज
नहीं कल उधार
से बच जाता है,
और अपने
निज-परमात्मा
की खोज करने
लगता है। और
जिस दिन खोज
निज होती है, उसका आनंद
ही और है।
क्योंकि तभी
उदघाटन होना शुरू
होता है!
अंधेरे से प्रकाश
की तरफ, मृत्यु
से अमृत की
तरफ यात्रा
शुरू होती है।
आज इतना
ही।
पांच
मिनट रुकें; कीर्तन
करें।
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