प्रश्न—सार
1—अहंकार
साथ है;
कैसे समर्पण
करूं?
2—आप चेतना के
शिखर है,
इसलिए आप उत्सव
मना सकते है, लेकिन एक
साधारण आदमी
कैसे उत्सव
मना पायेगा?
3—कई बार
संवेदनशीलता
के साथ
नकारात्मक
भाव क्यों
उठते है?
4—संवेदनशीलता
मुझे इंद्रिय—लोलुपता
और भोगासक्ति
में ले जाती
है।
पहला
प्रश्न:
आपने
कल कहां कि
समर्पण घटता
है जब कहीं
कोई अहंकार
नहीं होता
लेकिन हम तो अहंकार
के साथ ही
जीते हैं।
कैसे हम
समर्पण में
उतर सकते हैं?
अहंकार
ही हो तुम।
तुम समर्पण की
ओर नहीं बढ़
सकते, तुम ही
हो बाधा, इसलिए
जो कुछ तुम
करते हो वह
गलत होगा। तुम
इस विषय में
कुछ नहीं कर
सकते।
तुम्हें तो बस,
बिन कुछ किए
ही, सजग
रहना है। यह
है भीतरी
संरचना: जो
कुछ भी तुम
करते हो वह
अहंकार
द्वारा ही किया
जाता है; और
जब कभी तुम
कुछ नहीं करते
और केवल
साक्षी बने
रहते हो, तब
तुम्हारा अहंकारशून्य
हिस्सा काम
करने लगता है।
तुम्हारे
भीतर साक्षी
है निरहंकारिता,
और कर्ता है
अहंकार। बिना
कुछ किये
अहंकार
अस्तित्व
नहीं रख सकता।
यदि तुम
समर्पण करने
को भी कुछ
करते हो, तो
उससे अहंकार
ही मजबूत होगा।
और तुम्हारा
समर्पण फिर एक
बहुत सूक्ष्म अहंकारयुक्त
दृष्टिकोण बन
जाएगा। तुम
कहोगे, 'मैंने
समर्पण कर
दिया।’ तुम
'दावा
करोगे समर्पण
का, और यदि
कोई कहे कि यह
बात सच नहीं, तो तुम
क्रोध अनुभव
करोगे, आघात
अनुभव करोगे।
अहंकार अब भी
वहा मौजूद
रहता है, समर्पण
करने की कोशिश
करता हुआ।
अहंकार कुछ भी
कर सकता है; केवल एक चीज
जो अहंकार
नहीं कर सकता,
वह है
अक्रिया, साक्षीभाव।
तो
जरा बैठना
चुपचाप, देखना
कर्ता को और
किसी भी ढंग
से जोड़—तोड़
करने की कोशिश
मत करना। जिस
क्षण तुम
होशियारी से
गणित बैठाना
शुरू कर देते
हो, अहंकार
वापस आ चुका
होता है। कुछ
नहीं किया जा
सकता है उसके
लिए; व्यक्ति
को बस साक्षी
बने रहना होता
है, उस दुख
का, जिसे
कि अहंकार
निर्मित करता है—झूठे
सुख—संतोष
जिनके
आश्वासन
अहंकार देता
है। इस संसार
की क्रियाएं
और उस संसार
की, आध्यात्मिक
संसार की
क्रियाएं; ईश्वरीय
हों या भौतिक,
जो भी हों
क्षेत्र, अहंकार
ही कर्ता बना
रहेगा।
तुम्हें
कुछ करना नहीं
है और यदि तुम
कुछ करने लगते
हो तो तुम
सारी बात ही चूक
जाओगे। केवल
मौजूद रहना, देखना,
समझना और
कुछ मत करना।
मत पूछना कि ' अहंकार को
कैसे गिराएं?'
कौन गिराएगा
उसे? कौन
कैसे गिराएगा?
जब तुम कुछ
नहीं करते, तो अचानक
साक्षी वाला
हिस्सा कर्ता
से अलग हो जाता
है : एक अंतराल
आ बनता है।
कर्ता कार्य
करता जाता है
और देखने वाला
देखता ही रहता
है। अकस्मात,
तुम एक नए
प्रकाश से भर
जाते हो, एक
नयी मंगलमयता
से। तुम नहीं हो
अहंकार। तुम
कभी रहे नहीं
अहंकार। कैसी मूढ़ता है
कि तुमने कभी
इसमें
विश्वास भी
किया!
ऐसे
लोग हैं जो
अहंकार पूरे
करने की
कोशिशों में
लगे हुए हैं, गलत
हैं वे। ऐसे
लोग हैं जो
अपने— अपने
अहंकार गिरा
देने की कोशिश
कर रहे हैं, वे गलत हैं।
क्योंकि जब
साक्षी का
जन्म होता है
तो तुम सारे
खेल को देखते
भर हो। कुछ
पूरा करने को
नहीं है और
कुछ गिराने को
नहीं है।
अहंकार किसी
ठोस वस्तु से
नहीं बना हुआ
है। यह उसी
चीज से बना
हुआ है जिससे
कि स्वप्न
बनते हैं। यह
एक विचार
मात्र है, हवा
का एक बुदबुदा
है—मात्र गर्म
हवा तुम्हारे
भीतर की, और
कुछ भी नहीं।
तुम्हें उसे
छोड़ने की
जरूरत नहीं है,
क्योंकि
उसे छोड़ने में
ही या कैसे
छोड़ने की बात
पूछने में ही,
तुम उसमें
विश्वास करते
हो, तुम
उससे अभी तक
चिपके हुए
होते हो।
ऐसा
हुआ कि एक झेन
गुरु एक सुबह
उठा और वह
अपने शिष्यों
से बोला, 'मुझे
रात एक स्वप्न
आया। क्या
कृपा करके तुम
मेरे लिए उसकी
व्याख्या कर
दोगे?' वह
शिष्य बोला, 'जरा ठहरिए
आप, मैं
थोड़ा ठंडा
पानी ले आऊं
जिससे कि आप
अपना चेहरा धो
सकें।’ वह
चला गया और
पानी लेकर
लौटा। गुरु ने
अपना चेहरा
धोया। उसी समय
एक दूसरा
शिष्य गुजरता
था पास से और गुरु
ने उसे बुलाया
और कहां, 'सुनो,
मुझे रात एक
स्वप्न आया।
क्या कृपा
करके तुम मेरे
लिए उसकी
व्याख्या कर
दोगे?' शिष्य
ने देखा, और
यह देखते हुए
कि गुरु ने
अपना चेहरा धो
लिया था, वह
बोला, 'ठहरिए,
बेहतर यही
है कि मैं
आपके लिए चाय
का एक प्याला
ले आऊं।’ वह
ले आया चाय का
प्याला। गुरु
ने चाय पी, हंस
पड़ा और आशीष
दिया दोनों
शिष्यों को।
वह बोला, 'तुमने
ठीक किया। यदि
तुमने
व्याख्या कर
दी होती मेरे
स्वप्नों की,
तो मैंने
तुम्हें बाहर
फेंक दिया
होता आश्रम से।
क्योंकि जब
स्वप्न
समाप्त हो
जाता है और
आदमी जान लेता
है कि स्वप्न
था, तो
व्याख्या का
क्या अर्थ रहा?'
उसे
व्याख्यायित
करना यही
बताता है कि
तुम अभी भी
उसी में जीते
हो। तुम अब भी
सोचते हो कि
वह वास्तविक
है।
इसलिए
पूरब में हमने
कभी चिंता
नहीं की
स्वप्नों की
व्याख्या करने
की। ऐसा नहीं
है कि हम उसकी
सत्यता तक
नहीं पहुंचे।
फ्रायड से चार—पांच
हजार वर्ष
पहले, पूरब का
सामना हुआ
स्वप्नों की
सत्यता से, इस घटना से।
चेतना को तीन
क्षेत्रों
में बांटने
वाले हम पहले
थे: जागरण, स्वप्न
और गहन निद्रा
(सुषुप्ति)!
लेकिन हमने
व्याख्या
करने की कभी
चिंता नहीं की,
क्योंकि
स्वप्न तो
स्वप्न है; वह वास्तविक
नहीं होता है।
केवल उसमें से
जाग जाना होता
है, बस
इतना ही। और
यदि तुम पहले
से ही जागे
हुए हो तो यह
बेहतर है कि
तुम चेहरा धो
लो। सिग्मंड
फ्रायड के
सारे विश्लेषण
से तो ठंडा
पानी ज्यादा
मदद देगा। यदि
तुम जागे हुए
हो, तो चाय
का एक प्याला
बेहतर है सारे
जुंगों से।
छूट जाओ पूरी
बात से ही।
पहली
तो बात, स्वप्न
झूठा होता है।
और फिर तुम
व्याख्या
करने लगते हो
स्वप्न की।
तुम्हारी
व्याख्या
द्वारा ही वह
तुम्हारे लिए
नया सत्य बनता
जाता है, वह
फिर वास्तविक
हो जाता है।
ऐसा केवल
स्वप्न के साथ
नहीं होता, तुम्हारे
सारे जीवन के
साथ ही ऐसा
होता है।
तुम्हारा
सारा जीवन एक
स्वप्न की
भांति है; उसे
किसी
व्याख्या की
जरूरत नहीं।
इतना जानना ही
पर्याप्त है
कि वह एक
स्वप्न है।
तुम्हें उससे
बाहर आना होता
है।
कैसे
तुम सुबह स्वप्न
से बाहर आ
जाते हो? क्या
तुमने ध्यान
से देखा है
कभी? यदि
तुमने ध्यान
से देखा है तो
तुम जान लोगे
अहंकार से
बाहर आना कैसे
होता है। सुबह
कैसे तुम
स्वप्न से या
नींद से बाहर
आ जाते हो? कैसे
बाहर आते हो
तुम? एक
क्षण पहले तुम
गहरी नींद सोए
हुए थे, और
फिर अचानक तुम
सुनते हो
पक्षियों की
आवाजें, दूध
वाला दरवाजा
खटखटा रहा
होता है, नौकरानी
आ गयी है और
उसने फर्श साफ
करना शुरू कर
दिया है—सुबह
की सारी
आवाजें हैं।
क्या घट रहा
है? तुम
ज्यादा
होशपूर्ण हो
रहे हो। एक
क्षण पहले तुम
बिना किसी होश
के गहरी नींद
में थे; फिर
अचानक पक्षी,
दूधवाला, नौकर, बच्चों
से बात करती
पत्नी, इनकार
करते हुए
बच्चे जो उठने
को तैयार नहीं
है। धीरे—
धीरे चीजें
उभरने लगती
हैं चेतना में।
तुम होश पा
रहे होते हो।
तुम शायद अभी
थोड़ा ऊंघो,
शायद तुम
करवटें बदलो,
आंखें बंद
कर लो, थोड़ा
ऊंघ लो, लेकिन
आधे नींद में,
आधे जागरण
में तुम चीजों
को सुने चले
जाते हो। तुम
जागरूक हो
जाते हो और
नींद फिर नहीं
रहती। जितने
ज्यादा
जागरूक तुम
होते हो, उतने
ज्यादा
स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं।
जब
जागे हुए हो
तो ऐसा ही
किया जाना
चाहिए; ज्यादा
सुनो, ज्यादा
अनुभव करो, जो कुछ भी
तुम करो उसमें
ज्यादा सजग
रहो। यदि तुम नहा रहे हो
तो तुम अपने
ऊपर से बहते
हुए पानी के
स्पर्श को
अनुभव करो, जितना कर
सको उतना करो
उसे। वही
अनुभूति, वह
जागरूकता, तुम्हें
अहंकार से
बाहर ले जाएगी;
तुम साक्षी
हो जाओगे। यदि
तुम खा रहे
होते हो, तो
खाओ, तुम
लेकिन ज्यादा
स्वाद लेना, ज्यादा
संवेदनशील हो
जाना, ज्यादा
उतर जाना
तुम्हारे
भोजन करने में
और मन को इधर—उधर
मत जाने देना।
वहां बने रहो
पूरी तरह सजग
होकर, और
धीरे— धीरे
तुम देखोगे
कि कुछ उठ रहा
है नींद के
समुद्र में से,
तुम और— और ज्यादा
सचेत हो रहे
हो, सजग हो
रहे हो।
तुम्हारी
जागरूकता में
कोई स्वप्न
नहीं होता, कोई
अहंकार नहीं
होता। वही है
एकमात्र ढंग।
वह कुछ करने
का हिस्सा
नहीं है, वह
हिस्सा है होश
पाने का: और इस
भेद को स्मरण
रखना है। तुम
जागरूकता को
कर नहीं सकते,
वह कोई
क्रिया नहीं
है। तुम
होशपूर्ण हो
सकते हो। वह
तुम्हारे
होने का भाग
है। इसलिए
ज्यादा अनुभव
करो, ज्यादा
सूंघो, ज्यादा सुनो,
ज्यादा छूओ,
और— और
ज्यादा
संवेदनशील
होओ—और अचानक,
कुछ उठता है
निद्रा में से,
और कोई
अहंकार नहीं
बना रहता, तुम
समर्पित होते
हो।
कोई
कभी नहीं करता
है समर्पण, किसी
एक घड़ी में
कोई अचानक
पाता है कि वह
समर्पित हो
गया, ईश्वर
के प्रति
समर्पित, समग्र
के प्रति
समर्पित। जब
तुम नहीं होते,
तो तुम
समर्पित होते
हो। जब तुम
होते हो, तो
कैसे तुम
समर्पित हो
सकते हो? तुम
नहीं कर सकते
समर्पण—तुम ही
हो अड़चन, तुम
ही वह आधार हो
जिससे अवरोध
बनता है।
इसलिए मुझसे
मत पूछना, 'कैसे
मैं समर्पण
करूं?' यह
होता है
अहंकार का
पूछना।
जब
मैं बात करता
हूं निरहंकार
की या समर्पण
की,
तो
तुम्हारा
अहंकार उसके
प्रति लोभ
अनुभव करने
लगता है। तुम
सोचते हो, 'कैसे
हुआ कि मैंने
अभी तक यह
अवस्था उपलब्ध
नहीं की? मैं—और
अब तक नहीं पा
सका ऐसी
अवस्था? मुझे
पानी ही होगी।
यह समर्पण
मुझसे नहीं बच
सकता। मुझे
कहीं, किसी
तरह से इसे ले
आना होगा, इसे
पाना ही है।
इसे खरीदना ही
है!' अहंकार
को लोभ अनुभव
हो रहा होता
है इसके लिए और
अब अहंकार
पूछता है, 'कैसे
करूं इसे?'
अहंकार
सबसे बड़ा टेक्निशियन
है संसार में।
अहंकार जीता
है जानकारी पर।
अहंकार सारी
टेक्यालॉजी का
आधार ही है।
पूरब में टेक्यालॉजी
विकसित नहीं
हो सकी, क्योंकि
लोग अहंकार के
प्रति ज्यादा
और ज्यादा
सचेत हो गए और
असली जड़ ही कट
गयी। वे जीए
समर्पित जीवन।
कैसे
तुम हो सकते
हो टेक्यीशियन, टेक्यालॉजिस्ट,
यदि तुम
जीते हो
समर्पित जीवन?
तब तुम हर
चीज छोड़ देते
हो जीवन पर और
तुम बहते हो।
तब तुम इसकी
चिंता नहीं
करते कि क्या
करना है और
उसे कैसे करना
है। पश्चिम
बहुत ज्यादा
कुशल हो गया
है टेक्यालॉजी
में। कारण यह
है कि पश्चिम
कोशिश करता
रहा है अहंकार
का संरक्षण
करने की, अहंकार
को पोषित करने
की, और
अहंकार ही
आधार है भीतर टेक्यालॉजी
का सारा ढांचा
आधारित है
अहंकार पर।
यदि अहंकार
गिर जाता है, टेक्यालॉजी का सारा
ढांचा गिर
जाता है।
संसार फिर से
स्वाभाविक हो
जाता है, मनुष्य—निर्मित
नहीं रहता। तब
यह ईश्वर की
सृष्टि होती
है। और ईश्वर
ने अभी सृष्टि—सृजन
समाप्त नहीं
किया है, जैसा
कि ईसाई सोचते
हैं। वे सोचते
हैं कि उसने
उसे समाप्त कर
दिया एक सप्ताह
में ही, वास्तव
में तो छ: दिन
में ही, और
सातवें दिन
उसने विश्राम
किया!
ईश्वर
ने सृजन
समाप्त नहीं किया
है। सृजन तो
एक सातत्य है; वह
निरंतर होता
रहता है। वह
कभी भी समाप्त
नहीं होने
वाला। हर क्षण
ईश्वर सृजन कर
रहा है।
वस्तुत: यह
कहना कि ईश्वर
सृजन कर रहा
है गलत है—ईश्वर
सृजनात्मकता
है।
सृजनात्मकता
और निरंतरता;
एक अनंत
सृजनात्मकता।
लेकिन आदमी, अहंकार
युक्त हुआ
ईश्वर के
विरुद्ध खड़ा
हो जाता है।
तब आदमी
प्रकृति को
विजय करने की
कोशिश करने लगता
है। सारी टेक्यालॉजी
ही एक
बलात्कार है।
समर्पित होकर
तुम प्रेम में
होते हो, टेक्यालॉजी सहित तुम
बलात्कार से
जुड़ते हो। तुम
कोशिश कर रहे
होते हो सारी
प्रकृति का बलात्कार
करने की, और
आधार अहंकार
ही है।
मत
पूछना 'कैसे?'
केवल मुझे
समझने की
कोशिश करना; जरा कोशिश
करना सार को
समझने की। कुछ
ज्यादा
बुद्धि की
जरूरत नहीं है।
हर कोई इतना
बुद्धिमान
होता है कि
सार को समझ ले।
बस, समझ
लेना सार—तत्व
को और कोशिश
करना उसी
दृष्टि के साथ,
उसी समझ के
साथ, उसी
बोध के साथ
जीने की, बस
इतना ही। जरा
ध्यान से
देखना, अहंकार
के तरीकों को,
और तुम बने
रहना देखने
वाले; कर्ता
कभी मत बनना।
यदि
तुम सजग नहीं
रहते तो
द्रष्टा और
कर्ता के बीच
की दूरी कोई
बहुत ज्यादा
नहीं है।
बिलकुल
तुम्हारे साथ
ही होता है
कर्ता। तुम
द्रष्टा से
कर्ता में सरक
जाते हो, और
तुम होते हो
अहंकार। तुम
कर्ता से बाहर
सरक जाते हो
और पहुंच जाते
हो द्रष्टा
में, और
तुम समर्पित
हो, अब तुम
अहंकार न रहे।
दूसरा
प्रश्न :
आप
चेतना के शिखर
पर हैं आप
उत्सव मना
सकते हैं आप
उत्सव मना रहे
हैं। लेकिन एक
साधारण आदमी
कैसे आपके साथ
हिस्सा ले
सकता है उत्सव
में?
कोई
साधारण नहीं
है। किसने कहां
तुमसे कि तुम
साधारण हो? कहां
से पायी है
तुमने यह
अवधारणा कि
तुम साधारण हो?
हर कोई
असाधारण है!
ऐसा होना ही
चाहिए।
परमात्मा कभी
भी साधारण
आदमी निर्मित
नहीं करता है।
परमात्मा
कैसे बना सकता
है साधारण
आदमी? हर
कोई विशिष्ट
है, असाधारण
है। लेकिन
ध्यान रहे, इससे पोषित
मत कर लेना
तुम्हारे
अहंकार को। यह
तुम पर निर्भर
नहीं करता कि
तुम असाधारण हो,
यह बात
परमात्मा की
ओर से है।
तुम
आते हो समग्र
में से, तुम
समग्र में
बद्धमूल रहते
हो, तुम
तिरोहित हो
जाते हो समग्र
में—और समग्र
असाधारण है, अद्वितीय है।
तुम भी
अद्वितीय हो।
लेकिन सभी
धर्मों ने
कोशिश की है
कि तुम साधारण
अनुभव करो। यह
एक तरकीब है
तुम्हारे
अहंकार को
उकसाने की।
इसे समझने की
कोशिश करना:
जिस क्षण कोई
कहता है कि
तुम साधारण हो,
वह तुम में
आकांक्षा
निर्मित करता
है असाधारण
होने की, क्योंकि
तुम हीनता
अनुभव करना
शुरू कर देते
हो।
अभी
उस दिन एक
आदमी यहां था
और वह पूछने
लगा कि 'जीवन
का उद्देश्य
क्या है? जब
तक कि मेरे
लिए कोई विशेष
उद्देश्य
नहीं होता, कैसे मैं जी
सकता हूं? यदि
कोई विशेष
उद्देश्य है,
तो जीवन
महत्वपूर्ण
है। यदि कोई
विशेष
उद्देश्य
नहीं है, तो
जीवन अर्थहीन
है।’ वह
पूछ रहा था, 'कौन से खास
उद्देश्य से
परमात्मा ने
मुझे बनाया है?
संसार में
मुझे क्या
करने को भेजा
गया है?' यह
है अहंकार का
प्रश्न। वह
साधारण अनुभव
करता है—कुछ
विशिष्ट नहीं।’तो कैसे कोई
जी सकता है?'
तुम्हें
अहंकारों का
शिखर होना
होता है, केवल
तभी जीवन
अर्थपूर्ण
मालूम पड़ता है।
जीवन
अर्थपूर्ण है,
और उसमें
कोई उद्देश्य
नहीं होता। वह
तो
उद्देश्यहीन
अर्थ होता है,
गीत की
भांति, या
नृत्य की
भांति; फूल
की भाति, एकदम
बिना किसी
उद्देश्य के
वह खिल रहा
होता है, किसी
विशेष के लिए
नहीं खिल रहा
होता वह। यदि
कोई सड़क पर से
गुजरता भी न
हो, फूल तो
खिलेगा ही, सुगंध फैल
जाएगी हवाओं
में। यदि कोई
कभी सूंघने भी
न आए उसे, वह
बात, तो
अप्रासंगिक
होती है। वह
खिलना ही
अर्थपूर्ण है,
कोई
उद्देश्य
नहीं।
लेकिन
तुम्हें तो
सिखाया गया है
कि 'तुम साधारण
हो। बड़े कवि
बनो, बड़े
चित्रकार बनो,
जनता के बड़े
नेता बनो, बड़े
राजनेता बनो,
बन जाओ बडे
संत।’ जैसे
तुम हो, सारे
धर्म निंदा
करते हैं
तुम्हारी।’तुम कुछ
नहीं हो, जमीन
पर चलते बड़े
कीड़े हो! कुछ
बनो।
प्रमाणित करो
कि परमात्मा
के सामने तुम
कुछ हो'—जैसे
कि तुम्हारा
विशिष्ट रूप
प्रमाणित करना
हो। लेकिन मैं
कहता हूं
तुमसे कि यह
बिलकुल व्यर्थ
है। ये धर्म
बातें किए जा
रहे हैं अधर्म
की। तुम्हें
जरूरत नहीं
कुछ प्रमाणित
करने की। यह
घटना ही कि
ईश्वर ने
तुम्हें
निर्मित किया,
काफी है; तुम स्वीकृत
हुए। ईश्वर ने
ममता से
तुम्हें
सम्हाला, यह
पर्याप्त है।
और ज्यादा
क्या
प्रमाणित कर
सकते हो तुम?
तुम्हें
बड़ा चित्रकार
बनने की जरूरत
नहीं; तुम्हें
बड़ा नेता बनने
की जरूरत नहीं;
तुम्हें
बड़ा संत बनने
की जरूरत नहीं।
बड़ा बनने की
कोई जरूरत ही
नहीं, क्योंकि
तुम बड़े हो ही।
इस पर ही है
मेरा जोर; तुम
पहले से ही वह
हो, जो कि
तुम्हें होना
चाहिए। शायद
तुमने इसे
जाना न हो, जिसे
मैं जानता हू।
तुमने शायद
अपनी सत्यता
से
साक्षात्कार
न किया हो, जिसे
कि मैं जानता
हूं। तुमने
शायद अपने
भीतर झांककर
देखा न हो और
भीतर के उस सम्राट
को न देखा हो, जिसे कि मैं
जानता हूं।
शायद तुम सोच
रहे होओगे कि
तुम भिखारी हो
और सम्राट
होने की कोशिश
कर रहे हो।
लेकिन जैसे कि
मैं देखता हूं?
तुम पहले से
ही सम्राट हो।
उत्सव
को स्थगित
करने की जरा
भी जरूरत नहीं
है। तुरंत, ठीक
इसी क्षण
उत्सव मना
सकते हो तुम।
किसी और चीज
की जरूरत नहीं।
उत्सव मनाने
को जीवन की
जरूरत होती है,
और जीवन
तुम्हारे पास
है। उत्सव
मनाने को स्व—सत्ता
की जरूरत होती
है और स्व—सत्ता
तुम्हारे पास
है। उत्सव
मनाने के लिए
वृक्षों और
पक्षियों और सितारों
की जरूरत होती
है, और वे
वहा हैं। और
किस चीज की
जरूरत है
तुम्हें? यदि
तुम्हें ताज
पहना दिया जाए,
और बंद कर
दिया जाए सोने
के महल में, तो क्या तुम
उत्सव मनाओगे?
वस्तुत: तब
ऐसा ज्यादा
असंभव हो
जाएगा। क्या
तुमने कभी
किसी सम्राट
को सड़क पर
हंसते और
नाचते और गाते
देखा है? नहीं,
वह तो
पिंजरे में
बंद है, कैद
है सभ्य
व्यवहार हैं,
शिष्टाचार
हैं।
कहीं
किसी जगह, बर्ट्रेड रसल ने लिखा
है कि जब पहली
बार वह बीहड़
पर्वतो
में बसने वाली
आदिवासियों
की एक आदिम
जाति को देखने
गया, तो
उसे ईर्ष्या
हुई, बहुत
ज्यादा
ईर्ष्या हुई।
उसने अनुभव
किया कि जिस
ढंग से वे
नृत्य कर रहे
थे—वह ऐसा था
जैसे कि हर
कोई सम्राट
हो! उनके पास ताज
न थे, लेकिन
उन्होंने ताज
बनाए हुए थे
पत्तों के और फूलों
के। हर स्त्री
सम्राज्ञी थी।
उनके पास
कोहनूर न थे, तो भी जो कुछ
था उनके पास, बहुत था, पर्याप्त
था। सारी रात
वे नाचते रहे
और फिर वे सो
गए, वहीं
नाच के फर्श
पर। सुबह वे
फिर काम पर आ
गए थे। सारा
दिन काम किया
था उन्होंने र
और फिर सांझ तक
वे तैयार थे
उत्सव मनाने
के लिए, नृत्य
करने के लिए।
रसल कहता है, 'उस दिन
मैंने सचमुच
ईर्ष्या
अनुभव की। मैं
ऐसा नहीं कर
सकता।’
कुछ
गलत हो गया है।
कोई चीज
तुम्हें भीतर
हताश करती है
तुम नाच नहीं
सकते, तुम गा
नहीं सकते, कोई चीज
रोके रखती है।
तुम एक अपंग
जिंदगी जीते
हो। अपंग होना
तुम्हारा
भवितव्य न था,
तो भी तुम
जीते हो अपंग
जीवन, तुम
जीते हो एक
लकवा खाया हुआ
जीवन। और तुम
सोचते चले
जाते हो कि 'साधारण होने
से कैसे तुम
उत्सव मना सकते
हो? कुछ
विशेष नहीं है
तुम में।’ लेकिन
किसने कहां
तुमसे कि
उत्सव मनाने
के लिए किसी
विशेष चीज की
जरूरत होती है?
वस्तुत:
जितने ज्यादा
तुम विशेष के
पीछे पड़ते हो,
उतना
ज्यादा और
कठिन हो जाएगा
तुम्हारे लिए
नृत्य करना।
साधारण
होओ।
साधारणता के
साथ कुछ गलत
नहीं है, क्योंकि
तुम्हारी
साधारणता में
तुम असाधारण
होते हो। इसकी
फिक्र मत लो
कि स्थितिया
निर्णय
करेंगी कि कब
तुम उत्सव मनाओगे।
यदि तुम फिक्र
करते हो
किन्हीं खास
स्थितियों को
पूरा करने की,
तो क्या तुम
सोचते हो कि
तब तुम उत्सव मनाओगे? तब तुम कभी
उत्सव नहीं मनाओगे, तुम भिखारी
की भाति ही
मरोगे। एकदम
अभी ही क्यों
नहीं? किस
चीज की कमी है
तुम्हारे पास?
मेरे देखे
यदि तुम
बिलकुल अभी
शुरू कर सकी, तो अचानक
ऊर्जा बहने
लगती है। और
जितना ज्यादा
तुम नृत्य
करते, उतनी
ज्यादा वह बह
रही होती, उतने
ज्यादा तुम
सक्षम बनते।
अहंकार की फूतइr
के लिए
स्थितियों की
जरूरत होती है,
जीवन की
नहीं।
पक्षी
गा सकते हैं
और नाच सकते
हैं,
साधारण
पक्षी! क्या
तुमने देखा
कभी किन्हीं असाधारण
पक्षियों को
गाते और नाचते?
क्या वे
पूछते हैं कि
उन्हें पहले
रविशंकर होना
है या कि
यहूदी मेनुहिन?
क्या वे
पूछते हैं कि
पहले उन्हें
बड़ा गायक होना
है और सीखने
के लिएg संगीत
महाविद्यालय
जाना है और
तभी वे गाएंगे?
वे तो बस
सहज ही नाचते
और गाते हैं, किसी
प्रशिक्षण की
जरूरत नहीं।
आदमी
पैदा हुआ है
उत्सव मनाने
की क्षमता लिए
हुए। पक्षी तक
उत्सव मना
सकते हैं, तो
तुम क्यों न
मना सकोगे? लेकिन तुम
तो अनावश्यक
बाधाएं बना
लेते हो, तुम
बना लेते हो
एक बाधा—दौड़
की दशा!
बाधाएं कहीं
नहीं होतीं।
तुम उन्हें
वहां बना लेते
और फिर तुम
कहते, 'जब
तक हम उन्हें
लांघ नहीं
लेते और उन पर
से कूद नहीं
जाते, कैसे
हम नृत्य कर
सकते हैं?' तुम
अपने विरुद्ध
खड़े हो जाते
हो बंट कर, तुम
तब अपने शत्रु
हो। संसार के
सारे
धर्मोपदेशक
कहे जाते हैं
कि तुम साधारण
हो, तो
कैसे तुम
हिम्मत कर
सकते हो उत्सव
मनाने की? तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी है। पहले
बुद्ध होओ, पहले हो जाओ
जीसस, मोहम्मद
और फिर तुम
उत्सव मना
सकते हो!
लेकिन
ठीक उल्टी है
अवस्था यदि
तुम नृत्य कर
सको,
तो तुम
बुद्ध हो ही, यदि तुम
उत्सव मना सको,
तो तुम
मोहम्मद ही हो,
यदि तुम
आनंदित हो सको,
तो तुम जीसस
हो। इसके
विपरीत बात
सच्ची नहीं; इसके विपरीत
की बात एक
झूठा तर्क है।
वह कहता है:
पहले बुद्ध
होओ, तब
तुम उत्सव मना
सकते हो।
लेकिन उत्सव
मनाए बिना
कैसे तुम
बुद्ध हो जाझेगे?
मैं
कहता हूं
तुमसे, 'उत्सव
मनाओ, भूल
जाओ सारे
बुद्धों के
बारे में!' तुम्हारे
उत्सव में ही
तुम पाओगे कि
तुम स्वयं
बुद्ध हो गए
हो। झेन फकीर
सदा कहते हैं,
'बुद्ध एक
बाधा हैं, भूल
जाओ उनके बारे
में।’ बोधिधर्म
कहां करते थे
अपने शिष्यों
से, 'जब कभी
बुद्ध का नाम
लो, तुरंत
धो लेना अपना
मुंह। वह गंदा
है, वह
शब्द ही गंदा
है। और
बोधिधर्म
शिष्य थे
बुद्ध के। वे
ठीक कहते थे।
क्योंकि वे
जानते थे कि
तुम
प्रतिमाएं
बना सकते हो, आदर्श बना
सकते हो, इसी
'बुद्ध' शब्द में से
ही। और फिर
पहले तो बुद्ध
हो जाने की
प्रतीक्षा
करोगे तुम
जन्मों—जन्मों
तक और फिर तुम
उत्सव मनाओगे!
वैसा कभी होने
वाला नहीं।
एक
झेन फकीर, लिंची,
कहां करता
था अपने
शिष्यों से, 'जब तुम
ध्यान में
उतरो, तो
सदा स्मरण
रखना कि अगर
बुद्ध मिल
जाएं इस मार्ग
में, तो
तुरंत काट
देना उन्हें
दो में! एक
क्षण को न आने
देना उन्हें।
वरना वे
अधिकार बना
लेंगे तुम पर
और वे एक रुकावट
बन जाएंगे।’ शिष्य ने
पूछा, 'लेकिन
मैं जब ध्यान
करता हूं
बुद्ध आ जाते
हैं,'….. और
बुद्ध आते हैं
बौद्धों के
पास, जैसे
कि जीसस आते
हैं ईसाइयों
के पास, असली
बुद्ध नहीं, वह कहीं हैं
नहीं जो कि
मिलें..... 'तो कैसे मैं
काटू उनको? कहां से मैं पाऊं
तलवार?' गुरु
ने कहां, 'तुम्हें
तुम्हारे
बुद्ध कहां से
मिले—कल्पना
से ही न? तलवार
भी ले आओ वहीं
से, काट दो
बुद्ध को दो
भागों में और
बढ़ जाओ आगे।’
यह
स्मरण रहे कि
बुद्धों के वचन, बुद्ध
और उनके सभी
वचन, एक
सीधे—सरल
वाक्य में, एक सूत्र
में उतारे जा
सकते हैं और
वह वाक्य है 'तुम वही हो
जो तुम हो
सकते हो।’ हो
सकता है बहुत
से जन्म लग
जाएं तुम्हें
यह जानने में;
वह
तुम्हारे
निश्चय करने
की बात है।
लेकिन यदि तुम
जाग जाते हो, तो एक पल भी
नहीं गंवाया
जाता।
'तुम
वही हो', 'तत्त्वमसि
श्वेतकेतु।’ तुम पहले से
ही वही हो, कुछ
हो जाने की
कोई जरूरत
नहीं। होना, कुछ होने की
कोशिश ही
भ्रामक है।
तुम हो, तुम्हें
कुछ होना नहीं
है। लेकिन
धर्मोपदेशक
तुमसे कहते
हैं कि तुम
साधारण हो और
वे तुममें
इच्छा जगा देते
हैं असाधारण
होने की। वे
तुम्हें हीन
कर देते और
इच्छा जगा
देते उच्चतर
होने की। वे
बना देते हैं
हीन— भावना और
तब तुम उनकी
पकड़ में होते
हो। तब वे
तुम्हें
सिखाते हैं कि
कैसे उच्चतर
होना है। पहले
वे तुम्हारी
निंदा करते
हैं, तुम्हारे
भीतर अपराध
जगा देते हैं
और फिर वे
तुम्हें राह
दिखाते हैं
पुण्यात्मा होने
की।
मेरे
साथ तुम सचमुच
ही कठिनाई में
पड़ोगे।
क्योंकि
तुम्हारा मन
तो ऐसा ही
होना चाहेगा, क्योंकि
यह बात
तुम्हें समय
देती है और
मैं तुम्हें
समय नहीं देता।
मैं कहता हूं
तुम वह हो ही।
हर चीज तैयार
है। उत्सव की
शुरुआत करो, उसका उत्सव
मनाओ।
तुम्हारा मन
कहता है, 'लेकिन
मुझे तो तैयार
होना है।
थोड़े
समय की जरूरत
है।’
इसीलिए, इस
स्थगन में
उपदेशक आ जाते
हैं, इस
अंतराल में वे
प्रवेश कर
जाते हैं
तुम्हारे
अंतस में और
तुम्हें नष्ट
कर देते हैं।
वे कहते, 'ही,
समय की तो
जरूरत है।
कैसे तुम
बिलकुल अभी
उत्सव मना
सकते हो? तैयारी
करो, प्रशिक्षित
करो स्वयं को।
बहुत सारी
चीजें बाहर
हटा देनी हैं,
बहुत सारी
चीजों को
सुधारना है।
तुम्हें
चाहिए एक लंबा
प्रशिक्षण और
अनुशासन।
इसमें बहुत से
जन्म लग सकते
हैं—लंबे
प्रशिक्षण और
अनुशासन के।
बहुत सारे
जन्म लग सकते
हैं और केवल
तभी तुम उत्सव
मना पाओगे।
बिलकुल अभी
कैसे उत्सव
मना सकते हो
तुम?' वे
तुम्हें जंचते
हैं, क्योंकि
तब तुम आराम
कर सकते हो।
और तुम कह
सकते हो कि
ठीक है तब।
अगर यह लंबे
समय का ही
प्रश्न है तो
बिलकुल अभी तो
कोई समस्या ही
नहीं है। जो
कुछ हम कर रहे
हैं उसे हम
किए चले जा
सकते हैं।
भविष्य में
किसी दिन, एक
सुनहरा कल, एक
इंद्रधनुषी
चीज: जब वह
उपलब्ध हो
जाएगी, तो
तुम नृत्य
करोगे।
इस
बीच तुम दुखी
हो सकते हो, इस
बीच तुम स्वयं
को दुखी कर
सकते हो, इस
बीच तुम सुख
पा सकते हो
स्वयं को पीड़ा
पहुंचाने का!
यह तुम पर
निर्भर है।
यदि तुम दुख
के हक में
निर्णय लेते
हो, तो कोई
जरूरत नहीं
उसके आसपास
ज्यादा
दर्शनशास्त्र
खड़ा कर लेने
की। तुम सीधे—सीधे
कह सकते हो, 'मुझे दुख
में रस है!'
यह
सचमुच ही
आश्चर्यजनक
बात है कि कोई
कभी पूछता
नहीं कि
बिलकुल अभी
मैं कैसे दुखी
हो सकता हूं? अनुशासन
चाहिए, प्रशिक्षण
चाहिए। मुझे
कई पतंजलियो
के पास जाना
होगा और पूछना
होगा बड़े
गुरुओं से और
तभी मैं
सीखूंगा कि
कैसे दुखी
होऊं।
ऐसा
लगता है कि
दुखी होने के
लिए कोई
प्रशिक्षण
नहीं चाहिए; तुम
दुखी होने के
लिए ही पैदा
हुए हो। तो
फिर आनंद के
लिए
प्रशिक्षण
क्यों चाहिए?
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। यदि
तुम बिना किसी
प्रशिक्षण के
दुखी हो सकते
हो, तो तुम
आनंदित भी हो
सकते हो बिना
प्रशिक्षण के
ही।
स्वाभाविक
रहो, निर्मुक्त
और बस अनुभव
करो चीजों को।
और प्रतीक्षा
मत करो—आरंभ
कर दो। यदि
तुम्हें लगता
भी हो कि तुम
नाचने का सही
ढंग नहीं
जानते, तो
भी शुरू कर दो
नर्तन।
मैं
नहीं कह रहा
हूं कि नर्तन
तुम्हारी कला
होने वाली है।
कला के लिए
प्रशिक्षण की
जरूरत पड़ सकती
है। मैं इतना
ही कह रहा हूं
कि नर्तन केवल
एक दृष्टिकोण
है। सही ढंग न
जानते हुए भी
तुम नृत्य कर
सकते हो। और
यदि तुम नृत्य
कर सको, तो
कौन परवाह
करता है। सही पदसंचालन
की! नृत्य
स्वयं में
पर्याप्त
होता है। वह
तुम्हारी
ऊर्जा का
अतिरिक्त उमडाव
होता है। यदि
वह स्वयं ही
कला बन जाता
है तो ठीक बात
है; यदि वह
नहीं बनता, तो भी ठीक है।
वह पर्याप्त
होता है स्वयं
में, पर्याप्त
से ज्यादा।
किसी और चीज
की जरूरत नहीं
है।
इसलिए
मत कहना मुझसे, 'आप
चेतना के शिखर
पर हैं।’ तुम
कहां हो? तुम
क्या सोचते हो
कि कहां हो? तुम्हारी
घाटी
तुम्हारे
स्वप्नों
में है।
तुम्हारा
अंधकार है
क्योंकि
तुम्हारी आंखें
बंद हैं, अन्यथा
तुम वहीं हो जहां
मैं हूं। ऐसा
नहीं है कि
तुम घाटी में
हो और मैं
शिखर पर हूं।
मैं शिखर पर
हूं और तुम भी
शिखर पर हो
लेकिन तुम
घाटी का
स्वप्न देखते
हो। मैं पूना
में रहता हूं
तुम भी पूना
रहते हो।
लेकिन जब तुम
सो जाते हो, तो तुम
स्वप्न देखने
लगते लंदन के
और न्यूयार्क
के और कलकत्ता
के, और तुम
घूम आते
हजारों जगह।
मैं कहीं नहीं
जाता; अपनी
नींद में भी, मैं पूना
में होता हूं।
लेकिन तुम
घूमते रहते हो।
तुम
उसी शिखर पर
हो जहां कि
मैं हूं बस
बात यही है कि
तुम्हारी आंखें
बंद हैं। तुम
कहते, 'बहुत
अंधेरा है!' मैं बात
करता प्रकाश
की और तुम
कहते, ' आप
जरूर कहीं और
होंगे, किसी
ऊंचे शिखर पर।
हम अंधकार में
जीने वाले
साधारण लोग
हैं।’ लेकिन
मैं देख सकता
हूं कि तुम
उसी शिखर पर
बैठे हो आंखें
बंद किए हुए।
तुम्हें
तुम्हारी
नींद में से
बाहर ला पटकना
है, झटका
देकर। और तब
तुम देखोगे
कि घाटी का
कभी अस्तित्व
ही न था।
अंधकार वहां
नहीं था, केवल
तुम्हारी ही आंखें
बंद थीं। झेन
गुरु ठीक करते
हैं। वे कोई न
कोई लट्ठनुमा
चीज लिए रहते
हैं और वे
पीटते हैं
अपने शिष्यों
को। और ऐसा
बहुत बार हुआ
है कि जब वह लह
पड़ रहा होता है
शिष्य के सिर
पर, तो
अचानक वह अपनी
आंखें खोल
देता है और
हंसने लगता है।
वह कभी नहीं
जान पाया था
कि वह उसी
शिखर पर है या
जो कि वह देख
रहा था एक
स्वप्न था।
जाग
जाओ। और यदि
तुम जाग जाना
चाहते हो, तो
उत्सव बहुत
ज्यादा मदद
देगा। जब मैं
कहता हूं 'उत्सव
मनाओ ', तो
उससे मेरा
मतलब क्या
होता है? मेरा
मतलब है कि जो
कुछ तुम करते
हो, उसे
कर्तव्य की
भाति मत करना,
उसे
तुम्हारे
प्रेम के कारण
करना, उसे
बोझ की भांति
मत करना, उसे
करना उत्सव की
भांति। तुम
ऐसे खाना खा
सकते हो जैसे
कि वह
तुम्हारा कर्तव्य
हो उदास, बुझे
हुए, मुरदा,
असंवेदनशील।
तुम भोजन
तुम्हारे
भीतर फेंक सकते
हो बिना कभी
चखे ही, बिना
कभी उसे महसूस
किए ही। यह
जीवन है उसे
पूरा जीओ।
उसके प्रति
इतने
असंवेदनशील
मत होओ। भारत
के लोगों ने कहां
है, 'अन्न
ब्रह्म', अन्न
ब्रह्म है। यह
उत्सव है: तुम
भोजन कर रहे
हो ब्रह्म का,
तुम ईश्वर
को खा रहे हो
भोजन के
द्वारा, क्योंकि
केवल ईश्वर
अस्तित्व
रखता है। जब
तुम फव्वारे
के नीचे स्नान
कर रहे होते
हो, तो वह
ईश्वर ही बरस
रहा होता है
क्योंकि केवल ईश्वर
का अस्तित्व
है। जब तुम
सुबह की सैर
को जाते, तो
वह ईश्वर ही
होता है सैर
के समय। और वह
हवा का झोंका
भी ईश्वर है, और वे पेडू
भी ईश्वर हैं।
हर चीज इतनी
दिव्य है, कैसे
तुम हो सकते
हो उदास, मुरदा
और बुझे हुए; जीवन में
ऐसे चल फिर
रहे हो जैसे
कि तुम कोई बोझा
ढो रहे हो।
जब
मैं कहता हूं, 'उत्सव मनाओ',
तो मेरा
मतलब होता है
कि हर चीज के
प्रति और ज्यादा
संवेदनशील हो
जाओ। जीवन में
नृत्य एक अलग
बात नहीं होनी
चाहिए। सारा
जीवन ही एक
नृत्य हो जाना
चाहिए; उसे
होना ही चाहिए
नृत्य। तुम जा
सकते हो सैर
पर और कर सकते
हो नृत्य।
जीवन
को तुममें
प्रवेश करने
दो,
ज्यादा
खुले हो जाओ
और ज्यादा
संवेदनशील।
ज्यादा महसूस
करो, ज्यादा
अनुभूतिशील
होओ। ऐसी अपूर्वताओं
से भरी हुई
छोटी—छोटी
चीजें चारों
ओर पड़ी हुई
हैं। जरा
देखना एक छोटे
बच्चे को। छोड़
दो उसे बगीचे
में और बस
देखो। वही
होना चाहिए
तुम्हारा ढंग
भी। इतना
अदभुत, विस्मय
से भरपूर : इधर
तितली को पकड़ने
को दौड़ रहा, तो उधर किसी
फूल को लेने
भाग रहा होता,
कीचड़ से खेल
रहा होता, रेत
पर लोट—पोट
रहा होता। हर
तरफ से
दिव्यता छू
रही होती है
बच्चे को।
यदि
तुम विस्मय
में जी सकते
हो तो तुम
उत्सव मनाने
में सक्षम हो
जाओगे। ज्ञान
में मत जीओ; विस्मय—विमुग्धता
में जीओ।
तुम कुछ जानते
नहीं। जीवन
अनोखा है हर
कहीं, यह
एक निरंतर
आश्चर्य— जनक
घटना है।
आश्चर्य की
भाति जीओ
इसे; अनुमान
के बाहर की
घटना: हर पल
नया है। जरा
कोशिश करो, आजमाओ इसे। तुम
कुछ गंवाओगे
नहीं यदि तुम
थोड़ी कोशिश
करो इसके लिए,
और तुम पा
सकते हो हर
चीज। लेकिन
तुम तो दुख के
प्रति आसक्त
हो गए हो। तुम
चिपके रहते हो
अपने दुख से
जैसे कि वह कोई
बहुत कीमती
चीज हो। जान
लो अपनी
आसक्ति को।
जैसा
कि मैंने कहां
तुमसे, दो
प्रकार के
व्यक्ति होते
हैं: पर—पीड़क
और स्व—पीड़क।
पर—पीड़क
दूसरों को
यातना दिए
जाते हैं, स्व—पीड़क अपने
को ही यातना
पहुंचाए जाते
हैं।
एक
प्रश्न पूछा
है किसी ने 'क्यों
लोग ऐसे हैं
या तो दूसरों
को पीड़ा देते
हैं या फिर वे
स्वयं को ही
पीडित करते
रहते हैं? जीवन
में इतनी
ज्यादा
आक्रामकता और
हिंसा क्यों
है?'
यह एक
नकारात्मक
अवस्था होती
है। तुम पीड़ा
देते हो, क्योंकि
तुम आनंदित
नहीं हो सकते।
तुम पीड़ित
करते, हिंसात्मक
हो जाते, क्योंकि
तुम प्रेम
नहीं कर सकते
हो। तुम क्रूर
बन जाते हो, क्योंकि तुम
नहीं जानते कि
करुणामय कैसे
हुआ जाता है।
वह एक
नकारात्मक
अवस्था होती
है। वही ऊर्जा
जो कि क्रूरता
होती है, करुणा
बन जाएगी। सोए
हुए मन के साथ
ऊर्जा हिंसा
बन जाती है।
जागे हुए मन
के साथ वही
ऊर्जा करुणा
बन जाती है।
सोए होते हो
तो वही ऊर्जा
एक पीड़ा बन
जाती है, या
तो तुम्हारी
या किसी और की।
जब तुम जागे
हुए होते हो, तो वही
ऊर्जा प्रेम
बन जाती है—तुम्हारे
अपने लिए और
दूसरों के लिए
भी। जीवन
तुम्हें अवसर
देता है, लेकिन
किसी चीज के
गलत हो जाने
के हजारों
कारण होते हैं।
क्या
कभी तुमने
ध्यान दिया कि
यदि कोई दुखी
होता है, तो
तुम
सहानुभूति
दिखाते हो, तुम बहुत
प्रेम अनुभव
करते हो? वह
ठीक प्रकार का
प्रेम नहीं
होता है, तो
भी तुम दिखाते
हो सहानुभूति।
यदि कोई
प्रसन्न होता
है, उत्सवमय,
आनंदपूर्ण
होता है तो
तुम ईर्ष्या
अनुभव करते हो,
तुम्हें
बुरा लगता है।
बहुत कठिन
होता है
प्रसन्न
व्यक्ति के
साथ सहानुभूति
अनुभव करना।
बहुत कठिन
होता है खुश
आदमी के लिए
भलाई अनुभव
करना।
तुम्हें भला
लगता है, जब
कोई अप्रसन्न
होता है। कम
से कम तुम सोच
सकते हो कि
तुम उतने
अप्रसन्न
नहीं और तुम
कुछ ऊंचे हो; तुम
सहानुभूति
जताते हो।
एक
बच्चा जन्मता
है और वह
बच्चा चीजें
सीखने लगता है।
देर— अबेर वह
जान लेता है
कि जब वह दुखी
होता है, तो वह
सारे परिवार
का ध्यान
आकर्षित कर
लेता है। वह
बन जाता है
केंद्र और हर
कोई उसके लिए
सहानुभूति
प्रकट करता है,
हर कोई उससे
प्रेम अनुभव
करता है। जब
कभी वह आनंदित
होता है और
स्वस्थ होता
है और हर चीज
ठीक होती है, तो कोई
फिक्र नहीं
करता उसकी—इसके
विपरीत, हर
कोई नाखुश जान
पड़ता है।
बच्चा कूद रहा
हो और दौड़ रहा
हो, और
सारा परिवार
नाखुश होता है।
बच्चा बिस्तर
में बीमार पड़ा
हो, और
सारा परिवार सहानुभूतिपूर्ण
होता है।
बच्चा जानना
शुरू कर देता
है कि किसी न
किसी कारण
बीमार होना, दुखी होना
अच्छा ही होता
है; खुश
होना और नाचना
और कूदना और
जीवंत रहना
बुरा है। वह
सीख रहा होता
है यह और इसी
तरह ही तुमने
सीखा है।
मेरे
देखे, जब कोई
बच्चा खुश
होता है, कूद
रहा होता है, तो सारे
परिवार को खुश
होना चाहिए और
कूदना चाहिए
बच्चे के साथ।
और जब बच्चा
बीमार होता है,
तब बच्चे का
ध्यान रखना
चाहिए, लेकिन
कोई
सहानुभूति
नहीं दिखानी
चाहिए। ध्यान
रखना ठीक है; सहानुभूति
ठीक नहीं। अ—प्रेम,
तटस्थ—सतह
पर तो बड़ा
कठोर लगेगा? बच्चा
बीमार है और
तुम तटस्थ हो।
ध्यान रखना, दवाई देना, लेकिन तटस्थ
रहना, क्योंकि
एक बड़ी
सूक्ष्म घटना
घट रही होती
है। यदि तुम
सहानुभूति और
करुणा और
प्रेम अनुभव करते
हो और तुम इसे
जता देते हो
बच्चे को, तो
तुम हमेशा के
लिए नष्ट कर
रहे होते हो
बच्चे को। अब
वह चिपकेगा
दुख के साथ, दुख कीमती
बन जाता है।
और जब कभी वह
कूदता है और
नाचता है और
खुशी में चीखता
है चारों तरफ
और घर में दौड़ता
फिरता है, तो
हर कोई चिढ़ा
होता है। उस
क्षण उत्सव
मनाओ, डूबो उसके साथ, और सारा
संसार अलग जान
पड़ेगा।
लेकिन
अभी तक समाज
गलत ढांचों पर
ही बना रहा है, और
वे ढांचे
स्थायित्व पा
लेते हैं।
इसलिए तुम दुख
से चिपकते हो।
तुम मुझसे
पूछते हो, 'हमारे
जैसे साधारण
आदमी के लिए
यह कैसे संभव
है कि बिलकुल
अभी उत्सव
मनाए—यही और
अभी? नहीं,
वैसा संभव
नहीं है।’ किसी
ने कभी
तुम्हें
उत्सव मनाने
नहीं दिया।
तुम्हारे
माता—पिता
तुम्हारे मन
में बैठे हैं।
तुम्हारी
मृत्यु के
क्षण तक
तुम्हारे
माता—पिता
तुम्हारा
पीछा करते हैं।
निरंतर वे
तुम्हारे
पीछे लगे रहते
हैं, चाहे
वे मर भी चुके
हैं। मा—बाप
बहुत ज्यादा
विनाशकारी हो
सकते हैं, अभी
तक वे ऐसे ही
रहे हैं। मैं
नहीं कह रहा
कि तुम्हारे
माता—पिता
जिम्मेदार
हैं, क्योंकि
सवाल उनका
नहीं। उनके
माता—पिता ने
भी यही कुछ
किया था उनके
साथ। सारा
ढांचा—ढर्रा
ही गलत है, मनोवैज्ञानिक
रूप से गलत है।
ऐसी बातों के
भी कारण होते
हैं। इसलिए
ऐसी गलत बात
चलती ही चली
जाती और उसे
रोका नहीं जा
सकता। वैसा
करना असंभव
जान पड़ता है।
निस्संदेह
इसके कारण
होते हैं।
पिता के अपने
कारण होते हैं
हो सकता है वह
अखबार पढ़ रहा
हो और बच्चा
कूदता हो और
चीखता हो और हंसता
हो,
लेकिन तो भी
एक पिता को तो
ज्यादा
समझदार होना
चाहिए। अखबार
किसी मूल्य का
नहीं। यदि तुम
उसे चुपचाप पढ़
भी लो, तो
क्या मिलने
वाला है
तुम्हें उससे?
फेंक दो
अखबार को!
लेकिन पिता तो
है राजनीति में,
व्यापार
में, और
उसे जानना है
इस बारे में
कि क्या घट
रहा है। वह
महत्वाकांक्षी
है और अखबार
उसकी
महत्वाकांक्षा
का एक हिस्सा
है। यदि किसी
को कोई
महत्वाकांक्षा
पूरी करनी
होती है, कोई
लक्ष्य पाने
होते हैं, तो
उसे जानना
पड़ता है संसार
को। बच्चा
गड़बड़ी पैदा
करने वाला जान
पड़ता है।
मां
भोजन पका रही
होती है और
बच्चा प्रश्न
पूछता जाता है
और कूदता जाता
है और वह चिड़चिड़ा
जाती है। मैं
जानता हूं कि
कई समस्याएं
हैं,
मां को भोजन
पकाना होता है।
लेकिन बच्चा
पहले स्थान पर
होना चाहिए, क्योंकि
बच्चा संसार
बनने वाला है,
बच्चा
आनेवाला कल
बनने वाला है,
बच्चा होने
वाला है आने
वाली मानवता।
उसे होना
चाहिए पहला, प्राथमिकता
उसकी होनी
चाहिए। अखबार
तो बाद में भी पढ़े जा
सकते हैं, और
यदि न भी पढ़े
जाएं, तो
तुम कुछ
ज्यादा नहीं गवांओगे।
वही बकवास हर
रोज चलती छ
स्थान बदल
जाते, नाम
बदल जाते, लेकिन
वही बकवास
चलती चली जाती
है। तुम्हारे
अखबार तो
बिलकुल
विक्षिप्त
हैं।
भोजन
बनाने में
थोड़ी देर की
जा सकती है, लेकिन
बच्चे की
जिज्ञासा
विलंबित नहीं
की जानी चाहिए।
क्योंकि
बिलकुल अभी वह
एक भावदशा
में था और हो
सकता है वह
मौज, वह
तरंग फिर न आए।
बिलकुल अभी वह
भाव की गरिमा
से भरा है और
कोई बात संभव
है। लेकिन
क्या तुमने
ऐसी माताओं को
देखा है जो बच्चों
के साथ नाच
रही होती, कूद
रही होतीं, जमीन पर
लोटती हुई खेल
कर आनंदित हो
रही होतीं?—नहीं।
माताएं तो
गंभीर होती
हैं, पिता
बहुत गंभीर
होते हैं, वे
संसार भर को कंधों
पर लिए फिरते
हैं। और बच्चा
तो बिलकुल अलग
ही संसार में
जीता है। तुम
जबर्दस्ती
करते हो कि वह
तुम्हारे
उदास संसार
में, जीवन
के प्रति दुखी
दृष्टिकोण
में प्रवेश करे।
वह बच्चे की
भांति विकसित
हो सकता था, वह इस
गुणधर्म को
सम्हाल सकता
था—आश्चर्य, विस्मय के
गुणधर्म को और
यहां अभी होने
के, क्षण
में जीने के
गुणधर्म को।
इसे
मैं कहता हूं
सच्ची क्रांति।
कोई और दूसरी क्रांति
मनुष्य की मदद
न करेगी—फ्रांसीसी, रूसी
या चीनी, कोई
क्रांति
मनुष्य: की
मदद न करेगी, किसी ने मदद
की नहीं। माता—पिता
और बच्चे के
बीच मूल रूप
से वही ढांचा
चलता आता है।
और इसका कारण
होता है। तुम
निर्मित कर
सकते हो एक
कम्युनिस्ट
संसार, लेकिन
वह कोई ज्यादा
अलग नहीं होगा
पूंजीपतियों
के संसार से।
लेबल केवल सतह
पर ही अलग
होंगे। तुम
बना सकते हो
समाजवादी
दुनिया, तुम
बना सकते हो गांधीवादी
दुनिया, लेकिन
वह अलग नहीं
होगी।
क्योंकि
आधारभूत क्रांति
तो होती है—माता—पिता
और बच्चे के
बीच। अंतर्संबंध
होता है कहीं
माता—पिता और
बच्चे के बीच,
और यदि वह अंतर्संबंध
नहीं बदलता, तो संसार
उसी चक्र में
घूमता जाएगा।
जब
मैं यह कहता
हूं तो मेरा
यह मतलब नहीं
कि मैं
तुम्हें दुखी
होने का एक
बहाना दे रहा
हूं। मैं तो
तुम्हें केवल
व्याख्या
देता हूं ताकि
तुम जाग सकी।
इसलिए अपने मन
में यह कहने
की कोशिश मत
करना कि ' अब
क्या किया जा
सकता है? मैं
चालीस या पचास
या साठ का हो ही
गया हूं; मेरे
माता—पिता मर
चुके हैं और
यदि वे जीवित
भी होते तो भी
मैं अतीत से
मुक्त कैसे हो
सकता था? वह
घट चुका है, इसलिए मुझे
वैसे ही जीना
है जैसा कि
मैं हूं।’ नहीं,
यदि तुम समझ
लो, तो तुम
इसमें से एकदम
बाहर आ सकते
हो। उससे
चिपकने की
जरूरत नहीं है।
तुम
फिर से बच्चे
बन सकते हो।
जीसस ठीक कहते
हैं,
'जो छोटे ब च्चों की
भांति हैं, केवल वही
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर पाएंगे।’
बिलकुल ठीक
है बात। केवल
वे ही जो छोटे
बच्चों की
भाति हैं:! यही
है क्रांति:
सबको छोटे
बच्चे की
भांति बना
देना। शरीर
विकसित हो
सकता है लेकिन
चेतना की
गुणवता
निर्दोष रहनी
चाहिए, एकदम
ताजा, बच्चे
की भांति।
तुम
वहा हो ही, जहां
कि तुम्हें
होना चाहिए।
तुम उसी स्थान
पर ही हो, जिसे
तुम खोज रहे
हो। दुख से
बनी आसक्ति से
जरा बाहर आने
का थोड़ा—सा
प्रयास कर लो।
दुख से नाता
मत बनाओ, उत्सव
से जुडो। तुम
जीवन के प्रति
एक कदम बढ़ाते
हो और जीवन तुम्हारे
प्रति एक हजार
कदम बढ़ाता है।
जरा एक कदम
बाहर आ जाना
दुख से बनी
आसक्ति में से।
मन तुम्हें
पीछे ही
खींचता जाएगा।
बस उदासीन बने
रहना मन के
प्रति और कह
देना मन से, 'ठहर जाओ।
मैं बहुत जी
लिया
तुम्हारे साथ,
अब मुझे
बिना मन के
जीने दो।’ ऐसा
ही होता है एक
बालक : मन के
बिना जीता है
या जीता है अ—मन
के साथ।
तीसरा
प्रश्न :
कई
बार
संवेदनशीलता
के साथ एक
नकारात्मक
भाव— दशा मुझ
में क्यों
बनने लगती है?
नकारात्मक
और विधायक
दोनों ही भाव—दशाएं
विकसित होंगी।
यदि तुम बहुत
ज्यादा
प्रसन्न होना चाहते
हो,
तो साथ—साथ
बहुत ज्यादा
अप्रसन्न
होने की
क्षमता भी विकसित
होगी। यदि तुम
चाहते हो कि
नकारात्मक
नहीं विकसित होनी
चाहिए, तो
तुम्हें
विधायक को भी
काट देना पड़ता
है। ऐसा ही
हुआ है।
तुम्हें
सिखाया जाता
रहा है कि
क्रोध मत करना,
लेकिन यदि
तुम क्रोधित
होने में
सक्षम नहीं
होते, तो
करुणा का अभाव
रहेगा। तब तुम
करुणामय नहीं
हो पाओगे।
तुम्हें
सिखाया जाता
रहा है :कि
घृणा मत करो, लेकिन फिर
तो प्रेम का
अभाव रहेगा; तुम प्रेम
नहीं कर पाओगे—और
यही है दुविधा।
प्रेम
और घृणा एक
साथ विकसित
होते हैं।
वस्तुत: वे दो
चीजें नहीं
हैं। भाषा
तुम्हें गलत
प्रभाव दे
देती है। हमें
प्रेम और घृणा—ये
शब्द प्रयोग
नहीं करने
चाहिए, हमें
प्रयोग करना
चाहिए प्रेमघृणा
: यह हुआ एक
शब्द, वहां
उनके बीच एक जुड़ाव—रेखा
तक नहीं होनी
चाहिए—प्रेमघृणा—एक
हाइफन तक नहीं।
क्योंकि वह भी
दर्शाएगा
कि वे दो हैं, लेकिन किसी
तरह जुड़ गए
हैं। वे एक
हैं। प्रकाश—
अंधकार वे एक
हैं, जीवन—मृत्यु,
वे एक हैं।
यही सारी
समस्या रही है
मानव—मन की।
करोगे क्या? क्योंकि यदि
प्रेम विकसित
होता है तो
घृणा करने की
क्षमता भी
विकसित होती
है।
इसीलिए
केवल दो
संभावनाएं होती
हैं,
या तो घृणा
को विकसित
होने दो प्रेम
के साथ, या
प्रेम को मार
दो घृणा के
साथ। और आज तक
दूसरा विकल्प
चुना गया है।
सभी धर्मों ने
दूसरा विकल्प
चुन लिया है—घृणा
को काट देना
है, क्रोध
को: काट देना
है। इसीलिए वे:
बस प्रेम का
उपदेश दिए चले
जाते हैं और
वे सब कहते
रहते हैं, 'घृणा
मत करना।’ उनका
प्रेम आडंबर
बन जाता है; वह केवल
वार्तालाप
होता है। ईसाई
बात किए जाते
हैं प्रेम की—वह
संसार की सबसे
अधिक आरोपित
बात होती है।
ऐसा
ही है जीवन विपरीतताए
वहां साथ—साथ
हैं। जीवन एक
ध्रुव के साथ
अस्तित्व
नहीं रख सकता, उसे
चाहिए दो ध्रुवताएं
साथ— साथ:
नकारात्मक और
विधायक
विद्युत—
ध्रुव, पुरुष
और स्त्री।
क्या तुम केवल
पुरुष वाले
संसार की
कल्पना कर
सकते हो? वह
एक मृत संसार
होगा। पुरुष
और स्त्री वे
दो ध्रुव हैं,
वे साथ—साथ
अस्तित्व
रखते हैं।
वस्तुत: 'पुरुष
और स्त्री' कहना ठीक
नहीं : उनके
बीच बिना कोई
लकीर लाए कहना
चाहिए 'पुरुषस्त्री',
वे एक साथ
अस्तित्व
रखते हैं।
घृणा
के साथ कुछ
गलत नहीं यदि
वह प्रेम का
ही हिस्सा हो
तो। यह मेरी
देशना है।
क्रोध कुछ गलत
नहीं यदि वह
करुणा का
हिस्सा है—तो
वह सुंदर है।
क्या तुम पसंद
नहीं करोगे कि
बुद्ध तुम पर
क्रोध करें? यह
बात आशीष की
भांति होगी, एक अनुग्रह,
कि बुद्ध
तुम पर क्रोध
करें। करुणा
के वृहत्तर
संसार में
क्रोध भी
सुंदर हो जाता
है, वह समा
लिया जाता है।
प्रेम
के प्रति
विकसित होओ और
घृणा को भी
विकसित होने
दो,
उसे
तुम्हारे
प्रेम का ही
हिस्सा होने
दो। मैं तुमसे
प्रेम को घृणा
के विरुद्ध
रखने को नहीं
कहता हूं; नहीं।
मैं तुमसे
घृणा सहित
प्रेम करने को
कहता हूं और
ऊर्जा का एक महिमावान
बदलाव, एक
रूपांतरण
घटेगा।
तुम्हारी
घृणा इतनी
सुंदर होगी, उसकी
गुणवत्ता
प्रेम की
भांति ही होगी।
कई बार होना
पड़ता है क्रोधित
और यदि तुम
सचमुच ही
करूणा करते हो,
तो तुम
क्रोध का
उपयोग
तुम्हारी
करुणा के लिए करते
हो।
सदा
याद रखना कि
ध्रुवता
मौजूद है—इसे सामंजस्यता
कैसे देनी
होती है? पुराना
ढंग था उन्हें
अलग काट देने
का : घृणा को
गिराने का और
बिना घृणा के
प्रेममय होने
की कोशिश करने
का। तब प्रेम
एक ढोंग हो
जाता है, क्योंकि
ऊर्जा वहा
नहीं रहती। और
तुम इतने
भयभीत होते हो
प्रेम से, क्योंकि
तुरंत घृणा
विकसित होने
लगेगी। घृणा
विकसित होने
के भय से, प्रेम
का दमन हो
जाता है। तब
तुम प्रेम के
बारे में
बोलते हो, लेकिन
तुम सचमुच
प्रेम नहीं
करते। तब
तुम्हारा
प्रेम मात्र
एक वार्तालाप
बन जाता है, एक मौखिक
बात—जीवंत और
अस्तित्वगत
नहीं।
मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
जाओ और घृणा
करने लगो। मैं
कह रहा हूं
प्रेम करो, प्रेम
के साथ विकसित
होओ। और
निस्संदेह
घृणा तो
विकसित होगी
उसके साथ।
उसकी फिक्र मत
करना। तुम
प्रेम सहित
विकसित होते
जाना और घृणा
सोख ली जाएगी
प्रेम द्वारा।
प्रेम इतना
विशाल होता है
कि वह घृणा को
सोख सकता है।
करुणा बड़ी
होती है, इतनी
विशाल कि
क्रोध का अंश
समाया जा सकता
है उसके
द्वारा। वह
ठीक है। सच है,
बिना क्रोध
की करुणा बिना
नमक के भोजन
की भाति होगी।
उसमें नमक न
होगा, ऊर्जा
न होगी। वह
बेस्वाद होगी,
बासी।
निस्संदेह, नकारात्मक
सदा विकसित
होगा विधायक
के साथ।
उदाहरण के लिए,
यदि एक समाज
अस्तित्व
रखता है जो
कहता है कि 'तुम्हारे
शरीर का बायां
हिस्सा गलत है,
इसलिए उसे
विकसित मत
होने दो, शरीर
का केवल दायां
हिस्सा ही ठीक
है, इसलिए
शरीर के दाएं
हिस्से को
विकसित होने
दो और शरीर के
बाएं हिस्से
का दमन होने
दो, उसे
पूरी तरह काट
दो'—तो
क्या घटेगा? या तो तुम
पंगु हो जाओगे,
क्योंकि
यदि तुम बायें
को विकसित न
होने दो, तो
दायां विकसित
न होगा, वे
साथ—साथ
विकसित होते
हैं, या तुम
अर्धविकसित
रह जाओगे, जैसे
कि बहुत से
मनुष्य
अर्धविकसित
रह गए हैं, या
तुम पाखंडी बन
जाओगे। तुम छिपाओगे
तुम्हारा बायां
हिस्सा और तुम
कहोगे कि
तुम्हारे पास
केवल दाया
हिस्सा है। और
तुम कहीं न
कहीं सदा
छिपाए रहोगे बायां
हिस्सा। तुम
पाखंडी हो
जाओगे—नकली, अप्रामाणिक,
एक झूठ, एक
जीवंत झूठ—जैसे
कि धार्मिक
लोग होते हैं।
सौ
में से
निन्यानबे
तथाकथित
धार्मिक लोग
झूठे हैं, नितांत
झूठे, क्योंकि
जो वे कहते
हैं कि वे
घृणा नहीं
करते हैं, यह
असंभव है। यह
अस्तित्व के
गणित के ही
विरुद्ध है।
वे झूठे ही
होंगे। उनकी
निजी अवस्था
में कोई खोज
करने की कोई
जरूरत नहीं, यह प्रकृति
के विरुद्ध है,
यह संभव
नहीं।
निन्यानबे
प्रतिशत
पाखंडी हैं और
एक प्रतिशत
सीधे—सादे लोग
हैं। ये
निन्यानबे
प्रतिशत
चालाक, होशियार
लोग हैं। वे
बायां भाग
छिपा लेते हैं।
दोनों हिस्से
समान रूप से
विकसित होते
हैं, लेकिन
एकदम छिपा
लेते हैं
बायां भाग और
बात करते हैं
दाएं भाग की।
संसार को तो
वे दिखाते हैं
दाया भाग और
बायां भाग
उनका निजी
संसार होता है।
उनके घरों में
पीछे के
दरवाजे होते
हैं। आगे के
द्वार पर वे
बात कर रहे
होते हैं कुछ
और। एक
प्रतिशत जो
निर्दोष लोग
हैं, सीधे—सरल,
बहुत जोड़—तोड़
बैठाने वाले
या बौद्धिक
नहीं, चालाक
नहीं, वे
बुद्धिहीन
बने रहते हैं।
वे सचमुच ही
दमन करते हैं,
और जब वे
दमन करते हैं
बाएं का, तब
दाएं का दमन
हो जाता है।
वे बने रह
जाते हैं
बुद्धिहीन।
मेरा
मिलना हुआ है
दो प्रकार के
धार्मिक लोगों
से निन्यानबे
प्रतिशत
पाखंडी और एक
प्रतिशत
बुद्धिहीन!
लेकिन सारी
जमात ही
व्यर्थ है।
सारी जमात ही
बोझ है; सारी
बात ही है एक मूढ़ता।
मैं नहीं
चाहूंगा कि
तुम वैसे हो
जाओ, मैं
नहीं चाहूंगा
कि तुम पंगु
और बौने रहो, हीनता में जीयों।
तुम्हें
विकसित होना
है तुम्हारी
पूरी ऊंचाई तक।
लेकिन वैसा
संभव है तभी
यदि
नकारात्मक और
विधायक दोनों
को
स्वतंत्रता
मिले। दोनों
तुम्हारे पंख
हैं। कैसे
पक्षी उड़ सकता
है एक पंख के
साथ? कैसे
तुम चल सकते
हो एक पैर के
साथ? यह
बात अस्तित्व
रखती है जीवन
की प्रत्येक
सतह पर : दो की
जरूरत होती है—विपरीतता
में। वे तनाव
देतीं और
देतीं गति की
संभावना। वे
एक—दूसरे के
विपरीत जान
पड़ती हैं,
लेकिन
वे होती हैं
पूरक। वस्तुत:
वे विपरीत
नहीं होतीं, केवल
ध्रुव विपरीत
होते हैं। वे
परस्पर मदद
देते हैं
विकसित होने
में। मैं
चाहूंगा कि
तुम अपनी चरम
ऊंचाई तक
विकसित होओ, और मैं यह भी
न चाहूंगा कि
तुम पाखंडी
बनो। तुम बनी
सच्चे और
स्वाभाविक।
तो
तुम्हारे लिए
मेरा संदेश
क्या है? मेरा
संदेश है :
प्रेम बड़ा है,
इतना बड़ा कि
तुम्हें घृणा
की चिंता करने
की कोई जरूरत
नहीं। घृणा को
उसका हिस्सा
बनने दो, उसे
विकसित होने
दो। वह
तुम्हारे
स्वाद में नमक
मिलाएगी।
करुणा विशाल
होती है; एक
छोटा—सा आकाश
का टुकड़ा घृणा
के नाम किया
जा सकता है—उसमें
कुछ बुरा नहीं।
लेकिन क्रोध,
करुणा का ही
हिस्सा होना
चाहिए। क्रोध
अलग नहीं होना
चाहिए, उसे
करुणा का ही
हिस्सा होना
चाहिए। घृणा
प्रेम का
हिस्सा होनी
चाहिए। और मृत्यु
जीवन का
हिस्सा होनी
चाहिए। पीड़ा
सुख का, दुख
उत्सव का, मंगलमय
आशीष का
हिस्सा होना
चाहिए; अंधकार
को प्रकाश का
हिस्सा होना
चाहिए। और फिर
कुछ गलत नहीं,
कोई पाप
नहीं। पाप को
पुण्य का ही
हिस्सा होना
चाहिए।
विशाल
बनो। उठो अपनी
परम ऊंचाई तक।
बौने मत बने
रहो। यदि तुम
बौने—बने रहे
तो तुम सदा
शिकायत करते
रहोगे परमात्मा
के खिलाफ, क्योंकि
कैसे तुम
परितृप्त
अनुभव कर सकते
हो? अपनी
ऊंचाई तक उठो
और भयभीत मत
होओ।
नकारात्मक
बढ़ेगा
तुम्हारे साथ,
वह सुंदर है।
नकारात्मक एक
भाग है, पूरक
है। तो भी
नकारात्मक एक
हिस्सा ही
होना चाहिए
विधायक का।
ऐसा ही होना
चाहिए
क्योंकि वह
नकारात्मक है।
नकारात्मक
संपूर्णता
नहीं बन सकता
और विधायक एक
हिस्सा नहीं
बन सकता
नकारात्मक का।
इसे समझ लेना
है।
जीवन
कैसे एक भाग
बन सकता है
मृत्यु का, मृत्यु
तो मात्र एक
अभाव है।
प्रकाश
अंधकार का एक
अंश कैसे हो सकता
है? अंधकार
और कुछ नहीं
है सिवाय
प्रकाश के
अभाव के, लेकिन
अंधकार समा
सकता है
प्रकाश में।
जरा
बाहर देखो—सूर्य
उदय हो चुका
है। इतना
ज्यादा
प्रकाश बरस
रहा है पेड़ों
तले,
छोटी—छोटी
चीजों में, छाया के टुकड़ों
में, कोई
चीज गलत नहीं।
एक थका हुआ
यात्री आता है
और बैठ जाता
है वृक्ष तले
और शरण पा
लेता है। बाहर
गर्मी है और
वृक्ष के नीचे
शीतल है।
वृक्ष के नीचे
की वह छाया, एक हिस्सा
है। हर
नकारात्मक
चीज को विधायक
का हिस्सा
होने दो। और
विपरीत बात
संभव नहीं, क्योंकि
विधायक
अस्तित्व
रखता है।
नकारात्मक, मात्र एक
अनुपस्थिति
है।
ऐसा
संभव है। मैं
तुमसे कहता
हूं ऐसा संभव
है क्योंकि
ऐसा घटा है
मुझको। इसलिए
बहुत कठिन है
मुझे समझना।
तुम चाहते हो, मैं
एक ध्रुव होऊं—और
मैं हूं दोनों।
लेकिन ऐसा घटा
है मुझको; ऐसा
घट सकता है
तुमको। और ऐसा
ही घटता रहा
है उन सब
लोगों को जो
सही दिशा की
ओर चले हैं और
जिन्होंने
समग्र को
स्वीकार किया है।
मैंने
किसी चीज को
अस्वीकार
नहीं किया, क्योंकि
बिलकुल
प्रारंभ से ही
यह बात मेरे
लिए गहनतम
निरीक्षण हो
गयी थी: कि यदि
तुम किसी चीज
को अस्वीकार
करते हो, तो
तुम कभी
संपूर्ण नहीं
हो पाओगे।
कैसे तुम
संपूर्ण हो
पाओगे यदि तुम
कोई चीज
अस्वीकार
करते हो तो? उस चीज का
सदा अभाव बना
रहेगा। यह बात
मेरे लिए एक
गहन निरीक्षण
बन गई कि कोई चीज
अस्वीकार
नहीं करनी है
और हर चीज
अपने में समा
लेनी है।
जीवन
को एक ही स्वर
नहीं बनना है, बल्कि
बनना है एक
समस्वरता। एक
ही स्वर चाहे
कितना ही
सुंदर क्यों न
हो, उबाऊ
होता है। बहुत
से स्वरों का
समूह, बहुत
ही भिन्न, एकदम
विपरीत स्वर
जब एक
समस्वरता में
मिलते हैं, तो सौंदर्य
निर्मित करते
हैं। सौंदर्य
न तो विधायक
में है और न ही
नकारात्मक
में है, सौंदर्य
है समस्वरता
भरे संगीत में।
इसे फिर से
दोहरा दूं मैं:
सौंदर्य न तो
सत्य में है
और न असत्य
में हैं; सौंदर्य
न तो करुणा
में है और न ही
क्रोध में, सौंदर्य योग
में है। जहां
विपरीत मिलते
हैं वहीं
मौजूद होता है
परमात्मा का
मंदिर। जहां
विरोधी तत्व
मिलते हैं, वहीं है
शिखर, जीवन
का शिखर।
अंतिम
प्रश्न:
आपने
कहां कि
संवेदनशील
होना धार्मिक
होना है लेकिन
ऐसा जान पड़ता
है कि
संवेदनशीलता
मुझे इंद्रिय—
लोलुपता और
भोगासक्ति
में ले जाती
है मेरे लिए
क्या रास्ता
है?
तो
भोगो! तो हो
जाओ इंद्रिय—लोलुप।
तुम इतने
भयभीत क्यों
हो जीवन से? क्यों
तुम
आत्महत्या
करना चाहते हो?
भोगासक्ति
में क्या
बुराई है और
इंद्रिय—लोलुप
होने में ही
क्या बुरा है?
तुम्हें
यही सिखाया
गया है। और
मैं यह कह रहा
हूं। तब तुम
संवेदनशील
होने में
भयभीत हो जाते
हो। क्योंकि
यदि तुम
संवेदनशील
होते हो, तो
हर चीज विकसित
होगी संवेनदशीलता
के साथ। सुखवादिता
विकसित होगी—सुंदर
होती है वह।
सुखवादी होने
में कुछ बुरा
नहीं है। एक
जीवंत आदमी सुखलोलुप
होगा ही। एक
मुरदा आदमी और
एक जीवंत आदमी
में अंतर क्या
होता है? मुरदा
आदमी
संवेदनात्मक
नहीं रहता; तुम छुओ और
उसे कोई
अनुभूति नहीं
होती। तुम
चूमो उसे और
वह
प्रत्युत्तर
नहीं देता!
मैंने
पिकासो
के बारे में
एक कथा सुनी
है। एक स्त्री
पिकासो
के चित्रों की
प्रशंसा कर
रही थी और वह
बोली, 'कल मैं
गयी एक मित्र
के घर और वहा
मैंने तुम्हारा
स्वयं का
चित्र देखा।
और मैंने उसे
इतना ज्यादा
प्यार किया, और मैं इतनी
प्रभावित हुई,
कि मैंने
चूम लिया चित्र
को।’ पिकासो ने उस
स्त्री की तरफ
देखा और बोला,
' और क्या
चित्र ने
उत्तर दिया? क्या
प्रत्युत्तर
में चित्र ने
तुम्हें चूमा?'
वह स्त्री
बोली, 'कैसी
नासमझी की बात
है! एक चित्र
कैसे जवाब दे सकता
है?' तब पिकासो
कहने लगा, 'तो
मैं नहीं था।
एक मरी हुई
चीज थी, वह
मैं कैसे हो
सकता था?'
यदि
तुम जीवंत
होते हो तो
तुम्हारी इंद्रिया
अपनी समग्र
क्षमता से
कार्य करेंगी।
और तुम
सुखभोगी बनोगे।
तुम्हें
चाहिए भोजन और
तुम स्वाद
लोगे; तुम
स्नान करोगे
और तुम अनुभव
करोगे पानी की
ठंडक। तुम
चलोगे बाग में
और तुम सूंघोगे
सुगंधि को, तुम
संवेदनात्मक
होओगे। एक
स्त्री
गुजरेगी और
शीतल बयार
तुम्हारे भीतर
चलेगी। ऐसा ही
होगा—क्योंकि
तुम जीवत हो!
एक सुंदर
स्त्री पास से
गुजरती हो और
कुछ न हो
तुम्हारे
भीतर—तो तुम
मुरदा हुए, तुमने मार
लिया स्वयं को।
सुखवादिता
संवेदनशील
होने का एक
भाग है। सुखवादिता
के भय के कारण
सारे धर्म
भयभीत हैं
संवेदनशीलता
से,
और
संवेदनशीलता
जागरूकता है।
इसलिए वे
जागरूक होने
की बातें तो
करते रहते हैं,
लेकिन वे
तुम्हें
संवेदनशील
होने नहीं
देते, जिससे
कि तुम जागरूक
हो नहीं सकते।
यह बात मात्र
एक बातचीत बन
जाती है। और
वे सुख— भोग के
लिए तुम्हें
अनुमति देते
नहीं। वस्तुत:
उन्होंने 'विषयासक्ति'
शब्द गढ़
लिया है।
इसमें से निंदात्मक
ध्वनि आती है।
जिस क्षण तुम
कहते 'विषयासक्ति', तो तुमने
निंदा कर ही
दी होती है।
यही
है विडंबना:
धार्मिक लोग
भोगने की
निंदा करते, और
वे निर्मित कर
देते भोग को। वे
निंदा करते
विषय—सुख की
और वे निर्मित
करते
विषयासक्ति
को। कारण क्या
है ऐसा करने
का? जब तुम
दमन करते जाते
हो तुम्हारी
संवेदनाओं का,
तो वही दमन
ही आसक्ति
निर्मित कर
देता है। वरना
एक सच्चा
जीवंत
व्यक्ति कभी भोगासक्त
नहीं होता है।
वह आनंदित
होता है, लेकिन
वह कभी भी भोगासक्त
नहीं होता है।
वह आदमी जो
रोज खूब अच्छी
तरह भोजन करता
हो, भोजन
के रस में ही
आसक्त नहीं रह
सकता। लेकिन
उपवास किए जाओ,
तो आसक्ति
पैदा हो जाती।
जो आदमी उपवास
करता रहता है
वह सोचता जाता
है— भोजन, भोजन,
भोजन की ही
बात। भोजन एक
मोह बन जाता
है। वह खाता
है चौबीसों
घंटे फिर जब
वह उपवास तोड़ता
है, तो वह
एकदम दूसरी
अति में डूब
जाता है। एक
अति पर तो वह
उपवास करता है,
दूसरी अति
पर वह बहुत
ज्यादा खा
लेगा।
अभी
दो दिन पहले
एक संन्यासी
आया इंग्लैंड
से और कहने
लगा कि वह
उपवास करना
बहुत पसंद
करता है। वह
बहुत कम खाता
है और वह भी एक
दिन छोड्कर।
मैंने कहां
उससे, 'उपवास
एक खतरनाक चीज
बन सकता है।
कई बार इसका
उपयोग किया जा
सकता है, लेकिन
दवाई की भाति,
जीवन की एक
शैली की भांति
नहीं। उपवास
जीवन का ढंग
कभी नहीं बन
सकता है।’ और
मैंने बात की
उससे—उपवास के
मोह से उसे
बाहर लाने के
लिए। तीन दिन
तक तो वह
बिलकुल दिखाई
ही नहीं पड़ा।
मैंने
प्रतीक्षा की।’कहां चला
गया वह! क्या
हुआ?' तीन
दिन के बाद वह
आया और वह
बोला, 'मैं
बीमार था। आप
बात करते थे
उपवास की और
आपने कहां कि
उपवास अच्छा
नहीं, इसलिए
मैं भोजन के
रस में डूब
गया। बहुत
ज्यादा खा
लिया मैंने।’
ऐसा
सदा घटता है
उपवास से तुम
सरकते हो एकदम
दूसरी अति की
ओर। ठीक कहीं
मध्य में, सम्यकत्व है। बुद्ध
ने फिर—फिर हर
चीज के साथ
प्रयोग किया
है सम्यक शब्द
का ब सम्यक—
भोजन, सम्यक—स्मृति,
सम्यक—शान,
सम्यक—प्रयास।
जो कुछ भी कहां
उन्होंने, सदा
उसके साथ
सम्यक शब्द
जोड़ दिया
उन्होंने।
शिष्य पूछते,
'क्यों सदा
आप सम्यक शब्द
जोड़ देते हैं?'
वे कहते, 'क्योंकि तुम
लोग खतरनाक हो।
या तो तुम इस
अति पर होते
हो या दूसरी
अति पर।’
यदि
तुम उपवास
करते हो तो
भोजन में अति
रस लेने की
बात आ बनेगी।
यदि तुम
प्रयास करते
हो,
तो सेक्स के
प्रति
लोलुपता
निर्मित होगी।
जो कुछ भी तुम
जबर्दस्ती
लाद लेते हो
अपने पर अंततः
वह जबर्दस्ती
तुम्हें ले
जाएगी भोगासक्ति
की ओर।
एक
सच्चा
संवेदनशील
व्यक्ति जीवन
से इतना ज्यादा
आनंदित होता
है कि वह आनंद
ही उसे शीतल और
शांत कर देता
है। उसमें कोई
सम्मोहित
आवेश नहीं
होते। वह
संवेदनात्मक
होता है।
और
यदि तुम मुझसे
पूछते हो, तो
बुद्ध ज्यादा
संवेदनशील
हैं किसी भी
अन्य व्यक्ति
से। वे होंगे
ही, क्योंकि
वे बहुत जीवंत
हैं। जब बुद्ध
देखते हैं
वृक्ष की तरफ,
तो जितना
तुम देख सकते
हो, वे
जरूर उससे
ज्यादा रंग
देख रहे होंगे,
उनकी आंखें
ज्यादा
संवेदनशील
होती हैं, ज्यादा
संवेदनात्मक
होती हैं। जब
बुद्ध भोजन
करते हैं, तो
जितने कि तुम
हो सकते हो, वे जरूर
तुमसे ज्यादा
आनंदित हो रहे
होंगे क्योंकि
उनके भीतर की
हर चीज एकदम
ठीक कार्य कर रही
होती है। यदि
तुम गुजरो
बुद्ध के पास
से, तो तुम
सुन सकते हो
बिलकुल ठीक
कार्य कर रही
संरचना की
गुनगुनाहट, जैसे कि
बिलकुल ठीक कार्य
कर रही कार की
मर्मर— ध्वनि
हो। हर चीज
बिलकुल ठीक हो
रही होती है, जैसी कि
होनी चाहिए।
वे संवेदनशील
होते हैं, वे
सुख के प्रति
संवेदनात्मक
होते हैं, लेकिन
कोई आसक्ति नहीं
होती। कैसे हो
सकती है?
भोगासक्ति
एक रोग है, भोगासक्ति
एक असंतुलन है।
तो भी तुमसे
मैं ऐसा नहीं
कहता। मैं
कहता हूं पूरे
डूबो
भोगासक्ति
में और खत्म
करो बात। उसे
अपने सिर पर
मत उठाए रहो।
वह बात ज्यादा
बुरी है कुछ
करने से।'
डूबो!
यदि तुम भोजन
के रस में
डूबना चाहते
हो तो पूरी
तरह डूबो।
शायद रसविमग्नता
के द्वारा तुम
अपने ठीक होश
तक पहुंच जाओ।
शायद पूरे
अनुभव द्वारा
तुम
परिपक्वता पा
जाओ,
उस प्रौढ़ता
तक पहुंच जाओ
जो कहती है कि
यह बात मूढ़ता
है।
मुझे
याद है
गुरजिएफ का
कहना कि वह एक बेरीनुमा
फल पसंद करता
था। वह मिलता
था काकेशस में, और
वह सदा बुरा
रहता उसके
स्वास्थ्य के
लिए। जब कभी
वह खा लेता
उसे, उसका
पेट खराब हो
जाता : दर्द
होता और पीड़ा
उठती और मितली—और
हर तरह की
चीजें! लेकिन
उसे इतना
ज्यादा पसंद
था वह फल कि
उसे न खाना
असंभव होता।
कुछ दिनों बाद
वह खा लेता, फिर और फिर।
वह कहता है, एक दिन मेरे
पिता बाजार गए,
मुझे अपने
साथ ले गए और
बहुत बड़ी
मात्रा में वह
फल खरीदा। मैं
बहुत खुश था
और हैरान था—कि
क्यों खरीद
रहे हैं वे
इतना? वे
सदा इसके
विरुद्ध रहे
थे। वे सदा
कहते थे मुझसे
कि उसे कभी न
खाना। तो क्या
हो गया! कैसे
अच्छे पिता
हैं! तब
गुरजिएफ केवल
नौ वर्ष का ही
था, उसके
पिता ने छड़ी पकड़ी हाथ
में और वे
बोले, 'तुम
वह सारे का
सारा खा जाओ।
वरना मैं
तुम्हें पीट—पीट
कर मार ही
डालूंगा।’ और
वह खतरनाक
आदमी था।
आंसू
बह रहे थे और
गुरजिएफ खाए
जा रहा था, और
उसे खाना था
उतना सारा।
वमन कर दिया
उसने, लेकिन
उसका पिता
बहुत ज्यादा
कठोर व्यक्ति
था। उसने वमन
कर दिया और
तीन सप्ताह तक
वह बीमार पड़ा
रहा पेचिश से,
वमन से और
बुखार से। फिर
फल समाप्त हो
गया। वह कहता
है, 'अभी भी
जब कि मैं साठ
वर्ष का हूं
यदि मुझे कहीं
दिखता है वह
फल, तो
मेरा सारा
शरीर कैपने
लगता है। मैं
देख तक नहीं
सकता उस फल की
ओर!'
पूरी
तरह भोग लेना
गहरी समझ
निर्मित कर
देता है जो
शरीर की जड़ों
तक उतरती है।
मैं कहता हूं
तुमसे 'जाओ
और पूरी तरह डूबो भोग
में।’ कुछ
बुरा नहीं
इसमें। यदि
तुम सचमुच
किसी चीज को
भोगते हो और
अपने को रोकते
नहीं, तो
इसमें से बाहर
निकलोगे
ज्यादा प्रौढ़
होकर। अन्यथा,
भोगने का वह
भाव, वह
विचार, सदा
पकड़े
रहेगा—वह
तुम्हें घेरे
रहेगा, वह
एक प्रेत बन
जाएगा। जो लोग
ब्रह्मचर्य
का व्रत लेते
हैं, वे
सदा आविष्ट
रहते हैं—कामवासना
के प्रेत
द्वारा।
जो
लोग किसी भी
तरह का
नियंत्रण
करने की कोशिश
करते हैं, वे
सदा भोग के
विचार से, सारे
बंधन तोड्ने
के विचार से, अनुशासनों
और
नियंत्रणों
के विचार से
घिरे रहते हैं,
और फिर
दनादन सिर के
बल कूद पड़ते
हैं इसमें।
जीवन
को तुम्हें ले
जाने दो जहां
कहीं वह
तुम्हें ले
जाता है—और
भयभीत मत होओ।
भय एकमात्र
ऐसी चीज है
जिससे कि किसी
को भयभीत होना
चाहिए, और
कोई ऐसी चीज
नहीं। बढ़ो!
हिम्मती बनो
और निर्भीक
बनो, और
मैं कहता हूं
तुमसे कि धीरे—
धीरे भोगने का
अनुभव ही, सुख
के प्रति संवेदनशील
होना ही
तुम्हें शांत
कर देगा। तुम
केंद्रस्थ हो
जाओगे।
लेकिन
मैं
संवेदनशीलता
के हक में हूं।
यदि वह भोगने
का भाव भी लाए, यदि
वह सुखवादिता
भी लाए तो भी
ठीक है। मैं
भोग के भाव से
और सुखवादिता
से भयभीत नहीं
हूं। मैं
भयभीत हूं
केवल एक चीज
से: कि रस में
डूबने और
सुखवादी होने
का भय तुम्हारी
संवेदनशीलता
को मार न दे।
यदि वह मर
जाती है, तो
तुमने कर ली
होती है
आत्महत्या।
संवेदनशील
होते हो, तो
तुम जीवंत
होते हो, होशपूर्ण
होते हो; जितने
ज्यादा
संवेदनशील
होते हो, उतने
ज्यादा जीवंत
और होशपूर्ण
होते हो। और
जब तुम्हारी
संवेदनशीलता
समग्र हो जाती
है, तो तुम
प्रवेश कर
चुके होते हो
भगवत्ता में।
आज
इतना ही।
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