प्रयास
नहीं, प्रसाद—(प्रवचन—तेरहवां)
दिनांक
3 जुलाई 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
यह
सुनकर कि अब
आप चुने हुए
साधकों के बीच
ही बोलते हैं
और
उन पर ही काम
करते हैं, हमारे बीच तरहत्तरह
की
प्रतिक्रियाएं
हुई हैं।
एक
संन्यासी
मित्र ने कहा, 'इससे एक ओर,
जहां
मेरे अहंकार
को रस मिला कि
मैं चुना गया,
वहां
दूसरी ओर यह
डर भी लगा कि
अब शायद
भगवान
के प्रवचनों
में रोज
सम्मिलित
होना ऐच्छिक न
रहकर
अनिवार्य हो
जाए।
एक
दूसरे
संन्यासी
मित्र ने कहा, 'भगवान तो
परम करुणावान
हैं,
फिर
करुणा बांटने
में यह भेद
क्यों कि कुछ
चुने हुए लोग
ही,
उनकी
अमृतवाणी
का प्रसाद पायें?'
और
वही बात सुनकर, मुझे मेरी
अयोग्यता और पिछड़ापन
याद हो आया।
और
डर होने लगा
कि कहीं इसी
कारण भगवान
मुझे अपने ढंग
से निकाल न
दें।
जीवन
के सत्य अब
सभी को दिये
नहीं जा सकते।
क्योंकि
जिनमें प्यास
ही नहीं है
उनके लिए पानी
का कोई अर्थ
नहीं। वे
सरोवर के
किनारे भी खड़े
हों तो भी
सरोवर उन्हें
दिखाई न
पड़ेगा। भूखे
को भोजन दिखाई
पड़ता है, प्यासे
को जल। और अगर
भीतर इतनी
गहरी प्यास न जगी
हो कि परमात्मा
दिखाई पड़ सके
तो दिखाने का
कोई उपाय भी
नहीं है।
करुणा
की कमी के
कारण नहीं, तुम्हारी
प्यास होगी तो
ही तुम पात्र
हो सकोगे। और
तुम्हारा
पात्र तैयार
हो तो ही
उसमें कुछ
डाला जा सकता
है। तुम पात्र
उल्टा किये
बैठे हो, तो
कुछ भी डालना
व्यर्थ है। वह
श्रम निरर्थक
चला जाता है।
पहली
बात तो यह समझ
लें कि जितनी
गहरी प्यास होगी
उतने ही बड़े
सत्य के
अधिकारी हो
जाएंगे। और
जरूरी नहीं है
कि प्यास हो
तो आपको गुरु
को खोजना पड़े; प्यास होगी
तो गुरु आपको
खोज लेगा।
जीवन के गहनतम
रहस्यों में
से एक यह है कि
जब भी शिष्य
तैयार है तब गुरु
प्रगट हो जाता
है।
खोजना
तो इसलिए पड़ता
है कि हम
तैयार नहीं
हैं। जब हम
तैयार होते
हैं तो गुरु
ऐसे ही प्रगट
हो जाता है, जैसे गङ्ढा
तैयार हो, और
वर्षा का जल
बरसे और गङ्ढे
में भर जाए।
वर्षा तो
पहाड़ों पर भी
होती है लेकिन
वे खाली के
खाली रह जाते
हैं। गङ्ढे
झील बन जाते
हैं। कोई
वर्षा की
करुणा में कमी
नहीं है, लेकिन
पहाड़ रिक्त रह
जाएगा
क्योंकि पहाड़
पहले से ही
भरा हुआ है। गङ्ढा भर
जाएगा
क्योंकि गङ्ढा
खाली है।
भरने
के लिये खाली
होना जरूरी
है।
होने
के लिये मिटना
जरूरी है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि थोड़े से
लोगों पर काम
करूंगा। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि बाकी के
प्रति करुणा
कि कोई कमी
है। वस्तुतः
गौर से देखेंगे
तो यह करुणा
के कारण ही
ऐसा करना पड़
रहा है। क्योंकि
जो जल उन
पात्रों पर
फेंका जा रहा
है, जो उल्टे
पड़े हैं, वह
व्यर्थ जा रहा
है। वह जल
उनके काम आ
सकता है, जो
सीधे हैं। जो
पानी उनको
दिया जा रहा
है, जिनकी
कोई प्यास
नहीं है, वह
उनके काम आ
सकता है, जो
प्यासे हैं।
उस तक ही
पहुंचना
चाहिए जिसको जरूरत
है।
और कई
बार ऐसा होता
है कि तुम्हें
भूख न हो और भोजन
मिल जाए तो
भूख के पैदा
होने की
संभावना तक मर
जाती है।
तुम्हें
प्यास न हो और
कोई पानी पिला
दे तो जो
प्यास कल पैदा
हो सकती थी, शायद वह भी
पैदा न हो
पाये। उचित
यही है, करुणापूर्ण
यही है कि जो
प्यासा नहीं,
उसे पानी न
दिया जाए।
शायद पानी की
कमी उसके भीतर
प्यास को जगाये।
और प्यास जगे
तो पानी
सार्थक हो
जाता है।
अब तक
बोल रहा था
सारे लोगों के
बीच। वह जरूरी
था ताकि
उन्हें कुएं
की खबर हो जाए
और जब उन्हें
प्यास लगे तो
वे कुएं तक आ
सकें। अब उसका
कोई प्रयोजन
नहीं है। पर इससे
भयभीत होने का
कोई भी कारण
नहीं है। और न
इससे किसी
चिंता में
पड़ने की कोई
जरूरत है। चिंता
अगर पैदा ही
करनी है तो एक
ही, कि अपनी
प्यास को
परखना है और
अपनी पात्रता
को गहरा करना
है।
लोग
प्रश्न पूछते
हैं और वे
सोचते हैं कि
प्रश्न पूछ
लिया इसलिए
उत्तर पाने के
अधिकारी हो गये।
प्रश्न किसी
को उतर का
अधिकारी नहीं
बनाता।
प्रश्न सिर्फ
कुतूहल भी हो
सकता है। अगर
गहरा हो तो
जिज्ञासा
बनता है। अगर
और गहरा हो तो
मुमुक्षा का
जन्म होता है।
तो
पहले तो उनके
लिए बोल रहा
था, जो
कुतूहल से भरे
थे।
फिर
उनमें से
मैंने उन
लोगों को चुना, जिनकी
जिज्ञासा थी।
और अब
जिज्ञासा से
उनको चुन रहा
हूं, जिनकी
मुमुक्षा है।
अब जो
मोक्ष के लिए
ही खोज में
हैं, उससे कम पर
जो राजी न
होंगे, उनकी
तरफ ही मेरा
श्रम होगा।
उससे कम पर जो
राजी होने को
तैयार हैं, उनके लिये
संसार बड़ा है।
वे कहीं और
खोज लेते हैं;
कहीं और खोज
लेंगे।
हजारों लोग
अभी कुतूहल के
लिये बोल रहे
हैं, उनको
सुन लेंगे। सैकड़ों
लोग जिज्ञासा
के लिये बोल
रहे हैं, उनको
समझ लेंगे। उन
सबसे पार होकर
जिनकी
मुमुक्षा जग
गई हो, अब
मेरा श्रम
उनके लिये
होगा।
और
ध्यान रहे, बहुत
स्थानों पर गङ्ढे
खोदने से कुआं
नहीं बनता, एक ही जगह
गहरा खोदने से
कुआं बनता है।
अभी तक बहुत
जगह गङ्ढे
खोद रहा था।
अब थोड़े-से
लोगों पर
गहराई में कुएं
खोदूंगा।
तभी तुम्हारा
मोक्ष प्रगट
हो सकेगा।
और
अंतिम
परिणामों में
अगर थोड़े-से
लोगों के जीवन
में मोक्ष का
फूल खिल जाए, तो उनके
पीछे जो
जिज्ञासु खड़े
हैं, उनकी
जिज्ञासा
मुमुक्षा में
बदलनी शुरू हो
जाती है। और
जब जिज्ञासियों
की जिज्ञासा
मुमुक्षा
बनती है। तो
कुतूहल वाले
लोगों का
कुतूहल
जिज्ञासा
बनता है। तुम
एक पंक्ति में
खड़े हो। और जब
तुम पाते हो
कि तुम्हारे
आगे खड़ा हुआ
व्यक्ति कहीं
पहुंच गया तो
तुम्हारे
जीवन में गति
आ जाती है।
कुछ
लोगों का
मोक्ष जरूरी
है।
इस
पृथ्वी पर
धर्म के खो
जाने का एक
महत्वपूर्ण
कारण यह है कि
तुम उस
व्यक्ति को
नहीं खोज पाते, जिसको मोक्ष
उपलब्ध हुआ
हो। तो
तुम्हें प्यास
कैसे जगे?
तुम उनके
बीच ही घूमते
हो जो अतृप्त
हैं। तुम्हें
तृप्ति का कोई
स्वाद नहीं
मिलता। कहीं
तृप्ति की कोई
गंध नहीं
मिलती। कहीं
कोई ऐसा व्यक्ति
नहीं मिलता
जिसका संगीत
तुम्हें पकड़ ले
और किसी
अलौकिक की खबर
दे। जिसका
होना तुम्हारे
लिए, नये
का द्वार बन
जाए। जिसके
पास पहुंचकर
तुम्हें लगे
कि जब तक मैं
ऐसा न हो जाऊं,
तब तक मेरा
होना व्यर्थ
है। कुछ लोगों
के जीवन में
मोक्ष का फूल
खिले तो अनेक
लोगों को खयाल
आयेगा कि फूल
खिल सकता है।
तो
लंबे अर्थों
में यही
करुणापूर्ण
है कि थोड़े
लोगों पर मैं
मेहनत करूं तो
उनके वृक्ष
खिल जाएं।
उनके कारण
बहुत लोगों को
परिणाम होगा। उनके
कारण बहुत लोग
मोक्ष की तलाश
में प्यासे और
गहरी खोज में
लगेंगे।
इससे
निश्चित ही
तुम्हारे
अहंकार को बल
मिल सकता है।
तुम्हें लग
सकता है कि
तुम चुने हुए
थोड़े लोग हो।
अगर ऐसा लगा, इस लगने के
कारण ही तुम
बाहर हो गये।
तो तुम भौतिक
रूप से मंदिर
के भीतर बैठे
रहो लेकिन तुम
मंदिर आये
नहीं।
क्योंकि
मंदिर में तो
प्रवेश उसी का
है, जो
अपने अहंकार
को बाहर रख
आया है।
ऐसी
बात सुनकर
तुम्हें
अहंकार नहीं, अनुग्रह
जगना चाहिए।
तुम्हें
परमात्मा के प्रति
अनुग्रह का
भाव पैदा होना
चाहिए। तुम्हें
लगना चाहिए कि
मैं पात्र
नहीं भी था, फिर भी
पात्र की तरह
स्वीकार किया
गया हूं। इससे
तुम्हारी
पात्रता बढ़ेगी।
अगर तुम्हें
लगा कि मैं
पात्र हूं
इसलिए चुना
गया हूं, तुमने
अपनी पात्रता
खो दी।
और यह
पात्रता कुछ
ऐसी नहीं है
कि तुम्हारी
कोई स्थायी
संपदा है।
क्षण में तुम
पाते हो, क्षण
में खो देते
हो। यह बड़ी
तरल है अभी; ठोस नहीं हो
गई है। एक
क्षण में
अहंकार का
भाव--और तुम
भटक जाते हो।
जैसे ही लगा
कि 'मैं
कुछ हूं,' तुम
अपात्र हो
गये। जैसे ही
लगा कि 'मैं
ना-कुछ हूं', पात्रता
उपलब्ध हो गई।
तुम्हारे
मिटने में ही
तुम्हारा गुण
है। तुम्हारे
होने में ही
तुम्हारी
बाधा है। तो
मन...मन तो सदा
अहंकार की तलाश
में रहता है।
कहीं से भी
कोई उपाय मिल
जाए तो मन
अहंकार को
निर्मित करने
की चेष्टा
करता है। और
अहंकार का
अर्थ है, उल्टा
पात्र। तुम
उल्टे रखे हो
फिर। फिर मैं
बरसता रहूं तो
भी तुम्हारे
पात्र में एक
बूंद न पहुंचेगी।
जब अहंकार
नहीं है तब
तुम सीधे रखे
पात्र हो। तब
मूसलाधार
वर्षा भी न हो,
रिमझिम
होती रहे तो
भी तुम आज
नहीं कल भर
जाओगे।
अनुग्रह
को पकड़ना।
और जब भी
तुम्हें
अहंकार पकड़े
तो कुछ खोजना
दूसरा तत्व।
जैसे 'मैं
चुना गया हूं',
ऐसा भाव
तुम्हें पकड़े
तो तुम दो
रास्ते
तुम्हारे
लिये खुल जाते
हैं: एक तो यह, कि मैं
विशिष्ट हूं
इसलिए चुना
गया हूं। तब
तुम भटक गये।
तुम
पहुंचते-पहुंचते
चूक गये। तुम
मुड़ गये उस
जगह से, जहां
से कि मार्ग
शुरू होता था।
दूसरा उपाय है
कि तुम समझो
कि
मैं--अनुग्रह
के प्रसाद
से--पात्र
नहीं हूं और
चुन लिया गया
हूं तो तुम
ठीक रास्ते पर
जा रहे हो।
सूफी
फकीर जुन्नैद
अपनी
प्रार्थनाओं
में रोज कहता
था कि मैं
चकित हूं कि
मेरी कोई भी
पात्रता नहीं, फिर भी मैं
जी रहा हूं।
जीने के लिए
मैंने कुछ भी
अर्जित नहीं
किया और जीवन
का यह परम धन्यभाग
मुझे मिला। और
मैं चकित हूं
क्योंकि कोई
भी कारण नहीं
है कि इतनी
शांति मुझ पर
क्यों बरसे।
जहां लोग इतनी
अशांति से जल
रहे हैं, वहां
क्यों मेरे
ऊपर यह शांति
बरसती है? उसकी
प्रार्थना
में एक अजीब
बात थी। वह
कहता था
परमात्मा! मैं
यह मान नहीं
सकता कि तुम
न्याययुक्त
हो। मैं यह
मान नहीं सकता
कि तू न्याययुक्त
है। तू जरूर
मेरी तरफ
पक्षपात कर
रहा है। मुझ
अपात्र पर
इतना बरस रहा
है।
पर यही
उसकी पात्रता
थी।
खुद को
अपात्र समझना
अध्यात्म के
मार्ग पर पात्रता
है। और जिस
दिन तुम अपने
को समझोगे
योग्य, उसी
दिन तुम भटक
गये। और मन
सदा तुम्हें भटकायेगा।
पहुंचते-पहुंचते
सीढ़ियां
हाथ से छूट
जाएंगी।
झेन
फकीर बोकूजू
की मृत्यु
करीब आई तो
उसने अपने
आश्रम में खबर
की। वहां कोई
पांच सौ
संन्यासी
थे--जापान के
चुने हुए लोग, नवनीत जैसे,
श्रेष्ठतम!
एक से एक बड़े
पात्र--
ज्ञानी, विचारशील,
ध्यानी।
उसने घोषणा की
कि अब वक्त
आया, मैं
विदा हो जाऊंगा;
तो मुझे
अपना
उत्तराधिकारी
चुनना है। तो
जो व्यक्ति भी
सोचता हो कि
मेरा उत्तराधिकारी
होने के योग्य
है, वह चार
छोटी-सी
पंक्तियों
में मेरे
द्वार पर रात
एक सूत्र लिख
जाए, जिसमें
सारे धर्म का
सार आ जाता
हो।
जो
पात्र थे, वे चुप ही
रहे क्योंकि
पात्र
योग्यता की
घोषणा नहीं
करता। जो
पात्र थे, उन्होंने
गुरु की झोपड़ी
की तरफ जाना
बंद ही कर
दिया। वह बात
ही खतम हो गई।
ऐसे भी घूमने
उस तरफ न जाते
कि कहीं खयाल
न आ जाए लिखने
का। लेकिन जो
अपात्र थे, वे रात-रात
भर तैयारियां
करने लगे। चार
पंक्तियों
में सारे धर्म
का सार डाल
देना है। एक
चौपाई लिख
देनी है। काम
कोई बड़ा कठिन
नहीं है।
क्योंकि चौपाइयां
पहले से ही
लिखी पड़ी हैं,
जिनमें
धर्म का सारा
सार आ जाता
है। और इतनी-सी
बात के लिए
इतने बड़े
आश्रम का, जिसकी
ख्याति
दूर-दिगंत तक
थी, उत्तराधिकारी
हो जाना!
संपत्ति
विराट थी। पांच
सौ भिक्षु
शिष्य थे और
लाखों श्रावक
शिष्य थे। बड़े
से बड़ा आश्रम
था बोकूजू
का।
अनेक
ने अपनी रातें
चौपार्ऌ
बनाने में
खर्च कीं। और
फिर आखिर जो
सबसे बड़ा पंडित
था, जो
शास्त्र का
सबसे बड़ा
ज्ञाता था, उसने जाकर
एक रात चौपाई
लिखी। चौपाई
में जरूर शास्त्र
का सार आ जाता
था, धर्म
का आता हो या न
आता हो। और
धर्म और
शास्त्र बड़ी
अलग बातें
हैं। शास्त्र
में जो भी
लिखा है उसको निचोड़
दिया था उसने।
उसने चार छोटी
सी पंक्तियां
लिखीं कि:
'आदमी
का मन दर्पण
की भांति है।
इस दर्पण पर
कर्मों की धूल
जम जाती है।
धूल को पोंछ
दें, फिर
स्वच्छ
ब्रह्म
उपलब्ध है।'
समस्त
शास्त्रों का
सार आ गया।
यही सारे शास्त्र
कह रहे
हैं--चाहे
पतंजलि, चाहे
बुद्ध, चाहे
महावीर कि मन
तुम्हारा
गंदा हो गया
है कर्मों के
कारण। कर्म की
लंबी शृंखला
है। जैसे कोई
यात्री किसी
धूल-धवांस
भरे रास्ते से
वर्षों तक
यात्रा करता
रहा हो। स्नान
का मौका न
मिला, सुविधा
न मिली जल की, कोई सरोवर न
आया, तो
धूल ही धूल से
भर जाए।
फिर एक
सरोवर में
छलांग लगायी, सारी धूल
धुल जाए और
यात्री
स्वच्छ और
ताजा हो जाए
क्योंकि भीतर
की स्वच्छता
कभी नष्ट तो
नहीं होती।
धूल बाहर ही
जम सकती है, भीतर तो जा
नहीं सकती।
भीतर का
ब्रह्म तो सदा
निखालिस है।
बस, ऊपर के
कपड़ों पर गंदगी
आ सकती है। वह
कभी गंदा नहीं
हो सकता, जो
तुम हो। वह
दीया जो बिन
बाती बिन तेल
जलता है, उस
पर कभी कोई
धुआं नहीं
उठता; क्योंकि
धुआं तो तेल
के कारण उठता
हैं। बाती गीली
होती है इसलिए
उठता है।
लेकिन जहां
बाती नहीं, तेल नहीं, वहां धुआं
कैसे उठेगा? वहां अग्नि शुद्ध
जलती है। तो
भीतर तो कुछ
कभी पहुंचता
नहीं; बस
ऊपर ही सब जम
जाता है।
तो सार
की बात तो कह
दी थी कि मन एक
दर्पण की भांति
है। यही तो
सभी ने कहा
है।
'कर्म
का मल जम जाता
है'--यही
सभी
शास्त्रों का
सार है। धो लो
इसे--आचरण, योग,
चरित्र, धर्म,
नीति धोने
के उपाय हैं।
और फिर तुम
शुद्धतम हो, जो कि तुम
सदा थे। जो
तुमने कभी
खोया नहीं था,
वह तुम्हें
फिर मिल
जाएगा।
तुम्हारी परम
शुद्धता पुनः
प्रगट हो
जाएगी।
आविष्कार है
यह, कोई
नये की
उपलब्धि
नहीं। धूल भर
झाड़ देनी है।
सुबह
गुरु उठा, देखा दीवाल
पर लिखा सूत्र
और कहा, किस
मूढ़ ने यह
उपाय किया है?
उसे पकड़ो!
भाग न जाए।
डर के
कारण...डर तो था
ही उस
महापंडित को।
पंडित भय के
तो कभी बाहर
नहीं हो सकता
क्योंकि
कितना ही वह
समझ ले, भीतर
तो जानता है
कि मैं अभी
समझा नहीं।
कितने ही
शास्त्र
कंठस्थ हो
जाएं, लेकिन
कंठ से नीचे
तो शास्त्र
कभी गया नहीं;
जा भी नहीं
सकता। हृदय तो
रिक्त ही रह
जाता है। और
कंठ में फांसी
लग जाती है
पांडित्य से।
कंठ अवरुद्ध
हो जाता है।
जानता
तो था ही कि यह
सब शास्त्र
में ही लिखा है, जो मैंने
पढ़ा है। और जो
मैंने सार
निकाला है, वह कोई
अनुभव का सार
नहीं है। वह
मेरी बुद्धि
की ही बातचीत
है। और गुरु
को धोखा देना
असंभव है
इसलिए दस्तखत
उसने नहीं
किये थे। इतनी
उसने
होशियारी की
थी कि अगर ठीक
पाया गुरु ने,
तो घोषणा कर
दूंगा मैंने
लिखा है। अगर
ठीक न पाया
गुरु ने तो
इनकार कर जाऊंगा।
फिर भी डर था
कि इससे भी
बचना आसान
नहीं है। गुरु
फौरन पहचान
लेगा किसने
लिखा है!
इसलिए रात
लिखकर वह भाग
गया था आश्रम
के बाहर। अपने
मित्रों को
जता गया था कि
अगर गुरु
स्वीकार कर ले
तो मुझे खबर
कर देना, मैं
बाहर छिपा
हूं।
गुरु
ने देखा और
उसने कहा, यह किस मूढ़
ने लिखा है? उसे पकड़ो!
भाग न जाए।
उसकी मुझे
पिटाई करनी ही
पड़ेगी। बड़ा
सन्नाटा
आश्रम में छा
गया। अनेक
लोगों ने चौपाइयां
तैयार कर रखी
थीं, उन्होंने
हिम्मत ही छोड़
दी। क्योंकि
महापंडित हार
गया, तो
हमारी चौपाइयां
अब क्या काम
आएंगी? सारे
आश्रम में एक
ही चर्चा थी
कि गुरु चाहता
क्या है? क्या
असंभव चाहता
है? यह सार
तो लिख दिया
है।
और कई
को तो शक होने
लगा कि यह
गुरु भी अगर
लिखे तो इससे
बेहतर लिख
नहीं सकता।
लिखेगा क्या
और? बचता
क्या है?
चार
पंक्तियों
में सब आ गया।
मनुष्य की
स्थिति आ गई, स्थिति का
कारण आ गया, कारण को
मिटाने का
उपाय आ गया, मिट जाने के
बाद परम
अवस्था का वर्णन
आ गया; और
क्या?
बुद्ध
ने चार ही तो
बातें कहीं है,कि
दुख है, दुख
का कारण है, दुख को
मिटाने का
उपाय है और
दुख को मिटने
की...मिट गये
दुख की स्थिति
है। ये चार
बातें पूरी आ गईं।
दुख है
क्योंकि मन पर
धूल जम गई है।
धूल जम गई है
क्योंकि
तुमने कर्म
किये हैं, लंबी
यात्रा की है।
तुमर् कत्ता रहे
हो, अंहकार
रहे हो। तुमने
सोचा है कि मैंर्
कत्ता
हूं, इसलिए
धूल जम गई है।
धूल को पोंछ
दो ध्यान से, प्रार्थना
से, शुद्ध
आचरण से, यम
से, नियम
से। शुद्धता
उपलब्ध हो
जाती है। वही
निर्वाण है।
लोग
चर्चा करने
लगे छिपे
यहां-वहां, कि यह
व्यवहार ठीक
नहीं हुआ। यह
चर्चा करते
हुए आश्रम के
भिक्षु जहां
भोजन करते थे,
वहां से
गुजरते थे। तो
जो आश्रम का
चावल कूटता था
आदमी, वह
भी एक भिक्षु
ही था। बारह
वर्ष पहले
आश्रम में आया
था। बारह वर्ष
पहले जाकर
उसने इस गुरु बोकूजू के
चरणों में सिर
रखा था और कहा
था कि मुझे
अंगीकार कर
लें। मैं भी
सत्य की खोज
में आया हूं।
तो
गुरु ने कहा
था, 'तू सत्य
के संबंध में
जानना चाहता
है कि सत्य जानना
चाहता है?' क्योंकि
ये दो खोजें
अलग-अलग हैं।
सत्य के संबंध
में जानना हो,
आसान बात है;
थोड़ा-सा
बुद्धि का
उपाय और खेल
है। शास्त्र
का अध्ययन कर,
सूत्र कठंस्थ
कर, पंडित
हो जा। लेकिन
ध्यान रख, यह
ऐसे ही है, जैसे
कोई हीरे के
संबंध में
जानता हो और
हीरा कभी
देखने न मिला
हो। किसी ने
पानी के संबंध
में बहुत कुछ
सुना हो, लेकिन
कंठ के नीचे
एक बूंद न
उतरी हो। तो
तू चाहता क्या
है? 'सत्य
को जानना, या
सत्य के संबंध
में जानना?'
तो उस
आदमी ने कहा
था कि जब आ ही
गया खोजने तो
अब सत्य के
संबंध में
क्या जानना!
सत्य को ही
जानना है।
रास्ता कितना
ही लंबा हो, कितने ही
जन्म लग जाएं,
मैं तैयार
हूं। तो गुरु
ने कहा, फिर
ऐसा कर, यह
आश्रम का चौका
है, पांच
सौ भिक्षुओं
का भोजन बनता
है, तू
चावल कूटने
का काम संभाल
ले। और अब
दुबारा देख, यहां मत
आना। जब जरूरत
होगी, मैं
आ जाऊंगा।
बारह
साल बीत गये; न तो वह आदमी
गुरु के पास
आया, न
गुरु उसके पास
गया। वह आदमी
सोचने जैसा
है। बस वह
चावल ही कूटता
रहा। वह सुबह
उठता और चावल कूटने में
लग जाता। सांझ
थक जाता, सो
जाता। सुबह
फिर चावल कूटने
में लग जाता।
आश्रम में
उसकी कोई गणना
ही न थी।
भिक्षु उसके
पास से गुजरते
थे तो कोई
उसकी तरफ
देखता भी न
था। कोई
नमस्कार भी
नहीं करता था।
लोग उसे भूल
ही गये थे।
चावल कूटने
वाला था, उससे
कुछ लेना-देना
नहीं था।
धीरे-धीरे कोई
उससे बोलता भी
नहीं था; क्योंकि
सब
प्रतिष्ठित
थे, वह
चावल कूटने
वाला था। जब
कोई बोलता ही
नहीं था तो
धीरे-धीरे वह
मौन हो गया।
और लोगों में
ऐसा खयाल हो
गया कि वह चुप
ही हो गया है, कुछ बोलता
भी
नहीं--उपेक्षित
था।
कुछ
दिन तक पुराने
विचार मन में
चलते रहे। जिस
घर से आया था, जिस बाजार
से आया था, जिनको
पीछे छोड़ आया
था, उनकी
स्मृतियां
भटकती रहीं; लेकिन कितने
दिन? एक ही
काम था--सुबह
से चावल कूटना,
रात सो जाना,
सुबह फिर
चावल कूटना।
यह चावल कूटना
ध्यान हो गया।
यह काम ही
ध्यान हो गया।
बस एक ही, गुरु
ने एक ही बात
कही थी कि
चावल कूट; तो
उसने अपना
सारा जीवन
चावल कूटने
में लगा दिया।
मन को, पूरा
वहीं संलग्न
कर दिया। जैसे
बस यही प्रार्थना,
यही पूजा, यही साधना, यही योग। और
अब कुछ बचा भी
नहीं क्योंकि
गुरु ने कहा, दुबारा तू
आना मत। जरूरत
होगी तब मैं आ जाऊंगा।
इसलिए भविष्य
की कोई चिंता
भी न रही, अपने
हाथ में कुछ
बचा ही नहीं।
समर्पण पूरा
हो गया।
धीरे-धीरे लोग
इसे भूल ही
गये।
उस दिन
जब आश्रम में
चर्चा चलती थी
और लोग इसके
पास से गुजर
रहे थे भिक्षु; और वे कह रहे
थे कि हमें तो
शक है कि यह
गुरु थोड़ी
ज्यादती कर
रहा है। यह
खुद भी लिखना
चाहे तो इससे
बेहतर सूत्र
लिख नहीं
सकता। आपस में
सूत्र का
विश्लेषण कर
रहे थे। वह
चावल कूट रहा
था। इसने
सूत्र को सुना
और यह जोर से
हंसा।
यह
पहली घटना थी
बारह साल में।
चौंककर भिक्षुओं
ने इसकी तरफ
देखा और कहा
कि तुम हंसे।
बात क्या है?
उसने
कहा कि गुरु
ने ठीक ही
मुझसे कहा था, 'सत्य के
संबंध में
जानना कि सत्य
को जानना? जिसने
भी यह सूत्र
लिखा है, सत्य
के संबंध में
जानता है, सत्य
का इसे कोई
पता नहीं।'
लोग तो
मजाक उड़ाने
लगे कि तू चावल
कूटते-कूटते
सिद्ध हो गया!
तो हम व्यर्थ
ही सिर फोड़
रहे हैं। इतना
शीर्षासन कर
रहे हैं, इतने
आसन लगा रहे
हैं, और
सुबह से शाम
तक परेशान
हैं। जिंदगी
तपश्चर्या
बना डाली और
तू चावल कूटते-कूटते
सिद्ध हो गया?
तू भी सोचता
है कि यह सत्य
के संबंध में
है, सत्य
नहीं ? तो
तेरा क्या
कहना है?
उसने
कहा, 'यह जरा
मुश्किल बात
है। बारह साल
में मैं थोड़ा
बहुत लिखना भी
जानता था, वह
भूल गया। थोड़ी
बुद्धि काम
करती थी वह भी
अब काम नहीं
करती। देखते
हैं, चावल
हैं, चावल कूटते-कूटते
निर्बुद्धि
हो गया। लेकिन
अगर कोई लिखने
को तैयार हो
तो मैं बोल
दूंगा, तुम
दीवार पर जाकर
लिख दो।'
उन्होंने
कहा, 'चल साथ।'
उसने
कहा, 'उतने दूर
मैं जाने वाला
नहीं। यह
सूत्र लिख दो
जाकर कि मन
कोई दर्पण
नहीं है जिस
पर धूल जम जाए।
और जब धूल जमी
ही नहीं तो
साफ क्या खाक
करोगे? जिसने
यह जान लिया, उसने सब जान
लिया।
किसी ने
जाकर दीवाल पर
लिख दिया।
गुरु
बाहर निकला और
उसने कहा, पकड़ो उस
चावल कूटने
वाले को
क्योंकि
सिवाय उसके
कोई दूसरा यह
वचन नहीं बोल
सकता। गुरु
भागा गया। वह
आदमी चावल कूट
रहा था और
गुरु ने कहा
कि वक्त आ गया
कि मैं तेरे
पास आऊं। तुम
ने पा लिया।
क्योंकि जो भी
जान लेता है, वहां कैसा
मन? कैसा
दर्पण? कैसी
धूल? वैसा
व्यक्ति यह भी
जान लेता है
कि वह सब सपना था,
जो टूट गया।
जो
सुबह जागता है, क्या वह यह
कहता है, सपना
झूठ है या सच? कि सपने में
हत्या की तो
उसकी धूल लगी
है? कि
सपने में पाप
किया तो उसे
पोंछना पड़ेगा,
साफ करना पड़ेगा?
जागते ही
पता चलता है
कि सपना खो
गया, दर्पण
खो गया, धूल
खो गई, सब
खो गया, अकेला
मैं बचा। तूने
ठीक पहचान
लिया। तू यह
संभाल, यह
कुंजी। तू
मेरा
उत्तराधिकारी
हुआ।'
उसने
कहा, 'लेकिन
मैं एक ही
तरकीब जानता
हूं--चावल
कूटना। वही
सिखाऊंगा, लेकिन
इतने चावल का क्या
करोगे? पांच
सौ जो लोग हैं,
मैं तो चावल
कूट-कूटकर
पहुंच गया।
तुम्हारी बड़ी
कृपा...। तुमने
मुझे ज्ञान न
दिया, तुमने
मुझे मंत्र न
दिया, तुमने
मुझे शास्त्र
न दिया, तुम्हारी
अनुकंपा! मैं
तो चावल
कूट-कूटकर...लेकिन
पांच सौ को
मैं चावल कुटवाऊं?
इतने चावल
का क्या होगा?
गुरु
ने कहा, 'वह
तेरी झंझट वह
तू जान!' इस
व्यक्ति के
माध्यम से
अनेक लोग
निर्वाण तक पहुंचे।
और उसकी कुल
प्रक्रिया
इतनी थी कि अगर
बगीचे
में गङ्ढा
खोद रहे हो तो
वह कहता, सिर्फ
गङ्ढा खोदो। तुम
मत रहो और गङ्ढा
खोदना ही बचे।
तुम मिट जाओ, गङ्ढा खोदने की क्रिया
बचे। अगर तुम
लकड़ी काट रहे
हो तो लकड़ी कटे,
तुम न रहो।
तुम रास्ते पर
चल रहे हो तो
चलना तो घटे, लेकिन चलने
वाला न हो।
तुम कुएं से
पानी भर रहे
हो तो पानी तो
भरा जाए, भरने
वाला न पाया
जाए कुएं पर।
अनूठे
शिष्य उसके सिद्धत्व
को उपलब्ध
हुए। उसके
सिद्धों से जब
लोग पूछते तो
बड़े हैरान
होते। कोई
कहता पानी
भर-भर के मैं
ध्यान को
उपलब्ध हुआ।
पहले जब पानी
भरना शुरू
किया तो भरने
वाला था, फिर
भरने वाले को
भरने की
क्रिया में
लीन किया। फिर
पानी तो भरता
रहा, हम न
रहे;--बस
सतोरी, सिद्धि
घट गई, समाधि
हो गई।
कोई
कहता लकड़ी काटते-काटते; कोई कहता गङ्ढा
खोदते-खोदते;
कोई कहता
गायों को
चराते-चराते। बोकूजू के
इस शिष्य के
माध्यम से जो
लोग सिद्धि को
उपलब्ध हुए, उनकी संख्या
बड़ी है। और
जीवन की सहजता
से वे सिद्धत्व
को पहुंचे।
एक तो
जानना है सत्य
के संबंध में; वह जिज्ञासा
है। और एक
सत्य को जानना
है; वह
मुमुक्षा है।
और सत्य को
जिसे जानना है,
उसे मिटना
होगा। वह चाहे
चावल कूटने
में मिटे, चाहे
ओंकार की
ध्वनि में मिट
जाए, चाहे
दुकान पर
बैठे-बैठे मिट
जाए।
कबीर
बुनते रहे
कपड़े, जुलाहे
के जुलाहे रहे;
और वहीं
सिद्ध हो गये।
और जब बाद में
लोगों ने कबीर
से कहा कि अब
तो छोड़ो।
अब तो तुम परम
स्थिति को
पहुंच गये, अब क्यों कपड़ा
बुने जा रहे
हो? तो
कबीर ने कहा, 'जिसको
बुन-बुनकर
पहुंचा, उसको
अब क्या छोड़ना?
इसी से
पहुंचा हूं, यही साधन
है।' बस, कपड़े को
बुन-बुनकर, धागे
डाल-डालकर
कबीर मिट गये।
गोरा
कुम्हार हुआ; वह मिट्टी
रोंद-रोंदकर,
घड़े बना-बनाकर
उपलब्ध हो
गया। रैदास
चमार जूते बनाना
जारी ही रखा।
एक
हसीद फकीर बालसेन
के पास आकर एक
चमार ने पूछा
कि मैं बड़ी
मुश्किल में
हूं। कब करूं
प्रार्थना? क्योंकि मैं
हूं गरीब, बारह
मेरे बच्चे
हैं, पत्नी
है, बूढ़ा
पिता है, विधवा
बहन है। इन
सबका
पालन-पोषण
मेरे ऊपर है और
जूता बनाने के
सिवाय मैं कुछ
जानता नहीं। सुबह
से काम में लग
जाना पड़ता है।
अगर वहां सुबह
काम में न
लगूं तो
ग्राहक दूसरी
दुकानों पर चले
जाते हैं और
वह है
प्रार्थना का
समय। तो
प्रार्थना कब
करूं? सांझ
को रात देर तक
मुझे काम करना
पड़ता है, तभी
भरण-पोषण हो
पाता है।'
बालसेन
ने कहा, 'जब
तू जूता ही
बनाता है तो
प्रार्थना की
जरूरत क्या है?
बस जूता ही
बना। वही तेरी
प्रार्थना।
और जो ग्राहक
आये, वही
तेरा
परमात्मा।' और कहते हैं
चमार जूते बना-बनाकर
और ग्राहक में
परमात्मा को
देखते-देखते
मिट गया; उपलब्ध
हो गया।
तुम
मिटोगे तो
पाओगे। कैसे
तुम मिटते हो, यह गौण है।
तुम रहे तो
तुम चूक जाओगे;
कैसे तुम
बचते हो, यह
गौण है। कोई
धन ज्यादा है
इसलिए सोचता
है, मैं
कुछ हूं। कोई
बड़े पद पर है
इसलिए सोचता
है, मैं
कुछ हूं।
तुम
सोच सकते हो
कि तुम थोड़े
से चुने हुए
लोगों में हो, तुम कुछ हो --
तुम चूके।
तुम्हारी
पात्रता किसी
भी क्षण
अपात्रता हो
सकती है। तुम
अपनी पात्रता
को अपात्रता
में मत बदलने
देना। सूत्र
एक है, तुम
अनुग्रह
मानना।
इसीलिए
सभी संतों ने
कहा है, परमात्मा
प्रयास से
नहीं मिलता; प्रसाद से
मिलता है। इसे
समझ लो।
परमात्मा कभी
भी प्रयास से
नहीं मिलता; क्योंकि
प्रयास में तो
अहंकार बचा ही
रहता है--मैं
कर रहा हूं! जब
तक मैं कर रहा
हूं कुछ, तब
तक वह नहीं
मिलता। तब तक
मैं मौजूद
हूं। इसलिए
प्रयास से
पहुंचने वाला
चांद पर पहुंच
जाए, एवरेस्ट
पर खड़ा हो जाए,
लेकिन
प्रयास से
चलने वाला
स्वयं तक नहीं
पहुंच पाता।
अहंकार
और स्वयं में
विरोध है। तुम
जितना ही समझते
हो तुम हो, उतना ही तुम
अपने स्व को ढांक रहे
हो। जितना ही
तुम्हारा
अहंकार खोयेगा
उतना ही
तुम्हारा स्व उघड़ेगा।
और तुम्हारे उघड़ेपन का
नाम ही
परमात्मा है।
जब तुम्हारा
पूरा स्वभाव उघड़ गया, नग्न, अपनी
निर्दोषता
में प्रगट हो
गया, जब
तुम खुलोगे
पूरे, तुम्हारी
पंखुड़ियां
खिलेंगी और
तुम फूल बनोगे।
तो तुम
यह सोच सकते
हो कि तुम कुछ
हो। बुद्ध के निकटतम
शिष्य वंचित
रहे आखिरी
क्षण तक। आनंद
जो उनके
निकटतम चालीस
वर्ष तक था, आखिरी दिन
तक वंचित रहा।
और रोने लगा
और उसने उनसे
कहा, कि अब
तुम छोड़ रहे
हो! मेरा क्या
होगा? और
चालीस साल मैं
तुम्हारे साथ
रहा, कुछ
पाया नहीं।
बुद्ध ने कहा,
'मैं क्या कंरू? तेरी
अकड़, कि तू
बुद्ध के साथ
है, बाधा
बन गई। तेरी
जिद, कि तू
साथ ही रहेगा,
बाधा बन गई।
तेरा खयाल, कि तू बुद्ध
का चचेरा भाई
है, और न
केवल चचेरा
भाई है, बड़ा
चचेरा भाई है।'
क्योंकि
जब आनंद पहली
दफा दीक्षा
लेने आया तो उसने
कहा, सुनो, दीक्षा
के बाद मैं तो
शिष्य हो जाऊंगा,
अभी दीक्षा
के पहले मैं
तुम्हारा बड़ा
भाई हूं।
तुम्हें मैं दोत्तीन
बातें कहता
हूं, वह
बड़े भाई की
आज्ञा समझना।
एक, कि
दीक्षा लेने
के बाद तुम
जहां भी जाओगे,
मैं
तुम्हारे साथ
रहूंगा। तुम
यह न कह सकोगे
कि आनंद कहीं
और जाओ। मैं
कहीं विहार न
करूंगा। यह
बड़े भाई की
हैसियत से
तुमसे कह रहा
हूं। दीक्षा
के बाद तो फिर
मैं कुछ न कह
सकूंगा। यह
वचन तुम मुझे
दे दो। तुम
जहां सोओगे, वहीं मैं सोऊंगा
उसी कमरे में।
मैं क्षण भर
तुम्हें छोड़ूंगा
नहीं और तुम
यह न कह सकोगे
कि एकांत
चाहिए। और तीसरी
बात: आधी रात
भी किसी को मिलाऊंगा
तो मिलना
पड़ेगा। तुम यह
न कह सकोगे कि
नहीं, यह
कोई मिलने का
वक्त है? और
चौथी बात कि
कोई भी प्रश्न
पूछूं, तुम टाल न
सकोगे; जवाब
देना पड़ेगा।
यह बड़े भाई की
हैसियत से मांगता
हूं।
फिर
आनंद दीक्षित
हो गया और ये
चार बातें
बुद्ध ने सदा
पूरी कीं।
वक्त-बेवक्त
किसी को मिलाया, मिले, संगत-असंगत
सवाल पूछा, जवाब दिया।
चालीस साल तक
आनंद को छाया
की तरह साथ
रखा। लेकिन वह
अकड़ कि मैं
बड़ा भाई हूं
बुद्ध का भीतर
बनी रही।
रस्सी जल भी
गई, तो भी
अकड़ बनी रही।
तो बुद्ध ने
कहा, जब तक
मैं मर ही न
जाऊं आनंद, तू मुक्त न
हो सकेगा
क्योंकि तुझे
मैं अलग कर नहीं
सकता; तेरी
अकड़ जाती नहीं,
अब एक ही
उपाय है कि
मैं खो जाऊं, ताकि तू
अकेला रह जाए।
बुद्ध
जिस दिन मरे
उसके दूसरे
दिन आनंद
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
गया। सब सहारा
खो गया तो अहंकार
के खड़े होने
की जगह न रही।
तुम बुद्ध को
भी अहंकार का
सिंहासन बना
सकते हो।
अनुग्रह
का खयाल रखना।
प्रयास से कभी
सत्य मिलता
नहीं, क्योंकि
प्रयास में तो
तुम बच ही
जाते हो। इसलिए
संत कहते हैं
प्रसाद से; उसकी कृपा
से। यह बड़ी
मीठी बात है।
तुम्हारे
करने से क्या
होगा? तुम्हारा
करना कितना
छोटा है! तुम
करोगे भी क्या?
माला फेरोगे,
क्या कर रहे
हो तुम? नाम
रटोगे? राम...राम...राम...राम...करोगे,
क्या कर रहो
हो? तोते
कर लेते हैं।
तुम करोगे
क्या? यह न
खाओगे, वह
न पीओगे; इसका कितना
मूल्य है? यह
कपड़ा न पहनोगे, वह कपड़ा पहनोगे; इसका कितना
अर्थ है? तुम्हारे
करने की
सार्थकता
कितनी? गहराई
कितनी? तुम
करोगे क्या? अहंकार का
करना जाएगा
कहां? छिछला
अहंकार! उसके
कर्म भी छिछले
होंगे। कोई
सागर की लहर
सागर की गहराई
में तो जा
नहीं सकती।
ऊपर ही रहेगी।
कितनी ही
उछल-कूद करे, कितना ही
शोर-शराबा
मचाये, नाचे,
चिल्लाये, लेकिन गहराई
में नहीं जा
सकती। लहर सतह
पर ही रहेगी।
अहंकार सतह पर
है; वह भीतर
नहीं जा सकता।
वह गहराई में
नहीं ले जा
सकता। तुम कुछ
भी करो, तुम्हारा
किया हुआ ऊपर
ही ऊपर रहेगा।
इसलिए
दो उपाय हैं।
और दो उपाय
सिर्फ दो तरह
की भाषा के
कारण हैं। एक
तो यह है कि
तुम कुछ न करो, तुम निष्किय
हो जाओ; तुम
अकर्म में लीन
हो जाओ।
बुद्धों ने
कहा, तुम
कुछ भी मत
करो। तुम करना
ही छोड़ दो
ताकि लहर मिट
जाए। जब लहर
मिट जाती है
तो गहरे में
प्रवेश हो
जाता है।
क्योंकि सागर
के भीतर जाने
के लिये लहर
का रूप बाधा
है। लहर मिटी
कि फिर सागर
के भीतर जा
सकती है। भीतर
कोई लहर नहीं
है, भीतर
परम शांति है।
जब तक लहर
शांत न हो जाए,
भीतर न जा
सके। तो बुद्ध
कहते हैं, तुम
चुप हो जाओ।
और तुम करो ही
मत कुछ। तुम
अकर्म में लीन
हो जाओ। यह एक
ढंग है।
एक ढंग
यह है कि
परमात्मा
करने वाला है, करना सब उस
पर छोड़ दो।
तुम सिर्फ
उसके उपकरण हो
जाओ। यह दूसरा
ढंग है। यह
कृष्ण का
मार्ग है।
कृष्ण अर्जुन
को कहते हैं, 'तू उपकरण हो
जा, निमित्त
मात्र। वह कर
रहा है, तू
नहीं कर रहा
है। वह करवा
रहा है। स्वर
उसके हैं, तू
भला बांस की
पोंगरी है, बांसुरी है।
वह बजा रहा
है। जैसे उसे
बजाना हो, बज!
बाधा मत डाल।
तू बीच में
खड़ा मत हो कि
मैं यह स्वर
तो बजाऊंगा
और यह स्वर न बजाऊंगा।
यह गीत तो
मुझे पसंद है,
यह गीत मुझे
पसंद नहीं। यह
तू बीच में
खड़ा मत हो। तू
बांस की पोंगेरी
हो जा। उसके
स्वरों को
निकलने दे, तू न बाधा
डाल, न
अड़चन खड़ी कर।
न तू अपनी तरफ
से निर्णय ले।
निर्णय उसका,
कर्म उसका।
न तूर् कत्ता है, न तू
निर्णायक है।
तू सिर्फ
निमित्त है।
तू सिर्फ
उपकरण है, साधन
है।'
यह एक
मार्ग है। यह
भक्त का मार्ग
है। एक मार्ग
है कि तू
निष्क्रिय हो
जा, तू कुछ भी
मत कर। तू है
ही नहीं--शून्यवत!
यह ज्ञानी का
मार्ग है।
दो ही
मार्ग हैं। और
दोनों का मतलब
एक है। चाहे परमात्मार्
कत्ता हो, या तुम
निष्क्रिय हो
जाओ; यह दो
छोरों से एक
ही चीज की तरफ
जाना है। परमात्मार्
कत्ता है
तो अहंकार
समाप्त हुआ।
तुम
निष्क्रिय
हुए तो अहंकार
समाप्त हुआ।
और जहां
अहंकार नहीं,
वहीं सब
प्रगट हो जाता
है।
भगवान
: ...कुछ और?
भगवान!
क्या हम पूछ
सकते हैं कि
भगवान बुद्ध
तो परम ज्ञानी
थे और आनंद
अज्ञानी--चाहे
उनका बड़ा भाई
ही क्यों न
हो। फिर
उन्होंने--एक ज्ञानी
ने अज्ञानी की
ऐसी शर्तें
क्यों मानी थीं, जो उसके
कल्याण में
नहीं थीं?
ज्ञानी
अज्ञानी की
शर्तें न माने
तो अज्ञानी भटक
जाए। यही उसके
कल्याण में
था। मुक्त तो
हो सका--बुद्ध
के मरने के
बाद सही; लेकिन
अगर बुद्ध
इनकार कर दें
तो आनंद सदा
के लिये भटक
जाएगा। उसकी
अकड़, उसके
बड़े भाई का
अहंकार
दीक्षित न
होने देगा। तो
बुद्ध ने यह
चार बेहूदा
बातें मान
लीं। जिनका
कोई अर्थ
बुद्ध को नहीं
था। लेकिन यही
उपाय था।
ज्ञानी
बहुत बार झुकता
है ताकि
तुम्हें उठा
सके।
स्वाभाविक है, जब तुम
रास्ते पर गिर
पड़ो तो जो
खड़ा है, वही
झुकेगा।
तुम कैसे झुकोगे
उठने के लिए? जो खड़ा है, वह झुकता है
ताकि गिरे को
उठा ले।
बुद्ध
झुके। चालीस
साल लगे, लेकिन
चालीस साल कुछ
भी नहीं है।
इस अनंत यात्रा
में चालीस साल
क्षण भर से
ज्यादा नहीं
हैं। आनंद
मुक्त हो सका।
लेकिन बुद्ध
इनकार कर देते
और कहते ये
पागलपन की
बातें हैं, तो आनंद लौट
ही गया होता।
वह दीक्षित
होने को राजी
नहीं होता।
जो
चालीस साल
बुद्ध के पास
रहकर अहंकार न
छोड़ पाया, बुद्ध ने
अगर उसकी
शर्तें न मानी
होतीं तो तुम
सोचते हो, वह
दीक्षित हुआ
होता? चालीस
साल बुद्ध की
सतत
सान्निध्य
में रहकर जिसका
अहंकार न मिटा,
वह बुद्ध के
इनकार करने से
उसका अहंकार
मिटता? असंभव!
वह दीक्षित तो
होता ही नहीं,
शायद बुद्ध
के विपरीत हो
जाता। वह खुद
तो ज्ञान को
उपलब्ध होता
नहीं, शायद
बुद्ध के
विरोध में
प्रचार करता
और अनेकों को
ज्ञान के
मार्ग से जाने
से रोकता।
बुद्ध
की करुणा है
कि वे झुके।
और जो जानता
है, वही झुक
सकता है। जो
नहीं जानता वह
कैसे झुकेगा?
जो जानता है
वह झुकता है; ताकि
धीरे-धीरे
तुम्हें राजी
करे, ताकि
तुम भी झुकना
सीख सको।
ज्ञानी ही
तुम्हारी
शर्तें
मानेगा
क्योंकि तुम
तो उसकी
शर्तें समझ भी
नहीं सकते; मानना तो
बहुत दूर!
बुद्ध
घर वापिस लौटे
बारह वर्ष के
बाद। तो बुद्ध
ने आनंद से
कहा, महल मुझे
जाना होगा।
यशोधरा बारह
वर्ष से प्रतीक्षा
करती है। मैं
उसका पति न
रहा, लेकिन
वह अभी भी
मेरी पत्नी
है। यह ज्ञानी
और अज्ञानी की
समझ है। मैं उसका
पति न रहा। अब
तो मैं कुछ भी
नहीं हूं। न
किसी का पति
हूं, न
किसी का पिता
हूं, न
किसी का बेटा
हूं, लेकिन
वह अब भी मेरी
पत्नी है।
उसका भाव अभी
भी वही है। और
वह नाराज बैठी
है। बारह साल
का क्रोध
इकट्ठा है। और
उसका क्रोध
स्वाभाविक है
क्योंकि एक
रात अचानक मैं
घर छोड़कर भाग
गया उससे बिना
कहे। वह
माननीय है, राजघर की है, राजपुत्री
है, बड़ी
अहंकारी है।
और उसको भारी
आघात लगा है।
उसने किसी से
एक शब्द भी
नहीं कहा, वह
कोई छोटे घर
की अकुलीन
महिला नहीं
है।
बुद्ध
के जाने के
बाद यशोधरा ने
बुद्ध के
खिलाफ एक शब्द
नहीं कहा। बारह
वर्ष चुप रही।
इस बात को
उठाया ही
नहीं। बुद्ध
के पिता भी
चकित, बुद्ध
के परिवार के
और लोग भी
चकित। साधारण
घर की स्त्री
होती, छाती
पीटती, रोती,
चिल्लाती, हल्की भी हो
जाती।
असाधारण थी।
यह बात किसी
और से कहने की तो
थी ही नहीं।
यह बुद्ध और
उसके बीच का
मामला था।
मान! क्षत्रिय
की लड़की, बड़े
राजघर की
पुत्री! आंसू
कोई देखे यह
तो बात समझ
में नहीं आती
थी। लेकिन मुस्कुराती
रही। बच्चे को
बड़ा किया।
राहुल बारह
वर्ष का हो
गया। बेटे को
भी कभी उसने
कुछ नहीं कहा
पिता के संबंध
में। वह चुप
ही रही, जैसे
बात ही
समाप्त।
लेकिन भीतर तो
आग जलती रही।
बाहर निकल
जाती तो हल्की
हो जाती। भीतर
तो बड़ा क्रोध
इकट्ठा होता
गया। और किसी
पर निकाल भी
नहीं सकती।
यही आदमी जब
मिलेगा तभी
बात हो सकती
है। दूसरे से
तो अब कोई बात
करने में कोई अर्थ
भी नहीं है। दूसरे
से तो अब कोई
संबंध भी नहीं
है।
तो
बुद्ध ने कहा, 'वह
प्रतीक्षा कर
रही है, बारह
साल का क्रोध
है; मुझे
जाना होगा'।
सारा गांव
बुद्ध को लेने
आया था। पिता
आये थे, परिवार
के लोग आये थे,
बुद्ध ने
देखा लेकिन
पत्नी वहां
नहीं थी। बुद्ध
ने कहा, 'वह
आयेगी भी नहीं
क्योंकि मैं
ही उसे छोड़कर
भागा हूं, जाना
मुझे ही
चाहिए।'
यह
ज्ञानी झुकता
है। अज्ञानी
को उठाना हो
तो ज्ञानी को
झुकना पड़ता
है। महल के
भीतर जाकर बुद्ध
ने आनंद से
कहा कि तेरी
चार शर्तें जो
मैंने
स्वीकार की
हैं, अगर तू
आज्ञा दे तो
आज तू घड़ी भर
मुझे अकेला छोड़
दे। क्योंकि
मैं यशोधरा को
जानता हूं।
तेरे सामने
उसकी आंख से
आंसू न
गिरेगा। तेरे
सामने वह एक
अभद्र शब्द
मुझसे न
बोलेगी। तेरे
सामने वह शिष्टाचार
कायम रखेगी।
और यह जरा
ज्यादती होगी
मेरी तरफ से।
तेरी मौजूदगी
उसे हल्का न
होने देगी।
बारह साल उसने
प्रतीक्षा की
है। तू कृपा
कर। अगर तू कर
सके तो तू
थोड़ा पीछे रुक
जा, ताकि
वह अकेले में
पाकर अपने
सारे क्रोध को
निकाल दे।
यह एक
ही मौका है, जब बुद्ध ने
आनंद से आज्ञा
मांगी--पुरानी
जो प्रतिज्ञा
थी, जो
शब्द मानने थे
उसके विपरीत।
और आनंद ने भी यही
सवाल उठाया कि
परम ज्ञान को
उपलब्ध होकर,
बुद्धत्व
को उपलब्ध
होकर कौन
पत्नी है? कौन
पति? बुद्ध
ने कहा, 'वह
मैं जानता हूं,
लेकिन
यशोधरा नहीं
जानती। यह मैं
जानता हूं, लेकिन
यशोधरा नहीं
जानती। और वह
भी एक दिन जान
सके, इसके
लिये मुझे
दो-चार कदम
उसकी तरफ चलने
पड़ेंगे'।
बुद्ध
गये। यशोधरा
पागल हो उठी। चीखी, चिल्लाई,
रोई, नाराज
हुई, शिकायतें
कीं। थोड़ी देर
में उसे खयाल
आया, लेकिन
बुद्ध चुप खड़े
हैं।
उन्होंने एक
भी बात का
जवाब नहीं
दिया। उसकी
आंखें तो
करीब-करीब अंधीं
थीं क्रोध से,
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता था।
आंसू जो बारह
साल से रुके
थे, वर्षा
की तरह बह रहे
थे।
उसने
आंखें पोंछी
और गौर से
बुद्ध को
देखा। और कहा
कि बोलते
क्यों नहीं? तुम्हारी
जबान खो गई? तुम मुझसे
पूछे होते, मैं तुम्हें
आज्ञा देती।
क्या तुम्हें
इतना भरोसा
नहीं था? मैं
क्षत्रिय की
पुत्री हूं।
तुमने कहा
होता, मुझे
सब छोड़ना है, मुझे अकेले
जाना है तो
मैं मार्ग में
बाधा नहीं
बनती। या तुम
कहते कि तुझे
भी छोड़कर जाना
है, तो
मैंने वह भी
किया होता।
लेकिन यह थोड़ा
ज्यादा था कि
तुम चुपचाप
चोर की तरह
रात भाग गये।
यह कैसा भरोसे
का उल्लंघन? मैंने एक
श्रद्धा रखी
थी प्रेम पर, वह तुमने
तोड़ी।'
बुद्ध
उसकी बातें
सुनते रहे।
लेकिन उन्हें
मौन देखकर
उसने कहा, 'तुम चुप
क्यों हो? तुम्हारी
जबान खो गई?'
बुद्ध
ने कहा कि 'नहीं
; तू अपना
सब निकाल ले।
तेरा रेचन हो
जाए ताकि तू
देख सके, कि
जो आदमी बारह
साल पहले इस
घर को छोड़कर
गया था, वही
वापस नहीं
लौटा है। तू
किसी और से
बातें कर रही
है। जो भाग
गया था, वह
मैं नहीं हूं;
क्योंकि वह
आदमी तो खत्म
हो गया, खो
गया, मिट
गया। अब यह
कोई और आया
है। तू उसको
गौर से तभी
देख पायेगी, तेरी आंख
तभी खुलेगी, जब तेरा
सारा भाव
क्रोध का निकल
जाए। तू निकाल
ले, तू उसे
रोक मत। तू
शिष्टाचार को
बाधा मत बनने दे।
तुझे जो कहना
हो तू कह ले
ताकि तू हल्की
हो जाए। और
मैं आया
इसीलिए हूं, कि इन बारह
सालों में जो
मैंने खोया, उसको तू
पहचान ले; और
जो मैंने पाया
उसको तू देख
ले। और उस
आदमी की तरफ
से मैं क्या
जवाब दूं, जो
तुझे छोड़कर
भाग गया था, वह तो मर
चुका और उस
आदमी को अब तू
कहीं भी न पा
सकेगी। वह
सपना टूट
चुका। इसलिए
अब कोई तुझे
उत्तर देने
वाला नहीं है।
मैं तुझे
उत्तर दे सकता
हूं लेकिन वह
उस आदमी का उत्तर
नहीं है, क्योंकि
वह धारा
विछिन्न हो
गई। यह अलग ही
हूं मैं।
यशोधरा
ने गौर से
देखा, निश्चित
यह
ज्योतिर्मय
पुरुष बिलकुल
अन्य था। जिसे
उसने जाना था,
वासना से
पीड़ित
सिद्धार्थ को,
यह वह नहीं
था। जिसकी
आंखों से
वासना थी, जिसके
शरीर में
संसार का सब
कुछ था, यह
वह नहीं है।
यह देह और है।
यह काया और
है। इन आंखों
से कोई और बरस
रहा है। और
बुद्ध अपनी पत्नी
से मिलने नहीं
आये हैं; न
अब बुद्ध पति
हैं, न कोई
पत्नी है। कोई
सोया है उसे
जगाने आये हैं।
पत्नी
झुकी उनके
चरणों में और
संन्यस्त हुई; और उसने कहा
कि मुझे भी
मिटने का
रास्ता दो। क्योंकि
हो-होकर मैंने
दुख ही पाया
है; और
लगता है, तुम्हें
सुख का सूत्र
मिल गया है।
उसने अपने बेटे
को भी आगे
किया और कहा
कि यह
तुम्हारा
बेटा है। बारह
वर्ष पहले तुम
इसे छोड़कर चले
गये थे। इसके
लिये कोई संपदा,
पिता की
धरोहर, परंपरा,
वंशगत
संपति?
बुद्ध
आनंद को पीछे
छोड़ आये थे।
उन्होंने आनंद
को बुलाया और
कहा, मेरा भिक्षापात्र!
वह भिक्षापात्र
राहुल को दिया
और कहा तू भी
दीक्षित हुआ
क्योंकि यही
मेरी संपदा
है। बुद्धों
के पास और कुछ
देने को नहीं।
न तो मैं तेरा
पिता हूं, न
तू मेरा बेटा
है। यह नाता
कभी था, वह
सपना मेरा टूट
गया, तेरा
नहीं टूटा; लेकिन जिनका
नहीं टूटा, उनको मैं
सहारा दूंगा
कि उनका सपना
भी टूट जाए।
बारह
साल का यह बेटा
दीक्षित होकर
भिक्षु हो गया, पत्नी
भिक्षुणी हो
गई। यशोधरा
निश्चित हिम्मत
की महिला रही
होगी। फिर हम
उसके नाम की
कोई खबर नहीं
पाते। फिर
क्या हुआ? बुद्ध
की पत्नी थी।
जो भूल आनंद
ने की, वह
भूल उसने नहीं
की। बुद्ध की
पत्नी थी, छा
सकती थी पूरे
संघ पर। घोषणा
कर सकती थी
अपनी महत्ता
की; लेकिन
फिर हमें कुछ
पता नहीं चलता
कि उसका क्या
हुआ? यह
आखिरी है उसके
संबंध में
कहानी। इसके
बाद बौद्ध
शास्त्र
बिलकुल चुप
हैं, फिर
यशोधरा का
क्या हुआ? राहुल
का क्या हुआ? क्योंकि वह
बुद्ध का बेटा
था। मरने के
बाद कह सकता
था कि अब यह मैं
अधिकारी हूं
इस सारे विराट
संगठन का।
उसका कोई पता
नहीं चलता। जो
भूल आनंद ने
की बड़े भाई होने
की, वह भूल
यशोधरा ने
नहीं की, वह
भूल राहुल ने
नहीं की।
उन्होंने इसे
अनुग्रह समझा
कि बुद्ध आये।
न आते तो कोई
बस न था। बुद्ध
ने यह स्मरण
रखा। सपने के
साथियों को भी
जगाने आये। यह
अनुकंपा थी।
ज्ञानी
झुकता है ताकि
तुम्हें झुका
सके।
ज्ञानी
तुम्हारी
शर्तों को
राजी हो जाता
है, ताकि
तुम्हें अपनी
शर्तों के लिए
राजी कर सके।
और निश्चित ही
ज्ञानी को ही
शुरुआत करनी
पड़ती है, क्योंकि
तुम तो शुरुआत
कैसे करोगे? तुम्हारे तो
द्वार बंद
हैं। ज्ञानी
को ही पहले
तुम्हारा
द्वार खटखटाना
पड़ता है। और
तुम जहां खड़े
हो, वहां
से तुम्हारी
मांग आती है।
उसमें तुम्हारा
कोई कसूर भी
नहीं है।
ज्ञानी जानता
है कि तुम्हारी
मांगें
व्यर्थ हैं।
जैसे
छोटे बच्चों
की मांगें, तुम जानते
हो व्यर्थ
हैं। खिलौने
मांगते हैं।
लेकिन अगर
बच्चों को कुछ
सिखाना हो तो,
खिलौनों से
ही सिखाना
शुरू करना
पड़ता है। हम उन्हें
खिलौने दे
देते हैं, और
खिलौनों के
माध्यम से
शिक्षा में
प्रवेश कराते
हैं। मान्टेसरी
की सारी
शिक्षा
ज्ञानी और
अज्ञानी के
बीच भी घटती
है। छोटे
बच्चों को
स्कूल में खिलौनों
के प्रलोभन
में बुला लिया
जाता हैं। वह
तो प्रलोभन
है। जल्दी ही
उन खिलौनों के
पीछे से
शिक्षा का
सारा जगत
प्रगट होगा।
खिलौने खो जाएंगे।
जो मान्टेसरी
ने बच्चों के
लिए किया है, वही बुद्धों
ने
अज्ञानियों
के लिए किया
है। पहले तो
खिलौने ही
उनको बांटने
होते हैं।
खिलौनों के
पीछे उनका राग
बन जाता है, रस बन जाता
है। उस रस से
वे खिंचे
चले आते हैं।
और उन्हें पता
नहीं कि इसी
रस में उनका
अहंकार घुल
जाएगा, मिल
जाएगा। अनंत
में उनकी बूंद
खो जाएगी, सागर
बचेगा।
इसलिए
बुद्ध ने
शर्तें
स्वीकार कर
लीं, जानते
हुए कि यही
रास्ता है
आनंद के लिये।
लेकिन आनंद को
कठिनाई हुई, वह अपने
कारण। फिर भी
चालीस साल कोई
लंबा समय नहीं
है। चालीस
जन्म भी छोटे
हैं। सत्य जब
भी मिल जाए, तभी जल्दी
है। निर्वाण
की झलक जब भी आ
जाए तभी शीघ्र
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे पूछते
हैं, कब
समाधि की झलक
मिलेगी? मैं
उनसे कहता हूं,
जल्दी ही।
जो ज्यादा
हिसाबी-किताबी
हैं वे पूछते
हैं, जल्दी
ही का मतलब? कुछ साल, कुछ
महीना, कुछ
सप्ताह, कुछ
दिन?
मैं
उनसे कहता हूं, 'जब भी मिल
जाए तभी जल्दी
है।
जन्मों-जन्मों
के भी बाद
मिले तो भी
जल्दी है
क्योंकि यह
अनंत है
व्यापार।
इसमें समय का
कुछ भी तो
मूल्य नहीं
है। तुम्हारे
सत्तर साल का
क्या मूल्य है?
तुम्हारे
सत्तर जीवन का
भी कोई मूल्य
नहीं है। इस
अनंत फैलाव
में तुम एक
बूंद भी तो
नहीं हो। तो
जब भी घटना घट
जाए तभी जल्दी
है। जब भी तुम जग
जाओ तभी सबेरा
है।
और
ज्ञानी को ही
पहले चरणों
में झुकना
होगा।
तुम्हारी
शर्तें उसे
माननी होंगी।
तुम्हारा
अहंकार
शर्तों के साथ
आता है। तुम
बेशर्त हो भी
नहीं सकते।
तुम छोटी-छोटी
बात में शर्त
रखे हुए हो।
अगर तुम गुरु
के चरण भी छूते
हो तो भी
तुम्हारी
आंखें उठकर
देखती हैं कि
गुरु ने
तुम्हारी
अंदरूनी
शर्तों को स्वीकार
किया या नहीं? चाहे तुम उन
शर्तों को
बोले भी नहीं।
गुरु ने तुम्हें
गौर से देखा
या नहीं? तुम्हें
विशिष्टता दी
या नहीं? तुम्हारी
उपेक्षा तो
नहीं हुई?
अहंकार
उपेक्षा से
सदा डरा हुआ
है क्योंकि उपेक्षा
में उसकी
मृत्यु हो
जाती है।
अहंकार सदा
चाहता है
ध्यान; कोई
ध्यान दे।
इसलिए जब
तुम्हें लोग
ज्यादा ध्यान
देते लगते हैं
तब तुम्हें
बड़ा मजा आता
है। तुम कुछ
भी करने को
राजी हो--लोग
ध्यान दें।
स्पेन
में एक आदमी
ने दस वर्ष
पहले इकट्ठी
सात हत्याएं
कीं। गया
समुद्र के तट
पर और समुद्र
के तट पर विश्राम
करते लोगों
को--जिनसे कोई
परिचय भी नहीं, जिनको उसने
इसके पहले कभी
देखा भी नहीं,
कुछ को तो
उसने कभी नहीं
देखा क्योंकि
उनकी पीठ
थी--उसने गोली
मार दी। सात
लोगों की
हत्या करके वह
पकड़ा गया।
अदालत में जब
उससे पूछा गया
कि तुमने क्या
किया? तो
उसने कहा कि
मैं अखबार में
बड़े-बड़े अक्षरों
में छपा हुआ
अपना नाम और
प्रथम पृष्ठ
पर अपनी
तस्वीर देखना
चाहता था। और
मुझे कोई
रास्ता नहीं सूझा।
मरना बेहतर है,
लेकिन बिना
अखबार में छपे
मरने से क्या
सार? मैंने
हत्यायें
की हैं और मैं
फांसी के लिये
राजी हूं।
लेकिन मैं
प्रसन्न हूं।
सारी दुनिया
की नजर मेरी
तरफ है।
जगह-जगह मेरी
चर्चा है। मैं
ऐसे ही नहीं
चला गया, चर्चित
होकर गया हूं।
राजनेता
की क्या खुशी
है? धनपति का
क्या रस है? सम्राटों का
क्या मजा है? विशिष्टता
का! सब का
ध्यान उनकी
तरफ लगा है। सब
आंखें उनकी
तरफ मुड़ी
हुई हैं।
क्या
मिलता होगा, जब आंखें
तुम्हारी तरफ मुड़ती हैं?
जब तुम
रास्ते से
चलते हो, कोई
तुम्हारी तरफ
देखता नहीं, जैसे तुम हो
ही नहीं, क्या
खोता है? तुम्हारा
अहंकार
दूसरों के
ध्यान का भोजन
करता है।
जितने ज्यादा
लोग तुम्हारी
तरफ देखते हैं,
जितनी
आंखें
तुम्हारी तरफ
बहती हैं, उतना
तुम्हारा
अहंकार मजबूत
होता है।
जितना कोई
तुम्हारी तरफ
नहीं देखता, उतना
तुम्हारा
अहंकार मरने
लगता है; उसकी
सांसें घुटने
लगती हैं। अगर
कोई भी तुम्हारी
तरफ न देखे और
रास्ते से तुम
ऐसे गुजर जाओ
जैसे तुम थे
ही नहीं, कितने
दिन तुम जिंदा
रह सकोगे
अहंकार को
लेकर?
गुरजिएफ
एक प्रयोग कर
रहा था। अपने
तीस शिष्यों
को लेकर टिफलीस
के एक जंगल
में गया। एक
बंगले में
उसने तीस शिष्यों
को बंद किया
और कहा कि यह
साधना है तुम्हारी
कि प्रत्येक
यही समझे कि
यहां अकेला है, उन्तीस
नहीं। इसी तरह
व्यवहार करो,
कि यहां कोई
और नहीं, तुम
अकेले हो। न
तो बोलना, न
दूसरे की तरफ
देखना, न
कोई इशारा
करना।
चलते वक्त
अगर दूसरे के
पैर पर पैर भी
पड़ जाए तो
क्षमा मत
मांगना; क्योंकि
यहां कोई है
ही नहीं।
इशारे से भी
क्षमा मत
मांगना। आंख
की मुद्रा से
भी मत बताना कि
दूसरा है। और
तीन महीने में
सब हो जाएगा, जिसकी तुम
तलाश अनेक
जन्मों से कर
रहे हो।
लगेगा, तीन महीना
सस्ता सौदा
है। लेकिन तीन
दिन मुश्किल
हो गये। और
गुरजिएफ ने
कहा कि मैं
तीसरे दिन के
बाद जांच शुरू
कर दूंगा। तीन
दिन का मौका
है तुम्हें
व्यवस्थित हो
जाने का कि
तुम अकेले हो,
दूसरा नहीं
है। दूसरे की
पूर्ण
उपेक्षा। लेकिन
दूसरे की
पूर्ण
उपेक्षा में
दिक्कत भी
नहीं है। तुम
तो दूसरे की
उपेक्षा करते
ही हो। दिक्कत
यह है कि तब
दूसरा भी
तुम्हारी
उपेक्षा कर रहा
है। उन्तीस
लोग तुम्हारी
उपेक्षा कर
रहे हैं और
तुम उन्तीस
की।
लोगों
ने सोचा था
सरल है; उपेक्षा
ही तो करनी है,
उपेक्षा तो
हम करते ही
हैं। मालिक
नौकर की
उपेक्षा कर
रहा है, तो
पति पत्नी की
उपेक्षा कर
रहा है, मां
बच्चों की
उपेक्षा कर
रही है। एक
दूसरे की
उपेक्षा कर
रहे हैं। एक
चारों तरफ
दीवाल बना लेते
हैं उपेक्षा
की क्योंकि
जितनी तुम
दूसरे की
उपेक्षा करते
हो, उतना
ही उसका
अहंकार छोटा
और तुम्हारा
बड़ा होता है।
अहंकार
चाहता है, सब मुझे
ध्यान दें और
मैं सब की
उपेक्षा कर सकूं।
तो सब ने सोचा
था कि सरल है।
उपेक्षा ही तो
करनी है कि
दूसरा नहीं
है। यही तो हम
जिंदगी भर
किये हैं।
लेकिन जल्दी
ही एक घड़ी दो
घड़ी में उनको
पता चला कि
मामला कठिन है
क्योंकि हम ही
उपेक्षा नहीं
कर रहे हैं, वे उन्तीस
भी हमारी
उपेक्षा कर
रहे हैं। और
हमारी
उपेक्षा तो एक
की है, उन्तीस
की उपेक्षा के
मुकाबले तो हम
मिट जाएंगे।
तीन
दिन होते-होते
सत्ताइस
लोग भाग गये।
परीक्षा के
पहले ही भाग
गये। तीन बचे; और वे तीन
टिके तीन
महीना। उनमें
से एक आदमी ऑस्पेन्स्की
था। उसने बाद
में कहा कि उन
तीन महीनों
में जो घटा, उससे और
श्रेष्ठ कुछ
घट सकता है, इसकी हम आशा
भी नहीं कर
सकते।
क्या
घटा उन तीन
महीनों में? अहंकार मरता
गया। रोज-रोज
उसकी सांस
कमजोर होती
चली गई।
मृत्यु शय्या
पर पड़ गया।
तीन महीने
पूरे
होते-होते तुम
नहीं बचे
क्योंकि
तुम्हारे
लिये दूसरे की
मौजूदगी
जरूरी है। वह
तुम्हें
उकसाता रहे।
जैसे आग, अगर
कोई भी उसको उकसाये ना,
तो
धीरे-धीरे राख
में दब जाती
है। अंगारा
धीरे-धीरे बुझ
जाता है।
तुम्हारे
अहंकार को
प्रतिपल कोई उकसावा
चाहिए। कोई
सहारा देता
रहे, राख झाड़ता रहे,
अंगारे को
जगाता रहे।
नया ईंधन
डालता रहे। तीन
महीने में सब
बुझ गया।
तीन
महीने बाद
गुरजिएफ जब उस
मकान में गया
तो वहां
सन्नाटा था, जैसे कोई भी
न हो। तीन
आदमी वहां थे,
लेकिन वहां
जैसे कोई भी न
हो, ऐसा
शून्य था। क्योंकि
तुम्हारे
विचार की
तरंगें चारों
तरफ कोलाहल
पैदा करती
हैं। तुम चाहे
न भी बोलो, तुम्हारा
अहंकार
उपद्रव पैदा
करता रहता है।
चाहे तुम कहो
भी न! अगर तुम
अहंकारी आदमी
के पास खड़े हो,
वह कुछ भी न
कहे तो भी तुम
पाओगे कि
तुम्हें वह तकलीफ
दे रहा है।
तुम
अहंकारी हो, तुम किसी के
पास खड़े हो; कुछ भी नहीं
कहते, लेकिन
खड़े होकर तुम
तकलीफ देना
शुरू कर देते
हो। तुम सताना
शुरू कर देते
हो। यह बड़ा
सूक्ष्म है।
तुम्हारी
तरंगें उसको दबोचने
लगती हैं।
अहंकारी आदमी
के पास ज्यादा
देर बैठने पर
तुम थके-मांदे
लौटोगे
क्योंकि वह
दोहरे काम कर
रहा है, तुम्हारी
गर्दन दबा रहा
है और
तुम्हारे
ध्यान को
खींचकर शोषण
कर रहा है।
तीन
महीने में यह
तीन आदमी मिट
गये। इन्हें
पहली झलक मिली
ना-कुछ होने
की।
जब तुम
ना-कुछ होते
हो, तब सब कुछ
की झलक मिलती
है। जब तुम
शून्य होते हो
तब सर्व प्रगट
होता है। जहां
तुम नहीं हो, वहां पूर्ण
विराजमान हो
जाता है।
खाली
करो सिंहासन।
क्योंकि उस
सिंहासन पर दो
नहीं बैठ सकते; या तो तुम या
परमात्मा।
उतरो सिंहासन
से नीचे; और
तुम अचानक
पाओगे, परमात्मा
वहां
विराजमान है।
मिटना ही राज
है पाने का।
अनुग्रह, प्रसाद;
प्रयास
नहीं।
इसलिए
झेन फकीर कहते
हैं, 'एफर्टलेसनेस',
प्रयत्नशून्यता द्वार है।
तुमने कोशिश
की और तुमने
खोया। तुमने
पाने की
चेष्टा की और
तुम भटके। तुम
चले और रास्ता
भटका। तुम चलो
ही मत। तुम हो
ही नहीं।
अगर एक
भाव को तुम
जगा सको कि 'मैं
नहीं हूं।' चौबीस घंटे
प्रयोग करके
देखो। चलो, जैसे कोई
चलने वाला
नहीं। भोजन
करो, जैसे
कोई भोजन करने
वाला नहीं।
रास्ते पर देखो,
जैसे कोई
देखने वाला
नहीं। खाली
आंखें, खाली
हृदय, खाली
मन!
चौबीस
घंटे--और तुम
पाओगे, तुम्हारे
जीवन में ऐसी
शांति आने लगी,
जिससे तुम
अपरिचित हो।
और ऐसे रस की
धारा बहने लगी,
जिसे तुमने
कभी नहीं चखा
था। और
तुम्हारे भीतर
कोई नया
प्रकाश फूटने
लगा। बिन बाती
बिन तेल कोई
दीया
तुम्हारे
भीतर जल रहा
है।
पर तुम
मिटो, तो ही तुम
उसे पहचान
सकते हो।
आज
इतना ही।
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