दिनांक
30 जून 1974(प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
एक
बार मूसा ने
भगवान से कहा, 'मुझे आपके
किसी भक्त को
देखने की
इच्छा है।'
इस
पर एक आवाज आई
कि फलां घाटी
में चले जाओ, वहां
तुम्हें वह
मिलेगा
जो भगवान
को प्यारा है, जो भगवान को
प्रेम करता है
और जो सत्पथ
पर चलता है।
मूसा
वहां गये और
उन्होंने
देखा कि वह
आदमी तो चीथड़ों
से लिपटा पड़ा
है।
और तरहत्तरह
के कीड़े-मकोड़े
उसके शरीर पर
रेंग रहे हैं।
मू्सा
ने पूछा, 'क्या मैं
तुम्हारे
लिये कुछ कर
सकता हूं?'
उस
आदमी ने कहा, 'एक प्याला
पानी ला दो, मैं बहुत
प्यासा हूं।'
जब
मूसा पानी
लेकर वापस मुड़े
तब उन्होंने
देखा कि वह
व्यक्ति मरा
पड़ा है।
वे
फिर गये कि
उसके कफन के
लिये कुछ कपड़े
ले आएं,
लेकिन
लौटे तब शेर
उसके शरीर को
खा चुका था। मू्सा
बेहद दुखी हुए
और चीख उठे,
'मिट्टी
से मनुष्य
बनाने वाले हे
सर्वशक्तिमान!
हे सर्वज्ञ!
कोई
स्वर्ग जाता
है और कोई
भयानक यातना
झेलता है। कोई
सुखी है और
कोई दुखी है।
यही
पहेली है, जो कोई समझ
नहीं पाता।'
भगवान!
हजारों वर्ष
पूर्व मूसा ने
जो प्रश्न पूछा
था,
उसे
ही हम आज फिर
आपके सामने रख
रहे हैं।
मूसा
की कहानी
समझने जैसी
है। मूसा उन
थोड़े से लोगों
में एक हैं, जिन्होंने
जीवन के परम
रहस्य को
गहराई से खोजा।
और जो भी जीवन
के रहस्य को
खोजने चलेगा,
उसके सामने
यह सवाल उठने
ही वाला है कि
बनाने वाला एक,
लेकिन कुछ
कहां पहेली
उलझ गई है कि
कुछ दुखी हैं,
कुछ सुखी
हैं, कोई
स्वर्ग में
जीते हैं, कोई
नर्क में।
दोनों का
बनाने वाला
अगर एक है, अगर
पिता एक है तो
संतान इतने
विभिन्न जीवन
अनुभवों से
कैसे गुजरती
है? बनाने
वाले ने सुख
ही क्यों न
बनाया? और
बनाने वाला
सिर्फ स्वर्ग
ही बना सकता
था, नर्क
के बनाने की
जरूरत क्या थी?
परमात्मा
अगर सच में
दयालु है तो
दुख नहीं होना
चाहिये, कोई
पीड़ा नहीं
होनी चाहिये।
सभी
धर्मों के
सामने यह सवाल
रहा है। संसार
में दुख को
देखकर लगता है
कि परमात्मा
हो नहीं सकता।
और अगर
परमात्मा पर
भरोसा हो, तो दुख
पहेली हो जाता
है कि दुख
क्यों है? बहुत
तरह से इस
पहेली को
सुलझाने की
कोशिश की गई
है, लेकिन
पहेली सुलझती
मालूम नहीं
पड़ती।
पश्चिम
में बहुत से
प्रयोग हुए
हैं, पूरब में
बहुत से
प्रयोग हुए
हैं। बुद्धि
से जितने भी
सिद्धांत
आविष्कृत हुए
वे सभी असफल हो
गये, पहेली
उनसे सुलझती
नहीं। लेकिन
अनुभव से, ध्यान
की गहराई से
उत्तर आता है
जिससे पहेली
मिट जाती है।
उसे हम थोड़ा
समझ लें, फिर
कहानी में
प्रवेश करें।
दुख और
सुख, स्वतंत्रता
और परतंत्रता,
स्वर्ग और
नर्क एक साथ
ही बनाये जा
सकते हैं; अकेले-अकेले
नहीं। रात और
दिन एक साथ ही
बनाये जा सकते
हैं, अकेले-अकेले
नहीं। अगर
अकेला प्रकाश
हो और अंधकार
बिलकुल न हो
तो प्रकाश भी
न हो सकेगा।
अगर अकेला
जीवन हो और
मृत्यु न हो
तो जीवन भी न
हो सकेगा।
होने का ढंग
द्वंद्व है।
किसी भी चीज
को होना हो तो
विपरीत के साथ
ही हो सकती
है।
विद्युतशास्त्री
को पूछें, वह कहेगा
अकेली ऋण
विद्युत नहीं हो
सकती, अकेली
धन विद्युत
नहीं हो सकती।
दोनों साथ हो सकते
हैं; क्योंकि
ऋण और धन दो
छोर हैं। जन्म
और मरण दो छोर
हैं। अकेला
जन्म नहीं हो
सकता। हमारी
आकांक्षा
चाहती है कि
अकेला जन्म हो,
लेकिन
अकेला जन्म
नहीं हो सकता।
बिना मृत्यु के
जन्म होगा
कैसे? अगर
कोई मरता ही न
होगा तो कोई
पैदा कैसे
होगा? पुराने
वृक्ष गिरेंगे
इसीलिए तो नये
अंकुर फूटेंगे।
पुराना आदमी
विदा होगा तो
नये बच्चे
जीयेंगे।
पुराने को
हटना होगा
ताकि नये के
लिये जगह हो
सके। अगर
पुराना जमा ही
रहे तो नये के
जन्म का कोई
उपाय न होगा।
जीवन विपरीत
से जीता है।
थोड़ी
देर को सोचें
कि अगर सिर्फ
सुख हो, हमारी
आकांक्षा है
कि सिर्फ सुख
हो; लेकिन
क्या तुम उस
सुख को भोग
सकोगे? अगर
अकेला सुख हो
और दुख का कोई
स्वाद न हो तो
यह भी तो पता न
चलेगा कि सुख
है। उस आदमी
को स्वास्थ्य
का पता नहीं
चलता जो कभी
बीमार न पड़ा
हो। अगर सच
में ही तुम
कभी बीमार
नहीं पड़े तो
तुम्हें स्वास्थ्य
के स्वाद का
अनुभव कैसे
होगा? तुम
कैसे जानोगे
कि तुम स्वस्थ
हो? तुम्हें
स्वास्थ्य का
कोई भी पता न
चलेगा। अगर
नर्क न हो तो
स्वर्ग नहीं
हो सकता। नर्क
की मौजूदगी
स्वर्ग के
लिये जरूरी
है।
परमात्मा
कठोर है इस कारण
दुख है ऐसा
नहीं, लेकिन
विपरीत के
बिना होने का
कोई उपाय ही
नहीं है। लोग
कहते हैं
परमात्मा
सर्वशक्तिमान
है, लेकिन
कुछ बातें हैं,
जो
परमात्मा भी
नहीं कर सकता।
जैसे कि अकेला
सुख हो और दुख
न हो, यह
परमात्मा भी
नहीं कर सकता
है। कितनी ही
कोशिश करे, यह हो नहीं
सकता।
जैसे
ही सुख पैदा
होगा उसके साथ
ही दुख पैदा हो
जाएगा। इसलिए
एक बहुत गहरी
बात समझ लेनी
चाहिये: जितना
ज्यादा सुख
बढ़ेगा, उतना
ही ज्यादा दुख
भी बढ़ेगा।
इसलिए जो लोग
बहुत सुखी
होंगे, वे
ही लोग बहुत
दुखी भी
होंगे। अगर
अमेरिका में
आज बहुत दुख
है तो उसका कारण?
उसका कारण
है कि बहुत
सुख है। जहां
सुख की सीमा
बढ़ती है, उसी
के साथ दुख की
सीमा भी बढ़ती
है; उनमें
एक अनुपात है।
इसलिए गरीब
आदमी उतना दुखी
कभी नहीं होता,
जितना अमीर
आदमी दुखी
होता है।
अमीर
को लगता है कि
गरीब दुख में
है। यह अमीर का
खयाल है। यह
अमीर की व्याख्या
है। गरीब इतने
दुख में कभी
भी नहीं होता।
इसलिए गरीब के
चेहरे पर कभी
मुस्कुराहट
भी दिख जाए, कभी वह मस्त
होकर नाच भी
लेता है। कभी
वृक्ष के नीचे
सड़क पर सोये
हुए उसको
देखें। न, इतना
दुख नहीं है
गरीब को जितना
अमीर को लगता है
कि गरीब को
दुख है।
वह
लगने में अमीर
अपने लिये सोच
रहा है, अगर
मुझे वृक्ष के
नीचे सोना पड़े
तो मैं, जो
कि अच्छी शैया
पर भी नहीं सो
पाता हूं, वृक्ष
के नीचे कैसे
सो पाऊंगा? जहां कि
शैया में
थोड़ा-सा भी आड़ा-टेढ़ापन
हो तो मेरी
नींद टूट जाती
है। तो इस कंकड़-पत्थर
से भरी हुई
जमीन पर मैं
कैसे सो पाऊंगा?
श्रेष्ठ से
श्रेष्ठ भोजन
भी मुझे पचता
नहीं, तो
यह गरीब जो
सूखी रोटी खा
रहा है, यह
तो पत्थर जैसी
है; यह
मुझे कैसे पचेगी?
एक
यहूदी फकीर
हुआ बालसेन।
एक दिन एक
धनपति उससे
मिलने आया। वह
उस गांव का
सबसे बड़ा
धनपति था, यहूदी था।
और बालसेन
से उसने कहा
कि कुछ शिक्षा
मुझे भी दो।
मैं क्या करूं?
बालसेन
ने उसे नीचे
से ऊपर तक
देखा, वह
आदमी तो धनी
था लेकिन कपड़े
चीथड़े
पहने हुए था।
उसका शरीर
रूखा-सूखा
मालूम पड़ता
था। लगता था, भयंकर कंजूस
है। तो बालसेन
ने पूछा कि
पहले तुम अपनी
जीवन-चर्या के
संबंध में कुछ
कहो। तुम किस
भांति रहते हो?
तो उसने कहा
कि मैं इस
भांति रहता
हूं जैसे एक गरीब
आदमी को रहना
चाहिये।
रूखी-सूखी
रोटी खाता
हूं। बस नमक, चटनी और
रोटी से काम
चलाता हूं। एक
कपड़ा जब
तक जार-जार न
हो जाए तब तक
पहनता हूं।
खुली जमीन पर
सोता हूं, एक
गरीब साधु का
जीवन व्यतीत
करता हूं।
बालसेन
एकदम नाराज हो
गया और कहा, नासमझ! जब
भगवान ने तुझे
इतना धन दिया
तो तू गरीब की
तरह जीवन
क्यों बिता
रहा है? भगवान
ने तुझे धन
दिया ही इसलिए
है कि तू सुख से
रह, ठीक
भोजन कर। खा
कसम कि आज से
ठीक भोजन
करेगा, अच्छे
कपड़े पहनेगा,
सुखद शैया
पर सोयेगा, महल में रहेगा।
धनपति
भी थोड़ा हैरान
हुआ। उसने कहा
कि मैंने तो
सुना है कि
यही साधुता का
व्यवहार है।
पर बालसेन
ने कहा कि मैं
तुझसे कहता
हूं कि यह
कंजूसी है, साधुता नहीं
है। काफी
समझा-बुझाकर
कसम दिलवा दी।
वह आदमी जरा
झिझकता तो था,
क्योंकि
जिंदगी भर का
कंजूस था।
जिसको वह
साधुता कह रहा
था वह साधुता
थी नहीं, सिर्फ
कृपणता थी।
लेकिन लोग
कृपणता को भी
साधुता के
आवरण में छिपा
लेते हैं।
कृपण भी अपने को
कहता है कि
मैं साधु हूं
इसलिए ऐसा
जीता हूं। पर बालसेन ने
उसे समझा-बुझाकर
कसम दिलवा दी।
जब वह
चला गया तो बालसेन
के शिष्यों ने
पूछा कि यह तो
हद्द हो गई।
उस आदमी की
जिंदगी खराब
कर दी। वह
साधु की तरह
जी रहा था। और
हमने तो सदा
यही सुना है
कि सादगी से
जीना ही
परमात्मा को
पाने का मार्ग
है। यही तुम
हमसे कहते
रहे। और इस
आदमी के साथ
तुम बिलकुल
उल्टे हो गये।
क्या इसको नरक
भेजना है?
बालसेन
ने कहा, 'यह
आदमी अगर रूखी
रोटी खायेगा
तो यह कभी समझ
ही न पायेगा
कि गरीब का
दुख क्या है!
यह आदमी रूखी
रोटी खायेगा
तो समझेगा कि
गरीब तो पत्थर
खाये तो भी चल
जाएगा। इसे
थोड़ा सुखी
होने दो ताकि यह
दुख को समझ
सके; ताकि
जितने लोग
इसके कारण
गरीब हो गये
हैं इस गांव
में, उनकी
पीड़ा भी इसको
खयाल में आये।
लेकिन यह सुखी
होगा तो ही
उनका दुख
दिखाई पड़ सकता
है। अगर यह
खुद ही महादुख
में जी रहा है,
इसको किसी
का दुख नहीं
दिखाई पड़ेगा।
कोई गरीब इसके
द्वार पर भीख
मांगने नहीं
जा सकता, क्योंकि
यह खुद ही
भिखारी की तरह
जी रहा है। यह
किसी की पीड़ा
अनुभव नहीं कर
सकता।
जब
अमीर को गरीब
में दुख दिखाई
पड़ता है तो वह
उसकी
व्याख्या है।
गरीब उतना
दुखी नहीं है।
और गरीब तो
तभी दुखी होगा
जब एक बार
अमीर हो जाए। इसलिए
जो लोग अमीरी
के बाद गरीबी
देखते हैं उनके
दुख का हिसाब
नहीं।
विपरीत
का अनुभव
चाहिये। अगर
सुख ही सुख हो
संसार में तो
तुम्हें सुख
का पता ही न
चलेगा। और तुम
सुख से इस
बुरी तरह ऊब
जाओगे जितने
कि तुम दुख से
भी नहीं ऊबे
हो। और तुम उस
सुख का त्याग कर
देना चाहोगे।
देखो
पीछे लौटकर
इतिहास में।
महावीर और
बुद्ध जैसे
त्यागी गरीब
घरों में पैदा
नहीं होते; हो नहीं
सकते।
क्योंकि सुख
से ऊब पैदा
होनी चाहिये,
तब त्याग
होता है।
बुद्ध के जीवन
में इतना सुख
है कि उस सुख
का स्वाद मर
गया। जिसने
रोज सुस्वादु
भोजन किये हों,
तो स्वाद मर
जाए। कभी-कभी
उपवास जरूरी
है भूख का रस
लेने के लिये।
अगर भूख का
मौका ही न
मिले और रोज
उत्सव चलता
रहे घर में, और
मिष्ठान्न
बनते रहें तो
जल्दी ही
स्वाद मर जाएगा।
भूख ही मर
जाएगी।
इसलिए
यह कोई
आश्चर्य की
बात नहीं है
कि गरीबों के
धार्मिक
उत्सव सदा
भोजन के उत्सव
होते हैं। और
अमीरों के
धार्मिक उत्सव
सदा उपवास के
होते हैं। अगर
जैनों का
धार्मिक पर्व
उपवास का है, तो उसका
अर्थ है।
लेकिन एक
मुसलमान, एक
गरीब
हिंदू--जब
उसका धार्मिक
दिन आता है तो ताजे
और नये कपड़े
पहनता है।
अच्छे से
अच्छा भोजन
बनाता है।
हलवा और पूड़ी
उस दिन बनाता
है। वह
धार्मिक दिन
है। जिसके तीन
सौ चौंसठ दिन
भूख से गुजरते
हों, उसका
धार्मिक दिन
उपवास का नहीं
हो सकता। होना
भी नहीं
चाहिये; वह
अन्याय हो
जाएगा। लेकिन
जो तीन सौ
चौंसठ दिन
उत्सव मनाता
हो भोजन का, उसका
धार्मिक दिन
उपवास का ही
होना चाहिये।
हम
अपने स्वाद को
विपरीत से
पाते हैं।
इसलिए जब जैनों
का पर्युषण
होता है, तभी
पहली दफा
उन्हें भूख का
अनुभव होता
है। और
पर्युषण के
बाद पहली दफा
दो चार दिन
खाने में मजा
आता है, और
खाने के संबंध
में सोचने में
मजा आता है। और
पर्युषण के
दिनों में ही
सपने देखते
हैं वे खाने
के, बाकी
दिन नहीं
देखते
क्योंकि सपनों
की कोई जरूरत
नहीं है। बाकी
दिन वे सलाह
लेते हैं
चिकित्सक से
कि भूख मर गई
है।
जिन
मुल्कों में
भी धन बढ़ जाता
है, वहीं
उपवास को
मानने वाले
संप्रदाय
पैदा हो जाते
हैं। यह जानकर
हैरानी होगी
कि अमेरिका में
आज उपवास का
बड़ा प्रभाव
है। गरीब
मुल्कों में
उपवास का प्रभाव
हो भी नहीं
सकता। लोग
वैसे ही
उपवासे हैं।
लेकिन
अमेरिका में
लोग महीनों के
उपवास के लिए
जाते हैं। नेचरोपेथी
के क्लिनिक
हैं, चिकित्सालय
हैं, जहां
कुल काम इतना
है कि लोगों
को उपवास
करवाना।
अगर
सुख ही सुख हो
और दुख का
उपाय न हो तो
तुम ऊब जाओगे
सुख से। एक बड़े
मजे की बात है
कि दुख से
आदमी कभी नहीं
ऊबता, क्योंकि
दुख में आशा
बनी रहती है।
आज दुख है, कल
सुख होगा।
सपना जिंदा
रहता है। मन
कामना करता
रहता है और कल
पर हम आज को
टालते रहते
हैं। दुखी
आदमी कभी नहीं
ऊबता। सुखी
आदमी ऊबता है;
क्योंकि
उसकी कोई आशा
नहीं बचती। सुख
तो आज उसे मिल
गया, कल के
लिये कुछ बचा
नहीं।
तुम्हें
पता नहीं है
कि महावीर और
बुद्ध क्यों
संन्यासी हुए? जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर
राजाओं के
बेटे क्यों
हैं, हिंदुओं
के सब अवतार
राजपुत्र
क्यों हैं? बात जाहिर
है, साफ
है। गणित सीधा
है। सुख इतना
था कि वे ऊब गये।
और ज्यादा
पाने का कोई
उपाय नहीं था।
जितना हो सकता
था वह था, वह
पहले से मिला
था।
इसलिए
जिस दिन
महावीर नग्न
होकर रास्ते
पर भिखमंगे
की तरह चले, उन्हें जो
आनंद मिला है,
तुम भूल मत
करना नग्न
चलकर रास्ते
पर; तुम्हें
वह न मिलेगा।
क्योंकि तुम
गणित ही चूक
रहे हो। उसके
पहले राजा
होना जरूरी
है। वस्त्रों
से जब कोई
इतना ऊब गया
हो कि वे
बोझिल मालूम
होने लगे तब
कोई नग्न खड़ा
हो जाए रास्ते
पर तो स्वतंत्रता
का अनुभव
होगा--मुक्ति!
उसे लगेगा कि
मोक्ष मिला।
जो भोजन से
इतना पीड़ित हो
गया हो, वह
जब पहली दफा
उपवास करेगा
तो शरीर फिर
से जीवंत होगा;
फिर से भूख
जगेगी। और जो
महलों में
रह-रहकर कारागृह
में बंद हो
गया हो, जब
वह खुले आकाश
के नीचे, वृक्ष
के नीचे
सोयेगा तब उसे
पहली दफा पता
चलेगा कि जीवन
का आनंद क्या
है!
महावीर
की बात सुनकर
कई साधारण-जन
भी त्यागी हो
जाते हैं। वे
बड़ी मुश्किल में
पड़ते हैं
क्योंकि जो
आनंद महावीर
को मिला, वह
उन्हें मिलता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता। तो
वे सोचते हैं
शायद अपनी कोई
साधना में भूल
है। साधना में
कोई भूल नहीं,
शुरुआत में
ही भूल है।
महावीर
उतरते हैं
राज-सिंहासन
से। राज-सिंहासन
से ऊब गये हैं
इसलिए उतरते
हैं; क्योंकि
उसके आगे और
कोई सीढ़ी नहीं
है। वे आखिरी
सीढ़ी पर थे; और कोई
विकास का उपाय
न था।
आकांक्षा को
जाने की जगह न
थी। नीचे
उतरते हैं।
सिंहासन से
नीचे उतरकर
जीवन में फिर
से उमंग आती
है। फिर से रस
आता है। फिर
से खोज शुरू
होती है।
तुम्हारे
जीवन में यह
नहीं हो सकता।
जिसने भोगा ही
नहीं है, वह
त्याग कैसे
करेगा? और
जिसके पास है
ही नहीं, वह
छोड़ेगा कैसे?
जो
तुम्हारे पास
है, वही
तुम छोड़ सकते
हो। जो
तुम्हारे पास
नहीं है, उसे
तुम कैसे छोड़ोगे?
उस भ्रांति
में पड़ना
ही मत।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं, जो संसार से
ऊब जाते हैं, सत्य उन्हें
ही उपलब्ध
होता है।
लेकिन तुम ऊबे
नहीं हो। तुम
जो ऊब गये हैं
उनकी बातें
सुनकर, उनका
अनुकरण करने
में लग जाते
हो। अनुकरण से
कोई कभी सत्य
को उपलब्ध नहंी
होता। उससे
तुम धोखे में
पड़ोगे। वह
आत्म-प्रवंचना
है।
संसार
को ठीक से पा
लेना, ताकि
छोड़ सको।
वासना को ठीक
से अनुभव कर
लेना, ताकि
वासना मुक्ति
हो सके। धन को
ठीक से भोग लेना,
ताकि धन
व्यर्थ हो
जाए। जहां भी
रस हो, वहां
पूरे चले जाना
ताकि आगे जाने
की कोई जगह न
बचे और तुम
पीछे वापिस
लौट सको।
अधूरे
अनुभव कहीं भी
नहीं ले जाते।
वृक्ष जब अपने
फल को पूरा
पका लेता है, तब फल खुद ही
टूट जाता है
और गिर जाता
है। कच्चे फल
नहीं गिरते।
अधूरा अनुभव
कच्चा फल है; पूरा अनुभव
पका हुआ फल
है।
इसलिए
पहली बात खयाल
में ले लें; संसार के
होने का ढंग
जैसा है, इससे
अन्यथा नहीं
हो सकता। यहां
विपरीत होगा ही--एक
बात।
दूसरी
बात: परमात्मा
तुम्हें दुख
नहीं देता, न परमात्मा
तुम्हें सुख
देता है। सुख
और दुख दो
विकल्प हैं।
चुनने को तुम
सदा स्वतंत्र
हो। चुनाव
तुम्हारे हाथ
में है।
परमात्मा
तुम्हें नर्क
में धक्के
नहीं देता और
न स्वर्ग में तुम्हारा
स्वागत करता
है। स्वर्ग और
नर्क दोनों के
द्वार खुले हैं।
चुनाव
तुम्हारा है।
तुम जहां जाना
चाहो। और यह
उचित है कि
द्वार खुले
हैं क्योंकि
स्वतंत्रता
के बिना सत्य
की कोई
उपलब्धि नहीं
हो सकती। तुम
स्वतंत्र हो
दुख भोगने को।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
परम है। तुम
स्वतंत्र हो
सुख भोगने को
और तुम
स्वतंत्र हो
मार्ग बदल लेने
को। तुम्हारी
स्वतंत्रता
में कोई भी
बाधा नहीं है।
इस बात
को ठीक से समझ
लेना। इसलिए
अगर तुम दुख भोगते
हो तो यह
तुम्हारा
चुनाव है। अगर
तुम सुख भोगते
हो तो यह भी
तुम्हारा
चुनाव है। अगर
तुम जहां हो
वहां से नहीं
हटते हो, तो
भी तुम्हारा
चुनाव है।
वहां से हटते
हो तो भी
तुम्हारा
चुनाव है।
तुम्हारी
चेतना पर कोई
नियंत्रण
नहीं है।
जैसे
घर में एक
चूल्हा जला
दिया है, आग
जल रही है और
दूसरी तरफ
वृक्षों में
फूल खिले हैं।
तुम स्वतंत्र
हो; चाहे
फूल तोड़कर
अपनी झोली
फूलों से भर
लो और चाहे आग
में हाथ डालकर
अंगारों में
जल जाओ। कोई
तुम्हें
धक्के नहीं दे
रहा है। आग जल
रही है, फूल
खिले हैं।
परमात्मा
सृष्टि को
बनाता है, तुम्हें
नहीं। इसे
थोड़ा समझ लेना
चाहिये। परमात्मा
सृष्टि को
बनाता है, इसका
अर्थ है:
परिस्थितियां
बनाता है, विकल्प
बनाता है।
द्वार--स्वर्ग
और नर्क, सुख
और दुख बनाता
है, तुम्हें
नहीं।
तुम तो
परमात्मा हो।
तुम तो उसके
ही अंश हो। वह
तुम्हें बना
नहीं सकता। और
अगर तुम बनाये
गये हो तो तुम
दो कौड़ी
के हो गये।
फिर तुम्हारा
कोई मोक्ष
नहीं हो सकता।
अगर तुम बनाई
गई कठपुतली हो
तो जिस दिन उसका
दिल बदल जाए
तुम्हें मिटा
दे। वह
तुम्हें बनाया
भी नहीं, तुम्हें
मिटा भी नहीं
सकता। तुम तो
वही हो। तुम
परमात्मा हो।
और यह चारों
तरह जो खेल है,
वह
तुम्हारा ही
बनाया हुआ है।
और विकल्प
तुम्हारे
सामने दोनों
मौजूद हैं।
तुम जो चुनना
चाहो, चुन
सकते हो।
यह
कहानी हम
समझने की
कोशिश करें।
मूसा ने पूछा परमात्मा
से कि तेरा
कोई परम भक्त, कोई अनन्य
भक्त, कोई
जिसकी
श्रद्धा तुझमें
अखंड हो; कोई
जो उपलब्ध हो
गया हो, जो
तेरे हृदय का
मालिक हो गया
हो, जिसमें
और तुझमें
जरा भी
रत्तीभर
फासला न रहा
हो, उसके
मैं दर्शन
करना चाहता
हूं।
लेकिन
मूसा क्यों
दर्शन करना
चाहते हैं उस
आदमी के?
पहली
तो बात यह, कि मूसा
सोचते होंगे,
वैसा आदमी
परम आनंदित
होगा।
क्योंकि जो
परम भक्त है, परमात्मा ने
उसके ऊपर आनंद
की वर्षा कर
दी होगी।
हमारी भक्ति
भी हमारी
वासना है। हम
उसके द्वारा
भी परमात्मा
से कुछ पाना
चाहते हैं। तो
मूसा पूछते
हैं कि मैं उसे
देखना चाहता
हूं, जो
पहुंच चुका है
तेरे हृदय के
पास। अब
जिसमें
रत्तीभर
फासला नहीं
रहा।
मूसा
सोचते होंगे, मिलेगा किसी
सिंहासन पर।
होगा कोई
सम्राट। सब
उसे उपलब्ध
होगा।
रत्तीभर भी
कमी न होगी।
वासना की कोई
जरूरत न होगी।
सभी अकांक्षाएं
उठते ही पूरी
हो जाती होंगी।
जो परमात्मा
के हृदय के
निकट है उसको
क्या पाने को
रह जाता है? और इसीलिए
शायद मूसा
उसको पूछना भी
चाहते हैं, देखना भी
चाहते हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे मुझसे
कहते हैं, आपके
शिष्यों में
हमें कोई ऐसा
आदमी बताएं जो
पहुंच गया हो;
जिसने पा
लिया हो। हम
उसे देखना
चाहते हैं। वह
उनकी वासना
पूछ रही है। वे
उसे देखकर तय
करेंगे कि
रास्ते पर
चलना कि नहीं!
वह उस आदमी को
देखकर तय
करेंगे कि अगर
यह आनंदित है
तो फिर हम भी
चलें इस
रास्ते पर।
लेकिन
परमात्मा सदा
खेल खेलता है।
परमात्मा को
धोखा देना
आसान नहीं।
मूसा पूछते तो
थे कुछ और, कुछ और
चाहते कुछ और
थे। पूछा तो
यह था कि तेरे परम
भक्त का दर्शन
करना है, लेकिन
भीतरी
आकांक्षा यह
थी कि उसको
देख लूं तो
फिर चलूं इस
रास्ते पर, कि तू पाने
योग्य भी है
या नहीं? अगर
तेरा परम भक्त
ही सड़ रहा
हो कहीं नर्क
में तो हम इस
झंझट में
क्यों पड़ें? इतनी मेहनत!
इतना श्रम!
संसार भी खोएं,
और तुझे
पाकर नर्क
मिले! हम
परमात्मा को
पाना भी नहीं
चाहते। हम तो
परमात्मा की
सीढ़ी से स्वर्ग
में जाना
चाहते हैं।
आवाज
आई कि मूसा!
फलां घाटी में
जा; वहां
मेरा परम भक्त
मौजूद है।
मूसा
बड़ी आशाओं से
भरकर गये
होंगे। कैसे-कैसे
विचार, कैसे-कैसे
सपने नहीं उठे
होंगे कि कैसा
होगा यह परम
भक्त! परम
ज्योतिर्मय!
आनंद में
नाचता हुआ, स्वर्ण
चारों तरफ
बरसता हुआ। वह
घाटी धन्य होगी,
जहां यह परम
भक्त है। और
जब वे पहुंचे
तो कितने
निराश न हुए
होंगे!
एक
भिखमंगा था यह
आदमी। साधारण
भिखमंगा भी
नहीं था चीथड़े-चीथड़े
थे। भिखमंगों
में भी
भिखमंगा था।
और इतना ही
नहीं था, सारे
शरीर पर न
मालूम किस-किस
तरह के कीड़े-मकोड़े
रेंग रहे थे।
गंदा था।
अधमरी हालत
में था; सड़ रहा था।
मूसा
की श्रद्धा को
बड़ा धक्का लगा
होगा। क्योंकि
श्रद्धा कहीं
न कहीं वासना
को छिपाये है।
और मूसा के मन
में चीख उठी
होगी कि यह
क्या हुआ? इसको ही
पाने के लिये
हम साधना कर
रहे हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं? मंदिरों में
इसी के लिये
घंटे बजाये जा
रहे हैं, पूजा
की जा रही है, यह स्थिति
पाने के लिये?
अगर यह
उपलब्धि है, तो संसार
में जो भटक
रहे हैं, वे
भटक नहीं रहे,
वे इससे बच
रहे हैं। फिर
संसार बेहतर
है।
परमात्मा
की पहेली को
समझने में जरा
कठिनाई है।
क्योंकि
तुम्हारी
वासना जहां भी
खड़ी हो जाए, वहीं
परमात्मा को
समझना असंभव
हो जाता है।
अगर मूसा बिना
वासना के पूछे
होते, तो
किसी दूसरी
घाटी में भेजे
गये होते। तब
उन्होंने कुछ
और रूप देखा
होता। लेकिन
वासना से भरकर
पूछा है इसलिए
यह रूप देखना
पड़ा। यह रूप
मूसा की वासना
से पैदा हो
रहा है। जरूरी
है। ताकि मूसा
की स्थिति साफ
हो जाए कि
तेरी श्रद्धा
सही है, या
केवल तेरी
श्रद्धा एक
छिपा हुआ रूप
है वासना का? तेरी
प्रार्थना सही
है? तू
परमात्मा को
ही भज रहा है
या कुछ और भज
रहा है? परमात्मा
का शोषण, उपयोग
करना चाहता है?
उस रात
मूसा
प्रार्थना न
कर पाये
होंगे। उस दिन
परमात्मा
इतने दूर
मालूम हुआ
होगा, जितना
कभी मालूम न
हुआ था। अगर
यह परम भक्त
की दशा है तो
परम भक्त होने
की हिम्मत टूट
गई होगी। उस
क्षण मूसा का
हृदय
रेगिस्तान की
तरह हो गया
होगा, जहां
प्रार्थना के
सब वृक्ष सूख
गये।
और उस
आदमी ने आंख
खोली और कहा
कि मैं बहुत
प्यासा हूं, थोड़ा पानी
ले आओ।
स्वर्ग
तो दूर, यह
आदमी प्यासा
है और पानी
देनेवाला भी
कोई नहीं है।
और यह परम
भक्त है। और
परमात्मा
इतना भी नहीं
कर रहा है कि
इसके ऊपर पानी
की वर्षा कर
दे। यह कैसी
सुरक्षा है? परमात्मा
कुछ भी नहीं
दे रहा और इस
आदमी ने सब दे
दिया!
संदेह
उठा होगा, नास्तिकता
घनी हो गई
होगी। यह मूसा
की परीक्षा का
क्षण रहा
होगा।
ऐसी
परीक्षा के
क्षण
तुम्हारे
जीवन में भी
आएंगे। और इस
परीक्षा से
गुजर जाए जो, उसकी ही
श्रद्धा सही
है। यह
श्रद्धा के
लिये अग्नि
जैसा है। सोना
आग से गुजरे
तो ही पता चलता
है कि कितना
सही था, कितना
गलत था! कितना
खरा था, कितना
खोटा था!
मूसा
अहोभाव से
नहीं भर सके
इस आदमी को
देखकर। पानी
लेने गये, लेकिन लौटकर
आये तो देखा
कि वह आदमी
मरा पड़ा है।
वह प्यासा ही
मर गया।
परमात्मा का
अनन्य भक्त!
पानी तो
परमात्मा ने
दिया ही नहीं,
मूसा पानी
लेने गये थे
इतनी देर भी
उस आदमी की सांस
न चलने दी कि
वह पानी पीकर
मर जाए। यह तो
भयंकर नर्क की
अवस्था है।
यह
सोचकर कि इस आदमी
को ठीक से
दफना दूं, तो वे लकड़ी
इत्यादि का
इंतजाम करने
गये, लौटकर
देखा कि एक
शेर उसे खा
गया है। उसका
अंतिम
संस्कार भी न
हो सका। यह
परम भक्त की
दशा?
तुम
अगर रहे होते
मूसा की जगह
तो फिर तुमने
लौटकर
परमात्मा का
नाम न लिया
होता। फिर
दुबारा तुमने
उसके मंदिर की
तरफ न देखा
होता। तुम सदा
के लिये
नास्तिक हो
गये होते।
अगर
तुम
नास्तिकों से
पूछो तो सौ
में से निन्यान्नबे
नास्तिक यही
कहते हैं कि
परमात्मा है या
नहीं इसका
सबूत--संसार
में दुख है या
नहीं, इससे
मिलेगा। अगर
संसार में
इतना दुख है
तो परमात्मा
नहीं हो सकता।
बट्रर्ड
रसेल--इस सदी
के बड़े से बड़े
महा नास्तिक
ने यही सवाल
उठाया है। बर्टें्रड
रसेल ने कहा, कि एक छोटा
सा बच्चा पैदा
होता है, पैदा
होता है लकवा
लगा हुआ।
परमात्मा है,
तो यह बच्चा
लकवा लगा
क्यों पैदा हो
रहा है? यह
जिंदगी भर सड़ेगा,
बिस्तर पर
पड़ा रहेगा। एक
बच्चा पैदा
होता है, पैदा
नहीं हो पाता,
सांस नहीं
ले पाता कि मर
जाता है। यह
कैसा परमात्मा
है? यह
बच्चे के साथ
क्या खेल खेला
जा रहा है? यह
लीला बड़ी कठोर
मालूम पड़ती
है। और यह
परमात्मा
पिता तो नहीं
हो सकता, कोई
जल्लाद हो
सकता है।
तो
रसेल कहता है, ऐसे जल्लाद
परमात्मा में
मानने से तो
यही बेहतर है
कि कोई
परमात्मा
नहीं। इस उलझन
में पड़ना
क्यों? ताकि
हम जो कुछ कर
सकें, दुख
मिटाने के
लिये करें। यह
परमात्मा की
वजह से हम दुख
भी नहीं मिटा
पाते, क्योंकि
हम प्रार्थना
में समय लगा
देते हैं। हम
पूजा में समय
गंवाते हैं।
और हम सोचते
हैं, उसकी
कृपा होगी तो
सब ठीक हो
जाएगा। और
उसकी कृपा से
अब तक कुछ भी
ठीक नहीं हुआ
है। सब गलत है।
तो
ज्यादा उचित
यही मालूम
होता है बुद्धिपूर्ण
आदमी को, कि
अच्छा हो कि
कोई परमात्मा
नहीं है; यह
अराजकता है।
हम ही को
व्यवस्था
करनी है तो जितने
कम दुख की
व्यवस्था हम
कर सकें, अच्छा।
जितने ज्यादा
सुख की
व्यवस्था कर
सकें, उतना
अच्छा। मंदिर-मस्जिदों
को स्कूलों और
अस्पतालों
में बदल दो।
यह व्यर्थ का
आभूषण है, जो
बोझ है और यह
महंगा है
क्योंकि पेट
जहां भूखा है,
इतने महंगे
आभूषण नहीं
ढोये जा सकते।
रसेल कहता
है कि संसार
का दुख देखकर
बात साफ हो
जाती है कि
यहां कोई हृदय
नहीं हो सकता
इस संसार में।
इस संसार को
चलाने वाला
कोई हृदय नहीं
हो सकता है।
या तो यह
संसार
यांत्रिक चल
रहा है, और
या एक अराजकता
है, लेकिन
इसका कोई
मालिक नहीं
है। और अगर
कोई मालिक है
तो वह मालिक
भी बुद्ध और
महावीर जैसा
नहीं हो सकता।
वह मालिक भी
हिटलर और मुसोलिनी
जैसा होगा।
अगर वैसा कोई
मालिक है तो
पूजा करने की
जरूरत नहीं, उसकी हत्या
करने की जरूरत
है। उसको मिटा
देने की जरूरत
है, क्योंकि
जब तक वह न मिट
जाए, तब तक
यह जाल, उपद्रव
दुख का नहीं
मिटेगा।
और
रसेल ने कहा
है कि धर्म तब
तक रहेगा, जब तक दुख
है। या तो हम
धर्म को मिटा
दें, तो
हमारे कदम दुख
को मिटाने में
लग जाएंगे। और
या हम दुख को
मिटा दें तो
धर्म अपने आप
मिट जाएगा।
रसेल कहता है
जब सभी लोग
सुखी होंगे तो
कौन
प्रार्थना
करने जाएगा? उसकी बात
में थोड़ी सचाई
है क्योंकि
तुम सदा दुख
के कारण ही प्रार्थना
करने जाते हो।
तो वह
कहता है अगर
सभी लोग सुखी
हो जाएं तो
मंदिर अपने आप
तिरोहित हो
जाएंगे। चर्च
खाली हो जाएंगे।
पूजागृह में
कोई जाएगा
नहीं; क्योंकि
लोग दुख के
कारण वहां
जाते हैं, इस
आशा में कि
शायद
परमात्मा
उनका दुख
मिटाये। सुखी
आदमी
प्रार्थना
नहीं करेगा।
रसेल
को ऐसे ही
टाला नहीं जा
सकता। उसकी
बात में कुछ सचाईयां
हैं। पहली तो
सचाई यह है कि
तुम्हारी
प्रार्थना
सदा दुख से
उठती है।
लेकिन ऐसी
प्रार्थना को
कभी बुद्ध, महावीर, कृष्ण
ने प्रार्थना
कहा ही नहीं।
जो प्रार्थना
सुख से उठे, अहोभाव से
उठे, तृप्ति
से उठे, जिसमें
सुगंध संतोष
की हो, वही
प्रार्थना
है।
प्रार्थना
धन्यवाद है, मांग नहीं।
तुम परमात्मा
को धन्यवाद
देते हो कि
तुमने जो दिया
है, वह
मेरी पात्रता
से बहुत
ज्यादा है। वह
एक अहोभाव की
अभिव्यक्ति
है।
एक तो
मूसा देख रहे
हैं उस आदमी
को पड़ा
हुआ--प्यासा, भूखा, सड़ रहा है, कीड़े-मकोड़े
शरीर पर तैर
रहे हैं। इतना
कमजोर है कि
उन कीड़ों
को हटा भी
नहीं सकता। वे
उसे खाये जा
रहे हैं। वह
प्यासा है, आंख खोलकर
पानी मांगता
है।
यह तो
बाहर से देखा
गया। काश!
मूसा इस आदमी
को भीतर से भी देख
लेते तो
उन्हें पता
चलता कि परम
भक्त की क्या
दशा है! मूसा
चूक गये
क्योंकि
भक्ति बाहर से
पहचानी नहीं
जा सकती। बाहर
जैसे कोई महल
के चारों तरफ
चक्कर लगाकर आ
जाए, उसे महल
के अंतःपुर का
कुछ भी पता न
चले। ये कीड़े
रेंगते थे, लेकिन इस
आदमी की भीतरी
दशा क्या थी, यह मूसा न
जान सके। कीड़ों
में उलझ गये।
एक
सूफी फकीर हुआ, सरमद। उसके
छाती में
नासूर हो गया
और कीड़े पड़ गये
थे। तो मस्जिद
में जब वह
नमाज करने को
झुकता था तो
कीड़े गिर जाते
थे तो उन्हें
उठाकर वापिस
रख लेता था।
लोगों ने कहा
कि सरमद क्या
तुम पागल हो
गये हो?
तो सरमद
हंसा और उसने
कहा, 'सवाल है
मुझ खुद को बचाऊं,
कीड़ों को बचाऊं?
और मैं तो
उसकी, परमात्मा
की प्रार्थना
में लीन हूं
तो बच ही जाऊंगा;
इन कीड़ों
को प्रार्थना
का कोई भी पता
नहीं है। इनका
बचना ज्यादा
जरूरी है।
मेरे भटकने का
तो कोई उपाय
नहीं है
क्योंकि उसकी,
परमात्मा
की प्रार्थना
में लीन हूं।
मैं तो पहुंच
ही गया। इन कीड़ों
की यात्रा अभी
शुरुआत है। और
इनमें भी जीवन
है--वैसा ही, जैसा
मुझमें। और
मेरे तो जीवन
की अंत घड़ी
करीब आ गई
क्योंकि अब
मैं दुबारा
पैदा होने
वाला नहीं
हूं। अभी इनकी
यात्रा लंबी
है, इनको
जितना साथ दे
सकूं।'
फिर
आखिर में तो
सरमद ने
प्रार्थना
करनी बंद कर
दी क्योंकि
झुकने से कीड़े
कभी-कभी मर
जाते थे
गिरकर। तो
उसने नमाज पढ़नी
बंद कर दी।
लोगों ने कहा, 'सरमद!
बुढ़ापे में
पागल हो गये
हो?' उसने
कहा, 'इन कीड़ों
को बचाना
ज्यादा बड़ी
प्रार्थना
है। नमाज शरीर
का ही झुकना
है, भीतर
तो मैं झुकता
ही रहता हूं। कीड़ों को
कष्ट देना
उचित नहीं। और
जिसने कीड़े
भेजे हैं, यही
उसकी
प्रार्थना है
कि उसके कीड़ों
को जितनी
सुरक्षा दे
सकूं। यह उसी
का दिया हुआ
जीवन है। और
जब वह इन को
संभाल रहा है
तो मैं कौन
बाधा देने
वाला हूं?'
लेकिन
मूसा चूक गये।
यह आदमी सरमद
जैसा रहा होगा, जिसके शरीर
पर कीड़े चल
रहे थे और जो कीड़ों को
हटा भी नहीं
रहा था।
क्योंकि
जिसका शरीर है,
उसी के कीड़े
हैं। और उसके
भीतर...भीतर
कोई विरोध, कोई
अस्वीकृति
नहीं थी। इसके
कपड़े
फटे-पुराने थे,
भिखमंगा था,
दुख में पड़ा
था, लेकिन
इसके भीतर सुख
का एक सागर था,
जो मूसा को
नहीं दिखाई पड़
सका।
और जब
भी कोई
व्यक्ति उस
परम सुख के
करीब पहुंचता
है तो बाहर सब
तरह के दुख
पैदा हो जाते
हैं क्योंकि
वही परीक्षा
है। इसलिये फकीरों ने
कहा है कि तुम
जब उसके करीब
पहुंचोगे, तुम्हारी
बड़ी
परीक्षाएं ली
जाएंगी। यह
स्वाभाविक है
कि परीक्षाएं
ली जाएं, क्योंकि
उन्हीं
परीक्षाओं से
गुजरकर तुम्हारा
सोना निखरेगा।
यह इसकी
प्रार्थना का
आखिरी क्षण था,
जहां
प्रार्थना
पूरी होगी, जहां
प्रार्थना
में फूल
आयेंगे। जब सब
तरह का दुख--भूख,
प्यास, पानी
भी नहीं, मौत
करीब...
और जब
उसने कहा मूसा
को कि प्यास
लगी है, तब
भी मूसा उसके
भीतर न देख
पाये। तब भी
वह आदमी सिर्फ
शरीर के संबंध
में कह रहा था
कि प्यास लगी
है, भीतर
तो उसकी प्यास
सदा के लिये
बुझ गई थी।
जीसस
एक गांव से
गुजर रहे हैं।
एक औरत पानी
भर रही है, लेकिन वह
गांव कुछ छोटी
जाति के लोगों
का गांव है और
जीसस प्यासे
हैं। तो
उन्होंने किनारे
कुएं के पाट
पर खड़े होकर
कहा कि मुझे पानी
पिला। मैं
बहुत प्यासा
हूं। उस
स्त्री ने कहा
कि क्षमा करें,
हम छोटी
जाति के लोग
हैं और मैं
आपको कैसे पानी
पिलाऊं? तो जीसस ने
कहा, तू
फिक्र मत कर; तू मुझे
पानी पिला, मैं तुझे
पानी पिलाऊंगा।
और तेरा पानी
सदा के लिये
प्यास न बुझा
सकेगा, लेकिन
मेरा पानी
तेरी प्यास
सदा के लिये
बुझा देगा। यह
सौदा सस्ता
है। तू कर ले।
यह
आदमी जो मरते
समय बोला कि
मुझे प्यास
लगी है, तब
भी उसकी आंखों
में वह तृप्ति
थी, जहां
सब प्यास बुझ
गई है।
मूसा
उसे न देख
पाये क्योंकि
हम वही देख
पाते हैं जो
हम देख सकते
हैं और जो हम
देखना चाहते
हैं। मूसा तो
इतने से ही
व्यग्र और
उद्विग्न हो गये--इस
आदमी की दशा
देखकर।
परमात्मा की
जो धुन उनके
भीतर थोड़ी
बहुत रही होगी, वह टूट गई।
वह सितार बंद
हो गया। यह
प्रार्थना-पूजा
व्यर्थ हो गई।
इस आदमी को
देखते ही उनकी
आंखें बंद हो
गईं, वे
अंधे हो गये।
ठीक ही किया
परमात्मा ने
कि जब वे लौटे
तो वह आदमी मर
चुका था।
परमात्मा
का अनन्य भक्त
आखिरी क्षणों
में बाहर से
सब भांति
प्यासा और
भीतर से सब
भांति तृप्त
होगा। तो ही
स्वर्ग का
द्वार खुलता
है, तो ही
मुक्ति का
द्वार खुलता
है। अगर बाहर
की प्यास उसे
खींच ले और
भीतर की
तृप्ति डूब
जाए तो फिर
संसार शुरू हो
जाए। आखिरी
विकल्प होगा ही
अंतिम क्षण
में।
जब
बाहर गहन
प्यास थी, तब भी वह
भीतर तृप्त
था। वह तृप्त
ही मरा, लेकिन
मूसा को लगा
कि प्यासा मर
गया। भागे, कि अंतिम
संस्कार कर
दें इस
परमात्मा के
भक्त का।
लेकिन जिसकी
फिक्र
परमात्मा कर
रहा हो, उसका
अंतिम
संस्कार करने
का खयाल भी
अहंकार से भरा
है।
रिंझाई
मरने के करीब
था तो उसके
शिष्यों ने पूछा, हम क्या
करें? मर
जाने पर हम
तुम्हें
जलाएं? दफनाएं?
तुम्हारे शरीर
को बचाने की
कोशिश करें? क्या करें? तुम कैसे
चाहोगे?
रिंझाई
ने कहा, कि
तुम मुझे दफनाओगे
तो उसके कीड़े
मुझे खाएंगे।
तुम मुझे जमीन
पर छोड़ दोगे
तो उसके जानवर
मुझे खाएंगे।
जाना मुझे
उसके पेट में
ही है। तुम
क्या करते हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। इसलिए
इस चिंता में
तुम मत पड़ो,
मुझे मर तो
जाने दो। जमीन
में दबाओगे,
उसके कीड़े
मुझे खाएंगे--'उसके' कीड़े!
अब वे कीड़े
नहीं हैं, अब
वही है। जमीन
के ऊपर छोड़
दोगे तो उसके
पशु-पक्षी
मुझे खा
जाएंगे--'उसके'
पशु-पक्षी।
अब वे भी
दुश्मन नहीं
हैं, उनके
भीतर भी वही
आयेगा।
इधर
मूसा तैयारी
करके आए अंतिम
संस्कार की, उधर देखा कि
एक शेर तो उस
आदमी को खा ही
चुका है।
तुम पहुंचो, उसके पहले
परमात्मा सदा
पहुंच जाता
है। लेकिन
मूसा को तकलीफ
हुई होगी कि
यह तो हद्द हो
गई! यह तो भक्त
के साथ दर्ुव्यवहार
की सीमा हो
गई। अगर यह
भक्तों के साथ
हो रहा है तो
जो भक्त नहीं
हैं, उनके
साथ क्या
होगा! यह तो
आखिरी बात हो
गई कि इस आदमी
को अंतिम
संस्कार भी हम
न दे पाये कि
इसका कोई
क्रियाकर्म न
हो सका। शेर
खा गया। यह तो
बड़ी दुखद बात
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं यह
पारसियों का
मृतकों को
कुएं पर रख
देना बड़ा बेहूदा
है। यह बंद
होना चाहिये।
कभी-कभी तो नई
समझ के पारसी
भी यह कहते
हैं कि यह बंद
होना चाहिये,
यह बहुत
बुरा है।
लेकिन क्यों
यह बुरा है? बुरा इसलिए
है कि हम 'उसको'
नहीं देख
पाते। वे जो
गिद्ध आकर
शरीर को खा जाएंगे,
इससे हम 'उसको' नहीं
देख पाते। बड़े
मजे की बात है,
कि
तुम्हारे
भीतर वह है और
गिद्धों के
भीतर वह नहीं
है? अगर
तुम्हारे
भीतर वह है तो
उनके भीतर भी
वह है।
और एक
लिहाज से
पारसियों की
व्यवस्था सब
से ज्यादा
संगत है।
हिंदू जला
देते हैं, मुसलमान
जमीन में दफना
देते हैं।
पारसी शरीर को,
मरे हुए
शरीर को भोजन
बना देते हैं।
सबसे ज्यादा
संगत, इकोलाजिकल,
प्राकृतिक
उनकी ही
व्यवस्था
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
जिंदगी भर
तुमने भोजन
किया। वृक्ष से
तुमने फल तोड़े,
पशु-पक्षियों
से तुमने मांस
लिया, मुर्गियों
से अंडे लिये,
जिंदगी भर
तुमने न मालूम
कितने जीवन से
भोजन इकट्ठा
किया! इस भोजन
को जलाने का
तुम्हें हक
क्या है? इसको,
भोजन को फिर
भोजन बन जाने
दो ताकि
वर्तुल पूरा
हो जाए। ताकि
तुमने जो लिया
था, वह
वापिस लौट
जाए। जिनसे
लिया था, उनमें
चला जाए। ताकि
वर्तुल बीच
में खंडित न हो।
यह जलाना तो
बात गलत है।
तुमने दूसरों
का अन्न बनाया
था, अब तुम
दूसरों के
लिये अन्न बन
जाओ ताकि
यात्रा पूरी
हो जाए। तुमने
सबका तो इस
तरह व्यवहार किया
कि वह
तुम्हारे
भोजन हैं, और
तुम खुद को इस
भांति बचा रहे
हो, जैसे
तुम किसी के
भोजन नहीं।
ठीक ही
किया कि इसके
पहले कि मूसा
इंतजाम करते
आदमी के अंतिम
संस्कार का, परमात्मा
झपटा और शेर
की भांति उसे
ले गया और खा गया।
जिससे
हम पैदा हुए
हैं, उसी में
हमें लीन हो
जाना है। जहां
से हमने पाया
है, वहीं
हमें वापस
लौटा देना है।
पारसियों
की अंतिम
संस्कार-विधि
वैज्ञानिक है, प्राकृतिक
है। ऐसी विधि
किसी की भी
इतनी वैज्ञानिक
और प्राकृतिक
नहीं है, चाहे
हमें कितनी ही
कठोर मालूम
पड़े। लेकिन जब
तुम फल तोड़ते
हो तब तुम्हें
कठोर नहीं
लगता। जब तुम
मुर्गी का
अंडा खाते हो
तब तुम्हें
कठोर नहीं
लगता। जब तुम
मुर्गी की
गरदन काटते हो
तब तुम्हें
कठोर नहीं
लगता, लेकिन
जब गिद्ध
तुम्हारी
गरदन पर बैठते
हैं, तब
तुम्हें कठोर
लगता है। तो
तुम अपने को
बड़ा विशिष्ट
समझ रहे हो!
सारे पशु जीते
हैं, मरते
हैं, खो
जाते हैं; आदमी
अंतिम
संस्कार करता
है। अहंकार की
हद्द है।
अहंकार जीते
जी भी अपने को
विशेष मानता
है, मरकर
भी विशेष
मानता है। जब
तुम मर गये तब
कुछ भी न बचा।
खाली देह पड़ी
रह गई। उस
खाली देह में
तुम जरा भी
नहीं हो, लेकिन
अब भी
तुम्हारे
चारों तरफ
संगमरमर के चबूतरे
खड़े किये
जाएंगे, उन
पर नाम खोदे
जाएंगे। वह जो
बचा ही नहीं, उसको भी
सम्हालने की
कोशिश की
जाएगी।
अहंकार
मरकर भी अपनी
सुरक्षा करने
की कोशिश करता
है।
मूसा
बहुत व्यथित
हो गये। और
चिल्लाकर
उन्होंने कहा
कि हे
परमात्मा! यह
क्या हो रहा
है?--यह
शिकायत थी--यह
क्या हो रहा
है, इतना
दुख! और उसे, जिसे तूने
कहा कि परम
भक्त है?
ध्यान
रहे, अगर
बुद्धि से हम
सोचेंगे तो
सिर्फ शिकायत
उठेगी, प्रार्थना
नहीं। बुद्धि
शिकायत करना
जानती है, प्रार्थना
करना नहीं।
बुद्धि जो-जो
गलत है, वह
दिखाती है; जो-जो ठीक है,
वह नहीं।
मूसा
ने बुद्धि से
देखा, लेकिन
परमात्मा के
भक्त को कोई
कभी बुद्धि से
देख सका है? उसे देखने
के लिये
श्रद्धा का
हृदय चाहिये।
सोच-विचार से
उसे कोई कभी
नहीं देख सका।
उसे देखने के
लिये
निर्विचार
चित्त
चाहिये। वह तो
रहा दूर, उसके
भक्त को भी
देखना हो तो
भी ध्यानस्थ
भाव चाहिये।
काश!
मूसा वहां
चुपचाप आंख
बंद करके बैठ
गया होता। तो
इस कहानी का
अंत दूसरा
होता; लेकिन
मूसा विचारक
हैं। काश! वह
बैठ गया होता आंख
बंद करके; उसने
स्वीकार किया
होता, कि
जब परमात्मा
ने भेजा इस
घाटी में, तो
जरूर कोई राज
होगा। मैं
जल्दी न करूं।
चुपचाप बैठूं
इस भक्त के
पास, इसके
भीतर क्या घट
रहा है, उसकी
थोड़ी सी भी
झलक लेने की
कोशिश करूं।
शायद
तब हालत
बिलकुल और हुई
होती। भक्त के
भीतर की गंध
इसे छू लेती, तो शायद
भक्त के शरीर
पर रेंगते
कीड़े-मकोड़े
विलीन हो गये
होते--वह वहां
थे भी नहीं; भक्त के
लिये थे ही
नहीं--तो शायद
भक्त का प्यासापन
समाप्त हो गया
होता। वह भक्त
के लिये था भी
नहीं। वह जैसे
भक्त से
परमात्मा ही
कह रहा था कि
मैं प्यासा
हूं और मूसा
पानी लेने चला
गया; वहीं
भूल हो गई।
मूसा को अगर
दिखाई पड़ता तो
मूसा कहता, यह हो ही
नहीं सकता कि
परमात्मा का
भक्त, और
प्यासा हो।
बात वहीं बदल
जाती। मूसा को
दिखाई पड़ता कि
भीतर तो
तृप्ति है, कैसी प्यास?
और जब जंगली
जानवर खा गया
होता तो भी
मूसा ने धन्यवाद
दिया होता।
हृदय
सदा धन्यवाद
देता है, बुद्धि
सदा शिकायत
करती है। हृदय
ने कभी शिकायत
जानी नहीं, बुद्धि ने
कभी धन्यवाद
नहीं जाना। तो
जब भी तुम्हारे
मन में शिकायत
उठे, समझना
कि तुम विचार
कर रहे हो; और
जब भी धन्यवाद
उठे, समझना
कि ध्यान कर
रहे हो।
धन्यवाद
का भाव गहरी
से गहरी बात
है भक्त की। वह
भक्त प्यासा
था तो भी
धन्यवाद उठ
रहा था। वह भक्त
मर रहा था तो
भी धन्यवाद उठ
रहा था।
मंसूर
को काटा गया।
जब मंसूर को
काटने की तैयारी
चल रही थी तो
उसके आसपास
भीड़, लाखों
लोग इकट्ठे हो
गये थे। एक
फकीर, शिवली नाम का फकीर
भी वहां खड़ा
था। मंसूर ने
कहा, 'शिवली,
तेरी
प्रार्थना
करने की चटाई
तेरे पास है
या नहीं?'
मंसूर
को काटने की
तैयारी चल रही
है, तलवारों
पर धार रखी जा
रही है, शूली
तैयार की गई
है। और मंसूर
की सूली ईसा
से भी ज्यादा
भयंकर थी, क्योंकि
ईसा के तो
हाथों में
खीलें ठोंककर
मार डाला गया,
मंसूर के
एक-एक अंग
काटे गये, अलग-अलग।
और मंसूर
जिंदा था।
पहले पैर काटे,
फिर हाथ
काटे, फिर
आंखें फोड़ीं,
फिर जीभ
काटी, ऐसा
एक-एक अंग काट
कर मारा।
इधर
मरने की
तैयारी चल रही
है और मंसूर
एक फकीर को
देखकर भीड़ में
कहता है कि
तेरी
प्रार्थना की
चटाई है या
नहीं शिवली
तेरे पास! शिवली
ने कहा कि हां, मेरे पास
प्रार्थना की
चटाई है। उसने
कहा, 'दे, क्योंकि मैं
नमाज पढ़ लूं।'
यहां मौत की
तैयारी हो रही
है, यहां
मंसूर नमाज पढ़
रहा है। लेकिन
हत्यारे गुस्से
में आ गये, जब
उन्होंने यह
देखा कि मंसूर
नमाज पढ़ने की
बात कर रहा
है। तो
उन्होंने
गुस्से में
उसके दोनों
पैर काट डाले।
जब वह बैठा था
नमाज की चटाई
पर मुड़ा
हुआ, तो
उसके दोनों
पैर काट डाले।
मंसूर ने कहा,
'धन्यवाद
परमात्मा!
क्योंकि मैं
सोच ही रहा था कि
वजू कैसे करूं?
पानी नहीं
है। खून मिल
गया। और तेरी
वजू इसके पहले
पानी से करता
रहा उसके लिये
क्षमा करना। मुझे
यह पता ही
नहीं था, कि
खून से ही
असली वजू हो
सकती है।' तो
उसने खून अपने
हाथों पर लगा
लिया, जैसा
कि मुसलमान
हाथ धोते हैं
पानी से। फिर
उसकी आंखें फोड़ दी
गईं। लेकिन
उसकी
मुस्कुराहट
जिंदा थी। तुम
मुस्कुराहट
को तो नहीं
काट सकते। तुम
प्रेम को तो
नहीं काट
सकते।
हत्यारों
को भी दया आ
गयी और आखिरी
क्षण में उन्होंने
कहा कि अब
तेरा आखिरी
क्षण है और हम
तेरी जबान
काटने जा रहे
हैं, तुझे कुछ
कहना तो नहीं?
तो उसने कहा,
जिससे मुझे
कहना है उससे
तो बिना जबान
के भी कह सकता
हूं। और तुमसे
कहने को तो
कुछ बचा नहीं है।
तुमसे कह-कहकर
तो यह हालत
खड़ी हो गई कि
तुम सदा उलटा
समझे। लेकिन
ताकि तुम भी
सुन लो, उसने
अपनी अंधी
आंखें जो कि
फूट गई थीं, जिनमें से
खून बह रहा था
ऊपर आकाश की
तरफ उठाईं
और कहा कि
परमात्मा!
इनको माफ कर
देना, क्योंकि
यह नहीं जानते,
यह क्या कर
रहे हैं। और
मेरी तरफ से
इनकी कोई भी
शिकायत नहीं
है। ये सिर्फ
नासमझ हैं, इनको तू माफ
कर देना।
हृदय
ने कभी शिकायत
जानी नहीं।
हृदय कभी प्यासा
नहीं हुआ।
हृदय ने कभी
कुछ मांगा
नहीं। हृदय
सदा परिपूर्ण
है--आप्तकाम!
लेकिन
मूसा चूक गये।
चूकना
निश्चित था, क्योंकि
परमात्मा से
जो पूछता है
कि तेरा परम
भक्त कहां, वह बुद्धि
से ही जी रहा
है। अन्यथा यह
पूछने की
जरूरत क्या थी?
यह परम भक्त
को खोजने की
जरूरत क्या थी?
यह बुद्धि
ही तलाश कर
रही है। तर्क
गणित बिठा रहा
है: इस रास्ते
पर चलने जैसा
है या नहीं?
कहानी
मधुर है। और
तुम भी निर्णय
लेने की कभी जल्दी
मत करना, क्योंकि
यहां सम्राट
कभी-कभी
भिखारियों
में मिल जाते
हैं। कभी-कभी
परम स्वस्थ
आदमी महारोग
में घिरा होता
है। कभी-कभी
जहां तृप्ति
का दीया जल
रहा है, वहां
चारों तरफ
प्यास की
लपटें उठती
हैं। और आखिरी
क्षण में तो
परीक्षा है।
और प्रार्थना
जब आखिरी क्षण
को पार कर
जाती है, जबकि
शिकायत करने
को सब कुछ था, और
प्रार्थना
शिकायत नहीं
करती, तभी
द्वार की
कुंजी हाथ में
आती है।
जब
शिकायत करने
को कुछ भी न हो, तब तुम
शिकायत न करो
तो इसमें कुछ
गुण गौरव नहीं
है। लेकिन जब
शिकायत करने
को सब कुछ हो
और शिकायत न
उठे, तभी
जानना कि कसौटी
पूरी हुई। तुम
खरे सोने
साबित हुए। और
जल्दी मत
करना। और बाहर
से मत देखना।
अगर कहीं भी
तुम्हें खबर
मिले...और बहुत
दफे तुम्हें
खबर मिलती है,
तुम भी बाहर
से देखकर लौट
आते हो; जैसा
मूसा के साथ
हुआ। अगर
तुम्हें
जरा-सी भी खबर
मिले कि कोई
भक्त है, तो
उसके पास
बुद्धि को अलग
करके बैठ
जाना। इसको
हमने सत्संग
कहा है।
सत्संग
का अर्थ है: जो
पहुंच गया है
या पहुंचने के
करीब है, उसके
पास बिना सोचे
बैठ जाना।
क्योंकि जब
तुम सोचते हो
तो तुम्हारे
और उसके बीच
दीवाल खड़ी हो
जाती है। जब
तुम नहीं
सोचते तब बीच
की दीवाल गिर
जाती है और वह
जो परम भक्त
को मिला है, वह तुम में
भी रिस-रिसकर
बहने लगता है।
उसकी धारा
तुम्हारे पास
आने लगती है।
वह धीरे-धीरे
अपने को
तुममें उंड़ेल
देता है। इसको
हमने सत्संग
कहा है।
मूसा
को जरूरत थी
सत्संग की।
कितनी
मुश्किल से तो
उस घाटी में
मूसा पहुंचा
होगा! और वहां
भी बुद्धि को
लेकर पहुंच
गया। वहां भी
सोचने लगा, विचार करने
लगा कि यह
क्या हो रहा
है? शिकायत
करने लगा। तो
घाटी में
पहुंचा, फिर
भी न पहुंच
पाया। पूछा
परमात्मा से,
इशारा भी
मिला, फिर
भी चूक गया।
तुम भी इस
भांति मत चूक
जाना। बहुत
बार तुम भी इस
भांति चूके हो।
कोई
क्षुद्र-सी
बात शिकायत बन
जाती है।
गुरजिएफ
के पास लोग
जाते थे, तो
गुरजिएफ कहता,
'कितने पैसे
हैं तुम्हारे
पास? निकालो।' बस, इतने
में ही उपद्रव
हो जाता।
क्योंकि पैसे
पर हमारी इतनी
पकड़ है! तो
गुरजिएफ कहता,
'पहले रुपये
निकालकर रख
दो।' हम
सोचते हैं, 'संत और कैसा
रुपया?'
गुरजिएफ
पहले पैसा
मांगता। एक
सवाल का जवाब
देता तो कहता, सौ रुपये।
बहुत लोग भाग
जाते, क्योंकि
संतों से हमने
मुफ्त पाने की
आदत बना ली
है। लेकिन
मुफ्त
तुम्हें वही
मिलेगा, जो
मुफ्त के
योग्य था।
असली पाना हो
तो तुम्हें
चुकाना ही
पड़ेगा। चाहे
धन से, चाहे
ध्यान से; चुकाना
पड़ेगा। कुछ
तुम्हें
छोड़ना पड़ेगा
तो ही तुम
असली को पा
सकोगे।
ऐसा
हुआ एक बार कि
एक महिला आई
और गुरजिएफ ने
कहा कि तेरे
जितने भी
हीरे-जवाहरात
हैं--पहने हुई
थी, काफी धनी
महिला थी--ये
तू सब उतारकर
रख दे। उस
महिला ने आने
के पहले यह
सुना था, गुरजिएफ
ऐसा करता है।
तो बुद्धि
इंतजाम कर लेती
है; उसने
जरा आसपास
चर्चा की, गुरजिएफ
के पुराने
शिष्यों से
पूछा।
एक
महिला ने उसे
कहा कि डरने
की कोई जरूरत
नहीं।
क्योंकि जब
मैं गई थी, तब भी उसने
मेरी अंगूठी
और गले का हार
उतरवा लिया
था। लेकिन
दूसरे ही दिन
वापिस कर
दिये। तू डर
मत! मैंने
निष्कपट भाव
से दे दिया था,
कि जब वे
मांगते हैं तो
ठीक ही मांगते
होंगे। दूसरे
दिन बुलाकर
उन्होंने
मेरी पूरी
पोटली वापस कर
दी। और जब
मैंने घर आकर
पोटली खोली, तो उसमें
कुछ चीजें
ज्यादा थीं, जो मैंने दी
नहीं थीं।
लोभ
पकड़ा इस नयी
स्त्री को, कि यह तो बड़ी
अच्छी बात है।
वह गई, वह
प्रतीक्षा ही
करती रही कि
कब गुरजिएफ
कहें! और
गुरजिएफ ने
कहा कि अच्छा,
अब तू सब दे
दे। उसने
जल्दी से
निकालकर
रूमाल में
बांधकर दे
दिये। पंद्रह
दिन
प्रतीक्षा करती
रही होगी, पोटली
नहीं लौटी, नहीं लौटी, नहीं लौटी। आखिर
वह उस स्त्री
के पास गई।
उसने कहा, मैं
भी क्या कर
सकती हूं?
गुरजिएफ
से किसी ने
पूछा कि यह आप
कभी-कभी लौटा
देते हैं, कभी नहीं
लौटाते। तो
गुरजिएफ ने
कहा, 'जो
देता है, उसको
मैं लौटा देता
हूं। जो देता
ही नहीं, उसको
मैं लौटाऊं
कैसे? मैं
लौटा तभी सकता
हूं, जब
कोई दे। इस
स्त्री ने
दिया ही नहीं
था। इसकी नजर
लौटाने पर लगी
थी, अब यह
कभी लौटने
वाला नहीं।
कभी-कभी
तुम पहुंच भी
जाओ गुरिजएफ
जैसे लोगों के
पास, तो तुम
चूक जाओगे।
कोई छोटी-सी
बात तुम्हें
चुका देगी।
क्योंकि
बुद्धि
क्षुद्र को
देखती है।
उसका जाल बड़ा
छोटा है।
छोटी-छोटी मछलियां
पकड़ती
है। जितनी
क्षुद्र मछली
हो, उतनी
जल्दी पकड़ती
है। विराट
उससे चूक जाता
है। हृदय का
जाल बहुत बड़ा
है, उसमें
सिर्फ विराट
ही पकड़ में
आता है।
तो जब
तुम विराट को पकड़ने जाओ
तो छोटा जाल
लेकर मत जाना।
यही मूसा से
भूल हो गई।
छोटा-सा जाल
डाला। परम
भक्त को पकड़ने
गये थे, छोटी-मोटी
मछलियां पकड़कर
वापस लौट आये।
तुम मूसा की
भूल मत करना।
भगवान
: ...कुछ और?
भगवान!
आपने मंसूर की
कहानी कही।
मंसूर के बारे
में यह भी कथा
है कि उनके
शत्रु जब उनके
हाथ-पांव
काटते रहे, आंखें निकाल
लीं, तब तक
उनके होठों पर
हंसी खेलती
थी। लेकिन भीड़
से किसी उनके
एक भक्त ने जब उन
पर एक फूल
फेंक दिया, तो उन्हें
चोट लग गई और
उनकी हंसी खो
गई।
ऐसा
हुआ, लाख
लोगों की भीड़
थी और जब
मंसूर के
हाथ-पैर काटे
जा रहे थे तो
लोग पत्थर उन
पर फेंक रहे
थे। वह भीड़
उनके
विरोधियों की
थी।
मंसूर
का कसूर क्या
था? मंसूर का
कसूर था कि
उसने यह घोषणा
कर दी कि मैं
ब्रह्म हूं: अनल्हक। 'अहं
ब्रह्मास्मि'--यह उसने
घोषणा कर दी।
मुसलमान इसे
बर्दाश्त न कर
सके। क्योंकि
मुसलमान कहते
हैं कि भक्त, भक्त ही
रहेगा, भगवान
नहीं हो सकता।
भगवान
होने की
हिम्मत तो
सिर्फ
हिंदुओं ने की
है। इसलिए
हिंदुओं का
धर्म जिस
ऊंचाई पर पहुंचा, दुनिया का
कोई धर्म नहीं
पहुंचा। एक
कदम कम रह
जाता है।
लेकिन उसका भी
कारण है
क्योंकि इस्लाम
ने कहा कि अगर
भक्त भगवान
होने का दावा
करे, तो सौ
में
निन्यान्नबे
मौके ये हैं
कि सिर्फ अहंकार
की घोषणा हो।
इस अहंकार को
हम नहीं चलने
देंगे। भक्त
को तो इतना
मिट जाना है
कि वह कभी
भूलकर भी नहीं
कह सके कि मैं
भगवान हूं। और
भक्त कितनी ही
ऊंचाई पर
पहुंचे, कितना
ही निकट
पहुंचे, लेकिन
भगवान भगवान
रहेगा, भक्त
भक्त रहेगा।
भगवान का
प्यारा हो
जाएगा, उसके
हृदय का
शृंगार हो
जाएगा, लेकिन
फासला कायम
रहेगा।
इस्लाम
द्वैतवादी
है। इस
द्वैतवाद के
पीछे वजह है
क्योंकि बहुत
अहंकारी
चित्त को मन
होता है घोषणा
कर देने का, कि मैं
भगवान हूं। और
यह घोषणा
अहंकार की हो
सकती है; यह
तुम्हारा
अनुभव न हो।
हिंदुस्तान
में ऐसा हुआ
है। हजारों
लोग इस घोषणा
को कर देते
हैं कि वे
ब्रह्म को
उपलब्ध हो गये, वे ब्रह्म
हो गये और यह
सिर्फ उनके
अहंकार का ही
खेल होता है।
वे कहीं
पहुंचे नहीं
होते। वहीं
जीते हैं, जहां
दूसरे संसारी
जी रहे हैं, उसमें कोई
रत्ती भर फर्क
नहीं होता।
कोई गहराई
नहीं, कोई
ऊंचाई नहीं।
इस घोषणा के
कारण नुकसान
होता है।
तो
इस्लाम ने इस
पर रोक लगा
दी। इस्लाम की
रोक सार्थक है
एक अर्थ में, क्योंकि सौ मौकों पर
निन्यान्नबे
मौके पर तो
गलत लोग घोषणा
करते हैं।
एकाध आदमी कभी
ठीक घोषणा
करता है। लेकिन
इस्लाम कहता
है, वह
आदमी भी घोषणा
से चुप रहे
क्योंकि उसकी
घोषणा के कारण
निन्यान्नबे
गलत आदमियों
के लिये रास्ता
खुल जाता है।
तो इस्लाम
सख्त है इस
संबंध में।
और जब
मंसूर ने
घोषणा की, 'अनल्हक'
की; कि
मैं परमात्मा
हूं; भक्त
मिट गया, अब
मैं भगवान हूं;
निकटता
इतनी हो गई कि
अब कोई दूरी
नहीं है, अद्वैत
हो गया है; तो
इस्लाम को मानने
वाले लोग
नाराज हुए।
उन्होंने
मंसूर को पकड़
लिया। भीड़
इकट्ठी हो गई।
लोग पत्थर
फेंक रहे हैं,
हाथ-पैर
काटे जा रहे
हैं, मंसूर
लहूलुहान
फांसी पर लटका
है। लेकिन उसके
होठों की
मुस्कुराहट
कायम है। वह
हंस रहा है।
और तभी
एक फकीर जो
भीड़ में खड़ा
था, जिस फकीर
का मैंने नाम
लिया शिवली,
जिससे उसने
प्रार्थना की
चटाई मांगी
थी। सब तो
पत्थर फेंक
रहे थे, शिवली ने एक फूल
फेंका। और
कहते हैं, मंसूर
की
मुस्कुराहट
खो गई और उसकी
फूटी आंखों से
आंसू गिरे।
शिवली
तो बहुत घबड़ा
गया। सामने ही
खड़ा था और शिवली
उसे प्रेम
करता था। शिवली
खुद भी एक
कीमती आदमी था
इसलिए उसने
फूल भी फेंका
था। मगर यह
देखकर बड़ा
हैरान हुआ कि
पत्थरों की चोट
से आंसू न आये, मुस्कुराहट
न खोई, और
यह फूल से सब
मुस्कुराहट
खो गई, आंसू
आ गये!
शिवली
के पास एक
दूसरा फकीर
जुन्नैद खड़ा
था, उसने
पूछा कि यह
मेरी समझ के
बाहर है
मंसूर! जाने
के पहले जवाब
दे जाओ। पत्थर
बरस रहे हैं और
तुम मुस्कुरा
रहे हो! शिवली
ने सिर्फ एक
फूल फेंका, और तुम्हें
इतनी चोट लगी
कि तुम्हारी
मुस्कुराहट
खो गई और
तुम्हारी
आंखों से आंसू
गिरे?
मंसूर
ने कहा, और
बाकी लोग तो
नासमझ हैं।
उनके पत्थर भी
क्षमा किये जा
सकते हैं।
लेकिन शिवली
जानता है कि
उसका फूल भी
क्षमा नहीं हो
सकता। शिवली
भलीभांति
जानता है, मैं
कौन हूं। शिवली
मुझे पहचानता
है, फिर भी
फूल फेंक रहा
है। और कारण
इसका सिर्फ यह
है कि वह भीड़
में अपने को
छिपाना चाहता
है ताकि कोई
यह न समझे कि
मेरा कोई
मित्र खड़ा है
या मेरा कोई
जानने वाला
प्रेमी खड़ा
है। भीड़ में छुपाना
चाहता है। भीड़
को ऐसा लगे कि
यह भी फेंक
रहा है। भीड़
तो पागल है।
और जब
बाद में
जुन्नैद ने शिवली से
पूछा कि क्या
सचाई है? तो
उसने कहा कि
मंसूर ने पकड़
लिया। मैं
सिर्फ अपने को
छिपाना चाहता
था कि भीड़ को
यह पता न चले
कि मैं उसका
भक्त हूं।
इसलिए ऐसा न
लगे कि मैं
बिना कुछ
फेंके खड़ा हूं,
नहीं तो लोग
पहचान लेंगे।
और लोगों ने
पहचान लिया तो
जो गति मंसूर
की हुई, वही
गति मेरी
होगी। इस भीड़
से बाहर
निकलना मुश्किल
हो जाएगा।
इसलिए मैं फूल
छिपाकर ले गया
था कि जब भीड़
पत्थर फेंकेगी
तो मैं भी कुछ
फेंकता
रहूंगा, ताकि
लोगों को लगे
कि मैं भी
फेंक रहा हूं;
मैं भी कोई
मंसूर का साथी
नहीं हूं।
मंसूर
लेकिन पहचान
गया। अंधा
मंसूर पहचान
गया। अंधे
मंसूर ने देख
लिया कि फूल शिवली की
तरफ से आता
है। अंधे
मंसूर की समझ
में पड़ गया कि
पत्थर और फूल
में फर्क है।
मंसूर
जैसे लोग अंधे
होते ही नहीं।
तुम उनकी आंखें
फोड़ सकते
हो, उनके
देखने को नहीं
छीन सकते। और
साधारण आदमी अंधा
ही होता है।
सिर्फ आंख
होती है, लेकिन
उससे कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
मंसूर
की
मुस्कुराहट
का खो जाना और
आंख से आंसू
का आना बड़ा
कीमती है। वह
यह कह रहा है
कि शिवली, अभी भी भीड़
के साथ अपने
को एक करने की
आकांक्षा है?
अभी भी भीड़
से इतना भय है?
इसलिए रो
रहा है कि तू
इतना पहुंचकर
भटक रहा है, वापस लौट
रहा है।
संन्यासी
अगर समाज से
मुक्त न हो तो
उसके संन्यास
की कीमत क्या
है?
मंसूर
अपने लिये
नहीं रो रहा
है, शिवली के लिये रो
रहा है। उसकी
मुस्कुराहट
खो गई, क्योंकि
एक व्यक्ति जो
पहुंच रहा था
शिखर पर, वह
वापस गिर गया।
और उसने झांककर
देख लिया शिवली
के भीतर, कि
समाज के भय की
वजह से, भीड़
के भय की वजह
से...।
ठीक
ऐसी घटना जीसस
के जीवन में
घटती है। जिस
रात जीसस को
पकड़ा गया, पकड़ने के पहले
जीसस ने उन
सारे मित्रों
को इकट्ठा किया
और उनसे कहा
कि अब तुम सुन
लो, यह रात
आखिरी है। रात
पूरे होने के
पहले मैं पकड़
लिया जाऊंगा।
एक शिष्य ने
खड़े होकर कहा
कि यह कभी
नहीं होगा, जब तक हम
जिंदा हैं।
जीसस ने कहा
कि तू सुबह होने
के पहले तीन
बार इनकार कर
देगा कि जीसस
से मेरा कोई
संबंध है।
सुबह होने के
पहले तीन बार,
मुर्गा
बांग दे उसके
पहले तू तीन
बार इनकार कर
देगा कि तेरा
जीसस से कोई
संबंध है। और
तू कह रहा है, यह कभी नहीं
होगा? यह
तेरे अहंकार
की आवाज है, तेरे हृदय
की नहीं। पर
उस शिष्य ने
कहा कि आप गलत
समझ रहे हैं।
आप मुझे समझ
ही नहीं पाये।
आप देख लेना।
जान चली जाए, लेकिन तुम पकड़े न जा
सकोगे।
और आधी
रात जीसस ने
कहा कि मैं
अपनी आखिरी
प्रार्थना कर
लूं; और उस
युवक को, जिसने
कहा था कि
मेरे जिंदा
रहते...। जीसस
ने कहा कि
आखिरी रात है,
मैं
प्रार्थना कर
लूं। तू पहरे
पर खड़ा हो जा। देख,
सो मत जाना।
क्योंकि
दुश्मन करीब
हैं, और
जल्दी ही मैं
पकड़ा जाऊंगा।
जीसस
आधी
प्रार्थना
करके पीछे आये, देखा, वह
आदमी खर्राटे
ले रहा है।
जीसस ने उसे
हिलाया कि तू
सो गया? तू
जीवन देने को
तैयार है
लेकिन आधा घड़ी
की नींद देने
को तैयार
नहीं। उस आदमी
ने कहा, झपकी
लग गई। कुछ
होश ही न रहा; अब मैं जागूंगा।
फिर थोड़ी देर
बाद जीसस आये,
वह आदमी फिर
सोया है। जीसस
की पूरी
प्रार्थना होने
के पहले वह
आदमी तीन दफे
सो चुका। और
जीसस ने कहा
कि तू इतना
बेहोश है कि
जाग भी नहीं
सकता घड़ी भर, और तू जीवन
को देने की
बातें करता
है! उसने फिर भी
कहा कि आप
मानो, जान
लगा दूंगा।
मेरी लाश पर
से ही तुम्हें
कोई ले जा
सकता है।
और फिर
भोर होने के
पहले जीसस पकड़
लिये गये। दुश्मन
उन्हें ले
जाने लगे। वह
युवक, जिसने
कहा था, वह
भी भीड़ में
साथ हो लिया।
रात अंधेरी थी,
लोग मशालें
जलाये थे, और
जीसस को पकड़कर
कारागृह की
तरफ ले जा रहे
थे। मशालों की
रोशनी में
लोगों को लगा
कि कोई अजनबी
भी है। अपना आदमी
नहीं है। तो
किसी ने उसे टोककर
पूछा कि तू
कौन है? तू
यहां कैसे आया?
क्या तू
जीसस का साथी
है? उसने
कहा कि नहीं, कौन जीसस? मैं तो
उन्हें
पहचानता भी
नहीं। मैं तो
एक यात्री
हूं। रास्ते
से गांव की
तरफ जा रहा
हूं, रोशनी
देखकर
तुम्हारे साथ
हो लिया हूं।
जीसस
ने पीछे मुड़कर
कहा कि देख, अभी मुर्गे
ने बांग नहीं
दी। लेकिन कोई
भी न समझ पाया
सिवाय उसके कि
क्या मतलब था
कि 'देख, अभी मुर्गे
ने बांग भी
नहीं दी!' और
निश्चित ऐसा
ही हुआ कि तीन
बार मुर्गे की
बांग देने के
पहले उस आदमी
को बार-बार
लोगों ने पूछा
कि तू सच बता।
उसने कहा कि
सच बताता हूं
कि मैं एक
अजनबी हूं।
मैं नहीं
जानता, कौन
जीसस? कैसा
जीसस? मन
में वह यही
सोच रहा था कि
इस भांति
छिपाकर मैं
जीसस के पीछे
जा रहा हूं
उनकी सुरक्षा
के लिए!
मन बड़ा
धोखेबाज है।
यह बड़ी अजीब
व्याख्याएं खोजता
है। यह आदमी
यह नहीं समझ
पा रहा है कि
मुझमें साहस
नहीं है। जीसस
का साथी बताने
का साहस नहीं
है क्योंकि उस
साहस का मतलब
सूली होगी।
शिवली
भी बता नहीं
पा रहा है कि
मैं साथी हूं।
पत्थर तो नहीं
फेंकना चाहता
क्योंकि
मंसूर से इसका
प्रेम है।
लेकिन बिना
फेंके भी नहीं
रह सकता क्योंकि
भीड़ का डर है।
इसलिए उसने
फूल चुन लिये
हैं। यह मन की
तरकीब है।
ताकि मंसूर को
लगे कि फूल फेंके
गये हैं और
मंसूर खुश हो
कि शिवली, मेरा प्रेमी
फूल फेंक रहा
है। और भीड़
समझे कि पत्थर
फेंके जा रहे
हैं। उस
उपद्रव में, शोर-गुल में
कौन देखता है?
वह दो तरफा
काम कर रहा
है। भीड़ को
राजी रखना चाहता
है और मंसूर
को भी विदा
देना चाहता है
आखिरी क्षण
में, ताकि
वह इस भाव से
जाएं कि कोई
भी जब मेरा
साथी नहीं था,
तब भी शिवली
मेरा साथी था।
लेकिन
मंसूर को धोखा
देना मुश्किल
है। मन को धोखा
दिया जा सकता
है। जिनके पास
मन नहीं, उन्हें
धोखा देना
असंभव है। अगर
तुम धोखा भी दोगे
तो वह खुद को
ही दिया गया
धोखा सिद्ध
होगा।
मंसूर
देख लिए शिवली
की इस तरकीब
को, इस वंचना
को। उनकी फूटी
आंखों से आंसू
बहे। उनकी
मुस्कुराहट
खो गई। और
उन्होंने कहा,
औरों के
पत्थर भी
क्षम्य हैं, क्योंकि वे
नहीं जानते
क्या कर रहे
हैं। लेकिन शिवली, तेरे
फूल भी क्षमा
नहीं किये जा
सकते हैं।
क्योंकि तू
जान-बूझकर कर
रहा है। तुझसे
ऐसी आशा नहीं
थी। तू पतित
हो रहा है।
लेकिन
वे आंसू शिवली
के लिए हैं।
उसके दुख में
कि आदमी
जरा-सी प्रतिष्ठा, समाज का मोह,
शरीर का
बचाव, इसके
लिये कितना खो
रहा है! किसको
धोखा दे रहा है?
एक मरते हुए
बुद्ध को धोखा
दे रहा है।
जिंदा में तो
हम बुद्धों को
धोखा देते हैं,
लेकिन मरते
क्षण में तो
थोड़ा होश आना
चाहिये। वहां
भी धोखा दे
रहा है।
मंसूर
की घोषणा ने
उसे मुसीबत
में डाला। और
मंसूर भी
जानता था कि
मुसीबत होगी
क्योंकि इस्लाम
को मानने वाले
लोगों के बीच
यह घोषणा करनी
कि मैं
परमात्मा हूं, सबसे बड़ा
कुफ्र, सबसे
बड़ा पाप है।
मंसूर की
घोषणा के पहले
उसके मित्रों
ने बहुत बार
कहा था कि तुम
ऐसी घोषणा मत
करो। मंसूर ने
कहा, मैं
जानता हूं कि
लोग इसे समझ न
पाएंगे। यह भी
मैं जानता हूं
कि नासमझी
होगी। और यह
भी मैं जानता
हूं कि यह
खतरनाक है।
लेकिन सत्य को
तो बोलना ही
होगा; उसके
चाहे कोई भी
परिणाम हों।
परिणामों के
कारण असत्य को
तो नहीं बोला
जा सकता। मैं
कर भी क्या
सकता हूं! मैं
ब्रह्म हूं, ऐसा मैंने
जाना है, ऐसा
मेरा अनुभव
है। इस अनुभव
के विपरीत मैं
कुछ भी नहीं
कर सकता हूं।
इसके जो भी
परिणाम हों।
जब भी
कोई व्यक्ति
अनुभव को
उपलब्ध होता
है तो उससे
विपरीत कुछ भी
नहीं कर सकता।
यह शिवली
बौद्धिक रूप
से ही फकीर
रहा होगा। यह
इसका अनुभव न
था। यह फकीरी
इसके भीतर
खिली नहीं थी, उधार थी।
इसने फकीरों
के साथ-साथ
रहकर फकीरी
सीख ली होगी।
यह रंग किसी
दूसरों के
कपड़ों से लग
गया था। यह
धब्बे की तरह
था। यह रंग
भीतर से नहीं
आया था। यह
लाली अपनी
नहीं थी, उधार
थी, बासी
थी। जरा-सी
वर्षा हुई कि
धुल गई। इसलिए
मंसूर रोने
लगा।
मंसूर
के हंसने को
भी ठीक से
समझना और मंसूर
के रोने को
भी। क्योंकि
मंसूर जैसे
व्यक्ति
हंसते हैं तो
भी उसमें बड़ा
अर्थ होता है, रोते हैं तो
भी बड़ा अर्थ
होता है।
मंसूर जैसे व्यक्ति
जो भी करते
हैं, उसके
बड़े गहरे
अभिप्राय हैं,
जिनको उघाड़ने
में सदियां लग
जाती हैं।
आज
इतना ही।
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