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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बिन बाती बिन तेल-(प्रवचन-07)

मनुष्य की जड़: परमात्मा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जून 1974(प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

किसी आदमी ने एक दिन एक पेड़ को काट लिया।
एक सूफी फकीर ने, जो यह सब देख रहे थे, कहा, '
इस ताजा डाल को तो देखो!
वह रस से भरा है और खुश है।
क्योंकि वह अभी नहीं जानता है कि काट डाला गया है।
हो सकता है यह इस भारी घाव से अनजान हो,
जो अभी-अभी इसे लगा है।
लेकिन थोड़े ही समय में वह जान जायेगा।
इस बीच तुम इसके साथ तर्क भी नहीं कर सकते।'


सी ही दशा मनुष्य की है। उसे पता भी नहीं कि उसकी जड़ें टूट गई हैं। उसे पता भी नहीं कि परमात्मा से उसका संबंध विच्छिन्न हो गया। उसे पता भी नहीं कि जीवन के स्रोत से उसकी सरिता अलग हो गई है। जल्दी ही सब सूख जायेगा। लेकिन अभी सूखने में देर है। और जब तक वह पूरा ही न सूख जाये, तब तक तर्क से उसे समझाने का कोई उपाय नहीं।
यह सूफी फकीर ठीक कह रहा है।
किसी ने वृक्ष को काट गिराया है। वृक्ष कट गया है, लेकिन अभी हरा है। अभी भी फूल खिले हैं; मुरझाने में समय लगेगा। उसे पता नहीं कि जड़ों से संबंध टूट गया है। उसे पता नहीं कि अब जमीन से कोई नाता न रहा। कोई उपाय भी तो नहीं है उसे समझाने का। और जब समझाने का उपाय होगा तब समझाने का कोई अर्थ न रह जायेगा। जब वह सूख ही जायेगा तभी उसकी बुद्धि को समझ में आयेगा। लेकिन जब सूख ही गये तो कुछ करने को नहीं बचता।
आदमी तभी समझ पाता है, जब करने को समय ही नहीं रह जाता। अकसर लोग मरने के समय समझ पाते हैं कि जीवन व्यर्थ गया। इसके पहले उन्हें समझाने की कितनी ही कोशिश करो, उनकी समझ में नहीं आता। क्योंकि क्षुद्र में ही वे सार देखते रहते हैं। और उन्हें यह भी भरोसा नहीं आता कि मौत आने वाली है। क्योंकि बुद्धि कहे जाती है--और दूसरे मरते होंगे, तुम तो कभी पहले मरे नहीं! और जो कभी नहीं हुआ, वह क्यों होगा? और जीवन को भरोसा नहीं आता कि मैं मृत्यु कैसे बन सकता हूं। प्रकाश माने भी तो कैसे माने कि मैं अंधकार हो जाऊंगा! अमृत को समझायें भी तो कैसे समझायें कि तू भी जहर हो सकता है!
आप जब भी किसी को मरते हुए देखते हैं तो ऐसा लगता है, कोई दुर्घटना हो गई। जैसे कोई दुर्घटना हो गई, न कि कोई जीवन का सत्य! मृत्यु ऐसी लगती है, जैसे होनी न थी और हो गई। लगनी तो ऐसी चाहिए कि आश्चर्य तो यही है कि इतनी देर क्यों न हुई!
जिस दिन जन्मे, उसी दिन जड़ें टूट गईं। जिस दिन जन्मे, उसी दिन पृथ्वी से नाता विच्छिन्न हो गया। जिस दिन जन्मे, उसी दिन परमात्मा से दूर जाने की यात्रा शुरू हो गई। उसी दिन हम पृथक हो गये। पृथकता का अर्थ समझ लेना चाहिए।
बच्चा जब पैदा होता है, एक क्षण पहले मां का अंग था। अंग कहना भी ठीक नहीं क्योंकि उसे यह भी पता नहीं था कि मैं अंग हूं। वह मां के साथ एक था। यह भी हम सोचकर कहते हैं, उसे यह भी पता नहीं था कि मैं एक हूं। क्योंकि एक होने का भी पता तब ही चलता है, जब हम दो हो गये हों। दो हुए बिना एक का भी तो खयाल नहीं आता। बच्चा सिर्फ था। होना परिपूर्ण था। उस होने में कोई भी द्वैत नहीं था। फिर बच्चा पैदा हुआ, मां से विच्छिन्न हुआ, जड़ें टूटीं, जैसे किसी ने पौधा काट डाला।
जिसको हम जन्म कहते हैं, वह मां से दूर हटने की प्रक्रिया है। और फिर जिसको हम जीवन कहते हैं, वह रोज-रोज दूर हटते जाने का नाम है। पहले बच्चा मां के पेट से अलग होता है। लेकिन तब भी मां के स्तनों से उसका संबंध जुड़ा रहता है। फिर वह संबंध भी टूट जायेगा। फिर भी वह मां के आसपास घूमता रहेगा। लेकिन जल्दी ही वह संबंध भी टूट जायेगा। फिर भी मां से एक नाता बना रहेगा। क्योंकि वही स्त्री सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगी। फिर वह नाता भी टूट जायेगा। वह किसी प्रेम में पड़ेगा; कोई स्त्री, और स्त्री महत्वपूर्ण हो जायेगी। तब मां की तरफ पूरी पीठ हो जायेगी।
ऐसे वह दूर जा रहा है। और जितना दूर जायेगा उतना अहंकार मजबूत होगा। क्योंकि जितना मां के पास था, उतना निरअहंकार भाव था। जब मां के गर्भ में था, एक था, तो कोई अहंकार न था।
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां से दूर होने में ही व्यक्तित्व का निर्माण है। व्यक्तित्व का अर्थ है, अहंकार। व्यक्तित्व का अर्थ है, कि मैं अलग हूं, पृथक हूं, भिन्न हूं, विशिष्ट हूं, व्यक्ति हूं। यह सब जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, इसके साथ मैं एक नहीं हूं, अलग हूं। यह अलग होने की भावना अस्मिता है। यह अहंकार मरेगा। थोड़ी देर डाल हरी रहेगी कट करके। वह थोड़ी देर चाहे सत्तर साल क्यों न हों! वह थोड़ी ही देर है। सत्तर साल का क्या मूल्य है इस अस्तित्व में?
वैज्ञानिक कहते हैं, इस पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। लेकिन पृथ्वी बड़ा ही नया ग्रह है। इससे पुराने ग्रह हैं। सत्तर वर्ष का क्या अर्थ है? इस विराट के फैलाव में सत्तर वर्ष क्षण से भी तो ज्यादा नहीं!
टूट गई डाल वृक्ष से, कुछ घड़ी हरी रहेगी, कुछ घड़ी फूल खिले रहेंगे। यह भी हो सकता है कि जो कली खिल रही थी वह अभी और खिलती चली जाये। क्योंकि अभी भी रस दौड़ रहा है। अभी भी वृक्ष भीतर हरा है। यह स्रोत नया बंद हुआ, लेकिन पुराना जितना रस दौड़ गया था वह तो अपनी यात्रा पूरी करेगा। पुराना मोमेन्टम कायम है। अभी घड़ी कुछ देर टिक-टिक करेगी, हृदय धड़केगा। लेकिन जो जानते हैं वे कहते हैं, जन्म का दिन ही मृत्यु का दिन है। उसी दिन मौत घट गई। तुम्हें खबर सत्तर साल बाद पता चलेगी। कुल्हाड़ी से काट दिया वृक्ष को, उस वृक्ष को पता चलने में घड़ी दो घड़ी, दिन दो दिन लग जायेंगे। लेकिन तब तक उसे समझाने का भी उपाय नहीं।
अगर मैं तुमसे अभी कहूं कि तुम मर गये हो, तुम मेरी मानोगे नहीं; तुम हंसोगे। तुम कहोगे कि अभी हम भलीभांति जिंदा है, यह क्या पागलपन की बात है! लेकिन तुम मर गये उसी दिन, जिस दिन जन्म हुआ। उसी दिन कट गये। उसी दिन अस्तित्व से तुम्हारा नाता टूट गया।
धर्म की सारी खोज इस अनुभव से शुरू होती है कि मैं कट गया हूं, जुड़ कैसे जाऊं? जड़ें उखड़ गई हैं, फिर से मेरी जड़ें कैसे फैल जायें? अस्तित्व से अलग हो गया हूं, फिर से एक कैसे हो जाऊं?
इस एकता की खोज ही धर्म है।
और भिन्नता की खोज संसार है। कैसे और अलग हो जाऊं, कैसे और भिन्न हो जाऊं, इसकी तलाश सांसारिक है।
संसार में हम करते ही यही हैं। अगर तुम्हारे पास धन कम है, तो तुम बहुत ज्यादा अलग नहीं हो सकते। तुम्हारे पास धन ज्यादा है, तो तुम ज्यादा अलग हो सकते हो। जिसके पास बहुत धन है, उसे समाज में जाने की जरूरत भी नहीं रह जाती। उसे लोगों के सामने झुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। सम्राट एक शिखर पर रहने लगता है, जहां कोई भी पहुंच नहीं सकता; जहां वह अकेला है। एक भिखमंगा अकेला नहीं हो सकता। उसको भीख मांगने दूसरों के पास जाना ही पड़ेगा। उसे निर्भर रहना पड़ेगा दूसरों पर। उसका अहंकार बहुत मजबूत नहीं हो सकता। एक सम्राट अहंकार से भर सकता है कि मैं बिलकुल पृथक हूं, और पूर्ण स्वतंत्र हूं, और किसी पर...मेरी कोई परतंत्रता, कोई निर्भरता नहीं है।
बड़े पदों की लोग तलाश करते हैं। क्योंकि बड़ा पद शिखर की भांति है। तो जैसे पिरामिड होता है--नीचे बहुत चौड़ा, और ऊपर संकरा होता चला जाता है। आखिर में राष्ट्रपति, सम्राट, प्रधानमंत्री बचते हैं। नीचे जनता का बड़ा विस्तार है। उस भीड़ में अगर तुम खड़े हो, तुम अकेले नहीं हो। इसलिए हर एक कोशिश कर रहा है कि पिरामिड के शिखर पर कैसे पहुंच जाये! जहां वह बिलकुल अकेला होगा, सबके कंधों पर होगा और उसके कंधे पर कोई नहीं। पद की खोज अगर बहुत गहरे में देखो, तो अहंकार स्वतंत्रता की खोज कर रहा है: कैसे मैं अकेला हो जाऊं! कैसे मैं किसी पर निर्भर न रहूं, मुझ पर सब निर्भर हों। मैं किसी पर निर्भर न रहूं। तभी तो मैं कह सकूंगा, मैं हूं--अप्रतिम, अद्वितीय और सबसे ऊपर! और मेरे ऊपर कोई और नहीं।
धर्म की तलाश बिलकुल विपरीत है। धर्म की तलाश, अहंकार विसर्जन की तलाश है। कैसे मुझे पता चले कि मैं हूं ही नहीं। कैसे मैं मिटूं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है, जैसे बर्फ पिघलता है और पानी होकर सरिता के साथ एक हो जाता है, ऐसे कैसे मेरा अहंकार पिघले और एक हो जाये! अहंकार बर्फ की तरह है, जमा हुआ। जमा है इसलिए सीमा मालूम होती है। पिघल जाये, सीमा खो जाती है। और अगर वाष्पीभूत हो जाये तो आकाश के साथ एक हो जाता है। सभी सीमायें खो जाती हैं।
तो तीन स्थितियां हैं मनुष्य के अस्तित्व की। एक है बर्फ की भांति जमा हुआ--फ्रोझन; तब सीमा है। और सीमा साफ है। फिर दूसरी अवस्था है जल की भांति--पिघला; सीमा तरल हो गई। सीमा अभी भी है लेकिन उतनी साफ न रही, धुंधली हो गई। दूसरे से मिलना शुरू हो गया। और फिर एक तीसरी अवस्था है वाष्पीभूत--भाप की भांति। थोड़ी देर तो भाप में भी सीमा लगती है, लेकिन जल्दी ही सीमा खो जाती है और भाप आकाश के साथ एक हो जाती है।
धार्मिक व्यक्ति है वाष्पीभूत, अधार्मिक व्यक्ति है बर्फ की भांति।
और तुम्हारी आकांक्षा क्या है? क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी सीमा हो साफ? तुम दूसरों से पृथक और भिन्न, अलग मालूम पड़ो? तो तुम जो भी खोज रहे हो, उस खोज से दुख ही निकलेगा। और उस खोज से मौत आयेगी। लेकिन तुम्हें समझाना मुश्किल है कि तुम मर गये हो। तुम्हारी बुद्धि तो यही कहती है, दूसरे मरते हैं सदा। तुमने दूसरों को मरते देखा है, खुद को मरते तुमने कभी देखा भी नहीं, देख भी न सकोगे। क्योंकि खुद को मरते देखने का कोई भी तो उपाय नहीं है। तुम जब भी देखोगे, अपने को जिंदा देखोगे। तुम्हारा अनुभव यही है। और बुद्धि तुम्हारे अनुभव से चलती है। इसलिए बुद्धि का तर्क ठीक है, कि कौन कहता है जड़ें टूट गई हैं! और कौन कहता है कि हम कट गये हैं? हम हैं, भलीभांति हैं। अभी सत्तर वर्ष लगेंगे तुम्हें सूखने में। समझोगे तुम भी, लेकिन जब समझोगे तब कुछ करने को न बचेगा।
मृत्यु के क्षण में अकसर लोगों के जीवन में वैराग्य आ जाता है। पर तब समय नहीं बचता। सारा समय संसार में खो दिया, संन्यास के लिए कोई समय नहीं बचता। मृत्यु के क्षण में ऐसा लगता है, जो भी था स्वप्न जैसा खो गया। स्वप्न भी नहीं, बल्कि एक दुख-स्वप्न, एक 'नाईट मेयर।' क्या पाया, कुछ समझ नहीं पड़ता। हाथ खाली दिखाई पड़ते हैं। नग्न जाने की तैयारी हो रही है। और जहां जा रहे हैं, जो भी कमाया था, उपलब्धि की थी, वह कोई भी साथ न जा सकेगी। लेकिन यह उस समय समझ में आता है...पूरा जीवन दुहर जाता है आंख के सामने से।
तुमने सुना होगा--और वह घटना सही है--अगर कोई पानी में डूबकर मरे, तो उस डूबने के क्षण भर में पूरा जीवन फिल्म की भांति आंखों के सामने से गुन जाता है, उतर जाता है। फिर से दुहर जाता है पूरा जीवन, एक क्षण में! और सारा असार, जहां कुछ भी पाया नहीं, कुछ सार न निकला, जैसे रेत को निचोड़ते रहे और तेल हाथ न लगा; वहां खोजते रहे खजाना, जहां खजाना न था। उस दिशा में चलते रहे, जहां रास्ता तो बहुत लंबा था; लेकिन मंजिल कोई आती न थी। या शायद गोल वर्तुलाकार रास्ता था, जिस पर घूमते तो बहुत थे; जैसे कोल्हू का बैल घूमता है--घूमता रहता है; शायद सोचता हो, कहीं पहुंच रहे हैं...कहीं पहुंच रहे हैं। आंखों पर पट्टी बांध देते हैं कोल्हू के बैल को, ताकि उसे दिखाई न पड़े। उसे सिर्फ सामने दिखाई पड़ता है, आजू-बाजू दिखाई नहीं पड़ता। सामने सदा रास्ता मालूम पड़ता है, चलता जाता है। आजू-बाजू दिखाई पड़े तो उसे पता चल जाये कि मैं गोल-गोल घूम रहा हूं, कहीं पहुंचूंगा नहीं। व्यर्थ घूम रहा हूं।
आदमी की आंखों पर भी पट्टी है। तुम भी आजू-बाजू नहीं देख पाते। तुम भी सिर्फ सामने देखते हो। न तुम पीछे लौटकर देखते हो, न तुम आजू-बाजू देखते हो। वासना सदा आगे देखती है। वासना पट्टी है। वासना सदा देखती है--कल। कल क्या मिलेगा? आंखें वहां लगी रहती हैं कल पर, वह आगे की तरफ तुम जा रहे हो। और तुम कभी नहीं सोचते कि कल भी तुम वही देख रहे थे, परसों भी तुम वही देख रहे थे। जब से तुम पैदा हुए, जब से तुमने सोचना शुरू किया था, तुम इसी रास्ते पर घूम रहे हो। वही कामवासना, वही क्रोध, वही लोभ, रोज-रोज वही है। नया कुछ भी नहीं है। तुम पहले भी उसी वासना में उतरे हो बहुत बार, अब भी उसमें उतरने की आकांक्षा कर रहे हो। बहुत बार क्रोध किया, वही क्रोध फिर करने की कोशिश कर रहे हो। बहुत लोभ किया, वही लोभ फिर दुहरा रहे हो।
आदमी एक पुनरुक्ति है, कोल्हू का बैल है। आगे दिखाई पड़ता है इसलिए खयाल में नहीं आता कि वर्तुलाकार घूम रहा हूं। इस वर्तुलाकार घूमने से मंजिल आयेगी नहीं, मौत ही आयेगी। बैल थकेगा, गिरेगा, मरेगा। शायद मरते क्षण में आसपास देखे, क्योंकि तब आगे देखने को कुछ भी न बचेगा। कल तो है नहीं। जब आदमी मरता है तो कल तो बचता नहीं। कल समाप्त हुआ। आज ही रह जाता है। शायद उस दिन आसपास देखे, शायद उस दिन पीछे लौटकर देखे। और तब पाये कि मैं एक ही गोल वर्तुल में सत्तर वर्ष घूमता रहा।
यह थोड़ा समझने जैसा है कि जीवन की सारी यात्रायें वर्तुलाकार हैं। चांद वर्तुल में घूम रहा है, पृथ्वी वर्तुल में घूम रही है, सूरज वर्तुल में घूम रहा है, ऋतुएं वर्तुल में घूम रही हैं, सारा जगत वर्तुल में घूम रहा है। तुम्हारा जीवन भी वर्तुल में ही घूम रहा होगा; क्योंकि यहां सारी यात्रायें वर्तुलाकार हैं। तुम्हारी यात्रा अलग नहीं हो सकती। कहां पहुंचेगा चांद घूम-घूमकर? कहीं भी नहीं पहुंचेगा, सिर्फ मरेगा। कहां पहुंचेगी पृथ्वी घूम-घूमकर? कहीं भी नहीं पहुंचेगी, सिर्फ टूटेगी और बिखरेगी। तुम भी टूटोगे और बिखरोगे। जड़ें तुम्हारी टूट ही चुकी हैं।
सूफी फकीर ठीक कहता है कि इस कटी हुई शाखा को समझाना मुश्किल है कि तू मर चुकी है; तेरी जड़ें टूट गई हैं, कि तेरा आगे अब कोई जीवन नहीं है। क्योंकि वह शाखा कहेगी, अभी मैं हरी हूं, अभी मैं जवान हूं। अभी फूल खिल रहे हैं, कलियां अभी खिलती जा रही हैं, अभी पत्ते मुरझाये भी नहीं हैं; पागलपन की बात है! तर्क डाल का कहेगा, नहीं मैं जिंदा हूं।
बुद्धि भी समझेगी, लेकिन जब समझेगी, तब समय जा चुका होगा। इसलिए बुद्धिमान वह है, जो समय के पहले समझ जाये। तुम उस डाल की भांति व्यवहार मत करना। और जब कोई फकीर तुमसे कहे कि तुम टूट गये हो तो उसकी बात पर सोचना। और जब कोई बुद्ध तुमसे कहे कि तुम मर ही चुके हो, तब जल्दी मत करना इनकार करने की, क्योंकि तुम्हारी सांस चल रही है। सांस चलने से जीवन का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। सांस चलती रह सकती है।
मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश है। सांस चल रही है, कोमा में पड़ी है। और डाक्टरों ने मुझे कहा कि कोई तीन साल तक यह कोमा में रह सकती है। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, आक्सीजन दी जा रही है, सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, खून बह रहा है। शरीर सब काम कर रहा है, लेकिन वह बेहोश पड़ी है। वह कभी होश में आयेगी नहीं।
तुम्हारी सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, खून बन रहा है, तुम भी तो कहीं बेहोश नहीं हो? वह स्त्री तो साफ मालूम पड़ती है कि बेहोश पड़ी है। लेकिन क्या उस स्त्री को पता होगा कि वह बेहोश है? अगर वह एक सपना देख रही होगी, तो हो सकता है सपने में वह घर बना रही हो, विवाह कर रही हो, प्रेम कर रही हो, गृहस्थी सजा रही हो। और उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि सपना है यह, क्योंकि तीन साल तक उसका सपना चलता रहेगा। तुम्हें पता चल जाता है क्योंकि सुबह तुम जागोगे, रात का सपना टूट जायेगा। लेकिन क्या कभी तुमने सोचा कि सपने में तुम्हें सपना, सपने जैसा मालूम नहीं पड़ता? सपने में तो लगता है यही सत्य है। सुबह जागकर पता चलता है कि सपना था। लेकिन रात जब तुम फिर सो जाओगे, तो जिसे तुमने दिन में जागरण समझा था वह भी सपना हो जाता है। सपने की तो सुबह थोड़ी-बहुत याद भी रह जाती है, दिन की तो रात में उतनी भी याद नहीं रह जाती। सब भूल जाता है, कि तुम कौन थे।
सुना है मैंने, एक चीनी सम्राट अपने बेटे के पास बैठा था, जो मरण-शैय्या पर था। उसका एक ही बेटा था। वही आंखों का तारा था। उस पर ही सब निर्भर था, बड़ा साम्राज्य था। सम्राट बूढ़ा था। बुढ़ापे में यह बेटा पैदा हुआ, वह भी मरण-शैय्या पर था। चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा। बीमारी कुछ इलाज-योग्य न थी, मृत्यु निश्चित थी। तो सम्राट जग रहा है, बैठा है। कभी भी किसी भी क्षण बेटा मर सकता है। तीन रात जगता रहा, चौथी रात सम्राट को झपकी लग गई--थका-मांदा! झपकी में उसने देखा कि वह और भी बड़ा सम्राट है। सारी पृथ्वी पर उसका राज्य है। चक्रवर्ती है। सभी उसके अंतर्गत हैं और उसके बारह जवान बेटे हैं। सुंदर, स्वस्थ, प्रतिभाशाली, एक से एक बेजोड़, एक से एक बढ़कर। वह बड़ा प्रसन्न था, वह बड़ा आनंदित था। स्वर्ण का महल है, सभी कुछ है। दुख की कोई खबर नहीं। जरा-सा भी कांटा नहीं है उसके जीवन-रास्ते पर।
तभी बेटा, जो सामने सोया था, मर गया। पत्नी छाती पीटकर रोई, चीखी। सम्राट की आंख खुली। सम्राट जोर से खिल-खिलाकर हंसने लगा। पत्नी समझी कि शायद विक्षिप्तता आ गई है बेटे की मौत देखकर।
उसने कहा, 'यह तुम क्या करते हो?'
सम्राट ने कहा, 'मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं इस बेटे के लिए रोऊं या उन बारह बेटों के लिए, जिन्हें मैं अभी-अभी देखता था। और इस राज्य के लिए रोऊं जिसका मालिक मर गया, या उस राज्य के लिए, जो बड़ा विराट था? सारी पृथ्वी उस राज्य के अंतर्गत थी। इस मिट्टी के, पत्थर के महल के लिए सोचूं, या स्वर्ण के महल जिसको मैं अभी-अभी छोड़कर आ रहा हूं। और मैं बड़े संदेह में पड़ गया हूं कि क्या सच है! इसलिए हंसता हूं। पागल नहीं हुआ हूं।' सम्राट ने कहा, 'अगर तू ठीक से समझे तो पहली दफा मेरा पागलपन टूटा है, मैं होश में आ गया हूं।'
न यह संसार सच है, न वह संसार सच है। दोनों ही सपने मालूम पड़ते हैं। एक दिन का सपना है; एक रात का सपना है।
इसलिए हिंदू कहते हैं, यह जगत माया है, स्वप्न से ज्यादा नहीं। जागती आंख का सपना है। और जब तक तुम सोये हुए हो, तुम सपने के अतिरिक्त कुछ देख भी न सकोगे। चाहे आंख खुली हो और चाहे आंख बंद हो; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम भीतर बेहोश हो। तुम्हें इतना भी तो होश नहीं है कि मैं कौन हूं! तुम्हारे होश का क्या अर्थ हो सकता है? तुम्हें इतना भी तो होश नहीं है कि किस गहरे स्रोत से मेरा जीवन आता है। तुम भीतर कभी गये ही नहीं हो। तुम्हारा अपने से कोई परिचय नहीं। तुम कैसे कहते हो कि तुम होश में हो?
बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट होश का एक ही अर्थ करते हैं; जिसे आत्मज्ञान हुआ है।
तुम्हें रास्ते पर एक आदमी मिल जाये और तुम उससे पूछो कि तू कौन है? और वह कहे, क्षमा करें, मुझे कुछ पता नहीं। तुम उससे पूछो, तू कहां से आ रहा है और वह कहे कि माफ करें, मुझे कुछ पता नहीं! और तुम उससे पूछो कि कहां जा रहा है और वह कहे माफ करें, मुझे कुछ पता नहीं कि मैं कहा जा रहा हूं; तो क्या समझोगे तुम? यह आदमी या तो बेहोश है, या नशे में है, या पागल है। लेकिन तुम्हारी भी जीवन के रास्ते पर इससे भिन्न तो कोई दशा नहीं है।
तुमसे कोई पूछे कौन हो? तो क्या है जवाब?
कहां से आते हो?--क्या है जवाब?
कहां जाते हो?--क्या है जवाब?
क्यों हो?--कुछ भी पता नहीं!
मैंने सुना है, एक आदमी वर्षों तक धंधा करता रहा एक साझीदार के साथ लंदन में। साझेदारी भले ढंग से चलती थी, क्योंकि दोनों सीधे-सादे आदमी थे और दोनों विवाद में भरोसा न करते थे, इसलिए कभी कोई विवाद भी नहीं होता था। एक दूसरे से राजी रहते थे, काम ठीक चलता था। फिर उन्होंने काफी कमा लिया। फिर सोचा कि अब हमने इतना अर्जन कर लिया कि हम थोड़ा पहाड़ों में जायें, और थोड़ी छुट्टी बितायें। थोड़ा विश्राम का दिन आ गया।
तो दोनों पहाड़ पर गये। पहली ही रात रास्ता भटक गये। दोनों अलग-अलग हो गये। एक आदमी, जो घने जंगल में पड़ गया, बहुत डरने लगा। बहुत भयभीत होने लगा। जोर से चिल्लाकर कहने लगा जंगल में, मैं रास्ता खो गया हूं। शायद कोई सुन ले! फिर उसने चिल्लाकर कहा, कि मैं रास्ता खो गया हूं। किसी ने तो न सुना, सिर्फ एक उल्लू एक वृक्ष पर बैठा था। तो उल्लू ने जोर से हुंकार भरी--'हू।' उस आदमी ने समझा कि यह पूछ रहा है, 'कौन?' तो उसने कहा, 'मैं--मेरा नाम विल्सन'
उल्लू ने फिर कहा, 'हू।'
 तो उस आदमी ने कहा कि 'कहा नहीं, मेरा नाम विल्सन! विल्सन एंड जानसन कंपनी में साझेदार हूं।'
उल्लू ने फिर कहा, 'हू।'
तो उस आदमी ने कहा, 'नेवर माइंड! आई विल फाइंड माई ओन वे। यू आर आस्किंग टू मच।' मैं पा लूंगा अपना रास्ता। खुद ही खोज लूंगा। आप परेशान मत हों। जरूरत से ज्यादा पूछ रहे हैं। इससे ज्यादा तो मुझे ही पता नहीं है। इतना ही मालूम है कि विल्सन मेरा नाम है, विल्सन एंड जानसन कंपनी में साझेदार हूं। इससे ज्यादा न कभी किसी ने पूछा है, न उत्तर देने का कोई सवाल उठा है।
आपको इससे ज्यादा मालूम है? उल्लू भी तीन बार पूछ ले, तो आपका आत्मज्ञान खतम हो जाये! तो ज्ञानी की तो बात छोड़ें, कोई फकीर पूछे उसकी तो बात छोड़ें, उल्लू पूछ ले 'हू' तो आत्मज्ञान खो जाता है। इसको होश कहिएगा? यह कैसा होश है? कितना होश है इसमें? इसमें कुछ होश नहीं है। होश के नाम पर आप धोखे में हैं।
गुरजिएफ कहता था, तुम सोये हुए हो। तुम्हारी नींद दो तरह की है; एक नींद जब तुम आंख बंद कर लेते हो, और एक नींद जब तुम सुबह आंख खोल लेते हो। पर इससे तुम्हारी नींद नहीं टूटती। तुम्हारी नींद जारी रहती है। नींद तुम्हारी दशा है। गुरजिएफ से कोई पूछता कि मैं क्या करूं? मैं भला होना चाहता हूं। शुभ होना चाहता हूं, मैं शुद्ध होना चाहता हूं, पवित्र होना चाहता हूं। गुरजिएफ कहता, बकवास मत करो! पहले जागो। क्योंकि बिना जागे, तुम कैसे शुभ हो सकोगे? तुम्हें यही पता नहीं कि तुम कौन हो? किसको स्नान करवाओगे? किसकी शुद्धि करोगे? कौन करेगा ध्यान?
बुद्ध से किसी ने रास्ते पर टोका और पूछा कि मैं लोगों की सेवा करना चाहता हूं, कैसे करूं? बुद्ध ने उसे गौर से देखा और कहा कि मुझे बड़ी दया आती है। तुम कैसे सेवा करोगे? तुम अभी हो ही नहीं।
गुरजिएफ से मिलने आस्पेंस्की जब पहली दफा गया, वह बड़ा लेखक था, उसने बड़ी किताबें लिखी थीं। जैसे तथाकथित ज्ञानी होते हैं, ऐसा ज्ञानी था। शास्त्रों पर उसकी पकड़ थी, बड़ा गणितज्ञ था। बड़ा तर्कशास्त्री था। गुरजिएफ ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि इसके पहले कि हम कोई बातचीत शुरू करें, यह कागज लो, बगल में कमरा है वहां चले जाओ और इस कागज पर लिख लाओ, जो-जो तुम जानते हो; क्योंकि उस संबंध में फिर हम बात न करेंगे। और वह लिख लाओ, जो-जो तुम नहीं जानते हो। बस उसी संबंध में बात हो सकती है। जब तुम जानते ही हो, तो बात व्यर्थ!
आस्पेंस्की थोड़ा बेचैनी में पड़ा। गुरजिएफ पढ़ लिया होगा उसकी हालत देखकर कि वह बहुत जानता है। अकड़, जानने वाले की अलग ही होती है। आया होगा तब अकड़कर आया होगा। कागज लेकर गया दूसरे कमरे में, लिखने बैठा तो हाथ कांपने लगा। सोचने लगा, क्या जानता हूं? किताबें उसने लिखी थीं। परमात्मा की बातें की थीं, लेकिन परमात्मा को मैं जानता हूं? सोचा तो होश आया पहली दफा, कि जानता तो नहीं हूं। तो भीतर भय भी लगा कि जिसको मैं जानता नहीं, उस संबंध में मैंने लिखा क्यों? और तब यह भी लगा कि जिस संबंध में मैं नहीं जानता, उस संबंध में लिखकर मैंने दूसरों का अहित किया। क्योंकि जब मैं ही नहीं जानता तो मेरा लिखा हुआ पढ़कर दूसरे कहां जायेंगे? पसीना-पसीना हो गया। ठंडी सुबह थी।
घंटे भर बाद वापिस आया, कोरा कागज गुरजिएफ को वापिस दिया, और कहा, 'क्षमा करें, पहली दफा मुझे होश आया कि मैं जानता कुछ भी नहीं।'
ऐसा तुम्हें होश कब आयेगा? और जब तुम नहीं कुछ जानते हो, तभी तुम्हें कुछ समझाया जा सकता है; उसके पहले नहीं। अन्यथा तुम्हारा तर्क कहेगा, यह बात मानने की नहीं, अभी मैं जीवित हूं। और मैं तुमसे कहूं कि तुम मर गये हो। तुम जिंदा नहीं हो। सिर्फ मरने की खबर पहुंचने में तुम्हें थोड़ी देर लगेगी, समय लगेगा। मर तुम उसी दिन गये, जिस दिन तुम पैदा हुए।
बुद्ध ने कहा है, जन्म में मृत्यु छिपी है। जैसे बीज में अंकुर छिपा हो, ऐसे जन्म में मृत्यु छिपी है। गर्भ ही तो कब्र है। शुरुआत अंत है। इसलिए बुद्ध ने कहा है, जो जुड़ा है, वह बिखर जायेगा। जो बना है, वह मिट जायेगा। लेकिन क्या तुम्हें अपने भीतर ऐसी किसी चीज का पता है, जो कभी बनाया नहीं गया--अनबना है? असृष्ट, अनक्रियेटेड है! अगर उसका तुम्हें कोई पता नहीं, तो तुम्हारी जड़ें उखड़ी हुई हैं। तुम अपरूटेड हो। और जब तक तुम इस बात को न समझ लो...यह पहला होश है; फर्स्ट अवेयरनेस--कि तुम कुछ भी जानते नहीं। अगर यह तुम्हें खयाल न आये तो तुम तर्क करोगे। तुम पच्चीस सवाल उठाओगे। और तुम कोई जवाब स्वीकार न करोगे। श्रद्धा तुममें उत्पन्न न होगी।
यह सूफी यही कह रहा है कि इस वृक्ष को अगर मैं कहूं कि तू टूट गया, तो इसके मन में श्रद्धा पैदा होने वाली नहीं। यह मुझे ही कहेगा कि तुम अंधे हो। देखो मेरी हरियाली। अभी मैं जवान हूं, अभी फूल खिल रहे हैं, अभी पत्ते हरे हैं। कौन कहता है कि मैं मर गया हूं? तुम कुछ गलत-फहमी में पड़ गये हो। या तुम मुझे कुछ धोखा देना चाहते हो। यह कटा हुआ वृक्ष मानने को राजी न होगा।
श्रद्धा तो तभी पैदा होती है, जब तुम्हें अपनी जानकारी का भ्रम टूट जाता है। तुम्हारी जानकारी के भ्रम से तर्क पैदा होता है। तुम्हारा जानकारी का भ्रम गया कि तर्क खो जाता है।
तब यह सुनेगा इस फकीर को गौर से। तब इसके भीतर तर्क का जाल नहीं उठेगा। तब यह फकीर की बात मानकर देखेगा अपने चारों तरफ कि सच में मेरी जड़ें टूट तो नहीं गईं? मैं काट तो नहीं दिया गया हूं? घाव मुझे दिखाई न पड़ रहा हो क्योंकि घाव की खबर पहुंचने में भी समय लगता है।
तुम्हारे पैर में भी चोट लगती है तो उसी वक्त थोड़े ही तुम्हारी बुद्धि को पता चलता है। समय लगता है। समय चाहे थोड़ा-सा ही लगता हो, लेकिन समय लगता है। और अगर तुम्हारी बुद्धि व्यस्त हो तो बहुत समय भी लग सकता है। अगर तुम खेल के मैदान पर हॉकी खेल रहे हो और तुम्हारे पैर में चोट लग गई, नाखून उखड़ गया, खून बहने लगा, तुम्हें पता नहीं चलेगा। खेल बंद होगा आधे घंटे बाद, तब अचानक तुम्हें पता चलेगा। तुम्हारा मस्तिष्क व्यस्त था। तो यह द्वार तक तुम्हारे मस्तिष्क के पहुंच गई खबर, दस्तक देती रही, लेकिन द्वार बंद थे, तुम उलझे थे। पता नहीं चलेगा।
घर में आग लगी हो, और तुम्हारे सिर में दर्द हो जाये, और तुम्हें पता नहीं चले। जब घर की आग बुझ जायेगी, तब तुम्हें पता चलेगा कि सिर भारी है और दर्द से भरा है। युद्ध के मैदान पर सैनिकों को बहुत बार पता नहीं लगता। ऐसी घटनायें घटी हैं कि जो भरोसे की नहीं हैं।
अभी अमरीका में एक सैनिक जो दूसरे महायुद्ध में था, अचानक उसकी पीठ में दर्द उठा। दूसरे महायुद्ध को हुए तो बहुत वक्त हो गया। अब तो वह आदमी बूढ़ा है। दर्द उठा तो खोजबीन की गई, उसकी पीठ में एक गोली पाई गई, जिसका उसे पता ही नहीं है। कारतूस पाया गया, जिसका उसे पता ही नहीं है कि कब लगा! बिना लगे तो कारतूस भीतर नहीं जा सकता। लेकिन वह इतना व्यस्त रहा होगा युद्ध के मैदान पर, कि कारतूस भीतर चला गया। छोटा-मोटा घाव समझा होगा, भर गया होगा, वह भूल गया बात। अब बुढ़ापे में जाकर दर्द उठा। और यह कोई एक घटना नहीं है, ऐसी बहुत सी घटनाएं हर युद्ध में घटती हैं। अनेक सैनिकों को भूल जाता है कि उनके शरीर में कारतूस पड़ा है। बाद में, वर्षों बाद किसी पीड़ा, दर्द के समय में उसका पता चलता है।
किस अवस्था में कारतूस शरीर में चला जाता होगा और पता न चलता होगा? अगर मस्तिष्क बहुत व्यस्त हो तो खबर न मिलेगी। और तुम्हारा मस्तिष्क बहुत व्यस्त है।
तुम्हारी जड़ें भी कट जायें, तुम्हें पता नहीं चलेगा। और तुम्हारी जड़ें अदृश्य हैं। वृक्ष की जड़ें तो दृश्य हैं। तुम चलते हुए वृक्ष हो। तुम्हारी जड़ें कहीं जमीन में गपी नहीं हैं। तुम्हारी जड़ें अदृश्य में हैं। वृक्ष की जड़ें तो स्थूल हैं, तुम्हारी जड़ें सूक्ष्म हैं। इसलिए कब टूट गईं, तुम्हें पता नहीं चलता। वर्षों लग जाते हैं। कोई तुमसे कहे तो भरोसा नहीं आता।
अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम परमात्मा से उखड़ गये हो तो ज्यादा संभावना इसकी है कि तुम कहो कैसा परमात्मा! कौन परमात्मा! कहां है परमात्मा? बजाय इसके कि तुम अपनी स्थिति की खोज-बीन करो, तुम परमात्मा पर सवाल उठाओगे। बजाय इसके कि तुम जांच-पड़ताल करो कि हो सकता है, मैं इतना दुखी हूं, इतना पीड़ित हूं, यह इसी कारण हूं, कि मेरी जड़ें कहीं शिथिल हो गई हैं। मेरे जीवन में सिवाय संताप के कुछ भी नहीं है। कहीं आनंद नहीं है। कहीं कोई उत्सव नहीं फलता। कहीं कोई उत्साह नहीं है। तो कहीं सच ही न हो यह बात कि मैं परमात्मा से टूट गया हूं!
और परमात्मा का क्या अर्थ है? कोई व्यक्ति नहीं; यह जो समग्र का विस्तार है, यह जो विराट फैला हुआ है सब दिशाओं में; इसी का, इसी टोटलिटी का, इसी का नाम परमात्मा है।
तुम इससे विच्छिन्न हो। तुम्हारे संबंध शिथिल हो गये हैं। थोड़ी बहुत श्वास जुड़ी है इसीलिए तुम जी रहे हो, लेकिन वह भी टूट जायेगी। तुम निन्यान्नवे प्रतिशत टूट गये हो। शायद एकाध जड़ पड़ी है, जिससे श्वास चलती जाती है। जरा सा धक्का...वह जड़ भी टूट जायेगी। अगर तुम तर्क न करो...और सारे धर्म कहते हैं तर्क मत करो। इसलिए बुद्धिमान आदमी को धर्म में रस नहीं मालूम पड़ता क्योंकि बुद्धिमान आदमी तर्क करना चाहता है।
मेरे पास लोग आते हैं। एक युवक कुछ दिनों पहले आया और उसने कहा कि आप ईश्वर के पक्ष में जो भी तर्क दे सकते हों दें, और मैं भी जो ईश्वर के विपक्ष में तर्क दे सकता हूं, दूंगा। अगर आपने मुझे कनविंस किया, अगर आपने मुझे राजी कर लिया तर्क से, तो मैं आपका शिष्य हो जाऊंगा
मैंने उस युवक को कहा कि जो व्यक्ति तर्क से परमात्मा की खोज पर जाता है, पहली तो बात, उसे कभी कनविंस नहीं किया जा सकता, राजी नहीं किया जा सकता। क्योंकि तर्क के माध्यम से परमात्मा तक कोई रास्ता ही नहीं जाता। यह तो ऐसा है, जैसा एक आदमी कहे कि मैं आंख बंद रखूंगा और तुम सिद्ध करो कि प्रकाश है। जब सिद्ध हो जायेगा, तब मैं आंख खोलूंगा। तो हम उससे कहेंगे, आंख बंद आदमी के सामने कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि प्रकाश है?
श्रद्धा है आंख का खुलना, तर्क है आंख का बंद रहना।
और तर्क कहता है कि पहले सिद्ध करो। बात बिलकुल ठीक लगती है कि जब तक सिद्ध न हो जाये तब तक मैं कैसे स्वीकार करूंगा? लेकिन आंख खुले बिना प्रकाश कैसे सिद्ध हो सकता है? प्रकाश को सिद्ध करने का और कोई उपाय नहीं है। सिर्फ एक ही उपाय है कि आंख खुली हो। लेकिन तर्कनिष्ठ व्यक्ति कहता है, मैं आंख खोलूं क्यों, जब तक कि सिद्ध न हो जाये कि परमात्मा है, प्रकाश है? कोई उपाय नहीं।
मैंने उस युवक को कहा, हम व्यर्थ मेहनत में न पड़ें। तू अपने रास्ते पर जा और तर्क से जी। लेकिन तू आया ही क्यों है? निश्चित ही तेरे तर्क ने तुझे कहीं कठिनाई में डाला है। उसने कहा कि नहीं, तर्क से मुझे कोई...और कोई कठिनाई नहीं। वैसे मैं दुखी हूं, अशांत हूं, तो मैं चाहता हूं कि कोई सिद्ध करे परमात्मा है, ध्यान का कोई मूल्य है; तो मैं करूंगा। मैं संन्यास भी लेने को राजी हूं, लेकिन कोई सिद्ध करे!
'तू और थोड़ा भटक, और थोड़ा दुखी हो, और थोड़ा परेशान हो। तेरी परेशानी ही तेरे तर्क को तोड़ेगी और कोई उपाय नहीं है। जब तू इतना दुखी हो जायेगा, तभी तू संदेह करेगा कि शायद मेरा तर्क ही तो मेरे दुख का कारण नहीं है? और जिस दिन तुझे ऐसा बोध हो, उस दिन वापिस आना।'
आनंद, खबर है कि तुम ठीक चल रहे हो। दुख--खबर है कि तुम गलत चल रहे हो। आनंद खबर है कि तुम्हारी यात्रा ठीक दिशा में हो रही है। दुख खबर है कि तुम गलत दिशा में यात्रा कर रहे हो। आनंद इस बात की खबर है कि तुम स्रोत के निकट पहुंच रहे हो। और दुख इस बात की खबर है कि तुम स्रोत से दूर जा रहे हो। दुख इस बात की खबर है कि तुम्हारी जड़ें टूट गई हैं, टूटती जा रही हैं। आनंद इस बात की खबर है तुमने फिर से जड़ें  फैला लीं, तुम पृथ्वी में पैर जमाकर खड़े हो गये हो--रस के स्रोत फिर से बहने शुरू हो गये हैं। तुम अलग नहीं हो, तुम अस्तित्व के साथ एक हो।
वृक्ष को जरा उखाड़कर रख दो और देखो, वृक्ष में क्या घटता है! वह जो अभी हरा था, भरा था, लहलहा रहा था, हवायें आती थीं तो मस्ती से नाचता था, आकाश में बादल आते थे तो गीत गुनगुनाता था, उसे उखाड़कर रख दो। उसके सब गीत थोड़ी देर में खो जायेंगे। उसकी हरियाली थोड़ी देर में मुर्झा जायेगी। पत्ते लटक जायेंगे। उत्साह नहीं रह जायेगा। आकाश में बादल उठेंगे, तो भी उसके प्राणों में कोई गीत नहीं गूंजेगा। वही तुम्हारी दशा है।
वृक्ष की पृथ्वी है; तुम्हारी पृथ्वी परमात्मा है।
वह सूफी फकीर ठीक कह रहा है, लेकिन तर्क से तुम्हें समझाने का कोई उपाय नहीं। बुद्ध तुम्हें कोई तर्क नहीं देते और न क्राइस्ट तुम्हें कोई तर्क देते हैं। तर्क की जगह वे केवल अपने आपको तुम्हारे सामने मौजूद करते हैं। अगर उनकी खुशी तुम्हें पकड़ ले, अगर उनके जीवन की लहलहाहट तुम्हारे खयाल में आ जाये, अगर उनकी मस्ती तुम्हारे हृदय को छू ले, अगर उनकी समाधिस्थ दशा तुम्हें घेर ले और प्रफुल्लित कर जाये!
बुद्ध खुद तर्क है। अस्तित्व खुद तर्क है।
मैंने उस युवक को कहा: तू दुखी है, मैं दुखी नहीं हूं। और जिस दिन तुझे आनंद सीखना हो, उस दिन तू आ जाना। लेकिन तर्क का कोई सवाल नहीं है।
तर्क में पड़ते ही नासमझ हैं। समझदार की फिक्र नहीं होती है कि क्या सही है, क्या गलत है! समझदार की फिक्र होती कि क्या आनंद है और क्या दुख है! सही और गलत का हिसाब करके क्या करोगे? हिसाब भी कर लिया तो हाथ में क्या आयेगा? हिसाब करना, आनंद का और दुख का; कितना दुख है, कितना आनंद है! और जहां आनंद की झलक पाओ, समझना कि वहां स्रोत है। सूखी नदी को देखकर तुम समझ जाते हो कि स्रोत नहीं है। भरी नदी को, बहती नदी को, जीवंत, नाचती जाती सागर की तरफ, नदी को देखकर तुम समझ जाते हो, स्रोत है--वही तर्क है। नदी और क्या कहे? उसका बहाव, उसकी लहरें, उसका यह नृत्यपूर्ण यात्रा-पथ! यह उसकी तीर्थयात्रा...यही उसका तर्क है।
अस्तित्व किसी तर्क, छोटे तर्क को नहीं मानता। और तर्क उठते ही इसलिए हैं कि हमें अस्तित्व के बड़े तर्क का कोई पता नहीं।
हमारी छोटी-सी बुद्धि से हम बड़े हिसाब लगाते हैं। और हिसाब में हम हारते हैं। क्योंकि यह विराट इतना बड़ा है और बुद्धि इतनी छोटी है! जैसे कोई चम्मच लेकर सागर के किनारे बैठकर और सागर को नाप रहा हो। सागर नपेगा इसकी तो संभावना नहीं है; यह आदमी मरेगा। यह यहीं ढेर हो जायेगा चम्मच हाथ में लिए। इसका जीवन व्यर्थ हो जायेगा। बुद्धि शायद चम्मच से भी छोटी है।
अमरीका में एक बहुत बड़ा वनस्पतिशास्त्री हुआ, जिसने मूंगफली के संबंध में बड़ी खोंजें कीं, और मूंगफली के बड़े नये-नये रूप और प्रकार पैदा किए। वह अपने ऊपर मजाक किया करता था। और अपने ऊपर मजाक वे ही लोग कर सकते हैं, जो बड़े बुद्धिमान हैं। दूसरे का मजाक तो मूढ़ भी कर सकते हैं; मूढ़ ही करते हैं।
सिर्फ बुद्धिमान अपने पर हंस सकता है।
तो वह वनस्पतिशास्त्री कहा करता था लोगों से, कि पहले मैं सारे जगत को समझना चाहता था और मैं परमात्मा से प्रार्थना करता था, इस जगत का रहस्य मेरे लिए खोल! बहुत मैंने प्रार्थना की, लेकिन मेरी कोई प्रार्थना सुनी न गई। तब मैंने सोचा कि जगत शायद बहुत बड़ा है, मैं शायद बहुत छोटा हूं। तो मैंने एक दिन परमात्मा से कहा कि छोड़ जगत को। यह मूंगफली की मैं खेती करता हूं, इसका ही रहस्य खोल दे। तो परमात्मा की आवाज मुझे सुनाई पड़ी कि अब ठीक है। मूंगफली ठीक तेरे ही साईज की है। इसका रहस्य खोला जा सकता है। जगत का रहस्य जरा बड़ा था, तू काफी छोटा पड़ता था। और चम्मच से सागर नहीं तौले जा सकते। यह रहस्य तुझे मैं खोल दूंगा।
और वह वनस्पतिशास्त्री कहता था कि उसी ने रहस्य खोला। और इसलिए मैं मूंगफली के अनेक प्रकार, और नये-नये ढंग, और नये-नये स्वाद पैदा कर सका हूं। लेकिन जब मैंने ठीक सवाल पूछा, जो कि ठीक मेरी आकृति और मेरे रूप और मेरी सीमाओं के भीतर था, तब मुझे उत्तर मिला।
ध्यान रखना इसे। जब तक तुम अपने से बड़े सवाल पूछोगे, उत्तर नहीं मिलेंगे। जिस दिन तुम अपने योग्य सवाल पूछोगे, उसी क्षण उत्तर मिल जायेगा। और जितने उत्तर तुम्हें मिलते जायेंगे, उतना ही तुम्हारा आकार बड़ा होता जाता है। उतने ही बड़े प्रश्न पूछने में तुम समर्थ होते जाते हो। लोग जब ईश्वर के संबंध में सीधा-सीधा पूछते हैं, तभी व्यर्थ हो जाती है बात। बुद्धि बड़ी छोटी है। मगर छोटे का हमें बड़ा गर्व है। छोटे पर हम बड़े इतराये हैं।
ऐसा हुआ कि साक्रेटीज़ के पास एक आदमी मिलने आया। वह एक बड़ा धनपति था। और 'एथेन्स' में उससे बड़ा कोई धनपति नहीं था। उसकी अकड़ स्वाभाविक थी। रास्ते पर भी चलता था, तो उसकी चाल अलग थी। बात करता था, लोगों की तरफ देखता था, तो उसका ढंग अलग था। हर जगह उसका अहंकार था। वह साक्रेटीज़ से मिलने आया।
साक्रेटीज़ ने उसे बिठाकर कहा कि बैठो, मैं अभी आया, भीतर गया और दुनिया का एक नक्शा ले आया और उससे पूछने लगा इस दुनिया के नक्शे पर यूनान कहां है?--छोटा सा यूनान! उस आदमी ने बताया, पर उसने कहा, यह पूछते क्यों हो? वह थोड़ा बेचैन हुआ। साक्रेटीज़ ने कहा और मुझे बताओ कि यूनान में एथेन्स कहां है? बस, एक छोटा-सा बिंदु था। पर उस आदमी ने कहा, यह पूछते क्यों हो? साक्रेटीज़ ने कहा, बस एक सवाल और! इस एथेन्स में तुम्हारा महल कहां है? तो तुम क्यों अब इतने अकड़े हो?
और यह पृथ्वी का नक्शा सब कुछ नहीं है। कोई चार अरब सूर्य हैं और इन चार अरब सूर्यों की अपनी-अपनी पृथ्वियां हैं। और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि ये चार अरब भी हम जहां तक जान पाते हैं, वहां तक! आगे विस्तार का कोई अंत नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर मनुष्य जैसा जीवन होना चाहिए, मगर यह कोई अंत नहीं है, क्योंकि अंत की हमें कोई खबर नहीं है। जितना हमारे दूरबीन सशक्त होते जाते हैं, उतनी ही बड़ी सीमा होती जाती है। सीमा का कोई अंत नहीं मालूम होता।
तुम उसमें कहां हो? लेकिन बुद्धि बड़ी अकड़ी है। छोटा-सा सिर है, उस सिर में छोटी-सी बुद्धि है। कोई डेढ़ किलो वजन है खोपड़ी का। उस डेढ़ किलो वजन में सारा सब कुछ है। पर बड़ी अकड़ है; बड़े तर्क हैं।
जिन लोगों ने सत्य की खोज की है, उन्होंने कहा, जब तक तुम्हारा सिर न गिर जाये, तब तक तुम सत्य को न पा सकोगे। तुम्हारा सिर ही बाधा है। जब तक तुम सिर-सहित हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
क्योंकि तुम्हारा सिर तर्क खड़े करता है। और तुम्हारे तर्क बेहूदे हैं। मगर तुम्हारा सिर कहता है कि सब ठीक हैं ये तर्क।
संन्यासी बिना सिर के जीना शुरू करता है। उसका अस्तित्व तर्कहीन है। उसका होना हार्दिक है, बौद्धिक नहीं। उसके होने में बुद्धि प्रधान नहीं है। उसके होने में बुद्धि भी एक अंग है। जैसे मांस-मज्जा है, पित्ती है, हृदय है, फेफड़े हैं, वैसे बुद्धि भी एक अंग है।
बुद्धि से कोई सत्य खोजा नहीं जाता। बुद्धि तो राडार है। उससे थोड़ी-सी झलक आसपास की मिलती है, ताकि तुम सम्हलकर चल सको। बुद्धि मालिक नहीं है, सेवक है। लेकिन कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि मालिक सेवक बन जाता है; सेवक, मालिक बन जाते हैं। तुम्हारे भीतर यही हुआ है। बुद्धि मालिक हो गई है, तुम सेवक हो गये हो। तुम पहले बुद्धि से पूछते हो, क्या सही, क्या गलत। फिर तुम चलते हो।
बुद्धिमान आदमी बुद्धि से नहीं पूछता; बुद्धि का उपयोग करता है। बुद्धिमान आदमी बुद्धि का उपयोग करता है, एक साधन की तरह। जहां जरूरत होती है, उसको आवाज देता है। जहां जरूरत नहीं होती, उसे छोड़ देता है। लेकिन जरूरत, गैर-जरूरत तुम्हारा सवाल नहीं। बुद्धि चलती ही जाती है। तुम जाग रहे हो, सो रहे हो, बैठे हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चलती जाती है। और बुद्धि कहे जाती है यह करो, यह करो, वह करो; और तुमसे करवाये चली जाती है।
ध्यान का अर्थ है, बुद्धि के इस नियंत्रण से छुटकारा। बुद्धि की इस मालकियत से मुक्ति। ध्यान का अर्थ है, बुद्धि की गुलामी से स्वतंत्रता। ध्यान एक बगावत है, एक क्रांति है।
अगर वह वृक्ष की शाखा ध्यानपूर्ण होती तो फकीर की बात समझ लेती। लेकिन वृक्ष की शाखा तर्क खड़ा करेगी और फकीर से कहेगी, सिद्ध करो।
तुम उस शाखा की भांति मत होना। अन्यथा फकीर का कुछ भी न जायेगा, तुम्हारा सब कुछ खो जायेगा। तुम्हारी बुद्धिमानी में ही तुम बुद्धिहीन सिद्ध होओगे।
कभी तुम ऐसे व्यक्ति के करीब आ जाओ, जो तुम्हें सचेत कर सकता हो, तो जहां तुम जूते छोड़ आते हो द्वार के बाहर, वहीं अपने सिर को भी रख आना। वहीं अपनी बुद्धि को भी रख आना। तो ही तुम बुद्धों का लाभ ले सकोगे। अन्यथा बुद्धों से वंचित हो जाना बहुत आसान है। जरा-सा तर्क--और हजारों मील का फासला हो जाता है। इंच भर तर्क--और स्वर्ग और नर्क में जितना फासला है, उतना फासला हो जाता है। इंच भर भी तर्क लेकर वहां मत आना। अगर बुद्धों से कुछ पाना हो तो सिर लेकर वहां जाना ही मत।
इसलिए पूरब के मुल्कों में गुरु के चरणों में सिर झुकाते हैं, वह सिर्फ प्रतीक है। वह प्रतीक इस बात का है कि हम तर्क को झुकाते हैं। अब हम सुनने को श्रद्धा से राजी हैं। अब हम विवाद न खड़ा करेंगे। अब हम संवाद को उत्सुक हैं। अब हम कुछ जानना चाहते हैं। हम कोई तार्किक निष्पत्ति नहीं चाहते। हम कोई जीवन की क्रांति चाहते हैं। वह सिर झुकाना प्रतीक है। लेकिन तुम सिर भी झुका देते हो, फिर भी तर्क से भरे रहते हो। वह प्रतीक झूठा हो गया।
जहां तुम्हारा सिर झुके, वहां तुम तर्क को रख देना, और तर्क-शून्य होकर सुनना और समझना। तब अस्तित्व तुम्हें घेर लेगा। तब बुद्धत्व तुम्हें बदल देगा। तब यह सूफी फकीर की बात वह वृक्ष भी समझ सकता था।
भगवान : ...कुछ और?
भगवान! आपने दो तरह की नींद की चर्चा की। एक तो साधारण नींद है, जिससे हम सुबह जागते हैं जब वह नींद पूरी हो जाती है। दूसरी नींद, जिसे हम आध्यात्मिक नींद कहते हैं; जिसमें हम सब सोये हैं, दिन में भी सोये हैं, उससे जागने के लिए भी क्या जरूरी है, कि वह नींद पूरी हो जाये?

निश्चित ही एक नींद है, जो सुबह पूरी हो जाती है। क्योंकि वह नींद शरीर की है। शरीर की सीमा है। शरीर थकता है। रात आप सो जाते हैं, थकान पूरी हो जाती है सुबह। शरीर बड़ा छोटा है। आत्मा की कोई सीमा नहीं है। आत्मा कोई छोटी घटना नहीं है। इसलिए आत्मा की नींद कभी भी पूरी न होगी, जब तक कि तुम चेष्टा न करोगे उसे तोड़ने की। वह अनंत हो सकती है।
दूसरी बात भी समझ लो। शरीर का जागरण भी सांझ चुक जाता है। शरीर का दीया तेल-बाती वाला है। सुबह नींद चुक जाती है, तुम जग आते हो। शाम होते-होते जागरण चुक जाता है, तुम सो जाते हो। शरीर का सब कुछ सीमित है। दस-बारह घंटा बहुत है। दीया जल गया। तेल चुक गया, बाती नष्ट हो गई, फिर विश्राम चाहिए।
न तो आत्मा की नींद का कोई अंत है और न आत्मा के जागरण का। एक बार तुम जागे, तो फिर तुम थकोगे नहीं। पर एक बार तुम जागे ही नहीं, तो तुम सोये ही रहोगे। अनंत जन्मों तक तुम सो सकते हो। क्योंकि आत्मा की कोई सीमा नहीं है। वह बिन बाती बिन तेल है। वह रोशनी तुम्हें दिखाई पड़ गई एक दफा तो सदा दिखाई पड़ती रहेगी। जब तक दिखाई नहीं पड़ी, तब तक तुम चूकते रहोगे। यह चूकना अंतहीन हो सकता है। तुम सदा से हो। तुम कोई आज तो नहीं हो गये हो। तुम कल भी थे, तुम परसों भी थे। तुम सदा से हो, लेकिन अब तक तुम चूकते गये हो। अब तक तुम सोये हो। ऐसा ही तुम आगे भी चूकते जा सकते हो।
आत्मा के साथ किसी भी चीज की कोई सीमा नहीं है, शरीर के साथ सब चीजों की सीमा है। शरीर की वासनाओं की सीमा है, शरीर की तृप्तियों की सीमा है, शरीर की शक्ति की सीमा है, शरीर की अशक्ति की सीमा है। शरीर के साथ सब क्षणभंगुर है। शरीर बड़ा छोटा दीया है। लेकिन आत्मा के साथ सब विराट है। वहां किसी चीज की कोई सीमा नहीं है। अगर तुम भटको तो तुम अनंत तक भटक सकते हो। अगर तुम जाग जाओ तो तुम अनंत के लिए जाग गये। वहां सभी कुछ विराट और अनंत है।
तुम्हारे प्रयास की जरूरत पड़ेगी। लेकिन बड़ा जटिल सवाल है कि सोया आदमी कैसे प्रयास करे जागने का? एक आदमी सोया है, जब वह सोया ही है तो वह जागने का प्रयास कैसे करे? अगर वह जागने का प्रयास करे तो उसका अर्थ है कि वह जाग ही रहा था। धर्म की मूल गुत्थी यहीं है कि सोया आदमी कैसे प्रयास करे जागने का?
इसलिए पूरब कहता है, गुरु के बिना जागना नहीं होगा। जब तुम सो रहे हो तो कोई जागने वाला ही तुम्हें जगा सकता है। इसीलिए तुम पहरेदार को रात कहकर सो जाते हो कि पांच बजे मुझे उठा देना, या तुम टेलिफोन कंपनी को खबर कर देते हो कि पांच बजे घंटी बजा देना। क्योंकि तुम जब सो रहे हो, तब कोई जागा हुआ तुम्हें उठा सकेगा। और या तुम घड़ी में अलार्म भर देते हो।
एक सदगुरु, जो जागा हुआ है, वह सोये हुए को हिला सकता है, जगा सकता है; हालांकि तुम सदगुरु को भी धोखा दे जाते हो। उससे कहते हो, बस! उठता हूं। करवट लेकर, आंख बंद करके, फिर सो जाते हो। अकेले तो तुम्हारा जागना करीब-करीब असंभव है।
इसलिए पुराने ही दिनों से जागरण की प्रक्रिया में स्कूल का बड़ा महत्व है। गुरजिएफ कहता था, बिना स्कूल के कोई भी जाग नहीं सकता। इसीलिए संप्रदाय पैदा हुए। संप्रदाय बहुमूल्य है, अगर समझपूर्वक चला जाये। संप्रदाय का अर्थ है, एक परंपरा, जिसमें दूसरे तुम्हें जगाने की कोशिश करते रहेंगे। एक जागा हुआ अनेकों को जगा सकता है। फिर वे अनेक जागे हुए दूसरों को जगाते जायेंगे।
यह एक कैसे जागता है प्रथम? कोई परिस्थिति, कभी-कभी तुम्हें बिना जगाने वाले के भी जगा दे सकती है। वह सांयोगिक है; जैसे बुद्ध को हुआ।
बुद्ध का जन्म हुआ, ज्योतिषियों ने कहा कि यह युवक होकर या तो संन्यासी हो जायेगा, और या महाप्रतापी सम्राट होगा। पिता बहुत चिंतित हुए। महाप्रतापी सम्राट हो यह तो पिता चाहे, लेकिन पिता...यह तो दुखद घटना बने अगर यह संन्यासी हो जाये। संन्यासी के चरण छूना आसान है, लेकिन तुम्हारा बेटा संन्यासी होना चाहे तो बड़ी पीड़ा होती है। दूसरे का बेटा संन्यासी हो तो तुम पैर भी छू आते हो। पिता बहुत परेशान हुए। ज्योतिषियों से कहा कि फिर क्या उपाय है कि यह संन्यासी न हो? उन्होंने कहा एक ही उपाय है, कि इसकी नींद में जरा भी दखल न पड़े। क्योंकि कभी-कभी दखल पड़ने से आदमी जग जाता है।
जरूरी नहीं है कि अलार्म से ही तुम जगो, क्योंकि अलार्म भी सिर्फ दखल है। आकाश में बादल गरजें और तुम्हारी नींद टूट जाये। कोई परिस्थिति इतनी प्रगाढ़ कांटे की तरह चुभे कि तुम्हारी नींद खुल जाये। कोई दुख इतना बड़ा आ जाये कि तुम्हारी नींद खुल जाये। पर ये घटनायें सांयोगिक हैं। इनकी साधना नहीं बनाई जा सकती। क्योंकि बादल कब आयेंगे, दुख कब घना होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। जो लोग स्वयं जागते हैं, उनके जागने का कारण हमेशा सांयोगिक, एक्सीडेंटल होता है।
तो बुद्ध के पिता को उन्होंने कहा, तुम ऐसा इंतजाम करो कि यह कोई दुर्घटना से जग न जाये, सोया रहे। फिर यह सम्राट हो जायेगा, चक्रवर्ती हो जायेगा। लेकिन अगर यह जग गया, तो मुश्किल होगा। तो पिता ने सारा इंतजाम किया; वही इंतजाम मुश्किल हो गया। पिता ने इंतजाम किया, चार महल बनाये। अलग-अलग मौसम में रहने की अलग-अलग व्यवस्था की। क्योंकि कहीं ज्यादा गर्मी में नींद न टूट जाये, कि ज्यादा सर्दी में नींद न टूट जाये, कि ज्यादा वर्षा में नींद न टूट जाये। अति न हो, सब चीजों में सम रहे, ताकि यह व्यक्ति मूर्च्छित रहे। सुंदरतम जो स्त्रियां उपलब्ध हो सकती थीं, जब बुद्ध जवान होने लगे तो उन्होंने सारे राज्य से सुंदरतम कुंवारियां इकट्ठी कर दीं।
बुद्ध के पिता ने अगर मुझसे सलाह ली होती तो मैं कहता, तुम यह सब उपद्रव, गलती कर रहे हो। इसी से जगेगा यह। जब सभी सुदर स्त्रियां वहां उपलब्ध हो गईं तो बहुत जल्दी सौंदर्य में रस चला गया। भोग निश्चित त्याग में ले जाता है। तुम नहीं पहुंच पाते त्याग में क्योंकि एकाध स्त्री तुम्हें मिलती है और हजारों स्त्रियां अनमिली रह जाती हैं। तो जो स्त्री तुम्हें मिल जाती है, उसमें तो रस खो जाता है, लेकिन जो तुम्हें नहीं मिलीं, उनमें रस बना रह जाता है। उसकी वजह से नींद जारी रहती है। बुद्ध को जो भी सुंदरतम स्त्रियां संभव थीं, सब मिल गईं। आगे कोई रस न रहा। अगर तुम्हें सब मिल जाये, तुम्हारा रस टूट जायेगा। बुद्ध को इतना सुख दिया कि जरा-सा दुख दुर्घटना हो गया। अगर कोई आदमी दुख में ही रखा जाये, तो उसको दुख झेलने की क्षमता बढ़ जाती है। जैसे एक आदमी रेलवे स्टेशन पर ही सोता है तो रेलें गुजरती रहें, कोई नींद में बाधा नहीं पड़ती। हड़ताल हो जाये तो नींद टूटती है। क्योंकि वह जो आवाज की आदत हो गई वह संगीत है, जिसमें उन्हें नींद आती है। तो जो लोग रेलवे स्टेशन पर सोते हैं, रेल की खड़-खड़ उनको बड़ा संगीतपूर्ण वातावरण बनाती है। वह न हो तो बेचैनी होती है।
शिकागो के पास से एक ट्रेन गुजरती थी रोज रात तीन बजे। उससे पूरे शिकागो में शोरगुल मचता था। उसकी सीटी की आवाज...पुराने दिनों की बात! तो अधिकारियों ने सोचा कि यह डिस्टरबेंस है, उसका समय बदल दिया। तीन बजे रात की बजाय वह सुबह सात बजे गुजरने लगी। तो अनेक शिकायतें आईं, कि तीन बजे अनेक लोगों को शिकागो में ऐसा लगा, कि नींद टूट जाती है, कि कुछ गड़बड़ हो रही है। वह जो तीन बजे उपद्रव मचता था रोज, वह नहीं मच रहा; तो उसका अभाव खला। लोग तो हैरान हुए। अधिकारी हैरान हुए, कि हमने तो इसीलिए किया कि नींद ठीक से लगे लोगों की, लेकिन तीन बजे वर्षों की आदत हो गई थी। उससे नींद नहीं टूटती थी, वह नींद का हिस्सा हो गया था। अचानक वह खो गया। खाली जगह हो गई। अनेक लोगों की नींद टूट गई।
बुद्ध अगर दुख में रखे गये होते और बचपन से ही उन्हें सब तरह के दुख दिए गये होते, फिर उनकी नींद टूटना बहुत मुश्किल था। लेकिन सब सुख दिया। इतना सुख दिया कि कभी कोई कांटा न चुभा। बुद्ध के पिता ने बगीचे में इंतजाम किया था, कोई सूखा हुआ पत्ता भी बुद्ध को दिखाई न पड़े। क्योंकि कौन जाने सूखे पत्ते को देखकर बुद्ध सवाल उठा दें! मुरझाया फूल दिखाई न पड़े। कौन जानता है मुरझाया फूल को देखकर वह कह दे कि मैं तो नहीं मुरझा जाऊंगा? कहीं जीवन का सवाल न उठ जाये। कहीं मृत्यु दिखाई न पड़ जाये। तो रात बगीचा साफ कर दिया जाता था ताकि जीवन ही जीवन दिखाई पड़े। इसी से मुसीबत हुई, क्योंकि कितना छिपाओगे? कितना बचाओगे? आज नहीं कल बुद्ध महल के बाहर जायेंगे। बुद्ध को महल के बाहर जाना पड़ा। और जब उन्होंने पहली दफा एक आदमी की लाश को निकलते देखा, सब नींद टूट गई। सारथी से पूछा, क्या हो गया इस आदमी को? सारथी डरा क्योंकि खबर थी पिता की तरफ से, कि कभी मृत्यु की कोई चर्चा उठे तो कुछ कहना मत।
कहानी बड़ी मधुर है। देवताओं ने देखा कि सारथी डर रहा है, और एक क्षण आया है कि एक आदमी जग सकता है तो देवता सारथी में प्रवेश कर गये और उन्होंने सत्य कह दिया। यह तो कहानी है लेकिन बात ठीक ही है। देवता प्रवेश किए हों या न किए हों,  सारथी में देवत्व भाव आ गया होगा कि यह बात तो सच ही कहनी चाहिए। क्यों झूठ बोलना? और कब तक छिपेगा झूठ? मौत तो है! तो सारथी ने कहा कि मैं कैसे कहूं? लेकिन यह आदमी मर गया। झूठ मैं नहीं बोल सकता। बुद्ध ने तत्क्षण पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी ने कहा कि यह और कठिन सवाल है। मैं कैसे कहूं कि आप मर जायेंगे, लेकिन अपवाद कोई भी नहीं है। बुद्ध ने कहा, तब रथ वापिस लौटा लो; अब मुझे आगे नहीं जाना है। वे जा रहे थे एक महोत्सव में भाग लेने। एक युवक महोत्सव, यूथ फेस्टिवल था। सारे राज्य के युवक इकट्ठे हुए थे, बुद्ध को उसका उदघाटन करना था। वापिस लौटा लो, क्योंकि अब युवक महोत्सव में जाने का कोई अर्थ नहीं रहा। मैं मर ही गया। जब मरना ही है थोड़े दिन बाद, तो यह सब राग-रंग व्यर्थ है। उसी रात बुद्ध घर छोड़कर भाग खड़े हुए। यह परिस्थिति के कारण हुआ।
बुद्ध के पिता ने सोचा तर्क से। ठीक ही सोचा था, लेकिन जिंदगी तर्क को नहीं मानती। जिंदगी तर्क से बड़ी बड़ी है। बुद्ध के पिता ने व्यवस्था की तर्क से सब; कि दुख न हो, असुविधा न हो, मृत्यु का दर्शन न हो, इसी वजह से एक दुर्घटना घट गई। बुद्ध के पिता के लिए दुर्घटना बनी, बुद्ध के लिए तो इससे बड़ा अहोभाग्य दूसरा न था।
तो कभी-कभी ऐसा हुआ है कि कोई संयोगवश जाग गया है और तब उसने दूसरों को जगाना शुरू कर दिया है। लेकिन सामान्यतः सौ में निन्यान्नवे मौकों पर तुम्हें गुरु की जरूरत है। तुम्हें कोई जगायेगा, तभी तुम जाग सकोगे। तब भी डर है कि तुम शायद न जागो! तब भी भय है कि तुम करवट ले लो और सो जाओ। क्योंकि मैं तुम्हें रोज करवट लेते और फिर से सो जाते देखता हूं। इसलिए अनुभव से कहता हूं। तुम्हें किसी तरह परेशान करके थोड़ा बहुत हिलाया-डुलाया, तुम थोड़ी-सी आंख खोलते हो, लेकिन आंख के भीतर नींद छाई रहती है। उस छाई हुई नींद से तुम थोड़ा-सा देखते हो, फिर करवट लेकर सो जाते हो; सोचते हो कि अभी दो घड़ी और सो लें, इतनी जल्दी क्या है? अभी सुबह हुई भी नहीं। तुम हजार बहाने खोजकर फिर सो जाते हो।
गुरु भी तुम्हें जगा नहीं पाता; इसलिए बिना गुरु के तुम जगोगे इसकी संभावना ना के बराबर है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, कृष्णमूर्ति ने ठीक बात कहकर भी बहुत लोगों का अहित किया है--अनजाने में। बात तो ठीक ही है कि तुम्हें कोई दूसरा कैसे जगायेगा? अगर तुम सोना ही चाहते हो, कोई जगा नहीं सकता। तुम जब जागना चाहोगे, तभी जागोगे। गुरु भी क्या करेगा?
इसलिए कृष्णमूर्ति ठीक ही कहते हैं कि तुम जागना चाहो तो जाग सकते हो। गुरु की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिनसे वे कह रहे हैं, वे तो नींद के लिए सब तर्क खोज रहे हैं। जब वे सुनते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं तो अलार्म घड़ी को फेंक आते हैं। वे कहते हैं, जब जगना है तो जग ही जायेंगे। अलार्म की क्या जरूरत? अलार्म से भी वे जगते नहीं थे। पर उससे एक संभावना थी; उसे भी फेंक आते हैं। तब वे निश्चिंत होकर सोते हैं। अब कोई डर भी न रहा कि कोई जगायेगा। अब वे गुरु के पास भी नहीं जाते। अब कहीं कोई गुरु मिल भी जाये तो वे कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं।
नानक ने, कबीर ने व्यर्थ ही नहीं कहा था कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा। उन्होंने तुम सोये हुए लोगों को देखकर कहा था। ज्ञान तो गुरु के बिना हो सकता है। क्योंकि ज्ञान तुम्हारी भीतरी संपदा है। कोई तुम्हें देने वाला नहीं। लेकिन तुम इतने जालसाज हो, तुम इतने षडयंत्रकारी हो, अपने साथ तुम ऐसा खेल खेल रहे हो, कि तुम अपने को धोखा दे लोगे। कोई चाहिए जो तुम्हें जगाये, हिलाये, झकझोरे
आस्पेंस्की ने अपनी किताब 'इन सर्च आफ द मिरैकुलस', गुरजिएफ को भेंट की है। समर्पण में लिखा है; 'गुरजिएफ को, जिसने मेरी नींद तोड़ दी।'
गुरु का एक ही अर्थ है: जो तुम्हारी नींद तोड़ दे। इसलिए तुम गुरु से बचोगे, भागोगे क्योंकि नींद बड़ी सुखद है। और नींद का टूटना हमेशा दुखद है। जो भी तुम्हारी नींद तोड़ेगा, उस पर तुम नाराज होओगे क्योंकि वह तुम्हें बेचैनी में डाल रहा है। तुम नींद से व्यवस्थित हो गये हो। सब ठीक चल रहा था, सपना भी अच्छा था, सब ठीक था। कोई आ गया, उसने नींद झकझोर दी। अब सब अस्त-व्यस्त होगा। अब पुराना सब जायेगा और नया फिर से संयोजन करना होगा। इसलिए गुरु शुरू में तो कष्टदायी मालूम पड़ता है, दुखदायी मालूम पड़ता है।
इसलिए जो गुरु तुम्हें शुरू से सांत्वना देता हो, समझना कि वह नींद की दवा होगा; गुरु नहीं है। जो तुम्हें पुचकारता, थपकारता हो और कहता हो सब ठीक है, उससे बचना। वह गुरु नहीं है। जब तुम सो रहे होओगे, वह तुम्हारी जेब काट लेगा; और कुछ इससे ज्यादा होने वाला नहीं है।
जब भी तुम गुरु के पास जाओगे तो वह कहेगा, कुछ भी ठीक नहीं है, तुम बिलकुल गलत हो। तुम पागल हो। तुम नींद में हो। तुम अस्वस्थ हो। वह तुम्हारे अहंकार को कोई तृप्ति न देगा। वह सब तरफ से तुम्हें तोड़ेगा, मिटायेगा, जलायेगा।
गुरु तो मृत्यु जैसा है। और मृत्यु से ही गुजरकर अमृत उपलब्ध होता है।

आज इतना ही।




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