दिनांंक 3 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र: (साधनापाद)
योग—सूत्र: (साधनापाद)
तदाभावात्संयोगाभावो
हानं
तद्ददृशे:
कैवल्यम्।। 25।।
अज्ञान
के विर्स्जन
द्वारा द्रष्टा
और दश्य का
संयोग विनष्ट
किया जा सकता
है।
यहीं
मुक्ति का
उपाय है।
विवेकख्यातिरविप्लवा
हानोपाय:।। 26।।
सत्य
और असत्य के
बीच भेद करने के
सतत अभ्यास
द्वारा
अज्ञान
का विसर्जन
होता है।
तस्य
सप्तधा
प्रान्तभूमि:
प्रज्ञा।।
27।।
अज्ञान की
अवस्था ही
कारण है सारी
भ्रांतियों का, सारे
भ्रमों का, सभी मिथ्या
प्रतीतियों
का। लेकिन
ज्यादा जानना
ज्ञान की
अवस्था नहीं
है। अज्ञान
कारण है, लेकिन
ज्ञान—जानकारी
के अर्थ में—कोई
उपाय नहीं है।
तुम ज्यादा से
ज्यादा जान
सकते हो, लेकिन
तुम वही रहते
हो। ज्ञान एक
व्यसन बन जाता
है। तुम उसे
इकट्ठा करते
चले जाते हो, लेकिन जो
इकट्ठा कर रहा
है वह वही का
वही बना रहता
है। तुम
ज्यादा जानते
हो, लेकिन 'तुम' ज्यादा
होते नहीं।
और
अज्ञान का मूल
कारण केवल तभी
मिट सकता है जब
तुम विकसित
होओ, जब
तुम्हारा
होना मजबूत हो,
जब
तुम्हारी स्व—सत्ता
जागे। सारी
पीड़ा का मूल
कारण अज्ञान
है, लेकिन
तथाकथित
ज्ञान उपचार
नहीं है—जागरण
है उपचार।
यदि
तुम इस
सूक्ष्म भेद
को नहीं समझते, तो पहले
तो तुम अज्ञान
में खोए हो, फिर तुम
ज्ञान में खो
जाओगे—और कुछ
ज्यादा ही खो
जाओगे।
उपनिषदों में
सर्वाधिक क्रांतिकारी
वचनों में से
एक वचन है। वह
वचन यह है कि
अज्ञान में तो
लोग भटकते ही
हैं, लेकिन
ज्ञान में वे
और भी गहरे
अर्थों में
भटक जाते हैं।
अज्ञान तो
भटकाता ही है,
ज्ञान और भी
ज्यादा भटका
देता है।
तो
अज्ञान ज्ञान
का अभाव नहीं
है। यदि वह
ज्ञान का अभाव
होता तो चीजें
बहुत आसान
होती—और सस्ती
होतीं। तुम
ज्ञान उधार ले
सकते हो; तुम स्वयं
का होना उधार
नहीं ले सकते।
ज्ञान तो तुम
चुरा भी सकते
हो; तुम
स्व—सत्ता को
नहीं चुरा
सकते।
तुम्हें
उसमें विकसित
होना होता है।
इस बात
को कसौटी की
तरह याद रखना :
जब तक तुम किसी
चीज को स्वयं
के भीतर
विकसित नहीं
करते, तब
तक वह
तुम्हारी कभी
नहीं होती। जब
तुम भीतर
विकसित होते
हो, केवल
तभी कोई चीज
तुम्हारी
होती है। तुम
किसी चीज पर
मालकियत कर
सकते हो, लेकिन
उस मालकियत से
भांति में मत
पड़ जाना। वह
चीज तुमसे अलग
ही बनी रहती
है, वह तुम
से छीनी जा
सकती है। केवल
तुम्हारी
अंतस सत्ता
नहीं छीनी जा
सकती तुम से।
तो जब तक
तुम्हारी
अंतस सत्ता
में ही ज्ञान
न घट जाए, अज्ञान
नहीं मिट सकता।
अज्ञान
ज्ञान का अभाव
नहीं है; अज्ञान है
होश का अभाव।
अज्ञान एक
प्रकार की
निद्रा है, एक प्रकार
की मूर्च्छा
है, एक
प्रकार का
सम्मोहन है; जैसे कि तुम
नींद में चल
रहे हो, नींद
में काम कर रहे
हो। तुम नहीं
जानते कि तुम
क्या कर रहे
हो। तुम
आलोकित नहीं
हो; तुम्हारा
सारा
अस्तित्व
अंधकार में
डूबा है। तुम
जान सकते हो
प्रकाश के
विषय में, लेकिन
प्रकाश के
विषय में वह
ज्ञान
कभी
प्रकाश न
बनेगा। उलटे, वह एक
अवरोध बन
जाएगा प्रकाश
की ओर गति
करने में, क्योंकि
जब तुम बहुत
कुछ जान लेते
हो प्रकाश के
संबंध में तो
तुम भूल जाते
हो कि प्रकाश
घटित नहीं हुआ
है तुम्हें।
तुम अपने ही
ज्ञान द्वारा
धोखा खा जाते
हो।
यह ऐसे
ही है जैसे कि
तुम एक अंधेरी
कोठरी में रह
रहे हो। तुमने
प्रकाश के
विषय में सुना
है, लेकिन
तुमने प्रकाश
देखा नहीं है।
और तुम प्रकाश
के विषय में
सुन कैसे सकते
हो? उसे
केवल देखा जा
सकता है। कान
माध्यम नहीं
हैं प्रकाश को
जानने का; आंखें
हैं माध्यम।
और तुमने सुन
लिया है
प्रकाश के
बारे में। और
बार—बार
प्रकाश की
बातें सुन कर
तुम्हें लगता
है कि तुम
जानते हो
प्रकाश को।
तुम जानते हो
उसके बारे में,
लेकिन किसी
के बारे में
जानना उसे
जानना नहीं है।
तुमने सुना है।
और कैसे तुम
सुन सकते हो
प्रकाश को? यह तो ऐसा ही
होगा जैसे कोई
कहे कि उसने
देखा है संगीत
को। यह बात
बड़ी बेतुकी
होगी।
फिर
प्रकाश की
बातें सुन—सुन
कर मन और लोभी
हो जाता है।
तुम
शास्त्रों
में खोजते हो।
तुम जाते हो
और खोजते हो
बुद्धिमान
वृद्धों को।
तुम्हें शायद
कोई मिल भी
जाए जिसने
देखा हो, लेकिन जब वह
उसके बारे में
कुछ कहता है, तो तुम्हारे
लिए वह सुनी
हुई बात हो
जाती है।
भारत
में
प्राचीनतम
शास्त्र
श्रुति के नाम
से जाने जाते
हैं. वह जिसे
कि सुना गया
है। सुंदर है
यह बात। सचमुच
सुंदर है यह।
सत्य सुना
कैसे जा सकता
है? और
सारे
प्राचीनतम
शास्त्र
श्रुतियां और
स्मृतियां
कहलाते हैं।
श्रुति का
अर्थ है 'सुना
हुआ' और
स्मृति का
अर्थ है 'स्मरण
रखा हुआ'।
तुमने सुना है
और स्मृति में
रख लिया है।
तुमने रट लिया
है।
लेकिन
सुन कर तुम
सत्य को कैसे
जान सकते हो? तुम्हें
उसे अनुभव
करना होता है।
वस्तुत:
तुम्हें उसे
जीना होता है।
गुफा में, अंधेरे
में जीने वाला
आदमी प्रकाश
के बारे में
बहुत जानकारी
इकट्ठी कर
सकता है। वह
बहुत बड़ा
पंडित भी बन
सकता है। तुम
कुछ भी पूछ
सकते हो उससे
और तुम भरोसा
कर सकते हो उस
पर। वह हर चीज
बता देगा जो
प्रकाश के
बारे में कभी भी
कही गई है, लेकिन
फिर भी रहेगा
वह अंधेरे में
ही। और प्रकाश
को पाने में
वह तुम्हारी
मदद नहीं कर
सकता; वह
स्वयं ही अंधा
है।
जीसस
बार—बार कहते
हैं, 'अंधे
अंधों को चला
रहे हैं।’ कबीर
कहते हैं, 'यदि
तुम दुख भोग
रहे हो, तो
सजग हो जाओ; जरूर तुम
अंधे आदमी
द्वारा चलाए
गए हो।’ कबीर
कहते हैं, 'अंधा
अंधे ठेलिया
दोनों कूप पड़ंत।’
और तुम सभी
पड़े हो दुख के
कुएं में; तुमने
सत्य के विषय
में जरूर बहुत
कुछ सुना होगा;
तुमने बहुत
कुछ सुना होगा
ईश्वर के विषय
में। हजारों
उपदेशक
निरंतर उपदेश
दे रहे हैं
ईश्वर के
संबंध में—चर्च
हैं, मंदिर
हैं, पंडित—पुरोहित
हैं—निरंतर
चर्चा कर रहे
हैं उसके विषय
में। लेकिन
ईश्वर कोई
बातचीत नहीं
है, वह तो
एक अनुभव है।
अज्ञान
ज्ञान के
द्वारा नहीं
मिट सकता है।
वह मिट सकता
है केवल होश
के द्वारा।
ज्ञान तो तुम
स्वप्न में भी
इकट्ठा किए जा
सकते हो; लेकिन वह
स्वप्न का
हिस्सा ही है,
और स्वप्न
हिस्सा है
तुम्हारी
नींद का। कोई
चाहिए जो
तुम्हें
झकझोर दे। कोई
चाहिए जो
तुम्हें
धक्का दे दे।
कोई चाहिए जो
तुम्हें
तुम्हारी
नींद से जगा दे।
अन्यथा तुम तो
ऐसे ही चलते
चले जा सकते
हो। नींद मादक
होती है।
अज्ञान मादक
होता है, वह
एक प्रकार का
नशा है।
तुम्हें उससे
बाहर आना है।
मैं
तुम से एक
कहानी कहूंगा, जो मुझे
सदा प्रीतिकर
रही है। वह
तिलोपा के
शिष्य, सिद्ध
नरोपा के विषय
में है। नरोपा
के अपने गुरु
तिलोपा से
मिलने के पहले
की घटना है।
उसके
बुद्धत्व को
उपलब्ध होने
से पहले की
घटना है। और
यह बहुत जरूरी
है प्रत्येक
खोजी के लिए, सब के साथ
ऐसा ही होगा।
तो सवाल यह
नहीं है कि
ऐसा नरोपा के
साथ हुआ या नहीं,
लेकिन इस
यात्रा पर ऐसा
होना
अनिवार्य है।
जब तक ऐसा न
घटे, बुद्धत्व
संभव नहीं है।
इसलिए मैं
नहीं जानता कि
ऐतिहासिक रूप
से ऐसा हुआ या
नहीं, लेकिन
मनोवैज्ञानिक
रूप से मैं
निश्चित हूं एकदम
सुनिश्चित
हूं कि ऐसा
हुआ, क्योंकि
कोई भी इस
अनुभव के बिना
पार के जगत में
गति नहीं कर
सकता।
नरोपा
बहुत बड़ा
विद्वान था, एक बड़ा
पंडित था।
कहानियां हैं
कि वह एक महान
उपकुलपति था
एक बड़े
विश्वविद्यालय
का—दस हजार
उसके
विद्यार्थी
थे। एक दिन वह
बैठा हुआ था
अपने
विद्यार्थियों
के बीच। उसके
चारों ओर
हजारों
शास्त्र
बिखरे पड़े थे—प्राचीन,
अति प्राचीन,
दुर्लभ
शास्त्र।
अचानक ही उसे
झपकी लग गई—
थका रहा होगा—और
उसे एक दृश्य
दिखाई पड़ा।
मैं इसे दृश्य
कहता हूं
स्वप्न नहीं
कहता, क्योंकि
यह कोई साधारण
स्वप्न नहीं
है। यह इतना
अर्थपूर्ण है
कि इसे स्वप्न
कहना उचित न
होगा; यह
दर्शन था।
उसने एक बहुत
की, कुरूप,
भयंकर
स्त्री देखी,
चुड़ैल जैसी।
उसकी कुरूपता
इतनी भयंकर थी
कि वह नींद
में कांपने
लगा। वह बहुत
घबरा गया। वह
भाग जाना
चाहता था—लेकिन
भागे कहां? जाए कहा? वह
पकड़ लिया गया,
मानो कि की
चुड़ैल द्वारा
सम्मोहित हो
गया हो। उस
स्त्री का
शरीर घबराने
वाला था, लेकिन
उसकी आंखें
चुंबकीय थीं।
उसने
पूछा, 'नरोपा,
तुम क्या कर
रहे हो?'
और
उसने कहा, 'मैं
अध्ययन कर रहा
हूं।’
'क्या
अध्ययन कर रहे
हो तुम?' की
स्त्री ने
पूछा।
उसने
कहा, 'दर्शन,
धर्म, तत्व—मीमांसा,
भाषा, व्याकरण,
तर्कशास्त्र।’
उस की
स्त्री ने फिर
पूछा, 'क्या
तुम समझते हो
इन्हें?'
नरोपा
ने कहा, 'बिलकुल. ही, मैं समझता
हूं इन्हें।’
उस
स्त्री ने फिर
पूछा, 'तुम
शब्दों को
समझते हो या
कि अनुभव को?'
यह बात
पहली बार पूछी
गई थी। नरोपा
से जीवन में
हजारों
प्रश्न पूछे
गए थे। वह एक
बड़ा शिक्षक था—हजारों
विद्यार्थी
सदा ही पूछते
रहे थे, जिज्ञासा
करते रहे थे—लेकिन
किसी ने यह
नहीं पूछा था : 'तुम शब्दों
को समझते हो
या कि भाव को?' और उस
स्त्री की आंखें
इतनी गहरे
देखने वाली
थीं कि झूठ
बोलना असंभव
था—वह जान
जाएगी। उसकी
दृष्टि के
सम्मुख नरोपा
ने अपने को
बिलकुल नग्न
अनुभव किया, निर्वस्त्र,
पारदर्शी।
वे आंखें उसके
अंतस में एकदम
गहरे झांक रही
थीं, और
झूठ बोलना
असंभव था।
उसने और किसी
से कह दिया
होता, 'निश्चित
ही मैं समझता
हूं भाव', लेकिन
इस स्त्री से,
इस भयंकर
स्त्री से वह
झूठ नहीं बोल
सका; उसे
सत्य ही कहना
पड़ा।
उसने
कहा, 'ही, मैं शब्दों
को समझता हूं।’
वह
स्त्री बहुत
प्रसन्न हो गई।
वह नाचने लगी
और हंसने लगी।
यह सोच
कर कि स्त्री
इतनी खुश हो
गई है—और उसकी
खुशी के कारण
उसकी कुरूपता
भी बदल गई थी; अब वह
उतनी कुरूप न
रही थी, एक
सूक्ष्म
सौंदर्य उसके
भीतर से बाहर
झलकने लगा
था—तो यह
सोच कर कि
मैंने इसे
इतना प्रसन्न
कर दिया है तो
क्यों न इसे
थोड़ा और प्रसन्न
कर दूं उसने
कहा, 'और
ही, मैं
भाव भी समझता
हूं।’
उस
स्त्री की
हंसी रुक गई।
उसका नृत्य थम
गया। वह चीखने
लगी और रोने
लगी, और
उसकी सारी
कुरूपता लौट
आई—पहले से
हजार गुना
ज्यादा।
नरोपा
ने कहा, 'क्यों? क्यों
तुम रो रही हो?
और पहले
क्यों तुम हंस
रही थीं और
नाच रही थीं?' वह स्त्री
कहने लगी, 'मैं
नाच रही थी और
हंस रही थी और
खुश थी, क्योंकि
तुम्हारे
जैसे महान
विद्वान ने
झूठ नहीं बोला
था। लेकिन अब
मैं चीख रही
हूं और रो रही
हूं क्योंकि
तुमने मुझसे
झूठ बोला। मैं
जानती हूं—और
तुम जानते हो—कि
तुम भाव को
नहीं समझते।’
दृश्य
विलीन हो गया
और नरोपा
रूपांतरित हो
गया। उसने
विश्वविद्यालय
छोड़ दिया।
उसने फिर कभी
अपनी जिंदगी
में कोई
शास्त्र न छुआ।
वह बिलकुल
अज्ञानी हो
गया : वह समझ
गया कि केवल शब्दों
को समझ कर तुम
किसे धोखा दे
रहे हो! और
केवल शब्दों
को समझ—समझ कर
तुम बन गए हो
एक कुरूप बूढ़ी
चुड़ैल।
ज्ञान
कुरूप होता है।
और यदि तुम
विद्वानों के
पास जाओ तो
तुम पाओगे कि
वे दुर्गंध से
भरे हैं—ज्ञान
की दुर्गंध से—वे
मुर्दा हैं।
एक
प्रज्ञावान
व्यक्ति के
पास, एक
बोधपूर्ण
व्यक्ति के
पास उसकी एक
अपनी ताजगी
होती है, एक
सुवासित जीवन
होता है—जो कि
नितांत अलग
होता है पंडित
से, ज्ञान
से भरे
व्यक्ति से।
जो भाव को
समझता है वह
सुंदर हो जाता
है, जो
केवल शब्द को
ही समझता है
वह कुरूप हो
जाता है। और
वह स्त्री कोई
बाहर की नहीं
थी : वह तो भीतर
का एक
प्रक्षेपण थी।
वह नरोपा का
ही एक हिस्सा
था जो ज्ञान
के द्वारा
कुरूप हो गया
था। मात्र
इतनी समझ कि 'मैं भाव को
नहीं समझता' और सारी
कुरूपता एक
सुंदरता में
बदल जाने वाली
थी।
नरोपा
तलाश में निकल
पड़ा, क्योंकि
अब शास्त्र
काम न देंगे।
अब जरूरत है
किसी जीवंत
सदगुरु की।
फिर लंबी यात्राओं
के बाद उसे
तिलोपा मिले।
तिलोपा को भी
इस व्यक्ति की
तलाश थी, क्योंकि
जब तुम्हारे
पास कुछ होता
है, तो तुम
उसे बांटना
चाहते हो; एक
करुणा पैदा
होती है।
करुणा बौद्ध
शब्दावली है।
इसके लिए
अंग्रेजी
शब्द 'कम्पैशन'
एकदम वही
भाव व्यक्त
नहीं करता—कर
नहीं सकता।
करुणा शब्द
बहुत ही
अर्थपूर्ण है।
यह उसी
संस्कृत मूल
से आता है
जिससे कि किया
शब्द आता है।
क्रिया और
करुणा—वे
दोनों आते हैं
एक ही मूल
धातु 'कृ' से। बौद्ध
शब्द करुणा का
अर्थ है 'सक्रिय
करुणा।’
और यही
अंतर है
सहानुभूति और
करुणा के बीच, सहानुभूति
में कुछ करने
की कोई जरूरत
नहीं होती—तुम
बस अपनी
सहानुभूति
प्रकट कर देते
हो और बात खतम
हो जाती है।
करुणा सक्रिय
होती है; तुम
करते हो कुछ, तुम्हें कुछ
करना ही पड़ता
है। तुम मात्र
सहानुभूति
में कैसे जी
सकते हो? सहानुभूति
तो बहुत उथली,
बहुत ठंडी
मालूम पड़ेगी।
करुणा में ऊष्मा
होती है।
करुणा का अर्थ
ही है कि वह
सक्रिय होती
है।
जब कोई
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है, तो
करुणा पैदा
होती है।
तिलोपा ज्ञान
को उपलब्ध हो
गए थे। उनका
साक्षात्कार
हुआ था सत्य
से; और अब
करुणा उमग आई
थी। और वे उस
व्यक्ति
की खोज
में थे जो
लेने को तैयार
हो—क्योंकि
सत्य के अनुभव
को तुम उन पर
नहीं थोप सकते
जो कुछ
समझेंगे ही
नहीं। एक
संवेदनशील
हृदय की, एक स्त्रैण
हृदय की जरूरत
होती है।
शिष्य को
स्त्री जैसा
होना होता है,
क्योंकि
गुरु को
उंडेलना है और
शिष्य को उसे
स्वीकार करना
है।
तो वे
दोनों मिले और
तिलोपा ने कहा, 'नरोपा, अब मैं वह सब
कहूंगा जिसे
कहने की मैं
प्रतीक्षा
करता रहा हूं।
मैं तुम्हें
सब कुछ कहूंगा,
नरोपा। तुम
आ गए हो; अब
मैं स्वयं को
निर्भार कर
सकता हूं।’
नरोपा
को जो दिखा, वह दृश्य
बहुत
अर्थपूर्ण है।
वह दर्शन
जरूरी है। जब
तक तुम अनुभव
न कर लो कि
ज्ञान व्यर्थ
है, तब तक
तुम प्रज्ञा
की तलाश कभी
करोगे ही नहीं।
तुम झूठे
सिक्के ही लिए
रहोगे यह सोच
कर कि यही है
सच्चा खजाना।
तुम्हें
सजग होना है
कि ज्ञान नकली
सिक्का है—वह
जानना नहीं है, वह बोध
नहीं है। अधिक
से अधिक वह
बौद्धिक है—शब्द
समझ में आ गए
हैं लेकिन बोध
चूक गया है।
एक बार तुम
समझ लेते हो, इसे तो तुम
उतार फेंकोगे
अपना सारा
ज्ञान और तुम
निकल पड़ोगे
किसी ऐसे
व्यक्ति की
खोज में जो कि
जानता है, क्योंकि
जो जानता है, केवल उसी के
साथ हृदय से
हृदय का, प्राणों
से प्राणों का
संवाद संभव
होता है।
लेकिन शिष्य
यदि पहले से
ही ज्ञान से
भरा है तो
संवाद असंभव
है, क्योंकि
ज्ञान एक
दीवार बन
जाएगा।
मैं
सदा ही
तुम्हारे
चारों ओर एक
सूक्ष्म दीवार
देखता हूं। जब
तुम मेरे पास
आते हो, तो मैं
देखता हूं कि
मैं तुम तक
पहुंच सकता हूं
या नहीं, तुम
तक पहुंचना
संभव है या
नहीं। यदि मैं
ज्ञान की बहुत
मोटी दीवार
देखता हूं तो
नितांत असंभव
लगता है तुम
तक पहुंचना; मुझे
प्रतीक्षा
करनी होती है।
यदि मुझे छोटी
सी संध भी
मिले तो मैं
वहां से प्रवेश
कर जाता हूं।
लेकिन भयभीत
लोग, भय से
भरे हुए लोग—वे
संध तक नहीं
छोड़ते; वे
पक्की दीवार
बना लेते हैं।
वे अपने चारों
ओर एक घेरा
बना लेते हैं
ज्ञान का, जानने
का, धारणाओं
का, अर्थहीन
शब्दों का।
व्यर्थ।
मात्र शोरगुल।
वस्तुत: एक
उपद्रव, लेकिन
तुम विश्वास
करते हो उनमें।
तो यह
पहली बात समझ
लेने की है :
ज्ञान कोई
ज्ञान नहीं है।
और केवल वह
ज्ञान जो कि
ज्ञान नहीं
बल्कि
प्रज्ञा है, समझ है, बोध है, वही
कांट सकता है
अज्ञान की
जड़ों को।
याद
रखना इस शब्द 'बोध' को।
जैसे सुबह
धीरे— धीरे
तुम जागते हो
और नींद के
बाहर आते हो
और नींद
समाप्त हो
जाती है, मिट
जाती है। वैसा
ही फिर घटता
है : तुम नींद
से बाहर आते
हो; धीरे—
धीरे
तुम्हारी आंखें
खुलती हैं, तुम देखने
लगते हो; तुम्हारा
हृदय आंदोलित
होता है, तुम्हारा
अंतस खुलने
लगता है, और
तत्क्षण तुम
वही व्यक्ति
नहीं रह जाते
जो तुम सोए हुए
थे।
क्या
तुमने कभी गौर
किया, सुबह
जब तुम जागते
हो, तो तुम
बिलकुल ही
दूसरे
व्यक्ति होते
हो, तुम वही
नहीं होते जो
सोया हुआ था? क्या तुमने
ध्यान दिया, नींद में
तुम बिलकुल
अलग ही आदमी
होते हो। नींद
में तुम ऐसे
काम करते हो, जिनकी तुम
जागे हुए करने
की— कल्पना भी
नहीं कर सकते!
नींद में तुम
ऐसी बातों पर
विश्वास कर
लेते हो, जिन
पर जागे हुए
तुम विश्वास
कर ही नहीं
सकते। नींद
में तो हर तरह
की बेतुकी
बातों पर
विश्वास आ
जाता है।
जागने पर तुम
हंसते हो अपनी
ही मूढ़ता पर, अपने ही
सपनों पर।
ऐसा ही
तब घटता है, जब तुम
अंतिम रूप से
जाग जाते हो।
तब संसार की
वे सब बातें
जिन्हें तुम
उस क्षण तक जी
रहे थे, एक
सपने का—एक
लंबे सपने का—हिस्सा
बन जाती हैं।
इसीलिए हिंदू
सदा कहते रहे
हैं, संसार
माया है. वह
सपनों से बना
है; वह
वास्तविक
नहीं है।
जागो! और तुम
पाओगे कि वे
सब मिथ्या
आभास जो तुम्हें
घेरे हुए थे, खो गए हैं।
और अस्तित्व
का एक नितांत
अलग आयाम
उपलब्ध होता
है—वही है
मुक्ति।
मुक्ति का
अर्थ है
भ्रमों से
मुक्ति।
मुक्ति का
अर्थ है
निद्रा से
मुक्ति।
मुक्ति का
अर्थ है उस सब
से मुक्ति जो
कि नहीं है और
भासता है कि
है।
सत्य
को जानने का
अर्थ है घर आ
जाना, असत्य
में उलझे रहने
का अर्थ है
संसार में रहना।
अब हम पतंजलि
के सूत्रों को
समझने का
प्रयास करें।
अज्ञान
के विसर्जन
द्वारा
द्रष्टा और
दृश्य का
संयोग विनष्ट
किया जा सकता
है। यही
मुक्ति का
उपाय है।
कहां
से प्रारंभ
करें? क्योंकि
पतंजलि की
रुचि सदा
प्रारंभ में
है। यदि
प्रारंभ
स्पष्ट नहीं
है तो हम बात
किए जा सकते
हैं कि मुक्ति
क्या है, लेकिन
वह बातचीत ही
रहेगी।
प्रारंभ को
बिलकुल
स्पष्ट होना
चाहिए—हर कदम
एकदम स्पष्ट,
ताकि तुम
वहा से आगे बढ़
सको जहां कि
तुम हो।
यदि
तुम लाओत्सु
को सुनते हो
तो लाओत्सु
बोलते हैं
शिखर से, मानव—चेतना
के उच्चतम
शिखर से; यदि
तुम तिलोपा से
पूछो, तो
वे वहां से
उत्तर देते
हैं, जहां
वे हैं। यदि
तुम पतंजलि से
पूछो, तो
वे वहां से
बोलते हैं जहां
तुम हो। वे
अपने बारे में
कुछ नहीं कहते;
वे वहां से
बोलते हैं
जहां तुम हो—प्रारंभ
से। वे ज्यादा
व्यावहारिक
हैं; लाओत्सु
ज्यादा
प्रामाणिक
हैं। पतंजलि
ज्यादा
उपयोगी हैं।
कल ही
किसी ने पूछा
था कि मैं
निरंतर
लाओत्सु पर ही
क्यों नहीं
बोलता रहता!
तुम्हारे
कारण। यदि मैं
अकेला होता, तो ठीक था,
एकदम ठीक था;
लेकिन तुम
भी मौजूद हो, और तुम्हें
मैं भूल नहीं
सकता। जब मैं
लाओत्सु पर
बोलता हूं तो
मुझे तुम्हें
बहुत पीछे छोड़
देना पड़ता है।
फिर तुरंत मैं
बोलने लगता
हूं पतंजलि पर
या किसी और पर
जो तुम्हारे
बारे में और
तुम्हारे
पहले चरणों के
बारे में कहता
हो। और अंतर
बहुत बड़ा है।
तुम
लाओत्सु का
आनंद ले सकते
हो, लेकिन
तुम कुछ कर
नहीं सकते, क्योंकि वे
कुछ कहते ही
नहीं करने के
विषय में।
उन्होंने पा
लिया है और वे
बात करते हैं
अपनी उपलब्धि
कीं—उसी जगह
से। दोनों
बिलकुल अलग
बातें हैं।
तुम उनके
द्वारा
सम्मोहित हो
सकते हो, तुम्हारे
लिए उनकी
दृष्टि का बड़ा
आकर्षण हो सकता
है, लेकिन
वह बात काव्य
ही बनी रहेगी।
वह रोमांस भर
रहेगी; वह
अनुभव न बनेगी,
वह
प्रयोगात्मक
न बनेगी। अपना
यात्रा—पथ तुम
लाओत्सु
द्वारा न खोज
पाओगे। हर चीज
एकदम सत्य है,
लेकिन
प्रारंभ कहां
से करो? जिस
क्षण तुम अपने
प्रति सजग
होते हो, लाओत्सु
बहुत दूर
मालूम होते
हैं, बहुत
ही दूर...।
पतंजलि
तुम्हारे
एकदम निकट हैं।
तुम उनके हाथ
में हाथ दिए
चल सकते हो।
वे प्रारंभ की
बात करते हैं।
'.. द्रष्टा
और दृश्य का
संयोग विनष्ट
किया जा सकता
है।’
तो
पहले कदम को
ही खयाल में
ले लेना है
ध्यानपूर्वक, कि तुम
पृथक हो दृश्य
से : जो भी तुम
देखते हो, तुम
द्रष्टा हो।
एक वृक्ष है, बहुत हरा—
भरा और बहुत
सुंदर, फूलों
से लदा—लेकिन
वृक्ष है तो
दृश्य ही; तुम
द्रष्टा हो।
पृथक करो
उन्हें। ठीक
से जानो कि
वृक्ष वहां है
और तुम यहां
हो; वृक्ष
बाहर है, तुम
भीतर हो, वृक्ष
दृश्य है और
तुम द्रष्टा
हो।
ऐसा
स्मरण रखना
कठिन है, क्योंकि
वृक्ष इतना
सुंदर है और
फूल इतना चुंबकीय
आकर्षण रखते
हैं कि वे
तुम्हें
सम्मोहित करते
हैं। तुम खो
जाना चाहोगे।
तुम स्वयं को
भूल जाना
चाहोगे। असल
में तुम सदा
स्वयं को भूल
जाने की, स्वयं
से बचने की
तलाश में ही
होते हो। तुम
इतने ऊब गए हो
स्वयं से...।
कोई नहीं
चाहता स्वयं
के साथ रहना।
स्वयं से बचने
के लिए ही तुम
हजारों
रास्ते खोज
लेते हो। जब
तुम कहते हो, 'वृक्ष सुंदर
है,' तो
तुमने कर लिया
होता है बचाव;
तुम स्वयं
को भूल चुके
होते हो। जब
तुम पास से
गुजरती किसी
सुंदर स्त्री
को देखते हो, तो तुम भूल
जाते हो स्वयं
को। द्रष्टा
खो जाता है
दृश्य में।
द्रष्टा
को खोने मत
देना दृश्य
में। बहुत बार
खो जाएगा वह—वापस
बुला लेना उसे।
फिर—फिर
द्रष्टा हो
जाना। धीरे —
धीरे तुम थिर
हो जाओगे।
धीरे— धीरे
तुम मजबूत
होओगे। कोई
चीज पास से
गुजरती हो—कोई
भी चीज—चाहे
ईश्वर ही
गुजरता हो, पतंजलि
कहते हैं, ' ध्यान
रहे कि तुम
द्रष्टा हो और
वह दृश्य है।’
इस भेद को
भूल मत जाना, क्योंकि
केवल इस भेद
से ही
तुम्हारी
दृष्टि साफ
होगी, तुम्हारी
चेतना एकाग्र
होगी, तुम्हारी
सजगता घनीभूत
होगी, तुम्हारा
अस्तित्व
जड़ें पाएगा और
केंद्रित होगा।
फिर—फिर
लौट आओ, फिर—फिर
उतरो आत्म—स्मरण
में। ध्यान
रहे, आत्म—स्मरण
कोई अहं—स्मरण
नहीं है; यह
नहीं याद रखना
है कि 'मैं
हूं। नहीं, यह याद रखना
है कि भीतर
द्रष्टा है और
बाहर दृश्य है।
यह प्रश्न 'मैं' का
नहीं है; यह
प्रश्न है
चेतना का और
चेतना की विषय—वस्तु
का।
'अज्ञान
के विसर्जन
द्वारा
द्रष्टा और
दृश्य का
संयोग विनष्ट
किया जा सकता
है। यही
मुक्ति का
उपाय है।’
तुम
अपने चारों ओर
की चीजों के
प्रति जैसे—जैसे
और सजग होते
हो, तो
धीरे — धीरे
तुम पाओगे कि
केवल संसार ही
तुम्हें नहीं
घेरे हुए है, तुम्हारा
अपना शरीर भी
तुम्हें घेरे
हुए है। वह भी
दृश्य है। मैं
जान सकता हूं
अपने हाथ को, मैं अनुभव
कर सकता हूं
अपने हाथ को, तो जरूर मैं
हाथ से अलग
हूं। यदि मैं
शरीर ही होता
तो कोई उपाय न
था शरीर को अनुभव
करने का। कौन
अनुभव करता
उसे? जानने
के लिए पृथकता
की जरूरत होती
है। सारा
ज्ञान, सारा
जानना, पृथक
कर देता है।
सारा अज्ञान
विस्मरण है
पृथकता का। जब
तुम सजग होते
हो कि शरीर भी
अलग है, तो
तुम्हारी
चेतना स्वयं
में थिर होने
लगती है।
फिर
तुम सजग होते
हो कि
तुम्हारी
भावनाएं, तुम्हारे
विचार—वे भी
अलग हैं, क्योंकि
तुम उन्हें भी
देख सकते हो।
तुमने देखा है
उन्हें बहुत
बार, लेकिन
तुम्हें याद
नहीं रहता कि
तुम पृथक हो।
तुम देखते हो
कि मन के परदे
पर एक विचार
गुजर रहा है।
वह आकाश में
गुजरते बादल
की भांति ही
है। तुम सफेद
बादल को या
काले बादल को
गुजरते हुए देखते
हो जो कि
उत्तर की ओर
बढ़ रहा है।
जब कोई
विचार गुजर
रहा हो तो बस
देखना कि वह
कहा जा रहा है, कहां से आ
रहा है। ध्यान
से देखना उसे।
उससे उलझ मत
जाना; उसके
साथ एक मत हो
जाना। यह जुड़
जाना, यह
एक हो जाना, तादात्म्य
कहलाता है. और
यही है अज्ञान।
तादात्म्य से
तुम अज्ञान
में रहते हो।
तादात्म्य—हीन
होकर—पृथक, साक्षी, द्रष्टा
होकर—तुम बोध
की दिशा में
बढ़ते हो।
यही वह
विधि है जिसे
उपनिषद कहते
हैं नेति—नेति
की विधि, विसर्जन की
विधि। तुम
देखते हो
संसार को—और
जानते हो, मैं
संसार नहीं।
तुम देखते हो
शरीर को—और
जानते हो, मैं
शरीर नहीं।
तुम देखते हो
विचार को—और
जानते हो, मैं
विचार नहीं।
तुम देखते हो
भावना को—और
जानते हो, मैं
भावना नहीं।
इसी तरह तुम कांटते
जाते हो, कांटते
जाते हो, कांटते
जाते हो—एक
घड़ी आती है जब
केवल द्रष्टा
बचता है; सारे
दृश्य कट जाते
हैं। और दृश्य
के तिरोहित
होने के साथ
ही सारा संसार
तिरोहित हो
जाता है।
चेतना
के उस परम एकांत
में बड़ा
सौंदर्य है, बड़ी
सादगी, बड़ी
निर्दोषता, बड़ी सहजता
है। उस चेतना
में
प्रतिष्ठित
होते ही, उस
चेतना में थिर
होते ही कोई
चिंता नहीं
रहती, कहीं
कोई चिंता
नहीं—कोई
बेचैनी, कोई
संताप, कोई
पीड़ा नहीं; कोई घृणा, कोई प्रेम, कोई क्रोध
नहीं। हर चीज
खो जाती है; केवल तुम
होते हो। यह
अनुभूति भी कि
'मैं हूं? नहीं रहती।
क्योंकि यदि
तुम अनुभव
करते हो कि 'मैं हूं?, तो
तुम सजग हो
सकते हो उस
अनुभूति के
प्रति—जो कि
तुम से पृथक
है। अकेले तुम
होते हो। बस, तुम होते हो।
इतने सहज—सरल
कि कोई भाव
नहीं होता कि 'मैं हूं, मात्र
एक 'हूं —पन',
एक होना
मात्र बचता है।
यही है
व्याख्या
अंतस सत्ता की।
यह कोई
दर्शनशास्त्र
का प्रश्न
नहीं है, कि
कैसे इसकी
व्याख्या
करें, यह
बात है अनुभव
की, कि
कैसे इसका
अनुभव करें।
सब कुछ
खो जाता है; सारे
स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं; सारा
संसार
तिरोहित हो
जाता है। तुम
स्वयं में
प्रतिष्ठित
रहते हो कुछ न
करते हुए।
विचार की एक
तरंग भी नहीं
होती, भाव
का एक हलका सा
झोंका भी नहीं
गुजरता तुम्हारे
पास से—हर चीज
इतनी थिर होती
है और इतनी शांत.
समय थम जाता
है, दूरी
मिट जाती है।
यह एक भावातीत
अतिक्रमण की
घड़ी होती है।
इस घड़ी
में, पहली
बार, तुम
अज्ञानी नहीं
रहते। इस तरह
तुम
अस्तित्वगत
रूप से विकसित
होते हो। इस
तरह तुम जानने
वाले बनते हो,
जानकारी
रखने वाले
नहीं। तुमने
कुछ सूचनाएं
एकत्रित नहीं
की हैं, बल्कि
तुमने वह सब
अलग कर दिया
है जो कि
तुम्हें घेरे
हुए था।
बिलकुल नग्न,
निर्वस्त्र,
शून्य की
भांति, खाली
होते हो तुम।
पतंजलि
कहते हैं कि
यही है अज्ञान
से मुक्ति।
तो
पहली बात है, अलग किए
जाओ। तुम जो
कुछ भी देखो, सदा ध्यान
रहे द्रष्टा
का, कि 'मैं
अलग हूं, और
तुरंत एक मौन
तुम्हें घेर
लेगा। जिस
क्षण तुम्हें
याद आ जाता है,
'मैं
द्रष्टा हूं
और दृश्य नहीं
हूं?, उसी
क्षण तुम इस
संसार का
हिस्सा नहीं
रह जाते—तत्क्षण
तुम
रूपांतरित हो
जाते हो। हो
सकता है तुम
फिर भूल जाओ।
शुरू—शुरू में
याद बनाए रखना
बहुत कठिन है,
लेकिन
चौबीस घंटों
में यदि तुम
इसे एक क्षण
को भी याद रख
सको, तो वह
उसके लिए
पर्याप्त
पोषण होगा। और
धीरे — धीरे
ज्यादा क्षण
संभव हो
पाएंगे। एक
दिन आता है जब
तुम इतने सहज
रूप से याद
रखते हो कि
याद रखने की
कोशिश करने की
भी जरूरत नहीं
रहती : यह बात
श्वास की
भांति स्वाभाविक
हो जाती है—जैसे
तुम श्वास
लेते हो उसी
तरह तुम याद
रखते हो। तब
यह कहना भी
ठीक नहीं है
कि याद रखते
हो, क्योंकि
उसमें कोई
प्रयास नहीं
होता। यह बात
सहज घटती है; यह सहज—स्फूर्त
हो जाती है।
सत्य
और असत्य के
बीच भेद करने
के सतत अभ्यास
द्वारा.......।
फिर आता
है दूसरा चरण।
पहला चरण है
पृथकता, दृश्य और
द्रष्टा के
बीच के तादात्म्य
को तोड़ना। फिर
दूसरा चरण है :
सत्य और
असत्य के बीच
भेद करने के
सतत अभ्यास
द्वारा
अज्ञान का
विसर्जन होता
है।
पहला
चरण हमने समझा; फिर आता
है दूसरा चरण।
वे दोनों एक
साथ चलते हैं।
ऐसा कहना ठीक
नहीं कि यह
दूसरा चरण
दूसरा है—वे
दोनों साथ—साथ
ही चलते हैं।
लेकिन बेहतर
है कि शुरुआत
हो द्रष्टा और
दृश्य के भेद
के साथ; तब
दूसरी बात
संभव होगी, क्योंकि
दूसरी बात
ज्यादा
सूक्ष्म है—सत्य
और असत्य के
बीच भेद।
उदाहरण
के लिए, सामान्य
जीवन में तुम
पूरी तरह
भ्रमित हो चुके
हो। तुम नहीं
जानते कि सत्य
क्या है और
असत्य क्या है।
तुम इतने
डांवाडोल हो
कि कोई भी
भ्रांति तुम्हारे
लिए सत्य
मालूम हो सकती
है; और जब
वह सत्य हो
जाती है—मतलब
यह कि जब तुम
उसे सत्य मान
लेते हो—तो वह
तुम्हें
प्रभावित
करने लगती है।
और जब वह
तुम्हें
प्रभावित
करने लगती है,
तो वह और
ज्यादा सत्य
मालूम पड़ती है,
क्योंकि वह
तुम्हें
प्रभावित कर
रही होती है।
यह एक दुष्चक्र
हो जाता है।
रात को
तुम स्वप्न
देखते हो कि
कोई तुम्हारी
छाती पर चढ़ा
बैठा है छुरा
लिए और बस
तुम्हें मार
डालने को ही
है—एक
दुखस्वप्न।
तुम चीख पड़ते
हो। उस चीखने
के कारण नींद
टूट जाती है।
तुम आंखें
खोलते हो, वहा कोई
नहीं बैठा है
तुम्हारी
छाती पर। शायद
नींद में
तुमने अपना ही
तकिया रख लिया
था अपनी छाती
पर, या
शायद
तुम्हारे
अपने ही हाथ
थे, और उस
दबाव ने असर
दिखाया, उस
दबाव ने
निर्मित कर
दिया वह
स्वप्न।
अब तुम
जानते हो कि
वह एक स्वप्न
था, लेकिन
फिर भी
तुम्हारा
हृदय जोर से
धड़कता ही रहता
है। और तुम
भलीभांति
जानते हो कि
वह एक सपना था।
अब तुम पूरी
तरह जागे हुए
हो। तुमने
रोशनी कर ली
है—कहीं कोई
नहीं है, कुछ
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारा
शरीर थोड़ा
कंपता ही रहता
है। थोड़ा समय
लगेगा फिर से शांत
होने में।
एक
झूठा सपना, कैसे वह
सच्ची घटना
पैदा कर देता
है शरीर में? केवल दो
संभावनाएं
हैं। पहली कि
शरीर भी कोई
बड़ी सच्चाई
नहीं है। यह
है जीवन के
विषय में
हिंदू—दृष्टि।
क्योंकि एक
स्वप्न इसे
प्रभावित कर
सकता है, तो
यह स्वप्न
जैसा ही होगा;
यह सत्य
नहीं हो सकता।
दूसरी
संभावना यह
है. क्योंकि
तुम सपने को
सच मान लेते
हो, इसीलिए
वह तुम्हें
प्रभावित
करता है। वह
सच हो जाता है।
यह तुम्हारा
अपना मन ही है;
यदि तुम
किसी चीज को
सच मान लेते
हो, तो वह
सच हो
जाती है। यदि
तुम उसे झूठ
मानो, तो
वह झूठ हो
जाती है। तब
वह तुम्हें
बिलकुल
प्रभावित
नहीं करती।
कभी
ध्यान देना.
तुम्हें भूख
लगी है। क्या
यह सच्ची भूख
है? तुम्हारे
शरीर की जरूरत
है? या
केवल इसलिए कि
तुम रोज इसी
समय भोजन करते
हो तो घड़ी कह
देती है कि
समय हो गया, भूख अनुभव
करो। घड़ी कह
देती है और
तुम तुरंत
आज्ञा मान
लेते हो; तुम्हें
भूख लगने लगती
है। क्या यह
सच्ची भूख है?
यदि यह
सच्ची भूख
होती, तो
जितनी देर तुम
भूखे रहो उतनी
ही ज्यादा यह बढ़ेगी।
यदि तुम रोज
एक बजे खाना
खाते हो और
तुम्हें एक
बजे भूख लगती
है, तो
थोड़ा रुकना।
बस पंद्रह
मिनट बाद ही
तुम्हें भूख नहीं
रह जाएगी, एक
घंटे बाद तुम
बिलकुल भूल ही
जाओगे। क्या
हुआ? यदि
भूख सच्ची
होती, तो
एक घंटे बाद
और ज्यादा बढ़
जाती—लेकिन वह
तो मिट गई। वह
मन का एक खेल
थी—शरीर की
वास्तविक
आवश्यकता न थी,
मात्र एक
काल्पनिक
आवश्यकता थी,
एक झूठी
आवश्यकता थी।
तो
ध्यान देना कि
क्या सच है और
क्या झूठ है, और तुम
बहुत सी चीजों
के प्रति सजग
होओगे। और तब
तुम उनमें भेद
कर सकते हो।
और जीवन और— और
सरल होता
जाएगा। यही है
संन्यास का
अर्थ यह जान
लेना कि क्या—क्या
झूठ है। यदि
कोई चीज झूठ
है, और
तुमने उसे झूठ
की तरह जान
लिया है, तो
उसकी जरा भी
मालकियत नहीं
रहती तुम पर।
जिस क्षण तुम
समझ लेते हो
कि 'यह झूठ
है', उसकी
ताकत खो जाती
है, वह
बेजान हो जाती
है, अब वह
तुम्हें
प्रभावित
नहीं करती।
जीवन ज्यादा
सहज हो जाता
है, ज्यादा
स्वाभाविक हो
जाता है।
और फिर, धीरे—
धीरे, तुम
जान लेते हो
कि निन्यानबे
प्रतिशत
चीजें झूठ हैं।
मैं कहता हूं
निन्यानबे
प्रतिशत, एक
प्रतिशत मैं
छोड़ देता हूं
अंतिम चरण के
लिए, क्योंकि
उस अंतिम चरण
में वह भी झूठ
हो जाती है—एकमात्र
सत्य जो बच
रहता है, वह
तुम हो। एक—एक
करके हर चीज
झूठ हो जाती
है और छूट
जाती है, अंततः
केवल चैतन्य
ही सत्य बचता
है।
उदाहरण
के लिए, रात को तुम
सोते हो, तुम
कोई सपना
देखते हो। रात
सपना सत्य
होता है। तुम
उसे सत्य ही
मानते हो, तुम
उसे सत्य की
तरह जीते हो—तुम
अनुभव करते हो,
तुम
क्रोधित होते
हो, तुम
प्रेम करते हो—सब
तरह के मनोभाव,
विचार, सब
तरह के जीवन
तुम से गुजरते
हैं। फिर सुबह
वह सब झूठ हो
जाता है। अब
तुम जाते हो
आफिस, दुकान,
संसार में,
बाजार में—अब
यह संसार सत्य
हो जाता है।
सांझ तुम लौट
आते हो घर।
फिर तुम सो
जाते हो—बाजार,
दुकान—हर
चीज फिर झूठ
हो जाती है।
गहरी नींद में
तुम्हें याद
नहीं रहती
बाजार की, परिवार
की, घर की
चिंताओं की—वे
सब बातें खो
जाती हैं।
लेकिन
केवल एक चीज
सदा सत्य रहती
है—वह है
द्रष्टा। रात
जब सपना चलता
है, तो
सपना भला सपना
हो, लेकिन
द्रष्टा सपना
नहीं होता—क्योंकि
सपना देखने के
लिए भी
वास्तविक
द्रष्टा की
जरूरत होती है।
दोनों ही सपना
नहीं हो सकते।
तुम
युवा होते हो, फिर तुम
बूढ़े हो जाते
हो, लेकिन
द्रष्टा वही
रहता है। तुम
बीमार होते हो,
तुम स्वस्थ
होते हो; लेकिन
द्रष्टा वही
रहता है।
तुम्हारे
भीतर की चेतना
सदा वही रहती
है, वही एक
स्थिर—तत्व है—एकमात्र
सत्य, क्योंकि
हिंदू सत्य की
व्याख्या इसी
तरह करते हैं
कि जो शाश्वत
है, सनातन
है। उनकी
परिभाषा है : 'जो शाश्वत
है वह सत्य है,
और जो
क्षणभंगुर है
वह झूठ है।’ क्योंकि एक
क्षण तो वह
होता है, अगले
क्षण वह जा
चुका होता है।
तो क्यों कहना
उसे सत्य? वह
सपना था। कोई
चीज जो एक
क्षण को
अर्थवान थी और
फिर अगले क्षण
अर्थहीन हो
जाती है, वह
सपना ही है।
हिंदू कहते
हैं : सारा
जीवन एक सपना
है, क्योंकि
जब तुम मरते
हो तो सारा
जीवन अर्थहीन हो
जाता है, जैसे
कि वह कभी था
ही नहीं।
धीरे—
धीरे सत्य और
असत्य के बीच
भेद करने से, उन्हें
साफ—साफ
पहचानने से और—
और प्रामाणिक
सजगता पैदा
होगी। ध्यान
रहे, यह
पहचान—सत्य और
असत्य के बीच
भेद करना—यह
एक विधि है और
ज्यादा सजगता
निर्मित करने
की। असली बात
यह जानना नहीं
है कि क्या
सत्य है और क्या
असत्य। असली
बात यह है कि
सत्य क्या है
और असत्य क्या
है, इसे
जानने की
कोशिश में तुम
अत्यंत सजग हो
जाओगे। यह एक
विधि है।
तो
इसमें उलझ मत
जाना; क्योंकि
लोग विधि में
ही उलझ जाते
हैं। सदा
ध्यान रहे कि
यह एक विधि है।
यह केवल एक
साधन है।
जितना ज्यादा
तुम गहराई में
उतरते हो और
इसके प्रति
सजग होते हो
कि क्या सत्य
है और क्या असत्य,
कि दोनों के
बीच क्या घटित
हो रहा है, तो
तुम्हारा बोध
और— और गहन हो
जाता है, जीवंत
हो जाता है।
तुम्हारी
दृष्टि और
गहरी हो जाती
है, जीवन
के रहस्य में
दूर तक
पहुंचती है।
यही है असली
बात।
योग की
दृष्टि में हर
चीज साधन है।
लक्ष्य है—तुम्हें
पूरी तरह
जाग्रत कर
देना, ताकि
अंधकार का एक
टुकड़ा भी
तुम्हारे
हृदय में न रह
जाए, एक
कोना भी
अंधेरा न रहे—सारा
घर प्रकाशित
हो उठे।
'सत्य
और असत्य के
बीच भेद करने
के सतत अभ्यास
द्वारा
अज्ञान का
विसर्जन होता
है।’
तो
असली बात है
अज्ञान का
विसर्जन।
भारत
में कुछ बहुत
ज्यादा
जहरीले सांप
पाए जाते हैं, कोबरा और
दूसरी कई
जातियों के।
जब कोबरा किसी
व्यक्ति को कांट
लेता है, तो
समस्या यह
होती है कि
यदि तुम उस
आदमी को छत्तीस
घंटे होश में
रख सको तो
शरीर स्वयं ही
विष को बाहर
फेंक देता है।
रक्त संचारित
होता है और
स्वयं को
विशुद्ध कर
लेता है; विष
शरीर से बाहर
फेंक दिया
जाता है।
लेकिन एक ही
शर्त है
छत्तीस घंटों
तक व्यक्ति को
सोना नहीं
चाहिए। एक बार
वह सो जाता है,
तो फिर बचना
असंभव हो जाता
है। तो जब
कोबरा किसी
आदमी को कांटता
है भारत के
जंगलों में या
आदिम जातियों
में जहां कि
कोई औषधि
उपलब्ध नहीं
होती, तो
सारा गांव
इकट्ठा हो
जाता है।
एक बार
मैं एक गांव
में था और ऐसा
हुआ और मैं देखता
रहा सारी घटना—छत्तीस
घंटे। सुंदर
थी बात, क्योंकि यही
है पूरी
प्रक्रिया
सजग होने की।
समस्या यह
होती है कि
विष व्यक्ति
को सुस्त बना
देता है। उसे
बहुत जोर की
नींद लगती है।
साधारण नींद नहीं
है यह—बहुत
गहन नींद
पकड़ती है। तो
उसे बैठने
नहीं दिया
जाता; लोगों
को उसे
सम्हालना
पड़ता है, पकड़े
रहना पड़ता है।
बैठे हुए या
खड़े हुए उसे
झटके देने
पड़ते हैं—और
चारों ओर ढोल
और बाजा और
गाना और नाचना
चलता है, और
चीखना और
चिल्लाना और
हुंकारना—ताकि
वह सो न सके।
जैसे ही उसकी आंखें
बंद होने लगती
हैं उसे झटका
देकर बार—बार
जगाना पड़ता है।
उसे पीटते भी
हैं।
बारह
घंटे बाद एक
घड़ी आती है कि
उसके लिए करीब—करीब
असंभव हो जाता
है जागे रहना :
तुम चीखते रहते
हो, वह
सुनता नहीं; उसका शरीर
बेजान हो जाता
है, तुम
उसे सम्हाल
नहीं पाते, खड़ा हो या
बैठा हो। तब
उसे जोर से
मारना—पीटना
पड़ता है; केवल
मारना—पीटना
ही उसे जगाए
रखता है। यदि
छत्तीस घंटे
पूरे हो जाते
हैं तो विष
बाहर फेंक
दिया जाता है
शरीर द्वारा
और व्यक्ति बच
जाता है। यदि
वह सो जाता है,
कुछ मिनटों
के लिए भी, तो
वह व्यक्ति
नहीं बचता।
योग का
सारा प्रयास
ऐसा ही है.
बहुत सी
विधियां
प्रयोग करनी
पड़ती हैं जागे
रहने के लिए।
और इसी कारण
गलतफहमियां
हो जाती हैं।
उदाहरण के लिए, उपवास:
उपवास एक विधि
है सजग रहने
की—शरीर से
इसका कोई लेना—देना
नहीं है।
क्योंकि जब भी
तुम उपवास में
होते हो, तो
तुम आसानी से
नहीं सो सकते।
सोने के लिए
शरीर को भोजन
की जरूरत होती
है। जब तुम
जरूरत से
ज्यादा खा
लेते हो, तो
तुम तुरंत सो
जाते हो। यदि
तुमने बहुत
ज्यादा खा
लिया होता है,
तो तुम
तुरंत ही
अनुभव करते हो
कि अब तुम चल—फिर
नहीं सकते, अब तुम कुछ
कर नहीं सकते।
होश खोने लगता
है। शरीर की
सारी ऊर्जा
पेट की ओर चली
जाती है, वह
सिर से हट
जाती है जहां
कि वह होश के
लिए जरूरी है,
क्योंकि
भोजन पचाना
होता है, और
वह पहली जरूरत
है—सबसे पहली
जरूरत है।
सारी शारीरिक
ऊर्जा पेट के
निकट
केंद्रित हो जाती
है और तुम्हें
नींद आने लगती
है।
उपवास
में, यदि
तुमने कभी
उपवास किया है
तो तुमने
अनुभव किया
होगा कि रात
तुम सो नहीं
सकते। तुम बार—बार
करवट बदलते हो।
कोई बात चूक
रही है। शरीर
की ऊर्जा पूरी
तरह मुक्त हो
जाती है—कुछ
पचाने के लिए
नहीं है।
मुक्त हो गई
ऊर्जा सारे
शरीर में
घूमती है। अब
वह पेट में ही
केंद्रित
नहीं रहती।
असल में वह
ऊर्जा उपलब्ध
होती है, इसलिए
तुम्हारा मन
चलता रहता है;
तुम सजग
रहते हो। नींद
कठिन हो जाती
है।
उपवास
एक ढंग है
सजगता
निर्मित करने
का। यदि तुम
लंबे समय तक
उपवास करते हो, तो तुम
सजगता की एक
निश्चित
गुणवत्ता पा लोगे
जिसे भोजन
लेते हुए पाना
कठिन है। वह
बिना उपवास के
भी मिल सकती
है, लेकिन
उसमें ज्यादा
समय लगेगा।
उपवास एक छोटा
और सुगम उपाय
है। लेकिन
कहीं भूल हो
गई। ऐसा सदा
ही होता है
सोए हुए लोगों
के साथ। तुम
उन्हें कोई
विधि देते हो :
वे उसे ही पकड़
कर बैठ जाते
हैं। वे भूल
जाते हैं
लक्ष्य को—विधि
ही लक्ष्य बन
जाती है, साधन
साध्य बन जाता
है। अब हजारों
जैन मुनि हैं
जो निरंतर
उपवास कर रहे
हैं—और कुछ
हाथ लगता नहीं।
मैं देश भर
में घूमता रहा
हूं तरह—तरह
के लोगों से
मिलता रहा हूं।
मैंने हजारों
जैन मुनियों
से पूछा है, 'आप उपवास
क्यों करते
हैं?'
वे
कहते हैं, 'क्योंकि
इससे शरीर की
शुद्धि होती
है।’
बिलकुल
बेकार की बात
है। होती होगी
शरीर की
शुद्धि, लेकिन सवाल
यह नहीं है।
कभी—कभी
स्वास्थ्य के
लिए अच्छा हो
सकता है उपवास—सदा
ही नहीं। यदि
तुम्हारे
शरीर में बहुत
ज्यादा चरबी
इकट्ठी हो गई
है, तो
उपवास सहायक
होगा उसका
शोधन करने में;
यह चरबी कम
करता है। यदि
तुमने वर्षों
तक बहुत
ज्यादा भोजन
किया है और
तुम्हारे
शरीर में बहुत
से विषैले
तत्व जमा हो
गए हैं, तो
उपवास मदद
देता है
उन्हें शोधित
करने में।
लेकिन यह बात
दूसरी है, धर्म
से इसका कुछ
लेना—देना
नहीं है। यह
प्राकृतिक
चिकित्सा है—धर्म
नहीं।
लेकिन
जैन मुनि को
शरीर—शुद्धि
करनी ही क्यों
पड़े? वह
बीमार नहीं है।
उसके शरीर में
कोई जहर नहीं
है। असल में
वह बिलकुल भूल
ही गया है
लक्ष्य को।
लक्ष्य तो था
सजगता का। अब
वह साधनों में
ही लगा है, साधनों
का ही प्रयोग
कर रहा है, लक्ष्य
को नहीं जान
रहा है। वह
केवल पीड़ित हो
रहा है। इसलिए
उपवास अब
उपवास नहीं है,
वह केवल
भूखा रहना है।
और ऐसा बहुत
बार हुआ है—करीब—करीब
सदा ही ऐसा
होता है—क्योंकि
साधन दिए जाते
हैं सोए हुए
लोगों को। वे
नहीं समझ सकते
लक्ष्य को, लक्ष्य बहुत
दूर है। वे
साधनों से
चिपके रहते
हैं।
तुमने
देखे होंगे
चित्र, या अगर
तुमने चित्र
नहीं देखे तो
तुम जा सकते हो
बनारस और देख
सकते हो काटो
की शय्या पर
लेटे हुए
लोगों को। यह
प्राचीनतम
ढंग था सजगता
निर्मित करने
का, बहुत
पुराना ढंग, सब से
प्राचीन। यह
सजगता बढ़ाने
के लिए है।
किसी बहादुरी
से इसका कुछ
भी संबंध नहीं
है। दूसरों पर
प्रभाव जमाने
से इसका कोई
संबंध नहीं है।
इस व्यक्ति को
बनारस की
सड्कों पर
नहीं होना चाहिए;
उसे छिप जाना
चाहिए घने
जंगलों में, जहां कोई
नहीं जाता, क्योंकि यह
कोई प्रदर्शन
की चीज नहीं
है। लेकिन अब
यह प्रदर्शन
की चीज हो गई
है।
और तुम
देखोगे लोगों
को काटो की
शय्या पर लेटे
हुए और तुम
सजगता की जरा
सी भी चमक
नहीं पाओगे उनकी
आंखों में या
चेहरे पर, बल्कि
तुम उन्हें
बहुत जड़, असंवेदनशील
पाओगे; बुद्धिहीन,
मूढ़ पाओगे।
चमत्कार है यह,
क्योंकि
विधि तो इसलिए
थी कि सजगता
निर्मित हो।
क्या हुआ? वे
बिलकुल भूल ही
गए कि यह
किसलिए है. यह
स्वयं में
लक्ष्य बन गई।
उन्होंने तो
एक तरकीब सीख
ली है। और यदि
तुम्हें इस
तरह की
तरकीबें
सीखनी हैं, तो तुम्हें
संवेदनहीन
होना ही पड़ता
है; केवल
तभी तुम कीलों
के या कीटों
के बिस्तर पर लेट
सकते हो। शरीर
को संवेदनहीन
होना चाहिए, ताकि वह
ज्यादा कुछ
महसूस ही न
करे। उसे जड़
होना चाहिए, ताकि काटे
या कीलें चुभे
नहीं।
तुम्हें एक
सघन जड़ता, एक
संवेदनहीनता निर्मित
कर लेनी होगी
अपने शरीर के
चारों ओर। और
लक्ष्य तो ठीक
इसके विपरीत
था. कि ज्यादा
संवेदनशील
होना है, कि
शरीर को उसकी
पूरी संवेदना
में अनुभव
करना है। यदि
तुम कीलों या
कांटो की
शय्या पर लेटो
तो तुम शरीर
का पोर—पोर
अनुभव करोगे।
सारा शरीर
पीड़ा में है।
और पीड़ा
तुम्हें झटका
देती है, और
पीड़ा तुम्हें
जगाती है, तुम्हें
सजग करती है।
तो
इसका अभ्यास
नहीं करना है।
यदि तुम इसका
अभ्यास करते
हो, तो
धीरे— धीरे
शरीर चालाकी
सीख जाता है।
तब शरीर बेजान
हो जाता है; शरीर मुर्दा
स्थान
निर्मित करने
लगता है, ताकि
शरीर में जहां
कहीं कील चुभे
एक मृत बिंदु
बन जाए। शरीर
को अपना बचाव
करना पड़ता है।
तो तुम कीलों
पर लेटे हुए
आदमी को पाओगे
एकदम बेहोश—तुम
से ज्यादा
बेहोश। यदि
तुम लेटो ऐसी
शय्या पर तो
तुम पीड़ा से
चीख पड़ोगे।
तुम ज्यादा
सजग हो; तुम
ज्यादा
संवेदनशील हो।
वह तो आराम से
लेट जाता है; वह तो सो भी
जाता है उस पर।
उसका शरीर
ज्यादा पत्थर
हो जाता है।
जो असली बात
है, सजगता,
वह उसने खो
दी है। अब ठीक
उलटी बात हो
गई है।
और ऐसा
ही होता है
धर्म की सारी
प्रक्रियाओं
के साथ. वे
क्रियाकांड
बन जाती हैं।
मेरा एक ऐसे
व्यक्ति से
मिलना हुआ जो
दस वर्ष से
खड़ा ही है। वह
सोता नहीं, वह बैठता
नहीं, वह
बस खड़ा है।
हठयोग की बहुत
पुरानी
विधियों में
से यह एक विधि
है चेतना
निर्मित करने
की। क्योंकि शरीर
सोना चाहेगा।
शरीर तो कहेगा,
'मैं सोना
चाहता हूं।’ कितनी देर
खड़े रह सकते
हो तुम? कुछ
घंटों बाद या
कुछ दिनों बाद,
तुम नींद का
जबरदस्त आवेग
अनुभव करोगे।
उस आवेग पर
काबू पाने के
लिए उसका
अतिक्रमण करने
के लिए और सजग
बने रहने के
लिए इस विधि
का उपयोग है।
तो
मुझे यह
व्यक्ति मिला।
बहुत
प्रसिद्ध है
वह, हजारों
लोग आते हैं
उसे नमस्कार
करने। लेकिन
वे नहीं जानते
कि वे क्या कर
रहे हैं और किसके
प्रति कर रहे
हैं। वह आदमी
पूरी तरह
संवेदनशून्य
हो चुका है।
इतनी देर खड़ा
रहा है वह कि
उसके पांव
करीब—करीब
मुर्दा हो
चुके हैं। वह
उन्हें मोड़
नहीं सकता। वे
ऐसे हो गए हैं
जैसे कि हाथी—पांव
के रोग में हो
जाते हैं।
पांव हाथी के
पांव जैसे
मोटे हो जाते
हैं। उसके
सारे शरीर का
वजन पांवों
में चला गया
है। वह एक
दुबला—पतला
आदमी है। ऊपर
का हिस्सा
पतला हो गया
है और नीचे का
हिस्सा बहुत
मोटा और भारी
हो गया है। वह
विकृत हो गया
है। उसका
चेहरा कुरूप
हो गया है।
तुम
देख सकते हो
कि भला उसने
स्वयं को खूब
सताया हों—लेकिन
वह सजग नहीं
हुआ है; बल्कि पीड़ा
के प्रति
संवेदनशून्य
हो गया है, अभ्यस्त
हो गया है, प्रभावशून्य
हो गया है। अब
पीड़ा उसे
उद्विग्न
नहीं करती।
इसके द्वारा
होश पाने की
बजाए उसने होश
खो दिया है।
तो
ध्यान रहे, ये सब विधियां
हैं. दृश्य और
द्रष्टा के
बीच भेद करना;
सत्य और
असत्य के बीच
भेद करना—ये
सब केवल
विधियां हैं।
लक्ष्य है
सजगता।
'सत्य
और असत्य के
बीच भेद करने
के सतत अभ्यास
द्वारा
अज्ञान का
विसर्जन होता
है।’
संबोधि
की परम अवस्था
उपलब्ध होती
है सात चरणों
में।
पतंजलि
क्रमिक विकास
में विश्वास
करते हैं। वे
कहते हैं, लक्ष्य
तक सात चरणों
में पहुंचा
जाता है। मैं
कहता हूं कि
एक चरण में
पहुंचा जाता
है, लेकिन
पतंजलि उसी एक
चरण को सात
हिस्सों में बांट
देते हैं ताकि
तुम्हारे लिए
आसानी हो जाए,
और कुछ भी
नहीं। तुम एक
छलांग में पार
कर सकते हो छह
फीट, सात
फीट, या
तुम उसी
अंतराल को सात
चरणों में पार
कर सकते हो।
पतंजलि
छलांग में
विश्वास नहीं
करते, क्योंकि
वे जानते हैं
कि तुम कमजोर
हो; तुम
छलांग लगा
नहीं पाओगे। तुम्हें
राजी किया जा
सकता है—असल
में फुसलाया
जा सकता है—धीरे
— धीरे छोटे
कदम उठाने के
लिए। तुम छोटे
चरण उठा सकते
हो, क्योंकि
छोटे चरणों के
साथ तुम
आश्वस्त हो सकते
हो कि कोई
खतरा नहीं है।
छलांग खतरनाक
होती है, क्योंकि
तुम नहीं
जानते कि कहां
पहुंचोगे तुम।
एक छोटा कदम
तुम देख सकते
हो आस—पास और
सुरक्षित
अनुभव कर सकते
हो धीरे — धीरे
तुम कदम बढ़ा
सकते हो; और
तुम आश्वस्त
हो कि यदि कुछ
गड़बड़ हो जाती
है तो तुम सदा
पीछे लौट सकते
हो, यह
केवल छोटे से
अंतराल की ही
बात है। लेकिन
छलांग वापस
पीछे नहीं लगा
सकते—यदि कुछ
गड़बड़ हो जाए
तो। छलांग एक
आमूल
परिवर्तन है,
आत्यंतिक
बदलाहट है।
पतंजलि जब भी
कुछ कहते हैं
तो सदा
तुम्हारा खयाल
रखते हैं। अब—तत्क्षण—सजगता
उपलब्ध करने
का ढंग समझाने
के तुरंत बाद
ही वे कहते
हैं, 'संबोधि
की परम अवस्था
उपलब्ध होती
है सात चरणों
में।’ इसलिए
चिंतित मत
होना, भयभीत
मत होना तुम
धीरे — धीरे बढ़
सकते हो!
ये सात
चरण क्या हैं? यह अंक 'सात' बहुत
महत्वपूर्ण
है। यह सब से
ज्यादा
महत्वपूर्ण
अंक जान पड़ता
है। बहुत
मार्गों से और
बहुत ढंगों से
यह अंक बार—बार
सामने आ जाता
है। यदि तुम
गुरजिएफ से
पूछो, वह
कहता है कि
सात प्रकार के
व्यक्ति होते
हैं। वे सात
प्रकार सात
चरण हैं। यदि
तुम
रहस्यवादी
कब्बाला से या
मिस्र के
प्राचीन गढ
अध्यात्मवादियों
से पूछो, वे
कहते हैं कि
व्यक्ति के
सात शरीर होते
हैं—शरीरों की
सात परतें
होती हैं।
शरीर की वे
सात परतें सात
चरण बन जाती
हैं। यदि तुम
योगियों से
पूछो, वे
कहते हैं, व्यक्ति
में सात
केंद्र होते हैं।
वे सात केंद्र
सात चरण बन
जाते हैं। कुछ
भी हो, सात
बहुत
महत्वपूर्ण
अंक मालूम
पड़ता है। और
तुम्हारा
सामना बार—बार
इस सात के अंक
से होगा, लेकिन
आधारभूत अर्थ
वही है।
दो
संभावनाएं
हैं : एक, तुम छलांग
लगा देते हो, एक अचानक
छलांग, जैसा
कि झेन गुरु
चाहते हैं कि
तुम लगाओ—जैसी
कि मैं सदा
आशा रखता हूं
कि तुम लगा
पाओगे। छलांग
में वे सातों
चरण पूरे हो
जाते हैं एक ही
चरण में, लेकिन
बहुत साहस की
आवश्यकता
होती है—न
केवल साहस की
वरन दुस्साहस
की आवश्यकता
होती है—क्योंकि
तुम अज्ञात
में उतर रहे
होते हो। भेद
बड़ा है
तुम्हारे और
उस घाटी के
बीच जहां कि
तुम छलांग के
बाद पहुंचोगे।
तुम उसकी
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
यह है ज्ञात
से अज्ञात में
छलांग। यह कोई
क्रमिक विकास
नहीं है, एक
विस्फोट है।
दूसरी
संभावना है इस
अंतराल को सात
में बांटने की—ताकि
तुम धीरे —
धीरे बढ सको, ताकि
तुम्हारा
चालाक मन, होशियार
मन संतुष्ट हो
सके। लोग मेरे
पास आते हैं
और मैं उनसे
पूछता हूं 'क्या तुम
बिना कुछ सोचे
—विचारे
संन्यास लेना
चाहोगे, या
कि तुम इस पर
सोच—विचार
करना चाहोगे?'
बहुत कम ऐसा
होता है कि
कोई कहता है, 'मैं सोच—विचार
से बिलकुल थक
गया हूं।’
मनीषा
ने कहा था ऐसा
जब वह आई थी।
पहले दिन जब
वह आई मेरे
पास तो मैंने
पूछा, 'क्या
तुम सोच—विचार
कर संन्यास
लेना चाहोगी?
क्या तुम
पहले इसके
बारे में
सोचना चाहोगी,
पक्का करना
चाहोगी? या
कि बिलकुल अभी
तैयार हो तुम?'
उसने कहा, 'मैं बिलकुल
थक गई हूं सोच—विचार
से।’
तो कभी—कभार
ऐसा होता है
कि कोई कहता
है कि एकदम थक
गया हूं सोच—विचार
से। करीब—करीब
सभी के साथ
ऐसा होता है
कि वे कहते
हैं, 'हम
सोचेंगे।’ और
वे अवसर चूक
जाते हैं, क्योंकि
यदि तुम सोच—विचार
करते हो, तो
तुम पुराने ही
बने रहते हो।
यदि 'तुम' इस बारे में
निर्णय लेते
हो, तो यह
बात छलांग न
रही। यदि
तुम्हारी
बुद्धि पहले
सुरक्षा
अनुभव करती है,
पूरी
सुरक्षा का
इंतजाम करती
है, हर चीज
समझने की
कोशिश करती है—तो
यह तुम्हारे
पुराने
व्यक्तित्व
का ही सुधरा
हुआ रूप है।
तब तुम्हारा
अतीत इसमें
सम्मिलित है।
और संन्यास का
अर्थ होता है
अतीत को पूरी
तरह गिरा देना,
वह
तुम्हारे
अतीत का
संशोधित रूप
नहीं है। वह
एक समग्र क्रांति
है; वह एक
आमूल
रूपांतरण है।
तो जो
कहते हैं, 'हम
सोचेंगे,' वे
कुछ चूक जाते
हैं। वे फिर
आते हैं। पहले
वे सोचते हैं
इस विषय में
कुछ दिन, फिर
वे आते हैं, फिर वे
संन्यास लेते
हैं। लेकिन
संभावना बहुत
थी, बहुत
कुछ उपलब्ध था।
वे उसे चूक
जाते हैं। यदि
तुम छलांग लगा
सकते हो, तो
लगा दो छलांग।
यदि तुम धीरे—
धीरे बढ़ना
चाहते हो तो
तुम धीरे —
धीरे बढ़ सकते
हो, लेकिन
तुम कुछ चूक
जाओगे।
यह
मैंने देखा है।
जिन लोगों में
आकस्मिक
बुद्धत्व का
साहस है, वे जिस शिखर
को उपलब्ध
होते हैं, उसे
क्रमिक रूप से
विकसित होने
वाले कभी अनुभव
नहीं कर पाते।
वे भी पहुंच
जाते हैं उस
शिखर तक, लेकिन
वे इतने चरण—दर—चरण
पहुंचते हैं,
वे सारे
अंतराल को
बांट देते हैं
बहुत से हिस्सों
में, कि वह
बात कभी आनंद—उत्सव
नहीं बनती। वे
भी पहुंचते
हैं उसी शिखर
तक...।
तुम
देखो। मीरा
नाचती है।
चैतन्य
दीवाने हैं और
नाचते हैं और
गाते हैं। और
योगी? नहीं,
वे कभी
नाचते नहीं, वे कभी गाते
नहीं, क्योंकि
वे इतने
क्रमिक रूप
में पहुंचते
हैं कि वह बात
कभी बहुत आनंद
का अनुभव नहीं
बनती, बिलकुल
नहीं। वे इतने
क्रमिक रूप से
पहुंचते हैं!
वे आनंद को
उपलब्ध होते
हैं हिस्सों
में। वे इसे
मात्राओं में
पाते हैं—छोटी
खुराकें, होम्योपैथी
की खुराकें—कि
दूसरी खुराक
मिलने के पहले
ही पहली खुराक
आत्मसात हो
जाती है। वे
पचा गए होते हैं
उसे। फिर
मिलती है
दूसरी खुराक—उसे
भी तीसरी के
पहले ही पचा
लिया जाता है।
वे नृत्य नहीं
कर सकते। तुम
योगी को नृत्य
करते हुए नहीं
पा सकते। वह
चूक गया है
कुछ। वह पहुंच
तो गया है उसी
शिखर तक, लेकिन
मार्ग में कुछ
खो गया है।
मैं तो
सदा छलांग के
ही पक्ष में
हूं। क्योंकि
जब तुम्हें
पहुंचना ही है, तो क्यों
न नृत्य करते
हुए पहुंचो? तब तुम्हें
पहुंचना ही है,
तो क्यों न
प्राणों में
आनंद लिए
पहुंचो? योगी
दुकानदार
मालूम पड़ते
हैं—गणित
बिठाते, हिसाबी—किताबी—प्रेमियों
की भाति पागल
नहीं। लेकिन
रास्ते दोनों
खुले हैं। और
चुनाव तुम पर
निर्भर करता
है।
यह ऐसा
है जैसे
तुम्हारी
लाटरी लग जाए—दस
लाख रुपए की।
और फिर
तुम्हें एक
रुपया दिया
जाए, फिर
और एक रुपया, फिर और एक
रुपया; धीरे—
धीरे तुम सब
पा जाते हो, लेकिन
तुम्हें एक
साथ दस लाख
रुपए कभी नहीं
दिए जाते और
तुम्हें कभी
पता नहीं लगने
दिया जाता कि
तुम्हें दस
लाख रुपए
मिलेंगे।
तुम्हें
मिलेंगे दस
लाख रुपए, लेकिन
युग बीत
जाएंगे—और तुम
सदा भिखारी ही
रहोगे : जेब
में वही एक रुपया!
तुम जब तक उस
एक रुपए का
उपयोग न कर लो,
उसके पहले
दूसरा न दिया
जाएगा; जब
तुम उसका
उपयोग कर लो
तब तीसरा दिया
जाएगा।
अचानक
बुद्धत्व का
अपना एक
सौंदर्य होता
है, एक
असीम सौंदर्य
होता है—कि
अचानक
तुम्हें दे
दिए गए दस लाख
रुपए। तुम
नृत्य कर सकते
हो। लेकिन यदि
तुम्हारा
हृदय कमजोर है
तो बेहतर है
धीरे— धीरे
बढ़ना।
मैंने
सुना है, ऐसा हुआ : एक
आदमी हमेशा ही
लाटरी की
टिकटें खरीदता
था और जैसा कि
होता है उसे
कभी कोई इनाम नहीं
मिला। वर्षों
गुजर गए लेकिन
यह बात एक
यांत्रिक आदत
बन गई थी। हर
महीने वह अपनी
तनख्वाह में
से कुछ टिकटें
खरीद लेता था।
लेकिन एक दिन
घटना घट गई।
वह आफिस में
था और पत्नी
को खबर मिली
कि उसकी मनोकामना
पूरी हो गई है—दस
लाख रुपए। वह
डर गई, क्योंकि
वह गरीब आदमी
था, कुल सौ
रुपए महीना
तनख्वाह
मिलती थी। दस
लाख रुपए तो
बहुत बड़ी बात
हो जाएगी।
इतनी बड़ी बात
हो जाएगी कि
कहीं वह मर ही
न जाए!
तो
करें क्या? वह अपने
एक पड़ोसी के यहां
दौड़ी गई जो कि
चर्च में
पादरी था। वह
एक समझदार व्यक्ति
था, और कोई
ज्यादा
समझदार
व्यक्ति उसके
ध्यान में आया
नहीं, तो
वह उसके पास
गर्द और उसने
पादरी से कहा,
'आपको ही
करना होगा कुछ।
वे आफिस से
आते ही होंगे,
और अगर
इतने
अचानक उन्हें
पता चला दस
लाख रुपयों का, तो यह
निश्चित है कि
वे बचेंगे
नहीं। मैं
उन्हें अच्छी
तरह से जानती
हूं। वे बहुत
कंजूस हैं और
उन्होंने सौ
रुपए से ज्यादा
कभी देखे भी
नहीं हैं। वे
पागल हो
जाएंगे या मर
जाएंगे, लेकिन
कुछ न कुछ
होकर रहेगा।
आप आएं और
उन्हें बचा
लें।’
उस
समझदार
व्यक्ति ने
कहा, 'मैं
आ जाऊंगा।
भयभीत मत होओ;
मैं आता हूं।’
उसने
योजना बनाई, जैसे कि
सभी हिसाबी—किताबी
लोग योजना
बनाते हैं। वह
आदमी घर आया
तो वह पादरी
वहा बैठा हुआ
था। उसने कहा,
'सुनो, तुम्हारी
लाटरी लग गई
है। तुमने एक
लाख की लाटरी
जीत ली है।’
उसने
सोचा था कि यह
एक छोटी
मात्रा होगी—उसने
कुल राशि को
दस हिस्सों
में बांट दिया
था। धीरे—
धीरे वह कहेगा
कि नहीं, एक लाख की
नहीं, दो
लाख की। जब वह
देखेगा कि
उसने झटका सह
लिया है, तो
वह कहेगा, तीन
लाख की।
लेकिन
उस आदमी ने
कहा, 'एक
लाख रुपए!
क्या यह सच है?
यदि यह सच
है, तो मैं
आधा तुम्हारे
चर्च के लिए
तुम्हें दे दूंगा।’
वह
पादरी गिर पड़ा
और मर गया।
पचास हजार
रुपए! वह
भरोसा न कर
सका इस बात पर।
बहुत बड़ी थी
बात।
तो
तुम्हें
चुनना है; चुनाव
तुम्हारा है।
यदि तुम अनुभव
करते हो कि
हृदय मजबूत है,
तो आ जाओ
मेरे साथ। यदि
तुम अनुभव
करते हो कि
हृदय कमजोर है
और संभावना है
हृदय—गति
रुकने की, तो
पतंजलि के साथ
आगे बढना। वे
गणित से चलते
हैं।
वे
तुम्हें छोटी
खुराकें देते
हैं। लेकिन
ध्यान रहे, कुछ चूक
जाओगे तुम।
तुम पहुंच
जाओगे उसी
अवस्था तक, अस्तित्व की,
चैतन्य की
उसी अवस्था तक—शांत,
आनंदित।
लेकिन उत्सव न
होगा। तुम बैठ
जाओगे बोधि—वृक्ष
के नीचे—शांत,
मौन; लेकिन
तुम मीरा की
भांति या
चैतन्य की
भांति नृत्य न
कर पाओगे। और
वह नृत्य
अदभुत है। वह
नृत्य घटित
होता है अचानक
उपलब्ध होने
वालों को।
आज
इतना ही।
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