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बुधवार, 10 दिसंबर 2014

जूगाड—(पूस्‍तको का) गीता दर्शन--04

गीता दर्शन-भाग-04
जूगाड....जूगाड...जूगाड....





मित्रो जीवन इतना सरल और सीधा नहीं होता है,  जितना दिखाई देता है। इस तरह जीवन में ध्‍यान है। परंतु आदमी चलता रहे तो मार्ग में आने वाली कोई भी रूकावट उसे एक कदम और उंचाई पर ले जाती है। हां कोई डर कर या घबरा कर रूक जाये जो उसका दूर्भाग्‍य, लेकिन जिस मार्ग पर गुरु का संग साथ हो वहां तो जेठ की तपिस भी मधुमास की उसास ह्रदय में भर जाती है। और थकान और परेशानी तो न जाने कहां कफूर हो जाती है।
ठीक इस तरह से ओशो सत्‍संग लिखते हुए कुछ छोटी मोटी मुसिबते जब भी मार्ग में मिली तो मैंने हंस कर उन्‍हें स्‍वीकारा। और आप सच मानों उसके बाद चेतना में जो नया स्‍त्रोत परस्‍फूटित होता है। वो काम की चाल ही बदल जाता है। गीता—दर्शन और पतंजलि :योगसूत्र लिखते हुए कुछ इसी तरह रूकावट आई। जिसके कारण आप तक प्रवचन पहूंचने में विलम्‍भ हुआ। इसका मुझे खेद तो है परंतु में खुद इसमें कारण नहीं हूं। कारण है तो वह दीमक मां, जो खुद ज्ञानी बनने की जल्‍दी में मुझसे पहले ही इन किताबों को चट कर गई। अब दीमक तो दीमक है। वह कहां से ज्ञान को इक्‍कठा करे उसकी मर्जी वह पहले पृष्‍ठ से तो पढ़ेगी नहीं बीच—बीच में ही कहीं कहीं से पढ़ेगी
और ऐसे पढ़ने वालों को हम पढ़ने वाला नहीं कहते चाटने वाला कहते है। अब बहन जी ने तो अपना कार्य कर दिया। बारी हमारी थी। हम भी कोई कम न थे। लगाया जुगाड़,अब भला एक दो प्रवचनों के लिए कोई पूरी किताब तो खरीद नहीं सकता था।
सो जो प्रवचन बहनजी ने चाटे थे, उन्‍हें एम पी3 से सून—सून कर पूरा किया गया। काम तो कठिन था। परंतु कठिन के साथ एक नये पन का एहसास भी हो रहा था। क्‍योंकि शायद हम भूल जाते है कि ओशो के सभी प्रवचन, बोले गये है। और इसी तरह से सन्‍यासियों ने सून कर लिखा गया है....ये जो 650 पूस्‍तकें है ये सब इसी तरह से रची गई है। लेकिन संन्‍यासी के लिए तो यह एक खेल था, ध्‍यान था वह कोई काम नहीं था। इस लिए न तो इसमें थाकवट होती है। और न ही ऊब। अब दीमक मां जी की बजह से में भी उस कार्य में अंजाने तारे पर भागीदार हुआ। तो इस बात का उसे शुक्रियां देने का हक तो पड़ता ही है। की उसने मुझे दोबारा इस नये आयाम में कूदने काम मोका दिया।
परंतु सच यह अनुभव अति सुंदर था। इसे बार—बार लेने को मन करता है। हालाकि काम की गति कुछ कम हो जाती है। परंतु कोन परवाह करता हे समय कि। अरे जीवन में कितना समय है....कम या ज्‍यादा....वह ओशो का ही तो है। फिर उसकी क्‍या गिनती करनी।
धन्‍य है दीमक मां, तू मुझे दे गई एक नया आयाम।
और में डूब सका उन कुंवारे शब्‍दों में ,
जो मैं छू भी सकता था और देख भी सकता था।
वो निर्जीव नहीं थी। वहां थी निशब्‍द की सुगंध।
चाहे थी पल भर की,
छूकर मुझको कर मतवाला।
पी गया मद को पीने वाला।
स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा

1 टिप्पणी:

  1. आह्ह.. दीमक माँ ओशो को सिर्फ चाट ही नहीं गई बल्कि पूरी तरह से पी गई और जिस जगह से फटे हुए पन्ने हैं वहाँ दीमक माँ का अमृत बूंद की वर्षा हुई हैं 🤣😃🤣

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