दिनांक
29 जून 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
एक
आदमी था, जो जानवरों
की भाषा समझता
था।
वह
एक दिन किसी
रास्ते से जा
रहा था।
वहां
एक गधा और एक
कुत्ता आपस
में बड़े
जोर-जोर से झगड़
रहे थे।
कुत्ता
कह रहा था, 'बंद करो ये
घास और
चारागाह की
बातें!
कुछ
खरगोश या
हड्डियों के
संबंध में
कहो। मैं तो उकता गया
हूं।'
उस
आदमी से न रहा
गया और वह
बोला,
'सूखी
घास का उपयोग
भी तो किया जा
सकता है; जो
गोश्त जैसा ही
होगा।'
वे
दोनों जानवर
उसकी ओर मुड़े; उसके शब्द न
सुनाई पड़े
इसलिये
कुत्ता पूरी
ताकत से
भोंकने लगा, और गधे ने
जोर से लात
मारकर
उस
आदमी को बेहोश
कर दिया। और
फिर वे अपने
झगड़े में उलझ
गये।
भगवान!
मजनू कलंदर की
इस बेबूझ
कहानी का अर्थ
क्या है?
मजनू
कलंदर ने जीवन
के बहुत
अनुभवों के
बाद इस कहानी
को लिखा होगा।
कहानी की
एक-एक पर्त को
उघाड़ना जरूरी
है।
पहली
बात: संसार
हमारे लिए
उतना ही है
जितनी हमारी
वासना है, जैसी हमारी
वासना है। हम
पूरे संसार को
नहीं देख पाते
क्योंकि
हमारी आंख पर
हमारी वासना
का चश्मा है।
वही हमारी
सीमा है।
लोग
कहते हैं, संसार सीमित
है और
परमात्मा
असीम है; लेकिन
परमात्मा
क्या इस सीमित
संसार के बाहर
है? वह
यहीं छिपा है,
यहीं
तुम्हारे
पड़ोस में बैठा
है। फिर संसार
सीमित कैसे
होगा, जब
असीम ने उसे
निर्मित किया?
और जब असीम
उसमें छाया है,
छिपा है तो
संसार भी
सीमित नहीं हो
सकता। सीमित
दिखाई पड़ता है
क्योंकि
हमारी वासना
पूरे को नहीं
देखती। हमारी
वासना उतने को
ही देखती है, जितने से
हमारी वासना
का संबंध है।
गधे को संसार
घास से ज्यादा
नहीं। कुत्ते
को संसार हड्डी
और मांस में
है। तुम अपनी
वासना से पूछो
तो तुम्हें
पता चल जायेगा, तुम्हारा
संसार कितना
बड़ा है।
मजनू
कलंदर ने इस
तरह की बहुत
सी कहानियां
कहीं हैं। यह
आदमी अनूठा
था। उसने लिखा
है कि एक दिन
मैंने सुना कि
एक बिल्ली और
कुत्ते में
विवाद हो रहा
था। और कुत्ता
कह रहा था, कि रात
मैंने ऐसा
अदभुत सपना
देखा, जैसा
कि कहानियों
में भी खोजना
मुश्किल है। बड़ा
अनूठा सपना
था। वर्षा हो
रही है, लेकिन
वर्षा पानी की
नहीं हो रही
है, हड्डियां
बरस रही हैं, मांस के
टुकड़े बरस रहे
हैं। ऐसा गजब
का सपना था।
बिल्ली
ने कहा, छोड़ो बकवास!
शास्त्रों से
मेरा परिचय
है। इतिहास की
मैं जानकार
हूं। यह तो
हमने सुना है
कि कभी-कभी वर्षा
में चूहे बरसते
हैं, लेकिन
हड्डी और मांस
कभी बरसते
न सुना है, न
देखा है।
बिल्ली
जिस संसार को
देखती है, वहां वह
चूहे की तलाश
कर रही है; वही
उसका सपना है।
बिल्ली और
कुत्तों के
सपने एक नहीं
हो सकते
क्योंकि उनकी
वासनायें अलग
हैं। और
बिल्ली का
संसार चूहे पर
समाप्त हो
जाता है; चूहा
उसकी सीमा है।
तुम्हारा
संसार भी
तुम्हारी
वासना पर
समाप्त हो
जाता है।
इसलिये
बुद्धों ने
कहा है, जब
तक तुम्हारी
सब वासनाएं न
गिर जायें, तब तक तुम
सत्य को न देख
सकोगे। तब तक
तुम सत्य को
उतना ही देखोगे,
जितना
तुम्हारी
वासना के लिये
जरूरी है। वह
अधूरा होगा।
और अधूरे सत्य
असत्य से भी
ज्यादा खतरनाक होते
हैं। अधूरे
सत्य मालूम तो
होते हैं सत्य
हैं, लेकिन
चूंकि वे
अधूरे होते
हैं, और
अधूरों को हमारा
मन पूरा मान
लेता है; वहीं
भ्रांति हो
जाती है।
संसार
परमात्मा से
अलग नहीं है, संसार
परमात्मा का
उतना हिस्सा
है, जितना
तुम्हारी
वासना देखती
है। इसलिये
कुत्ते का
संसार अलग है,
बिल्ली का
संसार अलग है,
तुम्हारा
संसार अलग है।
एक पुरुष का
संसार अलग है,
एक स्त्री
का संसार अलग
है क्योंकि
उनकी दोनों की
वासनायें बड़ी
भिन्न हैं। जो
पुरुष को
दिखाई पड़ता है,
वह स्त्री
को दिखाई नहीं
पड़ता। जो
स्त्री को दिखाई
पड़ता है, वह
पुरुष को
दिखाई नहीं
पड़ता।
एक
स्त्री का गला
खराब था, खांसी-सर्दी-जुकाम
था और दोत्तीन
दिन से वह
निरंतर खांस
रही थी। पति
रात सो भी
नहीं सकता था।
सुबह उसने कहा,
अब तुम
चिंता न करो, आज तुम्हारे
गले के लिए
कुछ ले ही आऊंगा।
उसने कहा कि
जरूर ले आना।
वही जड़ाऊं
हार, जो
देखा था दुकान
पर।
संसार
अलग है। गले
के लिये दवा
पति ले आयेगा, यह तो खयाल
ही पत्नी को
नहीं आया। आया
खयाल, हार--जड़ाऊ हार
जो बहुत दिन
पहले देखा था।
और हो सकता है
उसी जड़ाऊ
हार की वजह से
रातभर खांसना
पड़ रहा हो। और
यह भी हो सकता
है, जड़ाऊ हार दवा से
ज्यादा
उपयोगी सिद्ध
हो। शायद दवा
हार भी जाये
खांसी मिटाने
में, लेकिन
जड़ाऊ हार
खांसी को मिटा
देगा।
हम वही
देखते हैं, जो हम चाहते
हैं। चाह
हमारे देखने
का द्वार है।
चाह से देखा
गया सत्य
संसार है।
अ-चाह से देखा
गया संसार
सत्य है।
इसलिये जब तक
चाह न गिर जाये
तब तक तुम वह न
देख सकोगे जो
है: 'दैट
विच इज़'। तब तक तुम
वही देखते
रहोगे, जो
तुम चाहते हो।
इसलिये
इस दुनिया में
एक संसार नहीं
है, यहां
जितनी
वासनायें हैं,
उतने ही
संसार हैं। और
हर व्यक्ति
अपने ही वासना
के संसार में
जीता है। तुम
उसी से दबे, उसी से घिरे;
जैसे कंबल
लपेटा हो
तुम्हारे
चारों तरफ, वैसे
तुम्हारी
वासनायें
तुम्हारे
चारों तरफ
लपटी हैं, वही
तुम्हारा
संसार है।
यह कहानी
कलंदर की बड़ी
अर्थपूर्ण
है। यह कह रही
है कि गधे की
अपनी दुनिया
है, कुत्ते
की अपनी
दुनिया है। और
जब भी दो दुनियाओं
का मिलन होगा
तो विवाद
होगा। विवाद
इसलिये नहीं
कि एक को सत्य
का पता चल गया
है, विवाद
इसलिये है कि
दोनों की चाह
भिन्न हैं, दोनों के
देखने के ढंग
भिन्न हैं।
दुनिया
में जितने
विवाद हैं, वह कोई सत्य
की उपलब्धि के
कारण नहीं हैं,
वह चाहों की
भिन्नता के
कारण हैं।
दूसरी
बात यह समझ
लेनी जरूरी है
कि जिसने सत्य
पा लिया उसका
विवाद समाप्त
हो गया।
महावीर
से कोई जाकर
कहता है कि
ईश्वर है? तो महावीर
कहते हैं 'स्यात्।'
कोई कहता है
ईश्वर नहीं है,
तो भी
महावीर कहते
हैं, 'स्यात्।' न तो
महावीर 'हां'
कहते हैं, न 'ना' क्योंकि
महावीर देख
रहे हैं कि
सत्य इतना बड़ा
है कि सभी की आकांक्षाएं
उसमें समा
जाती हैं।
वह जो
आदमी कह रहा
है, ईश्वर है,
यह भी
आकांक्षा है।
इसे हम समझें।
वह जो आदमी कह
रहा है कि
ईश्वर नहीं है,
यह भी
आकांक्षा है।
कुछ आकांक्षायें
हैं, जो कि
ईश्वर के होने
से पूरी नहीं
हो सकतीं। कुछ
आकांक्षायें
हैं जो ईश्वर
हो तो ही पूरी
हो सकती हैं।
तुम्हारा
ईश्वर भी
तुम्हारी
आकांक्षाओं
का उपकरण है; तुम्हारी
वासनाओं का
दास है।
जब तुम
प्रार्थना
करते हो
मंदिरों-मस्जिदों
में तो तुम
क्या कह रहे
हो? तुम
परमात्मा से
कह रहे हो, कि
मेरी सेवा में
संलग्न हो
जाओ। यह मैं
चाहता हूं, यह मुझे
मिलना चाहिए।
तुम्हारी प्रार्थनायें
तुम्हारी
मांग हैं।
तुम्हारी प्रार्थनायें
तुम्हारी
वासनायें
हैं। और
प्रार्थना
वासना कैसे हो
सकती है? वासना
प्रार्थना
कैसे बनेगी? इसलिये
मंदिरों में
तुम कभी नहीं
जाते, तुम
दुकानों में
ही जाते हो।
कुछ दुकानों
का नाम तुमने
मंदिर रख छोड़ा
है, यह बात
अलग। जो
तुम्हें
बाजार में
नहीं मिल सकता,
उसे तुम
खरीदने मंदिर
में जाते हो। जिसके
लिये तुम
संसार में हार
गये, थक
गये, उसके
लिये तुम
मंदिर में
तलाश करने
लगते हो।
मेरे
पास अनेक लोग
आते हैं; उनकी
अनेक आकांक्षायें
हैं। उनकी आकांक्षायें
देखकर मैं
हैरान होता
हूं। एक आदमी
आया और उसने
कहा कि मेरी
एक प्रार्थना
मैंने की है, अगर तीन
सप्ताह के
भीतर पूरी हो
गई तो मैं मान
लूंगा कि
ईश्वर है; और
अगर नहीं पूरी
हुई तो सब
बकवास है।
उसके बेटे को
नौकरी मिल
जाये, तीन
सप्ताह के
भीतर। तो उसने
तय किया है कि
मंदिर में एक
नारियल चढ़ायेगा,
प्रसाद बांटेगा।
परमात्मा भी
सिद्ध होगा
तुम्हारी
वासना के पूरे
होने से! तो
कुछ लोग हैं, जो परमात्मा
का सहारा ले
रहे हैं वासना
पूरा करने के
लिये और कुछ
लोग हैं, सोचते
हैं अगर
परमात्मा है
तो वासना पूरा
करना बहुत
मुश्किल
पड़ेगा।
इसलिये वे
इनकार करते हैं
कि परमात्मा
है ही नहीं।
हिटलर
जैसा व्यक्ति
कैसे स्वीकार
करे कि परमात्मा
है? क्योंकि
हिटलर जो
आकांक्षा
पूरी करना
चाहता है, वह
परमात्मा के
होने से पूरी
न हो सकेगी।
इसलिये हिटलर
को स्वीकार ही
करना चाहिए कि
कोई परमात्मा
नहीं है, कोई
आत्मा नहीं
है। एक दफा यह
बात साफ हो
जाये कि न कोई
परमात्मा है,
न कोई आत्मा
है, तो
हिटलर फिर
लाखों लोगों की
हत्या आसानी
से कर सकता
है। अगर
परमात्मा है,
आत्मा है, तो एक चींटी
को भी मारना
मुश्किल है।
क्योंकि तब
चींटी की पीड़ा
भी अर्थ रखती
है और आखिरी
हिसाब में वह
भी जुड़
जायेगा।
हिटलर
मौज से काट
सका लोगों को।
कोई लाखों यहूदी
हिटलर ने
काटे। चिंता
की रेखा भी न
आई। रात नींद
में दखल भी न
पड़ी। इतनी
चीखें-पुकारें
जगत में कभी
किसी एक आदमी
ने इसके पहले
पैदा नहीं की
थीं। और इतना
सुनियोजित
हत्या का आयोजन
भी किसी ने
कभी नहीं किया
था। बड़ी-बड़ी भट्टियां
बनाईं बिजली
की। जिनमें
एक-एक भट्टी
में दस हजार
लोग एक साथ
जलकर राख हो
जायें--एक
सेकेंड में!
ऐसा कभी भी न
हुआ था। चंगीज
को भी मारना
पड़े तो एक-एक
आदमी को मारने
में काफी वक्त
लगता था।
हिटलर ने भट्टियां
बनाईं। सीधे
लोग प्रवेश कर
जायें, बटन
दबाई कि राख
हो गये। ये भट्टियां
चौबीस घंटे
काम करती थीं।
चौबीस घंटे
हजारों की
संख्या में
लोग भीतर जाते
और तिरोहित हो
जाते। लेकिन
यह हिटलर कर
सका क्योंकि
आत्मा और
ईश्वर नहीं
है।
नीत्से
ने हिटलर के
पहले कहा था
कि 'गॉड इज़
डेड;' 'ईश्वर
मर चुका है।' इसको हिटलर
ने अपना सूत्र
बना लिया।
नीत्से उसका
गुरु हो गया।
इस धारणा के
आधार पर सारी
दुनिया को
मिटाने में फिर
कोई हर्ज नहीं
है, क्योंकि
मिट्टी ही
गिरती है। कोई
भीतर चेतना होती
तो दुख भी
अनुभव करती।
कोई दुख नहीं।
और पाप, अपराध
का कोई भाव
पैदा नहीं
होता।
जो
आदमी महावीर
के पास आया और
जिसने कहा कि
ईश्वर है? महावीर ने झांककर
उसमें देखा
होगा कि वह
क्यों चाहता
है कि ईश्वर
हो। क्योंकि
तुम ईश्वर को
भी मुफ्त स्वीकार
नहीं करोगे।
कोई कारण
होगा। जिस दिन
तुम बिना कारण
ईश्वर को
स्वीकार कर
लोगे, उस
दिन तो बिन
बाती बिन तेल
की ज्योति
उपलब्ध हो
जायेगी।
लेकिन यह आदमी
किसी मतलब से
कह रहा है कि
ईश्वर है।
ईश्वर का कोई
उपयोग करना
चाहता है।
इसकी कोई
वासना बिना
ईश्वर के पूरी
नहीं होती।
इसलिये कमजोर
अकसर ईश्वर को
स्वीकार करते
हैं, शक्तिशाली
अकसर
अस्वीकार
करते हैं।
क्योंकि
कमजोर को
सहारा चाहिए
और शक्तिशाली
को ऊपर नियंत्रण
नहीं चाहिए।
कमजोर को
सहारा चाहिए और
शक्तिशाली को
कोई सहारा
नहीं चाहिए; बल्कि कोई
बाधा डालने
वाला ऊपर न
हो। तो ईश्वर
को शक्तिशाली
अकसर इनकार
करता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है; नीत्से
ने दो तरह की
नीतियां कही
हैं। एक नीति
है, मालिकों
की और एक नीति
है, गुलामों
की। गुलाम
हमेशा ईश्वर
को स्वीकार करते
हैं, और
मालिक हमेशा
अस्वीकार करते
हैं। अगर वे
स्वीकार भी
करते हैं तो
सिर्फ
गुलामों के
लिए। भीतर वे
जानते हैं कि
कोई ईश्वर
नहीं है। अगर
वे मंदिर भी
जाते हैं तो
गुलामों के
लिये, ताकि
लोग मानते
रहें कि ईश्वर
है। क्योंकि
लोग ईश्वर को
मानते रहें तो
बगावत न
करेंगे। लोग
ईश्वर को
मानते रहें तो
तंत्र को तोड़ेंगे
नहीं। लोग
ईश्वर को
मानते रहें तो
सम्राट को प्रतिनिधि
मानेंगे। लोग
ईश्वर को नहीं
मानेंगे तो
ज्यादा देर
नहीं लगेगी, सम्राट भी
विदा हो
जायेगा।
जीवन
में एक शृंखला
है
सिद्धांतों
की। जब तक ईश्वर
है, तब तक
सम्राट रह
सकता है।
ईश्वर गया कि
सम्राट ज्यादा
देर नहीं
टिकेगा, क्योंकि
जब ईश्वर तक
सिंहासन से
उतर जाता है तो
सम्राट की
क्या हैसियत
है? वह भी
उतारा
जायेगा। एक
बार यह पता चल
जाये कि जनता
के हाथ में है
सिंहासनों से
उतारना-चढ़ाना;
फिर कोई
सिंहासन पर
नहीं हो सकता;
फिर अतंतः
अराजकता
होगी।
लोकतंत्र तो बीच
का पड़ाव
है।
तानाशाही...? ईश्वर
सिंहासन पर है,
तो सम्राट
उसके
प्रतिनिधि
हैं। ईश्वर
हटा तो प्रतिनिधि
व्यर्थ हो
गये।
लोकतंत्र बीच
का पड़ाव
बन जाता है।
और लोकतंत्र
सभी जगह
मुश्किल में
है क्योंकि यह
बीच का पड़ाव
है; अंत तक
जाना होगा।
अराजकता
अंतिम पड़ाव
होगी।
नीत्से
कहता है, गुलामों
को तो समझाना
कि ईश्वर है।
इस भूल में
कभी मत पड़ना
उनको समझाने
की, कि
ईश्वर नहीं
है। क्योंकि
उनके लिये
ईश्वर एक
सुरक्षा भी
है। उनके लिये
ईश्वर एक
आश्वासन भी
है। उनके लिये
ईश्वर भविष्य
का भरोसा भी
है। आज तो
उनकी जिंदगी
में कुछ भी
नहीं है। कल
का भरोसा भी
छिन जाये तो
वे बगावत कर
उठेंगे।
माक्र्स
ने कहा है कि
दुनिया के सर्वहाराओ, इकट्ठे हो
जाओ! क्योंकि
तुम्हारे पास
सिवाय जंजीरों
के और कुछ
खोने को है भी
नहीं। अगर तुम
सब खो भी दोगे
तो सिवाय जंजीरों
के कुछ भी न खोएगा।
इसलिये
माक्र्स ने
दूसरी बात भी
कही है कि
ईश्वर गरीब के
लिये अफीम है।
क्योंकि जब तक
ईश्वर है, तब तक गरीब
बगावत नहीं
करेगा।
क्योंकि वह
भरोसा करता है
कि आज दुख है, कोई हर्ज
नहीं, कल
सुख होगा। आज
ईश्वर
परीक्षा ले
रहा है, आज
दुख दे रहा है,
कल सुख
देगा। अगर मैं
परीक्षा में
ठीक से उत्तीर्ण
हो जाऊं, आज्ञाकारी
की भांति
उत्तीर्ण हो
जाऊं, तो
मेरे सुख के
दिन ज्यादा
दूर नहीं हैं।
एक कमजोर की
नीति है, जो
ईश्वर को
मानती है।
एक
शक्तिशाली की
नीति है कि
अगर ईश्वर हो
तो उसे बाधा
पड़ती है, क्योंकि
उसका अर्थ हुआ
कि ऊपर कोई
निर्णायक है।
मैं क्या कर
रहा हूं, इसका
भी कोई निर्णय
करने वाला
होगा। कोई और
बड़ी अदालत है,
जहां मैं भी
खड़ा होऊंगा।
मैं
उत्तरदायी
हूं किसी के
प्रति।
इसलिये
शक्तिशाली
ईश्वर को मानना
नहीं चाहता।
अगर मानता है
तो वह सिर्फ
धोखा देता है।
महावीर
क्या करें? एक आदमी
पूछता है, ईश्वर
है! महावीर
कहते हैं, 'स्यात्' हो! एक आदमी
पूछता है, 'ईश्वर'
नहीं है? महावीर कहते
हैं, 'स्यात्'
न हो!
क्योंकि
महावीर की
अपनी कोई
वासना नहीं बची,
कोई चश्मा
नहीं बचा।
महावीर अब उसे
देख रहे हैं, जो है। और यह
लोग अपनी-अपनी
वासनाएं देख
रहे हैं। इनसे
क्या कहो?
महावीर
ने सप्तभंगि
न्याय को जन्म
दिया। महावीर
एक प्रश्न का
उत्तर सात ढंग
से देने लगे।
तुम किसी से
पूछो ईश्वर है, तो तुम
चाहते हो, 'हां'
या 'ना' में जवाब
हो। महावीर
सात उत्तर
देंगे क्योंकि
महावीर कहते
हैं, प्रत्येक
दृष्टि अधूरी
है और सात तरह
की दृष्टियां
हो सकती हैं।
आदमी सात ढंग
से देख सकता
है। तो महावीर
ने अपने उत्तरों
में सातों ढंग
इकट्ठे कर
दिये ताकि सातों
दृष्टियां
जुड़ जायें, तो पूरे का
दर्शन हो सके।
दृष्टि मात्र
अंश है।
वह जो
गधे और कुत्ते
में विवाद है, दृष्टियों
का विवाद है।
सभी विवाद
दृष्टियों के
विवाद हैं।
महावीर
से तुम विवाद
न कर सकोगे; क्योंकि
महावीर सभी
दृष्टियों को
स्वीकार करते
हैं। तुम उनसे
जो भी कहोगे, वे कहेंगे
हां, यह भी सच है।
महावीर कहते
हैं, यह तो
कभी कहना ही
मत--यही सच है; क्योंकि
यहीं भूल हो
जाती है। इतना
ही कहना, यह
भी सच है, ताकि
विपरीत के सच
होने की
सुविधा बनी
रहे।
तुम्हारी
वासनाएं
द्वंद्वात्मक
हैं। हर वासना
की विपरीत
वासना
तुम्हारे
भीतर है। आज
तुम एक वासना
से देखते हो, स्त्री
सुंदर मालूम
पड़ती है। कल
तुम इसी स्त्री
को दूसरी
वासना से देखोगे,
यही स्त्री
कुरूप हो
जायेगी। आज
लोभ से देखते हो,
धन बड़ा
बहुमूल्य
मालूम पड़ता
है। कल त्याग
से देखोगे,
धन निर्मूल्य
हो जाएगा।
चीन
में एक बहुत
बड़ा धनपति
हुआ। उसने
बहुत धन इकट्ठा
किया, फिर
उसे व्यर्थता
भी दिखाई पड़ी।
जब बहुत इकट्ठा
हो जाये तो
व्यर्थता
दिखाई पड़ती ही
है। सब उसके
पास था और लगा
कि कुछ पाया
नहीं। धन के
ढेर लग गये और
भीतर की गरीबी
न मिटी। भिक्षापात्र
भरता गया
लेकिन बड़ा
होता गया।
उसके भरने की
कोई सीमा ही न
मालूम पड़ी। थक
गया, ऊब गया।
जिंदगी मौत के
करीब आ गई।
लोभ छूटा, त्याग
का जन्म हुआ।
तो उसने अपने
सारे बहुमूल्य
हीरे-जवाहरात,
स्वर्ण की अशर्फियां,
बड़ी नावों
में भरवाईं
और जाकर बीच
सागर में उनको
डुबवा
दिया। बौद्ध
भिक्षु उससे
कहने आये कि
यह तुमने क्या
किया? यह
तो बुद्ध ने
भी नहीं किया।
अगर तुम्हें
व्यर्थ हो गया
था धन, तो
नदी में डुबाने
की क्या जरूरत
थी? अभी
बहुत लोग हैं,
जिन्हें
व्यर्थ नहीं
हुआ, उन्हें
बांट देते।
वह
आदमी हंसने
लगा और उसने
कहा, कि जो भूल
मैंने की, वही
भूल दूसरे भी
करें, इसकी
मैं व्यवस्था
न करूंगा। एक
दिन लगता था मुझे
धन सार्थक है
तो मैंने
चारों तरफ
पहरा लगाया था।
लोहे की तिजोरियां
बनवाई थीं। अब
लगता है कि धन
निरर्थक है, तो समुद्र
में उड़ेलने
के सिवाय मेरे
पास कोई उपाय
नहीं। मैं इसे
बांटूंगा
नहीं, क्योंकि
जो मुझे गलत
हो गया, उसे
मैं किसे दूं?
और जो मेरे
लिये व्यर्थ
हो गया, उसे
मैं किसी के
सिर पर क्यों
बोझ बनाऊं?
एक लोभ
की वृत्ति है, वह भी एक
दृष्टि है; फिर एक
त्याग की
वृत्ति है, वह भी एक
दृष्टि है। यह
आदमी अनूठा
मालूम पड़ता
है। यह लोभ से
त्याग में
नहीं गया, इसने
दोनों
दृष्टियां
छोड़ दीं। नहीं
तो यह मजा ले
लेता धन को
बांटने का, त्याग का।
वाहवाही होती,
लोग
स्वागत-समारंभ
करते और कहते,
धन्य है!
ऐसा
महात्यागी!
लेकिन जो
त्याग धन बांटने
से आता हो...जब
धन से कुछ भी
नहीं आया तो
त्याग और धन्यभाग
और अहोभाव धन
से कैसे आ
सकता है? यह
आदमी अनूठा
था। इसने जाकर
नदी में डुबा
दिया। जो
व्यर्थ था, वह डुबाने
योग्य था।
इस
आदमी की
जिंदगी में
बड़ी अदभुत
कथायें हैं। वह
गया। जब सब
नदी में डुबा
दिया तो वह
गया अपने गुरु
के पास। गुरु
ने कहा, अब
संन्यास ले
लो। उसने कहा,
जब संसार ही
छोड़ दिया है
तो अब संन्यास
कैसे लें? उसने
बड़ी अदभुत बात
कही कि जब
संसार ही छोड़
दिया, तो
अब संन्यास
कैसे लें? जब
तक संसारी था,
तब तक मन
में संन्यास
की बात भी
उठती थी। वह
उसी का विरोध
है। जब संसार
ही छूट गया तो
अब संन्यास
कैसे लूं? क्योंकि
संसार के
विपरीत भाव
उठता था।
संसार गया, उसका विपरीत
भाव भी गया।
वैसे तुम कहो
तो जो कहो मैं
करने को राजी
हूं, बाकी
अब लेना-देना
न बचा।
उसके
गुरु ने कहा
कि नहीं, तुझे
फिर कुछ करने
की जरूरत
नहीं। हम अभी
भी संन्यासी
हैं, उससे
जाहिर होता है
कि कहीं संसार
छिपा है। तेरा
संसार बिलकुल
ही चला गया।
तेरी दृष्टि
अब शून्य हो
गई। एक संसारी
की दृष्टि है,
एक
संन्यासी की
दृष्टि है।
फिर इस
आदमी की मौत
करीब आई। इसकी
पत्नी, इसका
बेटा, इसकी
बेटी, सभी
इसके साथ इस
नई दुनिया में
डूब गये। इसकी
मौत करीब आई
तो उसने अपनी
बेटी से पूछा
कि जरा उठकर
देख, चांद
निकल आया या
नहीं? क्योंकि
मैं सदा सोचता
रहा कि जब
चांद निकल आये,
तभी शरीर को
छोड़ना। लड़की
द्वार पर गई
और उसने कहा, हां, पिताजी!
चांद निकल आया
है, और बड़ा
सुंदर है।
इसके पहले कि
आप शरीर छोड़ें,
एक बार
द्वार पर आकर झांककर
चांद को देख
लें। पिता
द्वार पर गया,
लड़की जहां
पिता बैठा था,
जिस कुर्सी
पर, उस पर
बैठ गई, उसने
शरीर छोड़
दिया। पिता लौटकर
देखा और उसने
कहा, 'मैं
जानता था कि
तुम मुझसे एक
कदम आगे हो।'
उसकी
पत्नी पड़ोस
में किसी को
मिलने गई थी, वहां खबर
पहुंची। उसका
बेटा पत्नी के
साथ था। उसकी
पत्नी ने कहा
कि बूढ़ा तो
नासमझ था ही, यह लड़की भी
नासमझ निकली।
लड़का जैसा खड़ा
था, वहीं
खड़े-खड़े उसने
शरीर छोड़
दिया। यह
सुनते ही उसकी
मां ने उसके
सिर पर एक
धक्का मारा और
कहा कि नासमझ!
तू भी चला? और
वह खिल-खिलाकर
हंसी।
लोग
उससे पूछते कि
तुमने इनका
पीछा क्यों न
किया? क्योंकि
पति चला गया, लड़की चली गई,
लड़का चला
गया। तो वह
कहती कि आना
और जाना कैसा! जो
है, वह सदा है।
इसलिये तो कहा
कि नासमझ, इन
खेलों को बंद
करो।
न तो
कभी आत्मा आती
है और न कभी
जाती है। न
कोई जन्म है, न कोई
मृत्यु है। न
शरीर का पकड़ना
है, न
छोड़ना है। तब
दृष्टि-शून्यता
पैदा होगी। और
जब तुम्हारी
कोई दृष्टि
नहीं, जब
तुम्हारी कोई
आंख नहीं, जब
देखने की तुम्हारी
कोई शैली नहीं,
जब देखने
वाले की कोई
आकांक्षा
नहीं, तब
तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
जो है।
और जो
है, वही
परमात्मा है।
गधों
को परमात्मा
नहीं दिखाई पड़
सकता। और जिन्हें
नहीं दिखाई
पड़ता है, वे
किसी न किसी
भांति के गधे
होंगे। गधे का
मतलब, कि
उसकी एक
दृष्टि है। वह
घास की ही
चर्चा किये
जाता है।
तुम भी
क्या चर्चा
करते हो? अगर
तुम्हारी
चर्चा खोजी
जाये तो या तो
सेक्स से
संबंधित होती
है, या
भोजन से
संबंधित होती
है। तुम्हारी
चर्चा इन दो
से अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
है। दोनों
भोजन हैं, भोजन
तुम्हें
बचाता है, सेक्स
जाति को बचाता
है, समाज
को बचाता है।
भोजन के बिना
तुम मर जाओगे,
सेक्स के
बिना समाज मर
जायेगा।
दोनों भोजन हैं,
दोनों सर्वायवल
हैं, बचने
के उपाय हैं।
तुम भोजन करते
हो तो तुम बचते
हो और तुम
काम-भोग करते
हो, इससे
समाज बचता है।
तो गधा
अगर चर्चा कर
रहा है घास
की...सभी गधे घास
की चर्चा कर
रहे हैं!
प्रकार-प्रकार
के गधे हैं।
लेकिन अगर
उनकी तुम
चर्चा सुनो, तो चर्चा
लोग क्या कर
रहे हैं? या
तो भोजन की, या काम
वासना की! ये
दो ही चर्चायें
हैं। इस चर्चा
के माध्यम से
देखने वाली
चेतना, कैसे
सत्य को देख
पायेगी?
और
कुत्ते उनसे
विवाद करेंगे; क्योंकि
उनकी वासना
भिन्न है। घास
में कुत्ते को
जरा भी रस
नहीं। कभी-कभी
कुत्ता घास
में रस लेता
है; जब उसे
वमन करना होता
है, जब उसे
उल्टी करनी
होती है। घास
उसका भोजन नहीं
है; उल्टी
की औषधि है।
जब कुत्ते के
पेट में कोई तकलीफ
होती है, कुछ
उल्टा-सीधा खा
लिया होता है,
तो वह जाकर
घास खा जाता
है। घास खाते
ही से वमन हो
जाता है।
इसीलिये
कलंदर ने
कुत्ते और गधे
की बात करवाई क्योंकि
उन दोनों के
भोजन विपरीत
हैं। घास गधे
के लिए स्वर्ग
है, कुत्ते
के लिये वमन
का उपाय है।
तो अगर कुत्ता
नाराज हो जाये
कि बंद करो यह
बकवास! क्योंकि
घास की चर्चा
उसे नाशिया
पैदा करती
होगी। घास ही
घास! गधा है कि
उसी की चर्चा
किये जाता है।
इतना सुंदर
घास! इतना
ऊंचा घास!
इतना हरा घास!
आज गजब हो गया!
कुत्ते
को गधे की ये
बातें सुनकर
गुस्सा आता होगा, चिढ़ पैदा
होती होगी और
वमन करने का
मन होता होगा।
तो वह कहता है,
'बंद करो यह
बकवास! अगर
बात ही करनी
है तो हड्डी की,
मांस की कुछ
बात करो; कि
कुछ रस आये, कि जीभ से
कुछ स्वाद
मिले, कि
सपना जगे,
कि भीतर कुछ
आह्लाद पैदा
हो'।
जहां
भी विवाद है, वहां
वासनाओं का
विवाद है।
अनेक-अनेक
लोगों को गहरे
में देखकर इस
नतीजे पर मैं
पहुंचा हूं कि
जहां भी विवाद
है, वहां
तुम्हारी
वासनाएं
भिन्न हैं।
पति पत्नियों
में निरंतर
विवाद है।
दोनों की
वासनाओं की
भिन्नता है।
पत्नी
सुरक्षा
चाहती है, पति
नवीनता चाहता
है। पुरुष
आक्रामक है, स्त्री
ग्राहक है।
स्त्री कमजोर
है--कमजोर इस अर्थों
में कि उसके
व्यक्तित्व
में आक्रमण की,
हिंसा की
क्षमता नहीं
है। सहने की
क्षमता पुरुष
से ज्यादा है।
दुख सह लेने
की क्षमता
पुरुष से
ज्यादा है, लेकिन दूसरे
को दुख देने
की क्षमता
पुरुष से बहुत
कम है।
आक्रामक नहीं
है। उसका पूरा
व्यक्तित्व
ग्राहक है
क्योंकि उसके
पूरे व्यक्तित्व
को गर्भ बनना
है। और जिसको
गर्भ बनना है,
उसकी
ग्राहकता, रिसेप्टीविटी गहरी होनी
चाहिए। पुरुष
आक्रामक है
क्योंकि उसे
गर्भ ढोना
नहीं है, किसी
को गर्भ देना
है।
तो
पुरुष का
काम-संभोग
आक्रामकता है, एग्रेशन है। स्त्री
का काम-संभोग
एक पैसिविटी
है, एक
ग्राहकता है,
एक समर्पण
है। ये दोनों
एक दूसरे के
विपरीत हैं
इसलिये एक
दूसरे को
आकर्षित करते
हैं। लेकिन
वहीं विवाद
खड़ा हो जाता
है क्योंकि
स्त्री चाहती
है कि जो
परिचित है, पुराना है, जाना-माना
है उसके साथ
रुके।
सुरक्षा है
उसमें। पुरुष
चाहता है जो
परिचित है, जाना-माना
है, उससे
छुटकारा हो
क्योंकि
उसमें आक्रमण
का कोई रस ही
नहीं है। जब
नये पर तुम
आक्रमण करते
हो, एक नई
स्त्री को
जीतने निकलते
हो तब रस आता
है। इसलिये
पति उदास हो
जाते हैं, पति
होते ही उदास
हो जाते हैं।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
से कोई पूछ
रहा था--एक
ट्रेन में वह
बैठा यात्रा
कर रहा था। एक
आदमी उससे कुछ, पड़ोसी उससे
कुछ पूछ रहा
है, 'कहां
रहते हो? क्या
करते हो?' आखिर
उस आदमी ने
पूछा कि क्या
शादी-शुदा हो?
नसरुद्दीन ने उसकी तरफ
देखा और कहा, 'मैं वैसे ही
दुखी हूं। तुम
यह मत सोचो कि
मैं कोई
शादी-शुदा
हूं। मैं वैसे
ही दुखी हूं'।
पति
दुखी हो जाता
है। तुम पहचान
सकते हो कि पति
अपनी पत्नी के
साथ रास्ते पर
चल रहा है कि
किसी और की
पत्नी के
साथ--दूर से
देखकर भी!
अपनी पत्नी के
साथ वह उदास
चलता है
क्योंकि
पत्नी पूरे
वक्त
निरीक्षण कर
रही है कि वह
कोई नया आक्रमण
तो नहीं कर
रहा है! तो
अपनी पत्नी के
साथ वह
डरा-डरा चलता
है, भयभीत
चलता है।
पत्नी पति के
साथ बड़ी
प्रफुल्लित
चलती है
क्योंकि
सुरक्षा साथ
है। कोई भय नहीं
है। पति
डरा-डरा चलता
है क्योंकि
पत्नी चौबीस
घंटे का
नियंत्रण है
और आक्रमण की,
नये अभियान
की, एडवेन्चर की कोई सुविधा
नहीं। वह देख
भी नहीं सकता
दूसरी स्त्री की
तरफ, क्योंकि
उससे उपद्रव
ही खड़ा होगा।
दोनों
की आकांक्षाएं
भिन्न हैं
इसलिये विवाद
है। दोनों के
देखने का ढंग
भिन्न है, इसलिये
विवाद है।
पत्नी
स्थायित्व
चाहती है, पति
परिवर्तन
चाहता है। यह
बड़ा मजा है कि
इसीलिये ही
आकर्षण है; क्योंकि
दोनों विपरीत
हैं। समान में
आकर्षण नहीं
होता। ऋण
विद्युत धन
विद्युत को
खींचती है। धन
विद्युत धन
विद्युत को
नहीं खींचती।
इसलिये दो
स्त्रियों
में परिचय हो
सकता है, मैत्री
नहीं होती। दो
पुरुषों में
परिचय हो सकता
है, लेकिन
प्रेम नहीं
होता। विपरीत
चाहिए।
विपरीत
खींचता है।
लेकिन दूसरा
खतरा छिपा है
कि वह विपरीत
है, इसलिये
उसकी सारी आकांक्षाएं
विपरीत हैं, उसके देखने
का ढंग विपरीत
है। और तब
विवाद है।
जहां-जहां
विवाद है, वहां समझना
कि जीवन को
देखने के ढंग
भिन्न हैं।
गधे और
कुत्ते का
विवाद है।
कलंदर ठीक कह
रहा है कि
कुत्ता बहुत
परेशान है गधे
की बकवास
सुन-सुनकर। और
वह रोज वही
चर्चा किये
चला जाता है।
एक
स्त्री का पति
मरा। मरते
वक्त उसने पति
से आश्वासन
लिया कि तुम
मुझे वचन दो।
क्योंकि दोनों
ही स्पिरिच्युअलिस्ट
हैं, दोनों ही अध्यात्मवादी
थे--तो तुम
मुझे वचन दो!
अगर तुम पहले
मर जाओगे तो
तुम पूरी कोशिश
करोगे मुझसे
संबंध बनाने
की, या मैं
पहले मर गई तो
मैं तुमसे
संबंध बनाने की
कोशिश करूंगी
ताकि निश्चित
हो सके, आत्मा
शरीर के बाद
बचती है या
नहीं।
पति
मरा। मरने के
बाद पत्नी ने
बड़ी कोशिश की।
बड़े मीडियम्स
पर उसने पति
को बुलाने की
कोशिश की।
आखिर एक दिन
सफल हो गई।
कोई दो साल
बाद सफलता
मिली। पति
बोला माध्यम
से।
पत्नी
ने कहा, 'तुम
वहां प्रसन्न
तो हो?'
उसने
कहा, 'मैं बहुत
प्रसन्न हूं।
इतना प्रसन्न
मैं कभी भी न
था।' पत्नी
ने कहा कि तुम
उससे भी
ज्यादा
प्रसन्न हो, जितने तुम
मेरे साथ थे? अब पति को
कोई डर तो था
नहीं! पुराने
जमाने की बात
होती, जब
वह जिंदा था
तो यह कभी
भूलकर नहीं कह
सकता था। उसने
कहा, 'उससे
भी ज्यादा
प्रसन्न हूं,
जितना मैं
तुम्हारे साथ
था।'
स्वभावतः
पत्नी ने कहा, 'तो फिर और
स्वर्ग के
संबंध में
बताओ।'
पति ने
कहा, 'यह किसने
कहा कि मैं
स्वर्ग में
हूं? मैं
नर्क में हूं।'
पति
नर्क में भी
ज्यादा
प्रसन्न होगा
बजाय पत्नी के
साथ होने के!
पुरुष
विवाह में
उत्सुक ही
नहीं है।
पुरुष विवाह
में फंसता
है। स्त्री
प्रेम में
सीधी उत्सुक
नहीं है। उसकी
उत्सुकता
विवाह में है।
प्रेम चूंकि
विवाह तक
पहुंचाता है, इसलिये वह
प्रेम में
उतरती है।
स्त्री की उत्सुकता
स्थायित्व
में है, पुरुष
की उत्सुकता
नवीनता में
है। ये बड़ी
कठिन बातें
हैं। इनका हल
होना मुश्किल
है।
दो ही
उपाय हैं: या
तो स्त्री की
बात मानकर पुरुष
को दबाया जाये, जैसा कि
अतीत सदियों
में हुआ। हमने
विवाह का
आयोजन कर लिया,
स्त्री की
बात मान ली, पुरुष को
दबा दिया।
प्रेम शाश्वत
है। और फिर बच्चों
का भी सवाल है,
फिर समाज की
भी व्यवस्था
है। स्त्री
उसमें ज्यादा
सहयोगी मालूम
पड़ी क्योंकि
स्थिरता लाती
है। लेकिन
पुरुष सब तरफ
उदास हो गया।
उसने हजारों
तरह की वेश्यायें
पैदा कर लीं।
न मालूम कितनी
तरह की अनीति
पैदा हुई
सिर्फ इसलिये,
कि यह पुरुष
के स्वभाव के
अनुकूल नहीं
पड़ा।
एक तो
उपाय यह था, जो कि आज
असफल हो गया
है। अब दूसरा
उपाय पश्चिम
कर रहा है कि
पुरुष की मान
लो, कि
स्थायित्व की
फिक्र छोड़ दो,
विवाह को
जाने दो। या
विवाह ज्यादा
से ज्यादा एक सांयोगिक
घटना है।
जितनी देर चले,
ठीक; जिस
दिन न चले, समाप्त।
जैसे विवाह
कोई जीवन भर
का निर्णय नहीं
है, एक
तात्कालिक
क्षण की बात
है। जब तक सुख
दे ठीक, जिस
दिन सुख बंद
हो, समाप्त!
इससे स्त्री
दुखी होगी और
स्त्री शोषित
हो रही है
क्योंकि उसकी
तृप्ति नहीं
होती। और
दुनिया भर के मनसशास्त्री
परेशान हैं कि
क्या उपाय
किया जाये!
क्योंकि पुरुष
तभी सुखी
होंगे जब
उन्हें पति न
बनना पड़े और
स्त्रियां
तभी सुखी
होंगी जब वे
पत्नी बन
जायें। अब इस
विरोध को कैसे
हल किया जाये?
और एक दुखी
होता है तो
अंततः दूसरा
भी दुखी हो जायेगा।
दोनों ही सुखी
हों तो ही
सुखी हो सकते
हैं। इसलिये
अब तक कोई
समाज सुखी
नहीं हो पाया।
हां, पुरुष सुखी
हो सकता है, अगर वह
पुरुष की
वासनाओं को
गिरा दे।
स्त्री सुखी
हो सकती है, अगर वह
स्त्री की
वासनाओं को
गिरा दे।
लेकिन ऐसे लोग
अकसर विवाह
नहीं करते
क्योंकि कोई
जरूरत ही नहीं
रह जाती। अगर
बुद्ध जैसे
लोग विवाह
करें तो विवाह
परम आनंद का
होगा। लेकिन
बुद्ध जैसे
लोग विवाह
नहीं करते। और
जो विवाह करते
हैं, उनके
लिये विवाह
नर्क का आधार
बन जाता है।
जब तक
मनुष्य की
चेतना
परिवर्तित न
हो और उसकी
चाहों की
सीमाएं न गिरें, तब तक जीवन
एक विवाद और
संघर्ष ही
होगा। प्रेम
के नाम पर ही
कलह ही पैदा
होती है। और
जब प्रेम के
नाम पर कलह
होती है तो और
किस चीज के
नाम पर हम
जीवन में आशा
करें कि कलह
पैदा न होगी।
इसे
ठीक से समझें।
अगर आपका किसी
से भी विवाद है
और कलह है तो
उसका अर्थ यही
हुआ कि आपकी आकांक्षायें
भिन्न हैं, उसकी आकांक्षायें
भिन्न हैं। या
तो आप उसे दबा
लें या वह
आपको दबा लें।
लेकिन जब भी
तुम किसी को दबाओगे
तभी तुम भी
दुखी हो जाओगे
क्योंकि
दबाना सुखद नहीं
है। और कोई
तुम्हारे पास
चौबीस घंटे
दुखी बैठा हो
तो तुम सुखी
कैसे हो सकते
हो?
इसलिये
फ्रायड जैसे
लोग तो इस
स्थिति को
देखकर कहते
हैं कि मनुष्य
आनंदित हो सके
यह असंभव है।
और फ्रायड
सोचकर कह रहा
है, अनुभव से
कह रहा है।
चालीस-पचास
साल अनंत-अनंत
प्रकारों से मनुष्य
के मन की उसने
खोज की है। और
उसके जीवन का
आखिरी
निष्कर्ष यह
है कि मनुष्य
की बनावट ऐसी
है कि वह सुखी
हो ही नहीं
सकता।
लेकिन
हमारे
निष्कर्ष
भिन्न हैं।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण के
निष्कर्ष
भिन्न हैं।
मेरा निष्कर्ष
भिन्न है। मैं
आपसे कहता हूं,
सुखी आप हो
सकते हैं।
लेकिन सुखी आप
तभी हो सकते
हैं, जब
चाह के दरवाजे
गिर जायें।
चाह की सीमाएं,
चाह की खिड़कियां
गिरा दें और
खुले आकाश में
आ जायें।
खुला
आकाश अचाह का
आकाश है।
इसलिये
उलटी बात
मालूम पड़ेगी।
बुद्ध और महावीर
कहते हैं कि
जिसने चाह छोड़
दी, वह आनंद
को उपलब्ध
हुआ। फ्रायड
कहता है, आदमी
कभी भी आनंद
को उपलब्ध
नहीं होगा
क्योंकि वह
सोच ही नहीं
सकता कि आदमी
चाह छोड़ सकता
है। चाह तो
कैसे छूटे? फ्रायड कहता
है, चाह तो
आदमी की जड़
में है। वासना
तो रहेगी।
दोनों
सही हैं। अगर
वासना रहेगी
तो फ्रायड बिलकुल
सही है। और सौ
में निन्यान्नबे
आदमियों के
लिये फ्रायड
सही मालूम
पड़ेगा
क्योंकि
वासना मिटती
नहीं। कभी-कभी
कोई अद्वितीय
आदमी पैदा
होता है, जिसकी
वासना मिटती
है। पर वासना
मिटते ही आनंद
घटित होता है।
जहां
विवाद नहीं, जहां कलह
नहीं, जहां
संघर्ष नहीं,
वहीं आनंद
के फूल खिलते
हैं। सब जगह
गधे और
कुत्तों में
विवाद चल रहा
है। स्त्री और
पुरुष में ही
नहीं है, अनुयायी
और नेता में, गुरु और
शिष्य में, विद्यार्थी
और शिक्षक
में--सब तरफ
विवाद चल रहा
है क्योंकि
सबकी आकांक्षाएं
विपरीत हैं।
और जहां
आकांक्षा
विपरीत है, वहां
तत्क्षण कलह
शुरू हो जाती
है। आज सारी
दुनिया में
अराजकता है।
ऐसी कोई जगह
खोजनी कठिन है,
जहां
निर्विवाद
शांति हो। सब
तरफ विपरीत
लोग खड़े हैं।
गधे और कुत्ते
चर्चा कर रहे
हैं।
इस सब
में सबसे बड़ी
कठिनाई न तो
गधे की है और न
कुत्ते की है; बड़ी कठिनाई
कलंदर कहता है
उस आदमी की है,
जो उनकी
भाषा समझता
है। यह कहानी
का तीसरा
पहलू। एक आदमी
है, जो
दोनों की भाषा
समझता है।
सबसे बड़ी
कठिनाई उसकी
है। गधा अपने गधेपन में
है, कुत्ता
अपने कुत्तेपन
में है। न
कुत्ता गधेपन
को पहचानता है,
न गधा कुत्तेपन
को पहचानता
है। उनके
दरवाजे बंद
हैं। वे अपने
ढंग से जीते
हैं। और सुनिश्चित
है कि मेरा
ढंग ठीक है।
घास की बात व्यर्थ,
हड्डियों
की बात ठीक
है। और गधा भी
सुनिश्चित है।
यह बड़ी
सोचने जैसी
बात है कि
सिर्फ गधे ही
बहुत
सुनिश्चित
होते हैं, सरटेन होते हैं।
बुद्धिमान
आदमी 'हेज़ीटेट'
करता है।
बुद्धिमान
आदमी थोड़ा
सोचता-विचारता
है। बुद्धिमान
आदमी कुछ भी
कहता है तो वह
कहता है, स्यात्...परहेप्स!
लेकिन गधा जब
कहता है कुछ
भी, तो वह
कहता है, बिलकुल
ऐसा है; इसमें
रत्ती भर
संदेह नहीं।
हिटलर
जैसे लोगों को
इसीलिये मैं
बुद्धिमान नहीं
कहता क्योंकि
वे
निस्संदिग्ध
घोषणा करते
हैं। मगर आम
आदमी निस्संदिग्ध
घोषणाओं से
प्रभावित
होता है क्योंकि
आम आदमी के
भीतर भी गधापन
गहरा है। जब
भी कोई आदमी
जोर से टेबल
पीटकर कहता है, ऐसा
है--जितने जोर
से कहता है, उतना ही
सत्य मालूम
पड़ता है। कोई
आदमी धीरे से
कहे तो तुम
समझते हो कि
कुछ गलती होगी;
इसीलिये
इतने धीरे बोल
रहा है। कोई
कान में फुसफुसाये
तो तुम पक्का
समझ लोगे कि
झूठ बोल रहा
है; नहीं
तो कान में
क्यों बोल रहा
है? खुले
जाहिर में
कहो!
इसलिये
जो होशियार
हैं, जो झूठ को
सच की तरह
चलाना चाहते
हैं, वे
हमेशा जोरदार
आवाज में कहते
हैं, टेबल
पीटकर कहते
हैं; तुम्हें
हिला कर कहते
हैं। उनकी
आवाज
तुम्हारे
हृदय के
कोने-कोने को
झकझोर देती
है। तब झूठ भी
सच जैसा मालूम
होने लगता है।
नहीं तो
तुम्हें सच भी
झूठ जैसा
मालूम होगा।
महावीर
बहुत अनुयायी
न पा सके
क्योंकि
उन्होंने कान
में फुसफुसाकर
कहा।
और इतना सोच-विचारकर
कहा कि हर चीज
में स्यात्
लगा दिया
क्योंकि
विपरीत भी सही
हो सकता है। तुमने
पूछा, 'रात
है?' उन्होंने
कहा, 'स्यात्।' अब ऐसे
आदमी का तुम
अनुगमन करोगे,
जिसको इसका
भी पक्का पता
नहीं है कि
दिन है कि रात?
लेकिन
महावीर ने कहा
कि 'स्यात्'...!
क्योंकि हर
रात से दिन
पैदा हो जाता
है। इसलिए रात
बिलकुल रात
नहीं हो सकती,
उसमें दिन
छिपा है। थोड़ी
देर में दिखाई
पड़ेगा लेकिन
मौजूद तो है।
तुमने पूछा 'दिन?' महावीर
ने कहा, 'स्यात्।' क्योंकि
जब तुम पूछ
रहे हो तब दिन
रात में बदल रहा
है; इसलिये
एकदम निश्चित
नहीं कहा जा
सकता कि दिन दिन
है, रात
रात है! क्योंकि
रात दिन में
बदल जाती है, और दिन रात
में बदल जाता
है। अंधेरी
रात में सुबह
छिपी है। भरी
दुपहरी में
अंधेरा छिपा
है।
और
महावीर पूरा
देख रहे हैं, इसलिये
महावीर की
वाणी स्यात्
हो जाती है; जैसे कान
में कोई
फुसफुसाता
हो। ऐसे आदमी
के पीछे तुम न
चलोगे।
इसलिये जैन
धर्म का कोई
बहुत विस्तार
न हो सका। फुसफुसाकर
कही गई बातें
बहुत लोगों को
प्रभावित
नहीं कर
सकतीं। हिटलर
ज्यादा
अनुयायी खोज
लेता है, जितने
महावीर नहीं
खोज पाते हैं
क्योंकि हिटलर
जोर से
चिल्लाकर
कहता है।
तुम इस
बात को ठीक से
समझ लेना कि
जितना तुम सुनिश्चित
आदमी को पाओ, जितने जल्दी
हो सके उससे
भागना; क्योंकि
उस आदमी को
कुछ पता नहीं
है। वह अपनी ही
चाह में
निश्चित हो
गया है। बस, वही उसका
संसार है। उसे
पूरे का पता
नहीं है, अंश
के साथ वह ठहर
गया है, 'फिक्सेशन'
हो गया है।
वह जड़ हो गया
है।
मुसीबत
तो उस आदमी की है, जो दोनों की
भाषा समझता
है। मुसीबत
मेरी है; गधे
की भाषा भी
समझता हूं, और कुत्ते
की भाषा भी
समझता हूं। और
कुत्ता भी सही
मालूम होता है
अपनी तरफ से, और गधा भी
सही मालूम
होता है अपनी
तरफ से; और
दोनों गलत
हैं। इसलिये
कलंदर ने बड़ा
अच्छा अंत
करवाया कहानी
का।
तो उस
आदमी ने कहा
कि ठहरो! तुम
व्यर्थ विवाद
मत करो। वह
आदमी यह कहने
जा रहा होगा
कि गधा भी ठीक
कह रहा है
उसकी तरफ से।
वह भी एक पक्ष
है, वह भी एक
भंगि है, एक
दृष्टि है। और
कुत्ता भी ठीक
कह रहा है अपनी
तरफ से; क्योंकि
वह भी एक
दृष्टि है।
दोनों ही ठीक
कह रहे हैं, तुम विवाद
बंद करो। वह
आदमी बीच में
आ गया होगा कि
किसी तरह
सुलझा दे।
लेकिन
न तो कुत्ते
ने उसकी आवाज
सुनी, न गधे
ने उसकी आवाज
सुनी; बल्कि
वे दोनों बड़े
नाराज हुए कि
यह आदमी क्यों
बीच में आ रहा
है? विवाद
इतनी सुगमता
से चल रहा था
और यह उपद्रवी
कहां बीच में
आ रहा है? यह
आदमी समझता था
कुत्ते और गधे
की भाषा, कुत्ते
और गधे तो
इसकी भाषा
नहीं समझते
थे। कुत्ता
भोंका और झपटा
और गधे ने दुलत्ती
झाड़ी। और वह
आदमी जमीन पर
गिर पड़ा और
बेहोश हो गया।
यही तो
बुद्धों के
साथ होता रहा
है। कुत्ते भोंकते
हैं, गधे दुलत्ती
मारते हैं।
कलंदर की
दृष्टि बड़ी
गहरी है। यही
तो जीसस के
साथ होता है, मंसूर के
साथ होता है।
यह कलंदर के
साथ खुद हुआ
है।
यह
कहानी अनुभव
से कही है और
गधे और कुत्ते
के रूपक में
कही है ताकि
तुम नाराज न
होओ। सीधी-सीधी
कही जाये तो
शायद तुम
कहानी पढ़ने को
भी राजी न
होओ। सीधी-सीधी
कहे तो अभी
तुम दुलत्ती
झाड़ो; इसलिये थोड़ा
घुमाकर
कही है। गधा
तो प्रतीक है गधेपन का।
कुत्ता तो
प्रतीक है, कुत्तेपन का।
कुत्तेपन
का एक रस है:
भोंकना।
वैज्ञानिक भी
अभी तक खोज नहीं
पाये कि
कुत्ते
भोंकते क्यों
हैं? जरूर
उनके गले में
कुछ न कुछ
संयोजन है कि
भोंकने से
उन्हें राहत
मिलती है।
बिना भोंके
उनसे नहीं रहा
जाता।
जिब्रान
की एक
प्रसिद्ध
कहानी है कि
एक कुत्ता
गुरु हो गया
और उसने बाकी
कुत्तों को
समझाना शुरू
कर दिया कि
तुम कब तक
भोंकते रहोगे? भोंकने की
वजह से हमारी
जाति का ह्नास
हुआ है। सब
शक्ति भोंकने
में चली जाती
है। नहीं तो
हम अब तक
दुनिया में राज्य
कर रहे होते।
रोको, नियंत्रण
करो, संयम
साधो। कुत्ते
सुनते उसकी
बात, जंचती भी, लेकिन
गले में जब
भोंकने का
खयाल उठता और
जब गले में
सुरसुरी
दौड़ती, तो
फिर सिद्धांत
काम न आते, कुत्ते
भोंक लेते।
गुरु समझाता
रोज। और गुरु
को वे बड़ा
महान व्यक्ति
मानते क्योंकि
गुरु कभी
भोंकता हुआ
नहीं पाया गया,
इसलिये
आचरण और
सिद्धांत में
समानता थी।
और इसी
को लोग कहते
हैं कि जब तुम
खोजने जाओ तो सिद्धांत
और आचरण में
समानता पाओ; समझना कि
यही आदमी
है--गुरु।
इतना सस्ता
नहीं है
मामला। इतना
आसान भी नहीं
है। क्योंकि
लोग सिद्धांत
और आचरण में
समानता बिठा
सकते हैं। और
ऐसा ही हुआ था।
वह कुत्ता भी
जो गुरु हो
गया था, भोंकना
चाहता था; लेकिन
भोंकने लायक
ताकत ही नहीं
बचती थी। समझाने
में ही भोंकना
निकल जाता था।
दिन भर सुबह से
सांझ, रात,
गांव भर में
घूमता जगह-जगह
कुत्ते
भोंकते मिलते,
वहीं टोकता,
रुको! तो
उसका गला ही
थक जाता।
आखिर
कुत्ते भी
गुरु से
परेशान हो गये
और उन्होंने
कहा कि बेचारा
अब थका जाता
है, बूढ़ा हो
गया है। हम
कभी इसकी
मानते भी
नहीं। इसकी
बात ठीक भी
मालूम पड़ती है,
बुद्धि को,
लेकिन जब
गले में खुसखुसाहट
उठती है और जब
गले में रस
आता है भोंकने
का, तो फिर
हमसे नहीं रहा
जाता। यह
हमारी
प्रकृति है।
और यह ऊंची
बातें कर रहा
है परमात्मा
की। यह ठीक कह
रहा है कि
भोंकना बंद कर
दो, तो तुम
ध्यानी हो
जाओ!
एक दिन
लेकिन
उन्होंने कहा
कि अब यह बूढ़ा
हो गया है, और मरने के
करीब है। एक
दिन तो हम
इसकी मान लें।
तो सारे गांव
के कुत्तों ने
तय किया कि आज
रात चाहे कुछ
भी हो जाये, कितनी ही
मुसीबत हो, कितना ही
हमें
लोटना-पोटना
पड़े--करेंगे, लेकिन भोंकेंगे
नहीं। अपने
मुंह पर
नियंत्रण
रखेंगे। संयम साधेंगे।
ऐसी ही
दशा बहुत से संन्यासियों
की हो जाती
है।
ब्रह्मचर्य साधेंगे, संयम साधेंगे,
लोटेंगे-पोटेंगे,
लेकिन संयम
न तोड़ेंगे।
बड़ी
मुसीबत हुई।
कुत्ते बड़ी
मुसीबत में
पड़े। एक-एक
कोने में पड़
गये गलियों
में जाकर। बड़ी
बेचैनी भीतर
से आने लगी।
रोज का वक्त
पैदा हो गया, भोंकने का
समय आ गया। कभी
पुलिसवाला
निकल जाता और
दिल भोंकने का
होता। कभी
पोस्टमैन आ
जाता और दिल
भोंकने का
होता। चारों
तरफ वासना को
जगाने वाले
उपकरण थे, लेकिन
उस दिन तय ही
किया था
कुत्तों ने।
और हर कुत्ते
ने कहा कि जब
तक कोई दूसरा
न भोंके, तब तक तो हम
रहेंगे ही
संयम साधे।
कोई
नहीं भोंका।
कुत्ते चुप ही
रहे। लेकिन
आधी रात को एक
कुत्ते ने
भोंकना शुरू
किया, फिर
संयम नहीं रुक
सका। फिर
उन्होंने कहा,
जब टूट ही
गई बात तो हम
क्यों नाहक तड़फें, पूरा
गांव एकदम
भयंकर...क्योंकि
इकट्ठे कुत्ते
कई घंटे से
चुप थे। ऐसा
भोंकना कभी
हुआ ही नहीं
था। पूरा गांव
जग गया।
ऐसा ही
होता है। जब
धार्मिक समाज
भ्रष्ट होता है
तो ऐसा ही
होता है। बहुत
दिन तक साधा
हुआ संयम जब
टूटता है तो
ऐसा ही होता
है। यह भारत
की ऐसी दशा है
कि कोई दोत्तीन
हजार साल से
बड़ा संयम, ब्रह्मचर्य
साध-साधकर
लोग बैठे हैं
अपने-अपने
कोनों में।
भोंक नहीं रहे
हैं। फिर
उन्होंने
भोंकना शुरू
किया तो
सारा...।
क्रिश्चियनिटी
के साथ यही
हुआ। पश्चिम
में, दो हजार
साल तक लोगों
को भोंकना रुकवा
दिया। अब वे
एकदम से भोंक
रहे हैं, तो
सब नियम टूट
गए हैं।
साधारण नियम
भी शिष्टाचार
के टूट गये
हैं, और
जीवन एक
उच्छृंखल, पाश्विक स्थिति में
खड़ा हो गया
है।
जैसे
ही वे भोंके, चकित हुए!
क्योंकि इतनी
देर, बारह
बजे रात तक
नेता का कोई
पता न चला।
गुरु कहां था,
पता ही न
चला। अचानक
जैसे ही भोंके,
गुरु आ गया
और उसने कहा
कि देखो, इसी
के कारण हमारा
पतन हुआ है।
कितना
तुम्हें समझाया,
लेकिन तुम
बाज नहीं आते।
कब तुम छोड़ोगे
यह अज्ञान? कब तुम्हें
ज्ञान होगा?
खलील
जिब्रान कहता
है, और राज की
बात यह है कि
सांझ से गुरु
घूमा गांव में,
लेकिन सब
कुत्ते
सन्नाटा साधे
थे। उसे बोलने
का मौका ही
नहीं आया
क्योंकि चुप
ही थे, कहना
क्या? किससे
कहो कि चुप हो
जाओ? बारह
बजे तक वह
घबड़ा गया और
बारह बजे तक न
बोलने के कारण
उसके गले में
सरसरी दौड़ने
लगी। आखिर
उससे न रहा
गया। और फिर
वह हिस्सा भी
नहीं था निर्णय
का। सारे
लोगों ने
निर्णय किया
था--सारे
कुत्तों ने; वह तो
निर्णय के
बाहर था। उसे
पता भी नहीं
था कि मामला
क्या है! एक
गली के अंधेरे
में जाकर वह
जोर से
भोंका--वही
पहला कुत्ता
था! फिर जब
उसका भोंकना
हो गया तो
सारा गांव
भोंकने लगा।
जब सारा गांव
भोंका, गुरु
फिर आ गया
समझाने कि
देखो, इसी
से हमारा पतन
हुआ है। कब
तुम रुकोगे?
तुम भी
जब बोलते हो
तो वह बोलना
रोग है, या
तुम्हारी शून्यता
से, तुम्हारे
मौन से निकलता
है? वह
तुम्हारी
बीमारी है, रेचन है।
कचरा तुम फेंक
रहे हो अपने
बाहर, हल्का
कर रहे हो
अपने को, या
तुम्हारे पास
कुछ बहुमूल्य
है, जो तुम
देना चाहते हो?
बोलो तभी, जब तुम्हारे
बोलने में कुछ
हीरे हों, जो
तुम बांटना
चाहते हो। दूसरे
के सिर पर
कचरा क्यों
डाल रहे हो? व्यर्थ की
बातें क्यों
बोल रहे हो?
उस
आदमी ने सुना
कि कुत्ता और
गधे में बड़ा
विवाद है। वह
दोनों की बात
समझा, दोनों
की दृष्टि
समझा, इसलिये
मुसीबत में पड़
गया। वह दोनों
को समझाने बीच
में गया, लेकिन
कुत्ते और गधे
को उसकी बात समझ
में न आई।
बुद्धों
की बात कभी भी
तो समझ में
नहीं आई है। तुम्हारी
सारी बात
बुद्ध को समझ
में आती है। तुम्हारी
हर वासना की
आवाज समझ में
आती है क्योंकि
तुम जहां हो, वहां से वे
भी गुजरे हैं।
वे भी कभी
भोंकते थे। वे
भी कभी घास की
बात करते थे।
तुम जहां हो
वहां वे थे; इसलिये
तुम्हारी
भाषा उन्हें
समझ में आती
है। तुम्हें
उनकी भाषा समझ
में नहीं आती
क्योंकि जहां
वे हैं, वहां
तुम्हें अभी
पहुंचना है।
लेकिन
जब बुद्ध
समझाते हैं
तुम्हें, तो
तुम्हें
क्रोध आता है।
क्रोध इस बात
से आता है कि
वे कहते हैं, तुम दोनों
ठीक हो। तुम्हारा
अहंकार कहता
है, मैं
ठीक हूं, दूसरा
गलत है। और जब
बुद्ध कहते
हैं, तुम
दोनों ठीक हो,
तो दोनों ही
नाराज हो जाते
हो।
पहले
वे आपस में लड़
रहे थे, अब
वे बुद्ध से
लड़ने को दोनों
साथ हो जाते
हैं। गधा दुलत्ती
मारता है, कुत्ता
भोंककर
चीखने दौड़ता
है कि यह आदमी
कैसे बीच में
उपद्रव करने आ
गया? ऐसे
ही काफी कलह
चल रही थी और
यह एक और
उपद्रव! और
फिर इसकी भाषा
भी समझ में
नहीं आती।
जीसस को सूली
लगी। जीसस की
भाषा यहूदी
समझ न सके।
मंसूर को
लोगों ने
काटकर मार
डाला क्योंकि
मंसूर की भाषा
लोग समझ न
सके।
एक तो
वासना की भाषा
है, जिसे हम
समझते हैं; और एक करुणा
की भाषा है, जिससे हमारा
कोई परिचय
नहीं। और यह
आदमी बेचारा
इन दोनों को
शांत करने आया
था। यह आदमी
चाहता था कि
इनकी कलह मिट
जाये। और यह
आदमी चाहता था
कि यह एक
दूसरे के
दृष्टिकोण को
समझ लें।
दुनिया
में चाहे छोटे
झगड़े हो रहे
हों चाहे बड़े, चाहे बड़े
युद्ध हो रहे
हों, और
चाहे घर की
छोटी कलह हो
रही हो, सब
विवाद दूसरे
की दृष्टि को
न समझने के
कारण हैं।
जब तक
मैं दूसरे के
जूते में खड़ा
न हो जाऊं और दूसरों
के कपड़ों में
खड़ा होकर न
देखूं, जहां
से दूसरा
देखता है, वहां
से न देखूं, तब तक कलह और युद्ध
नहीं मिट
सकेंगे। मैं
अपनी जगह ठीक
मालूम पड़ता
हूं, दूसरा
अपनी जगह गलत 'मुझे' मालूम
पड़ता है। खुद
को वह ठीक
मालूम पड़ता
है।
अगर
रूस में और
अमेरिका में
कोई विवाद है, चीन में और
भारत में कोई
विवाद है, या
भारत और
पाकिस्तान
में कोई विवाद
है, सब
विवाद ऐसे ही हैं;
क्योंकि
दूसरे की जगह
खड़े होने की
हमारे पास कोई
कुशलता नहीं।
हम इतने तरल
नहीं हैं कि
दूसरे की जगह
खड़े हो जायें।
और वही
व्यक्ति शांत
हो सकेगा जो
इतना तरल हो
कि सबकी
दृष्टियों को समझ
पाये। लेकिन
उसकी बड़ी
कठिनाई है।
ज्ञानी की बड़ी
मुसीबत है
क्योंकि उसे
रहना पड़ता है
अज्ञानियों
के बीच।
मेरे
मित्र पागल हो
गये। उन्हें
पागलखाने भेज
दिया गया। वे
मुझसे कहते थे
कि तीन साल
मैं पागलखाने
में रहा, आखिरी
छह महीने
मुसीबत के
हुए। बाकी ढाई
साल तो बड़े
मजे से कट गये
क्योंकि मैं
पागल था। आखिरी
छह महीने
मुसीबत के हो
गये क्योंकि
अपने पागलपन
में एक दिन
उन्होंने, फिनाइल
का डिब्बा रखा
हुआ था, वह
पूरा पी लिया।
फिनाइल के
पीने से
उन्हें सैकड़ों
दस्त लग गये
और उन दस्तों
के साथ न
मालूम क्या हुआ,
कि पागलपन
चला गया।
गर्मी निकल गई
शरीर की। वे
बिलकुल कमजोर
हो गये, लेकिन
बुद्धि वापिस
आ गई। एक शॉक ट्रीटमेंट
हो गया।
जब
बुद्धि वापस आ
गई तो सजा तो
उनको तीन साल
की हुई थी
पागलखाने में
रहने के लिये
और छह महीने
पहले वे ठीक
हो गये। तो
उन्होंने
जाकर अधिकारियों
को कहना शुरू
किया कि मैं
बिलकुल ठीक
हूं। अधिकारी
हंसते और वे
कहते, सभी
कहते हैं! वह
बहुत समझाते
कि आप सुनो भी
तो! तो वे कहते,
किस किसकी
सुनें? सभी
पागल कहते हैं,
कि हम ठीक
हैं। तो वे
मुझे कहते थे,
मैंने बहुत
उपाय किये मगर
मैं इतनी बात
न समझा पाया
कि मैं ठीक
हूं! वे कोई
सुनने को राजी
नहीं क्योंकि
सभी पागल यह
कहते हैं कि
ठीक हैं! जाओ, अपना काम
करो। और उन छह
महीने में वे
कहते हैं कि
मेरी जो मुसीबत
और फजीहत हुई...!
क्योंकि
चारों तरफ
पागल और मैं
अकेला होश
में! कोई मेरी
टांग खींच रहा
है, कोई
मेरे सिर को
मालिश कर रहा
है। ढाई साल
तक मुझे पता
ही नहीं चला
क्योंकि मैं
भी यही कर रहा
था।
बुद्ध
की मुसीबत तुम
समझ सकते हो, वे छह महीने
पहले तुमसे
होश में आ गये!
उस आदमी को
कुत्ते ने
काटा और गधे
ने दुलत्तियां
मारीं।
वह बेहोश गिर
पड़ा।
सभी
बुद्ध तुमसे
यही व्यवहार
पाये हैं। यह
स्वाभाविक
है। इसमें
तुम्हारा कोई
कसूर भी नहीं।
लेकिन अगर
तुम्हें खयाल
आ जाये, तुम
थोड़े से भी
विचार से भर
जाओ, यह
कहानी अगर
तुम्हें थोड़ी
सी भी प्रेरणा
दे दे सोचने
की, तो
शायद तुम
बुद्ध को दुलत्ती
मारने से बच
सको। अगर तुम
रुक भी जाओ दुलत्ती
मारने से, तो
भी बुद्ध को
मौका मिले कि
अपनी बात तुम
तक पहुंचा
दें। तुम अगर
भोंकने से
थोड़े शांत हो
जाओ तो शायद
उनकी आवाज
तुम्हें
सुनाई पड़
जाये।
तुम्हारे चुप
होने में, तुम्हारे
ठहर जाने में,
तुम्हारे
कुछ न करने
में शायद
संबंध जुड़
जाये, सेतु
बन जाये।
कलंदर
ठीक कहता है।
इस कहानी को
तुम अपनी ही कहानी
समझना। इसे
बार-बार
सोचना।
तुम्हारा मन बहुत
बार दुलत्ती
मारने, बहुत
बार भोंकने का
होगा। उस वक्त
अपने को रोकना
और बुद्धों की
वाणी को समझने
की कोशिश
करना। तुम
थोड़ी सी कोशिश
करो तो कुछ
समझ में
आयेगा। एक
सीढ़ी तुम
चलोगे, फिर
दूसरी सीढ़ी
साफ होगी। और
हजारों मील की
यात्रा भी
करनी हो तो
एक-एक कदम से
पूरी होती है।
कोई हजार कदम
तो एक साथ चलता
नहीं। एक बार
एक कदम। पर एक
कदम चले कि
दूसरा कदम साफ
हो जाता है और
तुम दूसरा कदम
उठाने के
योग्य हो जाते
हो।
भगवान
: ...कुछ और?
भगवान!
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
हमारे सभी प्रश्न
पुराने और
बासी होते हैं, और आपके
उत्तर इतने
नये और ताजा
होते हैं। इसका
राज क्या है?
चूंकि
आप प्रश्न
सोचते हैं। जो
भी सोच से
आयेगा, वह
बासा हो
जायेगा।
क्योंकि
सोचना सिर्फ
पुराने का हो
सकता है, नये
का कोई सोचना
नहीं हो सकता।
नये को तुम सोचोगे
कैसे? जिसे
तुमने जाना ही
नहीं, जिससे
तुम्हारी कोई
पहचान नहीं, उसका रूप
तुम्हारे मन
में बनेगा
कैसे? तुम
स्मृति से
खोजते हो। तुम
थोड़ा रंगरोगन
भी करो तो भी
तुम्हारे
प्रश्न नये
नहीं हो सकते,
वे पुराने
ही रहेंगे
क्योंकि मन से
जो भी पैदा
होता है, वह
पुराना होता
है। मन पुराने
का नाम है। मन
का अर्थ है, मरा हुआ। मन
का अर्थ है, बीत गया। मन
का अर्थ है, अनुभव हो
गया।
तो जो
भी तुमने
अनुभव किया है, सुना है, पढ़ा
है, सोचा
है, वह मन
का संग्रह है।
उसी में से
तुम प्रश्न खोजते
हो इसलिये वे
पुराने और बासे
होंगे।
मैं जब
तुम्हें कोई
उत्तर दे रहा
हूं तो मन से कोई
लेना-देना
नहीं है। मैं
तुम्हारा
उत्तर सोचता
नहीं, बस देता
हूं। तुमने
पूछा प्रश्न,
मैंने दिया
उत्तर।
तुम्हारे
पूछने में और
मेरे देने में,
बीच में कोई
विचार नहीं
है। उधर तुमने
पूछा, इधर
मैंने दिया।
इन दोनों के
बीच में रत्ती
भर जगह नहीं
है। तुम पूछो
और मैं आंख
बंद करके सोचूं,
तो जो उत्तर
होगा, वह
बासा हो
जायेगा। सोचा
कि बासा हुआ।
बिना सोचे जो
आता है, वह
ताजा है।
अनसोचे
जो आता है, वह सदा नया
है। क्योंकि
जब तुम नहीं
सोचते तभी
तुम्हारे
भीतर मन के जो
पार है, वह
बोलता है।
तो मैं
भी मन का
उपयोग करता
हूं, लेकिन मन
का उपयोग मैं
सोचने के लिये
नहीं करता। मन
का उपयोग वह
जो मन के पार
है, उसके
उपकरण की तरह
करता हूं। तुम
पार को मौका ही
नहीं देते।
तुम मन में ही
प्रश्न खोजते
हो, प्रश्न
रख देते हो।
तुम्हें
डर है, कहीं
प्रश्न गलत न
हो जाये। मुझे
कोई डर नहीं है
कि प्रश्न का
उत्तर गलत न
हो जाये। गलत
हो कि सही, इसका
मुझे
प्रयोजन ही नहीं
है। मैं कोई
परीक्षा नहीं
दे रहा हूं।
तुम क्या
सोचोगे मेरे
उत्तर से, यह
निष्प्रयोजन
है। तुम उसे
ठीक पाओगे, गलत पाओगे, राजी होओगे,
नाराजी
होओगे, यह
सब व्यर्थ है।
अगर मैं यह
सोचूं तो बासा
हो जायेगा।
इसलिये
पंडित के पास
जाओगे, उसका
उत्तर बासा
होगा क्योंकि
पहले वह सोचता
है, जो मैं
उत्तर दूं, वह शास्त्र
सम्मत है या
नहीं? वेद
भी यही कहते
हैं या नहीं? गीता में भी
यही है या
नहीं? क्योंकि
कृष्ण के
विरोध में
बोलने की
हिम्मत वह न
कर सकेगा। अगर
वह मुसलमान है
तो कुरानों
में तजवीज
करेगा कि मेल
खा जाये। उसकी
एक परंपरा है,
उससे बाहर न
जायेगा।
मेरी
कोई परंपरा
नहीं, मेरा
कोई वेद नहीं,
कोई कुरान
नहीं; या
सभी वेद, कुरान
मेरे हैं।
इसकी मुझे कोई
चिंता नहीं कि
मेरा उत्तर
कृष्ण के
विपरीत पड़ेगा
कि पक्ष में
पड़ेगा। इससे
मुझे कोई
लेना-देना
नहीं कि यह
विचार हिंदू
के अनुकूल
होगा कि
मुसलमान के
अनुकूल होगा।
क्या
इसका परिणाम
होगा अगर
तुमने सोचा, तो उत्तर भी
बासा हो
जायेगा। जो
परिणाम की सोचेगा,
उसके
वक्तव्य बासे
हो जायेंगे।
मैं तुम्हें
सिर्फ दे रहा
हूं। तुमने
पूछा प्रश्न,
मैंने दिया
उत्तर। इसमें
कोई सोच-विचार
नहीं है। यह
तुम्हारे
प्रश्न का
सीधा-सहज
उत्तर है।
सीधा--मैं दे
रहा हूं; सहज--बिना
सोचकर दे रहा
हूं। इसलिये
तुम्हारी बड़ी
कठिनाई है।
अगर
मैं तुम्हें
बंधे और बासे
उत्तर दूं, तुम्हें बड़ी
सुगमता होगी।
क्योंकि तुम
एक तो मेरे
उत्तर पहले से
ही पहचान
जाओगे।
तुम्हें जगने
की जरूरत न
होगी, तुम
सो सकते हो।
क्योंकि
तुम्हें पता
ही है, उत्तर
क्या होगा।
तुम्हें
सुगमता होगी
क्योंकि
तुम्हें
अनुकरण आसान
होगा, क्योंकि
तुम जानते हो
मेरा उत्तर
क्या है! अभी
तुम्हें
अनुकरण बड़ा
मुश्किल है, असंभव है
क्योंकि कल
मैं बदल जाऊंगा।
परसों तुम जब
तक तैयारी
करके आओगे
अनुकरण करने
की, तब तक
मैं कुछ और
कहूंगा। तुम
मेरा अनुकरण न
कर सकोगे। और
मैं चाहता भी
नहीं कि तुम
मेरा अनुकरण
करो क्योंकि
अनुकरण किया
कि तुम मरे।
अनुकरण कब्र
है। मैं रोज
बदलता रहूंगा,
ताकि तुम
अनुकरण न कर
पाओ और तुम सो
भी न पाओ।
तुम्हें
जागकर
सुनना होगा
क्योंकि
उत्तर
तुम्हें पता
नहीं है कि
मैं क्या
दूंगा? मुझे
भी पता नहीं
है। देने के
बाद तुम्हें
पता चलेगा, तभी मुझे भी
पता चलेगा कि
यह उत्तर
दिया। फिर न
तो मैं संगति
वेद से खोज
रहा हूं और न
अपने अतीत से
कि कल मैंने
क्या कहा
था--उससे भी
संगति नहीं
खोज रहा हूं।
दार्शनिक
हैं तो वे
सोचकर चलते
हैं कि कल जो कहा
था, उससे
भिन्न न कहा
जाये; नहीं
तो लोग कहेंगे,
असंगत है।
मैंने वह सब
चिंता छोड़ दी
है। तुम असंगत
कहो, संगत
कहो; तुम
कहो, कल जो
कहा था, आज
का वक्तव्य
उलटा है। तो
मैं कहूंगा, होगा। वह कल
का वक्तव्य था,
यह आज का
वक्तव्य है।
मैं कोई संगति,
कोई कन्सिस्टेन्सी
कल से आज में
नहीं बना रहा
हूं। एक ही
संगति है कि
कल का उत्तर
भी मुझ से आया
था, आज का
उत्तर भी
मुझसे आ रहा
है, बस!
इससे ज्यादा
कोई संगति
नहीं है।
जब तक
तुम उत्तर में
खोजोगे, तुम्हें
विरोधाभास
दिखाई
पड़ेंगे। जब
तुम उत्तर को
हटाकर मुझे खोजोगे, तब तुम्हें
एक संगति की
शृंखला का
दर्शन होगा।
इसलिये
तुम्हारे
प्रश्न बासे
हो जाते हैं।
तुम सोचते हो!
सोचोगे, सब
बासा हो जाता
है।
मन बासापन
है।
मन के
पार जो है, वह सदा ताजा
है, सदा
युवा है। वहां
सब नया है, सब
निर्दोष है!
स्वच्छ...वहां
कभी कुछ मरता
नहीं, वहां
शाश्वत जीवन
है।
आज
इतना ही।
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