अध्याय—9
सूत्र:
ज्ञानयज्ञेन
चाप्यन्ये
यजन्तो
मामुपासते।
एकत्वेन
पृथक्त्वेन
बहुधा
विश्वतोमुखम्
।। 12।।
अहं
क्रतुरहं
यज्ञ:
स्वधाहमहमौषधम्
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमीग्नरहं
हुतम्।। 13।।
कोई
तो मुझ विराट
स्वरूय परमत्मा
को ज्ञान— यज्ञ
के द्वारा
पूजन करते हुए
एकत्व भाव से
अर्थात जो कुछ
है सब वासुदेव
ही है, हम भाव से
उपासते हैं और
दूसरे
पृथकत्व भाव से
अर्थात
स्वामी— सेवक
भाव से और कोई—कोई
अच्छे प्रकार
से भी उपासते
हैं।
क्योंकि
श्रोत—कर्म
अर्थात
वेदविहित
कर्म मैं हूं, यज्ञ मैं
हूं, स्वधा
अर्थात पितरों
के निमित्त
दिया जाने
वाला अन्न मैं
हूं औषधि
अर्थात सब
वनस्पतियां
मै हूं एवं
मंत्र मैं है
घृत मैं हूं
अग्नि मैं हूं
और हवनरूप
क्रिया भी मैं
ही हूं।
मार्ग हैं
अनेक, गंतव्य
एक है। यात्रा—पथ
बहुत हैं, यात्री
भी बहुत हैं, यात्रा की
विधियां भी
बहुत हैं, लेकिन
जब तक यात्री
नहीं मिट जाता,
यात्रा—पथ
नहीं मिट जाता,
यात्रा की
विधियां नहीं
मिट जातीं, तब तक वह
उपलब्ध नहीं
होता, जो
गंतव्य है।
परमात्मा
तक पहुंचने के
लिए दो
व्यक्तियों के
लिए एक ही
मार्ग नहीं हो
सकता, असंभव
है, क्योंकि
दो व्यक्ति
भिन्न हैं। वे
जो भी करेंगे,
भिन्न होगा,
वे जैसे भी
करेंगे, भिन्न
होगा। और हमें
यात्रा वहां
से शुरू करनी
होती है, जहां
हम हैं।
मैं
वहीं से
यात्रा शुरू
करूंगा, जहां मैं
हूं। आप वहां
से यात्रा शुरू
करेंगे, जहां
आप हैं। हमारी
यात्रा का
प्रारंभिक
बिंदु एक नहीं
हो सकता, क्योंकि
दो व्यक्ति एक
ही जगह खड़े
नहीं हो सकते।
लेकिन यात्रा
का अंतिम पड़ाव
एक हो सकता है,
क्योंकि उस
पड़ाव पर
व्यक्ति मिट
जाते हैं। व्यक्तियों
के मिटते ही
व्यक्तियों
की भिन्नता
मिट जाती है।
जब तक
मैं व्यक्ति
हूं, तब
तक मैं जो भी
करूंगा वह
भिन्न होगा, इस सत्य को न
समझ लेने से
मनुष्य के
धर्म का इतिहास
अकारण ही
रक्तपात से, अकारण ही
हिंसा से, अकारण
ही द्वेष से
भर गया है।
प्रत्येक
को ऐसी
प्रतीति हो
सकती है कि
जिस मार्ग पर
मैं जा रहा
हूं वह सही
है। इस
प्रतीति में
कोई भूल भी
नहीं है।
लेकिन जैसे ही
यह भ्रांति भी
भर जाती है कि
जिस मार्ग से
मैं जा रहा हूं
वही सही है, वैसे ही उपद्रव
शुरू हो जाता
है। शायद इतने
से भी उपद्रव
न हो, अगर
मैं यह जानूं
कि यह मार्ग
मेरे लिए सही
है। मेरे लिए
यही मार्ग सही
है। लेकिन
अहंकार यहीं
तक रुकता
नहीं। अहंकार
एक निष्कर्ष
अनजाने ले
लेता है कि जो
मेरे लिए सही
है, वही
सबके लिए भी
सही है।
इसलिए
धर्मों के नाम
से जो उपद्रव
है, वह
धर्मों का
नहीं, अहंकारों
का उपद्रव है।
मेरा अहंकार
यह मानने को
राजी नहीं
होता कि कोई
और ढंग भी सही
हो सकता है।
यही मानने को
तैयार नहीं
होता कि मेरे अतिरिक्त
कोई और भी सही
हो सकता है।
तो मेरा ही
रास्ता होगा
सही, मेरी
उपासना
पद्धति होगी
सही, मेरा
शास्त्र होगा
सही। लेकिन
मेरा यह सही
होना तभी मुझे
रस देगा, जब
मैं सब दूसरों
को गलत कर
डालूं।
और
ध्यान रहे, जो
दूसरों को गलत
करने में लग
जाता है, उसकी
शक्ति और
ऊर्जा उस
मार्ग पर तो
चल ही नहीं
पाती, जिसे
उसने सही कहा
है, उसकी
शक्ति और
ऊर्जा उनको
गलत करने में
लग जाती है, जिन पर उसे
चलना ही नहीं
है।
यह
उपद्रव और भी
गहन हो गया, क्योंकि
हमने धर्मों
को जन्मजात
बना लिया। धर्म
जन्मजात नहीं
हो सकता। धर्म
तो व्यक्तिजात
होगा। कोई
व्यक्ति
पैदाइश से न
हिंदू हो सकता
है, न
मुसलमान हो
सकता है, न
ईसाई हो सकता
है, न जैन
हो सकता है।
पैदाइश से तो
केवल संभावना लेकर
पैदा होता है
कि धार्मिक हो
सकता है या अधार्मिक
हो सकता है।
ये दो
संभावनाएं
होती हैं, ये दो
दरवाजे खुले
होते हैं—धार्मिक
हो सकता है या
अधार्मिक हो
सकता है।
लेकिन हिंदू
या मुसलमान या
ईसाई पैदाइश
से कोई नहीं
होता। हो भी
नहीं सकता।
क्योंकि पिता
का धर्म, या
पिता की
मान्यता खून
से बच्चे में
प्रवेश नही
करती। और हम
किसी आदमी की
हड्डियों और
खून की जांच
करके नहीं कह
सकते हैं कि
ये मुसलमान की
हैं, कि
हिंदू की हैं,
कि जैन की
हैं। एक
व्यक्ति के
शरीर की हम
सारी जांच—पड़ताल
कर डालें, उसके
जीवकोष्ठों
में प्रवेश कर
जाए, उसके
मूल बीज—क्या
में उतर जाएं,
उसकी भी
जांच कर लें, तो धर्म का
कोई भी पता
नहीं चलेगा।
लेकिन
एक उपद्रव
पैदा हुआ कि
हमने धर्मों
को जन्मजात कर
लिया है। तो
एक मुसलमान के
बेटे को मुसलमान
होना पड़ता है, एक हिंदू के
बेटे को हिंदू
होना पड़ता है।
जरूरी नहीं है
कि यह बात
उसके
व्यक्तित्व
के ढांचे से
मेल खाए। तब
खतरे होते
हैं। तब खतरा
बड़ा यह होता
है कि जो धर्म
उसका मार्ग बन
सकता था, वह
जन्म से उसे
अगर न मिला हो,
तो अड़चन
पैदा हो जाती
है। वह अड़चन
गहरी है।
इधर
मैं जानता हूं
ऐसे लोगों को, जो कि
हिंदू के घर
में न पैदा
होकर अगर
मुसलमान के घर
में पैदा हुए
होते, तो
उन्हें लाभ हो
जाता। ऐसे
लोगों को
जानता हूं,
जो मुसलमान के
घर में पैदा न
होकर हिंदू के
घर में पैदा
होते, तो
उनके जीवन में
धर्म के फूल
खिल जाते।
उनके व्यक्तित्व
का ढांचा और
उनके जन्म के
ढाचे का कोई
मेल नहीं है।
जन्म
एक और बात है)
धर्म एक और
बात है। जन्म
शरीर की बात
है, धर्म
व्यक्ति के
टाइप की खोज
है। धर्म
व्यक्ति की
अंतरात्मा की
तलाश है। और
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने ही ढंग
से अपने धर्म
को खोजना चाहिए।
स्वधर्म की
खोज जन्म से
पूरी नहीं
होती, स्वधर्म
की खोज करनी
पड़ती है।
इसलिए
एक और घटना
घटती है कि
सभी धर्म जब
पहली दफा
अवतरित होते
हैं, तो
उनमें जो जीवन
और जो तेज
होता है, वह
समय के बीतते—बीतते
क्षीण हो जाता
है। जब भी कोई
नया धर्म अवतरित
होता है—नए
धर्म का अर्थ
है, जब कोई
नया टाइप, व्यक्तित्व
का कोई नया
ढंग परमात्मा
की तरफ जाने
का मार्ग खोज
लेता है, तो
एक नए धर्म का
सूत्रपात
होता है—जब भी
कोई नया धर्म
पैदा होता है,
तो उसमें एक
ताजगी, एक
प्रफुल्लता, एक जीवन का
बहाव होता है।
मोहम्मद
के समय में जो
इस्लाम की
खूबी थी, वह आज नहीं
है। हो नहीं
सकती। कृष्ण
के समय में, .कृष्ण की
मौजूदगी में
जो कृष्ण के
आस—पास घटित
हुआ था, वह
आज नहीं हो
सकता। महावीर
के साथ जो
पहली दफा जैन
हुए थे, उनके
बच्चे उसी
अर्थों में
जैन नहीं हो
सकते। क्योंकि
महावीर के पास
जिन्होंने
पहली दफा 'जैन
होने का
निर्णय लिया
था, वह
उनका काशस
डिसीजन था; वह उनका
चेतना से लिया
गया संकल्प
था। वह उन्होंने
चुना था। वह
उनकी अपनी
निष्ठा थी। वह
उधार नहीं थी।
वह बाप—दादों
से नहीं आई
थी। उसके लिए
उन्होंने
स्वयं खोज की
थी।
इसलिए
महावीर के आस—पास
जो लोग जैन
हुए, उनके
जैन होने में
जो रस था, उनके
जैन होने में
जो प्राण था, वह किसी जैन
के बेटे को
नहीं हो सकता।
होने का कोई
कारण नहीं है।
क्योंकि वह रस
और प्राण स्वयं
के चुनाव से
उत्पन्न होता
है।
अगर
कोई व्यक्ति
गलत मार्ग भी
चुन ले अपनी
पूरी निष्ठा
के साथ, तो मैं कहता
हूं वह
परमात्मा तक
पहुंच जाएगा। क्योंकि
निष्ठा
पहुंचाती है,
मार्ग
नहीं। और कोई
व्यक्ति अगर
उधार निष्ठा से
ठीक से ठीक
मार्ग भी चुन
ले, तो कभी
परमात्मा तक
नहीं पहुंचता
है। क्योंकि
निष्ठा
पहुंचाती है,
मार्ग
नहीं। निष्ठा
है बल। मार्ग
में बल नहीं है,
मेरे
संकल्प में बल
है।
लेकिन
जन्म से तो संकल्प
मिलता नहीं!
जन्म से
सिद्धात
मिलते हैं, शास्त्र
मिलता है, जन्म
से शब्द मिलते
हैं, संकल्प
नहीं मिलता।
इसलिए जन्म के
साथ जब तक दुनिया
में धर्म बंधा
रहेगा, तब
तक दुनिया
अधार्मिक
रहने को मजबूर
रहेगी, आदमी
को अधार्मिक
रहना पड़ेगा।
क्योंकि हम धार्मिक
होने का चुनाव
नहीं देते।
इसे
ऐसा समझें, मैं
मुसलमान घर
में पैदा हुआ
हूं। अगर वह
मार्ग मेरी
व्यक्तिगत
रुझान में
नहीं बैठता, अगर वहां
मैं नहीं हूं, जहां से उस
मार्ग पर चल
सकूं अगर मैं
ऐसा नहीं हूं, जो उस मार्ग
से संयुक्त हो
सके, अगर
मुझ में और उस
मार्ग में कोई
तालमेल नहीं
बैठता र तो
मेरे सामने एक
ही उपाय रह जाता
है कि मैं
अधार्मिक हो
जाऊं।
इस
दुनिया में जो
इतने
अधार्मिक लोग
दिखाई पड़ते
हैं, इतने
अधार्मिक
नहीं हैं ये!
इनका केवल
दुर्भाग्य एक
है कि ये जन्म
के साथ धर्म
को बांधने की चेष्टा
में संलग्न
हैं। और जब हम
बीस—पच्चीस
वर्ष तक एक
व्यक्ति को एक
धर्म की
शिक्षा दें, तो वह उसके
अंतस—चेतन में
प्रवेश कर
जाती है, फिर
वह धर्म
परिवर्तित भी
नहीं कर सकता।
अगर एक
हिंदू
मुसलमान हो
जाए, वह
लाख उपाय करे
मुसलमान होने
का, उसके
भीतर का हिंदू
जो पच्चीस साल
तक उसके भीतर
निर्मित हुआ
है, कभी भी
मिट नहीं
सकता। कभी भी
मिट नहीं सकता,
वह उसके
भीतर बना ही
रहेगा।
एक
हिंदू ईसाई हो
जाए, लेकिन
उसके अंतस—चेतन
में जो प्रवेश
कर गया है, वह
उसकी
आधारभूमि
रहेगी। उसकी
ईसाइयत के नीचे
हिंदू का रंग
रहेगा। वह
चर्च में जीसस
को हाथ जोड़ेगा,
लेकिन हाथ
जोड्ने के ढंग
वही होंगे, जो राम के
मंदिर में रहे
थे। उसका अंतस—चेतन,
उसका अनकांशस
निर्मित हो
चुका है।
अब
मनसविद कहते
हैं कि सात
साल में अंतस—चेतन
निर्मित हो
जाता है। और
सात साल के
बाद उसे बदलना
असंभव के करीब
है। सात साल
की उम्र में
अंतस—चेतन
निर्मित हो
जाता है, आधार रख दिए
जाते हैं, फिर
भवन उसके ऊपर
ही उठेगा।
अगर एक
व्यक्ति को
ऐसे धर्म में
जन्म मिल गया, जिससे उसका
मेल नहीं खाता—और
सौ में से
नब्बे मौके पर
यह घटना
घटेगी। क्योंकि
जन्म का धर्म
से कोई संबंध
नहीं है, धर्म
का संबंध
संकल्पपूर्वक
चुनाव से है।
व्यक्ति को
धार्मिक होना
पड़ता है, धार्मिक
कोई पैदा नहीं
हो सकता। और
यह गौरव की
बात है। अगर
हम धार्मिक
पैदा ही होते
हों, तो
धर्म बड़ी
साधारण बात रह
जाएगी। अगर हम
धार्मिक इसी
तरह होते हों—जैसे
बाप से आंख
पाते हैं, जैसे
बाप से हाथ
पाते हैं, जैसे
बाप से शरीर
का रंग पाते
हैं—अगर ऐसे
ही हम धर्म भी
पाते हों, तो
धर्म भी
बायोलाजिकल, एक जैविक
घटना हो
जाएगी।
तब तो
इसका अर्थ हुआ
कि शरीर ही
नहीं, आत्मा
भी हम बाप से
पाते हैं; जो
कि सरासर झूठ
है। शरीर
मिलता है माता
और पिता से, तो शरीर का
जो भी है, वह
माता—पिता से
मिलता है।
लेकिन आत्मा
माता—पिता से
नहीं मिलती, आत्मा की
यात्रा
अन्यथा है, अलग है।
और
आत्मा की
यात्रा का
सबसे
महत्वपूर्ण
मुकाम यह है
कि आत्मा हर
संकल्प से
विकसित होती
है। जितना बडा
संकल्प, उतनी आत्मा
सबल होती है।
और धर्म इस
जगत में सबसे
बड़ा संकल्प है,
सबसे बड़ी
चुनौती है, सबसे बड़ा
अभियान है, दुस्साहस
है। क्योंकि
अज्ञात में
छलांग है, उसकी
खोज है, जिसका
हमें कोई भी
पता नहीं, उस
तरफ की यात्रा
है, जिस
तरफ के हमें
कोई संकेत भी
नहीं मिलते, उस सागर में
उतरना है, जिसका
कोई नक्श नहीं
है। और एक
अनजान में, अपरिचित
मार्ग पर भटक
जाने का डर है,
पहुंच जाने
की उम्मीद कम
है। इसलिए
धर्म सबसे बड़ा
साहस है; दुस्साहस
है। कमजोर का
काम नहीं है
धर्म। लेकिन
आमतौर से हम
देखते हैं, कमजोर धर्म
से जुड़ा हुआ
दिखाई पड़ता
है। अक्सर ऐसा
दिखाई पड़ता है,
जितने
कमजोर लोग हैं,
वे सब धर्म
की आड़ में खड़े
हो जाते हैं।
इन कमजोरों ने
ही धर्म को
जन्म का
हिस्सा बना
दिया, क्योंकि
सुविधा है
उसमें। धर्म
को भी चुनने की
कठिनाई न रही!
इतना भी श्रम
न उठाना पड़ेगा
अब कि धर्म को
चुनें। वह भी
जन्म के साथ
जुड़कर लेबिल
की तरह मिल
जाएगा। उसे
हमें चुनना
नहीं पड़ेगा, खोजना नहीं
पड़ेगा, अन्वेषण
नहीं करना पड़ेगा,
भूल—चूक
नहीं करनी
पड़ेगी, बच
जाएंगे सब भूल—चूक
से!
तो फिर
एक लेबिल ही
मिलेगा, धर्म मिलने
वाला नहीं है!
कृष्ण
ने कहा है कि
स्वधर्म।
लेकिन लोग
अक्सर समझते
हैं कि
स्वधर्म का
मतलब है, जिस धर्म
में पैदा हुए!
भूलकर ऐसा मत समझना!
कोई धर्म में
पैदा होता ही
नहीं, धर्म
खोजना पड़ता
है। यह एक
अंतखोंज है।
यह एक अंतखोंज
है सत्य की, और निजी है।
और हर आदमी को
खोजना पड़ता
है। यह उधार
मिलता ही
नहीं।
अगर
कोई सोचता हो, किसी
गुरु से मिल
जाएगा, अगर
कोई सोचता हो,
किसी से मिल
जाएगा, तो
गलती है।
खोजना ही
पड़ेगा।
खोजेंगे, तो
ही गुरु भी
मिलेगा।
खोजेंगे, तो
ही किसी से भी
मिलने का
मार्ग साफ
होगा। लेकिन
यह मुरदे
हस्तांतरण से
नहीं मिलता।
कोई ट्रासफर
नहीं कर सकता।
कोई बाप लिख
नहीं जा सकता
कि मेरे धन के
साथ मैं धर्म
भी अपने बेटे
को वसीयत में
देता हूं।
नहीं तो
दुनिया में
जैसे धन बढ़
गया, ऐसे
ही धर्म भी बढ़
गया होता।
दुनिया
में धन बहुत
बढ़ गया है। दो
हजार साल पीछे
लौटें, धन ' और कम
था। और पांच
हजार साल पीछे
लौटें, धन
और कम था।
दुनिया में सब
चीजें बढ़ गईं,
जिनकी
वसीयत हो सकती
थी। सिर्फ
धर्म नहीं बढ़ा।
बल्कि धर्म कम
हो गया मालूम
पड़ता है। जरूर
कहीं कोई फर्क
है।
जो भी
चीज वसीयत की
जा सकती है, वह बढ़
जाएगी।
दुनिया की
भाषाएं बढ़ गईं,
दुनिया का
वैज्ञानिक
ज्ञान बढ़ गया,
दुनिया में
किताबें बढ़
गईं, दुनिया
के मकान बढ़ गए;
दुनिया में
आदमी बढ़ गए।
दुनिया में सब
बढ़ गया है, जो
भी वसीयत हो
सकती है।
क्योंकि बाप
दे जाता है
बेटे को, तो
बाप ने जो भी
कमाया था, उसके
ऊपर बेटा
कमाना शुरू
करता है। फिर
बेटा उसमें
जोड़ देता है, अपने बेटे
को दे जाता
है। बाप की भी
कमाई, अपनी
भी कमाई, बेटा
वहा से शुरू
करता है।
तो जगत
में सब चीजें
बढ़ती जा रही
हैं, प्रोग्रेसिव
हैं, गतिमान
हैं, सिर्फ
एक चीज घटती
जा रही है, वह
धर्म है।
लेकिन शायद
आपने कभी सोचा
न हो, इसका
कारण क्या है?
यह धर्म
क्यों घटता जा
रहा है?
नासमझ
हैं, वे
कहते हैं कि
धर्म इसलिए घट
रहा है कि
वैज्ञानिकों
ने अधार्मिक
बातें कर दीं,
वे कहते हैं,
लोग
नास्तिक हो गए;
वे कहते हैं,
लोग भौतिकवादी
हो गए; वे
कहते हैं, लोग
बिगड़ गए। ये
सब बातें गलत
हैं। कोई
बिगड़ा नहीं
है। कोई
नास्तिक नहीं
हो गया है।
किसी भौतिकवादी
की बातों से
धर्म का कुछ
बिगड़ नहीं सकता।
और धर्म अगर
इतना कमजोर है
कि वैज्ञानिक
की बातों से
मिट जाए और
भौतिकवादी की
बातों से मिट
जाए, तो किसी
योग्य भी नहीं
है, मिट ही
जाना चाहिए।
धर्म इतना
कमजोर नहीं
है। धर्म के
घट जाने का
कारण और है।
धर्म
वसीयत नहीं
किया जा सकता।
इसलिए आप धर्म
के मामले में
अपने बाप के
कंधे पर खड़े
नहीं हो सकते।
आपको अपने ही
पैर की जमीन
खोजनी पड़ती है।
इसलिए धर्म
में बढ़ती नहीं
हो सकती है हर
पीढ़ी के साथ।
एक ही रास्ता
है बढ़ती का कि
हर पीढ़ी धर्म
को खोजती चली
जाए। लेकिन
अगर हम अपने
बाप की वसीयत
पर सोचते हों
कि धर्म मिल
जाएगा, तो धर्म खो
जाएगा। तब हम
झूठे धर्म में
खड़े रह जाएंगे।
इसलिए
कृष्ण ने इस
सूत्र में
बहुत कीमत की
बात कही है। पहली, कि बहुत—बहुत
रूपों से मेरी
तरफ मार्ग आते
हैं। कोई हैं,
जो मुझ
विराट स्वरूप
परमात्मा को
ज्ञान के द्वारा
पूजते हैं। ज्ञान
ही उनका यश
है। एकत्व—
भाव से, जो
कुछ है, सब
वासुदेव ही है,
ऐसे भाव से
उपासते हैं।
यह पहला वर्ग
है बड़ा।
तीन
वर्ग हैं। एक
वर्ग है, जिसके
व्यक्तित्व
का ढांचा
ज्ञान का है।
इसे हम थोड़ा
समझ लें।
इसमें भी बहुत
शाखाएं होंगी,
लेकिन फिर
भी एक मोटा
विभाजन किया
जा सकता है।
एक
वर्ग है
मनुष्य का, जिसका
ढांचा ज्ञान
का है। ज्ञान
के ढाचे से
अर्थ है, ऐसा
व्यक्ति
जानने को आतुर
होता है। ऐसा
व्यक्ति अपना
जीवन भी गंवा
सकता है जानने
के लिए। जानना
उसका सबसे बड़ा
रस है।
जिज्ञासा
उसका मार्ग
है। वह कुछ भी
खो सकता है।
वह कुछ भी दाव
पर लगा सकता है।
उसे अगर इतना
भर पता चले कि
एक इंच ज्यादा
मेरा जानना हो
जाएगा, तो
वह सब कुछ
.दांव पर लगा
सकता है। अगर
आप ऐसे व्यक्ति
से पूछें कि
जानकर क्या
करोगे? तो
वह कहेगा, जानकर
करने की कोई
जरूरत नहीं, जानना काफी
है। ऐसा
व्यक्ति
कहेगा कि
जानना पर्याप्त
है, नालेज
फार नालेज
सेक। वह कहेगा,
जानना
जानने के लिए
ही। जानना
काफी है, और
क्या करना है!
बुद्ध जैसा
व्यक्ति है, जानना काफी
है। उसके लिए
जानना ही उसकी
आत्मा बन जाती
है।
जो
जानने की दिशा
में चलेगा, वह अंततः
पाएगा कि एक
ही शेष रहा, क्योंकि
ज्ञान का जो
अंतिम चरण है,
वह अद्वैत
है। क्यों ऐसा
है, इसे हम
थोड़ा समझें।
जब भी
हम कुछ जानते
हैं, जब
भी हम कुछ
जानते हैं, तो जानने की
घटना में तीन
हिस्से टूट
जाते हैं।
जानने वाला
अलग हो जाता
है, जिसे
जानता है, वह
जानी जाने
वाली चीज अलग
हो जाती है और
दोनों के बीच
ज्ञान का
संबंध घटित
होता है। तो
ज्ञान तीन
हिस्से में
टूट जाता है, ज्ञाता, ज्ञेय,
और ज्ञान; दि नोअर, दि
नोन, एड।
ज्ञान तीन
हिस्सों में
टूट जाता है।
लेकिन
ज्ञानी की जो आकांक्षा
है, वह
किसी चीज को
बाहर से जानने'
की नहीं है।
क्योंकि बाहर
से जाना, तो
क्या जाना!
अगर मैं आपके
पास आऊं और
आपके चारों
तरफ घूमकर
आपको जान लूं
तो जानने वाले
की इच्छा
पूर्ण नहीं
होगी, क्योंकि
यह जानना न
हुआ, केवल
परिचय हुआ।
अगर मैं जाऊं
और एक वृक्ष
के चारों तरफ
चक्कर लगाकर देख
लूं तो यह
जानना न हुआ; एक्येनटेंस
हुआ, पहचान
हुई।
तो
जानने की
जिसकी खोज है, वह इतने
से राजी नहीं
होगा। वह तो
कहेगा, जब
तक मैं वृक्ष
ही न हो जाऊं, तब तक जानना
पूरा नहीं है।
क्योंकि जब तक
मैं वृक्ष से
जरा भी दूर
रहूंगा, तब
तक बाहरी
परिचय रहेगा,
भीतरी
पहचान नहीं
होगी। भीतरी
पहचान का तो
एक ही रास्ता
है कि मैं
वृक्ष के फूल
को बाहर से न देखूं
इस तरह वृक्ष
में लीन हो
जाऊं कि मैं
फैल जाऊं
वृक्ष के
पत्तों में, शाखाओं में,
जड़ों में, फूल में।
मैं वृक्ष के
भीतर एक हो
जाऊं। मुझमें
और वृक्ष में
रत्तीभर का
फासला न रह जाए,
तब जानना
घटित होगा। तब
मैं कह सकूंगा,
मैंने
वृक्ष को
जाना। अगर
बाहर से ही
जाना, तो
इतना ही कह
सकूंगा कि
वृक्ष की थोड़ी
मुझे पहचान
है। लेकिन
दूरी है इस
पहचान में।
तो
ज्ञान की
प्रक्रिया
में टूट जाती
है घटना तीन
में। लेकिन जो
ज्ञान का खोजी
है, वह
इस कोशिश में
रहेगा कि एक
दिन ऐसा आए, जब शांता
ज्ञेय हो जाए;
व्हेन दि
नोअर बिकम्स
दि नोन, ऑर
दि नोन बिकम्स
दि नोअर, व्हेन
दि आब्जर्वर
इज दि
आब्जर्ब्द, जब दोनों एक
हो जाएं। उसके
पहले ज्ञानी
की तृप्ति
नहीं है।
इसलिए
अगर हम ज्ञानी
से कहें कि
परमात्मा
आकाश में है, वह मानने
को राजी नहीं
होगा। वह तो
कहेगा, जब
मेरी
अंतरात्मा
में होगा, तभी
मैं मान सकता
हूं। या मैं
परमात्मा की
अंतरात्मा
में प्रविष्ट
हो जाऊं, तब
मैं मान सकता
हूं। इसके
पहले मेरे
मानने का कोई
भी उपाय नहीं
है।
इसलिए
आकाश का
परमात्मा
इतनी के काम
नहीं आएगा।
अगर हम कहें
कि मंदिर की
प्रतिमा में
परमात्मा है, तो वह उसे
नहीं मान
सकेगा।
क्योंकि
प्रतिमा के आस—पास
घूमा जा सकता
है, प्रतिमा
में प्रवेश
कैसे होगा? अगर हम कहें,
शास्त्रों
में परमात्मा
है, तो वह
कहेगा, शास्त्रों
को पढ़ा जा
सकता है, शब्दों
को समझा जा
सकता है, लेकिन
प्रवेश कैसे
होगा?
ज्ञानी
की आत्यंतिक
खोज इस बात के
लिए है कि कब
मैं उसके साथ
एक हो जाऊं, तभी
जानूंगा कि
जाना। उसके
पहले सब जानना
फिजूल है।
उसके पहले
जिसे हम जानना
कहते हैं, वह
जानना
नहीं है।
बर्ट्रेड
रसेल ने ज्ञान
के दो हिस्से
किए हैं; वे ठीक हैं।
बर्ट्रेड
रसेल ने कहा
है, एक तो
ज्ञान है, जिसे
हम कहें एक्वेनटेंस,
परिचय। और
एक वस्तुत:
ज्ञान है, जिसे
हम नालेज
कहें।
परिचय
का मतलब है, बाहर से।
और ज्ञान का
मतलब है, भीतर
से।
इसका
तो यह अर्थ
हुआ कि समस्त
विज्ञान
परिचय है, क्योंकि
काई
वैज्ञानिक
कितना ही जान
ले, बाहर
ही खड़ा रहता
है। असल में
विज्ञान का तो
आधार ही यही
है कि जानने
वाले को बाहर
खड़ा रहना चाहिए।
यहीं धर्म और
विज्ञान के
जानने में फर्क
पड़ जाता है।
वैज्ञानिक
बाहर खड़ा रहता
है। अपनी
प्रयोगशाला
में खड़ा है, जांच रहा है।
घटना उसकी
टेबल पर घट
रही है, वह
दूर खड़ा देख
रहा है। बल्कि
वैज्ञानिक का
नियम यह है कि
दूरी इतनी
होनी चाहिए कि
अपना भाव प्रविष्ट
न हो जाए।
वैज्ञानिक को
बिलकुल निष्पक्ष
होना चाहिए।
निष्पक्ष
होने के लिए
दूरी चाहिए, पर्सपेक्टिव
चाहिए, फासला
चाहिए। बहुत
पास हो जाओ, तो मन का
लगाव बन सकता
है। लगाव नहीं
होना चाहिए।
निष्पक्ष, एक
जज की हैसियत
से दूर खड़े
होकर देखते
रहो। जो हो
रहा है, वही
देखो। अपने को
उसमें प्रवेश
मत करो। अन्यथा
तुम वह भी देख
सकते हो, जो
नहीं हो रहा
है, जो तुम
चाहते हो, होना
चाहिए, वह
भी देख सकते
हो। इसलिए
दूरी रखो, भीतर
प्रवेश मत कर
जाओ। बी एन
आब्जर्वर, बट
डोंट बी ए
पार्टिसिपेट।
निरीक्षक तो
रहो, लेकिन
भागीदार मत बन
जाओ।
इसलिए
विज्ञान कभी
परमात्मा को
नहीं जान पाएगा
उन अर्थों में, जिन
अर्थों में
कृष्ण शानी की
बात कर रहे
हैं। क्योंकि
वहा दूसरी
शर्त है। वहां
यह शर्त है, डोंट बी
जस्ट एन
आब्जर्वर, बी
ए
पार्टिसिपेट।
बाहर मत खड़े
रहो, भीतर
आ जाओ। दूर मत
खड़े रहो, दूरी
गिरा दो।
क्योंकि दूर
से तुम जो
जानोगे, वह
बाहरी पहचान
होगी। भीतर आओ,
अंतरतम में
प्रविष्ट हो
जाओ। वहां आ
जाओ,जिसके
भीतर और जाने
का उपाय नहीं
है। आखिरी
केंद्र पर आ
जाओ, परिधि
को छोड़ दो। उस
केंद्र पर आ
जाओ, जिसके
भीतर और जाने
की सुविधा ही
नहीं है। तभी
तुम जान
पाओगे।
तो
ज्ञान एक दिशा
है। इस दिशा में
बहुत मार्ग
जाते हैं, क्योंकि
फिर ज्ञान के
भी बहुत—बहुत
रूप हो जाते
हैं। लेकिन
मोटे अर्थों
में मनुष्य का
एक विभाजन है।
जिन
लोगों को
जानने की खोज
है, उनके
लिए भक्ति सदा
फिजूल मालूम
पड़ेगी। कीर्तन
हो रहा होगा, तो वे
कहेंगे, यह
क्या पागलपन
है! कोई गीत गा
रहा होगा, वे
कहेंगे, इससे
क्या होगा! 'कोई मंदिर
में पूजा करता
होगा, तो
उन्हें समझ
में नहीं
पड़ेगी।
दूसरे
का मार्ग कभी
भी समझ में
नहीं पड़ता।
लेकिन समझदार
उसी का नाम है, जो दूसरे
के मार्ग को
भी होने की
सुविधा देता
है, चाहे
उसकी समझ में
न भी पड़ता
हो। जब मैं यह
कहूं कि मुझे
यह कीर्तन समझ
में नहीं पड़
रहा है, तो
मैं इतना ही
कह रहा हूं कि
मुझसे इसका
कहीं ताल—मेल
नहीं खाता।
लेकिन हम
जल्दी आगे बढ़
जाते हैं। हम
कहते हैं, यह
गलत है। वहां
भूल शुरू हो
जाती है। मेरे
लिए गलत होगा,
तो भी किसी
और के लिए सही
हो सकता है।
मेरे लिए भ्रांत
होगा, मेरे
लिए नहीं होगा
ठीक, तो भी
किसी और के
लिए बिलकुल
ठीक हो सकता
है।
कृष्ण
कहते हैं, यह पहला विभाजन
है ज्ञान का।
लेकिन
जब भी कोई
अपने विभाजन
के आर—पार
जाने लगता है, तो
दूसरों को
नुकसान
पहुंचाना
शुरू कर देता
है। अपने
मार्ग पर चलना
तो उचित है, लेकिन
दूसरों के
मार्गों को
विचलित करना :
अनुचित है।
बहुत
बार ज्ञान के
मार्ग पर चलने
वाले लोगों ने
भक्ति के मार्ग
पर जाते हुए
लोगों के
मार्ग में बड़ी
बाधाएं और बड़ी
अडचनें खड़ी कर
दी हैं, अनजाने ही।
क्योंकि उनके
लिए जो ठीक
नहीं लगता, वे कहते हैं,
ठीक नहीं
है। लेकिन
किसी दूसरे
मार्ग पर वह
बिलकुल ही ठीक
हो सकता है।
कृष्ण
कहते हैं, यह जो
पहली उपासना
है, ज्ञान—यज्ञ
का पूजन !, करने
वाले जो लोग
हैं, वे
एकत्व— भाव से,
जो कुछ है, परमात्मा है,
ऐसी
प्रतीति में
रमते हैं। यही
उनकी उपासना है।
वे मुझे सभी
में खोज लेते
हैं। वे सभी
में मुझे देख
लेते हैं। वे
सब पर्दों को
हटा देते हैं
और जो पर्दों
के भीतर छिपा
है, उसकी
झलक पा लेते
हैं।
यह झलक
एक की झलक है, सारे भेद
पर्दों के भेद
हैं। पर्दे सब
हट जाए, तो
जो भीतर छिपा
है, वह एक
है। जैसे हम
सब मकानों को
गिरा दें, तो
सभी मकानों के
भीतर से जो
आकाश प्रकट
होगा, ! वह
एक होगा।
लेकिन
सब मकान जब तक
बने हैं, तब तक सभी
मकानों की
दीवालों में
घिरा हुआ आकाश
अलग मालूम
पड़ता है। किसी
मकान की
दीवालें लाल
हैं, और
किसी की पीली
हैं, और
किसी की गरीब
हैं, और
किसी की मकान
की दीवालें
धनी हैं, और
किसी का मकान
आकाश छूता है,
और किसी का
जमीन छू रहा
है। बहुत—बहुत
फासले हैं।
झोपड़े .हैं और
महल हैं, वह
भीतर छिपा जो
आकाश है, अलग—अलग
मालूम पड़ता
है।
कौन
मानने को
तैयार होगा कि
झोपड़े के भीतर
भी वही आकाश
है जो महल के
भीतर है? कौन 'मानने
को तैयार होगा?
कोई
मानने को
तैयार नहीं
होगा। कहेगा
कि महल में जो
आकाश है, वह बात ही और
है। वह
स्वर्णमडित
है, हीरे—जवाहरातों
से सजा है।
सुगंध से
भरपूर है।
उसकी ज्ञान और
है, उसका
विलास और है।
झोपड़े का भी
एक गरीब आकाश
है, दीन है,
दरिद्र है।
लेकिन
आकाश भी कहीं
भिन्न हो सकता
है? झोपड़ा
होगा दीन—दरिद्र;
महल होगा
समृद्ध, लेकिन
भीतर जो आकाश
है, दोनों
के भीतर जो
रिक्त स्थान
है, वह
कैसे भिन्न हो
सकता है? लेकिन
झोपड़ा भिन्न
दिखाई पड़ता
है, महल
भिन्न दिखाई
पड़ता है।
अभिन्नता
तब तक न दिखाई
पडेगी, जब तक हम
झोपड़े और महल
को मिटाकर न
देखें। झोपड़े
को भी मिटा
दें, महल
को भी मिटा
दें, और
फिर फर्क करने
जाएं कि दोनों
के भीतर जो छिपा
आकाश था, अब
उसमें कुछ भेद
रहा? एक
दीन, एक
समृद्ध! एक
गरीब, एक
अमीर! एक
स्वर्णमडित, एक
भिक्षापात्र
से भरा!
अब उन
आकाशों में
कोई भी भेद न
रह जाएगा।
ज्ञानी
की खोज उसकी
खोज है, जो सभी
रूपों के भीतर
छिपा है, सभी
आकारों के
भीतर छिपा है।
और ज्ञानी जब
तक उस निराकार
को नहीं खोज
लेता, जो
सभी आकारों
में रमा है, तब तक उसकी
तृप्ति नहीं
है। इसलिए
ज्ञानी अक्सर,
साकार की जो
पूजा करते हैं,
उनके खिलाफ
मालूम पड़ेa*aाँ। उसके
खिलाफ होने का
कारण है, उसकी
खोज। उसकी खोज
निराकार की
है। इसलिए जब
आपको देखेगा
किसी आकार की
कर रहे हैं, तो कहेगा, क्या पागलपन
में पड़े हो!
उसे खोजो, जो
निराकार है!
लेकिन
उसे पता नहीं
कि कोई और
आकार से भी
उसकी यात्रा
पर जा सकता
है। उसकी हम
पीछे बात
करेंगे।
यह जो
निराकार, एकत्व, सब
में ही
वासुदेव को
देख लेने
वारना है, समझ
लेना चाहिए कि
क्या यह मेरा
मार्ग है? खोज
लेना चाहिए
तालमेल
बिठाना चाहिए,
क्या ज्ञान
मेरी खोज है? क्या मैं उस
तरह का
व्यक्ति हूं
जो सब आकारों को
गिराकर
निराकार की
तलाश में लगा
हूं? क्या
उससे मेरी
तृप्ति होगी?
क्या वही
मेरी आत्मा की
अभीप्सा है? वही मेरी
प्यास है? अगर
नहीं है, तो
उस उपद्रव में
कभी भी पड़ना
नहीं चाहिए।
अगर है, तो
शेष सब को
भूलकर उसमें
पूरी तरह लीन
हो जाना
चाहिए। यह
स्वधर्म की
खोज है।
कृष्ण
कहते हैं, दूसरे
पृथकत्व भाव
से, द्वैत
भाव से, अर्थात
स्वामी—सेवक
भाव से मेरी
उपासना करते
हैं।
दूसरा
वर्ग है भक्त
का। भक्त की
खोज बिलकुल भिन्न
है। खोज का
अंत बिलकुल एक
है, खोज
का मार्ग बिलकुल
भिन्न है।
भक्त !, कहता
है, जानने
से कोई
प्रयोजन
नहीं। जानने
में भक्त को
बिलकुल रूखा—सूखापन
मालूम पड़ता
है। है भी
शब्द रूखा। ज्ञान
बड़ा रूखा शब्द
है। उसमें
कहीं कोई रस—
धार नहीं
बहती। ज्ञान
बिलकुल
मस्तिष्क की
बात मालूम
पड़ती है, उसमें
हृदय की धड़कन
नहीं सुनाई
पड़ती। ज्ञान
एक गणित का
फार्मूला
मालूम पड़ता है,
किसी फूल का
खिलना नहीं।
भक्त
कहता है, जानने से
क्या होगा? प्रेम!
जानना कुछ
मतलब का नहीं
है। वह कहता
है, जब तक
मैं उसे प्रेम
न कर पाऊं, तब
तक मेरी कोई
तृप्ति नहीं
है। नोइंग
नहीं, लविंग।
जानना नहीं, उसके प्रेम
में डूब जाना।
भक्त
कहता है, जानना भी
बाहर ही बाहर
है, कितने
ही भीतर चले
जाओ, जानना
फिर भी बाहर
है। और भक्त
ठीक कहती है।
अपनी जगह से
बिलकुल ठीक
कहता है। वह
कहता है, जब
तक प्रेम में
न डूब जाओ, तब
तक असली जानना
कहां! क्योंकि
भक्त कहता है कि
प्रेम ही जानने
का मार्ग है।
अब इसे
ऐसा समझें, एक
डाक्टर है, वह एक मरीज
के पास खड़ा
हुआ है एक घर
में। मरीज मरणासन्न
है। मर रहा
है। डाक्टर
उसकी नाड़ी अपने
हाथ में लिए
हुए खड़ा है, तत्पर। नाडी
की एक—एक धड़कन
उसकी समझ में
आ रही है।
मरीज के हृदय
की धड़कन उसकी
समझ में आ रही
है। मरीज के
खून की चाल
उसकी समझ में
आ रही है।
मरीज की
अवस्था उसके
पूरे ज्ञान
में है।
पास
में ही उस
मरीज की पत्नी
छाती पीटकर रो
रही है। हाथ
उसका नाड़ी पर
नहीं है मरीज
की। हृदय की
धड़कन का उसे
कुछ पता नहीं
है। मरीज की
क्या अवस्था
है, उसका
उसे कोई ज्ञान
नहीं है। लेकिन
उसके आंसू बहे
जा रहे हैं।
उसके प्राण
संकट में हैं।
वह मरीज नहीं
मर रहा है, वह
खुद मर रही
है। इस मरीज
के साथ उसका
मरना घटित हो
रहा है।
इन
दोनों के
जानने में बड़ा
फर्क है।
डाक्टर का
जानना कितना
ही गहरा हो, बहुत
गहरा नहीं है।
पत्नी का
जानना बिलकुल
भी नहीं है।
इसे कुछ भी
पता नहीं है
कि घडीभर बाद
यह आदमी मर
जाएगा कि
बचेगा, कि
क्या होगा। कि
इसके शरीर में
क्या कमी है और
क्या ज्यादा
है, और
क्या घट रहा
है—इसे कुछ भी
पता नहीं है।
गणित
का इसे कोई भी
पता नहीं है।
लेकिन किसी अंतस्तल
पर इसे पता है
कि घटना
समाप्त हो गई।
जीवन बुझने के
करीब है। इसे
कुछ भी पता
नहीं है। इसके
पास कोई यंत्र
जानने के नहीं
हैं। लेकिन
इसकी अंतस—चेतना
आंसुओ से भर
गई है। इसकी
अंतस—चेतना पर
मृत्यु की
छाया आ गई है।
डाक्टर
समझाता भी है
कि घबड़ाओ मत, अभी कोई
घबड़ाने की बात
नहीं है, लेकिन
घबड़ाहट नहीं
रुकती।
डाक्टर कहता
है, मरीज
बच जाएगा, तो
भी उस स्त्री
की आंखों में
भरोसा नहीं
आता। वह किसी
और ही ढंग से
जान रही है कि
बचना असंभव
है।
और ऐसा
नहीं कि इसके
लिए पास होना
ही जरूरी है।
ऐसी घटनाएं
घटी हैं कि
दूर बेटा मर
रहा है, हजारों मील
दूर, और
मां यहां
तत्काल हजारों
मील दूर फासले
पर बोध से भर
गई है कि कुछ
अघट हो रहा
है। अभी तो इस
पर वैज्ञानिक
भी शोध करते
हैं और वे
कहते हैं कि
इसमें
वैज्ञानिक
आधार है।
क्योंकि जिस
बच्चे का हृदय
अपनी मां के
हृदय के साथ
नौ महीने धड़का
हो, उन
दोनों के हृदय
के बीच एक
लयबद्धता है।
और वह लयबद्धता
ऐसी है कि समय
और स्थान के
फासले को नहीं
मानती। और अगर
दूर बेटे का
हृदय धड़कने
लगे और मृत्यु
के करीब आ जाए,
तो मां के
हृदय में भी
धड़कन होती है,
वह चाहे समझ
पाए, चाहे
न समझ पाए।
अभी इस
पर रूस में
बहुत प्रयोग
चलते हैं। तो
उन्होंने
बहुत जमीन के
भीतर ले जाकर
पशुओं को, जमीन के
भीतर पानी में
समुद्र में ले
जाकर हजारों
फीट नीचे; और
यहां ऊपर उस
पशु के बेटे
को मारा जा
रहा है या
उसके बेटे को कांटा
जा रहा है, और
वहा उनके
पशुओं के हृदय
की धडकनें, रक्तचाप का
अध्ययन किया,
तो वे चकित
रह गए। यहां
बेटा मरता है
और वहा मां के
हृदय में सब
कुछ उथल—पुथल
हो जाती है।
यह तो पशुओं
की बात है! उधर
नीचे
उन्होंने मां
को मारा है, इधर बेटे को
कुछ हो जाता
है; बेचैनी
हो जाती है, उदासी छा
जाती है।
इस पर
हजारों
प्रयोग हुए
हैं। और एक
बात उन्होंने
तय कर ली है कि
प्रेम का अपना
एक अलग ही आयाम
है, जिसका
ज्ञान से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
अब यह
पत्नी भी
जानती है कुछ, किसी और
मार्ग से। यह
डाक्टर भी
मौजूद है, यह
पत्नी भी
मौजूद है। यह
डाक्टर भी
तत्पर है, यह
भी उत्सुक है
कि यह आदमी बच
जाए, लेकिन
इसकी बचाने की
उत्सुकता एक
वैज्ञानिक की
उत्सुकता है।
यह पत्नी भी
उत्सुक है कि
यह आदमी बच
जाए, लेकिन
इसकी बचाने की
उत्सुकता एक
वैज्ञानिक की
उत्सुकता
नहीं है।
अगर यह
आदमी मर जाएगा, तो
डाक्टर भी
दुखी होगा।
दुखी इसलिए
होगा कि केस
असफल हुआ।
दुखी इसलिए
होगा कि दवाएं
काम न कर
पाईं। दुखी
इसलिए होगा कि
मेरा निदान
उपयोगी न हुआ।
दुखी इसलिए
होगा कि कहीं
कोई गणित में भूल
हुई। दुखी
इसलिए होगा।
यह आदमी जो मर
रहा है, उसके
लिए एक केस
है। इस पत्नी
का दुख कुछ और
ढंग का होगा।
इस आदमी के
मरने के साथ
यह कभी दुबारा
वही नहीं हो
सकेगी, जो
थी। इस आदमी
के मरने के
साथ ही उसके
भीतर बहुत कुछ
मर जाएगा, जो
फिर कभी
पुनरुज्जीवित
नहीं होगा।
उसका कोई
हिस्सा कट
जाएगा और गिर
जाएगा।
वहीं
हम समझें कि
एक तीसरा आदमी
भी बैठा हुआ है, वह एक
अखबार का
रिपोर्टर है।
वह खबर लेने
आया है कि यह
आदमी कब मरे, मैं दफ्तर
में जाकर खबर
कर दूं। वह भी
वहीं मौजूद
है। वह भी अपना
कागज—कलम लिए
बैठा है कि यह
आदमी मरे और
मैं जल्दी से
लिखूं। वह भी
उत्सुक है। वह
भी उत्सुक है।
उसकी
उत्सुकता और
ही तीसरे ढंग
की है। वह सोच
रहा है कि किस
ढंग से ब्योरा
लिखा जाए। किस
ढंग से खबर दी
जाए। किस ढंग
से अखबार के
पढ़ने वाले लोग
इस पूरी
स्थिति को जान
पाएंगे, जो
यहां घटित हो
रही है।
डाक्टर से
उसके जानने का
फासला और भी
तीसरे ढंग का
है।
एक
चौथा आदमी भी
वहा मौजूद है, जो एक
चित्रकार है।
वह भी उत्सुक
है इस आदमी में।
लेकिन वह
प्रतीक्षा कर
रहा है कि मौत
कब आ जाए।
क्योंकि वह
मौत पर एक
चित्र बनाना
चाहता है। और
जब मौत इस
आदमी के सिर
पर उतर आए और
इसकी मौत की छाया
इस आदमी को
घेर ले, तब
वह अनुभव करना
चाहता है कि
क्या होता है?
रंग कैसे
बदल जाते हैं?
धूप—छाया
कैसी भिन्न हो
जाती है? वह
भी उत्सुक है।
वह भी उत्सुक
है। लेकिन इन
सब की
उत्सुकताएं
अलग हैं।
अगर हम
इन चारों से
अलग— अलग
पूछें, तो शायद
हमें वहम भी
हो कि ये एक ही
आदमी की खाट के
पास मौजूद थे
या चार अलग
आदमियों के
पास मौजूद थे।
इन चारों के
वक्तव्य
बिलकुल अलग
होंगे।
शायद
वह स्त्री कोई
वक्तव्य ही न
दे पाए। डाक्टर
जो कहेगा, उसकी
भाषा मेडिकल
साइंस की
होगी।
पत्रकार जो
कहेगा, उसकी
खबर—पत्री की
भाषा होगी।
चित्रकार जो
कहेगा, वह
कहेगा, रुको!
जब तक मेरा
चित्र न बन
जाए, तब तक
कुछ कहना
मुश्किल है।
मेरा चित्र ही
कहेगा।
और इन
चारों को, अगर हमें
पता न हो कि ये
एक ही आदमी के
करीब मौजूद थे,
तो हम कभी
कल्पना न कर पाएंगे
कि वह एक ही
आदमी था, जिसके.
चारों तरफ ये
चारों मौजूद
थे!
ठीक
परमात्मा के
चारों तरफ भी
हम इसी तरह
मौजूद हैं। और
हम सबके उससे
संबंधित होने
के रास्ते अलग
हैं। और एक का
रास्ता दूसरे
के लिए बिलकुल
बेबूझ है।
दूसरा
रास्ता है, भक्त का।
भक्त कहता है,
जानने का
क्या प्रयोजन?
और जानकर भी
क्या होगा? हम उसके
प्रेम में डूब
जाना चाहते
हैं। हम उसे
जानना नहीं
चाहते, हम
उसमें लीन हो
जाना चाहते
हैं। हम जानना
नहीं चाहते, जानने में
दूरी है। हम
तो उसके हृदय
में प्रवेश
करना चाहते
हैं और अपने
हृदय में उसे
प्रवेश देना
चाहते हैं।
अगर
भक्त से कोई
कहेगा कि एक
ही है, तो
भक्त को समझ
में नहीं
आएगा।
क्योंकि
प्रेम की घटना,
अगर एक ही
है, तो
घटेगी कैसे? प्रेम की
घटना के लिए
कम से कम दो
चाहिए।
मैंने
आपसे कहा कि ज्ञान
की घटना तभी
घटेगी, जब दो मिट
जाएं और एक
बचे। जब एक
बचे, तो ज्ञान
की घटना
घटेगी। ज्ञान
की अनिवार्य
शर्त है कि दो—पन
मिट जाए और एक
ही बचे। प्रेम
की शर्त है कि
अगर एक ही बचा,
तो प्रेम
कैसे घटित
होगा? तो
प्रेम कहता है
कि दो!
भक्तों
ने गाया है कि
नहीं तेरा
मोक्ष चाहिए, नहीं
तेरा निर्वाण,
हमें तेरी
वृंदावन .की
गली में अगर
कुत्ता होने
को भी मिल जाए,
तो हम तृप्त
हैं! पर तेरी
गली हो। और
जन्मों से हमें
छुटकारा नहीं
चाहिए। एक ही
प्रार्थना है
कि जन्मों—जन्मों
में जहां भी
हम हों, तेरी
स्मृति बनी
रहे, उतना
काफी है।
यह कोई
और ही भाषा
है। इन दोनों
भाषाओं में विरोध
है। विरोध
होगा। लेकिन
ये दोनों
भाषाएं एक ही
घटना की तरफ
खबर देती हैं।
भक्त कहता है, दो तो
होने ही
चाहिए!
अब यह
जरा मजे की
बात है कि
प्रेम में भी
एकता घटित
होती है, लेकिन वह
एकता ज्ञान की
एकता से भिन्न
भाषा में
प्रकट होती
है। जैसे, ज्ञान
में एकता घटित
होती है, जब
दो मिट जाते
हैं। प्रेम
में भी एकता
घटित होती है,
जब दो ऐसे
हो जाते हैं, जैसे एक हों, लेकिन दो
बने रहते हैं।
प्रेम में भी
एकता घटित
होती है। दो
बने रहते हैं
और भीतर कोई
एक हो जाता
है। दो धडकनें
होती हैं, लेकिन
धड़कनों का
स्वर एक हो
जाता है। दो
प्राण होते
हैं, लेकिन
दोनों के बीच
एक धारा
प्रवाहित
होने लगती है।
प्रेम
भी एक तरह की
एकता को जानता
है। और एक लिहाज
से प्रेम की
जो एकता है, वह
ज्यादा
समृद्ध है
ज्ञान की एकता
से। ज्ञान की
एकता उतनी
समृद्ध नहीं
है। क्योंकि
उसमें निश्चित
रूप से एक हो
जाता है। वह
गाणितिक एकता
है; मैथेमेटिकल
यूनिटी है। दो
मिलकर एक हो
जाते हैं।
ज्यादा जटिल
नहीं है, सरल
है। प्रेम की
एकता ज्यादा
जटिल है। दो
दो रहते हैं
और फिर भी एक
का अनुभव करने
लगते हैं।
ज्यादा
समृद्ध है।
इसलिए
ज्ञानियों से
सूखे वक्तव्य
पैदा हुए हैं।
प्रेमियों ने
बहुत रसपूर्ण
वक्तव्य दिए हैं।
प्रेमियों ने
गाया है, नाचा है, रंगा
है, चित्र
बनाए हैं, मूर्तियां
बनाई हैं।
ऐसा
समझें कि अगर
सारा जगत
ज्ञानी हो, तो सुखद
नहीं होगा।
क्योंकि जगत
में जो रौनक है,
वह जटिलता
की है, कांप्लेक्सिटी
की है। जगत
में अगर सब
बिलकुल सरल—सरल
हो और सीधा—सीधा
हो, तो जगत
का सारा सौरभ
खो जाए।
भक्तों ने जगत
को सौरभ दिया
है। इसलिए जिन
धर्मों ने
सिर्फ ज्ञान
को ही प्रतिष्ठा
दी, वे
रूखे हो गए
हैं, मरणासन्न
हो गए हैं।
नहीं
यह कह रहा हूं
कि जगत में
भक्त ही भक्त
हो जाएं। अगर
भक्त ही भक्त
जगत में हों, तब भी एक
कमी हो जाएगी।
वह ज्ञानी भी
एक रंग देता
है अपनी
मौजूदगी से।
वह भी एक स्वर
देता है और एक
दिशा देता है।
वह दिशा भी
वंचित हो जाए,
तो भी
नुकसान होता
है।
इस जगत
में जितने रूप
हैं, वे
सभी इस जगत को
समृद्धि देते
हैं। इसलिए
समृद्धतम
धर्म वह है, जो सभी
रूपों को
आत्मसात कर
लेता है। इस
लिहाज से हिंदू
धर्म बहुत
अदभुत है।
अदभुत इस
लिहाज से है
कि वह सभी
मार्गों को
आत्मसात कर
लेता है। वह
ज्ञानी को
ज्ञान का
मार्ग दे देता
है, भक्त
को भक्ति का
मार्ग देता
है। दुनिया
में कोई भी
ऐसा धर्म नहीं
है दूसरा।
दूसरे सारे के
सारे धर्म
किसी एक
विशिष्टता को
आधार बनाकर
चलते हैं।
जैसे
जैन हैं। तो
भक्ति उपाय
नहीं है, ज्ञान ही
उपाय है।
इसलिए जैन
साधु के चेहरे
पर एक रूखा—सूखापन
छा जाएगा।
अनिवार्य है।
जैन साधु नाचता
हुआ मिले, तो
बेचैनी होगी
हमें। मीरा
नाचे, तो
हमें कोई
बेचैनी नहीं
होगी। चैतन्य
नाचता हुआ
गांव से गुजर जाए,
तो हमें कोई
तकलीफ नहीं
होगी। लेकिन
जैन साधु नाचे,
तो
इनकसिवेबल है;
यह कुछ मेल
नहीं खाती
बात।
उसका
कारण है।
क्योंकि
मार्ग
शुद्धतम
ज्ञान का है, सूखे
ज्ञान का है।
जरूरत है
उसकी। कुछ हैं,
जो उसी
मार्ग से जा
सकेंगे। कुछ
हैं, जिनके
लिए वही उपाय
है। और जिनके
लिए वही उपाय
है, उनके
लिए
श्रेष्ठतम
वही है। लेकिन
जो विपरीत है,
उसको
कठिनाई खड़ी हो
जाएगी। वह
अपने को सताना
शुरू कर देगा।
अब अगर
एक व्यक्ति
जैन धर्म में
पैदा हुआ है और
भक्ति उसका
मार्ग है, तो बड़ी
कठिनाई खड़ी
होगी। कठिनाई
इसलिए खड़ी होगी
कि जैन धर्म
में भक्ति के
लिए उपाय नहीं
है। अगर वह
कोशिश करके उपाय
करेगा, तो
वे उपाय झूठे
होंगे। जैनों
ने कोशिश की
है। जैनों ने
कोशिश की है
कि भक्ति का
भी कोई मार्ग
खोज लिया जाए।
मगर उसमें
आधार नहीं
रहता, जड़ें
नहीं रहती। और
उसमें एक तरह
का अन्याय भी
मालूम पड़ता है।
अब अगर
महावीर के
सामने कोई
भक्ति— भाव से
नाचने लगे, तो
महावीर के साथ
निश्चित
अन्याय है।
अन्याय इसलिए
है कि महावीर
की खड़ी नग्न
प्रतिमा, उससे
इस नृत्य का
कोई मेल नहीं
होता। यह
नृत्य बेमानी
है।
कृष्ण
के सामने यह
नृत्य सार्थक
मालूम होता है।
इसमें तालमेल
है। कृष्ण खड़े
हैं मोर—मुकुट
लगाए हुए, हाथ में
बांसुरी लिए
हुए। उनके
सामने कोई नाच
रहा है, तो
इस नाचने में
और कृष्ण के
बीच एक संगति
है। लेकिन
महावीर नग्न
खड़े हैं, उनके
सामने कोई नाच
रहा है, तो
वह केवल इतना
कह रहा है कि
जिस धर्म में
मैं पैदा हो
गया, वह
मेरे लिए नहीं
था। और कुछ
नहीं। वह इतना
ही कह रहा है।
अगर
कोई ज्ञानी को
आप कृष्ण के
मंदिर में ले
जाएं, तो
सारी बात व्यर्थ
मालूम पड़ेगी।
यह सब क्या पागलपन
है! यह मोर—मुकुट,
यह बांसुरी,
यह सब क्या
पागलपन है!
यह
भाषाओं का भेद
है। और भक्त
की जो भाषा है, वह दो को
स्वीकार करके
चलती है। वह
सारे जगत को
दो में तोड़
लेती है, एक
तरफ भगवान को
और एक तरफ
भक्त को। और
तब संबंध
निर्मित करती
है।
कृष्ण
कहते हैं, और दूसरे
हैं, जो
पृथक भाव से
मेरी उपासना
करते हैं। जो
कहते हैं
मुझसे कि हम
तुमसे अलग
हैं। और कहते
इसीलिए हैं कि
हम तुमसे अलग
हैं, क्योंकि
एक होने का
मजा तभी आएगा,
जब हम तुमसे
अलग हैं।
इस
भक्त के
विरोधाभास को
ठीक से समझ
लें।
भक्त
कहता है, हम तुमसे
अलग हैं, क्योंकि
मिलने का मजा
तभी आएगा, जब
हम तुमसे अलग
हैं। अगर हम
तुमसे एक ही
हैं सदा से, तो मिलने का
सारा अर्थ ही
खो गया। फिर
मिले न मिले, बराबर है।
यह नदी
जो दौडती जाती
है सागर की
तरफ, यह
जो नाचती हुई
उमंग है, यह
जो
उत्सवपूर्ण
भागना है, यह
इसीलिए है कि
सागर वहां दूर
है और अलग है।
और यह मिलन एक
घटना होगी।
इस नदी
को कोई कहे कि
तू पागल है, तू सागर
से एक है ही।
यह भी
ठीक है। नदी
सागर से एक है
ही। उसी से
पैदा हुई है।
सूरज की
किरणों पर चढ़कर, हवाओं
में जाकर, उसी
से उठकर आई
है। उसी सागर
से भाप उठी है,
वाष्पीभूत
हुई है, आकाश
में बादल बनी
है, बरसी
है पहाड़ों पर,
गंगोत्री
से उतरी है, गंगा बनी है,
चली है सागर
की तरफ।
ज्ञानी
कहेगा, व्यर्थ का
इतना उत्सव
है! नाहक इतनी
दौड़धूप है!
इतने शोर—गुल
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। इतने नदी—पहाड़
और इतने मैदान
पार करके
भागने का
प्रयोजन क्या
है? तू
सागर के साथ एक
ही।
लेकिन
नदी कहेगी कि
सागर को अलग
ही रहने दो, उसे दूर
ही रहने दो, उसे दूसरा
ही रहने दो, क्योंकि मैं
मिलने का आनंद
लेना चाहती
हूं। और यही
प्रार्थना रहेगी
परमात्मा से
कि सदा यह
मिलने की घटना
घटती रहे।
इतनी दूरी
बनाए रखना कि
मिलन संभव
होता रहे।
इतने दूर तो
रखना ही।
अब यह
जो स्थिति है, जैसे
इस्लाम कहता
है कि कोई
आदमी यह न कहे
कि मैं
परमात्मा के
साथ एक हूं
उसका कारण कुल
इतना ही है।
कल मैंने कहा
कि मंसूर को
सूली लगा दी।
लगाने का कारण
कुल इतना था, मंसूर का
मार्ग था
ज्ञान। मैसूर
कहता था, अनलहक।
मैं ईश्वर हूं;
मैं ब्रह्म
हूं।
वह
वेदांत की बड़ी
गहरी बात कह
रहा था। सूफी
दृष्टि का ठीक
उदघोषक था।
मैं ब्रह्म
हूं, अहं
ब्रह्मास्मि।
अगर उसने
उपनिषदों के
वक्त में हिंदुस्तान
में कहा होता,
तो हमने
उसकी महर्षि
की तरह पूजा
की होती। उसने
जरा गलत वक्त
चुना। उसने
उनके बीच में
कहा, जो कह
रहे थे कि कोई
यह न कहे कि
मैं ब्रह्म
हूं। क्योंकि
जब ब्रह्म हम
हो गए, तो
फिर भक्ति का,
मिलन का
आनंद कहां
रहेगा? वह
भक्तों के बीच
ज्ञान की बात
कहकर मुसीबत
में पड़ा। उन
भक्तों ने कहा
कि बंद करो यह
बात! यह बात
ठीक नहीं है, यह कुफ्र है,
यह पाप है।
ठीक है; भक्त की
दृष्टि से यह
पाप है।
ज्ञानी की
दृष्टि से, भगवान अलग
है, यह
अज्ञान है।
भक्त की
दृष्टि से, मैं भगवान हूं, ऐसी घोषणा
पाप है। और
दोनों सही
हैं। इससे जटिलता
होती है। इससे
जटिलता होती
है, क्योंकि
दूसरे के
मार्ग को
समझने में
हमें बड़ी
कठिनाई होती
है।
यह जो
भक्त है, इसकी खोज का
तारा है
प्रेम। और यह
कहता है कि प्रेम
काफी है; जानना
व्यर्थ है।
प्रेम में लीन
हो जाना
सार्थक है।
क्योंकि
प्रेम में
आत्मक्रांति
घटित हो जाती
है।
क़ष्ण
कहते हैं, ऐसे जो
लोग हैं, वे
स्वामी—सेवक
भाव से, या
प्रेमी—प्रेमिका
के भाव से, या
किन्हीं और
रूपों में, लेकिन संबंध
में मुझे
सोचते हैं। वे
कोई संबंध
निर्मित करते
हैं।
भक्तों
ने सब तरह के
संबंध बनाए
हैं।
जैसे
सूफियों ने
बहुत प्यारा
संबंध बनाया
है। ऐसी
हिम्मत कोई
हिंदू साधक
नहीं कर सका।
हिंदू साधकों
ने जो भी
संबंध बनाए
हैं, वे
इतने
हिम्मतवर
नहीं हैं।
हिंदू धारणा
में परमात्मा
पुरुष है और
साधक उसकी
प्रेयसी, पत्नी,
दासी के भाव
से चलता है।
सूफियों
ने हद कर दी।
उन्होंने
परमात्मा को प्रेयसी
बना दिया और
खुद प्रेमी!
परमात्मा को प्रेयसी
और खुद
प्रेमी! इस
वजह से ही
इस्लाम के प्रभाव
में जो भी
काव्य की
धाराएं पैदा
हुईं, सूफियों
के संपर्क में
जो भी काव्य
पैदा हुए—चाहे
अरबी, चाहे
ईरानी और चाहे
उर्दू—उन
काव्यों में
प्रेम की जो
झलक उठी, वह
हिंदुस्तान
की किसी भाषा
में पैदा हुए
काव्य में
नहीं उठ सकी।
उसका कारण था।
उसका कारण था,
क्योंकि जब
परमात्मा को
प्रेयसी बना
दिया, तो
सब द्वार खुल
गए। तब
परमात्मा के
साथ प्रेम की
सारी खुलकर
चर्चा हो सकी।
फिर कोई बात
ही न रही।
ध्यान
रहे, अगर
परमात्मा
पुरुष है और
भक्त स्त्री
है, पत्नी
है, प्रेयसी
है, तो
स्त्री
लज्जावश
प्रेम का
निवेदन भी
बहुत—बहुत
झिझककर करती
है। करेगी ही।
इसलिए हिंदू भक्तों
ने जो गाया है,
वह बहुत
झिझकपूर्ण
है। मीरा
कितनी ही
हिम्मत करे, लेकिन मीरा
ही है। हिम्मत
कितनी ही करे—बहुत
हिम्मत की है—लेकिन
हिम्मत छिपी—छिपी
है। जैसा कि
स्त्री का
स्वभाव है। वह
अगर कहती भी
है, तो बड़े
परोक्ष, बड़े
पर्दे और बड़ी
ओट से कहती
है। घूंघट
उसका पड़ा ही
रहता है। वह
कहती है घूंघट
उठाने की बात,
फिर भी वह
घूंघट के पीछे
से ही कहेगी।
अनिवार्य है,
होगा ही
ऐसा।
लेकिन
जब कोई सूफी
फकीर प्रेमी
की तरह, पुरुष की
तरह ईश्वर की
तरफ जाता है, उसको पत्नी
और प्रेयसी
मानकर, तब
पुरुष जितनी
अभिव्यक्ति
दे सकता है
प्रकट, एक
अर्थ में
निर्लज्ज, उतनी
स्त्री नहीं
दे सकती।
इसलिए उर्दू
या अरबी या
ईरानी, इन
भाषाओं में जो
प्रेम की
भंगिमा प्रकट
हुई, और
थोड़े से
शब्दों में
प्रेम का जो
प्रगाढ़ रूप
प्रकट हुआ, वह दुनिया
की किसी भाषा
में नहीं हो
सका है। उसका
कुल मात्र
कारण यही था
कि परमात्मा
को प्रेयसी
मानते से ही, अब कोई अड़चन
न रही, अब
गीत कोई भी
गाया जा सकता
है।
और
पुरुष गा रहा
है। और पुरुष
तो आक्रामक है, इसलिए वह
संकोच नहीं
करेगा। वह
संकोच करे, तो पुरुष कम
है, इसकी
खबर देगा।
स्त्री संकोच
न करे, तो
स्त्रैण न
रही। संकोच
में ही उसका
सौंदर्य है।
और निस्संकोच
आक्रमण में ही
पुरुष का
शौर्य है।
भक्त
या तो
परमात्मा को
प्रेयसी मान
ले, या
प्रेमी मान ले,
ये दो रूप
हैं। सूफियों
ने वह रूप
चुना परमात्मा
को प्रेयसी
मानने का; हिंदुओं
ने परमात्मा
को प्रेमी
मानने का रूप चुना।
लेकिन
और भी प्रेम
के रूप हैं।
क्योंकि
प्रेम के
कितने रूप
हैं! 'परमात्मा
मां हो सकता
है, परमात्मा
पिता हो सकता
है, परमात्मा
पुत्र हो सकता
है, वे
सारे रूप भी
चुने गए। वे
सारे रूप भी
चुने ! गए।
परमात्मा मां
हो सकता है, तब उसके साथ
प्रेम की जो
धारा बहेगी, उसका ढंग और
होगा। बेटा भी
मां को प्रेम
करता है।
लेकिन
इस प्रेम का
ढंग और होगा, रंग और
होगा, इसकी
चाल। और होगी।
परमात्मा को
पिता भी मानकर
कोई प्रेम कर
पाता है।
लेकिन एक बात
तय है, कोई
भी संबंध हो, भक्त सबंध
खोजेगा ही, क्योंकि
संबंध ही उसके
प्रेम के लिए
मार्ग बनेगा।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं है
कि भक्त एकता
को उपलब्ध
नहीं होता।
एकता को
उपलब्ध होता
है—संबंधों की
सघनता से, संबंधों
के नैकटध से, संबंधों की
आत्मीयता से।
और सच
तो यह है कि
बाकी हमारे
जीवन के सारे
संबंध सिर्फ
हमें धोखा
देते हैं कि
हम एक हो गए, एक हम हो
नहीं पाते
हैं। न कोई
पति पत्नी से
एक हो पाता है,
न कोई बेटा
किसी मां से
एक हो पाता है;
न कोई मित्र
किसी मित्र से
एक हो पाता
है। कभी क्षणभर
को वहम होता
है। कभी
क्षणभर को ऐसा
लगता है कि एक
हो गए; और
लग भी नहीं
पाता कि विछोह
शुरू हो जाता
है। सिर्फ
परमात्मा के
साथ, उसके
दोहरेपन में
भी, उसके
द्वैत में भी
एकता सध जाती
है। वह फिर
टूटती नहीं।
इसलिए
भक्ति जो है, वह प्रेम
की शाश्वतता
है, वह
प्रेम की चरम
ऊंचाई है। और
जितने भी
प्रेमी
दुनिया में तकलीफ
पाते हैं, उस
तकलीफ का कारण
प्रेम नहीं है,
उस तकलीफ का
कारण यह है कि
वे प्रेम से
जो चाह रहे
हैं, वह
केवल भक्ति से
मिल सकता है।
जो वे प्रेम
से चाह रहे
हैं, वह
प्रेम से नहीं
मिल सकता।
प्रेम
से क्षण का
संबंध ही मिल
सकता है, प्रेम से
शाश्वतता
नहीं मिल
सकती। लेकिन
जब भी कोई
प्रेम से
शाश्वतता
मांगने लगता
है, तभी
दुख में पड़
जाता है।
शाश्वतता
भक्ति से मिल
सकती है। वह
एक ऐसा द्वैत है,
जिसके भीतर
सदा के लिए
अद्वैत सध
सकता है। बाकी
हमारे सब
द्वैत ऐसे हैं
कि जिनके भीतर
झलक मिल जाए, तो भी बहुत
है। झलक भी
लेकिन काफी
है। और झलक को
भी बुरा कहने
का कोई कारण
नहीं है।
क्योंकि शायद
वही झलक हमें
और ऊपर उठाने
के लिए इशारा बने।
लेकिन जो उस
झलक में ही
उलझ जाता है, वह खो जाता
है। भक्त
प्रेम की खोज
है।
कृष्ण
कहते हैं, और तीसरे
लोग भी हैं, जो बहुत
प्रकार से
मुझे उपासते
हैं। ये तीसरे
लोग मूलतः
कर्म से
संबंधित होते
हैं।
ये तीन
हिस्से हैं।
मनुष्य के मनस
के, मनुष्य
के मन के तीन
हिस्से हैं, ज्ञान, भाव
और कर्म।
ज्ञान हमारे
मस्तिष्क को
केंद्र बनाकर जीता
है, भाव
हमारे हृदय को
केंद्र बनाकर
जीता है, कर्म
हमारे हाथों
को केंद्र
बनाकर जीता
है।
अब
जैसे जीसस, जीसस
कहते हैं कि
अगर तू
प्रार्थना
करने आया है
मंदिर में और
तुझे खयाल आ
जाए कि तेरा
पड़ोसी बीमार
है, तो
मंदिर को छोड़,
पड़ोसी की
सेवा में जा, वही उपासना
है। जीसस कहते
हैं, सेवा
ही धर्म है।
इसलिए
ईसाइयत ने
दुनिया में
धर्म की एक
बिलकुल नई
प्रतिभा को
जन्म दिया। वह
प्रतिभा थी
सेवा की। और
ईसाइयों ने
जितनी सेवा की
है, उतनी
सारी दुनिया
के सारे लोगो
ने मिलकर भी
नहीं की है। कर
भी नहीं
सकेंगे।
क्योंकि कर्म
ही उपासना है,
ऐसे गहन भाव
पर सारी
ईसाइयत की
दृष्टि खड़ी
है। कर्म ही
उपासना है।
भूल जाओ
परमात्मा को,
चलेगा, कर्म
को मत भूल
जाना। ज्ञानी
कहेगा, भूल
जाओ कर्म को, चलेगा, परमात्मा
को मत भूल
जाना।
यह जो
तीसरा मार्ग
है—हममें बहुत
लोग हैं, जिनके
व्यक्तित्व
का केंद्र
कर्म है; जो
कुछ करेंगे, तो ही पा
सकेंगे। उनसे
अगर कहा जाए, खाली बैठ
जाएं, शांत
बैठ जाएं, तो
वे और भी अशांत
हो जाएंगे।
इसलिए बहुत
लोग हैं, दिक्कत
में पड़ते हैं।
इसलिए मैंने
पहले कहा कि
मार्ग का ठीक—ठीक
चयन न हो पाए, तो हम व्यर्थ
ही कष्ट पाते
हैं।
अब कोई
व्यक्ति है, वह पहुंच
जाता है किसी
साधु—संन्यासी
के पास। साधु—संन्यासी
उसे समझाता है
कि शांत बैठो,
एक घंटेभर
बिलकुल शांत,
निश्चल
होकर बैठ जाओ।
वह एक सेकेंड शांत
नहीं बैठ सकते,
घटाभर! उनके
लिए ऐसा
कष्टपूर्ण हो
जाता है कि घंटेभर
वे बैठेंगे, तो उस वक्त
पाएंगे कि
दुनियाभर में
जितनी परेशानी
है, सब उन
पर आ गई है।
इससे तो जब वे
भाग—दौड़ में
रहते हैं, तभी
शांत रहते
हैं।
इसलिए
अक्सर लोगों
को खयाल में
आता है कि जब वे
ध्यान करने
बैठते हैं, तब उनकी अशांति
बढ़ जाती है।
उसका मतलब है
कि वह टाइप
उनका ध्यान
वाला नहीं है।
उनके लिए कर्म
ही ध्यान का
द्वार बनेगा।
ध्यान उनके
लिए सीधा द्वार
नहीं बन सकता।
उन्हें किसी
ऐसे कर्म की
जरूरत है, जिसमें
वे पूरा लीन
हो जाएं। इस
बुरी तरह डूब जाएं
कि कर्ता न
बचे, कर्म
ही रह जाZn।
फिर वह कुछ भी
हो—चाहे वे
कोई चित्र बना
रहे हों, और
चाहे कोई
मूर्ति बना
रहे हों, और
चाहे किसी के
पैर दाब रहे
हों, और
चाहे गड्डा
खोद रहे हों, और चाहे
बगीचा लगा रहे
हो—वह कोई भी
कर्म हो; कोई
ऐसा कर्म, जो
उनकी उपासना
बन जाए।
लेकिन
अगर आपको अपने
टाइप का ठीक—ठीक
पता नहीं है, तो आप
मुश्किल में
पड़ते रहेंगे।
और एक कठिनाई
जरूरी रूप से
पैदा हो जाती
है। वह इसलिए
पैदा हो जाती
है कि सभी प्रकार
के लोगों ने
इस जगत में
परमात्मा को
पाया है। एक
चैतन्य ने
नाचकर भी पाया
है। और एक बुद्ध
ने शरीर का
जरा भी अंग न
हिलाकर भी
पाया है। चैतन्य
नाचकर पाते
हैं, बुद्ध
बिलकुल शरीर
को निश्चल
करके पाते
हैं।
अब
संयोग से अगर
आप बुद्ध के
पास से गुजर
गए, तो
आप बिना सोचे—समझे
बुद्ध के पास शांत
होकर बैठने की
कोशिश
करेंगे। या
संयोग से आप चैतन्य
के पास से
गुजर गए, तो
आप चैतन्य की
तरह नाचने की
कोशिश
करेंगे। लेकिन
इस बात को
पहले ठीक से जान
लें कि आप
क्या हैं? क्या
आपके लिए उचित
होगा?
इधर
मैंने अनुभव
किया है कि
अगर आपके टाइप
का ठीक—ठीक
खयाल हो जाए, तो साधना
इतनी सुगम हो
जाती है, जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
टाइप का ठीक खयाल
न हो, तो
साधना अकारण
कठिन हो जाती
है। और ध्यान
रहे, दूसरे
के टाइप से
पहुंचने का
कोई भी उपाय
नहीं है।
जन्मों—जन्मों
खो सकते हैं, अगर आप अपने
को न पहचान
पाए कि आपके
लिए क्या उचित
हो सकता है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, और
तीसरे लोग भी
हैं, वे भी
बहुत प्रकार
से मुझे
उपासते हैं।
लेकिन उपासना
हो कोई, मार्ग
हो कोई, विधि
कोई, कोई
कैसा भी चले, दिशा चुने
कोई, एक
बात निश्चित
है कि चाहे
श्रोत—कर्म हो,
वेद—विहित
कर्म हो, गहरे
में मैं ही
हूं। और चाहे
यज्ञ हो, गहरे
में यज्ञ की
लपटों में
मेरी ही अग्नि
है। और चाहे
पितरों के
निमित्त दिया
जाने वाला
अन्न हो, मैं
ही महापितर
हूं। मैं ही
तुम्हारे सब
पिताओं का
पिता हूं।
क्योंकि मैं
ही सारे जन्म
और सारी
सृष्टि के मूल
में हूं। औषधि
हों, कि
वनस्पतियां
हों, कि
कोई
वनस्पतियों
से पूजा कर
रहा हो, कि
कोई फूल चढ़ा
रहा हो, मैं
ही हूं। मंत्र
मैं हूं घृत
मैं हूं अग्नि
मैं हूं और
हवनरूप
क्रिया भी मैं
ही हूं।
यह
सूत्र इतनी ही
बात कह रहा है
कि करो तुम
कुछ, अगर
निष्ठा से और
मुझे स्मरण
करते हुए
तुमने किया है,
तो तुम मुझे
पा लोगे। चाहे
तुम यज्ञ में
डालो घी, अगर
निष्ठा से, मुझे स्मरण
करते हुए, मेरी
उपस्थिति को
अनुभव करते
हुए और मेरे
लिए ही तुमने
वह डाला है, तो घृत भी
मैं हूं,
और जिस अग्नि
में तुमने
डाला है, वह
भी मैं हूं।
लेकिन ध्यान
रहे, शर्त
खयाल में रहे,
अन्यथा घी
व्यर्थ
जाएगा। अग्नि
थोड़ी देर में बुझ
जाएगी।
उपासना
भीतर हो, तो जो कुछ भी
तुम करोगे, वहीं से
मुझे पा लोगे,
क्योंकि सब
जगह मैं हूं।
और अगर उपासना
भीतर न हो, तो
तुम सब कुछ
घेर लो, तुम
मुझे नहीं पा
सकोगे, क्योंकि
कहीं भी तुम
मुझे नहीं खोज
पाओगे।
उपासना
आंख है।
उपासना आंख
है। उपासना का
सूत्र मौलिक
है। इसलिए
क्या करते हो, यह सवाल
नहीं है। कैसे
करते हो, किस
हृदय से करते
हो, किस
आत्मा से करते
हो, वही
सवाल है।
हम इसे
भूल ही जाते
हैं। इसलिए एक
आदमी कहता है
कि मैं पूजा
कर रहा हूं।
पूजा एक बाह्य
कर्म हो जाता
है। किया पूरी
कर देता है, खुद को वह
क्रिया कहीं
भी छूती नहीं।
कहीं कोई एक
बूंद भी उस
क्रिया की
अंतस में नहीं
जाती।
फिर
रोज—रोज करता
रहता है। तो
रोज—रोज करने
से, पुनरुक्त
करने से आदत
का हिस्सा हो
जाता है, यांत्रिक
हो जाता है।
वैसे ही
यांत्रिक हो
जाता है, जैसे
आप अपनी कार
चलाते हैं।
फिर कार चलाते
वक्त आपको
ड्राइविंग
करनी नहीं
पड़ती, ड्राइविंग
होने लगती है।
जब तक
ड्राइविंग
करनी होती है,
तब तक आपको
लाइसेंस
मिलना नहीं
चाहिए, क्योंकि
उसका मतलब ही
यह है कि अभी
खतरा है, अभी
आपसे भूल—चूक
हो सकती है।
ड्राइविंग
उसी दिन आपकी
कुशल हो पाती
है, जिस
दिन आप ड्राइविंग
को भूल सकते
हैं। अब चाहे
सिगरेट पीए, अब चाहे गीत
गुनगुनाए, चाहे
रेडियो सुनें,
चाहे मित्र
से गपशप करें;
अब चाहे कुछ
भी करें, शरीर
का जो रोबोट
है, शरीर
का जो यंत्र
हिस्सा है, वह
ड्राइविंग
करता रहेगा।
आपकी जरूरत
कभी—कभी पड़ेगी,
कोई अचानक
एक्सिडेंट का
मौका आ जाए, तो आपकी
जरूरत पड़ेगी, तो आपको
ध्यान देना
पड़ेगा, अन्यथा
गाड़ी चलती रहेगी!
आप अपने
रास्ते पर
बाएं मुड़
जाएंगे, दाएं
मुड़ जाएंगे, अपने घर के
सामने आ
जाएंगे, अपने
गैरेज में चले
जाएंगे। इस सब
में आपको कुछ
करना नहीं
पड़ेगा।
हमारे
शरीर में, हमारे मन
में एक हिस्सा
है, जिसको
वैज्ञानिक
रोबोट पार्ट
कहते हैं। वे
कहते हैं कि
हम इतने कर्म
कर पाते हैं
इसीलिए कि
हमारे शरीर
में एक यंत्र
हिस्सा है, जिसे कुशल
कर्म को हम
सौंप देते
हैं। फिर वह करता
रहता है। फिर
हमें बीच—बीच
में जरूरत
नहीं रहती है
करने की। एक
नौकर को काम
दे दिया है, वह कर लेता
है.। जरूरत
हमारी तब पड़ती
है, जब कोई
अनहोनी नई बात
हो। तो नौकर
पूछता है कि
मालिक, यह
काम मैं कैसे
करूं? क्योंकि
यह कोई नई
घटना है, इसका
पहले कोई
अंदाज नहीं
है।
अगर
रास्ते पर
जाते हुए
एक्सिडेंट
होने के करीब
हो, तो
मालिक की
जरूरत पडेगी।
रोबोट, आपका
यंत्र—मानव
कहेगा, आ
जाओ शीघ्रता
से, जरूरत
है, क्योंकि
इसका कोई
अभ्यास नहीं
है। और
एक्सिडेंट का
कोई अभ्यास
किया भी कैसे
जा सकता है? उसका मतलब
ही यह है कि वह
अनहोना होगा,
जब भी होगा।
तो हमारे भीतर
यह हिस्सा है।
लेकिन
ध्यान रखें, ड्राइविंग
और पूजा में
यही फर्क है
कि पूजा को
जिसने अपने
रोबोट को दे
दिया, उसकी
पूजा व्यर्थ
हुई। आप सब
काम रोबोट को
दे दें।
ड्राइविंग
देनी ही पड़ेगी,
नहीं तो फिर
ड्राइविंग ही
कर पाएंगे
जिंदगी में, फिर और कुछ न
कर पाएंगे।
खाना खाने का
काम रोबोट को
देना पड़ता है।
सब काम रोबोट
को देने पड़ते
हैं।
टाइपिस्ट
अपनी टाइपिंग
रोबोट को दे
देता है। हम
सब अपने काम
बांट देते हैं,
ताकि हम
मुक्त रहें।
लेकिन पूजा
बिलकुल उलटी ही
बात है। पूजा
रोबोट से नहीं
की जा सकती।
पूजा आपको
करनी पड़ेगी।
और ध्यान रखना
पड़ेगा कि कभी
भी वह
यांत्रिक, मैकेनिकल
न हो जाए।
क्योंकि जिस
दिन वह यांत्रिक
हो गई, उसी
दिन व्यर्थ हो
गई।
उपासना
का अर्थ है, परमात्मा
का सतत स्मरण
बना रहे, ऐसी
कोई भी क्रिया,
उसका स्मरण
न खोए, ए
कास्टेंट
रिमेंबरिंग।
कोई भी क्रिया,
परमात्मा
के स्मरण को
सतत बनाए रखे,
तो उपासना
है। और कृष्ण
कहते हैं फिर
वह कुछ भी हो, यज्ञ हो, कि
श्रोत—कर्म हो,
कि अग्नि हो,
कि हवनरूप
क्रिया हो, कि मंत्र हो,
कि तंत्र हो,
कुछ भी हो, मैं तुझे
भीतर
मिलूंगा।
कहीं से भी तू
आ, तू मेरे
पास पहुंच
जाएगा।
पर एक
ही बात खयाल
रहे, उपासना
यांत्रिक बन
गई कि मिट
जाती है। और
हमारी हालतें
ऐसी हैं कि
यांत्रिक
बनने का सवाल
ही नहीं उठता,
हम पहले से
ही उसे
यात्रिक
मानकर चलते
हैं। बाप अपने
बेटे को मंदिर
में ले जाता
है और कहता है,
पूजा करो।
बेटे को स्मरण
कुछ भी नहीं
दिलाया जाता,
सिर्फ पूजा
करवाई जाती
है। बेटे को
अभी यह भी पता
नहीं कि ईश्वर
है। अभी उसे
यह भी पता
नहीं कि यह क्या
हो रहा है! बाप
सिर झुकाता है,
बड़े—बूढ़े
सिर झुकाते
हैं, वह भी
सिर झुकाता
है। यह सिर
झुकाना रोबोट
हो जाएगा। फिर
यह जिंदगीभर
झुकाता
रहेगा।। ऐसे मैं
लोगों को
देखता हूं।
सड्कों पर से
जा रहे हैं, मंदिर देखकर
जल्दी से उनका
सिर झुक जाता
है। रोबोट!
उनसे अगर पूछो
कि क्या किया,
तो वे कहेंगे,
कुछ किया
नहीं।
एक
मित्र को मैं
जानता हूं।
गांव में कोई
भी मंदिर पड़े, तो वे
उसको नमस्कार
करते हैं।
मेरे साथ
घूमने जाते थे
सुबह। तो
मैंने उनसे
कहा, एक
दफा ठीक से एक
मंदिर के
सामने घड़ी दो
घड़ी बैठकर यह
कर लो, तो
ज्यादा बेहतर
है बजाय फुटकर
दिनभर करने के।
इसमें कुछ सार
नहीं मालूम
पड़ता, जहां
से भी निकले, जल्दी से
सिर झुकाया, आगे बढ़ गए!
मेरी
बात उनकी समझ
में पड़ी। एक
दिन उन्होंने
किया। फिर
मेरे। साथ
घूमने गए।
मंदिर पड़ा, तो उनको
बड़ी बेचैनी
हुई। उनको
अपने हाथ—पैर
रोकने पड़े। दस
कदम मेरे साथ
आगे बढ़े और 'मुझसे बोले,
माफ करिए!
मैंने कहा, क्या हुआ? उन्होंने
कहा, मुझे
वापस जाकर
नमस्कार करनी
पड़ेगी! क्या
मामला है? मुझे
भय लग रहा है।
जिंदगी में
ऐसा मैंने कभी
नहीं किया। इस
मंदिर को तो
मैं कभी चूकता
ही नहीं। तो
मुझे भय लग
रहा है कि पता
नहीं इससे कुछ
नुकसान न हो
जाए। मैंने
कहा, जाओ!
अब यह
ठीक वैसी ही
आदत हो गई, जैसे
किसी को
सिगरेट पीने
की हो जाए। न
पीए, तो
मुश्किल
मालूम पड़ती
है। अब यह
मंदिर को हाथ
जोड़ना एक आदत
का हिस्सा हो
गया। अब यह
जबरदस्ती हाथ
को रोकना पड़ता
है।
मैंने
उनसे पूछा, कितने
साल से करते
हो? वह
कहते हैं, मुझे
याद नहीं आता।
जब से बचपन से
मैं यह कर रहा
हूं। मेरे
पिता भी ऐसा
ही करते थे।
उन्हीं के साथ—साथ
मैं भी सीख
गया। कुछ
अनुभव हुआ
जिंदगी में? वे कहते हैं,
कुछ अनुभव
नहीं हुआ।
पचास साल के
हो गए हैं। पता
नहीं चालीस
साल से, पैंतालीस
साल से, कब
से कर रहे हैं!
कोई अनुभव
नहीं हुआ, और
यह पैंतालीस
साल मंदिरों
के सामने सिर
झुकाने में
गए। तो ये
सिब्दा बेकार
हो गया। यह प्रार्थना
फिजूल है। यह
यांत्रिक हो
गई। अब यह एक
मजबूरी है। एक
रोबोट का
हिस्सा हो गई
है कि करनी
पड़ती है। करते
रहेंगे और मर
जाएंगे।
उपासना
ऐसे नहीं
होगी। उपासना
का अर्थ है, स्मरणपूर्वक,
माइंडफुली;
ईश्वर को
स्मरण करते
हुए किया गया
कोई भी कृत्य
उपासना है।
गड्डा खोदते
हों जमीन में,
ईश्वर को
स्मरणपूर्वक
खोदते हों; मिट्टी न
निकलती हो, ईश्वर ही
निकलता हो, तो
प्रार्थना हो
गई, उपासना
हो गई। उस
गड्डे में भी
वही मिलेगा। किसी
मरीज के पैर
दाबते हों, मरीज मिट
जाए, ईश्वर
ही रह जाए।
ईश्वर के ही
पैर हाथ. में
रह जाएं।
स्मरणपूर्वक
ईश्वर के ही
पैर दबने लगें।
उसी मरीज में ईश्वर
मिल जाएगा। कहां
, यह सवाल नहीं
है; कैसे!
तो
कृष्ण कहते
हैं, सब
जगह मैं हूं
सबके भीतर मैं
छिपा हूं। तुम
कहीं से भी आ
जाओ, सब
रास्ते मेरे
पास ले आते
हैं। सिर्फ
मुझे स्मरण
रखना, इतनी
ही शर्त है।
आज
इतना ही।
लेकिन
उठेंगे नहीं।
पांच मिनट
कीर्तन में डूबे।
पांच मिनट उपासना
के बना लें।
कोई उठेगा नहीं, बैठे
रहें। और जब
तक कीर्तन खतम
न हो, तब तक
उठे न। एक
पांच मिनट
शांति से अपनी
जगह बैठे
रहें।
thank you guruji
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