सूत्र:
मया
ततमिदं सर्व
जगदस्थ्यमूर्तिना।
मत्स्थानि
सर्वभूतानि न
चाहं
तेष्यवीस्थ्य:।।
4।।
न च मत्स्थानि
भूतानि पश्य
मे
योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न
च भूतस्थो
ममात्मा भूतभावन:।।
5।।
यथाकाशीस्थ्योनित्यं
वायु: सर्वन्नगो
महान्।
तथा
सर्वाणि
भूतानि मत्स्थानीत्युयधारय
।। 6।।
और हे अर्जुन
मेरे अव्यक्त
स्वरूय से यह
सब जगत
परिपूर्ण है
और सब भूत मेरे
में स्थित
हैं। इसलिए वास्तव
में मैं उनमें
स्थित नही
हूं।
और वे सब
भूत मेरे में
स्थित नहीं है, मेरे
योग—सामथ्र्य
को देख कि
भूतों को धारण—पोषण
करने वाला और
भूतों को
उत्पन्न करने
वाला भी मेरा
आत्मा वास्तव
में भूतों में
स्थित नहीं
है।
क्योंकि
जैसे अकाश से
उत्पन्न हुआ
सर्वत्र
विचरने वाला
महान वायु सदा
ही आकाश में
स्थित है, वैसे ही संपूर्ण
भूत मेरे में
स्थित है,
ऐसे जान।
श्रद्धा की बात
कहकर कृष्ण
ऐसी ही कुछ
बात शुरू
करेंगे, यह सोचा जा
सकता था, जिसे
कि तर्क मानने
को राजी न हो।
यह सूत्र अतर्क्य
है, इल्लाजिकल
है। इस सूत्र
को कोई गणित
से समझने चलेगा,
तो या तो
सूत्र गलत
होगा या गणित
की व्यवस्था
गलत होगी। यह
सूत्र तर्क की
संगति में
नहीं बैठेगा।
यह सूत्र
रहस्यपूर्ण
है और पहेली
जैसा है।
एक तो
पहेली ऐसी
होती है, जिसका हल
छिपा होता है,
लेकिन खोजा
जा सकता है।
एक पहेली ऐसी
भी होती है, जिसका कोई
हल होता ही
नहीं, खोजने
से भी नहीं
खोजा जा सकता
है।
यह
सूत्र दूसरी
पहेली जैसा
है। जापान में
झेन फकीर जिसे
कोआन कहते
हैं। ऐसी
पहेली, जो हल न हो
सके। ऐसा
रहस्य, जिसे
हम जितना ही
खोजें, उतना
ही
रहस्यपूर्ण
होता चला जाए।
ऐसा सत्य, जिसे
हम जितना
जानें, उतना
ही पता चले कि
हम नहीं जानते
हैं। जितना हो
परिचय प्रगाढ़,
उतना ही
रहस्य की और
गहराई बढ़ जाए।
जितना लें उसे
पास, उतना
ही पता चले कि
वह बहुत दूर
है। छलांग तो
लग सकती है
ऐसे रहस्य में,
लेकिन ऐसे
रहस्य का कोई
पार नहीं
मिलता है। सागर
में जैसे कोई
कूद तो जाए, लेकिन फिर
सागर के पार
होने का उपाय
न हो।
तो
द्वार तो है
प्रभु में
प्रवेश का, लेकिन
वापस निकलने
के लिए कोई
द्वार नहीं
है। इसलिए अगम
है पहेली। और
कृष्ण ने
इसीलिए श्रद्धा
की बात अर्जुन
से पहले कही
कि अब तू
श्रद्धायुक्त
है, तो मैं
तुझे उन
गोपनीय
रहस्यों की
बात कहूंगा, जो कि
श्रद्धायुक्त
मन न हो, तो
कहे नहीं जा
सकते। इस
सूत्र को
समझने के पहले
श्रद्धा के
संबंध में
थोड़ी बात और
समझ लेनी
जरूरी है, तभी
यह सूत्र
स्पष्ट हो
सकेगा।
अस्तित्व
में चार
प्रकार के
आकर्षण हैं।
या तो कहें
चार प्रकार के
आकर्षण या
कहें कि एक ही प्रकार
का आकर्षण है, चार उसकी
अभिव्यक्तियां
हैं। या कहें
कि एक ही है
राज, लेकिन
चार उसकी
सीढ़ियां हैं।
या कहें कि एक
ही है सत्य, चार उसके
आयाम हैं! अगर
बहुत स्थूल से
शुरू करें, तो समझना
आसान होगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, इस जगत के
संगठन में, आर्गनाइजेशन
में जो तत्व
काम कर रहा है,
उस तत्व को
हम
मैग्नेटिज्म
कहें, उस
तत्व को हम
कहें एक
चुंबकीय
ऊर्जा, एक
चुंबकीय
शक्ति, जिससे
पदार्थ एक—दूसरे
से सटा है और
एक—दूसरे से
आकर्षित है।
अगर विद्युत
की भाषा में
कहें, तो
वह निगेटिव और
पाजिटिव, ऋण
और धन विद्युत
है, जो जगत
के अस्तित्व
को बांधे हुए
है। पदार्थ भी
संगठित नहीं
हो सकता, अगर
कोई ऊर्जा
आकर्षण की न
हो। एक पत्थर
का टुकड़ा आप देखते
हैं, अरबों
अणुओं का जाल
है। वे अणु
बिखर नहीं
जाते, भाग
नहीं जाते, छिटक नहीं
जाते, किसी
केंद्र पर, किसी आकर्षण
पर बंधे हैं।
वैज्ञानिक
खोज करता है, आकर्षण
दिखाई पड़ने
वाला नहीं है।
लेकिन बंधे हैं,
तो खबर
मिलती है कि
आकर्षण है।
हम एक
पत्थर को आकाश
की तरफ फेंके
तो वापस जमीन
पर गिर जाता।
हजारों —हजारों
साल तक आदमी
के पास कोई
उत्तर नहीं
था कि क्यों
गिर जाता है।
लेकिन न्यूटन
को सुझा कि
जरूर जमीन
खींच लेती
होगी। वह जो
खिंचाव है न्यूटन
को भी नहीं
पड़ा है। वह
खिंचाव किसी
ने कभी नहीं
देखा है, केवल पत्थरों
को हमने नीचे
गिरते देखा है;
परिणाम
देखा है,
वृक्ष से पत्ता
गिरता है और
नीचे आ जाता
है। आप छलांग
लगाये पहाड़
से और जमीन पर आ
जाएंगे। हर
चीज जमीन की
तरफ गिर जाती
है, खिंच
जाती है। कोई
प्रबल आकर्षण, कोई कशिश है, कोई
ग्रिविटेशन
जरूर पीछे काम
कर रहा है। जो दिखाई
नहीं पड़ता।
न्यूटन
की खोज कीमती
सिद्ध हुई, क्योंकि
जीवन का बहुत
सा उलझाव उसकी
खोज के कारण
साफ हो गया
जमीन में कशिश
है, कोई
मैग्नेटिज्य
है, कोई
आकर्षण है, कोई खिंचाव
है। पदार्थ के
तल पर खिंचाव
को विज्ञान स्वीकार
करता है, यद्यपि
खिंचाव को कभी
किसी ने देखा
नहीं है। हमने
केवल खिंचाव
का परिणाम देखा
है। हमने देखा
है कि एक
मैग्नेट को रख
दें, तो
लोहे के टुकड़े
खिंचे चले आते
हैं। खिंचाव नहीं
दिखाई पड़ता, लोहे के
टुकड़े खिंचते
हुए दिखाई
पड़ते हैं। चुंबक
दिखाई पड़ता है,
लोहे के
टुकड़े दिखाई
पड़ते हैं, वह
जो शक्ति
खींचती है, वह दिखाई
नहीं पड़ती है,
वह अदृश्य
है। शक्ति
मात्र अदृश्य
है।
लेकिन
जब चुंबक खींच
लेता है, तो
वैज्ञानिक
कहता है, खिंचाव
का काम जारी
है। जब जमीन
खींच लेती है,
तो
वैज्ञानिक
कहता है, खिंचाव
का काम जारी
है। जब एक
पत्थर के अणु
बिखर नहीं
जाते, तो
उसका अर्थ है,
वे कहीं न
कहीं सेंटर्ड
हैं, कोई न
कोई केंद्र
उन्हें बांधे
हुए है। वह
केंद्र दिखाई
नहीं पड़ता। वह
केंद्र
अनुमानित है।
लेकिन एक बात
विज्ञान को
साफ हो गई है
कि उस केंद्र
के दो बिंदु
हैं; एक
जिसे धन बिंदु
कहें, एक
जिसे ऋण बिंदु
कहें, पाजिटिव
और निगेटिव
कहें। उन
दोनों के बीच
आकर्षण है।
अगर
पदार्थ के तल
पर हम मनुष्य
की भाषा का
उपयोग करें, तो कहें
कि पदार्थ में
भी स्त्रैण और
पुरुष जैसे
बिंदु हैं।
पदार्थ भी
स्त्री और
पुरुष में विभाजित
है, और उन
दोनों के
आकर्षण से ही
सारे
अस्तित्व का
खेल है।
पदार्थ
से ऊपर उठें, तो इसी
आकर्षण की
दूसरी
अभिव्यक्ति
हमें स्त्री
और पुरुष में
दिखाई पड़ती
है। पदार्थ से
ऊपर उठें, तो
जीवन भी इसी
ऊर्जा से बंधा
हुआ चलता हुआ
मालूम पड़ता
है। स्त्री और
पुरुष के भीतर
भी जीवन की
ऊर्जा एक—दूसरे
को आकर्षित
करती है। वही आकर्षण
जीवन प्रवाह
है।
अगर पदार्थ
बंधा है किसी
आकर्षण से, तो जीवन
भी किसी से
बंधा है जगत
में वह आकर्षण
सेक्स या यौन
के नाम से
प्रकट होता
है। यौन, विद्युत—आकर्षण
का ही दूसरा
रूप है जीवन।
जब चुंबकिय
उर्जा जीवन को
उपलब्ध हो
जाती है,
तो यौन
निर्मित होता
है।
उससे
और उपर चले।
तो मनुष्य
यौन से ही
प्रभावित
नहीं होता, कुछ ऐसे
प्रभाव भी है
जिनसे यौन का
कोई भी संबंध
नहीं है। उन
प्रभाव को हम
प्रेम कहते
है।
पदार्थ
के बीच जो
आकर्षण है वह
है विद्युत।
दो शरीरों के
बीच जो आकर्षण
है वह यौन दो
मनों के बीच
जो आकर्षण है, वह है
प्रेम। यौन से
भी मनसविद
राजी हैं। और
प्रेम के
संबंध में भी
वैज्ञानिक
न राजी हों, मनसविद न
राजी हों, लेकिंन
कवि, साहित्यकार,
कलाकार, चित्रकार—वे
सब, जिनका
सौंदर्य से
संबंध है—वे
राजी हैं। वे
मानते हैं कि
प्रेम भी एक
प्रगाढ़ ऊर्जा है
और उसके
परिणाम भी
प्रत्यक्ष
होते हैं।
लेकिन
न तो हम जमीन
के आकर्षण को
देख सकते हैं, और न हम
यौन के आकर्षण
को देख सकते
हैं; अनुभव
कर सकते हैं।
वैसे ही हम
प्रेम के
आकर्षण को भी
नहीं देख सकते
हैं। उसे भी
अनुभव ही कर सकते
हैं।
ये तीन
सामान्य
आकर्षण हैं, एक और
चौथा आकर्षण
है। मैंने कहा,
दो
पदार्थों के
बीच, निर्जीव
पदार्थों के
बीच जो आकर्षण
है, वह
विद्युत है; या चुंबकीय
ऊर्जा है। दो
शरीरों के बीच
जो जैविक, बायोलाजिकल
ग्रेविटेशन
है, वह यौन
है। दो मनों
के बीच जो
आकर्षण है, वह प्रेम
है। लेकिन दो
आत्माओं के
बीच जो आकर्षण
है, उसका
नाम श्रद्धा
है। वह चौथा
आकर्षण है, और परम
आकर्षण है।
जब दो
मन एक—दूसरे
में आकर्षित
होते हैं, तो प्रेम
बनता है। जब
दो शरीर एक—दूसरे
में आकर्षित
होते हैं, तो
यौन निर्मित
होता है। जब
दो पदार्थ एक—दूसरे
में आकर्षित
होते हैं, तो
भौतिक कशिश निर्मित
होती है।
लेकिन जब दो
आत्माएं एक—दूसरे
में आकर्षित
होती हैं, तो
श्रद्धा
निर्मित होती
है।
श्रद्धा
इस जगत में
श्रेष्ठतम
आकर्षण है, और
चुंबकीय
आकर्षण। इस
जगत में
निम्नतम आकर्षण
है। लेकिन न
तो चुंबकीय
आकर्षण देखा
जा सकता है और
न दो आत्माओं
के बीच का आकर्षण
देखा जा सकता
है। जब
चुंबकीय
आकर्षण जैसी स्थूल
बात भी नहीं
देखी जा सकती,
तो श्रद्धा
जैसी बात तो
कतई नहीं देखी
जा सकती।
लेकिन
श्रद्धा के भी
परिणाम देखे
जा सकते हैं।
बुद्ध
के पास एक
युवक आया है।
वह उनके चरणों
में झुका है।
उसने आख उठाकर
बुद्ध को देखा
है, वापस
चरणों में झुक
गया है! बुद्ध
ने पूछा, किसलिए
आए हो? उस
युवक ने कहा
कि जिस लिए
आया था, वह
बात घट गई, हो
गई। अब मुझे
कुछ पूछना
नहीं, कुछ
कहना नहीं।
बुद्ध ने कहा,
लेकिन और
लोगों को बता
दो, क्योंकि
इन्हें कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ा है।
वहां
कोई दस हजार
भिक्षुओं की
भीड़ थी। किसी
को कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ा था। वह
युवक आया था, यह दिखाई
पड़ा था। वह
बुद्ध के
चरणों में
झुका था, यह
भी दिखाई पड़ा
था। बुद्ध का
हाथ उस युवक
के सिर पर गया
था, यह भी
दिखाई पड़ा था।
उस युवक ने
उठकर, खड़े
होकर बुद्ध की
आंखों में
देखा था, यह
भी दिखाई पड़ा
था। वह वापस
चरणों में
झुका था कोई
धन्यवाद देने,
यह भी देखा।
उसने जो कहा, वह भी सुना।
लेकिन बुद्ध
ने कहा, अब
तू वह बात भी
इन सबको बता
दे, जो
किसी को दिखाई
नहीं पड़ी है।
तुझे क्या हो
गया है?
उस
युवक ने चारों
तरफ देखा और
उसने कहा कि
उसे मैं कैसे
कहूं? मैं
बदलने के लिए
आया था और मैं
बदल गया हूं।
मैं रूपांतरित
होने आया था
और मैं
रूपांतरित हो
गया हूं। मैं
किसी क्रांति
के लिए आया था
कि मेरी आत्मा
किसी और जगत
में प्रवेश कर
जाए, वह
प्रवेश कर गई
है।
लोगों
ने पूछा, लेकिन यह
कैसे हुआ त्र:
क्योंकि न कोई
साधना, न
कोई प्रयत्न!
यह हुआ कैसे?
उस
युवक ने कहा, मैं नहीं
जानता। इतना
ही मैं जानता
हूं कोई अलौकिक
प्रेम मेरे और
बुद्ध के बीच
घटित हो गया है,
कोई
श्रद्धा जन्म
गई है, कोई
भरोसा पैदा हो
गया है। बुद्ध
को देखकर मुझे
भरोसा आ गया।
उस भरोसे के
साथ ही मैं
बदल गया। शायद
भरोसे की कमी
ही मेरी क्रांति
में बाधा थी।
बुद्ध को
देखकर मुझे यह
भरोसा आ गया
कि जो बुद्ध
में हो सकता
है, वह मुझ
में भी हो
सकता है। जो
बुद्ध को हुआ
है, वह
मुझे भी हो
सकता है।
बुद्ध मेरा
भविष्य हैं।
जो मैं कल हो
सकता हूं वह
बुद्ध आज हैं।
इस भरोसे के
साथ ही जब मैं चरणों
में झुका और
वापस उठा, तो
मैं दूसरा
आदमी हो गया
हूं।
लोगों
को भरोसा नहीं
आया, लेकिन
देखा कि वह
आदमी बदल गया
है। और वह
आदमी साधारण
आदमी नहीं था,
हत्यारा था,
डाकू था, लुटेरा था।
और दूसरे दिन
वह आदमी गाव
में भिक्षा
मागने गया है।
और लोगों ने
अपनी छतों पर खड़े
होकर उसे
पत्थर मारे
हैं, क्योंकि
लोग तो उसे
लुटेरा ही देख
रहे थे। वह जो
घटना घटी थी, वह तो
उन्हें दिखाई
नहीं पड़ सकती
थी कि वह आदमी
अब बुद्ध जैसा
हो गया था। वह
घटना तो आख के
बाहर थी, अगोचर
थी। उन्होंने
पत्थर मारे
हैं, क्योंकि
वह हत्यारा था,
चोर था, लुटेरा
था। गाव उससे
पीड़ित रहा है।
उसे कौन
भिक्षा देगा?
पत्थरों के
अतिरिक्त उसे
भिक्षा में
कुछ भी नहीं
मिला। वह
पत्थरों में
दबकर सड़क के
किनारे पड़ा
हुआ है। बुद्ध
भिक्षा
मांगने निकले
हैं। उन्होंने
आकर उसके सिर
पर हाथ रखा।
उसने आख खोली
और बुद्ध ने
कहा, कोई
पीड़ा तो नहीं
हो रही?
उस
मरणासन्न
व्यक्ति ने
कहा, पीड़ा!
पीड़ा जिसे हो
सकती थी,
वह आपके चरणों
में मर चुका
है। और जिसे
पीड़ा नहीं हो
सकती, वही
अब बाकी बचा
है।
बुद्ध
ने कहा, लेकिन तुम
मर रहे हो।
उस
युवक ने कहा, जो मर
सकता था, वह
आपके चरणों
में मर चुका
है। और अब जो
नहीं मर सकता,
वही केवल
शेष है।
बुद्ध
ने भिक्षुओं
को कहा कि
देखो! जिसका
तुम्हें
भरोसा नहीं
आया था, उसका परिणाम
देखो।
श्रद्धा
के परिणाम
देखे जा सकते
हैं। जीवन में
शक्तियां
दिखाई नहीं
पड़ती हैं, केवल
उनके परिणाम
दिखाई पड़ते
हैं। इसलिए
आपसे मैं कहता
हूं आप अगर
सोचते हों कि
श्रद्धालु
हैं, तो
इतना काफी
नहीं है। आपकी
श्रद्धा का एक
ही प्रमाण है
कि आपका जीवन
रूपांतरित
होता हो। तो
जो आस्तिक
कहता है, मैं
श्रद्धालु
हूं और
नास्तिक और
उसकी जिंदगी
में कोई फर्क
नहीं है, तो
वह अपने को
धोखा दे रहा
है। क्योंकि
श्रद्धा तो
कशिश है, श्रद्धा
तो क्रांति
है।
तो जो
कहता है, मैं
श्रद्धालु
हूं उसका सबूत
एक ही है कि
उसका जीवन
गवाही दे, उसका
अस्तित्व
गवाही दे, वह
एक विटनेस हो
जाए, वह एक
साक्षी बन जाए
परमात्मा के
होने का। लेकिन
अगर वह कहता
है कि नहीं, मैं श्रद्धा
तो करता हूं
लेकिन मुझ में
और नास्तिक
में कोई ऐसे
फर्क नहीं है,
तो जानना कि
श्रद्धा झूठी
है। और र्झूठी
श्रद्धा से
सच्चा संदेह
भी बेहतर है।
क्योंकि सच्चा
संदेह कभी
श्रद्धा तक
पहुंच सकता है,
लेकिन झूठी
श्रद्धा कभी
श्रद्धा तक
नहीं पहुंच
सकती है।
यह जो
श्रद्धा है, जैसा
मैंने कहा, दो पदार्थों
के बीच जो
कशिश है, आकर्षण
है भौतिक, दो
शरीरों के जीवन
यौन बन जाता
है, दो
मनों के बीच
सचेतन प्रेम
बन जाता है, दो आत्माओं
के बीच
श्रद्धा हो
जाती है। अगर
दो पदार्थ आपस
में न मिलेतो
अस्तित्व
बिखर जाए। और
अगर दो शरीर आपस
में न मिले तो
जगत से जीवन
बिखर जायेगा।
अगर दो मन आपस
में न मिलेतो
जीवन से सब
सौंदर्य बिखर
जायेगा।
पदार्थ
एक दूसरे को
खिंचते है, इसलिए
आस्तित्व
संगठित है।
आर्गनाइज्ड
है। चाहे चाँद
तारे घूमते हो
और सूरज के आस—पास
पृथ्वी चक्कर
मारती' हो और
चाहे परमाणु
घूमते हों, जहां भी
पदार्थ है, उसका कारण
पदार्थ को आपस
में बांधने
वाली ऊर्जा
है।
हमारी
सदी पूछती है, ईश्वर
कहां है? असल
में हमें
पूछना इसलिए
कि पत्नी से
भी नीचे गिरा,
कुर्सी
ज्यादा
मूल्यवान है।
पत्नी चाहिए,
श्रद्धा
कहां है? क्योंकि
श्रद्धा न हो,
तो ईश्वर का
कोई कुर्सी पर
चढ़ाई जा सकती
है। बच्चे
कुर्सी पर
चढ़ाए जा सकते
हैं।
अनुभव
नहीं होगा।
श्रद्धा न हो, तो ईश्वर
न होने जैसा
हो जाएगा।
ईश्वर के प्रकट
होने के लिए
जिस आकर्षण की
जरूरत है, वह
श्रद्धा है।
और हर
आकर्षण
सृजनात्मक
है। पदार्थ
खिंचता है, तो जगत
निर्मित हो जाता
है। अभी तक
वैज्ञानिक
नहीं समझा पाए
कि पृथ्वी
कैसे बन गई! अब
तक वे नहीं
समझा पाए कि
चांद—तारे
कैसे बन गए!
अनुमान हैं
बहुत, लेकिन
सारे
अनुमानों के
बीच एक आधार
है, और वह
आधार यह है कि
जरूर किसी
ऊर्जा के कारण
यह सारा संगठन
फलित हुआ है, किसी शक्ति
के कारण। उसके
नाम कुछ भी
दिए जा सकते
हैं।
अगर दो
शरीर संयुक्त
न हों, तो
जीवन की धारा
बिखर जाती है।
इसलिए यौन का,
सेक्स का
प्रबल आकर्षण
है। लेकिन
आदमी आदमी होकर
भी पहले
आकर्षण से भी
ऊपर नहीं उठ
पाता, तो
आखिरी आकर्षण
तक पहुंचना
बहुत मुश्किल
है। हममें से
अधिक लोग यौन
से भी नीचे
जीते हैं। यह
सुनकर आपको
कठिनाई होगी।
हममें से बहुत—से
लोग हैं, जिनको
यौन का आकर्षण
भी ऊपर है
अभी। जो
पदार्थ के
आकर्षण पर
जीते हैं।
अब एक
आदमी रुपए
इकट्ठे करने
के लिए जी रहा
है, वह
अभी यौन के
आकर्षण तक भी
ऊपर नहीं उठा
है। अभी वह
पदार्थ के
आकर्षण से
बंधा है। अभी
जब वह रुपए
हाथ में रखता
है, तो जो
आनंद उसे
अनुभव होता है,
वह दो
पदार्थों के
बीच जो आकर्षण
है, उसका
ही आनंद है।
इसलिए
धन के पीछे जो
पागल है, वह पहले
आकर्षण में जी
रहा है। इस
लिए लोभी काम
से संयोग ले
भी नीची
अवस्था है।
लोभ, ग्रीड
सेक्स से भी
नीचे की अवस्था
है', ध्यान
रखना। और बहुत—से
लोग हैं ऐसे
जो धन के लिए
सेक्स को
कर्बान कर
सकते हैं। और
शायद मन में सोचते
हो का काम कर
रहे है। की
तरफ जा रहे
हैं। वे यौन
से भी नीचे
गिर रहे है।
यौन की बलि
चढा देते हैं।
वो बिलकुल ही
स्थूल
आकर्षण में
पड़े है।
एक
आदमी है जिसको
कुर्सी का मोह
है, पद
का मोह है, सिंहसान
का मोह है,
वह कुर्सी के
आकर्षण पर जी
रहा है। इसलिए
राजनीतिज्ञ
अकसर अपनी की
फिक्र छोड़
सकता है।
इसलिए नहीं कि
वह भी बुद्ध
जैसा हो गया
है कि पत्नी
को छोड़ सकता
है,
इसलिए
कि पत्नी से
भी नीचे गिरा; कुर्सी
ज्यादा मूल्यवान
है। पत्नी
कुर्सी पर
चढ़ाई जा सकती
है। बच्चे
कुर्सी पर
चढ़ाइ जा सकती
है। वह पहला
स्थूल
आकर्षण है। वह
पहला स्थूल
आकर्षण है।
धन, पद, बहुत
स्थूल आकर्षण
हैं। वे
आकर्षण वैसे
ही हैं, जैसे
चुंबक के पास
लोहा खिंचता
है। ऐसे ही हम खिंचे
चले जाते हैं।
ध्यान रखना, आप चुंबक
नहीं हैं। जब
आप धन की तरफ
खिंचते हैं, तो ध्यान
रखना, धन
आपकी तरफ कभी
नहीं खिंचता
है। आप ही धन
की तरफ खिंचते
हैं। धन चुंबक
होता है। ध्यान
रखना, धन
पुरुष हो जाता
है, आप
स्त्रैण हो
जाते हैं।
इसलिए
धन को प्रेम
करने वाला
रुपए को ऐसे
देखता है, जैसे
अपने प्रेमी
को। वह उसका
परमात्मा है।
रुपए को छूता
है ऐसे, जैसे
किसी जीवित
चीज को भी
उसने कभी नहीं
छुआ है। रुपए
को उलट—पलटकर
देखता है!
और हम
सबको पता है।
स्त्रियों को
पता है। इसलिए
स्त्रियां
अपने शरीर की
उतनी फिक्र
नहीं करती हैं, जितनी अपने
गहनों की
फिक्र करती
हैं। क्योंकि
आस—पास जो लोग
हैं, वे
पदार्थ से
आकर्षित होते
हैं। अभी शरीर
का भी आकर्षण
दूर है।
इसलिए
स्त्री अपने
शरीर को गंवा
सकती है, लेकिन अपने
हीरे को नहीं
खो सकती। उसके
हाथ में उतना
आकर्षण नहीं
मालूम पड़ता
उसे, जितना
हीरे की अंगूठी
में मालूम
पड़ता है। और
उसकी समझ एक
लिहाज से सही
है। क्योंकि
जब भी कोई
उसके हाथ को
देखता है, तो
सौ में से
नब्बे मौके पर
हाथ को देखने
वाले बहुत कम
लोग हैं, हीरे
की अंगूठी को
देखने वाले
ज्यादा लोग
हैं। इसलिए
अगर कुरूप हाथ
भी हो और हीरे
की अंगूठी हो,
तो आपको हाथ
का कुरूप होना
दिखाई नहीं
पड़ता। हीरे की
अंगूठी का
सौंदर्य हाथ
पर छा जाता
है। इसलिए कुरूप
व्यक्ति
आभूषणों से
अपने को लादता
चला जाता है।
असल में
कुरूपता ही
केवल आभूषण के
प्रति
आकर्षित होती
है, क्योंकि
वह और नीचे के
तल का आकर्षण
है।
पुरुष
भी भलीभांति
जानते हैं कि
उनका बड़ा मकान
एक स्त्री को
आकर्षित कर
सकता है। उनका
बैंक बैलेंस
एक स्त्री को
आकर्षित कर
सकता है। उनकी
बड़ी कार एक
स्त्री को आकर्षित
कर सकती है।
इसलिए
पुरुषों को भी
अपने शरीर की
भी उतनी चिंता
नहीं है, जितनी अपनी
कार की है, जितनी
अपने मकान की
है, जितनी
अपनी तिजोड़ी
की है।
क्योंकि आदमी
के जिस समाज
में हम जी रहे
हैं, वह
पदार्थ के तल
पर आकर्षित हो
रहा है, और
श्रद्धा बहुत लंबी
यात्रा है
फिर।
पदार्थ
से ऊपर उठें, बड़ी कृपा
होगी, लोभ
से ऊपर उठें।
कम से कम
जीवित
व्यक्ति में आकर्षित
हों, मृत
पदार्थों में
नहीं। यह भी
बड़ी क्रांति
है। कुछ लोग
जीवित
व्यक्तियों
में आकर्षित होते
हैं, लेकिन
यौन के बाहर
उनका आकर्षण
नहीं जाता। एक—दूसरे
के शरीर तो
मिलते हैं, लेकिन एक—दूसरे
के मन कभी भी
नहीं मिल पाते
हैं।
इसलिए
जिन मुल्कों
में तलाक की
सुविधा हो गई
है, उन
मुल्कों में
विवाह अब बच
नहीं सकता।
क्योंकि मन तो
कहीं मिलते ही
नहीं, तन
ही मिलते हैं।
और तन जल्दी
ही बासे, और
जल्दी ही
उबाने वाले हो
जाते हैं।
एक ही
शरीर कितनी
बार भोगा जा
सकता है? और एक ही
शरीर कितनी
देर तक आकर्षक
हो सकता है? और एक ही
शरीर कितनी
देर तक
खींचेगा? फिर
वह खिंचाव भी
एक ऊब और
बोर्डम हो
जाती है। और
मन तो मिलते नहीं।
इसलिए
पश्चिम में, जहां
तलाक
सुविधापूर्ण
होता चला जा
रहा है, विवाह
बिखरता चला जा
रहा है।
उन्नीस सौ में
अमेरिका में
चार शादियों
में एक तलाक
होते थे, अब
चार शादियों
में तीन तलाक
की नौबत है।
सिर्फ पचास
साल में! और
पचास साल, मैं
आपको भरोसा
दिलाता हूं
तलाक समाप्त
हो जाएंगे, क्योंकि
विवाह समाप्त
हो जाएगा।
तलाक बच नहीं
सकते ज्यादा
दिन तक, क्योंकि
तलाक को बचाने
के लिए विवाह
जरूरी है। और
विवाह ही बचने
वाला नहीं है।
क्या कारण है
गुड शरीर का
आकर्षण यौन है,
और मन का तो
आकर्षण पैदा
ही नहीं हो
पाता।
हमारे
पास मन जैसी
कोई चीज भी है, और हम कभी
किसी के मन से
भी आकर्षित
होते हैं, तो
ही हमें प्रेम
का अनुभव शुरू
होगा। प्रेम,
शरीर—मुक्त
दो मन के बीच
आकर्षण है।
प्रेम मैत्री
है।
लेकिन
हमें प्रेम का
अनुभव नहीं
है। मित्रता दुर्लभ
होती चली गई
है। और प्रेम
का ही पता न हो, तो
श्रद्धा बहुत
कठिन हो
जाएगी। मन का
प्रेम मित्रता
को जन्म देता
है।
चौथा
जो आकर्षण है, श्रद्धा,
वह गुरु और
शिष्य के बीच
क्रा संबंध
है। किसी की
आत्मा इतनी
आकर्षक हो
जाती—उसका मन
भी मूल्य का
नहीं, उसका
शरीर भी मूल्य
का नहीं, उसके
पास जो
पदार्थगत कुछ
भी हो, वह
भी किसी मूल्य
का नहीं—बस उस
व्यक्ति का
अस्तित्व, उसका
होना ही
मूल्यवान हो
जाता है। इस
मूल्य का भी
एक जोड़ और एक
संबंध है।
पदार्थ
के तल पर
निगेटिव और
पाजिटिव
मिलते हैं, वे भी
स्त्री—पुरुष
हैं। शरीर के
तल पर यौन
संयुक्त होता
है, वे भी
स्त्री—पुरुष
हैं। यह आपको
जानकर कठिनाई
होगी कि जब दो
मनों का भी
मेल होता है, तो उसमें एक
मन स्त्रैण और
एक मन पुरुष
जैसा होता है।
असल में जहां
भी मेल घटित
होता है, जहां
भी मिलन होता
है, वह।
स्त्री और
पुरुष का अंश
मौजूद होता
है। और जब
श्रद्धा
जन्मती है, तब भी—आत्मा
के तल पर भी—स्त्री
और पुरुष का
अंश मौजूद
रहता है।
स्त्री
और पुरुष का
विभाजन
शारीरिक ही
नहीं है, जैविक ही
नहीं है, सारा
अस्तित्व
बंटा हुआ है।
इसलिए कृष्ण
को प्रेम करने
वाले भक्तों
ने अगर कहा है
कि एक ही पुरुष
है जगत में, कृष्ण, तो
उसका कारण है।
अगर
मीरा ने
वृंदावन के
मंदिर में
पुजारी को कहा
है, क्योंकि
उस पुजारी ने
नियम ले रखा
था कि किसी स्त्री
को मंदिर में
प्रवेश नहीं
करने देगा। और
मीरा जब नाचती
हुई उस मंदिर
के द्वार पर
पहुंच गई, तो
द्वार बंद कर
दिए गए। और
लोगों ने खबर
दी कि मंदिर
के पुजारी जो
हैं, गोस्वामी
जो हैं, वे
स्त्री को
भीतर प्रवेश
नहीं करने
देते हैं, आप
लौट जाएं।
मीरा ने कहा, इतनी खबर
पुजारी तक
पहुंचा दो, मैं तो
सोचती थी कि
जगत में केवल
एक ही पुरुष है,
कृष्ण।
गोस्वामी भी
पुरुष हैं? उनसे इतना
पूछ आएं।
द्वार
खुल गए।
गोस्वामी
मीरा के चरणों
में गिर पड़ा।
क्योंकि
गोस्वामी को
संदेश मिल
गया।
गोस्वामी को
खयाल आ गया कि
भक्त होकर
कृष्ण का, वह पुरुष
कैसे हो सकता
है? एक
आत्मिक तल पर
कृष्ण पुरुष
हो गए और
गोस्वामी
उनका भक्त है,
तो स्त्रैण
हो गया।
स्त्रैण
और पुरुष शब्द
का मैं प्रयोग
कर रहा हूं।
पुरुष वह है, जो
खींचता है; स्त्री वह
है जो समर्पित
होती है। गुरु
और शिष्य के
बीच समर्पण का
यहीं संबंध
है। इस समर्पण
के बाद वैसी
बातें हो सकती
है, जो अन्यथा
नहीं हो सकती।
तो
कृष्ण अब एक
बहुत गुरु गंभीर
बात अर्जुन से
कह रहे है। सुनकर
सिर चकराता
मालूम पडे इस
बात को कृष्ण
भी इसके पहले नहीं
कह सकते थे।
जब पक्की हो
गई बात और
अर्जुन
श्रृद्धा से भर
गया है, समर्पित है;
उसके ह्रदय
के द्वार खुले
है, संदह
की दीवालें
गिर गई हैं; शंकाएं —कुशंकाए
निषेद हो गई है।
अब आतुर है। ठीक
वैसे ही, जैसे
कभी कोई स्त्री
प्रेम के किसी
क्षण में
पुरूष को अपने
भीतर लेने को
आतुर होती है।
प्रेम के किसी
में जैसे
स्त्री पुरुष
को अपने
द्वारा पुन:
जन्माने को
आतुर होती है।
प्रेम के किसी
क्षण में जैसे
स्त्री अपने
भीतर नए जीवन
के लिए, नए
जीवन को जन्म
देने के लिए, गर्भाधान के
लिए, पुरुष
के प्रति
समग्ररूपेण
समर्पित होती
है। ऐसे ही
श्रद्धा से
भरा हुआ चित्त
गुरु के प्रति
अपने सब द्वार
खोल देता है, ताकि गुरु
की ऊर्जा
उसमें
प्रविष्ट हो
जाए और जीवन
रूपांतरित हो,
और एक नए
जीवन का जन्म
हो सके।
मैंने
कहा कि जब दो
पदार्थ मिलते
हैं, तब
भी नई चीज निर्मित
हो जाती है।
अगर आक्सीजन
और हाइड्रोजन
मिल जाते हैं,
तो पानी
निर्मित हो
जाता है। जब
एक 'स्त्री
और पुरुष का
मिलन होता है,
तो एक तीसरे
जीवन का जन्म
हो जाता है।
जब दो प्रेम
से भरे हुए मन
मिलते हैं, तो इस जगत
में सौंदर्य
के, आनंद
के बड़े फूल
खिलते हैं। और
जब प्रेम से
दो
व्यक्तियों
का मिलन होता
है, तब भी
वे दो व्यक्ति
भी रूपांतरित
हो जाते हैं।
अगर आपने कभी
प्रेम की पुलक
अनुभव की है, तो आपने
तत्काल पाया
होगा, आप
दूसरे आदमी हो
गए हैं।
विनसेंट
वानगाग के
संबंध में
मैंने पढ़ा है।
वह एक बड़ा डच
चित्रकार था।
उसे किसी
स्त्री ने कभी
कोई प्रेम
नहीं किया।
कुरूप था। और
मन को प्रेम
करने वाले तो
खोजने कठिन हैं।
गरीब था। और
धन को प्रेम
करने वाले तो
चारों तरफ
हैं। उसे किसी
ने कोई प्रेम्
नहीं दिया। वह
जवान हो गया, उसकी
जवानी भी
उतरने के करीब
आने लगी। उसे
कभी किसी ने
प्रेम की नजर
से नहीं देखा।
वह चलता था तो
ऐसे, जैसे
मुर्दा चल रहा
हो, अपना
बोझ खुद
खींचता हो।
अपने ही पैर
उठाने पड़ते, तो लगता कि
किसी और के
पैर उठा रहा
है। आँख उठाकर
देखता तो ऐसे,
जैसे आंखों
की पलकों पर
पत्थर बंधे
हो।
वह
जहां नौकरी
करता था वह
मालिक भी परेशान
हो गया था
उसके आलस्य
को देखकर उसक़े
तमस को देखकर।
मालिक सोचता
था इतने तमस
की क्या जरूरत
है? इतने
आलस्य की, इतने
प्रमाद की।
बैठा तो बैठा
ही रह जाता।
उठने की भी
कोई प्रेरणा
नहीं थी। सोता
तो सोया रह
जाता। सुबह
किसलिए उठूं?
इसका भी कोई
कारण नहीं था।
लेकिन
एक दिन मालिक
देखकर चकित
हुआ कि वानगाग
न मालूम कितने
वर्षो के बाद
स्नान करके, मालूम
कितने महीनों
के बाद कपड़े
बदलकर शायद
जीवन में पहली
दफा गीत
गुनगुनाता
हुआ दुकान में
प्रविष्ट
हुआ। उसने
पूछा, आज
क्या हो गया
है तुम्हें? कोई
चमत्कार! तुम
और गीत
गुनगुनाओगे! और
तुमने क्या
स्नान भी किया
है? और
क्या तुमने
ताजे कपड़े भी
पहन लिए हैं?
वानगाग
ने कहा कि हौ, किसी ने
मुझे आज प्रेम
से देख लिया
है! किसी के प्रेम
का मैं पात्र
हो गया हूं!
अब यह
आदमी दूसरा
है। प्रेम से
गुजरकर दोनों
व्यक्तियों
का पुनर्जन्म
हो जाता है।
श्रद्धा
से गुजरकर जो
होता है, वह आत्यंतिक
क्रांति है।
श्रद्धा से
गुजरकर
पुराना तो मर
ही जाता है, नए का ही
आविर्भाव हो
जाता है।
प्रेम में तो
पुराना बदलता
है, श्रद्धा
में पुराना
मरता है और
नया आता है।
प्रेम में एक
कंटिन्यूटी
है, सातत्य
है। श्रद्धा
में
डिसकंटिन्यूटी
है; सातत्य
टूट जाता है।
श्रद्धा के
बाद आप वही नहीं
होते, जो
पहले थे। आप
दूसरे ही होते
हैं। दोनों के
बीच कोई संबंध
भी नहीं होता;
दोनों के
बीच कोई रेखा
भी नहीं होती।
पुराना बस
समाप्त हो
जाता है, और
नया आविर्भूत
हो जाता है।
श्रद्धा
इस जगत में
सबसे बड़ी छलांग
है। छलांग का
मतलब होता है, पुराने
से कोई संबंध
न रह जाए।
इसलिए
श्रद्धा जब भी
किसी जीवन में
घटित होती है,
तो इस जगत
में सबसे बड़ी क्रांति
घटित होती है।
और सब क्रांतिया
बचकानी हैं, सिर्फ आत्मक्रांति
ही आधारभूत क्रांति
है।
इस क्रांति
के द्वार पर
खड़ा देखकर
कृष्ण ने
अर्जुन से कहा, हे
अर्जुन, मेरे
अव्यक्त
स्वरूप से यह
सब जगत
परिपूर्ण है।
अब ये
सब बातें उलटी
हैं। कबीर की
उलटबासी के संबंध
में आपने सुना
होगा। कबीर
बहुत उलटी बातें
कहते हैं, जो नहीं
हो सकतीं।
कहते हैं कि
नदी में आग लग
गई, जो
नहीं हो सकता।
कहते हैं कि
मछलियां
घबड़ाकर
दरख्तों पर चढ़
गईं, जो
नहीं हो सकता।
लेकिन कबीर
इसलिए कहते
हैं कि इस जगत
में जो नहीं
हो सकता, वह
हो रहा है—यहीं,
आंखों के
सामने। जो हो
सकता है, वह
तो हो ही रहा
है; वह
महत्वपूर्ण
नहीं है। और
जो उसको ही
देख पाता है, जो हो रहा है,
वह अंधा है।
जो नहीं हो
सकता है, वह
भी हो रहा है।
जिसको कोई
तर्क नहीं
कहेगा कि हो
सकता है, वह
भी हो रहा है।
कोई गणित जिस
निष्पत्ति को
नहीं देगा, वह भी हो रहा
है। इस जगत
में अनहोना भी
हो रहा है।
वही इस जगत
में ईश्वर का
सबूत है। वही
चमत्कार है।
वही मिरेकल
है।
तो बड़ी
अनहोनी बात
कृष्ण कहते
हैं। वे कहते
हैं, मेरे
अव्यक्त
स्वरूप से यह
सब जगत
परिपूर्ण है।
अब यह
जगत है व्यक्त, दि
मैनिफेस्ट।
और कृष्ण कहते
हैं, थू
दिस
मैनिफेस्ट, माई
अनमैनिफेस्ट
इज
मैनिफेस्टेड।
यह जो प्रकट
है जगत, यह
जो व्यक्त है,
यह जो दिखाई
पड़ रहा है, यह
जो न साकार है,
यह जो सगुण
है, यह जो
रूप से भरा है,
इसके भीतर
मेरा अरूप, मेरा
निर्गुण, मेरा
निराकार, मेरा
अव्यक्त, मेरा
अदृश्य प्रकट
हो रहा है।
अब ये
दोनों बातें
सही नहीं हो
सकती हैं
हमारे गणित
से। हमारी
बुद्धि से ये
दोनों बातें
सही नहीं हो
सकती हैं।
सीधी बात कहनी
चाहिए।
अव्यक्त का
अर्थ है, जो प्रकट
नहीं होता, जो प्रकट
हुआ ही नहीं
कभी। तो जगत
से प्रकट कैसे
होगा? और
अगर जगत से
प्रकट हो रहा
है, तो उसे
अव्यक्त कहने
की क्या जरूरत
है? दो में
से कुछ एक
करो। तर्क अगर
होगा, तो
कहेगा, दो
में से कुछ एक
करो। या तो
कहो कि यह जो प्रकट
हुआ है, यही
मैं हूं प्रकट
हुआ; और या
कहो, यह जो
प्रकट हुआ है,
यह मैं नहीं
हूं; अप्रकट
हूं मैं।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, यह
जो प्रकट हुआ
है, इसमें
मैं ही
व्याप्त हूं;
मैं ही
इसमें भरा हूं;
मैं ही
इसमें
परिपूर्ण
हूं। रूप के
भीतर मेरा ही
अरूप है। आकार
के भीतर मेरा
ही निराकार
है। दृश्य के
भीतर मैं ही अदृश्य
हूं।
यह
हमें कठिनाई
में डालता है।
लेकिन इसे
समझना पड़े।
श्रद्धा हो, तब तो यह
तत्काल समझ
में आ जाता है,
समझना नहीं
पड़ता।
श्रद्धा न हो,
तो इसे थोड़ा
समझना पड़े।
इसे थोड़ी
चेष्टा करनी 'पड़े कि क्या
प्रयोजन होगा
ऐसी उलटी बात
कहने का? और
फिर यह उलटी
बात आगे बढ़ती
ही चली जाती
है। वे इसे और
उलटाते चले
जाते हैं।
हमारी
बुद्धि की
सोचने की जो
व्यवस्था है, हमारी
बुद्धि की जो
कैटेगरीज हैं,
हमारे
सोचने के जो
नियम हैं, उन
नियमों में ही
बुनियादी भूल
है। उन नियमों
के कारण, जो
जीवन में हो
रहा है, वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
जैसे
अगर मैं यह
कहूं कि जन्म
भी मैं हूं और
मृत्यु भी मैं, तो गणित
और तर्क के
लिहाज से गलत
है। क्योंकि अगर
मैं जन्म हूं
तो मृत्यु
कैसे हो सकता
हूं? जन्म
और मृत्यु तो
विपरीत हैं।
हमारे
सोचने में
विपरीत हैं, वस्तुत:
विपरीत नहीं
हैं।
अस्तित्व में
जन्म और मृत्यु
जुड़े हैं, एक
हैं। जन्म, मृत्यु का
ही पहला छोर
है; और
मृत्यु, जन्म
का ही दूसरा।
जन्म लेकर हम
करते क्या हैं
सिवाय मृत्यु
तक पहुंचने
के! जन्म और
मृत्यु दो
चीजें नहीं
हैं। विपरीत
तो हैं ही
नहीं, दो
भी नहीं हैं।
दो तो हैं ही
नहीं; भिन्न
भी नहीं हैं।
एक ही चीज के
दो छोर हैं। जन्म
एक छोर है, मृत्यु
दूसरा छोर है—उसका,
जिसे हम
जीवन कहते
हैं।
लेकिन
सोचने में
मृत्यु
दुश्मन और
जन्म मित्र
मालूम पड़ता
है। तो जन्म
के समय हम
बैंड—बाजे
बजाकर स्वागत
कर लेते हैं; और
मृत्यु के समय
रो— धोकर विदा
कर देते हैं।
शायद
हमें खयाल हो
कि हंसना और
रोना भी
विपरीत चीजें
हैं, तो
फिर हम गलती
में हैं।
हमारी भाषा और
सोचने के नियम
की भूल है।
अगर आप रोते
ही चले जाएं, तो थोड़ी ही
देर में रोना
हंसने में बदल
जाएगा।
प्रयोग करके
देखें। यह तो
कोई बहुत कठिन
प्रयोग नहीं
है। रोते ही
चले जाएं, रुके
ही मत, एक
क्षण आएगा कि
आप पाएंगे, रोना समाप्त
हो गया और
हंसने का जन्म
हो गया है!
हंसते चले
जाएं, रुके
ही मत, तो
आप पाएंगे कि
हंसना विलीन
हो गया और
रोना शुरू हो
गया।
इसलिए
ग्रामीण
स्त्रियां भी
जानती हैं कि
बच्चों को ज्यादा
हंसने नहीं
देतीं। कहती
हैं, अगर
ज्यादा
हंसेगा, तो
फिर रोएगा।
इसलिए हंसने
में ही रोक
लेना उचित है।
लेकिन हमारी
भाषा में
हंसना और रोना
विपरीत है; जन्म और
मृत्यु
विपरीत है; अंधेरा और
प्रकाश
विपरीत है, बचपन और
बुढ़ापा
विपरीत है, सर्दी और
गर्मी विपरीत
है।
यह
भाषा की भूल
है। यह तर्क
की भूल है। ये
विपरीत हैं
नहीं! ऐसा
कहीं प्रकाश
देखा है आपने, जो
अंधेरे से न
जुड़ा हो? ऐसा
कहीं कोई
अंधेरा देखा
है आपने, जो
प्रकाश से न
जुड़ा हो? सगे—साथी
हैं, संगी
हैं, ऐसा
भी कहना ठीक
नहीं है। एक
ही चीज के दो
छोर हैं। अगर
यह खयाल में आ
जाए, तो कृष्ण
का सूत्र इतना
बेबूझ नहीं
मालूम होगा।
लेकिन
इस सूत्र ने
बड़ी
कठिनाइयांद
दी है। इस बात ने
बड़ी कठिनाइयां
दी हैं कि
परमात्मा
सगुण है या
निर्गुण।
कितना उपद्रव, कितने
विवाद,
नामसझी का कोई
अंत नहीं
पड़ता। और जिन्हें
हम सोचते हों
कि समझदार वह
भी बैठे कर रह
विवाद, कि
परमात्मा
निर्गुण है या
सगुण।
सगुण
के उपासक हैं
वे कहते कि
निर्गुण की
बात ही मत करो, निर्गुण
के उपासक हैं,
वे कहते हैं,
कि सगुण की सब
बकवास। आकार
को मानने वाले
हैं, तो मूर्ति
बनाकर बेठे
है। निराकार
को मानने वाले
हैं, तो
मूर्तियां तोड्ने
में लगे है।
मुसलमान
हैं, वे
निराकार को
मानने वाले
है। उन्होने कितनी
मूर्तियां
मिटा दीं
दुनिया से!
बनाने वालों
ने जिनी मेहनत
नहीं कि, उन
बेचारों ने
उससे भी
ज्यादा मेहनत
की मिटाने
में! बनाने
वाले भी इतनी
फिक्र नहीं
करते मूर्ति
की, जितनी
मिटाने वाले को
करनी पड़ती है।
मिटाने वाला
जान की जोखिम
लगा देता है, मूर्ति को
मिटा देता है,
क्योंकि
परमात्मा
निराकार है।
लेकिन
कैसे
मूर्तियां
मिटाओगे? बनाने वाले
बनाए चले जाते
हैं।
जिन्होंने मूर्तियां
बनाईं, उनका
कोई हिसाब है?
भारत में हम
समझते हैं कि
जितने आदमी
हैं, उससे
कम परमात्मा
नहीं हैं, उससे
कम परमात्मा
की मूर्तियां
नहीं हैं। पहले
तैंतीस करोड़
आदमी हुआ करते
थे, तो
तैंतीस करोड़
देवता थे
हमारे पास।
इधर आदमियों
ने तो थोड़ी
संख्या बढ़ा ली
है, पता
नहीं देवता
क्या कर रहे
हैं!
बनाने
वाले बनाए चले
जाते हैं, क्योंकि
वे कहते हैं, सगुण है, साकार
है, रूपवान
है। मिटाने
वाले मिटाए
चले जाते हैं।
लेकिन
भाषा की भूल
इतनी महंगी पड़
सकती है! जिसे
हम सगुण कहते
हैं, वह
निर्गुण का ही
एक छोर है।
जिसे हम
निर्गुण कहते
हैं, वह
सगुण का ही एक
छोर है। सगुण
और निर्गुण दो
विपरीत
घटनाएं नहीं,
एक ही अस्तित्व
के दो छोर
हैं। जिसे हम
रूप कहते हैं,
वह अरूप का
ही एक हिस्सा
है।
इसे
ऐसा समझें कि
अरूप का जो
हिस्सा हमारी
इंद्रियों की
पकड़ में आ
जाता है, उसे हम रूप
कहते हैं। और
रूप का भी जो
हिस्सा हमारी
इंद्रियों की
पकड़ के बाहर
चला जाता है, उसे हम अरूप
कहते हैं।
सगुण? जिसे
हम नाप लेते
हैं, तौल
लेते हैं, वह
सगुण हो जाता
है। निर्गुण?
जो हमारी
नाप—तौल के
पार निकल जाता
है, तो
निर्गुण हो
जाता है।
मेरे
घर में आंगन
है, तो
मेरे आंगन का
अपना आकाश है,
दीवाल है
आँगन की मेरा आकाश
पड़ोसी के आकाश
से जुदा है, भिन्न है। अगर
पड़ोसी मेरे
आकाश में आना
चाहे, तो
मैं इनकार
करूंगा। मेरा
आकार मेरे
आँगन का आकाश!
लेकिन
इससे क्या
आकाश विभाजित
होता है? कितनी ही हम
दीवाल खड़ी
करे इससे
सिर्फ हमारी
सीमा बनती है
देखने की।
लेकिन दीवाल
के पार का
आकाश और मेरे
आंगन के आकाश
में क्या कोई
खंड हो जाता
है, कोई, कोई टूट हो
जाती है?
मेरी दिवाल
मेरी ही आँख
के लिए बाधा
बनती है, आकाश के लिए
नहीं। ध्यान
रखे मेरी
दिवाल मेरी ही
आंख की सीमा
बनती है; आकाश
की नहीं। आकाश
दो हिस्सों
में बंट जात
है; आकाश
नहीं बंटता, मेरे आँगन
का आकाश उस
आकाश का ही
हिस्सा है।
बहार है,
और जो बाहर है, वह मेरे
आँगन के ही
आकाश का
विस्तार है।
जितने
भी विपरीत
शब्द हैं
हमारे पास, वे सभी एक
ही अस्तित्व
के छोर हैं।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, मेरे
अव्यक्त
स्वरूप से यह
सब जगत
परिपूर्ण है।
मेरा निराकार
इन सब आकारों
में छिपा है।
मेरा निर्गुण
इन सब गुणों
में प्रकट हुआ
है। मेरा परमात्मा
ही इस पदार्थ
का आधार है।
और सब भूत मुझमें
स्थित हैं। और
यह जो सारा
जगत दिखाई पड़ रहा
है, यह
मुझमें स्थित
है, .मुझमें
ही ठहरा हुआ
है। और तब
तत्काल एक
विपरीत बात वे
कहते हैं—विपरीत
हमें दिखाई
पड़ती है—और सब
भूत मुझमें
स्थित हैं, लेकिन मैं
उनमें स्थित
नहीं हूं।
सब भूत
मुझमें हैं, लेकिन
मैं उनमें
नहीं हूं यह
कैसे होगा? अगर सब भूत
परमात्मा में
स्थापित हैं
और अगर परमात्मा
ही सब में
प्रकट हो रहा
है, तो फिर
यह कहना कि
मैं उनमें
नहीं हूं,
हमारे तर्क को
नई दुविधा दे
देगा।
श्रद्धा
को कठिनाई
नहीं है, क्योंकि
श्रद्धा
प्रश्न नहीं
उठाती। श्रद्धा
आर—पार देख
लेती है, ट्रासपैरेंट
है। वह देख
लेगी कि ठीक
है; कुछ
अड़चन नहीं है।
बिलकुल ठीक
है।
झेन
फकीर बोकोजू
के पास एक
जिज्ञासु आया
है और उस
जिज्ञासु ने
पूछा कि
परमात्मा तक
पहुंचने का
मार्ग क्या है?
बोकोजू
चुपचाप बैठा
रहा और फिर
उसने खिड़की के
बाहर झांककर
देखा और कहा
कि देखो! सूरज
ढलने लगा, सांझ
होने के करीब
है।
कोई
संबंध न था! उस
आदमी ने पूछा
था, ईश्वर
को पाने का
मार्ग क्या है?
और यह आदमी
खिड़की के बाहर
हाथ उठाकर
बोला, देखो,
सांझ होने लगी,
सूरज ढलने
के करीब है।
उस आदमी ने
पैर छुए और चला
गया।
एक
दूसरा आदमी
बैठा था, वह हैरान हो
गया। यह
बोकोजू तो
पागल है ही, वह जो आ गया
था, वह
महापागल
मालूम पड़ता
है! उसने जो
प्रश्न पूछा
था कि ईश्वर
को पाने का
मार्ग क्या है?
हद्द पागल
आदमी था! और
इसने जो उत्तर
दिया! कुछ लेन—देन
ही नहीं दोनों
में! कोई
संबंध नहीं!
कोई दूर की भी
संगति नहीं।
कहां ईश्वर को
पाने का मार्ग!
और क्या मतलब
इससे कि सूरज
डूबता है और
सांझ हो रही
है!
उस
आदमी ने कहा
कि मुझे भी एक
सवाल पूछना है, लेकिन
कृपा करके ऐसा
जवाब मत देना।
मुझे यह पूछना
है कि इस आदमी
ने जो पूछा, उसका क्या
हुआ?
बोकोजू
ने कहा कि
जवाब दे दिया
ग:या। और केवल
दे ही नहीं
दिया गया, जवाब
पहुंच भी गया
है।
उस
आदमी ने कहा, जवाब मेरी
समझ में नहीं
आया। जवाब था
ही नहीं, पहुंच
कैसे सकता है?
सूरज डूब
रहा है, इससे
क्या लेना—देना
है उसकी जिज्ञासा
का?
बोकोजू
ने कहा, बेहतर हो कि
तू उस आदमी से
जाकर पूछ कि
सवाल का जवाब
मिल गया है या
नहीं?
वह
आदमी बाहर गया
उस आदमी को
खोजने। बाहर
ही, द्वार
के पास ही, वृक्ष
के नीचे वह
आदमी आख बंद
करके ध्यान
में बैठा था।
उसे हिलाया और
पूछा कि जवाब
मिल गया है?
उस आदमी
ने कहा, जवाब मिल
गया है। सूरज
डूबने के करीब
है, मेरा
जीवन भी डूबने
के करीब है।
और बोकोजू ने मुझे
कह दिया है कि
अगर जीवनभर की
व्यर्थता भी
तेरे लिए
परमात्मा को
पाने का मार्ग
नहीं बन सकी, तो अब और
क्या मार्ग
बनेगा? अगर
जीवनभर का
अनुभव भी तुझे
परमात्मा के दरवाजे
पर नहीं ले
आया है, तो
अब और किस
रास्ते से तू
आ सकेगा? और
मौत करीब है, सूरज डूबने
के करीब है, सांझ होने
लगी है। अब तू
खो मत समय को।
उस
आदमी ने पूछा, आप यहा
क्या कर रहे
हैं?
तो उस
आदमी ने कहा
कि अब मैं
डूबने की
तैयारी कर रहा
हूं। जीवनभर
मैंने जीने की
तैयारी की थी, वह
व्यर्थ गई है।
अब मैं अपने
हाथ से डूबने
की तैयारी कर
रहा हूं। जिस
तरह वहां बाहर
सूरज डूब रहा
है, इसी
तरह भीतर मैं
भी डूब जाऊं, यही उनका
संकेत है।
और
सुबह जब सूरज
उग रहा था
दूसरे दिन, तब भी वह
आदमी उसी झाडू
के नीचे बैठा
था। बोकोजू
बाहर आया। वह
तीसरा आदमी भी
रातभर मौजूद
रहा कि यह
क्या हो रहा
है! सब बात बेक
हो गई थी।
बोकोजू सुबह
बाहर आया।
उसने उस आदमी
को—जो ध्यान
में रातभर
बैठा रहा था—हिलाया
और पूछा कि
कुछ खबर दो।
उस
आदमी ने आख
खोलीं। और उस
आदमी ने कहा
कि सूरज उग
रहा है। सुबह
होने के करीब
है। बोकोजू ने
उसे आशीर्वाद
दिया और कहा
कि अब तू जा
सकता है।
उस
आदमी ने कहा
कि मैं अगर
यहां ज्यादा
रुका—तीसरे
आदमी ने—तो
मैं पागल हो
जाऊंगा, इसका डर है।
यह क्या हो
रहा है?
यह एक
और तरह की
भाषा है, जो श्रद्धा
समझ पाती है।
उस आदमी ने
कहा कि सूरज
उगने लगा है।
वह तो डूब गया,
उसे छोड़ ही
दिया, जो
मैं था। अब
दूसरे का ही
जन्म हो रहा
है; रास्ता
मिल गया है।
कृष्ण
कहते हैं, ये सब
मुझमें स्थित
हैं, ये
सारे भूत, लेकिन
मैं उनमें
स्थित नहीं
हूं।
यह
इंगित है, और
महत्वपूर्ण
है। श्रद्धा
तो सीधा समझ
लेगी; विचार
को थोड़ा— सा
चक्कर काटना
पड़ेगा। जो भी
विराटतर है, वह
क्षुद्रतर
में प्रविष्ट
भी हो जाए, तो
भी प्रविष्ट
नहीं होता। एक
छोटा—सा
वर्तुल मैं
खींचूं एक
छोटा सर्किल,
और फिर एक
बड़ा सर्किल
उसके चारों
तरफ बनाऊं, तो यह कहना
तो बिलकुल ठीक
है, बड़ा
सर्किल यह कह
सकता है कि
छोटा सर्किल
मुझमें स्थित
है, फिर भी
मैं उसमें
स्थित नहीं
हूं। क्योंकि
छोटा सर्किल
तो पूरा ही
बड़े सर्किल
में उपस्थित है,
लेकिन बड़ा
सर्किल छोटे
सर्किल के
बाहर भी फैला
हुआ है।
तो
जीवन का एक
अनिवार्य
नियम है कि
क्षुद्र तो
विराट में
स्थित होता है, लेकिन
विराट
क्षुद्र में
नहीं। इसे ऐसा
समझें, एक
का आदमी कह
सकता है कि
मैं बच्चे में
मौजूद हूं
बच्चा मुझमें
स्थित है, फिर
भी मैं बच्चे
के बाहर हूं।
एक के आदमी
में बचपन भी
छिपा होता है,
जवानी भी
छिपी होती है।
उन सबको उसने
अपने में समा
लिया है, फिर
भी वह कुछ
ज्यादा होता
है, समथिंग
मोर। उनसे कुछ
फैला होता है।
उसकी परिधि
बड़ी है।
जो भी
छोटा है, वह बड़े में
समाया होता है,
लेकिन बड़ा
उस छोटे में
समाया नहीं
होता। छोटे से
भी बड़ा प्रकट
होता है, फिर
भी समाया नहीं
होता। सागर कह
सकता है कि सभी
नदियां
मुझमें समाई
हुई हैं, फिर
भी मैं नदियों
में नहीं
समाया हुआ हूं।
अर्थ इतना
ही है,
तर्क और विचार
की दृष्टी से
जो विराट है
वह क्षुद्र के
पार है।
क्षुद्र से
प्रकट भी होता
है तो भी
क्षुद्र के
पार है। यह जो
पारगामिता है,
ट्रांसेंडेंस
है, ये जो
सदा पार होना
है। बियांडनेस
है, इसका
सूत्र है यह
इसका मूल्य
है इसका अर्थ
है, वह
हमारे खयाल
में आ सकेगा?
और वे
सब भूत मुझमें
स्थित नहीं
है। पहले कहा
वे सब भूत मुझमें
स्थित हैं। और
अब तत्क्षण एक
पंक्ति भी
नहीं पूरी हो
पाई और कृष्ण
कहते हैं, और वे सब
भूत मुझमें स्थित
नहीं है।
किंतु
मेरे योग को
देख, मेरी
माया को देख
जो समस्त
भूतों को धारण—पोषण
करने वाला होकर
भी मैं भूतो
में स्थित
नहीं हूं।
क्योंकि जैसे
आकाश से
उत्पन्न हुआ सर्वत्र
विचरने वाला
वायु सदा ही आकाश
में स्थित है,
वैसे ही
संपूर्ण भूत
मेरे में
स्थित हैं, ऐसा जान।
एक के
बाद दूसरी
पंक्ति पहले
को खंडित करती
चली जाती है।
एकदम अतर्क्य
वक्तव्य है।
जो कहते हैं
एक क्षण, दूसरे क्षण
खंडित कर देते
हैं। जो
दूसरें क्षण
कहते हैं, तीसरी
पंक्ति में
उसके पार निकल
जाते हैं। क्या
कहना चाहते
हैं? क्या
इशारा है? क्योंकि
जो कहा है, वह
अतर्क्य है।
शायद यही कहना
चाहते हैं कि
मैं अतर्क्य
हूं।
इसे
समझ लें। इस
वक्तव्य का
सार भाव यही
है कि कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि तू समझने
से समझ सके, ऐसा मैं
नहीं हूं। तू
जानने से जान
सके, ऐसा
मैं नहीं हूं।
तू पहचानने से
पहचान सके, वह मैं नहीं
हूं। तू जानना
छोड़, तू
पहचानना छोड़,
तू समझ छोड़,
तू गणित छोड़,
तू तर्क छोड़,
तो तू मुझे
जान सकता है, क्योंकि मैं
अतर्क्य हूं।
अतर्क्य
का अर्थ है, मैं
रहस्य हूं।
रहस्य का अर्थ
है, कोई भी
सिद्धात, कोई
भी नियम मुझे
नहीं घेर
पाएगा। मैं
पारे की तरह
हूं। मुट्ठी
तू बांधेगा
तर्क की और
मैं बिखरकर
बाहर छिटक
जाऊंगा। जब तक
तू नहीं
बांधेगा, तब
तक शायद मुझे
पाए भी कि मैं
हूं; जैसे
ही तू मुट्ठी
बांधेगा, मैं
छिटक जाऊंगा।
बुद्धि जैसे
ही जीवन के
सत्य को पकड़ना
चाहती है, सत्य
छिटक जाता है
पारे की तरह।
तो तू मुझे बांधने
की कोशिश मत
कर।
कृष्ण
ने अब तक जो
अनुभव किया है, वह यही है
कि अर्जुन
उन्हें
बांधने की
कोशिश कर रहा
है। अर्जुन ने
सब तरह से
कोशिश की है।
क्योंकि अगर
अर्जुन कृष्ण
को बांध ले
तर्क में, विचार
में, तो इस
युद्ध से
छुटकारा हो
सकता है।
क्योंकि
कृष्ण कहते
है कि यह सब
माया है, तो अर्जुन
कहना चाहता है।
अगर सब माया
है, तो
मुझे इसमें
क्यों उलझाते
हैं? कृष्ण
कहते है कि ये
कोई मरते नहीं
मारने से; तो
अर्जुन कहेगा
कि जब ये मरते
ही नहीं मारने
से तो मारने
से भी क्या
सार है? कृष्ण
कहते है कि तू
अपने अंश के
और प्रतिष्ठा
के लिए लड़, तो
यश और प्रतिष्ठा
तो सब अहंकार
है, और आप
ही तो समझाते
है कि अहंकार
ही तो बाधा है!
अगर कृष्ण
कहते हैं कि
धर्म के लिए
तुझे लड़ना है
तो अर्जुन
कहेगा कि मुझ
से क्या धर्म
की स्थापना
हो सकेगी जब
आप ही मौजूद
है, तो
धर्म की स्थापना
उतने से काफी
है। अगर कृष्ण
है कि यह जीवन
आसार है,
तो अर्जुन
चाहता है कि
उसे छुटकार
दो। ताकि मैं
एकांत में
जाकर समाधि में
लीन हो जाऊं।
कृष्ण
कुछ भी कहें, अर्जुन
उन्हें बांध
लेना चाहता
है। उस बांधने
में ही उसे
अपना छुटकारा
दिखाई पड़ता
है। अगर कृष्ण
फंस जाएं, जो
कह रहे हैं
उसी में, तो
अर्जुन कृष्ण
से जीत जा
सकता है।
एक
बहुत मजे की बात
है कि अगर यह
चर्चा बिलकुल
तर्कयुक्त
ढंग से चले, तो कृष्ण
की हार
निश्चित है।
अगर यह ठीक
नियम से खेल
चले तर्क के, तो कृष्ण की
हार निश्चित
है। अर्जुन
सुनिश्चित
जीतेगा।
कृष्ण
ने सब तर्कों
के जवाब दिए
हैं। एक—एक
तर्क को काटने
की कोशिश की
है। अर्जुन
ऐसी जगह आ गया
है कि अब और
तर्क उठाने का
उसका मन नहीं
है। तो कृष्ण
तत्काल अपना
बेबूझपन
प्रकट करते हैं।
वे कहते हैं
कि अब मैं
तुझे बता दूं
वह, जैसा
मैं हूं। अब
तक तू जो कह
रहा था, तो
मैं भी खेल
रहा था। अब तक
तू
जो पूछ
रहा था, तो मैं भी
जवाब दे रहा
था। लेकिन वह शतरंज
का खेल था।
मैं देख रहा
था, तू
किसलिए पूछ
रहा है, तो
क्या जवाब
देना जरूरी है,
वह मैं दे
रहा था। अब
मैं तुझे वही
बताता हूं जो
मैं हूं। यह
जो दिखाई पड़
रहा है, इसमें
मैं न दिखाई
पड़ने वाले की
तरह छिपा हूं।
यह सारा जगत
मुझमें ठहरा
हुआ है, और
इसमें मैं
नहीं हूं; और
फिर भी मैं
तुझसे कहता
हूं कि यह जगत
भी मुझमें
ठहरा हुआ नहीं
है; और फिर
भी मैं तुझसे
कहता हूं कि
मैं इस जगत में
समाया हुआ
हूं।
अर्जुन
का सिर घूम
जाता। जो भी
विचार से
चलेगा, उसका
घूमेगा।
श्रद्धा नहीं
घूमती है।
श्रद्धा इतनी
शक्तिशाली है
कि कृष्ण भी उसे
डांवाडोल
नहीं कर सकते।
इतनी बात
कृष्ण ने अगर
पहले कही होती,
तो अर्जुन
अब तक हजार
सवाल उठा दिया
होता। वह चुप
है। वह समझने
की कोशिश कर
रहा है। समझने
से ज्यादा वह
कृष्ण को पीने
की कोशिश कर
रहा है। कृष्ण
क्या कह रहे
हैं, यह
मूल्यवान
नहीं रहा अब।
कृष्ण क्या हैं,
उनकी
प्रेजेंस, उनकी
मौजूदगी, उनका
होना, वह
अपने द्वार
खोलकर उनको
अपने भीतर समा
रहा है। कृष्ण
क्या कह रहे
हैं, यह अब
सवाल नहीं है
बहुत
महत्वपूर्ण।
क्यों कह रहे
हैं! क्या कह
रहे हैं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है। कौन
कह रहा है!
इसलिए
अर्जुन
चुपचाप पी रहा
है। जिन बातों
में एक—एक पद
पर संकट होना
चाहिए, और संदेह
होना चाहिए, उन्हें वह
चुपचाप पीए जा
रहा है। उसे
कहीं कोई
विरोध जैसे
दिखाई भी नहीं
पड़ रहा है।
ध्यान
रखें, यह
विरोध हों
सकता है दो
कारणों से
दिखाई न पड़े। मैंने
गीता के कई
सतत पाठी देखे
हैं, उन्हें
भी नहीं दिखाई
पड़ता। उसका
कारण यह नहीं
है कि उनकी
श्रद्धा इतनी
है कि उन्हें
इसमें विरोध
नहीं दिखाई पड़ता।
वे इतनी
बुद्धि भी
नहीं लगाते कि
विरोध दिखाई
पड़े। पढ़ते चले
जाते हैं।
पढ़ते—पढ़ते आदत
हो जाती है।
और जो बीच में
विरोध है स्पष्ट,
वह भी दिखाई
नहीं पड़ता।
सुनते रहते
हैं, विरोध
दिखाई नहीं
पड़ता।
विरोध
न दिखाई पड़़ना
दो तरह से
संभव है। एक
तो श्रद्धा
इतनी प्रगाढ़
हो कि विरोध
के बीच में वह
जो आदमी खड़ा
है, वही
दिखाई पड़े, विरोध के
पार वह जो
चेतना खड़ी है,
वही दिखाई
पड़े; और या
फिर बुद्धि
इतनी कम हो कि
पहले वक्तव्य में
और दूसरे वक्तव्य
में विरोध है,
यह भी दिखाई
न पड़े।
बुद्धि
की कमी को
श्रद्धा की
गहराई मत समझ
लेना। बहुत
बार बुद्धि का
उथलापन
श्रद्धा की
गहराई समझ ली
जाती है।
श्रद्धा की
गहराई बुद्धि
के उथलेपन का
नाम नहीं है!
श्रद्धा की
गहराई बुद्धि
से मुक्ति है।
इसे
पढ़ना। पहले तो
विरोध खोजने
की कोशिश
करना। सब तरह
से विरोध
देखने की
कोशिश करना।
और जब बुद्धि
थक जाए जैसा
कि मैं कुछ दो—तीन
बातें कहूं तो
खयाल में आ
जाए।
इस सदी
के मध्य में
विज्ञान ने एक
नया सिद्धात
खोजा। कहें
खोजा, या
कहना चाहिए, खोज में आ
गया अचानक।
जैसे ही
परमाणु की खोज
हुई, तो
विज्ञान को
पता चला कि
परमाणु के जो
घटक, इलेक्ट्रांस
हैं, वे
बड़े अदभुत हैं,
रहस्यपूर्ण
हैं।
रहस्यपूर्ण
इसलिए हैं कि
हमारे पास कोई
शब्द ही नहीं
कि हम उनको
बताएं कि वे
क्या .हैं।
किन्हीं
वैज्ञानिकों
ने खबर दी कि
वे कण हैं। और
किन्हीं
वैज्ञानिकों
ने खबर दी कि
वे कण नहीं
हैं, तरंग
हैं। और तब
किन्हीं
वैज्ञानिकों
ने खबर दी कि
वे दोनों एक
साथ हैं, कण
भी और तरंग
भी।
कण का
मतलब होता है
कि जो कभी
तरंग नहीं हो
सकता। तरंग का
मतलब होता है
कि जो कभी कण
नहीं हो सकती।
अगर मैं कहूं
कि मैंने आपकी
दीवाल पर एक बिंदु
बनाया, यह बिंदु भी
है और लकीर भी,
प्याइंट भी
है और लाइन
भी। तो आप
कहेंगे, क्या
कह रहे हैं आप!
दो में से एक
ही बात हो
सकती है, अन्यथा
युक्लिड
बेचारे का
क्या होगा? ज्यामेट्री
का क्या होगा? आप क्या
कहते हैं! अगर
मैं कहूं कि
यह बिंदु भी है
और रेखा भी, दोनों एक
साथ। तो आप
कहेंगे, कृपा
करें! यह
दोनों एक साथ
हो नहीं सकता।
और अगर मैं
खींचना भी
चाहूं ऐसी कोई
चीज तख्ते पर,
तो खींच
नहीं सकता, जो दोनों एक
साथ हो। या तो
बिंदु होगा, या रेखा
होगी।
रेखा
का मतलब ही है, बहुत—से
बिंदु सतत, बहुत—से
बिंदु थृंखला
में। अगर यह
बिंदु है, तो
रेखा नहीं हो
सकती। अगर यह
रेखा है, तो
बिंदु नहीं हो
सकता। बिंदु
का मतलब ही है
कि जो और
विभाजित न
किया जा सके।
रेखा तो विभाजित
की जा सकती
है। लेकिन
वैज्ञानिक
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए।
युक्लिड को
मानें कि इस
इलेक्ट्रान
को मानें? क्या
करें? और
यह
इलेक्ट्रान है
कि युक्लिड की
फिक्र ही नहीं
करता, ज्यामिति
की फिक्र नहीं
करता, गणित
के नियम नहीं
मानता; और
दोनों तरह का
व्यवहार करता
है! बिहेक बोथ
वेज
साइमल्टेनियसली।
कोई शब्द नहीं
है हमारे पास।
कण—तरंग, इसको
क्या नाम दें?
कण—तरंग
कहें! दोनों
विपरीत शब्द
हैं।
वैज्ञानिक
बड़े पेशोपस
में थे कि
क्या करें।
लेकिन
तथ्य को तो
मानना ही
पड़ेगा, चाहे
युक्लिड के ही
खिलाफ जाता
हो। अंततः यही
हुआ कि
युक्लिड को
छोड़ देना पड़ा;
तथ्य को ही
मानना पड़ा।
आइंस्टीन
से किसी ने
पूछा है कि यह
तो नियम के विपरीत
है! तो
आइंस्टीन ने
कहा, हम
क्या करें? कहना चाहिए,
नियम ही
तथ्य के
विपरीत है।
नियम बदला जा
सकता है, तथ्य
नहीं बदला जा
सकता। नियम
बदला जा सकता
है, नियम
हमारा बनाया
हुआ है। तथ्य
नहीं बदला जा
सकता है; तथ्य
हमारा बनाया
हुआ नहीं है।
युक्लिड को हारना
पड़ेगा, क्योंकि
तथ्य यह है।
विपरीत
एक साथ मौजूद
है जीवन में।
उसी तथ्य को
भौतिकी इस
इलेक्ट्रान
के व्यवहार
में पाई, कि जीवन एक
साथ मौजूद है।
फ्रायड
ने अपने अंतिम
जीवन के
क्षणों में
अनुभव किया कि
आदमी के भीतर
जीवन की लालसा
तो है ही।
मृत्यु की भी
लालसा है।
जिंदगी भर वह
कहता था, आदमी के
जीवन में एक ही
खास चीज है, लिबिडो।
लिबिडो उसके लिए
शब्द था
जीवेषणा।
आदमी जीना
चाहता है,
लेकिन आखरी
उम्र में जीवन
का अध्ययन
जीवनभर करने
के बाद उसे
लगा कि यह बात
अधूरी है।
आदमी सिर्फ
जीना ही नहीं
चाहता आदमी
साथ ही मरना चाहता
है। यह चाह भी
आदमी के भीतर
छीपी है।
अब बड़ी
मुश्किल हुई। क्या
ये दोनों चाहे
एक साथ भीतर
छिपी हैं? क्या यह
आदमी दोनो
चाहे है।
फ्रायड खुद परेशान
हुआ, क्योंकि
वह तर्कयुक्त गणित
में भरोसा
करता था। उसे
कठिनाई मालूम
पड़ी कि आदमी
में दौ चाहे
कैसे हो सकती
है, या तो
जीने की चाह
हो या मरने की
चाह हो ये समझ
में आता है कि
एक आदमी में
अभी जीने की
चाह है, फिर
बाद में मरने
की चाह आ जाए, यह समझ में आ
सकता है, लेकिन
दोनों एक साथ!
वही, जो
भौतिकविद
पहुंचे
पदार्थ में, मनसविद
पहुंच गए
मनुष्य की
वासना में, तो पाया कि
दोनों
वासनाएं एक
साथ मौजूद
हैं। और अब जो
और गहरे जा
रहे हैं लोग, वे अनुभव
करते हैं कि
उन्हें दो
वासनाएं कहना
गलत है। आदमी
के भीतर एक ही
वासना है, जो
जीने और मरने
की दोनों है।
तो जब तक
अच्छा लगता है,
तो आदमी उस
वासना की
व्याख्या
करता है कि
मैं जीना
चाहता हूं। जब
अच्छा नहीं
लगता, तो
उसी वासना की
व्याख्या
करता है कि
मैं मरना
चाहता हूं।
बूढ़े
आदमी कहते हुए
सुने जाते हैं
कि भगवान, अब हमें
उठा ले! तो ऐसा
मत समझना कि
कुछ बदलाहट हो
गई है उनमें, कि कोई क्रांति
हो गई है
उनमें। वही
चाह विफल होकर,
असफल होकर,
हारकर, पराजित
होकर, जरा—जीर्ण
होकर अब
मृत्यु की
भाषा बोल रही
है। वही चाह
है।
अभी
कोई आ जाए और
कहे कि एक नया
यंत्र बन गया
है। इस दरवाजे
से घुसो, उधर से
निकलो, जवान
हो जाते हो! वह
का आदमी कहेगा,
भगवान! अभी
थोड़ा ठहरना।
मैं इस यंत्र
से जरा गुजरकर
एक बार देख
लूं। अगर ऐसा
होता हो, तो
अभी मरने की
ऐसी कुछ जल्दी
नहीं है!
क्या
हुआ? ये
चाहें दो नहीं
हैं। लेकिन
भाषा में बड़ी
कठिनाई है। दो
ही कहना
पडेगी। ये एक
ही हैं।
मनसविद हमारे भीतर
खोज कर—करके
एक और तीसरे
तथ्य पर
पहुंचे हैं।
आपको खयाल में
आ जाए कि
वैपरीत्य
वैपरीत्य
नहीं है। मनसविद
कहते हैं कि
हम जिस
व्यक्ति को
प्रेम करते हो,
उसी को घृणा
भी करते हैं।
यह जब पहली
दफा उदघाटन
हुआ, तो यह
पहली दो बातों
से भी ज्यादा
मन को दबाने
वाली बात है।
क्योंकि मां
को अगर कोई
कहे कि तू
अपने बेटे को
प्रेम भी करती
है और घृणा भी,
साथ ही, तो
कोई मां राज़ी
नहीं होगी।
लेकिन फ्रायड कहता
है कि उसका न
राजी होना
केवल उसके
भीतर के भय को
बताता है। वह
जानती है गहरे
में कि, यह
सच है।
अगर किसी
प्रेमी को हम
कहे तू जिस
प्रेयसी के
लिए मरा जा
रहा है, उसी को कल
मार भी सकता
है। अभी उसके
लिए अमृत की
तलाश कर रहा
है। कल इसी
दुकान से उसी
के लिए जहर
भी खरीद
सकता है। और
कल तो बहुत
दूर है, मनसविद कहते
हैं, इसी क्षण
में भी प्रेम
और घृणा दोनों
साथ ही मौजूद
हैं। पर हमें
कठिनाई है।
क्योंकि
हमारे लिए
प्रेम और घृणा
विपरीत बातें
हैं, अलग—
अलग।
ऐसा
नहीं है।
इसलिए प्रेम
क्षणभर में
घृणा बन सकता
है, और
घृणा क्षणभर
में प्रेम बन
सकती है। जो
आकर्षण है, वह विकर्षण
बन सकता है।
जो विकर्षण है,
वह आकर्षण
बन सकता है।
वे बदलने
योग्य हैं, एक्सचेंजेबल
हैं, और
लिक्विड हैं,
तरल हैं, एक—दूसरे
में बह जाते
हैं। सच तो यह
है कि वे दो नहीं
हैं, एक ही
हैं।
कृष्ण
यही कह रहे
हैं कि मैं
दोनों हूं।
जहां—जहां
तुझे वैपरीत्य
दिखाई पड़े, वह दोनों
मैं हूं।
इस
संबंध में
हिंदू चिंतन
बहुत अनूठा
है। दुनिया के
किर्सी धर्म
ने भी द्वंद्व
को इतनी गहराई
से आत्मसात
नहीं किया।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
आइंस्टीन के
लिए या फ्रायड
के लिए हिंदू
चिंतन जितनी
सहजता से
आत्मसात कर
सकता है, उतना
क्रिश्चियन
चिंतन
आत्मसात नहीं
कर सकता है। क्योंकि
क्रिश्चियनिटी
या इस्लाम
द्वंद्व को
मानकर चलते
हैं।
यह भी
खयाल में ले
लें। कल मैंने
आपसे कहा था, दो
धाराएं हैं, एक यहूदी और
एक हिंदू। शेष
धाराएं उनकी
शाखाएं हैं।
यहूदी धारा
जीवन को
द्वंद्व में
तोड़कर चलती है।
भगवान है एक, शैतान है एक;
दोनों
दुश्मन हैं।
अच्छाई है एक,
बुराई है एक,
दोनों में
.दुश्मनी है।
पाप है एक, पुण्य
है एक, दोनों
विपरीत हैं।
नर्क है एक, स्वर्ग है
एक; दोनों
में विरोध है।
सिर्फ हिंदू
चितना द्वंद्व
को आत्मसात
करती है।
इसलिए हमने
कुछ अदभुत
चीजें बनाईं।
जैसे—जैसे
मनुष्य की समझ
बढ़ेगी, उन
चीजों की
गरिमा और
महत्ता भी समझ
में आएगी।
हम
अकेली कौम हैं
इस जमीन पर, जिन्होंने
परमात्मा के
विपरीत एक
बुराई का परमात्मा
खड़ा नहीं
किया। खड़ा ही
नहीं किया। शैतान
की, हमारी
चितना में, कोई गुंजाइश
नहीं है। मगर
यह बड़ा कठिन
काम है। ईसाई
और मुसलमान एक
लिहाज से सीधे
और सरल हैं, साफ हैं।
जटिलता नहीं
है। क्योंकि
जो—जो बुराई
है, वह
शैतान पर छोड़
देते हैं; और
जो—जो भलाई है,
वह
परमात्मा पर
रख लेते हैं।
इसलिए उनका
परमात्मा
एकदम भला है।
अंग्रेजी में
जो शब्द गॉड है,
वह गुड का
ही रूपांतरण
है। वह जो शुभ
है, वही
परमात्मा है।
और जो अशुभ है,
वही शैतान
है।
लेकिन
हम क्या
करेंगे? हमारे
परमात्मा को
दोनों होना
पड़ेगा एक साथ,
परमात्मा
भी और शैतान
भी। इसलिए
हमने एक कल्पना
की है, जो
बहुत गहरी है।
वह यह है कि
परमात्मा
निर्माता भी
है और
विध्वंसक भी।
ईसाइयत कहेगी,
परमात्मा
बनाता है, शैतान
मिटाता है। हम
कहते हैं, परमात्मा
दोनों ही काम
करता है; वही
बनाता है, वही
मिटाता है।
हमने
अर्द्धनारीश्वर
की प्रतिमा
बनाई है। हमने
शिव की
प्रतिमा बनाई
है, जिसमें
वे आधे पुरुष
हैं और आधे
स्त्री। दुनिया
में कोई ऐसी कल्पना
नहीं कर सकता।
एक ही व्यक्ति
दोनों कैसे हो
सकता. है? या
तो स्त्री हो
या पुरुष हो।
लेकिन दोनों
हैं, दोनों
एक साथ। इसलिए
कृष्ण यह भी
कहते हैं कि यह
सारा संसार
मुझमें समाया
हुआ है और फिर
भी मैं इसमें
नहीं हूं। अगर
कृष्ण से कोई
पूछे कि ये जो
पाप हो रहे हैं,
इनके संबंध
में आपका क्या
खयाल है? तो
कृष्ण कहेंगे,
सारे
पापियों में
भी मैं समाया
हुआ हूं और
फिर भी मैं
उनमें नहीं
हूं। और सारे
पाप मेरे ही भीतर
हो रहे हैं और
फिर भी मैं
उनमें नहीं
हूं।
यह जो
द्वंद्वातीत, ट्रांसेंडेंटल,
दोनों को
स्वीकार करके
भी उनके पार
होने की बात
है, यही
भारतीय धर्म
का गुह्यतम
सूत्र है।
इसलिए हमारा
परमात्मा, हमारी
जो परमात्मा
की धारणा है, वह दुनिया
के दूसरे
लोगों को बहुत
अजीब मालूम पड़ती
है। उनकी
कल्पना में
नहीं आती है
कि यह कैसी
बात है! हमारे
मुल्क में भी
ऐसे लोग हैं, जिनकी समझ
में नहीं आती।
जैसे
कृष्ण का ही
व्यक्तित्व
है, यह
जैनों की समझ
में नहीं आ
सकता।
क्योंकि वे कहेंगे,
यह आदमी
कैसा है? यह
बांसुरी भी
बजा सकता है, यह युद्ध के
मैदान पर भी
खड़ा हो सकता
है! यह अहिंसा
की परम बात भी
कह सकता है और
हिंसा के बड़े
युद्ध में
अर्जुन को
जाने की सलाह
देता है! सलाह
ही नहीं देता,
फुसलाता
है। और इतने
ढंग से
फुसलाता है कि
किसी
सेल्समैन ने
कभी किसी
दूसरे को नहीं
फुसलाया
होगा। उसको
धक्का देता है
कि जा और जूझ
जा, बिलकुल
बेफिक्र रह!
और एक अजीब
सूत्र देता है;
उससे कहता
है, बेफिक्री
से मार; क्योंकि
आत्मा कभी मरती
ही नहीं!
यह जो
द्वंद्वातीत
अतिक्रमण की
क्षमता है, यह गहनतम
खोज है। इस
सूत्र में
कृष्ण यही कह
रहे हैं कि तू
मेरे रूप को
दो विरोधों
में मत बांट।
दोनों में मैं
मौजूद हूं—रूप
में भी, अरूप
में भी, मूर्त
में भी, अमूर्त
में भी; पदार्थ
में भी, परमात्मा
में भी—मैं ही
हूं। और फिर
भी मैं तुझसे
कहता हूं कि इन
सबमें होकर भी
मैं बाहर रह
जाता हूं। इन
सबके बीच में
खड़े होकर भी
मैं इनमें डूब
नहीं जाता
हूं। इसे आप
अनुभव कर सकते
हैं। यहां आप
भीड़ में बैठे
हुए हैं, भीड़
में बिलकुल
डूबे हुए हैं।
फिर भी अगर
आपको थोड़ी—सी
भी ध्यान की
क्षमता हो, आख बंद कर
लें, अपने
भीतर ध्यान
में हो जाएं, तो आप कह
सकते हैं कि
मैं भीड़ में
मौजूद हूं और फिर
भी भीड़ में
नहीं हूं।
आप
जंगल में चले
जाएं और ध्यान
की बिलकुल
क्षमता न हो, एक वृक्ष
के नीचे बैठ
जाएं; कोई
वहां नहीं है,
निराट
सुनसान है, आख बंद करें,
भीड़ मौजूद
है! तब आपको
वहां कहना
पड़ेगा, भीड़
यहां बिलकुल
नहीं है, फिर
भी मैं भीड़
में मौजूद
हूं।
इस भीड़
में बैठकर भी
आप भीड़ के
बाहर हो सकते
हैं। तब आपको
एक जटिल सत्य
का अनुभव होगा, भीड़ में
हूं भीड़ में
समाया हुं
बैठा हूं
चारों तरफ भीड़
है, फिर भी
मैं भीड़ में
नहीं हूं। तब
आपको खयाल में
आएगा कि यह द्वंद्वातीत
अतिक्रमण
क्या है! यह
नान—डुअल
ट्रांसेंडेंस
क्या है! यह
कृष्ण किस गहन
पहेली की बात
कर रहे हैं!
वे यह
कह रहे हैं, मैं ही
लड़ता हूं,
मैं ही लड़ाता
हूं; मैं
ही भागता हूं?
मैं ही
भगाता हूं; और फिर भी
मैं इस सब में
नहीं हूं।
लेकिन
यह ध्यान की
या श्रद्धा की, समाधि की
जो परम अवस्था
है, तभी
खयाल में आती
है। तभी खयाल
में आती है।
एक
सूफी फकीर
मरने के करीब
था। चिकित्सक
उसे दवा दे
रहे हैं। वह
दवा पी रहा
है। लेकिन
चिकित्सक को
उसकी आंखों को
देखकर शक हुआ
कि वह दवा
नहीं पी रहा
है। चिकित्सक
ने कहा कि आप
दवा पी तो
जरूर रहे हैं, लेकिन
आपकी आंखों से
ऐसा लग रहा है
कि आपको कोई
प्रयोजन नहीं
है।
उस
फकीर ने कहा, तुम्हारे
लिए दवा पी
रहा हूं; मैं
दवा नहीं पी
रहा हूं। दवा
तो पी ही रहा
है, लेकिन
उसने कहां
तुम्हारे लिए
दवा पी रहा हूं।
मैं दवा नहीं
पी रहा हूं।
अगर
कोई मोहम्मद
के हाथ में तलवार
को देखकर पूछता
कि आप यह
तलवार क्यों
लिए हुए है।
तो शायद वो भी
कहते, तुम्हारे
लिए हुं। मेरे
हाथ में तलवार
नहीं है, इसलिए
मोहम्मद ने
अपनी तलवार पर
लिख रखा था ''शांति''।
शांति मेरा संदेश
है।
पागलपन
है! तलवार पर, शांति
मेरा संदेश
है। उलटी हो
गई बात। कृष्ण
जैसी हो गई।
तलवार पर लिखा
कि शांति मेरा
संदेश है,
और कोई जगह
नहीं मिलती
लिखने को।
इसलाम शब्द
का अर्थ होता
है शांति।
लेकिन
मोहम्मद ठीक
कह रहे है
तलवार उनकी
तलवार के लिए
नहीं उठी है।
और तलवार उनके
हाथ में है ही नहीं।
मगर यह कठिन
है। यह तो एक
गहन अनुभव हो, तो ही
खयाल में आ
सकता है। कुछ
प्रयोग करें,
तो समझ में
आएगा। कुछ
थोड़े—से
प्रयोग करें,
तो आसान हो
जाएगा।
जैसे
मैंने कहा, यहां भीड़
में बैठे हैं।
एक क्षण को
बदल लें ध्यान,
भूल जाएं
भीड़ को। भीड़
खो गई; आप
अकेले हो गए।
भीड़ फिर भी
रहेगी, आप
अकेले हो गए।
भोजन कर रहे
हैं। समझ लें,
जान लें कि
शरीर में भोजन
जा रहा है, आप
में नहीं।
शरीर में भोजन
जाता रहेगा; आप बाहर हो
गए।
कोई
आपको चांटा
मार रहा हो, तब समझें
कि पदार्थ से
पदार्थ टकराया;
हाथ चेहरे
से लगा, मैं
दूर ही खड़ा रह
गया हूं; मुझे
छुआ नहीं जा
सका। तब चांटे
की आवाज भी होगी,
गाल पर निज्ञान
भी आ जाएगा, वह आदमी
तृप्त होकर भी
लौट जाएगा और
आप भीतर अछूते
बाहर खqऊए
रह जाएंगे!
थोड़े प्रयोग
करें, तो
यह पहेली खयाल
में आ सकती
है।
आज
इतना ही।
लेकिन
अभी उठें
नहीं। पांच
मिनट बैठे
रहें। यहां
कीर्तन होगा।
पांच मिनट
सम्मिलित
हों। और
बैठे ही न
रहें, सम्मिलित
हों। दोहराएं
साथ में आनंद
से और फिर
वापस जाएं।
THANK YOU GURUJI
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