दिनांंक 6 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—आप
हमारे लिए कौन
सा मार्ग
उदघाटित कर
रहे हैं?
2—आपके पास
आकर ध्यानमय जीवन
सरल और स्वाभाविक
हो गया है।
लेकिन मैंने
बुद्धत्व की'
आशा छोड़ दी
है। क्या ये
दोनों बातें
विरोधाभासी
हैं?
3—क्या
अस्तित्व
मुझसे प्रेम करता
है?
4—क्या
दमन के मार्ग
से चेतना की ऊंचाइओं
को छूना संभव
है?
5—झेन की सहजता
और योग का
अनुशासन क्या
कहीं आपस में
मिलते हैं?
6—आपके
विरूद्ध
प्रचार करने
के लिए मुझे
आपका
आशीर्वाद चाहिए!
7—प्रेम
या ध्यान—किस
द्वार से
प्रवेश करें?
8—आपके
विरूद्ध हो
रहे प्रचारों
से घिरा साधक
क्या करे?
9—आप किसी की
निंदा नहीं
करते, फिर सत्य
साईंबाबा,
कृष्णमूर्ति
और अमरीकी
गुरूओं की
आलोचना क्यों
करते है?
10—क्या केवल
पुस्तकें
पढ़ कर
बुद्धत्व घट
सकता है?
11—आपका सत्संग
हमें घंटे, डेढ़
घंटे से ज्यादा
क्यों नहीं
मिलता?
12—योग के
आठ चरणों का क्रम
क्या किसी के
लिए बदला भी
जा सकता है?
13—तिब्बती
गुरु चोग्याम
त्रुंगपा का
शराब पीकर
मूर्च्छित
हो जाना उनकी
क्या स्थिति
बताता है?
पहला
प्रश्न :
आप
हमारे लिए कौन
सा मार्ग
उदघाटित कर
रहे हैं?
वह कोई मार्ग
नहीं है; तुम्हें
चलना नहीं है
उस पर। बल्कि,
वह एक सीधी
सी समझ है।
तुम्हें सारी
यात्राओं को
रोक देना है।
मार्ग होता है
यात्रा करने
के लिए और
कहीं जाने के
लिए; मार्ग
होता है कहीं
पहुंचने के
लिए, कुछ
पाने के लिए; मार्ग साधन
है और साध्य
है कहीं बहुत
दूर भविष्य
में। यही है
मेरा मतलब, जब मैं कहता
हूं कि जो कुछ
भी मैं कह रहा
हूं तुम से, वह मार्ग की
बात नहीं है, वह केवल
सीधी—साफ समझ
की बात है।
यदि तुम समझ लो,
तो तुम
मंजिल पर
पहुंच ही गए।
यदि तुम समझ
लो, तो तुम
सदा मंजिल पर
ही हो। एक
क्षण के लिए
भी तुम कभी
दूर नहीं गए
हो मंजिल से, तुम स्वप्न
देख रहे होओगे
कि तुम दूर
चले गए हो, लेकिन
तुमने अपना घर
एक क्षण के
लिए भी छोड़ा नहीं
है।
यह है
अ—मार्ग। या
अगर तुम इसे
मार्ग ही कहना
चाहते हो, अगर
तुम्हें
मार्ग शब्द
बहुत
प्रीतिकर हो,
तो तुम इसे
एक
मार्ग—विहीन
मार्ग कह सकते
हो। लेकिन
मुझे समझने का
प्रयत्न करो.
यह कोई मार्ग नहीं
है। मैं
तुम्हें साधन
नहीं दे रहा
हूं बल्कि
साध्य ही दे
रहा हूं।
दूसरा
प्रश्न :
जब से
आपके पास आया
हूं ध्यानमय
जीवन जीना
ज्यादा सरल और
ज्यादा
स्वाभाविक हो
गया है फिर भी
प्रकट में
मैने
बुद्धत्व की पूरी
तरह आशा छोड़
दी है। क्या
ये दोनों
बातें विरोधाभासी
हैं?
बिलकुल नहीं।
बुद्धत्व
पाने के लिए
यह एक अनिवार्य
शर्त है कि
तुम्हें उसके
प्रति सारी
आशाओं को और
इच्छाओं को छोड़
देना होगा।
अन्यथा
बुद्धत्व की आकांक्षा
ही एक
दुख—स्वप्न बन
जाती है। और
जितनी ज्यादा
तुम आकांक्षा
करते हो उसकी, उतने ही
तुम उससे दूर
होते हो—जितनी
बड़ी आकांक्षा
है उतनी ही
ज्यादा दूरी
होगी। तो उसके
प्रति सारी
आकांक्षाओं
को, सारी
आशाओं को छोड़
दो। यदि तुम बुद्धत्व
के प्रति
सचमुच ही आकांक्षारहित
हो, तो
किसी भी क्षण
संभावना है
उसके घटने की।
थोड़ी जगह
निर्मित करो;
उसके प्रति
आकांक्षा से
मत भरे रहो।
बुद्धत्व
के घटने में
सब से बड़ी
बाधा है उसकी आकांक्षा, क्योंकि
जो मन कामना
करता है
और आकांक्षा
करता है, वह सदा ही तनावपूर्ण
होता है। उसके
आस—पास एक
सूक्ष्म बेचैनी
होती है, उसे
कभी भी चैन
नहीं होता।
कैसे तुम्हें
चैन हो सकता
है यदि
तुम्हें कहीं
जाना हो, कहीं
पहुंचना हो? तुम बैठे
हुए हो सकते
हो, लेकिन
तुम चल ही रहे
होओगे।
ऊपर—ऊपर तुम
शांत दिखोगे,
लेकिन भीतर
से तुम बेचैन हो।
छोड़ो यह
नासमझी।
आकांक्षा से
कभी किसी को बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं
हुआ है।
इसीलिए सारे बुद्ध
पुरुष जोर
देते हैं कि आकांक्षारहित
हो जाओ।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि जब तुम आकांक्षारहित
होते हो तो
तुम निर्वाण
या बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाओगे; मैं यह कह
रहा हूं कि जब
तुम आकांक्षारहित
होते हो, तो
तुम ही होते
हो निर्वाण, तुम ही होते
हो बुद्धत्व।
आकांक्षा है
तुम्हारे
भीतर की
अशांति, झील
में उठी
तरंगों की
भांति—तरंगें
खो जाती हैं
तो झील शांत
हो जाती है।
सांसारिक
चीजों की
इच्छाओं को
गिरा देना आसान
है, बहुत
आसान है। असल
में उनसे
चिपके रहना
नितांत मूढ़ता
है। केवल मूढ़
व्यक्ति ही
सांसारिक चीजों
से चिपके रहते
हैं, क्योंकि
कोई भी देख
सकता है कि वे
तुम से छिनने
ही वाली हैं।
सारे परिग्रह
व्यर्थ हैं, बेकार हैं।
और जिसके पास
भी थोड़ी सी
बुद्धि है, वह सजग हो
सकता है कि
चीजों को
इकट्ठा किए
जाना तुम्हें
कोई समृद्धि न
देगा; बल्कि
इसके विपरीत,
वह तुम्हें
और— और दरिद्र
बनाएगा।
जितनी ज्यादा
चीजें
तुम्हारे पास
होंगी, उतना
ज्यादा तुम
अनुभव करोगे
कि तुम रिक्त
हो।
एक
समृद्ध
व्यक्ति—गहरे
तल पर—बहुत
दरिद्र हो जाता
है। तुम सम्राटों
से ज्यादा बड़े
भिखारी नहीं
खोज सकते। वे भलीभांति
जानते हैं कि
उनके पास सब
कुछ है जिसकी
वे आकांक्षा
कर सकते थे, तो पहली
बार वे सजग
होते हैं कि
भीतर कुछ बदला
नहीं है. कोई
संतुष्टि
घटित नहीं हुई,
कोई
परितृप्ति
नहीं आई। भीतर
उतनी ही अशांति
है जितनी पहले
थी; सारा
प्रयास बेकार
गया, और
सारा जीवन
व्यर्थ
गंवाया
भाग—दौड़ में।
नहीं, सांसारिक
आकांक्षाओं
को गिरा देना
कठिन नहीं है।
लेकिन जब तुम
सांसारिक
आकांक्षाओं
को गिरा देते
हो तो मन तुरंत
पारलौकिक आकांक्षाए
निर्मित कर
लेता है :
मोक्ष, निर्वाण,
बुद्धत्व, ईश्वर। अब तुम
इनके पीछे
भागते हो।
स्थिति वही की
वही रहती
है—तुम आकांक्षा
में ही जीते
हो। विषय का
सवाल नहीं है,
असली सवाल
यह है कि तुम
आकांक्षा
करते हो या नहीं?
असली सवाल
यह नहीं है कि
तुम किसकी आकांक्षा
करते हो।
तुम्हारे
सारे
आध्यात्मिक—तथाकथित
आध्यात्मिक—शिक्षक
तुम्हें
भ्रांति में
डाल देते हैं, क्योंकि
वे कहते हैं, ' आकांक्षा का
विषय बदल दो।
सांसारिक
चीजों की आकांक्षा
मत करो; परमात्मा
की आकांक्षा
करो।’ लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
यदि तुम
परमात्मा की आकांक्षा
करते हो, तो
परमात्मा भी
सांसारिक
विषय हो जाता
है। मेरे देखे
संसार की
परिभाषा ऐसी
है : जिस चीज की
आकांक्षा की
जा सके वह
संसार है।
परमात्मा
की आकांक्षा
नहीं की जा
सकती। तुम
परमात्मा को
अपनी आकांक्षा
का विषय नहीं
बना सकते; वह उसकी
विशुद्धता को
नष्ट करना है।
बुद्धत्व की
आकांक्षा
नहीं की जा
सकती, क्योंकि
बुद्धत्व
केवल तभी घटता
है जब कोई आकांक्षा
नहीं रहती। और
बुद्धत्व कुछ
ऐसी बात नहीं
जो बाहर से
आती है। जब मन आकांक्षा
से मुक्त हो
जाता है, तो
अचानक तुम
भीतर बैठे
सम्राटों के
सम्राट के
प्रति सजग
होते हो। वह
सदा से वहां
है, लेकिन
तुम्हीं इतने
ज्यादा उलझे
हुए थे आकांक्षा
में और
पहुंचने में
और पाने में
और उपलब्ध
होने में।
उपलब्धि
की आकांक्षा
से भरा मन ही
बाधा है। इसलिए
अच्छा है कि
तुमने
बुद्धत्व की
पूरी तरह आशा
छोड़ दी है।
लेकिन
मैं नहीं
समझता कि
तुमने पूरी
तरह आशा छोड़
दी है—अन्यथा
तो घटना घट गई
होती। तुम ठीक
कहते हो :
यद्यपि प्रकट
में तो तुमने
पूरी तरह आशा
छोड़ दी है बुद्धत्व
की, लेकिन
गहरे में तुम
अभी भी स्वप्न
देख रहे हो उसके,
आकांक्षा
कर रहे हो
उसकी। प्रकट
में तुमने छोड़
दी होगी आशा, लेकिन कहीं
गहरे में आशा
जरूर बनी है, वरना तो कोई
समस्या ही
नहीं है कि
बुद्धत्व घटित
क्यों नहीं
हुआ। उसे तो
तुरंत घटना
चाहिए—स्व पल
का भी अंतराल
नहीं होता। यह
बिलकुल
निश्चित है।
जब आकांक्षा
ने तुम्हें
पूरी तरह छोड़
दिया होता है,
तो
बुद्धत्व
घटता ही है।
वस्तुत: वह और
कुछ नहीं
है—तुम ही हो आकांक्षारहित।
तो
थोड़ा गहरे
तलाशना, थोड़ा और
गहरे खोदना
अपने भीतर, तुम फिर
पाओगे आकांक्षाओं
को वहा, पर्तें
हैं
आकांक्षाओं
की; और
उन्हें
फेंकते जाओ।
प्याज को पूरी
तरह छील डालो
एकदम भीतर तक।
एक दिन घटना
घटेगी। किसी भी
दिन संभव है
वह। किसी भी
क्षण, जब
कोई आकांक्षा
नहीं होती, उसकी कोई
स्फुरण। भी
नहीं होती—कोई
कंपन नहीं, कोई तरंग
नही—और चेतना
निर्धूम होती
है; कामना,
आकांक्षा
का कोई धुंआ
नहीं होता; केवल चेतना
की ज्योति
होती है, चेतना
की लपट—अचानक
तुम हंसने
लगते हो, अचानक
तुम्हें समझ आ
जाती है बात
कि जिसे तुम खोज
रहे थे, वह
तो तुम्हारे
भीतर ही था।
यही
मतलब है जीसस
का जब वे जोर
दिए जाते हैं
कि 'प्रभु
का राज्य
तुम्हारे
भीतर है।’ यदि
वह बाहर होता
तो उसकी आकांक्षा
की जा सकती थी;
यदि वह कहीं
बाहर होता तो
उस तक पहुंचा
जा सकता था
किसी मार्ग
से। व तुम ही
हो! इसीलिए
मैं कहता हूं
कि मेरे पास
कोई मार्ग
नहीं है
तुम्हें देने
को। मैं तो
केवल अपने बोध
को बांट सकता
हूं तुम्हारे
साथ।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
अस्तित्व
मुझसे प्रेम
करता है?
यह प्रश्न
पूछना गलत है।
तुम्हें इसके
विपरीत पूछना
चाहिए, 'क्या तुम
प्रेम करते हो
अस्तित्व से?
क्योंकि
अस्तित्व कोई
व्यक्ति नहीं
है, वह
प्रेम नहीं कर
सकता तुमसे।
उसका कोई
केंद्र नहीं
है, या कि
तुम कह सकते
हो सब जगह
उसका केंद्र
है। लेकिन वह
एक
निवैंयक्तिक
घटना है।
निवैंयक्तिक
अस्तित्व
कैसे प्रेम कर
सकता है तुमसे?
तुम प्रेम
कर सकते हो।
लेकिन
जब तुम प्रेम
करते हो, तो अस्तित्व
प्रतिसंवेदन
करता
है—समग्रता से
प्रतिसंवेदन
करता है। यदि
तुम एक कदम
उठाते हो
अस्तित्व की
ओर, तो
अस्तित्व
हजारों कदम
उठाता है
तुम्हारी —ओर,
लेकिन वह एक
प्रतिसंवेदन
ही है।
तुम्हें
लाओत्सु की
बात समझनी
होगी। लाओत्सु
कहता है कि
अस्तित्व का
स्वभाव
स्त्रैण है। स्त्री
प्रतीक्षा
करती है; वह कभी पहल
नहीं करती।
पुरुष को आगे
आना पड़ता है
और पहल करनी
पड़ती
है। पुरुष को
आग्रह और
प्रणय—निवेदन
करना पड़ता है
और राजी करना
पड़ता है।
अस्तित्व स्त्रैण
है—वह
प्रतीक्षा
करता है।
तुम्हें निवेदन
करना होता है; तुम्हें
प्रेम प्रकट
करना होता है;
तुम्हें
पहल करनी होती
है.. और तब
अस्तित्व
बरसता है तुम
पर—असीम बरसता
है, भर
देता है
अनंत—अनंत
द्वारों से।
ठीक स्त्री की
ही भांति : जब
तुमने राजी कर
लिया होता है
उसे, तो वह
अपने को
न्यौछावर कर
देती है।
कोई
पुरुष इतना
प्रेमपूर्ण
नहीं हो सकता
जितनी कि
स्त्री हो सकती
है। पुरुष तो
सदा आशिक
प्रेमी ही
रहता है; उसका
संपूर्ण
अस्तित्व कभी
भी प्रेम में
नहीं डूबता।
स्त्री
समग्ररूपेण
डूबती है
प्रेम में, वही उसका
पूरा जीवन
होता है, उसकी
प्रत्येक
श्वास होती
है। लेकिन वह
प्रतीक्षा
करती है। वह
कभी पहल न
करेगी; वह
कभी तुम्हारा पीछा
न करेगी; और
यदि कोई
स्त्री
तुम्हारा
पीछा करे—तो
चाहे कितनी ही
सुंदर क्यों न
हो वह
स्त्री—तुम
भयभीत हो
जाओगे उससे।
वह स्त्रैण न
जान पड़ेगी। वह
इतनी आक्रामक
लगेगी कि उसका
सारा सौंदर्य
कुरूपता में
बदल जाएगा।
स्त्री निष्क्रिय
होती है, पैसिव
होती है। खयाल
में ले लेना
इस शब्द को :
निष्क्रिय, निष्कि्रयता,
पैसिविटी।
अस्तित्व
मां है। ईश्वर
को 'मां'
कहना सदा ही
बेहतर है 'पिता'
कहने की
अपेक्षा।
पिता कहना
उतना सुसंगत
नहीं है।
अस्तित्व मां
है, स्त्रैण
है, प्रतीक्षा
कर रहा है
तुम्हारी—प्रतीक्षा
कर रहा है
तुम्हारी सदा—सदा
से। लेकिन
दस्तक तो
तुम्हें ही
देनी होगी
द्वार पर। यदि
तुम दस्तक दो
तो तुम द्वार खुला
हुआ पाओगे, लेकिन यदि
तुम दस्तक ही
नहीं देते तो
तुम खड़े रह
सकते हो द्वार
पर ही।
अस्तित्व उसे
नहीं खोलेगा;
वह आक्रामक
नहीं है।
प्रेम तक में
भी वह आक्रामक
नहीं है। इसीलिए
मैं कहता हूं
कि वह
प्रतिसंवेदित
होता है।
लेकिन
गलत प्रश्न मत
पूछो। मत पूछो
कि 'क्या
अस्तित्व
मुझसे प्रेम
करता है?' अस्तित्व
से प्रेम करो
और तुम पाओगे
कि तुम्हारा
प्रेम कुछ भी
नहीं है।
अस्तित्व
तुम्हें इतना
अनंत प्रेम
देता है, तुम्हारे
प्रेम को इतने
असीम ढंग से
प्रतिसंवेदित
करता है—लेकिन
वह है
प्रतिसंवेदन
ही—अस्तित्व
कभी पहल नहीं
करता; वह
प्रतीक्षा
करता है। और
यह बात सुंदर
है कि वह
प्रतीक्षा
करता है। वरना
तो प्रेम का
सारा सौंदर्य
ही खो जाएगा।
लेकिन
यह प्रश्न
उठता है, इसका संबंध
तुम्हारे मन
से है। मनुष्य
का मन इसी तरह
काम करता है, वह सदा यही
पूछता है, 'क्या
दूसरा प्रेम
करता है मुझसे?'
स्त्री, पत्नी
पूछती है, 'क्या
पति प्रेम
करता है मुझसे?'
पति पूछता
रहता है, 'क्या
पत्नी, स्त्री,
प्रेम करती
है मुझसे?' बच्चे
पूछते हैं, 'क्या
मां—बाप प्रेम
करते हैं हमें?'
और
माता—पिता
सोचते हैं कि
बच्चे उन्हें
प्रेम करते
हैं या नहीं? तुम सदा
दूसरे के विषय
में पूछते हो।
गलत
प्रश्न पूछ
रहे हो तुम।
गलत दिशा में
बढ रहे हो
तुम।
तुम्हारे
सामने दीवार आ
जाएगी; तुम द्वार न
पाओगे।
तुम्हें चोट
लगेगी, क्योंकि
तुम टकराओगे
दीवार से।
शुरुआत ही गलत
है। तुम्हें
सदा पूछना
चाहिए, 'क्या
मैं प्रेम
करता हूं
पत्नी से?' 'क्या
मैं प्रेम
करती हूं पति
से?' 'क्या
मैं प्रेम
करता हूं
बच्चों से? 'क्या मैं
प्रेम करता
हूं अपने
माता—पिता से?'
—क्या तुम
प्रेम करते हो?
और यही
है रहस्य. यदि
तुम प्रेम
करते हो, तो अचानक
तुम पाते हो
कि हर कोई
प्रेम करता है
तुम से। यदि
तुम प्रेम
करते हो पत्नी
से, तो वह
प्रेम करती है
तुम्हें, यदि
तुम प्रेम
करती हो पति
से, तो वह
प्रेम करता है
तुम्हें; यदि
तुम प्रेम
करते हो
बच्चों से, तो वे प्रेम
करते हैं
तुम्हें। जो
व्यक्ति अपने
हृदय से प्रेम
करता है, वह
चारों ओर से
प्रेम पाता
है। प्रेम कभी
निष्फल नहीं
जाता। वह
फूलता है, फलता
है।
लेकिन
तुम्हें ठीक
शुरुआत करनी
होगी, ठीक
मार्ग पर चलना
होगा; अन्यथा
प्रत्येक
व्यक्ति पूछ
रहा है, 'क्या
दूसरा प्रेम
करता है मुझसे?'
और दूसरा भी
यही पूछ रहा
है। तब कोई
प्रेम नहीं
करता; तब
प्रेम एक
काल्पनिक
स्वप्न बन
जाता है; तब
प्रेम खो जाता
है धरती
से—जैसा कि हो
गया है। प्रेम
खो गया है; वह
केवल कवियों
की कविताओं
में जीवित
है—मन की उड़ान,
कल्पनाएं, स्वप्न।
वास्तविकता
अब नितांत
शून्य है प्रेम
से, क्योंकि
तुम शुरुआत ही
गलत प्रश्न से
करते हो। छोड़ो
इस प्रश्न को रोग
की भांति।
छोड़ो इसे और
बचो इससे, और
सदा पूछो, 'क्या
मैं प्रेम
करता हूं?' और
यही बात चाबी
बन जाएगी। इस
चाबी द्वारा
तुम कोई भी
हृदय खोल सकते
हो। और इस
चाबी द्वारा,
धीरे— धीरे
तुम इतने कुशल
हो जाओगे कि
तुम इस चाबी
द्वारा पूरे
अस्तित्व को
खोल सकते हो; तब यह
प्रार्थना बन
जाती है।
जरा यह
प्रश्न पूछना, 'क्या
अस्तित्व
प्रार्थना
करता है तुमसे?'
तो यह बात
मूढ़तापूर्ण
मालूम पडेगी;
तो यह
बिलकुल
व्यर्थ मालूम
पड़ेगी।’क्या
अस्तित्व
प्रार्थना
करता है तुमसे?'
तुम ऐसा पूछ
भी नहीं सकते;
लेकिन
प्रार्थना और
कुछ भी नहीं
है सिवाय प्रेम
के परम विकास
के।
तुम
अस्तित्व के
साथ
प्रार्थना
में होते हो और
तुम पाते हो
कि चारों ओर
से प्रेम के
झरने तुम्हारी
ओर प्रवाहित
हो रहे हैं।
तुम तृप्त हो जाते
हो। अस्तित्व
के पास बहुत
कुछ है तुम्हें
देने के लिए
लेकिन उसके
लिए तुम्हें
खुला होना
होगा। और खुले
होना केवल
प्रेम में
संभव है; तब तुम खुले
होते हो, अन्यथा
तो तुम बंद
रहते हो। और
अस्तित्व भी
कुछ नहीं कर
सकता यदि तुम
बंद हो।
चौथा
प्रश्न:
क्या
उच्चतर
अवस्थाओं तक
पहुंचना संभव
है जब कि
व्यक्ति
बाहरी स्थितियों
और
भ्रांतियों
के कारण अपने
अस्तित्व के
कुछ हिस्सों
को इनकार कर
रहा हो या
उनका दमन कर
रहा हो?
नहीं, ऐसा असंभव
है। तुम मुझसे
पूछ रहे हो, 'क्या सीढ़ी
के ऊपर केवल
आशिक रूप से
जाना संभव है?'
तुम्हारा
कोई हिस्सा
नीचे छूट गया
है, तुम्हारा
कोई हिस्सा
कहीं सीढ़ी पर
छूट गया है, और केवल
तुम्हारा एक
हिस्सा ही
पहुंचता है एकदम
अंत तक—कैसे
संभव है यह? तुम एक इकाई
हो, तुम एक
अखंड इकाई हो,
तुम्हें
बांटा नहीं जा
सकता है। यही
अर्थ है 'व्यक्ति'
शब्द का :
जिसे बांटा न
जा सकता हो।
तुम एक व्यक्ति
हो। परमात्मा
के द्वार तक तुम्हें
जाना है अपनी
समग्रता में,
अखंड; कोई
चीज पीछे नहीं
छूट सकती।
इसीलिए
मेरा बार—बार
कहना है कि
यदि तुम दमन करते
हो अपने क्रोध
का तो तुम
परमात्मा के
मंदिर में
प्रविष्ट न हो
पाओगे—क्योंकि
वही तुम कर
रहे हो. तुम
कोशिश कर रहे
हो क्रोध को
मंदिर के बाहर
छोड़ देने की
और मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाने की। कैसे
प्रवेश कर
सकते हो तुम? क्योंकि
कौन बाहर छूट
जाएगा क्रोध
के साथ? वह
तुम्हीं हो।
यदि तुम
कामवासना को
दबाने का प्रयत्न
कर रहे हो तो
तुम परमात्मा
के मंदिर में
प्रवेश न कर
पाओगे, क्योंकि
कामवासना
क्या है? वह
तुम्हीं
हो—तुम्हारी
ही ऊर्जा है।
कोई चीज बाहर
नहीं छोड़ी जा
सकती है। यदि
तुम कुछ भी
बाहर छोड़ देते
हो, तो तुम
पूरे के पूरे
बाहर छूट
जाओगे। तब
केवल एक ही
संभावना है :
तुम रहोगे तो
बाहर और तुम
स्वप्न
देखोगे कि तुम
भीतर
प्रविष्ट हो
गए हो। यही तो
तुम्हारे
सारे महात्मा
कर रहे हैं।
वे मंदिर के
बाहर रह कर
स्वप्न देख
रहे हैं कि वे
भीतर प्रवेश
कर गए हैं और
देख रहे हैं
परमात्मा को;
वे स्वर्ग
में हैं या
मोक्ष पा गए
हैं!
नहीं; केवल
अखंड रूप से
ही तुम प्रवेश
करोगे—स्व भी हिस्सा
पीछे नहीं
छोड़ा जा सकता।
तो करना क्या होगा?
मुझे मालूम
है कि कुरूप
हिस्से हैं; और मेरी समझ
में आती है
तुम्हारी
उलझन भरी स्थिति।
तुम नहीं
चाहोगे उन
कुरूप
हिस्सों को परमात्मा
के पास ले
जाना।
तुम्हारी
तकलीफ, तुम्हारी
मुश्किल मेरी
समझ में आती
है। तुम सारी
कामवासना को,
सारे क्रोध
को, सारी
ईर्ष्या को, घृणा को गिरा
देना चाहते
हों—तुम शुद्ध,
कुंआरे, निर्दोष
हो जाना चाहते
हो। अच्छी बात
है। तुम्हारे
विचार शुभ हैं,
लेकिन जिस
ढंग से तुम
इसे करना चाह
रहे हो, वह
संभव नहीं है।
केवल एक ही
मार्ग है.
रूपांतरण।
अपने हिस्सों
को काटो मत; उन्हें
रूपांतरित
करो। कुरूपता
सुंदरता बन
सकती है।
तुमने
कभी ध्यान
दिया कि बगीचे
में क्या घटता
है? तुम
गोबर की खाद
लाते हो, दुर्गंध
होती
है—उर्वरक, खाद—बुरी
तरह दुर्गंध
उठ रही होती
है। लेकिन थोड़े
समय में वही
खाद धरती में
विलीन हो जाती
है; और वह
प्रकट होती है
सुंदर फूलों
के रूप में जो
इतनी दिव्य
सुगंध लिए
होते हैं! यह
है रूपांतरण।
दुर्गंध बन
जाती है सुगंध;
खाद का
बेहूदा रूप बन
जाता है सुंदर
पुष्प।
तो
जीवन को चाहिए
रूपांतरण।
तुम परमात्मा
के मंदिर में
अखंड प्रवेश
करोगे—रूपांतरित
होकर। किसी भी
चीज का दमन मत
करना, बल्कि
उसे
रूपांतरित
करने की तरकीब
खोजने का
प्रयास करना।
क्रोध ही
करुणा बन जाता
है। जिस
व्यक्ति में
क्रोध नहीं, वह करुणावान
भी नहीं हो
सकता—कभी
नहीं। यह सांयोगिक
ही नहीं है कि
सभी चौबीस जैन
तीर्थंकर क्षत्रिय
थे—योद्धा, क्रोधी; और
वे ही देशना
देने लगे
अहिंसा और
करुणा की। बुद्ध
योद्धा हैं, क्षत्रिय
परिवार से आते
हैं, जैसे
समुराई होते
हैं, और वे
करुणा के
महानतम
संदेशवाहक हो
गए। क्यों? उनके पास
तुम से कहीं
ज्यादा क्रोध
था। जब क्रोध
परिवर्तित और
रूपांतरित
हुआ, तो
निश्चित ही वह
विराट ऊर्जा
बन गया।
तुम्हारे
लिए क्रोध
जरूरी है।
जैसे तुम अभी
हो तुम्हें
क्रोध की
जरूरत है, क्योंकि
यह एक सुरक्षा
कवच है; और
रूपांतरण के
बाद भी
तुम्हें इसकी
आवश्यकता
होगी, क्योंकि
तब यह ईंधन बन
जाता है—ऊर्जा
बन जाता है।
यह एक शुद्ध
ऊर्जा है।
क्या
तुमने किसी
छोटे बच्चे को
क्रोध में देखा
है? कितना
सुंदर लगता है
बच्चा—लाल, दमदमाता, ऊर्जा से
भरपूर, जैसे
कि विस्फोट कर
सकता हो और
नष्ट कर सकता
हो सारे संसार
को। बिलकुल
छोटा, नन्हा
सा बच्चा, परमाणु
ऊर्जा की
भांति मालूम
पड़ता है—चेहरा
लाल, उछल—कूद
मचा रहा और रो
रहा—मात्र
ऊर्जा, शुद्ध
ऊर्जा। यदि
तुम बच्चे को
रोको नहीं और
उसे सिखाओ कि
इस ऊर्जा को
कैसे समझें, तो किसी दमन
की कोई जरूरत
न होगी. वही
ऊर्जा रूपांतरित
हो सकती है।
तुम
ध्यान देना :
बादल घिरते
हैं आकाश में, और जोर से
बिजली चमकती
है, और जोर
से बादल गरजते
हैं। यह बिजली,
अभी कुछ सौ
वर्ष पहले तक,
मनुष्य के
जीवन का एक
आतंकपूर्ण
तथ्य
थी। मनुष्य
इतना डरता था
कड़कती बिजली
से कि अभी तो
तुम कल्पना भी
नहीं कर सकते, क्योंकि
अब वही बिजली
विद्युत—ऊर्जा
बन गई है। वह
सेवक बन गई है
घर की वह
तुम्हारा
एयरकंडीशनर
चलाती है; वह
तुम्हारा
फ्रिज चलाती
है। वह
दिन—रात निरंतर
काम करती
है—कोई सेवक
उस तरह से काम
नहीं कर सकता।
वही बिजली एक
बड़ा भयंकर तथ्य
थी मानव—जीवन
का।
पहला
देवता
कड़कती—चमकती
बिजली के कारण
ही पैदा हुआ—
भय के कारण
इंद्र पैदा
हुआ—गर्जन, वज्रपात
और बिजली का
देवता। और
लोगों ने उसे
पूजना शुरू कर
दिया।
क्योंकि
लोगों ने सोचा
कि यह कड़कती
बिजली एक सजा
के रूप में
आती है। लेकिन
अब कोई इसकी
फिक्र नहीं
करता। अब तुम
इसके रहस्य को
जानते
हों—तुमने
तरकीब खोज ली
है। अब वही
बिजली, इंद्र
का दिया दंड, सेवक की
भांति काम
करती है.
इंद्र
तुम्हारा पंखा
चला रहे हैं।
अब इंद्र
देवता न रहे, बल्कि सेवक
हो गए। और
इतने विनीत
सेवक कि कभी
हड़ताल नहीं
करते, कभी
तनख्वाह
बढ़ाने के लिए
नहीं कहते, कुछ नहीं
कहते—बिलकुल
आज्ञाकारी
सेवक।
ऐसा ही
घटता है
मनुष्य के
अंतराकाश
में—क्रोध की
बिजली चमकती
है। बुद्ध में
यही बिजली
करुणा बन जाती
है। अब देखना
बुद्ध का
चेहरा—इतना आलोकित!
कहां से आता
है यह आलोक? यह
रूपांतरित
क्रोध है। तुम
भयभीत हो
कामवासना से,
लेकिन क्या
कभी तुमने
सुना कि कोई
नपुंसक व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ? जरा बताना
मुझे। क्या
तुमने सुना है
किसी नपुंसक
व्यक्ति के
बारे में, जिसमें
कि काम—ऊर्जा
नहीं थी, और
जो मसीहा हो
गया हो—महावीर,
कि मोहम्मद,
कि बुद्ध, कि क्राइस्ट?
क्या तुमने
सुना है ऐसा
कभी? ऐसा
कभी नहीं
होता। ऐसा हो
नहीं सकता, क्योंकि
ऊर्जा ही नहीं
होती। यह
काम—ऊर्जा ही है
जो ऊपर उठती
है। यह
काम—ऊर्जा ही
है जो रूपांतरित
होती है और
रूपांतरित
होकर समाधि बन
जाती है।
काम—ऊर्जा
ही बनती है
समाधि, परम चेतना।
मैं तुमसे
कहता हूं :
जितने ज्यादा
तुम कामुक हो
उतनी ही
ज्यादा
संभावना है; इसलिए भयभीत
मत होना।
ज्यादा
काम—ऊर्जा
इतना ही बताती
है कि तुममें
बहुत ज्यादा
ऊर्जा है। अच्छी
है बात।
तुम्हें
अनुग्रह
मानना चाहिए परमात्मा
का। लेकिन तुम
अनुगृहीत
नहीं हो—उलटे
तुम अपराधी
अनुभव करते हो;
उलटे तुम तो
परमात्मा के
विरुद्ध
शिकायत से भरे
मालूम पड़ते हो
कि 'तुमने
यह ऊर्जा
क्यों दी मुझे?'
तुम
नहीं जानते कि
भविष्य में इस
ऊर्जा द्वारा
क्या संभव है।
बुद्ध नपुंसक
नहीं हैं।
उन्होंने
बहुत ही
परिपूर्ण काम—जीवन
जीया—कोई
साधारण
काम—जीवन
नहीं। उनके
पिता ने राज्य
की सुंदरतम
स्त्रियां
उनकी सेवा में
उपलब्ध करवा
दी थीं, सारी सुंदर
युवतियां
उनकी सेवा में
संलग्न थीं।
तो ऊर्जा
जरूरी है, और
ऊर्जा सदा
सुंदर होती
है। यदि तुम
उसका उपयोग
करना नहीं
जानते, तो
वह असुंदर हो
जाती है; तब
वह यहां—वहां
बिखरने लगती
है। ऊर्जा को
ऊपर ले जाना
है।
काम, सेक्स
तुम्हारे
अस्तित्व का
निम्नतम
केंद्र
है—केवल वही
सब कुछ नहीं
है : तुम्हारे
अस्तित्व के
सात केंद्र
हैं। जब ऊर्जा
ऊपर उठती है—यदि
तुम्हें पता
चल जाए इस
तरकीब का कि
कैसे उसे ऊपर
ले जाना है, तो
जैसे—जैसे वह
बढ़ती है एक
केंद्र से
दूसरे केंद्र
तक, तुम
बहुत से
रूपांतरण
अनुभव करते
हो। जब ऊर्जा
हृदय—चक्र के
पास आती है, हृदय के
केंद्र में
आती है, तुम
प्रेम से इतने
भर जाते हो कि
तुम प्रेम ही हो
जाते हो। जब
ऊर्जा तीसरे
नेत्र के
केंद्र में
आती है, तो
तुम बोध हो
जाते हो, सजगता
हो जाते हो।
जब ऊर्जा
अंतिम चक्र
सहस्रार में
आती है, तब
तुम खिल उठते
हो, तुम्हारा
फूल खिल जाता
है, तुम्हारे
जीवन का वृक्ष
पूर्ण रूप से
खिल उठता है.
तुम बुद्ध हो
जाते हो।
लेकिन ऊर्जा
वही है।
तो
निंदा मत करो; दमन मत
करो। रूपांतरित
करो। ज्यादा
बोधपूर्ण, ज्यादा
सजग होओ; केवल
तभी तुम समग्र
रूप से विकसित
हो सकोगे। और
दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
दूसरा उपाय
केवल सपने
देखना और
कल्पना करना
है।
पांचवां
प्रश्न :
झेन
कहता है 'जब भूख
लगे तब भोजन करो
और जब प्यास
लगे तब पानी
पीओ।' पतंजलि
कहते हैं 'नियमितता।’
तो सहज—
स्फूर्तता और
नियमितता में
तालमेल कैसे
बिठाएं?
तालमेल
बिठाने की कोई
जरूरत नहीं
है। यदि तुम
सच में
सहज—स्फूर्त
हो, तो
तुम नियमित हो
जाओगे। यदि
तुम सच में
नियमित हो, तो तुम
सहज—स्फूर्त
हो जाओगे।
तालमेल
बिठाने की कोई
जरूरत नहीं
है। यदि तुम
तालमेल
बिठाना
चाहोगे तो तुम
बुरी तरह उलझ
जाओगे। तुम एक
को चुन लेना
और दूसरे को बिलकुल
भूल जाना। यदि
तुम झेन को
चुनते हो, तो
पतंजलि को भूल
जाओ, जैसे
कि वे कभी हुए
ही नहीं; तब
पतंजलि
तुम्हारे लिए
नहीं हैं। और
एक दिन अचानक
तुम पाओगे कि
सहज—स्फूर्तता
के पीछे—पीछे
नियमितता आ गई
है।
कैसे
होता है यह? यदि तुम
सहज—सरल हो, यदि तुम तभी
भोजन करते हो
जब तुम्हें
भूख लगती
है—और यदि तुम
कभी अपनी
इच्छा के
विपरीत भोजन नहीं
करते, तुम
कभी अपनी
इच्छा से अधिक
भोजन नहीं
करते, तुम
सदा अपनी
जरूरत के
हिसाब से भोजन
करते हो—तो
धीरे— धीरे
तुम थिर हो
जाओगे
नियमितता
में। क्योंकि
शरीर एक यंत्र
है, बहुत
ही सुंदर
जैविक यंत्र
है। तब रोज
उसी समय तुम
पाओगे कि
तुम्हें भूख
लग आती है; रोज
उसी समय तुम
पाओगे कि
तुम्हें नींद
आ जाती है।
जीवन नियमित
हो जाएगा।
लेकिन
यदि तुम भयभीत
हो सहजता से, जैसे कि
लोग भयभीत हैं,
क्योंकि
संस्कृति है,
सभ्यता है,
धर्म
है—संसार की
सारी जहरीली
चीजें
हैं—उन्होंने
तुम्हें
भयभीत कर दिया
है सहजता से; वे कहती हैं
कि तुम एक
जानवर छिपाए
हुए हो अपने
भीतर और यदि
तुम सहज होते
हो तो तुम भटक
सकते हो। तो
यदि तुम बहुत
ज्यादा भयभीत
हो सहजता से, तो पतंजलि
को सुनना।
पतंजलि
मेरे लिए सदा
द्वितीय
चुनाव रहे हैं, प्रथम
कभी नहीं रहे।
वे उन रुग्ण
व्यक्तियों के
लिए हैं जो
संस्कृति
द्वारा दूषित
हो गए हैं, अस्वाभाविक
हो गए हैं; सभ्यता
और धर्म
द्वारा
विषाक्त हो गए
हैं, पंडित—पुरोहितों
द्वारा विकृत
हो गए हैं। तब
पतंजलि हैं।
पतंजलि एक चिकित्सा
हैं। इसीलिए
मैं कहता हूं
कि पतंजलि निन्यानबे
प्रतिशत
लोगों के लिए
उपयोगी हैं, क्योंकि
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
बीमार हैं। यह
पृथ्वी एक बड़ा
अस्पताल है।
पतंजलि एक
चिकित्सक हैं,
एक
वैज्ञानिक
हैं।
झेन
स्वाभाविक, सहज
लोगों के लिए
है, निर्दोष
बच्चों के लिए
है। यदि किसी
दिन कोई सुंदर
संसार होगा, तो पतंजलि
को भुला दिया
जाएगा; लेकिन
झेन रहेगा।
यदि यह संसार
और— और ज्यादा बीमार
हो जाएगा, तो
झेन को भुला
दिया जाएगा; केवल पतंजलि
होंगे।
झेन
कहता है कि
स्वाभाविक
रहो। क्या तुमने
प्रकृति पर
ध्यान दिया है? क्या
तुमने
प्रकृति की
सहज—स्वाभाविकता
और नियमितता
दोनों को देखा
है? वर्षा
आती है, गर्मी
आती है, सर्दी
आती है—एक
नियमित कम में
ऋतुएं घूमती
रहती हैं। और
यदि तुम कोई
अव्यवस्था
पाते हो, तो
वह तुम्हारे
ही कारण है, क्योंकि
मनुष्य ने
अव्यवस्थित
कर दिया है प्रकृति
की इकालॉजी को,
उसके मौसम
के तालमेल को,
वरना
प्रकृति इतनी
नियमित थी—और
इतनी सहज—स्वाभाविक
थी। तुम सदा
जान लेते थे
कि अब वसंत आने
वाला है। तुम
देख सकते थे
वसंत की
पगध्वनि को
चारों
ओर—पक्षियो के
गीतों में, वृक्षों में,
चारों तरफ
फैलता एक
उत्सव, एक
आह्लाद। सब
सुनिश्चित था,
नियमित था।
लेकिन अब तो
हर चीज
अव्यवस्थित
हो गई है। ऐसा
प्रकृति के
कारण नहीं हुआ
है। मनुष्य ने
केवल मनुष्य
को ही विषाक्त
नहीं किया है;
मनुष्य
प्रकृति को भी
विषाक्त करने
में लगा हुआ
है। अब हर चीज अनियमित
है. तुम नहीं
जानते कि कब
वर्षा होगी; तुम नहीं
जानते कि इस
वर्ष वर्षा कम
होगी या ज्यादा
होगी; तुम
नहीं जानते कि
इन गर्मियों
में कितनी गरमी
होगी।
प्रकृति
की नियमितता
डांवाडोल हुई
है तुम्हारे
कारण, क्योंकि
तुमने वर्तुल
तोड़ दिया है।
अन्यथा प्रकृति
तो नितांत
सहज—सरल है—और
प्रकृति को
किसी पतंजलि की
जरूरत नहीं
है। अब जरूरत
होगी। अब
इकॉलॉजी को
ठीक करने के
लिए पतंजलि की
जरूरत है।
तो
तुम्हें
चुनना है। यदि
तुम झेन को
चुनते हो तो
पतंजलि को भूल
जाना; वरना
तुम बहुत उलझ
जाओगे। और मैं
तुमसे कहता हूं
कि पतंजलि
अपने आप आ
जाएंगे—तुम्हें
चिंता करने की
जरूरत नहीं
है। लेकिन यदि
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम बहुत
रुग्ण हो और
तुम स्वयं पर
विश्वास नहीं
कर सकते और
तुम
सहज—स्फूर्त
नहीं हो सकते,
तो फिर भूल
जाना झेन के
बारे में; वह
तुम्हारे लिए
नहीं है। यह
ऐसे ही है
जैसे कि
व्यायाम की
कोई किताब है।
अब व्यायाम की
किताब स्वस्थ
व्यक्ति के
लिए है—जिसे
ओलंपिक में
भाग लेना हो।
तुम चाहो तो
उसे पढ़ सकते
हो, लेकिन
उसे करने मत
लगना—तुम खतरे
में पड़ जाओगे।
तुम लेटे हो
अस्पताल में;
तुम मत
पूछना कि कैसे
तालमेल
बिठाएं इस
किताब का और
अपनी स्थिति
का। तुम यह
पूछना ही मत।
तुम सुनना
चिकित्सक की;
तुम उसके
अनुसार चलना।
किसी दिन जब
तुम स्वस्थ हो
जाते हो, अपने
सहज—स्वाभाविक
स्वास्थ्य तक
लौट आते हो, तो शायद तुम
उपयोग कर सको
इस किताब का, लेकिन अभी
इस समय तो यह
तुम्हारे काम
की नहीं है।
पतंजलि
हैं अस्वस्थ
व्यक्तियों
के लिए लेकिन
करीब—करीब
प्रत्येक
व्यक्ति अस्वस्थ
है। झेन है
सहज—स्वाभाविक
व्यक्तियों
के लिए।
तुम्हें
निर्णय लेना
होगा अपने विषय
में। कोई और
दूसरा
तुम्हारे लिए
निर्णय नहीं
ले सकता है।
तुम्हें अपनी
ऊर्जा को
अनुभव करना
है।
लेकिन
ध्यान रहे, तुम्हें
तालमेल नहीं
बिठाना है—ऐसा
कभी मत करना।
एक को चुन लो, दूसरा
पीछे—पीछे चला
आता है। यदि
तुम अनुभव करते
हो कि तुम
बीमार हो, पहले
से ही जटिल हो,
सहज—सरल
नहीं हो सकते,
तो नियमित
होने का
प्रयास करना।
नियमितता धीरे—
धीरे तुम्हें
स्वास्थ्य और
सहज—स्फूर्तता
तक ले आएगी।
छठवां
प्रश्न:
मैं
आपके विरुद्ध
प्रचार करना
चाहता हूं। क्या
आप मुझे
आशीर्वाद
देंगे?
विचार तो
अच्छा है।
मेरा पूरा
आशीर्वाद है, क्योंकि
मेरे विरुद्ध
प्रचार करना
भी मेरे पक्ष
में प्रचार
करना ही है।
जाने —अनजाने,
जो भी मेरे
विरुद्ध कुछ
कहता है, मेरे
विषय में ही
कुछ कहता है।
और कौन जाने.
अगर तुम किसी
से मेरे
विरुद्ध कुछ
बोल रहे हो, तो शायद वह
मुझ में रस
लेने लगे। तो
जाओ और प्रचार
करो, मेरा
पूरा
आशीर्वाद
तुम्हारे साथ
है।
सातवां
प्रश्न :
आपने
इधर कहा कि
केवल संबुद्ध
व्यक्ति ही
प्रेम कर सकता
है। कई और
मौकों पर आपने
यह भी कहा है
कि जब तक कोई
प्रेम नहीं
करता, संबुद्ध
नहीं हो सकता
तो किस द्वार
से प्रवेश
करें?
पूछा है आनंद
प्रेम ने। वह
द्वार पर ही
खड़ी हुई है
वर्षों से।
असली बात है
प्रवेश करना, द्वार से
कुछ लेना—देना
नहीं है। तुम
किस द्वार से
प्रवेश करते
हो—यह बात
व्यर्थ है।
कृपा करके
प्रवेश करो!
यदि
तुम प्रेम के
द्वार से
प्रवेश करना
चाहते हो, तो प्रेम
के द्वार से
प्रवेश करो।
बुद्धत्व पीछे—पीछे
चला आएगा; वह
पराकाष्ठा है
प्रेमपूर्ण
हृदय की। यदि
तुम भयभीत हो
प्रेम से, जैसे
कि लोग भयभीत
हैं, क्योंकि
समाज ने
तुम्हें बहुत
ज्यादा भयभीत
कर दिया है
प्रेम और जीवन
के प्रति।
समाज सोचता है
कि प्रेम
खतरनाक है। वह
है। तुम नहीं
जानते कि तुम
कहां जा रहे
हो। वह एक तरह
का पागलपन
है—सुंदर है
बात, लेकिन
फिर भी है तो
पागलपन। तो
यदि तुम भयभीत
हो प्रेम से
तो ध्यान में
प्रवेश करो, ध्यानी बनो।
यदि तुम ध्यान
में गहरे
उतरते हो तो
तुम अनुभव
करोगे, अचानक
ऊर्जा का एक
उमडाव, और
तुम प्रेम से
भर जाओगे।
लेकिन
कृपा करके
द्वार पर ही
मत खड़े रहो।
द्वार भी तुम
से बहुत थक गए
हैं। कुछ करो
और भीतर प्रविष्ट
होओ। बहुत समय
हुआ, तुमने
बहुत देर
प्रतीक्षा कर
ली है।
आठवां
प्रश्न :
इन
दिनों पूना के
समाचार— पत्र
आपके आपके
आश्रम के और
आपके शिष्यों
के विरुद्ध
बहुत प्रचार कर
रहे हैं। इस
बात ने
सामान्यजन के
मन में बहुत
सी
गलतफहमियां
पैदा कर दी
हैं। जो साधक
इन्हीं लोगों
के बीच रहता
है उसे कैसे
इस स्थिति का
सामना करना
चाहिए?
तुम्हें
सामना बिलकुल
नहीं करना
चाहिए; तुम्हें तो
हंसना चाहिए।
और इस बारे
में गंभीर मत
हो जाना। यदि
तुम इसका आनंद
ले सकते हो तो आनंद
लो—लेकिन
सामना करने के
चक्कर में मत
पड़ जाना, प्रतिक्रिया
मत करना। और
मेरा बचाव
करने की कोशिश
मत करना—कोई
मेरा बचाव
नहीं कर सकता।
और मेरे लिए
तर्क जुटाने
की कोशिश मत
करना—कोई मेरे
लिए तर्क नहीं
जुटा सकता है।
और तालमेल
बिठाने का
प्रयत्न मत
करना, इसकी
कोई जरूरत
नहीं है।
तुम्हारा
इससे कुछ लेना—देना
नहीं है।
दुनिया
तो अपने ढंग
से चलती है।
लोगों के अपने
मन हैं और
अपनी धारणाएं
हैं—और मैं
धारणाओं का, परंपराओं
का भंजक हूं।
मैं एक
झंझावात हूं
तो यह
स्वाभाविक है
कि साधारण व्यक्ति
नाराज हो
जाएं। और
अखबार तो सदा
ही किसी
सनसनीखेज खबर
की तलाश में
रहते हैं; अखबार
उस पर निर्भर
करते हैं।
लेकिन जो सत्य
की खोज में
निकले हैं
उनके लिए ये बातें
बिलकुल भी
महत्वपूर्ण
नहीं होनी
चाहिए।
तुम्हें
तो बस हंसना
चाहिए और आनंद
मनाना चाहिए; कुछ भी
गलत नहीं है
इसमें।
तुम्हें चोट
अनुभव नहीं
करनी चाहिए; उसकी कोई
जरूरत नहीं
है। तुम्हें
तकलीफ हो यह स्वाभाविक
है, मैं यह
समझता हूं कि
अगर कोई मेरे
विरुद्ध कुछ कहता
है, जो कि
मुझे बिलकुल
जानता नहीं, और तुम मुझे
बहुत समय से
जानते हो—तुम
सुनते हो
वह—तो तुम्हें
चोट लगती है; तुम उसका
विरोध करना
चाहते हो। पर
उसका विरोध मत
करो, क्योंकि
वह प्रयत्न
व्यर्थ है।
उपेक्षा, पूरी
तरह उपेक्षा
ही एकमात्र
ढंग है जो तुम
से अपेक्षित
है।
जो लोग
मुझे नहीं
समझते, वे ऐसा ही
करेंगे; और
यदि तुम
प्रतिक्रिया
करते हो, तो
तुम उन्हें
बढ़ावा देते
हो। तटस्थ रहो;
वे अपने आप
चुप हो
जाएंगे।
क्योंकि जब
कोई प्रतिक्रिया
नहीं करता, तो सारा मजा
ही खत्म हो
जाता है।
और मैं
भीड़ को राजी
करने के लिए यहां
नहीं हूं कि
मैं ठीक हूं
या गलत; भीड़ में
मेरा बिलकुल
रस नहीं है।
केवल थोड़े से
चुने हुए
लोगों में
मेरा रस है।
मुझे उन्हीं के
लिए काम करना
है। तो यह
झंझट बार—बार
होने वाली है।
वे नहीं जानते
कि यहां क्या
घट रहा है। वे
जान नहीं सकते;
अगर वे यहां
आ भी जाएं, तो
वे मुझे समझ न
पाएंगे कि मैं
क्या कह रहा
हूं। वे गलत ही
समझेंगे। तो
उन्हें क्षमा
कर दो और भूल
जाओ।
नौवां
प्रश्न:
आपके
द्वारा की गई
साईबाबा
कृष्णमूर्ति
और अमरीकी
गुरुको की
आलोचना से
निंदा न करने
का आपका दावा
खंडित मालूम
होने लगता है!
जब भी
तुम्हें लगे
कि किसी चीज
का मेरे
द्वारा खंडन
हो रहा है, तो उससे
घबड़ा मत जाना;
मैं
विरोधाभासी
हूं। तुम्हें
अच्छी तरह समझ
लेना है इसे।
मैं अपना ही
खंडन करता
जाता हूं। यह
भी एक विधि है
जिसका मैं
उपयोग कर रहा
हूं। यदि तुम
अविचलित रहते
हो, तो
तुम्हारे
भीतर कुछ
घनीभूत होता
है, एक क्रिस्टलाइजेशन
होता है।
मैं
खंडन करता ही
रहूंगा। अपनी
कही हर बात का मैं
खंडन करूंगा।
मैं अपना एक
भी वक्तव्य
बगैर खंडन किए
नहीं रहने
दूंगा। इसमें
एक विधि है :
मैं नहीं
चाहता कि तुम
किसी एक
दृष्टिकोण को पकड़
कर बैठ जाओ।
मैं यह भी
नहीं चाहता कि
तुम मेरी
बातों को पकड़
कर बैठ जाओ।
तो एक ही
रास्ता है :
मुझे अपनी ही
बातों का खंडन
करना होगा। एक
घड़ी आएगी, तुम समझ
लोगे कि यह
व्यक्ति
तुम्हें कोई
सिद्धात नहीं
दे रहा है, क्योंकि
हर बात का
खंडन किया जा
रहा है। कोई सिद्धात
बचता नहीं। हर
बात नकार देती
है हर दूसरी
बात को; तुम
एक गहन
शून्यता में
छूट जाते हो।
यही मेरा प्रयास
है।
मैं
तुम्हें कोई
दार्शनिक
सिद्धात नहीं
दे रहा हूं।
यदि मैं
दार्शनिक
होता तो मैं
कभी अपना खंडन
न करता, मैं सुसंगत
होता। लेकिन
मैं कोई
दार्शनिक नहीं
हूं; ज्यादा
से ज्यादा तुम
मुझे कवि कह
सकते
हो। कवि से
तुम कभी किसी
सुसंगति की
आशा नहीं
रखते। तुम
जानते हो कि
कवि कवि है; वह किसी
व्यवस्था का
निर्माता
नहीं है। वह
आज कुछ कहता
है और कल कुछ
और कहता है।
लेकिन यदि तुम
मुझे समझते
रहे, तो एक
घड़ी आएगी कि
जो कुछ भी
मैंने कहा है
उसका खंडन कर
दिया
जाएगा—मेरे ही
द्वारा—तुम एक
शून्यता में
छूट जाओगे, कुछ पकड़ने
को नहीं
होगा—कोई
सिद्धात नहीं,
कोई
व्यवस्था
नहीं, कोई
शास्त्र
नहीं।
और उस
शून्य में ही
तुम समझ पाओगे
मुझे, क्योंकि
मैं कुछ कह
नहीं रहा
हूं—यहो मैं
तुम्हारे लिए
एक मौजूदगी
हूं। मैं
तुम्हें कोई
संदेश नहीं दे
रहा हूं मैं
ही हूं संदेश।
केवल जब तुम
पूरी तरह
शून्य होते हो,
तभी तुम इसे
समझ पाओगे।
और
दूसरी बात, यदि मैं
कहता हूं कि
साईंबाबा
केवल मदारी
हैं और
रहस्यदर्शी
संत नहीं हैं
तो मैं केवल
एक तथ्य कह
रहा हूं उनकी
निंदा नहीं कर
रहा हूं उनकी
बिलकुल
आलोचना नहीं
कर रहा हूं।
यदि मैं कहता
हूं. अभी सुबह
है, नौ बजे
हैं; यदि
मैं कहता हूं :
अभी दिन है और
रात नहीं है, तो क्या मैं
निंदा कर रहा
हूं रात की 3:
क्या मैं आलोचना
कर रहा हूं
रात की? मैं
तो केवल एक
तथ्य बता रहा
हूं। सत्य
साईंबाबा
मदारी हैं और
रहस्यदर्शी
संत नहीं
हैं—मेरे लिए
यह एक तथ्य
है। मैं उनकी
आलोचना नहीं
कर रहा हूं
मैं उनके
खिलाफ नहीं
हूं।
यदि
मैं कहता हूं
कि
कृष्णमूर्ति संबुद्ध
हैं पर असफल
हैं, वे
किसी की मदद
नहीं कर
सके—उन्होंने
अपनी तरफ से
पूरी कोशिश की,
असल में और
किसी ने इतना
श्रम नहीं
किया। वे संबुद्ध
हैं और जो कुछ
वे कहते हैं
सत्य है, लेकिन
उनसे किसी को
मदद नहीं मिली
है, तो यह
कोई आलोचना
नहीं है। मैं
इतना ही कह
रहा हूं कि
उनसे किसी को
मदद नहीं मिली
है। तो लाओ किसी
को जिसे मदद
मिली हो, और
करो इस तथ्य
का खंडन।
कृष्णमूर्ति
के हजारों
अनुयायियों
से मेरा मिलना
हुआ है। किसी
को मदद नहीं
मिली है। वे
स्वयं आते हैं
और कहते हैं
मुझसे कि वे
बीस वर्षों से, तीस
वर्षों से, चालीस
वर्षों से सुन
रहे
हैं—सुनते—सुनते
के हो गए
हैं—और वे
भलीभांति
समझते हैं
कृष्णमूर्ति
को कि वे क्या
कह रहे हैं, क्योंकि वे
निरंतर एक ही
बात कह रहे
हैं। चालीस
वर्षों से वे
एक ही स्वर
अलाप रहे
हैं—उन्होंने
पिच तक नहीं
बदली, ध्वनि
तक नहीं बदली,
नहीं। इस
धरती पर जो
दुर्लभतम
सुसंगत
व्यक्ति हुए
हैं, उन
में से एक हैं
वे। एक ही
स्वर में वे
एक ही बात
बार—बार
दोहराए चले
जाते हैं। तो
लोग आते हैं
मेरे पास और
कहते हैं कि
वे बौद्धिक
रूप से उन्हें
समझते हैं, लेकिन कुछ
घटता नहीं है।
क्योंकि
बौद्धिक समझ
द्वारा कुछ घट
सकता नहीं है।
और यदि
किसी को घटा
है
कृष्णमूर्ति
को सुनते हुए, तो मैं
कहता हूं
तुमसे कि वह
उस व्यक्ति को
कृष्णमूर्ति
को सुने बिना
भी घट गया
होता—क्योंकि
कृष्णमूर्ति
कोई विधि नहीं
दे रहे हैं, कोई साधना
नहीं दे रहे
हैं। यदि
उन्हें सुनते हुए
किसी को घटना
घटी है, तो
वह उस व्यक्ति
को पक्षियों
को सुनते हुए
भी घट सकती थी,
या वृक्षों
से गुजरती
हवाओं को
सुनते हुए भी
घट सकती थी।
वह आदमी तैयार
ही था; कृष्णमूर्ति
ने उसकी मदद
नहीं की है।
और यह
बात
कृष्णमूर्ति
भी समझते हैं।
निश्चित ही
समझते हैं वे।
और वे निराश
अनुभव करते 'हैं—उनका
सारा जीवन
व्यर्थ हुआ।
तो मैं एक तथ्य
कह रहा हूं
आलोचना नहीं
कर रहा हूं।
और यदि
मैं अमरीकी
गुरुओं के
बारे में कुछ
कहता हूं तो
मैं उनके
विरुद्ध कुछ
नहीं कह रहा हूं।
पहली बात, सौ में से
निन्यानबे
प्रतिशत गुरु
नकली हैं। तो
जब अमरीकी
गुरुओं का
सवाल आता है, तब तुम समझ
सकते हो!
भारतीय
गुरुओं में ही
सौ में
निन्यानबे
गुरु नकली हैं,
तो जब बात
उठती है
अमरीकी
गुरुओं की, नकल करने
वालों की..।
लेकिन
मैं किसी के
विरुद्ध नहीं
हूं। ये
सीधे—साफ तथ्य
हैं; कोई
निंदा नहीं
है। असल में
मैं उनके विषय
में कुछ नहीं
कह रहा हूं बस
वस्तु—स्थिति
के विषय में
कह रहा हूं।
व्यक्तिगत
रूप से मुझे
कुछ मतलब नहीं
है।
अवैयक्तिक
वक्तव्य हैं।
दसवां
प्रश्न :
एक
ताओवादी गुरु
ने ताओ की
भाषा में कुछ
बातें समझाई।
उसके सुनने
वालों ने पूछा
कि आप ताओ को
कैसे उपलब्ध
हुए जब कि
आपका कोई भी
गुरु नहीं है? उसने कहा 'मैने इसे
पुस्तकों से
पाया।’ क्या
यह संभव है?
हां, कभी—कभी
यह संभव है।
वह व्यक्ति
जरूर उस व्यक्ति
जैसा रहा होगा
जिसकी मैं अभी
बात कर रहा था जो
कृष्णमूर्ति
को सुन कर संबुद्ध
हो सकता है।
वह आदमी
पक्षियों के
गीत सुनते हुए
भी संबुद्ध हो
सकता है। वह
आदमी
पुस्तकें पढ़
कर भी संबुद्ध
हो सकता है।
लेकिन
वह अपवाद है, नियम
नहीं। ऐसा
कभी—कभी हुआ
है. यदि
व्यक्ति सच
में सजग है तो
पुस्तक भी मदद
दे सकती है; और यदि तुम
गहरी नींद में
सोए हो, तो
बुद्ध भी
व्यर्थ हो
जाते हैं; बुद्ध
भी कोई मदद
नहीं कर
सकते—तुम उनके
सामने ही
खर्राटे भरते
रहते हो, क्या
कर सकते हैं
वे? एक
जीवंत बुद्ध
व्यर्थ हो
जाते हैं
तुम्हारे लिए
यदि तुम सोए
रहो। लेकिन
यदि तुम सजग
हो, तो एक
निष्प्राण
पुस्तक भी
सहायक हो सकती
है। यह तुम पर
निर्भर करता
है।
और
कठिन है ऐसा
व्यक्ति खोज
पाना जो केवल
पुस्तकें
पढ़ने से ही
जाग गया
हों—लेकिन
संभावना है।
यह करीब—करीब
असंभव ही है, लेकिन
असंभव भी घटता
है।
ग्यारहवां
प्रश्न :
यदि
सत्संग
अर्थात संबुद्ध
व्यक्ति की
मुक्त
व्यक्ति की
उपस्थिति में
होना इतना
महत्वपूर्ण
है? तो
क्यों हम दिन
में केवल
एक—डेढ़ घंटा
ही एक— दूसरे
के साथ रहते
हैं?
इससे ज्यादा
तुम्हारे लिए
बहुत ज्यादा
हो जाएगा; अपच हो
जाएगा। इससे
ज्यादा तुम
मुझे पचा न
पाओगे। मैं तो
तुम्हारे साथ
चौबीस घंटे हो
सकता हूं
लेकिन तुम
नहीं हो सकते।
तुम्हें
होम्योपैथिक
खुराकें
चाहिए।
बारहवां
प्रश्न :
कल
सुबह आपने
योग—उपलब्धि
के आठ चरणों
पर चर्चा की
और जोर दिया
कि पहले चरण
से आठवें चरण
तक उसी क्रम
में बढ़ना होता
है। क्या किसी
व्यक्ति के
लिए यह संभव
नहीं कि पहले
किन्हीं दूसरी
अवस्थाओं तक
पहुंचे और फिर
अपने क्रम में
बडे—उन सभी
आठों को पाने
के लिए?
ऐसा संभव है।
लेकिन जब मैं
कहता हूं संभव
है तो मेरा
मतलब है : केवल
कभी—कभी ही; बहुत
दुर्लभ है
बात।
प्रत्येक
नियम के साथ
सदा अपवाद
होते हैं, लेकिन
जब पतंजलि
बोलते हैं, तब वे
सामान्य नियम
के विषय में
बोलते हैं, अपवाद के
विषय में
नहीं। अपवाद
के, विशिष्ट
के विषय में
बोलने की तो
जरूरत ही नहीं
है। मनुष्यता
का वृहत समूह
कहीं से किसी
और ढंग से
नहीं पहुंच सकता।
उन्हें बढ़ना
होगा
चरण—दर—चरण—एक
से दूसरे तक, दूसरे से
तीसरे तक। वे
एक—एक सीढ़ी
चढ़ते हैं। लेकिन
ऐसे अनूठे लोग
हैं जो छलांग
ले सकते हैं—लेकिन
फिर उन्हें भी
वापस आना होगा
और पीछे छूटे
हिस्से को
पूरा करना
होगा। उनका कम
भिन्न हो सकता
है, वह
संभव है।
तुम प्राणायाम
से शुरू कर
सकते हो, लेकिन फिर
तुम्हें आसन
तक आना होगा, तुम्हें यम
तक आना होगा।
तुम ध्यान से
शुरू कर सकते
हो, लेकिन
फिर तुम्हें
दूसरे
हिस्सों को
पूरा करना
होगा जो पीछे
छूट चुके हैं।
लेकिन आठों को
पूरा करना
होता है और
आठों के बीच
एक समस्वरता
को विकसित
करना होता है,
ताकि तुम एक
जीवंत इकाई हो
सको।
ऐसा
होता है कई
बार कि कोई
व्यक्ति सारे
चरणों को पूरा
किए बिना ही
सातवें तक
पहुंच जाता है, लेकिन
कोई भी सारे
चरणों को पूरा
किए बिना आठवें
तक नहीं
पहुंचा है।
सातवें तक
संभावना है—तुम
कुछ चरण छोड़
सकते हो और
कुछ को पूरा
कर सकते हो और
पहुंच सकते हो
सातवें तक—लेकिन
तब तुम वहां
अटके रहोगे।
ध्यान तक तो
तुम पहुंच
सकते हो, लेकिन
समाधि तक नहीं,
क्योंकि
समाधि को
चाहिए
तुम्हारी
संपूर्ण सत्ता—परिपूर्ण,
कुछ भी पीछे
न छूटा हुआ, कोई चीज
अधूरी न छूटी
हुई—हर चीज
संपूर्ण। फिर
तुम्हें
सातवें पर
बहुत देर अटके
रहना पड़ेगा, और तुम्हें
वापस जाना
होगा और वे
चरण पूरे करने
होंगे जो
अधूरे हैं। जब
तुमने सातवें
तक की हर चीज
पूरी कर ली
होती है, केवल
तभी आठवां चरण,
समाधि, संभव
होता है।
अंतिम
प्रश्न :
ऐसा
कैसे होता है
कि चोग्याम
त्रुंगपा
जैसे महान
गुरु
त्यौहारों के
अवसर पर शराब
में इतने धुत
हो जाते हैं
कि उन्हें उठा
कर घर लाना
पड़ता है? क्या
मनोरंजन के
लिए किया गया
शराब का
प्रयोग खोजियों
की सजगता को
डांवाडोल कर
सकता है?
तुम से कहा
किसने कि यह
आदमी गुरु है? वह उस
परंपरा से
संबंधित है
जिसमें बहुत
गुरु हुए हैं,
लेकिन वह
मृत बोझ ही ढो
रहा है। और
यही मुसीबत है,
क्योंकि
जिस परंपरा से
वह संबंधित है
उसमें मारपा,
मिलारेपा, नरोपा, तिलोपा
जैसे व्यक्ति
हुए हैं, बड़े
पहुंचे हुए
सिद्ध हुए हैं,
और वे सभी
शराब पीते
थे—अब यह एक
बारीक बात
है—लेकिन वे
कभी भी शराब
में धुत नहीं
हुए। वे पीते
थे, लेकिन
वे कभी पीकर
बेहोश नहीं
हुए।
यह
तंत्र की
साधनाओं में
से एक साधना
है, एक
विधि है.
तुम्हें शराब
की मात्रा को
बढ़ाते जाना है
और उसका
अभ्यास करना
है, लेकिन
होश बनाए रखना
है। पहले तुम
केवल चम्मच भर
लेते हो और
होशपूर्ण रहते
हो; फिर दो
चम्मच, फिर
तीन चम्मच, फिर तुम
बढ़ाते जाते
हो। फिर तुम
पूरी बोतल पी जाते
हो। लेकिन अब
तुम्हारा
इतना अभ्यास
हो जाता है कि
तुम्हारा होश
नहीं खोता। तब
शराब से काम
नहीं चलेगा; तब तुम
ज्यादा
खतरनाक नशों
की ओर बढ़ते
हो।
तंत्र
की परंपरा में
एक ऐसा समय
आता था जब जहरीले
सांपों का
उपयोग किया
जाता था, क्योंकि
व्यक्ति इतना
आदी हो जाता
था सभी तरह के
मादक
द्रव्यों का।
तब अंतिम
परीक्षा होती थी
कोबरा सांप
की। तब कोबरा
सांप से उस
आदमी की जीभ
पर कटवाया
जाता था। फिर
भी वह साधक
होश में रहता
था।
यह एक
गढ़ परीक्षा थी
और एक विकास
था. अब तुमने चेतना
की ऐसी संगठित
अवस्था पा ली
है कि सारा शरीर
भर जाता है
शराब से, लेकिन वह
तुम्हें
प्रभावित
नहीं करती। यह
शरीर से पार
जाने का एक
सूत्र था
तंत्र में; यह है शरीर
से पार जाने
की एक
विधि—तंत्र के
लिए।
यह
व्यक्ति उस
परंपरा से आता
है, इसलिए
शराब पीने की
उसे स्वीकृति
है परंपरा से,
लेकिन यदि
वह होश खो
देता है तो वह
पूरी बात ही चूक
जाता है। वह
गुरु नहीं है;
वह जागा हुआ
नहीं है।
लेकिन अमरीका
में अब हर चीज
संभव है।
पुरानी
परंपरा को न
जानने से वह कह
सकता है लोगों
से, 'हमारे
गुरु भी पीते
रहे हैं।’
तंत्र
में उन सभी
चीजों का
स्वीकार है
जिनका सामान्यत:
निषेध होता
है। तांत्रिक
को अनुमति है
मांस खाने की, साधारणतया
यह निषिद्ध है;
उसे अनुमति
है शराब पीने
की, साधारणतया
यह निषिद्ध है;
उसे अनुमति
है संभोग में
उतरने की, साधारणतया
साधक के लिए
इसकी मनाही
है। हर वह चीज
जो साधारणतया
वर्जित है
साधक के लिए, तंत्र में
उसकी
स्वीकृति है,
लेकिन
स्वीकृति है
ऐसी शर्तों के
साथ कि यदि तुम
शर्तों को भूल
जाते हो तो
तुम पूरी बात
ही चूक जाते
हो।
व्यक्ति
संभोग में उतर
सकता है, लेकिन स्खलन
नहीं होना
चाहिए। यदि
स्खलन होता है,
तो वह
साधारण
कामवासना हुई;
तब वह तंत्र
नहीं। यदि तुम
संभोग में
उतरते हो और
कोई स्खलन
नहीं होता, घंटों तुम
रहते हो
स्त्री के साथ
और कोई स्खलन
नहीं होता, तो यह तंत्र
है। तो यह एक
उपलब्धि है।
शराब
पीने की
अनुमति है, लेकिन होश
खोने की
अनुमति नहीं
है। यदि तुम
होश खो देते
हो तो तुम
साधारण शराबी
हों—तंत्र को
बीच में लाने
की आवश्यकता
नहीं है।
मांस
की स्वीकृति
है; तुम्हें
खाना पड़ता है
मांस—कई बार
तो मनुष्य का
मांस भी, मुर्दों
का मांस—लेकिन
तुम्हें
विरक्त रहना होगा।
तुम्हें
अविचलित रहना
होगा—तुम्हारी
चेतना में एक
कंपन तक नहीं
होना चाहिए कि
'कुछ गलत...।’
तंत्र
कहता है कि
प्रत्येक
बंधन के पार
जाना है, और अंतिम
बंधन है
नैतिकता—उसके
भी पार जाना
है। जब तक तुम
नैतिकता के
पार नहीं चले
जाते तुम संसार
के पार नहीं
गए होते। तो
भारत जैसे देश
में जहां कि
शाकाहार बहुत
ही गहरे तल तक
उतर चुका है
भारतीय चेतना
में, मास
खाने की
अनुमति थी, लेकिन यह उस
ढंग की अनुमति
न थी जैसे कि
मांस खाने
वाले खाते
हैं। व्यक्ति
को जीवन भर
तैयार होना
पड़ता था इसके
लिए। उसे
शाकाहारी
रहना पड़ता था;
साधक के रूप
में उसे
शाकाहारी
रहना पड़ता था।
वर्षों
बीत जाएंगे—दस
वर्ष, बारह
वर्ष वह
शाकाहारी रहा,
उसने संभोग
नहीं किया
किसी स्त्री
के साथ, उसने
कोई शराब नहीं
पी और उसने
किन्हीं और
नशों का सेवन
नहीं किया।
फिर बारह वर्ष,
पंद्रह
वर्ष बाद, बीस
वर्ष बाद, गुरु
उसे अनुमति
देगा कि अब उतरो
कामवासना में,
लेकिन ऐसी श्रद्धा
से स्त्री का
संग करो कि
स्त्री देवी जैसी
ही हो; यह
कामुकता नहीं
होती। और उस
आदमी को जो कि
स्त्री के संग
होता है, उसकी
पूजा करनी
होती है, उसके
पांव छूने
होते हैं। और
यदि हलकी सी
भी कामवासना
उठने लगती है,
तो वह
अयोग्य हो
जाता है; तो
वह अभी इसके
लिए तैयार
नहीं है।
यह एक
बड़ी तैयारी थी
और बड़ी
परीक्षा
थी—कठिनतम
परीक्षा थी जो
कि कभी
निर्मित की गई
मनुष्य के
लिए। कोई आकांक्षा
नहीं, कोई
वासना नहीं, उसे स्त्री
के प्रति ऐसी
भाव—दशा रखनी
पड़ती जैसे कि
वह उसकी मां
हो। यदि गुरु
कहता है, और
देखता है कि
वह ठीक है—अब
वह बच्चे की
भांति प्रवेश
कर रहा है
स्त्री में, पुरुष की
भांति नहीं, और बच्चे की
ही भांति वह
भीतर रहता है
स्त्री के, उसमें कोई
कामवासना
नहीं उठ रही
होती : उसकी श्वास
प्रभावित
नहीं होती; उसकी
शरीर—ऊर्जा
प्रभावित
नहीं होती, घंटों वह स्त्री
के साथ रहता
है और कोई
स्खलन नहीं
होता; एक
गहन मौन छाया
रहता है—यह एक
गहन ध्यान है।
बीस
वर्षों तक
शाकाहारी
रहने के बाद
अचानक तुम्हें
मांस दिया
जाता है खाने
के लिए :
तुम्हारे
पूरे प्राण
विकर्षण
अनुभव
करेंगे। यदि
तुम विचलित
अनुभव करते हो
तो तंत्र कहता
है, 'तुम
अस्वीकृत
हुए। अब इसके
पार जाओ। अब
जो कुछ भी
दिया जाए, उसे
अनुग्रहपूर्वक
स्वीकार करो।’
तुम जानते
हो कि यदि तुम
एक वर्ष तक
शाकाहारी रहे
हो और अचानक
मांस सामने आ
जाए, तो
तुम उबकाई
अनुभव करने
लगोगे, मितली
आने लगेगी।
यदि ऐसा होता
है, तो
उसका मतलब है
कि व्यक्ति
अभी भी
विचारों में
जी रहा
है—क्योंकि यह
केवल एक विचार
ही है कि यह
मांस है और यह
सब्जी है।
शाक—सब्जी भी
मांस है, क्योंकि
वह वृक्ष के
शरीर से आती
है; और
मांस भी
वनस्पति है, क्योंकि वह
मनुष्य—शरीर
या पशु—शरीर
के वृक्ष से
आता है। तो यह
नैतिकता का
अतिक्रमण है।
और फिर
उसे तेज नशों
के लिए तैयार
किया जाता। यदि
वह वस्तुत:
सजग है तो उसे
कुछ भी दिया
जाएगा, वह शरीर के
रसायन को
बदलेगा, लेकिन
चेतना को नहीं
बदल सकता; उसकी
चेतना शरीर के
रसायन के ऊपर
ही बनी रहेगी।
गुरजिएफ
खूब शराब पीया
करता था—जितनी
तुम सोच सकते
हो उतनी शराब
पीता था।
लेकिन कभी भी
होश नहीं खोता
था, कभी
भी बेहोश नहीं
होता था। वह
तांत्रिक
गुरु था। यदि
तुम पश्चिम
में किसी में
रस लेना चाहते
हो तो वह है
जार्ज
गुरजिएफ—कोई
तिब्बती शरणार्थी
नहीं।
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