दिनांंक 4 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न सार:
प्रश्न सार:
1—बुद्धत्व
यदि ऊर्ध्वगमन
है,
तो नीचे से
ऊपर छलांग
कैसे संभव है?
2—अचानक घटित
होने वाले
बुद्धत्व के
लिए शिष्य को
गुरु के पास
वर्षों—वर्षों
तक क्यों रहना
पड़ता है?
3—बीज
छलांग लगाकर
कर फूल नहीं
बन सकता, तो
व्यक्ति एक
छलांग में
बुद्ध कैसे बन
सकता
है?
4—पतंजलि, लाओत्सु
और रजनीश के
उपदेशों का हम
श्रोताओं से
कैसा संबंध है?
5—यदि हम सभी
बुद्ध है, तो हम
अज्ञान और
मुर्च्छा
में क्यों
गिरे जाते है?
6—मादक
द्रव्यों से
क्या कोई
भीतर छलांग
लगा सकता है?
7—आप क्रमिक
मार्ग से
संबुद्ध हुए
अथवा छलांग से?
8—तत्काल
बुद्धत्व और
अप्रयास में
विश्राम की
आपकी बातें
मुझे पागल बना
रही है।
9—क्या
यहमेरी कल्पना
हो सकती है कि
मुझे परम
अनुभूति घटित
हो चुकी है?
पहला
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
बुद्धत्व की
तत्काल
उपलब्धि के
लिए छलांग
लगाई जा सकती
है। क्या ऐसा
संभव है? बुद्धत्व
का अर्थ है
ऊर्ध्वगमन है
न? लेकिन
छलांग तो केवल
तभी लगाई जा
सकती है जब हमें
नीचे जाना हो
जैसे कि कई
मंजिलों वाली
इमारत से नीचे
जमीन पर छलांग
लगाना। कैसे
कोई जमीन से
इमारत की छत
पर छलांग लगा
सकता है? किसी
चीज पर चढ़ कर
ही ऊपर जाना
हो सकता है।
कृपया
समझाएं।
तुम पूरी बात
ही चूक रहे हो, और तुम
चूक रहे हो
शाब्दिक
प्रतीक के
कारण। बुद्धत्व
है, 'कहीं
नहीं जाना'—न ऊपर जाना, न नीचे
जाना।
बुद्धत्व है
वहीं होना
जहां कि तुम
हो—बिलकुल अभी,
इसी क्षण।
यह कहीं जाना
नहीं है; यह
होना है।
बुद्धत्व में
तुम कहीं जाते
नहीं। बुद्ध
जा नहीं रहे
हैं, किसी
एवरेस्ट पर चढ़
नहीं रहे हैं।
तुम भीतर जाते
हो; और
भीतर का वह
आयाम न तो ऊपर
है, न
नीचे। वह न तो
ऊपर जाने से
संबंधित है और
न नीचे जाने
से; ऊपर और
नीचे तो बाहरी
दिशाएं हैं।
भीतर तुम बिलकुल
वहीं होते हो
जहां कि हो।
बुद्धत्व
कहीं जाने की
बात नहीं, बल्कि
होने की बात
है—समग्र रूप
से थिर होने की
बात है।
इसीलिए छलांग
संभव है।
तुमने
ठीक कहा। यदि
यह ऊपर जाने
की बात है, तो तुम
कैसे छलांग
लगा सकते हो? असल में, अगर
यह नीचे जाना
भी हो, तो
एवरेस्ट से
छलांग लगाना
केवल मूढ़ता
होगी। तुम मर
जाओगे। नहीं,
वह न तो नीचे
जाना है और न
ऊपर जाना है।
तुम तो बस
सारी दिशाओं
से स्वयं को
भीतर समेट
लेते हो।
धीरे— धीरे
तुम थिर हो
जाते हो भीतर।
अंग्रेजी
शब्द 'मिस्टिक'
के लिए
ग्रीक शब्द, ग्रीक का
मूल शब्द बहुत
सुंदर है।
ग्रीक मूल शब्द
का अर्थ है : 'स्वयं में
स्थिर होना।’
तब तुम एक 'मिस्टिक' हो जाते हो, रहस्यदर्शी
हो जाते
हो—कही जाना
नहीं, कोई
गति नहीं।
बिलकुल इसी
क्षण अगर तुम
किसी भी दिशा
में नहीं जा
रहे हो—नीचे, ऊपर; दाएं,
बाएं; भविष्य,
अतीत—कहीं
नहीं जा रहे
हो, तो
तुम्हारी
चेतना थिर
होती है, कोई
कंपन नहीं
होता। उस क्षण
में बुद्धत्व
है। इसीलिए
छलांग संभव
है।
तुम
पूना से
कलकत्ता कैसे
छलांग लगा
सकते हो? यह असंभव
है। लेकिन तुम
भीतर छलांग
लगा सकते हो, क्योंकि तुम
वही हो। समय
की जरूरत नहीं
है, केवल
समझ चाहिए।
स्थगन की
जरूरत नहीं है,
कल की जरूरत
नहीं है, केवल
समझ की जरूरत
है। तुम समझ
लेते हो और
घटना घट जाती
है। तो सारा
प्रयास
इसीलिए जरूरी
होता है
क्योंकि समझ
नहीं होती।
और
किसी शाब्दिक
प्रतीक को मत
पकड़ लेना।
शाब्दिक
प्रतीक सदा एक
संकेत होते
हैं; तुम्हें
उन्हें जोर से
नहीं पकड़ लेना
है।’छलांग'
का अर्थ यहां
छलांग नहीं है;
'ऊर्ध्वगमन'
का अर्थ ऊपर
जाना नहीं है,
'अधोगमन' का अर्थ
नीचे जाना
नहीं है। ये
संकेत हैं; शब्दों को
मत पकड़ो।
सुगंध ले लो
और फूल को भूल जाओ,
वरना तो तुम
मुझे गलत ही
समझते रहोगे।
और ऐसा
ही हुआ है
बहुत बार, लाखों
बार, सभी
धार्मिक
लोगों के साथ
यही होता रहा
है। क्योंकि
वे
प्रतीकात्मक
संकेतों में
बोलते हैं।
बोलने का
दूसरा कोई उपाय
भी नहीं है।
वे बोलते हैं
प्रतीकों में,
प्रतीक—कथाओं
में। और फिर
तुम
प्रतीक—कथाओं
को मूढ़ता की
सीमा तक खींच
सकते हो। यदि
तुम प्रतीकों
को खींचे जाओ,
तो एक जगह
आती है, जहां
सारी बात खो
जाती है और हर
चीज एक मूढ़ता मालूम
पड़ने लगती है।
इसीलिए
अज्ञानियों
के हाथ में
सारे धर्म मूढ़ता
बन जाते हैं।
सारी तरकीब
यही है कि तुम
प्रतीकों को
खींचे चले
जाओ—एक जगह आ
जाती है जहां कि
वे फिर
तर्कसंगत
नहीं रहते, अर्थपूर्ण
नहीं रहते।
उदाहरण के लिए,
जीसस कहते
हैं, 'मेरे
पिता जो ऊपर
आकाश में हैं।’
अब इस 'ऊपर'
का अर्थ ऊपर
नहीं है।’मेरे
पिता' का
अर्थ मेरे
पिता से नहीं
है, क्योंकि
इसमें कोई 'मेरा' हो
नहीं सकता।’ जो ऊपर आकाश
में हैं'—अब
तुम बड़ी आसानी
से पूरा अर्थ
बिगाड़ सकते
हो। जब ईसाई
मित्र ही इसे
बिगाड़ देते
हैं, फिर
विरोधी तो
बिगाड़ेंगे
ही। वे
प्रार्थना
करते हैं ऊपर
देखते हुए। यह
मूढ़ता है, क्योंकि
वास्तव में
अस्तित्व में
न तो कुछ ऊपर
है और न कुछ
नीचे है। यदि
तुम अस्तित्व
को उसकी
समग्रता में
लो, तो ऊपर
क्या और नीचे
क्या? न
कोई चीज ऊपर
हो सकती है और
न कोई चीज
नीचे हो सकती
है—ये सापेक्ष
परिभाषाएं हैं
यदि तुम 'पिता'
शब्द को लो,
तो
मुश्किलें
खड़ी हो जाती
हैं। एक
आर्यसमाजी—हिंदू
धर्म के एक नए,
कट्टर और जड़
संप्रदाय का
व्यक्ति—मेरे
पास आया और
कहने लगा, 'मैंने
आपको कई बार
जीसस के बारे
में बोलते सुना
है। क्या आप
ईसाई हैं?' मैंने
कहा, 'एक
तरह से, हूं।’
निश्चित ही
वह उलझन में
पड़ गया। वह
समझ नहीं सका—'एक तरह से' को। वह कहने
लगा, 'मैं
प्रमाणित कर
सकता हूं कि
आपके जीसस
एकदम गलत हैं।
वे कहते हैं, मेरे पिता
आकाश में
है—तो फिर मां
कौन है?' अब
इस तरह से
बिगड़ सकते हैं
शाब्दिक
प्रतीकों के
अर्थ —मां कौन
है? बिना
मां के पिता
कैसे हो सकते
हैं? बिलकुल
ठीक है। बात
बड़ी सीधी—साफ
मालूम पडती है।
तुम जीसस की
बात का आसानी
से खंडन कर
सकते हो।
और फिर
ईसाई भयभीत
हैं, क्योंकि
वे कहते हैं, 'ईश्वर पिता
है', तो
उन्हें
स्पष्ट करना
पड़ता है कि
जीसस उसके इकलौते
बेटे हैं, क्योंकि
अगर हर कोई
बेटा है तब तो
सारा महत्व ही
समाप्त हो गया।
तो जीसस की
विशिष्टता और
विलक्षणता
क्या रही! तो
वे उसके
इकलौते बेटे
हैं!
अब
चीजें बद से
बदतर होती
जाती हैं। तो
फिर और दूसरे
लोग कौन हैं? सभी
दोगले हैं? सारा संसार?
केवल जीसस
ही इकलौते
बेटे है—तो
तुम कौन हो, तुम्हें
क्या कहें? पोप हैं, ईसाई
धर्म—प्रचारक
हैं, और जो
संसार के तमाम
लोग हैं, उन्हें
क्या कहें? तब तो सारी
दुनिया
नाजायज हुई, बिना बाप की
हुई। कोई नहीं
जानता यदि तुम
'पिता' शब्द
को लो, तो
मुश्किलें
खड़ी हो जाती
हैं। एक
आर्यसमाजी—हिंदू
धर्म के एक नए,
कट्टर और जड़
संप्रदाय का
व्यक्ति—मेरे
पास आया और
कहने लगा, 'मैंने
आपको कई बार
जीसस के बारे
में बोलते सुना
है। क्या आप
ईसाई हैं?' मैंने
कहा, 'एक
तरह से, हूं।’
निश्चित ही
वह उलझन में
पड़ गया। वह
समझ नहीं सका—'एक तरह से' को। वह कहने
लगा, 'मैं
प्रमाणित कर
सकता हूं कि
आपके जीसस
एकदम गलत हैं।
वे कहते हैं, मेरे पिता
आकाश में
है—तो फिर मां
कौन है?' अब
इस तरह से
बिगड़ सकते हैं
शाब्दिक
प्रतीकों के
अर्थ —मां कौन
है? बिना
मां के पिता
कैसे हो सकते
हैं? बिलकुल
ठीक है। बात
बड़ी सीधी—साफ
मालूम पडती है।
तुम जीसस की
बात का आसानी
से खंडन कर
सकते हो।
और फिर
ईसाई भयभीत
हैं, क्योंकि
वे कहते हैं, 'ईश्वर पिता
है', तो
उन्हें
स्पष्ट करना
पड़ता है कि
जीसस उसके इकलौते
बेटे हैं, क्योंकि
अगर हर कोई
बेटा है तब तो
सारा महत्व ही
समाप्त हो
गया। तो जीसस
की विशिष्टता
और विलक्षणता
क्या रही! तो
वे उसके इकलौते
बेटे हैं!
अब
चीजें बद से
बदतर होती
जाती हैं। तो
फिर और दूसरे
लोग कौन हैं? सभी
दोगले हैं? सारा संसार?
केवल जीसस
ही इकलौते
बेटे है—तो
तुम कौन हो, तुम्हें
क्या कहें? पोप हैं, ईसाई
धर्म—प्रचारक
हैं, और जो
संसार के तमाम
लोग हैं, उन्हें
क्या कहें? तब तो सारी
दुनिया
नाजायज हुई, बिना बाप की
हुई। कोई नहीं
जानता!
तुम
प्रतीक
शब्दों को
खींच सकते हो।
एक जगह आती है
जब पूरा अर्थ
ही खो जाता
है। इतना ही
नहीं, यह
ऐसा
मूढ़तापूर्ण
चित्र खींच
देता है कि
कोई भी मजाक
उड़ा देगा।
इसलिए धर्म को
केवल गहरी सहानुभूति
में ही समझा जा
सकता है। यदि
तुम में
सहानुभूति है
तो तुम उसे
समझोगे; यदि
तुम में
सहानुभूति
नहीं है तो
तुम उसे गलत
ही समझ सकते
हो—क्योंकि
पूरी बात ही
प्रतीक—कथाओं
में है।
प्रतीक—कथाओं
को समझने के
लिए भाषा की
समझ ही काफी
नहीं है, व्याकरण
की समझ ही
काफी नहीं है,
क्योंकि प्रतीक
कुछ ऐसी बात
है जो भाषा और
व्याकरण से परे
है। यदि तुम
बहुत सहानुभूतिपूर्वक
समझो, केवल
तभी एक
संभावना है कि
तुम अर्थ समझ
सको।
प्रतीक—कथा
कोई प्रमाण
नहीं है। वह
तो बस एक विधि
है उसका संकेत
देने के लिए
जिसे बताया
नहीं जा
सकता—उन चीजों
को दिखाने की
एक कोशिश है
जिन्हें कहा
नहीं जा सकता।
इसे हमेशा याद
रखना, अन्यथा
तुम अपनी ही
चालाकी में
फंस जाओगे।
दूसरा
प्रश्न:
बुद्धत्व
के अचानक घटित
होने के लिए
झेन साधकों को
अपने गुरुओं
के पास दस बीस
या चालीस वर्षों
तक क्यों रहना
पड़ता है?
उनकी
मूढ़ताओं के
कारण। तुम
क्षण भर में
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
सकते हो; और तुम
प्रतीक्षा कर
सकते हो चालीस
वर्षों तक। यह
इस पर निर्भर
करता है कि
तुम कितनी
मोटी बुद्धि
के हो। तुम
प्रतीक्षा कर
सकते हो कई
जन्मों तक, यह इस पर
निर्भर करता
है कि तुम
अपने अज्ञान से
कितना चिपके रहते
हो। झेन गुरु
जिम्मेवार
नहीं है कि
शिष्य को
प्रतीक्षा
करनी पड़ी
चालीस वर्षों
तक। शिष्य ही
जिम्मेवार
है। वह बहुत
मंदबुद्धि
व्यक्ति रहा
होगा, जड़मति
रहा होगा; उसकी
बुद्धि में
कोई चीज उतरती
ही नहीं होगी।
या बौद्धिक
रूप से बहुत
होशियार रहा
होगा, इसलिए
जो कुछ भी कहा
जाए, वह
उसके चारों ओर
एक बौद्धिक
समझ निर्मित
कर लेता
होगा—और उस
बात को चूक
जाता होगा, जो केवल
हृदय से हृदय
तक ही पहुंच
सकती है। एक गहन
आत्मीयता में,
जहां कि
हृदय से हृदय
का मिलन होता
है, समझ का
फूल खिलता है।
तो वे
लोग जिन्हें
प्रतीक्षा
करनी पड़ी चालीस
वर्षों तक या
तो बहुत मूढ़
रहे होंगे या
बहुत ज्यादा
ज्ञानी रहे
होंगे। ये
दोनों मूढ़ता के
ही प्रकार
हैं। वे या तो
पंडित रहे
होंगे या मूढ़
रहे होंगे; दोनों
समान ही हैं।
पंडित ज्यादा
चूकते हैं मूढ़ों
की अपेक्षा।
कभी—कभी तो
मूढ़ भी समझ
सकता है, उसे
समझ आ सकती है,
क्योंकि वह
सीधा—सरल होता
है। उसका मन
जटिल नहीं
होता. यदि कोई
बात उतरती है
तो उतर ही
जाती है।
लेकिन ज्ञानी,
पंडित, तार्किक,
शास्त्रज्ञ,
दार्शनिक—वहां
इतनी जटिल
पर्तें होती
हैं कि उनमें
उतरना
करीब—करीब
असंभव ही होता
है। यदि तुम
सहज—सरल हो तो
बात घट सकती
है बिलकुल
अभी। यदि तुम
सरल नहीं हो
तो तुम्हें प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी; और तब
तुम्हें
देखना होगा कि
कौन सी जटिलता
है जो समस्या
बन रही है।
जो कुछ
भी घटता है
उसके तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
गुरु तो केवल
एक मौजूदगी
है। तुम उसके।
सहभागी हो
सकते हो। वह
है सूर्य की
भांति, एक आलोक. तुम आंखें
खोल सकते हो
और देख सकते
हो। लेकिन यदि
तुम आंखें न
खोलो, तो
प्रकाश
तुम्हें विवश
नहीं करेगा आंख
खोलने के लिए।
सूर्य भी ऐसा
नहीं कर सकता।
लेकिन सदा याद
रहे, यदि
तुम चूक रहे
हो तो अपने ही
कारण। या तो
यह तुम्हारी
होशियारी है
या तुम्हारी
मूढ़ता है।
दोनों को
छोड़ो। इसी तरह
तो कोई शिष्य
होता
है—तुम्हारी
मूढ़ता और
तुम्हारा
ज्ञान दोनों
को छोड़ो। जब
तुम दोनों को
छोड़ देते हो, तो कोई बाधा
नहीं रहती; तुम
संवेदनशील
होते हो, तुम
खुले होते हो।
उस
खुले होने में
किसी भी क्षण
बुद्धत्व
संभव है।
तीसरा
प्रश्न :
मैं
विश्वास के
साथ कह सकता
हूं कि आप एक
बीज से न
कहेंगे कि
अचानक छलांग
लगाओ और फूल
बन जाओ। लेकिन
फिर मनुष्य से
आप क्यों कहना
चाहते हैं कि
अचानक छलांग
लगाओ और बुद्ध
हो जाओ?
क्योंकि बीज
बीज है और समझ
नहीं सकता, और
मनुष्य बीज
नहीं है और
समझ सकता है।
लेकिन यदि तुम
बीज हो, तो
तुम नहीं
सुनोगे; यदि
तुम मनुष्य हो,
तो तुम समझ
जाओगे। यह तुम
पर निर्भर
करता है, क्योंकि
हो सकता है
तुम लगते होओ
मनुष्य की भांति—लेकिन
तुम शायद होओ
बीज ही या
चट्टान ही। जो
दिखाई पड़ता है
वही सत्य नहीं
होता। तुम सभी
लगते हो
मनुष्य जैसे,
लेकिन
कभी—कभार ही
कोई मनुष्य
होता है।
यह
शब्द 'मनुष्य'
या
अंग्रेजी
शब्द 'मैन'
सुंदर हैं।
ये आते हैं
संस्कृत मूल 'मनु' से।
मनु का अर्थ
होता है : 'वह
जो समझ सकता
है।’ उसी
मूल से ही आते
हैं भारतीय
शब्द—'मन', 'मनस्वी'—वह
जो समझ सकता
है।’मनुष्य'
या 'मैन'
सुंदर शब्द
हैं। इनका
अर्थ है : 'जो
समझ सकता है', 'जिसमें
क्षमता है
समझने की।’ इसलिए मैं
बीज से नहीं
कहता, ' अचानक
छलांग लगाओ और
फूल बन जाओ।’ लेकिन
मनुष्य से मैं
कहता हूं। और
यही है विडंबना,
कि कई बार
बीज भी इसे
सुन सकता है
और मनुष्य नहीं
सुनेगा।
क्या
तुमने लूथर बुरबांक
के बारे में
कुछ पढ़ा है? वह एक
अमरीकी था और
वृक्षों और
पौधों का बहुत
प्रेमी था।
उसने यह
चमत्कार किया.
वह बातें करता
था बीजों से; वह बातें
करता था अपने
पौधों से, और
वह बातें करता
रहा
निरंतर—वही तो
मैं कर रहा
हूं —और एक घड़ी
आई जब पौधे
सुनने लगे
उसकी। वह एक
कैक्टस पर सात
वर्ष तक काम
करता
रहा—निरंतर
बात करता रहा
कैक्टस से, कहता रहा, 'तुम्हें
चिंता करने की
जरूरत नहीं और
सुरक्षा के
लिए कुछ उपाय
करने की जरूरत
नहीं, क्योंकि
तुम्हारे
जीवन को कोई
खतरा नहीं है।’
प्रत्येक
कैक्टस में
कांटे होते
हैं उसकी सुरक्षा
के लिए। वे ही
उसका कवच होते
हैं।
रेगिस्तान
में कैक्टस
असुरक्षित
होता है; रेगिस्तान
में कैक्टस
बड़ी गहरी
असुरक्षा और खतरे
में जीता है।
रेगिस्तान
में कैक्टस
जीवित कैसे रह
जाता है, यही
एक चमत्कार
है। और
कोई—कोई
कैक्टस तो दो
हजार वर्ष तक
जीवित रहते
हैं, बड़े
पुराने
प्राचीन
कैक्टस होते
हैं।
रेगिस्तान
में पानी
मिलता नहीं; जीवन एक गहन
संघर्ष होता
है। वे केवल
ओस—कणों पर
जीते हैं।
इसीलिए उनके
पत्ते नहीं
होते; क्योंकि
पत्ते बहुत
ज्यादा पानी
वाष्पीभूत करते
हैं। यह उनकी
तरकीब है
जिससे कि सूरज
उनका पानी सोख
न सके। पानी
की इतनी कमी
होती है। कैक्टस
के पत्ते नहीं
होते; केवल
काटे होते
हैं। और उनके
अंतःकोष के
भीतर गहरे में
वे पानी इकट्ठा
करते रहते
हैं। महीनों
तक भी अगर पानी
न हो, तो वे
जी लेंगे। वे
वास्तव में
पानी ही
इकट्ठा करते
हैं। उनके पास
कोई अतिरिक्त
चीज नहीं होती
है—पत्ते नहीं,
कुछ नहीं।
और बिना काटो
के कैक्टस की
कोई जाति नहीं
होती।
यह
आदमी बुरबांक
पागल था। उसके
मित्र सोचने लगे, 'वह पागल
हो गया है।’ उसका सारा परिवार
तक सोचने लगा,
'अब यह तो
बहुत हुआ : हर
रोज कैक्टस के
पास बैठा हुआ
है और बातें
कर रहा है।
उनसे कह रहा
है, तुम्हें
भयभीत होने की
जरूरत नहीं; मैं
तुम्हारा
मित्र हूं।
तुम अपने काटे
हटा सकते हो।
कोई असुरक्षा
नहीं है—तुम
सुख—चैन से रह
रहे हो मित्र
के साथ, प्रेमी
के साथ। तुम
रेगिस्तान
में नहीं हो।
और कोई
तुम्हें
नुकसान नहीं
पहुंचाएगा।’
सात
वर्ष बहुत
लंबा समय है; लेकिन
घटना घटी। सात
वर्ष बाद एक
नई शाखा, बिना
काटो वाली
शाखा उगी
कैक्टस में।
यह पहला मानवीय
संपर्क था
वृक्षों के
साथ। यह एक
अदभुत घटना
है—केवल बात करने
से ही ऐसा हो
गया।
इसीलिए
मैं बोले जाता
हूं; तुम्हें
आश्वस्त करता
हूं कि तुम
छलांग लगा सकते
हो, भलीभांति
जानते हुए कि
सात वर्ष भी
लग सकते हैं
और सत्तर वर्ष
भी! कौन जाने? तुम भी
सोचने लग सकते
हो मेरे बारे
में : 'वह
पागल हुआ है, रोज—रोज
बातें किए
जाता है, कोई
सुनता नहीं।’
लेकिन अगर
बुरबांक को
सफलता मिल
सकती है बीजों
के साथ, कैक्टस
के साथ, पेड़ों
के साथ, तो
मुझे क्यों
नहीं?
चौथा
प्रश्न:
आपने
कहा कि आप 'लाओन्द्व
को' बोलते
हैं और आप 'पतंजलि
पर' बोलते
हैं। क्या यह
आप पर निर्भर
है या हम पर या
फिर क्या बात
है?
यदि मैं
अकेला होता, तुम न
होते, तो
मैं कभी
पतंजलि पर न
बोलता; क्योंकि
वह बात ही
बिलकुल
निरर्थक
होती। यदि केवल
तुम्हीं होते
और मैं नहीं
होता, तो
मैं निरंतर
बोलता पतंजलि
पर; क्योंकि
तब लाओत्सु पर
बोलना संभव न
होता। लेकिन
क्योंकि तुम
भी हो और मैं
भी हूं तो यह
बात आधी—आधी
है। स्थिति यह
है कि अगर तुम
मुझे लाओत्सु
पर सुनने के
लिए राजी हो, तो मैं
बोलूंगा
पतंजलि पर।
तुम्हें मुझे
सुनना पड़ेगा
लाओत्सु पर, तब मैं
बोलूंगा
पतंजलि पर; और क्योंकि
तुम मुझे
पतंजलि पर
बोलते सुनना चाहते
हो, तुम्हें
मुझे सुनना
होगा लाओत्सु पर।
तुम्हारा
पूरा मन चाहता
है क्रमिक गति
में सोचना।
यही मेरा मतलब
है पतंजलि से।
मैं पतंजलि के
विषय में कुछ
नहीं कह रहा
हूं—गलत अर्थ
मत लगा लेना।
पतंजलि को
सुनने का अर्थ
है कि तुम क्रमिक
रूप से चलना
चाहते हो, धीरे—
धीरे, एक—एक
कदम। इसका
अर्थ है कि
तुम स्थगित
करना चाहते हो,
तैयार होना
चाहते हो।
पतंजलि का
अर्थ है : स्थगित
करो, तैयार
होओ। याद रखना
ये शब्द :
पतंजलि और
स्थगन, तैयारी।
पतंजलि के साथ
समय की
संभावना है, कल संभव है, भविष्य संभव
है। वे तुम से
नहीं कह रहे
हैं, 'एकदम
अभी, बिलकुल
अभी छलांग लगा
दो।’ वे बहुत
तर्कसंगत हैं,
वैज्ञानिक
हैं, कम से
चलते
हैं—नासमझी की
बात नहीं करते;
समझ की बात
करते हैं। तुम
उन्हें आसानी
से समझ सकते
हो; वे
वहीं से शुरू
करते हैं जहां
तुम हो।
लाओत्सु
तो एकदम
अतर्क्य हैं :
कवि जैसे
ज्यादा दिखते
हैं और
वैज्ञानिक
जैसे कम; ऐसे ज्यादा
मालूम पड़ते
हैं कि तुम
उनकी बातों का
मजा ले सको, लेकिन जो वे
कह रहे हैं, उस पर तुम
कुछ कर नहीं
सकते। कैसे कर
सकते हो तुम? अंतर बहुत
ज्यादा है।
मैं
तुम से पतंजलि
के विषय में
बात करता हूं
ताकि तुम
धीरे— धीरे
होश जगाओ, सजग हो
जाओ; और
मैं बात करता
जाता हूं
लाओत्सु की भी
: कि अगर तुम
सचमुच ही
पतंजलि को समझ
रहे हो तो तुम
और ज्यादा
तैयार हो
जाओगे।
पतंजलि तैयार
करते हैं—फिर
खयाल में ले
लेना यह शब्द 'तैयारी'।
पतंजलि तैयार
करते हैं; वे
एक तैयारी
हैं। लेकिन
यदि तुम
पतंजलि को ही
सुनते रहते हो,
तो तुम
तैयारी और
तैयारी और तैयारी
ही करते रहते
हो, और वह
घड़ी कभी नहीं
आती जब तुम
छलांग लगा दो।
यह तो उस आदमी
जैसी बात हुई
जो हमेशा
तैयारी करता
रहता है, नक्शे
और
टाइम—टेबलों
को पढ़ता रहता
है, और
यात्रा पर कभी
नहीं जाता।
असल में, वही
उसका कुल काम
हो जाता है, कुल शौक हो
जाता है। वह
सोचता रहता है
जाने के बारे
में; वह
खरीद लाता है
हिमालय से
संबंधित
पुस्तकें—नक्शे,
गाइड, चित्रों
वाली
किताबें—वह
जाकर देख आता
है फिल्में, वह बातें
करता है उन
लोगों से जो
हिमालय हो आए हैं
और वह तैयारी
करता है—वह
कपड़े खरीदता
है और यात्रा
में काम आने
वाली चीजें जुटाता
है—लेकिन वह
सदा तैयारी ही
करता रहता है
और मर जाता
है। पतंजलि को
सुनने में यह
खतरा है :
तुम्हें
तैयारी की ही
आदत पड़ सकती
है।
कई लोग
हैं—'कई' कहना भी ठीक
नहीं, करीब—करीब
सभी ही
हैं—जिन्हें
आदत पड़ गई है
तैयारी की। वे
यह सोच कर धन
कमाते हैं कि
किसी दिन वे
आनंद मनाएंगे;
और वे कभी
आनंद नहीं
मनाते। धीरे—
धीरे वे भूल ही
जाते हैं आनंद
के बारे में
और उन्हें धन
कमाने की इतनी
लत पड़ जाती है
कि धन ही
लक्ष्य बन जाता
है। धन साधन
है। और
प्रारंभ में
उन्हें भी यही
खयाल था कि जब
धन होगा तो वे
आनंद मनाएगे—वे
वह सब करेंगे जो
वे हमेशा से
करना चाहते थे
और कर नहीं
पाते थे
क्योंकि धन
नहीं था, जब
धन होगा तो वे
जी भर कर
जीएंगे।
लेकिन जब तक धन
आता है, तब
तक वे कुशल हो
जाते हैं
कमाने में और
भूल चुके होते
हैं कि खर्च
कैसे करना है;
तब धन
लक्ष्य हो
जाता है। तब
वे कमाते जाते
हैं, कमाते
जाते हैं, और
एक दिन मर
जाते हैं।
पतंजलि
एक आदत बन
सकते हैं—तब
तुम तैयारी
करते हो, तुम धन
कमाते हो, विधियां
सीखते हो, लेकिन
तुम कभी तैयार
नहीं हो पाते
नृत्य के लिए
और आनंद मनाने
के लिए।
इसीलिए मैं
लाओत्सु पर
बोलता रहता हूं, ताकि जब भी
तुम अनुभव करो
कि अब तुम
तैयार हो, तो
अचानक
लाओत्सु हृदय
में कहीं गहरे
चोट करते हैं
और तुम छलांग
लगा देते हो।
जब मैं
लाओत्सु पर
बोलता हूं तो
मैं कहता हूं, 'मैं
लाओत्सु को
बोलता हूं?, क्योंकि
जहां से वे
बोल रहे हैं, मैं वहीं पर
खड़ा हूं। जो
वे कह रहे हैं,
मैं स्वयं
वही कहना
चाहूंगा।
मुझे अभी तक
ऐसी कोई भी
बात नहीं मिली,
जिस पर मैं
कह सकूं कि
मैं उनसे
असहमत हूं। मैं
पूरी तरह से
सहमत हूं।
पतंजलि से मैं
सहमत हूं आशिक
रूप से, सापेक्ष
रूप से, पूरी
तरह से नहीं, क्योंकि
पतंजलि साधन
हैं और
लाओत्सु
साध्य हैं।
यदि
तुम साधनों को
छोड़ सको और
बिलकुल अभी
छलांग लगा दो, तो सुंदर
है। यदि तुम
ऐसा न कर सको, तो थोड़ी
तैयारी करना।
वह तैयारी
तुम्हें
छलांग लगाने
के लिए तैयार
नहीं करती,
वह
तैयारी तो
केवल तुम्हें
साहस जुटाने
के लिए तैयार
करती है। छलांग
तो बिलकुल अभी
संभव है, लेकिन
तुम्हारे पास
साहस नहीं है।
यदि तुम्हारे
पास साहस है :
तो बिलकुल
अभी—कोई जरूरत
नहीं है
तैयारी की, तुम हटा दे
सकते हो
पतंजलि को
पूरी तरह।
पतंजलि को
हटाना ही होता
है किसी न
किसी
दिन—यात्रा छोड़नी
ही पड़ती है जब
मंजिल मिल
जाती है, साधनों
को गिरा ही
देना होता है
जब साध्य मिल
जाता है—लेकिन
तुम लाओत्सु
को कभी नहीं
हटा सकते, वही
है असली
मंजिल। तो यह
आधा— आधा
समझौता है।
तुम
चकित होओगे कि
कई बार तुम भी
लाओत्सु को बहुत
पसंद करते हो, लेकिन
सवाल पसंद
करने का नहीं
है। तुम रात
देख सकते हो
सितारों को, और तुम
उन्हें पसंद
कर सकते हो, लेकिन करो
क्या? पहुंचो
कैसे? बहुत
दूर हैं वे!
तुम्हें वहा
से शुरू करना
होता है जहां
तुम हो।
पतंजलि
उपयोगी हैं।
लाओत्सु
बिलकुल ही
अनुपयोगी
हैं। उपयोग कर
लो पतंजलि का,
जिससे कि
तुम उपयोग कर
सको अनुपयोगी
लाओत्सु का भी;
वे ऐश्वर्य
हैं, एक विश्राम।
ही, लाओत्सु
एक ऐश्वर्य
हैं, एक
लेट—गो। खयाल
में ले लो ये
बातें—वे
ऐश्वर्य हैं,
एक लेट—गो।
यदि तुम से हो
सके, तो
सुंदर है। यदि
तुम न कर सको, तो यह बस एक आकांक्षा
निर्मित कर
देती है और एक
निराशा पकड़ती
है : एक आकांक्षा,
कि कितना
अच्छा होता
अगर तुम छलांग
लगा सकते! एक
जबरदस्त आकांक्षा
पैदा हो जाती
है। तुम
उन्हें इतना
निकट अनुभव
करते हो अपनी
आकांक्षा में,
लेकिन तुम
छलांग नहीं
लगा पाते
क्योंकि साहस नहीं
है, और
अचानक, वे
इतनी दूर हो
जाते हैं, सितारे
की भांति। और
एक निराशा तुम
पर उतर आती
है।
तो
पतंजलि— और—लाओत्सु
एक गहरा
संतुलन है
साधन और साध्य
के बीच, राह और
मंजिल के बीच।
पांचवां
प्रश्न:
यदि हम
सभी बुद्ध हैं
तो हम अज्ञान
और मूर्च्छा
में क्यों गिर
जाते हैं?
क्योंकि तुम
बुद्ध हो। एक
चट्टान कभी
नहीं गिरती मूर्च्छा
में। क्योंकि
तुम बुद्ध हो
इसलिए तुम गिर
सकते हो। केवल
होश वाला ही
बेहोश हो सकता
है। केवल
जीवित
व्यक्ति ही मर
सकता है। केवल
प्रेमपूर्ण
व्यक्ति ही
घृणा कर सकता
है। और केवल
करुणा ही
क्रोध बन सकती
है। इसलिए इसमें
कोई
विरोधाभास
नहीं है। यह
प्रश्न मन में
उठता है. 'यदि हर कोई
बुद्ध है, और
हर कोई
परमात्मा है,
तो हम इतने
अज्ञान में
क्यों हैं?' क्योंकि तुम
परमात्मा हो,
इसीलिए तुम
गिर सकते हो।
ऐसा
हुआ. एक सूफी
संत, जुन्नैद,
एक जंगल से
गुजर रहा था।
उसने वहा एक
आदमी को एक
गहरी झील के
एकदम किनारे
पर टहलते हुए
देखा। वह आदमी
बिलकुल नशे
में था, उसके
हाथ में बोतल
थी, और वह
लड़खड़ा रहा था
शराबी की
तरह—और किसी
भी क्षण वह
झील में गिर
सकता था, और
खतरा हो सकता
था। तो
जुन्नैद उसके
पास गया, उसका
हाथ अपने हाथ
में लिया और
कहा, 'मित्र,
क्या कर रहे
हो तुम? यह
खतरनाक है।
यहां टहल रहे
हो, इतनी
शराब पीकर, तुम गिर
सकते हो। और
झील बहुत गहरी
है, और
यहां आस—पास
कोई है नहीं।
यदि तुम चीखो —
चिल्लाओ भी, तो कोई
सुनेगा नहीं।’
उस
शराबी ने अपनी
आंखें खोलीं
और कहा, 'जुन्नैद, तुम शायद
मुझे नहीं
जानते होओगे,
लेकिन मैं
तुम्हें
जानता हूं। जो
तुम मुझे कह रहे
हो, मैं भी
तुम से वही
कहना चाहूंगा
: कि अगर मैं गिरता
हूं तो ज्यादा
से ज्यादा—हद
से हद—यही होगा
कि मेरे शरीर
को चोट
पहुंचेगी, लेकिन
यदि तुम गिरते
हो तो
तुम्हारी
पूरी चेतना......।’
जुन्नैद
अपने शिष्यों
के पास वापस
आया और उसने
कहा, 'आज
मैंने एक गुरु
पाया।’
और ठीक
था वह; वह
शराबी ठीक था,
क्योंकि
जुन्नैद शिखर
पर था; चेतना
के शिखर पर
यात्रा कर रहा
था—यदि वह गिरता
है वहा से तो
हर चीज बिखर
जाएगी। जितना
ज्यादा ऊंचे
तुम उठ जाते
हो, उतना
ही ज्यादा
खतरा होता है।
वे लोग जो
समतल जमीन पर
चलते हैं, अगर
वे गिर भी
जाएं तो क्या
होगा? ज्यादा
से ज्यादा कोई
छोटी—मोटी
हड्डी टूट जाएगी,
तीर्था की
भांति। तो वे
अस्पताल जा
सकते हैं और
उनकी
मरहम—पट्टी हो
सकती है।
लेकिन अगर तुम
ऊंचाइयों पर
चलते हो, तो
खतरा बहुत
ज्यादा होता
है।
क्योंकि
तुम बुद्ध हो, इसीलिए
तुम गिर गए हो
इतने अज्ञान
में, अंधकार
की इतनी गहरी
घाटी में। तो
इसे लेकर हताश
मत हो जाना।
यदि तुम घाटी
में इतने गहरे
उतर गए हो, तो
यह बात केवल
एक संकेत है
कि फिर से तुम
शिखरों पर
पहुंच सकते
हो। गिरने की
संभावना शिखर
पर होने की
क्षमता के
कारण ही घटती
है। और अच्छा
है यह—इसमें
कुछ गलत नहीं
है—क्योंकि यह
एक अनुभव है।
तुम्हारा बुद्धत्व
और निखर
जाएगा। जब तुम
गुजर जाते हो इस
अंधकार और
पीड़ा से, और
जब तुम वापस
घर आते हो, तो
तुम वही नहीं
रहोगे जैसे कि
तुम गिरने के
पहले थे।
तुम्हारी
सजगता की
गहनता में अब
एक अलग ही
गुणवत्ता
होगी : तुम
पीड़ा से गुजरे
हो और तुमने
उसे जीया है।
तुम ज्यादा
होशपूर्ण
होओगे।
तुम्हारी
सजगता अब
ज्यादा होशपूर्ण
हो जाएगी—गहन,
सघन, अकंप
हो जाएगी।
ऐसा
हुआ : एक बहुत
समृद्ध
व्यक्ति अपने
धन से ऊब
गया—जैसा कि
हमेशा ही होता
है। असल में
यही कसौटी
होनी चाहिए
व्यक्ति के
समृद्ध होने
या न होने की।
यदि व्यक्ति
सचमुच ही
समृद्ध है तो
वह ऊब ही
जाएगा धन से।
यदि वह ऊबा
नहीं है तो वह
दरिद्र ही है, हो सकता
है उसके पास
धन हो, लेकिन
वह समृद्ध
नहीं—क्योंकि
समृद्ध तो जानता
ही है कि जो
कुछ भी उसके
पास है उसे
जरा भी
संतुष्ट नहीं
कर सका है। एक
गहरी बेचैनी,
रिक्तता
बनी ही है, बल्कि
अब वह और भी
घनी हो जाती
है—क्योंकि
आशा भी टूट
जाती है। गरीब
आदमी सदा आशा
रख सकता है कि
कल अच्छा
होगा। समृद्ध
कैसे आशा रख
सकता है? कल
भी यही होने
वाला है। आशा
मर जाती है।
उसके पास वह
सब है जो मिल
सकता है, कल
कुछ और ज्यादा
नहीं जोड़
देगा। एण्ड्रू
कार्नेगी जब
मरा तो वह
लाखों—करोड़ों
डालर छोड़ कर
मरा! कल और
क्या बढ़ जाएगा?
कुछ लाख और?
लेकिन वह उन
कुछ लाख
डालरों का कोई
उपयोग नहीं कर
सकता, क्योंकि
अभी भी वह
नहीं जानता कि
अपने धन का क्या
करे। पहले ही
उसके पास
जरूरत से
ज्यादा है।
असल
में जितना
ज्यादा धन
तुम्हारे पास
होता है, उतनी ही कम
कीमत होती है
धन की। धन की
कीमत निर्भर
करती है
निर्धनता पर।
गरीब व्यक्ति
की जेब में
पड़े एक रुपए
की कीमत अमीर
व्यक्ति की जेब
में पड़े एक
रुपए से बहुत
ज्यादा होती
है, क्योंकि
गरीब व्यक्ति
उसका उपयोग कर
सकता है; अमीर
व्यक्ति उसका
उपयोग नहीं कर
सकता है। जितना
ज्यादा धन
तुम्हारे पास
होता है, उतना
ही कम मूल्य
होता है उसका।
समृद्धि की एक
सीमा होती है जहां
कि धन का कोई
मूल्य ही नहीं
रह जाता, तुम्हारे
पास हो कि न हो
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता; तुम्हारा
जीवन उसी तरह
चलता रहता है।
समृद्ध
होने का अर्थ
है धन का
मूल्य न रह
जाना, तब
धन मूल्यहीन
हो जाता है।
जो घर तुम
चाहते थे, तुम्हारे
पास है, जो
कारें तुम
चाहते थे, तुम्हारे
पास हैं।
तुम्हारे पास
सब कुछ है जो तुम
चाहते थे—अब
धन कुछ नहीं, मात्र एक
गिनती है। तुम
गिनती बड़ी
करते जा सकते
हो तुम्हारे
बैंक बैलेंस
में—पर उपयोग
कुछ नहीं है।
तब अचानक ही
आशा मर जाती
है और अचानक ही
व्यक्ति पाता
है कि मैंने
पाया कुछ भी
नहीं है।
यह
समृद्ध
व्यक्ति, जिसकी बात
मैं तुम से कह
रहा था, सचमुच
ही समृद्ध था।
और वह इतना ऊब
गया अपने धन
से कि किसी
प्रज्ञावान
पुरुष की खोज
में वह अपने
महल से निकल
पड़ा; क्योंकि
वह वास्तव में
दुखी था, सचमुच
पीड़ित था। वह
थोड़ा आनंदित
होना चाहता था।
वह बहुत से
संतों के पास
गया, लेकिन
कुछ बात न
बनी।
उन्होंने
बहुत समझाया,
लेकिन कोई
भी उसे आनंद न
दे सका। और वह
आग्रह करता—वह
बहुत समझदार
आदमी रहा
होगा—वह इस
बात पर जोर
देता : 'मुझे
आनंद का अनुभव
करा दो, तो
मैं विश्वास
करूंगा।’ वह
जरूर
वैज्ञानिक—चित्त
का रहा होगा।
वह कहता, 'तुम
मुझे बातों से
ही नहीं बहला
सकते। मुझे आनंद
का अनुभव
कराओ—कहां है
वह। अगर मैं
उसे अनुभव कर
लूं केवल तभी
मैं तुम्हारा
शिष्य हो सकता
हूं।’
अब ऐसा
गुरु खोज पाना
बहुत कठिन है
जो तुम्हें
अनुभव करा
सके। शिक्षक
हैं, हजारों
शिक्षक हैं, जो बातें कर
सकते हैं आनंद
के विषय में, लेकिन यदि
तुम उनके
चेहरों की ओर
देखो तो तुम पाओगे
कि वे तुम से
ज्यादा दुखी
हैं।
यह
अमीर व्यक्ति
एक गांव में
पहुंचा और
लोगों ने उससे
कहा, 'ही, हमारे गांव
में एक सूफी
संत है। शायद
वह कुछ मदद कर
सके। वह थोड़ा
पागल है, मनमौजी
है, तो जरा
होशियार रहना
उससे। बस जरा
होशियार रहना.
क्योंकि कोई
नहीं जानता कि
वह क्या कर
बैठेगा।
लेकिन वह है
अदभुत—तुम जाओ
उसके पास।’
वह
अमीर व्यक्ति
गया; उसने
उसे ढूंढा। वह
झोपड़ी में
नहीं था।
लोगों ने कहा
कि वह अभी— अभी
जंगल की ओर
चला गया है, तो वह भी
वहां गया।
सूफी संत बैठा
हुआ था एक बड़े
वृक्ष के नीचे,
गहरे ध्यान
में। अमीर
व्यक्ति वहां
गया, अपने
घोड़े से नीचे
उतरा। और वह
आदमी सच में
ही गहरे आनंद
में जान पड़ता
था, बहुत
मौन, बहुत
शांत। उसके
आस—पास की हर
चीज तक शांत
थी—पेड, पक्षी,
सभी कुछ।
बहुत शांत
वातावरण था; सांझ उतर
रही थी।
वह
अमीर सूफी संत
के पैरों पर
गिर पडा और
बोला, 'मालिक,
मैं आनंद
पाना चाहता हूं।
मेरे पास सब
कुछ है—सिवाय
आनंद के।’ उस
सूफी ने अपनी आंखें
खोलीं और कहा,
'मैं
तुम्हें आनंद
दूंगा, तुम
मुझे अपना धन
दिखाओ।’
बिलकुल
ठीक है बात।
यदि तुम उससे
आनंद का अनुभव
कराने को कहते
हो, तो
तुम अपना धन
दिखलाओ। उसके
पास घोड़े की
पीठ पर रखी
थैली में
हजारों हीरे
थे, क्योंकि
उसने पहले से
ही इंतजाम कर
रखा था। वह
सदा सोचता था,
'यदि किसी
के पास आनंद
है, तो वह
अपनी कीमत मांगेगा;
और कीमत
चुकानी
पड़ेगी। और
जीवन में ऐसा
कुछ नहीं है
जिसे तुम बिना
कीमत चुकाए पा
सको।’ इसलिए
वह अपने साथ
हीरे लाया था।
वे हीरे लाखों
रुपए के थे।
उसने
दे दी थैली और
कहा, 'देखो।’
तत्क्षण
उस सूफी संत ने
उसके हाथ से
थैली ले ली और
भागा। उस अमीर
व्यक्ति को
कुछ पल तो
विश्वास ही न
आया कि क्या
हो गया। जब
उसकी समझ में
बात आई तो वह
भी भागा
रोता—चिल्लाता, 'मुझे लूट
लिया!'
निश्चित
ही, सूफी
फकीर जानता था
गांव के
रास्ते, और
वह तेज दौड़
सकता था। और
वह फकीर था, मजबूत था, और वह अमीर
आदमी अपने
जीवन में कभी
किसी के पीछे
न भाग। था। तो
वह रो रहा था, चीख रहा था, चिल्ला रहा
था... और सारा
गांव इकट्ठा
हो गया, और
लोग कहने लगे,
'हमने तो
तुमसे पहले ही
कहा था : मत जाओ;
वह पागल है।
कोई नहीं
जानता कि वह
क्या करेगा।’
और गांव भर
में उत्तेजना
फैल गई। वह
अमीर आदमी
बहुत परेशान
हो गया। उसके
जीवन भर की
कमाई डूब
गई—और मिला कुछ
भी नहीं।
गांव
में चारों ओर
चक्कर लगा कर, सूफी
फकीर उसी पेडू
के नीचे लौट
आया जहां कि
घोड़ा अभी भी
खड़ा हुआ था। उसने
थैली घोड़े के
पास रख दी, पेडू
के नीचे बैठ
गया, आंखें
बंद कर लीं, और मौन हो
गया। वह अमीर
आया दौड़ता हुआ,
बुरी तरह
हाफता हुआ, पसीने से
लथपथ, आंसू
बह रहे
थे—उसका सारा
जीवन दाव पर
लगा था। फिर अचानक
उसने देखा कि
थैली तो पडी
है घोड़े के
पास. उसने उसे
उठा कर हृदय
से लगा लिया, नाचने लगा, इतना खुश हो
गया.!
सूफी
फकीर ने अपनी आंखें
खोलीं और कहा, 'देखो!
क्या मैंने
तुम्हें कुछ
अनुभव दिया कि
आनंद क्या
होता है?'
तुम्हें
दुख को जानना
होता है, केवल तभी
तुम जानते हो
कि आनंद क्या
है। तुम्हें
जरूरत होती है
एक पृष्ठभूमि
की। प्रत्येक
अनुभव एक
अनुभव बनता
है—पृष्ठभूमि
के विपरीत
में। बुद्ध को
संसार में आना
पड़ता है, यह
अनुभव करने के
लिए कि वे
बुद्ध हैं।
तुम्हें आना
पड़ता है संसार
में और पीड़ा
भोगनी पड़ती है,
यह जानने के
लिए कि तुम
कौन हो। इसके
बिना कहीं कोई
संभावना नहीं
है।
तुम
उसी अवस्था
में हो, जिसमें कि
वह अमीर
था—दौड़ रहा
सूफी संत के
पीछे; हर
चीज लुट चुकी;
चीख रहा और
रो रहा। मैं
देख सकता हूं :
हर चीज लुट
चुकी है; तुम
दौड़— भाग रहे
हो संसार के
इस गाव में।
रास्ते मालूम
नहीं, तुम
लुट भी चुके
हो। तुम एकदम
अंतरतम तक
दुखी हो, पीड़ित
हो। दौड़ना, दौड़ना और
दौड़ना. एक दिन
तुम लौट आओगे
वृक्ष की ओर; तुम फिर से
पा लोगे थैली।
तुम नाच उठोगे;
तुम
आनंदमग्न हो
जाओगे। तुम
कहोगे, 'अब
मैं जानता हूं
कि आनंद क्या
है।’
संसार
एक आवश्यक
अनुभव है। वह
एक पाठशाला
है। तुम्हें
गुजरना होता
है उसमें से।
स्वयं को जानने
के पहले स्वयं
को खोना होता
है। और दूसरा
कोई उपाय नहीं
है; वही
एकमात्र
मार्ग है। इस
विषय में कुछ
नहीं किया जा
सकता। और कोई
उपाय नहीं है।
ही, इसीलिए।
क्योंकि तुम
बुद्ध हो, इसीलिए
तुम दुख में
हो। क्योंकि
तुम बुद्ध हो,
इसीलिए तुम
बेहोशी में
हो। तुम किसी भी
दिन वापस घर आ
सकते हो। यह
तुम पर निर्भर
है; तुम्हें
निर्णय लेना
है और वापस
लौट आना है स्रोत
तक।
ईसाइयत
में एक शब्द
को बहुत गलत
समझा गया है और
वह शब्द है 'रिपेंट', पश्चात्ताप।
जो मूल हिलू
शब्द है 'रिपेंट'
के लिए उसका
अर्थ 'रिटर्न'
है, रिपेंट
नहीं। वही है
एकमात्र
पश्चात्ताप, यदि तुम लौट
आओ। लेकिन उसे
रिपेंट की
भांति लेने से
सारी बात ही
खतम हो जाती
है।
मुसलमानों के
पास इसी तरह
का एक शब्द है 'तोबा'।
तोबा का अर्थ
होता है :
लौटना। उसका
अर्थ है. 'स्रोत
पर लौट आना।’ तोबा भी
पश्चात्ताप
जैसा लगता है;
उसका अर्थ
भी पश्चात्ताप
नहीं है।
जैनों के पास
भी एक शब्द है : वे उसे
कहते
हैं—प्रतिक्रमण;
उसका भी
अर्थ है
लौटना।
कुल
बात इतनी है
कि उस स्रोत
तक वापस कैसे
लौट जाओ जहां
से तुम आए हो।
और यही है
ध्यान की सारी
प्रक्रिया :
लौट आना, स्रोत तक
वापस लौट आना
और उसमें
केंद्रित हो जाना।
तुम
बुद्ध हो, तुम
बुद्ध ही थे, तुम बुद्ध
ही
रहोगे—लेकिन
बुद्धत्व की
तीन अवस्थाएं
होती हैं :
पहली, जब
कि तुमने उसे
खोया नहीं
होता—बुद्ध का
बचपन; फिर
तुम खोज करते
हो उसकी—बुद्ध
का यौवन; फिर
पा लेते हो
उसे—प्रौढ़ावस्था।
प्रत्येक बच्चा
बुद्ध है, प्रत्येक
युवा खोजी है
और प्रत्येक
वृद्ध को—यदि
चीजें ठीक—ठीक
विकसित हों तो—पुन:
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाना चाहिए।
इसीलिए हम
पूरब में
वृद्ध
व्यक्तियों
का इतना ज्यादा
सम्मान करते
हैं और उन्हें
इतनी प्रतिष्ठा
देते हैं। यदि
हर बात ठीक
चले तो वृद्ध
का अर्थ होता
है वह जो
स्रोत पर लौट
आया।
बच्चे
के पास एक
निर्दोषता
होती है, लेकिन उसे
उसका होश नहीं
होता, क्योंकि
वह उसके पास
जन्म से ही
होती है। कैसे
वह उसके प्रति
सजग हो सकता
है? उसे
अनुभव चाहिए
विपरीत का; केवल तभी वह
सजग होगा। और
तब वह फिर से
उसमें लौट
चलने की
अभीप्सा से भर
उठेगा : हर कोई
फिर से बच्चा
हो जाना चाहता
है, उतना
निर्दोष हो
जाना चाहता
है। वह अनुभव
इतना अदभुत था,
अपूर्व था।
लेकिन
उस समय वह
उतना अपूर्व न
था! जरा पीछे
लौटो अपने
बचपन में। उसे
केवल याद मत
करो—उसे जीओ
फिर से। वह एक
पीड़ा थी। कोई
बचपन सुखी
नहीं होता :
प्रत्येक
बच्चा बड़ा हो
जाना चाहता
है—जवान, बड़ा, शक्तिशाली—प्रत्येक
बच्चा।
क्योंकि
प्रत्येक
बच्चा स्वयं
को असहाय
अनुभव करता
है। वह नहीं
जानता कि उसके
पास क्या है।
कैसे जान सकते
हो तुम, यदि
तुमने उसे
खोया ही न हो? उसे
निर्दोषता
खोनी होगी.
उसे चालाक
संसार में
जीना होगा; उसे नरक में
गहरे उतरना
होगा। वह साधु
था, लेकिन
वह साधुता कोई
उपलब्धि न थी।
वह केवल प्रकृति
की भेंट थी।
और यदि
तुम्हें
प्रकृति द्वारा
कोई चीज दी
जाती है, तो
तुम उसका
मूल्य नहीं
समझ सकते।
इसीलिए तुम
कोई कृतज्ञता
अनुभव नहीं
करते।
मैंने
एक सूफी कहानी
सुनी है। एक
आदमी एक सूफी
फकीर के पास
आया और कहने
लगा, 'मैं
निराश हूं और
मैं
आत्महत्या कर
लूंगा। मैं
नदी में डूबने
जा ही रहा था
कि मैंने आपको
किनारे पर
बैठे हुए
देखा। मैंने
सोचा, क्यों
न एक आखिरी
कोशिश कर ली
जाए! मैं
जानना चाहता
हूं कि आप
क्या कहते हैं।’
उस
सूफी फकीर ने
कहा, 'तुम
इतने निराश
क्यों हो?'
वह
आदमी कहने लगा, 'मेरे पास
कुछ नहीं है, इसीलिए मैं
निराश हूं —एक
पैसा भी नहीं
है मेरे पास।
मैं संसार का
सब से गरीब
आदमी हूं और
मैं बहुत दुखी
हूं। और हर
चीज में इतनी मुसीबत
है—मैं थक गया
हूं। बस मुझे
आशीर्वाद दें
कि मैं मर सकु
क्योंकि मेरी
किस्मत इतनी
खराब है कि जो
कुछ भी मैं
करता हूं मैं
हमेशा असफल
होता हूं।
मुझे डर है कि
आत्महत्या
में भी मैं
असफल ही
होऊंगा।’
सूफी
फकीर ने कहा, 'तुम थोड़ा
रुको। अगर
तुम्हें
आत्महत्या
करनी ही है और
तुम कहते हो
कि तुम्हारे पास
कुछ नहीं है, तो बस मुझे
एक दिन का समय
दो। कल मैं सब
संभाल लूंगा।’
दूसरे
दिन सुबह वह
उसे सम्राट के
पास ले गया। वह
सम्राट शिष्य
था सूफी फकीर
का। वह गया
महल में, बात की
सम्राट से, वापस आया, उस आदमी को
सम्राट के पास
ले गया और उस
आदमी से कहा, 'सम्राट
तैयार है
तुम्हारी
दोनों आंखें
खरीदने के
लिए। और जो भी
कीमत तुम
मांगो, वह
देगा।’
उस
आदमी ने कहा, 'क्या कह
रहे हैं आप? क्या मैं
पागल हूं जो
अपनी आंखें
बेचूं?'
सूफी
ने कहा, 'तुमने कहा
कि तुम्हारे
पास कुछ नहीं
है। अब जो भी तुम
मांगो, जितनी
भी कीमत—लाख
रुपए, दो
लाख रुपए, दस
लाख रुपए, करोड़
रुपए—राजा
तैयार है आंखें
खरीदने के
लिए। और अभी
कुछ घंटे पहले
ही तुम कह रहे
थे कि
तुम्हारे पास
कुछ नहीं
है—और तुम आंखें
बेचने के लिए
तैयार नहीं? और तुम तो
आत्महत्या
करने जा रहे
थे। और मैंने सम्राट
को राजी कर
लिया है
तुम्हारे कान
खरीदने के लिए
भी, तुम्हारे
दात भी, हाथ,
पैर—सब
खरीदने के
लिए। तुम मांग
लो कीमत। और हम
हर चीज कांट
लेंगे और पैसा
तुम्हें दे
देंगे। तुम
संसार के
सर्वाधिक धनी
व्यक्ति हो
जाओगे।’
उस
आदमी ने कहा, 'मैं तो
सोच रहा था कि
आप संत—पुरुष
हो—आप तो
हत्यारे
मालूम पड़ते
हो!' वह
आदमी भाग गया।
उसने कहा, 'कौन
जाने, अगर
मैं महल जाऊं
और राजा भी
इसी की तरह
पागल हो और वे
लोग मेरी आंखें
निकालने
लगें......।’ वह भाग गया, लेकिन पहली
बार उसे लगा
कि कितनी कीमत
है आंखों की!
लेकिन
तुम कभी
अनुगृहीत नहीं
हुए उनके लिए।
तुमने कभी
परमात्मा को
धन्यवाद नहीं
दिया कि तुम
जीवित हो। यदि
तुम अभी मरने
वाले होओ और
कोई तुम्हें
एक दिन और दे
दे, तो
तुम कितनी
कीमत चुकाने
के लिए तैयार
हो जाओगे? तुम
सब कुछ देने
के लिए तैयार
हो जाओगे।
लेकिन तुमने
कभी धन्यवाद
नहीं दिया, क्योंकि
तुम्हें जीवन
मुफ्त मिला
है। तुमने उसे
उपहार के रूप
में पाया है, और कोई
मूल्य नहीं
समझता
उपहारों का।
बचपन
एक उपहार है।
निर्दोषता
होती है, लेकिन बच्चे
को होश नहीं
होता। उसे इसे
खोना ही होगा।
जब वह उसे खो
देगा—अपने
यौवन में वह
भटकेगा; संसार
के रंग—ढंग में
खो जाएगा; बिलकुल
खो जाएगा
अंधेरों में,
निर्दोष न
रहेगा, गंदा
हो जाएगा—तब
वह आकांक्षा
करेगा। तब वह
जानेगा कि
उसने क्या खो
दिया है। और
तब वह जाएगा
चर्चों में और
मंदिरों में और
हिमालय की ओर,
और तलाश
करेगा गुरुओं
की—और वह कुछ
और नहीं मांग
रहा है; वह
केवल इतना ही
मांग रहा है
मेरी
निर्दोषता
मुझे वापस लौटा
दो। और अगर
चीजें ठीक
—ठीक विकसित
हों और व्यक्ति
साहसी हो, तो
अंत में, जब
कि वह मरने के
करीब होता है,
वह फिर से
उस निर्दोषता
को उपलब्ध कर
लेता है।
लेकिन
जब एक वृद्ध
व्यक्ति फिर
से बच्चे जैसा
निदोंष हो
जाता है तो
बिलकुल ही अलग
बात होती है।
यही है संत की
परिभाषा : एक
वृद्ध
व्यक्ति का
फिर से बच्चा
हो जाना, निर्दोष हो
जाना। लेकिन
उसकी
निर्दोषता की
एक अलग ही
गुणवत्ता
होती है, क्योंकि
वह जानता है
अब कि वह खो
सकती है; और
वह जानता है
अब कि जब वह खो
जाती है तो
व्यक्ति बहुत
भयंकर पीड़ा
भोगता है। अब
वह जानता है
कि बिना इस
निर्दोषता के
हर चीज नरक बन
जाती है। अब
वह जानता है
कि यही
निर्दोषता ही
एकमात्र आनंद
की अवस्था है,
एकमात्र
मुक्ति है।
ऐसा ही
घटता है
तुम्हारी
सजगता के साथ.
तुम्हारे पास
वह होती है, फिर तुम
खो देते हो
उसे, फिर
तुम वापस पा
लेते हो उसे।
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
इसीलिए जीसस
कहते हैं, 'जब
तक तुम बच्चे
जैसे नहीं हो
जाते, तुम
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश न कर
पाओगे।’
वही है
लौटना; वर्तुल पूरा
हो जाता है।
भूल जाओ 'रिपेंट'
शब्द को, उसके स्थान
पर लाओ 'रिटर्न'
को, और
ईसाइयत अपराध—
भाव से मुक्त
हो जाएगी। इस
रिपेंट शब्द
ने ही सारा
दुख निर्मित
कर दिया है।
वापस लौटना
सुंदर है; पश्चात्ताप
एक कुरूप घटना
है। और धर्म
को तुम में
कोई अपराध—
भाव नहीं
निर्मित करना
चाहिए उसे
साहस निर्मित
करना चाहिए।
अपराध— भाव
निर्मित करता
है भय। और घर
लौट आने के
लिए जिस एक
चीज की जरूरत
होती है वह
है—साहस—निर्भयता।
छठवां
प्रश्न :
क्या
मादक
द्रव्यों की
सहायता से कोई
अचानक छलांग
लगा सकता है?
नहीं। वह
मादक द्रव्य
की छलांग होगी, तुम्हारी
नहीं; और
सवाल
तुम्हारी
छलांग का है, मादक द्रव्य
की छलांग का
नहीं। मादक
द्रव्यों को बुद्धत्व
की तलाश नहीं
है; वे
वैसे ही
बिलकुल ठीक
हैं जैसे वे
हैं। यदि तुम
मादक द्रव्य
लेते हो, और
तुम्हें कुछ
होता है, तो
वह वास्तव में
उन मादक
द्रव्यों को
ही घट रहा
होता है, तुमको
नहीं। वह केवल
शरीर के रसायन
को ही घट रहा
होता है, तुम्हारी
चेतना को
नहीं। यह एक
स्वप्निल घटना
होती है—एक
कल्पना—जाल।
और
कभी—कभी यह
घटना सुंदर
होती है—ध्यान
रहे, कभी—कभी।
कई बार तो यह
नरक बन सकती
है। यह निर्भर
करता है।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
मादक द्रव्य
केवल
तुम्हारे
शरीर के रसायन
को बदल सकता
है, लेकिन
यदि तुम्हारा
मन नरक से
गुजर रहा है, तो मन अब भी
गुजरता रहेगा
नरक से। अब
नरक ज्यादा
भयंकर होगा, बस इतना ही; क्योंकि अब
रसायन अलग है।
तुम जाओगे नरक
ही, लेकिन
अब तुम ज्यादा
तेज चलोगे।
मादक द्रव्य तुम्हें
गति दे सकता
है। तो मादक
द्रव्यों को 'स्पीड' कहना
ठीक ही है; वे
केवल तेजी
देते हैं और
कुछ भी नहीं।
यदि तुम सुंदर
और अच्छा
अनुभव कर रहे
थे, तो तुम
अच्छा अनुभव
करोगे—और
प्रगाढ़ता से।
तो भी वे
तुम्हें बदल
नहीं सकते। जो
कुछ तुम हो—तुम
वही रहोगे।
और
खतरा यह है कि
तुम उनके
द्वारा धोखे
में पड़ सकते
हो। और एक बार
तुम धोखे में
आ जाते हो और
तुम सोच लेते
हो कि 'यह
आनंद की मस्ती
है, यही तो
है जिसकी
जरूरत थी', तो
तुम भटक जाते
हो। तब तुम
सोचोगे सदा
उन्हीं
सीमाओं में :
कि मादक
द्रव्य ले लो
और अनुभव कर
लो परमात्मा
को!
तुम
कुछ अनुभव
नहीं कर रहे
हो, क्योंकि
परमात्मा अनुभव
की बात ही
नहीं है। वह
है सभी
अनुभवों की समाप्ति।
जब सारे विषय
मिट जाते
है—अनुभव एक विषय
है—और जब केवल
स्वयं का
शुद्ध होना
मात्र बचता है,
केवल चेतना
बचती है—जानने
को कुछ नहीं
होता, केवल
जानने वाला ही
होता है—तो
परमात्मा
होता है।
परमात्मा कोई
विषय नहीं है;
परमात्मा
है विशुद्ध
बोध। उसे कोई
मादक द्रव्य
तुम्हें नहीं
दे सकता है।
सातवां
प्रश्न :
क्या
मेरा यह
अनुमान ठीक है
कि आपकी
यात्रा क्रमिक
बुद्धत्व की
रही? जब
बुद्धत्व
घटित हुआ तो
क्या आपने
नृत्य किया?
मैं अभी भी
नृत्य कर रहा
हूं। यदि
तुम्हारे पास
दृष्टि है तो
तुम देख सकते
हो। यदि
तुम्हारे पास
दृष्टि नहीं
है तो मैं
क्या कर सकता
हूं?
और
बुद्धत्व
क्रमिक नहीं
होता; बुद्धत्व
सदा अचानक ही
होता है। तुम
क्रमिक रूप से
तैयार हो सकते
हो, तुम
अचानक तैयार
हो सकते हो, लेकिन
बुद्धत्व सदा
अचानक ही होता
है। वह घटता है
क्षण में। ऐसा
नहीं है कि
कोई पचास
प्रतिशत
बुद्ध है, कि
साठ प्रतिशत
बुद्ध, कि
सत्तर
प्रतिशत
बुद्ध—नहीं।
अभी क्षण भर
पहले कोई सौ
प्रतिशत
अबुद्ध था, और क्षण भर
बाद वह सौ
प्रतिशत
बुद्ध हो जाता
है। वह अचानक
ही घटता है, अन्यथा तो
डिग्रियां
होतीं। कोई
डिग्रियां नहीं
होतीं।
वह
मृत्यु की
भांति है.
मृत्यु क्षण
में ही घटती
है। तुम नहीं
कह सकते कि
कोई आदमी आधा
मृत है। यदि
आधा मृत लगता
भी है तो भी वह
जीवित है; वह केवल
वैसा दिखता
है। कोई आदमी
बेहोश हो सकता
है, कोमा
में हो सकता
है, लेकिन
तब भी वह पूरा
जीवित है, आधा
मृत नहीं। या
तो तुम मृत
होते हो और या
तुम जीवित
होते हो। और
कोई ढंग होता
नहीं—या तो यह या
वह। बुद्धत्व
सदा अचानक ही
होता है।
और
तैयारी? यह बहुत ही
सूक्ष्म बात
है समझने की.
तैयारी बुद्धत्व
के लिए नहीं
होती, तैयारी
होती है
तुम्हारे
साहस के लिए।
साहसी
व्यक्ति तो
इसे बिलकुल
अभी उपलब्ध कर
सकता है, कायर
को वर्षों
लगेंगे स्वयं
को तैयार करने
में। सारी
समस्या भय की
है। यदि भय
गिर जाए, तो
तुम मुक्त हो
ही। यदि तुम
अपने भय को
पालते—पोसते
रहते हो, तो
तुम कभी मुक्त
नहीं होओगे।
इसलिए
अपने चित्त
में इसे
स्पष्ट कर लो
कि बुद्धत्व
के लिए कोई
तैयारी नहीं
चाहिए; सारी तैयारी
केवल इसीलिए
है क्योंकि
तुम भयभीत हो।
तो यह तुम पर
निर्भर करता
है। जब भी तुम निर्णय
करो भय को
गिरा देने का,
यह घट सकता
है।
जो
पाना है वह
तुमसे बाहर
नहीं है; तुम पहले से
ही अपने साथ
उसे लिए हुए
हो। यह बच्चे
के जन्म जैसा
ही है : एक
स्त्री
गर्भवती होती
है—बच्चा होता
ही है वहां, धड़क रहा, जीवंत,
हाथ—पैर चला
रहा—लेकिन यदि
स्त्री बहुत
ज्यादा भयभीत
है, तो
बच्चे के जन्म
में बहुत समय
लगेगा। यदि वह
बहुत ज्यादा
भयभीत है और
तनाव में है
तो जब बच्चा
गर्भ से बाहर
आना चाहेगा तो
वह अपनी सारी
यंत्र—संरचना
भय से सिकोड़
लेगी और बच्चे
को बाहर न आने
देगी। बच्चे
को बाहर आने
के लिए एक
शिथिल मार्ग
चाहिए और
स्त्री इतनी
तनावपूर्ण है
कि वह बच्चे
को बाहर न आने
देगी। और
बच्चा बाहर
आना चाहता है,
क्योंकि अब
वह यदि गर्भ
में रहा, तो
मर जाएगा। तो
बच्चा हर ढंग
से प्रयास
करेगा बाहर
आने के लिए, और स्त्री
तनावपूर्ण है;
वहा एक
संघर्ष पैदा
हो जाता है।
वह संघर्ष पीड़ा
निर्मित कर
देता है; वरना
तो बच्चे का
जन्म पीड़ा के
साथ नहीं होना
चाहिए। यह
अनिवार्य
नहीं है; उसकी
कोई आवश्यकता
नहीं है।
जरा
भारत की
पुरानी, प्राचीन
जनजातियों को
देखो। प्रसव
इतनी आसानी से,
इतने
स्वाभाविक
रूप से होता
है कि उन
लोगों ने कभी
सुना ही नहीं
है कि यह भी
कोई पीड़ा की
बात है। कोई
स्त्री खेत
में काम कर
रही होती है
और बच्चा पैदा
हो जाता
है—कोई भी नहीं
होता उसकी
देख— भाल करने
के लिए; वह
स्वयं ही अपनी
देख— भाल कर
लेगी। वह
बच्चे को लिटा
देगी वृक्ष के
नीचे, अपना
दिन भर का काम
करेगी—घर वापस
जाने की भी कोई
जल्दी नहीं
होती—फिर शाम
को बच्चे को
लेकर घर चली
जाएगी। बड़ी
सीधी बात, एकदम
सहज, जैसा
कि जानवरों
में होता
है—कोई समस्या
नहीं होती।
मां पैदा कर
देती है
समस्या। मां
तनाव से भरी
होती है, भयभीत
होती है। वह
तनाव और बच्चे
का बाहर आने का
प्रयास एक
संघर्ष पैदा
कर देता है, और तब इसमें
समय लगता है।
बच्चा
तो बाहर आने
के लिए तैयार
ही है। तुम सभी
गर्भ का समय
पूरा कर चुके
हो। जैसा कि
मैं जानता हूं
हर किसी का
नौवां महीना
है—नौ महीने
कब के पूरे हो
गए हैं। अब कुल
समस्या इतनी
है कि कैसे
थोड़े शिथिल
हों, विश्रांत
हों और बच्चे
को बाहर आने
दें और उसे
जन्म दें।
लेकिन
तुम तभी
विश्रांत हो
सकते हो यदि
तुम भयभीत
नहीं हो।
स्वीकार करो, भयभीत मत
होओ। स्वीकार
करो जीवन को।
वह मित्र है, शत्रु नहीं
है। यह सारा
अस्तित्व
हमारा घर है; तुम कोई
अजनबी नहीं हो
यहां। भूल जाओ
सब कि इस बारे
में डार्विन
क्या कहता
है—जीवित बने
रहने के लिए
संघर्ष, विजय,
प्रतिस्पर्धा।
सब बकवास है।
सुनो उन लोगों
की जो कहते हैं
कि यह हमारा
घर है, क्योंकि
वे ही ठीक
हैं। इससे
अन्यथा संभव
नहीं है।
तुम
जीवन से आए
हो—जीवन
तुम्हारे
विरुद्ध कैसे
हो सकता है? मां कैसे
विरुद्ध हो
सकती है बच्चे
के? और तुम
वापस लौट
जाओगे उसी
में। जैसे कि
कोई लहर सागर
से उठती है, सूर्य की
किरणों में
नाचती है, और
फिर वापस सागर
में गिर जाती
है। सागर कैसे
विरुद्ध हो
सकता है लहर
के? असल
में लहर की
सारी शक्ति
सागर से मिला
एक उपहार ही
है. वह ऊंची
उठती है तो
ऐसा नहीं कि 'वह' उठती
है, बल्कि
सागर ही उठता
है उसमें।
तुम
चेतना के इस
सागर में
लहरों की
भांति हो। स्वीकार
करो इसे।
अनुभव करो कि
तुम अपने घर
में हो। तुम
कोई अजनबी
नहीं हो यहां; तुम बहुत
प्रिय हो
अस्तित्व के।
और फिर, अचानक
ही, तुम
साहस जुटा
लेते हो, क्योंकि
कोई भय नहीं
रहता।
बुद्धत्व
सदा अचानक
घटता है। यदि
तुम्हें क्रमिक
रूप से बढ़ना
पड़ता है तो
अपने बंद, संदेहशील
और भयभीत मन
के कारण ही।
आठवां
प्रश्न :
मुझे
पागल बनाना
आपको अच्छी
तरह आता है।
अब बुद्धत्व
भी पर्याप्त न
रहा। नहीं उसे
अचानक ही होना
है वरना हम
चूक जाएंगे
कुछ! यदि मुझे
कभी ईश्वर
मिला तो मैं
उसे गोली मार
दूंगा आप मुझ से
संतुलन बनाए
रखने की आशा
कैसे करते हैं
जब आप पहले तो जोर
देते हैं
बुद्धत्व को
बिलकुल भूल
जाने पर स्वाभाविक
रहने पर और
अगर कुछ करना
ही है तो वह है
धैर्य का
अभ्यास और फिर
अचानक मुझे एक
चरण में ही
सात चरण कूद
जाने है—
साहसी होना है
और छलांग लगा
देनी है? क्या यह
सब इसीलिए है
कि हम एक घोर
निराशा में
डूब जाएं?
अवश्य ही!
और मैं
भी तुम से यही
कहूंगा कि जब
भी तुम्हारा
ईश्वर से
मिलना हो, तो उसे
गोली मार देना,
क्योंकि
वही अंतिम
अवरोध होगा।
तुरंत उसे गोली
मार देना, ताकि
तुम अकेले ही
बच रहो अपने
अकेलेपन में,
अन्यथा वही
बन जाएगा एक
संसार, एक
अनुभव।
और तुम
ठीक समझे, सारी बात
है तुम्हें
पागल कर देने
की। इतने पागल
हो जाओ कि तुम
थक जाओ अपने
पागलपन से और
अचानक छलांग
लगा दो उसके
बाहर; वरना
तो तुम कभी
छलांग नहीं
लगाओगे। यदि
तुम अपने
पागलपन में
चैन से हो तो
कैसे तुम बाहर
आओगे उससे? तो मैं सारी
स्थिति को
इतनी
निराशाजनक
बना दूंगा, इतने गहनरूप
से निराशाजनक,
कि तुम अपने
आवरण से बाहर
आ जाओ—और तुम
मुक्त हो।
अंतिम
प्रश्न:
मैने
परम शून्य
केंद्र को
अनुभव कर लिया
है जहां से
सारा
अस्तित्व आता
है और साथ ही
उस आनंद को भी
जिसकी आप बात
करते हैं यदि
मैं पूछूं........
यदि
तुमने परम
शून्य को
अनुभव कर लिया
है, तो
पूछने की
जरूरत ही क्या
है? कोई 'यदि' नहीं
होता, अगर
तुमने अनुभव
कर लिया होता
है। अगर तुम
पूछते हो तो
शायद तुमने
कल्पना कर ली
है कि तुमने शून्य
की अवस्था का
अनुभव कर लिया
है—क्योंकि शून्य
की अवस्था से
कोई प्रश्न
नहीं उठते। उठ
नहीं सकते, कोई संभावना
नहीं है। कौन
उठाएगा
प्रश्न शून्य
की अवस्था में?
एक बार तुम
उस शून्य को, उस रिक्तता
को जान लेते
हो, तो फिर
कोई चीज नहीं
उठती।
तुमने
जरूर कल्पना
कर ली होगी।
और ऐसा होता
है : इससे पहले
कि कोई उस
अवस्था को
उपलब्ध होता है, वह बहुत
बार कल्पना कर
लेता है—अपनी
आकांक्षा के
कारण। निरंतर
मुझे
सुनते—सुनते
तुम एक आकांक्षा
बना लेते हो.
कि कैसे
बुद्धत्व को
उपलब्ध हों, कैसे सारी
पीड़ा से
मुक्ति मिले।
वह आकांक्षा
स्वप्न
निर्मित कर
देगी। यदि
आकांक्षा
बहुत गहरी है,
तो इतने
जीवंत सपने
निर्मित कर
देगी कि वे
वास्तविक
मालूम
पड़ेंगे। वे
ज्यादा
वास्तविक
मालूम होंगे
साधारण
वास्तविकता से,
और तब तुम
समझोगे कि
तुमने अनुभव
किया। नहीं।
यदि
शून्य का
अनुभव होता है, तो सारे
प्रश्न गिर
जाते हैं—ऐसा
नहीं है कि तुम
उत्तर पा लेते
हो। किसी
प्रश्न का कभी
कोई उत्तर नहीं
मिलता।
क्योंकि
प्रश्न होते
ही निरर्थक
हैं। उनका
उत्तर पाया
नहीं जा सकता।
सारे प्रश्न
निरर्थक होते
हैं। जब मैं
ऐसा कहता हूं
तो मेरा मतलब
है : अगर कोई
पूछे, 'लाल
रंग की सुगंध
कैसी होती है?'
तो यह
प्रश्न
व्याकरण की
दृष्टि से तो
ठीक लगता है, लेकिन यह
व्यर्थ है, क्योंकि लाल
रंग या कोई भी
रंग हो, उसका
सुगंध से कोई
संबंध नहीं
है। अगर कोई
पूछता है : 'लाल
रंग की सुगंध
कैसी होती है?'
तो यह बात
व्यर्थ है।
सारे
प्रश्न
निरर्थक हैं; इसलिए
उन्हें हल
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। एक बार
तुम मौन हो
जाते हो, परिपूर्ण
मौन, तो
तुम अचानक समझ
लेते हो सारे
प्रश्नों की
व्यर्थता
को—और सारी
दार्शनिक
धारणाओं की
व्यर्थता को,
क्योंकि
सभी दर्शन इस
धारणा पर
निर्भर करते हैं
कि प्रश्न
उत्तर दिए
जाने जैसे
हैं।
नहीं।
तुम कल्पना कर
सकते हो, जब तुम
कल्पना कर
लेते हो तब
ऐसा ही होगा।
'मैंने परम
शून्य केंद्र
को अनुभव कर
लिया है जहां
से सारा
अस्तित्व आता
है, और साथ
ही उस आनंद को
भी जिसकी आप
बात करते हैं।
यदि मैं पूछूं
कि बुद्धत्व
में छलांग
लगाने के लिए
मैं क्या
करूं...?'
लेकिन
अब इसकी जरूरत
क्या है? तुम कहते हो
कि तुमने
अनुभव कर लिया
है शून्य केंद्र
को। तुम कहते
हो कि तुमने
पा लिया है और
अनुभव कर लिया
है आनंद की
अवस्था को।
यही है बुद्धत्व।
अब कोई भी
छलांग इससे
बाहर छलांग
होगी। तो कृपा
करके, छलांग
मत लगाना। अब
छलांग लगाना
खतरनाक होगा।
तुम फिर से
संसार में
छलांग लगा
दोगे। यह सांसारिक
लोगों के लिए
है जिन्हें
मैं झकझोर रहा
हूं—'बुद्धत्व
में छलांग लगा
दो'—बुद्धों
के लिए नहीं, जिन्होंने
कि पा लिया
है। उन्हें
छलांग नहीं लगानी
है। उन्हें
बचना है हर
छलांग से और
छलांग लगाने
के हर प्रलोभन
से, वरना
तो वे वापस
कूद जाएंगे
संसार में, और झंझट फिर
से खड़ी हो
जाएगी।
ध्यान
रहे, कल्पना
के शिकार मत
हो जाना।
कल्पना बहुत
चालें चल सकती
है—केवल
तुम्हारे साथ
ही नहीं, वह
हर किसी के
साथ चालें
चलती है। जो
कुछ भी तुम
चाहो, वह
तुम्हें वही
प्रदान कर
सकती है।
ऐसा
हुआ. मुल्ला
नसरुद्दीन ने जहाज
की नौकरी के
लिए
दरख्वास्त
दी। उसका इंटरव्यू
हुआ। जो आदमी
इंटरव्यू लें
रहा था, उसने पूछा, 'यदि तूफान आ
जाए तो तुम
क्या करोगे?'
उसने
कहा, 'मैं
लंगर डाल
दूंगा।’
उस
व्यक्ति ने
कहा, ' और
दूसरा तूफान आ
जाए, पहले
से भी तेज, तो
तुम क्या
करोगे?'
उसने
कहा, 'मैं
दूसरा लंगर
डाल दूंगा।’
इसी
तरह बातें बढ़ती
गईं।
'दसवां
तूफान।’
और
नसरुद्दीन ने
कहा, 'मैं
एक और लंगर
डाल दूंगा।’
उस
व्यक्ति ने
कहा, 'लेकिन
इतने लंगर तुम
ला कहा से रहे
हो?'
उसने
कहा, 'जहां
से तुम तूफान
ला रहे हो, वहीं
से!'
आज इतना
ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें