अध्याय
65
भव्य
लयबद्धता
जो
ताओ का अनुगमन
करना जानते थे,
उन
पूर्व-पुरुषों
ने लोगों को
ज्ञानी बनाने
का इरादा नहीं
किया;
बल्कि
वे उन्हें
अज्ञानी ही
रखना चाहते
थे।
कारण
है कि लोगों
के लिए शांति
में रहना कठिन
है,
अतिशय
ज्ञान के
चलते।
जो
ज्ञान से किसी
देश पर शासन
करना चाहते
हैं, वे
राष्ट्र के
अभिशाप हैं।
जो
ज्ञान से देश
पर शासन करना
नहीं चाहते, वे
राष्ट्र के
वरदान हैं।
जो
इन दोनों
सिद्धांतों
को जानते हैं
वे प्राचीन
मानदंड को भी
जानते हैं,
और
प्राचीन
मानदंड को सदा
जानना ही
रहस्यमय
सदगुण कहाता
है।
जब
रहस्यमय
सदगुण स्पष्ट, दूरगामी
बनता है,
और
चीजें अपने
उदगम को लौट
जाती हैं;
तब, और
तभी, उदय
होता है भव्य
लयबद्धता का।
ज्ञान
और ज्ञान में
बड़ा भेद है।
एक तो
ज्ञान है जो
तुम्हें
बिलकुल मिटा
जाता है, भीतर
बच रहती है एक
गहन शांति, एक निबिड़
मौन। सब स्वर
खो जाते हैं, सब विचार
विलीन हो जाते
हैं; रह
जाता है मौन
संगीत। इस
शून्य की तरफ
जो ज्ञान ले
जाए वह ज्ञान
और। उस ज्ञान
को ही लाओत्से
अज्ञान कहता
है। क्योंकि
जिसे तुम
ज्ञान कहते हो,
अगर वही
ज्ञान है, तो
जिसे लाओत्से
ज्ञान कहता है
उसे अज्ञान ही
कहना उचित है।
क्योंकि वहां
कुछ भी तो
जानने को बचता
नहीं, न
जानने वाला ही
बच रहता है।
जानने का
उपद्रव ही
समाप्त हो
जाता है। इतनी
परिपूर्ण
शून्यता होती
है जैसे आकाश
हो बिना
बदलियों का।
विचार तो
बादलों की
भांति हैं। वे
आकाश नहीं हैं;
आकाश में उठ
गया उत्पात
हैं। जहां
विचार ही नहीं
हैं वहां ज्ञान
कैसे होगा?
इसलिए
लाओत्से उसे
अज्ञान कहता
है।
तुम
चाहो तो उसे
परम ज्ञान कह
सकते हो। शब्द
में मत उलझ
जाना। और
लाओत्से का
शब्द बिलकुल
ठीक है।
अज्ञान का
अर्थ है: जहां
कोई ज्ञान की
तरंग नहीं रह
गई;
अभाव हो गया
जानने का। और
जहां जानना
बिलकुल मिट
जाता है वहीं
तो पहली दफा
जानने की
वास्तविक
क्षमता का उदय
होता है।
क्योंकि उसी
शून्य में तो
सत्य की परख
आती है। और
उसी रिक्तता
में ही तो
उतरता है
परमात्मा।
उसी द्वार पर
तो दस्तक पड़ती
है प्रभु की
जिस द्वार के
भीतर सन्नाटा हो
जाता है। जब
तक भीतर
शोरगुल है तब
तक शोरगुल ही
तो उसे भीतर न
आने देगा। और
जब तक भीतर
बहुत-बहुत
बदलियां घिरी
हैं तब तक तुम
अंतर-आकाश को
कैसे जान
पाओगे?
दूसरा
ज्ञान है जिसे
हम ज्ञान कहते
हैं। वह ज्ञान
तुम्हारे
भीतर किसी
शून्यता से
नहीं जन्मता, वरन
विपरीत शब्दों
से, सिद्धांतों
से, शास्त्रों
से तुम अपने
को भर लेते
हो। उसे भरेपन
को भी ज्ञान
हम कहते हैं।
तो एक
तो ज्ञान है
शून्यता का, और
एक ज्ञान है
शब्दों के
भराव का। जैसे
आकाश बादलों
से इतना घिर
गया कि अब
कहीं से कोई
नील-आकाश
दिखाई नहीं
पड़ता। सब तरफ
बदलियां ही
बदलियां घिरी
हैं। ऐसे ही
जब तुम्हारे
भीतर जानकारियों
की पर्तें ही
पर्तें हो
जाती हैं तब
तुम लगते तो
हो कि बहुत
जानकार हो, और तुम जैसा
अज्ञानी कोई
भी नहीं होता।
जानते बहुत हो
और जानते कुछ
भी नहीं। ऐसी
गति होती है।
बताना चाहो तो
बहुत बता सकते
हो, शास्त्र
तुम्हें
कंठस्थ हो
जाते हैं, लेकिन
तुम्हारे
जीवन में कहीं
वह सुरभि नहीं
उठती जो
ज्ञानी के
जीवन में उठनी
चाहिए। तुम्हारे
पास मुर्दा
शब्द होते
हैं। मरघट और
लाशें तुमने
इकट्ठी कर
लीं। तुम उस
मूल स्रोत तक
नहीं पहुंचे
जहां भीतर
ज्ञान का
आविर्भाव होता
है। तुमने तो कचरा
बटोर लिया राह
के किनारे से।
दूसरों ने छोड़ी
थी जो जूठन, उसे तुमने
इकट्ठा कर
लिया। वे
कितने ही
सुंदर शब्द
हों--बुद्ध के
हों, महावीर
के हों, कृष्ण
के हों, क्राइस्ट
के हों--इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुम
उधार से कभी
भी वास्तविक
को न पा
सकोगे।
लाओत्से
कहता है, ऐसा
ज्ञान खतरनाक
है। क्योंकि
ऐसा ज्ञान तुम्हारे
और तुम्हारी
वास्तविकता
के बीच दीवार बन
जाता है। और
इस ज्ञान के
चलते तुम
धीरे-धीरे भूल
ही जाओगे कि
तुम अज्ञानी
हो। और यह
सबसे बड़ा
दुर्भाग्य
है। जो
व्यक्ति यह
भूल जाए कि मैं
अज्ञानी हूं,
उसके ज्ञान
की तरफ जाने
का मार्ग ही
सदा के लिए खो
गया। अज्ञान
की स्मृति बनी
रहे तो तुम
यात्रा करते
रहोगे खोज की।
तुम चेष्टा
करोगे, उठोगे,
चलोगे; कुछ
उपाय करोगे।
अगर
तुम्हें यह
खयाल हो गया
कि तुमने तो
जान लिया...। और
कितनी सरलता
से यह खयाल
नहीं हो जाता है!
पढ़ लिए उपनिषद, वेद,
गीता; आ
गया खयाल कि
जान लिया; दोहराने
लगे शब्द बासे,
तोतों की
तरह, रटने
लगे। रटन
बिलकुल
व्यवस्थित हो
गई, कहीं
कोई भूल-चूक
नहीं है
तुम्हारी रटन
में। तुम वे
ही शब्द
दोहराते हो जो
कृष्ण
दोहराते हैं।
कृष्ण से भला
भूल-चूक हो
जाए, तुमसे
नहीं होती।
क्योंकि
कृष्ण ने तो
पहली ही बार
दोहराए थे, कोई और
रिहर्सल का
मौका तो मिला
न था। और तुमने
तो बहुत बार
दोहराए हैं; रिहर्सल ही
रिहर्सल चलता
रहा है। कृष्ण
अगर फिर से
कहेंगे गीता
तो बड़ी भिन्न
हो जाएगी। कहां
याद किए बैठे
रहेंगे कि
क्या कहा था
अर्जुन से!
बड़े रूपांतरण
हो जाएंगे।
अर्जुन भी बदल
चुका होगा; कृष्ण भी
बदल चुके
होंगे; परिस्थिति
भी नयी हो गई
होगी। कृष्ण
अगर फिर से
गीता कहेंगे
तो तुम्हारी
गीता से उसका
तालमेल न के
बराबर होगा।
लेकिन तुम जो
गीता याद किए
बैठे हो वह
कभी न बदलेगी।
संसार बदलता
रहेगा, गंगा
बहती रहेगी, तुम्हारी गीता
थिर और जड़ हो
जाएगी।
तुम्हारी
गीता मुर्दा होगी।
जीवन तो बदलता
है, जीवन
तो प्रतिपल
प्रवाहमान
है।
पंडित
के पास जो
ज्ञान है वह
ज्ञान नहीं है; वह
ज्ञान का धोखा
है। लाओत्से
कहता है, पंडित
होने से तो
अज्ञानी होना
बेहतर। कम से
कम अज्ञानी की
संभावना तो
है। पंडित ने
तो संभावना भी
बंद कर ली।
पंडित तो ऐसी
दशा में है
जैसे किसी
बीमार आदमी को
खयाल आ जाए कि वह
स्वस्थ हो गया;
स्वास्थ्य
के संबंध में
किताबें पढ़ ले,
और
स्वास्थ्य की
चर्चा से भर
जाए, और
सोच ले कि
स्वस्थ हो गया,
क्योंकि
स्वास्थ्य के
संबंध में
मुझे इतना पता
है।
लेकिन
स्वास्थ्य के
संबंध में पता
होने से क्या
कोई स्वस्थ
होता है? स्वस्थ
होने का
रास्ता कुछ और
है; स्वास्थ्य
के संबंध में
पता होने से
नहीं। स्वस्थ
होना एक जीवंत
प्रक्रिया है,
जानकारी
नहीं। नहीं तो
डाक्टर कभी
बीमार ही न पड़ें।
डाक्टर भी
बीमार पड़ता
है। जानता है
बहुत
स्वास्थ्य के
संबंध में, इससे क्या
फर्क पड़ता है!
जानकारी
से स्वास्थ्य
नहीं आता।
जानकारी से आत्मा
का भी अनुभव न
होगा। लेकिन
जानकारी खड़ी हो
जाती है पर्त
बांध कर।
जानकारी
ज्ञान की झूठी
प्रतिछवि
है,
खोटा
सिक्का है।
लगता है
बिलकुल असली
सिक्के जैसा।
और जिन्होंने
असली सिक्का न
जाना हो उनकी
मजबूरी साफ
है। क्योंकि
वे पहचानें
भी कैसे कि यह
खोटा है?
तो
क्या है पहचान
जिससे तुम समझ
लोगे कि तुम्हारा
ज्ञान खोटा है? एक
ही पहचान है, और वह यह कि
तुम्हारा
ज्ञान
तुम्हें
शांति दे तो
समझना कि सच
और तुम्हारा
ज्ञान तुम्हें
और अशांत करे
तो समझना कि
खोटा। तर्क से
निर्णय नहीं
होगा; तुम्हारे
भीतर के
स्वास्थ्य, तुम्हारे
भीतर की
निर्मलता, तुम्हारे
भीतर की शांति
से ही निर्णय
होगा।
लाओत्से
कहता है कि
अज्ञानी
बेहतर।
क्योंकि अज्ञानी
विनम्र होगा, और
अज्ञानी
कहेगा मैं
जानता नहीं
हूं। सीखने को
तैयार होगा।
अज्ञानी
शिष्य होने को
तत्पर होगा।
तथाकथित
ज्ञानी शिष्य
नहीं होना
चाहेगा। वह तो
शिष्य होने के
पहले गुरु हो गया
है। उसने तो
जान ही लिया
है। अब तो वह
दूसरों को
जनाने को
तैयार है। और
जो उसने जाना
है वह जीवन
नहीं है।
क्योंकि
तुम्हें उसके पैरों
में जीवन की
कोई भनक न
मिलेगी।
तुम्हें उसकी
आंखों में
जीवन की कोई
छाया न
मिलेगी। तुम्हें
उसके हृदय के
पास जीवन की
कोई धड़कन न मिलेगी।
तुम सब तरफ से
उसे मुर्दा
पाओगे। लेकिन जानकारी
का बड़ा संग्रह
कर लिया है
उसने। सिक्कों
की तरह उसने
ज्ञान इकट्ठा
कर लिया है।
ज्ञान ऐसा ही
है जैसा कभी
तुमने
इंग्लैंड की
महारानी को
लोगों से हाथ
मिलाते देखा
हो। अब हाथ
मिलाने का
इतना ही
प्रयोजन है कि
दो व्यक्तियों
के शरीर निकट
आएं, एक-दूसरे
की चमड़ी
एक-दूसरे का
स्पर्श करे, सीमा टूटे।
दोनों की
सीमाएं करीब
आएं, एक-दूसरे
की ऊष्मा एक-दूसरे
में बहे; प्रेम
का थोड़ा सा
प्रवाह हो; हाथ से
ऊर्जा का थोड़ा
लेन-देन हो।
वही प्रयोजन
है हाथ मिलाने
का। लेकिन
इंग्लैंड की
महारानी हाथ
मिलाती है तो
दस्ताने पहने
हुए। अब हाथ मिलाने
की जरूरत ही न
रही, क्योंकि
दस्ताना न
मिलने देगा।
दस्ताना इसलिए
है कि कहीं साधारण
आदमी, और
महारानी के
हाथ से हाथ
मिला ले! तो
बंद ही कर दो
बेहतर है हाथ
मिलाना।
लेकिन हाथ
मिलाना भी जारी
है और बीच में
दस्ताना भी
है।
ज्ञानी
और जीवन के
बीच दस्ताना आ
जाता है। जहां
भी वह जाता है
जीवन में, उसका
ज्ञान आड़
बन कर खड़ा हो
जाता है। तब
ऊपर-ऊपर लगता
है कि वह हाथ
भी मिला रहा
है, लेकिन
भीतर-भीतर
दोनों के शरीर
करीब नहीं आते।
ज्ञानी अगर
वृक्ष के पास
से निकलता है
तो दस्ताना
रहता है।
एक
महात्मा थे।
उनका बड़ा नाम
था। वे एक बार
मेरे पास
मेहमान हुए तो
उन्हें मैं
सुबह-सुबह घुमाने
ले गया। जैसा
पंडित होना
चाहिए वैसे वे
पंडित थे। ऐसी
कोई भी बात
मुश्किल थी जो
वे न जानते
हों। मेरे
अनुभव में
नहीं आई ऐसी
कोई बात जो वे
न जानते हों।
ऐसी क्षुद्र बातें
भी वे जानते
थे जिनका कोई
प्रयोजन समझ
में नहीं आता।
उन्हें जंगल
में भी मैं ले
जाकर देखा तो
ऐसा एक वृक्ष
नहीं था, जिसका
नाम उन्हें
मालूम न हो।
जंगली
पक्षियों को
भी मैंने उनको
दिखा कर देखा,
ऐसा कोई
पक्षी न था
जिसका नाम
उन्हें मालूम
न हो। और नाम
से ही निपटारा
कर देते थे
वे। मैंने
उनको कहा कि
देखें, सूरज
की किरण इस
पक्षी पर
कितनी सुंदर
पड़ रही है! तो
वे कहते, पक्षी?
यह नीलकंठ है।
नीलकंठ नहीं
देखा कभी? कि
यह चिड़िया
कितना मीठा
गीत गा रही है!
वे कहते, गौरैया
है। गौरैया
कभी सुनी नहीं?
जो भी उनसे
कहो, वे
तत्क्षण
जानकारी खड़ी
कर देते थे।
और जब जानकारी
ही है, गौरैया
का पता ही है, तो गौरैया
का गीत कौन
सुने? और
नीलकंठ ही हैं,
तो अब इनमें
परेशान होने
की क्या जरूरत?
कौन देखे
इनका नीला कंठ,
नाम से
तृप्ति हो गई।
कभी-कभी सूरज
की किरण में
नीलकंठ का कंठ
ऐसा चमकता है,
ऐसा
अपरिसीम
सौंदर्य
उसमें उठता
है! लेकिन उनकी
आंखों में
मैंने कभी कोई
झलक न देखी।
वे एक चलते-फिरते
कंप्यूटर थे।
जो भी कहो, वे
फौरन बता दें
कि इसका नाम
यह है।
नाम
देने को लोग
ज्ञान समझते
हैं। और नाम
देने से ज्ञान
का क्या संबंध
है?
शब्द
नीलकंठ से
नीलकंठ का
क्या संबंध है?
नीलकंठ को
तो पता भी
नहीं होगा कि
उनका नाम नीलकंठ
है। गुलाब के
फूल को तो पता
भी नहीं है कि नाम
गुलाब है।
जैसे ही तुमने
कहा, यह
गुलाब है, द्वार
बंद हो गए। अब
क्या जरूरत
रही। तुम जानते
ही हो, नाम
तक तुम्हें
पता है। अब और
जानने को क्या
बचा?
नाम
गुलाब में न
तो गुल है और न
आब है; कुछ भी
नहीं है। नाम
गुलाब में न
तो फूल है और न आभा
है फूल की।
गुलाब तो
सिर्फ एक
प्रतीक है, इशारा है।
गुलाब गुलाब
शब्द पर
समाप्त नहीं
होता, शुरू
होता है। अगर
तुमने उसी को
समाप्ति समझ ली
तो तुम वंचित
रह जाओगे। तुम
जीवन में
जीओगे, लेकिन
तुम्हारे
चारों तरफ एक
पर्दा होगा
शब्दों का।
शब्दों के
माध्यम से तुम
गुलाब के पास
जाओगे, नीलकंठ
के पास जाओगे,
सूरज के पास
जाओगे, सभी
से तुम वंचित
रह जाओगे। और
इन्हीं
शब्दों के
माध्यम से तुम
अपने करीब
आओगे।
तो अगर
उन सज्जन से
मैं कहता कि
कभी ध्यान करें!
उन्होंने कहा, क्या
ध्यान करना है?
और
वेद-उपनिषद
पहले ही कह गए
कि भीतर आत्मा
है, सिद्ध
ही हो गई बात।
वेद-उपनिषद
ने सिद्ध कर
दी,
इससे
तुम्हारे लिए
सिद्ध नहीं हो
गई। वेद-उपनिषद
के ऋषियों ने
जल पी लिया था
इसलिए
तुम्हारी
प्यास बुझ गई,
ऐसा नहीं
है। जब
तुम्हें
प्यास लगती है
तो तुम्हीं को
पानी पीना
पड़ता है। तुम
यह नहीं कहते कि
वेद-उपनिषद के
ऋषि पी चुके
खूब पानी और
तृप्ति हो गई,
हम क्यों पीएं? वेद-उपनिषद
के ऋषियों ने
प्रेम किया, इससे तुम
प्रेम करने से
नहीं रुकते।
लेकिन वेद-उपनिषद
ने कह दिया कि
भीतर आत्मा है,
अब खोजने को
क्या बचा? वे
कहते कि
शास्त्र को
ठीक से पढ़ लो, पता चल
जाएगा कि भीतर
आत्मा है। यही
पंडित करते
रहे हैं।
उन्हें लगता
है कि जैसे
जीवन का सारा
समाधान किताब
में है। किताब
में इशारे हो
सकते हैं, लेकिन
समाधान तो
जीवन का जीवन
में ही है।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
समझा रहा था।
अभी-अभी बेटा
बाहर पड़ोस के
लड़के से
कुश्ती लड़ कर
लौटा था। काफी
घूंसामारी
हुई थी, कपड़े
फट गए थे, चेहरे
से खून निकल
रहा था। फिर
मुल्ला ने यही
मौका ठीक समझा
कि जब गरम हो
स्थिति तभी
समझा देना
चाहिए। तो
उसने कहा कि
देखो, अब
तुम बड़े होने
लगे, और अब
तुम्हें
सभ्यता-संस्कृति
सीखनी
चाहिए। और
संस्कृति का
पहला सूत्र यह
है कि झगड़ों
को शांति से
निपटाना
चाहिए। यह
घूंसेबाजी
जिंदगी में
चलाओगे तो
मुश्किल में
पड़ोगे। और ऐसी
कौन सी समस्या
है जिसको
शांति से बैठ
कर तर्क और
विचार और
बुद्धि से न
निपटाया जा
सके! मुल्ला
ने कहा कि
मैंने
कुरान-वेद सब
पढ़ डाले। हर
समस्या, बड़ी
से बड़ी समस्या
भी आदमी शांति
से बैठ कर, विचार
से समझ कर, एक-दूसरे
की स्थिति, एक-दूसरे का
दृष्टिकोण
खयाल में लेकर
हल कर सकता
है।
उस
लड़के ने कहा, लेकिन
यह समस्या ही
ऐसी है कि
इसका और कोई
हल ही न था।
नसरुद्दीन ने
कहा,
मैं यह मान
ही नहीं सकता।
मैंने ऐसी कोई
समस्या देखी
नहीं आज तक।
तू समस्या बोल
क्या थी? उसने
कहा कि आप
मानो, यह
समस्या ही ऐसी
थी। समस्या यह
थी कि वह लड़का कह
रहा था कि वह
मुझ को चित्त
कर सकता है
चारों खाने।
और मैं कह रहा
था मैं उसको
कर सकता हूं चित्त
चारों खाने।
अब इसको शांति
से कैसे तय करो?
इसका एक ही
उपाय है कि
करके देख लो
कौन किसको कर
सकता है।
जीवन जीकर
ही हल हो सकता
है। कोई दूसरा
उपाय जीवन के समाधान
का नहीं है।
जो दूसरे तरह
का ज्ञान है वह
बिना जीवन में
उतरे तुम्हें
समाधान दे देता
है। वे समाधान
झूठे हैं, सस्ते
हैं बहुत।
तुमने उन
समाधानों के
लिए कुछ
चुकाया नहीं।
तुमने उन
समाधानों के
लिए कुछ खोया
नहीं। तुमने
उन समाधानों
के लिए अपने
को दांव पर
नहीं लगाया।
तुम मुफ्त, भीख में, उन
समाधानों को
घर में ले आए
हो। काश!
जिंदगी इतनी
सस्ती होती।
जिंदगी इतनी
सस्ती नहीं
है। और अच्छा
ही है कि
जिंदगी इतनी
सस्ती नहीं है;
अन्यथा
तुम्हारी
समाधि भी
कितनी सस्ती
होती! और तुम्हारा
परमात्मा को
पा लेना भी
कितना सस्ता
होता! दो कौड़ी
का होता।
नहीं, यहां
तो स्वयं ही
चलना पड़ेगा
अपने ही पैरों
से। भटकन भी
होगी, भूल
भी होगी, गिरोगे
भी। अनेक बार
उठोगे, गिरोगे,
उठोगे, खोजोगे।
यहां मार्ग
बना-बनाया
तैयार नहीं है
कि किसी और ने
बना दिया है।
कोई हाईवे
नहीं है, जो
तैयार है
सरकार की तरफ
से कि तुम उस
पर चल जाओ।
यहां तो चल-चल
कर ही एक-एक
कदम अपना
मार्ग खुद ही
बनाना पड़ता
है। यहां तो
तुम जितना
चलते हो उतना
ही मार्ग बनता
है।
और
इसलिए केवल दुस्साहसियों
के लिए ही
सत्य है। कायर
पंडित हो जाते
हैं;
साहसी प्रज्ञा
को उपलब्ध
होते हैं।
पांडित्य
महानतम
कायरता है। वह
अपने को धोखा
देना है।
लाओत्से
के सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
"जो
ताओ का अनुगमन
करना जानते थे,
उन
पूर्व-पुरुषों
ने लोगों को
ज्ञानी बनाने
का इरादा नहीं
किया; बल्कि
वे उन्हें
अज्ञानी ही
रखना चाहते
थे।'
बात
बड़ी बेबूझ
मालूम पड़ेगी
कि ज्ञानी
पुरुष लोगों
को अज्ञानी
रखना चाहते थे?
निश्चित
ही। ज्ञानी
पुरुष पहले भी
लोगों को अज्ञानी
रखना चाहते थे, और
ज्ञानी पुरुष
अब भी, अगर
तुम ज्ञानी भी
हो गए हो, तो
तुम्हारा
ज्ञान छीन
लेना चाहते
हैं। सदगुरु
वही है जो
तुम्हारा
ज्ञान छीन ले।
जिस गुरु के
पास से तुम
थोड़े ज्यादा
जानकार होकर लौटो, समझ
लेना वह गुरु
नहीं है, शिक्षक
है। शिक्षक
सिखाता है
जानकारी, गुरु
छीन लेता है।
गुरु मिटाता
है जानकारी। गुरु
अगर कुछ भी
सिखाता है तो
एक ही बात
सिखाता है। वह
सिखाता है
कला: जो सीखा
है उसको अनसीखा
करने की। वह
तुम्हारी
स्लेट को साफ
करता है।
तुमने
काफी गूद डाला
है अपना मन; न
मालूम
क्या-क्या लिख
लिया है--काम
का, बेकाम
का, कारण-अकारण,
संगत-असंगत।
तुम्हारा मन
एक गुदी हुई
स्लेट है, जिसमें
अब कुछ भी समझ
में नहीं आता
कि क्या तुमने
लिखा था, क्या
तुम लिख रहे
थे। तुम खुद
भी नहीं पढ़
सकते अपने लिखे
हुए को जो
तुमने अपने मन
पर लिख लिया
है। वहां भीतर
आंख डालोगे तो
बड़ी घबड़ाहट
होगी। जैसे ही
लोग ध्यान
शुरू करते हैं,
मेरे पास
आने लगते हैं
कि बड़ा कनफ्यूजन
पैदा हो रहा
है, बड़ी
विभ्रांति आ
रही है। कोई
ध्यान से कहीं
विभ्रांति
आती है? लेकिन
ध्यान से यह
घटना घटती है
कि तुम जरा भीतर
देखने में
समर्थ हो जाते
हो। और भीतर
तो विभ्रांति
भरी पड़ी है।
तुमने अपने मन
की स्लेट पर
क्या-क्या लिख
दिया है, अब
उसको पढ़ना
भी मुश्किल
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के जीवन में
दो घटनाएं
हैं। एक घटना
है कि गांव के
एक आदमी ने
आकर कहा कि
पत्र लिख दो।
क्योंकि वही
पढ़ा-लिखा आदमी
है गांव में।
तो नसरुद्दीन
ने कहा, न लिख
सकूंगा, क्योंकि
मेरे पैर में
बहुत दर्द है।
उस आदमी ने
कहा, लेकिन
पैर में दर्द
से और पत्र
लिखने का क्या
संबंध? तुम
भलीभांति चंगे
बैठे हो। हाथ
से लिखना है
पत्र कि पैर
से? नसरुद्दीन ने कहा, तू
समझता नहीं, यह जरा
मामला जटिल
है। क्योंकि
लिख तो दूं, लेकिन पढ़ने
के लिए मुझे
दूसरे गांव भी
जाना पड़ता है।
पढ़ेगा
कौन? और
मेरे पैर में
दर्द है।
और
दूसरी घटना है
कि एक आदमी ने
पत्र लिखवाया; नसरुद्दीन ने पूरा
पत्र लिख
दिया। फिर उस
आदमी ने कहा
कि भई कहीं
कुछ भूल-चूक न
हो गई हो, आप
जरा पढ़ कर
सुना दो। तो
मेरे प्यारे
भाई, बस
उतना ही वह पढ़
पाया। फिर
बार-बार उसी
को पढ़े।
उस आदमी ने
कहा, आगे
क्यों नहीं
पढ़ते? क्या
इतना ही लिखा
है? नसरुद्दीन ने कहा कि
देख, लिखना
हमारा काम है,
कोई पढ़ना
तो नहीं। लिख
दिया, अपनी
झंझट खतम हुई।
अब यह झंझट
उनकी है जिनको
पढ़ना हो।
देहाती बोला,
बात तो ठीक
है। और फिर
पता दूसरे का
है तो यह गैर-कानूनी
भी है, नसरुद्दीन ने कहा, किसी
दूसरे के नाम
लिखा गया पत्र
पढ़ना
गैर-कानूनी है;
तू मुझको
उलझा मत।
तुम्हारा
मन है। तुमने
लिखा है। तुम
स्वयं भी पढ़ न
सकोगे कि क्या
लिख लिया है।
जो तुमने लिखा
है उसमें से
नब्बे
प्रतिशत तो
अचेतन में
लिखा है, मूर्च्छा
में लिखा है, बेहोशी में
लिखा है। थोड़ा
सा ही होश में
लिखा है। वह
भी सब
गड्ड-मड्ड हो
गया है।
तुम्हारे सपने
भी लिखे हैं
तुम्हारे मन
पर; तुम्हारी
जागृति भी
लिखी है; तुम्हारी
निद्रा भी
लिखी है।
तुमने शराब
पीकर भी लिखा
है कभी; कभी
ध्यान करके भी
लिखा है। वह
सब मिश्रित हो
गया है।
सदगुरु का
पहला काम है
कि वह इस सब
कचरे को हटा
दे। इसके पहले
कि नये बीज
बोए जाएं, माली
पुरानी जड़ों
को निकाल कर
बाहर फेंक
देता है; घास-पात
को उखाड़
देता है; जमीन
को साफ कर
लेता है। फिर
ही नये बीज
बोए जाते हैं।
इसके पहले कि
वास्तविक
ज्ञान तुम में
जग सके, तुमने
जो झूठा ज्ञान
सीख लिया है, जो घास-पात
उगा लिया है, वह हटा देना
जरूरी है।
क्योंकि
घास-पात का एक गुण
है कि अगर वह
मौजूद रहे तो
असली के भी
बीजों को छिपा
लेगा। अगर तुम
पंडित होकर
मेरे पास आओ
और तुम अपने
पांडित्य को
बचाना चाहो, तो जो भी मैं
दूंगा, तुम्हारे
पांडित्य के
कचरे में वह
भी खो जाएगा।
कबीर
के पास एक
पंडित आया।
ज्ञानी था; काशी
में बड़ा उसका
नाम था। और कबीर
सभी को शिक्षा
देते थे जो भी
आता। लेकिन उस
पंडित को कहा
कि नहीं भाई, तू हमको
मुसीबत में मत
डाल। उसने कहा,
लेकिन आप
किसी को मना
नहीं करते। और
मैं तो पात्र
हूं। मैंने
कुपात्रों को
भी आपके घर
आते देखा है।
और मुझे मना
करते हो? कबीर
ने कहा कि तू
इतना जानता है,
और तेरे मन
की भूमि पर
इतने घास-पात
उगे हैं कि जो
बीज हम
डालेंगे वह खो
जाएगा। नहीं,
तू इस झंझट
में हमको मत
डाल।
कबीर
बार-बार कहे
हैं: हीरा हिरायल
कीचड़ में। तो
हम इस कीचड़
में हीरा न
डालेंगे। कीचड़
तो रहेगी और
हीरा और खो
जाएगा।
सदगुरु
साफ करता है।
एक बार तुम्हारे
मन की स्लेट
बिलकुल पोंछ
कर साफ कर दी
जाए। न तुम
हिंदू रह जाओ, न
मुसलमान, न
जैन, न
ईसाई, न
पारसी; तुम्हारी
मन की स्लेट
साफ हो जाए।
तो ज्ञान कहीं
बाहर से थोड़े
ही लाना है।
तुम्हारे
घास-पात में
ही दबे पड़े
हैं वे बीज
जिनसे गुलाब
के फूल उठ
आएंगे। लेकिन
घास-पात दबाए
हुए है बुरी
तरह। और
गुलाबों को सम्हालना
पड़ता है।
घास-पात को
सम्हालना
नहीं पड़ता; वह अपने आप
ही बढ़ता है।
उसके लिए पानी
देने की भी
जरूरत नहीं
है। वह अपना
इंतजाम खुद ही
कर लेता है।
और तुम एक बार
काट दो
घास-पात को, वह हजार बार
बढ़ेगा। उसकी
जड़ें उखाड़
देनी पड़ेंगी।
जड़ें उखाड़ने के
लिए लाओत्से
कह रहा है कि
पूर्व-पुरुषों
ने लोगों को
ज्ञानी बनाने
का इरादा ही
नहीं किया।
क्योंकि पहले
घास-पात बोओ, फिर
उसे उखाड़ो,
इससे बेहतर
है कि स्लेट
को साफ ही
रहने दो। बल्कि
वे उन्हें
अज्ञानी रखना
चाहते थे।
अज्ञानी
का अर्थ है
सरल;
अज्ञानी का
अर्थ है
निर्दोष; अज्ञानी
का अर्थ है
छोटे बच्चों
की भांति। अज्ञानी
का अर्थ है कुंआरे;
अज्ञानी का
अर्थ है जिसके
मन में कुछ
व्यर्थ नहीं
प्रविष्ट
किया; जो
कुछ जानता
नहीं। जो कुछ
भी नहीं जानता
उसके जीने का
मजा ही और है।
उसे हर चीज
अनपेक्षित है।
छोटे बच्चों
को गौर से
देखें। एक
तितली उड़ जाती
है और बच्चा
ऐसा नाच उठता
है कि तुम्हें
अगर कुबेर का
खजाना भी मिल
जाए तो भी तुम
इस भांति न
नाच सकोगे।
क्या मामला है?
बच्चे की
चेतना में
क्या घटता है?
दौड़ पड़ा
तितली के
पीछे। एक घास
में उगा हुआ
फूल तोड़ आता
है और ऐसा
प्रसन्न
लौटता है
नाचता हुआ घर
कि कोई बड़ी
संपदा लेकर आ
रहा है। घास
पर जमी ओस को
अपने मुंह पर
लगा लेता है, और उसकी
प्रसन्नता
देखो। क्या है
बच्चे की चेतना
में? जिसको
लाओत्से
अज्ञान कह रहा
है वही। बच्चा
जानता नहीं।
जो जानता नहीं,
उसे हर चीज
नयी है। जो
जानता नहीं
उसके पास अतीत
से तौलने का
तो कोई उपाय नहीं।
वह यह तो नहीं
कह सकता कि यह
ओस है, यह
गुलाब है, यह
तितली है।
बच्चे को कुछ
पता ही नहीं; अतीत का कोई
अनुभव नहीं
है। अनुभव न
होने के कारण
हर घड़ी बच्चा
जीवन को नया
अनुभव करता
है।
तुम्हारा
पुराना अनुभव
बीच में आ
जाता है; ज्ञान
बीच में खड़ा
हो जाता है।
तुम सोच ही
नहीं सकते, कितना फासला
है। तुम एक
छोटे बच्चे को
दौड़ते तितली
के पीछे शायद
कहोगे कि मत
दौड़, कुछ
भी नहीं है, बस एक तितली
है। लेकिन
तुम्हें पता
नहीं कि तुम
क्या कह रहे
हो। और बच्चे
तुम्हें
बिलकुल नहीं
समझ पाते।
तितली उनके
लिए एक इतना
अज्ञात अनंत
का द्वार है!
यह उनके भरोसे
के बाहर है कि
इतना सौंदर्य
भी है जगत में!
बच्चा दौड़ रहा
है। तुम्हें लगता
है तितली के
पीछे दौड़ रहा
है। बच्चा तो
अनंत और
अज्ञात के
पीछे दौड़ रहा
है। छोटे
बच्चे तितलियों
को पकड़ लेंगे
तो तोड़ कर उनके
भीतर देखना
चाहते हैं।
शायद तुम
सोचते हो बच्चे
हिंसक हैं, तो तुम गलती
में हो। बच्चे
तो सिर्फ
अज्ञात के
भीतर झांकना
चाहते हैं कि
क्या छिपा है?
कोई हिंसा
से उनका
लेना-देना
नहीं है। वे
तो भीतर देखना
चाहते हैं:
क्या है? रहस्य
क्या है? क्यों
यह तितली इतनी
सुंदर है? और
कैसे उड़ती थी?
इसके
प्राणों का
स्रोत कहां है?
अज्ञानी
बच्चे जैसा
होगा। अज्ञान
का अर्थ है तुम्हें
वे बातें न
सिखाई जाएं
जिनके सीख लेने
से तुम्हारे
हाथों पर और
जीवन पर
दस्ताने पैदा
हो जाते हैं।
जब फिर से कभी
कोई व्यक्ति
संतत्व को
उपलब्ध होता
है तो फिर
बच्चों जैसा
हो जाता है।
रामकृष्ण
के संबंध में
कथा है कि वे
छोटी-छोटी चीज
में बड़े
उत्सुक हो
जाते थे। और
लोग दुखी होते
थे इससे, शिष्यों
को बेचैनी
होती थी।
क्योंकि
शिष्य चाहते
लोग समझें कि
वे सब चीजों
के पार हो गए
हैं। और वे
छोटी-छोटी
चीजों में
उत्सुक हो जाते।
पत्नी भोजन भी
बना कर लाती
तो ब्रह्मचर्चा
छोड़ देते थे
वे। ब्रह्मचर्चा
चल रही थी; शिष्यों
को समझा रहे
थे; पत्नी
भोजन की खबर
लेकर आ जाती
तो वे एकदम उठ
कर खड़े हो
जाते, वे
भूल ही जाते ब्रह्मचर्चा।
वे झांक कर
पहले थाली में
देखते--क्या
भोजन बना है!
बीच-बीच में ब्रह्मचर्चा
छोड़ कर, कथा
है, कि वे
चौके में
पहुंच जाते थे,
जरा झांक
आते थे--क्या
बन रहा है!
पत्नी भी उनकी
कहती थी कि परमहंसदेव,
यह शोभा
नहीं देता।
लोग क्या
कहेंगे? अगर
उनको यह पता
चल जाए कि तुम
बीच चर्चा में,
ब्रह्म की
बातें
समझाते-समझाते
बीच-बीच में, चौके में
आकर देख भी
जाते हो कि आज
क्या बन रहा
है, तो लोग
क्या कहेंगे!
वे कोई
भी परमहंस
रामकृष्ण को न
समझ पाते थे। वे
सब ज्ञान से
जी रहे थे कि
रामकृष्ण को
कैसा होना
चाहिए, सिद्धांत,
कि ऐसे
महापुरुष
कहीं भोजन की
फिकर करते
हैं! ऐसे
महापुरुष तो
स्वाद ही नहीं
लेते! लेकिन
रामकृष्ण
छोटे बच्चे की
भांति हो गए
हैं।
यह जो
बालपन है, इस
बालपन का जो
सौंदर्य है, उसी को
लाओत्से
अज्ञान कह रहा
है। कभी इस
पृथ्वी पर
अधिक लोग ऐसे
ही थे। फिर
ज्ञान ने
भ्रष्ट किया;
वेदों-कुरानों
ने मिटाया; आदमी की
खोपड़ी को भर
दिया शब्दों
से। और उसके
जीवन का सारा
सौंदर्य नष्ट
हो गया। सारी
पुलक चली गई।
नाच खो गया।
गीत कंठ में
ही दब गए। हृदय
की धड़कन
धीमे-धीमे
धीमी होती हुई
बिलकुल खो गई।
बस खोपड़ी का
शोरगुल रह
गया।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि हृदय से है
रास्ता सत्य
का,
मस्तिष्क
से नहीं।
कितना तुम
सोचते हो, इससे
तुम करीब न
पहुंच जाओगे
सत्य के। कैसे
तुम जीते हो, एक
निर्दोषता
में, बच्चे
जैसे, उससे
ही पहुंचोगे।
रामकृष्ण
को बड़ी अड़चन
थी। क्योंकि
पूजा-पाठ करने
के लिए रखा
गया था उनको
दक्षिणेश्वर
में। पुजारी
थे। तो पुजारी
का तो काम
पंडित का है। और
ये तो बिलकुल
गैर-पंडित
जैसे आदमी थे।
इनका तो
कभी-कभी झगड़ा
भी हो जाता था
काली से। अब
यह कहीं संभव
है पुजारी कि झगड़ा कर ले? लेकिन
प्रेमी कर
सकता है। और
प्रेम न हो तो
पूजा क्या? कभी-कभी बड़ा झगड़ा हो
जाता।
एक बार
तो इतने
गुस्से में आ
गए कि तलवार
उठा ली, कहा
कि अब होता हो
ज्ञान तो इसी
वक्त हो जाए
नहीं तो गर्दन
काट कर रख देता
हूं, बहुत
हो गया! और
कहते हैं, उसी
दिन रामकृष्ण
को ज्ञान हुआ।
एक काली के मंदिर
में तलवार रखी
थी, काली
की सजावट का
हिस्सा थी, उसको उठा
लिया, निकाल
लिया म्यान
से। कोई भी
नहीं था।
क्योंकि उनकी
पूजा कितनी
देर चले उसका
कोई हिसाब न
था। लोग आते
थे दस-पांच
मिनट शुरू में,
जब घंटा
बजता। और यह
सब होता तो
लोग तभी चले
जाते।
क्योंकि उनका
तो घंटों चलता
था; कभी-कभी
छह-छह घंटा।
अब उतनी देर
कौन लोग वहां बैठे
रहें? और
कौन यह बकवास
सुने कि वे
बातचीत कर रहे
हैं, चर्चा
हो रही है, जवाब-सवाल
हो रहे हैं।
कोई नहीं था
मंदिर में। खींच
ली तलवार और
कहा कि अब
बहुत हो गया, कर चुके
काफी पूजा, और अब आज
दांव पर पूरा
लगा देते हैं।
खींची तलवार
अपनी गर्दन
तक--और सब बदल
गया एक क्षण
में। तलवार
हाथ से नीचे
गिर गई; मंदिर
खो गया; काली
खो गई; रामकृष्ण
खो गए। अठारह
घंटे कोई होश
नहीं आया।
अठारह घंटे बाद
होश आया तो
आंख से आंसू
बह रहे थे और
वे चिल्ला रहे
थे कि अब वापस
मत भेज! अब जब
दिखा ही दिया
है तो अब वापस
क्यों भेजती
है! अब मुझे
भीतर ही रहने
दे। उस दिन
घटना घट गई।
अब
पंडितों ने
कहीं भी नहीं
लिखा है कि
तलवार उठा कर
और पूजा करना।
और पंडितों ने
लिखा होता और
तुम तलवार
उठाते भी तो
वह औपचारिक
होती, वह
हार्दिक न
होती। तुम
जानते थे कि
कौन मार रहा
है, कौन
मारने जा रहा
है।
रामकृष्ण
भोग लगाते तो
पहले खुद को
लगा लेते, फिर
काली को।
मंदिर की
कमेटी थी
ट्रस्टियों की।
एतराज उठाया
और बुलाया और
कहा कि यह
नहीं चलेगा।
रामकृष्ण ने
कहा, तो
नहीं चलेगा तो
अपनी नौकरी
सम्हालो।
क्योंकि मेरी
मां जब मुझे
खाना बना कर
खिलाती थी तो पहले
खुद चख लेती
थी। जब मां तक
बेटे के लिए
खाना देने के
पहले चख लेती
है और देखती
है कि देने
योग्य है भी
या नहीं, तो
मैं बिना चखे
भगवान को भोग
नहीं लगा
सकता। पता
नहीं, देने
योग्य है भी
या नहीं। तो
तुम सम्हाल
लो।
अब
किसी शास्त्र
में नहीं लिखा
है कि भगवान
को भोग लगाने
के पहले खुद
चख लेना।
लेकिन हृदय के
शास्त्र में
तो यही बात
लिखी है।
प्रेम नियम
नहीं जानता, क्योंकि
प्रेम
आत्यंतिक
नियम है। पूजा
कोई औपचारिक
क्रिया-कांड
नहीं है, पूजा
तो हृदय का
उन्मेष है।
लेकिन उसके
लिए बड़ी सरलता
चाहिए। और
रामकृष्ण बड़े
सरल आदमी थे। बेपढ़े-लिखे
थे; दूसरी
क्लास; वह
भी पास नहीं
थे। उतना थोड़ा
सा ज्ञान था।
ग्रामीण थे; कुछ जानते
नहीं थे। और
इस सदी में सब
जानने वालों
को पीछे छोड़
दिया। इस सदी
में उनका
आविर्भाव ऐसा
हुआ कि एक बेपढ़ा-लिखा,
एक गंवार
गांव का, बड़े
से बड़े
पंडितों को
फीका कर गया।
हृदय
का एक कण भी
तुम्हारी
बुद्धि की
समस्तता से
ज्यादा
मूल्यवान है।
भाव की एक
छोटी सी ऊर्मि
भी तुम्हारी
खोपड़ी के बड़े
से बड़े सागर
से बड़ी है--एक
छोटी सी लहर।
क्योंकि वह
जीवंत है।
लाओत्से
कहता है कि
ताओ का अनुगमन
करना जो जानते
थे,
उन
पूर्व-पुरुषों
ने लोगों को
ज्ञानी बनाने
का इरादा नहीं
किया; बल्कि
वे उन्हें
अज्ञानी ही
रखना चाहते
थे। क्योंकि
उनके अज्ञान
में एक गरिमा
थी, एक
सरलता थी, एक
सौम्यता थी।
उस अज्ञान में
एक हृदय का
भाव था। उस
अज्ञान में एक
खूबी थी जो
शिक्षा ने नष्ट
कर दी।
आज
दुनिया की बड़ी
से बड़ी जो
तकलीफ है वह
यही है कि लोग
बहुत शिक्षित
हो गए। और सभी
समझदार लोग कह
रहे हैं कि युनिवर्सल
एजुकेशन, सार्वभौम
शिक्षा
चाहिए। एक
आदमी न बचे जो
अशिक्षित हो;
सब को
शिक्षित करना
है। चाहे उनकी
मर्जी हो चाहे
न हो, सबको
अनिवार्य रूप
से शिक्षित
करना है। अज्ञानी
किसी को छोड़ना
ही नहीं है।
और बिना
सोचे-समझे हम
मनुष्य को
शिक्षित किए
जा रहे हैं।
और शिक्षा का
कुल परिणाम
इतना हुआ है
कि आदमी जंग
खा गया है; उसकी
सब सरलता खो
गई। शिक्षा का
कुल परिणाम इतना
हुआ, आदमी
कठोर हो गया
है, उसकी
सारी सौम्यता
खो गई। शिक्षा
का कुल परिणाम
इतना हुआ कि
आदमी ज्ञानी
नहीं हुआ, चालाक
हो गया है।
शिक्षा चालाक
बनाती है। शिक्षित
आदमी शोषण
करने में कुशल
हो जाता है।
वह इस तरह की
तरकीबें
बिठाता है कि
खुद काम न
करना पड़े और
दूसरों से काम
ले ले।
शिक्षित आदमी
के पूरे जीवन
की योजना ही
यह होती है कि
उसे कुछ न करना
पड़े और वह
दूसरों का
शोषण कर ले।
और
शिक्षित आदमी
चालाक हो जाता
है कि जो चीज बिना
काम किए मिलती
हो,
कैसे बिना
कुछ किए चीजें
मिल जाएं, यही
उसकी पूरी
कुशलता हो
जाती है। और
यही तो चोरी
है। चोरी और
क्या है? चोरी
का एक ही अर्थ
है कि जिसके
लिए हमने श्रम
न किया हो उसे
पा लेने की
कोई तरकीब।
दूसरे की जेब
से कैसे पैसा
निकल आए, बिना
हाथ डाले, उसकी
कुशलता
शिक्षित आदमी
में आ जाती
है।
और
शिक्षित आदमी
महत्वाकांक्षी
हो जाता है; वह
सबसे ऊपर
पहुंचना
चाहता है। और
शिक्षित आदमी
के जीवन से
प्रेम
तिरोहित हो
जाता है; क्योंकि
प्रेम गणित
में बैठता
नहीं, बल्कि
गणित को गड़बड़
करता है।
शिक्षित आदमी
के जीवन से
सौंदर्य, काव्य,
धर्म, सब
खो जाता है।
उसके पास तो
सिर्फ हिसाब
रह जाता
है--गणित और
तर्क, और
शोषण की कला, और
महत्वाकांक्षा
का ज्वर।
शिक्षित आदमी
ज्वरग्रस्त
है।
डी.एच.लारेंस ने, जो
कि इस सदी में
लाओत्से को
प्रेम करने
वाले थोड़े से
लोगों में एक
था, एक
सुझाव दिया
था। वह सुझाव
मुझे बहुत
प्रीतिकर
लगता है। वह
सुझाव था कि
सौ वर्ष के
लिए सब युनिवर्सिटीज,
सब कालेज, सब स्कूल, सब बंद कर
देने चाहिए।
सौ वर्ष के
लिए आदमी को बिलकुल
बिना शिक्षा
के छोड़ देना
चाहिए। तो जो भी
हमने कोई दस
हजार वर्षों
में आदमी के
मन में कचरा
भर दिया है, वह स्लेट
साफ हो जाए।
जैसे किसान
दो-चार साल
मेहनत करने के
बाद खेत को
खाली छोड़ देता
है, बिना
फसल के, ताकि
खेत अपनी
ऊर्जा को पुनः
उपलब्ध कर ले।
ऐसा मुझे भी
लगता है कि सौ
साल के लिए
अगर आदमी को शिक्षा
से स्वतंत्र
कर दिया जाए
तो लोग वापस उस
अवस्था में
पहुंच जाएंगे
जिनकी
लाओत्से चर्चा
कर रहा है। लोग
सरल हो जाएंगे;
शोषण खो
जाएगा। न
पूंजीवाद की
जरूरत होगी; न समाजवाद
की जरूरत
होगी। लोग
थोड़े से तृप्त
हो जाएंगे। और
इतना काफी है
कि हरेक को
तृप्त कर सके।
जल की कमी
नहीं; भोजन
की कमी नहीं; छाया मिल
सकती है शरीर
को।
लेकिन
महत्वाकांक्षा
के लिए तो कभी
भी कुछ पूरा
नहीं है।
महत्वाकांक्षा
दौड़ाती
है,
और दौड़ाती
है; थकाती
है, और मार
डालती है।
जीवन को जानने
से वंचित ही रह
जाते हैं।
"कारण
है कि लोगों
के लिए शांति
में रहना कठिन
है, अतिशय
ज्ञान के
चलते।'
जैसे
ही ज्यादा
ज्ञान हो जाता
है,
वैसे ही खुद
की शांति भी
खो जाती है।
क्योंकि मन
में विचार ही
विचार भर जाते
हैं। रात सोते
भी हैं तो भी
विचार चलते ही
रहते हैं।
उठते हैं तो
चलते ही रहते
हैं। विचारों
का इतना
झंझावात कि
शांति खो जाती
है; भीतर
उतरना ही
मुश्किल हो
जाता है; नाव
को ले जाना ही
मुश्किल हो
जाता है
यात्रा पर।
और हमारी
पूरी शक्ति
इसमें लग रही
है कि कैसे हम
लोगों को
ज्यादा
ज्ञानी बना
दें। और लोग
जितने ज्ञानी
होते जाते हैं
उतने ही
मुर्दा होते
जाते हैं।
कभी
ठेठ गांव में
जाकर देखना
चाहिए। ठेठ
गांव से मेरा
मतलब जहां अभी
सरकार बिजली न
पहुंचा पाई हो; जहां
स्कूल न खोल
पाई हो; जहां
समाज-सुधारक
अभी तक न
पहुंचे हों और
लोगों को
शिक्षित न कर
पाए हों; जहां
नेतागणों
की गति न हो
पाई हो; और
जहां
क्रांतिकारियों
की कोई खबर न
पहुंची हो; कोई आदि-आदिमवासियों
का गांव। तब
एक दूसरे ही
तरह के मनुष्य
का दर्शन होता
है। उसके शरीर
का सौष्ठव अलग,
उसके
प्राणों का
ढंग अलग, उसके
जीने के नियम
अलग।
बर्मा
के जंगलों में
अभी-अभी एक
जाति के संबंध
में कुछ
मनोवैज्ञानिक
अध्ययन कर रहे
हैं। तो वे
कहते हैं, उस
जाति को याद
ही नहीं है कि
वहां किसी ने
कभी सपना देखा
हो। सपना नहीं
देखा किसी ने!
लोग इतने शांत
हैं कि सपना
क्यों देखें?
सपना तो
अशांति का
हिस्सा है। उस
छोटे से कबीले
में कभी कोई
युद्ध नहीं
हुआ, कोई झगड़ा नहीं
हुआ। कोई और
ढंग होगा उनके
होने का; क्योंकि
हम तो दो घड़ी
पास नहीं बैठ
सकते और झगड़ा
शुरू हो जाता
है। और झगड़े
हमारे इतने
बारीक हैं कि
कहना मुश्किल
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
और उसके गांव
के धर्मगुरु
में झंझट थी, और
एक-दूसरे में
कलह हो जाती
थी। अंततः बात
अदालत में
पहुंच गई। और
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि तुम
दोनों ही
समझदार आदमी
हो; क्यों
व्यर्थ के
उत्पात खड़े कर
लेते हो? इसको
निपटा लो। और
मैं नहीं
चाहता कि तुम
दोनों भले आदमियों
को अदालत में
आना पड़े और
अदालत तक बात
खींची जाए।
तुम आपस में
ही निपटा लो।
धर्मगुरु ने
कहा, ठीक।
जब धर्मगुरु
ने कहा ठीक तो नसरुद्दीन
ने भी कहा, चलो
ठीक। निकलने
को हुए अदालत
से बाहर कि नसरुद्दीन
ने पूछा कि
कहो, अब
मेरे संबंध
में क्या
विचार हैं? ठीक से सुनना।
नसरुद्दीन
ने कहा कि कहो,
अब मेरे
संबंध में
क्या विचार
हैं? उस
आदमी ने कहा, वही विचार
हैं जो
तुम्हारे
मेरे संबंध
में हैं। नसरुद्दीन
लौटा और उसने
कहा कि देखिए,
फिर शुरू कर
दिया इसने! नसरुद्दीन
ने न्यायाधीश
से कहा कि
देखिए
महानुभाव, फिर
शुरू कर दिया
इसने! क्योंकि
मेरे खयाल तो
इसके संबंध
में बहुत बुरे
हैं। और यह कह
रहा है यही
खयाल इसके
मेरे संबंध
में हैं। झगड़ा
शुरू हो गया।
सभ्य
आदमी जैसे
बिना झगड़े के
रह नहीं सकता।
उसकी सब
सभ्यता के
भीतर, संस्कार
के भीतर झगड़ा
छिपा है।
क्योंकि
अशांत आदमी
बिना झगड़े के
रह कैसे सकता
है? वह
मैत्री भी
करता है तो
उसमें
शत्रुता का
दंश होता है।
वह प्रेम भी
करता है तो
उसमें घृणा का
जहर होता है।
वह पास भी आता
है तो दूर
खिंचा रहता
है।
उस
कबीले ने
इतिहास में
कभी कोई झगड़ा
नहीं किया; कोई
झगड़ा
नहीं हुआ। अगर
एक कबीले में
ऐसा हो सकता
है तो सारी
दुनिया में भी
ऐसा हो सकता
है। अगर थोड़े
से लोगों में
ऐसा हो सकता
है तो सब में
क्यों नहीं हो
सकता? हमारे
रहने के ढंग
में कहीं कोई
कठिनाई है, कहीं कोई
गड़बड़ है, कहीं
कोई मूल भूल
है।
और
लाओत्से कहता
है कि अतिशय
ज्ञान के चलते
शांति असंभव
है।
और जब
व्यक्ति शांत
नहीं होता तो
वह अपनी
अशांति
दूसरों पर निकालता
है। तब वह
अपनी अशांति
दूसरों पर
फेंकता है; दूसरों
को उत्तरदायी
ठहराता है। तब
संघर्ष शुरू
होते हैं। और
यही संघर्ष
बढ़ते-बढ़ते बड़ी
कलह का रूप
लेते हैं।
धर्म लड़ते हैं,
राष्ट्र
लड़ते हैं; जातियां
लड़ती
हैं।
अगर हम मनुष्य
का इतिहास गौर
से देखें तो
सिवाय लड़ाई के
आदमी ने अब तक
कुछ किया ही
नहीं है। तीन
हजार सालों
में कोई
पंद्रह हजार
युद्ध हुए।
हिसाब लगाया
है
इतिहासज्ञों
ने तो वे कहते
हैं कि तीन
हजार सालों
में ऐसे कुछ
ही दिन हैं जब
कहीं न कहीं
युद्ध न हो
रहा हो, कुछ
ही दिन हैं जब
कहीं भी युद्ध
नहीं हो रहा।
नहीं तो कहीं
न कहीं युद्ध
हो रहा है; कभी
वियतनाम है, कभी कंबोदिया
है, कभी
कश्मीर है, कभी इजरायल
है। कहीं न
कहीं युद्ध हो
रहा है। पृथ्वी
कहीं न कहीं
बड़े गहरे घाव
से भरी रहती है,
और
मनुष्यता का
प्राण कहीं न
कहीं तड़पता
रहता है, छुरा
कहीं न कहीं
छाती में भुंका
ही रहता है।
क्या
कारण होगा? क्या
आदमी शांति से
नहीं रह सकता?
क्या आकाश
के तारे और
सूरज और वृक्ष
और पक्षियों
के गीत और
पृथ्वी की
हरियाली
तृप्त होने के
लिए काफी नहीं
है? क्या
परमात्मा ने
जो दिया है वह
कम है, इतना
कम है कि हमें
लड़ना ही पड़ेगा?
हम उसे भोग
नहीं सकते? क्या यह
नहीं हो सकता
कि जितनी
ऊर्जा हमारी
युद्धों में
लगती है उतनी
ऊर्जा जीवन के
उत्सव में लग
जाए? कि
जिस शक्ति को
हम नष्ट करते
हैं युद्धों
में...।
क्योंकि
करीब-करीब हर
राष्ट्र की
सत्तर प्रतिशत
शक्ति युद्ध
में लगती है।
और बाकी तीस
प्रतिशत जो है
उसको भी अगर
हम बहुत गौर
से देखें तो
घरेलू युद्ध न
हो जाएं उनमें
लगी रहती है।
कहीं कोई
आंदोलन है; कहीं कोई
घेराव है; कहीं
कोई उपद्रव
है। आदमी बिना
उपद्रव के एक
क्षण नहीं है।
और अपने
उपद्रवों को
बड़े अच्छे-अच्छे
नाम देता है; कभी
धर्मयुद्ध, जेहाद, कभी
क्रांति, कभी
इंकलाब, कभी
स्वतंत्रता।
बड़े
अच्छे-अच्छे
नाम देता है।
और अच्छे
नामों के पीछे
छिपी रहती है
सिर्फ अशांति,
लड़ने की
आकांक्षा।
कोई बहाना मिल
जाए और हम लड़
लें। कोई भी
बहाना मिल जाए
हम लड़ लें।
बहाना
न हो तो हम
ईजाद करते
हैं। हिटलर ने
अपनी आत्म-कथा
में लिखा है
कि अगर कोई
दुश्मन न हो
तुम्हारा, तो
ईजाद कर लेना
चाहिए, क्योंकि
बिना दुश्मन
के किसी भी
राष्ट्र में शांति
रखना असंभव
है। क्योंकि
लोग अगर बाहर
न लड़ेंगे, तो
भीतर लड़ेंगे।
अगर
हिंदुस्तान-पाकिस्तान
न लड़ेंगे, तो
इंदिरा और
जयप्रकाश
उपद्रव खड़ा
करेंगे।
इसलिए हर
राजनीतिज्ञ कोशिश
करता है कि
बाहर कहीं न
कहीं उपद्रव
चलता रहे।
जैसे ही बाहर
उपद्रव जोर से
चलता है, भीतर
उपद्रव की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती।
इसे
देखें गौर से।
हिंदुस्तान
में हिंदू-मुसलमान
थे;
पाकिस्तान
नहीं बंटा था,
हिंदू-मुसलमान
लड़ते थे। तब
तुमने कभी न
सुना था कि
हिंदी भाषी और
गैर-हिंदी
भाषी लड़ते
हैं। तब तुमने
कभी न सुना था
कि मराठी और
गुजराती लड़
सकते हैं। तब
तुमने कभी न
सुना था कि कन्नड़
और मराठी लड़
सकते हैं।
दोनों हिंदू
थे; लड़ने
का कोई सवाल
ही न था। लड़ाई
बाहर चल रही
थी; हिंदू-मुसलमान
के बीच थी।
अशांति वहां
निकल जाती थी।
फिर
पाकिस्तान
बंट गया। अब
अशांति वहां
निकलने का कोई
कारण न रहा।
अब हमें नये
उपाय खोजने पड़ेंगे।
अशांति तो है।
तो अब कन्नड़
और मराठी
लड़ेंगे। तो अब
हिंदी और
गैर-हिंदी भाषी
लड़ेगा। और तुम
यह मत सोचना
कि यह झगड़ा
मिट जाए तो
कुछ हल होता
है। सोच लो कि
गुजरात को
बिलकुल सबसे
अलग काट कर कर
दिया जाए, तो
कच्छी और
गुजराती
लड़ेगा; सौराष्ट्र
का रहने वाला
गुजराती से
लड़ेगा। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुम
बांटते जाओ।
जब तक दो आदमी
हैं, लड़ाई
जारी रहेगी।
और अगर एक ही
बचा तो वह
आत्महत्या कर
लेगा।
क्योंकि कहां
जाएगी अशांति?
अशांति को
कहीं तो
निकालना
पड़ेगा। और
लाओत्से उसका
मूल कारण कह
रहा है कि
लोगों को
तुमने इतने
विचार दे दिए
हैं कि अब
उनके मन शांत
नहीं हो पाते।
"जो
ज्ञान से किसी
देश पर शासन
करना चाहते
हैं वे
राष्ट्र के
अभिशाप हैं।
जो ज्ञान से
देश पर शासन
नहीं करना
चाहते, वे
राष्ट्र के
वरदान हैं।'
ये बड़ी
उलटी बातें
मालूम पड़ती
हैं,
पर बड़ी
महत्वपूर्ण
और बड़ी सत्य
हैं।
"जो
इन दोनों
सिद्धांतों
को जानते हैं
वे प्राचीन
मानदंड को भी
जानते हैं। और
प्राचीन मानदंड
को सदा जानना
ही रहस्यमय
सदगुण कहाता
है। जब
रहस्यमय
सदगुण स्पष्ट,
दूरगामी
बनता है और
चीजें अपने
उदगम को लौट
जाती हैं, तब,
और तभी, उदय
होता है भव्य
लयबद्धता का।'
तो
लाओत्से कहता
है,
जो इन दो
सिद्धांतों
को समझ लेते
हैं कि अज्ञान
में लोग शांत
होते हैं और
ज्ञान में
अशांत हो जाते
हैं; अज्ञान
में लोग सरल
होते हैं और
ज्ञान में
जटिल और कुटिल
हो जाते हैं; अज्ञान में
निर्दोष होते
हैं, ज्ञान
में चालाक, जो इन दोनों
सिद्धांतों
को जानता है
उसे उस प्राचीन
मानदंड का भी
अनुभव हो
जाएगा। वह
प्राचीन
मानदंड, रहस्यमय
सदगुण उसको
कहता है
लाओत्से, वह
प्राचीन
मानदंड क्या है?
वह प्राचीन
मानदंड यह है
कि तुम्हारा
जीवन का अंतिम
लक्ष्य जीवन
के मूल स्रोत
को पा लेना है;
वहीं पहुंच
जाना है जहां
से तुमने शुरू
किया था। वह
प्राचीन
मानदंड है।
लक्ष्य, अंत,
प्रारंभ से
भिन्न नहीं
है। जीवन
वर्तुलाकार है।
जैसे वर्तुल
जहां से शुरू
होता है वापस
वहीं पूरा हो
जाता है। और
जीवन में सारी
गति
वर्तुलाकार
है। तारे
वर्तुलाकार
घूमते हैं; सूरज
वर्तुलाकार
घूमता है; पृथ्वी
वर्तुलाकार
घूमती है।
मौसम आते हैं
एक वर्तुल
में। बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म-मृत्यु
एक वर्तुल में
घूमते हैं।
सारी जीवन की
गति सर्कुलर
है, वर्तुलाकार
है। और वर्तुल
का लक्षण यह
है कि चीजें
वहीं आकर
पूर्ण होती
हैं जहां से
शुरू हुई थीं।
इसका अर्थ
हुआ: प्रथम
कदम ही अंतिम
कदम सिद्ध
होता है। सारी
यात्रा के बाद
तुम अपने घर
ही वापस लौट
आते हो। यह है
प्राचीन
मानदंड।
लेकिन
साधारणतः
शिक्षा, ज्ञान,
पांडित्य
तुम्हें
सिखाता है कि
कोई लक्ष्य
पाना है जो
तुम्हारे पास
नहीं है; कोई
महत्वाकांक्षा
पूरी करनी है;
एक रेखा में
चलना है। जैसे
समझो। एक
बच्चा पैदा
हुआ। क्या
लेकर पैदा
होता है? खाली
हाथ पैदा होता
है। मरता है
तब भी खाली हाथ
मरता है। वही
अवस्था वापस
लौट आती है।
जो इन दोनों
को जोड़ लेता
है और समझ
लेता है कि
इसके बीच सारा
खेल है। धन
आता है, जाता
है; जीत
होती है, हार
होती है; असफलता,
सफलता; पाना,
खोना; लेकिन
सब बीच में
है। अंत में
तो वहीं लौट
आते हैं जहां
से चले थे।
खाली हाथ फिर
खाली हो जाते
हैं। जिसने इस
बात को समझ
लिया, उसने
जीवन के
सदगुणों का
सार समझ लिया,
उसने जीवन
का रहस्यमय
सदगुण समझ
लिया, उसने
वह अनूठा
मानदंड पहचान
लिया।
क्योंकि तब वह
ध्यान रखेगा
कि आज नहीं कल
हाथ खाली हो
जाने हैं। और
जिसको यह पता
है कि अंत में
हाथ खाली हो
जाने हैं, जैसा
आया था वैसा
ही जाना है, वह सफलता
में बहुत पागल
भी न होगा, विफलता
में बहुत दुखी
भी न होगा; न
तो सफलता में
नाचेगा, और
न विफलता में
मुर्दा की तरह
बैठ जाएगा; क्योंकि वह
जानता है
अंततः सब चला
जाएगा। हाथ ही
पास रह जाएंगे,
खाली हाथ।
तो आना-जाना
खेल रह जाएगा।
उसमें ज्यादा
मूल्य नहीं
है।
लेकिन
सारी शिक्षा
क्या सिखाती
है?
सारी
शिक्षा
वर्तुलाकार
नहीं सिखाती
जीवन को, रेखाबद्ध,
लीनियर बताती है।
शिक्षा कहती
है, आज
तुम्हारे पास
एक रुपया है, कल दो होने
चाहिए, परसों
तीन होने
चाहिए। आज दस
हजार हैं, कल
पचास हजार
होने चाहिए।
रेखाबद्ध
तुम्हें बढ़ते
जाना चाहिए।
मरते वक्त
करोड़ों रुपये
तुम्हारे पास
होने चाहिए; तभी तुम सफल
हुए। अन्यथा
तुम असफल हो
गए। महत्वाकांक्षा
चलती है एक
रेखा में और
जीवन चलता है
वर्तुल में।
महत्वाकांक्षा
कहती है, जन्म
हो गया, अब
मृत्यु होनी
ही नहीं
चाहिए। अब तो जीओ, और
जीने का हर उपाय
करो। मरते दम
तक भी मरने को
टालो।
और
पश्चिम में
बहुत से उपाय
खोज लिए गए
हैं। तो बहुत
से लोग
मुर्दों की
भांति टंगे
हैं,
अस्पतालों
में टंगे हैं।
इंजेक्शन दिए
जाते हैं, वे
जिंदा हैं।
लेकिन उनकी
स्थिति
साग-सब्जी से
ज्यादा नहीं
है। मरना नहीं
चाहते, और
जीना तो जा
चुका है।
क्योंकि जीवन
वर्तुलाकार
है। तो अब वे
टंगे हैं--बड़ी
पीड़ा में, बड़े
कष्ट में। छोड़
नहीं सकते हैं,
जीवन को
छोड़ने की
हिम्मत नहीं
है। सब उपाय
किए जा रहे
हैं कि वे
किसी तरह बचे
रहें। उनका
कोई बचने का
अर्थ भी नहीं
है, कोई
उपयोग भी नहीं
है; उनके
खुद के लिए भी
नहीं है, दूसरे
के लिए भी
नहीं है। वे
एक बोझ हैं।
लेकिन
अस्पतालों
में किसी की
टांगें बंधी
हैं, किसी
के हाथ बंधे
हैं, और
उनको
इंजेक्शन दिए
जा रहे हैं और
आक्सीजन दी जा
रही है। और
उनको जिलाया
जा रहा है। यह
जबरदस्ती है।
यह
रेखाबद्ध
तर्क का
परिणाम है। मरो
मत! एक दफे
पैदा हो गए, अब
मरना नहीं है।
एक दफे पद पर
पहुंच गए, अब
हटना नहीं है
पद से। अब और
ऊपर जाना है।
और कहीं ऊपर
जाने को न हो
तो जिस पद पर
पहुंच गए हैं आखिर
में उसको पकड़े
रखना है। उसको
छोड़ना नहीं है
आखिरी दम तक।
धन जो मिल गया
उसको बढ़ाते
जाना है। उसी रेखा
में बढ़ते चले
जाना है--बिना
सोचे कि जब दस हजार
से सुख न मिला
तो दस लाख से
कैसे मिल जाएगा!
और जब दस हजार
में इतना
विषाद है तो
दस लाख में तो
और बढ़ जाएगा!
और जब दस हजार
में इतने
हारे-थके
मालूम पड़ रहे
हैं तो दस लाख
में क्या गति
होगी!
लाओत्से
कह रहा है कि जीवन
का मापदंड है
कि तुम स्मरण
रखना कि
वर्तुलाकार
है सब। आज
जवान हो, सदा
नहीं रहोगे।
और जब जवानी
जाने लगे तो पकड़ना मत।
विदा दे देना,
शांति से
विदा दे देना।
क्योंकि
वर्तुल अब लौटने
लगा। पक्षी
अपने घर आने
लगा। आना ही
पड़ेगा घर। यह
बात अगर गहरी
समझ में आ जाए
तो तुम्हारे
जीवन में एक
सदगुण आ जाएगा,
जो साधारण
नीति नहीं दे
सकती; जो
केवल प्रज्ञा
से ही पैदा
होता है। तब
तुम चीजों को
आएंगी तो
स्वागत करोगे,
जाएंगी तो
स्वागत
करोगे। तुम
जानोगे, जो
आया है वह
जाएगा। तुम
जवान हो जाओगे
तो प्रसन्न
रहोगे; जवानी
जाने लगेगी तो
प्रसन्न
रहोगे।
क्योंकि
ज्वार आता है
तो फिर भाटा
भी होगा; चांदनी
रातें आएंगी,
फिर अंधेरी
रातें भी
आएंगी। और तुम
यह याद रखोगे,
आखिर में
वही रह जाना
है जो तुम
प्रथम में थे।
और वह कभी
खोने वाला
नहीं। इसलिए
भय क्या है?
खाली
हाथ तो सदा
तुम्हारे पास
होंगे ही।
नग्न तुम पैदा
हुए थे, नग्न
ही तुम विदा
हो जाओगे। न
कुछ लेकर आए
थे, न कुछ
लेकर जाना है।
अगर यह बोध
गहन हो जाए तो
जीवन में एक
अनासक्ति आती
है। वह
अनासक्ति अनासक्ति
का व्रत लेने
से नहीं आती।
वह अनासक्ति तो
इस समझ का सहज
परिणाम है।
"जो इन
दोनों
सिद्धांतों
को जानते हैं,
वे प्राचीन
मानदंड को भी
जानते हैं। और
प्राचीन
मानदंड को सदा
जानना ही
रहस्यमय
सदगुण कहलाता
है।'
तो दो
तरह के सदगुण
हैं। एक तो
साधारण सदगुण
है जिसको हम
आरोपित कर
लेते हैं। सच
बोलना चाहिए।
क्योंकि
सिखाया गया है, भय
दिया गया है
कि नहीं सच
बोले तो नरक
में पड़ोगे, नहीं सच
बोले तो
स्वर्ग न
मिलेगा। भय है,
लोभ है, शिक्षा
है, संस्कार
है। लेकिन यह
वास्तविक
सदगुण नहीं है।
भय के कारण सच
बोल रहे हो तो
सच तुम्हारा
भय से छोटा
है। लोभ के
कारण सच बोल
रहे हो तो सच
भी तुम्हारा
लोभ का ही
हिस्सा है। और
सत्य कैसे लोभ
का हिस्सा हो
सकता है? और
सत्य कैसे भय
का हिस्सा हो
सकता है? सत्य
तो अभय है।
सत्य तो
निर्लोभ है।
सिखाया गया
है। और सब शिक्षाएं
लोभ और भय पर
ही खड़ी हैं।
रहस्यमय
सदगुण लोभ और
भय पर नहीं
खड़ा है; बोध
पर खड़ा है।
तुमने जीवन को
समझने की
कोशिश की और
पाया कि यहां
न कुछ बचता है,
न बचाने
योग्य है; झूठ
किसलिए
बोलना है? झूठ
बोल इसीलिए
रहे थे कि कुछ
बच जाए। चार
पैसे ज्यादा
बच सकते थे
अगर झूठ बोल
देते। सच बोलते
तो चार पैसे
ज्यादा लग
जाते।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के लड़के से
मैंने पूछा कि
तेरी उम्र
क्या है? तो
उसने कहा कि
पहले यह जगह
बताइए, किस
जगह--बस में, ट्रेन में, घर में? क्योंकि
बस में मैं
सुनता हूं चार
साल, घर
में सुनता हूं
छह साल। तो
कुछ पक्का
नहीं है कितनी
उमर है।
निर्भर करता
है, कौन सी
स्थिति है।
चार
पैसे बच जाएं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
लेकर ट्रेन
में बैठा है।
और टिकट कलेक्टर
ने पूछा, कितनी
उमर? तो
उसने कहा कि
चार साल। उसने
कहा कि मालूम
तो सात साल का
होता है। नसरुद्दीन
ने लड़के की
तरफ देखा और
कहा कि मैं
क्या करूं! अब
यह चिंता-फिकर
करता है अभी
से इसीलिए
इतना बूढ़ा
दिखाई पड़ता
है। बाकी है
तो चार ही साल
का। चिंता-फिकर
के कारण सात साल
का मालूम पड़
रहा है।
दो
पैसे के लिए
आदमी झूठ बोल
रहा है। दो
पैसे के लिए
आदमी बेईमानी
कर रहा है। दो
पैसे के लिए आदमी
हिंसक हो जाता
है। लेकिन
जिसको बोध आ
गया इस बात का
कि लौट जाना
है वर्तुल को
उसी जगह जहां
से हम आए थे, वहां
मुट्ठी खुल
जाएगी। जिन
पैसों के लिए
बेईमानी की थी,
झूठ बोले थे,
हिंसा की थी,
वैमनस्य
किया था, मुट्ठी
खुल जाएगी, पैसे पड़े रह
जाएंगे। पैसे
तो पड़े रह
जाएंगे, लेकिन
पैसों के लिए
हमने जो किया
था वह हमारे चित्त
का हिस्सा हो
जाएगा; वह
हमें भटकाएगा
जन्मों-जन्मों
में। वह बार-बार
हमें बेईमानी
के मार्ग पर
ले आएगा और
बार-बार झूठ
का, प्रलोभन
का बीज हम
बोते रहेंगे।
लाओत्से
कहता है कि
जीवन के रहस्य
को समझना हो
तो इस बात को
पहले समझ लेना
कि सब चीजें
अपनी मूल
अवस्था में
लौट जाती हैं।
जहां से तुम
आए थे वहीं
तुम चले जाते
हो। तो यहां
अगर तुम हो तो इस
मकान को, इस
संसार को, सराय
से ज्यादा मत
समझना। रुके
हैं रात, ठीक;
सुबह विदा
हो जाना है।
और अगर तुमने
वर्तुलाकार
जीवन का
अनुशासन
निर्मित किया
तो तुम धार्मिक
हो।
इसे
तुम समझ लो, यह
गणित की बात
है। अगर तुमने
जीवन को एक
रेखा में सीधा
निर्मित किया
तो तुम संसारी
हो; अगर
तुमने जीवन को
वर्तुलाकार
निर्मित किया
तो तुम
संन्यासी हो,
तुम
धार्मिक हो।
और इन दोनों गणितों का
अलग-अलग फैलाव
है। जो
रेखाबद्ध
बढ़ता है वह कहता
है, दस
रुपये हैं तो
ग्यारह होने
चाहिए, ग्यारह
हैं तो बारह
होने चाहिए।
वह निन्यानबे
का चक्कर
जिसको हम कहते
हैं वह
रेखाबद्ध
गणित है।
तुमने
वह कहानी जरूर
सुनी होगी कि
एक नाई है जो
सम्राट के
हाथ-पैर दाबता
है,
मालिश करता
है। और सम्राट
से सदा ज्यादा
प्रसन्न रहता
है। उसकी खुशी
का कोई अंत
नहीं है। और
सम्राट को
हमेशा
हारा-थका पाता
है। आखिर सम्राट
ने भी एक दिन
हिम्मत जुटा
कर कहा कि सुन
भाई, तेरा
राज क्या है? तू इतना
प्रसन्न
क्यों रहता है?
उसने कहा, राज तो मुझे
पता नहीं, लेकिन
मैं कोई कारण
नहीं पाता
दुखी होने का।
और मैं कोई
बहुत समझदार
नहीं हूं
इसलिए मैं कुछ
ज्यादा बता
नहीं सकता।
लेकिन मैं बड़ा
खुश हूं।
सम्राट ने
अपने वजीर से
पूछा। वजीर ने
कहा कि राज
मैं बता सकता
हूं; यह
अभी
निन्यानबे के
चक्कर में
नहीं है। राजा
ने कहा, क्या
मतलब? यह
चक्कर क्या है?
वजीर ने कहा,
आप
निन्यानबे
रुपये रख कर
एक थैली में, इसके घर में फिंकवा
दो।
उसी
रात
निन्यानबे
सोने के
सिक्के उसके
घर में फेंक
दिए गए। उसको
एक रुपया, एक
सिक्का रोज
मिलता था
सम्राट के घर
से--मालिश
करने का, सेवा
करने का। वह
रोज के लिए
पर्याप्त था।
वह खूब मजे से
खाता-पीता, रात चादर ओढ़
कर सोता। कल
की कोई फिकर न
थी। कल फिर
मालिश करेगा,
फिर एक
रुपया मिल
जाएगा। उसकी
मस्ती का कोई
अंत न था।
गणित ही पैदा
न हुआ था।
लेकिन
निन्यानबे ने
दिक्कत डाल
दी। उसने
निन्यानबे
गिने तो उसने
सोचा कि कल तो
उपवास कर लेना
उचित है; एक
रुपया बच जाए
तो सौ हो
जाएं। अब
निन्यानबे में
कुछ ऐसा है कि
आदमी का मन सौ
करना चाहता है
एकदम से।
तुमको भी मिल
जाएं
निन्यानबे तो
जो पहला खयाल
उठेगा वह यह
कि सौ कैसे हो
जाएं। कुछ
अधूरा लगता है
निन्यानबे
में, कुछ
कमी लगती है।
और एक रुपये
की कुल कमी है;
कोई ज्यादा
भी कमी हो तो
आदमी सोचे कि
मुश्किल है।
एक ही रुपये
का मामला है।
नाई ने सोचा
कि आज उपवास
ही कर लो। एक
दिन खाना न
खाएंगे तो एक
रुपया बच जाएगा,
सौ हो
जाएंगे।
नाई उस
दिन आया तो, लेकिन
अब भूखा आदमी
तो उदास। पैर
तो दाबे
उसने, लेकिन
बेमन से। और
पैर भी दाब
रहा था तो
उसके भीतर तो
गणित वही चल
रहा था कि एक
बच जाएगा, सौ
हो जाएंगे।
गजब हो गया।
पता नहीं कौन
निन्यानबे
डाल गया!
सम्राट ने
पूछा कि आज
कुछ उदास-उदास
मालूम पड़ते हो?
उसने कहा, नहीं, ऐसी
कुछ बात नहीं।
जरा ऐसे ही, धार्मिक
त्यौहार है, उपवास किया
है। और उपवास
की तो
शास्त्रों
में बड़ी
प्रशंसा है।
सौ
पूरे हो गए, लेकिन
अब दौड़ शुरू
हो गई। नाई ने
सोचा, जब
निन्यानबे से
सौ हो सकते
हैं, तो एक
सौ एक भी हो सकते
हैं। अब रुकने
का कोई उपाय न
रहा। महीने भर
में तो वह
दीन-हीन हो
गया, जर्जर
हो गया। कई
उपवास कर लिए।
सस्ती चीजें खरीद
कर खाने लगा।
दूध लेना बंद
कर दिया, चाय
ही पीने लगा।
अब बचाना था।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कुछ मनुष्य के
मन में जहां
भी अधूरापन हो
उसे पूरा करने
की एक बड़ी
गहरी पकड़ है।
आदमी में ही
नहीं, वे
जानवरों में
भी यह अनुभव
करते हैं। तो
उन्होंने
बंदरों के पास
भी प्रयोग
करके देखे
हैं। बंदर के
पास चॉक से एक
वर्तुल खींच
दो अधूरा, और
चॉक वहीं छोड़
दो; बंदर
फौरन आकर
वर्तुल को
पूरा कर देगा।
उसको भी अड़चन
मालूम होती है
कि यह अधूरा
जान खाएगा,
इसको पहले
पूरा करो तो
निश्चिंत हो
जाओ।
मगर
सीधी रेखा की
खराबी यह है
कि वह कहीं
पूरी होती
नहीं। वर्तुल
तो पूरा हो
सकता है, सीधी
रेखा कैसे
पूरी होगी? वह तो चलती
ही जाती है।
तो निन्यानबे
से सौ पर जाती
है, सौ से
एक सौ एक पर
जाती है। अब
अनंत है; अब
इसका कहीं कोई
अंत नहीं।
महीने
भर बाद राजा
ने कहा कि तू
समझ नहीं रहा
है। तेरी हालत
खराब हुई जा
रही है। तू तो
मुझसे भी बदतर
हुआ जा रहा
है। तो उसने
कहा,
आप पुराने
अनुभवी हैं, मैं नया ही
नया सिक्खड़
ही हूं, बड़ी
मुश्किल में
पड़ा हूं। मगर
मेरी जान ले
ली किसी आदमी
ने जिसने
निन्यानबे
रुपये मेरे घर
में फेंक दिए।
अब मैं आपको
बताए देता हूं,
कोई
धार्मिक
उपवास वगैरह
नहीं कर रहा
हूं। मेरा
छुटकारा करा
दो किसी तरह
वह निन्यानबे
रुपये से।
पुरानी
कहानी है कि
एक गांव में
एक जवान आदमी था।
और वह इतना
जवान था, और इतना
मस्त था--एक
फकीर का लड़का
था, मांग
लेता था और
सोया रहता
था--कि राजा की
सवारी निकलती
तो वह हाथी की
पूंछ पकड़ कर
खड़ा हो जाता
तो हाथी रुक
जाता। राजा को
बड़ा अपमान
मालूम पड़ता।
यह तो हद हो गई!
बीच बाजार में
खड़ा कर देता
वह हाथी को।
राजा ने कहा, यह तो
बरदाश्त के
बाहर है कि एक
आदमी ऐसा भी
है कि हमारे
हाथी को रोक
ले और हाथी न
हिले! और हम
कुछ भी न कर
पाएं, अवश
टंगे रह जाते
हैं। इसको ठीक
करना पड़ेगा। पूछा
अपने वजीरों
को कि क्या
उपाय है? उन्होंने
कहा, आप
ऐसा करें इसे
कुछ काम लगा
दें। यह आदमी
बिलकुल खाली
है; यह
बिलकुल मस्त
है। यह मांग
लेता है, खा
लेता है, सो
जाता है। इसकी
शक्ति का कहीं
कोई ह्रास नहीं
हो रहा। उसने
कहा, इसको
काम में
लगाएंगे कैसे?
यह मानेगा
नहीं।
उन्होंने कहा,
मान जाएगा;
एक छोटा काम
हम जाकर लगा
देते हैं। कहा,
एक रुपया
रोज तुझे
मिलेगा; जिस
मंदिर के
सामने तू सोया
रहता है यहां
दीया जला दिया
कर शाम को ठीक
छह बजे। पर
ध्यान रहे, ठीक छह बजे।
जिस दिन भी
देर-अबेर हुई,
रुपया नहीं
मिलेगा। उसने
कहा, यह भी
कोई बात है।
मगर अब
यह छह बजे
उसके पीछे पड़
गए। कभी घड़ी
सोची न थी; कभी
समय का कोई
हिसाब न रखा
था। कोई जरूरत
ही न थी। अब तक
तो ऐसे जी रहा
था जैसे समय
है ही नहीं।
अब पहली दफा
समय उसकी
चेतना में
प्रविष्ट
हुआ। अनंत तो
वर्तुलाकार
है; समय
रेखाबद्ध है।
अब उसको फिकर
लगी रहती। वह
कई दफे जाकर
बाजार में
घंटाघर में
देख कर आता कि
कहीं छह तो
नहीं बज गए।
रात सोता तो
भी फिकर लगी
रहती कि कहीं
छह तो नहीं बज
गए। तुम कहोगे,
नासमझ था, क्योंकि रात
क्या सोचना? तुम भी
दफ्तर की बात
रात सोचते हो,
दुकान की
बात रात सोचते
हो। वह भी
अपनी दुकान की
बात सोचता है।
दुकान छोटी
हुई तो इससे
क्या फर्क
पड़ता है? अब
उसने भिक्षा
मांगनी भी बंद
कर दी। अब
रुपया ही मिल
जाता था तो
मजे से
खाने-पीने
लगा। लेकिन वह
छह बजे एक
कांटे की तरह
चेतना में चुभ
गया।
महीने
भर बाद राजा
की सवारी
निकली। हाथी
की पूंछ पकड़ी, घिसट
गया। हाथी रुक
न सका।
जीवन
बड़ी विराट
ऊर्जा है। तुम
अगर घिसट गए
हो तो सिर्फ
इसलिए घिसट गए
हो कि उस
विराट ऊर्जा को
तुमने
वर्तुलाकार न
बना कर
रेखाबद्ध
बनाने की
चेष्टा की है।
धन से, राजनीति
से, पद से
तुम सीधे चलने
की कोशिश कर
रहे हो कि कहीं
अंत ही न हो।
बुद्ध
ने कहा है, जो
चीज भी
प्रारंभ होती
है उसका अंत
होता है। इस
सत्य को जिसने
जान लिया उसने
सब कुछ जान लिया।
तब यह संसार
एक माया हो
जाता है, एक
सपना, जो
आज है और कल
नहीं हो
जाएगा। बचेगा
तो वही जो तुम
जन्म के साथ
लेकर आए थे।
उतना ही। और
उतनी तुम्हारी
संपदा है। और
उतना काफी है।
क्योंकि वहीं
परमात्मा
छिपा है। उससे
ज्यादा की किसी
को भी कोई
जरूरत नहीं
है। तुम्हें
जो चाहिए वह तुम्हें
मिला ही हुआ
है। और
तुम्हें जो
नहीं चाहिए
उसकी दौड़ में
तुम उसे खो
रहे हो जो
तुम्हें मिला
हुआ है। यह है
मूल मापदंड।
"और
प्राचीन
मानदंड को
जानना ही
रहस्यमय सदगुण
है।'
तब
तुम्हारे
जीवन में एक
नीति की सुवास
उठेगी। उस
सुवास में न
तो गंध होगी
लोभ की, न दुर्गंध
होगी भय की।
वह सुवास
अपार्थिव है।
तो दो
तरह के नैतिक
व्यक्ति हैं।
एक तो वे नैतिक
व्यक्ति हैं
जो गणित के
हिसाब से
नैतिक हो गए
हैं। डर है
पुलिसवाले का, अदालत
का, मुकदमे
का, नरक का,
स्वर्ग का;
वे भयभीत
हैं। अगर भय
उठा लो, वे
अभी बेईमान हो
जाएंगे, अभी
चोर हो
जाएंगे। उनकी
नैतिकता
वास्तविक
नहीं है, जबरदस्ती
आरोपित है।
और एक
धार्मिक
व्यक्ति की
नैतिकता है, जो
इसलिए नैतिक
है कि वह
जानता है यहां
कुछ पकड़ने
को ही नहीं है,
कुछ बचाने
को ही नहीं
है। और बचाओ, कितना ही
बचाओ, छूट
ही जाएगा। तो पकड़ने का
सार क्या है? जो छूट ही
जाना है, उसे
छोड़ देना ही
उचित है। जो
मिट ही जाना
है, वह मिट
ही गया, ऐसा
जान लेना उचित
है। जो तुमसे
छीन लिया जाएगा,
अगर तुम खुद
दे दो तो
संन्यास है।
मौत जो छीनेगी,
वह अगर तुम
खुद दे दो तो
संन्यास है।
मौत को जो संन्यास
बना लेता है
वह परम ज्ञानी
है। मौत तो
करेगी वही; उसमें कुछ
बदलाहट होने
वाली नहीं है।
तुम्हें वह
अपवाद नहीं
देगी; मौत
छीन लेगी सब।
अगर यह
तुम्हें
दिखाई पड़ जाए
तो तुम अपनी
मौज से ही छोड़
देते हो सब।
तुम कहते हो, तब ठीक है।
पानी पर खिंची
रेखा है; खिंच
भी नहीं पाती,
मिट जाती
है। कौन इसके
लिए पागल हो? रेत का
बनाया घर है; हवा का जरा
सा झोंका गिरा
देता है। कौन
इसके लिए
दीवानगी करे?
जैसे
ही तुम्हें यह
मापदंड खयाल
में आने लगा, तो
लाओत्से कहता
है, "जब
रहस्यमय
सदगुण स्पष्ट,
दूरगामी
बनता है...।'
कि दूर
तक तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगता है जीवन
का अर्थ वर्तुलाकार
है,
कि तुम
देखते हो कि
दूर जाकर रेखा
मुड़ गई है, और
वहीं आ गई है
जहां से शुरू
हुई थी।
"और
चीजें उदगम की
ओर लौट जाती
हैं।'
जब
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि हर गंगा
गंगोत्री चली
आती है वापस।
"तब, और तभी, उदय
होता है भव्य
लयबद्धता का।'
तब
तुम्हारे
जीवन में एक
संगीत का जन्म
होता है, एक
ऐसी लयबद्धता
का जिसे तुमने
कभी जाना नहीं।
तब सब अशांति
खो जाती है, सब तनाव झर
जाते हैं सूखे
पत्तों की
भांति। तुम्हारे
जीवन में एक
भीतरी
हरियाली आ
जाती है, एक
अनूठा स्रोत आ
जाता है।
तुम्हारा सब
रेगिस्तान खो
जाता है। तुम
एक मरूद्यान
हो जाते हो।
अंधकार मिट
जाता है। भीतर
का दीया अपनी
पूरी शक्ति
में प्रकट हो
जाता है, दीप्तमान हो जाता है।
इस
आत्यंतिक
लयबद्धता का
नाम ही
परमात्मा है।
लाओत्से
परमात्मा का
नाम उपयोग
नहीं करता, क्योंकि
पंडितों ने
उसका नाम इतना
उपयोग किया है
कि वह नाम
गंदा हो गया, वह जूठा हो
गया। पंडितों
ने उस नाम को
बिगाड़ डाला।
उन पंडितों की
बास शब्द में
भर गई। इसलिए
लाओत्से
परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं करता। लेकिन
वह उस
परमात्मा की
ही बात कर रहा
है जब वह कहता
है परम
लयबद्धता।
"दि
एनशिएंट्स
हू न्यू हाऊ
टु फालो
दि ताओ एंड नाट
टु एनलाइटेन
दि पीपुल,
बट टु कीप देम इग्नोरेंट।
दि रीजन
इट इज़ डिफीकल्ट
फॉर दि पीपुल
टु लिव इन
पीस इज़ बिकाज ऑफ
टू मच नालेज।
दोज हू सीक टु
रूल ए कंट्री
बाइ नालेज
आर दि नेशंस कर्स। दोज
हू सीक नाट टु
रूल ए कंट्री
बाइ नालेज
आर दि नेशंस
ब्लेसिंग।
दोज हू नो दीज
टू
(प्रिंसिपल्स)
आल्सो नो
दि एनशिएंट
स्टैंडर्ड।
एंड टु नो
आलवेज दि एनशिएंट
स्टैंडर्ड इज़ काल्ड
दि मिस्टिक वर्चू।
व्हेन दि
मिस्टिक वर्चू
बिकम्स क्लियर, फार-रीचिंग,
एंड थिंग्स
रिवर्ट
बैक (टु देयर
सोर्स), देन
एंड देन ओनली
इमर्जेज
दि ग्रैंड
हार्मनी।'
भव्य
लयबद्धता का
तभी जन्म होता
है। वह
लयबद्धता
तुम्हारे
भीतर छिपी है।
तुम रेखाबद्ध
चलना बंद कर
दो,
तुम
वर्तुलाकार
बना लो जीवन
को, तत्क्षण
तुम्हें अपने
भीतर छिपे हुए
संगीत के स्वर
सुनाई पड़ने
लगेंगे। वे
स्वर
परमात्मा के
स्वर हैं। वे
स्वर शून्यता
के, मोक्ष
के स्वर हैं।
और तुम्हारे
भीतर ऐसी अनंत
फूलों की
वर्षा हो
जाएगी। उस
आनंद की, जिसकी
तुम खोज कर
रहे हो और
दर-दर भीख
मांग रहे हो, तुम्हारे
भीतर अहर्निश
वर्षा होने
लगेगी। उसे
तुम लेकर ही
आए हो। तुम
उसे खो रहे हो,
क्योंकि
तुम एक गलत
ढंग से जी रहे
हो। तुम्हारे
जीने का ढंग
रेखाबद्ध है,
लीनियर है। और जीने
का वास्तविक
ढंग सर्कुलर,
वर्तुलाकार
ही हो सकता
है।
जिसने
इस प्राचीन
मानदंड को
पहचान लिया, वह
सब पा लेता है
जो भी पाने
योग्य है। वह
मिला ही हुआ
है। तुमने उसे
कैसे खोया, यह बड़े
रहस्य की बात
है। तुम कैसे
उससे चूकते चले
जाते हो, यह
बड़ा अदभुत है।
ज्ञान से वह न
मिलेगा; ज्ञान
को पोंछ कर
मिटा डालने
से। जीने से
मिलेगा; जानने
से नहीं।
प्रेम से
मिलेगा; तर्क
से नहीं। हृदय
से जुड़ेगा
संबंध उससे।
सारी चेष्टा
यही है कि
कैसे तुम खोपड़ी
से थोड़े नीचे
उतर आओ; कैसे
तुम हृदय में धड़कने लगो;
कैसे तुम विचारो कम,
अनुभव
ज्यादा करो।
इतना ही करना
है। फासला बहुत
बड़ा नहीं है।
सिर से हृदय
के बीच जरा सा
ही फासला है।
चाहो तो एक
कदम में भी
पूरा कर सकते
हो। और चाहो
तो अनंत
जन्मों तक
प्रतीक्षा कर
सकते हो।
तुम्हारी
मर्जी।
दरवाजा इस
वक्त भी खुला
है। लेकिन तुम
अगर स्थगित
करना चाहो तो
तुम्हारी
मर्जी। इस
क्षण ही पा
सकते हो। न तो
तुम्हारे
कर्म बाधा
बनेंगे, न
तुम्हारा
अतीत का
अज्ञान बाधा
बनेगा। कोई बाधा
नहीं है।
क्योंकि अगर
हमें कुछ और
पाना होता जो
हमें मिला ही
न था तो बाधा
बन सकती थी।
पाना हमें
अपना स्वभाव
है। पाना वही
है जो हम पाए
ही हुए हैं।
आज
इतना ही।
Very very nice thankful 👍
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