प्रश्न-सार
1--क्या
अनुकरण हीनता
का लक्षण है?
2--क्या
जीवन मात्र दोहरता
रहता है?
3--यथार्थ
को अभयपूर्वक
कैसे देखा जाए?
4--द्वंद्वात्मक
जगत के हम
बाहर हैं क्या?
पहला
प्रश्न:
आपको
देख कर मेरे
मन में भाव
उठता है कि
मैं भी आप
जैसी ऊंचाई को
कभी छुऊं।
क्या यह भी
तुलना है? हीनता
की ग्रंथि का
परिणाम है?
दूसरे
जैसे होने की
आकांक्षा
हीनता से ही
जन्म पाती है; अपने
जैसे होने की
आकांक्षा
आत्म-गरिमा से
पैदा होती है।
दूसरे जैसे
तुम होना भी
चाहो तो हो न
सकोगे। कोई
उपाय नहीं है।
उस चेष्टा में
तुम नष्ट ही
होओगे। और
जितने ही तुम
नष्ट होओगे
उतनी ही हीनता
भरती जाएगी।
जितनी हीनता
होगी उतना तुम
और दूसरे जैसे
होना चाहोगे।
एक दुष्टचक्र
में फंस
जाओगे।
दूसरे
को प्रेम करो, श्रद्धा
करो, सम्मान
करो; लेकिन
होना तो सदा
अपने ही जैसे
चाहो। क्योंकि
अन्यथा कोई
गति नहीं है।
तुम जैसा न
कभी कोई हुआ
है, न कभी
कोई होगा। तुम
बेजोड़
हो। और जब तक
तुम अपने भीतर
छिपे बीज को
ही वृक्ष न
बना लोगे तब
तक कोई
संतृप्ति
नहीं होगी। तुम्हारी
नियति पूरी
होनी चाहिए।
तुम मेरे जैसे
होने को पैदा
नहीं हुए हो।
तुम किसी
दूसरे जैसे
होने को पैदा
नहीं हुए हो।
तुम तो बस तुम
ही होने को
पैदा हुए हो।
बहुत से
आकर्षण आएंगे
जीवन में, लेकिन
उन आकर्षणों
को समझना, सीखना,
लेकिन उन
जैसे होने की
कोशिश मत
करना। उन सब आकर्षणों
को, श्रद्धाओं को, प्रेमों
को आत्मसात कर
लेना, लेकिन
बनना तो तुम
तुम जैसे ही।
रिंझाई
का गुरु मर
गया था तो
लोगों में बड़ी
चर्चा थी। और
रिंझाई को
उत्तराधिकारी
बना गया था
गुरु। और
रिंझाई गुरु
जैसा बिलकुल
नहीं था। एक
दिन लोग
इकट्ठे हुए, और
उन्होंने कहा
कि तुम तो
अपने गुरु
जैसे बिलकुल
ही नहीं हो। न
तुम्हारा
व्यवहार वैसा
है, न
तुम्हारा
आचार वैसा है,
तो तुम कैसे
उत्तराधिकारी
हो? और किस
आधार पर
तुम्हें गुरु
ने
उत्तराधिकार दिया,
यह हमारी
समझ के बाहर
है।
तो
रिंझाई ने कहा, मेरे
गुरु भी उनके
गुरु जैसे
नहीं थे, और
मैं भी उन
जैसा नहीं
हूं। यही मेरे
शिष्यत्व का
अधिकार है। न
मेरे गुरु
किसी जैसे थे
और न मैं अपने
गुरु जैसा
हूं। यही मेरे
और मेरे गुरु
में समानता
है। यहीं से
हम जुड़े हैं।
इसलिए अपने
जैसे शिष्यों
को तो
उन्होंने चुना
नहीं; मुझे
चुना है।
क्योंकि उनके
जैसे जो शिष्य
हो गए थे वे तो
नकली हो गए, वे कार्बन
कापी हो गए।
उनकी
प्रामाणिकता
खो गई। उनकी
अपनी कोई
आत्मा न रही।
वे थोड़े उधार
हो गए। उनका
जीवन बाहर से
नियंत्रित हो
गया। किसी दूसरे
की प्रतिमा के
अनुसार
उन्होंने
अपना आयोजन कर
लिया। उनका
जीवन भीतर से
नहीं फूटा; उन्होंने
जीवन को बाहर
से सीख लिया।
वह अभिनय है; वह जीवन की
वास्तविक
खिलावट नहीं
है।
आत्मा
भीतर से बाहर
की तरफ खुलती
है;
अनुकरण
बाहर से भीतर
की तरफ जाता
है। अनुकरण तुम्हें
नकली बना
देगा। इसलिए
बड़ी नाजुक बात
है। और सब
सीखना, नकल
मत सीखना।
हालांकि नकल
सरल है, और
सब कठिन है।
नकल बिलकुल
आसान है; छोटे
बच्चे कर लेते
हैं; बंदर
कर लेते हैं।
आदमी की कोई
गरिमा नहीं है
नकलची होने
में कोई बड़ा
गौरव नहीं है।
और सरल है
इसलिए
प्रलोभन है।
तुम
ठीक मेरे जैसे
उठ-बैठ सकते
हो। मेरे जैसा
भोजन कर सकते
हो। मेरी जैसी
बात कर सकते
हो। उससे क्या
होगा? उससे
तुम किसी
ऊंचाई को न
पहुंच जाओगे।
बल्कि जिस
ऊंचाई पर तुम
पहुंचने को
पैदा हुए थे
उससे वंचित हो
जाओगे। नाजुक
है बात, क्योंकि
जो भी हमें
प्रीतिकर
लगते हैं, मन
कहता है
उन्हीं जैसे
हो जाएं। इस
प्रलोभन से बच
जाना सबसे बड़ा
काम है साधक
के लिए। गुरु
से भी सावधान
होना जरूरी
है। कहीं ऐसा
न हो कि तुम
उसके प्रभाव
में इतने
प्रभावित हो
जाओ कि तुम
अपनी नियति की
जो गति थी उसे
छोड़ दो और
रास्ते से उतर
जाओ। न तो मैं
किसी जैसा हूं,
न तुम्हें
मेरे जैसे
होने की कोई
जरूरत है।
दूसरी
बात,
दूसरे जैसा
होना हो तो
चेष्टा करनी
पड़ती है। स्वयं
जैसे होने के
लिए क्या
चेष्टा करनी
पड़ेगी? स्वयं
जैसे तो तुम
हो ही। लेकिन
तुमने कभी अपने
को प्रेम नहीं
किया। तुमने
कभी अपनी
आत्मा को कोई
सम्मान भी
नहीं दिया।
तुमने कभी
अपनी गरिमा को
स्वीकार ही
नहीं किया।
और सब
धर्म, सब
संस्कृतियां,
सभ्यताएं, तुम्हें
आत्म-निंदा
सिखाते हैं।
वे कहते हैं, तुम जैसा
बुरा और कौन!
साधु-संतों को
सुनने जाओ, उनकी सारी
चर्चा
तुम्हारी
निंदा से भरी
है। तुम कीड़े-मकोड़े हो, तुम नारकीय
हो। और तुम
में जो कुछ है
सब निंदा योग्य
है। तुम में
ऐसा कुछ भी
नहीं है जो
स्वीकार के
योग्य हो। काम
है, क्रोध
है, लोभ है,
मोह है, मत्सर
है, तुम
चारों तरफ नरक
से घिरे हो।
तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासी
सिर्फ
तुम्हारी
निंदा ही कर रहे
हैं। और सब
तरफ से
तुम्हें
निंदा मिलती
है। धीरे-धीरे
तुम आत्मनिंदा
से भर जाते
हो। फिर तुम
किसी और जैसे
होना चाहते
हो।
यह एक
गहरा षडयंत्र
है। जब तक
तुम्हें
तुम्हारी निंदा
से न भरा जाए
तब तक कोई भी
व्यक्ति
तुम्हारा
अगुआ, नेता, गुरु न बन
पाएगा। तो
जिनको अगुआ
बनना है, नेता
बनना है, गुरु
बनना है, वे
पहले
तुम्हारी
निंदा
करेंगे। वे
पहले तुम्हें
डगमगा देंगे;
वे पहले
तुम्हें हिला
देंगे; तुम्हारे
पैरों के नीचे
की जमीन खींच
लेंगे। जब तुम
बिलकुल कंप
जाओगे, डरने
लगोगे, घबरा
जाओगे, अपने
चारों तरफ नरक
ही नरक दिखाई
पड़ने लगेगा, तब तुम किसी
के पैर पकड़
लोगे। इसी तरह
तो इतने गुरु
पलते-पुसते
हैं। हजारों
गुरुओं में
कभी कोई एक
गुरु होता है,
नौ सौ
निन्यानबे तो
केवल
तुम्हारी आत्मनिंदा
से जीते हैं।
तुमको भयभीत
कर देते हैं, तुम्हें
अपराध-भाव से
भर दिया, अब
तुम्हें
पूछना ही
पड़ेगा--मार्ग
क्या है? अब
तुम्हें नकल
करनी ही
पड़ेगी।
क्योंकि तुम गलत
हो और वह सही
है।
मेरे
पास तुम हो।
तो मैं तुमसे
यह कहने को
नहीं हूं यहां
कि मैं सही
हूं और तुम
गलत हो। मैं तुम्हें
जरा भी
तुम्हारे
होने से नहीं
डिगाना चाहता।
मैं तो चाहता
हूं कि तुम
अपने होने में
पूरी तरह से
थिर हो जाओ।
तुम्हारे
भीतर का दीया
जरा भी न कंपे; कितने
ही बड़े
झंझावात उठें,
तुम अकंप रह
सको। मैं
तुम्हें
तुम्हारे
होने में
मजबूत करना
चाहता हूं।
मैं तुम्हें और
कोई अनुशासन
नहीं देता, एक ही
अनुशासन देता
हूं कि तुम
सदा सचेत रहना
और अपने जैसे
होने में लगे
रहना। जो
तुम्हारी निंदा
करे, उसे
तुम शत्रु
समझना। वह
शत्रु है, क्योंकि
वह हीनता पैदा
करेगा। और
हीनता एक दफा
पैदा हो गई कि
तुम किसी का
अनुसरण
करोगे--कोई आदर्श,
कोई
प्रतिमा--किसी
के पीछे चलने
लगोगे। यह सीधा
सा गणित है।
पहले आदमी को
डरा दो। डर
जाए तो वह
मार्ग पूछता
है। पहले उसे
घबड़ा दो। पहले
तुम उसे इतना
बुरा बता दो
कि वह अपने से
अतृप्त हो जाए।
तब वह तुमसे
पूछने लगेगा।
जो भी
तुम्हारी
निंदा करे, और
जो भी तुम्हें
चाहे कि तुम
किसी और जैसे
हो जाओ, वहां
से हट जाना।
वह तुम्हारी
हत्या करने को
तत्पर है।
हत्या बड़ी
बारीक है, सूक्ष्म
है। खून भी न
बहेगा, और
तुम कट जाओगे।
कहीं आवाज भी
न होगी, और
तुम
जन्मों-जन्मों
के लिए भटक
जाओगे।
तुम
स्वयं
परमात्मा की
कृति हो।
तुम्हें सुधारने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
कोई जरूरत भी
नहीं है।
तुम्हें
सुधारने
वालों ने ही
तुम्हें इस
दुर्दशा में
पहुंचा दिया
है। तुम सिर्फ
अपने प्रति जागो। तुम
अपने भीतर उसे
खोज लो जो
परमात्मा का
दान है, प्रसाद
है। तुम अपने खजाने से
थोड़े परिचित
हो जाओ।
तो मैं
यहां तुम्हें
कोई अनुकरण
करने के लिए नहीं
कह रहा हूं।
अगर अनुकरण
करना है तो
अपने भीतर का; अगर
कहीं जाना है
तो अपने भीतर;
अगर कहीं
पहुंचना है तो
अपने भीतर।
तुम मुझसे सदा
सावधान रहना।
क्योंकि खतरा
हो सकता है। मेरे
बिना चाहे भी
खतरा हो सकता
है। क्योंकि
तुम मुझे भी
दूसरे गुरुओं
जैसा ही
सोचोगे।
तुमने बहुत
गुरुओं के पास
बहुत कुछ सीखा
है। वह कचरा
तुम यहां भी
ले आए हो। तो
जब मैं तुमसे
कुछ कहूंगा तो
तुम उसी कचरे
से उसकी
व्याख्या
करोगे। मैं
यहां हूं कि
तुम्हें तुम
जैसा बनने में
सहायता दे
सकूं। और अगर
जरा भी
तुम्हें ऐसा
लगे कि तुम
मेरी नकल पर
उतारू हो गए
हो तो भाग खड़े
होना, लौट
कर पीछे मत
देखना।
क्योंकि नकल
खतरनाक है।
नकल से सावधान
रहना। सब नकल
हीनता की
ग्रंथि से
पैदा होती है।
और तुम हीन
नहीं हो।
तुम्हारे पास
सब है जो होना
चाहिए। बस तुम्हें
पता नहीं है। खजाने पर
बैठे हो, चाबी
खो गई है।
चाबी भी कहीं
दूर नहीं खो
गई है, कहीं
तुम्हारे ही
भीतर खो गई
है। उसे खोज
लेना है।
तुम्हारा
मार्ग
परमात्मा से
सीधा जुड़ा है।
एक बार तुम
भीतर उतरे कि
तुम सीधे ही
जुड़ जाते हो।
तब तुम गुरु
को धन्यवाद
इसलिए नहीं
देते कि उसने
तुम्हें
परमात्मा से
मिला दिया, बल्कि इसलिए
देते हो कि वह
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच में खड़ा न
हुआ, जब
वक्त आया तो
चुपचाप हट
गया।
साधारण
जिनको तुम
गुरु कहते हो
वे तुम्हें परमात्मा
से मिलने न
देंगे। बात वे
परमात्मा के मिलाने
की करेंगे, लेकिन
सदा वे बीच
में खड़े
रहेंगे। वे
दीवाल हैं, द्वार नहीं।
जो भी किसी को
कह रहा है कि
मैं आदर्श हूं,
मेरे जैसे
हो जाओ, वह
आदमी जहर फैला
रहा है।
मेरा
प्रेम है
बुद्ध से, क्राइस्ट
से, कृष्ण
से, लाओत्से
से। लेकिन उस
प्रेम के कारण
न तो मैं लाओत्से
जैसा हो गया
हूं, न
बुद्ध जैसा, न क्राइस्ट
जैसा। मैं हूं
तो अपने जैसा।
अगर मैं
लाओत्से पर भी
बोलता हूं तो
मैं वही बोल
रहा हूं जो
मैं बिना
लाओत्से के
बोलता।
लाओत्से तो
बहाना है।
पुरानी खूंटी
है; काम
योग्य है; कुछ
टांगा जा
सकता है।
बल्कि कह तो
मैं वही रहा
हूं जो मैं
कहूंगा; लाओत्से
पैदा न भी हुआ
होता तो भी
कहता। मैं लाओत्से
के बहाने अपने
को ही कह रहा
हूं। कृष्ण के
बहाने भी अपने
को कह रहा
हूं।
इसलिए
यह कुछ पक्का
मत समझना कि
लाओत्से तुम्हें
मिल जाए और
तुम पूछो कि
मैंने ऐसा-ऐसा
लाओत्से के
संबंध में कहा
है तो जरूरी
नहीं कि वह राजी
हो। आवश्यकता
भी नहीं है।
हो सकता है वह
राजी न हो।
कृष्ण से तुम
पूछो कि मैंने
जो गीता की व्याख्या
की है उससे वे
राजी हैं? जरूरी
नहीं कि वे
राजी हों।
पूरी संभावना
तो यह है कि वे
राजी नहीं
होंगे।
क्योंकि वे उन
जैसे, मैं
मैं जैसा। जो
मैं कह रहा
हूं वह मैं ही
कह रहा हूं।
लाओत्से, कृष्ण,
बुद्ध तो
बहाने हैं।
तुम ऐसा समझ
ले सकते हो कि
वे हुए हों, न हुए हों, कोई फर्क
मुझे पड़ता
नहीं।
तुम
पूछ सकते हो
कि मैं क्यों
उनके नाम से
कुछ कह रहा
हूं?
प्रेम
मेरा उनसे है।
और वास्तविक
प्रेम तभी संभव
है जब तुम
प्रेमी जैसे न
हो जाओ। नहीं
तो प्रेम खो
जाएगा।
क्योंकि दो
व्यक्ति जब
बिलकुल एक
जैसे हो जाते
हैं तो दोनों
के बीच का
आकर्षण खो
जाता है।
शिष्य जब
बिलकुल गुरु
जैसा हो जाएगा
तो दोनों के
बीच का आकर्षण
खो जाएगा।
आकर्षण तो
होता है विरोध
में;
विरोधी
ध्रुवों में
आकर्षण होता
है।
खलील जिब्रान
ने कहा है कि
तुम प्रेम तो
करना, लेकिन
प्रेमपात्र
से एक मत हो
जाना। तुम
प्रेम तो करना,
लेकिन
मंदिर के
स्तंभों की
भांति, जो
दूर खड़े रहते
हैं और एक ही
छप्पर को
सम्हालते
हैं। स्तंभ
करीब आ जाएं, छप्पर गिर
जाएगा। फासला
रखना।
गुरु
के इतने पास
होना, इतने पास
होना जितने हो
सको, फिर
भी एक फासला
रखना। अगर तुम
अपनी आत्मा
में थिर रहे
तब तो फासला
रहेगा। एक
मंदिर तो बनेगा;
तुम गुरु के
साथ उस मंदिर
को उठाने में
एक स्तंभ हो
जाओगे। लेकिन
स्तंभ दूर-दूर
होते हैं। एक
ही छप्पर को
सम्हालते हैं,
लेकिन उनका
स्वतंत्र
व्यक्तित्व
होता है।
जो
गुरु शिष्य के
व्यक्तित्व
को मार दे, वह
गुरु नहीं है।
जो गुरु शिष्य
के व्यक्तित्व
को निखार दे, इतना निखार
दे कि अब
शिष्य अपने
होने से तृप्त
हो जाए, संतुष्ट
हो जाए, वही
गुरु है।
मुझे
देख कर
तुम्हारे मन
में अभीप्सा
उठे ऊंचाइयां
छूने की, ठीक
है। लेकिन
मेरी जैसी ऊंचाइयां
नहीं; तुम्हारी
जैसी ही ऊंचाइयां।
मुझे देख कर
तुम्हें
अभीप्सा उठे
परमात्मा को
पाने की, लेकिन
वह प्यास
तुम्हारी हो।
वह प्यास को
तुम मेरे
शब्दों में मत
बांधना।
तुम्हारा
संगीत तुमसे
उठेगा। मेरे
संगीत को देख
कर तुम्हें अपने
संगीत की याद
आ जाए, बस
काफी है। तुम
भी खिलोगे,
लेकिन
तुमसे जो
सुवास
निकलेगी वह
तुम्हारे ही
फूल की होगी, वह मेरी
नहीं होगी।
मेरी सुवास से
तुम्हें अपनी
सुवास का भूला
हुआ स्मरण आ
जाए, विस्मृति
हो गई है
जिसकी उसकी
स्मृति आ जाए,
बस इतना
काफी है।
जिस
दिन तुम खिलोगे
तो मेरे जैसी
तुम्हारी
सुवास नहीं
होगी, तुम्हारी
सुवास
तुम्हारे
जैसी होगी।
होना भी यही
चाहिए। पता
नहीं तुम चंपा
के फूल हो; पता
नहीं तुम
चमेली के फूल
हो; पता
नहीं तुम कमल
हो। पता नहीं
तुम कौन हो।
क्योंकि जब तक
तुम्हारा बीज
नहीं टूटा है,
पता भी कैसे
हो सकता है।
बीज से तो
पहचानना
मुश्किल है।
अनंत बीज हैं,
और हर बीज
का अपना ही
फूल है। और वह
एक ही बार खिलता
है। फिर
दोबारा इस
पृथ्वी पर वह
नहीं खिलेगा।
इसलिए इस
पृथ्वी को तुम
उसकी सुगंध से
वंचित मत
करना। नकलची
मत बन जाना।
दो
शब्द हैं
हमारे पास:
अनुकरण और
अनुसरण। अनुसरण
तो करना गुरु
का,
अनुकरण मत
करना। अनुसरण
का मतलब है:
गुरु की प्रज्ञा,
गुरु का बोध,
गुरु की समझ
को आत्मसात
करना। अनुकरण
का अर्थ है:
जैसा गुरु है,
वैसा होने
की कोशिश
करना। शिष्य
सीखता है; सीखता
है अपनी ही
नियति को पाने
के लिए। सदगुरु
तुम्हें अपने
ढंग में नहीं
ढालना चाहता,
और सदशिष्य
कभी किसी के
ढंग में ढलना
नहीं चाहता।
ढंग तो तुम्हारा
हो।
ऐसा
हुआ,
एक मुसलमान
फकीर था, जुन्नून। इजिप्त
में हुआ। वह
कहा करता था
कि परमात्मा
ने सभी चीजें
पूर्ण बनाई
हैं, क्योंकि
पूर्ण से
पूर्ण ही पैदा
हो सकता है। जैसा
ईशावास्य
उपनिषद में
कहा है कि उस
पूर्ण से
पूर्ण ही पैदा
होता है और
फिर भी पीछे
पूर्ण छूट
जाता है, ऐसा
जुन्नून
भी कहा करता
था कि
परमात्मा ने
हर चीज पूरी
बनाई है। गांव
में एक
तार्किक था।
तार्किक भी था,
बड़ा पंडित
भी था। वह एक
दिन जुन्नून
को सुनने आया।
जुन्नून
ने कहा कि परमात्मा
ने हर चीज
परिपूर्ण
बनाई है। उस
तार्किक ने
कहा, रुको!
वह एक आदमी को
साथ ले आया था,
एक कुबड़े
को। जो बिलकुल
झुका जा रहा
था, जिससे
खड़े होते नहीं
बनता था, जिसके
हाथ-पैर तिरछे
थे, जिसकी
कमर बिलकुल
झुक गई थी।
उसने कहा कि
देखो इस आदमी
को! यह भी
पूर्ण है? और
यह भी
परमात्मा ने
बनाया? जुन्नून हंसा और
उसने कहा कि
इससे पूर्ण कुबड़ा
हमने कभी देखा
ही नहीं। बहुत
कुबड़े
देखे; यह
परिपूर्ण है।
परमात्मा
ने परिपूर्ण
से कुछ कम
बनाया ही नहीं।
तुम भी
परिपूर्ण हो।
बस जरा याद दिलानी
है,
सुरति
जगानी है। जरा
सा होश
सम्हालना है।
मेरे
जैसे होने की
भूल कर भी
चेष्टा मत
करना। वह तो
तुम हो न
पाओगे। और उस
होने में तुम
जो हो सकते थे
वह भटक जाएगा।
तब तुम मुझे
कभी क्षमा न
कर पाओगे।
मैंने कभी
चाहा न था कि
तुम मेरे जैसे
होओ,
लेकिन अगर
तुम उसमें लग
गए तो तुम
मुझसे सदा नाराज
रहोगे। तुम
मुझे फिर कभी
क्षमा न कर
पाओगे।
क्योंकि
मैंने तुम्हारी
एक जिंदगी
खराब कर दी।
ध्यान रहे, मैं अपने
हाथ बिलकुल
खींचे लेता
हूं; मेरी
जिम्मेवारी
बिलकुल नहीं
है। अगर कभी
तुम पछताओ
तो दोष मुझे
मत देना। वह
मैंने कभी
चाहा ही नहीं
था।
लेकिन
नकल आसान है, मुफ्त
मिल जाती है।
क्या लगता है
नकल में? बड़ी
आसान है। और
सस्ते को पकड़ने
का मन होता
है। मंहगे
में तो मूल्य
चुकाना
पड़ेगा। अगर
तुम्हें मेरे
जैसा होना है,
तुम थोड़े
दिन में ही
कुशल हो
जाओगे।
तुम्हें अगर
अपने जैसा
होना है तो
तुम्हें
अज्ञात की यात्रा
करनी पड़ेगी।
मैं तो यहां
मौजूद हूं। तो
तुम मुझे देख
सकते हो; उठना,
बैठना, बोलना,
सब सीख सकते
हो। लेकिन तुम
तो अभी मौजूद
नहीं हो। तुम
तो कभी मौजूद
होओगे। अभी
तुम बीज में छिपे
पड़े हो। तो
अभी तुम्हें
पता ही नहीं
है कि तुम कौन
हो, क्या
हो, क्या
होने की
संभावना है।
तो अज्ञात की
यात्रा है। नक्शा
साफ नहीं है।
नक्शा है ही
नहीं। रास्ते कहां
हैं, कुछ
पता नहीं है।
एक-एक कदम
चलना होगा और
रास्ता बनाना
होगा।
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
बनेगी मंजिल;
प्रकट
होओगे तुम। और
तब तुम मुझे
धन्यवाद दे सकोगे।
अगर तुम तुम
ही हुए तो तुम
मुझे धन्यवाद
दे पाओगे, अगर
तुमने नकल की
तो तुम मुझे
कभी क्षमा न
कर सकोगे।
दूसरा
प्रश्न:
जीवन
की गति
वर्तुलाकार
है,
इस नियम से
दिन और रात
तथा माह और
ऋतु की तरह क्या
हम भी अपने को
बार-बार मात्र
दोहराते रहते हैं?
साधारणतः
हां। जब तक
तुम
मूर्च्छित हो
तब तक तुम
प्रकृति के
हिस्से हो, तब
तक तुम ऋतु, वर्ष, माह,
दिन और रात
की तरह ही
वर्तुलाकार
भटकते रहते हो,
वही-वही दोहरता
रहता है
बार-बार।
इसीलिए तो
हिंदुओं ने
इसे जीवन का
वर्तुल कहा
है--संसार।
संसार का अर्थ
है चाक। बैलगाड़ी
के चाक की तरह
घूमते रहते
हो। कुछ नया
नहीं होता।
बहुत बार
जन्मे, बहुत
बार वही वासना,
वही लोभ, वही तृष्णा,
वही क्रोध।
बहुत बार बूढ़े
हुए, बहुत
बार मरे। वही
भय। फिर
जन्मे। यह
बिलकुल चाक की
तरह घूम रहा
है--बचपन, जवानी,
बुढ़ापा,
जन्म, मृत्यु,
फिर जन्म, फिर
मृत्यु--इसमें
कुछ भी नया
नहीं हो रहा
है।
लेकिन
नया हो सकता
है,
अगर तुम जाग
जाओ। क्योंकि
जागते ही तुम
प्रकृति के
हिस्से नहीं
रह जाते, परमात्मा
के हिस्से हो
जाते हो।
प्रकृति यानी
सोया हुआ
परमात्मा।
परमात्मा
यानी जागी हुई
प्रकृति। बस
इतना ही फर्क
है। जैसे एक
सोया हुआ आदमी
और एक जागा
हुआ आदमी।
सोया हुआ आदमी
भी जाग सकता
है; जागा
हुआ आदमी भी
सो सकता है।
कोई बुनियादी
फर्क नहीं है।
लेकिन
फर्क बड़ा है।
घर में आग लगी
हो तो सोया आदमी
पड़ा रहेगा, जागा
हुआ आदमी बाहर
निकल जाएगा।
घर में संगीत बज
रहा हो तो
सोया आदमी
सोया रहेगा, उसे पता ही न
चलेगा कि अमृत
की वर्षा हो
रही थी; जागा
हुआ आदमी सरोबोर
हो जाएगा।
सूरज निकले, सोया हुआ
आदमी सोया ही
रहेगा, जैसे
अभी रात ही है;
जागा हुआ
आदमी
पक्षियों के
कलरव को
सुनेगा, सूरज
की उठती
प्रतिमा को
देखेगा। वह
सुबह का मनमोहक
रूप सोए को
पता ही न
चलेगा; जागा
ही पी सकेगा
उस सौंदर्य
को।
प्रकृति
है अभी
तुम्हारे
भीतर। उसका अर्थ
है,
तुम अभी सोए
हुए हो। तो
अभी
पुनरुक्ति
होगी। प्रकृति
पुनरुक्ति
करती है।
प्रकृति रिपीटीशन
है। पत्ते गिर
जाते हैं, फिर
लौट आते हैं।
सब वही का वही
होता रहता है।
प्रकृति में
तुम कोई फर्क
देखते हो? सब
वही का वही
होता रहता है।
फिर सूरज
निकलता है; फिर सांझ
होती है।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर संभावना
है कि तुम जाग
जाओ,
तो तत्क्षण
तुम इस चके
के बाहर हो
जाते हो। उसी
को हम आवागमन
के बाहर होना
कहते हैं। तुम
होश से भर जाओ,
तत्क्षण
चीजें बदल
जाती हैं। फिर
कल तक तुमने जो
क्रोध किया था,
तुम दोबारा
आज न कर
सकोगे। जागा
हुआ आदमी कैसे
क्रोध करेगा?
यह तो ऐसे
ही है जैसे
जागा हुआ आदमी
अपना हाथ आग
में डाले।
जागा हुआ आदमी
क्यों अपना
हाथ आग में
डालेगा?
क्रोध
आग से भी बदतर
है। क्योंकि
आग तो केवल हाथ
को जलाती है, चमड़ी
को जलाती है, क्रोध
तुम्हारी
अंतरात्मा तक
को झुलसाता है
और जलाता है।
आग की पहुंच
तो ऊपर ही ऊपर
है, क्रोध
का जहर तो
तुम्हारे
प्राणों के गहनतम में
प्रवेश कर
जाता है। जागा
हुआ आदमी कैसे
घृणा करेगा? क्योंकि
घृणा करके तुम
दूसरे को थोड़े
ही नुकसान
पहुंचाते हो,
घृणा करके
तुम अपने को
ही नष्ट करते
हो। घृणा आत्मघात
है। घृणा का
अर्थ है अपने
को जहर देते
रहना। दूसरे
को नुकसान होगा
कि नहीं होगा,
यह गौण है।
लेकिन जो आदमी
घृणा में जीता
है, वह
धीरे-धीरे
अपने भीतर
मरता जाता है।
घृणा धीमे-धीमे
मौत की तरफ ले
जाती है। जो
आदमी जागा हुआ
है वह कैसे
तृष्णा करेगा?
क्योंकि
तृष्णा सिवाय
दुख के और
कहीं नहीं ले
जाती।
पर यह
जागे को दिखाई
पड़ता है। उसके
पास आंख है।
वह देखता है
कि यह रास्ता
तो सिर्फ दुख
में ले जाता
है। तो क्यों
अपने पैर उस
पर उठाएगा? सोया
हुआ आदमी, जैसे
नशे में चल
रहा हो, जैसे
उसे पता न हो, कहां जा रहा
है, क्यों
जा रहा है, बार-बार
उन्हीं
रास्तों पर
चला जाता है।
उन्हीं
रास्तों पर
जाना सुगम है
सोए आदमी को।
क्योंकि नये
रास्ते पर
जागरण की
जरूरत पड़ेगी।
पुराने
रास्ते की आदत
हो जाती है।
तुमने
कभी खयाल किया? तुम
साइकिल से या
कार से घर
लौटते हो, तुम्हें
याद नहीं रखना
पड़ता कि अब
बाएं घूमें
कि दाएं घूमें।
सोया हुआ शरीर
सब करता रहता
है। अचानक तुम
पाते हो कि
दफ्तर से
दरवाजे के
सामने खड़े हो।
बीच का रास्ता
यंत्रवत पूरा
हो गया। तुम
वहीं पहुंच
जाते हो। इतनी
बार आए-गए हो
कि अब होश की कोई
जरूरत नहीं।
हां, घर
बदल लो तो
तुम्हें कुछ
दिन होश से आना
पड़ेगा। अगर
होश से न आओ तो
तुम पुराने घर
पर पहुंच
जाओगे।
दूसरे
महायुद्ध में
ऐसा हुआ कि एक
आदमी को चोट
लग गई और उसकी
स्मृति खो गई, स्मृति
बिलकुल खो गई।
उसे यह भी याद
न रहा कि मेरा
नाम क्या है।
उसे यह भी याद
न रहा कि मैं
किस फौज का
हिस्सा हूं।
युद्ध के मैदान
पर कहीं उसका
नंबर भी गिर
गया जब उसे
चोट लगी। तो
बहुत मुश्किल
हो गई कि वह
कौन है। यही
पता लगाना
मुश्किल हो
गया।
उसे
पूरे
इंग्लैंड में
घुमाया
गया--शायद
कहीं याद आ
जाए! बड़े-बड़े
नगरों में ले
जाया गया। वह
जाकर खड़ा हो
जाए,
उसे कुछ याद
न पड़े। लेकिन
एक छोटे गांव
पर--ट्रेन यूं
ही रुकी थी, वहां तो
उतारने का
खयाल भी न
था--जैसे ही
उसने गांव की
तख्ती पढ़ी, कुछ हुआ। वह
नीचे उतर गया।
जो साथी थे
उन्होंने
रोकना भी चाहा
कि तू क्या कर
रहा है! लेकिन
वह उतरा और
भागा गांव के
भीतर। जो उसे
लेकर चल रहे
थे वे उसके
पीछे भागे। वह
भागता हुआ एक
दरवाजे पर
जाकर खड़ा हो
गया। उसने कहा,
यह मेरा घर
है। और सब
याददाश्त
वापस लौट आई।
इतनी बार इस
घर आया-गया था,
इतनी बार इस
स्टेशन के नाम
को पढ़ा था, छिपी
पड़ी थी कहीं
मूर्च्छा में
बात। जरूरत न
पड़ी याद करने
की। घर के
द्वार पर खड़ा
हो गया। पिता
ने पहचान लिया
कि मेरा लड़का
है। सूत्र मिल
गया। याददाश्त
धीरे-धीरे
वापस लौट आई।
तुम भी
बिलकुल भूल गए
हो कि तुम कौन
हो। और जन्मों-जन्मों
में तुम बहुत
जगह गए हो, बहुत
यात्राएं की
हैं। और उन
यात्राओं में
तुम अभी भी
भटक रहे हो।
कोई चाहिए जो
सूत्र पकड़ा दे;
तुम्हें
थोड़ी सी याद आ
जाए; तुम
अपने घर के
सामने खड़े हो
जाओ। एक बार
याद आ जाए
तुम्हें भीतर
के परमात्मा
की, फिर सब
धीरे-धीरे याद
आ जाएगा।
समस्त
ध्यान की
प्रक्रियाएं
इसी बात की
कोशिश हैं कि
तुम्हें अपनी
थोड़ी सी
स्मृति आ जाए।
किसी तरह शरीर
से एक क्षण को
भी तुम छूट
जाओ,
तो तुम
प्रकृति से
छूट गए। किसी
तरह क्षण भर
को मन बंद हो
जाए तो तुमने
इस भटकाव में
जो शब्द और सिद्धांत
और शास्त्र
इकट्ठे कर लिए
हैं, उनको
तुम भूल गए।
जिस क्षण शरीर
और मन से तुम जरा
सी देर को भी
टूट गए उसी
क्षण तुम अपने
घर के सामने
खड़े हो जाओगे।
इतना तुम्हें
पहचान में आ
गया--यह घर है!
फिर सब
याददाश्त
वापस लौटने
लगेगी।
और
जैसे ही तुम
जागना शुरू हो
जाते हो, घर को
पहचान लेते हो,
अपने को
पहचान लेते हो,
थोड़ा ही सही,
एक किरण भी
हाथ में आ जाए,
तो सूरज तक
पहुंचने का
रास्ता खुल
गया। फिर तुम्हारे
जीवन में
पुनरुक्ति
बंद हो जाएगी।
फिर तुम्हारे
जीवन में हर
घड़ी नयी होगी।
प्रकृति तो
पुरानी है; वर्तुलाकार
घूमती रहती
है। परमात्मा
सदा नया है।
तुम भी सदा
नये होने की
क्षमता रखते
हो। और तब
प्रतिपल नया
होगा। सुबह
वही होगी, लेकिन
तुम्हारे लिए
वही नहीं
होगी। सांझ
वही होगी, लेकिन
तुम्हारे लिए
वही नहीं
होगी।
क्योंकि तुम
नये होओगे। और
जब तुम नये
होते हो तो
तुम्हारी
दृष्टि बदल
जाती है।
दृष्टि बदलती
है तो सारी
सृष्टि बदल
जाती है। नये
होने की कला
तुम्हें सीखनी
पड़ेगी।
अन्यथा तुम
पुनरुक्त हो
रहे हो; मशीन
की तरह ही चल
रहे हो। मशीन
नया कर भी
नहीं सकती।
पश्चिम
में बड़े
महत्वपूर्ण
कंप्यूटर
निर्मित हुए
हैं। एक आदमी
को जो गणित हल
करने में सौ साल
लगें, वे एक
सेकेंड में कर
सकते हैं। ऐसे
सवाल जिनको कि
तीन हजार
वैज्ञानिक
हजार साल में
पूरा कर पाएं,
वे एक
सेकेंड में हल
कर देते हैं।
लेकिन कंप्यूटर
नया कुछ भी नहीं
कर सकता।
तुमने जो उसे
पहले सिखा
दिया है वही
कर सकता है।
उससे रत्ती भर
नया नहीं कर
सकता।
कंप्यूटर की
खोज से ऐसा
लगा था कि
हमने आदमी से
भी बड़ा
मस्तिष्क खोज
लिया।
क्योंकि आदमी
के मस्तिष्क
की सीमा है, कंप्यूटर की
कोई सीमा नहीं
है। सारी
दुनिया की
पुस्तकें एक
कंप्यूटर में
भरी जा सकती
हैं। और तुम
कहीं से भी
सवाल पूछ लो, कंप्यूटर
जवाब दे देगा।
वेद हो, कि
कुरान, कि
बाइबिल, कि
लाओत्से, कि
महावीर, कि
बुद्ध, कि
कृष्ण, सारे
ग्रंथ एक
कंप्यूटर में
रखे जा सकते
हैं। और
कंप्यूटर
इतना छोटा कि
तुम अपनी जेब
में रख ले
सकते हो। और
तुम जब चाहो, जो पूछना
चाहो, तत्क्षण--एक
सेकेंड की भी
झिझक नहीं
होती--कंप्यूटर
जवाब दे देगा।
लेकिन फिर भी
कंप्यूटर एक
काम नहीं कर
सकता और वह यह
कि नया--नया एक
शब्द कंप्यूटर
नहीं ला सकता।
जो उसे दिया
गया है, उसको
दोहरा देगा।
तो
वैज्ञानिक
पहले बड़े प्रसन्न
हुए थे, फिर
बड़े उदास हो
गए। क्योंकि
मनुष्य के
मस्तिष्क की
गरिमा उसका
संग्रह नहीं
है; उसके
नये को--एकदम
नये को--पहचान
लेने की क्षमता,
एकदम नये को
जन्म देने की
क्षमता, एकदम
मौलिक को
प्रारंभ करने
की क्षमता है।
वह कोई यंत्र
कभी भी न कर
पाएगा। यंत्र
कर कैसे सकता
है? जो
हमने उसे सिखा
दिया वही कर
सकता है।
अगर
तुम भी वही कर
रहे हो जो
तुम्हें समाज
ने सिखा दिया, अगर
तुम भी वही कर
रहे हो जो
प्रकृति ने
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
क्रोमोसोम
में, तुम्हारे
मूल कोष्ठों
में जिसका
ब्लू-प्रिंट
रख दिया, अगर
तुम भी वही कर
रहे हो तो तुम
भी यंत्र हो।
मनुष्य अभी
पैदा नहीं हुआ।
गुरजिएफ
कहा करता था
कि मैं इस
सिद्धांत को
नहीं मानता कि
हर आदमी के
भीतर आत्मा
है। उसकी बात
में थोड़ी सचाई
है। वह कहता
था,
अधिक लोग तो
यंत्र हैं, कभी किसी
आदमी में
आत्मा होती
है। अधिक लोग
तो मशीन हैं, मनुष्य नहीं
हैं।
और वह
ठीक कह रहा
है। क्योंकि
जहां तक सौ
में निन्यानबे
आदमियों का
संबंध है, वे
यंत्रवत जी
रहे हैं, उनको
आत्मवान कहना
व्यर्थ ही है।
कहते हैं आत्मवान
उनको हम उनकी
संभावना के
कारण, उनकी
वास्तविकता
के कारण नहीं।
वास्तविकता तो
यंत्रवत है।
लड़का जवान
हुआ;
उसकी
काम-ऊर्जा पक
गई; अब
उसके मन में
स्त्री का
खयाल उठने
लगा। यह तुम
नहीं कर रहे
हो। यह तो
तुम्हारे
शरीर के कोष्ठों
में छिपा हुआ
है; वे
कोष्ठ ही
तुमसे करवा
रहे हैं। यह
तो तुम्हारे
शरीर के भीतर
दौड़ते हुए
हारमोन तुमसे
करवा रहे हैं।
तो बूढ़े आदमी
को भी अगर
हारमोन के
इंजेक्शन दे
दिए जाएं तो
वह फिर से
काम-ऊर्जा से
भर जाता है
पागल की तरह।
अगर जवान आदमी
से भी उसके
सारे सेक्स के
हारमोन निकाल
लिए जाएं तो
वह नपुंसक हो
जाता है, उसके
मन से वासना
उठ जाती है; दौड़ नहीं रह
जाती, शिथिल
हो जाता है।
यही
तरकीब तो उपवास
करने वालों ने
खोज ली थी।
ज्यादा देर
उपवास करो तो
ऊर्जा
काम-कोष्ठों
को नहीं मिलती; नहीं
मिलती तो
वासना नहीं
मालूम पड़ती।
तो शरीर को
ऐसा रखो कि बस
काम के लायक
शक्ति मिले, उससे ज्यादा
नहीं, तो
काम-ऊर्जा
अपने आप क्षीण
हो जाती है।
लेकिन जिस दिन
भोजन करोगे
ठीक से उस दिन
वापस लौट
आएगी। तो धोखा
तुम किसी को दे
नहीं पाओगे; अपने को ही
दे रहे हो।
अभी तो
तुम्हारा
जीवन बिलकुल
यंत्रवत है।
काम पकड़ लेता
है तो तुम पकड़े
गए। तुम जानते
भी नहीं, कहां
से काम पकड़
लेता है।
तुम्हारे ही
कोष्ठों में,
रोएं-रोएं
में छिपा है
काम। क्रोध
पकड़ लेता है, वह भी
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
छिपा है।
हिंसा पकड़
लेती है तो
तुम्हें लगता
है कि जैसे
तुम पजेस्ड
हो, किसी
ने तुम्हारे
ऊपर हावी हो
गया और तुमसे
कुछ करवा रहा
है। और
तुम्हें करना
पड़ता है। तुम न
करो तो बेचैनी;
करके तुम
पछताते हो।
तुम यंत्रवत
हो, मूर्च्छित
हो। इसलिए तुम
दोहरते
रहोगे। यह
दोहराव
बिलकुल ही
व्यर्थ है। यह
पुनरुक्ति
कहीं भी नहीं
ले जाती, चाक
घूमता रहता है
अपनी ही जगह
पर।
तुम
थोड़ा जागो।
और मजे की बात
यह है कि
जागना
तुम्हारे
शरीर में कहीं
भी छिपा हुआ
नहीं है; जागना
कहीं और से
आता है। जागने
की क्षमता
तुम्हारे मन
की भी क्षमता
नहीं है, तुम्हारे
शरीर की भी
क्षमता नहीं
है। वही जागने
की क्षमता
तुम्हारी
आत्मा की
क्षमता है। जागते
ही तुम
आत्मवान हो
जाते हो।
तो जब
क्रोध आए तो
तुम क्रोध की
कम फिक्र लो, जागने
की ज्यादा
फिक्र लो।
क्रोध को जाग
कर देखो। कामवासना
आए तो
कामवासना की
चिंता मत लो, जाग कर
कामवासना को
देखो। जाग कर
तुम दूर हो रहे
हो; एक
फासला पैदा हो
रहा है। जब भी
तुम्हारे
भीतर कोई
वासना
तुम्हें पकड़
ले तब तुम
जागने की कोशिश
करो।
कठिन
होगा। मुझसे
लोग कहते हैं
कि आप कहते
हैं क्रोध में
जागो; क्रोध
में तो हमें
याद ही नहीं
रह जाती।
धीरे-धीरे रहेगी।
कोशिश करोगे
तो आएगी।
क्योंकि
बुद्ध को आई, कृष्ण को आई,
क्राइस्ट
को आई। कोई
कारण नहीं
तुम्हें क्यों
न आए? क्योंकि
तुम भी उसी
बीज से बने
हो। जब दूसरे
वृक्ष बड़े हो
गए, बीज
टूट गए और फूल
खिल गए, तो
तुम्हारा बीज भी
फूट सकता है।
सतत श्रम की
जरूरत है। सतत
पहरेदारी
रखनी पड़ेगी।
आज नहीं होगा,
कल होगा। कल
नहीं होगा, परसों होगा।
एक काम तुम
करते ही रहो:
कुछ भी स्थिति
हो, जागने
की कोशिश करते
रहो। एक दिन
अचानक तुम पाओगे,
बात घट गई।
अचानक सौ
डिग्री तक
जागना आ गया, एक विस्फोट
हो गया। और
जिस दिन जागरण
का विस्फोट
होता है, उससे
अनूठी कोई
घटना इस संसार
में नहीं है।
जैसे
हजार-हजार
सूर्य एक साथ
निकल आए हों!
श्री
अरविंद ने कहा
है कि जब जागा
तब पाया कि जिसे
अब तक प्रकाश
समझा था वह तो
महा अंधकार है, और
जिसे अब तक
जीवन समझा था
वह तो मृत्यु
की पुनरुक्ति
है। जब जाना
जीवन तब यह
पहचान आई। जब जाना
असली प्रकाश
को तब पहचान
आई कि जिसको
हम अब तक
प्रकाश समझते
थे वह तो कुछ
भी नहीं है।
और जब
यह जागरण आता
है तब तुम्हें
अपने स्वरूप
की पहली दफा
प्रतीति होती
है। उस प्रतीति
को शब्दों में
कहने का कोई
उपाय नहीं।
चेष्टा
करो! बुद्ध के
आखिरी क्षण, विदा
होते समय के
शब्द हैं कि
आनंद, चेष्टा
में सतत
संलग्न रहना!
एक क्षण को
प्रमाद न
करना! जरा भी
सुस्ती को मत
भीतर बैठने
देना! क्योंकि
जरा सी सुस्ती,
और बहुत कुछ
खो जाता है।
तू श्रम करते
ही रहना जब तक
कि जाग ही न
जाए, तब तक
मानना अपने
लिए कोई चैन
नहीं है। अथक
श्रम करना!
बहुत
चोट करनी
पड़ेगी तभी यह
अंधेरा
टूटेगा; क्योंकि
अंधेरा कितने
दिनों से
तुमने सम्हाल
रखा है। पत्थर
की तरह जड़ हो
गई है
तुम्हारी अवस्था।
पर्त बहुत
मजबूत हो गई
है। आत्मा
भीतर छिपी है,
झरना भीतर
है, लेकिन
द्वार बंद हो
गए हैं। चोट
करने से द्वार
टूटेंगे।
सतत चोट करने
से द्वार टूटेंगे।
धीमी ही चोट
क्यों न हो, सतत चाहिए।
पानी गिरता है,
धीमी-धीमी
चोट करता है, चट्टानें
टूट जाती हैं।
तो तुम्हारी
स्मृति की
जलधार गिरती
रहे तुम्हारे
यंत्रवत
चट्टानों पर,
आज नहीं कल
चट्टानें टूट
जाएंगी। आज
लगेगा कि जलधार
इतनी कोमल है,
इतनी सख्त
चट्टानों को
कैसे तोड़ेगी?
लेकिन सतत
जलधार भी अगर
सतत बनी रहे
तो बड़े से बड़े
पहाड़ टूट जाते
हैं। पत्थर
कमजोर है, सातत्य
के सामने
कमजोर है।
लेकिन
तुम्हारी
तकलीफ मैं
समझता हूं। एक
दिन प्रयास
करते हो, दस
दिन आराम करते
हो। फिर एकाध
दिन जोश चढ़
जाता है, फिर
एकाध दिन
प्रयास कर
लेते हो, फिर
दस दिन आराम
कर लेते हो।
ऐसे बनाते हो,
मिटा देते
हो। स्थिति
वही की वही
बनी रहती है।
हर बार बनाते
हो, हर बार
मिटा देते हो।
पानी सींच देते
हो एक दिन, दस
दिन फिक्र
नहीं करते। तब
तक वृक्ष
कुम्हला जाता
है, सूख
जाता है। फिर
बीज बोते हो, फिर थोड़ी
साज-सम्हाल
करते हो, फिर
भूल जाते हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि बड़ा
आनंद आ रहा था
ध्यान में, लेकिन
फिर टूट गया।
मैं
समझ ही नहीं
पाता कि जब
आनंद आ रहा था
तो फिर क्यों
टूट गया? और वे
ठीक कह रहे
हैं कि आनंद आ
रहा था। लेकिन
आनंद के लिए
भी तुम्हारी
चेष्टा सतत
नहीं रह पाती।
मन हजार बातें
सुझा देता है।
मन कहता है, आज सुबह सो
जाओ, कल कर
लेना।
मन
बहुत कुशल है
कल का आश्वासन
देने में। और
कल कभी आता नहीं।
जो आता है वह
आज है। करना
हो तो आज कर
लेना। न करना
हो तो कल पर
टाल देना। और
क्या पा लोगे? अगर
एक घड़ी बिस्तर
में आज और पड़े
रहे तो कितना मिल
जाएगा? बिस्तर
में कितने दिन
तो पड़े रहे
हो। जिंदगी ऐसे
ही तो बिताई
हैं बहुत सी।
साठ साल जीओगे
तो बीस साल तो
बिस्तर में ही
पड़े रहोगे। और
एक घड़ी ज्यादा
पड़े रहने से
क्या मिल
जाएगा? उठ
आओ! मत सुनो मन
की!
और मन
तभी तुमसे
कहना शुरू
करता है जब
देखता है, अब
खतरा है। एक
सीमा तक मन
बिलकुल फिक्र
नहीं लेता।
तुम करते रहो
ध्यान; मन
को कोई चिंता
नहीं है।
लेकिन जहां मन
देखता है कि अब
चोट इतनी पड़
रही है कि
टूटने की
संभावना है, वहीं मन
पच्चीस उपाय
खोज देता है।
तुम पच्चीस तरकीबें
निकाल लेते हो
कि आज तबीयत
ठीक नहीं है, कि शरीर
स्वस्थ नहीं
है।
यह
शरीर जाएगा; स्वस्थ
रहे, अस्वस्थ
रहे; चिता
पर चढ़ेगा।
इसे तुम हमेशा
चिता पर चढ़ा
हुआ समझो।
ध्यान ही
बचेगा। तो
शरीर न हो ठीक
तो भी ध्यान
को मत छोड़ो;
क्योंकि हो
सकता है मन
सिर्फ तरकीब
निकाल रहा हो
कि शरीर ठीक
नहीं है।
और मन
की तरकीबों का
अंत नहीं है।
ऐसे तुम दिन भर
रहे आते हो, न
चींटी काटती
है, न
हाथ-पैर में खुजलाहट
उठती है, न
खांसी आती है;
ध्यान करने
बैठे, सब
शुरू।
यह
बहुत हैरानी
की बात है कि
चौबीस घंटे यह
आदमी ठीक था; ध्यान
करने बैठता है,
लगता है चींटियां
चढ़ रही हैं, पैर में
खुजलाहट आ रही
है, अब यह
गर्दन दुखने
लगी, अब
यहां यह होने
लगा, वहां
वह होने लगा।
और तुम्हें
पता है कि
तुमने कई बार
आंख खोल कर भी देखा
है, वहां
चींटी नहीं
है। पैर पर
कोई चढ़ ही
नहीं रहा है।
मन धोखे दे
रहा है। मन कह
रहा है कि
हिलो, क्योंकि
तुम्हारे
हिलने में मन
का जीवन है, और तुम्हारे
थिर हो जाने
में मन की
मृत्यु है। तो
मन अपने को
बचा रहा है।
और
क्या हर्जा है? चींटी
अगर चढ़ भी गई
तो क्या हर्जा
है? काट ही
लेगी तो क्या
बिगड़ जाएगा? तुम कभी
सोचते ही नहीं
कि दांव पर
क्या लगा है? पैर पर काट
ही लेगी चींटी
तो काट लेगी।
क्या बिगड़
जाएगा?
लेकिन
तुम ध्यान
खोने को राजी
हो,
चींटी के
काटने को सहने
को राजी नहीं
हो। इतनी सी
भी कीमत न चुकाओगे
जागने के लिए!
अगर कमर में
थोड़ा दर्द हो
रहा है तो
होने दो। कमर
का ही दर्द है;
कोई
बहुमूल्य
खजाना दांव पर
नहीं लग गया
है। ध्यान के
बाद विश्राम
कर लेना थोड़ा।
नहीं लेकिन, कमर में
दर्द है तो
तुम ध्यान, परमात्मा सब
भूल जाते हो।
तत्क्षण कमर
का दर्द सब
कुछ हो जाता
है। यह मन तुम्हें
अटका रहा है।
मन तुम्हें कह
रहा है कि
शरीर से लगे
रहो। शरीर में
हजार उत्पात
पैदा कर रहा
है।
मत
सुनो।
उपेक्षा करो।
कह दो कि ठीक
है,
यह शरीर
जाएगा, यह
तो चिता पर चढ़ेगा।
चींटी ने काटा
तो चढ़ेगा,
न काटा तो चढ़ेगा।
कमर में दर्द
रहा तो चढ़ेगा,
न रहा दर्द
तो चढ़ेगा।
इसकी अब हम
बहुत चिंता
नहीं ले रहे
हैं। मन से कह
दो कि तू
बकवास बंद कर।
अपने मन से
बात करना शुरू
करो। उसे कहना
शुरू करो कि
जो हमने निर्णय
किया है वह हम
करेंगे, तू
बीच-बीच में
मत आ।
और अगर
तुमने उससे
ठीक से बात की
तो तुम चकित
हो जाओगे, अगर
तुमने
बलपूर्वक बात
की तो वह बीच
में आना बंद
हो जाता है।
गुलाम गुलाम
है। मुंह लगा
गुलाम है, बस
इतनी ही बात
है। बहुत उसकी
सुनी है तो वह
सुनाता है, वह रास्ते
बताता है। तुम
एक दफा कह दो
कि चुप हो जाओ!
तो मन चुप हो
जाता है। कह
कर देखो।
बलपूर्वक कह
कर देखो। ऐसे
डरे-डरे मत
कहना, ऐसा
मत कहना कि
हमें मालूम तो
है कि वह चुप
होगा नहीं। तो
तुम कह ही
नहीं रहे हो।
कह दो कि चुप हो
जाओ! अगर
तुमने ठीक से
कहा, तुम
पाओगे, तत्क्षण
मन चुप हो
जाता है। मन
तुम्हारा
गुलाम है, तुम्हारा
यंत्र है; तुम
मालिक हो।
अपनी मालकियत
की घोषणा करो।
यह कोई दमन
नहीं है मन का,
यह सिर्फ
मालकियत की
घोषणा है। यह
सिर्फ यह कहना
है कि मैं
मालिक हूं, निर्णायक
मैं हूं; तेरा
काम मेरे
निर्णय में
साथ पहुंचाना
है। जल्दी ही
तुम पाओगे, मन हट जाता
है।
मन के
हटते ही शरीर
के उत्पात बंद
हो जाते हैं, और
जागरण की
धीमी-धीमी
ज्योति उठनी
शुरू हो जाती
है। गहन
अंधकार के बाद
जैसे सुबह, मरुस्थलों
में भटकने के
बाद जैसे
अचानक मिल गया
मरूद्यान, ऐसा
ही वह जागरण
है।
हजारों-हजारों
जन्मों तक धूप
में चलने के
बाद जैसे मिल
गई वृक्ष की
छाया, ऐसा
ही शीतल वह
जागरण है।
प्यासे को
जैसे पानी, भूखे को
जैसे भोजन, ऐसी ही
आत्मा की
प्यास के लिए
वह जलस्रोत
है।
और एक
बार तुम्हें
उस जलस्रोत की
थोड़ी सी भी समझ
आ जाए कहां है, तब
तुम पाओगे कि
तुम चाहे बाहर
से कितने ही
भिखारी हो, भीतर से तुम
सम्राट हो। और
बाहर से प्रकृति
ने तुम्हें
घेरा है, लेकिन
भीतर से तुम
परमात्मा हो।
जैसे हर मिट्टी
के दीये में
ज्योति है ऐसे
हर मिट्टी की
तुम्हारी देह
में परमात्मा
की ज्योति है।
लेकिन तुम
मिट्टी के
दीये से इतने
उलझे हो कि
तुम्हें याद
ही नहीं आती
कि ज्योति भी
है। मिट्टी का
दीया ज्योति को
सम्हालने को
है, लेकिन
मिट्टी के
दीये को
सम्हालने में
तुम ज्योति को
भूल गए हो।
स्मरण
करो ज्योति
का! और ज्योति
के स्मरण का अर्थ
है,
चौबीस घंटे
कुछ भी करो, एक काम भीतर
जारी रखो कि
जाग कर
करेंगे।
साइकिल चला
रहे हो रास्ते
पर, जाग कर
चलाओ। और तुम
फर्क अनुभव करोगे
फौरन। अगर तुम
जाग कर चलाओगे,
तुम पाओगे
तत्क्षण पूरे
शरीर की दशा
बदल गई। भोजन
कर रहे हो, जाग
कर करो।
तत्क्षण तुम
पाओगे, गुण
बदल गया, भीतर
की चेतना का
गुण और हो
गया। एक हलकी
शांति, एक
सौम्यता, एक
मधुरिमा
तुम्हें घेर
लेगी।
अन्यथा
तुम यंत्र हो।
अभी तो तुम
यंत्र हो। अभी
मनुष्य होना
नाममात्र को
है। मनुष्य
होने का अर्थ
तो है जागना, पुनरुक्ति
को तोड़ देना, मौलिक में
प्रवेश, नये
में--शाश्वत
नये
में--पदार्पण।
तीसरा
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
जो तुम हो उस
यथार्थ
स्थिति को अनाक्रामक
ढंग से, बिना
निंदा-स्तुति
के देखो।
लेकिन मेरी वह
स्थिति इतनी
भयावह है कि उस
ओर आंख उठाना
कठिन हो जाता
है। क्या
बताने की कृपा
करेंगे कि इस
भय से पहले
कैसे निपटा जाए?
कोई
स्थिति इतनी
भयावह नहीं है
कि तुम आंख
उठा कर न देख
सको। और आंख
उठा कर देखो
या न देखो, इससे
स्थिति तो
बदलती नहीं
है। वह भयावह
है तो है।
वस्तुतः उसे
भयावह कहना भी
व्याख्या है।
क्यों कहते हो
उसे भयावह? मन में
कामवासना है;
क्यों कहते
हो भयावह? क्या
भय है? देखने
में क्या डर
है? भीतर
नरक ही क्यों
न उबल रहा हो, देखने की
क्षमता तो
जुटानी ही
पड़ेगी।
क्योंकि वही
उसके ऊपर उठने
का मार्ग है।
अब तुम
पूछते हो कि
भय से पहले
कैसे निपटा
जाए?
बिना
देखे तो किसी
चीज से निपटा
नहीं जा सकता।
तुम ऐसी बातें
पूछ रहे हो कि
बिना पानी में
उतरे तैरना
कैसे सीखा जाए? पानी
में तो उतरना
ही पड़ेगा।
तैरना सीखना
तभी संभव हो
पाएगा। मत
उतरो बहुत
गहरे में, लेकिन
पानी में
किनारे तो
उतरो। गले-गले
तक जाओ, लेकिन
थोड़ा जाओ तो, हाथ-पैर तड़फड़ाओ।
थोड़ा सीखो, उथले में ही
सीखो; जब
सीख आ जाएगी
तो फिर तुम
गहरे में भी
जा सकोगे।
लेकिन अगर
तुमने यह तय
कर लिया कि हम
तो पहले तैरना
सीखेंगे फिर
पानी में
उतरेंगे, तब
फिर बड़ी
मुश्किल है।
फिर कोई उपाय
नहीं है।
भय से
पहले निपटोगे
तुम कैसे? कौन
निपटेगा?
तुम ही तो
भय हो, तुम
ही कंप रहे हो,
अब निपटेगा
कौन? जागो और भय को
देखो, ताकि
तुम भय से अलग
हो जाओ। न
जागोगे, न
भय को देखोगे,
तो अलग न हो
सकोगे। जो अलग
हो जाता है
वही तो निपट
सकेगा। और मजा
यह है कि जो
अलग हो जाता
है उसे निपटने
के लिए कुछ भी
नहीं करना
पड़ता। अलग होना
ही सूत्र है।
तुम जिस
मनोदशा से अलग
हो गए वही मिट
जाती है।
क्योंकि
तुम्हारे
सहारे के बिना
कोई मनोदशा जी
नहीं सकती।
कामवासना
है। तुम अलग
हो गए, तुमने
अपने को दूर
खड़ा कर लिया
और कहा कि मैं
साक्षी हूं, देखूंगा। बस,
प्राण निकल
गए कामवासना
के। क्योंकि
तुम्हारा ही
सहारा था।
तुमसे ही तो
ऊर्जा मिलती
थी। तुम्हीं
दूर खड़े हो
गए। कितनी देर
कामवासना चलेगी?
कुछ पुरानी
ऊर्जा थोड़ी
बहुत पास होगी,
थोड़ी बहुत
देर में
समाप्त हो
जाएगी। तुम
पाओगे, काम-ऊर्जा
पड़ी है; जैसे
सांप निकल गया
और उसकी
पुरानी चमड़ी
पड़ी रह जाती
है, वैसी
पड़ी है, उसमें
कोई प्राण
नहीं है। जैसे
कारतूस चला हुआ
पड़ा है, उसमें
अब कुछ प्राण
नहीं है।
प्राण
कौन देता है? तुम्हारे
भय के भी
तुम्हीं तो
जन्मदाता हो।
बस, दूर
होना कला है।
देखना
ही पड़ेगा।
कितनी ही
भयावह स्थिति
हो,
आंख खोलनी
ही पड़ेगी। तुम
कहो कि आंख
बिना खोले भय
मिट जाए; मुश्किल
है। क्योंकि
आंख बंद करने
के कारण ही तो
भय है। तुम
आंख खोलो,
देखो चारों
तरफ; भय
नहीं है।
और
भयभीत
तुम्हें कर
दिया है धर्मगुरुओं
ने। क्योंकि
हर चीज की
निंदा कर दी
है;
हर चीज को
निंदित कर
दिया है।
इसलिए भय
स्वाभाविक
है। तुम जो भी
करो वही पाप
मालूम पड़ता
है। और जब सब
तरफ पाप मालूम
पड़ता है तो
तुम कंपते हो,
डरते हो, घबराते हो।
नरक निश्चित
है। तुम सोच
भी नहीं सकते
कि तुम स्वर्ग
कैसे जाओगे! धर्मगुरुओं
ने जो
व्यवस्था दी
है उसमें
तुम्हारा नरक
निश्चित है।
अगर वह
व्यवस्था सच
है तो स्वर्ग
कोई कभी
पहुंचा होगा,
यह भी
संदिग्ध है।
सब निंदित है।
तो तुम घबरा ही
जाओगे।
मैं
तुमसे कहता
हूं,
कुछ निंदित
नहीं है; सभी
स्वीकृत है।
और जिन्हें
तुम निंदा
करके पा रहे
हो कि राह के
पत्थर हैं, वे पत्थर
नहीं हैं, वे
राह की सीढ़ियां
हैं।
कामवासना
के दो रूप
हैं। राह पर
पत्थर पड़ा हो।
एक तो यह रूप
है कि तुम
वहां जाकर अटक
जाते हो। अब
वहां से आगे
कैसे जाएं? दूसरा
कामवासना का
यह रूप है कि
तुम पत्थर पर
चढ़ जाते हो, पत्थर को
सीढ़ी बना लेते
हो। तो अब तक
तुम चल रहे थे
जिस तल पर, अब
तुम्हारा तल
ऊपर हो जाता
है।
नासमझ
सीढ़ियों को
पत्थर समझ
लेते हैं; समझदार
पत्थरों को सीढ़ियां
बना लेते हैं।
इतना ही फर्क
है समझदारी और
नासमझी में।
तुम्हें पता
ही नहीं कि
अगर तुम
कामवासना को
सीढ़ी बना लो
तो वही
ब्रह्मचर्य
बन जाएगी।
क्रोध को सीढ़ी
बना लो, वही
करुणा हो
जाएगा। तो
क्रोध में
करुणा छिपी है।
क्रोध तो ऊपर
की खोल है, भीतर
तो करुणा ही
छिपी है।
कामवासना तो
ऊपर की खोल है,
भीतर तो
ब्रह्मचर्य
ही छिपा है।
थोड़ा
सोचो, अगर
कामवासना न
होती तो तुम
ब्रह्मचर्य
को कैसे
उपलब्ध होते?
और
ब्रह्मचर्य
के आनंद को
कैसे उपलब्ध
होते अगर
कामवासना न
होती? तो
तुम कामवासना
को कामवासना
की तरह मत
देखो। तुम उसे
ब्रह्मचर्य
का ही एक कदम
समझो।
अगर
क्रोध न होता
तो तुम करुणा
को कैसे
उपलब्ध होते? कहो,
कोई उपाय है?
कोई उपाय
नहीं है।
क्रोध ही तो
करुणा बनेगा।
तो तुम क्रोध
को क्रोध की
तरह क्यों
देखते हो? तुम
उसके, क्रोध
के पूरे
विस्तार को
क्यों नहीं
देखते कि वही
अंत में करुणा
बन जाता है।
तुम्हारी
हालत वैसी है
जैसे कोई आदमी
खाद को भर कर बगीचे में
लाए तो उसमें
से बदबू आती
है। खाद है सड़ा
हुआ,
सड़ी गंध उससे
उठती है। तुम
अगर उतना ही
देख लो और समझ
लो कि ये बगीचे
तो ठीक नहीं।
लेकिन
तुम्हें खयाल
रखना चाहिए कि
वही खाद पड़ेगी
वृक्षों की
जड़ों में, उसी
खाद से फूल
उठेंगे; उनकी
बड़ी सुगंध है।
सब दुर्गंधें
सुगंधों में
बदल जाती हैं।
तुम जल्दी कर
लेते हो; निर्णय
ले लेते हो।
उससे मुश्किल
में पड़ जाते हो।
थोड़ी
देर समझो कि
अगर भय
तुम्हारे
भीतर हो ही न
तो तुम्हारे
जीवन में अभय
की घड़ी कैसे
आएगी? तुम अगर भटको न तो
तुम पहुंचोगे
कैसे? तुमसे
अगर भूल न हो
तो तुमसे ठीक
कैसे होगा? इसलिए मैं
तुम्हारे सब
पापों को
स्वीकार करता
हूं। क्योंकि
हर पाप में
मुझे पुण्य की
झलक दिखाई
पड़ती है। वहीं
पुण्य छिपा
है। तुम्हारे
वेश्याघरों
में ही
तुम्हारे
मंदिर भी छिपे
हैं। तुम
जल्दी मत करो,
अन्यथा तुम
लौट जाओगे
वेश्याघर को
वेश्याघर समझ
कर, मंदिर
से वंचित हो
जाओगे। मैं
जानता हूं, भीतर मंदिर
है। तुमसे
कहता हूं, डरो
मत, आओ।
कुछ
मिटाना नहीं
है जीवन में; कुछ
नष्ट नहीं
करना है।
प्रत्येक चीज
को उसकी पूर्णता
तक पहुंचाना
है। और हर चीज
अपनी पूर्णता
पर पहुंच कर
अपने से
विपरीत में
बदल जाती है।
यही तो लाओत्से
की सारी गहरी
से गहरी समझ
है कि हर चीज
अपनी पूर्णता
पर पहुंच कर
अपने से
विपरीत में
बदल जाती है।
दुर्गंध
सुगंध हो जाती
है, क्रोध
करुणा हो जाता
है, काम
ब्रह्मचर्य
बन जाता है, संसार
मुक्ति हो
जाता है।
इसलिए
तो मैं कहता
हूं कि मेरे
संन्यासियों
को संसार नहीं
छोड़ना है।
क्योंकि वहीं
मोक्ष का राज
भी छिपा है।
भाग गए वहां
से तो हिमालय
में भटकोगे; मोक्ष
न पा सकोगे।
उस बाजार के
शोरगुल में ही
एक अनंत शांति
छिपी है। जिस
दिन तुम
जागोगे उस दिन
तुम पाओगे कि
ठेठ बाजार में
शांत होने की कला
है। कहीं जाना
नहीं है, सिर्फ
जो तुम हो उसे
उसकी पूर्णता
की तरफ ले
जाना है। रुको
मत, बढ़ते
जाओ। कहीं मत
रुको, जब
तक कि ऐसी घड़ी
न आ जाए जिसके
पार जाने को
कोई जगह ही न
बचे। जहां तक
जगह बचे, चलते
जाओ।
झेन
फकीर लिंची से
किसी ने पूछा
कि धर्म क्या है?
उसने
कहा,
बढ़ते जाओ।
उसने
कहा कि यह भी
कोई बात हुई? बढ़ते
जाओ से हम
क्या समझें?
लिंची
ने कहा, सब कह
दिया; ज्यादा
कहने से बिगड़
जाएगा।
कहीं
रुको मत।
रुकना पाप है।
बढ़ते जाना
पुण्य है। पाप
से भी गुजरो, लेकिन
बढ़ते जाओ। और
तुम अचानक
पाओगे कि बढ़ते
ही बढ़ते पाप
पुण्य हो जाते
हैं, पत्थर
सीढ़ियां
बन जाते हैं, बंधन मुक्ति
हो जाती है।
इसलिए
ज्ञानियों ने,
जैसा
तिलोपा ने कहा,
कि संसार और
मोक्ष एक ही
हैं। जिसने दो
समझे वह भूल
में पड़ गया; जिसने दो
समझे वह चुनाव
में पड़ गया।
संसार में ही
जो बढ़ता जाए, बढ़ता जाए, एक दिन
अचानक पाता है
कि मोक्ष आ
गया।
तो मैं
तुम्हें न तो
निंदा करने को
कहता हूं, न
किसी चीज को
पाप कहता हूं।
कोई चीज पाप
है नहीं। हो
कैसे सकती है?
इस विराट की
लीला में पाप
आएगा कहां से?
तुम्हारी
भूल होगी, बस
इतना ही हो
सकता है।
तुमने कुछ गलत
समझ कर ली
होगी, तुमने
कोई व्याख्या
कर ली होगी।
मैं तुम्हें सब
पापों से मुक्त
करता हूं। बस
इतना ही तुमसे
कहता हूं कि कहीं
रुकना मत।
वेश्यागृह से
भी गुजरना पड़े
तो गुजरना; रुक मत जाना
वहां। रुकने
में भूल है, क्योंकि फिर
मंदिर तक न
पहुंच पाओगे।
और
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं। एक तो वे
हैं जो पाप
में रुक जाते
हैं;
उनको हम
भोगी कहते
हैं। और एक वे
हैं जो पाप से
डर कर भाग
जाते हैं; उनको
हम त्यागी
कहते हैं।
दोनों नहीं
पहुंच पाते।
योगी
मैं उसको कहता
हूं जो न तो
भागता और न
रुकता; जो
बढ़ता ही चला
जाता है। हर
अनुभव को जीता
है, और हर
अनुभव से सार निचोड़
लेता है। योगी
तो
मधुमक्खियों
की भांति है, हर फूल से
गुजरता है, चुन लेता है
सार, उड़
जाता है।
जीवन
के सभी पहलुओं
को जानो। भय
भी बुरा नहीं है, क्रोध
भी बुरा नहीं
है। बुरा है
तुम्हारा रुक जाना।
जानो और बढ़
जाओ। जानो और
पार कर जाओ।
अतिक्रमण
तुम्हारा
सूत्र हो, ट्रांसेंडेंस। हर चीज को
जानना है और
पार हो जाना
है। जानते ही
पार हो जाते
हो। जानना अतिक्रमण
है।
लेकिन
तुम अगर कहो
कि बिना आंख
खोले कैसे
निपटा जाए? तुम
कभी न निपट
सकोगे।
क्योंकि आंख
ही खोलना तो
निपटने का
उपाय है।
कितना ही डर
हो, खोलो आंख। आंख
बंद करने से
डर मिटता कहां
है? लेकिन
शुतुरमुर्ग
का तर्क हमारे
मन में है।
देखता है
दुश्मन को
शुतुरमुर्ग, रेत में सिर गड़ा कर खड़ा
हो जाता है।
सोचता है, न
दिखाई पड़ेगा
दुश्मन, न
रहेगा
दुश्मन। पर यह
तर्क कहीं काम
आता है? दुश्मन
को तो तुम
दिखाई पड़ ही
रहे हो। असली
सवाल तो वह
है। दुश्मन
तुम्हें खा
जाएगा। शुतुरमुर्ग
अगर सिर ऊपर
रखता तो शायद
कोई रास्ता भी
खोल लेता।
शुतुरमुर्ग
मत बनो। आंख खोलो और
देखो। कुछ
भयावह नहीं है, क्योंकि
कुछ बुरा नहीं
है। क्योंकि
कुछ बुरा हो
नहीं सकता है।
एक-एक पत्ते
पर परमात्मा
का हस्ताक्षर
है। बुरा कुछ
हो नहीं सकता
है। पाप में
भी वही छिपा
है। बड़ा अनूठा
खिलाड़ी
है कि पाप में
भी छिपा है! वह
छिपने की जगह
है उसकी, आड़ है।
जैसे बच्चे
आंख-मिचौनी
खेलते हैं तो
वहीं छिपते
हैं जहां कम
से कम संभावना
हो पकड़ने
की। परमात्मा
भी वहीं छिपा
है जहां कम से
कम संभावना है
तुम्हारे
जाने की।
मंदिर तुम
जाओगे उसे
खोजने, तुम
उसे न पाओगे।
मंदिर में वह
छिपा नहीं है।
तुम जहां से
बच रहे हो
वहीं वह छिपा
है। वहीं थोड़े
खोदने की
जरूरत है।
जिन्होंने भी
उसे पाया है
उन्होंने उसे
संसार की
गहनता में
पाया है, सब
अनुभवों से
गुजर कर पाया
है।
भगोड़े मत
बनो। भागना
कहीं नहीं है।
जहां-जहां तुम्हें
लगता हो कि
यहां कैसे हो
सकता है, मैं
तुमसे कहता
हूं, वहीं
है। तुम कैसे
सोच सकते हो
कि क्रोध में
और करुणा हो
सकती है? लेकिन
वहीं है। तुम
कैसे सोच सकते
हो कि कामवासना
में
ब्रह्मचर्य
हो सकता है? वहीं है। और
तुम कैसे सोच
सकते हो कि
संसार में
संबोधि छिपी होगी?
वहीं है।
चौथा
प्रश्न:
जगत
द्वंद्व है; जगत
के सभी नियम
विपरीत पर खड़े
हैं। फिर हमें
द्वंद्व के
बाहर होने का
उपदेश क्यों
दिया जाता है?
क्या हम जगत
के बाहर हैं?
हो तो
नहीं, लेकिन
हो सकते हो।
और कोई
तुम्हें
उपदेश नहीं दे
रहा है जगत के
बाहर होने का।
तुम ही पूछते
हुए आए हो कि
द्वंद्व में
घिरे हैं, बड़ी
अशांति है, क्या करें? द्वंद्व में
रहोगे तो
अशांति
रहेगी।
क्योंकि जहां
दो हैं वहां
कलह होगी।
पुरानी कहावत
है, जहां
बरतन होते हैं
वहां थोड़े
बजते हैं। जब
तक एक न रह जाए
तब तक शांति
हो नहीं सकती।
तुम्हें कोई उपदेश
नहीं दे रहा
है कि तुम
निर्द्वंद्व
हो जाओ। तुम
ही पूछते हुए
आए हो कि मन
अशांत है, संतप्त
है, दुखी
है, क्या
करें? तुम
पूछते हो, इसलिए
मैं कहता हूं
कि दुखी तुम
इसलिए हो कि तुम
अभी दो के साथ
हो। और किसी
तरह एक को
पाना है। एक
को पा लो, अशांति
मिट जाएगी।
इसलिए
महावीर ने तो
मोक्ष को जो
नाम दिया वह नाम
ही कैवल्य है।
महावीर ने बड़ा
प्यारा शब्द चुना।
कैवल्य का
अर्थ है
बिलकुल अकेले
बचे,
केवल तुम, कोई न बचा।
अकेली चेतना
रह गई। तो
संघर्ष किससे
होगा? द्वंद्व
किससे होगा? वही परम
शांति का क्षण
है।
संसार
द्वंद्व है। संसार
अशांति है।
संसार दुख है।
अगर तुम राजी हो
दुख से, मजे
से राजी रहो।
मैं कौन जो
तुम्हें खींच
कर दुख के
बाहर करूं? अगर तुम्हें
मजा आ रहा है
दुख में; पूरा
मजा लो। लेकिन
फिर पूछते मत
फिरो कि दुख से
बाहर कैसे
होना? तुम
अगर अपनी राजी
से, अपनी
खुशी से दुखी
हो, फिर
बिलकुल ठीक
है। फिर मैं
तुम्हें बाधा
न दूंगा।
लेकिन
तुम्हारी बड़ी
अजीब गति है।
द्वंद्व से
दुखी हो, दुख
के बाहर होना
चाहते हो, और
फिर पूछते हो
कि द्वंद्व के
बाहर होने का
उपदेश क्यों
दिया जा रहा
है जब सारा
संसार ही द्वंद्व
है?
सारा
संसार
द्वंद्व है, लेकिन
जिसको यह
द्वंद्व पता
चलता है वह
चेतना अलग है।
जो इस द्वंद्व
को देखता है, साक्षी है, वह अलग है, वह संसार के
बाहर है।
द्वंद्व को तो
पता भी कैसे
चलता कि
द्वंद्व है, अगर
निर्द्वंद्व
मौजूद न हो?
इसे
थोड़ा समझो।
अगर तुम्हारे
भीतर कोई शांत
केंद्र न हो
तो तुम्हें
अशांति का पता
कैसे चलेगा? किसको
पता चलेगा कि
अशांति है? अशांति को
पता चलेगा कि
अशांति है? अशांति को
तो पता ही
कैसे चल सकता
है अशांति का?
कोई शांत
केंद्र
तुम्हारे
भीतर छिपा
होना चाहिए
जिसको पता
चलता है
अशांति का।
दुख का किसे
पता चलता है? अगर दुख ही
दुख हो तो दुख
का पता ही
नहीं चल सकता।
तुम्हारे भीतर
आनंद का कोई
स्वर बज ही
रहा होगा। उसी
से तो तुम
तौलते हो कि
दुख है। नहीं
तो तुम तौलते
कैसे हो? तुम
कैसे मुझसे
आकर कहते हो
कि मैं दुखी
हूं? कैसे
कहते अशांत
हूं? कैसे
कहते हो कि
अज्ञान में
भटक रहा हूं, अंधकार में
जी रहा हूं? तुम्हें कुछ
न कुछ अनजानी
पहचान है
प्रकाश की। तौलोगे
कैसे अन्यथा?
वह
जहां से यह
धीमी-धीमी, अनजानी
पहचान आ रही
है, वह जगह
द्वंद्व के
बाहर है। और
तुम चाहो तो
वहां थिर हो
सकते हो।
लेकिन
तुम्हारी
मौज। संसार
में ही रहना
हो, द्वंद्व
में ही रहना
हो, मजे से
रहो।
लेकिन
वहां तुम रहना
नहीं चाहते।
तुम्हारी तकलीफ
मुझे पता है।
तुम्हारी
तकलीफ यह है
कि जो नहीं हो
सकता, वह तुम
करना चाहते
हो। तुम रहना
तो चाहते हो द्वंद्व
में, और
आनंदित रहना
चाहते हो।
मनुष्य की
सारी प्रार्थनाएं
एक वाक्य में
संगृहीत
हैं--कि हे परमात्मा!
कोई ऐसी तरकीब
बताओ कि दो और
दो चार न हों।
बस, असंभव
किसी तरह हो।
क्योंकि
तुम्हें लगता
है द्वंद्व
में रागरंग भी
है; तुम्हें
लगता है
द्वंद्व में
सुख भी है; सारी
वासनाएं उस
तरफ ले जाती
हैं। चहल-पहल
वहां है। मगर
उस चहल-पहल
में अशांति
है। तो तुम मेरे
पास चले आते
हो--या किसी के
पास जाते
हो--कि शांति
कैसे हो जाए? वहीं अड़चन
शुरू होती है।
तुम चाहते हो
कि द्वंद्व को
भोगते हुए
शांत कैसे हो
जाएं।
यह
नहीं हो सकता।
मैं तुम्हें
बताता हूं कि
शांति की यह
राह है, कि
तुम शांत हो
जाओ। लेकिन तब
द्वंद्व खो
जाएगा।
द्वंद्व को भी
तुम पकड़े
रखना चाहते
हो। मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं, महत्वाकांक्षा
तो नहीं छूटती,
लेकिन
शांति की बड़ी
आकांक्षा है।
अब यह हो कैसे
सकता है? लोग
मुझसे पूछते
हैं कि जो हम
कर रहे हैं, जैसा हम कर रहे
हैं, क्या
वैसे ही
करते-करते कुछ
घटना नहीं घट
सकती? तो
फिर घटना घटानी
ही क्यों है? अगर तुम
राजी हो तो
फिकर छोड़ो।
राजी भी नहीं
हैं, क्योंकि
दुख मिल रहा
है। और सुख की
आशा बनी है वहीं।
एक
मित्र हैं
बंबई में, और
वे बंबई में
हमेशा अशांत
रहते हैं। तो
मैं कश्मीर
गया तो वे
मेरे साथ
कश्मीर गए। पहलगांव
में बड़ी शांति
थी। दूसरे दिन
वे कहने लगे
कि यहां तो मन
ऊबता है।
बंबई
में अशांत थे
कि यह बंबई जो
है पागलपन है; पहलगांव में भी
अशांत हो गए, क्योंकि
शांति उबाने
लगी। अब वे
चाहते हैं पहलगांव
की शांति बंबई
में, या पहलगांव
में बंबई का
उपद्रव। उस
उपद्रव के
बिना भी नहीं
जी सकते; उस
उपद्रव के साथ
भी नहीं जी
सकते।
यह
नहीं हो सकता।
तुम्हें
बदलना पड़ेगा।
अगर द्वंद्व
दुख दे रहा है
तो तुम्हें
निर्द्वंद्व
होना पड़ेगा; तुम्हें
तीसरा सूत्र
खोजना पड़ेगा
जो दोनों के
बाहर है। अगर
तीसरा सूत्र
तुम खोज लो और
तीसरे सूत्र
में तुम पूरी
तरह लीन हो
जाओ, तो
जरूर असंभव भी
घट सकता है।
तब एक दिन तुम
बाजार में
वापस आ सकते
हो, और
तुम्हारे
भीतर पहलगांव
की शांति
होगी। तुम बीच
बंबई में खड़े
हो सकते हो, शेयर मार्केट
में, लेकिन
पहलगांव
की शांति
तुम्हारे
भीतर होगी। तब
तुम वहां होओगे
भी और नहीं भी
होओगे। तब
बाहर से तुम
वहां होओगे, भीतर से तुम
वहां नहीं
होओगे। लेकिन
यह तो आखिरी
घटना है; यह
पहले नहीं घट
सकती।
पहले
तो तुम्हें यह
तय करना ही
होगा कि दुख
के ऊपर उठना
है तो द्वंद्व
को छोड़ना है।
दुख के ऊपर उठ
कर,
द्वंद्व को
छोड़ कर एक दिन
तुम्हारे
भीतर ऐसी गरिमा
का उदय होगा, ऐसी गहन
शांति जन्मेगी
कि फिर तुम
लौट आ सकते हो
बाजार में। तब
तुम्हें कोई
बंधन न होगा; तब तुम्हें
कोई द्वंद्व न
छुएगा, कोई
द्वैत न
छुएगा।
आखिर
परमात्मा भी
तो द्वंद्व
में ही रह रहा
है;
उसे नहीं
छूता।
क्योंकि वह
द्वंद्व में
है और नहीं
है। द्वंद्व
में ऐसे है
जैसे कोई
अभिनेता होता
है। तुम
द्वंद्व में
कर्ता की तरह
हो, तुम
वहां बंट जाते
हो। तुम
अभिनेता नहीं
हो। तुम्हारा
धन खो जाता है
तो तुम्हारी
आंख से अभिनेता
के आंसू नहीं
बहते, असली
आंसू बहते
हैं। तुम सच
में ही रोते
हो। तुम्हारी
पत्नी खो जाए
तो तुम सच में
ही चिल्लाते
हो, छाती
पीटते हो; वैसा
नहीं जैसा
रामलीला में
राम की सीता
खो जाती है तो
वे पूछते हैं
वृक्षों से, कहां मेरी
सीता!
लेकिन
तुम जानते हो
कि वे बिलकुल नहीं
पूछ रहे, केवल
अभिनेता हैं।
भीतर कुछ नहीं
हो रहा, सब
बाहर-बाहर हो
रहा है। आंसू
भी लाते हैं
तो नाटक
कंपनियां
मिर्च का
मसाला रखती
हैं। वे जल्दी
से, हाथ
में मिर्च
लगाए रखते हैं,
आंख पर मीड़
लेते हैं; आंसू
बहने लगते
हैं। रामचंद्रजी
को भी रामलीला
में थोड़ी सी
मिर्च आंख में
लगानी पड़ती है,
तब आंसू आते
हैं।
अब
आंसू कोई
तुम्हारी
आज्ञा से तो
चलते नहीं। और
असली आंसू एक
बात है; नकली
लाना बड़ी
मुश्किल बात
है। कभी नकली
आंसू लाकर
देखो, तब
पता चलेगा। आज
अभ्यास करना
बैठ कर कि
नकली आंसू
किसी तरह आ
जाएं। वे
बिलकुल न
आएंगे। बिलकुल
सूख जाएंगी
आंखें; पता
ही न चलेगा कि
आंखों में कोई
आंसू भी हैं कहीं।
जिस
दिन व्यक्ति
अपने भीतर की
गहन शांति में
थिर हो जाता
है उस दिन जगत
एक अभिनय है।
इसलिए हमने
इसे लीला कहा
है। उस दिन वह
सब करता है--वह
बाजार जाता, वह
दुकान चलाता,
वह पत्नी को
सम्हालता, बच्चों
को
सम्हालता--वह
सब करता है, और फिर भी
अकर्ता बना
रहता है। वही
सिद्ध की दशा
है। लेकिन
उसके पहले
तुम्हें साधक
होने से गुजरना
पड़ेगा।
तुम्हें
द्वंद्व से
हटना पड़ेगा।
हटने
की कला को ही
मैं जागरण
कहता हूं। जाग
कर देखते रहो।
जागते-जागते, जागते-जागते,
तुम्हारे
भीतर तीसरी
स्थिति खड़ी हो
जाएगी। दो
बाहर रह
जाएंगे, तीसरा
भीतर हो
जाएगा। वह
तीसरा दो के
पार है। उस
पार का अनुभव
होने लगे, फिर
कोई कठिनाई
नहीं है। फिर
कोई गाली दे, निंदा करे, स्तुति करे,
सब बराबर
है। फिर कोई
अंतर नहीं
पड़ता है। फिर एक
विराट अभिनय
है, बड़ा
मंच है, चल
रहा है।
तुम्हें दिया
गया पात्र
तुम्हें पूरा
कर देना है, तुम्हारा
अभिनय
तुम्हें पूरा
कर देना है।
तब तुम बदलना
भी नहीं
चाहते।
ऐसी
कथा है कि
जापान में एक
फकीर हुआ, जो
कि हत्यारा
था। पहले
सैनिक था, तब
भी लोगों को
लगता था कि वह
मारता जरूर है,
लेकिन
मारता नहीं।
उसकी झलक उसके
निकट के लोगों
को पता चलती
थी। फिर वह एक
ही काम सीखा
था। मुक्त हो
गया सेना से, तो उसने
बधिक का धंधा
कर लिया, बूचर बन
गया। कहते हैं,
वह जिंदगी
भर पशुओं को
ही काटता रहा।
सम्राट भी
उसके पास
शिक्षा लेने
आते थे।
अनेक
बार उसके शिष्यों
ने कहा कि यह
बात शोभा नहीं
देती कि तुम
और पशुओं को
काटो। वह
हंसता और कहता, जो
परमात्मा ने
काम पकड़ा दिया
वह कर रहे हैं,
न हमने चुना,
न हमारी कोई
जिम्मेवारी।
उसकी मर्जी है
कि हम बधिक
रहें, हम
बधिक हैं। न
कोई वैमनस्य
है इन पशुओं
से, न कोई
शत्रुता है। न
इन्हें बचाने
का कोई अपना
आग्रह है, न
मिटाने का कोई
अपना आग्रह
है। जो मिल
गया है अभिनय
वह पूरा किए
दे रहे हैं।
कहते
हैं,
वह परम
मुक्ति को
उपलब्ध हुआ।
तुम अहिंसा
साध-साध कर भी
न हो पाओगे, और कभी-कभी
हत्यारे भी
मुक्त हो गए
हैं। असली राज
न तो अहिंसा
में है और न
हिंसा में है;
असली राज तो
जीवन को अभिनय
बना लेने में
है। तुम कर्ता
न रह जाओ। अब
तुमने अगर एक
मक्खी को नहीं
मारा या एक
चींटी को नहीं
मारा तो तुम
हिसाब लिख
लेते हो कि आज
एक चींटी
बचाई। मगर तुम
कर्ता हो, तुम
कुछ कर रहे
हो।
कर्तृत्व
बंधन है; साक्षित्व
मुक्ति है।
तुम कर्ता न
रहो; धीरे-धीरे
साक्षी हो
जाओ। कर्ता
में द्वंद्व है,
साक्षी
अद्वैत
अवस्था है।
जिस दिन यह घट
जाएगा उस दिन
सब ठीक है, उस
दिन कोई फर्क
नहीं पड़ता।
क्या करते हो,
क्या नहीं
करते हो, सब
बराबर है। यह
जगत स्वप्न से
ज्यादा नहीं।
यह तुम्हें
सत्य मालूम
पड़ता है, क्योंकि
तुम सोए हो।
तुम जागोगे तो
पाओगे, सब
सपना खो गया।
साधु भी सपने
में साधु है
और असाधु भी
सपने में
असाधु है।
जागा हुआ न तो
साधु है न
असाधु। जागे
हुए को हम संत
कहते हैं, सिद्ध
कहते हैं। वह
न अच्छा है न
बुरा; वह
सिर्फ जाग
गया। सपना खो
गया। न उसे
कुछ अच्छा बचा,
न कुछ बुरा;
न शुभ, न
अशुभ; न
पाप, न
पुण्य। इसलिए
संतत्व आखिरी
शिखर है।
लेकिन
उस तक बड़ी
यात्रा करनी
है। और एक-एक
कदम चलोगे तो
पहुंच जाओगे।
क्योंकि
हजारों मील की
यात्रा भी एक
कदम से शुरू
होती है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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