दिनांक 19 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
योगसूत्र: (साधनापाद)
योगसूत्र: (साधनापाद)
परिणामतापसंस्कारदु:
खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च।
दुःखमेव
सर्वं विवेकिन:।।
15।।
विवेकपूर्ण
व्यक्ति
जानता है कि
हर चीज दुःख
की और ले जाती
है।
परिवर्तन
के कारण,चिंता
के कारण,
पिछले
अनुभवों के
कारण और
उन
द्वंदों के
कारण जो तीन
गुणों और
मन की
पाँच
वृतियोंके
बीच में आ
बनते है।
हेयं
दुःख मनागतम्।।
16।।
द्रष्टा
और दृश्य के
बीच का संबंध,
जो कि दुःख
बनाता है,
उसे तोड़ देना
है।
जीवन
एक रहस्य है, और
जीवन के बारे
में पहली
रहस्यभरी बात
यह है कि तुम
जीवित हो और
हो सकता है
तुम्हारे पास
जीवन बिलकुल
ही न हो। केवल
जन्म लेना ही
पर्याप्त
नहीं होता है
जीवन पाने के
लिए। जन्म
लेना तो मात्र
एक अवसर होता
है। तुम इसका
उपयोग कर सकते
हो जीवन पाने
में, और
तुम इसे चूक
भी सकते हो।
तब तुम एक
मुरदा जीवन
जीओगे। केवल
बाहरी तौर से
वह जीवन जैसा
जान पड़ेगा, लेकिन गहरे
तल पर तुममें
कोई जीवंत
तरंग न होगी।
जीवन
अर्जित करना
पड़ता है, व्यक्ति
को कार्य करना
होता है उसके
लिए। वह
तुममें पड़े
बीज की भांति
होता है उसे
जरूरत है
ज्यादा
प्रयास की, जमीन की, ठीक
मिट्टी की, ध्यान देने
की, प्रेम
की, जागरूकता
की। केवल तभी
बीज
प्रस्फुटित
होता है। केवल
तभी संभावना
होती है कि
किसी दिन
वृक्ष में फल
लगेंगे, किसी
दिन उसमें फूल
खिलेंगे। जब
तक कि तुम
पूरे खिलने की
अवस्था तक
नहीं पहुंच
जाते, तब
तक तो तुम
कहने भर को ही
जीवित होते, लेकिन तुमने
खो दिया होता
है अवसर। जब
तक कि जीवन एक
उत्सव नहीं बन
जाता, वह
जीवन होता ही
नहीं।
आनंद, निर्वाण,
संबोधि जो
कुछ भी तुम
इसे कहना चाहो—वही
है परम विकास।
यदि तुम दुखी
रहते हो तो
तुम जीवित
नहीं होते। वह
दुख ही दिखाता
है कि तुम चूक
गए हो किसी
चरण को। वह
दुख ही एक
संकेत है कि
जीवन भीतर
संघर्ष कर रहा
है विस्फोटित
होने के लिए, लेकिन खोल
बहुत कठोर है।
बीज का आवरण
उसे बाहर नहीं
आने दे रहा
होता; अहंकार
बहुत ज्यादा
होता है और
द्वार बंद होते
हैं। दुख और
कुछ नहीं है
सिवाय इस
संघर्ष के कि
जीवन फूट पड़े
लाखों रंगों
में, लाखों
इंद्रधनुषों
में, लाखों
फूलों में, लाखों—लाखों
गीतों में।
दुख
एक नकारात्मक
अवस्था है।
वस्तुत: दुख
और कुछ नहीं
सिवाय आनंद के
अभाव के। इसे
बहुत गहरे में
समझ लेना है, अन्यथा
तुम तो लड़ने
लगोगे दुख के
साथ और कोई लड़
नहीं सकता
किसी अभाव के
साथ, वह
होता है
बिलकुल
अंधकार की
भांति। तुम
नहीं लड़ सकते
अंधकार के साथ।
यदि तुम लड़ते
हो, तो
एकदम मूढ़ ही
होते हो। तुम
जला सकते हो
दीया और
अंधकार
तिरोहित हो
जाता है, लेकिन
तुम लड़ नहीं
सकते अंधेरे
से। किसके साथ
लड़ोगे तुम? अंधकार
अस्तित्वगत
नहीं होता, वह होता ही
नहीं। वह कोई
ऐसी चीज नहीं
कि जिसे तुम
बाहर फेंक सको,
मार सको, या उसे
पराजित कर सको।
तुम अंधकार के
विषय में कुछ
नहीं कर सकते।
यदि तुम करते
हो कुछ, तो
तुम्हारी
अपनी ऊर्जाएं
ही नष्ट होंगी
और अंधकार
वहां बना
रहेगा ठीक उसी
तरह, ज्यों
का त्यों। यदि
तुम अंधकार के
विषय में कुछ
करना चाहते हो,
तो तुम्हें
कुछ करना होता
है प्रकाश के
विषय में, अंधकार
के विषय में
तो बिलकुल कुछ
भी नहीं।
तुम्हें
जलाना पड़ता है
दीया, और
अचानक कहीं
कोई अंधकार
नहीं होता।
दुख
है अंधकार की
भांति; वह
कोई
अस्तित्वगत
बात नहीं। और
यदि तुम दुख
से लड़ना शुरू
कर देते हो, तो तुम लड़ते
रह सकते हो
दुख से, लेकिन
और ज्यादा दुख
निर्मित होगा।
यह तो मात्र
एक सूचना होती
है, एक
स्वाभाविक
सूचना
तुम्हारी
अंतस—सत्ता के
विषय में कि
जीवन अभी भी
संघर्ष कर रहा
है पैदा होने
के लिए। दीया
अभी प्रकाशित
नहीं हुआ, इसलिए
है दुख।
आनंद
का अभाव है
दुख,
और कुछ किया
जा सकता है आनंद
के विषय में, लेकिन दुख
के लिए तो कुछ
भी नहीं किया
जा सकता। तुम
दुखी होते हो
और तुम कौशिश
किए चले जाते
हो उसे
सुलझाने की। यहां,
इस बिंदु पर,
धार्मिक और
अधार्मिक
आदमी का मार्ग
अलग हो जाता
है, वे अलग
हो जाते हैं।
अधार्मिक
आदमी लड़ने
लगता है दुख
के साथ, ऐसी
स्थितियां
बनाने की
कोशिश करता है
जिनमें वह
दुखी नहीं
होगा; दुख
को अपनी नजरों
से, दृष्टि
से कहीं दूर
धकेलने लगता
है। धार्मिक
व्यक्ति
खोजने लगता है
आनंद, खोजना
शुरू कर देता
है परमानंद को,
सच्चिदानंद
को खोजने लगता
है —तुम कह
सकते हो इसे
परमात्मा।
अधार्मिक
आदमी अभाव के
साथ लड़ता है, धार्मिक
आदमी लाने की
कोशिश करता है
अस्तित्वगत
को—प्रकाश को,
आनंद की
मौजूदगी को।
ये
मार्ग बिलकुल
ही विपरीत हैं, वे
कहीं नहीं
मिलते। एक साथ
मीलों तक
समानांतर चल
सकते हैं वे, लेकिन वे
मिलते कहीं
नहीं।
अधार्मिक
आदमी को उस
जगह तक वापस
आना पड़ता है जहां
ये दो मार्ग
विभक्त होते
हैं और अलग
होते हैं। उसे
आना होता है
उस समझ तक कि
अंधकार से
लड़ना, दुख
से लडूना एक
पागलपन है।
भूल जाओ इस
बारे में और
इसके विपरीत
प्रकार के लिए
कोशिश करो। एक
बार प्रकाश
पहुंचता है, तो तुम्हें
कुछ और करने
की जरूरत नहीं
होती, दुख
तिरोहित हो
जाता है। जीवन
होता है केवल
एक संभावना के
रूप में।
तुम्हें उस पर
कार्य करना
पड़ता है, तुम्हें
उसे ले आना
होता है सच्ची
अस्तित्वगत
अवस्था तक।
कोई जीवंत
उत्पन्न नहीं
होता, केवल
जीवंत होने की
संभावना लिए
रहता है। कोई
उत्पन्न नहीं
होता दृष्टि
सहित, केवल
देखने की
संभावना लिए
रहता है। जीसस
अपने :शिष्यों
से कहते रहे, 'यदि
तुम्हारे पास
कान हैं तो
सुनो! यदि
तुम्हारे पास
आख है तो देखो।’
वे शिष्य
तुम जैसे ही
थे उनके पास आंखें
थीं, उनके
पास कान थे।
वे अंधे या
बहरे नहीं थे।
क्यों जीसस
कहते रहे कि
यदि उनकी आंखें
होतीं तो वे
देखते; वह
क्राइस्ट को
देखने की
क्षमता के
विषय में कह
रहे थे; वह
क्राइस्ट को
सुनने की
सक्षमता की
बात कह रहे थे।
कैसे तुम सुन
सकते हो
क्राइस्ट को
यदि तुमने नहीं
सुनी होती है
तुम्हारी
अपनी आंतरिक
आवाज? —असंभव।
क्योंकि
क्राइस्ट और
कुछ नहीं
सिवाय तुम्हारी
आंतरिक आवाज
के। कैसे तुम
देख सकते हो
क्राइस्ट को,
यदि तुम
स्वयं को नहीं
देख पाते हो? क्राइस्ट
तुम्हारी
आत्मा के
.अपनी परम
महिमा में
खिलने के, अपना
परम विकास
पाने के सिवाय
कुछ नहीं।
तुम
जीते हो एक
बीज की भाति।
कुछ कारण होते
हैं जिनकी वजह
से व्यक्ति
बीज की भांति
जीए चला जाता
है। और
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
जीते हैं बीज
की भांति।
जरूर कोई बात
होगी इसमें।
बीज की भांति
जीना आरामदेह
लगता है। जीवन
खतरनाक जान
पड़ता है। बीज
की भांति बने
रहने से, आदमी
ज्यादा
सुरक्षित
अनुभव करता है।
उसके चारों ओर
सुरक्षा होती
है। बीज
असुरक्षित
नहीं होता है।
एक
बार
प्रस्फुटित
होता है वह, तो
वह बन जाता है
असुरक्षित।
उस पर आक्रमण
किया जा सकता
है, वह
मारा जा सकता
है —जानवर हैं,
बच्चे हैं,
इतने लोग
मौजूद हैं। एक
बार बीज पौधे
के रूप में
खिल जाता है, तो वह हो
जाता है
कवचहीन, असंरक्षित;
खतरे शुरू
हो जाते हैं।
जीवन
एक बड़ा साहस
है। बीज में
रह कर, बीज में
छिपे रह कर
तुम सुरक्षित
होते हो, बचाव
में होते हो, कोई तुम्हें
नहीं मारेगा।
कैसे तुम्हें
मारा जा सकता
है यदि तुम
जीवित ही न हो
तो?— असंभव।
केवल जब तुम
जीवित होते हो,
तभी तुम
मारे जा सकते
हो। जितने
ज्यादा तुम
जीवंत होते, उतने ज्यादा
तुम
असुरक्षित
होते। जितने
ज्यादा तुम
जीवंत होते, उतने ज्यादा
खतरे होते
तुम्हारे
आसपास। एक
संपूर्णतया
जीवंत
व्यक्ति बड़े
से बडे खतरों
में जीता है।
इसीलिए लोग
बीज की भांति
जीना चाहते
हैं—संरक्षित,
सुरक्षित।
ध्यान
रखना, जीवन का
असली स्वभाव
ही है
असुरक्षा।
तुम सुरक्षित
जीवन नहीं पा
सकते, तुम
पा सकते केवल
सुरक्षित
मृत्यु। सारे
बीमे होते हैं
मृत्यु के लिए।
जीवन का कोई
बीमा नहीं हो
सकता। सारी
सुनिश्चितता
है बचाव के
लिए, सुरक्षा
के लिए, बंद
रहने के लिए।
जीवन खतरनाक
होता है, लाखों
खतरे होते हैं
आसपास। इसलिए
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
बीज बने रहने
के पक्ष में
ही निर्णय
लेते हैं।
लेकिन क्या
बचा रहे होते
हो तुम? —बचाने
को कुछ है
नहीं। क्या
सुरक्षित रख
रहे हो तुम? —सुरक्षित
रखने को अंतत:
कुछ भी नहीं।
बीज तो उतना
ही मृत है
जितने कि
रास्ते के कंकड़
—पत्थर। और
यदि वह बीज की
भांति ही बना
रहता है तो
दुख आएगा ही।
दुख आएगा
क्योंकि इस
तरह का होने
में उसकी अर्थपूर्णता
न थी। उसकी
नियति बीज
होने की न थी, बल्कि उससे
बाहर आ जाने
की थी। पक्षी
को छोड़ना पड़ता
है अंडे के
खोल को अपरिसीम
के लिए, खतरनाक
आकाश के लिए
जहां कि हर
चीज संभव होती
है।
और
उन तमाम
संभावनाओं
सहित, मृत्यु
भी होती है
वहां। जीवन
जोखम उठाता है
मृत्यु का।
मृत्यु जीवन
के विपरीत
नहीं है, मृत्यु
ही वह
पृष्ठभूमि है
जिसमें जीवन
खिलता है।
मृत्यु जीवन
के विपरीत
नहीं। वह तो
है
ब्लैकबोर्ड
की भांति ही
जिस पर तुम लिखते
हो सफेद खड़िया
से। तुम लिख
सकते हो सफेद
दीवार पर, लेकिन
तब शब्द
दिखायी न
पड़ेंगे।
ब्लैकबोर्ड
पर, जो कुछ
भी तुम सफेद
से लिखते हो, वह दिखायी
पड़ता है।
मृत्यु है
ब्लैकबोर्ड
की भांति :
जीवन की सफेद
रेखाएं
दिखायी पड़ती
हैं उस पर, वह
विपरीत नहीं;
वही तो है
पृष्ठभूमि।
वे
लोग जो कि
जीवित रहना
चाहते हैं
उन्हें एक चीज
का निर्णय
लेना है :
उन्हें
मृत्यु को स्वीकार
करने की बात
का निर्णय
लेना है।
उन्हें न ही
केवल स्वीकार
करना होगा
मृत्यु को, उन्हें
तो उसका
स्वागत करना
है। हर क्षण
उन्हें तैयार
रहना होगा
उसके लिए। यदि
तुम नहीं
स्वीकार करते
मृत्यु को, तो तुम
बिलकुल शुरू
से ही मुरदा
बने रहोगे।
वही है बचाव
का एकमात्र
रास्ता—तुम
बने रहोगे बीज।
पक्षी मर
जाएगा अंडे की
खोल में —बहुत—से
पक्षी मर जाते
हैं अंडे की
खोल में।
तुम
हो यहां पर।
यदि तुम मुझसे
कोई मदद चाहते
हो,
तो मुझे
तोड्ने दो
तुम्हारा कवच,
तुम्हारी
सुरक्षाएं, तुम्हारे
बैंक—खाते, तुम्हारे
जीवन बीमे, मुझे बनाने
दो तुम्हें
खुले हुए, असुरक्षित।
सुरक्षित तो
तुम रहोगे कवच
में, और
जल्दी ही तुम
एक सड़ी हुई
चीज बन जाओगे।
बाहर आ जाओ
उससे। कवच है
तुम्हारे
बचाव के लिए, तुम्हें
मारने के लिए
नहीं। उसका
उद्देश्य यह
नहीं है कि
तुम्हें सदा
खोल में ही रहना
चाहिए। अच्छी
होती है यह
बात—शुरू में
यह बचाव भी
करती है, जब
तुम बहुत
सुकोमल होते
हो बाहर आने
की दृष्टि से।
लेकिन जब तुम
तैयार होते हो
तब तोड़ना ही
होता है खोल को।
चाहे कितनी ही
सुविधा में और
कितने ही
सुरक्षित हो
तुम, खोल
में एक पल भी
और बिताया और
तुमने खो दी
संभावना, तुम
खो दोगे अवसर—जीवित
होने का और
आकाश में उड़ने
का।
निस्संदेह
खतरे हैं, लेकिन
खतरे सुंदर
हैं। बिना
खतरों का
संसार असुंदर
होगा, और
बिना खतरों के
जिंदगी कोई
बहुत जीवंत
नहीं हो सकती
है।
इसीलिए
गहरे तल पर हर
पुरुष और हर
स्त्री में खतरों
के बीच जीने
की एक
अंतःप्रेरणा
होती है। वह
अंतःप्रेरणा
है जीवन के
लिऐ। इसीलिए
तुम पर्वतों
पर चले जाते, इसीलिए
तुम निकल पड़ते
अज्ञात
यात्रा पर, इसीलिए आदमी
कोशिश करता
चांद तक
पहुंचने की, इसीलिए कोई
कोशिश करता
एवरेस्ट तक
पहुंचने की, और कोई चल
पड़ता समुद्री
यात्रा पर
किसी छोटी—सी
हाथ की बनी
नाव में। खतरे
के लिए एक
गहरी
अंतःप्रेरणा
होती है, वह
आंतरिक
प्रेरणा होती
है जीवन के
प्रति। मत
मारना उस आंतरिक
प्रेरणा को, अन्यथा तुम
यहां होओगे और
जीवित न होओगे।
यदि
तुम मुझे ठीक
से समझो, तो जब
मैं तुम्हें
संन्यासी
बनाता हूं,
जब मैं
संन्यास में
दीक्षित करता
हूं तुम्हें;
तो मैं
दीक्षित करता
हूं असुरक्षा
के, बिना
खोल के जीवन
में। संन्यास
है खोल से
बाहर होने की
एक छलांग, और
खोल है अहंकार।
अहंकार एक
सुरक्षा है, तुम्हारे
चारों ओर की
एक सूक्ष्म
दीवार की भाति
है। इसलिए
अहंकार इतना
ज्यादा कंपित
होता है। कोई
कहता है कुछ
या कि कोई
केवल हंस पड़ता
तुम पर और वह
यूं ही किसी
कारण से हंस
देता है और
तुम्हें चोट
लगती है। तुम
स्वयं का बचाव
शुरू कर देते
हो, तुम
लड़ने को तैयार
हो जाते हो।
जो कुछ भी
खतरनाक जान
पड़ता है उसके
साथ लड़ने की
तत्परता है
अहंकार।
अहंकार एक
निरंतर
संघर्ष है
जीवन के
विरुद्ध, क्योंकि
जीवन खतरनाक
होता है। जहां
कहीं जीवन
प्रयत्न करता
है तुम्हारे
पास पहुंचने
का, अहंकार
वहां एक
चट्टान की
भाति मौजूद
रहता है
तुम्हारा
बचाव करने को।
इस चट्टान को
पार कर जाओ, अहंकार के
इस कवच को तोड़
डालो, इसके
बाहर आ जाओ।
आकाश
खतरों से भरा
है। मैं नहीं
कहता कि वहां
कोई खतरा नहीं
है। मैं ऐसा
कह नहीं सकता, खतरा
तो है। खतरे
ही खतरे हैं।
लेकिन जीवन
पल्लवित होता
है खतरों में,
खतरा ही है
भोजन। खतरा
जीवन के
विरुद्ध नहीं;
खतरा तो
असली भोजन है,
असली रक्त
है, सही
आक्सीजन जीवन
के बने रहने
के लिए।
खतरे
में जीयो यही
है संन्यास का
अर्थ। अतीत
तुम्हारा
बचाव करता है, वह
ज्ञात होता, परिचित। तुम
अतीत के साथ
एक आराम अनुभव
करते हो।
भविष्य होता
है अपरिचित।
अज्ञात
भविष्य के साथ
तुम पराया, अजनबी अनुभव
करते हो।
भविष्य सदा ही
द्वार पर
दस्तक देता
हुआ अजनबी
होता है। तुम
सदा द्वार खोल
देना भविष्य
के लिए।
वस्तुत: तुम
चाहते हो कि
तुम्हारा
भविष्य बिलकुल
तुम्हारे
अतीत की भांति
ही हो, एक
दोहराव। यह है
भय। और ध्यान
रखना, तुम
सदा सोचते हो
कि तुम भयभीत
हो मृत्यु से,
लेकिन मैं
कहता हूं
तुमसे, तुम
भयभीत नहीं हो
मृत्यु से, तुम भयभीत
हो जीवन से।
मृत्यु
का भय मूल रूप
से जीवन का भय
है,
क्योंकि
केवल जीवन ही
मर सकता है।
यदि तुम भयभीत
हो मृत्यु से,
तो तुम
भयभीत होओगे
जीवन से। यदि
तुम्हें भय
होता है नीचे
गिरने का, तो
तुम्हें भय
होगा ऊपर चढ़ने
का। क्योंकि
केवल वही लहर
जो चढ़ती है, गिरती है।
यदि तुम्हें
अस्वीकृत
होने का भय
होता है तो तुम
भयभीत रहोगे
कि दूसरे के
पास कैसे जाएं।
यदि तुम्हें भय
होता है
अस्वीकृत
होने का, तो
तुम प्रेम
करने में
अक्षम हो
जाओगे।
मृत्यु से
भयभीत होकर, तुम जीवन के
प्रति अक्षम
हो जाते हो।
तब तुम बस
जिंदा रहने भर
को जिंदा रहते
हो; और
केवल दुख, अंधकार
और काली रात
तुम्हें घेरे
रहती है।
मात्र
जन्म लेना ही
पर्याप्त
नहीं होता, आवश्यक
नहीं होता।
तुम्हें दो
बार जन्म लेना
है। हिंदुओं
के पास इसके
लिए प्यारा
शब्द है वे इसे
कहते हैं
द्विज, दो
बार जन्म लेने
वाला। पहला
जन्म, तुम्हारे
माता—पिता
द्वारा दिया
गया जन्म, मात्र
एक संभावना है।
एक संभावित
घटना है, अभी
वास्तविक
नहीं है वह।
दूसरे जन्म की
आवश्यकता है।
यही है जिसे
जीसस कहते हैं
पुनर्जीवन, दूसरा जन्म,
जिसमें तुम
सारे ढांचे
तोड़ देते, सारे
कवच तोड़ देते,
सारे
अहंकार, सारे
अतीत को, परिचित
को, ज्ञात
को तोड़ देते
और तुम सरकते
अज्ञात में, अपरिचित में,
खतरों से
भरे हुए
अस्तित्व में।
हर क्षण
संभावना रहती
है मृत्यु की।
और मृत्यु की
संभावना के
साथ ही हर
क्षण तुम बन
जाते हो और
ज्यादा जीवंत।
वस्तुत:
जीवन कभी मरता
नहीं है, लेकिन
यह अनुभव होता
है उस व्यक्ति
को जो जानता
है कि जीवन
क्या है।
तुमने कभी भी
पर्याप्त
साहस एकत्र
नहीं किया है
खोल से बाहर
आने का। कैसे
जान सकते हो
तुम कि जीवन
क्या है? और
कैसे जान सकते
हो तुम कि
जीवन मृत्यु —विहीन
होता है? तुम
मर जाओगे, जीवन
कभी नहीं मरता।
तुम जीओगे दुख
में क्योंकि
तुम नकार देते
हो जीवन को—अहंकार
है जीवन का
नकार। अहंकार
को नकार दो और
जीवन घटेगा
तुममें।
इसलिए सारे
प्रज्ञावानों
का जोर रहा है ——जीसस,
बुद्ध, मोहम्मद,
महावीर, जरथुस्त्र,
लाओत्सु —वे
सभी जोर देते
हैं केवल एक
बात पर :
अहंकार को हटा
दो और जीवन
तुममें घटित
होगा बहुत बड़े
रूप में।
लेकिन तुम तो
चिपके रहते हो
अहंकार से।
अहंकार से
चिपकने का
अर्थ है
अंधेरे से, दुख से चिपक
जाना।
ये
सूत्र सुंदर
हैं,
इन्हें
समझने की
कोशिश करना।
विवेकपूर्ण
व्यक्ति
जानता है कि
हर चीज दुख की
ओर ले जाती है—
परिवर्तन के
कारण चिंता के
कारण पिछले
अनुभवों के
कारण और उन
द्वंद्वों के
कारण जो तीन
गुणों और मन
की पांच
वृत्तियों के
बीच आ बनते हैं?
जीवन
दुख है जैसा
कि तुम इसे
जानते हो; जीवन
आनंदमय है
जैसा कि मैं
इसे जानता हूं।
तब तो हम जरूर
अलग— अलग
चीजों की बात
कर रहे होंगे,
क्योंकि
जीवन
तुम्हारे लिए
दुख और मेरे
लिए सुख कैसे
हो सकता है? तो हम बात
नहीं कर रहे
हैं किसी एक
ही चीज की। जब
तुम बात करते
हो जीवन की, तो तुम उस
जीवन की बात
करते हो जो
बीज मात्र है—जीवन
जिसकी केवल
आशा ही है; स्वप्नों
और कल्पनाओं
का जीवन, वास्तविक,
प्रामाणिक
जीवन नहीं; तुम बात कर
रहे होते हो
उस जीवन की जो
केवल आकांक्षा
करता है लेकिन
जानता कुछ
नहीं, जो
केवल ललकता है
लेकिन पहुंचता
कभी नहीं; वह
जीवन जो
निरंतर घुटन
अनुभव कर रहा
होता है, लेकिन
सोचता है कि
घुटन सुविधा
है; वह
जीवन जो एक
यातना भरा नरक
है, लेकिन
सदा सोचता है
कि इसी नरक
में से कुछ
घटने वाला है—स्वर्ग
पैदा होने
वाला है इस
नरक में से।
कैसे
स्वर्ग
उत्पन्न हो
सकता है नरक
में से? कैसे
आनंद उपज सकता
है तुम्हारी
पीड़ाओं से? नहीं, तुम्हारे
पीड़ित जीवन से
और— और पीड़ाएं
ही पैदा होंगी।
एक बच्चा उतना
दुखी नहीं
होता, जितना
कि कोई वृद्ध
व्यक्ति होता
है। होना तो
ठीक उलटा
चाहिए, क्योंकि
वृद्ध ने तो
जीवन इतना
ज्यादा जी
लिया होता है।
वह पहुंच ही
रहा होता है
शिखर के निकट,
अनुभवों का
शिखर, खिले
हुए फूल।
लेकिन वह कहीं
से भी निकट
नहीं होता
इसके। एकदम
इसके विपरीत,
जीवन चढ़ती
हुई लहर नहीं
रहा होता, वह
नहीं पहुंचा
है किसी
स्वर्ग तक।
बल्कि वह उतर
गया है कहीं
अधिक गहरे और
गहरे नरक में।
वृद्ध से तो
ज्यादा
स्वर्गीय जान
पड़ता है कोई
बालक। वृद्ध
को तो बनना
चाहिए एक
पुराना वृक्ष,
एक विशाल
वृक्ष; लेकिन
वह नहीं बनता।
वह पहुंच चुका
होता है नरक
के ज्यादा
अंधेरे क्षेत्रों
में। यह ऐसे
होता है जैसे
कि जीवन एक
गिरती हुई घटना
हो न कि चढ़ती
हुई, जैसे
कि तुम गिर
रहे हो और— और
अंधेरे
क्षेत्रों
में, नहीं
उठ रहे सूर्य
की ओर।
क्या
घटता है वृद्ध
को?
एक बच्चा
दुखी होता है,
एक वृद्ध भी
दुखी होता है।
वे दोनों एक
ही मार्ग पर
होते हैं।
बच्चे ने तो
बस शुरू ही की
है यात्रा और
वृद्ध ने
संचित कर लिया
है सारी
यात्रा के
सारे दुखों को।
नरक
में से स्वर्ग
नहीं जन्मता।
यदि तुम आज
दुखी हो, तो
तुम कैसे
सोचते हो कि
कल सुखी और
आनंदपूर्ण हो
सकता है? कल
तुमसे ही आएगा।
और कहा से आ
सकता है वह
गुर कल किसी
आकाश में से नहीं
आता, तुम्हारा
कल आता है
तुमसे ही।
तुम्हारे सारे
बीते हुए कल
एक साथ मिल कर,
आज को मिला
कर, होने
वाला है
तुम्हारा आने
वाला कल। यह
तो सीधा—साफ
गणित है. आज
तुम दुखी और
पीड़ित हो; तो
कैसे, यह
कैसे संभव है
कि कल सुख और
आनंदपूर्णता
की होगी? —असंभव बात
है। जब तक तुम
मर नहीं जाते,
ऐसा असंभव
है। क्योंकि
तुम्हारी मृत्यु
के साथ सारे
बीते कल मर
जाते हैं। तब
यह बात
तुम्हारे
दुखों से न
आयी होगी; तब
यह एक ताजी
घटना होगी, कोई ऐसी बात
जो कि पहली
बार घटती है।
तब यह
तुम्हारे मन
से नहीं आएगी,
यह आएगी
तुम्हारी
अंतस—सत्ता से।
तुम बन जाते
हो द्विज, दो
बार जन्मते हो।
दुख
की घटना को
समझने की
कोशिश करना।
क्यों हो तुम
इतने दुखी? कौन
—सी चीज
निर्मित करती
है इतना
ज्यादा दुख? मैं ध्यान.
से देखता हूं
तुम्हें, मैं
झांकता हूं
तुम्हारे
भीतर, दुख
के ऊपर दुख है,
पर्त —दर—पर्त।
यह तो सचमुच
एक चमत्कार है
कि कैसे तुम
जीए जा रहे हो।
जरूर यही बात
रही होगी कि
आशा अनुभव से
ज्यादा मजबूत
है; स्वप्न
ज्यादा
शक्तिशाली है
वास्तविकता
से। अन्यथा, कैसे जीए जा
सकते थे तुम? तुम्हारे
पास जीने को
कुछ नहीं
सिवाय इस आशा
के कि कल किसी
न किसी —तरह
कोई चीज घटित
होगी जो हर
चीज बदल देगी।
आने वाला कल
एक चमत्कार है
—और यही बात
तुम सोच रहे
हो बहुत— बहुत
जन्मों से।
लाखों कल आए, जो आज बन गए, लेकिन आशा
बची रहती है।
फिर आशा जीए
जाती है। तुम
इसलिए नहीं
जीते कि
तुम्हारे पास
जीवन है, बल्कि
इसलिए कि
तुम्हारे पास
आशा है।
उमर
खय्याम कहीं
कहता है कि
उसने बड़े
विद्वानों, धर्मज्ञों,
पंडित—पुरोहितों,
दार्शनिकों
से पूछा, 'क्यों
आदमी जीए ही
चला जाता है?' कोई नहीं दे
सका जवाब। सब
ने कंधे उचका
दिए, टाल
गए बात। कहता है
उमर खथ्याम कि
मैं बहुतों के
पास गया जो अपने
ज्ञान के लिए
विख्यात थे, लेकिन मुझे
द्वार से वापस
ही लौट आना
पड़ा था। तब
निराश होकर, न जानते हुए
कि किससे
पूछना है, मैं
एक रात आकाश
को देख—देख
खूब रोया।
मैंने पूछा
आकाश से, मैंने
कहा आकाश से
कि 'तुम तो यहां
मौजूद रहे हो!
तुमने देखी
हैं वे सारी
पीड़ाएं जिनका
कि अस्तित्व
रहा है अतीत
में, लाखों
लाखों पीड़ित
रहे हैं यहां।
तुम जरूर
जानते होओगे
कि क्यों लोग
जीए ही चले
जाते हैं!' वाणी
उतरी आकाश से,
'आशा के
कारण।’
आशा
है तुम्हारा
एकमात्र जीवन।
आशा के धागे
सहित तुम सह
सकते हो सारे
दुखों को।
स्वर्ग के एक
सपने सहित ही
तुम भूल जाते
हो तुम्हारे
चारों ओर के
नरक को। तुम
जीते हो
स्वप्नों में, स्वप्न
जीवित रखते
हैं तुमको।
यथार्थ
असुंदर होता
है। क्यों
घटता है इतना
ज्यादा दुख और
तुम क्यों नहीं
जान सकते कि
क्यों घट रहा
होता है वह? तुम क्यों
नहीं ढूंढ
सकते उसका
कारण?
दुख
का कारण
ढूंढने के लिए, तुम्हें
उससे बचना
छोड़ना होता है।
कोई चीज तुम
कैसे जान सकते
हो यदि तुम
उससे बचते
रहते हो तो? कैसे जान
सकते हो तुम
कोई चीज यदि
तुम बच कर निकल
भागते हो? यदि
तुम जानना
चाहते हो कोई
चीज, तो
तुम्हें एकदम
सामने हो
साक्षात्कार
करना होता है
उससे। जब कभी
तुम दुखी होते
हो, तुम
आशा करने लगते
हो, आने
वाला कल तुरंत
ज्यादा
महत्वपूर्ण
बन जाता है आज
से। यह होता
है बच निकलना।
तुम भागे हो
बच कर और अब
आशा काम कर
रही है नशे की
भांति। तुम
दुखी हो, तो
तुम नशा करते
हो और तुम भूल
जाते हो। अब
तुम नशे में
मदमस्त होते
हो, आशा के
नशे में। आशा
जैसा कोई नशा
नहीं है। किसी
मारिजुआना, किसी एल एस
डी की कोई
तुलना ही नहीं
इसके साथ। आशा
एक परम एल एस
डी है। आशा के
कारण ही तुम
सह सकते हो हर
चीज, हर एक
चीज। हजारों
नरक भी कुछ
नहीं।
आशा
का यह रचना —तंत्र
कैसे काम करता
है?
जब कभी तुम
दुखी होते हो,
उदास, निराश
होते हो, तो
तुम तुरंत
बचना चाहते हो
इससे, तुम
इसे भुलाने की
कोशिश करते हो।
इसी तरह चलती
चली जाती है
यह बात। अगली
बार जब तुम
दुखी होओ —और
तुम्हें
ज्यादा
प्रतीक्षा
नहीं करनी पड़ेगी,
जैसे ही
मेरा प्रवचन
समाप्त होगा
तुम हो जाओगे
वैसे ही—तब
भागने की
कोशिश मत करना।
मेरा प्रवचन
भी शायद एक
बचाव की भांति
ही कार्य कर
रहा हो —तुम
सुनते हो मुझे,
तुम भूल
जाते हो स्वयं
को। तुम सुनते
हो मुझे, तुम्हें
ध्यान देना
पड़ता है मेरी
ओर, लेकिन
तुम्हारे
स्वयं की ओर
पीठ मोड़ लेते
हो तुम। तुम
भूल जाते हो, तुम भूल
जाते हो कि
तुम्हारी
वास्तविक
स्थिति क्या
है। मैं बात
करता हूं आनंद
की, आनंदविभोरता
की। वह बात
सत्य होती है
मेरे लिए, लेकिन
तुम्हारे लिए
वह बन जाती है
एक स्वप्न।
फिर एक आशा बन
जाती है कि
यदि तुम ध्यान
करो, यदि
तुम इस पर काम
करो, तो
ऐसा तुम्हें
भी घटेगा। मत
उपयोग करना
इसका नशे की
भांति। तुम गुरु
का उपयोग कर
सकते हो नशे
की भांति, और
तुम पर असर हो
सकता है।
मेरा
सारा प्रयास
है तुम्हें
ज्यादा
जागरूक बना
देने का, ताकि
जब कभी तुम
दुख में पड़ो
तो भागने की
कोशिश मत करो।
आशा शत्रु है।
आशा मत करो, और यथार्थ
से विपरीत
स्वप्न मत
देखो। यदि तुम
उदास हो, तो
उदासी ही होती
है
वास्तविकता।
उसी के साथ
रहो; उसी
के साथ रह कर, आगे न बढ़, उसी
पर एकाग्र हो
जाओ। सामना
करो उसका, होने
दो उसे। उसके
विपरीत मत
जाना। शुरू
में यह एक
बहुत कडुआ
अनुभव होगा, क्योंकि जब
तुम सामना
करते हो उदासी
का, तो वह
तुम्हें घेर
लेती है हर तरफ
से। तुम बन
जाते हो छोटे —से
द्वीप की
भांति और
उदासी होती है
चारों ओर का
समुद्र—और
इतनी बड़ी
लहरें होती
हैं उदासी की!
भय लगने लगता
है, एक
कंपन महसूस
होता है एकदम
अंतस तक ही।
कांपो, भयभीत
होओ। एक बात
मत करना—
भागना मत। ऐसा
होने दो।
इसमें गहरे
रूप से उतरो।
देखो, ध्यान
दो, मूल्याकन
मत करो। तुम
वैसा करते रहे
लाखों जन्मों
से। केवल देखो,
उतरो उसमें।
जल्दी ही, कडुआ
अनुभव उतना
कडुआ न रहेगा।
जल्दी ही, कडुवे
साक्षात्कार
से उदित हो
जाता है सत्य।
जल्दी ही तुम
गतिमान हो रहे
होओगे, ज्यादा
गहरे और गहरे में
उतरते हुए—और
तुम ढूंढ लोगे
कारण, कि
दुख का कारण
क्या है, क्यों
तुम इतने दुखी
हो।
कारण
कहीं बाहर
नहीं, वह
तुम्हारे
भीतर होता है,
तुम्हारे
दुख में छिपा
होता है। दुख
होता है
बिलकुल धुएं
की भांति।
कहीं
तुम्हारे
भीतर मौजूद
होती है आग।
धुएं में गहरे
उतरना ताकि
तुम ढूंढ सको
आग को। कोई
नहीं ला सकता
अकेले धुएं को
बाहर क्योंकि
वह तो साथ
जन्मता है।
लेकिन यदि तुम
बाहर ले आते
हो आग तो धुंआ
अपने से ही
अदृश्य होता
है। कारण ढूंढ
लेना, परिणाम
तिरोहित हो
जाता है, क्योंकि
तब कुछ किया
जा सकता है।
ध्यान
रहे,
केवल कारण
के साथ ही कुछ
किया जा सकता
है, परिणाम
के साथ नहीं।
यदि तुम
परिणाम के साथ
लड़ते चले जाते
हो, तो वह
सारा संघर्ष
व्यर्थ होता
है। यही है
अर्थ पतंजलि
की प्रति—प्रसव
विधि का कारण
तक लौट जाओ, परिणाम में
उतरो और कारण
तक पहुंच जाओ।
कारण वहीं
कहीं होगा
जरूर। परिणाम
होता है ठीक
तुम्हें
घेरने वाले
धुएं की भांति
ही, लेकिन
एक बार धुआ
घेर लेता है
तुम्हें, तो
तुम भाग कर
चले जाते हो
आशा में। तुम
स्वप्न देखते
हो उन दिनों
का जब कोई धुआ
न रहेगा। यह
बिलकुल मूढ़ता
है। न ही केवल
मूढ़ता है, बल्कि
आत्मघाती बात
है, क्योंकि
इसी तरह तो
तुम चूक रहे
हो कारण को।
पतंजलि
कहते हैं, 'विवेकपूर्ण
व्यक्ति.....।’ संस्कृत
में शब्द है
विवेक—इसका
अर्थ होता है
जागरूकता, इसका
अर्थ होता है
होशपूर्णता, इसका अर्थ
होता है
विवेकपूर्ण
शक्ति।
क्योंकि
जागरूकता के
द्वारा तुम
भेद कर सकते हो
कि कौन चीज
क्या है क्या
सत्य है, क्या
असत्य; क्या
परिणाम है, क्या कारण।
प्रज्ञावान
व्यक्ति, विवेकशील
व्यक्ति, जागरूक
व्यक्ति जान
लेता है कि हर
चीज ले जाती
है दुख की ओर।
जैसे
कि तुम हो, हर
चीज ले जाती
है दुख की ओर।
और यदि तुम
बने रहते हो
जैसे तुम हो, तो हर चीज ले
जाती ही रहेगी
दुख की ओर। यह
कोई
स्थितियों को
ही बदलने की
बात नहीं है, यह तुम्हारे
भीतर बहुत
गहराई तक उतरी
चीज की बात है।
तुम्हारे
भीतर की कोई
बात आनंद की
संभावना को ही
कुंठित कर
देती है।
तुम्हारे
भीतर की कोई
चीज तुम्हारी
आनंदमय अवस्था
तक खिलने के
विरुद्ध होती
है। जागा हुआ
आदमी जान लेता
है कि हर चीज
दुख की ओर ले
जाती है, हर
चीज।
तुमने
कर ली होती है
हर बात, लेकिन
क्या तुमने
कभी ध्यान
दिया है कि हर
बात दुख की ओर
ले जाती है? यदि तुम
घृणा करते हो,
तो वह बात
ले जाती दुख
तक; यदि
तुम प्रेम
करते हो, तो
वह बात ले
जाती दुख तक।
जीवन में कोई
तर्कयुक्त
ढंग दिखायी
नहीं पड़ता है।
व्यक्ति घृणा
करता है, तो
यह बात ले
जाती है दुख
की ओर। सीधा
तर्क तो कहेगा
कि यदि घृणा
ले जाती है दुख
तक, तब
प्रेम को तो
जरूर ले जाना
चाहिए सुख तक।
फिर तुम प्रेम
करते हो, और
प्रेम भी ले
जाता है दुख
की ओर ही।
क्या है यह सब?
क्या जीवन
बिलकुल ही
अतर्क्य और
बेतुका है? क्या कहीं
कुछ
तर्कयुक्त
नहीं है? क्या
यह एक अराजकता
है? तुम कर
लेते हो जो
कुछ भी करना
चाहते हो, और
अंत में चला
आता है दुख ही।
ऐसा मालूम
पड़ता है कि
दुख एक
राजमार्ग है
और हर मार्ग
उस तक ही आ
पहुंचता है। जहां
कहीं से भी
तुम प्रारंभ
करना चाहो, तुम कर सकते
प्रारंभ दाएं,
बाएं, या
मध्य से, हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
जैन, पुरुष
—स्त्री, ज्ञान
— अज्ञान, प्रेम
—घृणा—हर चीज
पहुंचा देती
दुख तक। यदि
क्रोध में
होते हो, तो
वह तुम्हें ले
जाता है दुख
की ओर। यदि
तुम क्रोधित
नहीं होते, वह बात भी ले
जाती है दुख
की ओर। ऐसा
जान पड़ता है
कि दुख मौजूद
होता है और जो
कुछ तुम करते
हो वह
अप्रासंगिक
होता है।
अंततः तुम आ
पहुंचते हो
उसी तक।
मैंने
सुनी है एक
कथा,
और मुझे सदा
ही प्यारी रही
है यह।
एक
मनोविश्लेषक
एक पागलखाना
देखने गया था।
उसने एक पागल
के बारे: में
पूछा
सुपरिन्टेंडेंट
से जो कि चीख
रहा था और रो
रहा था और पटक
रहा था अपना
सिर दीवार पर।
उसके हाथ में
किसी सुंदर
स्त्री की
तस्वीर थी।
पूछा उस
मनोविश्लेषक
ने,
'क्या हुआ
है इस आदमी को?'
सुपरिन्टेंडेंट
ने कहा, 'यह आदमी
इस स्त्री को
बहुत प्रेम कर
रहा था। यह
पागल हुआ
क्योंकि वह
स्त्री इससे
विवाह करने को
राजी नहीं हुई।
इसलिए ही यह
पागल हो गया
है।’ तर्कयुक्त,
सीधी—साफ
बात। लेकिन उससे
अगले कमरे में
एक और पागल था
और वह भी चीख
रहा था और रो
रहा था और पीट
रहा था अपना
सिर। उसके हाथ
में उसी
स्त्री की
तस्वीर थी, और वह थूक
रहा था तस्वीर
पर और बोले जा
रहा था अश्लील
शब्द। पूछा
मनोविश्लेषक
ने, 'क्या
हुआ इस आदमी
को? इसके
पास वही
तस्वीर है।
बात क्या है?' सुपरिन्टेंडेंट
बोला, 'यह
आदमी भी इस
स्त्री के
प्रेम में
पागल था, और
वह मान गई और
विवाह कर लिया
इससे। इसलिए
यह हुआ है
पागल।’
स्त्री
अस्वीकार
करती है कि
स्वीकार, इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है; तुम
विवाह करो या
कि तुम विवाह
न करो, इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता। मैंने
गरीब लोगों को
दुखी होते
देखा है, मैंने
अमीर लोगों को
दुखी होते
देखा है।
मैंने असफल
लोगों को दुखी
पाया है, जो
सफल हुए मैंने
उन्हें दुखी
पाया है। जो
कुछ भी तुम
करते हो, अंततः
तुम आ पहुंचते
हो लक्ष्य तक!
और वह है दुख।
क्या हर
रास्ता नरक तक
ले जाता है? बात क्या
होती है? तब
तो कहीं कोई
विकल्प नहीं
जान पड़ता।
हां, हर
चीज ले जाती
है दुख में —यदि
तुम वैसे ही
बने रहो तो।
मैं तुमसे
कहूंगा दूसरी
बात यदि तुम
बदल जाते हो
तो हर चीज ले
जाती है
स्वर्ग में।
यदि तुम वैसे
के वैसे ही
बने रहते हो, तो तुम्हीं
रहते हो आधार,
न कि जो तुम
करते हो। जो
तुम करते हो
वह तो
अप्रासंगिक
होता है।
गहराई में
तुम्हीं होते
हो। चाहे तुम
घृणा करो—तुम्हीं
करोगे घृणा, या कि तुम
प्रेम करो —तुम्हीं
करोगे प्रेम—वह
तुम्हीं होते
जो अंततः दुख
या सुख की, पीड़ा
या आनंद की
घटना निर्मित
करते हो —जब तक
कि तुम्हीं
नहीं बदल जाते…..। मात्र
घृणा से प्रेम
तक जाना, इस
स्त्री से उस
स्त्री तक, इस घर से उस
घर तक जाना—यह
बात मदद न
देगी। तुम समय
और ऊर्जा
बरबाद कर रहे
होते हो।
तुम्हें
बदलना होता है
स्वयं को।
क्यों हर चीज
ले जाती है
दुख में?
पतंजलि
कहते हैं : 'विवेकपूर्ण
व्यक्ति
जानता है कि
हर चीज दुख की
ओर ले जाती है —परिवर्तन
के कारण, चिंता
के कारण, पिछले
अनुभवों के
कारण..।’
ये
वचन समझ लेने
जैसे हैं।
जीवन में हर
चीज
परिवर्तित हो
रही है। जीवन
के ऐसे गतिमय
प्रवाह में
तुम किसी चीज
की अपेक्षा
नहीं कर सकते।
यदि तुम
अपेक्षा करते
हो तो तुम
दुखी होओगे, क्योंकि
अपेक्षाएं
संभव होती हैं
एक निश्चित और
चिरस्थाई
संसार में।
बदलते हुए, गतिमय
प्रवाह जैसे
संसार में, किन्हीं
अपेक्षाओं की
संभावना नहीं
होती है।
तुम
प्रेम करते हो
किसी स्त्री
से;
वह बहुत
ज्यादा
प्रसन्न जान
पड़ती है, लेकिन
अगली सुबह वह
नहीं रहती
वैसी। तुमने
उसे प्रेम
किया था उसकी
प्रसन्नता के
कारण, तुमने
उसे प्रेम
किया क्योंकि
उसकी गुणवत्ता
थी
प्रसन्नचित्त
रहने की।
लेकिन अगली
सुबह वह
प्रसन्नता
मिट चुकी होती
है! वह
गुणवत्ता
मौजूद न रही
और वह स्वयं
अपने से एकदम
विपरीत हो
चुकी है। वह
दुखी होती, क्रोधित, उदास, झगड़ालु,
काट खाने को
आतुर होती है —करोगे
क्या? तुम
कोई आशा नहीं
रख सकते। हर
चीज बदलती है,
हर चीज
बदलती है हर
पल। तुम्हारी
सारी
अपेक्षाएं
तुम्हें ले
जाएंगी दुख
में। तुम
विवाह करते हो
एक सुंदर
स्त्री से, लेकिन वह
बीमार पड़ सकती
है और उसका
सौंदर्य मिट
सकता है। चेचक
का प्रकोप हो
सकता है और
चेहरा बिगड़
सकता है। तो
क्या करोगे
तुम?
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी ने एक
बार कहा उससे, 'लगता
है कि अब तुम मुझे
प्रेम नहीं
करते। क्या
तुम्हें याद
है, या
क्या तुम भूल
चुके हो कि
मौलवी के
सामने तुमने
वायदा किया था
कि तुम हमेशा
मुझे प्यार करोगे,
तुम हमेशा
मेरा साथ दोगे
सुख में और
दुख में?' मुल्ला
नसरुद्दीन
कहने लगा, 'ही,
मैंने
वायदा किया था।
मैंने बिलकुल
किया था वायदा
और वह खूब याद
है मुझे : चाहे
वह सुख की घड़ी
हो या दुख की
घड़ी हो, मैं
साथ रहूंगा
तुम्हारे।
लेकिन मैंने
कभी नहीं कहा
था मौलवी से
कि मैं तुम्हें
प्रेम करूंगा
वृद्धावस्था
में। यह बात
कभी नहीं थी
उस वायदे का
हिस्सा।’
लेकिन
वृद्धावस्था
आ जाती है; चीजें
बदलती हैं। एक
सुंदर चेहरा
असुंदर हो
जाता है। एक
सुखी आदमी
दुखी हो जाता
है। एक बहुत
कोमल व्यक्ति
बहुत कठोर हो
जाता है।
गुनगुनाहट
तिरोहित हो
जाती है और
झगड़ालु
वृत्ति प्रकट
होती है। जीवन
प्रवाह है और
हर चीज बदलती
है। कैसे तुम
अपेक्षा कर
सकते हो? तुम
अपेक्षा करते
हो, तो दुख
आ बनता है।
पतंजलि
कहते हैं, 'परिवर्तन
के कारण?. दुख
घटित होता है।’
यदि जीवन
पूरी तरह जड़
होता और कहीं
कोई परिवर्तन
नहीं होता, तुम प्रेम
करते किसी
लड़की से और वह
लड़की हमेशा ही
रहे सोलह साल की,
हमेशा
गुनगुनाती
रहे, हमेशा
खुश रहे और
आनंदित रहे और
तुम भी वैसे ही
रहो, जड़
अस्तित्व—निस्संदेह
तब तुम
व्यक्ति न
रहोगे, जीवन
जीवन नहीं
होगा। वह जड़
पत्थर होगा, पर कम से कम
आशाएं —
अपेक्षाएं
पूरी हो
जाएंगी। लेकिन
एक कठिनाई
होती है : इससे
एक ऊब आ बनेगी,
और वह
निर्मित कर
देगी दुख को।
परिवर्तन
नहीं होगा, लेकिन तब ऊब
आ बनेगी।
यदि
चीजें नहीं
बदलती हैं, तो
तुम ऊब जाते
हो। यदि पत्नी
मुस्कुराती
रहे और
मुस्कुराती
रहे रोज—रोज
तो कुछ दिनों
बाद ही तुम
थोड़े चिंतित
हो जाओगे—क्या
हुआ है इस
स्त्री को? क्या इसकी
मुस्कान असली
है या कि यह
केवल अभिनय ही
कर रही है?
अभिनय
में तुम
मुस्कुराते
रह सकते हो।
तुम मुख पर
ऐसा नियंत्रण
रख सकते हो।
मैंने देखा है
लोगों को जो
नींद में भी
मुस्कुरा रहे
होते हैं; राजनीतिज्ञ
और इसी तरह के
कई लोग जिन्हें
निरंतर ही मुस्कुराना
पड़ता है। तब
उनके होंठ एक
स्थायी आकार
धारण कर लेते
हैं। यदि तुम
कहो उनसे कि
मुस्कुराए
नहीं, तो
वे कुछ नहीं
कर सकते।
उन्हें
मुस्कुराना
ही पड़ेगा, वह
बात एक ढंग बन
चुकी होती है।
लेकिन तब ऊब आ
बनती है, और
वह ऊब तुम्हें
ले जाएगी दुख
की ओर।
स्वर्ग
में हर चीज
स्थायी होती, कोई
चीज नहीं
बदलती; हर
चीज वैसी बनी
रहती है जैसी
कि होती है —हर
चीज सुंदर।
बर्ट्रेड रसल
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है, 'मैं
नहीं जाना
चाहूंगा किसी
जन्नत में कि
किसी स्वर्ग
में, क्योंकि
वह बात बहुत
ज्यादा उबाऊ
होगी।’ ही,
वह बात बहुत
उबाऊ होगी।
जरा सोचो तो
उस जगह की जहां
कि सारे पंडित—पुरोहित,
पैगंबर, तीर्थंकर
और बुद्ध—पुरुष
एकत्रित हो गए
हों, और
कुछ न बदलता
हो, हर चीज
निश्चल बनी
रहती हो—कोई
गति न हो। यह
तो रंगों से
सजायी तस्वीर
मालूम पड़ेगी,
जो कि
वास्तव में
जिंदा न हो।
कितनी देर तक
तुम जी सकते
हो उसमें? रसल
ठीक कहता है, 'यदि यही
स्वर्ग है, तब तो नरक
बेहतर है। कम
से कम कुछ
परिवर्तन तो
होगा वहां।’
नरक
में हर चीज
बदल रही होती
है,
लेकिन तब
किन्हीं
अपेक्षाओं की
पूर्ति नहीं की
जा सकती है।
यही है अड़चन
मन के साथ।
यदि जीवन
निरंतर गतिमय
होता है, तो
अपेक्षाओं की
पूर्ति नहीं
हो सकती। यदि
जीवन होता है
एक निर्धारित
घटना, तो
अपेक्षाएं
पूरी हो सकती
थीं, इतनी
ज्यादा कि तुम
ऊब महसूस करने
लगते। तब कहीं
कोई रस नहीं
रहता। हर चीज
धुंधली पड़ गयी
होती, कुनकुनी—कोई
संवेदना नहीं,
कोई उन्मेष
नहीं, कोई
नई चीज नहीं
घटती। इस जीवन
में जिसमें कि
तुम जी रहे हो,
परिवर्तन
बना देता है
दुख, चिंता।
सदा चिंता
मौजूद होती है,
तुम्हारे
भीतर, मैं
कहता हूं सदा
ही। यदि तुम
गरीब हो, तो
चिंता होती है
धन कैसे पा
लें? यदि
तुम धनवान बन
जाते, तो
चिंता होती है
कि कैसे उसे
बनाए ही रहें
जिसे कि
प्राप्त किया
है? सदा भय
रहता है चोरों
का, डाकुओं
का और सरकार
का—जो कि एक
संगठित डकैती
होती है! करों
का भय है और
कम्मुनिस्ट
सदा आने — आने
को ही हैं।
यदि तुम गरीब
होते हो तो
तुम्हें
चिंता होती है
कैसे पा लें
धन? यदि
तुम पा लेते
हो तो तुम्हें
चिंता होती है
कैसे उसे पास
बनाए रखें
जिसे कि तुमने
पाया है? लेकिन
चिंता तो बनी
ही रहती है।
अभी
उस दिन एक
जोडा आया मेरे
पास और पुरुष
कहने लगा, 'यदि
मैं स्त्री के
साथ होता हूं
तो बेचैनी होती
है, क्योंकि
यह बात तो
निरंतर संघर्ष
की होती है।
यदि मैं
स्त्री के साथ
न रहूं, तो
यह एक निरंतर
बेचैनी बनी
रहती है; मैं
अकेला हो जाता
हूं।’ स्त्री
पास न हो तो
अकेलापन बन
जाता है एक
फिक्र।
स्त्री पास
में हो तो
दूसरे के साथ
चली ही आती हैं
उसकी अपनी
समस्याएं। और
समस्याएं
दुगुनी नहीं
होतीं जब दो
व्यक्ति
मिलते हैं, वे तो कई
गुना बढ़ जाती
हैं। पुरुष
अकेला नहीं रह
सकता क्योंकि
वह अकेलापन
बना देता है
चिंता। पुरुष
स्त्री के साथ
नहीं रह सकता
क्योंकि तब
स्त्री बना
देती है चिंता।
यही बात सत्य
है स्त्री के
लिए भी। चिंता
तुम्हारे
जीवन का एक
ढंग ही बन जाती
है; जो कुछ
भी घटता है, चिंता तो
बनी रहती है।
पिछले
अनुभव, संस्कार
दुख निर्मित
करते हैं।
क्योंकि जब
कभी तुम जीते
पिछले अनुभव
द्वारा, यह
बात तुममें एक
लकीर खींच
देती है। यदि
कोई अनुभव
बहुत —बहुत
बार दोहराया
जाता है, तो
लकीर ज्यादा
और ज्यादा
गहरी हो जाती
है। तब यदि
जीवन विभिन्न
अनुभवों, तरीकों
से गतिमान हो
और ऊर्जा
तुम्हारे
पिछले
अनुभवों की उस
लीक में न बह
रही हो तो तुम
अधूरापन
अनुभव करते हो।
लेकिन यदि
जीवन उसी तरह
बना रहता है, और ऊर्जा
उसी लीक में
से बहती रहती
है, तब तुम
ऊब अनुभव करते
हो, तब
तुम्हें
चाहिए होती है
उत्तेजना।
यदि उत्तेजना
न हो, तो
तुम अनुभव
करते हो कि
प्रयोजन ही
क्या है जीए
चले जाने का?
तुम
रोज —रोज वही
भोजन नहीं खा
सकते। मैं खा
सकता हूं वही
भोजन, मेरी
बात छोड़ दो।
तुम नहीं खा
सकते एक ही
प्रकार का
भोजन हर रोज।
यदि तुम एक ही
प्रकार की
चीजें खाते हो
तो तुम हताश अनुभव
करते हो, क्योंकि
हर रोज एक ही
तरह के भोजन
से स्वाद, नवीनता
खो जाती है।
यदि तुम हर
रोज बदलते हो
खाने की चीजें,
यह बात भी
चिंता और
मुसीबत खड़ी कर
देगी, क्योंकि
शरीर भोजन के
साथ अनुकूलित
हो जाता है।
और यदि हर रोज
बदलते हो उसे,
तो शरीर का
रसायन बदल
जाता है और
शरीर असुविधा
अनुभव करता है।
शरीर सुविधा
अनुभव करता है
यदि तुम एक ही
तरह का भोजन
खाते रहो, लेकिन
तब मन नहीं
अनुभव करता
सुविधापूर्ण।
यदि
तुम जीते हो
तुम्हारी
पिछली आदतों
के द्वारा तो
शरीर सदा
अनुभव करेगा
सुविधापूर्ण, क्योंकि
शरीर एक यंत्र
है, वह नए
के लिए उत्सुक
नहीं। वह तो
बस वही बातें
चाहता है।
शरीर को चाहिए
एक ही
दिनचर्या। मन
सदा चाहता है
परिवर्तन, क्योंकि
मन स्वयं ही
एक गतिमय घटना
है। पल भर के
लिए भी मन वही
नहीं रहता, वह बदलता ही
जाता है।
मैंने
सुना है लार्ड
बायरन के बारे
में कि उसका
साथ कई सौ
स्त्रियों से
रहा। कम से कम
साठ
स्त्रियों की
जानकारी तो
पक्की है, प्रमाण
मौजूद हैं कि
उसने प्रेम
किया साठ स्त्रियों
से। वह बहुत
समय तक नहीं
जीया, तो
वह जरूर हर
तीसरे दिन
बदलता रहा
होगा स्त्रियां।
लेकिन एक
स्त्री की पकड़
में वह आ ही
गया और उस
स्त्री ने उसे
मजबूर कर दिया
था अपने से
विवाह करने को।
वह समर्पित
नहीं हुई जब
तक कि उसने
विवाह न कर लिया
उससे। उसने
अपने शरीर को
छूने नहीं
दिया जब तक कि
उसने विवाह
नहीं कर लिया
उससे। वह
जानती थी कि
उसका प्रेम —संबंध
रहा है बहुत —सी
स्त्रियों से।
और एक बार वह
प्रेम कर लेता
है किसी
स्त्री से, तो बस
बिलकुल भूल ही
जाता उस
स्त्री को —खत्म
हो जाती बात।
वह मन था एक
कल्पनाशील
भावुक कवि का,
और कवि भी
विश्वसनीय
नहीं होते। वे
हो नहीं सकते
वे जीते हैं
मन के साथ।
उनका मन
प्रवाह भरा
होता है, उनकी
कविता की
भांति। वह एक
तरंगायित
घटना है। उस
स्त्री ने जोर
दिया, वह
जिद्दी थी, तो बायरन को
झुकना ही पड़ा,
उसे विवाह
करना पडा उससे।
वह बहुत
आकर्षक हो गयी
उसके लिए
क्योंकि उसने
समर्पण नहीं
किया। यह बात
तो उसके
अहंकार का
प्रश्न बन गयी।
जैसे
ही वे बाहर आ
रहे थे चर्च
से,
तो चर्च के
घंटे अभी भी
बज रहे थे, और
मेहमान विदा
ले रहे थे। वे
चर्च की
सीढ़ियों पर ही
थे और बायरन
ने थामा हुआ
था उस स्त्री
का हाथ, नवविवाहिता
स्त्री का।
अभी तो उससे
संभोग भी न
किया था उसने
और अचानक उसे
दिख गई सड़क पर
जाती दूसरी
स्त्री। जिस
स्त्री का हाथ
थामे हुए था
उस स्त्री को
तो बिलकुल भूल
ही गया वह, और
उसने कहा
स्त्री से, 'यह बात
अदभुत है, लेकिन
पल भर को जब
मैंने उस
स्त्री को
जाते हुए देखा,
मैं तो
बिलकुल ही भूल
गया तुम्हें,
मेरा विवाह
और हर चीज।
तुम्हारा हाथ
नहीं रहा मेरे
हाथ में; मुझे
कुछ पता नहीं
था।’ स्त्री
ने भी देखा था
यह सब; तुम
नहीं धोखा दे
सकते स्त्री
को। इससे पहले
कि तुम देखो
भी किसी दूसरी
स्त्री की ओर,
वे जान लेती
हैं।
तुम्हारे मन
मै एक विचार
की फड़फड़ाहट ही
उठती और वे
पता लगा लेती
हैं उसका। वे
बड़ी पहचान
करने वाली
होती हैं, झूठ
को खोज लेने 'वाली। उस
स्त्री ने भी
बात जान ली थी,
और वह बोली,
'मुझे पता
था।’
यह
होता है मन।
उसका रस अब
समाप्त हो गया
उस स्त्री में।
विवाह हुआ और
बात खत्म हो
गयी,
प्राप्ति
और समाप्ति।
अब कोई आवेश न
रहा। अब उस पर
अधिकार हो गया,
वह संपत्ति
हुई। अब कोई
चुनौती न रही।
चुनौती
बना देती है
उत्सुकता, क्योंकि
तुम्हें
संघर्ष करना
पड़ता है तुम्हारे
प्रयोजन के
लिए। फिर जब
तुम पा लेते
हो, अधिकार
जमा लेते हो, तो वह बात
बना देती है
एक दूसरी ही
चिंता. यह चिंता
कि तुम्हारे
लिए समाप्ति
हुई। सारी बात
ही अब वह न रही।
वह पहले से ही
ऊब देने वाली
है, पहले
से ही मरी हुई
है। बेचैनी
सदा बनी रहती
है क्योंकि
जिस ढंग से तुम
जीते हो, वह
बना ही देता
है बेचैनी।
तुम संतुष्ट
नहीं हो सकते।
पिछले
अनुभवों
द्वारा, संस्कारों
द्वारा
तुम्हारा ताल—मेल
बैठ जाता है
किसी भी विशेष
घटना के साथ
और तब मन कहता
कि उत्तेजना
चाहिए, परिवर्तन
चाहिए। तब
सारा शरीर अशांत
हो जाता। तो
यह बात भी
बेचैनी बनाती
है।
'……..और वे
द्वंद्व जो
तीन गुणों और
मन की पांच
वृत्तियों के
बीच आ बनते
हैं।
तो
एक निरंतर
संघर्ष मौजूद
रहता है मन की
वृत्तियों और
तीन गुणों के
बीच जिनके लिए
हिंदू कहते कि
वे तुम्हारे अस्तित्व
को बनाते हैं।
वे कहते हैं
कि सत्व, रजस
और तमस ये तीन
घटक हैं मानव
के
व्यक्तित्व
के। सत्व
शुद्धतम है, शुभता का
वास्तविक मूल,
शुद्धता का,
संपूर्ण
सत्व का, तुममें
रहने वाला
पवित्रतम
तत्व। फिर है
रजस—ऊर्जा, बल, शक्ति,
सत्ता का
तत्व, और
तमस है आलस्य,
अकर्मण्यता
और कर्महीनता
का तत्व। ये
तीनों संघटित
करते हैं
तुम्हारी
सत्ता को। और
ऐसा मालूम
पड़ता है कि
हिंदुओं की यह
बात बड़ी
अंतर्दृष्टि
की है, क्योंकि
यही तीन चीजें
हैं जिन्हें
भौतिक वैज्ञानिक
कहते हैं
पदार्थ की आणविक
ऊर्जा के घटक।
चाहे वे इसे
कहते हों
इलेक्ट्रान, प्रोट्रान
और न्यूट्रान,
लेकिन ये तो
केवल नाम के
भेद हैं।
हिंदू इसे
कहते हैं —सत्व,
रजस और तमस।
वैज्ञानिक
राजी हैं कि
पदार्थ के बने
रहने के लिए
या किसी भी
चीज के बने
रहने के लिए
तीन प्रकार के
गुण चाहिए।
हिंदू कहते
हैं कि ये तीन
गुण चाहिए
व्यक्तित्व
के बने रहने
के लिए; न
केवल
व्यक्तित्व
के लिए, बल्कि
संपूर्ण
अस्तित्व के
बने रहने के
लिए।
पतंजलि
कहते हैं कि
ये तीनों एक
दूसरे के विपरीत
होते हैं और
ये उपद्रव की
जड़ हैं। और
तीनों ही
मौजूद होते
हैं तुममें।
आलस्य का अस्तित्व
होता है, वरना
तो तुम सो ही न
पाओ। जो लोग
अनिद्रा से
पीड़ित हैं वे
पीड़ित हैं क्योंकि
तमस गुण उनमें
पर्याप्त
मात्रा में नहीं
होता। इसलिए
तो
ट्रैक्यिलाइजर
मदद करते हैं,
क्योंकि
ट्रैंक्यिलाइजर
तमस निर्मित
करने वाला
रसायन होता है।
वह निर्मित कर
देता है तुममें
तमस, आलस्य।
यदि लोग बहुत
ज्यादा राजसी
होते हैं, ओज
और ऊर्जा से
बहुत भरे होते
हैं, तो वे
नहीं सो सकते।
इसलिए पश्चिम
में अनिद्रा
अब एक समस्या
बन चुकी है।
पश्चिम में
रजस ऊर्जा
बहुत ज्यादा
है। इसीलिए
पश्चिम ने
राज्य किया
सारे संसार पर।
इंग्लैंड
जैसा छोटा देश
राज्य करता
रहा आधे संसार
पर। वे जरूर
बहुत राजसी
रहे। साठ करोड़
लोगों का भारत
जैसा देश अब
दरिद्र बना
हुआ है; इतने
सारे लोग हैं
जो कुछ नहीं
कर रहे हैं।
वे और— और
ज्यादा बोझ बन
जाते हैं। वे
कोई मूल्यवान
नहीं, वे
देश के लिए
बोझ हैं। बहुत
ज्यादा है तमस,
आलस्य, अकर्मण्यता।
और फिर है
सत्व जो कि
विपरीत है
दोनों के। ये
तीन तत्व
तुम्हें
संघटित करते
हैं। और वे
सभी तीन
विभिन्न
आयामों में
सरक रहे हैं।
उनकी जरूरत है,
उन सभी की
जरूरत है उनकी
विपरीतता में
ही क्योंकि
उनके तनाव
द्वारा तुम
जीते हो। यदि
उनका तनाव खो
जाए, यदि
वे हो जाएं
सुसंगत, तो
मृत्यु आ जाए।
हिंदू कहते
हैं, जब ये
तीन तत्व तनाव
में होते हैं,
तो
अस्तित्व का
अस्तित्व
रहता है, सृजन
होता है; जब
ये तीन तत्व
एक स्वर में
होते हैं, अस्तित्व
विघटित हो
जाता है, प्रलय
आ जाती, सृष्टि
का नाश हो
जाता है।
तुम्हारी
मृत्यु और कुछ
नहीं सिवाय इन
तीनों तत्वों
के तुम्हारे
शरीर में
समस्वरता में
आने के—तब तुम
मर जाते हो।
यदि वह तनाव
ही न रहे, तो
कैसे जी सकते
हो तुम?
यही
है अड़चन : बिना
इन तीन तनावों
के तुम जी नहीं
सकते —तुम मर
जाओगे! और तुम
जी नहीं सकते
उनके साथ
क्योंकि वे
विपरीत हैं और
वे तुम्हें
खींचते हैं
विभिन्न
दिशाओं में।
तुमने बहुत
बार अनुभव
किया होगा तुम
अलग— अलग
दिशाओं में
खींचे जा रहे
हो। तुम्हारा
एक हिस्सा
कहता है 'महत्वाकांक्षी
बनो'; दूसरा
हिस्सा कहता
है, 'महत्वाकांक्षा
चिंता बना
देगी। इसके
विपरीत, ध्यान
करो .
प्रार्थना
करो, संन्यासी
हो जाओ।’ एक
हिस्सा कहता
है कि पाप
सुंदर होता है,
पाप का
आकर्षण है
उसमें एक
चुंबकीय
शक्ति होती है
: 'मौज मनाओ,
क्योंकि
देर— अबेर
मृत्यु तो सब
ले लेगी।
मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाती है, और कुछ बचता
नहीं। मौज कर
लो इससे पहले
कि मृत्यु सब
छीन ले। फ्लो
मत।’ तुम्हारा
एक हिस्सा
कहता है यह
बात, और
दूसरा हिस्सा
कहता है, 'मौत
आ रही है, हर
चीज व्यर्थ है।
सुख भोगने में
सार क्या है?' ये तुम्हारे
एक ही हिस्से
नहीं बोल रहे
होते। तुममें
तीन हिस्से
होते हैं।
वस्तुत: तीन
अहंकार होते
हैं, तीन
व्यक्ति होते
हैं तुम में।
पतंजलि
कहते हैं जैसे
महावीर कहते
है—कि मनुष्य
बहु —चित्तवान
है। तुम्हारा
एक मन नहीं, तीन
मन होते हैं; और तीन मन
परिवर्तनों
द्वारा, सम्मिश्रण
द्वारा तीन
हजार बन सकते
हैं।
तुम्हारे पास
बहुत मन हैं; तुम हो
बहुचित्तवान।
हर मन तुम्हें
खींच रहा है
कहीं और ही।
तुम एक भीड़ हो।
निस्संदेह, कैसे तुम
आनंदित हो
सकते हो? तुम
हो उस बैलगाड़ी
की भांति जिसे
खींचा जा रहा
है विभिन्न
दिशाओं में
बहुत से बैलों
द्वारा, एक
जुता है उत्तर
में, एक
लगा हुआ है
पश्चिम में और
एक साथ—साथ ही
लगा हुआ है
दक्षिण में।
वह बैलगाड़ी
कहीं नहीं जा
सकती। वह बहुत
शोर पैदा
करेगी, और
अंततः ढह
जाएगी, लेकिन
वह पहुंच नहीं
सकती कहीं।
इसीलिए
तुम्हारा
जीवन बना रहता
है खाली जीवन।
ये तीनों तत्व
द्वंद्व में
रहते हैं, और
फिर मन की
वृत्तियां
हैं वे
द्वंद्व में
रहती हैं
गुणों के साथ।
उदाहरण
के लिए, मैं
जानता हूं एक
आदमी को जो कि
बहुत सुस्त है।
और वह कहता था
मुझसे, 'यदि
मेरी कोई
पत्नी न होती,
तो मैं
विश्राम करता।
पर्याप्त धन
था मेरे पास, लेकिन पत्नी
तो मुझे मजबूर
ही करती रही
काम करने के
लिए। उसके लिए
वह कभी
पर्याप्त न
हुआ।’ फिर
पत्नी मर गई।
तो मैंने कहा
उस आदमी से, 'तुम्हें तो
खुश होना
चाहिए। तुम रो
क्यों रहे हो?
तुम खुश होओ।
पत्नी की बात
खत्म हुई
तुम्हारे लिए,
अब तुम कर
सकते हो
विश्राम।’ लेकिन
वह रो रहा था
बच्चे की
भांति। वह
कहने लगा, 'अब
मैं अकेला
महसूस करता
हूं। और वह
आदत बन चुकी
है।’ पत्नियां
और पति आदत बन
जाते हैं। वह
कहने लगा, ' अब
तो वह आदत बन
चुकी है। अब
मैं सो नहीं
सकता बगैर
स्त्री के।’ मैंने कहा
उससे, 'अब
मूढ़ मत बनो!
फिर से विवाह
करने की कोशिश
मत करना
क्योंकि जीवन
भर तुमने
तकलीफ पायी, और दूसरी
स्त्री फिर एक
स्त्री ही
होगी—वह
जबरदस्ती
बातें मनवाकी
तुमसे। फिर
तुम्हारा धन
पर्याप्त न
होगा।’
मैंने
सुना है एक
बहुत धनी
व्यक्ति
रॉथस्वाइल्ड
के बारे में।
किसी ने पूछा
उससे, 'कैसे
कमायी आपने
इतनी ज्यादा
दौलत? कैसे
कमा सके? क्या
इच्छा रही थी?
कैसे बने आप
इतने महत्वाकांक्षी?'
वह गरीब
आदमी के रूप
में उत्पन्न
हुआ था और फिर
वह संसार का
सब से धनवान
व्यक्ति बन
गया। उसने
बताया, 'मेरी
पत्नी के कारण।
मैं कोशिश
करता रहा कि
जितना संभव हो
उतना धन कमाऊ
क्योंकि मैं
जानना चाहता
था कि मेरी
पत्नी
संतुष्ट हो
सकती थी या
नहीं। मैं
असफल हुआ—वह
सदा और ज्यादा
की ही मांग
करती रही।
हमारे बीच
प्रतिस्पर्धा
चलती थी। मैं
कोशिश करता
रहा ज्यादा से
ज्यादा कमाने
की, और मैं
देखना चाहता
था वह दिन जब
वह कहेगी कि यह
तो बहुत है।
उसने कभी नहीं
कहा ऐसा —उस
प्रतिस्पर्धा
के कारण मैं
लगातार कमाता
रहा, पागलों
की भाति कमाता
रहा लगातार।
अब मैंने कमा
लिया है इतना
ज्यादा धन कि
मैं नहीं
जानता कि क्या
करूं इसका, लेकिन मेरी
पत्नी अभी भी
संतुष्ट नहीं
है। यदि एक
दिन मैं चाहूं
विश्राम करना
और सुबह जल्दी
न उठुं तो वह
आती है और
कहती है कि
बात क्या है? क्या आप
आफिस नहीं जा
रहे हैं!'
मैंने
कहा इस आदमी
से,
'फिर से जाल
में मत फंसो।
जिंदगी भर तो
तुमने आराम
करना चाहा, और अभी भी
हालत वही है?
आलसी
आदमी आराम
करना चाहता है, लेकिन
जब वह रहता है
पत्नी के साथ,
तो एक
वृत्ति आ जमती
है मन में। अब
वह स्त्री
उसकी सत्ता का
अनिवार्य
हिस्सा हो
जाती है। वह
जी नहीं सकता
उसके साथ
क्योंकि वह
रोज झगड़ा कर
सकती है, लेकिन
वह बात भी आदत
का एक हिस्सा
बन जाती है।
यदि कोई ऐसा
नहीं होता
झगड़ने के लिए
जब कि वह घर
आता है, तो
वह अनुभव नहीं
कसेग़ घरेलू
ढंग का सुख, चैन।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
गया एक
रेस्तरा में।
सेविका ने कहा, 'क्या
चाहिए आपको? मैं तैयार
हूं पूरा करने
को।’
उस
दिन का वह
पहला ग्राहक
था,
और वह बात
भारत की थी।
पहले ग्राहक
का सम्मान
करना होता है
और उसका स्वागत
करना पड़ता है
अतिथि की
भांति, क्योंकि
उससे शुरुआत
होती है दिन की।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, 'मेरे
साथ घरेलू ढंग
से व्यवहार
करो। ले आओ
चीजें।’
सेविका
वे चीजें ले
आयी जिनका
आर्डर उसने
दिया था : कॉफी
और भी कई
चीजें। फिर वह
पूछने लगी, 'कुछ
और?'
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
'अब बैठो
मेरे सामने और
जरा लड़ों—झगड़ो।
मुझे घर की
याद नहीं आ
रही है!'
यदि
पत्नी हर रोज
लड़ती भी हो, तो
वह आदत बन
जाती है। तुम
उसे खोने की
बात बरदाश्त नहीं
कर सकते, तुम
उसका अभाव
महसूस करते हो।
मैंने कहा उस
आदमी से, 'अब
फिर चिंता मत
लो। यह तो
केवल वृत्ति
है मन की, एक
आदत। तुम
सुस्त आदमी हो।’
आलसी
आदमी के लिए
ब्रह्मचर्य
सब से उत्तम
है। उन्हें
ब्रह्मचारी
ही रहना चाहिए।
वे कर सकते है
आराम, कर सकते
हैं 'विश्राम,
और अपने को
ले कर जो कुछ
करना चाहते
हैं कर सकते
हैं। वे अपने
मन की कर सकते
हैं और परेशान
करने को कोई
मौजूद नहीं
होता।
उसने
सुनी मेरी बात।
ऐसा कठिन था, लेकिन
उसने मेरी बात
सुनी। दो वर्ष
के बाद, वह
निवृत्त हो
गया नौकरी से,
तो मैंने
कहा, ' अब
तुम्हें पूरी
तरह चैन है, अब तुम आराम
करो। अपने
जीवन भर तुम
इसी की तो
सोचते रहे हो।’
वह कहने लगा,
'वह तो ठीक
है। लेकिन अब
चालीस वर्ष
काम करने के
बाद यह बात तो
एक आदत बन गयी
है, और मैं
बिना कुछ किए
नहीं रह सकता।’
अवकाश—प्राप्त
लोग उससे कुछ
ज्यादा जल्दी
ही मर जाते
हैं,
जब जिस समय
कि उन्हें
वास्तव में
मरना होता—करीब
दस वर्ष
ज्यादा जल्दी
मर जाते हैं।
यदि किसी आदमी
को मरना था
अस्सी वर्ष की
आयु में तो
नौकरी से रिहा
कर दो उसे
साठवें वर्ष
पर और वह मर
जाएगा सत्तर
वर्ष की आयु
में। खाली
बैठे —बैठे
करोगे क्या? तुम धीरे —
धीरे मर जाते
हो।
आदतें
बन जाती हैं
और मन धारण कर
लेता है वृत्तियां।
तुम सुस्त
होते हो लेकिन
तुम्हें काम
करना पड़े तो
मन की आदत है
काम करने की।
अब तुम
विश्राम नहीं
कर सकते। यदि
तुम निवृत्त
भी हो जाओ, तो
तुम बैठ नहीं
सकते, तुम
ध्यान नहीं कर
सकते, तुम
आराम नहीं कर
सकते, तुम
सो नहीं सकते।
मैं देखता हूं
कि साधारण
दिनों की
अपेक्षा लोग
छुट्टियों
में ज्यादा
बेचैन होते
हैं। इतवार एक
कठिन दिन है, उन्हें पता
नहीं होता कि
क्या करना है।
काम के छह दिन
वे प्रतीक्षा
कर रहे होते
हैं इतवार की।
छह दिन तक वे
आशा बनाते हैं
कि इतवार आने
वाला है. 'बस
और एक दिन, और
इतवार आ ही
रहा है, और
तब हम आराम ही
करेंगे।’ और
इतवार को सुबह
से वे समझ
नहीं पा रहे
होते कि
करेंगे क्या।
पश्चिम
में,
लोग चले
जाते हैं अपनी
रविवार या
वीकएण्ड की यात्राओं
पर : वे जाते
हैं समुद्र—तट
की ओर या
पर्वतों की ओर।
सारे देश में
एक पागल
हड़बड़ाहट होती;
हर कोई भागा
जा रहा होता
है कहीं न
कहीं। कोई
नहीं सोचता कि
हर कोई जा रहा
है समुद्र—तट
पर, तो वे
कहां जा रहे
हैं?—सारा
शहर वहीं होगा।
बेहतर होता
यदि वे घर पर
ही रुक गए
होते। वह बात
ज्यादा
समुद्र—तट
जैसी होती।
तुम अकेले
होते और सारा
शहर जा चुका
होता। हर कोई
चला गया होता
है समुद्र के
किनारे। और ज्यादा
दुर्घटनाएं
घटती हैं
छुट्टियों
में, लोग
ज्यादा थके
हुए होते हैं।
वे सौ मील
जाते हैं और
सौ मील लगते
हैं लौटने में
और वे थक जाते
हैं।
मैंने
सुना है, कहा
जाता है कि
रविवार के दिन
लोग इतना थक
जाते हैं कि
सोमवार, मंगलवार
और बुधवार—इन
तीनों दिनों
में वे आराम
करते हैं और
उत्साह को फिर
से प्राणवान
बनाते हैं, और तीन
दिनों तक वे
प्रतीक्षा
करते हैं और
फिर आशा करते
हैं रविवार की।
तो जब रविवार
आता है वे फिर
से थक जाते
हैं!
लोग
आराम नहीं कर
सकते, क्योंकि
आराम करने के
लिए चाहिए एक
अलग दृष्टिकोण।
यदि तुम आलसी
हो, और तुम
काम करते हो, तो मन बना
लेगा कुछ न
कुछ। यदि तुम
आलसी नहीं, तब भी मन
निर्मित कर
लेगा कोई न
कोई बात। मन
और तुम्हारे
गुण सदा
द्वंद्व में
रहेंगे।
पतंजलि कहते
हैं कि ये ही
हैं कारण कि
लोग दुख में
पड़े हैं। तो
करना क्या
होगा? कैसे
बदल सकते हो
तुम इन कारणों
को? वे तो ०
ही हैं, उन्हें
बदला नहीं जा
सकता। केवल
तुम्हें बदला
जा सकता है।
भविष्य
के दुख को
विनष्ट करना
है।
मत
सोचना अतीत के
बारे में।
अतीत तो खत्म
हुआ और तुम
उसे अनकिया
नहीं कर सकते।
लेकिन
भविष्य के दुख
से बचा जा
सकता है, उससे
बचना ही होता
है। कैसे बचना
होगा उससे?
द्रष्टा
और दृश्य के
बीच का संबंध
जो कि दुख
बनाता है उसे
तोड़ देना है।
तुम्हें
साक्षी होना
होगा
तुम्हारे गुणों
का,
स्वाभाविक
गुणों का, मन
की वृत्तियों
का, मन की
होशियारियो
का, चालबाजियों
का, मन के
फंदों का, आदतों
का, संस्कारों
का, अतीत
का, बदलती
स्थितियों का,
अपेक्षाओं
का तुम्हें
सजग रहना होगा
इन सभी चीजों
के प्रति।
तुम्हें याद
रखनी है केवल
एक बात
द्रष्टा दृश्य
नहीं है। जो
कुछ तुम देख
सकते हो, वह
तुम नहीं हो।
यदि तुम देख
सकते हो
तुम्हारे
आलस्य की आदत,
तो तुम वह
नहीं होते।
यदि तुम देख
सकते हो
निरंतर कुछ न
कुछ किए जाने
की तुम्हारी
आदत, तो
तुम वह नहीं
होते। यदि तुम
देख सकते हो
तुम्हारी
पिछली
संस्कारबद्धताएं
तो तुम वे
बद्धताएं
नहीं होते।
द्रष्टा नहीं
होता दृश्य।
तुम जागरूकता
हो। और
जागरूकता उस
सब से परे
होती है, जिसे
कि वह देख
सकती है।
द्रष्टा पार
होता है दृश्य
के।
तुम
इंद्रियातीत
चेतना हो। यह
होता है विवेक, यह
होती है
जागरूकता।
यही तो है
जिसे बुद्ध
उपलब्ध करते
हैं और निरंतर
इसी में रहते
हैं। इसे
निरंतर
उपलब्ध करना
तुम्हारे लिए
संभव न होगा, लेकिन यदि
कुछ पलों के
लिए भी तुम
द्रष्टा तक उठ
सको और दृश्य
के पार हो सको,
तो अचानक ही
दुख तिरोहित
हो जाएगा।
अचानक बादल न
रहेंगे आकाश
में और तुम पा
सकते हो थोड़ी—सी
झलक नीले आकाश
की। —वह
मुक्ति पा
सकते हो जिसे
वह देता है और
पा सकते हो वह
आनंद जो कि
उसके द्वारा
आता है। शुरू
में, केवल
कुछ क्षणों के
लिए यह संभव
होगा। लेकिन
धीरे — धीरे, जैसे —जैसे
तुम इसमें
विकसित होते
हो, तुम
इसे अनुभव
करने लगते हो,
तुम इसकी
आत्मा को ही
आत्मसात करते
हो, यह बात
और और ज्यादा
मौजूद होगी।
एक दिन आएगा
जब अचानक और
कोई बादल नहीं
बचा रहता, द्रष्टा
जा चुका होता
है कहीं पार।
इसी तरह ही
बचा जा सकता है
भविष्य के दुख
से।
अतीत
में तुमने दुख
भोगा, भविष्य
में कोई
आवश्यकता
नहीं दुख
भोगने की। यदि
तुम दुख भोगते
हो, तो तुम
होओगे
जिम्मेदार।
और यही है
कुंजी, कुंजियों
की कुंजी सदा
याद रखना कि
तुम सब से परे
हो। यदि तुम
देख सकते हो
तुम्हारा
शरीर, तो
तुम शरीर नहीं
होते। यदि तुम
आंखें बंद करो
और तुम देख
सको तुम्हारे
विचार तो तुम
विचार नहीं
रहते —क्योंकि
द्रष्टा कैसे
हो सकता है
दृश्य? द्रष्टा
तो सदा परे
होता है, पार
होता है।
द्रष्टा है
सर्वथा परे, संपूर्णतया
एक
अतिक्रमर्णा।
आज इतना
ही।
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