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शनिवार, 13 दिसंबर 2014

बिन बाती बिन तेल--(प्रवचन--01)


 बिन बाती बिन तेल
ओशो

सूफी, झेन एवं उपनिषाद की कहानियों एवं बोध—कथाओं पर ओशो के सुबोधगम्‍य 19 अमृत प्रवचनों की शृंखला (जून—जूलाई 1974)
 जो भी हम जानते है, जिन दियों से भी हमारा परिचयहै, वे सभी तेल से जलते है; उन सभी में बातीकी जरूरत होती है। अकारण हमारी जानकारी में कुछ भी नहीं।आग जलेगी तो ईंधन होगा। आदमी चलेगा तो भोजनजरूरी होगा। भोजन ईंधन है। जो भी हम जानते है, जो भी हमारा ज्ञान है। वह सभी कारण से बंधा है।.....
उस अगम अगोचर को जो दीया है, परमात्‍मा की जो ज्‍योति है, वह बिना बाती बिना तेल के जल रही है। जीवन का न कोई उदगमहै। न कोई अंत। न जीवन को कोई स्‍त्रोत न कोई समाप्‍ति। न तो जीवन का कोई प्रारंभ है। और न ही कोई पूर्णहुति, बस जीवन चलता चला जाता है। और यह दीया बाहर ही नहीं जल रहा है। यह दीया भीतर भी जल रहा है। यह दीया है सब तरफ। एक ही ज्‍योति जल रही है। हम सब एक ही ज्‍योति की अलग—अलग लपटें है। लपटें जलेंगी, बुझेंगी; जो स्‍त्रोत है अग्‍नि का, वह शाश्‍वत है।........

ओशो




मृण्मय घट में चिन्मय दीप—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 जून 1974 (प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना.

भगवान!

परम तत्व को उपनिषद स्वयंभू या स्वप्रकाश कहते हैं।
आप कहते हैं कि जो सकारण है वह पदार्थ है;
और जो अकारण है, वह परमात्मा।
इसी बात को संत कवित्वमयी भाषा में कहते हैं:
'दिया बले अगम का बिन बाती बिन तेल।'
लेकिन हम हैं कि अकारण तत्व तो दूर,
इस सकारण जगत को भी ठीक से नहीं समझते हैं।
और बत्ती तेल वाला हमारा दीया बस टिमटिमाता भर है।
कृपापूर्वक हमें समझायें, हमें बतायें कि क्या सच में ही
बिन बाती बिन तेल का कोई दीया जलता है?


दीया बले अगम का, बिन बाती बिन तेल।
सरल सा दिखने वाला सूत्र अति कठिन है।
जो भी हम जानते हैं, जिन दीयों से भी हमारा परिचय है, वे सभी तेल से जलते हैं; उन सभी में बाती की जरूरत है। अकारण हमारी जानकारी में कुछ भी नहीं है। आग जलेगी तो ईंधन होगा। आदमी चलेगा तो भोजन जरूरी है। भोजन ईंधन है।
जो भी हम जानते हैं, जो भी हमारा ज्ञान है, वह सभी कारण से बंधा है।
यह सूत्र ऐसे तो सरल है, कि उस अगम-अगोचर का जो दीया है, परमात्मा की जो ज्योति है, वह बिना तेल, बिना बाती के जल रही है। पर कठिन बहुत है; क्योंकि हमारी कोई पहचान ऐसे किसी स्रोत से नहीं। हमारी जानकारी तो उन्हीं वृक्षों से है, जो बीज से पैदा होते हैं। निर्बीज, अबीज वृक्ष से हमारा कोई परिचय नहीं। इसलिये कठिन है, लेकिन थोड़ा समझने की कोशिश करें। कुछ उपाय अलग-अलग आयाम से समझने में सहयोगी होंगे।
बुद्धि से समझने से यह बात कभी भी न आयेगी क्योंकि बुद्धि कारण को समझती है, अकारण को नहीं। लेकिन बुद्धि से गहरे में छिपा हुआ एक और स्रोत भी है। हृदय अकारण को ही समझता है, कारण को नहीं।
जिन्होंने यह कहा है: 'दीया बले अगम का बिन बाती बिन तेल', उन्होंने कोई सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किया है। वे किसी विचार की सरणी को उपस्थित नहीं कर रहे हैं। ऐसा उन्होंने देखा। वे उस दीये के आमने-सामने पड़ गये, जहां न बाती थी, न तेल था। ऐसा उन्होंने अनुभव किया, ऐसा उन्होंने जाना।
और यह दीया अगर अलग होता जानने वाले से, तो शायद भूल-चूक भी हो जाती। शायद तेल छिपा हो, शायद बाती इस ढंग से बनी हो कि दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन जिन्होंने जाना उन्होंने जाना कि वे स्वयं ही वह दीया हैं; उन्होंने अपने भीतर ही उस ज्योति को जलते देखा। भूल-चूक की कोई गुंजाइश न थी। उन्होंने स्वयं को ही पाया कि अकारण हैं।
जीवन का न कोई उदगम है, न कोई अंत।
न जीवन का कोई स्रोत है, न कोई समाप्ति।
न तो जीवन का कोई प्रारंभ है, और न कोई पूर्णाहुति।
बस, जीवन चलता ही चला जाता है।
ऐसी जिनकी प्रतीति हुई, उन्होंने यह सूत्र दिया है। यह सूत्र सार है बाइबिल, कुरान, उपनिषद--सभी का; क्योंकि वे सभी इसी दीये की बात कर रहे हैं।
पहली बात: जिस जगत को हम जानते हैं, विज्ञान जिस जगत को पहचानता है, तर्क और बुद्धि जिसकी खोज करती है, उस जगत में भी थोड़ा गहरे उतरने पर पता चलता है कि वहां भी दीया बिना बाती और बिना तेल का ही जल रहा है।
वैज्ञानिक कहते हैं, कैसे हुआ कारण इस जगत का, कुछ कहा नहीं जा सकता। और कैसे इसका अंत होगा, यह सोचना भी असंभव है। क्योंकि जो है, वह कैसे मिटेगा? एक रेत का छोटा-सा कण भी नष्ट नहीं किया जा सकता। हम पीट सकते हैं, हम जला सकते हैं, लेकिन राख बचेगी। बिलकुल समाप्त करना असंभव है। रेत के छोटे से कण को भी शून्य में प्रवेश करवा देना असंभव है--रहेगा; रूप बदलेगा, ढंग बदलेगा, मिटेगा नहीं।
जब एक रेत का अणु भी मिटता नहीं, यह पूरा विराट कैसे शून्य हो जायेगा? इसकी समाप्ति कैसे हो सकती है? अकल्पनीय है! इसका अंत सोचा नहीं जा सकता; हो भी नहीं सकता।
इसलिये विज्ञान एक सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है, कि शक्ति अविनाशी है। पर यही तो धर्म कहते हैं कि परमात्मा अविनाशी है। नाम का ही फर्क है। विज्ञान कहता है, प्रकृति अविनाशी है। पदार्थ का विनाश नहीं हो सकता। हम रूप बदल सकते हैं, हम आकृति बदल सकते हैं, लेकिन वह जो आकृति में छिपा है निराकार, वह जो रूप में छिपा है अरूप, वह जो ऊर्जा है जीवन की, वह रहेगी।
और अगर अंत नहीं है, तो प्रारंभ नहीं हो सकता। जिस डंडे का एक छोर न हो, उसका दूसरा छोर भी नहीं हो सकता। क्योंकि अगर हम यही नहीं सोच सकते कि जगत कैसे समाप्त होगा, तो हम यह कैसे सोच सकते हैं कि कैसे शुरू हुआ? अगर रेत का एक कण शून्य में नहीं जा सकता, तो शून्य से रेत का कण कैसे आ सकता है?
दोनों ही बातें एक ही हैं, एक जैसी हैं। अगर जगत शून्य से पैदा हो तो जगत शून्य में खो सकता है। अगर जगत शून्य में नहीं खो सकता तो शून्य से पैदा भी नहीं हुआ। इसका अर्थ हुआ कि जगत सदा था। अस्तित्व सदा-सदा था और सदा-सदा रहेगा। इसका कोई उदगम नहीं है।
जिस ऊर्जा का कोई उदगम न हो, वह अकारण है। जिस ऊर्जा का कोई अंत न हो, वह अकारण है। क्योंकि जब भी कारण हो तो अंत हो सकता है। अगर आप भोजन के कारण जी रहे हैं--भोजन बंद, आपकी मृत्यु हो जायेगी। अगर श्वास के कारण जी रहे हैं--श्वास टूटी, आप समाप्त हुए। अगर सूरज की रोशनी के कारण जी रहे हैं--सूरज बुझा, आप बुझे। अगर कारण है तो कारण हटाया जा सकता है। सिर्फ उसका ही अंत नहीं होगा, जिसका कोई कारण न हो। तर्क भी, विचार भी, इतना तो समझ ही पा सकता है कि इस जीवन की लीला का कोई प्रारंभ नहीं।
लेकिन बुद्धि चकराती है। क्योंकि तब और उलझनें उठ आती हैं। अगर इसका कोई प्रारंभ न हो, अगर इसका कोई अंत न हो, अगर यह अंतहीन शृंखला है, तो फिर इसका प्रयोजन क्या होगा? फिर इसका अर्थ क्या है? फिर सारी बात अर्थहीन हो जाती है; फिर इसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
और बुद्धि को यह मानना कठिन होता है कि कुछ है और उसका प्रयोजन नहीं। क्योंकि बुद्धि व्यवसाय है। प्रयोजन हो तो बुद्धि फैलती है। कुछ पाने को हो तो बुद्धि कुछ करती है, कुछ कर सकती है। अगर कुछ पाने को नहीं, कोई अंत नहीं, यह अंतहीन शृंखला चलती ही रहेगी। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारा कृत्य कोई अंतर न लायेगा। तुम्हारा कृत्य स्वप्न जैसा है।
एक सूफी फकीर जुन्नैद ने कहा है, कि बुद्धि के सारे कृत्य ऐसे हैं, जैसा एक मच्छर लोहे के हाथी को काटने की कोशिश कर रहा हो। लोहे का हाथी! और मच्छर उसमें से खून पीने की कोशिश कर रहा हो। बुद्धि के सारे उपाय, बुद्धि के सारे कृत्य ऐसे हैं।
अगर जगत अंतहीन शृंखला है, तो तुम्हारे किये क्या होगा? बुद्धि इससे डरती है क्योंकि फिर अहंकार निर्मित नहीं होता। मेरे करने से कुछ भी न होगा; मेरे होने के पहले था, मेरे होने के बाद होगा। जब मैं हूं तब भी मैं एक स्वप्न से ज्यादा नहीं; यथार्थ वैसा का वैसा बना रहेगा। मेरे होने, न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार को निर्मित होना कठिन हो जाता है। और बुद्धि का सारा खेल अहंकार को निर्मित करने का है--'मैं हूं।' लेकिन मेरे होने में वजन तभी आता है, जब मैं कुछ कर सकूं; कृत्य मेरे बस में हो। तो जितना ज्यादा मैं कर सकूं, उतना वजनी मैं हो जाता हूं। अगर कुछ भी न कर सकूं, उतना ही मैं नष्ट हो जाता हूं, उतना ही मैं खो जाता हूं।
अस्तित्व प्रयोजन-शून्य है तो अहंकार को बनने की कोई जगह न रही। और अगर इसका कोई प्रारंभ, अंत नहीं तो बुद्धि को खोजने को कुछ न बचा। बुद्धि की जिज्ञासा है जानना: कैसे हुआ प्रारंभ? किसने बनाया? क्यों बनाया? कब होगा अंत? कब आयेगी प्रलय? कैसे होगा अंत? बुद्धि को खोजने के लिये जगह मिलती है। बुद्धि और अहंकार इस प्रयोजन-शून्य, अंतहीन विस्तार में कहीं भी नहीं टिकते; खो जाते हैं।
इसलिये जो अहंकार और बुद्धि को छोड़कर खड़ा होगा, वह तत्क्षण देख पायेगा: ''दीया बले अगम का, बिन बाती बिन तेल।''
और यह दीया बाहर ही नहीं जल रहा है, यह दीया भीतर भी जल रहा है। यही दीया है सब तरफ, एक ही ज्योति जल रही है। हम सब एक ही ज्योति की अलग-अलग लपटें हैं। लपटें जलेंगी, बुझेंगी; जो स्रोत है अग्नि का, वह शाश्वत है।
मैं मिट जाऊंगा क्योंकि मैं एक रूप हूं। तुम मिट जाओगे क्योंकि तुम एक आकार हो। लेकिन जिसने तुम्हारे भीतर आकार लिया है, वह तुम्हारे मिटने पर भी नहीं मिटेगा। लहर खो जायेगी, क्योंकि लहर एक रूप थी; लेकिन लहर में जो सागर छिपा था, वह रहेगा। तुम मिटोगे, तुम खोओगे क्योंकि तुम सकारण हो। मां से, पिता से तुम पैदा हुए। रूप पैदा हुआ, तुम नहीं; शरीर बना, तुम नहीं। जो मां-बाप से बना है, मौत उसे ले जायेगी।
भोजन से तुम निर्मित हो रहे हो। शरीरशास्त्री कहते हैं, तीन महीने भोजन बंद कर दिया जाये तो तुम समाप्त हो जाओगे। तीन महीने भी इसलिये कि तीन महीने तक सुरक्षित भोजन शरीर में है। तुम इकट्ठा कर लिए हो मांस, चरबी, वह तीन महीने में चुक जायेगा। तेल चुका, ज्योति बुझी। श्वास तो अभी बंद कर दी जाये तो तुम अभी समाप्त हो जाओगे। पानी में डुबा दिया जाए तुम्हें और निकलने न दिया जाए तो दो क्षण में मौत हो जाएगी। क्योंकि तुम्हारा जो दीया है, वह हवा से मिलती आक्सिजन से जल रहा है।
एक दीया जलता हो, हवा का झोंका आये तो शायद न बुझे। तुम उसे बचाने के लिए एक बर्तन से ढंक दो, थोड़ी देर जलेगा, फिर बुझ जायेगा। क्योंकि जितनी बर्तन के भीतर आक्सिजन होगी उतनी देर श्वास ले लेगा, फिर आक्सिजन चुकी, कि दीया गया। हवा के झोंके में शायद न भी बुझता क्योंकि उसमें प्राण की ऊर्जा भी थी, लेकिन बंद बर्तन में मिट जायेगा।
तुम प्रतिपल श्वास ले रहे हो, वह श्वास तुम्हारे भीतर के दीये को जला रही है। यह दीया तो बिना बाती बिना तेल का नहीं; इसलिये मौत का इतना डर है। क्योंकि तुम कितना ही झुठलाओ और तुम कितना ही अपने को समझाओ, तुम्हारा मन यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि तुम अमृत हो। तुम हो भी नहीं। अमृत तुममें छिपा है, लेकिन उसका तुम्हें पता नहीं। तुम तो जो भी हो, वह सकारण है। उसमें तो तेल मिलता रहे तो तुम जलते रहोगे। तेल खिंचा कि तुम मिटे।
महावीर जैसे व्यक्तियों ने उपवास के बड़े गहरे प्रयोग किये, उन प्रयोगों का सार तुम्हें मैं कहता हूं, जैनों को उस सार का कुछ भी खयाल नहीं रहा। महावीर के वर्षों तक भूखे रहने के लंबे प्रयोग हैं। कहा तो यह जाता है कि बारह वर्ष में महावीर ने केवल एक वर्ष भोजन किया--कभी-कभी। कभी तीन महीने भूखे रहे, फिर एक दिन भोजन किया; कभी दो महीने भूखे रहे, फिर एक दिन भोजन किया, ऐसा बारह वर्षों में सब मिलाकर तीन सौ पैंसठ दिन भोजन किया। इसका मतलब हुआ कि बारह दिन में एक दिन भोजन और ग्यारह दिन करीब-करीब भूखे रहे।
महावीर क्या कर रहे थे? यह प्रयोग क्या था? क्या सिर्फ भूखे मरने से कोई अध्यात्म को उपलब्ध हुआ है? तब तो भुखमरी सौभाग्य होगी; तब तो दीनता, दरिद्रता आशीर्वाद है परमात्मा का; तब तो जो भूखे हैं, वे परमात्मा को पा लेंगे। लेकिन भूखे का तो शरीर भी खो जाता है, आत्मा को पाना तो बहुत मुश्किल है।
महावीर क्या कर रहे थे? महावीर जो कोशिश कर रहे थे, वह इसी सूत्र से संबंधित है। महावीर यह कोशिश कर रहे थे जानने की, कि क्या है मेरे भीतर, जो तेल से जलता है और क्या मेरे भीतर, जो बिना तेल के जलता है; इसका भेद साफ करने की कोशिश कर रहे थे। भोजन बंद करने से कौन मेरे भीतर मरने लगता है? भोजन न देने से कौन सी ज्योति मंद पड़ने लगती है? क्या वही मैं हूं? अगर वही मैं हूं, तो व्यर्थ है सब। क्योंकि आज नहीं कल तेल चुकेगा, आज नहीं कल दीया टूटेगा। मिट्टी का दीया है, आज नहीं कल बाती समाप्त हो जायेगी। अगर वही मैं हूं तो सब व्यर्थ है।
बारह वर्ष निरंतर दीये में से तेल अलग कर-करके, बाती को बुझा-बुझाकर महावीर यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि क्या मेरा होना इस होने से पृथक है? रूप में जो दिखाई पड़ता है, क्या मैं वही हूं या अरूप भी मेरे भीतर है? इस मरणधर्मा दीये में जो जलता है, क्या वही मेरी ज्योति है? या मैंने शरीर की ज्योति को अपनी ज्योति समझा? शरीर से पृथक मैं हूं या नहीं?
भरे पेट इसे जानना जरा मुश्किल है। खाली पेट इसे जानना जरा आसान है। भरे पेट जानना इसलिये मुश्किल है, कि शरीर की ज्योति भी इतनी ठीक से जलती है कि आपको पता लगाना मुश्किल है कि मेरी ज्योति कहां है। जब शरीर की ज्योति मद्दी हो जाती है, फिर भी आपकी ज्योति में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता--तभी आपको पता चलता है!
अगर आप बुद्धिमान हों तो बीमारी भी अध्यात्म का मार्ग बन सकती है। भूखा होना भी आत्मा की खोज बन सकती है। दुख भी परम आनंद का द्वार बन सकता है। नर्क से भी स्वर्ग खोजा जा सकता है।
तपश्चर्या का एक ही लक्ष्य है कि वह जो शरीर का दीया है, उसकी ज्योति को इतना मंदा कर देना कि उसकी ज्योति से तुम्हारी ज्योति का कोई संबंध ही न रह जाए। वह इतनी बुझी-बुझी हो जाये, फिर भी तुम भीतर पाओ कि मैं तो उतना ही जला हूं, जितना पहले था। कोई अंतर नहीं पड़ता। शरीर क्षीण हो जाता है, मैं क्षीण नहीं होता हूं। शरीर बिलकुल बुझने के करीब आ जाता है। तीन महीने शरीर की क्षमता है कि बिना भोजन के रह ले।
तो महावीर ने बहुत से उपवास तीनत्तीन महीने के किये। तीन महीने के बाद वे भोजन करेंगे। जिस दिन पाया कि बस अब आखिरी बूंद चुकी जाती है, कि अब शरीर गिर ही पड़ेगा, उस दिन वे भोजन करेंगे; उस दिन थोड़ा तेल फिर डाल देंगे; फिर तीन महीने प्रतीक्षा चलेगी। बारह वर्ष की इस निरंतर विश्लेषण की प्रक्रिया से महावीर ने साफ कर लिया कि मैं अलग हूं और शरीर अलग है। भेद स्पष्ट हो जाये।
इस भेद की प्रक्रिया को महावीर ने 'भेद-विज्ञान' कहा। उपवास भेद-विज्ञान का एक माध्यम है। कैसे जानें रूप और अरूप की पृथकता? आकार और निराकार इतने मिले हैं, लहर इतनी जुड़ी है सागर से, कि कैसे पता चले? सागर इतना प्रवेश कर गया है लहर में, भेद कैसे मालूम हो?
सागर को भी भेद तभी मालूम पड़ता है, जब सागर शांत होता है, सब लहर सो गई होती हैं। हवाओं के झोंके नहीं होते, तूफान नहीं होता, तब सागर जानता है कि वह जो लहर की तरह उछल रहा था मुझमें, वह विजातीय था। वह लहर तो मिट गई लेकिन मैं उतना का उतना हूं, जितना लहर के साथ था। इसलिये लहर का होना एक सांयोगिक घटना थी, स्वभाव न था।
अगर तुम्हारी चेतना पूरी की पूरी जलती है उपवास में भी, और रत्ती भर भेद नहीं पड़ता...और तुम चकित होओगे, उपवास में चेतना ज्यादा प्रखरता से जलती है। भरे पेट थोड़ी मूर्च्छा होती है। भोजन मूर्च्छा लाता है; इसलिये भोजन के बाद नींद की इच्छा होती है। भोजन किया कि लगता है थोड़ा विश्राम कर लें, सो जायें। इसलिये खाली पेट रात नींद नहीं आती। क्योंकि खाली पेट जागरण हो जाता है, खाली पेट चेतना ज्यादा प्रखर होती है।
जिन लोगों ने भी थोड़े से उपवास के प्रयोग किये हैं, उनका यह अनुभव है कि दोत्तीन-चार दिन तो तकलीफ मालूम पड़ती है क्योंकि शरीर की आदत! वह मांग करता है। लेकिन पांचवें या सातवें दिन के बाद शरीर की मांग शांत हो जाती है। शरीर समझ लेता है कि अब भोजन मिलने वाला नहीं; वह मांग बंद कर देता है। सातवें दिन के बाद चेतना में बड़ा हलकापन आना शुरू हो जाता है। और सातवें दिन के बाद मूर्च्छा कम होने लगती है। सातवें दिन के बाद नींद एकदम क्षीण हो जाती है; करीब-करीब ना के बराबर हो जाती है। अगर तीन सप्ताह का उपवास किया तो नींद बिलकुल खो जाती है।
और जब नींद बिलकुल खो जाती है, चौबीस घंटे होश रहता है और होश हलका हो जाता है, जैसे पंख लग गये, जैसे कोई वजन न रहा, जैसे जमीन का कोई ग्रेवीटेशन तुम पर न रहा, तुम निर्भार हो गये; जैसे तुम चाहो तो अब उड़ सकते हो शरीर को छोड़कर, ऐसे क्षणों में तुम्हें पहली दफा पता चलता है कि शरीर का दीया अलग, मेरा दीया अलग! शरीर पर मैं निर्भर नहीं हूं। शरीर की ज्योति जले या बुझे, इससे न मेरे बुझने का कोई संबंध है, न मेरे जलने का। मैं जलता हूं शरीर से अलावा भी। और मैं जलता रहूंगा। जब शरीर नहीं था तब भी मैं था। इसलिये अगर कोई डेढ़ महीने के उपवास में जाये--छह सप्ताह का उपवास, तो उसे पिछले जन्मों का स्मरण आना शुरू हो जाये।
इसलिये आश्चर्य की बात नहीं कि महावीर ने जाति-स्मरण के विज्ञान को सबसे गहराई में खोजा--पिछले जन्म के स्मरण को। क्योंकि लंबे उपवास से आप इतने हलके हो जाते हैं! और शरीर से आकर्षण बंद है, करीब-करीब टूटा हो जाता है। जैसे जरा-सा इशारा, एक झटका--और आप शरीर से अलग हो सकते हैं। उस क्षण में आपको पिछले जन्मों की स्मृति आनी शुरू हो जाती है; क्योंकि जब यह शरीर नहीं था तब भी आप थे और जब यह शरीर नहीं रहेगा, तब भी आप रहेंगे। जैसे ही यह साफ होता है कि शरीर से मेरा तादात्म्य नहीं है, तब दर्शन होते हैं--'दीया बले अगम का बिन बाती बिन तेल।'
और जिसको भीतर ही यह दीया पहचान में आ गया तो भीतर तो छोटी-सी ज्योति है; सब तरफ उसी की ज्योति जल रही है। वृक्षों में जो हरी आग दिखाई पड़ रही है, वह भी उसी की ज्योति है। फूलों में जो लाल आग दिखाई पड़ रही है, वह भी उसी की ज्योति है। जो पक्षियों में उड़ रहा है, वह भी उसी की ज्योति है।
एक बहुत अदभुत पश्चिम में कवि हुआ, ब्लैक। एक सुबह बैठा था, और आकाश में बगुलों की एक कतार उड़ी। नीले आकाश में सफेद बगुलों की कतार एक तीर की तरह निकल गई। ब्लैक ने उस दिन एक कविता लिखी, और उसमें उसने लिखा कि अगर आंखें शुद्ध हों, मन का दर्पण साफ हो, देखने की क्षमता हो, तो पक्षी दिखाई नहीं पड़ते, सिर्फ ऊर्जा दिखाई पड़ती है। पक्षी का आकार नहीं दिखाई पड़ता, अंदर जलती हुई आग दिखाई पड़ती है--पर आंख साफ हो।
आंख धुंधली हो तो आकार दिखाई पड़ता है। आंख साफ हो तो निराकार दिखाई पड़ता है। और आंख कब साफ होती है, जब तुम्हारी मूर्च्छा कम होती है। जब तुम्हें नींद पकड़ती है तो कुछ साफ दिखाई नहीं पड़ता।
खयाल करो, कभी तुम बैठे हो और जगना पड़ रहा है और नींद आ रही है। तुम खोलने की कोशिश कर रहे हो आंखें, लेकिन आंखें खुलना नहीं चाहतीं, भीतर से बेहोशी छा रही है। तब तुम्हारी देखने की क्षमता कैसे साफ होगी? तब ऐसा भी हो सकता है कि तुम आंख बंद कर लो और सपना देखो कि आंख खुली है। नींद यह भी खेल करती है।
जितने दुनिया में एक्सीडेंट होते हैं, वे रात तीन बजे से पांच बजे के बीच में अधिकतम होते हैं। क्योंकि ड्राइवर को नींद धोखा दे देती है। तीन और पांच के बीच सबसे गहरी नींद का समय है। चौबीस घंटे में आदमी का शरीर का तापमान दो घंटे के लिये, करीब-करीब तीन और पांच के बीच में दो डिग्री कम हो जाता है। जब शरीर का तापमान दो डिग्री कम होता है, वही नींद का समय है। उस वक्त शरीर पूरी मूर्च्छा से भर जाता है। मूर्च्छा इतनी हो जाती है, कि ड्राइवर सोचता है कि आंखें खुली हैं। ऐसा लगता है उसे कि आंखें खुली हैं और आंखें बंद हो जाती हैं। उसी वक्त दुर्घटनाएं हो जाती हैं। जो लोग निद्रा के विज्ञान पर बड़ी खोजें कर रहे हैं, वे कहते हैं कि तीन और पांच के बीच सब ट्रेफिक बंद हो जाना चाहिये, तो दुनिया के आधे एक्सिडेंट कम हो जायें--पचास प्रतिशत। क्योंकि आधा उपद्रव तीन और पांच के बीच हो रहा है।
जब तुम्हारी आंखें नींद से भरी होती हैं, तब तुम देखोगे कैसे? इसलिये सुबह तुम्हें जो दिखाई पड़ता है वह अलग है। सांझ तुम्हें जो दिखाई पड़ता है वह अलग है। सांझ तुम्हें उदास मालूम पड़ती है। सब तरफ, चारों तरफ एक तरह का विषाद दिखाई पड़ता है। सूर्यास्त के साथ जैसे सब धीमा, मंदा हो जाता है। ऐसा हो नहीं रहा है, सिर्फ तुम्हारी आंखें दिन भर की थकी और मंदी हो रही हैं। तुम्हारी आंखों पर धुआं इकट्ठा हो गया है।
सूर्यास्त उतना ही सुंदर है, जितना सूर्योदय। सूर्यास्त उतना ही ताजा है, जितना सूर्योदय। सांझ उतनी ही सुखद, सुंदर और स्वस्थ है, जितनी सुबह। वहां कोई भेद नहीं पड़ रहा है। तुम्हारी आंखें थक गई हैं। और तुम्हारी आंखों की थकान चारों तरफ दिखाई पड़ रही है। तुम्हारी आंखें मंदिम हो गई हैं। तुम ठीक से नहीं देख पा रहे हो।
उपवास के क्षणों में जब बेहोशी कम हो जाती है, और शरीर उन रासायनिक तत्वों को पैदा नहीं करता, जिनसे मूर्च्छा पकड़ती है...भोजन सिर्फ जीवन ही नहीं देता, मूर्च्छा भी देता है। इसलिये ज्यादा भोजन कर लो तो वह शराब का काम कर सकता है। बहुत से लोग भोजन का उपयोग शराब की तरह करते हैं। इतना ज्यादा भोजन करते हैं। और वे पूछते हैं कि क्यों इतना ज्यादा भोजन करते हैं? ज्यादा भोजन शराब का काम देता है। तब बेहोशी अच्छी तरह आ जाती है।
भोजन के साथ बेहोशी क्यों आ जाती है? क्योंकि जैसे ही पेट में भोजन जाता है, मस्तिष्क में जो ऊर्जा साधारणतः काम करती है--जो शक्ति, वह पेट खींच लेता है। क्योंकि पेट को पचाने की जरूरत पड़ती है, तो सारे शरीर से शक्ति को पेट खींच लेता है क्योंकि भोजन को पचाना है, पेट की अग्नि को ठीक से जलना है।
और मस्तिष्क बड़ी सूक्ष्म शक्ति से चलता है। होश सूक्ष्मतम शक्ति है। जैसे ही पेट में भोजन गया कि मस्तिष्क की शक्ति पेट की तरफ उतर जाती है। बस, सिर झपकी खाने लगता है, नींद आने लगती है। वह जो नींद आ रही है, वह इस बात का सबूत है कि जो शक्ति मस्तिष्क को चलने के लिए चाहिए, वह नहीं मिल रही। और पेट शरीर का केंद्र है। मस्तिष्क से शक्ति ली जा सकती है। मस्तिष्क को शक्ति तो पेट तभी देता है, जब उसके पास अतिरिक्त होती है। मस्तिष्क गौण है पेट के लिये। इसलिये ज्यादा भोजन करने वाले लोग बहुत प्रखर बुद्धि के नहीं होते। और एक बड़ी हैरानी की बात है कि ज्यादा भोजन करने वाले लोग न तो प्रखर बुद्धि के होते हैं और न ज्यादा जीते हैं; जल्दी मर जाते हैं।
पश्चिम में एक वैज्ञानिक है, स्किनर। वह चूहों पर प्रयोग कर रहा था। छह चूहों को जरूरत से ज्यादा भोजन, इतना स्वादिष्ट कि उनको करना ही पड़े। आदमी स्वाद से उलझ जाता है तो चूहे...! दूसरा वर्ग था छह चूहों का जिनको सम्यक भोजन; उतना, जितना उनके शरीर के लिए जरूरी है; नियमित कैलॉरी, बंधा हुआ भोजन! और तीसरा हिस्सा था, जिसको जरूरत से आधा भोजन--छह चूहों को; जितनी उनके शरीर की जरूरत हो, उससे आधा। यह जिनको आधा भोजन दिया गया, ये तीन गुने ज्यादा जीये। उनकी उम्र तिगुनी हो गई उनसे, जिनको दोहरा भोजना दिया गया। और जिनको सम्यक आहार मिला, उनसे भी दोगुनी उम्र हो गई। तो स्किनर का कहना है, कि दुनिया में भूख से कम लोग मरते हैं, भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं। भोजन के बिना जीया नहीं जा सकता--यह सच है, लेकिन अगर भोजन ज्यादा हो तो शरीर में इतने विषाक्त द्रव्य पैदा करना शुरू कर देता है, इतनी बेहोशी लाने लगता है, कि वह बेहोशी पायज़नस है, जहर है। आदमी जल्दी मर जाता है।
अगर महावीर का स्वास्थ्य अप्रतिम है तो उसका कारण कहीं न कहीं उपवास में छिपा होगा। और अगर संन्यासी ज्यादा जीते रहे हैं तो उसका उपाय कहीं न कहीं उनके कम भोजन में छिपा होगा।
जैसे ही भोजन कम होता है, होश बढ़ता है। महावीर यही खोज रहे थे कि मेरी होश की ज्योति में कोई अंतर तो नहीं पड़ता, जब मैं भोजन नहीं करता हूं, भूखा होता हूं! और अगर अंतर नहीं पड़ता तो मौत में भी अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मौत सिर्फ शरीर को छीन सकती है, मुझे नहीं।
साधक के जीवन का एक ही लक्ष्य है: इस बात को खोज लेना कि मेरे भीतर दो हैं। एक जो सकारण है, वही संसार है। और एक जो अकारण है, वही परमात्मा है। सकारण का अर्थ होता है कि कारण हट जायें तो वह मिट जायेगा। अकारण का अर्थ होता है, कुछ भी हो, कोई भेद न पड़ेगा।
नास्तिक और आस्तिक में इसी सकारण और अकारण का उपद्रव है। चार्वाक और उनके धाराओं को मानने वाले नास्तिकों का कहना है कि आदमी भी वस्तुओं का एक जोड़ है। वस्तुओं को अलग कर लो, आदमी समाप्त हो जायेगा--एक संघात है। जैसे आप पान खाते हैं, तो मुंह लाल हो जाता है। वह लाली पान में जो तीन, चार, पांच चीजें मिलकर पान बना है, उनसे आती है। एक-एक चीज को अलग कर लें, वह लाली खो जायेगी; वह अलग नहीं है। चार्वाक कहते हैं कि आदमी की जो चेतना है, वह भी बस पान की लाली की तरह है। उसके शरीर के तत्वों को अलग कर लो, वह चेतना भी खो जायेगी। यही माक्र्स भी कहता है, 'कॉन्शियसनेस इज़बायप्राडक्ट'--कि चेतना जो है, वह पदार्थ की उपपत्ति है। शरीर से पदार्थ अलग कर लो, आत्मा नहीं पाई जायेगी।
महावीर उपवास करके यही कोशिश कर रहे हैं जीते जी, कि शरीर से सारे तत्व अलग कर लिये जायें, सारा भोजन-ईंधन अलग कर लिया जाये, और देखा जाये कि इससे मुझमें कोई कमी पड़ती है या नहीं? अगर रत्ती भर भी इससे कमी नहीं पड़ती और शरीर तीन महीने से भूखा है, सब ईंधन करीब-करीब चुक गया है; और शरीर की ज्योति इतनी मंदी जल रही है, कि कोई भी हवा का झोंका--और शरीर बुझ जायेगा, और मेरी चेतना में फर्क ही नहीं पड़ा बल्कि मेरी चेतना और प्रगाढ़ होकर जल रही है तो निश्चित ही यह चेतना शरीर के जोड़ से पैदा नहीं हुई; अकारण है!
अकारण चेतना का अनुभव परमात्मा का अनुभव है।
भीतर इसका अनुभव हो तो बाहर भी इसका अनुभव होगा। और एक बार व्यक्ति इसकी प्रतीति को पा ले, इसे पहचान ले, यह उसे दिखाई पड़ जाये, तो इसी प्रतीति का विस्तार सब तरफ दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। फिर तुम नहीं हो, तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वही दिखाई पड़ता है। देखने का गेस्टाल्ट बदल जाता है।
मैं तुम्हें देख रहा हूं, तुम्हें दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो तुम्हारा रूप है, एक आकृति है: तुम्हारा चेहरा है, नाक है, आंख, कान, शरीर, वजन है, ऊंचाई है, दुबले हो, मोटे हो--एक तुम्हारा रूप है। पर रूप तुम्हारी परिधि है। वह परिधि तुम नहीं हो। रूप तुम्हारी खोल है, वह तुम्हारा वस्त्र है, तुम्हारा घर है, वह घर-मालिक नहीं है। तुम्हारे वस्त्र तुम नहीं हो।
एक तो देखने का ढंग है: तुम्हारे रूप को देखना, आकृति को देखना; वही आमतौर से हमारा देखने का उपाय है। वह रहेगा, क्योंकि जिसने अपने भीतर अरूप को नहीं पहचाना, वह कैसे दूसरे के भीतर अरूप को देख सकेगा? अगर मुझे लगता है कि मैं शरीर हूं तो मैं तुम्हारे शरीर को ही देख सकता हूं। मेरी आंख उतनी ही गहरी जायेगी तुममें, जितनी मेरे भीतर गहरी गई है।
लेकिन अगर मैंने अपने भीतर उस ज्योति को देख लिया, जो अगम की है, अगोचर की है, अदृश्य की है...बस, तुम्हारा रूप सिर्फ एक खोल रह जाता है। फिर तुम पारदर्शी हो जाते हो, फिर मैं तुम्हें सीधा देख पाता हूं। फिर रूप तुम्हें घेरे है लेकिन वह तुम नहीं हो। तुमने वस्त्र पहने हैं शरीर के, लेकिन वह तुम नहीं हो। तब चारों तरफ ज्योति जलती दिखाई पड़ने लगती है।
एक युवक बुद्ध के पास गया और उसने कहा कि मुझे मौत से बड़ा डर लगता है। मैं कंपता हूं, सो नहीं सकता। पता नहीं रात सोऊं, सुबह उठ न सकूं। कोई मर जाता है, तो मैं घर से कई दिन तक निकल नहीं पाता। हाथ-पैर कंपते हैं। बीमार हो जाता हूं, तो बस लगता है, मौत आ गई। अब बच ना सकूंगा। कुछ रास्ता बतायें।
बुद्ध ने कहा, कोई भी रास्ता तुझे बताया जाये, वह गलत होगा। क्योंकि रास्ता बताने का अर्थ होगा कि मैंने स्वीकार कर लिया कि तेरी यह प्रतीति सही है। रास्ता कोई भी नहीं है। तुझे खुद की पहचान करनी पड़ेगी। इस भय से बचने का कोई उपाय नहीं है। यह भय तो केवल संकेत है, कि तू अब तक अपने को पहचान नहीं पाया। तू जिस दिन अपने को पहचान लेगा उसी दिन भय विदा हो जायेगा।
और दो ही तरह के शिक्षण हैं जगत में। एक तो शिक्षण है, जो तुम्हें, तुम जो हो वैसा ही रहने देता है, और सांत्वना के उपाय कर देता है।
एक औरत एक रास्ते से गुजर रही है। अपने कंधे पर एक उसने पेटी ले रखी, पेटी में ऊपर बहुत से छेद हैं। राह चलते एक राहगीर ने उससे पूछा कि यह क्या है? कुछ पेटी अनूठी-सी है और ऊपर छेद हैं। तो उस स्त्री ने कहा कि इसमें एक बिल्ली है। तो राहगीर थोड़ा और जिज्ञासु हुआ कि इस बिल्ली को किसलिये सिर पर ढो रही हो? तो उस स्त्री ने कहा कि रात मुझे सपने आते हैं और सपनों में मुझे चूहे दिखाई पड़ते हैं। चूहों से मुझे बहुत डर लगता है। तो मेरे मनोविश्लेषक ने कहा है कि बिल्ली को पास रखना अच्छा रहेगा; इससे भय कम होगा। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि सपने के चूहे तो काल्पनिक हैं।
वह स्त्री झुकी और उस आदमी के कान में बोली, इसी तरह यह बिल्ली भी काल्पनिक है, डिब्बे में कुछ है नहीं!
काल्पनिक चूहे पकड़ने हों तो असली बिल्ली काम की है भी नहीं। असली बिल्ली कैसे झूठे चूहे पकड़ेगी! उनका मेल ही न होगा। काल्पनिक चूहे पकड़ने हों तो काल्पनिक बिल्ली चाहिये।
तुम्हारा मौत का भय झूठा है। फिर जो गुरु तुम्हें मंत्र देता है कि इसको याद रखो, इससे मौत का भय कम हो जायेगा; वह इससे भी ज्यादा झूठा है। वह काल्पनिक बिल्ली है, काल्पनिक चूहों को पकड़ने के काम आती है।
तो जो गुरु तुम्हें ताबीज देता है कि यह बांध लो, इससे तुम्हारा भय कम हो जायेगा...तुम वैसे ही एक झूठ से पीड़ित थे, उसने तुम्हें एक और झूठ पकड़ाया। इससे अस्थायी सहायता मिल भी सकती है, लेकिन कोई बुनियादी अंतर नहीं पड़ता। तुम, तुम ही रहते हो। पहले तुम एक झूठ से परेशान थे, अब दूसरे झूठ से परेशान हो। पहले डरते थे कि मौत न आ जाये! अब डरते हो कि कहीं ताबीज गंदा न हो जाये, कहीं ताबीज गिर न जाये, कहीं ताबीज भूल न जाये; क्योंकि ताबीज गया कि तुम गये। एक झूठ से दूसरा, दूसरे से तीसरा...झूठों की शृंखला पैदा हो जाती है।
एक तो शिक्षण ऐसा है, जिसको शिक्षण कहना उचित नहीं, जो तुम्हें सांत्वना देता है। और एक शिक्षण ऐसा है, जो तुम्हें सांत्वना नहीं देता, सत्य देता है। लेकिन सत्य को पाना दुर्भर है, दूभर है। सत्य का मार्ग कठिन है। क्योंकि तुम्हें बहुत कुछ अपने भीतर काटना पड़े, बहुत कुछ अपने भीतर तोड़ना पड़े, छेनी लेकर अपने ऊपर काम करना पड़े। क्योंकि तुम इतने जुड़ गये हो जन्मों-जन्मों की धारणा के कारण, कि मैं शरीर हूं, कि इसे तोड़ने में पीड़ा होगी। तुम दीये से जुड़ गये हो, बाती से जुड़ गये हो, तेल से जुड़ गये हो। और इस दीये के साथ जोड़ ऐसा गहरा हो गया है कि तुम्हें याद भी नहीं आता कि तुम दीये से अलग भी हो सकते हो।
तब सब सिद्धांत हैं। तब तुम कितने ही सिद्धांत पकड़ो, शास्त्र पढ़ो, यह सूत्र बंद रहेगा; इसका ताला न खुलेगा। कुछ करना पड़े। और जरूरत नहीं है कि तुम महावीर की तरह जंगल जाओ, बारह वर्ष उपवास करो तब पहचान आए। दुख बुलाने की जरूरत नहीं, दुख वैसे ही काफी है। महावीर को जरूरत पड़ी होगी। वे राजपुत्र थे, सुख में रहे थे। दुख उन्होंने जाना नहीं था इसलिये तपश्चर्या करनी पड़ी। तुमने सुख जाना ही नहीं, तुम तपश्चर्या कर ही रहे हो; सिर्फ उसका उपयोग तुम्हें पता नहीं।
मैंने सुना है कि एक ईसाई पादरी नये पादरियों को समझा रहा था कि जब वे लोगों को समझायें तो किस तरह व्याख्यान दें, किस तरह समझायें। उसने कहा कि मुद्राओं का बड़ा उपयोग है। तुम जो कहो वह भाव तुम्हारे चेहरे, हाथ, गेस्चर, मुद्रा, सब में आना चाहिये। जैसे जब तुम स्वर्ग के संबंध में समझाओ, तुम्हारे चेहरे पर तेज आ जाना चाहिये, आंखें चमक उठनी चाहिये, पूरे शरीर में जैसे बिजली खुशी की दौड़ गई। तुम्हारी लंबाई एकदम बढ़ जानी चाहिये। जैसे तुम आनंद-विभोर हो गये। जब तुम स्वर्ग की बात करो, तो तुम्हें आनंद-विभोर, चेहरे की चमक, तेजी, आवाज में बल, शक्ति यह सब प्रगट होनी चाहिये। और जब तुम नर्क की बात करो तो तुम्हारा साधारण चेहरे से काम चल जायेगा। जब तुम नर्क की बात करो तो तुम्हारे साधारण चेहरे से काम चल जायेगा, कुछ करने की जरूरत नहीं। क्योंकि चेहरा नारकीय बना ही हुआ है! कोई मुद्रा, कोई भाव प्रगट करने की जरूरत नहीं है। तुम काफी हो, जैसे हो।
वही मैं तुमसे कहता हूं। महावीर को जरूरत पड़ी होगी जंगल जाने की और उपवास करने की और पीड़ा खड़ी करने की। तुम जैसे हो, काफी तपश्चर्या में हो। तुम बहुत दुख वैसे ही झेल रहे हो। इन्हीं दुखों का उपयोग कर लो, उनको सीढ़ियां बना लो। जब बीमार पड़ो तो बीमारी पर ज्यादा ध्यान मत दो, चेतना पर ज्यादा ध्यान दो।
आंख बंद करके बिस्तर पर पड़े हो, इस बात को देखने की कोशिश करो कि शरीर बीमार पड़ा है। बीमारी तुम्हें भी छूती है या नहीं! तुम बीमार हो या नहीं? पैर में कांटा चुभा है, पैर में तकलीफ हो रही है, कांटा तुममें भी चुभा है या नहीं, या तुम सिर्फ देख रहे हो? तुम सिर्फ जानने वाले हो, या अनुभोक्ता हो? पैर टूट गया है, हड्डी टूट गई है, फ्रेक्चर हुआ है, पट्टियां बंधी हैं, तुम पड़े हो, पीड़ा हो रही है, उस पीड़ा को गौर से देखो और खोजने की कोशिश करो कि हड्डी का टूटना तुम्हारा टूटना है? या तुम अब भी साबित हो? फ्रेक्चर हुआ है, हाथ-पैर बंधे पड़े हैं, तुम बंध गए हो या तुम अब भी मुक्त हो?
हथकड़ियों के बीच भी चेतना सदा मुक्त है। कारागृह के भीतर भी चेतना कभी कारागृह में नहीं है।
यूनान का एक फकीर डायोजिनिस एक बार पकड़ लिया गया था। कुछ दुष्टों ने पकड़ लिया और उसे बेचना चाहते थे गुलाम की तरह। जब उन्होंने पकड़ा, तो वे बड़े हैरान हुए क्योंकि डायोजिनिस बड़ा मस्त फकीर था--सबल, शक्तिशाली। वे बहुत डरे हुए थे क्योंकि चार के लिए वह अकेला काफी था। नंग-धड़ंग वह जंगल में घूम रहा था। जब उन चार ने बड़ी हिम्मत की सोच-विचारकर, कि चार की भी फजीहत कर सकता है अकेला। बड़ी हिम्मत से, बड़ी ताकत से उस पर हमला किया तो वे बड़े हैरान हुए। वह बिलकुल शांत खड़ा हो गया उनके बीच में और उसने अपने को पकड़ा दिया। वे चकित भी हुए। वह हमला करता तो इतने चकित न होते। जरा भी उसने अड़चन न दी। और जब वे हथकड़ियां पहना रहे थे तो उसने हाथ कर दिये, जब वह बेड़ियां डाल रहे थे तो उसने पैर आगे बढ़ा दिये। उनमें से एक ने पूछा कि तुम कुछ जरा अजीब हो, दिमाग तुम्हारा ठीक है? हम तुम्हें गुलाम बना रहे हैं। डायोजिनिस ने कहा कि तुम, और मुझे अगर गुलाम बना सकते तो मैं लड़ता। तुम मुझे गुलाम न बना सकोगे क्योंकि आत्मा किसी भी स्थिति में गुलाम नहीं बनाई जा सकती। जिस हाथ में तुम हथकड़ियां डाल रहे हो वह मैं नहीं हूं। इसीलिये तो हाथ बढ़ा सका क्योंकि अगर वह मैं होता तो हाथ छुड़ाता। और जिस शरीर को तुमने घेर रखा है, वह मैं नहीं हूं इसीलिये तो मैं चुपचाप खड़ा हो गया कि नाहक उपद्रव क्यों खड़ा करना। तुम भूल में हो सकते हो, मैं भूल में नहीं हूं।
उन लोगों को कुछ समझ में तो आया नहीं, लेकिन अजीब आदमी और रहस्यपूर्ण मालूम पड़ा। जब वह चलने लगा तो वह शानदार आदमी था, वे चारों उसकी तरफ घसिट रहे थे, जैसे गुलाम हों और मालिक वह हो। और जब वे बाजार में गये, जहां वह उसको बेचना चाहते थे, तो लोग उससे पूछते थे कि बात क्या है? क्या इन गुलामों को बेचना है? और बाजार में जहां आदमी बिकते थे...जो आदमी नीलाम करने को टिकटी पर खड़ा हुआ, डायोजिनिस ने कहा, तू नीचे उतर। तू वैसे ही मरी हुई हालत में है, तेरी आवाज कौन सुनेगा? हम आवाज देते हैं।
तो डायोजिनिस टिकटी पर खड़ा हो गया और उसने कहा कि है कोई गुलाम! एक मालिक बिकने आया है। कोई गुलाम खरीदना चाहता हो एक मालिक को, तो मालिक बिकाऊ है। वह मालिक जैसा लग रहा था। वह मालिक था।
आत्मा को गुलाम बनाने का कोई उपाय नहीं। पर आत्मा से पहचान होनी चाहिये।
जब बीमार पड़ो तो खोजो कि तुम्हारे भीतर कोई है, जो बीमार नहीं पड़ा! उसकी जरा-सी भी तुम्हें संध मिल गई तो तुम्हारे जीवन में सुख का पारावार न रहेगा। जब तुम दुख में हो तो खोजो कि कोई है तुम्हारे भीतर, जो दुख से अस्पर्शित रह गया है! उसकी जरा सी भी प्रतीति स्वर्ग की हवाओं को तुम्हारे भीतर भर देगी। जब तुम हारे हुए पड़े हो और कोई तुम्हारी छाती पर बैठा है, तब आंख बंद करके देखो कि क्या कोई उपाय है कि तुम्हारी छाती पर कोई बैठ सके? यह छाती तुम्हारी छाती है? तुम हो? और एक गहन हंसी तुम्हें घेर लेगी। जीवन एक व्यंग्य मालूम पड़ेगा, क्योंकि जो बंध नहीं सकता, वह बंधा हुआ मालूम पड़ रहा है। जिसके दुख में होने का कोई मार्ग नहीं वह दुख में पड़ा है। जो सम्राटों का सम्राट है, वह सड़क पर भीख मांग रहा है।
जिस दिन तुम अपने दुख में इस अस्पर्शित को खोज लोगे, उसी दिन तुम्हें समझ में आ जायेगा कि एक दीया ऐसा भी है, जो बिना तेल और बिना बाती के जल रहा है। वही दीया खोजने जैसा है; वही ज्योति पाने जैसी है। और तब सब तरफ उसी ज्योति के दर्शन होंगे। तब सब तरफ उसी ज्योति का मंदिर दिखाई पड़ेगा। तब पूरा अस्तित्व एक विराट ऊर्जा हो जाती है--अंतहीन, प्रारंभहीन! न कोई प्रयोजन है इसका। यह कोई व्यवसाय नहीं।
इसलिये हिंदू एक बड़ी मधुर बात कहते रहे हैं। हिंदू कहते हैं यह परम लीला है, यह विराट का आनंद है। यह ऊर्जा इतनी अतिशय है कि पारावर नहीं है; इसलिये बही जाती है--निष्प्रयोजन!
पूछो नदी से, किसलिये बह रही हो? और जब वर्षा आती है और नदी भर जाती है...और इतनी भर जाती है तो सब बांध तोड़ देती है। सब किनारे तोड़ देती है। सब किनारे तोड़कर उसका पारावार नहीं रहता।
पूछो एक बच्चे से, किसलिये कूद रहा है, नाच रहा है? ऊर्जा मुक्त होना चाहती है। पूछो वृक्षों से कि किसलिये ऊग रहा है? किसलिये इतने हरे हो? क्या है खुशी फूलों की?
कोई कारण नहीं है। अकारण का नाम लीला है।
यह काम नहीं है परमात्मा का, जैसा कि ईसाई, यहूदी और मुसलमान सोचते हैं। क्योंकि काम होता तो परमात्मा अब तक थक गया होता। थक ही जाना चाहिये था; काम से कोई भी थक जाता है। अगर यह काम होता तुमको पैदा करना, और तुमको मारना, और बीमार करना और स्वस्थ करना, पापों का हिसाब रखना और पुण्यों का खाता रखना, और फिर सबको संभालना--इतना बड़ा उपद्रव! कभी का पागल हो गया होता परमात्मा, अगर यह काम होता। अगर यह काम होता तो उसने भी अब तक दुकान बंद कर देने की सोची होती। कभी का उसने संन्यास ले लिया होता, गृहस्थी छोड़ दी होती।
तुम तक उत्सुक हो जाते हो संन्यास लेने को और गृहस्थी छोड़ने को। एक छोटा-सा घर, एक छोटा-सा काम-धंधा, एक छोटी-सी दुकान, तुम्हें ऐसा बेचैन कर देती है कि तुम मरना पसंद करोगे लेकिन उस काम-धंधे में नहीं रहना चाहते। थोड़ा सोचो, इस विराट को अगर काम की तरह चलाना हो, तो परमात्मा कभी का संन्यस्त हो जाता। और अगर परमात्मा उदास हो जाये तो फिर तुम्हारे आनंदित होने का उपाय क्या है? और अगर परमात्मा संन्यास ले ले तो जगत तत्क्षण खो जायेगा।
तुम्हारा संन्यास लेना और संसार को छोड़ देना सिर्फ तुम्हारे घर को ही चोट पहुंचाता है। अगर परम ऊर्जा विश्राम कर ले, थक जाये, ऊब जाये, दुखी हो जाये, तो संसार तत्क्षण विलुप्त हो जायेगा। क्योंकि यह ऊर्जा उसमें बहती रहे तो ही वृक्ष खिलेंगे, तो ही बच्चे नाचेंगे; तो ही आकाश में बादल चलेंगे, नदियां बहेंगी, पहाड़ उठेंगे। यह ऊर्जा उदास हो जाये, सिकुड़ जाये, संकोच को हो जाये उपलब्ध, तो विस्तार खो जायेगा। सब सिकुड़कर बंद हो जायेगा।
हिंदुओं की धारणा अनूठी है; उन जैसी धारणा जगत में किसी की नहीं। हिंदू कहते हैं, यह लीला है। यह खेल है। खेल से कभी कोई थकता नहीं। खेल का मतलब यही है, जिसमें कोई प्रयोजन नहीं; जिसमें फल का कोई सवाल नहीं। खेल का मतलब ही है कि अभी और यहीं शक्ति की अभिव्यक्ति में ही रस है; परिणाम में कोई रस नहीं।
तुम हो, यह परमात्मा का आनंद है। तुम कैसे हो, यह सवाल नहीं है। साधु को देखकर ज्यादा आनंदित हो अगर परमात्मा, और असाधु को देखकर कम, तो वह दुकान चला रहा है। तो फिर वह भी तुम्हारे जैसा है। जो बेटा कमा कर लाता है, उससे तुम खुश हो और जो बेटा गवां आता है, उससे तुम नाखुश हो। तब फिर वह भी धंधेबाज है और उसके दिमाग में भी गणित है।
ना, परमात्मा असाधु में भी उतना ही प्रसन्न है, साधु में भी उतना ही प्रसन्न है। खेल तटस्थ है। खेल का मतलब ही यह है कि जो रावण का पार्ट कर रहा है नाटक में, परमात्मा उससे उतना ही प्रसन्न है, जितना राम से। और जब खेल का अंत होगा तो राम और रावण में भेद न रह जायेगा।
इस धारणा को समझना बड़ा कठिन है, क्योंकि हमारा मन कहता है साधु-असाधु में भेद होना चाहिये। बुरे-भले में भेद होना चाहिये। एक चोरी कर रहा था, एक दिन-रात प्रार्थना कर रहा था, इनमें फर्क होना चाहिये। जो प्रार्थना कर रहा था उसको पुरस्कार मिलना चाहिये, जो चोरी कर रहा था उसको दंड मिलना चाहिये। हमारे इसी मन के कारण हमने नर्क और स्वर्ग निर्मित किये हैं। वे हमारी धारणाएं हैं। वह व्यवसायी चित्त का विस्तार है। वह दुकानदार की बुद्धि है। अगर परमात्मा है तो नर्क नहीं हो सकता। अगर परमात्मा है तो सभी कुछ स्वर्ग है। अगर परमात्मा है तो सभी कुछ खेल है।
कृष्ण अर्जुन को यही समझाने की कोशिश करते हैं, अर्जुन की समझ में नहीं आता। वह हिसाब-किताब लगाता है। वह कहता है, इतने लोगों को मारूंगा तो कितना पाप लगेगा? इतने लोगों को मारकर जो धन राज्य मिलेगा, वह इस योग्य भी है या नहीं? कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, तू हिसाब मत लगा; तू परिणाम की चिंता मत कर। तू निमित्त है। एक खेल है, तू उसे खेल ले। और खेलते समय तू इतना ही स्मरण रख कि परमात्मा तुझसे खेल रहा है। तू बांसुरी से ज्यादा नहीं है। गीत उसका है, गानेवाला वह है।
यह अहंकार मानने को राजी नहीं होता कि मैं बांस की पोंगरी हूं। अहंकार सोचता है कि गीत भी मेरा है। अहंकार सोचता है, यह जो मधुर स्वर पैदा हो रहे हैं ये मेरे हैं। और जब तक अहंकार ऐसा सोचता है, तब तक आप उसको ही जान पायेंगे, जिसका कारण है। वही ज्योति आपको दिखाई पड़ेगी, जो तेल से जलती है।
अहंकार तेल से जलनेवाला दीया है; आत्मा, बिन बाती बिन तेल।
पर एक क्रांति चाहिए दृष्टिकोण में। काम न रह जाये अस्तित्व; अस्तित्व सिर्फ एक उत्सव हो।
होली पर आप एक दूसरे पर पानी फेंक रहे हैं, रंग फेंक रहे हैं, गुलाल डाल रहे हैं। कोई अगर पूछे कि क्या कर रहे हो? इसका क्या फायदा है? तुम गुलाल डालोगे फिर इस आदमी को जाकर घंटा भर स्नान करने में खराब करना पड़ेगा। लेकिन जिस पर तुम गुलाल डाल रहे हो, वह भी आनंदित हो रहा है, वह भी प्रसन्न है; ऐसा प्रसन्न वह कभी भी न था। और काम बिलकुल व्यर्थ है। छोटे बच्चों पर अगर कोई होली पर रंग नहीं डालता तो गली में इधर-उधर जाकर वह खुद पर डालकर बाहर आ जायेंगे। क्योंकि यह मानना उनको अच्छा नहीं लगता कि किसी ने भी इस योग्य नहीं समझा कि थोड़ा रंग डाले।
पर होली क्या है? सिर्फ एक उत्सव है। और हमारे बाकी दिन तो इतने दुख से भरे हैं कि कभी होली, कभी दीवाली हमें बनानी पड़ी। लेकिन परमात्मा के लिए अस्तित्व सदा होली और दीवाली है। वहां सदा दीये जल रहे हैं, जो कभी बुझते नहीं। और वहां सदा रंग फेंका जा रहा है। कोई उन्हें फूल कहता है, कोई उन्हें इंद्रधनुष कहता है। वहां सदा रंग फेंका जा रहा है। स्रोत कभी चुकता नहीं।
यह विराट अगर तुम्हें लीला जैसा दिखाई पड़े तो फिर तुम चिंता न करोगे कि इसका कारण क्या है? यह कब हुआ? कब मिटेगा? ना, यह उत्सव चलता रहेगा। उत्सव में भाग लेनेवाले बदलते जायेंगे क्योंकि वे थक जाते हैं। वे भी थक जाते हैं इसलिये, कि इसको काम समझते हैं। अन्यथा यह नृत्य जारी है। इसमें रूप बदलते रहेंगे, लहरें बदलती रहेंगी। सागर अपना तुमुलनाद करता रहेगा।
पर पहले पहचानना भीतर, पहले भेद खड़ा करना भीतर, तभी तुम्हें बाहर यह भेद दिखाई पड़ सकेगा।
यहां एक बात समझ लेनी जरूरी है, जो कि ऊपर से देखने पर विरोधाभासी मालूम पड़ती है। महावीर अपनी पूरी चिंतना को भेद-विज्ञान कहते हैं। शंकर और दूसरे वेदांती, अभेद की बात करते हैं और महावीर भेद की बात करते हैं। महावीर कहते हैं, तुम्हें साफ-साफ भेद कर लेना चाहिए। तुम्हारे भीतर जो मिटनेवाला है मर्त्य, और जो अमृत है, उन दोनों को बिलकुल अगल कर लो, भेद कर लो। सार-असार को छांटकर अलग कर लो क्योंकि जरा भी इसमें तुम भ्रांति में रहे, तो तुम भटकते रहोगे। जिस दिन तुम साफ-साफ अलग कर लोगे; भूसा अलग, गेहूं अलग, सार अलग, असार अलग--बस उसी दिन तुम मुक्त हो जाओगे।
महावीर का सारा जोर भेद पर है, शंकर का सारा जोर अभेद पर है। शंकर कहते हैं जब तक तुम भेद करते रहोगे कि तुम अलग और यह संसार अलग, अस्तित्व अलग और तुम अलग, तब तक तुम भटकोगे। जिस दिन तुम जान लोगे कि तुम, यह और वह दोनों एक हो: 'तत्त्वमसि'; उसी दिन तुम मुक्त हो जाओगे।
पर मैं तुमसे कहता हूं ये दोनों शब्द अलग, रास्ते जरा अलग से दिखाई पड़ते हैं, पर बिलकुल एक हैं। और साधक के लिए महावीर का रास्ता ज्यादा सुगम है बजाय शंकर के क्योंकि महावीर शुरू से शुरू करते हैं और शंकर अंत से शुरू करते हैं। शंकर वहां से चर्चा शुरू करते हैं, जहां मंजिल पर पहुंचा हुआ आदमी करे। महावीर वहां से बात शुरू करते हैं, जहां से बाजार में बैठा हुआ आदमी समझे। महावीर साधक को देखकर बोल रहे हैं, शंकर सिद्ध को देखकर बोल रहे हैं। तुम सिद्ध नहीं हो। इसलिये शंकर के वेदांत का दुष्परिणाम हुआ भारत पर। कई नासमझ, जो अभी साधक भी नहीं, सिद्धों की तरह बात करने लगे।
विवेकानंद ने लिखा है कि एक गांव में एक संन्यासी था, नाम था भोलेबाबा। गांव में प्लेग पड़े तो वह कहे कौन मरता? कौन जीता? आत्मा अमर है। सामने कोई किसी गरीब, निर्धन को पीट रहा हो तो वह रास्ते से निकल जाता। वह कहता कि सब ब्रह्म है--मारनेवाला भी, पीटनेवाला भी। लेकिन अगर कोई भोलेबाबा को भीख न दे तो वह शाप दे देता; कि सड़ोगे, जन्मों-जन्मों तक सड़ोगे। तब उसका ब्रह्मज्ञान खो जाता।
वेदांत ने कई लोगों को भ्रांति दी है क्योंकि सिद्ध की भाषा खतरनाक है। सिद्ध की भाषा का अर्थ है, वह परम अभिव्यक्ति है सत्य की। और तुम्हें सत्य की पहली किरण का भी पता नहीं। वह परम अभिव्यक्ति तुम्हारे मस्तिष्क में बैठ जाये, तुम उसे दोहराने लगो तो खतरा है। तुम चलोगे नहीं, तुम यात्रा ही नहीं करोगे, मंजिल मिली ही नहीं तुम्हें कभी, और तुम भाषा सिद्ध की बोलने लगे हो। इसलिये शंकर की बात का दुष्परिणाम हुआ फायदे की जगह। हिंदुस्तान में हजारों संन्यासी हो गए; जो पहला कदम भी नहीं चले, जिन्होंने क, , , भी पूरा नहीं किया है और बात वे ब्रह्म की करने लगे।
विवेकानंद बहुत नाखुश थे। इस वजह से बहुत नाखुश थे कि इसकी वजह से हिंदुस्तान की पूरी-पूरी गरिमा खो गई। नासमझ समझदारी की बातें करें, इससे ज्यादा नुकसानदायक और कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि रहते वे नासमझ ही हैं। जब प्लेग पड़े तब वे कहते हैं ब्रह्मज्ञान। जब कोई दूसरा पिट रहा हो, तब वे कहते हैं, मारनेवाला भी वही, पीटनेवाला भी वही। लेकिन उन पर तुम चोट करो, तब उनका ज्ञान खो जाता है, तब वे मारने को तैयार हो जाते हैं। वही कसौटी है। वही पहचान है।
महावीर साधक की भाषा बोलते हैं। महावीर कहते हैं, पहले अपने भीतर मर्त्य को और अमृत को अलग कर लो। इतना अलग कर लो कि रत्ती भर भी सेतु न रह जाये दोनों के बीच। जिस दिन यह घटना घटेगी, महावीर कहते हैं, तुम मुक्त हो गये। उसी दिन तुम जानोगे कि सब एक है। वह जिसे हमने मर्त्य कहा था, वह भी अमृत का ही हिस्सा है। वह भी मिटता नहीं। लेकिन यह तुम उसी दिन जानोगे, जिस दिन तुम भीतर अलग कर लोगे।
इसे थोड़ा समझो। तुम्हारी आत्मा भी नहीं मिटेगी, तुम्हारा शरीर मिटेगा क्या? आकृति मिट जायेगी शरीर की। ऐसा शरीर न होगा, लेकिन रहेगा; इसके पांचों तत्व रहेंगे। पानी में पानी गिर जायेगा, आकाश में आकाश खो जायेगा, मिट्टी मिट्टी से मिल जायेगी, आग आग के साथ एक हो जायेगी, वायु वायु में गिर जायेगी। मिटेगा क्या? तुम्हारा शरीर अगर पांच का जोड़ है तो जोड़ टूटेगा, पांचों रहेंगे। तुम भी मिटोगे नहीं, शरीर भी मिटेगा नहीं। कुछ भी मिटता नहीं है, सिर्फ संयोग टूटते हैं। फिर-फिर संयोग बनते रहेंगे, फिर-फिर शरीर उठता रहेगा, मिटता रहेगा, खोता रहेगा।
पर महावीर कहते हैं, यह बात समझ में आएगी, जिस दिन तुम भीतर भेद साफ कर लोगे। अकारण दीये को जान लोगे और सकारण दीये को जान लोगे, उसी दिन भेद भी विलीन हो जायेगा। उसी दिन तुम जानोगे, तुम भी नहीं मिटते, चेतना भी नहीं मिटती, शरीर भी नहीं मिटता। सिर्फ चेतना और शरीर का संबंध मिटता है, सिर्फ संबंध विनाशी है। और इसलिये संन्यास का नाम है, संबंध के पार उठ जाना।
सिर्फ संबंध विनाशी है। न तुम्हारी पत्नी में संसार है, न तुममें संसार है। तुम पत्नी से संबंधित हो, वह जो संबंध की धारणा है, उसमें संसार है। न धन में संसार है, न तुममें संसार है, लेकिन तुम तिजोड़ी पकड़कर बैठे हो। धन और तुम्हारे बीच जो संबंध है, उसमें संसार है।
संबंध का नाम संसार है, इसलिये असंग संन्यास है।
इसका यह मतलब नहीं कि वह पत्नी को छोड़कर भाग जाये। जिससे कोई संबंध ही नहीं उसे छोड़कर भी क्या भागना? संबंध हो तो छोड़कर भागना, एक नया संबंध निर्मित होता है। धन को त्यागने का भी कोई सवाल नहीं क्योंकि जिसको तुमने कभी भोगा नहीं, उसको तुम त्यागोगे कैसे? जिससे तुम कभी जुड़े ही नहीं थे, उससे तुम टूटोगे कैसे? इसलिये सवाल भागने का नहीं, सवाल जागने का है, जानने का है। संबंध गिर जाये। तुम्हारा कोई संबंध न रह जाये, किसी भांति का संबंध न रह जाये। तत्क्षण तुम मुक्त हो।
इस असंग अवस्था को महावीर कहते हैं: 'केवल'--अकेली चेतना की अवस्था, जहां कोई संबंध नहीं।
संबंध माया है। असंगता ब्रह्म है।
पर एक-एक कदम चलना जरूरी है। सीधी मंजिल को पकड़ लेने का कोई उपाय नहीं है। और एक-एक कदम का अर्थ है, भीतर से शुरू करो; सिद्धांत से नहीं, अनुभव से। शरीर और स्वयं को अलग करो। पहला संबंध वहां तोड़ो। फिर और संबंध उसी संबंध पर खड़े हैं। जैसे तुमने आधारशिला अलग कर ली, और पूरा भवन गिर जाये।
जिस दिन तुम भीतर स्वयं के और शरीर के संबंध को अलग कर लोगे, उसी दिन तुम्हारे सारे संसार का महल भूमिसात हो जायेगा।
अगर वह आधारशिला बची रही, तो तुम कहीं भी जाओ, तुम नये संबंध निर्मित करोगे। क्योंकि बीज तुम्हारे साथ है, नये अंकुर आ जायेंगे। आश्रम में जाओगे, वह आश्रम तुम्हारा हो जायेगा। बच्चों को छोड़ दोगे, शिष्य बन जायेंगे, वे शिष्य तुम्हारे हो जायेंगे। बेटा मरता तो जैसा दुख होता है वैसा ही शिष्य के मरने से दुख होगा। घरों में ही माताजी नहीं हैं, आश्रम में माताजी खड़ी हो जायेंगी। तुम जहां भी जाओगे, अगर बीज-संबंध तुम्हारे भीतर है, तो अंकुर खड़े होंगे।
बीज-संबंध को तोड़ दो। भीतर खोजो उस ज्योति को, जो जलती है बिना दीये बिना बाती के। उसकी झलक को पकड़ो और धीरे-धीरे उसमें लीन होते जाओ।
आत्मा को जाने बिना परमात्मा को जानने की कोई व्यवस्था नहीं।
स्वयं को पहचाने बिना सत्य से कोई पहचान न कभी हुई है, न हो सकती है। और जो उस पहली पहचान को उपलब्ध हो जाता है, अंतिम बहुत दूर नहीं है। इस यात्रा में पहला कदम अंतिम कदम बन जाता है।
कृष्णमूर्ति की एक किताब है, 'द फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम', 'पहली और अंतिम मुक्ति।' यहां पहला अंतिम बन जाता है। लेकिन जो पहले को चूक गया, और अंतिम को कंठस्थ कर लिया, वह भटक जाता है।
ज्ञान से थोड़ा बचना। अज्ञान इतना खतरनाक नहीं है। अज्ञान तो निर्दोष है। ज्ञान चालाक है। अज्ञान जिस दिन नहीं रहेगा, उस दिन जो ज्ञान तुम्हारे भीतर प्रगट होगा वह तुम्हारा है। और जो तुम्हारा है वही मुक्त करता है। तुम इस अज्ञान को ढांक ले सकते हो ज्ञान से, वेदांत से, वेदों से। तब तुम्हारा अज्ञान सुरक्षित हो गया, किले के भीतर हो गया। अब इसे नष्ट करना भी बहुत मुश्किल है। अब इस पर हमला करना भी कठिन है। अज्ञान को याद रखना, भीतर के संबंध को तोड़ने की कोशिश करना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे संबंध टूटेगा, वैसे-वैसे अज्ञान गिरेगा। जैसे-जैसे असंबंधित चेतना का दीया दिखाई पड़ेगा, वैसे-वैसे ज्ञान प्रगट होगा।
जिस दिन तुम्हारे भीतर की लौ जो बिना दीये और बिना बाती के जलती है, बिना तेल के जलती है, पहचान में आ जायेगी--उस दिन ज्ञान! उस दिन तुम वेद हो गए। उस दिन वेद को कंठस्थ करना व्यर्थ है।
एक युवक, एक ईसाई युवक एक झेन फकीर के पास गया और उसने झेन फकीर से कहा कि मैं यह बाइबिल लाया हूं, मेरी आस्था बाइबिल में है। तुमने कभी बाइबिल पढ़ी? उस फकीर ने कहा कि नहीं, पढ़ने की फुरसत नहीं मिली। अपने को ही पढ़ने में सारी शक्ति लगी जा रही है। फिर भी तुम ले आए हो तो कुछ पढ़कर सुना सकते हो। ईसाई युवक आया ही इसलिये था कि झेन फकीर को ईसाई बना ले। तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने 'सरमन आन द माउन्ट', 'पर्वत-प्रवचन' के कुछ हिस्से पढ़कर सुनाए कि: 'धन्य हैं वे, जो निर्बल हैं क्योंकि परमात्मा का राज्य उन्हीं का होगा।'
'धन्य हैं वे, जो विनम्र हैं और अंतिम खड़े हैं क्योंकि मेरे राज्य में वे ही प्रथम खड़े होंगे; वे ही सर्वोपरि होंगे।'
उस फकीर ने कहा, कि बस रुक जाओ। मुझे पता नहीं किसने ये वचन कहे हैं, लेकिन जिसने भी ये वचन कहे हैं उसने भीतर की लौ पहचान ली थी। और जिसने भी ये वचन कहे, वह बुद्ध था।
उस युवक ने कहा कि अभी और आगे वचन हैं।
उसने कहा, बस! सागर का एक घूंट काफी है नमकीनपन को जान लेने के लिए। अब तुम किताब बंद करो। एक बूंद चख ली, पूरा सागर चख लिया। जिसने भी ये वचन कहे, यह आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया था। इसने भीतर की पहचान कर ली थी। और यह मैं तुमसे कहता हूं--उस फकीर ने कहा--इसलिये नहीं कि ये वचन बड़े मधुर हैं, लेकिन इसलिये कि यही मेरी भी पहचान है, ऐसा ही मैंने भी जाना।
वेद अर्थहीन हैं, जब तक तुम गवाही न दे सको। गीता कचरा है, जब तक तुम अपने अनुभव का सहारा न दे सको। तुम्हारे अनुभव के सहारे से गीता का स्वर्ण प्रगट होगा। तुम गवाह हो। वेद, बाइबिल, कुरान कुछ भी अर्थ नहीं रखते। तुम अर्थ डालोगे। लेकिन तुम अर्थ तभी डाल सकोगे, जब तुम्हारी अपनी अनुभूति, तुम्हारी अपनी प्रज्ञा, तुम्हारी अपनी ज्योति जलेगी--प्रखरता में, तीव्रता में, त्वरा में।
और ध्यान रखना, बस एक ही बात ध्यान में रखना है, उस ज्योति को खोज लेना है, जो बिना ईंधन के जलती है।

आज इतना ही।




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