सूत्र :
स्वात्मन्यारोपितशेषाभासवस्तुनिरासित:।
स्वयमेव
परब्रह्म
पूर्णम्हयमीक्रयम्।।
21।।
असत्कल्पो
विकल्पो यं
विश्वीमत्येकवस्तुनि।
निर्विकारे
निराकरे
निर्विशेषेर्भिदा
कुत:।। 22।।
द्रष्टा
दर्शनदृश्याटिभावशन्ये
निरामये।
कल्यार्णव
इवात्यन्तं
परिपूणें
चिदात्मनि।।
23।।
तेजसींव
तमो यत्र विलीनं
भ्रांतिकारणम्।
अडइत।ईये
परे तन्वे
निर्विशेषेर्भिदा
कुतः।। 24।।
एकतमके परे
तन्वे
भेदकर्ता कथं
वमेत्।
अपनी आत्मा
में ही सब
वस्तुओं का
आभास केवल
आरोपित है, उसको दूर
करने से स्वयं
ही पूर्ण अद्वैत
और क्रिया—शून्य
परब्रह्म बन
सकता है।
एक आत्मरूप
वस्तु में यह
जगतरूप जो
विकल्प (भेद )
जान पड़ता है, वह लगभग
झूठा है, क्योंकि
निर्विकार, निराकार और
अवयवरहित
वस्तु में भेद
कहां से आ सकता
है!
चिदात्मा द्रष्टा, दर्शन
तथा दृश्य आदि
भावों से रहित
है, निर्दोष
है, तथा
प्रलयकाल के
समुद्र की तरह
परिपूर्ण है।
जिस प्रकार
प्रकाश में
अंधकार विलीन
हो जाता है, वैसे ही
अद्वितीय परम
तत्व में
भ्राति का कारण
विलय हो जाता
है। वह
अवयवरहित है,
इससे उसमें
भेद कहा से हो
सकता है!
यह परम तत्व
फस्वरूप ही है, उसमें
भेद कैसे रह
सकता है!
सुषुप्ति
अवस्था केवल
सुखरूप है, उसमें भेद
किसने देखा है?
एक बहुत
महत्वपूर्ण
सवाल को इस
सूत्र में
उठाया गया है।
निरंतर आदमी
के मन में यह
सवाल उठता रहा
है —सदियों से, सनातन से—कि
जिस संसार में
हम उलझे हैं, जिस संसार
में हम दुख और
पीड़ा और संताप
से घिर गए हैं,
उससे
मुक्ति कैसे
हो? और यह
संसार, जिसमें
हम घिर गए हैं,
वस्तुत:
क्या है? यह
अंधकार, जिसमें
हम डूब गए और
खो गए हैं, इसका
स्वरूप क्या
है? क्योंकि
बिना इसके
स्वरूप को
जाने इससे
छूटने का कोई
उपाय नहीं हो
सकता। जिससे
छूटना हो, उसे
ठीक से जान ही
लेना पड़ेगा।
अज्ञान में ही
बंधन निर्मित
होते हैं'।
तो अगर खोलना
हो बंधनों को,
तो ज्ञान से
ही उनकी गांठ
खुल सकती है।
ऐसा
हुआ एक दिन कि
बुद्ध सुबह—सुबह
अपने
भिक्षुओं के
बीच आए, तो हाथ में
ले रखा था एक
रूमाल रेशम का।
चकित हुए
भिक्षु!
क्योंकि कभी
वे कुछ भी
लेकर हाथ में
भिक्षुओं के
बीच बोलने
नहीं आते थे।
फिर बैठ गए
सामने और उस
रूमाल पर
उन्होंने एक गांठ
बांधी, दूसरी
गांठ बांधी, पांच गांठें
बांधी। और फिर
पूछा
भिक्षुओं से
कि यह रूमाल
मैं लेकर आया
था, तब
इसमें कोई गांठ
न थी, अब
इसमें पांच
गाठें हैं, पूछता हूं
तुमसे, यह
रूमाल बदल गया
या वही है?
निश्चित
ही कठिनाई हुई
होगी।
क्योंकि यह
कहना भी गलत
है कि रूमाल
बदल गया।
क्योंकि
रूमाल बिलकुल
वही है। गांठ
लगने से रूमाल
के स्वभाव में
रत्ती भर भी
अंतर नहीं पड़ा।
जितना था, जैसा था,
वैसा ही है
रूमाल अब भी।
लेकिन यह कहना
भी उचित नहीं
है कि रूमाल
बिलकुल नहीं
बदला; क्योंकि
तब रूमाल खुला
था, अब
गांठों से
घिरा है। इतनी
बदलाहट जरूर
हो गई है।
तो
एक भिक्षु ने
खडे होकर कहा, बडा कठिन
सवाल पूछते
हैं! रूमाल
लगभग बदल गया है!
इसे
थोड़ा समझ लें, क्योंकि
यह शब्द जल्दी
ही इस सूत्र
में आएगा, और
तब समझना
जरूरी हो
जाएगा। लगभग
बदल गया है!
बदला भी नहीं
है, और बदल
भी गया है।
बदला नहीं है,
अगर हम इसके
स्वरूप को
देखें। और बदल
गया है, अगर
हम इसके शरीर
को देखें।
नहीं बदला है,
अगर इसकी
आत्मा हम
समझें। बदल
गया है, अगर
इसकी देह को
हम देखें।
नहीं बदला है
भीतर से, लेकिन
बाहर से गांठ
लग गई है और
बदलाहट 'हो
गई है। आकार
बदल गया—है, आकृति बदल
गई है। नहीं
बदला है, अगर
इसके परम
स्वभाव को हम
समझें, लेकिन
बदल गया है, अगर इसके
व्यवहार को हम
देखें।
क्योंकि जो
रूमाल खुला था,
वह काम में
आ सकता था; जिस
रूमाल में पाच
गांठें लग गईं,
वह काम में
भी नहीं आ
सकता। वह
रूमाल भी नहीं
कहा जा सकता, क्योंकि
रूमाल तो किसी
उपयोगिता का
नाम था।
ध्यान
रहे, हम
जब किसी चीज
को कोई शब्द
देते हैं तो
वह उपयोगिता
का नाम होता
है। मजबूरी है,
कठिनाई
होगी भाषा में,
इसलिए जब
उपयोगिता
नहीं होती है,
तब भी हम
वही नाम देते
हैं।
जैसे
समझें, पंखा आप
करते हैं
गर्मी में, तो आप कहते
हैं पंखा।
लेकिन जब पंखा
रखा हो, तब
उसको पंखा
नहीं कहना
चाहिए। पंखा
का मतलब हुआ
जिससे हवा की
जा रही है, जो
पंख का काम कर
रहा है। लेकिन
जब रखा है तब
तो हवा नहीं
की जा रही है।
तो उसे पंखा
नहीं कहना
चाहिए।
पैर
वे हैं जिनसे
आप चलते हैं।
लेकिन जब आप
नहीं चलते हैं, तब
उन्हें पैर
कहना नहीं
चाहिए।
फंक्यानल, उनका
क्रिया का नाम
होना चाहिए।
लेकिन कठिन हो
जाएगी भाषा।
चलते पैर के
लिए अलग नाम, बैठते पैर
के लिए अलग
नाम, तो
बहुत मुश्किल
होगा। इसलिए
काम चलाते हैं।
तो
पंखे के दो
अर्थ होते हैं, पंखा वह
जिससे हवा की
जाती है या
जिससे हवा की जा
सकती है, दोनों
अर्थों में हम
प्रयोग करते
हैं। जिससे
हवा हो सकती
है, जिसमें
संभावना छिपी
है।
रूमाल
का कोई उपयोग है, उसमें
कुछ बांधा जा
सकता है।
लेकिन जो
रूमाल खुद ही
बंधा हो, उसमें
अब कुछ नहीं
बांधा जा सकता।
तो
बुद्ध ने कहा, एक और
सवाल मुझे
पूछना है, और
वह यह कि मैं
इस रूमाल को
खोलना चाहता
हूं तो क्या
करूं?
और
ऐसा कह कर
बुद्ध ने
रूमाल के
दोनों छोर पकड़
कर जोर से
खींचना शुरू
कर दिया।
गांठें और
छोटी हो गईं, और बारीक
होकर कस गईं।
एक
भिक्षु ने
चिल्ला कर कहा, क्षमा
करें! जो आप कर
रहे हैं, उससे
तो रूमाल और
बंध जाएगा और
खोलना कठिन हो
जाएगा!
तो
बुद्ध ने कहा, एक बात
जाहिर हो गई
कि कुछ भी
करने से रूमाल
नहीं खुल
जाएगा। मैं
कुछ कर रहा
हूं। लेकिन
तुम कहते हो
इस करने से
रूमाल और
बंधता जा रहा
है। तो क्या
करने से रूमाल
खुलेगा?
तब
एक भिक्षु ने
कहा, पहले
जानना होगा कि
गठान कैसे
बंधी है।
क्योंकि जब तक
गांठ के
स्वरूप को न
समझा जा सके, तब तक उसे
खोला नहीं जा
सकता। तो पहले
देखना होगा कि
गांठ बंधी
कैसे है। जो
बंधने का ढंग
है, उसके
विपरीत ही
खुलने का ढंग
होता है। और
जब तक हमें
पता न हो कि
बंधने का ढंग
क्या है, तब
तक ना—कुछ
करना बेहतर है
बजाय कुछ करने
के। क्योंकि
करने से जाल
और उलझ सकता
है; गांठ
और मुश्किल हो
सकती है; सुलझाना
और कठिन हो
सकता है।
हमारी
चेतना पर भी
गांठें हैं।
और स्थिति यही
है कि हम
बिलकुल बदले
नहीं हैं, और बदल गए
हैं। हमारा
स्वभाव ठीक
वैसा ही है
जैसा परम
ब्रह्म का, लेकिन हम पर
कुछ गांठें
हैं। और वे
गांठें जब तक
न खुल जाएं, तब तक हम उस
परम स्वभाव का
अनुभव नहीं कर
सकते जो ग्रंथिरहित
है।
महावीर
के लिए एक नाम
दिया है जैनों
ने, बड़ा
प्रीतिकर है;
वह नाम है
निर्ग्रंथ।
बुद्ध तो जब
भी महावीर के
लिए कुछ कहते
हैं, तो
हमेशा निगंठ
नाथपुत:। नाथ
परिवार में
पैदा हुआ वह
लड़का, जो
निर्ग्रंथ हो
गया, नाथ
जाति में पैदा
हुआ पुत्र, जो
निर्ग्रंथ हो
गया। जिसकी
गाठें कट गईं,
जिसकी
गाठें खुल गईं।
यह
निर्ग्रंथ
शब्द बड़ा
कीमती है।
ब्रह्म है
निर्ग्रंथ, ग्रंथियों
से रहित। और
हम हैं सग्रंथ,
ग्रंथियों
से सहित। इतना
ही अंतर है।
पर
गांठ कैसे
लगीं है और
क्या है, इसके स्वरूप
को समझ लेना
जरूरी है।
इसके स्वरूप
के संबंध में
ही यह सूत्र
है। सूत्र को
हम समझें, इसमें
कुछ बडी कीमती
बातें हैं।
'अपनी आत्मा
में ही सब
वस्तुओं का
आभास केवल आरोपित
है, उसको
दूर करने से
स्वयं ही
पूर्ण अद्वैत
और क्रिया—शून्य
परब्रह्म बन
जाता है।'
गांठ
जब रूमाल पर
लगती है तो
बाहर से कहीं
से आती नहीं।
कभी आपने गांठ
अकेली देखी है
बिना रूमाल के? कभी आपने
गांठ अकेली
देखी है बिना
रस्सी के? शुद्ध
गाठ आपने कभी
देखी? जब
भी होगी किसी
चीज पर होगी, अकेली गांठ
कहीं भी नहीं
हो सकती। इससे
एक बात जाहिर
होती है कि
गांठ बाहर से
नहीं आ सकती।
हो ही नहीं
सकती अकेली, तो बाहर से
आएगी कैसे!
गाठ
बाहर से नहीं
आती। और रूमाल
में भी, जब बंधा
नहीं था, तो
गांठ नहीं थी।
इसलिए बड़ा
मजेदार सवाल
है! गाठ बाहर
से आ नहीं सकती,
क्योंकि
किसी ने कभी
कोई शुद्ध
गांठ नहीं देखी
है। होती भी
नहीं। किसी
चीज पर होती
है, अकेली
कभी नहीं होती।
और रूमाल अभी
खाली था, उस
पर कोई गांठ
नहीं थी। तो
गांठ आई कहौ
से? क्या
रूमाल के भीतर
से आई है? रूमाल
में कोई गांठ
न थी अभी क्षण
भर पहले, तो
उसके भीतर से
कैसे आ सकती
है? बाहर
से आई नहीं, क्योंकि
बाहर कभी गांठ
पाई नहीं जाती।
न बाहर से आई
है, न भीतर
से आई है, रूमाल
ने अपने पर
आरोपित की है;
रूमाल ने
निर्मित की है।
निर्मित का
अर्थ यह है कि
रूमाल के
स्वभाव में
नहीं थी, रूमाल
ने अर्जित की
है।
संसार
जो है, हमारा
अर्जन है, एचीवमेंट
है। हमने बड़ी
चेष्टा करके
निर्मित किया
है। हमने बड़े
उपाय किए हैं,
तब निर्मित
किया है। गाठ
होती नहीं
कहीं
अस्तित्व में,
रूमाल ने
बडी चेष्टा
करके अपने ऊपर
आरोपित की है।
इस चेतना में
जो कुछ भी
दिखाई पड़ता है,
वह आरोपण है।
आपको जो भी
भीतर अनुभव
में आता है, वह सब आरोपण
है।
जैसा
हम पीछे बात
कर रहे थे कि
दर्पण के
सामने चीजें
आती हैं, दर्पण में
दिखाई पड़ती
हैं। अगर
दर्पण एक भूल
करने लगे जो
हमने की है, तो दर्पण भी
इसी मुसीबत
में पड़ जाएगा
जिसमें हम पड़
गए हैं। लेकिन
दर्पण वह भूल
नहीं करता।
हालांकि
दर्पण जैसी
चीजें हैं जो
ऐसी भूल करती
हैं। जैसे
फोटो प्लेट, या फोटो की
फिल्म।
कैमरे
के भीतर जो
फिल्म छिपी है, उसमें और
दर्पण में
थोड़ा सा फर्क
है, बाकी
एक जैसे हैं
दोनों। दर्पण
में भी
प्रतिबिंब
बनर्ता है, कैमरे की
फिल्म में भी
प्रतिबिंब
बनता है; लेकिन
दर्पण
प्रतिबिंब को
पकड़ता नहीं और
फिल्म
प्रतिबिंब को
पकड़ लेती है।
इसलिए फिल्म
पर जो भी
प्रतिबिंब
बना, वह पकड़
जाता है। और
व्यके पकड़ने
के साथ ही
फिल्म बेकार
हो जाती है।
अब दूसरा
प्रतिबिंब
नहीं पकड़ा जा
सकता; जगह
भर गई।
आईना
कभी भरता नहीं, कितने ही
प्रतिबिंब
बनते हैं, आईना
खाली बना रहता
है।
प्रतिबिंब
आते हैं, चले
जाते हैं, दर्पण
छोड़ता चला
जाता है।
दर्पण का
त्याग सतत है।
वह छोड़ता चला
जाता है। भोग
पकड़ता नहीं।
आपका चेहरा
दिखाई पड़ता है,
दर्पण छोड़
देता है। आप
हटे कि भूल
गया, जैसे
आप कभी सामने
आए ही न हों।
मनुष्य
की जो चेतना
है वह दर्पण
की भांति है, और
मनुष्य का जो
मन है वह
फिल्म की
भांति है।
मनुष्य की जो
आंतरिक चेतना
है वह दर्पण
की भांति है, उस पर कुछ भी
बनता नहीं।
लेकिन मनुष्य
के पास एक
यंत्र और है
मन का। मन
बिलकुल फोटो
प्लेट की तरह
है, उस पर
जो भी बन जाता
है वह पकड़
जाता है। सच
तो यह है कि मन
पर अगर न पकड़े,
तो मन की
उपयोगिता ही
नष्ट हो जाए।
इसलिए हम कहते
हैं, अच्छी
स्मृति कीमती
चीज है।
शिक्षा, समाज,
सब अच्छी
स्मृति पर
टिका है। वह
अच्छी स्मृति
किसकी है? वह
मन की है जो
पकड़ता है।
मन
बिलकुल ही एक
यंत्र है, फोटो
प्लेट की तरह।
वह फिल्म की
तरह पकड़ता
जाता है। जो
भी उसके सामने
आता है, पकड़
लेता है। जो
काम का नहीं
है, वह भी
पकड लेता है।
जो बेकाम का
है, वह भी
पकड़ लेता है।
जो व्यर्थ
कचरा है, वह
भी पकड़ लेता
है। जिसकी कोई
जरूरत नहीं, वह भी पकड़
लेता है।
फिल्म चुनाव
नहीं कर सकती।
आपने कैमरे
में एक्सपोज
किया, तो
वह चुनाव नहीं
कर सकती कि
क्या लें और
क्या छोड़ दें।
जो भी सामने
पड़ता है, वह
पकड़ जाता है, जो भी सामने
आ जाता है, वह
पकड़ जाता है।
तो
मन आपका पकड़ता
चला जाता है।
आपको पता नहीं
कि दिन भर में
आप मन का
कितना जाल
इकट्ठा कर
लेते हैं! और
अब तो मनसविद
कहते हैं कि
जो आप जानते
हैं, उतना
ही मन नहीं
पकड़ता, जो
आप नहीं जानते
हैं, वह भी
पकड़ता है।
जैसे
अभी यहां बैठे
हैं। मैं बोल
रहा हूं आप
मुझे सुन रहे
हैं। आपको
खयाल में भी
नहीं कि एक
पक्षी आवाज
करके उड़ गया!
आपको याद भी
नहीं कि सड़क
पर एक हार्न
बजा! आपको याद
भी नहीं, लेकिन वह भी
मन पकड़ रहा है।
अगर आपसे कोई
पूछे कि सुनते
वक्त एक पक्षी
उडा था? आप
कहेंगे, मुझे
कुछ भी पता
नहीं। लेकिन
आपको बेहोश
किया जाए, सम्मोहित
किया जाए, और
फिर पूछा जाए।
आप कहेंगे, ही, मुझे
पता है। एक
पक्षी भी उड़ा
था, सड़क पर
हार्न भी बजा
था।
इसको
मनसविद कहते
हैं, सब्लिमिनल
मेमोरी। मन के
पीछे छिपा हुआ
अर्धचेतन मन
है, वह
पूरे समय पकड़
रहा है; जो
आप नहीं जानते,
वह भी। आप
रात सो रहे
हैं, तब भी
आपका जो
अर्धचेतन मन
है, वह पकड़
रहा है। वह
पकड़ता चला जा
रहा है। नींद
में भी, बाहर
जो घटनाएं घट
रही हैं, वह
भी पकड़ता जा
रहा है।
आप
चकित होंगे
जान कर कि
नवीनतम
वैज्ञानिक
खोजें यह कहती
हैं कि बच्चा
मां —के गर्भ
में भी स्मृति
निर्मित करता
रहता है। बाहर
जो घटित हो
रहा है, वह पकड़ता
जाता है। योग
तो बहुत
पुराने दिनों
से यह मानता
है कि मां पर
जो घटनाएं
घटती हैं, उसके
आस—पास, बच्चा
उन्हें पकड़
लेता है और
निर्मित होता
है। लेकिन
पश्चिम का
विज्ञान अब इस
बात को मानने के
करीब आ रहा है।
और
जैसे—जैसे समझ
बढ़ती है, बड़ी मुश्किल
होती जाती है।
अब
मनोविज्ञान
कहता है कि
चार साल की
उम्र में
बच्चा अपना
पचास प्रतिशत
ज्ञान पकड़
लेता है। पचास
प्रतिशत!
अस्सी वर्ष का
होकर जब वह
मरेगा, तब
तक जितना शान
इकट्ठा करेगा,
उसमें से
पचास प्रतिशत
उसने चार साल
की उम्र में
पकड लिया, बाकी
पचास प्रतिशत
बाद में
पकड़ेगा। तो
असली जिंदगी
का आधा हिस्सा,
आधी उम्र, चार साल में
पूरी हो गई।
शान के हिसाब
से आप चार साल
में आधी उम्र
समाप्त कर
चुके; आधे
के हो गए।
लेकिन
योग कहता है
कि जिस दिन हम, गर्भ के
भीतर बच्चा जो
पकड़ता है, उसको
भी समझ लेंगे,
उस दिन शायद
हालत और भी
भिन्न हो जाए।
शायद बड़ा
प्रतिशत
बच्चा गर्भ
में ही पकड़
लेता है।
लेकिन बच्चे
को भी कोई याद
नहीं है, सब्लिमिनल
है, उसके
चित्त में है।
इस पर अभी, पश्चिम
की सरकारों
में कई
सरकारों के
सामने सवाल है;
क्योंकि यह
सब्लिमिनल जो
जान है, अर्धचेतन
में पकड़ी गई
जो
जानकारियां
हैं, इनका
शोषण किया जा
सकता है और
खतरनाक शोषण
किया जा सकता
है।
आप
फिल्म देखते
हैं। तो अभी
आपको फिल्म
में जो प्रचार
करना पड़ता है
कि फलां सिगरेट
पीए; कि
फलां साबुन
वापरें, कि
यह करे, वह
करें—यह आपको
दिखाना पड़ता
है सामने। उस
दिखाने से
थोडी सी बाधा
होती है, क्योंकि
आप समझते हैं
यह विज्ञापन
है। इसलिए आप
उतने
प्रभावित
नहीं होते, जितने
प्रभावित हो
सकते थे। आप
समझते हैं कि
यह साबुन जो
बताई जा रही
है कि एक
सुंदरी साबुन
को हाथ में
लेकर कह रही
है कि मेरे
सौंदर्य का
निखार इसी
साबुन की कृपा
से है! वह आप
जानते हैं कि
यह मामला कोई
ज्यादा दूरगामी
नहीं है। फिर
भी बार—बार
दोहराने से
पकड़ता है।
लेकिन
अब सब्लिमिनल
एडवरटाइजमेंट
की खोज हो गई
है। अब फिल्म
के पर्दे पर
आपको दिखाई ही
नहीं पड़ेगा कि
लक्स टायलेट
साबुन का
उपयोग करें, दिखाई ही
नहीं पड़ेगा।
फिल्म चलती
रहेगी और
फिल्म के बीच
में इतनी तेजी
से, सेकेंड
के हजारवें
हिस्से में, लक्स टायलेट
का विज्ञापन
निकल जाएगा।
आपकी आखें देख
ही नहीं
पाएंगी, इतनी
तेजी से निकल
जाएगा। लेकिन
आपका मन पकड़
लेगा।
यह
खतरनाक है।
अनेक मुल्कों
की सरकारें
विचार कर रही
हैं कि इस पर
पाबंदी लगाई
जानी चाहिए, क्योंकि
यह तो बहुत
खतरनाक है।
आपको पता ही
नहीं है। आप
पढ़ भी नहीं
पाए। आपको समझ
में भी नहीं
आया कि बीच
में कोई बात घट
गई है। आप तो
फिल्म देख रहे
थे। दो
फिल्मों के
बीच में, दो
चित्रों के
बीच में, बहुत
झटके से एक
विज्ञापन
निकल गया।
बहुत
जांच—पड़ताल से
पता चला है कि
हजार में एक
आदमी को अंदाजा
लगेगा कि कुछ
गड़बड़ हुई—हजार
में! कुछ बीच
में हुआ।
लेकिन वह भी
पक्का नहीं
पकड़ पाएगा। नौ
सौ निन्यानबे
को तो पता ही
नहीं चलेगा।
वे अपनी
कुर्सी पर
बैठे रहेंगे।
लेकिन वह
अर्धचेतन मन
पकड़ लेगा।
यह
खतरनाक है।
इसका मतलब है
कि एक आदमी
इलेक्यान में
खड़ा हो, और मुझे ही
वोट दीजिए यह
बीच में चलता
रहे, और आप
उसको वोट दे
आएंगे! और
आपको कभी खयाल
में भी नहीं
आएगा कि आप
वोट क्यों दे
आए हैं! यह
खतरनाक है।
इसका तो कोई
भी दुरुपयोग
हो सकता है।
तानाशाही
सरकारें इसका
बड़ा दपयोग कर
सकती हैं।
क्योंकि आप, आप बिलकुल
ही शिकार हो
सकते हैं।
लेकिन
मन पूरे वक्त
पकड़ ही रहा है।
सब पकड़ रहा है।
लाखों
सूचनाएं
प्रतिक्षण
पकड़ी जा रही
हैं। वे सब
इकट्ठी हो रही
हैं। मन
फोटोग्राफिक
प्लेट की तरह
है, या
टेपरिकार्ड
के टेप की तरह
है। वह सब
चीजें इकट्ठी
करता जा रहा
है।
और
एक आदमी के मन
में कोई सात
करोड़ सेल हैं, और एक—एक
सेल करोड़ों
सूचनाएं
इकट्ठी कर
सकता है। इस
पृथ्वी पर
जितने
पुस्तकालय
हैं, अगर
जिंदगी लंबी
मिले, तो
एक आदमी सबको
कंठस्थ कर
सकता है।
जिंदगी लंबी
का सवाल है, मन की
दिक्कत नहीं
है। मन के पास
फिल्म काफी
लंबी है, लेकिन
जिंदगी छोटी
पड़ जाती है।
अगर एक आदमी
को लाख, दो
लाख साल की
उम्र मिले, तो इसी एक
छोटी सी खोपड़ी
के भीतर
दुनिया के सारे
पुस्तकालय
समाहित किए जा
सकते हैं।
तो
मन तो इकट्ठा
करता है; संग्राहक है।
मन से बड़ा
परिग्रह करने
वाला कोई भी
नहीं है। सब
तिजोरिया
छोटी हैं; और
सब धनी दरिद्र
हैं। मन जितना
संग्रह कर
सकता है, उसका
कोई मुकाबला
नहीं है। इस
मन के पीछे
छिपी चेतना है।
वह चेतना
दर्पण की तरह
निर्मल है। वह
कुछ भी नहीं
पकड़ती। जो भी
सामने आता है,
देख लेती है;
हट जाता है,
समाप्त हो
जाता है।
दर्पण फिर
निर्मल का
निर्मल। चाहे
उसमें चांद
झलके, और
चाहे एक काटा
दिखाई पड़े, चाहे एक फूल,
चाहे सुंदर
चेहरा, चाहे
एक कुरूप घटना।
जो भी सामने
आता है, वह
जब आता है
सामने, उतने
क्षण ही चेतना
के सामने होता
है; हटते
ही खो जाता है।
मन
यंत्र है। आप
नहीं हैं मन, आप
चैतन्य हैं।
लेकिन हम सबने
अपने को मन
मान रखा है।
उस दर्पण का
हमें कोई भी
पता नहीं जो
सदा निर्मल और
निर्दोष है।
यह
सूत्र कहता
है.
'अपनी आत्मा
में ही सब
वस्तुओं का
आभास केवल
आरोपित है, उसको दूर
करने से स्वयं
ही पूर्ण
अद्वैत और क्रिया—शून्य
ब्रह्म
व्यक्ति बन
जाता है।'
कुछ
करना नहीं है।
कुछ करना नहीं
है, आप
ब्रह्म हैं।
यह वेदांत की
घोषणा है।
आपको ब्रह्म
बनना नहीं है,
आप ब्रह्म
हैं ही। सत्य
को पाने कहीं
जाना नहीं है,
वह आपके पास
सदा से उपलब्ध
है। फिर गड़बड़
क्या हो गई' है? वह जो
भीतर चैतन्य
है, और
उसके बाहर जो
मन है, उस
मन में जो कुछ
भी इकट्ठा हो
जाता है, वह
इकट्ठा हुआ भी
चैतन्य में
झलकता रहता है।
इसे
हम ऐसा समझ
लें, कि
चांद निकलता
है और झील पर झलकता
है। फिर चांद
डूब जाता है, और झील से भी
डूब जाता है।
क्योंकि झील
में केवल तब
तक दिखाई पड़ता
है, जब तक
हो। जब नहीं
होता तो खो
जाता है। हम
एक नकली चांद
आकाश में लटका
दें। वह वहा
से हटे न। तो
झील में सदा
उसका
प्रतिबिंब
बनता रहेगा, कभी मिटेगा
नहीं।
क्योंकि ऊपर
से जब तक चांद
न हटे, झील
से प्रतिबिंब
नहीं मिटेगा।
इसे थोड़ा समझ
लें; बारीक
है, और
पूरे मनुष्य
के भीतरी
यंत्र की समझ
जरूरी है।
अगर
ऐसा अनंत काल
तक होता रहे, तो झील को
भी यह शक हो
सकता है कि
मुझमें जो प्रतिबिंब
बन रहा है, वह
चांद का नहीं
मेरा है, क्योंकि
कभी मिटता
नहीं। सुबह
सूरज निकलता
है, रात
चांद निकलता
है। रोज मिट
जाता है, झील
खाली हो जाती
है, बीच
में खाली जगह
मिल जाती है, झील को
स्मरण आ जाता
है कि चांद
आया और गया, सूरज आया और
गया, मैं
सिर्फ दर्पण
हूं, झील
हूं।
आपके
भीतर जो
चैतन्य है, उसके ऊपर
मन और मन के
बाहर जगत। जगत
में सब चीजें
बदल रही हैं, प्रतिपल बदल
रही हैं; मन
में कोई चीज
बदलती नहीं है,
मन
फोटोग्राफिक
है, स्टैटिक
है। तो जो भी
जगत से मन में
चित्र बन जाता
है, वह मन
में चित्र
अटका रह जाता
है सदा के लिए।
वह अटका हुआ
चित्र भीतर
चेतना में भी
अटकता हुआ
मालूम पड़ता है,
सदा बना
रहता है।
इससे
भ्रांति होती
है कि चेतना
और मन एक ही हैं।
दोनों के साथ
तादात्म्य
मालूम पड़ता है, क्योंकि
फासला नहीं
दिखाई पडता।
जो मन में
दिखाई पड़ता है,
वही चेतना
में दिखाई
पड़ता है।
दोनों के बीच कहीं
कोई सीमा नहीं
मालूम पड़ती।
इसलिए यह
भ्रांति होती
है कि जगत
आत्मा में आरोपित
मालूम पड़ता है;
लगता है कि
आत्मा में
प्रवेश कर गया।
आत्मा
में कोई चीज
प्रवेश नहीं
करती है, मन में सब
चीजें प्रवेश
करती हैं। तो
जब तक हम मन को
हटाने की कला
न सीख लें—कि
संसार और
आत्मा आमने—सामने
आ जाएं, बीच
में मन का
दलाल न हो, बीच
में यह मन का
जगत न हो, यह
मन का विस्तार
न हो—तब तक
हमें यह पता
नहीं चलेगा कि
सब कुछ आरोपित
था और मैं
ब्रह्म था, जगत नहीं था;
मैं चैतन्य
था, शरीर
नहीं था।
लेकिन मालूम
होता था कि
मैं शरीर हूं
र क्योंकि मन
में चित्र बना
हुआ था कि मैं
शरीर हूं। वही
चित्र आत्मा
में झलकता था।
न था लोभ, न
था क्रोध, न
था काम, लेकिन
मन में सब्र
था और मन के
सारे चित्र
भीतर झलकते थे।
और इतने दिनों
से झलकते थे, और इतने
अनंत काल से
झलकते थे, कि
स्वाभाविक है
यह भांति हो
जानी कि वह
झलक नहीं है, प्रतिबिंब
नहीं है, मेरा
स्वभाव है।
ध्यान
रहे, शरीर
तो आपका हर
जन्म में मिट
जाता है।
लेकिन मन? मन
नहीं मिटता; मन आपका एक
जन्म से दूसरे
जन्म में चला
जाता है। जब
आप मरते हैं
तो शरीर छूटता
है, मन
नहीं छूटता।
मन तो तब
छूटता है, जब
आप मुक्त होते
हैं। मृत्यु
की भी
सामर्थ्य मन
को अंत करने
की नहीं है।
मृत्यु भी
केवल शरीर को
मिटा पाती है,
मन को नहीं
मिटा पाती। मन
तो मृत्यु के
भी पार चला
जाता है।
सिर्फ मुक्त,
सिर्फ
समाधि की
सामर्थ्य है
मन को भी मिटा
देने की। इसलिए
जो जानते हैं,
उन्होंने
समाधि को
महामृत्यु
कहा है।
क्योंकि
मृत्यु में तो
मरता हैं केवल
शरीर, समाधि
में मर जाते
हैं दोनों—शरीर
और मन—और शेष
रह जाता है
केवल वही, जो
मर ही नहीं
सकता, जो
अमृत है, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं हो सकती।
तो
मन तो अनंत—अनंत
काल तक निर्मित
होता हुआ, इकट्ठा
होता हुआ, बढ़ता
चला जाता है।
और हर बार, हमेशा,
शरीर हो तो,
शरीर छूट
जाए तो, मन
आत्मा के साथ
जुड़ा रहता है।
वह मन की छाया
आत्मा पर बनती
रहती है। और
धीरे—धीरे
आत्मा को भी
ऐसा लगना शुरू
हो जाता है कि जो
मन में है, वही
मैं हूं। यही
है हमारा
संसार; यही
है हमारी गांठ।
इस
गांठ को खोलने
का एक ही उपाय
है कि हम थोड़ी
देर के लिए
बिना मन के हो
जाएं। मन को
हटा कर रख दें, और एक बार
जगत को आमने —सामने
देख लें। बीच
में किसी दलाल
को न लें; बीच
में किसी
मध्यस्थ को न
लें। एक झलक
भी हमें मिल
जाए मन के बिना
जगत की, तो
हमें यह स्मरण
स्पष्ट हो
जाएगा कि भीतर
कुछ भी कभी
गया नहीं है।
भीतर का दर्पण
सदा साफ है, निर्मल है, उस पर कोई
बिंब पकड़ा
नहीं है। सारे
बिंब आए और गए
हैं, जन्मों—जन्मों
की कथाएं बीती
हैं, लेकिन
वहां कोई भी
रेखा, जरा
सी खरोंच वहा
छूटी नहीं है।
वह
जो निर्मल
स्वभाव का
अनुभव है, वही परम
ब्रह्म है।
ब्रह्म जब मन
के साथ बंधता
है, तो
संसार हो जाता
है। ब्रह्म जब
मन से टूटता
है, तो परम
ब्रह्म हो
जाता है। और
जब आत्मा
बंधती है मन
के साथ, तो
शरीर
अनिवार्य हो
जाता है। जब
आत्मा बंधती
है मन के साथ, तो शरीर
अनिवार्य हो
जाता है, क्योंकि
मन की वासनाओं
की तृप्ति
बिना शरीर के
नहीं हो सकती।
मन तो वासनाएं
उठाता हैद्र
शरीर के बिना
तृप्ति नहीं
हो सकती।
इसलिए
आपने निरंतर
सुना होगा, और अब तो
वैज्ञानिक
सत्य बनता
जाता है; आपने
सुना होगा, कोई प्रेत
किसी आदमी के
शरीर में
प्रवेश कर गया।
कोई कहता होगा
अंधविश्वास
है, कोई
कहता होगा बीमारी
है, कोई
कुछ कहता होगा,
लेकिन आपने
यह कभी शायद
ही सोचा होगा
कि प्रेत, अगर
होते हैं, तो
आदमियों के
शरीर में
प्रवेश क्यों
कर जाते हैं? शायद आप
सोचते होंगे,
दुश्मन
होगा इसलिए
सताने आ गया!
शायद आप सोचते
होंगे कि कोई
बदला, कोई
कर्म—फल, कोई
पुराना
चुकतारा हो
रहा है!
नहीं, यह सब कुछ
नहीं है।
प्रेत कहते
हैं हम उस
चेतना को, जिसका
शरीर तो छूट
गया, मन
नहीं छूटा है।
और मन शरीर की
माग करता है, क्योंकि मन
की जितनी
वासनाएं हैं
वे सभी शरीर के
द्वारा ही
तृप्त हो सकती
हैं। मन छूना
चाहता है किसी
प्रिय शरीर को,
लेकिन
प्रेत छू नहीं
सकता, क्योंकि
उसके पास हाथ
नहीं हैं। मन
स्वाद लेना
चाहता है किसी
स्वादिष्ट
वस्तु का। वह
मन है प्रेत
के पास जो
स्वाद लेना
चाहता है, लेकिन
उसके पास जीभ
नहीं है।
इसलिए प्रेत
की जो तकलीफ
है वह यही है
कि मन है उसके
पास और उपकरण
बिलकुल नहीं
है। जिनसे वह
अपनी वासना के
लिए तलाश कर
सके, वे
कोई भी साहग्न
उसके पास नहीं
हैं, और
वासना पूरी की
पूरी उसके पास
है—और साधन सब
खो गए हैं।
प्रेतात्मा
का इतना ही
अर्थ है कि
जिसको अभी शरीर
नहीं मिला। और
दो तरह की
आत्माओं को
शरीर मुश्किल
से मिलते हैं।
सामान्य आदमी
को शरीर आसानी
से मिल जाते
हैं; इधर
मरे, उधर
जन्मे—कोई
फर्क नहीं
होता। कभी—कभी
तो मिनट, दो
मिनट, पांच
मिनट का फर्क
मुश्किल से
होता है। इधर
मरे कि उधर
जन्मे। लेकिन
दो छोर वाली
आत्माओं को, बहुत बुरी
आत्माओं को या
बहुत भली
आत्माओं को
जन्म आसानी से
नहीं मिलते, क्योंकि
उनके योग्य
गर्भ चाहिए।
अब हिटलर मर
जाए, तो
मां—बाप खोजना
आसान नहीं
होगा, क्योंकि
हिटलर के लिए
जन्म देने के
लिए इतनी ही
दुष्ट
प्रकृति के
मां— बाप
चाहिए। तो
वर्षों, कभी—कभी
सदियों, प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
कोई भली चेतना
मर जाए तो यही
कठिनाई फिर
खड़ी हो जाती
है। जो भली
चेतनाएं बिना
शरीर के भटकती
हैं, उनको
हमने देव कहा
है; और जो
बुरी चेतनाएं
बिना शरीर के
भटकती हैं, उनको हमने
प्रेत कहा है।
जब
भी कभी कोई
आदमी इतना
कमजोर होता है
कि उसकी आत्मा
अपने शरीर में
सिकुड जाती है, तब कोई
प्रेत उसमें
प्रवेश कर
जाता है; न
तो किसी
दुष्टता के
कारण, न
उसको सताने के
कारण, बल्कि
उसके शरीर के
द्वारा अपनी
वासना को तृप्त
करने के लिए।
अगर
आप कमजोर हैं, संकल्पहीन
हैं, तो
कोई प्रेत
धक्का देकर
आपके भीतर
प्रवेश कर सकता
है। उसको जन्म
नहीं मिल रहा
है, और
वासना उसके
पास पूरी है।
वह किसी
स्त्री को
आपके हाथ से
छू लेगा। वह
किसी भोजन को
आपकी जीभ से
चख लेगा। वह
किसी रूप को
आपकी आख से
देख लेगा। वह
किसी संगीत को
आपके कान से
सुन लेगा।
इसके लिए
प्रेत प्रवेश
करता है, किसी
को सताने का कोई
सवाल नहीं है।
आप सताए जाते
हैं, वह
गौण है, वह
बाइ—प्रॉडक्ट
है; वह
प्रयोजन नहीं
है किसी प्रेत
का आपको सवाने
का।
लेकिन
निश्चित ही, जब कोई दो
आत्माएं एक
शरीर में घुस
जाएं, तो
पीड़ा और
परेशानी होगी।
वह परेशानी
वैसी ही है, जैसे कोई
मेहमान घर में
आ जाता है और
फिर टिक जाता
है, और
जाने का नाम
ही नहीं लेता!
बस वह वैसी ही
परेशानी है।
और फिर वह
मेहमान फैलाव
करता जाए, और
घर का मालिक
सिकुड़ता जाए
एक कोने में, और धीरे—धीरे
ऐसा लगने लगे,
कि यही तय न
रहे कि कौन
मेहमान है और
कौन घर का मालिक
है! और मेहमान,
अकड़ बढ़ती
जाए उसकी, क्योंकि
मालिक उसकी
सेवा करे
मेहमान समझ कर,
अतिथि
देवता है!
उसकी सेवा
करे! धीरे—धीरे
मेहमान को
भ्रम होने लगे
कि मैं मालिक
हूं। और एक
दिन वह अपने
मेजबान को कह
दे कि क्षमा
करो, अब
जाओ भी! बहुत
दिन हो गए! ठीक
वैसी ही
स्थिति पीड़ा
की पैदा हो
जाती है।
मन
शरीर की माग
करता है—तत्काल, मरते ही।
इसलिए दूसरा
जन्म हो जाता
है। आत्मा मन
से जुड़ी है, मन से शरीर
जुड़ा है।
दो
तरह की
साधनाएं हैं।
एक तो साधना
है कि शरीर को
मन से तोडो; जिसको
अक्सर हम
तपश्चर्या
कहते हैं। वह
साधना है, शरीर
को मन से तोड़ो।
वह तपश्चर्या
है। लंबी
यात्रा है, और बहुत
कठिन; और
परिणाम
संदिग्ध हैं।
दूसरी साधना
है, मन को
चेतना से तोड़ो।
जिसको हम
वेदात कहते
हैं; ज्ञान
कहते हैं। अगर
नाम ठीक देने
हों तो नाम
ऐसे दे सकते
हैं, शरीर
से मन को तोड़ो—इसका
नाम योग। और
मन को आत्मा
से तोड़ो —इसका
नाम सांख्य।
बस ये दो
निष्ठाएं हैं।
सांख्य
का अर्थ है, मात्र
ज्ञान
पर्याप्त है,
और कुछ करना
नहीं है। और
योग का अर्थ
है, बहुत
कुछ करना
पड़ेगा, तभी
कुछ हो सकेगा।
यह
सूत्र सांख्य
का है। यह
सूत्र शान का
है। यह कहता
है अपनी आत्मा
में ही सब
वस्तुओं का आभास
केवल आरोपित
है, ऐसा
जान लेने से
स्वयं ही
पूर्ण अद्वैत,
परम ब्रह्म
व्यक्ति बन
जाता है। कुछ
और करना नहीं
है।
'एक आत्मा
एक् वस्तु में
यह जगतरूप जो
विकल्प (भेद)
जान पड़ता है, वह लगभग
झूठा है। '
इसलिए
मैं कह रहा था, उस
भिक्षु ने
बुद्ध को कहा
कि लगभग रूमाल
बदल गया है।
यह सूत्र कहता
है कि यह जो
सारा जगत
दिखाई पड़ता है
भेद का, यह
लगभग झूठा है।
'क्योंकि
निर्विकार, निराकार और
अवयवरहित
वस्तु में भेद
कहां, कैसे
हो सकते हैं!'
लगभग
झूठा—यह बड़ी
कीमती
दार्शनिक
धारणा है। और
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि
लगभग झूठे का
मतलब क्या होगा
न: कोई चीज
झूठी हो सकती
है, समझ
में आती है।
लगभग झूठी का
क्या मतलब
होता है? कोई
चीज सच है, सत्य
है, समझ
में आती है।
कोई कहे लगभग
सच, क्या
मतलब होगा? वह लगभग तो
सब गड़बड़ कर
देता है! जैसे
आप किसी से कहें
कि मुझे आपसे
लगभग प्रेम है।
सब गड़बड़ हो
जाता है! प्रेम
हो तो कह दो कि
है, न हो तो
कह दो नहीं है,
लगभग प्रेम
क्या है? इसको
प्रेम कहें, अप्रेम कहें?
कहें कि
फलां आदमी
लगभग साधु है,
क्या मतलब
होगा?
यह
शब्द कीमती है, और
भारतीय चितना
में बड़ा
मूल्यवान है।
और एक नई
कैटेगरी, एक
चिंतन का नया
तल भारत ने
निर्मित किया है।
सारे जगत के
चिंतन में दो
विचार—कोटियां
हैं सत्य की
और असत्य की।
भारतीय चितना
में तीन विचार—कोटियां
हैं सत्य की, असत्य की, और लगभग की, बीच की—तीसरी।
इस लगभग झूठ
को, या
लगभग सत्य को,
हमने कहा है
माया, हमने
कहा है मिथ्या।
तो हमने तीन
शब्द निर्मित
किए हैं सत्य,
असत्य, मिथ्या।
मिथ्या
क्या है? आमतौर से
लोग समझते हैं
कि मिथ्या का
अर्थ असत्य है।
नहीं, मिथ्या
का अर्थ असत्य
नहीं होता।
मिथ्या का
अर्थ होता है
सत्य और असत्य
के बीच में।
सत्य और असत्य
के बीच में।
अर्थ हुआ कि
जो असत्य है, लेकिन सत्य
जैसा भासता है।
एक
रस्सी पड़ी है
और आपको सांप
मालूम पड़ रही
है। और अंधेरे
में आपके
छक्के छूट गए; आप भाग
खड़े हुए!
पसीना छूट रहा
है! छाती की
धड़कन बढ गई है!
और किसी ने
कहा कि नाहक
परेशान हो रहे
हैं, यह
लालटेन ले लें
और चले जाएं; सांप वगैरह
नहीं है, रस्सी
पड़ी है। देखा
प्रकाश में, रस्सी है।
तो जो सांप
दिखाई पड़ा था,
उसे क्या
कहिएगा? सत्य
तो वह नहीं था।
असत्य भी नहीं
कह सकते; क्योंकि
उसने काम तो
सत्य जैसा
किया था। भाग खड़े
हुए थे आप
वैसे ही जैसे
सच्चे सांप से
भागते। पसीना
आ गया था। और
पसीना बिलकुल
सच था। और
झूठे सांप से
आया था। और
छाती की धड़कन
बढ़ गई थी। और
डर लगा था कि
कोई हृदय का
दौरा तो नहीं
पड़ जाएगा! पड़
भी सकता था, और आप मर भी
सकते थे। बड़ी
कठिनाई यह है
कि जो सांप था
ही नहीं, उससे
असली दौरा
कैसे पड़ गया? लेकिन जो
सांप है ही
नहीं, उससे
असली हृदय का
दौरा पड़ा सकता
है।
इसका
मतलब कि
भारतीय चिंतन
उस सांप को
बिलकुल असत्य
कहने को तैयार
नहीं है। सत्य
तो है ही नहीं, क्योंकि
खोज पर पता
चलता है कि
वहां रस्सी
पड़ी है। और
असत्य भी नहीं
है, क्योंकि
परिणाम सत्य
जैसे हो जाते
हैं। इसे भारत
कहता है लगभग
असत्य, या
लगभग सत्य—मिथ्या,
माया। यह
तीसरी, बीच
की कैटेगरी है।
अंग्रेजी में
इसके लिए
अनुवाद करना
मुश्किल है।
दूसरी भाषाओं
में इसके लिए
शब्द खोजना
मुश्किल हो
जाता है। और
जो भी अनुवाद
होते हैं, वे
असत्य का अर्थ
रखते हैं, मिथ्या
का नहीं।
मिथ्या
बिलकुल शुद्ध
भारतीय शब्द
है।
मिथ्या
का अर्थ खयाल
में ले लें, जो नहीं
है, लेकिन
है जैसा मालूम
पड़ता है। और
ऐसी चीजें हैं,
जो नहीं हैं
और है जैसी
मालूम पड़ती
हैं। इसलिए
भारत कहता है,
उनके लिए एक
अलग कैटेगरी,
एक अलग कोटि
निर्मित करना
जरूरी है।
यह
जो मिथ्या जगत
है, यह
जगत जो है, इसको
अनेक बार आपने
सुना होगा कि
वेदांत कहता
है, मिथ्या
है। उपनिषद
कहते हैं, मिथ्या
है। शंकर
निरंतर, सुबह
से सांझ तक, कहते रहते
हैं, मिथ्या
है। तो हम
सोचते हैं कि
ये लोग कहते
हैं, यह
जगत झूठ है।
नहीं कहते, झूठ नहीं कह
रहे हैं वे।
वे यह कह रहे
हैं कि जैसे
रस्सी में
सांप दिख जाए।
जो यह जगत है
वह दिखाई नहीं
पड रहा है, और
जो दिखाई पड़
रहा है वह यह
है नहीं। यह
एक देखने का
भ्रम है, एक
दृष्टि—दोष है।
यह आपकी
दृष्टि की भूल
है।
यह
वैसा ही है, जैसा आप आंख
को दबा कर और
चांद को देखें
और दो चांद
दिखाई पड़े। वह
दूसरा चांद
कहा है? लेकिन
आप बडी कठिनाई
में पड़ेंगे!
अगर आंख दबाई
हालत में आपसे
पूछा जाए कि
दो में से कौन सा
सच है और कौन
सा झूठा? तो
आप बता न
पाएंगे कि कौन
सा सच है और
कौन सा झूठा।
दोनों सच
मालूम पड़ते
हैं, हालांकि
दोनों सच नहीं
हैं। आंख छोड़
दें दबाना और
एक चांद रह
जाता है, दूसरा
खो जाता है।
वह दूसरा क्या
था? वह दिखाई
तो पड़ता था!
अगर किसी आदमी
की आंख
परमानेंटली
दबा दी जाए, स्थायी रूप
से, तो
उसको सदा ही
दो चांद दिखाई
पड़ते रहेंगे।
हमारी
जो दृष्टि है, वह मन के
अनुभवों, मन
के चित्रों, मन के
संग्रह से दबी
हुई है पूरे
समय। तो जो भी
हम देखते हैं,
मन हमें
दिखाता है।
थोड़ा
ऐसा समझ लें
कि आप किसी
ऐसे देश के
निवासी हैं जहा
सांप होता ही
नहीं। आपने
कभी सांप नहीं
देखा, सांप
का कोई चित्र
नहीं देखा, सांप का कोई
नाम नहीं
जानते। क्या
आप रस्सी में
सांप देख सकते
हैं?
यह
संभव नहीं है।
कैसे देखिएगा? सांप का
कोई अनुभव ही
न हो तो रस्सी
पडी रहे, तो
आपको सांप
कैसे दिखाई पड़
सकता है
उसमें!
सांप
दिखाई पड़ता है, क्योंकि
मन के पास
सांप का
संस्कार है, चित्र है; मन ने सांप
देखा है।
चित्र में
देखा है, असलियत
में देखा है, मदारी के
पास देखा है—कहीं
सांप देखा है।
वह चित्र मन
में है। वह
आपकी आख में
पीछे छिपा है।
रस्सी पड़ी है
सामने, अचानक
अंधेरे में
रस्सी कई
चीजें पैदा कर
देती है।
अंधेरा भय
पैदा कर देता
है, एक। भय
के साथ ही, सांप
को देख कर भी
जो भय पैदा
हुआ था कि
कहीं काट न ले,
वह संयुक्त
हो जाता है।
फिर सांप में
जिस तरह की
लहरें थीं, ठीक वैसी
लहरें रस्सी
में मालूम
पड़ती हैं। भय,
सांप का भय,
रस्सी की
लहरों की
समानता—आपके
भीतर का मन का
सांप रस्सी पर
आरोपित हो जाता
है। आप भाग
खडे होते हैं।
रस्सी को पता
ही नहीं कि
क्या हो गया—आप
किसको देख कर
भाग गए हैं!
क्यों भाग गए
हैं!
ऐसा
हुआ मेरे साथ, बहुत
वर्ष पहले।
रात तीन बजे
उठ कर एक
रास्ते पर
घूमता था।
सुनसान रात
होती। रास्ता
बांसों के
झुरमुट में
दबा था। थोड़ा
सा हिस्सा
खुला था, बाकी
हिस्सा दबा था।
तो एक कोने से
मैं सीधा
दौड़ता हुआ
जाता था और दूसरे
कोने से उलटा
दौड़ता हुआ
वापस लौटता था;
पीठ की तरफ।
वह कोई घंटे
भर मैं वहां
व्यायाम कर
लेता था, तीन
से चार।
एक
दिन बड़ी
मुश्किल हो
गई! मैं उलटा
लौट रहा था।
तो जब तक मैं
झुरमुट के
नीचे छाया में
था, कोई
सज्जन—कोई दूध
वाला, अपने
खाली डब्बे
लिए दूध लेने
कहीं जाता
होगा, वह
उधर से आ रहा
होगा। फिर
अचानक, जैसे
ही मैं झुरमुट
की छाया के
बाहर आया, चांद
की रात थी, उस
आदमी ने अचानक
मुझे देखा
होगा! क्षण भर
पहले तक मैं
दिखाई नहीं पड़
रहा था! तो
अचानक और उलटा
आता हुआ! उलटे
तो भूत—प्रेत
आते हैं! उसने
दोनों डब्बे
छोड़ कर पटके और
वह भागा! उसके
भागने से मुझे
लगा कि पता
नहीं इसे क्या
हो गया! मुझे
क्या पता कि
मुझसे भयभीत
हो गया है।
मैं उसके पीछे
भागा। तब तो
उसने प्राण
छोड़ दिए! मैं
जितनी तेजी से
उसकी तरफ गया
कि इसको क्या
हो गया, मामला
क्या है! मैं
उससे कहा कि
रुको, बात
क्या है? इतनी
तेज दौड़ मैंने
नहीं देखी!
फिर
मुझे कुछ खयाल
आया कि न मालूम, मैं ही
अकेला यहां
हूं र मुझे ही
देख कर डर गया हो!
पास की एक
होटल का आदमी
भी जाग गया इस
शोरगुल को सुन
कर, डब्बों
के गिरने के।
तो उसको मैंने
जाकर कहा कि
पता नहीं क्या
हुआ! उसने कहा
कि पता की पूछ
रहे हैं आप!
मुझे पता है कि
आप यहौ उलटे
चलते हैं, तो
मैं डर जाता
हूं! वह नया
आदमी होगा!
मैंने
कहा, ये
डब्बे रख लो, शायद सुबह
आए।
वह
अब तक नहीं
लौटा! जब भी
मैं उस होटल
के पास से फिर
भी गुजरा हूं
कभी, मैंने
पूछा, वह
आदमी आया? वह
आदमी आया ही
नहीं! अब कोई
उपाय नहीं है
उस आदमी को
बताने का कि
जो उसने देखा
वह लगभग झूठ
है। कोई प्रेत
था नहीं वहां।
उसने देख लिया।
लेकिन उसके
लिए वह बिलकुल
सच था, नहीं
तो इतनी देर
तक भागा नहीं
रहता।
हमारे
भीतर मन है, उसका कोई
अनुभव आरोपित
हो गया होगा।
हम
जो देख रहे
हैं, वह
वही नहीं है
जो है, हम
वह देख रहे
हैं जो हमारी
आख हमें दिखा
रही है। तो
हमारी आख
आरोपण कर रही
है प्रतिपल, और हम न
मालूम क्या—क्या
देख रहे हैं
जो वहां नहीं
है जगत में! यह
पूरा जगत
हमारी ही आखों
का फैलाव है।
हम जो देखते
हैं, वह
हमारा ही डाला
हुआ है। पहले
हम डालते हैं
और फिर हम देख
लेते हैं।
पहले रस्सी
में सांप डाल
देते हैं, फिर
देख लेते हैं,
फिर भाग खड़े
होते हैं! यह
सारा जगत ऐसा
है। हम ही
सौंदर्य डाल
देते हैं किसी
में, फिर
मोहित हो जाते
हैं, फिर
पागल होकर
घूमने लगते
हैं!
उपनिषद
के ऋषि कहते
हैं कि यह
सारा जगत, जो आदमी
का देखा हुआ
है, लगभग
झूठा है। लगभग
कह कर बड़ी
मीठी बात कही
है। वह यह कहा
है कि बिलकुल
झूठा भी नहीं
है, नहीं
तो इतने लोग
कैसे परेशान
होते! इसमें
कुछ तो सच्चाई
है। रस्सी है,
इतना सच है,
सांप नहीं
है, इतना
झूठ है। रस्सी
सांप से कुछ
मेल खाती है, यह सच है; लेकिन
फिर भी रस्सी
रस्सी है और
सांप नहीं हो जाती
है, यह भी
सच है। और इन
दोनों के बीच
में जो जगत बन
गया है भय का, रस्सी में
सांप को देख
लेने का, वह
मिथ्या है, वह माया है।
जब
तक यह मन
बिलकुल न हटा
दिया जाए, और जब तक
हम सीधा न देख
सकें, तब
तक हम जगत के
सत्य को न देख
पाएंगे। जगत
का सत्य देखते
ही जगत विलीन
हो जाता है और ब्रह्म
ही शेष रह
जाता है। अभी
ब्रह्म बंटा
हुआ दिखाई
पड़ता है। कहीं
ब्रह्म पत्थर
है और कहीं
ब्रह्म वृक्ष
है; और
कहीं ब्रह्म
आदमी है और
कहीं ब्रह्म
स्त्री है, अभी ब्रह्म
बंटा हुआ
दिखाई पड़ता है।
अगर आंख के
पीछे से सारा
प्रोजेक्यान,
वह जो आरोपण
की व्यवस्था
है, वह खो
जाए, तो यह
सारा जगत
निर्विकार एक
ही चेतना हो
जाता है, एक
ही सागर हो
जाता है। इसके
भेद गिर जाते
हैं।
'चिदात्मा
द्रष्टा, दर्शन
तथा दृश्य आदि
भावों से रहित
है, निर्दोष
है, तथा
प्रलयकाल के
समुद्र की तरह
परिपूर्ण है।'
वह
जो भीतर
साक्षी है, मन से
मुक्त, शून्य
हो गया, वह
जो चिदात्मा
है, वहा
कोई भेद नहीं
है। दर्शन, दृश्य, ये
सारे भाव वहा
खो गए हैं। न
वहां कोई
देखने वाला है,
न कोई दिखाई
पड़ने वाली चीज
है। वहां सब
द्वंद्व खो
गया है। वहां
सिर्फ एक
चैतन्य का
विस्तार है।
उस विस्तार के
लिए तुलना बड़ी
मीठी दी है।
कहा है, प्रलयकाल
के समुद्र की
तरह परिपूर्ण!
हमारे
जो समुद्र हैं, वे कितने
ही बड़े हों, सीमित हैं।
और कितना ही
उनका विस्तार
हो, उनका
किनारा है। और
जिसका किनारा
है, वह
अधूरा है, क्योंकि
कहीं बंधा है।
छोटा तालाब
छोटी सीमा से
बंधा है, बड़ा
सागर बड़ी सीमा
से बंधा है।
लेकिन छोटी
सीमा और बड़ी
सीमा में फर्क
ही क्या है!
सीमा सीमा है।
आप कितनी छोटी
जगह में कैद
हैं, कि
कितनी बड़ी जगह
में कैद हैं, इससे क्या
फर्क पड़ता है!
कैद कैद है।
इसलिए उदाहरण
में यह नहीं
कहा कि सागर
जैसा, कहा
कि प्रलयकाल
के सागर जैसा।
प्रलयकाल
एक पौराणिक
चितना है, कि जब
सृष्टि लीन
होगी, तो
सारी सृष्टि
पानी में डूब
जाएगी—सारी
सृष्टि। कहीं
भी कोई रत्ती
भर जगह न
बचेगी, जो
डूब न गई हो।
तो अगर
प्रलयकाल में
जो सागर की
अवस्था होगी,
उसमें फिर
कोई किनारा
नहीं होगा, क्योंकि
किनारे का
मतलब ही है कि
जमीन अभी कुछ
बाहर निकली
हुई है।
किनारे का
मतलब ही है कि
जमीन अभी सागर
के बाहर निकली
है। और जो
जमीन बाहर
निकली है, वह
सीमा बन जाएगी।
तो
प्रलयकाल के
सागर की भांति
है वह साक्षी
चेतना! उसका
फिर कोई
किनारा नहीं
है। फिर वह
परिपूर्ण है।
फिर कहीं उसकी
कोई सीमा नहीं
है। फिर वह
असीम है। लेकिन
भेद गिरें तभी, जब तक भेद
हैं, तब तक
सीमा है।
'और जिस
प्रकार
प्रकाश में
अंधकार खो
जाता है, विलीन
हो जाता है…..।'
यह
बड़ी अदभुत बात
कही है!
'.. ऐसे ही
अद्वितीय परम
तत्व में
भ्रांति का
कारण विलय हो
जाता है। वह
अवयवरहित है,
इससे उसमें
भेद कहा!'
'जिस प्रकार
प्रकाश में
अंधकार लीन हो
जाता है। '
बड़ी
अनूठी सूझ है।
अंधेरा घिरा
है आपके घर
में, आप
दीया जलाते
हैं। कभी आपने
सोचा कि
अंधेरा कहां
चला जाता है न:
जब आप दीया
जलाते हैं, तो अंधेरा
कहा चला जाता
है? घर के
बाहर चला जाता
है? तो ऐसा
करें, घर
के बाहर पहले
दीया जला आएं।
पहरे पर लोगों
को बिठा दें।
फिर घर के
अंधेरे कोठे
में दीया
जलाएं। अगर
अंधेरा बाहर
जाएगा, तो
जो बाहर
पहरेदार बैठे
हैं वे उसे
जाता हुआ देखेंगे
कि यह जा रहा
है, अंधेरा
जा रहा है।
अंधेरा
बाहर जाता
नहीं। अंधेरा
जाता कहां है? यह बड़ी
मीठी बात
उपनिषद कहता
है कि अंधेरा
प्रकाश में
लीन हो जाता
है। बड़ा कठिन
पड़ेगा समझना;
क्योंकि हम
तो अंधेरा और
प्रकाश को
दुश्मन मानते
हैं। लीन तो
होंगे कैसे? और हम तो
मानते हैं कि
अंधेरा और
प्रकाश, ये
शत्रु हैं, इनमें
संघर्ष है, द्वंद्व है।
और हम तो
अंधेरे को छोड़
कर प्रकाश को
पकड़ना चाहते
हैं।
तो
हमें यह मानना
बड़ा कठिन होगा
कि अंधेरा प्रकाश
में लीन हो
जाता है! हमें
तो डर लगेगा
कि अगर अंधेरा
प्रकाश में
लीन हो गया, तो सारा
प्रकाश
अंधेरा हो
जाएगा। जैसे
सफेद कपड़े पर
काली स्याही
लीन हो जाए, तो क्या
होगा मतलब? मतलब यह
नहीं होगा कि
काली स्याही
सफेद कपड़े में
लीन हो गई, मतलब
यहं होगा कि
सफेद कपड़ा
काली स्याही
में लीन हो
जाएगा। देखें
करके! काली
स्याही को
सफेद कपड़े में
लीन करके
देखें, तब
आपको पता
चलेगा कि सफेद
कपड़ा ही खो
गया, काली
स्याही नहीं
खोई।
अंधेरा
प्रकाश में
लीन हो जाता
है!
तो
बड़ी बातें
निकलती हैं
इससे। एक, कि
प्रकाश और
अंधकार में
कोई शत्रुता
नहीं है। अर्थ?
अर्थ हुआ कि
संसार और
मोक्ष में कोई
शत्रुता नहीं
है। और संसार
मोक्ष में लीन
हो जाता है।
अर्थ हुआ कि
मिथ्या में और
सत्य में कोई
विरोध नहीं है,
मिथ्या
सत्य में लीन
हो जाता है।
अंधकार
प्रकाश में
लीन हो जाता
है, इसका
यह अर्थ हुआ
कि अंधकार
जैसे
प्रतीक्षा ही
कर रहा है कि
प्रकाश हो और
लीन हो जाए।
आपने कभी
अंधेरे को
ठिठकते देखा
है कि आपने दीया
जला लिया, और
अंधेरा सोच
रहा है कि लीन
हों कि न हों!
कि विचार करें
थोड़ा; कि
फिर कल सोच कर
आएंगे; कि
संन्यास लेना
है, कि
नहीं लेना है!
कि अंधेरा लीन
हो कि न हो!
सोचेंगे, विचार
करेंगे।
नहीं, वह सोचता
नहीं। ऐसा
लगता है, जैसे
तैयार ही खड़ा
था। बस
प्रतीक्षा थी
कि तुम हो जाओ
और मैं लीन हो
जाऊं। इतनी भी
देरी नहीं
लगती। क्षण भर
की भी देरी
नहीं लगती।
प्रकाश का
होना और
अंधेरे का लीन
हो जाना युगपत
हो जाता है, एक साथ हो
जाता है। इसके
अध्यात्म में
क्या अर्थ
होंगे?
इसका
अर्थ होगा कि
जैसे ही भीतर
प्रकाश जगता है, मन, माया,
अपनी सारी
स्थिति को
लेकर एकदम से
उस प्रकाश में
लीन हो जाती
है। बचती नहीं,
खोजे से नहीं
मिलती कहीं।
यह भी समझ में
नहीं आता कि
कल तक कैसे थी!
जब
आपको रस्सी
में रस्सी दिख
जाएगी, तब आपको भी
बड़ी कठिनाई
होगी कि सांप
एक क्षण प हत्ने
तक कैसे था और
अब कहा चला
गया! था? आपको
भी शक होने
लगेगा कि मुझे
कोई भ्रम तो न
ही हो गया कि
मैं सोचता हूं
कि था। क्योंकि
हो कैसे सकता
है!
जो
जाग जाते हैं, उन्हें
बड़ी कठिनाई
होती है यह
सोच कर भी कि
जगत है, और
हो सकता है।
आज
ही सुबह मैं
किसी से बात
कर रहा था। एक
संन्यासिनी
आई हुई थी, और वह कह
रही थी कि 'तब
छुटकारा होगा
इससे—दुख से? चिंता से? कभी—कभी
लगता है हो
गया, और
फिर वापस इसी
दुख ओर खड़े हो
जाते हैं!
तो
मैंने उससे
कहा कि मेरी
भी कठिनाई है!
मेरी समझ में
यह आना धीरे—धीरे
मुश्किल होता
चला गया है कि
दुख हो कैसे जाता
है! इसका
निर्माण कैसे
हो जाता है!
ऐसा नहीं कि
मैं कभी दुखी
नहीं था, था। लेकिन
अब मुझे वैसी
ही तकलीफ होने
लगी है, जैसे
कभी दूर, बहुत
अतीत में
रस्सी में
सांप देखा हो
उगेर अब खयाल
करें और
मुश्किल हो
जाए समझना कि
रस्सी थी, सांप
दिखाई कैसे पड़
गया था!
और
अगर अभी भी
किसी को दिखाई
पड़ रहा है, तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती है। वह
मुश्किल यह है
क आपके लिए जो
बड़ा सवाल
मालूम पड़ता है,
वह बिलकुल
सवाल नहीं
मालूम पडता।
और ऐसा लगता
है कि कहां की
व्यर्थ की बात
उठाए लिए चले
आ रहे हो! और यह
कहना भी
दुष्टता
मालूम पड़ती है
कि व्यर्थ की
बात कह रहे हो।
क्योंकि वह
आदमी दुख पा
रहा है; वह
भाग रहा है; उसे सांप दिखाई
पड़ रहा है।
भागते आदमी से,
छाती कंपते
आदमी से कहो
कि क्यों भाग
रहे हो, फिजूल
की बातें कर
रहे हो! रस्सी
है, सांप
नहीं है! तो वह
और नाराज हो
जाएगा।
ध्यान
रहे, बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट, आपको जो
बातें समझाते
हैं, उनकी
तकलीफ का आपको
अंदाज नहीं है।
क्योंकि जो
बीमारी
बिलकुल नहीं
है, उसका
वे इलाज बताते
हैं! है ही
नहीं बीमारी,
मगर बीमार
कंपा जा रहा
है! बीमार कह
रहा है, प्राण
निकले जा रहे
हैं!
तो
मेडिकल साइंस
में एक नाम है, प्लेसबो।
ऐसी दवाई को, जो लगभग
दवाई है, प्लेसबो
कहते हैं।
प्लेसबो का
मतलब वह दवाई
है नहीं। तो
ऐसी बीमारी
में काम करती
है जो बीमारी
होती ही नहीं।
लगभग बीमारी
में लगभग
दवाई! वह काम
करती है। वह
काम करती है, शक्कर की
गोली है।
होम्योपैथी
करीब—करीब
प्लेसबो है, कोई दवाई—बवाई
है नहीं। मगर
बीमारी कहा है,
इसलिए काम
करती है। कोई
अड़चन नहीं है,
दवाई की
जरूरत भी कहां
है! असली
बीमारी हो तो
असली दवाई की
जरूरत है। सौ
में नब्बे
बीमारियां
नकली हैं। आम
बीमारिया भी।
और नकली
बीमारी में
असली दवाई
देना खतरनाक
है, क्योंकि
उससे दवाई के
दुष्परिणाम
होंगे।
लेकिन
यह जो
अध्यात्म की
बीमारी है, यह जो दुख
और सं ताप की
बीमारी है, यह जो संसार
की बीमारी है,
यह तो शत
प्रतिशत झूठी
है। मगर शत
प्रतिशत झूठी
कहना ठीक नहीं
है। बुद्ध
कहें, शंकर
कहें, शत
प्रतिशत झूठी
है, तो
अपनी तरफ से
ठीक कहते हैं।
लेकिन ये जो
अरब— अरब जन उस
बीमारी से
ग्रस्त हैं, इन पर दया करके
उनको कहना
पड़ता है—लगभग।
राजी करना
पडता है आपको,
धीरे—धीरे
फुसलाना पड़ता
है कि यह दवाई
लेकर देखो, वह दवाई
लेकर देखो, यह मंत्र
पढो, यह जप
करो, ऐसा
करो, वैसा
करो। शायद
दवाई लेते —लेते
बीमारी भूल
जाए। या दवाई
लेते—लेते
इतने परेशान
हो जाएं दवाई
मे कि कहें कि
दवाई भी
फेंकते हैं और
बीमारी भी
फेंकते हैं।
या ऐसा हो जाए
दवाई लेते—लेते
कि कहें कि बहुत
हो गए जन्म—जन्म
दवाई लेते, अब नहीं
लेते, अब
बीमारी को
स्वीकार करते
हैं। कुछ भी
ऐसा हो जाए, तो आप
पाएंगे कि
बीमारी थी
नहीं। जिससे
लड़ रहे थे, वह
शत्रु था नहीं;
लगभग था।
सिर्फ मालूम
पड़ता था; सिर्फ
प्रतीत होता
था कि है।
इसलिए
सभी धर्मों ने
झूठे उपाय
विकसित किए हैं।
और बुद्ध, महावीर
और कृष्ण और
क्राइस्ट से
बडी झूठ बोलने
वाले आदमी
खोजना
मुश्किल हैं!
उसका कारण यह नहीं
है कि वे लोग
झूठ बोलने
वाले लोग हैं,
उनसे
ज्यादा सच्चे
आदमी कभी नहीं
हुए। लेकिन
आपकी सारी
बीमारियां
झूठी हैं। और
इन्हीं झूठे
बीमारों के
बीच चिकित्सा
करने का जिनको
काम पड़ता है, वे जानते
हैं कि उन्हें
क्या करना है।
जो
बडे—बड़े
दर्शनशास्त्र
निर्मित किए
हैं इन ज्ञानियों
ने, वे
सब झूठ हैं।
झूठ का मतलब, लगभग झूठ
हैं। वे सिर्फ
आपकी बीमारी
को काटने के
लिए उपाय हैं।
जैसे, आप
भाग खडे हुए
हैं रस्सी को
देख कर और
सांप मानते
हैं। और मैं
लाख आपसे कहूं
कि सांप नहीं
रस्सी है, पर
मैं कह रहा
हूं। आप
कहेंगे, आपकी
बात का भरोसा
कैसे करें? क्या पता
आपको अनुभव हो
भी, न भी हो!
या हो भी तो
किसी और रस्सी
का हो, किसी
और सांप का हो।
इसका ही हो, क्या पता?
तो
समझाने की
बजाय उचित है
कि मैं आपको
एक ताबीज बांध
दूं कि रस्सी
नहीं है, सांप ही है।
मगर लो यह
ताबीज, इस
ताबीज के
मुकाबले
दुनिया का कोई
सांप नहीं टिकता।
यह ज्यादा
कारगर होगा
बजाय समझाने
के कि नहीं, रस्सी है, साप नहीं है,
रस्सी है।
यह ताबीज
बांधो।
वहां
सांप है नहीं, यहौ भी
कोई ताबीज
नहीं है।
लेकिन यह
ताबीज दम देगा
आपको, ताकत
आ जाएगी कि
असली ताबीज
है! बिलकुल
असली ताबीज
है! और अगर यह
चमत्कार भी
आपको दिखा
दिया जाए कि
अंधेरे में एक
रस्सी डाल कर
घर में, ताबीज
बांध कर आपको
अंदर भेज दिया
जाए, और
वहं। जाकर
आपको दूर से
सांप दिखाई
पड़े, पास
जाकर रस्सी
दिखाई पड़े, मामला हल हो
गया—ताबीज काम
करता है! फिर
आप दुनिया में
चले जाएं, फिर
यह भी हालत हो
सकती है कि
असली सांप के
पास भी पहुंच
जाएं तो रस्सी
दिखाई पड़े—वह
ताबीज!
आदमी
का मन भास
पैदा कर रहा
है। वे भास
आरोपित हैं।
ये सारे भास
भी उस परम
सत्य में लीन
हो जाते हैं।
जैसे ही
साक्षी का
अनुभव होता है, सारा
संसार, जो
भी फैलाव था, वह सिमट
जाता है और
साक्षी में
लीन हो जाता
है—सीमारहित,
तटरहित
सागर में।
'यह परम तत्व
एकस्वरूप ही
है, उसमें
कोई भेद नहीं
हो सकता है।
सुषुप्ति
अवस्था केवल
सुखरूप है, उसमें भेद
कब किसने देखा?'
यह
आखिरी बात इस
सूत्र में समझ
लें, सुषुप्ति
अवस्था।
जिन्होंने
खोज की है
अंतस—तलों की,
उन्होंने
मनुष्य की तीन
अवस्थाएं
उसके चित्त की
स्वीकार की
हैं। एक जिसे
हम जाग्रत
कहते हैं, सुबह
उठ कर जो
अवस्था होती
है। एक जिसे
हम स्वम्न
कहते हैं, सांझ
सोकर जो
चित्रों और
प्रतिबिंबों
की कतार लग
जाती है—स्वप्न।
और एक कभी रात
घड़ी भर को ऐसी
अवस्था आती है,
जब स्वप्न
भी नहीं होते
और जागृति भी
नहीं होती; तब सिर्फ
गहरी निद्रा
रह जाती है—सुषुप्ति।
सुषुप्ति का
अर्थ है, स्वम्न
भी जहां नहीं,
इतनी
प्रगाढ़
निद्रा।
उपनिषद
मानते हैं—नहीं, कहना
चाहिए जानते
है—कि
सुषुप्ति में
कोई भेद नहीं
रह जाता।
रहेगा भी नहीं,
क्योंकि
भेद जिस मन से
उठते थे..........।
जब
आप जागते हैं, तब भेद
रहते हैं।
आपका मकान है,
पड़ोसी का
मकान आपका
नहीं है। आप
गरीब हैं, पडोसी
अमीर है। आप
काले हैं, पड़ोसी
गोरा है। हजार
भेद, सब
तरह के भेद
बने रहते हैं।
क्योंकि भेद
मन निर्मित
करता है। सपने
में आपने एक
मजेदार बात
देखी होगी
सपने में भेद
रहते हैं, लेकिन
भेद की रेखा
खो जाती है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जाग्रत में
भेद रहते हैं, भेद की
सीमा रहती है।
मित्र है, शत्रु
है। मित्र
मित्र है, शत्रु
शत्रु है।
जाग्रत में अ
अ और ब ब रहता
है। नींद में
सपना जब चलता
है तब भी भेद
रहते हैं, लेकिन
भेदों की बीच
की सीमा खो
जाती है, ठोस
नहीं रहते, तरल हो जाते
हैं। देखते
हैं कि मित्र
चला आ रहा है, और अचानक
शत्रु हो जाता
है! लेकिन
आपको शक भी पैदा
नहीं होता, भीतर सपने
में यह भी
नहीं लगता कि
यह कैसे हो सकता
है! मित्र
दिखाई पड़ रहा
था आता हुआ, फिर पास आया
तो शत्रु हो
गया, तो यह
संदेह भी नहीं
उठता सपने में
कि यह कैसे
हुआ! आदमी से
बातें कर रहे
थे, पाते
हैं घोड़ा हो
गया! फिर भी शक
नहीं होता, सपने में, कि आदमी
अचानक घोड़ा
कैसे हो गया?
भेद—रेखा
नहीं रह जाती।
भेद रहते हैं।
घोड़ा, घोड़ा,
आदमी, आदमी;
लेकिन भेद—रेखा
नहीं रह जाती,
तरल हो जाता
है। मन
डावाडोल है
जैसे। चीजें
गडु—मडु हो
गईं।
जागते
में मन सधा है, चीजें
अलग— अलग साफ—सुथरी
हैं; लाजिकल,
तार्किक
भेद हैं। सपने
में मन
डावाडोल हो
गया। जैसे कि
पानी में चांद
का प्रतिबिंब
बन रहा हो, और
फिर किसी ने
पानी को हिला
दिया, तो
चांद हजार
टुकडे होकर
फैल गया।
चांदी रह गई, चांद नहीं
रहा, टुकड़े
ही टुकड़े फैल
गए। ऐसा मन
सपने में
डावाडोल हो
जाता है।
डावाडोल होकर,
कंपित होकर,
सब भेद—रेखाएं
खो जाती हैं।
चीजें एक—दूसरे
में गडु—मड्ड
हो जाती हैं।
कुछ पता ही
नहीं चलता कि
क्या क्या है!
अ क्या है, ब
क्या है, कब
अ ब हो जाता—कोई
तर्क नहीं
मानता। सपना
तर्क मानता ही
नहीं; बिलकुल
बेबूझ चलता है।
कोई भी चीज
किसी में घुस
जाती है!
लेकिन आप यह नहीं
कह सकते कि
ऐसा क्यों हो
रहा है? सपने
में कोई नियम
नहीं होते।
जागने के नियम
सपने में काम
नहीं करते।
फिर
तीसरी अवस्था
है, सुषुप्ति।
वहां स्वप्न
भी नहीं रह
जाता।
ध्यान
रहे, जहां
स्वप्न
समाप्त होते
हैं, वहां
मन भी समाप्त
हो जाता है।
जहा विचार
नहीं रहे, वहां
मन भी नहीं रह
सकता। जागने
में मन होता
है ठोस, सपने
में मन होता
है तरल, सुषुप्ति
में मन हो
जाता है
वाष्पीभूत, ये तीन
अवस्थाएं सभी
चीजों की
विज्ञान
मानता है।
लेकिन मन की
भी ये तीन
अवस्थाएं
भारत ने
स्वीकार की
हैं। वितान
कहता है, पदार्थ
की तीन
अवस्थाएं हैं
सालिड है, लिक्विड
है, गैसीय
है। पानी को
बर्फ बना लो, ठोस हो जाता
है, भाप
बना दो, वाष्प
हो जाता है।
तीन अवस्थाएं
हुई पानी की—
भाप, पानी,
बर्फ। जगत
की सब चीजों
की तीन
अवस्थाएं हैं।
लेकिन भारत
कहता है, मन
भी एक चीज है, एक पदार्थ
है; उसकी
भी तीन
अवस्थाएं हैं।
जाग्रत ठोस
अवस्था है, स्वप्न तरल,
सुषुप्ति
वाष्पीभूत।
मन वाष्प हो
गया, मन
रहा ही नहीं।
तो
जब गहरी नींद
होती है तो
कोई भेद नहीं
रह जाता। कोई
भेद बचेगा
नहीं, क्योंकि
भेद करने वाला
नहीं बचा। जगत
एक हो जाता है।
सुषुप्ति में
आप वहीं पहुंच
जाते हैं, जहां
समाधि में
पहुंचते हैं
ज्ञानी। फर्क
इतना होता है
कि ज्ञानी होश
से भरे रहते हैं,
आप बेहोश
रहते हैं, इतना
ही फर्क होता
है। सुषुप्ति
और समाधि
बिलकुल बराबर
है। जरा सा
भेद, लेकिन
भेद बड़ा है।
ज्ञानी जागा
हुआ पहुंचता
है, होश से
भरा हुआ
पहुंचता है
सुषुप्ति में,
तब समाधि हो
जाती है।
सुषुप्ति + होश =
समाधि।
आप
भी पहुंचते
हैं रोज। सुबह
उठ कर आप कहते
हैं, बड़ी
सुखद निद्रा
आई! आपको पता
है, किस
निद्रा की बात
कर रहे हैं
सुखद? अगर
रात भर सपने
चलते रहते हैं,
तो आप कभी
नहीं कहते कि
सुखद निद्रा
आई। कहते हैं,
रात बेचैनी
में गई, सपने
ही सपने चलते
रहे, सो
पाए ही नहीं।
जितनी देर को
सपने बंद होते
हैं, उतनी
देर को सुखद
निद्रा आती है।
लेकिन जब आती
है तब आपको
पता नहीं चलता
कि सुखद आ रही
है, क्योंकि
उतना पता भी
आपको नहीं चल
सकता नींद में,
बेहोशी में।
सुबह जाग कर
पता चलता है
कि बड़ी सुखद
थी। सिर्फ
इतना ही पता
चलता है कि
सुखद थी। एक
हलकी छाया छूट
गई जैसे; एक
ध्वनि रह गई
गूंजती हुई
सुख की।
पर
यह बड़े मजे की
बात है कि आज
तक किसी ने यह
अनुभव नहीं
किया सुबह उठ
कर कि रात बड़ी
दुखद निद्रा
आई। कभी अनुभव
किया है कि
कोई कहे... सपने
आए हों, तो वह
निद्रा थी ही
नहीं, सुषुप्ति
आई ही नहीं।
आज तक मूनुष्य—जाति
के इतिहास में
एक आदमी ने
सुबह उठ कर यह
नहीं कहा है
कि रात नींद
बड़ी गहरी थी, बड़ा दुख
पाया। कहा ही
नहीं है। यह
हुआ ही नहीं
है, कहेगा
भी कोई कैसे!
सुखद निद्रा
सुखरूप है।
वहा दुख होता
ही नहीं।
इसलिए उस सुख
को हम सुख भी
नहीं कहते, उसको आनंद
कहते हैं।
क्योंकि सुख
के तो विपरीत
दुख होता है, आनंद के
विपरीत कुछ भी
नहीं होता।
इसलिए
सुषुप्ति
आनंद है। एक
ही भाव रह
जाता है आनंद
का, कोई
भेद नहीं रह
जाता।
तो
जैसे
सुषुप्ति
एकरूप है, ऐसे ही वह
साक्षी का
अनुभव भी
एकरूप है। फिर
आनंद ही रह
जाता है। और
जैसे प्रलय का
सागर भरा हो —सीमारहित,
तटहीन, कोई
किनारा नहीं—ऐसा
सुख, ऐसा
आनंद और एक!
कोई भेद नहीं।
आज
इतना ही
THANK YOU GURUJI
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