सूत्र:
अध्याय—9
पत्रं
पष्पं फलं
तोर्य यो मे
भक्या
प्रकछीत।
तदहं भक्मुष्ठतमश्नामि
प्रयतात्मन:।।
26।।
यत्करोषि
यदश्नासि यज्जुएषि
ददासि यत्।
यत्तयस्यसि
कौन्तेय
तत्कुरुष्य
मदर्यणम्।। 27।।
शुभाशुभफलैरेवं
मोक्ष्यसे
कमंबन्धनै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा
विख्सुाए
मामुयैष्यसि।।
28।।
तथा है अर्जुन? मेरे
पूजन में पत्र, पुष्य,
फल, जल
हत्यादि जो
कुछ कोई भक्त
मेरे लिए
प्रेम से अर्पण
करता है,
उस शुद्ध
बुद्धि
निष्काम
प्रेमी भक्त
का प्रेमपूर्वक
अर्पण किया
हुआ वह पत्र, पुष्य, फल आदि
मैं ही ग्रहण
करता है।
हसलिए हे
अर्जुन तू जो
कुछ कर्म करता
है, जो
कुछ खला है, जो कुछ हवन
करता है,
जो कुछ दान
देता है जो
कुछ
स्वधर्माचरण
रूप तय करता
ह्रे वह सब
मेरे अर्पण
कर। हम प्रकार
कर्मो को मेरे
अर्पण करने
रूप संन्यास—
योग से युक्त
हुl मन
वाला तू
शुभाशुभ
फलरूय
कर्मबंधन से
मुक्त हो
जाएगा और उनसे
मुक्त हुआ
मेरे को ही
प्राप्त
होवेगा।
परमात्मा की
पूजा भी करनी
हो, तो
भी हमारे पास
ऐसा कुछ भी नहीं
है उसे देने
को, जिसे
हम अपना कह
सकें। और जो
हमारा ही नहीं
है, उसे
देने का भी
क्या अर्थ है?
जो कुछ भी
है, उसका
ही है। तो
पूजा में उसके
द्वार पर भी
हम जो रखेंगे,
उसका ही उसे
लौटा रहे हैं।
मनुष्य
के पास ऐसा
क्या है जो
परमात्मा का
दिया हुआ नहीं
है? अगर
उसकी ही चीजें
उसे लौटा रहे
हैं, तो
बहुत अर्थ
नहीं है। कुछ
ऐसा उसे दें, जो उसका
दिया हुआ न हो,
तो ही पूजा
में चढ़ाया, तो ही पूजा
में हमने कुछ
अर्पित किया।
इसे
थोड़ा समझना
पड़ेगा। बड़ी
कठिनाई होगी
खोजने में।
क्योंकि क्या
है जगत में जो
उसका नहीं है? अगर
वृक्षों से तोड़कर
फूल मैं चढ़ा
आता हूं उसके
चरणों में, वे फूल तो
उसके चरणों
में चढ़े ही
हुए थे! और अगर नदी
का जल भरकर
उसके चरणों
में ढाल आता
हूं तो वह नदी
तो सदा से
अपना सारा जल
उसके चरणों
में ढाल ही
रही थी! मैं
इसमें क्या कर
रहा हूं? और
इस करने से
मेरे जीवन का
रूपांतरण
कैसे होगा?
लेकिन
एक बात जरूर
मनुष्य के पास
ऐसी है, जो परमात्मा
की दी हुई
नहीं है। एक
ही बात ऐसी है।
कर्ता का भाव,
मैं कुछ कर रहा
हूं यह
परमात्मा का
दिया हुआ नहीं
है, यह
आदमी का अपना
अर्जित है। यह
अहंकार कि मैं
कुछ कर रहा
हूं आदमी की
अपनी खोज है।
यह आदमी का
अपना
आविष्कार है।
और जब तक कोई
आदमी इस भाव को
उसके चरणों
में न चढ़ा दे, तब तक वह
रूपांतरण
घटित नहीं
होता, जिसकी
कृष्ण बात कर
रहे हैं।
इसलिए
वे कहते हैं
कि तू खाए तो, तू चले तो,
बैठे तो, हवन करे तो, तू जो कुछ भी
करे, वह सब
मेरे अर्पण
कर। कर्मों को
मेरे अर्पण
कर। कर्ता
होने के भाव
को मुझे अर्पण
कर। और जिस
क्षण तू यह कर
पाएगा, उसी
क्षण तू
संन्यस्त हो
गया।
यह
बहुत अदभुत
बात है।
क्योंकि
संन्यास का अर्थ
होता है, कर्म को छोड़
देना, कर्म
का त्याग।
कृष्ण कर्म के
त्याग को नहीं
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
कर्म तो तू
कर, लेकिन
मुझे अर्पित
होकर। कर्म को
छोड़ नहीं जाना
है, करते
जाना है।
लेकिन वह जो
करने वाला है,
उसे छोड़
देना है, वह
जो भीतर मैं
खड़ा हो जाता
है, उसे
विसर्जित कर
देना है।
अहंकार
अकेली चीज है
आदमी के हाथ
में, जो
पूजा में चढ़ाई
जा सकती है।
वह आदमी की
अपनी है, बाकी
तो सब
परमात्मा का
है। लेकिन दो—तीन
बातें और इस
संबंध में समझ
लेनी जरूरी
होंगी। कठिन
भी है उसे ही
चढ़ाना। धन
आदमी चढ़ा सकता
है। जोश में
हो, तो
जीवन भी चढ़ा
सकता है।
गर्दन भी
काटकर रख सकता
है। इतना कठिन
नहीं है। ऐसे
भक्त हुए हैं,
जिन्होंने
गर्दन काटकर
चढा दी, अपना
जीवन समर्पित
कर दिया। वह
उतना कठिन
नहीं है, क्योंकि
जीवन भी उसी
का ही है।
लेकिन जिसने
गर्दन चढ़ाई है,
वह भी भीतर
समझता रहता है
कि मैं गर्दन
चढ़ा रहा हूं!
याद रखना, स्मरण
रखना, भूल
मत जाना, मैं
गर्दन चढ़ा रहा
हूं!
गर्दन
जब कटती है, तब भी
भीतर मैं खड़ा
रहता है। मैं
को बचाकर भी
गर्दन चढ़ाई जा
सकती है। और
अगर मैं बच
गया, तो जो
हम चढ़ा सकते
थे, वह बच
गया, और जो
चढ़ा ही हुआ था,
वही वापस
लौट गया। धन
कोई चढ़ा दे, जीवन कोई
चढ़ा दे, पद—प्रतिष्ठा
कोई चढ़ा दे, सब कुछ चढ़ा
दे, लेकिन
पीछे मैं बच
जाए, तो जो
चढ़ाना था, वह
बच गया और जो
चढ़ा ही हुआ था,
वह हमने चढ़ा
दिया। और चढ़े
ही हुए को
चढ़ाकर हम और
अपने मैं को
मजबूत कर लेते
हैं कि मैंने
इतना चढ़ाया
है। चढ़ाने
वाले भी हिसाब
रखते हैं!
एक
आदमी कुछ दिन
पहले मेरे पास
आया था। उसने
मुझे कहा कि
मैं इतने लाख
दफा राम का
नाम स्मरण कर
चुका हूं। वह हिसाब
रखे है, कापी बनाए
हुए है! सारा
हिसाब है कि
कितने लाख दफा
उसने राम का
नाम लिया। यह
आदमी राम के
पास भी जाएगा,
तो कापी
लेकर जाने
वाला है। और
कहेगा कि याद
है? कितना
मैं चिल्लाया!
कितने मैंने
नाम लिए! यह सब
हिसाब मेरे
साथ है। लोग
प्रेम में भी
गणित को ले आते
हैं! लोग
प्रार्थना
में भी हिसाब,
बही—खाते रख
लेते हैं! सब
व्यर्थ हो
गया। क्योंकि यह
हिसाब—किताब
जो रख रहा है, वह अहंकार
है। यह जो कह
रहा है कि
मैंने इतने नाम
लिए, अब यह
नाम भी
संपत्ति हो
गई। अब ये
करोडों सिक्के
हो गए मेरे
पास। अब इन
करोड़ों
सिक्कों के साथ
मैं उसके पास
पहुंचूंगा।
कीर्कगार्ड
ने, एक
ईसाई फकीर ने
और एक अदभुत
विचारक ने
अपनी डायरी
में एक
वक्तव्य लिखा
है। उसने लिखा
है कि मैंने
सब उसके लिए
चढ़ा दिया, समस्त
बुरे कर्म छोड़
दिए; सब
पापों से अपने
को बचा लिया, सब तरह की
अनीति से अपने
को दूर कर
लिया। एक दुर्गुण
मुझ में न
रहा। और तब
मुझे एक दिन
ऐसा पता चला
कि मुझ में
गुण ही गुण
हैं! और मैंने
पाया कि मेरे
भीतर अहंकार
लपट की भांति
खड़ा हो गया
है। और तब
मुझे पता चला
कि ये मेरे
गुण भी मेरे
अहंकार का ही
भोजन बन गए
हैं। यह मेरा
सदाचरण भी, यह मेरा
नैतिक जीवन भी,
मेरे
अहंकार का ही
पोषण बन गया
है। और उस दिन
मैं रातभर
रोया, उसने
लिखा है, कि
हे परमात्मा,
इससे तो
बेहतर था कि
मैं पापी था, बुरा था, कम
से कम यह
अहंकार तो खड़ा
नहीं होता था।
बुराई से मैं
छूट गया, अब
भलाई से तू
मुझे छुड़ा। यह
भलाई नया
कारागृह बन
गई।
और
ध्यान रहे, बुरे
आदमी के पास
जो अहंकार
होता है, दीन
होता है, और
भले आदमी के
पास जो अहंकार
होता है, बड़ा
सबल हो जाता
है। इसलिए
बुरे आदमी की
बुराइयां
बाहर हैं और
भले आदमी की
बुराई भीतर हो
जाती है।
बुरा
आदमी चोरी
करता है, बेईमानी
करता है, धोखा
देता है। उसकी
बुराइयां बाहर
हैं। भला आदमी
न चोरी करता, न बेईमानी
करता। समय पर
पूजा करता है,
प्रार्थना
करता है। नियम
का पालन करता
है। मर्यादा
से जीता है।
बाहर उसकी कोई
बुराई नहीं है।
लेकिन सब के
मुकाबले भीतर
एक बुराई खड़ी
हो जाती है कि
मैं भला आदमी
हूं। जहां भी
वह चलता है, वह भले आदमी
का अहंकार साथ
चलता है।
इसलिए भला
आदमी जब दूसरे
की तरफ देखता
है—तो गहरे
में छान—बीन
करना, तो
पता चलेगा—वह ऐसे
देखता है, जैसे
दूसरा आदमी
कीड़ा—मकोड़ा
हो!
यह तो
बुरे आदमी से
भी बुरा होना
हो गया। यह तो बुराई
गहरी हो गई।
और बुरे आदमी
ने दूसरों के साथ
बुरा किया, इस भले
आदमी ने अपने
साथ भी बुरा
कर लिया है। और
बुरे आदमी ने
दूसरों को
धोखा दिया था,
इस भले आदमी
ने अपने को भी
धोखा दे लिया
है।
पूजा
और प्रार्थना
करने वाले का
भी बडा सात्विक
अहंकार मजबूत
हो जाता है।
और ध्यान रहे, जब
अहंकार
सात्विक होता
है, तो
बहुत जहरीला हो
जाता है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
तू सब छोड़ दे।
बुरा— भला सब
मुझ पर छोड़
दे। तू जो भी
कर रहा है, उसमें तू
करने वाला मत
रह। तू जान कि
मैं तेरे भीतर
से कर रहा
हूं। तू ऐसा
अर्पित हो जा।
कर्म
छोड़ने को वे
नहीं कह रहे
हैं। इसलिए
कृष्ण ने जो
बात कही है, वह अति
क्रांतिकारी
है। कर्म छुड़ा
लेने में बहुत
कठिनाई नहीं
है। आदमी कर्म
छोड़कर जंगल
जा सकता है।
लेकिन कर्ता
छुड़ा लेना
असली कठिनाई
है। और आदमी
जंगल भी चला
जाए कर्म को छोड़कर,
तो यह अकड़
साथ चली जाती
है कि मैं सब
कर्मों को छोड़कर
चला आया हूं।
कर्ता पीछे
साथ चला जाता
है। कर्म तो
बस्ती में छूट
जाएंगे, कर्ता
नहीं छूटेगा।
कर्ता आपके
साथ जाएगा। वह
आपकी भीतरी
दशा है। आप
मकान छोड़
देंगे, घर—दुकान
छोड़ देंगे, काम— धाम छोड़
देंगे, सब
तरफ से
निवृत्त होकर
भाग जाएंगे
जंगल में, लेकिन
वह जो भीतर
कर्ता बैठा है,
वह इस
निवृत्ति के
ऊपर भी सवार
हो जाएगा।
निवृत्ति भी
उसी का वाहन
बन जाएगी। और
जाकर जंगल में,
वह अकड़ से
कहेगा कि सब
छोड़ चुका हूं।
यह छोड़ना कर्म
हो जाएगा। यह
छोड़ना कर्म हो
जाएगा, यह
त्यागना कर्म
हो जाएगा। और
अहंकार इससे
भी भर लेता
है।
इसलिए
कृष्ण ने कहा, कर्म छोड़कर
कुछ भी न होगा
अर्जुन, कर्ता
को छोड़ दे!
यह
दुरूह है, यह अति
कठिन है।
क्योंकि कर्म
तो बाहर हैं।
और जो भी बाहर
है, उसको
पकड़ना भी आसान
है, छोड़ना
भी आसान है।
जो भीतर है, उसे पकड़ने
में भी जन्मों—जन्मों
लग जाते हैं; उसे छोड़ना
भी उतना ही
कठिन है।
मेरे
हाथ में कोई
चीज है, उसे मैं छोड़
दूं आसान है।
मेरी खोपड़ी
में जब कोई
चीज होती है, तो छोडनी
मुश्किल हो
जाती है।
खोपड़ी में हो,
उसे भी छोड़ा
जा सकता है।
लेकिन जो मेरी
चेतना
में
प्रवेश कर जाए
उसे फिर छोड़ना
और भी मुश्किल
हो जाता है।
यह अहंकार, हमारे
भीतर गया गहरे
से गहरा संसार
है। संसार का
तीर हमारे
भीतर जो गहरे
से गहरे में
चला गया है, उसका नाम
अहंकार है; उस घाव का
नाम अहंकार
है। वह हमारे
भीतर है। वह
हमारे भीतर
है। और हमारा
मजा ऐसा है कि
हम उस तीर को
और दबाए चले
जाते हैं, ताकि
अहंकार और
भीतर चला जाए।
खाज हो जाती
है न किसी को, तो खुजलाने
से भी आनंद
मालूम पड़ता
है। अहंकार
आत्मिक खाज है;
उसे
खुजलाने से भी
आनंद मालूम
पड़ता है। पीछे
कितनी ही पीड़ा
हो, लेकिन
जब खुजाते हैं,
तब लगता है,
बड़ा सुख मिल
रहा है! जिसको
भी कभी खाज
हुई हो, उसे
पता होगा।
लेकिन अहंकार
तो सभी को हुआ
है, सभी को
पता होगा। उसे
खुजलाने में
सुख मिलता है।
हालांकि सभी
दुख उसी
खुजलाने से
पैदा होते
हैं।
खाज को
खुजलाने से
लहूलुहान हो
जाता है शरीर, पीछे
पीड़ा आती है।
और अहंकार को
खुजलाने से आत्मा
लहूलुहान हो
जाती है, और
जन्मों—जन्मों
तक पीड़ा की
सतत श्रृंखला
बन जाती है। लेकिन
फिर भी हम
खुजलाए चले जाते
हैं, और
तीर को भीतर
धंसाए चले
जाते हैं। घाव
में भी तीर
लगता है, तो
हमें रस आता
है।
कृष्ण
कहते हैं, इसको ही
छोड़ दे। यह
मैं कर रहा
हूं इस भाव को
छोड़ दे।
इस भाव
को छोड़ना हो, तो दो
अनिवार्य
शर्तें हैं।
कहा है
कृष्ण ने, उस शुद्ध
बुद्धि, निष्काम
प्रेमी भक्त का
प्रेमपूर्वक
अर्पण किया
हुआ सभी कुछ
मैं ग्रहण
करता हूं।
दो
शब्दों का
उपयोग किया है, शुद्ध
बुद्धि और
निष्काम
प्रेमी।
बुद्धि कब शुद्ध
होती है? और
प्रेम कब
पवित्र होता
है? बुद्धि
तब शुद्ध होती
है. .जैसा हम
आमतौर से सोचते
हैं, तब
नहीं। हम सब
सोचते हैं कि
अगर बुद्धि
में शुद्ध
विचार हों, तो बुद्धि
शुद्ध हो जाती
है। इससे
ज्यादा भांति
की कोई दूसरी
बात नहीं है।
इसलिए यह
समझना थोड़ा
कठिन पड़ेगा।
हम समझते हैं
कि बुद्धि के
शुद्ध होने का
अर्थ है, शुद्ध
विचार, अच्छे
विचार, सात्विक
विचार, सद
विचार हों तो
बुद्धि शुद्ध
हो जाती है।
लेकिन बुद्धि
तब तक शुद्ध
नहीं होती, जब तक विचार
हों, चाहे
वे सद विचार
ही क्यों न
हों। जब विचार
ही नहीं रह
जाते, तभी
बुद्धि शुद्ध
होती है।
जैसे
एक आदमी के
हाथ में लोहे
की जंजीरें
हैं। वह
कारागृह में
पड़ा है। कल हम
उसे सोने की
जंजीरें पहना
दें। शायद वह
खुश हो कि अब
मैं स्वतंत्र
हो गया, क्योंकि
जंजीरें अब
सोने की हो
गईं।
अच्छी
जंजीरें, हीरे—जवाहरात
जड़े हों!
लेकिन वह
स्वतंत्र
नहीं हो गया।
स्वतंत्र तो
वह तभी होता
है, जब
जंजीरें
अच्छी नहीं, जंजीरें
होती ही नहीं!
ध्यान
रखें, विचार
की तीन
अवस्थाएं
हैं। एक विचार
की अवस्था है,
जिसको हम
अशुद्ध विचार
कहें। अशुद्ध
विचार का अर्थ
है, जो
वासना के पीछे
दौड़ता हो, वृत्तियों
के पीछे दौड़ता
हो; शरीर
को मालिक
मानता हो, खुद
गुलाम हो जाता
हो! जहां
वासना मालिक
है और विचार
गुलाम है, वहा
बुरा विचार है,
असद विचार
है, अशुभ
विचार है।
इसे हम
बदल सकते हैं।
बदलने का अर्थ
यह है कि विचार
मालिक हो गया, वासना
गुलाम हो गई।
अब वासना के
पीछे विचार नहीं
चलता, विचार
के पीछे ही
वासना को चलना
पड़ता है। यह शुभ
विचार हुआ, सद विचार
हुआ, अच्छा
विचार हुआ।
लेकिन विचार
भी मौजूद है
और वासना भी
मौजूद है, सिर्फ
संबंध बदल
गया। कल वासना
मालिक थी, विचार
गुलाम था, अब
विचार मालिक
है, वासना
गुलाम है।
लेकिन
ध्यान रहे, आप गुलाम
के मालिक भी
हो जाएं, तो
भी उससे बंधे
रहते हैं। आप
गुलाम की छाती
पर भी बैठ
जाएं, तो
भी गुलाम आपको
बाधें रखता
है। आप छोड़कर
हट नहीं सकते।
गुलाम तो हट
ही नहीं सकता,
क्योंकि आप
उसकी छाती पर
चढ़े हैं। आप
भी नहीं हट
सकते, क्योंकि
आप हटे कि
छाती से उतरे।
आपको गुलाम को
दबाकर बैठे
रहना पड़ेगा।
शायद आप सोचते
होंगे, गुलाम
मुझसे बंधा
है। गुलाम भी
जानता है कि
आप उससे बंधे
हैं, हट
नहीं सकते।
सुना
है मैंने कि
एक आदमी एक
गाय को बांधकर
अपने घर लौट
रहा है। फकीर
हसन उसे
रास्ते में
मिल गया और
हसन ने पूछा
कि मेरे मित्र, मैं एक
बात जानना
चाहता हूं।
तुम गाय से
बंधे हो कि
गाय तुमसे
बंधी है ग्र
उस
आदमी ने कहा, तू पागल
मालूम होता
है! यह भी कोई
पूछने की बात है?
जाहिर है कि
गाय मुझसे
बंधी है; मैं
गाय को बांधकर
ले जा रहा
हूं।
तो
फकीर हसन ने
कहा, एक
काम कर। अगर
गाय तुझसे
बंधी है, तो
तू छोड़कर
बता। तू छोड़
दे। फिर अगर
गाय तेरे पीछे
चले, तो हम
समझें।
उस
आदमी ने कहा, अगर मैं
छोड़ दूंगा, गाय भाग खड़ी
होगी, मुझे
उसके पीछे
भागना पड़ेगा।
तो फकीर
हसन ने कहा, फिर तू
ठीक से समझ
ले। यह हाथ
में जो रस्सी
लिए है, इस
धोखे में मत
पड़ना। अगर गाय
भागे, तो
तू उसके पीछे
भागेगा, गाय
तेरे पीछे
नहीं भागेगी।
अगर तू गाय को
छोड़ दे, तो
गाय तेरा पता
लगाती हुई
नहीं आने वाली
है, तू ही
उसका पता
लगाता हुआ
जाएगा। तो तू
इस भ्रम में
है कि तू गाय
को बांधे हुए
है।
जिसे
हम बांधते हैं, उससे हम
बंध भी जाते
हैं, जीवन
का यह एक
अनिवार्य
नियम है।
इसलिए जो मुक्त
होना चाहता है,
वह किसी को
बांधेगा
नहीं। बांधा
कि आप फिर मुक्त
नहीं हो सकते।
अगर आपकी
वासना को आपने
दबा लिया और
अच्छा विचार
आप ऊपर ले आए, तो भी वासना
नीचे
कुलबुलाती
रहेगी, भभकती
रहेगी; लपटें
उसकी उठती
रहेंगी। आपको
रोज—रोज दबाना
पड़ेगा। जिसे
एक दिन दबाया
है, उसे
रोज—रोज दबाना
पड़ेगा। और
दबाने से कोई
वासना मिटती
नहीं है, भभक
भी सकती है और
तेजी से, क्योंकि
दमन से रस भी
पैदा होता है।
और जिसे हम
दबाते हैं, उसमें
आकर्षण भी बढ़
जाता है। और
जिसे हम दबाते
हैं, उसकी
शक्ति भी
इकट्ठी होती
चली जाती है।
फिर यह संघर्ष
सतत है।
इसलिए
जिसे हम बुरा
आदमी कहते हैं, वह बाहर
लोगों से लड़ता
रहता है; जिसे
हम अच्छा आदमी
कहते हैं, वह
भीतर अपने से
लड़ता रहता है।
जिसे हम बुरा
आदमी कहते हैं,
वह दूसरों
को सताने की
कोशिश में लगा
रहता है, जिसे
हम अच्छा आदमी
कहते हैं, वह
खुद को सताने
की कोशिश में
लगा रहता है।
जिसे हम बुरा
आदमी कहते हैं,
वह इसीलिए
बुरा है कि
उसको वासना के
पीछे भागना
पड़ता है, जिसको
हम अच्छा आदमी
कहते हैं, उसे
इसीलिए अच्छा
कहते हैं कि
वह अपनी वासना
की छाती पर
सवार होकर बैठ
जाता है।
लेकिन यह बैठ
जाना भी
स्टैटिक है।
यह बैठ जाना
भी मर जाना है।
यह बैठ जाना
भी रुक जाना
है।
एक
तीसरी भी
अवस्था है
बुद्धि की, जब विचार
और वासना
दोनों नहीं
होते। उस
स्थिति का नाम
शुद्ध बुद्धि
है। शुद्ध
बुद्धि का
अर्थ है कि
संघर्ष गया; जो लड़ने
वाले थे, वे
रहे ही नहीं।
न बांधने वाला
है अब, और न
वह जिसे
बांधना था। न
अब कोई मालिक
है और न अब कोई
गुलाम है।
क्योंकि जहां
मालिक और गुलाम
हैं, वहा
एक
अंतर्संघर्ष
जारी रहेगा
ही।
चाहे
समाज हो, जब तक समाज
में मालिक और
गुलाम हैं, तब तक समाज
में एक 'संघर्ष
जारी रहेगा
ही। मार्क्स
उसे क्लास स्ट्रगल
कहता हैं। तो
वर्ग—संघर्ष
जारी रहेगा।
ठीक
ऐसी ही घटना
भीतर भी घटती
है। जब तक
भीतर भी मालिक
और गुलाम में
बंटावट है, जब तक
बंटावन है
भीतर, विभाजन
है, तब तक
भीतर भी एक
संघर्ष, एक
अंतर्संघर्ष
जारी रहेगा, एक इनर
काफ्लिक्ट, एक
अंतर्द्वंद्व
भीतर भी बना
रहेगा। शुद्ध
नहीं है वह
स्थिति।
कृष्ण
कहते हैं, शुद्ध
बुद्धि।
उसका
अर्थ है, जिसकी
बुद्धि इतनी
शुद्ध हो गई
कि अब वहा
विचार की कोई
तरंग भी नहीं
है। एकदम
निर्मल झील की
तरह हो गई।
बुरा विचार तो
चला ही गया, गंदी लहर तो
चली ही गई, वह
लहर भी अब
नहीं है, जिसको
हम निर्मल लहर
कहें, वह
भी नहीं है।
लहर ही न रही।
मन झील की तरह
मौन हो गया, जिस पर कोई
भी तरंग नहीं
है।
यहां
ठीक से समझ
लें।
नीति
का संबंध
सिर्फ इतने से
है कि आपकी बुद्धि
इस अर्थ में
शुभ हो जाए कि
अशुभ दब जाए और
शुभ ऊपर आ
जाए। नीति की
दौड़ इतनी है।
इसलिए नीति
धर्म नहीं है।
धर्म और बड़ी
बात है! एक
अधार्मिक
आदमी भी नैतिक
हो सकता है; कोई अड़चन
नहीं है। एक
नास्तिक भी
नैतिक हो सकता
है, कोई
अड़चन नहीं है।
नैतिकता
का मतलब ही
इतना है कि आप
अपनी वासना को
अपने विचार के
नियंत्रण में
कर लिए हैं।
एक संयम
उपलब्ध हुआ
है। अब आपकी
वासना आपको
खींच नहीं
पाती। अब आप
उसे रोक पाते
हैं। वासना की
लगाम आपके हाथ
में आ गई।
घोड़ा जिंदा है, लगाम से
आप उसे चला
लेते हैं।
लेकिन चौबीस
घंटे उसको
चलाने में ही
व्यय होता है,
और घोड़ा
पूरे समय तलाश
में होता है
कि कब उसे मौका
मिल जाए और वह
छूटकर निकल
भागे। उसके
पीछे चौबीस
घंटे आपको सजग
चेष्टा में रत
रहना पड़ता है।
और
इसलिए कोई भी
आदमी चौबीस
घंटे तो सतत
चेष्टा नहीं
कर सकता, हर चेष्टा
का अनिवार्य
रूप विश्राम
है। कोई भी
आदमी चौबीस
घंटे
चेष्टारत
नहीं हो सकता,
विश्राम तो
करना ही
पड़ेगा। जो
दिनभर जागा है,
उसे रात
सोना भी
पड़ेगा। और
जिसने दिनभर
गड्डा खोदा है,
उसे हाथ—पैर
को आराम भी
देना पड़ेगा।
इसलिए
नैतिक आदमी को
बीच—बीच में
विश्राम भी
लेना पड़ता है।
उसी विश्राम
में उसकी अनीति
प्रकट होती
है। नैतिक
आदमी को भी
बीच—बीच में
विश्राम लेना
पड़ता है। कई
बहाने खोजकर
विश्राम लेता
है। कभी कहता
है, होली
का उत्सव मना
रहे हैं, तब
वह गालियां बक
लेता है। जो
बेहूदगियां
उसने सालभर
नहीं कीं, अब
वह मजे से कर
लेता है।
नैतिक
आदमी को भी
बहाने खोज—खोजकर
अपनी अनीति को
छुट्टी का
अवसर देना
पड़ता है।
क्योंकि थक
जाएगा; विश्राम
जरूरी है, छुट्टी
का दिन जरूरी
है। और अगर
जागने में नहीं
दे पाता, तो
नींद में
छुट्टी देनी
पड़ती है। तो
सपनों में सब
बुरे कर्म कर
लेता है; जो
दिनभर दबाए
रखे, वह
रात सपनों में
प्रकट हो जाते
हैं।
अगर हम
अच्छे आदमी के
सपने देखें, तो वे
अनिवार्य रूप
से बुरे होते
हैं। बुरे आदमी
के सपने इतने
बुरे नहीं
होते। कारण
नहीं है। बुरा
आदमी दिन में
ही बुरा कर
लेता है, रात
मजे से सो
जाता है।
अक्सर तो ऐसा
होता है कि
बुरा आदमी रात
में बड़े अच्छे
सपने देखता है।
काप्लिमेंट्री
है। दिनभर
बेचैन रहता
है। कई दफा मन
में उसके भी
आता है कि
अच्छा आदमी हो
जाऊं। हो नहीं
पाता, वह
वासना अतृप्त
रह जाती है।
बुरा तो वह कर
लेता है, जो
करना है उसे।
अच्छे की
वासना अतृप्त
रह जाती है, रात सपना बन
जाती है।
अच्छा
आदमी रात बुरे
सपने देखता
है। दिनभर तो
अच्छा कर लेता
है सम्हालकर, लेकिन
भीतर बुरे का
रंग और राग
बजता रहता है,
भीतर बुरे
की ध्वनि बजती
रहती है। वह
मांग करती
रहती है कि
छुट्टी थोड़ी
मुझे दो, बहुत
ज्यादा लगाम
मत खींचो।
थोड़ा मुझे
फुर्सत दो, मैं दौड़
सकूं। हवाएं
अच्छी हैं, रास्ता साफ
है, सुबह
का वक्त है, थोड़ा मुझे
दौड़ लेने दो।
नहीं देता, तो रात जब सो
जाता है, लगाम
छूट जाती है
ढीली, तब
मन दौड़ना शुरू
हो जाता है।
एक मजे
की बात है कि
आदमी ने दिन
में जो दबाया
हो, वही
रात उसके
सपनों में
प्रकट होता
है। जो—जो
दबाया हो, वही
प्रकट हो जाता
है। सपने
सहयोगी हैं।
फ्रायड कहता
है, सपने
सहयोगी हैं।
अगर
अच्छा आदमी सो
न सके, तो
पागल हो
जाएगा। अगर
बुरा आदमी न
सो सके, वह
भी पागल हो
जाएगा।
क्योंकि
विश्राम
चाहिए। वह जो
दूसरा हिस्सा
मांग कर रहा
है, जिसको
आप दबाकर बैठ
गए हैं, उसको
भी मौका
चाहिए। वह भी
आपका हिस्सा
है।
कृष्ण
इस आदमी को
शुद्ध बुद्धि
नहीं कहेंगे। वे
कहेंगे कि ये
दोनों एक जैसे
हैं। सिर्फ एक
चीज नीचे थी, वह ऊपर आ
गई; जो ऊपर
था, वह
नीचे आ गया।
लेकिन टोटल, जोड़ वही
है।। मैंने
सुना है कि एक
सर्कस में बंदरों
की एक जमात
है। और बंदरों
को सम्हालने वाला
जो आदमी है, वह रोज सुबह
उन्हें चार
रोटी देता है
और सांझ को
तीन रोटी देता
है। एक दिन
रोटी की कुछ कमी
थी, तो
उसने यह
व्यवस्था बदल
दी। उसने
बंदरों को बुलाकर
कहा कि आज से
नियम बदलता है,
सुबह
तुम्हें तीन
रोटी मिलेंगी
और शाम तुम्हें
चार रोटी
मिलेंगी।
बंदरों
ने बगावत कर
दी। बंदर बहुत
नाराज हुए।
उन्होंने कहा, यह नहीं
चलेगा। यह हो
ही नहीं सकता।
सुबह चार रोटी
ही चाहिए और
शाम को तीन
रोटी ही
चाहिए।
उस
आदमी ने बहुत
समझाया कि तुम
बिलकुल पागल
हो, जोड़
तो करो। जोड़
तो सात ही
होता है।
बंदरों ने कहा,
जोड—वोड़ से
हमें मतलब
नहीं है। चार
रोटी सुबह
चाहिए, तीन
रोटी शाम
चाहिए। सुबह
तीन रोटी दे
दी जाएं, शाम
चार रोटी दे
दी जाएं; बंदर
बड़े नाराज
हुए।
लेकिन
बंदर जोड़ नहीं
जानते; क्षमा किए
जा सकते हैं।
आदमी भी जोड़
नहीं जानता
है! नीचे को
ऊपर कर लेते
हैं, ऊपर
को नीचे कर
लेते हैं।
सोचते हैं, सब ठीक हो
गया। सिर्फ
जोड़, जोड़
तो वही रहता
है।
अच्छे
और बुरे आदमी
का जोड़ बराबर
है। यह जरा कठिन
मालूम पड़ेगा।
लेकिन मैं
आपसे कहना
चाहता हूं, अच्छे और
बुरे आदमी का
टोटल, जोड़
बराबर है, ऊपर
और नीचे का
फर्क है। एक
में चार रोटी
सुबह हैं, तीन
रोटी शाम हैं;
एक में तीन
रोटी सुबह हैं,
चार रोटी
शाम हैं।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि मैं
आपसे यह कह
रहा हूं कि
अगर आप अच्छे
आदमी हों, तो बुरे
आदमी हो जाएं।
इसका यह मतलब
नहीं है। इसका
यह मतलब है कि
आप अगर अच्छे
आदमी हैंइr? तो अच्छे
आदमी ही मत रह
जाना।
क्योंकि
अच्छे आदमी की
उपयोगिता है। जहां
तक समाज का
संबंध है, समाज का
काम पूरा हो
गया। उसे आपके
भीतर से कोई
मतलब नहीं है
कि जोड़ क्या
है। समाज का
काम पूरा हो
गया। आपका
अच्छा चेहरा
ऊपर आ गया, बुरा
चेहरा आपके
भीतर चला गया।
वह आपकी बात
हो गई। उसका
कोई सामाजिक
अर्थ नहीं है।
समाज जानता है
कि आप अच्छे
आदमी हैं। आप
समाज के लिए
अच्छे आदमी हो
गए, समाज
की बात पूरी
हो गई।
समाज
को इससे
ज्यादा चिंता
नहीं है कि अब
आप और कुछ
हों। अच्छे
आदमी से समाज
राजी है।
पर्याप्त है।
समाज चाहता है, बुरे
आदमी आप न
हों। आपका
बुरा पहलू
आपके भीतर हो,
अच्छा पहलू
बाहर हो।
क्योंकि समाज
का मतलब ही है
कि हमारे
बाहरी पहलुओं का
जो मिलन है, उसका नाम
समाज है।
मेरी
आत्मा गंदी है, इससे
आपको मतलब
नहीं; मैं
नहा— धोकर, साफ
कपड़े पहनकर
आपके पास आऊं,
पर्याप्त
है। क्योंकि
आपका जो मिलन
होने वाला है,
वह मेरे
शरीर से और
मेरे कपड़ों से
होने वाला है,
मेरी आत्मा
से नहीं। अगर
मैं यह कहूं
कि मेरी आत्मा
बहुत पवित्र
है, लेकिन
मैं सब गंदगी
ओढ़कर आपके पास
आऊंगा, तो
आप कहेंगे, आत्मा आप
जानें, कृपा
करके यह गंदगी
मेरे पास न
लाएं।
समाज
का अर्थ है, हमारे
बाहरी
व्यक्तित्व
के मिलन का
स्थल। समाज को
इससे चिंता है
कि आपका बाहर
का पहलू ठीक
हो जाए, भीतर
की आप जानें।
वह आपकी निजी
समस्या है।
लेकिन
धर्म इतने पर
नहीं रुकता।
धर्म कहता है कि
असली, निजी
समस्या को ही
हल करना है।
अच्छा है कि
आप अच्छे आदमी
हूऐं बुरे
नहीं हैं।
बेहतर है।
लेकिन धर्म
कहता है, यह
पर्याप्त
नहीं है।
जरूरी है, पर्याप्त
नहीं है।
अच्छे हैं, बहुत अच्छा
है। लेकिन
अच्छे पर ही
रुक गए, तो
धोखे में हैं।
अच्छे से भी
पार जाना
होगा।
शुद्ध
बुद्धि का
अर्थ है, जहां न
वासना रही, न विचार रहा;
जहां दोनों
खो गए। तब
सिर्फ शुद्ध
चेतना रह जाती
है।
तो एक
शर्त तो कृष्ण
ने कही कि शुद्ध
बुद्धि हो और
दूसरी बात कही
कि निष्काम प्रेमी
हो। प्रेम भी
उसका निष्काम
हो।
बुद्धि
अशुद्ध होती
है विचार से; प्रेम
अशुद्ध हो
जाता है वासना
से, कामना
से। ऐसा समझें
कि बुद्धि से
अर्थ है आपके
चिंतन की
क्षमता का, और प्रेम से
अर्थ है आपके
हृदय के अनुभव
की क्षमता का।
आपका
मस्तिष्क
अशुद्ध होता
है विचार से, और आपका
हृदय अशुद्ध
होता है कामना
से, वासना
से। और जब तक
हृदय और
बुद्धि दोनों
शुद्ध न हों, तब तक भक्त
का जन्म नहीं
होता। तब तक
भक्त का जन्म
नहीं होता।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
भक्त को आप
ऐसा मत समझना
कि वह सरल बात
है। ऐसा लोग
अक्सर समझाते
हुए सुने जाते
हैं कि भक्ति
बड़ी सरल चीज
है; ज्ञान
तो बड़ा कठिन
है।
लेकिन
ध्यान रहे, ज्ञान की
एक ही शर्त है
कि बुद्धि
शुद्ध हो। और
भक्ति की शर्त
दोहरी है, कि
बुद्धि शुद्ध
हो और हृदय
निष्काम हो।
इसलिए जो आपको
समझाते हैं कि
भक्ति सरल है,
मैं नहीं
समझ पाता कि
वे कैसे
समझाते हैं? क्योंकि
बुद्धि तो
शुद्ध हो ही, जितनी ज्ञान
मांग करता है,
उतनी तो माग
भक्ति करती ही
है, उससे
थोड़ी ज्यादा
मांग भी करती
है। हृदय भी, प्रेम की
क्षमता भी वासनारहित
हो।
तो
भक्त सरल
मामला नहीं
है। लेकिन सरल
इसलिए दिखाई
पड़ने लगा कि
भक्ति से हमने
जो कुछ जोड़
रखा है, वह सब ऐसा
बचकाना है, ऐसा
चाइल्डिश, जुवेनाइल
है, कि
लगता है कि
सरल है! एक
आदमी माला फेर
रहा है, तो
हम सोचते हैं,
भक्त हो
गया। एक आदमी
जाकर मंदिर की
घंटी बजा लेता
है, हम
सोचते हैं, भक्त हो
गया। एक आदमी
दीया भगवान के
सामने घुमा
लेता है, तो
हम सोचते हैं,
भक्त हो
गया।
अगर
भक्ति इतनी ही
है, तो
मैं आपसे कहता
हूं, भक्ति
से फिर आप कभी
पहुंच ही न
सकेंगे। इतना सस्ता
यह रास्ता
नहीं हो सकता।
भक्ति अति जटिल
है, अति
कठिन है।
इसलिए
दुनिया में
अगर हम ठीक से
खोजने जाएं, तो
ज्ञानी जितनी
बड़ी मात्रा
में हुए हैं, उतनी बड़ी
मात्रा में
भक्त नहीं हुए
हैं। यह सुनकर
आपको हैरानी
होगी। इसलिए
ज्ञानियों के
जगत में जो
नाम हैं ऊंचाई
पर, उतनी
ऊंचाई पर
भक्तों के नाम
आप खोजकर न
बता सकेंगे।
बुद्ध हैं, कि महावीर
हैं, कि
शंकर हैं, कि
याज्ञवल्ल
हैं—इनकी कोटि
में, इस
ज्वलंत कोटि
में भक्तों को
रखना मुश्किल
पड़ जाएगा। और
उसका कारण यह
है कि भक्त
होना दुरूह है,
कठिन है।
दोहरी शर्त है
वहां।
और
बुद्धि को
शुद्ध कर लेना
आसान भी है, हृदय को
शुद्ध करना और
भी जटिल है; क्योंकि
बुद्धि ऊपर है,
हृदय गहरे
में है। और
बुद्धि तो
मैनिपुलेट की
जा सकती है; हाथ से
उसमें कुछ
किया जा सकता
है। लेकिन
हृदय तो इतना
अपना मालूम
पड़ता है कि
उसमें दूरी ही
नहीं होती है;
उसमें कुछ
करना बहुत
मुश्किल हो
जाता है। इसे ऐसा
समझें। अगर
मैं आपसे कहूं
कि फला
व्यक्ति को आप
कोशिश करें
प्रेम करने की,
तब आपको पता
चलेगा कि
कितना कठिन
मामला है! कैसे
कोशिश करेंगे
प्रेम करने की?
क्या कभी भी
कोई कोशिश से
प्रेम कर पाया
है? कौन कर
पाया है कोशिश
से प्रेम कभी?
जितनी
कोशिश करेंगे,
उतना ही
पाएंगे, प्रेम
मुश्किल हुआ
चला जाता है!
आपसे
बुद्धि का कोई
भी सवाल हल करवाना
हो, कोशिश
से हल हो सकता
है। कोई भी
विचार कितना ही
जटिल हो, कोशिश
से हल हो सकता
है। किसी भी
विचार को समझने
में कितनी ही
अड़चन हो, कोशिश
से हल हो सकती
है। प्रेम
कोशिश से हल नहीं
होता; प्रयत्न
बिलकुल ही
व्यर्थ है।
इसलिए
प्रेमी को हम
अंधा कहते
हैं। इसीलिए
कहते हैं कि
है तो है, नहीं है तो
नहीं है। और
कोई उपाय नहीं
है। प्रेम है
तो है, और
नहीं है तो
नहीं है, उपाय
नहीं है।
इसलिए प्रेमी
एकदम असहाय
मालूम पड़ता है,
किसी विराट
शक्ति के
हाथों में पड़
गया; अपना
कोई वश नहीं
चलता मालूम
पड़ता। खिंचा
चला जा रहा
है। भागा चला
जा रहा है।
खुद का
नियंत्रण
नहीं मालूम
पड़ता। इसलिए
भक्त होना
दुरूह बात है।
पर अगर बुद्धि
शुद्ध हो और
प्रेम
निष्काम हो, तो वह महान
घटना भी घटती
है और भक्ति
का फूल भी खिलता
है। खिलता है,
कभी किसी
चैतन्य में, कभी किसी
मीरा में
खिलता है।
लेकिन बहुत
रेयर फ्लावरिंग
है, बहुत
कठिनाई की बात
है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि बुद्ध होना
या महावीर होना
कितना ही कठिन
हो, फिर
भी बहुत कठिन
नहीं है। एक
ही शर्त है कि
बुद्धि पूरी
शुद्ध हो जाए।
लेकिन मीरा का
होना थोड़ा
अनूठा है, चैतन्य
का होना थोड़ा
अनूठा है। इस
अनूठे में एक
तत्व और जुड़ता
है, एक
दिशा और जुड़ती
है, कि
हृदय भी
निष्काम हो।
इसलिए
बुद्ध शांत
होंगे, शांति उनमें
गहरी होगी, निर्विकार
होंगे, शुद्ध
होंगे, लेकिन
एक अर्थ में
निगेटिव, नकारात्मक
मालूम
पड़ेंगे। यह तो
हम कह सकते हैं,
उनकी अशांति
मिट गई; यह
भी हम कह सकते
हैं, उनका
दुख मिट गया; यह भी हम कह
सकते हैं कि
उनकी सब पीड़ा,
संताप खो
गया, यह भी
कह सकते हैं, चिंता अब न
बची—लेकिन यह
सब नकार है।
क्या—क्या
नहीं रहा, वह
हम कह सकते
हैं; लेकिन
यह बताना
मुश्किल है कि
क्या हुआ!
मीरा
में हमें
सिर्फ यही
नहीं दिखाई
पड़ता है कि
उसकी अशांति
मिट गई, चिंता मिट
गई, संताप
मिट गया, दुख
मिट गया; साथ
में उसमें
नाचता हुआ
आनंद भी दिखाई
पड़ता है, विधायक,
पाजिटिव।
क्या हुआ है, वह भी
प्रत्यक्ष
दिखाई पड़ता
है। क्या खो
गया है, वह
तो दिखाई ही
पड़ता है; लेकिन
क्या हुआ है, क्या मिल
गया है, उसकी
भी प्रत्यक्ष
झलक मालूम
होती है।
बुद्ध
को जो भी हुआ
है, वह
भीतर है; वह
बाहर नहीं आ
पाता।
क्योंकि हृदय
के बिना कोई
भी चीज बाहर
नहीं आ सकती।
हृदय
अभिव्यक्ति का
द्वार है।
बुद्ध को जो
हुआ है, वह
भीतर हुआ है; जो नहीं हो
गया है, वह
बाहर गिरा है।
हमने देखा है
उनको पहले अशांत,
अब अशांति
गिर गई है।
हमने देखा है
पहले उन्हें
चिंतित, अब
चिंता नहीं
है। हमने देखा
है उन्हें
पहले, उनके
माथे पर
सलवटें—दुख की,
पीड़ा की, संताप की।
वे खो गई हैं।
लेकिन यह सब
निषेध है।
उनके भीतर
क्या हुआ है, यह वे ही
जानें।
लेकिन
मीरा का नृत्य
बाहर भी फूट
रहा है। बाहर भी
बह रही है यह
धारा। जो भीतर
हुआ है, वह बाहर भी
तोड़कर आ रहा
है। उसकी
तरंगें दूर तक
जा रही हैं।
निश्चित ही, कुछ और भी
बात हुई है।
वह, दूसरी
शर्त पूरी हो,
तब होती है।
हम सोच
भी नहीं सकते
बुद्ध को
नाचता हुआ। जब
बुद्धि पूरी
तरह शुद्ध हो
जाती है, तो जो
अनुभूति होती
है, वह आंतरिक
है; अत्यंत
आंतरिक है, उसको बाहर
तक ले जाने का
द्वार नहीं
है। और जब हृदय
भी कामना से
मुक्त हो जाता
है, तो वह
द्वार भी खुल
जाता है, जो
बाहर ले जाता
है।
इसे आप
ऐसा समझें कि
जब तक आपके
पास हृदय नहीं
होता है, तब तक आप
दूसरे से
संबंधित हो ही
नहीं सकते। सब
संबंध
हार्दिक हैं।
जितना बड़ा हृदय
होता है, उतना
संबंधों का
विस्तार होता
है। असल में
हृदय के
द्वारा ही हम
दूसरे को सवांदित
कर पाते हैं।
दूसरे से जो
हम जुड़ते हैं,
कम्मुनिकेट
होते हैं, वह
हृदय के
द्वारा होते
हैं।
मीरा
जब नाचती है, तो जो
बुद्ध नहीं कह
पाते, वह
उसके घूंघर की
झनकार से कहा
जाता है। और
जब चैतन्य कीर्तन
में डूब जाते
हैं, तो जो
बुद्ध नहीं
बता पाते, चेष्टा
करते हैं, समझाते
हैं पूरे जीवन,
फिर भी पाते
हैं कि
असमर्थता है
कोई, चैतन्य
असमर्थ नहीं
मालूम पड़ते। आंसू
से भी कह देते
हैं। नाचकर भी
कह देते हैं।
दौड़कर भी कह
देते हैं।
अभिव्यक्ति
चैतन्य को सरल
मालूम पड़ती
है। लेकिन
भक्ति के साथ
एक वहम जुड़
गया, इसलिए
कठिनाई हो गई।
हमने भक्ति को
बहुत सस्ती
समझा। और समझा
कि ज्ञान तो
सबके वश की
बात नहीं है, भक्ति सबके
वश की बात है।
इससे भांति हो
गई। मैं आपसे कहता
हूं ज्ञान
थोडे ज्यादा
लोगों के वश
की बात है, भक्ति
थोड़े कम लोगों
के वश की बात
है। क्योंकि
अच्छी बुद्धि
पा लेना बहुत
कठिन नहीं है;
अच्छा हृदय
पाना बहुत
कठिन है। और
बुद्धि की शिक्षा
के तो बहुत
उपाय हैं जगत
में; हृदय
की शिक्षा का
अब तक कोई
उपाय नहीं है।
बुद्धि
के लिए
विश्वविद्यालय
हैं, शिक्षक
हैं, शिक्षा—पर्द्धातेया
हैं। हृदय के
लिए कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है, कोई
शिक्षक नहीं
है, कोई
शिक्षा—पद्धति
नहीं है। हृदय
अब तक अछूता
पड़ा है। हृदय
अब तक एक
अंधेरा
महाद्वीप है,
जिसमें कभी—कभी
कोई उतरता है।
लेकिन
अगर यह दूसरी
शर्त पूरी हो
सके कि प्रेम
हो, और
कामनारहित
हो। बड़ी कठिन
शर्त है। बड़ी
कठिन शर्त है।
कठिन शर्त ऐसी
है, जैसे
मैं आपसे कहूं, नदी से तो
गुजरें, लेकिन
पानी में पैर
न छुए; आग
से तो गुजर
जाएं, लेकिन
जलन जरा भी न
हो। आप कहेंगे,
बिना आग से
गुजरे जलन
नहीं होती, तो मैं बिना
आग से गुजर
जाऊं, जलन
नहीं होगी।
लेकिन शर्त यह
है, आग से
गुजरें और जलन
न हो।
ध्यान
रहे, कोई
अगर चाहे तो
प्रेम को छोड़
दे, तो
वासना छूट
जाती है। यह
कठिनाई है।
अगर आग में न
जाएं, तो
जलने का कोई
सवाल नहीं है।
अगर पानी में
न जाएं, तो
भीगने का कोई
सवाल नहीं है।
बहुत लोग हैं,
जो प्रेम से
इसीलिए भयभीत
हो जाते हैं
कि प्रेम में
गए, तो जले,
भीगे, प्रेम
में गए, तो
वासना रहेगी
ही।
इसलिए
जो ज्ञान की
दिशा में चलने
वाले लोग रहे, उन्होंने
कहा, प्रेम
से सावधान
रहना। प्रेम
में पड़ना ही
मत। सावधान
करने का कारण
इतना ही था कि
आशा बहुत कम
है कि प्रेम
में पड़े और वासना
में न पड़
जाएं। प्रेम
और वासना के
बीच इतना गहरा
संबंध है कि
प्रेम में गए,
तो वासना
में चले ही
जाएंगे।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है कि
वासना से तो
बचना जरूरी
है। प्रेम से
बच जाना, तो
वासना से बच
जाओगे।
भक्त
की शर्त बड़ी
कठिन है।
कृष्ण कहते
हैं, प्रेम
में तो जाना, वासना से बच
जाना, आग
में चलना, जलना
मत, पानी
में उतरना, भीगना मत।
इसलिए
मैं कहता हूं, भक्ति
थोड़ी कठिन बात
है। लेकिन बड़ी
क्रांति भी
है।
अब इसे
हम थोड़ा समझें
कि प्रेम
अनिवार्य रूप
से वासना
क्यों बन जाता
है? क्या
यह
अनिवार्यता
प्रेम में है
कि प्रेम वासना
बनेगा ख?
अगर
ऐसा अनिवार्य
हो, तो
फिर कृष्ण यह
शर्त नहीं
लगाएंगे। यह
अनिवार्यता
प्रेम में
नहीं है। यह
अनिवार्यता
कहीं मनुष्य
की बुनियादी
समझ की भूल का
हिस्सा है।
असल
में जब भी हम
प्रेम करते
हैं, तो
वासना के कारण
ही करते हैं।
वासना पहले आ
जाती है, प्रेम
पीछे आता है।
वासना पहले
हमारे द्वार को
खटखटा जाती है
और तब प्रेम
प्रवेश करता
है। हमने जो
भी प्रेम जाना
है, वह
वासना के पीछे
जाना है। हमने
जो भी प्रेम जाना
है, वह
वासना की छाया
की तरह जाना
है। इसलिए
हमारे प्रेम
के अनुभव में
वासना छा गई
है। और हमने
जन्मों—जन्मों
तक जब भी
प्रेम जाना है,
वासना के
पीछे जाना है।
हमारा प्रेम
जो है, वह
हमारी
कामवासना की
छाया से
ज्यादा नहीं
है। इसलिए
हमें डर लगता
है कि जब भी हम
प्रेम में
पड़ेंगे, तो
कामवासना
पीछे आ जाएगी।
एक और
भी प्रेम है, जो वासना
की छाया की
तरह नहीं जाना
जाता, वरन
एक
अंतर्निहित
दशा की तरह
जाना जाता है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जब भी
मैं कहता हूं
प्रेम, तो मेरा
मतलब होता है
किसी से। और
जब भी मैं कहता
हूं शान, तो
मतलब होता है
मुझमें। और जब
भी मैं कहता
हूं प्रेम, तब तीर किसी
और की तरफ झुक
जाता है, इशारा
किसी और की
तरफ हो जाता
है। जब भी मैं
कहता हूं शान,
तो दूसरे की
तरफ तीर नहीं
जाता, शान
होता है मेरा।
तो जब भी मैं
कहता हूं प्रेम,
तब दूसरा
भीतर प्रवेश
कर गया, प्रेम
शब्द कहते ही
मैं अकेला
नहीं रह जाता,
दूसरा आ
जाता है।
इसका
मतलब हुआ कि
हमारा समस्त
प्रेम का
अनुभव किसी आंतरिक
अवस्था का
अनुभव नहीं है, केवल
व्यक्तियों
के बीच जो
वासना के
संबंध हैं, उनका ही
अनुभव है। इसी
वजह से प्रेम
शब्द का उपयोग
करते ही. अगर
मैं अपने कमरे
में अकेला बैठा
हूं और आप आएं,
और मैं कहूं
कि मैं ज्ञान
में था, तो
आप कमरे में
चारों तरफ
नहीं देखेंगे
कि कोई मौजूद
है या नहीं!
अगर मैं कहूं, मैं बड़े
प्रेम में था,
तो आप चारों
तरफ कमरे के
देखेंगे कि
कोई मौजूद है!
आप अकेले
प्रेम में थे!
तो फिर शायद
सोचेंगे, आंख
बंद करके कोई
कल्पना कर रहे
होंगे। लेकिन
दूसरा जरूरी
मालूम पड़ता है,
चाहे
कल्पना में ही
सही।
जिस
प्रेम की
कृष्ण बात कर
रहे हैं, वह ज्ञान की
तरह ही बात है,
ध्यान की
तरह ही बात
है। दूसरे से
उसका संबंध नहीं
है, स्वयं
का ही
आविर्भाव है।
इसे आप ऐसा
समझें कि जैसे
ध्यान की
साधना होती है,
ऐसे ही
प्रेम की
साधना होती
है।
बैठे
हैं कमरे में, प्रेम
अनुभव करें, अपने चारों
तरफ प्रेम
फैलता हुआ
अनुभव करें; भीतर प्रेम
भरा हुआ अनुभव
करें। लोक—लोकातर
तक आपका प्रेम
फैल जाए, लेकिन
दूसरे की
अपेक्षा को
मौजूद न करें।
एक घंटा रोज
दूसरे की
अपेक्षा को
बीच में न
लाएं।
प्रेम
दूसरे से
संबंध नहीं, वरन मेरे
भीतर एक घटना
है, जो
चारों तरफ
फैलती चली
जाती है, जैसे
दीए से प्रकाश
फैलता है। ऐसा
बैठ जाएं घंटेभर।
और मुझसे
प्रेम फैल रहा
है चारों तरफ।
कमरे की
दीवालों को
पार करके नगर
की दीवालों में
भर गया है। और
नगर की
दीवालों को
पार करके राष्ट्र,
और राष्ट्र
की दीवालों को
पार करके पूरी
पृथ्वी को
उसने घेर लिया
है। और दूर
चाद—तारों तक
फैलता जा रहा
है। सारा आकाश
मेरे प्रेम से
भर गया है।
इसको
अगर एक घंटा
रोज आप फिक्र
करते रहें, तो धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे, प्रेम
दूसरे से
संबंध है, यह
आपकी धारणा
टूट जाएगी। और
एक घड़ी आपके
भीतर आ जाएगी,
जब आपको
लगेगा, प्रेम
मेरी अंतर—दशा
है। तब आप
प्रेम करेंगे
नहीं, प्रेम
हो जाएंगे। तब
प्रेम करने के
लिए दूसरे की
अपेक्षा नहीं
होगी। दूसरा
हो या न हो, आप
प्रेम में
रहेंगे ही। तब
आप चलेंगे, तो आपका
प्रेम आपके
साथ चलेगा; उठेंगे, तो
आपका प्रेम
आपके साथ उठेगा,
बैठेंगे, तो आपका
प्रेम आपके
साथ आएगा।
कभी—कभी
किसी व्यक्ति
के पास जाकर
आपको अचानक
लगता है कि इस
व्यक्ति को न
आप जानते, न आप
पहचानते; न
इसका कुछ बुरा
जाना है, न
इसके किसी
दुराचरण की
खबर है। लेकिन
पास जाकर
अचानक आपको
लगता है
रिपल्शन, विकर्षण,
हट जाओ, दूर
हट जाओ। किसी
व्यक्ति के
पास जाकर
अचानक, अजनबी
के पास, लगता
है कि गले मिल
जाओ। न उसे
जाना, न
उसे पहचाना; न कोई संबंध
है! आकर्षण।
जिस
व्यक्ति के
पास आपको जाकर
लगता है कि
कोई आकर्षण, कोई
मैग्नेटिज्म
खींच रहा है, समझना कि उस
व्यक्ति के
पास प्रेम की
एक क्षमता, एक मात्रा
है। छोटी ही
है, लेकिन
एक मात्रा है।
जिस व्यक्ति
के पास आपको विकर्षण
मालूम होता है,
हट जाओ, कोई
शक्ति जैसे
दूर हटाती है,
बीच में कोई
शक्ति खड़ी हो
जाती है और
पास नहीं आने
देती, तो
समझना कि उस
व्यक्ति के
पास प्रेम का
बिलकुल अभाव
है; जो
खींच सकता है,
उसका
बिलकुल अभाव
है। तो आप
धकाए जा रहे
हैं। और यह भी
हो सकता है
अभ्यास से कि
प्रेम का अभाव
तो हो ही, साथ
में घृणा। का
आविर्भाव हो
गया हो; घृणा
एक स्थिति बन
गई हो, एक
दशा। बन गई
हो।
अभी तो
वैज्ञानिकों
ने चित्त की
इस दशा को
नापने के लिए
यंत्र भी
निर्मित किए
हैं। यह जानकर
आप चकित
होंगे। और अब
तो ऐसे यंत्र
हैं, जिनके
सामने खड़े
होकर हम कह
सकते हैं कि
यह व्यक्ति
खींचता है
लोगों को कि
हटाता है।
क्योंकि वह जो
भीतर प्रेम की
ऊर्जा है, मैग्नेटिक
है। अगर प्रेम
से भरा हुआ
व्यक्ति उस
यंत्र के
सामने खड़ा
होगा, तो
यंत्र का
कांटा खबर
देता है कि यह
आदमी लोगों को
अपनी तरफ खींच
लेता है। अगर
यह आदमी घृणा
से भरा हो, तो
कोटा उलटा
घूमता है और
खबर देता है
कि इस आदमी से
जो ऊर्जा निकल
रही है, वह
लोगों को
धकाती है और
हटाती है।
अब तो
इसे मापा भी
जा सकता है।
लेकिन धर्म
सदा से जानता रहा
है कि प्रेम
संबंध नहीं है, अंतर—ऊर्जा
है, इनर
एनर्जी है।
जब मैं
कहता हूं
प्रेम शक्ति
है, एनर्जी
है, ऊर्जा
है, तब
उसका अर्थ यह
हुआ कि दूसरे
से उसका संबंध
करने से वह
ऊर्जा
वासनाग्रस्त
हो जाती है।
दूसरे से
संबंधित
बनाने से, दूसरे
से बांध लेने
से अशुद्ध हो
जाती है।
दूसरे से बांध
लेने से विकृत
हो जाती है, कुरूप हो
जाती है।
निष्काम
प्रेम का अर्थ
है, प्रेम
की ऊर्जा हो
और किसी से
बंधी न हो, किसी
कामना के लिए
न हो।
तो
कृष्ण कहते
हैं, बुद्धि
हो शुद्ध, विचार
का कंपन न हो; हृदय हो
प्रेम से भरा,
वासना की
जरा—सी भी झलक
न हो, तो
भक्त का जन्म
होता है।
और ऐसा
भक्त ही अपना
सब कुछ
परमात्मा के
चरणों में छोड़
पाता है, अपना
कर्तापन छोड़
पाता है।
अब इस
सूत्र को हम
पूरा देख लें।
हे
अर्जुन! मेरे
पूजन में पत्र, पुष्प, फल, जल
इत्यादि जो
कुछ भी कोई
भक्त मेरे लिए
प्रेम से
अर्पण करता है,
उस शुद्ध
बुद्धि, निष्काम
प्रेमी भक्त
का
प्रेमपूर्वक
अर्पण किया
हुआ वह पत्र, पुष्प, फल
आदि मैं ही
ग्रहण करता
हूं।
ऊपर से
देखने में तो
बहुत सीधा
लगेगा। पत्र, पुष्प, फल, जल—हम
सब जानते हैं,
हम सबने
चढ़ाया है। जल
चढ़ाया है, फूल
चढ़ाया है, पत्ते
चढ़ाए हैं, हम
सबको पता है।
लेकिन कृष्ण
जैसे लोग इस
तरह की क्षुद्र
बातें करते
नहीं हैं।
क्या मतलब है
पत्र, पुष्प,
फल चढ़ाने का?
एक
मतलब आपको पता
है, वह
मतलब च्छईं
है। जो मतलब
आपको पता नहीं
है, वही
मतलब है। वह
मैं आपसे कहता
हूं।
पत्र, पुष्प, फल
व्यक्तित्व
के खिलावट की
तीन अवस्थाएं
हैं। क्या
कहते हैं कि
तू जैसा भी है,
अगर अभी
सिर्फ पत्ता
ही है, अभी
फूल तक नहीं
पहुंचा, तो
भी कोई फिक्र
नहीं, पत्ते
को ही चढ़ा दे।
अगर तू पत्ते
से आगे निकल गया
है और फूल बन
गया है, तो
फल की फिक्र
मत कर कि जब फल
बनूंगा, तब
परमात्मा को
चढूंगा। फूल
ही चढ़ा दे।
अगर तू फल हो
चुका है, तो
फल ही चढ़ा दे।
लेकिन तब शायद
उन्हें खयाल आया
होगा कि ऐसे
लोग भी तो हैं,
जो अभी
पत्ते भी नहीं
हैं, अभी
पानी ही हैं।
तो उन्होंने
कहा, अगर
तू अभी जल ही
है.।
जल जो
है, बिलकुल
प्राथमिक है।
उससे नीचे फिर
और कुछ नहीं
हो सकता। जल
ही बनता है
पत्ता। फिर
बढ़ता है, तो
पत्ता बन जाता
है फूल। फिर
बढ़ता है, तो
फूल बन जाता
है फल।
तो
कृष्ण ने कहा
कि तू हो चाहे
पत्ता, चाहे फूल, चाहे फल, तू
जो भी हो, चढ़ा
दे, तू जो
भी हो, वैसा
ही चढ़ जा।
हममें
से बहुत लोग
कहते हैं—ये
सब हमारी
बेईमानी के
हिस्से हैं—हममें
से बहुत लोग
कहते हैं कि
अभी तो कुछ है
ही नहीं मेरे
पास, तो
अभी परमात्मा
को चढ़ाऊं भी
क्या?
कभी भी
नहीं होगा
आपके पास जिस
दिन आप अनुभव
कर सकें कि
परमात्मा को
चढ़ाने योग्य
कुछ मेरे पास
है। आप
पोस्टपोन
करते जा सकते
हैं।
ये तीन
अवस्थाएं हैं, या चार।
जल की अवस्था
का अर्थ है कि
आप में किसी
तरह का विकास नहीं
हुआ है। लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, उसे
भी मैं
स्वीकार कर
लूंगा। मैं तो,
जो भी चढ़ाया
जाता है, उसे
स्वीकार कर
लेता हूं।
सवाल यह नहीं
है कि क्या
चढ़ाया, सवाल
यह है कि
चढ़ाया, अर्पित
किया। अगर तू
पत्ता है, तो
पत्ते की तरह
आ जा, अगर
फूल हो गया है,
तो फूल की
तरह आ जा, अगर
फल हो गया है, तो फल की तरह
आ जा। जिस भी
अवस्था में
हो।
ये चार
अवस्थाएं हैं
चेतना की।
पानी उस अवस्था
को कहेंगे, जल उस
अवस्था को
कहेंगे, जिसमें
चेतना आपकी
बिलकुल ही
प्रिमिटिव है,
बिलकुल
प्राथमिक है।
पत्र उस
अवस्था को
कहेंगे, जिसमें
आपकी चेतना ने
थोड़ा विकास
किया, रूप
लिया, आकार
लिया।
फूल उस चेतना
को कहेंगे, जिसमें
आपकी चेतना ने
न केवल रूप—आकार
लिया, बल्कि
सौंदर्य को
उपलब्ध हुई।
फल उस अवस्था
को कहेंगे, जिसमें आपकी
चेतना
सौंदर्य को ही
उपलब्ध नहीं
हुई, और चेतनाओं
को जन्म देने
की सामर्थ्य
को भी उपलब्ध हुई;
पक गई।
नीत्शे
ने कहा है, राइपननेस
इज आल—पक जाना
सब कुछ है।
लेकिन
कृष्ण नहीं
कहेंगे यह।
कृष्ण कहेंगे, पक जाना
सब कुछ नहीं
है, चढ़
जाना सब कुछ
है।
नीत्शे
ठीक कहता है, क्योंकि
नीत्शे की
दृष्टि में
कोई ईश्वर नहीं
है। तो नीत्शे
कहता है, आदमी
पक जाए, पूरा
पक जाए। उसकी
बुद्धि, उसकी
प्रतिभा, उसका
व्यक्तित्व
एक पका हुआ फल
हो जाए, तो
सब है।
राइपननेस इज
आल। बात पूरी
हो गई। सुपरमैन
पैदा हो गया।
महामानव पैदा
हो गया। पक गया
मनुष्य।
कृष्ण
नहीं कहेंगे
कि राइपननेस
इज आल। वे कहेंगे, सरेंडर
इज आल; पक
जाना नहीं, समर्पित हो
जाना। और तब
वे यह कहते
हैं कि समर्पित
होने के लिए
फल के तक
रुकने की भी
कोई जरूरत
नहीं है। फल
ही चढ़ेगा, ऐसा
नहीं; पत्ता
भी चढ़ जाएगा; पानी भी चढ़
जाएगा; फूल
भी चढ़ जाएगा।
जो जहां है, वहीं से
अपने को
अर्पित कर दे;
कल की
प्रतीक्षा न
करे, कल के
लिए बात को
टाले न; स्थगित
न करे। यह तो
अर्थ है।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि आप जो
पत्ते—फूल चढ़ा
आते हैं, वह बंद कर
देना। मैं
इतना ही कह
रहा हूं कि जब
फूल चढ़ाए, तब
याद रखना कि
इस फूल के
चढ़ाने से
संकेत भर मिलता
है, हल
नहीं होता। जब
पता चढ़ाए, और
जब पानी ढालें
परमात्मा के
चरणों में, जरूर ढालते
चले जाना, लेकिन
याद रखना, यह
पानी ढालना
केवल प्रतीक
है, सिंबल
है। ध्यान
रखना कि कब तक
इस पानी को
ढालते रहेंगे? एक दिन अपने
पानी को ढालने
की तैयारी
करनी है; एक
दिन अपना फूल
चढ़ा देना है, एक दिन अपना
फल समर्पित कर
देना हैं।
उस
शुद्ध बुद्धि
निष्काम
प्रेमी भक्त
का प्रेमपूर्वक
अर्पण किया
हुआ सब कुछ
मैं ही ग्रहण करता
हूं!
यह तो
हम देखते हैं
कि फल हम चढ़ा
आते हैं, पुजारी
ग्रहण करता
है। पक्की तरह
पता है। यह भी
हम देखते हैं
कि फूल हम चढ़ा
आते हैं, वे
फिर बाजार में
बिक जाते हैं।
एक
मंदिर की
दुकान को मैं
जानता हूं
क्योंकि दुकानदार
मेरे परिचित
हैं।
उन्होंने
मंदिर नया बना
था, तब
वह दुकान खोली
थी। कोई
पंद्रह वर्ष
पहले। तब
उन्होंने
पहली बार जो
नारियल खरीदे
थे, वह
दुकान उनसे ही
चल रही है।
क्योंकि वे
नारियल रोज चढ़
जाते हैं, रात
दुकान में
वापस लौट आते
हैं। फिर
दूसरे दिन बिक
जाते हैं, फिर
चढ़ जाते हैं; रात फिर
वापस लौट आते
हैं! उन्होंने
दुबारा नारियल
नहीं खरीदे, क्योंकि
पुजारी रात
बेच जाता है।
नारियल के सारी
दुनिया में
दाम बढ़ गए, उनकी
दुकान पर अभी
तक नहीं बढ़े।
सस्ते से सस्ते
में वे देते
हैं। नारियल
के भीतर अब
कुछ बचा भी
नहीं होगा!
हमें
पता है कि फूल
हम चढ़ा आएंगे, तो वह
उसको नहीं मिल
सकता। जब तक
कि चेतना का फूल
न चढ़ाया जाए, तब तक
परमात्मा का
भोजन नहीं हो
सकता। जब तक हम
स्वयं को ही न
चढ़ा दें, तब
तक हम उसके
हिस्से नहीं
बनते।
कृष्ण
कहते हैं कि
मैं उस सबको
ग्रहण कर लेता
हूं सबको, जो भी
मुझे चढ़ाया
जाता है, वह
सब मेरा ही
अंग हो जाता
है।
इसलिए
हे अर्जुन, तू जो कुछ
कर्म करता है,
जो कुछ खाता
है, जो कुछ
हवन करता है, दान देता है,
जो कुछ
स्वधर्माचरणरूप
तप करता है, वह सब मुझे
अर्पण कर। इस
प्रकार
कर्मों को
मेरे अर्पण
करने रूप संन्यास—योग
से युक्त हुए
मन वाला तू
शुभ—अशुभ फल
रूप कर्मबंधन
से मुक्त हो
जाएगा, और
उससे मुक्त
हुआ मेरे को
ही प्राप्त
होगा।
इस
सूत्र में
अंतिम दो—तीन
बातें और खयाल
ले लेने जैसी
हैं। जो व्यक्ति
अपना सब
समर्पित कर
देगा, अपने
को पीछे बचाए
बिना, विद
नो
विदहोल्डिग, पीछे अपने
को जरा भी
बचाए बिना जो
अपने को अशेष
भाव से, सब
कुछ, पूरा
का पूरा, समग्रीभूत
रूप से
समर्पित कर
देगा, वह
परमात्मा का
हिस्सा हो
जाता है।
हिस्सा कहना
भी ठीक नहीं, भाषा की भूल
है, वह
परमात्मा ही
हो जाता है। क्योंकि
परमात्मा में
कोई हिस्से
नहीं होते, कोई विभाग
नहीं होता।
जब एक
नदी सागर में
गिरती है, तो सागर
का हिस्सा
नहीं हो जाती,
सागर हो
जाती है। सागर
का हिस्सा तो
हम तब कहें, जब कि उसका
कोई अलग— थलग
रूप बना रहे।
खोजने जाएं और
मिल जाए—कि यह
रही गंगा।
सागर में उसकी
धारा अलग बहती
रहे। कहीं
नहीं बचती, सागर हो
जाती है, फैल
जाती है; एक
हो जाती है।
तो
ध्यान रखना, जब कोई
परमात्मा से
एक होता है, तो वह उसका
अंश नहीं होता,
परमात्मा
ही हो जाता है,
पूरा सागर
हो जाता है, फैल जाता है;
एक हो जाता
है। हम
परमात्मा के
हिस्से नहीं
हो सकते, क्योंकि
परमात्मा कोई
यंत्र नहीं है,
जिसके हम
हिस्से हो
सकें।
परमात्मा सागर
जैसे चैतन्य
का नाम है।
उसमें कोई
दीवालें और
विभाजन नहीं
हैं। उसमें हम
होते हैं, तो
हम पूरे ही हो
जाते हैं। हम
उसके साथ पूरे
एक हो जाते
हैं।
इसलिए
कृष्ण अगर
इतनी हिम्मत
से अर्जुन से
कह सके कि मैं
ही हूं वह, तो उसका
कारण है। अगर
इतनी हिम्मत
से कह सके कि
छोड़ अर्जुन तू
सब, और मुझ
पर ही समर्पित
हो जा! तो यह
कृष्ण उस व्यक्ति
के लिए नहीं
कह रहे हैं, जो अर्जुन
के सामने खड़ा
था; यह उस
व्यक्ति के
लिए कह रहे
हैं कृष्ण, जो उस सागर
में गिरकर हो
गए हैं। यह
सागर की तरफ
से कही गई बात
है। लेकिन अब
चूंकि नदी अलग
नहीं बची है, इसलिए नदी
सीधी बात कहती
है कि मेरे
साथ एक हो जा।
क्योंकि नदी
अब सागर हो गई
है। कृष्ण इतना
भी नहीं कहते
कि तू
परमात्मा के
साथ एक हो जा।
कहते हैं, मेरे
साथ एक हो जा।
अनेक
लोगों को
कृष्ण का यह
वक्तव्य
अहंकार से भरा
हुआ मालूम
पड़ता रहा है, सदियों—सदियों
से। और जो लोग
नहीं समझ पाते,
उन्हें
लगता है— थोड़ी
अड़चन मालूम
पड़ती है—कि
कृष्ण भी कैसा
आदमी है? थोड़ा
तो संकोच खाना
था! अर्जुन से
सीधे ही कहे चले
जाते हैं, छोड़
दे सब मुझ पर!
सब धर्म—वर्म
को छोड़ दे, मेरी
शरण में आ!
जरूर
कृष्ण किसी और
चैतन्य से
बोलते हैं। यह
उस नदी की
आवाज है, जो सागर में
गिर गई। अब
नदी अगर यह भी
कहे कि सागर
में गिर जा, तो झूठ
होगा। अब तो
नदी यही कहती
है कि मुझ सागर
में मिल जा।
और
अर्जुन को
कठिनाई नहीं
हुई इस बात
से। गीता
जिन्होंने भी
पढ़ी है, उनको कभी न
कभी कठिनाई
होती है। गीता
के बड़े भक्त
हैं, उनको
भी भीतर थोड़ा—सा
खयाल आता है
कि बात क्या
है? कृष्ण
को ऐसा नहीं
कहना था, कोई
और तरकीब से
कह देते। यह
सीधा क्या
कहने की बात
थी? क्या
कृष्ण को भी
अहंकार है? वह क्यों
बार—बार इस
मैं शब्द का
उपयोग करते
हैं? अर्जुन
को तो कहते
हैं, तू सब
छोड़! और खुद
अपना मैं जरा
भी नहीं छोड़ते
हैं! संदेह
उठता ही रहा
है। लेकिन
अर्जुन के मन में
जरा भी नहीं
उठा। अर्जुन
ने बहुत सवाल
पूछे, यह
सवाल जरा भी
नहीं पूछा कि
यह क्या बात
है? मेरे
मित्र हो, मेरे
सखा हो, फिलहाल
तो मेरे सारथी
हो, ड्राइवर
हो, थोड़ा
तो खयाल करो
कि मैं तुमसे
ऊपर बैठा हूं
तुम मुझसे
नीचे बैठे हो,
केवल मेरे
रथ को
सम्हालने के
लिए तुम्हें
ले आया हूं और
तुम कहे जाते
हो कि सब छोड़
और मेरी शरण आ!
जब
कृष्ण ने कहा
होगा, मेरी
शरण आ, तो
अर्जुन भी
उनकी आंखों
में उस सागर
को देख सका
होगा। नदी उसे
भी दिखाई पड़ती,
तो वह भी
पूछ लेता। उसे
नदी नहीं
दिखाई पड़ी होगी।
लेकिन
यह बड़ा आत्मीय
संबंध था। एक
शिष्य और एक
गुरु के बीच
था, दो
मित्रों के
बीच अगर भीड़—
भाड़ वहां भी
खड़ी होती, तो
जरूर भीड़ मैं
से कोई
चिल्लाता कि
बंद करो! यह
क्या कह रहे
हो? अपने
ही मुंह से कह
रहे हो कि
मेरी शरण आ!
मैं भगवान
हूं!
बड़ा
आत्मीय नैकटघ
का वास्ता था।
यह अर्जुन और कृष्ण
के बीच निजी
संबंध की बात
थी। अर्जुन समझा
होगा। देखी
होगी उसने आंख, कि भीतर
कोई मैं नहीं
है। मैं सिर्फ
भाषा का प्रयोग
है।
सब छोड़
दे, तो
मेरे साथ एक
हो जाएगा। और
इसे ही वे
कहते हैं, इस
अर्पण को ही
वे कहते हैं
संन्यास। इतनी
हिम्मत की
परिभाषा
संन्यास की
किसी और ने
नहीं की है।
अर्जुन
संसारी है
पक्का। इससे
पक्का और संसारी
क्या होता है? संसार
में भेज रहे
हैं उसे युद्ध
में, और
कहते हैं कि
इसे मैं कहता
हूं संन्यास
से युक्त हो
जाना! तू
युद्ध में जा
और कर्ता को
मेरी तरफ छोड़
दे। लड़ तू और
जान कि मैं लड़
रहा हूं।
तलवार तेरे
हाथ में हो, लेकिन जानना
कि मेरे हाथ
में है। गर्दन
तू काटे, लेकिन
जानना कि
मैंने काटी
है। और गर्दन
तेरी कट जाए
तो भी जानना
कि मैंने काटी
है। कर्म और
कर्तृत्व को
सब मुझ पर छोड़
देना, तो
तू संन्यास से
युक्त हुआ।
अर्जुन
संन्यासी
होना चाहता था, लेकिन
पुराने ढब का
संन्यासी
होना चाहता
था। वह भी
संन्यासी
होना चाहता
था। वह यही कह
रहा था कि
बचाओ मुझे। और
बड़े गलत आदमी
से पूछ बैठा।
उसे कोई ढंग
का आदमी चुनना
चाहिए था। जो
कहता कि बिलकुल
ठीक! यही तो
ज्ञान का
लक्षण है।
छोड़! सब त्याग कर!
चल जंगल की
तरफ!
गलत
आदमी से पूछ
बैठा। उसे
पूछने के पहले
ही सोचना था
कि यह आदमी जो
परम ज्ञानी
होकर बांसुरी
बजा सकता है, इससे जरा
सोचकर बोलना
चाहिए! पूछ
बैठा। लेकिन
शायद वहा कोई
और मौजूद नहीं
था, और कोई
उपाय नहीं था;
पूछ बैठा।
सोचा उसने भी
होगा कि कृष्ण
भी कहेंगे कि
ठीक है। यह
संसार सब माया—मोह
है, छोड़कर
तू जा! कैसा
युद्ध? क्या
सार है? कुछ
मिलेगा नहीं।
और सीधी—सी
बात है कि
हिंसा में
पड़ने से तो
पाप ही होगा।
तू हट जा।
इसी
आशा में उसने
बड़ी सहजता से
पूछा था।
लेकिन कृष्ण
ने उसे कुछ और
ही संन्यास की
बात कही; एक अनूठे
संन्यास की
बात कही; शायद
पृथ्वी पर
पहली दफा वैसे
संन्यास की
बात कही। उसके
पहले भी वैसे
संन्यासी हुए
हैं, लेकिन
इतनी प्रकट
बात नहीं हुई
थी। कहा कि तू सब
कर्म कर, सिर्फ
कर्ता को छोड़
दे, तो तू
संन्यास से
युक्त हो गया।
फिर तुझे कहीं
किसी वन—उपवन
में जाने की
जरूरत नहीं।
किसी हिमालय
की तलाश नहीं
करनी है। तू
यहीं युद्ध
में खड़े—खड़े
संन्यासी हो
जाता है।
पहली
दफा आंतरिक
रूपांतरण का
इतना गहरा
भरोसा! बाहर
से कुछ बदलने
की चिंता मत
कर, बाहर
तू जो है, वही
रहा आ। भीतर
से तू बदल जा। भीतर
की बदलाहट एक
ही बदलाहट है!
भीतर
का केंद्र या
तो अहंकार हो
सकता है, या
परमात्मा। बस,
दो ही
केंद्र हो
सकते हैं।
भीतर दो तरह
के केंद्र
संभव हैं, या
तो परमात्मा
केंद्र हो
सकता है, या
मैं—अहंकार—केंद्र
हो सकता है।
और जिनका भी
परमात्मा
केंद्र नहीं
होता, वे
भी बिना
केंद्र के तो
काम नहीं कर
सकते, इसलिए
अहंकार को
केंद्र बनाकर
चलना पड़ता है।
अहंकार
जो है. सूडो
सेंटर है, झूठा
केंद्र है।
असली केंद्र
नहीं है, तो
उससे काम
चलाना पड़ता
है। वह
सकीटघूट
सेंटर है, परिपूरक
केंद्र है।
जैसे ही कोई
व्यक्ति परमात्मा
को केंद्र बना
लेता है, इस
परिपूरक की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती,
यह विदा हो
जाता है।
इसलिए
कृष्ण का जोर
है कि तू सारे
कर्ता के भाव
को मुझ पर छोड़
दे। और जो ऐसा
कर पाता है, वह समस्त
कर्म—फल से
मुक्त हो जाता
है, शुभ और
अशुभ दोनों
से। उसने जो
बुरे कर्म किए
हैं, उनसे
तो मुक्त हो
ही जाता है, उसने जो
अच्छे कर्म
किए हैं, उनसे
भी मुक्त हो
जाता है।
बुरे
कर्म से तो हम
भी मुक्त होना
चाहेंगे, लेकिन अच्छे
कर्म से मुक्त
होने में जरा
हमें कष्ट
मालूम पड़ेगा।
कि मैंने जो
मंदिर बनाया
था, और
मैंने इतने
रोगियों को
दवा दिलवाई थी,
और अकाल में
मैंने इतने
पैसे भेजे थे,
उनसे भी
मुक्त कर
देंगे? वह
तो मेरी कुल
संपदा है!
बुरे
से छोड़ दें!
मैंने चोरी की
थी, बेईमानी
की थी।
क्योंकि
बेईमानी न
करता, तो
अकाल में पैसे
कैसे भिजवा
पाता? और
अगर चोरी न
करता, तो
यह मंदिर कैसे
बनता? तो
चोरी की थी, बेईमानी की
थी, कालाबाजारी
की थी, उनसे
मेरा छुटकारा
करवा दो!
लेकिन
कालाबाजारी
करके जो मंदिर
बनाया था, और
अकाल में जो
लोगों की सेवा
की थी, और
रोटी बांटी थी,
और दवा—दारू
भेजी थी, उसको
तो बचने दो!
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, दोनों
से, शुभ
अशुभ दोनों
से!
क्योंकि
कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं कि
शुभ करने में
भी अशुभ हो
जाता है। शुभ
भी करना हो, तो अशुभ
होता रहता है।
वे संयुक्त
हैं। अगर शुभ
भी करना हो, तो अशुभ
होता रहता है।
अगर मैं दौड़कर,
आप गिर पड़े
हों, आपको
उठाने भी आऊं,
तो जितनी
देर दौड़ता हूं
उतनी देर में
न मालूम कितने
कीड़े—मकोड़ों
की जान ले
लेता हूं! न
मालूम कितनी
श्वास चलती है,
कितने
जीवाणु मर
जाते हैं!
मैं
कुछ भी करूं
इस जगत में, तो शुभ और
अशुभ दोनों
संयुक्त हैं।
दोनों
संयुक्त हैं।
मैं आपसे यह
कह रहा हूं कि
कालाबाजारी
करके मंदिर
बनाया है, ऐसा
नहीं। कुछ भी
करिएगा, तो
आप पाएंगे कि
अशुभ भी साथ
में हो रहा
है। इस जगत
में शुद्ध शुभ
नहीं किया जा
सकता, शुद्ध
अशुभ भी नहीं
किया जा सकता।
अशुभ करने भी
कोई जाए तो
शुभ होता रहता
है, शुभ
करने भी कोई
जाए, तो
अशुभ होता
रहता है। वे
संयुक्त हैं;
वे एक ही
चीज के दो छोर
हैं। विभाजन
मन का है; अस्तित्व
में कोई
विभाजन नहीं
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, शुभ—अशुभ
दोनों से
मुक्त हो जाता
है। और उनसे
मुक्त हुआ
मुझको ही
प्राप्त होता
है। क्योंकि
परमात्मा, अर्थात
मुक्ति।
इसलिए
जिन्होंने
मुक्ति को
बहुत जोर दिया, उन्होंने
परमात्मा
शब्द का उपयोग
भी नहीं करना
चाहा। महावीर
ने परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं किया।
क्योंकि
महावीर ने कहा,
मुक्ति
पर्याप्त है,
मोक्ष
पर्याप्त है।
मोक्ष शब्द
काफी है। मुक्त
हो गए, सब
हो गया। अब और
चर्चा छेड़नी
उचित नहीं है।
लेकिन
महावीर के लिए
मोक्ष का जो
अर्थ है, वही हिंदुओं
के लिए
मुसलमानों के
लिए ईश्वर का
अर्थ है।
ईश्वर का और
कोई अर्थ नहीं
है, परम
मुक्ति, दि
अल्टिमेट
फ्रीडम।
क्योंकि
जब तक अहंकार
मौजूद है, तब तक मैं
कभी मुक्त
नहीं हो सकता।
क्योंकि अहंकार
की सीमाएं हैं,
कमजोरिया
हैं। अहंकार
की सुविधाएं—असुविधाएं
हैं। अहंकार
कुछ कर सकता
है, कुछ
नहीं कर सकता।
बंधन जारी
रहेगा। सीमा
बनी रहेगी।
सिर्फ
परमात्मा ही
जब मेरा
केंद्र बनता
है, मेरी
सब सीमाएं गिर
जाती हैं।
उसके साथ ही
मैं मुक्त हो
जाता हूं।
उसके साथ ही
मुक्ति है। वही
मुक्ति है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट बैठेंगे।
जल्दी न
करेंगे। पांच
मिनट कीर्तन में
सम्मिलित
हों। और बीच
में पांच मिनट
कोई भी न उठे, अन्यथा
बैठे लोगों को
तकलीफ होती
है।
1) ओहह.. आज फिर ओशो ने वर्षों से चली आ रही खोखली मान्यता,.. को ऐसे नवनिर्मित रूप दिया हैं कि सच में विस्मित हुई हूँ 😳😳ज्ञानी होने से सबसे विकट भक्त होने में हैं 🥺🥺अरे बाप रे ! मेने तो जब यह सुना मानों सभी इंद्रियाँ एकदम जाग्रत हों गयी | भक्त होना सबसे सरल,आसान,.. रास्ता हैं ऐसा तो मैं आज तक मानती रही बल्कि समजती भी थी लेकिन ओशो ने तो मानों मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खींच ली ऐसा अनुभव करा दिया 🥺🥺 2) पत्र,पुष्प,फल,जल आदि जो कुछ हम भगवान को चढ़ाते हैं ,अर्पण करते हैं उसका हमने सिर्फ और सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही लिया हैं लेकिन उसके पीछे छुपे व्यंजना,रहस्य को समजा हींनहीं हैं | ओशो ने उसकी व्यक्तित्व के खिलावट की तीन अवस्थाएं उजारगर की तो फिर से जो प्रचलित,रूढ़िगत अर्थ की ओशो ने जो धज्जिया उड़ाई हैं और उसका नूतन,प्रफुल्लित,ओजस्वी अर्थ ने ह्रदय को विस्मित कर दिया 😳😳सच में ओशो आपको पाकर मैं धन्य हों गयी 😳😳ओं मेरे प्यारे ओशो ! आपको शत कोटी-कोटी प्रणाम |
जवाब देंहटाएंthank you guruji
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