कुल पेज दृश्य

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

गीता दर्शन--(भाग-4) प्रवचन--112

क्षणभंगुरता का बोध(प्रवचनतेरहवां)


अध्‍याय—9

सूत्र:



मां हि पार्थ व्यपाश्त्यि येऽपि स्युः पापयोनय:।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रस्तिऽपि यान्ति परां गतिम्।। 32।।

किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 33।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।

मामेवैष्यीसि युज्ज्वैवमात्मानं मत्यरायण:।। 34।।



क्योंकि हे अर्जुन, स्त्री, वैश्य, शुद्रादिक तथा पाप योनि वाले भी जो कोई हों? वे भी मेरे शरण होकर परम गीत को ही प्राप्त होते हैं।

फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्रह्यणजन तथा राजऋषि भक्तजन परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस लोक की प्राप्‍त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर।
केवल मुझ परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो? और मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो? तथा मेरी श्रद्धा, भक्‍ति और प्रेम से विह्लतापूर्वक पूजन करने वाला हो और मुझ परमात्मा को ही प्रणाम कर।

इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त होवेगा।



 स सूत्र को सुनकर आधुनिक मन को बहुत धक्का लगेगा। चाह होगी कि यह सूत्र न होता तो अच्छा था। आज का विचार इस सूत्र को बड़ी कठिनाई पाएगा समझने में।

कृष्ण ने कहा है, क्योंकि हे अर्जुन, स्त्री, वैश्य, शूद्र आदि तथा पाप योनि वाले भी जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।

बहुत अजीब मालूम पड़ेगा। बहुत कड़वाहट भी मालूम पड़ेगी। स्त्री को, वैश्य को, शूद्र को, पाप योनि को समझने में हमें कई तरह की कठिनाइयां हैं। !,? पहली कठिनाई कि हमने इन शब्दों से जो कुछ समझा है, वह इन शब्दों से अभिप्रेत नहीं है। और इन शब्दों का हमारे मन में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ नहीं है। तो इन शब्दों की ठीक से व्याख्या में प्रवेश करना जरूरी हणो, तभी इस सूत्र को समझा जा सके।

मनुष्य की आत्मा तो एक है, लेकिन उसके मन अनेक हैं। और मनुष्य की परम स्थिति तो एक है, लेकिन उसकी बीच की स्थितियां भिन्न—भिन्न हैं। मनुष्य आत्यंतिक रूप से तो समान है, लेकिन ! अलग— अलग स्थितियों में बहुत असमान है।

मनुष्य का विभाजन जो भारतीय बुद्धि ने किया है, वह पहला विभाजन है स्त्री और पुरुष में। लेकिन ध्यान रहे, स्त्री से अर्थ है स्त्रैण। स्त्री से अर्थ स्त्री ही हो, तो यह वचन बहुत बेहूदा है। स्त्री से अर्थ है स्त्रैण। और जब मैं कहता हूं स्त्री से अर्थ है स्त्रैण, तो उसका अर्थ यह है कि पुरुषों में भी ऐसे व्यक्ति हैं, जो स्त्री जैसे हैं, स्त्रैण हैं; स्त्रियों में भी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जो पुरुष जैसे हैं, पौरुषेय हैं। पुरुष और स्त्री प्रतीक हैं, सिंबालिक हैं। उनके अर्थ को हम ठीक से समझ लें।

गुह्य विज्ञान में, आत्मा की खोज में जौ चल रहे हैं, उनके लिए स्त्रैण से अर्थ है ऐसा व्यक्तित्व, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है; जो प्रतीक्षा कर सकता है, लेकिन यात्रा नहीं कर सकता, जो राह देख सकता है, लेकिन खोज नहीं कर सकता। इसे स्त्रैण कहने का कारण है।

स्त्री और पुरुष का जो संबंध है, उसमें खोज पुरुष करता है, स्त्री केवल प्रतीक्षा करती है। पहल भी पुरुष करता है, स्त्री केवल बाट जोहती है। प्रेम में भी स्त्री प्रतीक्षा करती है, राह देखती है। और अगर कभी कोई स्त्री प्रेम में पहल करे, इनिशिएटिव ले, तो आक्रामक मालूम होगी, बेशर्म मालूम होगी। और अगर पुरुष प्रतीक्षा करे, पहल न कर सके, तो स्त्रैण मालूम होगा।

लेकिन विगत पांच हजार वर्षों में, गीता के बाद, सिर्फ आधुनिक युग में कार्ल गुस्ताव कं ने स्त्री और पुरुष के इस मानसिक भेद को समझने की गहरी चेष्टा की है। कं ने इधर इन बीस—पच्चीस पिछले वर्षों में एक अभूतपूर्व बात सिद्ध की है, और वह यह कि कोई भी पुरुष पूरा पुरुष नहीं है और कोई भी स्त्री पूरी स्त्री नहीं है। और हमारा अब तक जो खयाल रहा है कि हर व्यक्ति एक सेक्स से संबंधित है, वह गलत है। प्रत्येक व्यक्ति बाइ—सेक्यूअल है, दोनों यौन प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद हैं। जिसे हम पुरुष कहते हैं, उसमें पुरुष यौन की मात्रा अधिक है, स्त्री यौन की मात्रा कम है। ऐसा समझें कि वह साठ प्रतिशत पुरुष है और चालीस प्रतिशत स्त्री है। जिसे हम स्त्री कहते हैं, वह साठ प्रतिशत स्त्री है और चालीस प्रतिशत पुरुष है।

लेकिन ऐसा कोई भी पुरुष खोजना संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत पुरुष हो; और ऐसी कोई स्त्री खोजनी संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत स्त्री हो। यह है भी उचित। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का जन्म स्त्री और पुरुष से मिलकर होता है। इसलिए दोनों ही उसके भीतर प्रवेश कर जाते हैं। चाहे स्त्री का जन्म हो, चाहे पुरुष का जन्म हो, दोनों के जन्म के लिए स्त्री और पुरुष का मिलन अनिवार्य है! और स्त्री—पुरुष दोनों के ही कणों से मिलकर, जीवाणुओं से मिलकर व्यक्ति का जन्म होता है। दोनों प्रवेश कर जाते हैं। जो फर्क है, वह मात्रा का होता है। जो फर्क है, वह निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है।

इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ऊपर से पुरुष दिखाई पड़ता है, उसके भीतर भी कुछ प्रतिशत मात्रा स्त्री की छिपी होती है; जो स्त्री दिखाई पड़ती है, उसके भीतर भी कुछ मात्रा पुरुष की छिपी होती है। और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में स्त्री पुरुष जैसा व्यवहार करे और किन्हीं क्षणों में पुरुष स्त्री जैसा व्यवहार करे। ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में जो भीतर है, वह ऊपर आ जाए; और जो ऊपर है, नीचे चला जाए।

आप पर एकदम से हमला हो जाए घर में आग लग जाए, तो आप कितने ही बहादुर व्यक्ति हों, एक क्षण में अचानक आप पाएंगे, आप स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हैं। रो रहे हैं, बाल नोंच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, घबड़ा रहे हैं! अगर एक मां के बच्चे पर हमला हो जाए, तो मं। भी खूंख्वार हो जाएगी, और ऐसा व्यवहार करेगी, इतना कठोर, इतना हिंसात्मक, जैसा कि पुरुष भी न कर पाए। यह संभावना है, क्योंकि भीतर एक मात्रा निरंतर छिपी हुई है। वह किसी भी क्षण प्रकट हो सकती है।

कै ने स्त्री और पुरुष के नए अर्थ को फिर से प्रकट किया है। कृष्ण का भी अर्थ वही है। जब वे कहते हैं, स्त्रियां भी मुझे उपलब्ध हो जाती हैं, तो उनका अर्थ यह है .कि वे, जो एक कदम भी नहीं चलते हैं, मात्र प्रतीक्षा करते हैं, वे भी मुझे पा लेते हैं अर्जुन! जिनके मन में आक्रमण ही नहीं है, परमात्मा की खोज में भी जो आक्रामक, एग्रेसिव नहीं हो सकते, वे भी मुझे पा लेते हैं। जो इंचभर भी नहीं चलते, सिर्फ मेरा स्मरण ही करते हैं, सिर्फ अनन्य भाव से मुझे पुकारते ही हैं, जो बदले में कुछ भी चुकाने को तैयार नहीं होते, जो मुकाबले में कुछ भी दाव पर नहीं लगाते, अगर मैं उनके दरवाजे पर भी खड़ा हूं, तो वे दरवाजे तक उठकर भी नहीं आते, मुझे ही उन तक जाना पड़ता है, वे भी मुझे पा लेते हैं।

स्त्रैण से अर्थ है, ऐसा मन, जो कुछ भी करने में समर्थ नहीं है; ज्यादा से ज्यादा समर्पण कर सकता है, ग्राहक मन, रिसेप्टिविटी, द्वार खोलकर प्रतीक्षा कर सकता है।

अगर हम स्त्री के मन को ठीक से समझें, तो वह किसी ऐसे प्रतीक में प्रकट होगा, द्वार खोलकर दरवाजे पर बैठी हुई, किसी की प्रतीक्षा में रत; खोज में चली गई नहीं, प्रतीक्षा में। और पुरुष अगर दरवाजा खोलकर और किसी की प्रतीक्षा करते दीवाल से टिककर बैठा हो, तो हमें शक होगा कि वह पुरुष कम है। उसे खोज पर जाना चाहिए।

जिसकी प्रतीक्षा है, उसे खोजना पड़ेगा, यह पुरुष चित्त का लक्षण है। जिसकी खोज है, उसकी प्रतीक्षा करनी होगी, यह स्त्री चित्त का लक्षण है। स्त्री और पुरुष से इसका कोई संबंध नहीं है। कृष्ण कहते हैं, जो स्त्रैण हैं, वे भी अर्जुन, मुझे पाने में समर्थ हो जाते हैं।

फिर कहते हैं, वैश्य और शूद्र भी। ये दो शब्द भी समझ लेने जैसे हैं।

मैंने कहा, हमारे मन अलग—अलग हैं, हमारी आत्माएं एक हैं। और मन के अलग—अलग होने के कारण हमारे शरीर भी अलग— अलग हैं। क्योंकि शरीर मन के द्वारा ही निर्मित होता है, शरीर को हम पाते हैं मन के द्वारा ही।

चार प्रकार के व्यक्तित्व भारत ने विभाजित किए हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चारों का भी कोई संबंध आपके जन्म से नहीं है। इन चारों का भी गहरा संबंध आपके व्यक्तित्व के ढांचे से है। हमने यह भी कोशिश की थी कि व्यक्तित्व का ढांचा और जन्म की व्यवस्था में ताल—मेल हो जाए। हमने अकेले ही इस जमीन पर यह प्रयोग किया था कि जन्म में और व्यक्तित्व के ढांचे में कोई एक इनर हार्मनी, एक आंतरिक संबंध खोज लिया जाए। हम थोड़ी दूर तक सफल भी हुए थे। लेकिन वह प्रयोग पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाया। वह टूट गया। टूट जाने के कारण थे, उनकी मैं आपसे पीछे बात करूं। पहले आपको यह कह दूं कि ये चार शब्द व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। चार तरह के व्यक्तित्व होते हैं।

शूद्र हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जो शरीर के इर्द—गिर्द जीता है। शरीर से ज्यादा जिसे अस्तित्व में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। शरीर ही जिसका परमात्मा है। शरीर सुख में रहे, तो वह प्रसन्न है; शरीर दुख में हो जाए, तो वह दुखी है। शरीर की मांग पूरी हो जाए, तो सब मागें समाप्त हो गईं, शरीर की मांग पूरी न हो, तो उसके जीवन में व्यथा और संताप है। उसके व्यक्तित्व का केंद्र शरीर है।

बहुत अनूठी बात भारतीय शास्त्रों ने कही है कि सभी व्यक्ति जन्म से शूद्र होते हैं! एक अर्थ में सही है। सभी व्यक्ति जन्म से शरीर के इर्द—गिर्द होते हैं, बाकी ऊंचाइयां तो क्रमश: पानी पड़ती हैं। ध्यान रहे, सभी व्यक्ति शरीर से शूद्र जैसे पैदा होते हैं, यह दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो यह है कि अधिक लोग शूद्र ही मरते हैं, अधिक लोग मरते क्षण में भी शरीर के पास ही होते हैं।

ध्यान रहे, अगर आपके भीतर से शूद्र विलीन हो गया हो, तो मृत्यु की आपको पीड़ा नहीं होगी, क्योंकि मृत्यु की पीड़ा शरीर के मरने की पीड़ा है। और जिसके भीतर से शूद्र विलीन हो गया है, उसका शरीर का दृष्टिकोण ही बदल गया! अब वह भलीभांति जानता है कि शरीर मैं नहीं हूं।

संक्षिप्त मेँ कहें, तो जो ऐसा मानता है कि मैं शरीर ही हूं वह शूद्र है। मैं शरीर ही हूं? सब कुछ शरीर है, शरीर पर मैं समाप्त हो जाता हूं। शरीर ही मेरा जन्म है, शरीर ही मेरा जीवन, शरीर ही मेरी मृत्यु है। शरीर के पार मैं नहीं हूं शरीर से भिन्न मैं नहीं हूँ। शरीर में मैं समाप्त हूं, शरीर मेरी सीमा है, यह शूद्र का अर्थ है।

शूद्र को इसलिए निम्नतम कहा है। निम्नतम कहने का कारण? कारण इतना ही कि शूद्र होना सिर्फ जीवन की बुनियाद है, और भवन उठाया जा सकता है। और भवन न उठे, तो बुनियाद बेकार है। शरीर पर ही कोई समाप्त हो जाए, तो उसका जीवन व्यर्थ गया। लेकिन हमारी दृष्टि ही शरीर पर है।

तो कृष्ण कहते हैं कि शूद्र भी, जो केवल अपने को शरीर में ही जिलाए रखते हैं, शरीर के आस—पास ही घूमते रहते हैं; वे भी अगर अनन्य भाव से मेरा स्मरण कर लें, तो अर्जुन, वे भी मुक्त हो जाते हैं।

कृष्ण, बिलकुल निम्नतम जो चित्त की दशा हो सकती है, उसके लिए भी कह रहे हैं कि उस दशा में भी, उस अंधकार में पडा हुआ भी अगर मेरा स्मरण करे, तो प्रकाश की किरण उस तक भी पहुंच जाती है। खाई में पड़ा है, गहन अंधकार में पड़ा है कोई, चारों ओर अंधकार है, लेकिन अगर मुझे स्मरण करे, तो मेरी किरण वहां भी पहुंच जाती है। स्मरण ही मेरी उपस्थिति बन जाती है। शूद्र को भी, वे कहते हैं, यह हो जाएगा।

वैश्य दूसरी कोटि है। शूद्र उसे कहते हैं, जो शरीर के आस—पास जीता है। वैश्य उसे कहते हैं, जो मन के आस—पास जीता है। इसलिए शूद्र की जो भी वासनाएं हैं, आकांक्षाएं हैं, बहुत सालिड, बहुत स्थूल होंगी। वैश्य की जो कामनाएं और वासनाएं और आकांक्षाए हैं, वे मानसिक होंगी, सूक्ष्म होंगी।

वैश्य धन के लिए जीएगा। धन सूक्ष्म बात है; और धन से मिलने वाला रस मन को मिलने वाला रस है। वैश्य यश के लिए जीएगा, पद के लिए जीएगा। उनसे मिलने वाला रस, मन के लिए मिलने वाला रस है। और वैश्य धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए शरीर को भी गंवाने को तैयार हो जाएगा। शूद्र पद के लिए,। धन के लिए, प्रतिष्ठा के लिए शरीर को गंवाने को तैयार नहीं होगा। शरीर उसके लिए मौलिक मूल्य है। शरीर के लिए वह सब कुछ कर सकता है। लेकिन वैश्य शरीर को गंवाने को तैयार हो जाएगा।

एक लिहाज से शूद्र शरीर से स्वस्थ होगा, वैश्य अस्वस्थ होने ' लगेगा। एक लिहाज से शूद्र के पास प्रकृति कै संपर्क का द्वार बहुत स्पष्ट होगा, संवेदनशील होगा, वैश्य प्रकृति के साथ संवेदना खोने लगेगा। लेकिन प्रकृति से संवेदना उसकी कम होगी, लेकिन परमात्मा की तरफ वह एक कदम ऊपर उठ जाएगा। क्योंकि शरीर से आत्मा तक जाने में बीच में मन के पड़ाव को पार करना जरूरी ही है। मन से गुजरना ही पड़ेगा। शूद्र को आत्मा की यात्रा में किसी न किसी क्षण वैश्य होना ही पड़ेगा।

सभी शूद्र की तरह जन्मते हैं; कुछ लोग वैश्य तक पहुंच जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। वह भी पड़ाव है, मंजिल नहीं है। मन मूल्यवान हो जाएगा शरीर से ज्यादा, और मन के रस शरीर के रस से ज्यादा कीमती मालूम पड़ने लगेंगे। भोजन उतना मूल्यवान नहीं रहेगा अब, कामवासना उतनी मूल्यवान नहीं रहेगी, जितना मन के रस मूल्यवान हो जाएंगे। पद है, प्रतिष्ठा है, यश है, गौरव है, ! गरिमा है, ये ज्यादा मूल्यवान होने लगेंगे।

कृष्ण कहते हैं, वैश्य भी अगर मुझे स्मरण करें, तो वे भी मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, अनुईन! वे जो अभी मन में ही घिरे हैं और आत्मा तक जिनका कोई कदम नहीं उठा है, वे भी अगर मुझे स्मरण करें, तो उन तक भी मेरी किरण पहुंच जाती है।

तीसरी कोटि है क्षत्रिय की। क्षत्रिय का अर्थ है, जो शरीर और मन दोनों के पार उठकर आत्मा में जीना शुरू करे। शूद्र और वैश्य की कोटि को भारत ने नीचा माना है। वह एक पलड़ा है, दो वर्गों का। क्षत्रिय और ब्राह्मण को श्रेष्ठतर माना है, वह दूसरा पलड़ा है। जो आत्मा में जीने की चेष्टा करे। शरीर का भी मूल्य नहीं है, मन का भी मूल्य नहीं है, सिर्फ आत्मगौरव का ही मूल्य है।

इसलिए क्षत्रिय धन पर भी लात मार देगा, शरीर पर भी लात मार देगा, मन की भी चिंता छोड़ देगा, लेकिन आत्मगौरव उसके लिए सबसे ज्यादा कीमती हो जाएगा। वह उसके आस—पास ही जीएगा। आत्मगौरव के लिए वह सब कुछ गंवा सकता है, लेकिन आत्मगौरव नहीं गंवा सकता है।

चौथी कोटि है ब्राह्मण की। ब्राह्मण से अर्थ है, जो आत्मा से भी पार हट जाए और ब्रह्म में जीए। उसके लिए अब न शरीर का कोई मूल्य है, न मन का कोई मूल्य है, न आत्मा का कोई मूल्य है, उसके लिए सिर्फ परमात्मा ही मूल्यवान रह गया।

ये चार टाइप हैं, इनका जाति से फिलहाल कोई संबंध न जोडे। ये चार मनस—प्रकार हैं।

कृष्ण कहते हैं कि पहले दो प्रकार वाले लोग भी मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, तो बाद के दो प्रकार वाले लोगों का क्या कहना! अगर वे मेरा स्मरण करें, तो वे मुझे उपलब्ध हैं ही।

अगर मन के प्रकार की तरह समझें, तो इस सूत्र में कोई कठिनाई न रह जाएगी। लेकिन भारत ने यह प्रयोग भी किया था। कि ये जो मन के प्रकार हैं, इनको जन्म से जोड्ने की एक अभूतपूर्व चेष्टा की थी। असफल गया वह प्रयोग, लेकिन बड़ा प्रयोग था। और इतना बड़ा था कि सफल होना संभव नहीं मालूम पड़ता था। जितनी बड़ी बात हो, उतनी असफलता की संभावना ज्यादा हो जाती है। और जब कोई बहुत बड़ी बात असफल होती है, तो बड़े गट्टे में गिरा जाती है। 

हमने एक अनूठा प्रयोग किया था। वह प्रयोग यह था कि न केवल व्यक्ति का मन अलग— अलग है, न केवल उसकी चेतना के ढांचे' अलग— अलग हैं, क्या यह नहीं हो सकता कि प्रत्येक चेतना के ढांचे के व्यक्ति को जन्म भी इस भाति मिले कि वह जन्म से ही अपने ढांचे के अनुकूल पैदा हो सके?

एक व्यक्ति मरता है, तो उसकी आत्मा भटकती है नए जीवन की तलाश में। हर कहीं आकस्मिक जन्म नहीं होता। आत्मा खोजती है अपने अनुकूल, अपने अनुकूल गर्भ को खोजती है। और जब अपने अनुकूल गर्भ मिलता है, तो जन्म लेती है।

तो जन्म की घटना में दो घटनाएं घटती हैं, मां और पिता का गर्भ निर्माण करना और उस निर्मित गर्भ में एक चेतना का प्रवेश। वह चेतना का प्रवेश उस चेतना के अपने समस्त कर्मों का फल है। उसके अनुकूल वह खोजती है। यह खोज बहुत सचेतन नहीं है, कांशस नहीं है, अनकांशस है।

अनकाशस खोज का मतलब यह है कि जैसे हम पानी को बहाते हैं, तो वह गड्डे को खोज लेता है। भाषा में हम कहेंगे, पानी गड्डे को खोज लेता है। लेकिन पानी कोई सचेतन रूप से खोजता नहीं, सिर्फ स्वभाव अनुसार वह गड्डे की तरफ बहता है, जहां नीचाई है, वहां बहता है। पानी ऊपर की तरफ नहीं बह सकता, गड्डे की तरफ बह सकता है। इसलिए जो सबसे बड़ा गड्डा है, वहां पहुंच जाता है। कमरे में जहां गड्डा है, पानी पहुंच जाता है। यह खोज अचेतन है। पानी के स्वभाव से हो जाती है।

ठीक ऐसे ही, प्रत्येक आत्मा अचेतन खोज करती है। जहां उसके अनुकूल गर्भ होता है, वहीं गड्डा बन जाता है, वहीं आत्मा प्रवेश कर जाती है। भारत ने यह कोशिश की कि क्या यह नहीं हो सकता कि शूद्र आत्माओं के लिए हम एक वर्ग ही नियत कर दें, जहां शूद्र आत्माएं पैदा हो जाएं! क्या यह नहीं हो सकता कि ब्राह्मण आत्माओं के लिए हम ब्राह्मण का एक वर्ग ही नियत कर दें, जहां ब्राह्मण आत्माएं पैदा हो जाएं!

यह बड़ा कठिन प्रयोग था, बहुत मुश्किल प्रयोग था। शायद भविष्य में बायोलाजी कुछ इस तरह के प्रयोग करना शुरू करे। लेकिन वे किसी दूसरे ढांचे पर होंगे। क्योंकि विज्ञान अब यह कह रहा है कि हम इस बात की कोशिश जरूर करेंगे आज नहीं कल, कि ज्यादा सुंदर लोग पैदा किए जा सकें, और निर्णायक बना जा सके कि ज्यादा सुंदर व्यक्ति पैदा हों। विज्ञान यह भी कह रहा है कि अब यह कठिनाई नहीं रही कि हम अगर पुरुष पैदा करना चाहें, तो पुरुष पैदा करें; और स्त्री पैदा करना चाहें, तो स्त्री पैदा करें। विज्ञान अब यह भी कह रहा है कि हम यह भी तय कर लेंगे कि जो बच्चा पैदा हो, उसका बुद्धि अंक, उसका आई क्यू. कितना हो, यह हम पहले तय कर लेंगे। हम यह भी तय कर लेंगे कि उसके शरीर का रंग कैसा हो, उसकी उम्र कितनी हो। हम ये सारी बात तय करेंगे।

यह तय करेंगे, तो हमें ब्रीडिंग को नियत करना पडेगा। फिर हर कोई, हर किसी से संबंध नहीं बना सकेगा। तब संबंध हमें सीमित करने पड़ेंगे, ताकि वे ही लोग संबंधित हों, जो नियमानुसार एक व्यक्ति को जन्म दे सकें।

ठीक वैसे ही प्रयोग भारत ने किसी और दिशा से किए थे, और समाज को चार हिस्सों में बांट दिया था। इन चार हिस्सों में बांटने का प्रयोजन यह था कि शूद्र शूद्र से ही विवाह करे, और यह पीढ़ी दर पीढ़ी ब्राह्मण ब्राह्मण से ही विवाह करे। तो पचास पीढ़ियों के गुजरने के बाद, यह दो ब्राह्मणों का जो विवाह होगा और इन ब्राह्मणों से जो गर्भ निर्मित होगा, वह निर्मित गर्भ किसी ब्राह्मण आत्मा को आकर्षित करने में ज्यादा संभव होगा, बजाय किसी और गर्भ कै। यह बिलकुल वैज्ञानिक है और तर्कयुक्त है। अगर यह हो सकता है, तो यह बिलकुल तर्कयुक्त है।

यह प्रयोग एक महत प्रयोग किया गया। हर प्रयोग के खतरे भी होते हैं। खतरा हुआ। यह प्रयोग तो संभव नहीं हो सका; समाज चार हिस्सों में बंट गया। यह प्रयोग तो टूटा; लेकिन समाज चार शत्रुओं के हिस्सों में टूट गया। और धीरे— धीरे शूद्र व्यक्तित्व का विचार न रहा, जाति का लक्षण हो गया। और तब कोई आदमी ब्राह्मण पैदा हो गया, तो चाहे वह बिलकुल शूद्र के व्यक्तित्व का हो, तो भी सिर पर बैठ गया। और तब कोई अगर शूद्र घर में पैदा हुआ और अगर वह ब्राह्मण की योग्यता का था, तो भी उसे किसी मंदिर में पूजा की जगह न मिली! यह खतरा हुआ।

हर प्रयोग का खतरा है। वैज्ञानिकों ने अणु बम की खोज की, तब सोचा नहीं था कि अणु बम का परिणाम हिरोशिमा और नागासाकी होगा। तब उन्होंने सोचा था कि अणु की ऊर्जा हमारे हाथ में लग जाएगी, तो हम सारी जमीन को खुशहाल कर देंगे; कोई भूखा नहीं होगा, कोई गरीब नहीं होगा। इतनी बड़ी शक्ति हमारे हाथ में लगेगी कि हम सारे जीवन को रूपांतरित कर डालेंगे, पृथ्वी स्वर्ग हो जाएगी।

लेकिन यह नहीं हुआ। यह हो सकता था, लेकिन यह नहीं हुआ। हुआ—हिरोशिमा और नागासाकी कब्रगाह बन गए! एक लाख आदमी एक क्षण में जलकर राख हो गए। और अभी सारी दुनिया के पास अणु बम और हाइड्रोजन बम इकट्ठे हैं। किसी भी दिन पूरी दुनिया राख की जा सकती है!

आइंस्टीन मरते वक्त कहकर मरा है कि हमने सोचा भी नहीं था कि इतनी महान ऊर्जा का ऐसा महान दुरुपयोग हो सकेगा। लीनियस पालिंग ने, जो कि अणु की खोज में बड़े वैज्ञानिकों में एक था, आखिरी वक्त सारी दुनिया के वैज्ञानिकों से अपील की कि अब दुबारा कोई बड़ी शक्ति आदमी के हाथ में खोजकर मत देना! क्योंकि हम खोजते हैं पता नहीं किसलिए और आदमी उसका क्या उपयोग करता है!

इस मुल्क में इस मुल्क के मनीषियों ने भी एक बहुत अदभुत सूत्र खोजा था। और वह सूत्र यह था कि प्रत्येक आत्मा को हम उसके जीवन के चुनाव में भी मार्ग—निर्देश कर सकें। आत्मा ऐसे ही भटककर कहीं भी, किसी भी तरह पैदा न हो। हम उसे सुनिश्चित मार्ग दे सकें, व्यवस्थित मार्ग दे सकें, ताकि ज्यादा से ज्यादा उपयोग थोड़े से थोड़े जीवन का किया जा सके।

और अगर एक व्यक्ति पिछले जन्म में ब्राह्मण था, समझें, और उसने ब्राह्मण की एक ऊंचाई पाई। लेकिन इस बार जन्म की खोज करते वक्त उसे एक शूद्र के घर में ही योग्य मौका मिला, वह शूद्र के घर पैदा हो जाता है। तो उसे ब्राह्मण की पूरी शिक्षा नहीं मिल सकेगी, उसे ब्राह्मण का पूरा वातावरण नहीं मिल सकेगा। हो सकता है, वह पचास वर्ष का हो जाए, तब इस योग्य हो, जिस योग्य का वह ब्राह्मण के घर में पैदा होकर पांच वर्ष में हो जाता! ये पैंतालीस वर्ष उसके व्यर्थ खो जाएंगे।

भारत ने एक जीवन की गहरी इकॉनामिक्स की चिंता की थी, समय कम से कम उपयोग में लाया जा सके और अधिक से अधिक परिणाम हो सकें, और व्यक्ति में जो गहनतम छिपा है, वह प्रकट हो सके। उसे मां—बाप भी, परिवार भी, वातावरण भी, सब कुछ ब्राह्मण का मिल सके। शूद्र को शूद्र का मिल सके, वैश्य को वैश्य का मिल सके। इसलिए जातिया विभाजित हुईं।

लेकिन यह महान प्रयोग नहीं हो सका। जिन्होंने किया था, वे खो गए। और जिनके हाथ में यह महान प्रयोग दे गए, उन्होंने केवल समाज को विभाजित करके शोषण का एक उपाय किया।

तब शूद्र शोषित हो गया। तब ब्राह्मण छाती पर बैठ गया। तब क्षत्रिय ने तलवार हाथ में ले ली और लोगों के ऊपर प्रभुसत्ता कायम कर ली। और तब वैश्य धन इकट्ठा करके बैठ गया। और इन चारों वर्गों ने एक—दूसरे के साथ गहरी शत्रुता ठान ली। जो फायदा होता, वह तो नहीं हुआ, नुकसान यह हुआ कि शूद्र के घर अगर कोई पैदा हो गया, तो उसके विकास का उपाय ही न रहा।

पांच हजार साल में, अगर डा अंबेदकर को छोड़ दें, तो शूद्रों में एक भी बुद्धिमान आदमी पैदा नहीं हो सका। और ये डाक्टर अंबेदकर भी हमारी वजह से पैदा नहीं हुए। यह एक आदमी है, जिसको ब्राह्मण की हैसियत का कहा जा सके। इसलिए ब्राह्मणों से नाराज भी थे वे। ब्राह्मणों से नाराज होना बिलकुल स्वाभाविक था, क्रोध स्वाभाविक था।

पांच हजार वर्षों में शूद्रों की कितनी प्रतिभाएं खो गईं, इसका हमें कोई पता नहीं है! प्रयोग गलत निकल गया, गलत आदमियों के हाथों में पड़ गया। और कितने शूद्र जैसे ब्राह्मण हमारे मुल्क की छाती पर छाए चले गए और कितना गहन नुकसान पहुंचा गए, उसका भी अब हिसाब लगाना मुश्किल है।

यह मैंने इसलिए कहा, ताकि आपको कृष्ण का अर्थ साफ हो सके। कृष्ण के समय में यह महान प्रयोग गतिमान था, यह प्रयोग चल रहा था, इस प्रयोग की आधारशिलाए रखी जा रही थीं। कृष्ण को पता भी नहीं है कि इस प्रयोग का क्या परिणाम आज हो गया!

जो लोग हिरोशिमा के पहले मर गए अणु बम बनाकर, उनको पता भी नहीं है। वे इसी खुशी में मरे हैं कि वे मनुष्य—जाति को एक, महान शक्ति देकर विदा हो गए हैं। अभागे तो वे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अपने हाथ से अपने सामने आदमीयत को जलते हुए देखा—अपनी ही खोज का यह परिणाम!

कृष्ण ने जब यह सूत्र कहा था, तब मनुष्य के प्रकार का यह महान प्रयोग गतिमान था, स्वस्थ था, विकसित हो रहा था, अंकुरित हो रहा था, सड़ नहीं गया था।

कृष्ण कहते हैं, शूद्र हो, कि वैश्य हो, कि स्त्री हो, कोई भी हो, वे भी मेरी शरण को पाकर परम गति को उपलब्ध हो जाते हैं।

यहां कोई निंदा का स्वर नहीं है, यहां केवल तथ्य की सूचना है। सिर्फ इस तथ्य की कि जो शरीर के पास जी रहे हैं, वे भी, जो मन के पास जी रहे हैं, वे भी, वे भी शरण आकर मुझे पा लेते हैं।

शरण आने का मूल्य समझाया जा रहा है। आप क्या हैं, यह मूल्यवान नहीं है; आप कौन हैं, यह मूल्यवान नहीं है; अच्छे हैं, बुरे हैं, यह मूल्यवान नहीं है। शरण जाने की क्षमता आपकी है, तो आप परमात्मा को उपलब्ध हो जाएंगे। ऐसी शर्त कृष्ण कहते हैं, शरण, सरेंडर की, उसके सामने समर्पण कर देने की, अपने अहंकार को उसके सामने छोड़ देने की।

पुण्यशील ब्राह्मणजन और राजऋषि भक्तजनों का तो परमगति को प्राप्त होना सुनिश्चित है। अगर वे भी अपने को शरण में लगा पाएं। इसलिए तू सुखरहित ओर क्षणभंगुर इस लोक को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर।

केवल मुझ परमात्मा में अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, और मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजने वाला हो। और मेरा श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला हो, मुझ परमात्मा को प्रणाम कर। इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मुझ को ही प्राप्त हो सकेगा।

यहां तीन—चार बातें खयाल में लेने जैसी हैं।

पहली बात, कृष्‍ण कहते हैं, सुखरहित और क्षणभंगुर लोक में! जहां हम जी रहे हैं, वहां सुख का आभास बहुत होता है, सुख मिलता नहीं। मिलता है दुख, आभास होता है सुख का। हाथ में आता है दुख, आशा बनती है सुख की। दूर से दिखाई पड़ता है सुख, पास पहुंचकर उघड जाता है और पता चलता है, दुख ही है। दूर से सुख दिखाई पड़ता था। दूरी की भूल है। दूर से जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा पास पाया नहीं जाता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सुखरहित संसार में!

ध्यान रहे, कृष्ण यह भी कह सकते थे, इस दुख से भरे संसार में। यह नहीं कहा। ज्यादा उचित होता, ज्यादा जोर वाला होता, कहते कि इस दुख भरे संसार में। लेकिन कृष्ण ने यह नहीं कहा कि इस दुख भरे संसार में। बुद्ध ने कहा है, यह संसार दुख है। कृष्ण ने कुछ दूसरा शब्द उपयोग किया है, और ज्यादा विचारपूर्वक है। कृष्ण ने कहा है, इस सुखरहित संसार में!

क्यों त्र: क्योंकि दुख तो पैदा ही इसलिए होता है कि हम इस जगत में सुख मान लेते हैं। इसलिए यह कहना कि जगत दुख है, ठीक नहीं है। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख पाते हैं। जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर हम सुख न मागें, तो जगत बिलकुल दुख नहीं देता। हम सुख मानते हैं, इसलिए दुख मिलता है। जगत दुख नहीं देता।

मैं आपसे आशा करता हूं कि मेरा सम्मान करेंगे, मेरा आदर करेंगे। फिर आप मेरा आदर न करें, सम्मान न करें, तो मुझे दुख हो। दुख आपने मुझे दिया नहीं। आपका कोई हाथ ही नहीं है। आप बिना नमस्कार किए निकल गए। आपको पता भी नहीं होगा कि आपने मुझे दुख दिया। लेकिन मुझे दुख मिला, बिना आपके दिए! यह दुख कहां से पैदा हुआ? यह दुख मेरी अपेक्षा से जन्मा। मैंने चाहा था नमस्कार हो, प्रणाम करें मुझे, आदर दें मुझे। नहीं दिया, मेरी अपेक्षा टूटी। टूटी हुई अपेक्षा दुख बन जाती है। बिखरा हुआ सुख, दुख बन जाता है। न मिला सुख, दुख बन जाता है।

तो जगत दुख है, यह कहना ठीक नहीं है। बुद्ध से कृष्ण का वचन ज्यादा गहन है। बुद्ध सीधा कहते हैं, जगत दुख है। ठीक नहीं है। कृष्ण कहते हैं, जगत सुखरहित है। वे यह कहते हैं कि जगत में कोई सुख नहीं है। और अगर कोई मनुष्य ऐसा जान ले कि जगत सुखरहित है, तो फिर उसे इस जगत में दुख नहीं हो सकता। उसे इस जगत में कोई दुख नहीं दे सकता।

मुझे आप दुख देने में उसी सीमा तक समर्थ हैं, जिस सीमा तक मैं आपसे सुख मांगने में आतुर हूं। मेरे सुख मांगने की मात्रा ही आपकी क्षमता है मुझे दुख देने की। अगर मैं कुछ भी मांग नहीं रहा हूं? तो आप मुझे दुख नहीं दे सकते।

तो दुख स्वअर्जित है; जगत सुखरहित है और दुख स्वअर्जित है। इसलिए शब्द पर खयाल करें! कृष्ण कहते हैं, सुखरहित है जगत। दूसरी बात कहते हैं, क्षणभंगुर। एक—एक क्षण में नष्ट हो जाने वाला है।

हमें खयाल नहीं आता। हमें ऐसा लगता है कि जगत बहुत थिर है। हम सबको यही खयाल होता है कि हम एक थिर जगत में जी रहे हैं। लेकिन जगत प्रतिपल बदलता चला जाता है—प्रतिपल! लेकिन बदलाहट इतनी तीव्र है कि दिखाई नहीं पड़ती।

नदी के किनारे खड़े हैं, नदी बही जा रही है, हम सोचते हैं वही नदी है। फिर भी नदी में तो दिखाई पड़ता है। पहाड़ के किनारे खड़े हैं, तब तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता कि पहाड़ बहा जा रहा है। पहाड़ भी बह रहे हैं! उनके बहने का समय जरा लंबा है। नदी के बहने का समय जरा तीव्र है; इसलिए नदी दिखाई पड़ रही है। पहाड़ भी बह रहे हैं। क्योंकि कल जो पहाड़ थे, आज नहीं हैं, और आज जो पहाड़ हैं, कल नहीं थे। कल जो पहाड़ होंगे, उनका हमें अभी कोई पता नहीं है।

पहाड़ बह रहे हैं। वे भी बदल रहे हैं। उनका काल—माप बड़ा है। करोड़ों वर्ष में बदलते हैं। नदी घड़ी में बदल जाती है। बस काल—माप, टाइम पीरियड का फर्क है, बाकी पहाड़ भी बह रहे हैं।। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक चीज बह रही है।। प्रत्येक चीज लयमान है, गतिमान है। प्रत्येक चीज दौड़ रही है।।, प्रत्येक चीज एक बहाव है। और यहां हर क्षण सब बदला जा रहा। है। यहां कुछ भी एक क्षण से ज्यादा नहीं टिकता। बाहर भी कुछ नहीं टिकता, भीतर भी कुछ नहीं टिकता आपने कभी खयाल किया है कि आपका मन एक क्षण भी वही नहीं रहता, जो एक क्षण पहले था। एक क्षण पहले सुख मालूम हो रहा था, और जरा भीतर झांककर देखें, सुख तिरोहित हो गया है! एक क्षण पहले दुख मालूम हो रहा था, दुख खो गया है! एक क्षण पहले चिंता मालूम हो रही थी, चिंता चली गई! एक क्षण पहले बड़े शांत थे, अशांत हो गए हैं! एक क्षण भी मन दोहरता नहीं, वही नहीं होता। दो क्षण भी मन एक जैसा नहीं रहता।

भीतर मन बदल रहा है, बाहर संसार बदल रहा है। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। और जहां कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, वहा हमारी ठहराने की आकांक्षा से दुख पैदा होता है। हम ठहराना चाहते हैं, हम हर चीज को ठहराना चाहते हैं। हम जगत के, जीवन के नियम के विपरीत कोशिश में लगते हैं। फिर हार जाते हैं। फिर दुखी ' होते हैं।

एक आदमी जवान रहना चाहता है, तो जवान ही रहना चाहता है। उसे पता नहीं है कि उसके रहने की कोशिश भी उसको बूढ़ा कर रही है, रहने की कोशिश में भी जो समय और ताकत लगा रहा है, वह भी का, वह भी बूढ़ा होता जा रहा है! एक आदमी मरना ही नहीं चाहता है। वह जो कोशिश कर रहा है, उसमें ही मर जाएगा। जीवन कै प्रवाह के विपरीत हम थिर को खोजना चाहते हैं। हम चाहते हैं, कुछ ठहर जाए।

मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो सोचता हूं, यह प्रेम बह न जाए, बचे, सदा बचे। सिर्फ कवियों की कविताओं में बचता है। और अक्सर उन कवियों की, जिनको प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। सच।' तो यह है कि जिनको प्रेम का अनुभव है, वे कविता लिखने की। झंझट में नहीं पड़ते। जिनको कोई अनुभव नहीं है, वे कविता से तृप्ति खोजते रहते हैं।

सिर्फ कविताओं में प्रेम अमर है। जीवन में कहीं भी अमर नहीं है। हो नहीं सकता। ऐसा नहीं कि प्रेमी का कोई कसूर है। नहीं, जीवन का नियम नहीं है। क्षणभंगुर है।

इसीलिए प्रेमी बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। जब प्रेम के बहाव में होते हैं और प्रेम अपनी ऊंचाई पर होता है, तो उनको लगता है कि शाश्वत है, इटरनल है। अब तो इसका कोई अंत नहीं होगा। उन्हें पता नहीं है कि शाश्वत तो बहुत दूर की बात है, कल का, सुबह का भी कोई भरोसा नहीं है।

और फिर कल सुबह जब गंगा बह जाती है, और हाथ से पानी की धाराएं गिर जाती हैं बाहर, और हाथ में कुछ नहीं रह जाता, तब बड़ी कठिनाई शुरू होती है। फिर अपने ही किए हुए वचन—कि चाहे मर जाऊं, लेकिन प्रेम करूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए, प्रेम करूंगा। लेकिन प्रेम बह गया। क्योंकि प्रेम आपके वचनों को नहीं मानता। प्रेम जगत के नियमों को मानता है। उसके अपने नियम हैं। मैं कितना ही कहूं मेरे कहने का कोई सवाल नहीं है। जीवन के नियम अपवाद नहीं करते।

प्रेम बह जाएगा, तब फिर मुझे प्रेम का धोखा सम्हालना पड़ेगा। फिर मैं एक डिसेप्शन को पालकर रखूंगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ! प्रेम करता हूं और भीतर प्रेम नहीं पाऊंगा। और जारी रखूंगा। अपने को भी धोखा दूंगा, दूसरे को भी धोखा दूंगा। और तब प्रेम से पीड़ा निकलेगी, कष्ट आएगा, ऊब मालूम पड़ेगी, घबड़ाहट मालूम होगी, धोखा मालूम पड़ेगा। लेकिन अब मैं क्या कर सकता हूं! वचन जो मैंने दिया था, उसे खींचना पड़ता है।

प्रेम थिर नहीं हो सकता। कोई चीज थिर नहीं हो सकती। सिर्फ एक चीज थिर है, वह है परिवर्तन। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती है, वह है बदलाहट। और सब बदल जाता है।

      तो कृष्ण कहते हैं, क्षणभंगुर है यह।

और इस क्षणभंगुर में हम कोशिश करते हैं बचाव की, ठहराव की। उस लड़ने में ही हम मिट जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

ज्ञान का अर्थ होता है, जीवन के नियम को जानकर जीना। अज्ञान का अर्थ होता है, जीवन के नियम के विपरीत चेष्टा में लगे रहना। एक आदमी को पता ही नहीं है कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, वह छलांग लगा—लगाकर आकाश छूने की कोशिश करते हैं, गिर—गिरकर हाथ—पैर तोड़ लेते हैं। नियम का उन्हें पता नहीं है कि जमीन खींच रही है, और जितने जोर से तुम उछाल मारोगे, उतने ही जोर से खींचे जाओगे। हाथ—पैर तोड़ लेंगे, तो शायद वह कहेंगे कि जीवन ने उनके साथ धोखा किया! जमीन को कितना कहा कि धरती माता है तू और यह व्यवहार किया मां होकर!

नहीं, धरती माता का कोई लेना—देना नहीं है इसमें। आपको नियम का पता नहीं है। नियम के विपरीत आदमी दुख पैदा कर लेता है। तो कृष्ण कहते हैं कि क्षणभंगुर इस लोक में तू निरंतर मेरा ही भजन कर। क्योंकि तभी तू उसे पा सकेगा, जो कभी नहीं खोता है। बाकी तू कुछ भी पा लेगा, तो खो जाएगा। चाहे यश, चाहे कीर्ति, चाहे धन, चाहे राज्य—कुछ भी—इस संसार में तू कुछ भी पा लेगा, तो तू ध्यान रखना कि पा भी नहीं पाएगा कि खोना शुरू हो जाएगा।

यहां हम जीत भी नहीं पाते हैं कि हार शुरू हो जाती है। पहुंच भी नहीं पाते हैं कि भटकना शुरू हो जाता है। मंजिल हाथ में आती नहीं कि छीनने वाले मौजूद हो जाते हैं। उसका कारण, जीवन क्षणभंगुर है।

इसमें कुछ निराशा नहीं है। पश्चिम के लोगों ने पूरब के संबंध में निरंतर ऐसा सोचा है कि पूरब के लोग बिलकुल निराश हो गए हैं। इन्होंने जीवन की आशा छोड़ दी है। तभी तो ये कहते हैं, कोई सुख नहीं है, दुख ही दुख है। कोई आशा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं है। कुछ नहीं होगा।

लेकिन पश्चिम के लोगों को ठीक खयाल नहीं है। पूरब के लोग निराशावादी नहीं हैं। लेकिन पूरब के लोग नासमझ भी नहीं हैं। अगर एक आदमी जमीन पर कूद—कूदकर हाथ—पैर तोड़ रहा है और मैं उससे कहूं कि पागल, तुझे पता नहीं कि जमीन का स्वभाव खींच लेना है! तो खींचने के खिलाफ तू जो भी कर रहा है, सोच—समझ के कर! अन्यथा हाथ—पैर टूट जाएंगे। और हाथ—पैर से, तो जमीन को दोष मत देना, अपनी नासमझी को दोष देना।

तो मैं निराशावादी नहीं हूं। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि जीवन से व्यर्थ लड़ने की कोशिश में मत पड़! उसमें तू टूट जाएगा। तब मैं यह भी कह रहा हूं कि यह शक्ति, जो तू जीवन से लड़कर नष्ट कर रहा है, यह शक्ति एक और दिशा में भी लगाई जा सकती है। और जो तू पाना चाहता है, वह पाया जा सकता है।

एक ऐसा प्रेम भी है, जो शाश्वत है; लेकिन वह परमात्मा का प्रेम है। वह पाया जा सकता है। आदमी— आदमी के प्रेम को शाश्वत करने की कोशिश मत कर! वह नहीं हो सकता। इसका कोई उपाय ही नहीं है। इसका कभी कोई उपाय नहीं हो सकेगा। लेकिन एक प्रेम है, जो शाश्वत भी है। आदमी—आदमी के बीच के प्रेम की परेशानी में मत पड़! और अगर आदमी— आदमी के बीच भी प्रेम करना है, तो आदमी के भीतर से भी परमात्मा को खोज। प्रेम उसको ही कर। आदमी को भी बीच का द्वार बना, जस्ट ए पैसेज, एक मार्ग। लेकिन उसके भीतर भी परमात्मा को देख।

इसलिए हमने चाहा था कि पति में परमात्मा देखा जा सके। क्योंकि अगर पति ही देखा जा सके, तो जिस प्रेम की आशा है, वह कभी संभव नहीं हो सकता। पश्चिम में प्रेम टूटेगा, विवाह भी टूटेगा, परिवार भी बिखरेगा। बिखरना ही पड़ेगा। वह एक ही आधार पर बन सकता था और थिर हो सकता था, कि किसी दिन पति में परमात्मा की झलक मिल जाए या पत्नी में कभी उस दिव्यता का बोध हो जाए। तो ही। जिस दिन किसी दिन पत्नी में मां दिखाई पड़ जाए गहरे में कहीं, पति में प्रभु दिखाई पड़ जाए गहरे में कहीं, उस दिन हम शाश्वत के नियम में प्रवेश कर गए।

ऐसा समझें, आज हमने जमीन के पार जाने के उपाय कर लिए अब हम चांद पर जा सकते हैं। अब तक नहीं जा सकते थे। न जा सकने का कारण जमीन का ग्रेविटेशन था। दो सौ मील तक जमीन का गुरुत्वाकर्षण पकड़े हुए है। दो सौ मील के भीतर कोई भी चीज फेंको, जमीन उसे खींच लेगी। और या फिर उसको इतनी तीव्र गति में रखना पड़ेगा, जैसे हवाई जहाज को रखना पड़ता है। इतनी तीव्र गति में रखना पड़ेगा कि यहां की जमीन खींच पाए, इसके पहले वह यहां की जमीन से आगे हट जाए। वहा की जमीन खींच पाए उसके पहले आगे हट जाए।

तो या उसे तीव्र गति में रखना पड़ेगा, तो जमीन उसे नहीं खींच पाएगी। क्योंकि जमीन के खींचने में समय लगेगा। मेरा हाथ यहां है, जमीन के खिंचाव का असर पड़ा, तब तक हाथ आगे हट गया। यह खिंचाव बेकार चला गया। तब तक उस पर असर पड़ा, आगे हाथ हट गया। तो या तो हवाई जहाज की गति से घूमते रहो वर्तुलाकार, तो जमीन से बच जाओगे। लेकिन जमीन का कर्षण खींचता ही रहेगा।

ही, दो सौ मील के पार अगर हम किसी भी चीज को फेंक दें, तो फिर जमीन खींचने में असमर्थ हो जाती है। दूसरा नियम शुरू हो गया। जमीन के घेरे के बाहर दो सौ मील की जमीन का फील्ड है, एनर्जी फील्ड है। उसके बाहर फिर जमीन नहीं खींचेगी। फिर एक छोटा—सा कंकड़ भी छोड़ दो, तो जमीन की ताकत उसे खींचने की नहीं है। फिर वह कंकड़ अनंत में घूम सकता है।

ठीक ऐसे ही, जीवन के आंतरिक नियम भी हैं। जब तक हम क्षणभंगुर के घेरे में ही सब कुछ खोजेंगे, शाश्वत को खोजेंगे, तब तक हम क्षणभंगुर से खिंचते रहेंगे, टूटते रहेंगे, परेशान होते रहेंगे। वह स्थिर हमें उपलब्ध नहीं होगा, शाश्वत की प्रतीति नहीं होगी। एक और दिशा भी है, आदमी के पार। जैसे जमीन के पार दो सौ मील के पार उठने की, ठीक ऐसे ही, आदमी के प्रेम, वस्तुओं के आकर्षण के पार, परमात्मा के प्रेम की तरफ उठने की भी एक आंतरिक दिशा है। उस दिशा में उठते ही सारे नियम दूसरे हो जाते हैं। यहां सब क्षणभंगुर है, वहा कुछ भी क्षणभंगुर नहीं है। यहां सब सुखरहित है, वहां सब दुखरहित है।

मैं नहीं कहूंगा कि वहां सुख है। क्योंकि आप नहीं समझ पाएंगे। क्योंकि सुख तो आपने जाना नहीं कभी। अगर मैं कहूं, वहां सुख है, तो आपकी समझ में कुछ भी न आएगा। और अगर आएगा भी, तो वही सुख समझ में आएंगे, जो आप यहां जानना चाह रहे थे। नहीं। मैं कहूंगा, यह संसार सुखरहित है, और वह संसार, परमात्मा का, दुखरहित है। दुखरहित इसलिए कि आप दुख को भलीभांति जानते हैं। आपका दुख वहां कोई भी नहीं होगा। स्वभावत:, आपका कोई भी सुख वहां नहीं होगा। क्योंकि आपके सब दुख इन्हीं सुखों से पैदा हुए हैं।

यह क्षणभंगुर है, वह शाश्वत है। यहां हर चीज क्षण में बदल जाती है, वहां कुछ भी कभी नहीं बदला है।

निश्चित ही, जहां बदलाहट बिलकुल नहीं है, वहा समय नहीं हो सकता, वहां टाइम नहीं हो सकता। क्योंकि समय तो बदलाहट का माध्यम है। जहां भी समय होगा, वहां बदलाहट होगी। जहां बदलाहट नहीं होगी, वहा समय नहीं होगा।

यहां, जहां हम जीते हैं, वहां हम समय में जीते हैं। समय की प्रक्रिया को हम समझ लें, तो क्षणभंगुर का दूसरा अर्थ समझ में आ जाए।

समय में, कभी आपने खयाल किया कि आपको वर्ष, माह, जीवन इकट्ठा नहीं मिलता, एक—एक क्षण एक—एक बार मिलता है! कभी आपने खयाल किया कि दो क्षण इकट्ठे आपके हाथ में कभी नहीं होते! एक क्षण, और जब वह छिन जाता है, तभी दूसरा आपके हाथ में उतरता है।

एक क्षण से ज्यादा आपके हाथ में कभी नहीं होता। कोई आदमी कितनी ही कोशिश करे कि दो क्षण मेरे हाथ में हो जाएं, तो नहीं हो सकते। एक ही क्षण हाथ में होता है। जब वह खिसक जाता है हाथ से, तब दूसरा आता है। अगर आपने रेत से चलती हुई घड़ी देखी है, तो एक—एक दाना रेत का गिरता रहता है। बस, एक दाना ही गुजरता है छेद से। जब एक गुजर जाता है, तब दूसरा दाना गुजरता है। दो दाने साथ नहीं गुजरते।

समय का भी एक दाना हमें मिलता है, एक क्षण। क्षण समय का एटम है, आखिरी कण है। उसके आगे विभाजन नहीं हो सकता। एक क्षण हमें मिलता है। वह खोता है, तो दूसरा हाथ में आता है।

इसका अर्थ हुआ कि हमारे पास एक क्षण से ज्यादा जिंदगी कभी नहीं होती! चाहे बच्चा हो, चाहे जवान हो, चाहे का हो, चाहे गरीब हो, चाहे अमीर हो, चाहे ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी हो—एक क्षण से ज्यादा जिंदगी किसी के पास नहीं होती।

क्षणभंगुर का यह भी अर्थ है कि पूरा जीवन क्षण से ज्यादा हमारे पास नहीं होता।

और क्षण कितनी छोटी चीज है आपको पता है गुर आपको पता नहीं होगा। जिसे हम सेकेंड कहते हैं घड़ी में, वह बहुत बड़ा है। बहुत बड़ा है। अब तक समय की ठीक—ठीक जांच—पड़ताल नहीं हो सकी; क्योंकि बड़ा सूक्ष्म मामला है समय का।

लेकिन क्षण, आप ऐसा ही समझें, डेमोक्रीट्स या वैशेषिक भारत के आज से तीन—चार हजार साल पहले परमाणु की जो कल्पना करते थे, परमाणु का जो खयाल करते थे, तो उनका खयाल था कि परमाणु आखिरी टुकड़ा है, उससे ज्यादा नहीं टूट सकता। लेकिन फिर परमाणु भी टूट गया और अब इलेक्ट्रान हमारे हाथ में है। अब इलेक्ट्रान जो है, वस्तु का आखिरी टुकड़ा है। वह कितना बड़ा है, यह कहना मुश्किल है, वह कितना छोटा है, यह कहना मुश्किल है। और जो भी बातें कही जाती हैं, वे सब अंदाज हैं, अनुमान हैं।

इसे ऐसा समझें कि एक पानी की बूंद—स्याही का ड्रापर होता मुड़ने की बात है और वह दिखाई पड़ जाएगा। संसार पर ध्यान मत है, आप स्याही के ड्रापर से एक पानी की या स्याही की बूंद गिरा दो; उसकी तलाश करो, जिसमें संसार बह रहा है, जिसमें संसार लें। तो वैज्ञानिक कहते हैं, एक बूंद में जितने इलेक्ट्रौस हैं, अगर उठ रहा है, जिसमें संसार खो रहा है, जिसमें संसार बना है और पूरी पृथ्वी के लोग—तीन अरब लोग हैं अभी—तीन अरब लोग उन इलेक्ट्रांस की गिनती करने लग जाएं, तो छ: करोड़ वर्ष लगेंगे! एक पानी की बूंद में, जमीन पर जितने लोग हैं, तीन अरब लोग हैं अभी, अगर ये गिनती करने लग जाएं—खाएं न, पानी न पीए, उठें न, सोए न, बैठें न—कुछ भी न करें, चौबीस घंटे गिनती ही करें, तो छ: करोड़ वर्ष! एक पानी की बूंद में उतने इलेक्ट्रांस हैं! कहना मुश्किल है कि एक सेकेंड में कितने क्षण हैं, कहना मुश्किल है। इलेक्ट्रौस से तो छोटे किसी हालत में नहीं होंगे। बहुत बारीक है मामला। उतना बारीक हमारे पास होता है! हमें पता भी नहीं चल पाता। बारीक इतना है कि जब आपको पता चलता है, तब तक क्षण आपके हाथ से जा चुका होता है। पता चलने में जितना वक्त लगता है, उतने में वह जा चुका होता है। आपको पता लगता है कि आपको लगा, बारह बजकर एक मिनट, जब आपको पता लगता है, तो बारह बजकर एक मिनट अब नहीं रहा। क्षण सरक गए।

इसका मतलब यह हुआ कि क्षण भी हमारे हाथ में है, यह भी हमें पता नहीं चल पाता। इतना छोटा है क्षण और इतना क्षणभंगुर है जीवन कि हमारे हाथ से कब गुजर जाता है, हमें इसका भी पता नहीं चलता। इस बदलती हुई, भागती हुई समय की धारा में जो जीवन के शाश्वत भवन बनाने की कोशिश करते हैं, वे अगर दुख में पड़ जाते हैं, तो कसूर किसका है?

तो कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, इस क्षणभंगुर और सुखरहित संसार में तू मुझ को स्मरण कर। और स्मरण के लिए कुछ बातें कहते हैं।

अनन्य प्रेम से अचल मन वाला हो, मुझ परमेश्वर को निरंतर भज। श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन कर। मुझ परमात्मा को प्रणाम कर। मेरे शरण हुआ, मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त हो जाएगा।

इन सब बातों का सार तीन शब्दों में आपसे कहना चाहूं।

एक, दृष्टि संसार पर मत रखो। वहां कुछ भी हाथ में आएगा नहीं। निराश होने का कोई कारण नहीं; क्योंकि जहां कुछ हाथ में आ सकता है, वह बिलकुल किनारे ही है। संसार से बहुत दूर नहीं, बस जस्ट बाई दि कार्नर। एकदम किनारे, नुक्कड़ पर ही है। जरा



जिसमें संसार लीन हो जाएगा। उसकी थोड़ी फिक्र करो। आदमी से आंख थोडी ऊपर उठाओ; आदमी के थोड़े पार देखो।

नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से तृप्त हो जाएगा। और लगता है कि वह अभागा दिन हमारे आस—पास है कहीं। आदमी अपने से तृप्त मालूम पड़ता है।

धर्म का अर्थ है, आदमी का अपने से अतृप्त हो जाना, ए बेसिक डिसकटेंट, एक आधारभूत प्राणों में असंतुष्टि, कि आदमी होना काफी नहीं है, और संसार पा लेना पर्याप्त नहीं है—कोई और खोज! वही खोज परमात्मा की तरफ उठाती है।

तो पहली बात, संसार से तृप्त मत हो जाना, संसार में खो मत जाना, डूब मत जाना, स्मरण रखना कि पार भी कोई है।

एक मित्र ने पूछा है कि उस पार का हमें कोई पता ही नहीं है, तो हम उसका स्मरण कैसे करें?

वे ठीक कहते हैं। उसका कोई भी पता नहीं है। उसका स्मरण कैसे करें?

बच्चा पैदा होता है। आपने कभी खयाल किया है, बच्चा पैदा होकर पहला काम क्या करता है? रोता है। इस बच्चे को रोने का भी कोई पता नहीं था। रोता क्यों है? शायद आपको खयाल में भी न हो! रोता इसलिए है, ताकि सांस ले सके, क्योंकि मां के पेट में उसे सांस नहीं लेनी पड़ती। मां की सांस से ही काम चलता है। मां के पेट में नौ महीने बच्चे के फेफड़े काम नहीं करते। पैदा होते से ही फेफड़ों को काम करना पड़ता है। पता कुछ भी नहीं है बच्चे को कि फेफड़े कैसे काम करें? कैसे श्वास लें? लेकिन एक बेचैनी है। उसका जो पता नहीं है, उसकी भी एक बेचैनी तो है। पूरा यंत्र माग करता है, तो एक विह्वलता पैदा होती है।

कृष्ण ने उसी विह्वलता की बात्त कही है। रो उठता है, चीख उठता है। उसी चीखने में सांस भीतर—बाहर हो जाती है, हृदय की धड़कन शुरू हो जाती है। इसलिए अगर बच्चा न रोए, तो डाक्टर चिंतित हो जाते हैं, नर्सें घबड़ा जाती हैं, किसी तरह रुलाओ बच्चे को। अगर बच्चा नहीं रोया, तो गया! अगर बच्चा न रोए, तो उसका मतलब है कि वह बचेगा नहीं, मर जाएगा। मरा ही हुआ होगा। रो भी नहीं सकता, तो मरा ही हुआ है।

तो दूसरी बात आपसे कहता हूं परमात्मा का तो आपको पता नहीं है, लेकिन एक बात तो आपको पता चल सकती है कि जिस जगत में आप जी रहे हैं, वहां कुछ भी नहीं है। तो फिर रो तो सकते हैं। जहां खोज रहे हैं, वहां कुछ भी नहीं मिल रहा है। उसका कोई पता नहीं है, माना मैंने। उसका कोई पता नहीं है, जो मिले। लेकिन जहां हैं, वहां कुछ भी नहीं मिल रहा है, तो छाती पीटकर रो तो सकते हैं! हृदयपूर्वक चीख तो सकते हैं! आंसू तो बह सकते हैं! कृष्ण ने उसे ही विह्वलता कहा है। वह विह्वलता इस बात का ही सबूत है कि जो सामने है, उसमें कुछ मिलता नहीं; और तुम, जिनमें मुझे मिल सकता है, तुम दिखाई नहीं पड़ते! इस क्षण में जो पीड़ा पैदा होती है, उसका नाम विह्वलता है। जो है, वह पाने योग्य नहीं मालूम पड़ता; जो पाने योग्य है, उसका कोई पता नहीं है! तो मैं क्या करूं? लेकिन मैं रो तो सकता हूं।

भक्तों ने रोने का अभूतपूर्व उपयोग किया है। भक्तों ने रोने को योग बना लिया है। रोने का उन्होंने वही उपयोग किया है, जो बच्चा मां से पैदा होकर करता है अनजान जगत में प्रवेश करने के लिए। भक्तों ने रोकर परमात्मा में प्रवेश करने के लिए वही उपयोग किया है। और जो व्यक्ति उस अनजान के लिए रुदन से भर जाता है और उसके प्राणों में आंसू भर जाते हैं, अचानक वह पाता है कि उसके हृदय ने नई श्वास लेनी शुरू कर दी है। वह किसी दूसरे लोक में प्रवेश कर गया है। कोई दूसरा जगत सामने खड़ा हो गया है। द्वार खुल गए हैं।

उन मित्र का पूछना ठीक है कि जिस भगवान को हम नहीं जानते, उसका स्मरण कैसे करें?

मत करो स्मरण! लेकिन जिसे तुम जानते हो, उससे पूरी तरह असंतुष्ट तो हो जाओ। जहां तुम खड़े हो, उस जमीन को तो व्यर्थ समझ लो। तो तुम्हारे पैर आतुर हो जाएंगे उस जमीन को खोजने के लिए, जहां खड़ा हुआ जा सके। जिस नाव पर तुम बैठे हो, उसे तो देख लो कि वह कागज की है। कोई फिक्र नहीं कि दूसरी नाव का हमें कोई पता नहीं है। और हमें कोई पता नहीं है कि कोई किनारा भी मिलने वाला है। हमें कोई पता ही नहीं है कि कोई और खिवैया भी हो सकता है। लेकिन यह नाव, जिस पर तुम बैठे हो, कागज की है या सपने की है, जरा नीचे इसकी तलाश कर लो।

और जिस आदमी को पता चल जाए कि मैं कागज की नाव में बैठा हूं पता है वह क्या करेगा? कम से कम चीखकर रोका, चिल्लाएगा तो! पता है कि कोई सुनने वाला नहीं है, तो भी मैं कहता हूं वह चिल्लाएगा और रोएगा। कोई किनारा हो या न हो, और कोई निकट हो या न हो, उस स्वात निर्जन में भी उसका रुदन तो सुनाई ही पड़ेगा, उसके प्राण तो चिल्लाने ही लगेंगे, कि मैं कागज की नाव में बैठा हूं, अब क्या होगा? इस घटना से ही, इस विह्वलता से ही अचानक हृदय का एक नया यंत्र शुरू हो जाता है। हृदय में दो यंत्र हैं। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, तो वह कहेगा, फेफड़े के अतिरिक्त हृदय में और कुछ भी नहीं है, फुफफुस है। पंपिंग सेट के सिवाय वहा कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ श्वास को फेंकने और खून को शुद्ध करने का काम करता है। एक पंपिंग की व्यवस्था है। वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, तो हृदय जैसी कोई भी चीज नहीं है, फेफडा है, फुफफुस है, लेकिन शब्द हम सदा हृदय का उपयोग करते हैं, हालाकि हमारे पास भी फुफफुस है अभी, अभी हृदय नहीं है।

हृदय उस फेफड़े का नाम है, जो दूसरे संसार में श्वास लेना शुरू करता है। यह फेफड़ा तो इसी संसार में श्वास लेता है, यही आक्सीजन और कार्बन डायआक्साइड के बीच चलता है। एक और भी आक्सीजन है, एक और प्राणवायु है, एक और प्राणवान जीवन है, जब वह शुरू होता है, तो इसी फुफफुस के भीतर एक और हृदय है, जिसमें नई श्वास और नई धड़कन शुरू हो जाती है। वह धड़कन अमृत की धड़कन है। तो दूसरी बात है, विह्वलता। और तीसरी बात है, समर्पण।

पहली बात है, यह जो चारों तरफ है, यह व्यर्थ हो जाए, तो ही आंख उठेगी। आंख उठे, कुछ दिखाई न पड़े; जो था, वह छूट जाए; जो मिलने को है, वह मिले नहीं; बीच में आदमी अटक जाए तो विह्वलता पैदा होगी; घबड़ाहट पैदा होगी; एक बेचैनी पैदा होगी। कीर्कगार्ड ने कहा है, एक ट्रेबलिंग, एक कंपन पैदा होगा। एक चिंता पैदा होगी कि अब क्या होगा? जो नाव थी वह छूट गई, नई नाव पर पाव नहीं पड़े, अब तो लहर पर ही खड़े हैं, अब क्या होगा?

इस विह्वलता में घटना घटेगी।

और तीसरी बात है, समर्पण। समर्पण का अर्थ है, जब उस नए हृदय की धड़कन शुरू हो जाए, तो समग्र भाव से, अत्यंत श्रद्धापूर्वक, पूरे ट्रस्ट से, भरोसे से उस नए जीवन में प्रवेश कर जाना। उस नए जीवन को सौंप देना अपनी बागडोर। कहना कि तू मुझे खींच ले।

दो तरह से एक आदमी नाव में जाता है। एक तो नाव होती है, जिसमें हाथ से खेना पड़ता है। एक नाव होती है, जिसमें पाल लगा होता है। हवा बहती है पूरब की तरफ और पाल खोल देते हैं, तो हवा ही नाव को खींचकर ले जाती है।

ध्यान रहे, संसार का जो जगत है, वहा जिस नाव से हमें चलना पड़ता है, वहां खेना होता है, वहां प्रत्येक आदमी को मेहनत उठानी पड़ती है, पतवार चलानी पड़ती है। तब भी चलता नहीं कुछ, कहीं पहुंचते नहीं। पतवार चलती है बहुत, परेशान बहुत होते हैं, दौड़— धूप, पूरी जिंदगी डूब जाती है, किनारा—विनारा कभी मिलता नहीं। वही सागर की लहरें ही कब सिद्ध होती हैं। लेकिन मेहनत करनी पड़ती है। यहां इंचभर अगर आप रुके, तो डूब जाएंगे। कारण, पूरे वक्त लगे रहना पड़ता है बचने में। यहां क्षणभंगुर है सब। यहां पूरे वक्त लगे रहेंगे, तब भी डूबेंगे! लेकिन जितनी देर बचे रहे, उतनी देर बचे रहेंगे।

एक दूसरा लोक है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। उस लोक में आपको पतवार नहीं चलानी पड़ती। वहा पतवार लेकर पहुंच गए, तो आप मुश्किल में पड़ेंगे। वहा तो उस परमात्मा की हवाएं ही आपकी नाव को ले जाने लगती हैं। आपको सिर्फ छोड़ देना पड़ता है।

लेकिन जिसको पतवार चलाने की आदत है और कभी उस पाल वाली नाव में नहीं बैठा है, वह पाल वाली नाव में बैठकर बहुत घबडाएगा कि पता नहीं कहां जाऊंगा? क्या होगा, क्या नहीं? उतर जाऊं? क्या करूं? या पतवार भी चलाऊ?

समर्पण का अर्थ है, तुम अपनी पतवार मत चलाना। वह तुम्हें जहां ले जाए, तुम वहीं चले जाना। छोड़ देना अपने को।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा जो छोड़ देता है सब, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है।

इन दिनों में जौ कुछ आपसे कहा है, मेरा कोई प्रयोजन नहीं है कि कोई सिद्धात आपको साफ हो जाएं। सिद्धांतों के साफ होने से कुछ होता नहीं। कोई मार्ग साफ हो जाए, तो कुछ होता है। मार्ग भी साफ हो जाए, तो भी बहुत कुछ नहीं होता, जब तक कि चलने की उमंग और लहर न आ जाए। चलने की उमंग और लहर भी आ जाए, तो भी बहुत कुछ नहीं होता, जब तक कि उस अज्ञात पर भरोसा न आ जाए। तो फिर वह चलाता है और खे लेता है।

इतने दिन इन बातों को इतनी शांति से सुना है, तो यह आशा की जा सकती है कि कोई बात इनमें से आपके जीवन में बीज बन जाए, कोई परिणाम ले आए। परिणाम तो कुछ आते हैं, लेकिन वे परिणाम अक्सर वैसे नहीं होते, जैसे आने चाहिए।

अनुभव करता हूं मैं, सुनते हैं आप मुझे, परिणाम एक आता है कि आप सोच—विचार में पड़ जाते हैं। वह कोई बहुत गहरा परिणाम नहीं है। या आपके मन में और अनेक प्रश्न उठ आते हैं और उनकी चर्चा में आप पड़ जाते हैं। वह भी कोई बहुत गहरा परिणाम नहीं है। ऐसे तो अनेक जीवन आदमी सोचकर, विचारकर, प्रश्न उठाकर, जवाब खोजकर व्यय कर सकता है। किए ही हैं हमने। कुछ चलें। एक कदम भी चलें, तो हजार कदमों की चर्चा करने से बेहतर है। परिणाम तो आते हैं, लेकिन हितकर नहीं मालूम होते। कल मैंने जिन मित्र के लिए कहा था कि वे मुझे मूर्ख सिद्ध करने के लिए यहां आना चाहते हैं, तो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं मूर्ख हूं? अब कोई सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। तो आज वे मेरे ऊपर हमला ही कर दिए! उन्होंने कहा, जब विवाद से सिद्ध नहीं होना है, तो अब हमले से सिद्ध होना है!

परिणाम उन पर भी आया! जो मैंने कहा, उसका परिणाम आया। पर परिणाम यह आया कि अब विवाद की जगह हमला करना है।

हमारा मन कैसे परिणाम लेता है! मैंने अगर स्वीकार ही कर लिया, तो बात समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन बात समाप्त नहीं हुई है। उनको और भी ज्यादा चेष्टा करनी पड़ेगी मुझे मूर्ख सिद्ध करने की। वह चेष्टा यह है कि मुझ पर हमला किए! उनको खयाल भी नहीं हो सकता कि वे क्या कर रहे हैं! खयाल ही होता, तो क्यों करेंगे!

जब आदमी मन के एक ढांचे में फंस जाता है, तो उसी में आगे बढ़ा चला जाता है। हर मन के ढांचे में आगे बढ़ने की तरकीब होती है, पीछे लौटने की तरकीब नहीं होती। पहले दिन वे चिल्लाकर व्यवहार किए। दूसरे दिन गाली देकर व्यवहार किए। आज हमला करके मारकर व्यवहार किए। वे एक ढांचे में फंस गए। तो अब वे ढांचे में बढ़ते चले जाएंगे। अब उनको कोई उपाय नहीं सूझेगा कि कैसे पीछे लौट जाएं!

उनका तो मैंने उदाहरण दिया। हम सब भी मन के ढांचों में फंसे हुए लोग हैं। और हमारे मन का ढांचा हमें आगे ही धकाए चला जाता है। तो जो हमने कल किया है, वही हमसे और आगे करवाए चला जाता है।

धार्मिक आदमी वही हो सकता है, जो मन के इस ढांचे को किसी जगह कहकर बाहर निकल सके कि बहुत चला तुम्हारे साथ, अब मैं लौटता हूं। अब बंद! अब तुम्हारा तर्क नहीं सुनूंगा; तुम्हारी व्यवस्था नहीं सुनूंगा; तुम्हारा हिसाब नहीं मानूंगा। बहुत माना।

अब मैं हटता हूं तुम्हारी लीक से ही हटता हूं।

लीक से ही आप हट जाएं, तो शायद वह घटना घट सके, जिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं। और वह घटना न घटे, तो जीवन व्यर्थ है। और वह घटना न घटे, तो जीवन सार्थक नहीं है। और वह घटना न घटे, तो हम जीए भी, मरे भी, उसका कोई भी मूल्य नहीं है।

आपके जीवन में यह मूल्य का फूल खिल सके, इस आशा से यह अध्याय पूरा करता हूं।

आज इतना ही।
पांच मिनट आप बैठेंगे। कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित होंगे, फिर हम विदा होंगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अध्याय 9 के 32 श्लोक की ओशो ने गुहयतम विशद दर्शन कराया हैं सच में मैं धन्यभागी हूँ 🙏🙏🌹🌹🙏🙏स्त्री,वैश्य और शूद्र का अर्थ एवं तदन्तर वर्णप्रथा के क्या विहंगगम अर्थ था जिसे समाज ने कालक्रमे अति निम्न ,पछात,असंस्कारित अर्थ में ढाल दिया जिसका भुगतान आज भी समाज झेल रहा हैं | ओशो ही सच में ऐसे अर्थ को रखते हैं जिसे हम प्रणाम करे बिना रह ही नहीं सकते 🙏🙏🌹🌹🙏🙏

    जवाब देंहटाएं