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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

बिन बाती बिन तेल-(प्रवचन-18)

वासना-रहितता और विशुद्ध इंद्रियां—(प्रवचन—अट्ठारहवां)
दिनांक 8 जुलाई 1974 (प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!

संत उत्झूगेन ने एक दिन अपने शिष्यों से कहा,
'तुम में से प्रत्येक के पास एक जोड़ा कान है,
लेकिन उनसे तुमने क्या कभी कुछ सुना?
प्रत्येक के पास मुंह हैं, लेकिन उससे तुमने क्या कभी कुछ कहा?
और प्रत्येक के पास आंखें हैं, उनसे क्या कभी कुछ देखा?'
'नहीं-नहीं। तुमने न कभी सुना है, न कभी कहा है, न कभी देखा है, न कभी सूंघा है।
लेकिन ऐसी हालत में ये रंग, रूप, स्वर और सुगंध आते कहां से हैं?'
ह झेन सदगुरु जीसस के वचन को दोहरा रहा है। जीसस बोलते थे, तो पहली बात अपने शिष्यों को कहते थे; 'अगर कान हों तो सुनो; आंखें हों तो देखो; समझ हो तो समझ लो।'
या कभी कहते कि 'जिनके पास आंखें हों, वे देख लें। और जिनके पास कान हों, वे सुन लें।'
जो भी सुनने वाले थे, सभी के पास कान थे। जो भी सामने बैठे थे, सभी के पास आंखें थीं। जीसस का क्या प्रयोजन होगा?
तुम मेरे सामने बैठे हो। कान हैं तुम्हारे पास, आंखें हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम जो देखते हो, वह वही नहीं हैं जो है। और तुम जो सुनते हो, वह वही नहीं है, जो कहा गया। तुम्हारी वासना तुम्हारी दृष्टि में मिश्रित हो जाती है। तुम्हारे विचार तुम्हारे श्रवण के साथ घुल-मिल जाते हैं। तुम सभी कुछ अशुद्ध कर लेते हो।
बहुत प्रसिद्ध फकीर हुआ, यहूदी--बालसेनबालसेन के शिष्य जो भी बालसेन बोलता था, लिखते थे। बालसेन अकसर उनसे कहता कि लिख लो, जो मैंने कहा ही नहीं। और यह भी लिख लेना, तुम वही लिख रहे हो, जो मैंने कहा नहीं है।
बालसेन को समझा भी तो नहीं जा सकता। क्योंकि समझ शब्दों से नहीं आती, तुम्हारे अनुभव से आती है। तुम वही तो सुनोगे जो तुम सुन सकते हो।
एक दिन ऐसा हुआ कि बालसेन बोलता ही गया। सुननेवाले थक गए। और थोड़ी ही देर में सुनने वालों के हाथ से सब सूत्र खो गए। यह समझ में ही न आया कि वह क्या बोलता है? कहां बोल रहा है? क्यों बोल रहा है? फिर धीरे-धीरे लोगों के काम का समय हो गया। मंदिर खाली होने लगा। लोगों की दुकानें खुलने का वक्त आ गया। आफिस, दफ्तर लोग भागे। आखिर में बालसेन अकेला रह गया। जब आखिरी आदमी जा रहा था तो उसने कहा कि, 'रुक! क्या मेरी जान लेगा?' उस आदमी ने कहा, कि 'मैं क्यों आपकी जान लूंगा? मैं तो जा रहा हूं। सब लोग जा चुके हैं।'
बालसेन ने कहा कि 'मेरी हालत तुमने वैसी कर दी, जैसे कोई आदमी सीढ़ी पर चढ़े। तुम्हें जहां तक दिखाई पड़ा, तुम सीढ़ी को सम्हाले रहे। लेकिन यह सीढ़ी वहां है, जो ज्ञात से अज्ञात तक जाती है। और जैसे ही मैं तुम्हारी आंखों के पार हुआ, तुम सीढ़ी छोड़कर जाने लगे। मेरी जान लोगे? मैं तो चढ़ गया अज्ञात पर और तुम सब भागे जा रहे हो। सीढ़ी सम्हालने वाला तक कोई नहीं। तो तू जब तक रुका था, तो मैंने सोचा कम से कम एक तो मौजूद है, जो सीढ़ी को सम्हाले रखेगा। तब तक मैं कुछ न बोला। कम से कम मुझे नीचे तो उतर आने दे!'
बुद्ध जहां से बोलते हैं वह सीढ़ी का वह हिस्सा है, जो अज्ञात से टिका है। तुम जहां खड़े हो वह सीढ़ी का वह हिस्सा है, जो ज्ञात की पृथ्वी से टिका है। तुम्हारे बीच संवाद तो होना असंभव है। बुद्ध जो कहेंगे, तुम वह न समझ पाओगे। तुम जो समझोगे, वह बुद्ध ने कभी कहा नहीं।
इसलिए महावीर या बुद्ध के पास जब भी कोई आता तो वे कहते हैं, इसके पहले कि मैं बोलूं, तू सुनने की कला सीख ले। मेरे बोलने से कुछ सार नहीं है। क्योंकि मैं जो भी कहूंगा वह गलत समझा जाएगा। और गलत समझा गया ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है। अज्ञानी तो विनम्र होता है, भयभीत होता है, डरता है; सोचता है कि मुझे कुछ पता नहीं है, लेकिन अर्ध-ज्ञानी अहंकार से भर जाता है। और उसे लगता है, मुझे पता है। और एक दफे जिसे खयाल हो गया मुझे पता है और पता नहीं है, उसका भटकना सुनिश्चित है।
इस बात को हम ठीक से समझ लें। 'सम्यक श्रवण' का, 'राईट लिसनिंग' का क्या अर्थ होगा? सम्यक श्रवण का अर्थ होगा, जब कोई बोलता हो, तब तुम सिर्फ सुनो। तब तुम सोचो मत। क्योंकि तुमने सोचा कि एक धुआं खड़ा हो गया। तुमने सोचा, कि तुम्हारे विचार मिश्रित होने लगे। तुमने सोचा कि तुम्हारा मन खिचड़ी की भांति हो गया। तुमने सोचा, कि तुम सुनोगे कैसे?
मन एक साथ एक ही काम कर सकता है। मन की क्षमता दो काम एक साथ करने की नहीं है। और जब कभी तुम दो काम भी करते हो, तब भी तुम समझ लेना; एक क्षण मन एक काम करता है फिर तुम दूसरा काम करते हो। फिर एक काम करता है। लेकिन एक क्षण में मन एक ही काम करता है। तुम बदल सकते हो। तुम मुझे सुनो एक क्षण में फिर एक क्षण सोचो; फिर मुझे सुनो, फिर सोचो। ऐसा तुम कर सकते हो, लेकिन जितनी देर तुम सोचोगे, उतनी देर तुम मुझे चूक जाओगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आवाज तुम्हारे कानों में न पड़ेगी, आवाज तो पड़ेगी; कान झंकृत होंगे, शब्द सुने जाएंगे, लेकिन समझे न जा सकेंगे।
तुम्हारे घर में आग लग गई हो, रास्ते पर कोई गीत गा रहा हो, क्या तुम वह गीत सुन सकोगे? गीत सुनाई तो पड़ेगा लेकिन तुम न सुन सकोगे। तुम वहां मौजूद नहीं। तुम्हारे घर में आग लगी है, तुम चिंता से भरे हो; तुम्हारे मन में लपटें उठ रही हैं। भविष्य, अतीत सब सामने खड़ा हो गया है; अब क्या होगा? तुम भयातुर हो, तुम पत्ते की तरह कंप रहे हो तूफान में; तुम गीत सुन सकोगे? गीत कान पर पड़ेगा, आवाज तो टकराएगी, ध्वनि तो सुनी जाएगी, लेकिन अगर बाद में कोई तुमसे पूछेगा कि 'कौन-सा गीत गाया गया था?' तुम कहोगे, 'कैसा गीत! किसने गाया?'
घर में आग लग गई है, और तुम भागे जा रहे हो, रास्ते पर लोग नमस्कार करेंगे, क्या तुम उनकी नमस्कार सुन सकोगे? यह भी हो सकता है कि तुम जवाब भी दो, फिर भी तुमने सुना नहीं। यह भी हो सकता है कि हाथ यंत्रवत उठें और नमस्कार का उत्तर दे दें। आदत के कारण एक आटोमेटिक, यंत्रवत तुम व्यवहार कर लो, लेकिन नमस्कार न तो तुमने सुनी, न तुमने जवाब दिया। तुम सोए हुए थे। तुम वहां थे ही नहीं।
सम्यक श्रवण का अर्थ होगा, जब बोला जाए तब तुम चुप रहो। तुम्हारे भीतर की जो अंतर्वाता है, वह मौन हो जाए। तुम्हारे भीतर कोई तरंगें न चलती हों। तब तुम्हारा सुनना शुद्ध होगा। तभी बुद्ध कहेंगे, झेन फकीर कहेंगे कि तुमने सुना, तुमने कानों का उपयोग किया। तुम जब देखते हो तब तुम देखते ही नहीं हो, तुम जो देखते हो, उसके ऊपर प्रक्षेप भी करते हो; प्रोजेक्ट भी करते हो।
रास्ते से एक सुंदर स्त्री गुजरती है; तुमने देखा, तुम कहते हो सुंदर है। लेकिन सौंदर्य तो तुम्हारी वासना में होगा कहीं। शरीर न तो सुंदर होते हैं और न कुरूप। जब वासना मन में भरी होती है, तो आंखों से वासना जाती है, शरीर पर पड़ती है, शरीर सुंदर हो जाता है। कुरूप से कुरूप स्त्री भी किसी क्षणों में सुंदर हो सकती है, अगर मन वासना से भरा हो।
मैंने सुना है कि एक सेनापति युद्ध के मैदान पर, अपने सैनिकों के साथ एक प्रयोग कर रहा था। और वह प्रयोग यह था कि वह उन्हें अत्यंत कुरूप स्त्रियों के नग्न चित्र देखने को देता था। लोग हाथ में उठाते और पटक देते। चित्र कुरूप ही नहीं थे, वीभत्स भी थे; देखकर मन ग्लानि से भर जाए। उसके एक मित्र ने पूछा, 'यह तुम क्या कर रहे हो?'
उसने कहा कि 'यह चित्र कुछ दिन देखने के बाद जब युद्ध के मैदान पर सैनिक घर से लौटता है, तो पटक देता है, देखता नहीं। लेकिन महीने-पंद्रह दिन में इन चित्रों में भी सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। और जब मैं देखता हूं कि इन चित्रों में भी देखने में रस आने लगा तब मैं समझता हूं, अब इस सैनिक को छुट्टी देने का वक्त आ गया, इसको घर भेजना चाहिए। अब स्त्री का अभाव इतना ज्यादा हो गया कि अब यह कुरूप और वीभत्स स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ने लगी।'
चित्र वही है। आंख अब वासना को फेंक रही है। तुम सोचते हो कि स्त्री सुंदर है इसलिए तुम्हें प्रेम हो जाता है, तो तुम गलती में हो। तो तुम्हें जीवन का कुछ भी पता नहीं है। प्रेम के कारण स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, प्रेम के कारण सुंदर नहीं होती। जब प्रेम खो जाएगा, तो यही सुंदर स्त्री साधारण हो जाएगी।
मैंने सुना है, एक आदमी अपने घर लौटा। और उसने पाया कि उसका निकटतम मित्र उसकी पत्नी का चुंबन ले रहा है। मित्र घबड़ा गया। उस आदमी ने कहा, घबड़ाओ मत। मैं सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना चाहता हूं। मुझे चुंबन लेना पड़ता है क्योंकि यह मेरी पत्नी है। लेकिन तुम क्यों ले रहे हो? तुम पर कौन-सा कर्तव्य आ पड़ा है?
आदमी की वासना जैसे ही चुकती है, सौंदर्य खो जाता है।
दो शराबी एक शराबघर में बैठकर बात कर रहे थे। आधी रात हो गई और एक शराबी दूसरे से कहता है, 'इतनी रात तक बाहर रुकते हो, पत्नी नाराज नहीं होती?' तो उस दूसरे आदमी ने कहा, 'पत्नी? मैं विवाहित नहीं हूं।' तो उस पहले आदमी ने कहा, 'तुम और चकित करते हो। अगर विवाहित ही नहीं तो, इतनी रात तक यहां रुकने की जरूरत क्या है?'
लोग पत्नियों से बचने के लिए ही तो आधी-आधी रात तक शराबघरों में बैठे हैं! उस शराबी ने कहा, तुम मुझे हैरान करते हो। अगर विवाहित ही नहीं हो तो इतनी रात तक यहां किसलिए रुके हो?
जिससे हम परिचित हो जाते हैं, उसी से आकर्र्षण खो जाता है। इसलिए वासना को जो भी मिल जाता है, वही व्यर्थ हो जाता है। जो दूर है, वह सुंदर लगता है। जो पास है, वह कुरूप हो जाता है। जो हाथ में है, वह असार मालूम पड़ता है। जो हाथ के बाहर है, बहुत पार है, जिसको हम पा भी नहीं सकते जो हमारी पहुंच से बहुत दूर है उसका सौंदर्य सदा बना रहता है।
आंखें सिर्फ अगर देखें, और जो देखें उसमें कुछ डालें ना, तो आंखों ने देखा। लेकिन तुम कैसे देखोगे? तुम्हारी आंखें डालने का काम ही कर रही हैं। तुम्हारी आंखें धागे भी फेंक रही हैं वासनाओं के। तो तुम जो भी देखते हो, उस पर तुम्हारी वासना भी तुम फेंक रहे हो। आंख इकहरा मार्ग नहीं है, डबल-वे ट्रेफिक है। उसमें तुम्हारी आंख से भी कुछ जा रहा है। आंख में भी कुछ आ रहा है। ये दोनों मिश्रित हो रहे हैं। इन मिश्रित आंखों से जो देखा जाएगा, वह सत्य नहीं हो सकता।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जब तुम्हारी आंखें शून्य हों और जब तुम्हारी आंखें कुछ भी जोड़ेंगी नहीं, तब सत्य तुम्हारे लिए प्रगट हो जाएगा। शून्य आंखें लेकर जाना, दर्पण की तरह आंखें लेकर जाना; तभी तुम जान सकोगे, जो है उसे।
यह झेन फकीर ठीक कह रहा है। यह अपने शिष्यों को कह रहा है, कि 'तुम्हारे पास कान हैं, तुम्हारे पास आंखें हैं, लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं, तुमने कभी देखा? तुमने कभी सुना? तुम्हारे पास नाक है, तुमने कभी सुगंध ली?'
तुम्हारे पास इंद्रियां तो हैं, लेकिन जब तक इंद्रियों के पीछे वासना छिपी है, तब तक तुम्हारी इंद्रियां विकृत हैं।
बुद्ध पुरुष की इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं। यह सुनकर तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी।
क्योंकि तुम तो सोचते रहे हो, सुनते रहे हो कि बुद्ध पुरुष की इंद्रियां रह ही नहीं जातीं। मैं तुमसे कहता हूं, बुद्ध पुरुष के पास ही इंद्रियां होती हैं, तुम्हारे पास तो इंद्रियां विकृत हैं। बुद्ध पुरुष की इंद्रियां शुद्ध होती हैं। उसकी आंख देखती है; सिर्फ देखती है। कुछ जोड़ती नहीं, अपनी तरफ से कुछ डालती नहीं।
तुम बड़ा अजीब खेल खेल रहे हो। तुम्हारी ही आंखें सौंदर्य को डाल देती हैं किसी की देह में, और फिर तुम उसके पीछे लग जाते हो। क्योंकि इतने सुंदर व्यक्ति को बिना पाए तुम कैसे रह सकते हो? तुम्हारा ही लोभ धन पर उतर जाता है, और धन की महिमा हो जाती है और फिर तुम धन के पीछे पागल हो जाते हो। तुम ही डालते हो और तुम ही फिर पागल हो जाते हो। तुम ही एक खेल रचते हो अपने चारों तरफ, और फिर उसमें दीवाने हो उठते हो।
बुद्ध पुरुष देखते हैं, सुनते हैं, स्वाद लेते हैं। उनकी गंध का क्या कहना! वे गंध का पूरा रस उपलब्ध करते हैं। लेकिन चूंकि भीतर कोई वासना नहीं है, चित्त निर्वासना से भरा है, चित्त वासना-मुक्त हो गया है; इसलिए उनकी आंखें, उनके कान शुद्ध द्वार होते हैं। बुद्ध पुरुष उनसे बाहर नहीं जाते, संसार उनसे भीतर आता है। उनकी आंखों से रोशनी भीतर उतरती है। लेकिन कोई वासना उनकी आत्मा को बाहर नहीं ले जाती।
बुद्ध पुरुष अपने में थिर रहते हैं। इंद्रियां शुद्धतम काम करती हैं। उनकी संवेदना परिपूर्ण हो जाती है। इसलिए अगर कोई पक्षी गीत गाएगा, तो जैसा गीत बुद्ध पुरुष सुनते हैं, तुम नहीं सुन पाओगे। तुम्हारे पास कान नहीं हैं। और जब वर्षा में वृक्ष हरे हो उठते हैं, तो बुद्धों ने जैसी हरियाली देखी है, तुम न देख पाओगे। तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं। क्षुद्र से क्षुद्र में बुद्ध को विराट दिखाई पड़ेगा। आंखें तुम्हारे पास हों तो तुम्हें भी दिखाई पड़ेगा।
तुम पूछते हो, परमात्मा कहां हैं? अच्छा हो कि तुम पूछो कि मेरे पास आखें कहां हैं? तुम पूछते हो, कैसे सुनें कि वह अमृत वाणी सुनाई पड़े, ओंकार की ध्वनि गूंजे? पूछो कि तुम्हारे पास कान नहीं हैं। कान कैसे पाओ? क्योंकि ओंकार चारों तरफ गूंज रहा है। जिसके पास कान शुद्ध हैं, उसे ओंकार के सिवाय कुछ और सुनाई पड़ता ही नहीं। जिसके पास आंखें शुद्ध हैं, पदार्थ खो जाता है, परमात्मा प्रगट हो जाता है। यह शुद्ध आंखों का दर्शन है। जो सूंघ सकता है, उसे परमात्मा की गंध के सिवाय दूसरी गंध सूंघने में नहीं आती।
अब हम ऐसा कह सकते हैं, अशुद्ध आंखों से जब हम देखते हैं, तो पदार्थ दिखाई पड़ता है। परमात्मा शुद्ध आंखों की प्रतीति है। अशुद्ध कानों से सुनते हैं, शब्द सुनाई पड़ते हैं। शुद्ध कानों से सुनते हैं, सत्य सुनाई पड़ता है।
इंद्रियां तुम्हारी शत्रु नहीं हैं। लेकिन शुद्ध इंद्रियां चाहिए। तुम एक ऐसी दूरबीन लिए बैठे हो, जो विकृत है। उससे तुम जो भी देखते हो, वह विकृत हो जाता है।
इंद्रियों का शुद्धिकरण योग है।
और जितनी ही तुम्हारी इंद्रियां शुद्ध होती जाती हैं, उतना ही तुम्हारा प्रत्यक्ष निर्मल होता जाता है।
ऐसा हुआ, मगीध नाम का एक यहूदी फकीर जंगल में भटक गया--कहानी है। कहानी बड़ी मीठी है। शैतान ने उसे भटका दिया। क्योंकि मगीध से शैतान बड़ा परेशान था। यह उसकी सुनता ही नहीं था। और हजार उपाय करता था, सब असफल हो जाते थे। तो मगीध और उसके एक शिष्य जो जंगल से गुजर रहे थे, उनको शैतान ने रास्ता भटका दिया। जंगल में भटक रहे हैं, रास्ता मिलता नहीं है। और बड़ा हैरान हुआ मगीध, कि उसकी स्मृति खोती जा रही है। वह जो भी जानता था, वह भूलता जा रहा है।
उसने अपने शिष्य को कहा कि 'यह तो बड़ी मुश्किल मालूम होती है। यह शैतान का हाथ मालूम होता है। मैं जो भी जानता था, वह भूल रहा है। सब शास्त्र खो गए, सब प्रक्रियाएं खो गईं, मेरी शक्ति छिनती जा रही है। तू कुछ कर! तूने मुझे इतना सुना है, कुछ तो तुझे याद होगा! उसमें से कुछ बोल। कोई प्रार्थना, जो मैं रोज करता था।'
उस शिष्य ने कहा, 'अगर मेरे पास कान होते, तो मैं तुम्हारी प्रार्थना भी सुनता। मैंने सुनी हैं प्रार्थनाएं, लेकिन वह मैंने मेरी तरह से सुनी हैं। वह ठीक नहीं हो सकतीं। और जब तुम्हारी ठीक प्रार्थनाएं भटक गईं, तो मेरी गैर-ठीक प्रार्थनाएं क्या काम आएंगी? मैं भी भूलता जा रहा हूं, मैं भी घबड़ा गया हूं।'
मगीध ने कहा, 'तुझे कुछ तो याद होगा मेरे सुने हुए में से'। उसने कहा, 'तुम जोर ही देते हो तो सिर्फ अल्फाबेट--ए, बी, सी, डी: अलीफ, बे--बस, वही मुझे याद है। आ, बा, सा, दा, बस वही मुझे याद है। और तो सब मुझे भूल गया है।'
तो मगीध ने कहा, 'कोई हर्जा नहीं। देर मत कर! इसके पहले कि वह भी भूल जाए, तू जोर से अलीफ, बे का पाठ शुरू कर। वर्णमाला का पाठ शुरू कर।'
शिष्य ने आज्ञा मानी। उसने ए, बी, सी, डी का पाठ जोर से शुरू किया। मगीध उसके पीछे पाठ को दोहराने लगा। मगीध दोहराने में ऐसा तल्लीन हो गया, समाधिस्थ हो गया। शैतान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। क्योंकि ऐसे तन्मय चित्त के पास शैतान नहीं टिक सकता। परमात्मा के फूलों की वर्षा होने लगी। सब ज्ञान वापिस लौट आया। मगीध के शिष्य ने पूछा, 'यह तो चमत्कार कर दिया! सिर्फ वर्णमाला के पाठ से!'
मगीध ने कहा, 'सभी शास्त्रों में जो है, वह वर्णमाला से ज्यादा नहीं। वर्णमाला में सभी कुछ आ जाता है, कुछ बचता नहीं। और फिर मैंने जब पूरी वर्णमाला दोहरा दी, तो मैंने परमात्मा से कहा कि अब तू ठीक से जमा ले। प्रार्थना तो मेरी तुझे पता ही है। यह वर्णमाला यह रही, तू जमा ले। और उसने जमा दिया। और प्रार्थना पूरी हो गई।'
अगर भाव हो तो वर्णमाला वेद हो जाती है। अगर भाव न हो तो वेद भी वर्णमाला से ज्यादा नहीं है। अगर निर्विचार चित्त हो तो मंत्रों की जरूरत नहीं। निर्विचार चित्त में अ, , स का पाठ भी कर लिया जाए, तो मंत्र हो जाते हैं। और विचार से भरे चित्त में तुम कितने ही मंत्र दोहराओगे, सब व्यर्थ हो जाते हैं। तुम कितना ही ओंकार का पाठ करो, ओम-ओम दोहराओ, यह सब ऊपर-ऊपर है, भीतर तुम्हारी वासनाएं दौड़ रही हैं। और तुम्हारी वासनाएं तुम्हारे ओम को विकृत कर रही हैं। उनका धुआं घना है। वहां ओम की ज्योति जल नहीं सकती।
इस गुरु ने ठीक कहा अपने शिष्यों को कि तुम्हारे पास कान तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं। तुम्हारे पास आंखें तो दिखाई पड़ती हैं, लेकिन हैं नहीं।
और फिर उसने एक बहुत अजीब सवाल पूछा और उसने कहा कि अगर तुम्हारे पास न कान है, न आंख है, न नाक है, तो मैं तुमसे पूछता हूं यह गंध, यह रूप, यह रंग, कहां से पैदा हो रहा है?
कहानी यहीं पूरी हो जाती है। बड़ा गहरा सवाल उसने उठाया। यह संसार जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, अगर तुम्हारे पास देखने के यंत्र ही नहीं हैं तो यह संसार कहां से पैदा हो रहा है? तुम भी देख तो रहे हो कि वृक्ष हरा है। तुम भी देख तो रहे हो कि फूल में गंध है और रंग है। अगर तुम्हारी आंखें और कान और तुम्हारी इंद्रियां सब बंद पड़ी हैं, विकृत पड़ी हैं, तो यह इतना बड़ा संसार कैसे पैदा हो रहा है?
ज्ञानी कहते हैं कि यह संसार तुम्हारी वासना से पैदा हो रहा है। इसलिए शंकर इसे माया कहते हैं। माया का अर्थ है, स्वप्नवत है; तुमने पैदा किया है। तुम वह नहीं देख रहे हो, जो है। तुम वही देख रहे हो, जो तुम चाहते हो। यह तुम्हारी चाह का फैलाव है। जिस दिन तुम्हारी चाह समाप्त हो जाएगी, उस दिन तुम उसे देखोगे, जो है। और जो है, वह बड़ा अलग है।
यहां वृक्ष नहीं हैं, यहां परमात्मा ही फूलों में खिल रहा है। यहां आकाश में बादल नहीं भटक रहे हैं, यहां परमात्मा ही आकाश में भटक रहा है। यहां कंकड़-पत्थर नहीं पड़े हैं, यहां परमात्मा की प्रतिमाएं ही हैं--लेकिन जिस दिन तुम चाह का फैलाव न करोगे, तुम्हारा प्रोजेक्शन न होगा।
फिल्मगृह में तुमने प्रोजेक्टर देखा है; प्रोजेक्टर पीछे लगा होता है। उसकी तरफ तो तुम देखते भी नहीं, परदे पर आंख लगी होती है। और परदे पर कुछ भी नहीं होता, धूप-छाया का खेल होता है। असली चीज तो प्रोजेक्टर है। वह पीछे से चित्र फेंक रहा है। परदे पर चित्र बन रहे हैं। परदा खाली है, लेकिन चित्रों से ढंक जाता है।
तुम्हारा मन तो पर्दे से ज्यादा नहीं है। और तुम्हारी वासना प्रक्षेपण कर रही है। तुम्हारी वासना तुम्हें जो दिखाना चाहती है, वह तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। इसलिए अगर तुम बहुत वासना से भर जाओ कृष्ण की, तो कृष्ण भी तुम्हें दिखाई पड़ने लगेंगे। लेकिन तुम यह मत सोचना कि कृष्ण तुम्हें मिल गए। यह कृष्ण भी उसी माया का हिस्सा है। तुमने इतना चाहा कि वह दिखाई पड़ने लगे। तुम्हारी चाह ने उन्हें पैदा कर लिया।
जीसस के भक्त को जीसस दिखाई पड़ जाते हैं, कृष्ण कभी दिखाई नहीं पड़ते। कृष्ण के भक्त को कृष्ण दिखाई पड़ते हैं; राम दिखाई नहीं पड़ते। बुद्ध के भक्त को बुद्ध दिखाई पड़ते हैं; कृष्ण, जीसस का कोई पता नहीं चलता। क्या हो रहा है?
यह अनुभूति, अनुभूति नहीं है। यह प्रक्षेपण है। कृष्ण का भक्त अपनी सारी चाह को एकाग्र करके कृष्ण की मांग कर रहा है। अगर तुम मांगे ही चले जाओ--भूखे, प्यासे, दिन और रात; न सोओ, न चैन लो, तुम अपने सारे मन में एक ही गूंज से भर जाओ: 'कृष्ण--कृष्ण--कृष्ण'...आज नहीं कल, कितनी देर लगेगी? तुमने इतना बड़ा संसार पैदा कर लिया, तुम छोटे-से कृष्ण को भी पैदा कर लोगे। तुम उनसे बातें करोगे, खेलोगे; और ऐसा नहीं कि तुम ही बोलोगे, तुम्हारे कृष्ण तुम्हें उत्तर भी देंगे। लेकिन तुम ही! वह मोनोलॉग है। तुम एकालाप कर रहे हो। कोई वहां कृष्ण बोलने वाला नहीं, तुम दोनों तरफ से जवाब दे रहे हो।
मन की क्षमता अदभुत है। मन माया को निर्मित कर लेता है। इस बात को खयाल से समझ लो।
जब तक तुम्हारी चाह है, तब तक तुम सत्य को नहीं जान सकोगे। तब तक तुम जो भी जानोगे, वह माया है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं की जा सकती। और जो परमात्मा को चाहता है, वह भटक जाता है। परमात्मा को तो तब जाना जाता है, जब तुम्हारी कोई चाह नहीं बचती। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानियों ने इनकार ही कर दिया। कह दिया कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई कृष्ण नहीं है, कोई राम नहीं है, बचो इन से। तुम एक ही काम करो सिर्फ, कि तुम अपनी चाह को काट डालो। फिर जो है, वह प्रगट हो जाएगा। तुम उसे नाम मत दो, अन्यथा तुम्हारी कल्पना उस नाम को पकड़ लेगी और तुम खेल में लग जाओगे।
रात तुम सपना देखते हो, तब सपने में सब सपना सच ही मालूम पड़ता है। कभी सपने में खयाल आता है कि यह सपना है? अगर कृष्ण के भक्त को और राम के भक्त को एक ही कमरे में बंद कर दो, तो रात कृष्ण का भक्त बांसुरी को बजते हुए सुनेगा, राम का भक्त बिलकुल नहीं सुनेगा। राम का भक्त देखेगा धनुर्धारी राम खड़े हैं। रातभर पहरा दे रहे हैं। कृष्ण के भक्त को इनका पता ही नहीं चलेगा। और पता चल जाए तो इनको निकाल बाहर करेगा कि यहां कमरे में तुम क्या कर रहे हो?
मन की गहनतम क्षमता है--प्रोजेक्शन; माया का फैलाव। तुम जो चाहते हो, वह दिखाई पड़ने लगेगा। तुम बड़े शक्तिशाली हो।
यह झेन गुरु पूछता है कि फिर कहां से हो रहा है रूप, रंग पैदा? यह आकृतियां कहां से निर्मित हो रही हैं, जब तुम न देखते, न तुम सुनते?
ये तुम्हारी वासना से फैल रही हैं। क्या ऐसे क्षण की कोई संभावना है, जब तुम निर्वासना से देख सको, सुन सको? उस दिन तुम्हें परम गंध का अनुभव होगा।
भक्तों ने, ज्ञानियों ने बहुत उल्लेख किए हैं; कि जब ज्ञान की आंख खुलती है, या हृदय के द्वार खुलते हैं, या जब वासना गिर जाती है, और चित्त निर्मल और निर्विकार हो जाता है तो ऐसी ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जो अनाहत है।
एक तो ध्वनि है, जो आहत है। कोई ताली बजाए, तो आवाज सुनाई पड़ती है। दो चीजें टकराएं तो आवाज पैदा होती है। टकराने से जो ध्वनि पैदा होती है वह आहत है। मैं बोल रहा हूं यह भी आहत है क्योंकि यंत्र टकरा रहा है। बोलने का यंत्र आवाज कर रहा है।
ज्ञानी कहते हैं, जब सब वासना खो जाती है तो अनाहत वाणी सुनाई पड़ती है। वह वाणी सुनाई पड़ती है, जो किसी टकराहट से पैदा नहीं हो रही। वही वाणी ओंकार है। वह सब तरफ गूंज रही है, लेकिन तुम उसे देख न पाओगे। तुम तो उस ओंकार में भी अपना हिसाब बना रहे हो।
कभी तुम ट्रेन में सफर करते हो, गाड़ी के चाक छक-छक, झक-झक करते हुए चलते हैं। तुम जो भी गीत सुनना चाहो, उसमें सुन सकते हो। यह हो सकता है कि राम का भक्त वहां बैठा हुआ हो, वह उस छक-छक में 'राम-राम-राम-राम' सुनने लगे। और उसके बगल में बैठा हुआ मुसलमान, 'अल्लाह हू-अल्लाह हू' सुनने लगे। तुम कोशिश करना। तुम दोनों सुनने की कोशिश करना; जैसे ही तुम कोशिश करोगे उसी ध्वनि में अल्लाह हू बैठ जाएगा, उसी ध्वनि में राम बैठ जाएगा। तुम वही सुन लोगे, जो तुम सुनना चाहते हो। मनोवैज्ञानिक इसे गेस्टाल्ट कहते हैं।
आकाश में तुम देखते हो, तुम्हें गणेशजी दिखाई पड़ सकते हैं, बदलियों में; अगर तुम गणेश के भक्त हो। तुम आकार चुन लोगे। दूसरा जो गणेश का भक्त नहीं है, उसे समझ में ही नहीं आएगा कि कैसे गणेशजी? कहां के गणेशजी? उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा। अगर कोई कामातुर व्यक्ति है तो उसे कुछ कामवासना के चित्र आकाश में दिखाई पड़ जाएंगे।
यह तो निराकार है। आकार तुम इसमें बनाते हो। आकार तुम्हारी वासना से बनता है। और जब तक तुम्हारी वासना ही शून्य न हो जाए, तब तक निराकार प्रगट न होगा। तब तुम्हें न राम दिखाई पड़ेंगे, न कृष्ण; तब तुम्हें वह दिखाई पड़ेगा, जो है। उसी को हमने ब्रह्म कहा है। इसलिए ब्रह्म की कोई आकृति नहीं है। राम की आकृति है, कृष्ण की आकृति है, ब्रह्म की कोई आकृति नहीं, वह निराकार है। उसकी कोई प्रतिमा नहीं बनती, कोई बनाई नहीं जा सकती। वह तो उसी दिन प्रगट होगा, जब सब प्रतिमाएं गिर जाएंगी। तुम सभी प्रतिमाओं को छोड़ दोगे, तब अप्रतिम, तब निराकार प्रगट होगा।
दो उपाय हैं इस जगत में जीने के; एक उपाय तो है वासनाओं को फैलाना, वह संसारी का उपाय है। और एक है वासनाओं की निर्जरा करनी है, वह संन्यासी का उपाय है। संन्यासी उसको देखने की कोशिश में लगा है, जो है। वह अपनी तरफ से कुछ जोड़ना नहीं चाहता। और संसारी वही देखने में लगा है, जो वह चाहता है। वह वही नहीं देखना चाहता, जो है।
तुम्हारे घर बच्चा पैदा हो, तो संसारी देखता है कि परम जीवन का जन्म हुआ। और संन्यासी देखेगा, तो उसे दिखाई पड़ेगा, यह मौत पैदा हुई। क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह मरेगा। तुम हंसोगे, नाचोगे; संन्यासी रोएगा कि एक मौत और घटी, एक लाश और निर्मित हुई। एक रूप बना, अब बिखरेगा
तुम्हें यश मिलेगा--अगर तुम संसारी हो, तो तुम सोच भी नहीं सकते कि यश कभी खोएगा। अगर तुम संन्यासी हो, तो तुम देखोगे कि यह यश लहर का चढ़ाव है; जल्दी ही उतार भी आ जाएगा। इस जगत में जो चीजें भी चढ़ती हैं, वे उतरती हैं। और जिसने सिंहासन खोजा, वह आज नहीं कल जमीन पर गिरेगा। जिसने यश चाहा, प्रतिष्ठा मांगी, उसे अपमान मिलेगा। जिसने स्तुति की खोज की, वह गालियों की तलाश कर रहा है।
तुम जो मांग रहे हो, उससे विपरीत जल्दी ही घटेगा। क्योंकि वासनाएं सभी द्वंद्वग्रस्त हैं; अपने विपरीत को अपने साथ ले आती हैं। तुमने चाहा कि इस मित्र से कभी बिछोह न हो, बस उसी दिन बिछोह के बीज बो दिए। और तुमने कहा, यह प्रेमी सदा मेरे पास रहे, उसी दिन तलाक की शुरुआत हो गई।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था, कि 'तुम जीवन के बड़े अनुभवी हो। तलाक रोज बढ़ते जाते हैं, क्या तुम उसका कोई कारण बता सकते हो?' नसरुद्दीन ने कहा, 'मैं सोचूंगा' महीने भर बाद उस आदमी ने फिर पूछा, और नसरुद्दीन ने कहा, 'मैंने बहुत सोचा और मूल कारण खोज लिया।' उस आदमी ने कहा, 'बताओ क्योंकि इस मूल कारण से दुनिया का लाभ हो।' नसरुद्दीन ने कहा, 'मूल कारण, विवाह। न होगा विवाह, न होगा तलाक।'
विवाह हुआ कि तलाक होगा। कुछ लोग तलाक के बाद भी साथ रहते हैं, यह बात दूसरी है। कुछ लोग ज्यादा ईमानदार हैं तलाक के बाद अलग हो जाते हैं; यह बात दूसरी है। लेकिन जहां हुआ विवाह, वहां तलाक होगा। जहां हुआ प्रेम, वहां घृणा होगी। वासना का स्वभाव विपरीत से संयुक्त है। जो तुमने पाया, उसे तुम खोओगे। पाने में ही खोना घट गया। थोड़ी देर लगेगी। थोड़ा समय लगेगा।
संन्यासी उसको देखता है, जो है।
संसारी उसको देखता है जो वह चाहता है, जो हो।
संसारी अपनी वासना से देखता है, इसलिए एक जगत निर्मित कर लेता है, जो काल्पनिक है। कौन है पत्नी? कौन है पति? कौन है पिता? कौन है मां? कौन है अपना और कौन है पराया? क्या है, जिसे तुम कह सकते हो, मेरा है? क्या है जिसे तुम जन्म के साथ लाए थे? क्या है, जिसे तुम मौत के बाद साथ ले जाओगे?
लेकिन मध्य में एक बड़ा साम्राज्य तुम निर्मित करते हो। कहते हो, मेरा है। उसके लिए दुखी होते हो, सुखी होते हो, पीड़ित-परेशान होते हो। बड़ा उपद्रव पैदा होता है। बिना यह पूछे कि जब मैं कुछ लाया नहीं  और जब मैं कुछ ले जा न सकूंगा तो इस थोड़ी-सी देर में, जहां सराय में विश्राम किया है, वहां अपने का फैलाव क्यों करूं?
जैसे किसी स्टेशन के विश्रामगृह में तुम बैठे हो, और शोरगुल मचाने लगो कि यह फर्निचर मेरा है; कि तू क्यों इस कुर्सी पर बैठा है? यह मेरी है। लेकिन तुम यह मचाते नहीं शोरगुल, क्योंकि तुम जानते हो घड़ी भर बाद तुम्हारी ट्रेन आ जाएगी; तुम पकड़ोगे ट्रेन और बिदा हो जाओगे। यह विश्रामालय है, यह तुम्हारा कोई घर नहीं।
लेकिन सात मिनिट रुके, कि सात घंटे, कि सत्तर वर्ष, इससे क्या फर्क पड़ता है? समय क्या असत्य को सत्य कर देगा? समय की लंबाई क्या विश्रामालय को घर बना देगी? सिर्फ समय की लंबाई से इतना हो सकता है, तुम्हारी बुद्धि दोनों छोर को मिला नहीं पाती कि तुम आए और गए। इसलिए मेरे और तेरे का बड़ा उपद्रव खड़ा होता है।
यह झेन गुरु कह रहा है कि तुम्हारे पास आंखें तो हैं, लेकिन तुमने देखा नहीं। क्योंकि देखना हो, तो आंखों को निर्धूम होना चाहिए। आंखों में फिर वासना नहीं होनी चाहिए। जब तक तुम्हारी आंख में वासना का बादल तैर रहा है, तब तक तुम जो भी देखोगे, वह गलत होगा--आंख निर्मल चाहिए, कोरी चाहिए, खाली चाहिए, ताकि आंख प्रतिबिंब बनाए; ताकि आंख दर्पण हो और जो है, वही दिखाई पड़े। कान निर्मल होने चाहिए ताकि वही सुनाई पड़े, जो है। काश! तुम वही देख सको, जो है--तुम मुक्त हो जाओगे।
जो मैं कह रहा हूं, अगर तुम वही सुन सको, तुम मुक्त हो सकते हो। अन्यथा जो मैं कह रहा हूं, तुम उससे भी बंध जाओगे। शास्त्र मुक्त नहीं करते, बांध लेते हैं। गुरु स्वतंत्रता नहीं बनता और एक नई परतंत्रता बन जाता है। तुम उसके पैर भी पकड़कर जंजीरें खड़ी कर लेते हो। तुमने कुछ गलत सुना; अन्यथा तुम बुद्धों को भी पिघलाकर जंजीरें कैसे बनाते?
सभी मंदिर कारागृह हो गए हैं। सभी चर्च गुलामियां हैं। सभी धर्म तुम्हारे ऊपर बोझ बन जाते हैं। और आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी को जन्म देनेवालों ने तुम्हारी मुक्ति का पैगाम दिया था। वे पैगंबर थे, तुम्हें स्वतंत्र करने के लिए आतुर थे। वे चाहते थे कि तुम मुक्त आकाश में उड़ जाओ, तुम्हारे पंख खुलें, और तुम्हारे पिंजरे टूट जाएं।
लेकिन तुम बड़े होशियार हो। तुमने उनसे भी पिंजरे निर्मित कर लिए। तुमने उनसे भी सींखचे ढाल लिए। तुमने उनसे भी कारागृह बना लिया। तुम्हारी कुशलता का अंत नहीं! तुम उनकी प्रतिमाएं अपने कारागृह में ले आए, बजाय कि तुम उनके साथ खुले आकाश में गए होते। तुम उन्हें भी अपने कारागृह के भीतर ले आए। तुमने अपने कारागृह की दीवारों को उनके चित्रों से सजा लिया है। अब यह कारागृह और भी छोड़ने जैसा मालूम नहीं पड़ता। यह बड़ा प्यारा है।
तुम कुछ ऐसे हो, तुम्हारी वासना का गणित कुछ ऐसा है कि तुम जंजीरों को आभूषण समझ लेते हो। तुम हीरे-मोती लगा लेते हो उन पर, फिर छोड़ना भी मुश्किल हो जाता है। तो तुम्हें जो भी मुक्त करने आता है, तुम उससे ही बंध जाते हो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई बंधनों के नाम हैं। मुक्ति का भी क्या कोई नाम हो सकता है? कारागृहों के नाम हो सकते हैं, मुक्त आकाश का क्या नाम होगा? कारागृहों की सीमाएं हो सकती हैं, मुक्त आकाश की क्या सीमा होगी? तुम धर्म को भी गुलामी में बदल लेते हो, क्योंकि तुम जो सुनते हो, वह वही नहीं है, जो कहा गया है।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि एक रात वे बोले। उनके शिष्य मौद्गलायन ने उनसे पूछा, कि 'क्या भगवान, हम वही सुन पाते हैं, जो तुम बोलते हो? क्योंकि मुझे कभी-कभी शक होता है। जब मैं दूसरों से बात करता हूं तो पता चलता है, उन्होंने कुछ और सुना, मैंने कुछ और सुना। और बड़ा विवाद होता है। तुम्हारे जीते जी विवाद होता है। लोग इसी में विवादग्रस्त हो जाते हैं कि बुद्ध का क्या अर्थ था! और अभी तुम मौजूद हो।'
बुद्ध ने कहा, 'यह स्वाभाविक है। बोलने वाला एक, सुनने वाले बहुत हैं। इसलिए बोली तो एक बात जाती है, लेकिन सुनी उतनी ही जाती हैं, जितने सुनने वाले हैं। क्योंकि तुम मन से सुनते हो, आत्मा से नहीं। और मन का स्वभाव है, व्याख्या करना। वह तत्क्षण व्याख्या करता है।'
बुद्ध ने कहा, 'कल रात ही की घटना तुमसे कहूं। जब मैंने रात के अंतिम प्रवचन के बाद कहा कि भिक्षुओ, मित्रो! अब उठो; अब रात्रि का अंतिम कार्य करो।'
सांकेतिक शब्द था बुद्ध का। बोलने के बाद वे कहते कि अब रात्रि की अंतिम प्रक्रिया में लीन हो जाओ। तो भिक्षु ध्यान करते और फिर सोने में चले जाते। ध्यान अंतिम प्रक्रिया थी।
बुद्ध ने कहा, 'कल एक चोर भी आया हुआ था, कल एक वेश्या भी आई हुई थी। और जब मैंने कहा कि मित्रो! अब रात्रि के अंतिम काम में संलग्न हो जाओ, तो तुम्हें खयाल आया ध्यान का। चोर ने सोचा कि काफी रात हो गई, चांद ऊपर चढ़ गया, अब मैं जाऊं, काम धंधे का वक्त हुआ। वेश्या ने सोचा, बहुत देर हो गई, पता नहीं, ग्राहक अब मिलेंगे भी या नहीं मिलेंगे? मैंने एक ही बात कही थी। वेश्या ने अपना अर्थ लिया, चोर ने अपना, भिक्षुओं ने अपना। फिर भिक्षुओं ने भी अलग-अलग अर्थ ही लिये होंगे।'
जब तक तुम्हारा मन है, तब तक तुम अलग ही अर्थ लोगे। मन अलग करने की प्रक्रिया है। कुछ भी कहा जाए, तुम उसकी व्याख्या करोगे। व्याख्या कौन करेगा? तुम करोगे।
व्याख्या का क्या अर्थ है? व्याख्या का अर्थ है, तुम्हारा अतीत, तुम्हारी स्मृति, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा अनुभव व्याख्या करेगा। तुम अपने अतीत के माध्यम से, जो मैं तुमसे कह रहा हूं, उसको समझोगे। तत्क्षण वह कुछ और हो गया क्योंकि तुमने वही नहीं समझा, जो मैंने कहा। तुमने वह समझा, जो तुम्हारे अतीत की क्षमता थी। तुमने जो मैंने कहा, उसे अपने मन के बर्तन में ढाल लिया। उसका आकार बदल गया, उसका रूप बदल गया, उसकी गंध बदल गई। और अब तुम यही सोचोगे कि यही मैंने तुमसे कहा था।
गीता की हजार व्याख्याएं हैं। कृष्ण का तो एक ही अर्थ हो सकता है। या फिर कृष्ण पागल रहे होंगे, तो हजार अर्थ हो सकते हैं। क्योंकि जिसकी वाणी का हजार अर्थ होगा, उसका अर्थ हुआ कि उसमें कोई अर्थ ही नहीं है। कृष्ण की वाणी का तो एक ही अर्थ रहा होगा। जब अर्जुन से कहा था, तो बात का एक ही अर्थ रहा होगा। लेकिन अर्जुन के सुनते-सुनते ही दो अर्थ हो गये होंगे--एक कृष्ण का, एक अर्जुन का। फिर व्याख्याएं हैं। फिर संजय ने पूरी की पूरी घटना अंधे धृतराष्ट्र को कही--तीसरा अर्थ हो गया होगा। फिर धृतराष्ट्र ने सुनी, चौथा अर्थ हो गया।
और धृतराष्ट्र के बाद तो कितने व्याख्याकार हो चुके हैं। उन सबने अपना अर्थ कर लिया। फिर तुम पढ़ते हो, तब तुम्हारा अपना अर्थ होता है। अगर कृष्ण आ जाएं, तो बहुत हैरान होंगे। यह उन्होंने कहा कब था? यह अर्थ तो उनका है ही नहीं। यह हो भी नहीं सकता। लेकिन इससे अन्यथा भी होने का उपाय नहीं है, क्योंकि कृष्ण का अर्थ तुम तभी ही समझ सकोगे, जब तुम कृष्ण की चेतना की स्थिति में हो। उसके पहले कोई उपाय भी नहीं। क्योंकि अर्थ तो तुम्हारे अनुभव की सीढ़ी से समझे जाते हैं।
तुम सीढ़ी के नीचे खड़े हो और मैं सीढ़ी के ऊपर से बोल रहा हूं, तो यह जो सीढ़ी का फासला है, यह कौन तय करेगा? या तो तुम चढ़ो और मेरे पास आओ; तो जो मैं कह रहा हूं, वह तुम सुन सको। या मैं उतरूं और तुम्हारे पास आऊं, ताकि तुम जो समझ सकते हो, वह समझ सको। चढ़ना कठिन है। और मुझे उतरने को राजी नहीं किया जा सकता। लेकिन तुम अर्थ को नीचे उतार ले सकते हो, वह सुगम है। मैं ऊपर से बोलता रहूंगा, तुम नीचे से समझते रहोगे। तुम वहीं खड़े-खड़े व्याख्या करते रहोगे। वह व्याख्या मैंने जो कहा, उसे वहां ले आयेगी, जहां तुम खड़े हो। वह व्याख्या गलत होगी। सभी व्याख्याएं गलत हैं।
जब यह मैं कहता हूं, तो तुम हैरान होओगे क्योंकि तुम सोचते हो, कि कोई एकाध व्याख्या सही होगी। नहीं, कोई व्याख्या सही नहीं हो सकती। व्याख्या की जरूरत ही बताती है कि तुमने बदल दिया। जो है, वह है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं। तुम बोले कि गया!
रात तुम मेरे पास बैठे हो, चांद पूर्णिमा का आकाश में निकला है। मैंने कहा कि 'देखो, चांद सुंदर है' कि गड़बड़ हो गई बात। व्याख्या हो गई। मैं बीच मैं आ गया--इतनी व्याख्या भी! अब तुम चांद को न देख पाओगे क्योंकि मेरे शब्द बीच में खड़े हो गए। मैंने कहा, 'सुंदर है'। इन शब्दों को सुनते ही तुम्हारे भीतर शब्दों का जाल उठेगा। या तो तुम कहोगे, कैसा सुंदर? या तुम कहोगे, हां, सुंदर है। या तो तुम राजी होओगे, या विरोध करोगे। या तुम कहोगे, इतना कुछ सौंदर्य नहीं कि कहने लायक है। लेकिन अब तुम कुछ प्रतिक्रिया करोगे। वह प्रतिक्रिया मेरे वक्तव्य पर होगी। चांद दूर हो गया। अब तुम चांद को न देख पाओगे।
सभी व्याख्याएं गलत हैं। ज्ञानियों ने व्याख्या नहीं की है, इशारे किये हैं।
झेन फकीर कहते हैं, 'हम अंगुलि उठाकर बताते हैं। हम कहते नहीं कि चांद है। हम कहते नहीं कि सुंदर है, हम सिर्फ इशारा करते हैं।'
लेकिन तुम कुछ झेन फकीरों से कम होशियार हो? तुम चांद को देखते नहीं, तुम अंगुलि को पकड़ लेते हो। तुम कहते हो, कितनी प्यारी अंगुलि! कितनी सुंदर अंगुलि! शास्त्रों की पकड़ अंगुलि को पकड़ने से पैदा होती है। शब्द पकड़ लिए जाते हैं। फिर तुम उनकी व्याख्या करते हो, फिर तुम अपना जाल निर्मित कर लेते हो।
नहीं, तुम सुन नहीं सकते, क्योंकि सुनने के लिए शून्य कान चाहिए। और तुमने शून्य कान जैसी कोई चीज देखी ही नहीं। तुम भरे कान जानते हो, जो पहले ही शोरगुल से भरे हैं।
एक बाजार से दो फकीर निकल रहे हैं। सांझ अजान का समय हो गया, और दूर मस्जिद से अजान की आवाज आई। बाजार में बड़ा शोरगुल है। बाजार है! चीजें ली जा रही हैं, बेची जा रही हैं, नीलाम हो रहा है। शेयर मार्केट हो, कौन जाने! बड़ा शोरगुल मचा हुआ है। वहां अजान सुनाई भी नहीं पड़ सकती। लेकिन एक फकीर ने सुन ली। उसने कहा कि 'भागें हम, वक्त हो गया नमाज का।'
दूसरे फकीर ने कहा, 'हद्द कर दी तुमने! कैसे सुन ली इस शोरगुल में? यहां किसी ने नहीं सुनी। यह भीड़ पूरे अपने काम में लगी है। लोग बेच रहे हैं, खरीद रहे हैं, दाम तय कर रहे हैं। यहां कौन सुनेगा अजान बाजार में, और मस्जिद बहुत दूर है।'
उस फकीर ने कहा, 'जो भी तुम सुनना चाहो, वह तुम सुन लेते हो। रात मां सोती है, तूफान आ जाए, आंधी हो, बादल गरजे, बिजली कड़के, पानी गिरे, सुनाई नहीं पड़ता। बच्चा थोड़ी-सी आवाज कर दे, रोये, करवट बदले, सुनाई पड़ जाता है।
उस फकीर ने कहा, 'यह तो ठीक है, लेकिन कोई प्रत्यक्ष प्रमाण?' तो उस पहले फकीर ने रुपये का एक सिक्का खीसे से निकाला और जोर-से सड़क पर गिरा दिया। खन्न की आवाज...चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े। बाजार का शोरगुल, वह रुपये की आवाज सुनाई पड़ गई। फकीर ने कहा, 'देखते हो? ये सब यहां रुपये की तलाश में आए हैं। यह बाजार का शोर-गुल ही काफी नहीं है। रुपये की आवाज फौरन सुनाई पड़ गई।'
जो हम सुनना चाहते हैं, सुन लेते हैं। जिसकी चाह है, वह पकड़ में आ जाता है। चुनाव चलता है पूरे समय। तुम मुझे सुनोगे, तुम वही चुन लोगे जिसकी खोज में तुम आए थे। तुम वह न सुन पाओगे, जो मैंने कहा। तुम्हें मस्जिद की अजान शायद सुनाई न पड़े, रुपये की खन्न की आवाज सुनाई पड़ जाएगी।
चाह तुम्हारा द्वार है और चाह से तुम भरे हो। और एक चाह नहीं है, अनंत चाहें भीतर भरी हैं। इन भरी हुई चाहों के बीच भीतर से कैसे तुम देखोगे? कैसे तुम सूंघोगे? कठिन है। असंभव!
क्या उपाय है?
अगर तुम ठीक से समझ पाओ, तो ध्यान इंद्रियों को रिक्त और खाली करने का माध्यम है, प्रयोग है। आंखें खाली हो जाएं, तुम कुछ देखना न चाहो, सिर्फ देखो; जस्ट लुक। तुम कोई तलाश नहीं कर रहे हो, तुम सिर्फ देख रहे हो। जैसे पहले दिन बच्चा पैदा होता है और देखता है, उसमें उसकी कोई चाह नहीं होती; तलाश नहीं होती; क्योंकि वह कुछ जानता ही नहीं है। जो भी दिखाई पड़ता है, देखता है। बच्चे का जो दर्शन है, वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, संत की आंख फिर वैसी ही हो जाती है; हो जानी चाहिए। नहीं तो वह संत की आंख नहीं।
बच्चा भी देखता होगा। अगर कमरे में एक लाल रोशनी का बल्ब टंगा है तो बच्चा उसे देखता होगा, लेकिन उसके मन में व्याख्या पैदा नहीं होती। वह यह भी नहीं सोच सकता कि यह लाल है, क्योंकि अभी लाल को भी पता चलने में देर है। वह यह भी नहीं सोच सकता कि यह प्रकाश है, क्योंकि उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं; प्रकाश का भी उसे कोई पता नहीं। वह अभी यह भी नहीं कह सकता कि सुंदर है, असुंदर है, क्योंकि अभी कोई धारणाएं निर्मित नहीं हुईं। अभी मन धारणा-शून्य है। अभी वह सिर्फ देखता है--शुद्ध प्रत्यक्षीकरण, प्योर परसेप्शन! अभी कुछ बोलता नहीं। अभी भीतर कुछ उठता नहीं, बस देखता है। आंखें सिर्फ देखती हैं। अभी सिर्फ आंखें पीती हैं, अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़तीं
कान पर आवाज होगी, तो सुनाई पड़ेगी। रविशंकर सितार बजाता हो तो भी बच्चा सुनेगा और बाहर कुत्ते भौंकते हों तो भी सुनेगा। लेकिन न तो कुत्तों का भौंकना कुरूप मालूम पड़ेगा, और न रविशंकर का सितार सुंदर मालूम पड़ेगा। अभी कान शुद्ध हैं, अभी व्याख्या नहीं है। अभी विभाजन नहीं हुआ। अभी दो नहीं हुए, अभी अद्वैत है। अभी कुत्ते की आवाज भी बच्चा उतनी ही गौर से सुनेगा और यह नहीं कहेगा कि 'बंद करो यह बकवास! यह कुत्ते क्यों भौंक रहे हैं? इससे मेरी शांति में खलल पड़ता है।' अभी बच्चे को शांति-अशांति का कोई भी पता नहीं है। अभी तो कुत्ता भौंकता है तो बच्चे के कान खड़े हो जाते हैं। सितार बजती है तो बच्चे के कान खड़े हो जाते हैं। अभी बच्चे का चुनाव नहीं; बच्चा च्वाईस-लेस है। अभी विकल्प-रहित है।
और जो विकल्प-रहित है, वह निर्विकल्प है।
अभी विकल्प खड़े होने में देर है। थोड़े दिन में बच्चा सीखेगा क्या ठीक, क्या गलत। हम उसे सिखाएंगे। हम उसकी आंखों का थोड़ा-सा हिस्सा खुला रहने देंगे, बाकी आंखें बंद कर देंगे। हम उसे अंधा बनाएंगे। हम उसके कानों में थोड़े-से छिद्र जाने के लिए छोड़ेंगे, बाकी बंद कर देंगे। सब कुछ भीतर नहीं जाना चाहिए। हम सब इंद्रियों पर नियंत्रण लगा देंगे। अब धीरे-धीरे वह वही देखेगा, जो हम चाहेंगे, देखे। वही सुनेगा, जो हम चाहेंगे सुने। समाज उसकी गर्दन को दबाएगा और सब भांति नियंत्रण देगा। उसके प्रत्यक्षीकरण अशुद्ध हो जाएंगे। फिर उसकी वासनाएं जग रही हैं, शरीर स्वस्थ हो रहा है। कामवासना उठेगी, इंद्रियां काम करना शुरू करेंगी। भीतर की मांग बढ़ेगी, सब कुरूप हो जाएगा। संसार निर्मित होगा।
जीसस से कोई पूछता है कि कौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे? तो जीसस ने एक छोटे बच्चे को कंधे पर उठा लिया, और कहा कि जो इसकी भांति हैं।
क्या मतलब है? क्या छोटे बच्चे मर जाएं, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर जायेंगे? नहीं, क्योंकि छोटे बच्चे अभी विकृत नहीं हुए। लेकिन विकृत होने की क्षमता उनमें दबी पड़ी है। उन्होंने अभी चोरी नहीं की, लेकिन चोरी कर सकते हैं; करेंगे। अभी द्वैत निर्मित नहीं हुआ, लेकिन बीज पड़ा है, अंकुरित होगा।
तो छोटे बच्चों जैसा, जीसस ने कहा है--छोटे बच्चे नहीं। 'छोटे बच्चों जैसा', इसका अर्थ हुआ कि जो पुनः छोटे बच्चों जैसा हो गया। जो गुजरा संसार से, जिसने देखी वासनाएं, जिसने देखे बाजार, जिसने चुनाव किया, दुख भोगा, पीड़ा पाई, संताप झेला, चिंता की, जिसने सब गंवाया, सब खोया। जिसने अपनी आत्मा को बिलकुल विस्मरण कर दिया बाजार की चीजों में। जिसने चीजें खरीदीं और अपने को बेचा, जिसने अपने बदले में चीजें खरीदीं। इन सबसे गुजरकर जो वापस लौट आया; फिर छोटे बच्चे की भांति हो गया। फिर आंखें निर्मल हो गईं। अब आंखें यह नहीं कहतीं, क्या सुंदर और क्या कुरूप! आंखे सिर्फ देखती हैं, व्याख्या नहीं करतीं। अब कान सुनते हैं। अब यह नहीं कहते कि यह सुनने योग्य और यह न सुनने योग्य।
कभी थोड़ा प्रयोग करो। कभी कुत्ते भौंक रहे हों तो जल्दी निर्णय मत करो कि क्यों शोरगुल मच रहा है? क्यों बाधा डाली जा रही है? सिर्फ सुनो, व्याख्या मत करो। तुम हैरान हो जाओगे, कुत्तों के भौंकने में भी एक संगीत है। होगा ही, क्योंकि उनसे भी परमात्मा ही भौंकता है। वह भी परमात्मा का एक ढंग है। उस भांति भी उसने होना चाहा है। उसकी भी कोई जरूरत है। तो वीणा के तारों में ही संगीत नहीं है, बादल के गर्जन में भी है, कुत्ते के भौंकने में भी है।
लेकिन तुम जब शांत होकर सुनोगे, तो तुम सभी जगह पाओगे ओंकार गूंज रहा है। जल्दी ही कुत्ते खो जाएंगे और ब्रह्म प्रगट होगा। लेकिन तुम जोड़ो भर मत।
तुम पैसिव हो जाओ, निष्क्रिय हो जाओ--यह सूत्र है, इस पूरी कथा का।
तुम्हारी इंद्रियां सक्रिय हैं, तो तुम संसार निर्मित करोगे। तुम्हारी इंद्रियां क्रिएटिव हैं। तुम कुछ निर्माण कर रहे हो। ध्यानी की इंद्रियां निष्क्रिय हो जाती हैं; सिर्फ द्वार होती हैं--पैसेज। उनसे कुछ निर्मित नहीं होता, सिर्फ खबर दी जाती है। खबर लाने वाला कुछ जोड़ता नहीं।
तुम्हारी इंद्रियां तब डाकिये की तरह हो जाती हैं। वह चिट्ठी में कुछ जोड़ता नहीं बीच में, खोलकर चिट्ठी में कुछ लिखता नहीं; कुछ काटता-पीटता नहीं। चिट्ठी को वैसा का वैसा ले आता है, जैसी दी गई। उसका काम संदेश को पहुंचा देना है; उसका काम संदेश को बनाना नहीं। तुम्हारी इंद्रियां तब डाकिये की तरह होंगी। जो भी दिया गया हो, वह उसे भीतर पहुंचा देंगी।
और जिस दिन इंद्रियां सिर्फ पहुंचाती हैं--पैसिविटी, सिर्फ निष्क्रिय हो जाती हैं; उसी दिन तुम ध्यानी हो गए। उसी दिन तुम अचानक पाते हो, सारा जगत ब्रह्म से भरा है।
इंद्रियों ने नहीं भटकाया है तुम्हें। तुम्हारी वासना इंद्रियों के द्वारा जा रही है, उससे तुम भटक रहे हो। इंद्रियों की शत्रुता मत करना। इंद्रियां तो बड़ी प्यारी हैं। आंख का क्या कसूर है? आंख को मत फोड़ लेना। आंख की वजह से कुछ भी भूल नहीं हो रही है। आंख को बंद करके मत बैठ जाना। सुंदर स्त्री गुजरे, तो आंख बंद मत कर लेना। आंख का कोई कसूर नहीं है। और तुमने अगर आंख बंद की, तो तुम और मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि सुंदर स्त्री से छुटकारा अगर इतना आसान होता तो सभी अंधे उससे कभी का छुटकारा पा गए होते। फिर तो अंधे मुक्त हो गए होते। फिर तो अंधों को बुद्धत्व पाने में कोई कठिनाई न होती। लेकिन आंख बंद हो, तो भी वासना उठती है। और आंख बंद हो, तो भी सुंदर स्त्री पैदा होती है। क्योंकि सुंदर स्त्री के बाहर होने की कोई जरूरत नहीं; तुम उसे भीतर ही पैदा कर लेते हो। तुम सपना देखने लगते हो।
और ध्यान रहे, भीतर की सुंदर स्त्री ज्यादा सुंदर होती है, जितनी बाहर की। क्योंकि बाहर की स्त्री थोड़ी तो बाधा डालती है तुम्हारे सौंदर्य के निर्माण करने में। भीतर कोई बाधा डालने वाला नहीं है। भीतर आब्जेक्टिव कुछ भी नहीं है, सिर्फ सपना है। तुम जैसा चाहो वैसा निर्मित कर लो।
आंख फोड़कर कोई मुक्त नहीं होता।
इंद्रियों को काटकर कोई इंद्रियों का विजेता नहीं होता, जितेंद्रिय नहीं होता। लेकिन इंद्रियां अगर शुद्ध हो जाएं, तो जितेंद्रियता फलित होगी।
यह झेन सदगुरु ठीक कह रहा है कि अभी तुमने एक संसार निर्मित किया है अपनी वासना से। इस वासना को हटा लो। यह संसार पूरा तिरोहित हो जाएगा; जैसे किसी ने पर्दा हटा दिया। यह संसार खो जाएगा, और एक दूसरे ही संसार का उदय होगा।
तब तुम कुछ और ही देख पाओगे, और जो तुम देखोगे वही सत्य है। जब भीतर चाह न रही तो जो भी देखा जाता है, वही दर्शन है। जब भीतर चाह न रही तो जो सुना जाता है, वही श्रवण है। जब भीतर चाह न रही तो जो सूंघा जाता है वही गंध है। तब वह शुद्ध है। तब उसका रूप सत्य का है।

भगवान : ...कुछ और?
भगवान! एक डर यह और खड़ा होता है कि यदि हम मन के हस्तक्षेप को हटा दें, तो एक ही दृश्य पर, एक ही शब्द पर, एक ही सुगंध पर सारा जीवन खत्म हो जाए!

हो जाने दें। कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि जिसे तुम जीवन कहते हो वह तो खत्म होगा ही। उसे बचाने का कोई उपाय नहीं। उसे जो बचाता है, वह व्यर्थ ही मुश्किल में पड़ता है। वह बच नहीं सकता। वह तो जा रहा है।
और अगर चित्त का हस्तक्षेप अलग हो जाए और तुम्हारा जीवन एक में ही लीन हो जाए, यही तो खोज है। अगर गंध में ही तुम डूब जाओ तो गंध तुम्हारा परमात्मा है। तब तुमने गंध से ही उसे जान लिया। तब गंध की इंद्रिय में ही तुम्हारी सारी इंद्रियां लीन हो जाएंगी। तुम गंध का ही द्वार हो जाओगे। तब रोएं-रोएं से तुम सूंघोगे। तब सब तरफ से परमात्मा तुम्हारे लिए गंध बन जाएगा।
इसी कारण अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग इंद्रियां महत्वपूर्ण हो गईं।
इस्लाम गंध को बड़ा मूल्य देता है। निश्चित ही मोहम्मद ने परमात्मा को गंध की तरह जाना। मन का हस्तक्षेप अलग हुआ और मोहम्मद नाक हो गए; आंख, कान नहीं। जैसे मोहम्मद का पूरा शरीर, पूरी देह, पूरी काया नाक हो गई। और उन्होंने जिस परमात्मा को पहचाना, वह गंध-रूप था।
इसलिए इस्लाम में इत्र की बड़ी कीमत हो गई, और संगीत का बड़ा विरोध हो गया। मस्जिद के सामने संगीत नहीं बजा सकते। मस्जिद के भीतर संगीत नहीं चल सकता। संगीत का विरोध हो गया, क्योंकि नाक और कान बड़े गहरे में जुड़े हैं। और अगर तुम संगीत सुनते रहो तो धीरे-धीरे तुम्हारी गंध क्षीण हो जाती है। संगीत पर जिसकी बहुत गहरी पकड़ होती है, उसकी नाक धीरे-धीरे गंध लेना बंद कर देती है।
संगीतज्ञ अकसर, कोई शब्द नहीं है हमारे पास, गंध-अंध हो जाते हैं। क्योंकि आंख वाले को हम कहते हैं, नहीं हैं आंख तो अंधा; कान वाले का कान नहीं है, तो कहते हैं बहरा। और जिसके पास गंध नहीं, उसके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है, क्योंकि किसी ने इसकी फिक्र ही नहीं की कि उसके भी अंधे होते हैं। जो आदमी कान का बहुत उपयोग करेगा, उसकी नाक की पूरी ऊर्जा कान से बहने लगती है।
इंद्रियां आपस में जुड़ी हैं। इसलिए अंधे अकसर संगीतज्ञ हो जाते हैं। क्योंकि आंख बंद हो जाती है तो आंख की ऊर्जा कान को मिलने लगती है। इसलिए अंधे जैसा श्रोता खोजना मुश्किल है। क्योंकि अंधा बहुत गहराई से सुनता है। क्योंकि उसके पास कान ही आंख है। आप आते हो, चलते हो, तो अंधा आपके पैर की आवाज भी पहचानता है, क्योंकि वही उसकी पहचान है। आप बोलते हो तो आपकी ध्वनि पहचानता है। वही उसकी पहचान है। अंधे की जो स्मृति है, वह कान से निर्मित होती है, आंख से निर्मित नहीं होती। हमारी स्मृति नब्बे प्रतिशत आंख से निर्मित होती है। अंधे की नब्बे प्रतिशत कान से निर्मित होती है।
तो कान कहीं नाक के स्रोत को पी न जाए, इसलिए इस्लाम ने संगीत को बंद ही कर दिया। यह खतरनाक है--अर्थपूर्ण, फिर भी खतरनाक। क्योंकि अनेक लोगों ने संगीत से परमात्मा को जाना है। और जितने लोगों ने संगीत से जाना है, उतने लोगों ने गंध से कभी नहीं जाना, क्योंकि गंध की क्षमता आदमी की बहुत कमजोर है। पशुओं से बहुत कमजोर है। कुत्ता ज्यादा सूंघता है तुमसे। घोड़ा ज्यादा सूंघता है। शेर, सिंह मीलों तक सूंघता है। तुम क्या सूंघोगे!
आदमी की सूंघने की क्षमता बहुत कम है; श्रवण की क्षमता ज्यादा गहरी है। इसलिए मोहम्मद के अनुभव पर जो आधार निर्मित हुआ, वह था तो ठीक; लेकिन वह अगर सांप्रदायिक मतांधता हो जाए तो खतरनाक। इसलिए सूफियों का एक वर्ग इस्लाम में पैदा हुआ, जिसने संगीत को वापिस लौटा लिया। इसलिए सूफियों को इस्लाम बड़ी बुरी नजर से देखता है। आम मुसलमान बड़ी बुरी नजर से देखता है। और तुम चकित होओगे, सूफियों ने जैसा संगीत विकसित किया है, कम ही लोगों ने विकसित किया है। संगीत से भी परमात्मा तक लोग पहुंचे हैं। मंत्र, ओम् की ध्वनि, राम का पाठ भीतर संगीत पैदा करने की कलाएं हैं।
आंख से तो बहुत लोग सत्य तक पहुंचे हैं। इसलिए हिंदुस्तान में तो हम सत्य की खोज को दर्शन कहते हैं। हमारे पास फिलासफी जैसा कोई शब्द नहीं है। हमारे पास शब्द है दर्शन। दर्शन का अर्थ तो विजन है; उसका अर्थ फिलासफी नहीं। आंख से देख-देखकर इतने लोग पहुंचे हैं; लेकिन पहले व्यक्ति के जीवन में जो घटना घटती है, वह दूसरों के लिए अंधापन हो जाती है।
मोहम्मद की गंध बड़ी तेज रही होगी। और उन्होंने परमात्मा को गंध की तरह जाना। और आप भी परमात्मा को गंध की तरह जान सकते हैं। कोई भी एक इंद्रिय उसका द्वार बन सकती है। और अकसर ऐसा होगा, कि जब भी उसका द्वार खुलेगा, एक ही इंद्रिय सारी इंद्रियों को पी जाएगी। वह घटना इतनी बड़ी है कि उसमें किनारे टूट जाएंगे। पांच नदियां अलग-अलग नहीं बहेंगी, एक ही हो जाएंगी। और एक नदी सबको आत्मसात कर लेगी, संगम हो जाएगा।
पर उससे भय क्या है?
मन सदा भयभीत है। और मन हर चीज से भयभीत है। तुम कुछ भी करो; मन पहला काम करता है, भय को खड़ा करता है। मन का भय क्यों है इतना गहरा? क्योंकि जहां भी कोई जीवंत अनुभव घटा, वहां मन की मौत हुई। मन मौत से डरता है। अगर तुम्हारी गंध परमात्मा बन जाए, मन गया! फिर तुम वापिस मन में न लौट सकोगे। तो मन भयभीत होता है। वह कहता है, लौट आओ इस तरफ। मत जाओ, यहां खतरा है। यहां मेरे मर जाने का डर है।
रामकृष्ण घंटों तक बेहोश हो जाते थे। किसी ने इसकी ठीक से खोज नहीं की कि बात क्या थी? बुद्ध कभी बेहोश नहीं हुए रामकृष्ण जैसे। रामकृष्ण बेहोश हो जाते। रामकृष्ण के परमात्मा का अनुभव आंख का तो नहीं है। क्योंकि आंख खुली रहे, होश चाहिए। रामकृष्ण का अनुभव मोहम्मद का भी नहीं है। गंध का भी नहीं है। रामकृष्ण का अनुभव सूफियों के संगीत का भी नहीं है, मीरा के संगीत का भी नहीं है। कृष्ण की बांसुरी का भी नहीं।
यह मैं तुमसे पहली बार कहता हूं कि रामकृष्ण बेहोश हो जाते थे क्योंकि उनका अनुभव परमात्मा का, स्वाद का है। यह बात कभी कही नहीं गई है। इसलिए इसके लिए प्रमाण तुम कहीं भी नहीं खोज सकोगे। परमात्मा को चखा रामकृष्ण ने। वह स्वाद का अनुभव है। और स्वाद एकदम बेहोशी में ले जाएगा, क्योंकि स्वाद इतनी भीतरी इंद्रिय है! सभी इंद्रियां बाहर हैं स्वाद के मुकाबले--कान बाहर, नाक भी, आंख भी; स्वाद बहुत गहरे में है।
और इसका कारण है। क्योंकि रामकृष्ण भोजन के बड़े प्रेमी थे, इसीलिए। चर्चा चलती ब्रह्मज्ञान की, बीच-बीच में उठकर चौके में शारदा को पूछ आते थे, 'क्या बन रहा है?' शारदा तक को संकोच लगता था, कि 'लोग क्या कहेंगे? तुम ब्रह्मचर्चा छोड़कर बीच में चौके में आते हो?' थाली लेकर शारदा आती तो रामकृष्ण बैठे नहीं रह जाते थे, एकदम खड़े हो जाते थे, थाली में झांकते, क्या है?
स्वाद से ब्रह्म को जाना था। भोजन उनके लिए ब्रह्म था। उपनिषदों ने जहां कहा है, अन्न ब्रह्म है। वह किसी ने स्वाद से जानकर कहा होगा, नहीं तो अन्न को कोई ब्रह्म कहेगा? सुनकर हमको भी थोड़ा बेहूदा लगता है। अन्न ब्रह्म! भोजन ब्रह्म! लेकिन किसी ने स्वाद से जाना होगा।
और बड़े मजे की बात है कि रामकृष्ण इतने दीवाने थे भोजन के, और उनको जब बीमारी हुई तो कंठ का कैंसर हुआ। फिर यह आखिरी परीक्षा थी स्वाद की। होनी ही चाहिए। रामकृष्ण को ही हो सकती है। रामकृष्ण का कंठ अवरुद्ध हो गया। फिर आखिरी दिनों में वे भोजन नहीं कर पाते थे। कैंसर हो गया था।
विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि 'परमहंस देव! आप एक शब्द तो कह दें परमात्मा को, जिससे आप इतने निकट से जुड़े हैं; कि हटाओ इस कंठ-अवरोध को। और कितना प्यारा था भोजन आपको! स्वाद में आप कितना रस लेते थे! और हम पीड़ित होते हैं कि आप भोजन कर नहीं पाते। पानी तक भीतर ले जाना मुश्किल है।'
तो रामकृष्ण कहते, 'एक दिन मैंने उससे कहा तो उसने कहा, इस कंठ से बहुत भोजन कर लिया, अब दूसरे कंठों से कर। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन का रस ले रहा हूं। उसकी बड़ी कृपा है, उसने यह कंठ अवरुद्ध कर दिया। अब सभी कंठ मेरे हैं। अब जहां भी कोई स्वाद ले रहा है, मैं ही स्वाद ले रहा हूं। अब मैं तुमसे भोजन करूंगा।'
निश्चित ही रामकृष्ण ने परमात्मा को स्वाद की भांति जाना, और फिर सारी इंद्रियां में उसी में डूब गईं। कभी छह घंटे, कभी आठ घंटे, कभी छह दिन रामकृष्ण बेहोश पड़े रह जाते। वे स्वाद में लीन! बुद्ध ने परमात्मा को आंख से जाना होगा। आंख के लिए होश चाहिए, स्वाद के लिए लीनता चाहिए।
लेकिन रामकृष्ण ने कभी यह किसी को कहा नहीं। बड़े खतरे हैं कहने में। तुमसे अगर कोई कह दे कि स्वाद ब्रह्म है, उसे तुम पहले से ही स्वीकार कर रहे हो। स्वाद के लिए तो जी ही रहे हो। अगर यह बात पता चल जाए कि स्वाद ब्रह्म है, तुम भटक जा सकते हो। क्योंकि मनुष्य की गहरी से गहरी पकड़ भोजन पर है। कामवासना से भी ज्यादा गहरी पकड़ भोजन पर है। इसलिए ब्रह्मचारी होना आसान है, उपवासी होना कठिन है। अगर तुम तीन सप्ताह उपवास करो, तो कामवासना तो अपने आप खो जाती है, लेकिन भूख नहीं खोती। ब्रह्मचर्य से कोई मरता नहीं, लेकिन तीन महीने स्वस्थ से स्वस्थ आदमी भोजन न करे तो मर जाएगा। भोजन ज्यादा गहरे में जरूरी है।
कामवासना तो शायद भोजन का अतिरेक है। भोजन जब खूब मिलता है और तुम ह्नष्ट-पुष्ट हो, और ऊर्जा बहती है, तब कामवासना उठती है। तो कामवासना एक खेल है, क्रीड़ा है। लेकिन भोजन जीवन की जरूरत है, आवश्यकता है। वह अनिवार्य है; वह नीचे की बुनियाद है।
भोजन नहीं, तो तुम मिट जाओगे। कैसी कामवासना? कामवासना नहीं, तो तुम नहीं मिटोगे। तुमसे बच्चे पैदा न होंगे, समाज मिट जाएगा। इसलिए जो परम-स्वार्थी हैं, वे भोजन तो जारी रखेंगे; ब्रह्मचर्य साध सकते हैं। क्योंकि ब्रह्मचर्य से उनका कुछ नहीं मिटता। दूसरे नहीं पैदा होंगे, दूसरे मिटेंगे। तुम्हारे पिता ने ब्रह्मचर्य साधा होता, तो तुम्हें कोई नुकसान था। तुम नहीं हो पाते। तुम ब्रह्मचर्य साधोगे तो कोई नहीं हो पाएगा, जिसका तुम्हें पता ही नहीं है। इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन अगर तुम उपवास साधोगे तो तुम मिटोगे। इसलिए उपवास ब्रह्मचर्य से ज्यादा गहरी साधना है। और जो उपवास साधे, उसे ब्रह्मचर्य तो आसानी से सध जाता है।
भूख की पकड़ गहरी है क्योंकि वही तुम्हारे शरीर का जीवन है। इसलिए रामकृष्ण चुप रहे। स्वाद की बात उन्होंने किसी को कही नहीं। नहीं तो चारों तरफ अनुयायियों का, भोजन-भट्टों का एक संप्रदाय पैदा हो जाता। जैसा मुसलमान इत्र लगा रहा है, ऐसा रामकृष्ण के भक्त दिल खोलकर भोजन करते।
सत्य के बोलने में भी बहुत बार खतरे हैं। असत्य के बोलने में ही खतरे हैं ऐसा नहीं, सत्य के बोलने में और भी खतरे हैं, क्योंकि सत्य में कुंजियां छुपी हैं शक्ति की।
तो कुछ लोगों ने स्वाद से भी जाना है।
कुछ लोगों ने संभोग से भी जाना है। इसलिए तंत्र का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ। कोई भी इंद्रिय परिपूर्ण हो सकती है। सारी इंद्रियां उसमें बह जाएंगी। अगर तुम्हारे संभोग के क्षण में तुम्हारी सारी इंद्रियां लीन हो जाएं तो तुम वहीं से परमात्मा को जान लोगे।
बड़ी अनूठी कहानी है। शास्त्रों में, पुराणों में उल्लेख है लेकिन साधारणतया हिंदू उसका उल्लेख करते ही नहीं। क्योंकि बड़ी विचित्र भी मालूम पड़ती है, अशोभन भी मालूम पड़ती है, अश्लील भी लगती है। कहानी है पुराणों में कि कुछ उलझन आ गई और ब्रह्मा और विष्णु सलाह लेने शिव के पास गए। उलझन कुछ इमरजेंसी की थी, कोई बहुत तात्कालिक संकट था। इसलिए पूर्व निश्चय नहीं किया जा सका मिलने का, और अचानक पहुंच गए। द्वारपाल ने रोकने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कहा कि रोको मत। पर द्वारपाल ने कहा कि शिव तो अभी पार्वती से संभोग कर रहे हैं। आप थोड़ी देर रुक जाएं। ऐसे क्षण में बाधा डालनी उचित नहीं है। वे मैथुन में लीन हैं।
तो थोड़ी देर ब्रह्मा और विष्णु रुके। आधा घंटा, घंटा, दो घंटा...फिर उन्होंने कहा, 'हद्द हो गई! यह किस भांति की क्रीड़ा चल रही है? अब नहीं रुका जाता।' और उत्सुकता भी बढ़ी कि यह हो क्या रहा है? तो द्वारपाल से बचकर वे भीतर पहुंच गए। शिव और पार्वती को पता भी न चला कि वे खड़े हैं। जब संभोग समाधि हो, तो क्या पता चलेगा कौन खड़ा है! उनका संभोग चलता रहा।
कहानी यह है कि एक दिन रुके, लेकिन संभोग का अंत न हुआ; तो नाराज होकर लौट गए। और अभिशाप दे गये कि यह जरा सीमा के बाहर बात हो गई। और तुम संसार में काम-प्रतीकों की भांति ही जाने जाओगे--इसीलिए शिवलिंग! इस कथा पर शिवलिंग आधारित है। शिवलिंग अकेला नहीं है, नीचे पार्वती की योनि है। शिवलिंग मैथुन प्रतीक है। उसमें योनि और लिंग दोनों हैं।
इस कथा को हिंदू दोहराते नहीं हैं। भय भी लगता है कि ऐसी कथा क्या दोहरानी! और खतरा भी है क्योंकि संभोग की बड़ी पकड़ है आदमी के मन पर। भय भी है। लेकिन शिव का पूरा का पूरा सार संभोग के माध्यम से सत्य को जानने का है। तंत्र उसका नाम है।
संभोग से जाना जा सकता है, स्वाद से जाना जा सकता है, गंध से जाना जा सकता है, श्रवण से जाना जा सकता है, दर्शन से जाना जा सकता है। कोई भी इंद्रिय उसका द्वार हो सकती है। और हर हालत में मन डरता है। मन चाहता है, पांचों बने रहें। पांचों के बीच मन जीता है। क्योंकि अधूरा-अधूरा बंटा रहता है। जहां-जहां बटाव है, वहां मन को बचाव है। जहां इकट्ठापन आया कोई भी, कि मन घबड़ाया। क्योंकि जहां सब इंद्रियों की ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है, वहां तुम भीतर इंटीग्रेटेड, अखंड हो गए। तुम्हारी अखंडता सत्य के द्वार को खोल देगी।
भय न खाओ, हिम्मत करो।
और जिस तरफ भी तुम्हारा प्रवाह बहता हो, वहां तुम पूरे बह जाओ--ध्यानस्थ, समाधिस्थ! द्वार खुल जाएंगे, जो सदा से बंद हैं। रहस्य ढंका हुआ नहीं है, तुम टूटे हुए हो। तुम इकट्ठे हुए, रहस्य खुला हुआ है।
आज इतना ही।



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