दिनांक 18 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
प्रश्नसार:
1—बुद्धो
का
मनोविज्ञान
बनाने के लिए
बुद्धो का अध्ययन
करना होगा। तो
बुद्ध
मिलेंगे कहा?
2—बुद्धों का
मनोविज्ञान
क्या है? वह
अब तक निर्मित
क्यों नहीं हो
सका?
3—आपके
पास आ कर मैं
खुश और शांत
हो गया हूं।
क्या मेरे लिए,
ध्यान
जरूरी है?
4—गर्भकालीन दशा और फिर
गर्भ से बाहर
आने का अनुभव
सुखद है या
दुखद?
5—साधक—समूह
या सदगुरू की
क्यों जरूरत
है? क्या
अकेले ध्यान करना
पर्याप्त
नहीं है?
6—प्रतिप्रसव और अनसीखा
करना क्या एक
ही विधि है?
7—अच्छा—बुर—सब
स्वप्नवत
है, तो
कर्म का
सिद्धांत
कैसे अस्तित्व
रख सकता है?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि आप
तीसरे प्रकार
का मनोविज्ञान
विकसित करने
का प्रयत्न कर
रहे बुद्धों
का
मनोविज्ञान; लेकिन
अध्ययन करने
के लिए आपको
बुद्ध
मिलेंगे कहां?
शुरुआत करने
को, एक
तो यहां मौजूद
ही है, देर —
अबेर वह
तुममें से
बहुतों को
बुद्ध बना
देगा। यदि एक
बुद्ध होता है,
तो बहुत से
तुरंत ही संभव
हो जाते हैं।
क्योंकि वह एक
बुद्ध कार्य
कर सकता है
कैटेलिटिक
एजेंट, प्रेरक
—शक्ति के रूप
में। ऐसा नहीं
कि वह कुछ
करेगा, लेकिन
क्योंकि वह मौजूद
होता, इसी
कारण चीजें
अपने से ही
होने लगती है।
यह अर्थ है
कैटेलिटिक
एजेंट, प्रेरक
—शक्ति का।
देर — अबेर, तुममें
से बहुत सारे
लोग बुद्ध हो
जाएंगे, क्योंकि
हर कोई मौलिक
रूप से बुद्ध
ही होता है।
इसे पहचानने
में कितनी देर
लगा सकते हो
तुम? कितनी
देर तक स्थगित
कर सकते हो
इसे? कठिन
बात है —तुम
अपनी पूरी
कोशिश करोगे
स्थगित करने
की, देर
करने की, लाखों
कठिनाइयां
खड़ी करने की, लेकिन कितनी
देर तक ऐसा कर
सकते हो तुम?
मैं यहां
हूं तुम्हें
किसी तरह अतल
शून्य में धकेल
देने को, जहां तुम
मरते हो और
बुद्ध
उत्पन्न होते
हैं। उस एक
बुद्ध को पा
लेने की ही तो
सदा समस्या होती
है। एक बार वह
एक बुद्ध
मौजूद हो जाता
है तो मौलिक संपूर्ति,
मौलिक
जरूरत पूरी हो
जाती है। तब
बहुत सारे
बुद्ध तुरंत
संभव हो जाते
हैं। और यदि
बहुत होते हैं,
तो हजारों
संभव हो जाते
हैं। जो पहला
है वह कार्य
करता है एक
चिंगारी की भांति,
और एक छोटी —सी
चिंगारी काफी
होती है सारी
पृथ्वी को जला
देने के लिए।
इसी तरह ही
घटा है अतीत
में। एक बार
गौतम हो गए
बुद्ध, तो
धीरे — धीरे
हजारों को
होना पड़ा।
क्योंकि यह
सवाल होने का
नहीं, तुम
वह हो ही।
किसी को
तुम्हें याद
दिलाना पड़ता
है, बस यही
होती है बात।
अभी एक
दिन मैं
रामकृष्ण की
एक कथा पढ़ रहा
था। मुझे
प्यारी लगती
है वह। मैं
फिर —फिर पढ़ता
हूं उसे जब
कभी मेरे
सामने आ जाती
है वह। वह
सारी कथा गुरु
के कैटेलिटिक
उत्पेरक होने की
ही है। कथा है
एक बच्चे को
जन्म देते हुए
एक शेरनी मर गई, और बच्चे
को पाला —पोस।
बकरियों ने।
निस्संदेह, बाघ स्वयं
को इस तरह
बकरी ही समझता
था। यह बात
सहज थी, स्वाभाविक
थी, बकरियों
द्वारा पाले
जाने से, बकरियों
के साथ रहने
से, वह
समझने लगा कि
वह बकरी था।
वह शाकाहारी
बना रहा, घास
ही खाता —चबाता
रहा। उसके पास
कोई धारणा न
थी। अपने
स्वप्नों तक
में भी वह
स्वप्न न देख
सकता था कि वह
बाघ था, और
वह था तो बाघ।
फिर एक
दिन ऐसा हुआ
कि एक के बाघ
ने बकरियों के
इस झुंड को
देखा और वह का
बाघ विश्वास न
कर सका अपनी
दृष्टि पर। एक
युवा बाघ चल
रहा था
बकरियों के
बीच। न तो
बकरियां
भयभीत थीं उस
बाघ से और न
उन्हें पता था
कि बाघ उनके
बीच चल रहा था, बाघ भी
बकरी की भांति
ही चल रहा था।
वृद्ध
बाघ ने बस
किसी तरह जा
पकड़ा युवा बाघ
को, क्योंकि
कठिन था उसे
पकड़ पाना। वह
तो भागा—ऐसी
कोशिश की उसने,
वह रोया, चीखा —चिल्लाया।
वह भयभीत था, वह कैप रहा
शा भय से।
सारी बकरियां
भाग निकलीं और
वह भी उनके
साथ भाग जाने
की कोशिश में
था, लेकिन
के बाघ ने उसे
पकड़ लिया और
उसे खींचता हुआ
ले चला झील की
ओर। वह जाता न
था। उसने उसी
ढंग से बाधा
डाली जैसे कि
तुम मेरे साथ
कर रहे हो!
उसने अपनी ओर
से पूरी कोशिश
की न जाने की।
वह मरने की
हालत तक डरा
हुआ था, चीख
रहा था और रो
रहा था, लेकिन
वह का बाघ तो
उसे जाने न
देगा। का बाघ
अभी भी खींचता
था उसे और वह
उसे ले गया झील
की तरफ।
झील शांत, निस्तरंग
थी किसी दर्पण
की भांति।
उसने युवा बाघ
को बाध्य किया
पानी में झांकने
के लिए। उसने
देखा, आंसू
भरी आंखों से —दृष्टि
साफ न थी
लेकिन दृष्टि
थी तो—कि वह
लगता था एकदम
वृद्ध बाघ की
भांति ही। आंसू
मिट गए और
होने का एक
नया बोध उदित
हुआ; बकरी
मिटने लगी मन
से। अब कोई
बकरी न थी, लेकिन
तो भी वह
विश्वास न कर
सका उसके अपने
ज्ञान के
जागरण पर। अभी
भी शरीर कुछ
कांप रहा था, वह भयभीत था।
वह सोच रहा था,
'शायद मैं
कल्पना ही कर
रहा हूं। एक
बकरी ऐसे
अचानक ही बाघ
कैसे बन सकती
है। यह संभव
नहीं, ऐसा
कभी हुआ नहीं।
ऐसा इस तरह से
कभी नहीं हुआ।’
वह विश्वास
न कर सका अपनी आंखों
पर, लेकिन
अब वह पहली
चिंगारी, प्रकाश
की पहली किरण
उसकी अंतस—सत्ता
में प्रवेश कर
गई थी। सचमुच
ही अब वह वही न
रहा था। वह
कभी फिर से
वही न हो सकता
था।
वह
वृद्ध बाघ उसे
ले गया अपनी
गुफा में। अब
वह उतना
प्रतिरोधी
नहीं था, उतना
अनिच्छुक न था,
उतना भयभीत
न था। धीरे — धीरे
वह निर्भीक हो
रहा था, साहस
एकत्र कर रहा
था। जैसे ही
वह गया गुफा
की ओर, वह
चलने लगा बाघ
की भांति। के
बाघ ने उसे
कुछ मांस खाने
को दिया। यह
बात कठिन है
शाकाहारी के
लिए, करीब—करीब
असंभव, उबकाई
लाने वाली, लेकिन का
बाघ तो कुछ
सुनता ही न था।
उसने उसे
मजबूर किया
खाने के लिए।
जब युवा बाघ
की नाक मास के
निकट आई तो
कुछ हो गया. उस
गंध से उसके
प्राणों की
कोई गहरी बात
जो कि सोई पड़ी
थी जाग गयी।
वह खिंच गया, आकर्षित हो
उठा मास की ओर,
और वह खाने
लग गया। एक
बार उसने
स्वाद चख लिया
मांस का, एक
गर्जन फूट पड़ी
उसके प्राणों
से। बकरी
विलीन हो गई
उस गर्जन में,
और बाघ वहा
मौजूद था अपने
सौंदर्य और
भव्यता सहित।
यही है
सारी
प्रक्रिया।
और एक के बाघ
की जरूरत होती
है। यही है
तकलीफ का बाघ
है यहां, और चाहे
कैसे ही कोशिश
करो बच निकलने
की, इस ढंग
से और उस ढंग
से, वैसा
संभव नहीं।
तुम अनिच्छुक
होते हो; झील
तक तुम्हें ले
चलना कठिन है,
लेकिन मैं
तुम्हें ले
चलूंगा। तुम
घास खाते रहे
जीवन भर। तुम
बिलकुल भूल ही
चुके हो मांस
की गंध, लेकिन
मैं तुम्हें
बाध्य करू
दूंगा उसे
खाने के लिए।
एक बार स्वाद
मिल जाए तो
गर्जना फूट
पड़ेगी। उस
विस्फोट में
बकरी तिरोहित
हो जाएगी और बुद्ध
उत्पन्न
होंगे। तो
तुम्हें
इसमें चिंता
करने की जरूरत
नहीं कि मुझे
अध्ययन करने
के लिए इतने
सारे बुद्ध कहां
मिलेंगे! मैं
निर्मित
करूंगा
उन्हें।
दूसरा
प्रश्न :
बुद्धों
के
मनोविज्ञान
से आपका क्या
अर्थ है? पूरब में
हजारों बुद्ध
हुए हैं क्या
उन्होंने
बुद्धों का
मनोविज्ञान
निर्मित नहीं
किया? क्या
कपिल कणाद
बादरायण
पतंजलि
इत्यादि जैसे
संतों ने
तीसरे
मनोविज्ञान
को
प्रतिष्ठित नहीं
किया?
नहीं, अभी तक तो
नहीं। बहुत—सी
समस्याएं हैं।
तीसरे
मनोविज्ञान
की स्थापना
करने के लिए
पहले दो
जरूरतें पूरी
करनी पड़ती हैं।
यदि तुम
तिमंजला मकान
बनाते हो तो
पहले दो मंजिलें
पूरी बनानी
होती हैं, और
केवल तभी
तीसरी बनाई जा
सकती है।
अतीत
में, रूग्ण
आदमी के लिए
मनोविज्ञान
का कभी
अस्तित्व नहीं
रहा, पहले
प्रकार के
मनोविज्ञान
का कभी
अस्तित्व न था।
किसी ने परवाह
नहीं की मानसिक
रोग के
क्षेत्र में
प्रवेश करने
की; विशेष
कर पूरब में
तो ऐसा नहीं
हुआ। किसी ने
परवाह नहीं की।
क्योंकि रोग
से छुटकारा
मिल सकता था
उसमें जाए
बिना। उसका
विश्लेषण
करने की कोई
जरूरत न थी।
रुग्ण मन में
यात्रा करने
की कोई जरूरत
न थी, इस
बारे में कुछ
भी करने की
जरूरत न थी।
कुछ विशेष
विधियां
अस्तित्व
रखती थीं, अभी
भी वे विधियां
अस्तित्व
रखती हैं। तुम
उसे एकदम अलग
कर सकते थे।
उदाहरण
के लिए, जापान में
जब कोई आदमी
पागल होता है,
कोई
न्यूरोटिक
होता है, वे
उसे ले जाते
हैं झेन मठ
में, वे
उसे ले जाते
हैं नगर के
धार्मिक व्यक्तियों
के पास। यह
सर्वाधिक
प्राचीन
तरीकों में से
एक तरीका है
उसे ले जाते
हैं धार्मिक
पुरुष के पास।
और क्या किया
जाता है मठ
में? कुछ
नहीं। —वस्तुत:
कुछ नहीं किया
जाता है। जब
कोई पागल आदमी
लाया जाता है
मठ में, तो
वे विश्लेषण
करने की, निदान
करने की फिक्र
नहीं लेते। वे
इस बारे में
सोचने की
चिंता नहीं
करते कि यह
किस प्रकार का
रोग है। इसकी
कोई जरूरत
नहीं होती, क्योंकि रोग
हटाया जा सकता
है। वे पागल
आदमी को मठ से
दूर किसी अलग
कमरे में रख
छोड़ते हैं एक
कोने में, कहीं
पीछे। उसकी
आवश्यकताएं
पूरी की जाती
हैं : भोजन दिया
जाता है और जो
कुछ उसे चाहिए,
वह दिया
जाता है, लेकिन
कोई उसके विषय
में बात नहीं
करता, कोई
उसके पागलपन
पर ध्यान नहीं
देता। पूरब
जानता है कि
जितना ज्यादा
तुम उस पर ध्यान
देते हो, उतना
ज्यादा तुम
पोषित करते हो
पागलपन को सारा
मठ बना 'रहता
है, उदासीन,
तटस्थ—जैसे
कि कोई अंदर
आया ही न हो।
उदासीनता
एक विधि है, क्योंकि
एक पागल आदमी
को सचमुच ही
चाहिए होता है
ज्यादा ध्यान।
शायद ऐसा हो
कि वह मात्र
अपनी ओर ध्यान
आकर्षित करने
को ही पागल हो
गया हो। इसलिए
मनोविश्लेषण
कोई ज्यादा
मदद नहीं दे सकता।
क्योंकि
मनोविश्लेषक
इतना ज्यादा
ध्यान देते
हैं पागल पर, न्यूरोटिक
पर, साइकोटिक
पर, कि वह
उस ध्यान पर
पोषित होने
लगता है : कई
वर्षों से
बराबर कोई
ध्यान दे रहा
होता है तुम
पर।
तुमने
ध्यान दिया
होगा कि
न्यूरोटिक
लोग सदा दूसरों
को बाध्य करते
हैं अपनी ओर
ध्यान देने के
लिए। यदि वे
ध्यान पा सकते
हों तो वे कुछ
भी करेंगे।
झेन मठ में वे
कोई ध्यान
नहीं देते, वे
उदासीन बने
रहते हैं। कोई
परवाह नहीं
करता, कोई
नहीं सोचता कि
वह पागल है, क्योंकि यदि
सारा समूह
सोचे कि वह
पागल है तो वह
सोचना ऐसी
तरंगें
निर्मित कर
देता है जो कि
पागल को पागल
बने रहने देने
में मदद करती
हैं। तीन
सप्ताह, चार
सप्ताह के लिए
पागल आदमी को
उसके अपने साथ
रहने दिया
जाता है।
आवश्यकताएं
पूरी की जाती
हैं, लेकिन
कोई ध्यान
नहीं दिया
जाता; कोई
विशिष्ट
ध्यान नहीं
अलगाव कायम
किया जाता है।
कोई नहीं
सोचता कि वह
पागल है। और
तीन या चार
सप्ताह के
भीतर ही, वह
पागल, अपने
साथ रहते हुए
ही, धीरे—
धीरे बेहतर
होता चला जाता
है। पागलपन
घटता जाता है।
अभी भी
झेन मठों में
वे यही कुछ
करते हैं।
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
इस तथ्य के
प्रति सचेत हो
गए हैं। बहुत
से लोग गए हैं
जापान यह
अध्ययन करने
के लिए कि
होता क्या है।
और वे बिलकुल
हैरान हो गए।
वे वर्षों तक
कार्य किए हैं
और कुछ घटित
नहीं होता है, और झेन मठ
में बिना कुछ
किए ही पागल
आदमी को उसके
स्वयं के पास
छोड़ देने से
चीजें ठीक
होने लगती हैं।
पागल आदमी को
चाहिए पृथकता।
उन्हें चाहिए
विश्राम, उन्हें
चाहिए अलगाव,
उपेक्षा, और वे लहरें,
वे तनाव जो
उनके मन में
उठ रहे थे, वे
एकदम विलीन हो
जाते हैं।
चौथे सप्ताह
बाद वह आदमी
तैयार हो जाता
है मठ छोड़
देने के लिए।
वह धन्यवाद
देता है वहां
के लोगों को, मठ के
अधिकारियों
को और दूसरों
को, और चला
जाता है। वह
पूरी तरह ठीक
होता है।
पूरब
में इस कारण, इन
विधियों के
कारण, पहली
प्रकार का मनोविज्ञान
कभी विकसित
नहीं हुआ था।
और जब तक पहली
प्रकार का
मनोविज्ञान
मौजूद न हो, दूसरी
प्रकार का
असंभव हो जाता
है। रुग्ण मन
को समझ लेना
है उसके
विस्तार में।
पागल आदमी को
ठीक होने में
मदद देना एक
बात है पागलपन
का
मनोविज्ञान
निर्मित करना
दूसरी बात है।
वैज्ञानिक
पहुंच की
आवश्यकता है,
ब्यौरे भरे
विश्लेषण
चाहिए।
पश्चिम में
उन्होंने
कियो है ऐसा, पहले प्रकार
का
मनोविज्ञान
वहां है।
फ्रायड, का,
एडलर और
दूसरे कइयों
ने रुग्ण
आदमियों के
लिए मनोविज्ञान
निर्मित किया
है। शायद वे
उन लोगों की
जो कि मुसीबत
में होते हैं,
बहुत
ज्यादा मदद
नहीं कर सकते,
लेकिन
उन्होंने एक
और जरूरत पूरी
की है। वह
जरूरत
वैज्ञानिक है
उन्होंने
निर्मित किया
है पहले
प्रकार का
मनोविज्ञान।
तुरंत ही
दूसरे प्रकार
का संभव हो
जाता है।
दूसरा है
स्वस्थ आदमी
का
मनोविज्ञान।
दूसरे
मनोविज्ञान
के अंश पूरब
में सदा अस्तित्व
रखते रहे, लेकिन
अंश ही, टुकड़े
ही बने रहे, कभी संबद्ध
संपूर्णता
नहीं बने।
टुकड़े ही
क्यों?—क्योंकि
धार्मिक
लोगों को
इसमें रुचि थी
कि साधारण, स्वस्थ
व्यक्ति को
इंद्रियों के
अनुभव के पार
कैसे बढ़ाए।
थोड़ी खोज की
है उन्होंने,
गहरे
विस्तार में
नहीं, एकदम
अंत तक नहीं, क्योंकि
उन्हें किसी
मनोविज्ञान
को निर्मित
करने में कोई
रुचि न थी।
उन्हें रस था
मात्र किसी
आधार को खोज
लेने में, ठोस
मन का कोई ऐसा
आधार तल जहां
से कि ध्यान
में छलांग
लगाई जा सके।
उनकी रुचि अलग
थी। उन्होंने
सारे क्षेत्र
की कोई परवाह
नहीं की!
जब कोई
आदमी बस छलांग
लगा लेना
चाहता है नदी
में —तो वह
सारे किनारे
की खोज नहीं
करता। वह ढूंढ
लेता है स्थान, कोई छोटी
चट्टान और वहा
से वह छलांग
लगा देता है।
सारे क्षेत्र
को खोजने की
कोई जरूरत
नहीं। दूसरे
मनोविज्ञान
के अंश
अस्तित्व
रखते थे पूरब
में। वे मौजूद
हैं पतंजलि
में, बुद्ध
में, महावीर
में' और कई
दूसरों में —बस
थोड़े से ही
टुकड़े, पूरे
क्षेत्र का एक
हिस्सा ही।
सारी
पहुंच
वैज्ञानिक न
थी, पहुंच
धार्मिक थी।
ज्यादा की
जरूरत न थी।
तो इसकी फिक्र
क्यों लेते वे?
मात्र छोटी —सी
भूमि को साफ
कर लेने से ही,
वहा से वे
उड़ान भर सकते
थे अपरिसीम
में। सारे
जंगल को साफ
करने की कोशिश
ही क्यों करनी?
—और यहां एक
विशाल जंगल है।
मानव —मन
एक विशाल घटना
है। रुग्ण मन
स्वयं में ही
एक बड़ी घटना
है। स्वस्थ तो
और भी ज्यादा
बड़ा होता है
रूग्ण मन से, क्योंकि
रूग्ण मन तो
मात्र एक
हिस्सा होता
है स्वस्थ मन
का, वह
संपूर्ण बात
नहीं। कोई कभी
पूरी तरह पागल
नहीं होता है,
कोई हो नहीं
सकता। केवल एक
हिस्सा ही
पगला जाता है,
केवल एक
हिस्सा ही
बीमार हो जाता
है, लेकिन
कोई भी पूरी
तरह बीमार
नहीं होता है।
यह एकदम शरीर —विज्ञान
की भांति ही
है, किसी
का शरीर
संपूर्णतया
बीमार नहीं हो
सकता है। क्या
कभी तुमने
देखा है किसी
के शरीर को
पूरी तरह
बीमार होते
हुए? उसका
तो अर्थ होगा
कि जितनी सारी
बीमारी मानवता
के लिए संभव
है, एक ही
आदमी के शरीर
में घट गई है।
वैसा असंभव है,
कोई उतनी हद
तक नहीं
पहुंचता।
किसी के सिर
में पीड़ा होती
है, किसी
का पेट दुखता
है, किसी
को बुखार होता
है, कुछ न
कुछ चलता रहता
है—किसी
हिस्से में ही।
और शरीर एक
विशाल घटना है,
एक पूरा
ब्रह्मांड है।
यही
बात सच है मन
के लिए मन है
पूरी सृष्टि।
सारा मन कभी
पागल नहीं
होता और इसलिए
पागल आदमियों
को वापस होश
में लाया जा
सकता है। यदि
सारा मन पागल
हो जाता है, तो तुम
उसे होश में न
ला सकते थे, कोई संभावना
न थी। यदि
सारा मन पागल
हो जाता है तो
कैसे उसे वापस
होश में लाओगे?
मात्र एक
हिस्सा, एक
हिस्सा ही भटक
जाता है। तुम
ला सकते हो
उसे वापस, उसे
फिर से समस्त
के अनुकूल
बैठा सकते हो।
पश्चिम
में अब दूसरे
प्रकार का
मनोविज्ञान प्रसव
—पीड़ा में से
गुजर रहा है, अब्राहम
मैसलो, एरिक
फ्राम, जैनोव
और दूसरों के
साथ। यह एक
समग्र पहुंच
है : रोग की
भाषा में नहीं
सोचा जा रहा
है बल्कि
स्वास्थ्य की
भाषा में सोच
रहे हैं, मौलिक
रूप से रोग —विज्ञान
पर एकाग्र
नहीं हो रहे
हैं, बल्कि
मौलिक रूप से
एकाग्र हो रहे
हैं स्वस्थ मानवता
पर। दूसरा
मनोविज्ञान
उत्पन्न हो
रहा है, लेकिन
अभी वह पूरा
नहीं हुआ है।
इसीलिए मैं
कहता हूं कि
वह तो केवल
प्रसव —पीड़ा
में ही है, वह
आ रहा है
संसार में।
देर— अबेर वह
तेजी से
विकसित होने
लगेगा। केवल
तभी तीसरे
प्रकार का
मनोविज्ञान
संभव होता है।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
उसका कभी
अस्तित्व ही न
था।
बुद्ध
हुए हैं, लाखों हुए, लेकिन
बुद्धों का
मनोविज्ञान
नहीं हुआ, क्योंकि
कभी किसी ने
जागरूक मन को
विशेष रूप से
खोज कर उसके
द्वारा कोई
वैज्ञानिक
अनुशासन
निर्मित करने
की कोशिश ही
नहीं की।
बुद्ध हुए हैं,
लेकिन किसी
ने कोशिश नहीं
की है
बुद्धत्व की घटना
को वैज्ञानिक
तरीकों से
समझने की।
गुरजिएफ
पहला आदमी था
मनुष्यता के
पूरे इतिहास
में जिसने
कोशिश की। इस
अर्थ में
गुरजिएफ
विरला ही था, क्योंकि
वह एक
प्रवर्तक था
तीसरी
संभावना का।
जैसा कि सदा
होता है पहल
करने वालों के
साथ, कि यह
कठिन था, बहुत
कठिन था किसी
ऐसी चीज में
उतर जाना जो
कि सदा अज्ञात
बनी रही हो, लेकिन उसने
कोशिश की। वह
कुछ टुकड़े
अंधेरे से
बाहर ले आया है,
लेकिन वह
बात और — और
कठिन हो गयी
क्योंकि उसके
सब से बड़े
शिष्य पी डी
ऑस्पेंस्की
ने .उसे धोखा
दिया। एक
कठिनाई थी।
गुरजिएफ
स्वयं एक
रहस्यवादी था,
विज्ञान की
दुनिया से
परिचित न था, वह वैज्ञानिक
मन का नहीं था।
वह एक
रहस्यवादी था,
वह बुद्ध था।
सारा प्रयास
निर्भर करता
था पी डी.
ऑस्पेंस्की
पर, क्योंकि
वह एक
वैज्ञानिक
आदमी था सब से
बड़े
गणितज्ञों में
से एक, और
इस शताब्दी के
कुशलतम
विचारकों में
से एक। सारी
बात निर्भर
करती थी
ऑस्पेंस्की
पर। गुरजिएफ
को बीज बोने
थे और
ऑस्पेंस्की
को उस पर काम
करना था, उसे
परिभाषित
करना था, उसे
एक दर्शन के
रूप में सामने
लाना था, उसमें
से वैज्ञानिक सिद्धांत
बनाने थे। वह
एक सतत सहयोग
था गुरु और
शिष्य के बीच
का। गुरजिएफ
बीज बो सकता
था, लेकिन
वह उसकी
वैज्ञानिक
परिभाषा न कर
सकता था और वह
न ही उसे इस
ढंग से रख
सकता था कि वह
कोई अनुशासन
बन सकता। वह
जानता था कि
बात क्या है, लेकिन भाषा
की कमी पड़ रही
थी।
ऑस्पेंस्की
के पास भाषा
मौजूद थी।
बिलकुल
परिपूर्ण थी।
मैं और कोई
तुलना नहीं
खोज पाता, ऑस्पेंस्की
इतनी पूरी और
सही बात कहता
था कि अल्वर्ट
आइंस्टीन तक
को ईर्ष्या
होती। उसके
पास वस्तुत:
एक बहुत ही
प्रशिक्षित
तर्कसंगत मन
था। तुम पढ़ो
उसकी एक किताब
'टर्सियम
ऑरगानम' वह
एक विरल घटना
है।
ऑस्पेंस्की
कहता है उस
किताब में, बिलकुल शुरू
में ही : संसार
में केवल तीन
किताबें हैं :
एक है अरस्तु
की ' ऑरगानम—विचार
का पहला सिद्धांत',
दूसरी है
बेकन की 'नोवम
ऑरगानम—विचार
का दूसरा सिद्धांत';
और तीसरी है
'टर्सियम
ऑरगानम—विचार
का तीसरा सिद्धांत।’
ऑस्पेंस्की
कहता है —जब वह
कहता है तो वह
गर्वित होकर
या अहंकारी होकर
या इसी तरह का
कुछ होकर नहीं
कहता— 'दोनों
के अस्तित्व
में आने से
पहले भी तीसरे
का अस्तित्व
था।’ वह
कहता है
टर्सियम
ऑरगानम में, 'मैं सारे
ज्ञान के
वास्तविक मूल
को ही इसमें ला
रहा हूं।’ और
यह कोई अहंकार
युक्त बात
नहीं; वह
किताब सचमुच
ही असाधारण है।
गुरजिएफ
का प्रयास ही
निर्भर करता
था ऑस्पेंस्की
और उसके बीच
के गहरे सहयोग
पर। उसे राह
दिखा देनी थी
और
ऑस्पेंस्की
को उसे सूत्रों
में पिरोना था, सूत्रबद्ध
करना था, उसे
एक ढाचा देना
था। आत्मा आनी
थी गुरजिएफ से
और शरीर देना
था ऑस्पेंस्की
को, और
ऑस्पेंसकी ने
उसे बीच में
ही धोखा दे
दिया। वह एकदम
छोड़ ही गया
गुरजिएफ को।
वैसी संभावना
सदा से थी, क्योंकि
वह इतना
बौद्धिक था और
गुरजिएफ बिलकुल
ही प्रति—बौद्धिक
था। यह लगभग
असंभव बात थी
कि वे अपना
सहयोग बनाए रखते।
गुरजिएफ
ने मांग की
बेशर्त
समर्पण की—जैसी
मांग गुरुओं
ने सदा की है; और ऐसी
बात कठिन थी
ऑस्पेंस्की
के लिए—जैसी
यह सदा कठिन
होती है
प्रत्येक
शिष्य के लिए।
और यह ज्यादा.
कठिन होती है,
जब शिष्य बहुत
बौद्धिक होता
है। धीरे —
धीरे
ऑस्पेंस्की
सोचने लगा कि
वह सब कुछ
जानता था। यह
एक धोखा होता
है जिसे
बुद्धिजीवी
आसानी से
निर्मित कर
लेता है। वह
इतना बौद्धिक
व्यक्ति था कि
उसने हर चीज सूत्रबद्ध
की और वह
अनुभव करने
लगा कि वह
जानता था। फिर
धीरे— धीरे
दरार पड़ने
लगी।
गुरजिएफ
सदा माग करता
था असंगत
बातों की।
उदाहरण के लिए, ऑस्पेंस्की
हजारों मील
दूर था और
गुरजिएफ ने उसे
तार भेज दिया 'फौरन चले आओ,
हर चीज छोड़
कर।’ ऑस्पेंस्की
आर्थिक, पारिवारिक
झंझट में, और
भी कई चीजों
में फंसा हुआ
था, और यह
बात उसके लिए
करीब—करीब असंभव
थी कि सब छोड—छाड
तुरंत चल देता,
लेकिन वह
छोड़ आया। उसने
बेच दी हर चीज,
वह हट आया
परिवार से और
वह फौरन भाग
आया। जब वह
पहुंचा, तो
जो पहली बात
गुरजिएफ ने
कही, वह थी,
'अब तुम जा
सकते हो वापस।’
यही वह बात
थी जिसने कि
दरार खिंचने
की शुरुआत की।
ऑस्पेंस्की
चला आया और
फिर कभी वापस
न आया—लेकिन
वह चूक गया।
वह तो मात्र
एक जांच थी
समग्र समर्पण
की।
जब तुम
समग्ररूपेण
समर्पित होते
हो, तो
तुम पूछते
नहीं, क्यों?
गुरु कहता
है, ' आओ ', तुम
आ जाते हो।
गुरु कहता, 'जाओ', तुम
चले जाते हो।
यदि
ऑस्पेंस्की
उस दिन उसी
सरलता से चला गया
होता जैसे कि
आया था, तो
उसके भीतर की
कोई गहरी बात
जो उसके सारे
विकास को
अवरुद्ध कर
रही थी, गिर
गयी होती।
लेकिन
ऑस्पेंस्की
जैसे आदमी के
लिए यह बात जरा
ज्यादा
बेमानी हो गयी
कि गुरजिएफ ने
अचानक कहा, और वह चला
आया। वह जरूर
बहुत—सी
अपेक्षाएं
लिए आया होगा,
क्योंकि वह
सोच रहा था कि
उसने तो इतना
कुछ त्याग
दिया परिवार,
समस्याएं, आर्थिक
व्यवस्था, नौकरी
—वह छोड़ आया था
हर चीज। वह
सोच रहा होगा
कि वह कोई
आत्मबलिदानी
था। वह आ गया
था और बिना
उसे अभिवादन
तक किए, पहली
बात गुरजिएफ
ने कही उसे
देखते हुए, वह यह थी, ' अब
तुम जा सकते
हो वापस।’ यह
तो बहुत
ज्यादा हुआ, वह अलग हो
गया।
ऑस्पेंस्की
के अलग हो
जाने से, तीसरे आयाम
के
मनोविज्ञान
को निर्मित
करने का सारा
प्रयास ही रुक
गया। गुरजिएफ
ने बहुत
कोशिशें कीं,
उसने कोशिश
की किसी और को
खोज लेने की।
बहुत सारे
लोगों के साथ
उसने कार्य किया,
लेकिन
ऑस्पेंस्की
की योग्यता का
वह कोई एक भी न
ढूंढ सका।
ऑस्पेंस्की
का विकास रुक
गया और तीसरे
मनोविज्ञान
के लिए किया
जा रहा
गुरजिएफ का
कार्य रुक गया।
एक साथ वे
अदभुत थे, अलग
हो कर दोनों
ही पंगु हो गए।
ऑस्पेंस्की
बौद्धिक बना
रहा, गुरजिएफ
रहस्यवादी
रहा। यही थी
अड़चन। इसीलिए
तो वह बात घट न
सकी।
मैं
फिर से कोशिश
कर रहा हूं
तीसरे आयाम पर
कार्य करने की, और मैंने
यह जोखिम नहीं
उठाया है जो
गुरजिएफ ने
उठाया। मैं
किसी पर
निर्भर नहीं,
मैं
गुरजिएफ और
ऑस्पेंस्की
का जोड़ हूं।
दो विभिन्न
आयामों में
जीना एक कठिन
कार्य है, बहुत
ही कठिन है यह।
लेकिन चाहे
जैसे भी है, यह अच्छा है,
क्योंकि
कोई मुझे धोखा
नहीं दे सकता
और मेरा कार्य
रोक नहीं सकता,
कोई नहीं कर
सकता ऐसा। मैं
निरंतर
गतिमान हो रहा
हूं अ—मन के
संसार में, और शब्दों
के और किताबों
के और
विश्लेषण के
संसार में।
गुरजिएफ के लिए
श्रम का
विभाजन था
ऑस्पेंस्की
कार्य कर रहा
था लाइब्रेरी
में और वह
कार्य कर रहा
था स्वयं के
आसपास। मुझे
दोनों करने
हैं —ताकि वही
बात फिर से न
दोहरायी जाए।
मैं दोनों
स्तरों पर
निरंतर कार्य
करता रहा हूं
और हर संभावना
है कि प्रयास
सफल हो सकता
है। मैं
तुम्हारा
अध्ययन कर रहा
हूं और तुम
धीरे — धीरे
विकसित हो रहे
हो।
बुद्ध
हो जाना स्वयं
में एक बात है।
वह बात बहुत
अचानक घटती एक
क्षण पहले तुम
बुद्ध न थे, और एक
क्षण बाद तुम
बुद्ध होते हो।
यह बात इतनी
अचानक घटती है
कि जब यह
तुम्हारे स्वयं
में घटती है, तो कोई
अंतराल नहीं
रहता जिसमें
कि इसका
अध्ययन किया
जाए।
तुम्हारे साथ
मैं बहुत धीमे
— धीमे अध्ययन
कर सकता हूं।
जितना ज्यादा
तुम छल करते
और प्रतिरोध
करते, उतने
ही बेहतर ढंग
से मैं
तुम्हारा
अध्ययन कर सकता
हूं; कि
क्या घट रहा
है यह। मुझे
अध्ययन करना
है बहुत—से
लोगों का, केवल
तभी वह बात घट
सकती है।
मनोविज्ञान
एक व्यक्ति पर
निर्भर नहीं
कर सकता है
क्योंकि
व्यक्ति इतने
अलग होते, इतने
बेजोड़। मैं हो
गया होऊंगा
बुद्ध, लेकिन
मैं एक बेजोड़
व्यक्ति हूं।
तुम हो सकते
हो बुद्ध, लेकिन
तुम एक बेजोड़
व्यक्ति हो।
कम से कम सात
प्रकार के लोग
हैं जो कि इस
ससार में
अस्तित्व
रखते हैं। तो
कम से कम सात
बुद्धों का
अध्ययन बहुत
ज्यादा गहराई
से करना है, एक संबंध
रखता हो एक—एक
प्रकार से।
केवल तभी संभव
होगा
मनोविज्ञान।
ऑस्पेंस्की
बात करता है
सात प्रकार के
आदमियों की।
वे सारे सातों
प्रकार और
उनके विकास
समझ लेने हैं
किस प्रकार की
बाधाएं बना
देते हैं वे, किस
प्रकार के
बचावों के लिए
वे प्रयत्न
करते और कैसे
उनके बचाव और
उनके
प्रतिरोध
तोड़े जा सकते
हैं। हर
प्रकार के साथ
बात कुछ अलग
ही होगी। जब
तक सारे सातों
प्रकार जाने
नहीं जाते, चरण — चरण
पर्त —दर —पर्त
एकदम शुरू से
ही, शुरू
से लेकर आखिर
तक ही अध्ययन
नहीं किए जाते,
तब तक
मनोविज्ञान
प्रतिपादित
नहीं किया जा
सकता है। वह
पहले कभी
अस्तित्व न
रखता था, लेकिन
वह अस्तित्व
रख सकता है
भविष्य में।
तीसरा
प्रश्न:
जैसा
कि आपने कहा
मेरा जीवन एक
दुख है— लेकिन
आपके पास आने
के बाद से दुख
चला गया है।
हालांकि मुझे
मालूम है कि
मेरा जीवन अभी
भी आनंदमय
नहीं है एक
संतुष्टि चली
आई है हर उस चीज
के प्रति जो
कि मुझे घटित
होती है इस
बात ने ध्यान
करने की खोज
करने की ही
आकांक्षा में
कमी कर दी है।
मैं साथ बहे
जाने में खुश
हूं बस क्या
मैं एकदम सुस्त
हूं?
यह घड़ी आती है
प्रत्येक
खोजी को, जब
नकारात्मक अब
नहीं बच रहा
होता है, लेकिन
विधायक भी
नहीं आया होता,
जब पीड़ा जा
चुकी होती है,
लेकिन आनंद
घटित नहीं हुआ
होता, जब
रात बाकी नहीं
रही, लेकिन
सूर्योदय तो
नहीं हुआ। यह
एक अच्छा
लक्षण है कि
तुम विकसित हो
रहे हो। और
फिर, तुरंत
ही, व्यक्ति
विश्रांति
अनुभव करने
लगता है, बहने
लगता है, और
हर चीज जैसे
घटती है वह
बहुत सुंदर
होती है। मन
कहता है, क्यों
फिक्र करनी? जरा भी
ध्यान क्यों
करना? यदि
तुम सुनते हो
मन की, तो
जल्दी ही रात
वापस लौट आएगी,
दुख का
प्रवेश हो
जाएगा। मत
सुनो मन की।
तुम निरंतर
ध्यान करना
लेकिन अब जरा
अलग दृष्टिकोण
सहित ऐसे
ध्यान करो
जैसे कि तुम
उसमें बह रहे
हो। बहुत
ज्यादा
प्रयास मत
करना इस बात
के लिए। इसी
की तो जरूरत
होती है।
ध्यान करो
प्रयास—
विहीनता से, पर ध्यान
करो। सुस्त मत
पड़ना। सुस्ती
के साथ पुरानी
बात फिर से
वापस चली
आयेगी, क्योंकि
आनंद अभी भी
घटित नहीं हुआ
है। एक बार
आनंद घट जाता
है —जब तुम
संपूर्णतया
परितृप्त
अनुभव करते हो,
जब तुम उस
स्थल तक आ
पहुंचते हो, जहां तुम
संतुष्टि के
बारे में भी
भूल जाते हो, वह इतनी
संपूर्ण होती
है —केवल तभी
ध्यान गिराया
जा सकता है।
वह गिर जाता
है अपने से ही।
दो
स्थलों पर
गिराने का
विचार आ बनता
है। पहला स्थल
यह होता है, जिसके
लिए प्रश्न
करने वाले ने
पूछा है जब
अंधकार मिट
जाता है, दुख
नहीं बचता, और तुम बहुत
अच्छा — अच्छा
अनुभव करते हो।
यह बात तो दुख
का अभाव मात्र
होती है। यदि
मन जो कि दुख
में .पडा रहा, वह गैर—दुखी
हो जाता है, तो यह बात
करीब —करीब
सुख जैसी जान
पड़ती है, यह
करीब—करीब आनंदपूर्णता
जैसी दिखती है।
आभास से धोखा
मत खा जाना।
अभी भी बहुत
कुछ करना है—लेकिन
अब, इसे
जरा अलग ढंग
से करना है।
बस, बात
इतनी ही है।
अब ध्यान बहुत
शाति से, चैन
से करना, तनाव
मत लाना, बहना—लेकिन
करना जारी
रखना, क्योंकि
अभी और बहुत
कुछ घटने को
है। यात्रा की
समाप्ति नहीं
हुई है। शायद
तुम उस जगह आ
गए हो जहां
तुम आराम कर
सकते हो वृक्ष
के नीचे और
छांव शीतल है,
लेकिन
भूलना मत कि
यह बात केवल
एक रात भर का
पड़ाव हो सकती
है। सुबह
तुम्हें फिर
से चल देना है।
जब तक कि तुम
पूरी तरह मिट
नहीं जाते, यात्रा को
जारी रखना
होता है।
लेकिन अब बदल
देना
गुणवत्ता को,
बहते रहना।
प्रयासरहित
होकर बढ़ना
ध्यान में।
तो तुम
जानते हो न
अंतर? कोई
तैरता है नदी
में, प्रयास
मौजूद होता, लेकिन फिर
वह मात्र बहता
है, अपनी
पीठ के बल लेट
जाता, नदी
में रहता, लेकिन
अब और तैरना
नहीं बच रहा।
बहती हुई नदी
उसे धारा के
संग लिए चलती
है और वह बहता
जाता है सागर
की ओर। आरंभ
में व्यक्ति
का ध्यान
तैरना होता है,
क्योंकि मन
के द्वारा
निर्मित हुई
बहुत सारी रुकावटें
होती हैं, तुम्हें
उनसे जूझना
पड़ता है।
दूसरे चरण में
तुम्हें बहना
होता है नदी
के साथ। तीसरे
चरण में
तुम्हें बन ही
जाना होता है
नदी—तब कोई
प्रश्न बचा
नहीं रहता। तब
तुम ध्यान
करना गिरा
सकते हो, लेकिन
गिरा देने का
सवाल नहीं
बचता, वह
गिर जाता है
अपने आप ही।
ध्यान जब पूरा
होता है तो
अपने से ही
गिर जाता है।
तुम्हें उसके
लिए चिंता
करने की जरूरत
नहीं। जब वह
संपूर्ण होता
है तो वह गिर
जाता है, बिलकुल
ऐसे जैसे कि
कोई पका फल
गिर जाता है
धरती पर।
लेकिन
सुस्त मत बनना।
मन तुम्हारे
साथ
चालाकियां चल
सकता है और जो कुछ
तुमने पाया है
यह उसे नष्ट
कर सकता है।
बहुत ज्यादा
प्रयास से
थोड़ा —सा तुम
पाते हो, और मन
तुम्हें धोखा
दे सकता है और
कह सकता है कि
अब कोई जरूरत
नहीं। तुम
इतना सुख
अनुभव कर रहे
हो —अनुभव करो
सुख—लेकिन तुम
इतना सुख
अनुभव कर रहे
होते ध्यान के
कारण। यदि तुम
ध्यान को गिरा
देते हो तो
तुरंत ही वह
सुख तिरोहित
हो जाएगा जिसे
कि तुम अनुभव
कर रहे होते
हो। और तब तुम
फिर से दुख
में जा पड़ोगे।
चौथा
प्रश्न:
लैग के
अनुसार
गर्भधारण के
बाद के पहले
नौ महीने
आवश्यक रूप से
ही आनंदपूर्ण
नहीं होते और
जैनोव की
खोजें फ्रायड
के जन्म—
वेदना के
सिद्धांत की
पुष्टि नहीं
करतीं कृपया
क्या आप इसके
बारे में थोड़ा
और कुछ
बताएंगे?
मेरे देखे, फ्रायड
अभी भी ठीक
बना हुआ है।
केवल फ्रायड
ही नहीं, बल्कि
बुद्ध, महावीर
और पतंजलि, सभी कहते
हैं कि जन्म
पीड़ा से भरा
होता है, क्योंकि
वह एक चोट
होता है। लेकिन
अंतिम
निष्कर्ष तक
पहुंचना कठिन
है। एक बच्चा
जन्मता है और
कोई नहीं
जानता कि बच्चा
कैसा अनुभव
करता है। गर्भ
में बच्चा आनंदपूर्ण
अनुभव करता है
या नहीं; या,
जब कि पैदा
हो रहा होता
है, गर्भाश्य
से बाहर गुजर
रहा होता है
और ज्यादा खुले
संसार में आ
रहा होता है, तो क्या वह
दर्द अनुभव
करता है? जब
वह चीखता है
तो पीड़ा होती
या कि नहीं
होती? कौन
करेगा निर्णय?
निर्णय
करने के दो
तरीके हैं : एक
तो है वस्तुगत
निरीक्षण।
ऐसा ही तो
किया है
फ्रायड ने, जो लैंग,
जैनोव और
दूसरे कई कर
रहे हैं। जो
कुछ घट रहा
होता है, तुम
उसका निरीक्षण
कर सकते हो, लेकिन निरीक्षण
बाहर—बाहर बना
रहता है। तुम
वस्तुत: जानते
नहीं कि क्या
घट रहा होता है।
दोनों
व्याख्याएं
संभव हैं तुम
कह सकते कि बच्चा
गर्भ में
आनंदमय होता
है, क्योंकि
कोई चिंता
नहीं होती, बच्चे को
करने को कुछ
नहीं होता; हर चीज भेज
दी जाती है।
बच्चा तो बस
आराम करता है,
या क्योंकि
बच्चा
सीमाबद्ध
होता है, कैद
में होता है
तो वह सब जो
मां पर असर
करता है बच्चे
पर असर करता
है। यदि मा
बीमार होती है
तो बच्चा
बीमार हो जाता
है। यदि मां
गिर जाती है
और उसकी
हड्डिया टूट
जातीं, तो
बच्चे को चोट
लगती है। वह
लिए रहेगा वह
घाव जीवन भर।
यदि मां को
सिरदर्द होता
है, तो
उसका प्रभाव
पड़ेगा ही
बच्चे पर
क्योंकि बच्चा
जुड़ा होता है,
वह अलग नहीं
होता है। यदि
मां दुखी होती
है, पीड़ित
होती है, तो
बच्चे पर जरूर
पड़ेगा असर।
बच्चा बहुत
कोमल होता है,
उसके नाजुक
संवेदन तंत्र
पर लगातार चोट
पड़ेगी—अनुभूति
द्वारा, भावदशाओ
द्वारा और मां
में घटने वाली
घटनाओं द्वारा।
बच्चा भीतर
कैसे सुखी और
आनंदमय हो
सकता है? यदि
मा संभोग करती
है, जब कि
बच्चा भीतर
गर्भ में होता
है, तो
बच्चा दुख
पाता है।
क्यों? जब
मां संभोग
करती है, तो
उसे ज्यादा
आक्सीजन की
जरूरत रहती है
अपने लिए और
बच्चे को दी
जाने वाली
आक्सीजन घट
सकती है।
श्वास में कमी
आ जाती है और
बच्चे का दम
घुटता हुआ
महसूस होता है।
इसी
कारण, एक
वैज्ञानिक
प्रमाणित
करने का
प्रयत्न करता
रहा है —निस्संदेह
एक यहूदी
वैज्ञानिक, क्योंकि
यहूदियों का
विश्वास है कि
गर्भवती
स्त्री से
संभोग नहीं
करना होता है;
उस
वैज्ञानिक ने
उस खोज से
बहुत जाना है —कि
नौ महीनों तक
मां गर्भवती
होती है, उससे
संभोग नहीं
करना चाहिए
क्योंकि
बच्चा पीड़ा
पाएगा। इसके
पीछे एक खास
कारण है, .क्योंकि
मा को आक्सीजन
की जरूरत होगी
उसके शरीर
द्वारा।
इसीलिए संभोग
करते समय, स्त्री
और पुरुष तेज
और गहरी सांस
लेना शुरू कर
देते हैं।
शरीर को
ज्यादा
आक्सीजन की
जरूरत होती है
और मा
उत्तेजित हो
जाती है। शरीर
का तापमान
ऊंचा चला जाता
है और बच्चा
घुटन अनुभव
करता है। ये
बाहर की खोजें
हैं।
यदि
फ्रायड और
लैंग के बीच निर्णय
लेना हो, तो निर्णय
कभी पूरा नहीं
हो सकता, क्योंकि
दोनों बाहरी
हैं। लेकिन
मेरे पास भीतर
की दृष्टि है,
और इसीलिए
मैं कहता हूं
कि फ्रायड ठीक
है और लैंग
ठीक नहीं है।
बुद्ध के पास
अंतर्दृष्टि
है। जब बुद्ध
जैसा आदमी
पैदा होता है
तो वह संपूर्णतया
जागरूक रूप
में पैदा होता
है। जब बुद्ध
जैसा आदमी
गर्भ में होता
है, तो वह
जागरूक होता
है।
ऐसा
कैसे होता है, इसे समझ
लेना है। जब
कोई आदमी
संपूर्ण
जागरूकता में
मरता है, तो
उसका अगला
जन्म
संपूर्णतया
सजग होगा। यदि
तुम इस जीवन
में पूरी
सजगता से मर
सकते हो, बेहोश
नहीं होते, जब कि तुम
मरते हो, तो
तुम रहते हो
पूरे होश में,
तुम देखते
हो मृत्यु की
प्रत्येक
अवस्था; तुम
सुनते हो हर
पगध्वनि और
तुम पूरी तरह
सजग रहते हो
कि शरीर मर
रहा है; मन
तिरोहित हो
रहा होता है
और तुम पूरी
तरह सजग रहते
हो —तब अचानक
तुम देखते हो
कि तुम शरीर
में नहीं हो
और चैतन्य ने
शरीर छोड़ दिया
है। तुम देख
सकते हो मृत
शरीर को वहा
पड़े हुए और तुम
मंडरा रहे
होते हो शरीर
के चारों ओर।
यदि
तुम सजग हो
सकते हो जब
तुम मर रहे
होते हो, तो यह बात
जन्म का एक
हिस्सा होती
है, एक
पहलू। यदि इस
एक पहलू में
तुम सजग होते
हो, तो तुम
सजग होओगे जब
कि तुम गर्भ
में उतरोगे।
संभोगरत
दंपत्ति के
चारों ओर तुम
बहोगे और तुम
संपूर्णतया
जागरूक होओगे।
तुम गर्भ में
प्रवेश करोगे पूरी
तरह जागरूक
होकर। बच्चा
गर्भ में आ
पहुंचता है, और उस छोटे —से
बीज में, पहले
बीज में ' तुम
इसके प्रति
पूरी तरह
जागरूक रहोगे
कि क्या घट
रहा है। नौ
महीने तक मां
के गर्भ में
तुम सजग रहोगे।
न ही केवल तुम
सजग रहोगे, बल्कि जब
बुद्ध जैसा
बालक मा के
गर्भ में होता
है, तो मा
की गुणवत्ता
बदल जाती है।
वह ज्यादा सजग
हो जाती है, एक प्रकाश
भीतर
प्रज्वलित
रहता है। घर
में कैसे
अंधेरा रह
सकता है? मां
तुरंत अनुभव
करती है चेतना
का परिवर्तन।
बुद्ध
की मां बनना
एक दुर्लभ
अवसर है। वह
घटना ही
रूपांतरित कर
देती है मा को।
इसके ठीक
विपरीत बात सच
है सामान्य
बालक के लिए—वह
बंधा होता है
मां के शरीर, मन, चेतना
द्वारा। वह एक
कैद होती है।
जब बुद्ध का
जन्म होता है,
जब बुद्ध की
मा गर्भवती
होती है तो
ठीक विपरीत
बात घटती है; मां हिस्सा
होती बुद्ध की
विशालतर
चेतना का।
बुद्ध उसे
घेरे रहते हैं
किसी आभा की
भांति। वह स्वप्न
देखती है
बुद्ध के।
भारत
में हमने इन
माताओं के
स्वप्नों का
हिसाब रखा है
बुद्ध की मां
के, महावीर
की मा के, और
दूसरे
तीर्थंकरों
की माताओं के स्वप्न।
हमने सचमुच
कभी कोई चिंता
नहीं की
किन्हीं दूसरे
स्वप्नों की;
हमने केवल
विश्लेषण
किया है
बुद्धों की
माताओं के
स्वप्नों का।
यही है
एकमात्र
स्वप्न—विश्लेषण
जो कि हमने
किया। यह बात
तीसरे प्रकार
के
मनोविज्ञान
का हिस्सा
होगी।
जब
किसी बुद्ध को
उत्पन्न होना
होत है, तो मां
प्रभावित
रहती है
किन्हीं
विशेष स्वप्नों
द्वारा।
क्योंकि
हजारों बार
यही स्वप्न
फिर —फिर
दोहराए जाते
हैं। इसका
अर्थ होता है
कि मां के
भीतर की बुद्ध
—चेतना एक
निश्चित घटना
निर्मित करती
है उसके मन में
और वह स्वप्न
देखने लगती है
एक विशेष आयाम
के। उदाहरण के
लिए बौद्ध
कहते हैं कि
जब कोई बुद्ध
मां के भीतर
होता है, तो
मा स्वप्न
देखती है सफेद
हाथी का। यह
एक प्रतीक है,
किसी बहुत
दुर्लभ चीज का
प्रतीक—क्योंकि
सफेद हाथी
भारत की दुर्लभतम
चीजों में से
एक चीज है, करीब—करीब
असंभव है उसे
ढूंढ निकालना।
एक दुर्लभ
प्राणी होता
है गर्भ में
और सफेद हाथी
का प्रतीक
मात्र एक
संकेत है। और स्वप्नों
की एक शृंखला
पीछे —पीछे
चली आती है।
जब
बुद्ध कहते
हैं कि जन्म
एक पीड़ा है, तो वह एक
अंतस अनुभूति
की दृष्टि है।
महावीर कहते
हैं कि जन्म
दुख है, वह
एक पीड़ा है, वह एक चोट है।
महावीर और
बुद्ध दोनों
कहते हैं कि
उत्पन्न होना
और मरना, यह
दो सब से बड़े
दुख हैं। लैंग
और फ्रायड की
बातों से इनकी
बात में ज्यादा
बल है। लेकिन
फ्रायड की
दृष्टि इसके
साथ मेल खाती
है, और यही
मेरा अपना
अनुभव भी है।
मां के
गर्भ में नौ
महीने सब से
ज्यादा
आरामदेह होते
हैं।
निस्संदेह, कुछ
दूसरे प्रसंग
आते हैं, लेकिन
अपवाद ही होते
हैं वे।
अन्यथा, वे
नौ महीने तो
बिना किसी खबर
के होते हैं, क्योंकि खबर
तो सदा बुरी
खबर ही होती
है। लगभग कुछ
नहीं घटता है।
तुम केबल बहा
करते हो अदभुत
आनंद—उल्लास
में। लेकिन
जन्म तो एक
पीड़ा है, वह
बहुत दर्द भरा
होता है। वह
बिलकुल ऐसे
होता है जैसे
कि तुम किसी
वृक्ष को धरती
में से खींचो —तो
कैसा अनुभव
करता है वृक्ष?
अब
हमारे पास
उपकरण हैं
जांच करने के
कि वृक्ष कैसा
अनुभव करता है
जब उखाड़ा जाता
है। एक बच्चा
इसी तरह अनुभव
करता है, जब वह मां से
बाहर आता है।
मां धरती होती
है और बच्चे
की जड़ें मां
में थीं अभी
तक तो, अब
वह उखड़ गया।
पीड़ा बहुत बड़ी
है। यदि तुम
विश्वास कर
सको मुझ पर, मैं कहता
हूं कि यह
पीड़ा ज्यादा
बड़ी है मृत्यु
से। मृत्यु दो
नंबर पर आती
है, जन्म
का नंबर पहला
है। और ऐसा ही
होना चाहिए
क्योंकि जन्म
संभव बनाता है
मृत्यु को।
वस्तुत: वह
दुख जो शुरू
होता है जन्म
के साथ, अत
पाता है
मृत्यु पर।
जन्म प्रारंभ
है दुख का, मृत्यु
अंत है। जन्म
को होना पड़ता
है ज्यादा
दर्द भरा—वह
है ही। और नौ
महीनों की
संपूर्ण
विश्रांति के
बाद —कोई
चिंता नहीं ' कुछ करने को
नहीं, उन
नौ महीनों के
बाद वह एक
इतना अचानक
झटका होता है
बाहर फेंके
जाने का, कि
फिर कभी इतना
अचानक झटका न
लगेगा
स्नायुतंत्र
को, कभी भी
नहीं! हर
दूसरा झटका
छोटा ही है।
यदि
तुम दिवालिए
हो जाते हो तो
तुम्हें
धक्का लगेगा, लेकिन
इसका कोई
मुकाबला नहीं
जन्म की चोट
के साथ।
तुम्हारी
पत्नी मर जाती
है तुम दुखी
होते, तुम
चीखते, तुम
रोते। लेकिन
केवल समय की
जरूरत होती है।
घाव भर जाता
है और तुम
किसी दूसरी
स्त्री के पीछे
पड़े होते हो!
तुम्हारा
बच्चा मर जाता
है, तुम
गहरी चोट
अनुभव करते हो,
उस चोट का
कुछ न कुछ सदा
मौजूद रहेगा
तुम्हारे
प्राणों में।
लेकिन जन्म की
चोट की तुलना
में तो वह कुछ
भी नहीं है, जब कि तुम
उखड़ गए होते
हो जमीन से।
तुम इस उखडाव
में जागरूक रह
सकते हो, और
केवल तभी वह
अर्थपूर्ण
होगा जिसकी
मैं बात कर
रहा हूं। इस
बात का खंडन किया
जा सकता है
बाहरी खोजों
द्वारा। मेरे
देखे यह बात
अप्रासंगिक
है, क्योंकि
जो कुछ मैं कह
रहा हूं,
मैं कह रहा
हूं मेरे अपने
जन्म के बारे
में। और यदि
तुम सचमुच ही
जानना चाहते
हो, तो
स्वयं को
तैयार कर लो
और— और ज्यादा
जागरूक होने
के लिए ताकि
जब तुम इस बार
मरो, तो
तुम मरो पूरी
जागरूकता
सहित। तब तुम
अपने आप ही
पूरी
जागरूकता लिए
पैदा होओगे।
यदि तुम
बेहोशी में
मरते हो तो
तुम बेहोश हुए
ही पैदा होते
हो। जो कुछ
घटता है
मृत्यु में
वही घटता है
जन्म में, क्योंकि
मृत्यु और कुछ
नहीं सिवाय इस
ओर की मृत्यु
के —उस ओर तो वह
जन्म है। यह
वही द्वार है।
यदि तुम द्वार
में प्रवेश
करते हो
होशपूर्वक, तो तुम
होशपूर्वक ही
द्वार से बाहर
आओगे, मृत्यु
द्वार के इस
ओर का भाग है, जन्म द्वार
के उस ओर का
भाग है।
पांचवां
प्रश्न:
अभी—
अभी पश्चिम ने
बहुत— सी
विधियां खोज
निकाली हैं
स्रोत तक लौटने
की। इन
विधियों में
एक बात समान
जान पड़ती है
वे स्वीकार
करते हैं कि
कोई व्यक्ति
स्वयं ही इन
संघातक
अनुभवों तक
नहीं लौट सकता
है। मन बहुत
ही घनचक्करी
होता है
अहंकार बहुत
जटिल है इसलिए
विश्लेषण खोज
लिए गए हैं.
जिनमें से कुछ
नाम है—
प्राइमल—
थैरेपी फिशर—
हाफमैन और
आरिका के
कर्मों को साफ
कर देने वाले
उपकरण।
आधारभूत
मुख्य बात यह
जान पड़ती है
कि आदमी अकेला
ही इस यात्रा
पर नहीं चलेगा; दूसरे की
जरूरत है—
समूह की
सक्रिय ऊर्जा
या कोई तटस्थ
मार्गदर्शक
क्या अतीत के
बारे में इतना
आत्मसजग हो
जाना जरूरी
होता है? क्या
यह स्वयं घटित
नहीं हो जाता
जैसे— जैसे
आदमी ध्यान
में ज्यादा
गहरे उतरता है?
पहली बात; अतीत में
जाने की
बिलकुल कोई
जरूरत नहीं है।
यदि तुम सचमुच
ही ध्यान करते
हो, तो हर
चीज अपने आप
ही घटित हो
जाती है।
लेकिन यदि
तुम्हारा
ध्यान ठीक से
नहीं चल रहा
होता, तब
अतीत में उतर
जाना एक बड़ी
मदद बन सकता
है। इसलिए
अतीत में चले
जाना कोई परम
आवश्यकता नहीं
है। यदि
तुम्हारा
ध्यान ठीक जम
रहा है, तो
भूल जाना इस
बारे में। यदि
तुम्हारा
ध्यान ठीक
नहीं चल रहा
है केवल तभी
यह बात
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
तब यह एक बड़ी
मदद दे सकती
है। तब यह सुलझा
देगी ध्यान की
कठिनाइयों को,
लेकिन यह एक
दोयम, एक
पूरक घटना
होती है।
प्रति—प्रसव, अतीत में
जाना एक
परिपूरक विधि
है ध्यान की।
पहले तो करना
ध्यान, यदि
वह काम कर जाए,
तो भूल जाना
अतीत को, अतीत
में जाने की
कोई जरूरत
नहीं। यदि तुम
अनुभव करते हो
कि ध्यान
कार्य नहीं कर
रहा है, कोई
चीज फिर—फिर आ
बनती है बंद
कली की भाति, गतिरोध घटता
है, कोई
बड़ा पत्थर आ
जमता है, और
तुम बढ़ नहीं
सकते, इसका
अर्थ होता है
कि तुम्हारा
अतीत बहुत बोझिल
है—तुम्हें
जरूरत पड़ेगी
प्रति—प्रसव
की। तुम्हें
जरूरत होगी
अतीत में जाने
की और साथ ही
साथ ध्यान
करते रहने की।
यदि
ध्यान ठीक काम
करता है, तो उसका
अर्थ होता है
कि तुम्हारा
अतीत बहुत बोझिल
नहीं; तुम्हारे
पास अतीत की
बाधाएं नहीं।
केवल ध्यान ही
काम कर जाएगा।
लेकिन यदि
पत्थर जमे ही
होते हैं और
ध्यान काम
नहीं कर रहा
होता है, तब,
मदद के रूप
में, प्रति—प्रसव
अदभुत है—अतीत
में जाना बहुत
जबरदस्त मदद
करता है।
यह तुम
पर निर्भर है।
पहले तो कड़ा
परिश्रम करना
ध्यान पर, हर
प्रयास कर
लेना इसे
जानने का कि
यह घट सकता है
या नहीं। यदि
तुम अनुभव
करते हो कि यह
संभव नहीं, कुछ नहीं घट
रहा है, केवल
तभी विचार
करना प्रति—प्रसव
का। यह एक
अच्छी विधि है,
लेकिन दोयम
है। यह बहुत
प्राथमिक चीज
नहीं है।
दूसरी
बात यह है कि
यह बिलकुल सच
है कि अकेले तो
तुम नहीं जा
सकते, अकेले
तुम विकसित
नहीं हो सकते।
अकेले इसमें
लाखों जन्म लग
जाएंगे किसी
खास निष्कर्ष
तक पहुंचने
में, किसी
खास अस्तित्व
तक आने में, और वह भी कोई
निश्चित नहीं।
बहुत सारे
कारणों से यह
बात संभव नहीं,
क्योंकि जो
कुछ भी तुम हो
वह एक बंद
व्यवस्था है
और व्यवस्था
स्वायत्ततापूर्ण
है, अपने
में पर्याप्त
है। वह अपने
से काम करती
है और उसकी
बहुत गहरी जड़ें
होती हैं अतीत
में।
व्यवस्था
एकदम पर्याप्त
और सक्षम है।
व्यवस्था से
बाहर आना करीब—करीब
असंभव है जब
तक कि कोई
तुम्हारी मदद
न करे। किसी
बाहरी तत्व की
जरूरत होती है
तुम्हारे पूरे
ढंग को तोड़
देने के लिए, तुम्हें
झटका देने के
लिए, तुम्हें
नींद से जगा
देने के लिए।
यह तो
बिलकुल ऐसा है
जैसे कि तुम
सोए होते—और
तुम सोए रहे
हो बहुत—बहुत
जन्मों से।
कैसे तुम
स्वयं को जगा
सकते हो? शुरुआत करने
के लिए भी
तुम्हें कम से
कम थोड़ा बहुत
तो जागे हुए
रहना होगा और
वह थोड़ा—सा भी
जागरण वहा है
नहीं। तुम
पूरी तरह सोए
हो; तुम
बेहोशी में हो।
कौन शुरू
करेगा कार्य?
कैसे जगाओगे
तुम स्वयं को?
किसी की
जरूरत होती है,
कोई जो
तुम्हें झटका
दे सके बेहोशी
से बाहर लाने
को, जो
बाहर आने में
तुम्हारी मदद
कर सके। एक
अलार्म घड़ी भी
मददगार होगी।
साधक—समूह
की जरूरत होती
है। क्योंकि
एक बार तुम
जगने लगते हो, तो सारा
अतीत तुम्हें
बेहोश अवस्था तक
लाने की कोशिश
करेगा, क्योंकि
मन कम से कम
प्रतिरोध के
मार्ग का अनुसरण
करता है। तुम
बार—बार सो
जाओगे। या तो
किसी सद्गुरु
की जरूरत होती
है, जो
तुम्हें मदद
दे सके इससे
बाहर आने में,
या फिर
खोजियों के
समूह की, यदि
कोई सद्गुरु
उपलब्ध न हो
तो, ताकि
समूह के लोग
एक—दूसरे की
मदद कर सकें।
गुरजिएफ
कहा करता था, 'यह ऐसा
है जैसे कि
तुम जंगल में
हो जंगली जानवरों
से डरे हुए, लेकिन
तुम्हारे साथ
कोई समूह है।
दस लोग मौजूद
हैं, तो
तुम एक चीज
कूर सकते जब
नौ सोए होते
हैं, एक
जागता रहता है।
यदि जंगली
जानवरों से, चोरों या
डाकुओं से कोई
खतरा होता है,
तो वह जगा
देता है
दूसरों को।
यदि वह अनुभव
करता है कि वह
सो रहा है, तो
वह जगा देता
है दूसरों को।
लेकिन एक का
होश कायम रहता
है—वही बात बन
जाती है बचाव।
यदि कोई
सद्गुरु
उपलब्ध होता
है, यदि
बुद्ध उपलब्ध
होते हैं तब
तो समूह में
कार्य करने की
कोई जरूरत ही
नहीं होती।
क्योंकि वह
जागता रहता है
चौबीसों घंटे।
यदि वह मौजूद
न हो, तो
दूसरी
संभावना है —समूह
में कार्य
करने की। कई
बार कोई आ
पहुंचता है
हल्की —सी
जागरूकता तक,
वह मदद कर
सकता है। जिस
समय वह सोने
लगता है, तो
कोई दूसरा आ
पहुंचा होता
है कुछ जागरण
तक, वह मदद
करता है, और
समूह मदद करता
है।
यह ऐसा
होता है जैसे
कि तुम कैद
में हो, तो अकेले
तुम्हारे लिए
कठिन होगा
बाहर आना क्योंकि
भारी पहरा लगा
हुआ होता है।
लेकिन यदि
सारे कैदी
इकट्ठे हो
जाते हैं और बाहर
आने का इकट्ठा
प्रयास करते
हैं, तो
पहरेदार शायद
पर्याप्त न हो
पाएं। लेकिन
यदि तुम किसी
उस व्यक्ति को
जानते हो जो
बाहर है, कैद
से बाहर है और
कोई मदद कर
सकता है, तो
सामूहिक
प्रयास की कोई
जरूरत नहीं है।
वह कोई जो
बाहर है, स्थितियां
निर्मित कर
सकता है : वह
फेंक सकता है
सीडी; वह
पहरेदार को
रिश्वत दे
सकता है; वह
पहरेदार को
बेहोश कर सकता
है; वह
बाहर रह कर
कुछ कर सकता
है, क्योंकि
वह मुक्त होता
है। वह तरीके
ढूंढ सकता है
जिससे कि तुम
बाहर आ सको।
एक
सद्गुरु उस
व्यक्ति की
भांति होता है
जो कैद से
बाहर है, उसके पास
कुछ करने के
लिए ज्यादा
स्वतंत्रता होती
है। बहुत सारी
संभावनाएं
हैं और उसके
लिए सभी खुली
हैं क्योंकि
वह मुक्त है।
यदि तुम्हारा
उस गुरु के
साथ कोई
संपर्क नहीं
जो कि मुक्त
है, कैद के
बाहर है, तब
कैदियों के
लिए एकमात्र
संभावना यही
होती है —समूह
निर्मित करने
की।
इसीलिए
पश्चिम में
बहुत प्रकार
के समूह कार्य
कर रहे हैं
आरिका के, गुरजिएफ
के, और
कइयों के समूह।
सामूहिक
चेतना पश्चिम
में और ज्यादा
महत्वपूर्ण
होती जा रही
है। यह अच्छा
है, यह
बेहतर है
महर्षि महेश
योगी से, यह
बेहतर है
बालयोगेश्वर
से, क्योंकि
ये गुरु नहीं
हैं। समूह में
कार्य करना
बेहतर है, क्योंकि
जो आदमी कहता है
कि वह बाहर हो
चुका, वह
बाहर नहीं
होता है; वह
भी भीतर होता
है। जो आदमी
कहता है कि
उसके संपर्क
बाहर हैं, उसके
कोई संपर्क
नहीं होते हैं
बाहर। वह तो
बस तुम्हें
धोखा दे रहा
होता है।
पश्चिम में
केवल एक ही
व्यक्ति है
पूरब का, और
वह है
कृष्णमूर्ति।
यदि तुम कृष्णमूर्ति
के साथ हो
सकते हो तो यह
बात मदद दे सकती
है, लेकिन
कठिन है उनके
साथ होना। वे
लोगों की मदद
करने की कोशिश
ऐसे
अप्रत्यक्ष
रूप से करते
रहे हैं कि
जिन लोगों को
मदद मिली है
वे भी कभी न
जान पाएंगे कि
वे मदद करते
रहे हैं। इस
बात ने तो
मुसीबत खड़ी कर
दी है। अन्यथा,
पश्चिम के
सारे तथाकथित
गुरु तो मात्र
विक्रेता हैं;
उनकी कोई
योग्यता नहीं
है।
यदि
तुम सद्गुरु
खोज सको, तो वह सबसे
अच्छा है, क्योंकि
समूह में भी
तुम कैदी ही
रहोगे, गहरी
नींद में पड़े
हुए। तुम कर
सकते हो कोशिश,
लेकिन
इसमें लंबा
समय लगेगा। या
यह बात बिलकुल
ही सफल न होगी,
क्योंकि
तुम सभी की
वही क्षमता
होगी, उसी
धरातल की
चेतना होगी। उदाहरण
के लिए 'आरिका'
के लोग एक
साथ काम करते
हुए उसी चेतना—तल
के लोग हैं, अंधेरे में
टटोल रहे हैं।
शायद कुछ हो
जाए, शायद
कुछ न हो। एक
बात तो
निश्चित है, और वह है कि
कुछ भी निश्चित
नहीं। मात्र
संभावना होती
है।
गुरजिएफ
मौजूद नहीं और
गुरजिएफ के
सारे समूह गुरजिएफ
से ज्यादा तो
ऑस्पेंस्की
की किताबों
द्वारा
प्रभावित हैं।
वस्तुत: सारे
समूह
ऑस्पेंस्की
के समूह हैं; वे ठीक
गुरजिएफ के
समूह की तरह
नहीं हैं। कुछ
ज्यादा की
संभावना नहीं
है। तुम बात
कर सकते हो
सिद्धांतों
की, तुम एक—दूसरे
को समझा सकते
हो। लेकिन यदि
तुम चेतना के
उसी धरातल से
संबंधित होते
हो, तो
ज्यादा
बातचीत, ज्यादा
बहस, ज्यादा
ज्ञान घटेगा
लेकिन बोध
नहीं, जागरण
नहीं। जब
गुरजिएफ
मौजूद था तो
बिलकुल ही अलग
थी बात—सद्गुरु
मौजूद था। वह
तुम्हें कैद
से बाहर ला
सकता था।
पहली
बात है गुरु
को खोज लेना
जो कि
तुम्हारी मदद
कर सकता हो।
यदि गुरु को
खोजना असंभव
है, तो
समूह का
निर्माण कर
लेना और
सामूहिक
प्रयास करना।
अकेले की तो
अल्पतम
संभावना है।
ये तीन ढंग
हैं तुम काम
करते हो अकेले,
तुम काम
करते हो समूह
के साथ या तुम
काम करते हो
गुरु के साथ।
श्रेष्ठ तो है
गुरु के साथ
काम करना, इससे
कम श्रेष्ठ
बात है समूह
के साथ काम
करना, तीसरी
है अकेले की
बात। वे लोग
भी जिन्होंने
अकेले पाया है
परम सत्य को, बहुत जन्मों
से कार्य करते
रहे हैं
गुरुओं के साथ
और समूह के
साथ। इसलिए मत
धोखा खाना
ऊपरी ढंग से।
कृष्णमूर्ति
भी कहे चले
जाते हैं कि
अकेले तुम पा
सकते हो। ऐसा
इसलिए
क्योंकि उनकी
विधि एक
अप्रत्यक्ष विधि
है। वे
तुम्हें न
जानने देंगे
कि वे मदद कर
रहे हैं, और वे तुमसे
नहीं कहेंगे,
'मुझे
समर्पण कर दो।’
पश्चिम में
इतना ज्यादा
अहंकार है और
वे सारे समय
कार्य करते
रहे हैं
पश्चिम में।
अहंकार इतना
ज्यादा है कि
वे नहीं कह
सकते, 'मुझे
समर्पण कर दो',
जैसा कि
कृष्ण ने कहा
अर्जुन से — 'हर चीज को
छोड़ मेरी शरण
आओ और मुझे
समर्पण कर दो।’
अर्जुन एक
अलग संसार का
था, पूरब
का, जो
जानता है कि समर्पण
कैसे होता है,
जो जानता है
अहंकार की
असुंदरता को
और समर्पण की
सुंदरता को।
कृष्ण कह सकते
थे ऐसा बिना
उनके किसी
अहंकार के।
ऐसा कथन बहुत
अहंकारयुक्त
जान पड़ता है '
आओ और मुझे
समर्पण कर दो।’
लेकिन
कृष्ण इसे सहज
रूप से कह सके,
और अर्जुन
ने कभी प्रश्न
नहीं उठाया कि
' आप क्यों
कहते ऐसा? क्यों
करूं मैं आपको
समर्पण? कौन
होते हो आप?' पूरब में
समर्पण
स्वीकृत था
जाने हुए
मार्ग के रूप
में। हर कोई
जानता था, इसी
समझ के साथ
बड़ा हुआ था कि
अंततः
व्यक्ति को
गुरु के पास
समर्पण करना
ही होता है।
यह बात सीधी—साफ
थी, यह
अनुकूल बैठती
थी।
कृष्णमूर्ति
ने काम किया
पश्चिम में।
वे स्वयं
विकसित हुए
गुरुओं के
द्वारा। बहुत—बहुत
गहन ढंग से
उन्हें मदद
मिली गुरुओं
से। गुरु जो
देह में थे और
गुरु जो देह
में न थे, सभी ने मदद
की उनकी, उन्होंने
विकसित होने
में उनकी मदद
की। लेकिन फिर
उन्होंने कार्य
किया पश्चिम
में और वे जान
गए, जैसे
कि कोई भी जान
ही लेगा, कि
पश्चिम
समर्पण करने
को तैयार नहीं।
इसलिए वे
कृष्ण कीं
भांति नहीं कह
सकते, ' आओ
और मुझे
समर्पण कर दो।’
पश्चिमी
अहंकार के लिए
सब से अच्छा
मार्ग है यह
कहना कि तुम
अपने से पा
सकते हो। यही
है उपाय; गुरु
के पास समर्पण
करने की कोई
जरूरत नहीं।
यही है आधार
तुम्हें
आकर्षित करने
का छ समर्पण
करने की कोई
जरूरत नहीं, तुम्हारा
अहंकार
गिराने की कोई
जरूरत नहीं, तुम बस तुम
रहो। यह है
युक्ति और लोग
फंसे इस
युक्ति में।
उन्होंने
सोचा कि
समर्पण करने
की कोई जरूरत
नहीं, कि
वे स्वयं जैसे
बने रह सकते
हैं, कि
दूसरे से
सीखने की कोई
जरूरत नहीं, केवल अपना
प्रयास ही
चाहिए।
निरंतर कई
वर्षों से वे
जा रहे हैं
कृष्णमूर्ति
के पास।
किसलिए? सीखने
को? यदि
तुम अकेले हो
सकते हो तो
क्यों जाते हो
कृष्णमूर्ति
के पास? एक
बार तुमने सुन
लिया कि वे
कहते हैं, ' अकेले
तुम पा सकते
हो' —तो
उनकी बात
अंतिम बन
समाप्त हो
जानी चाहिए तुम्हारे
लिए। लेकिन
तुम्हारे लिए
तो उनकी बात
अंतिम बनी ही
नहीं। वस्तुत:
अनजाने में ही
तुम बन चुके
होते हो एक अनुयायी।
बिना
तुम्हारे
जाने ही तुम
फंस चुके हो।
कहीं गहरे में,
समर्पण घट
गया है। वह
तुम्हारा
बाहरी अहंकार
बचा रहे हैं
तुम्हें गहरे
में मार देने
को। उनका ढंग
अप्रत्यक्ष
है।
लेकिन
कोई नहीं पाता
अकेले। किसी
ने कभी नहीं
पाया अकेले, क्योंकि
बहुत से
जन्मों तक इस
पर कार्य करना
होता है—मैंने
काम किया
गुरुओं के साथ,
मैंने काम
किया साधक —समूहों
के साथ; मैंने
काम किया
अकेले, लेकिन
मैं कहता हूं
तुमसे कि
अंतिम घटना
संचित परिणाम
है। अकेले काम
करना, साधक—समूह
के साथ काम
करना, गुरुओं
के साथ काम
करना, यह
एक संचित
परिणाम लाता
है। अकेले
होने पर जोर
मत देना, क्योंकि
वह जोर देना
ही एक बाधा बन
जाएगा।
समूहों को
खोजो। और यदि
तुम गुरु खोज
सको, तो
तुम धन्यभागी
हो। वह अवसर
चूकना मत।
छठवां
प्रश्न:
क्या
प्रति— प्रसव
पीछे जाने की
प्रक्रिया
फिर से जीने
की बजाय
अनसीखा करने
की हो सकती है?
वे दोनों
एक ही हैं जब
तुम फिर से
जीते हो, तो तुम
अनसीखा कर
देते हो। फिर
से जीना एक
प्रक्रिया है
भुला देने की।
जो कुछ तुम
फिर से जीते, तुम्हारे
पास से गायब
हो जाता है, वह भुलाया
जा चुका होता
है; वह कोई
निशान नहीं
छोड़ता, स्लेट
साफ हो जाती
है। तुम इसे
अनसीखा करने
की प्रक्रिया
कह सकते हो।
यह एक ही बात
है।
सातवां
प्रश्न:
पतंजलि
के अनुसार यदि
अच्छा और बुरा
स्वप्नवत
होता है तो
कर्म का
सिद्धांत
कैसे
अस्तित्व रख
सकता है?
क्योंकि तुम
स्वप्नों में
विश्वास रखते
हो, तुम
विश्वास करते
हो कि वे सच
हैं। कर्मों
का अस्तित्व
होता है
तुम्हारे
विश्वास के
कारण। उदाहरण
के लिए, रात
में तुम्हें
स्वप्न आया छ
कोई बैठा हुआ
था तुम्हारे
शरीर पर अपने
हाथ में छुरा
लिए हुए और तुम्हें
लग रहा था कि
तुम्हें मार
दिया गया, और
तुमने कितनी—कितनी
कोशिश की इस
स्थिति से बच
निकलने की, लेकिन ऐसा
कठिन था। फिर
भय के कारण ही
तुम जाग गए।
तुम जानते हो
अब कि यह स्वप्न
था, लेकिन
शरीर अभी भी
थोड़ा कंपता
रहता है; पसीना
छूट रहा होता
है। तुम अभी
भी भयभीत होते
हो और तुम
जानते हो कि यह
तो केवल
स्वप्न था,
लेकिन
तुम्हारा सास
लेना अभी भी
सरल और स्वाभाविक
नहीं है।
उसमें कुछ
मिनट लगेंगे।
करा पर! जाता
है? दुखस्वप्न
में तुमने मान
लिया था कि वह
सच है। जब तुम
मान लेते हो
कि वह सच है, तो वह
तुम्हें
प्रभावित
करता है
वास्तविकता
की भांति।
कर्म स्वप्न—सदृश
होते हैं।
तुमने किसी का
खून कर दिया
तुम्हारे
पिछले जन्म
में, वह
बात एक स्वप्न
है, क्योंकि
पूरब में सारा
जीवन ही माना
जाता है
स्वप्न की
भांति—अच्छे,
बुरे, सभी
स्वप्न।
लेकिन तुम तो
मानते हो कि
वह सच था, इसलिए
तुम पाओगे
पीड़ा। यदि तुम
बिलकुल अभी
समझ सकते हो
कि जो कुछ घटित
हुआ वह सब
सपना था, जो
घट रहा है सब
सपना है, और
जो सब घटने
वाला है वह
सपना है, केवल
तुम्हारी
चेतना सत्य है,
हर चीज जो
घटती है वह
सपना है, देखना
सपना है, केवल
द्रष्टा ही सच
है, तब
अचानक सारे
कर्म धुल जाते
हैं। तब कोई
जरूरत नहीं
रहती प्रति—प्रसव
की प्रक्रिया
में उतरने की।
वे बिलकुल धुल
ही जाते हैं।
अचानक तुम
उनसे बाहर आ
जाते हो। यही
है वेदांत की
विधि, जिसमें
शंकराचार्य
जोर देते हैं
कि सारा जीवन
ही एक स्वप्न
है। आग्रह
इसलिए नहीं है
कि वे एक
दार्शनिक हैं—वे
नहीं हैं
दार्शनिक। जब
वे कहते हैं
कि संसार माया
है तो यह बात
कोई दर्शन का सिद्धांत
नहीं होती, यह कोई
आध्यात्मिक
बात नहीं होती।
यह एक विधि है।
यह एक समझ है।
यदि तुम किसी
चीज में
विश्वास करते
हो तो वह
वास्तविक बात
की भांति
तुम्हें
प्रभावित
करती है, तुम्हारा
विश्वास उसे
बना देता है
वास्तविक।
यदि तुम मानते
हो कि वह सच
नहीं है, तो
वह तुम्हें
प्रभावित
नहीं कर सकती।
उदाहरण
के लिए तुम
बैठे होते हो
अंधेरे कमरे में
और अचानक तुम
कोई चीज देखते
हो कमरे में।
तुम्हें लगता
है वह सांप है—
भय होता है, आतंक
होता है। तुम
बिजली जला
देते हो, लेकिन
वहां तो कुछ
भी नहीं, मात्र
एक टुकड़ा है
अखबार का, जो
कि हिला —था
हवा से। और
तुम्हें लगा
कि कोई सांप
चल रहा था।
तुम्हें लगा
कि वह सच था, और तुम्हारे
मानने ने उसे
सच बना दिया—उतना
ही वास्तविक
जितना कोई
वास्तविक
सांप होता है,
और तुम उसके
द्वारा
प्रभावित हो
गए। इसके ठीक
विपरीत
अवस्था को
सोचो, अगली
रात वहा सचमुच
का सांप है और
तुम अंधेरे में
बैठे हुए हो।
तुम देखते हो
किसी चीज को
चलते हुए और
तुम सोचते हो
कि फिर जरूर
वैसा ही अखबार
का पन्ना होगा,
और तुम
भयभीत नहीं
होते, तुम
पर असर नहीं
होता। तुम
बैठे ही रहते
जैसे कि इसमें
तो कुछ है ही नहीं।
वास्तविकता
तुम्हें
प्रभावित
नहीं करती।
सवाल 'वास्तविकता'
का नहीं है।
विश्वास उसे
बना देता है
वास्तविक, विश्वास
तुम्हें
प्रभावित
करता है।
जितने ज्यादा
तुम सजग होते
हो, उतना
ज्यादा जान
पड़ेगा जीवन
स्वप्न की
भांति, जब
कोई चीज
तुम्हें
प्रभावित 'नहीं
करती।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन
से कहते हैं
गीता में, 'तुम
चिंता मत करो,
तुम मारो।
यह तो सब
स्वप्न है।’ अर्जुन
भयभीत था, क्योंकि
उसने सोचा— कि
ये लोग जो
सामने खड़े हैं
शत्रु हैं, वे वास्तविक
हैं। उन्हें
मारना पाप
होगा और लाखों
को मारना—कितना
ज्यादा पाप
चढ़ेगा उस पर!
और कैसे वह
इसका संतुलन
ठीक कर पाएगा
अच्छाई कर—कर
के? यह तो
असंभव होगा।
उसने कहा
कृष्ण से, 'मैं
भाग जाना
चाहता हूं
जंगलों में। यह
लड़ाई मेरे लिए
नहीं है। यह
युद्ध पाप से
बहुत ज्यादा
भरा लगता है।’
कृष्ण जोर
देते ही गए, 'तुम चिंता
मत करो, कोई
मरता नहीं है
क्योंकि
आत्मा अनश्वर
है। केवल शरीर
मरता है लेकिन
शरीर तो पहले
से मरा होता
है, इसलिए
बहुत ज्यादा
अशांत मत होओ।
यह सब स्वप्न जैसा
है; और यदि
तुम इन लोगों
को न भी मारो, फिर भी वे मर
ही जाएंगे।
वस्तुत: उनकी
मृत्यु की घड़ी
आ पहुंची है
और तुम्हें तो
बस मदद ही
करनी है इसमें।
तुम नहीं मार
रहे हो उन्हें।
तुम इसे मानो
स्वप्न की
भांति। तुम
इसे सच नहीं
मानो।’
यही है वेदांत
का सारा
दृष्टिकोण। वेदांत
एक विधि है
जिसमें धीरे —
धीरे तुम सजग
होते हो जीवन
की स्वप्न
जैसी गुणवत्ता
के प्रति। एक
बार उस
अनुभूति के
साथ तुम्हारा
तालमेल बैठ
जाता है तो
सारे कर्म
समाप्त हो
जाते हैं। जो
कुछ तुमने
किया, वह
कोई अर्थ नहीं
बनाता। यदि
रात में तुम
चोर थे या
खूनी, रात
तुम मुनि थे, संत थे, तो
सुबह क्या
इससे कुछ अंतर
पड़ेगा? या स्वप्न
यह था कि तुम
पापी थे; और
स्वप्न यह
था कि तुम
पुण्यात्मा
संत थे —क्या
इससे कुछ अंतर
पड़ेगा? स्वप्न
तो सभी स्वप्न
होते हैं। संत
या पापी दोनों
स्वप्न हैं।
सुबह दोनों ही
तिरोहित होते
हैं, कहीं
खो गए होते
हैं। तुम
अच्छे स्वप्न
और बुरे स्वप्न
के बीच कोई
भेद नहीं कर
सकते, क्योंकि
अच्छी होने या
बुरी होने के
लिए चीज के
वास्तविक
होने की
आवश्यकता
होती है। भेद
की कोई
आवश्यकता भी
नहीं यदि तुम
जिंदगी को देख
सकते हो, उस
पर ध्यान दे
सकते हो, उसे
समझ सकते हो, और जान सकते
हो कि यह बड़ा
सपना है जो
चलता चला जा
रहा है। केवल
द्रष्टा ही
सत्य होता है,
और वह सब जो
दिखाई देता है
वह स्वप्न है।
अचानक
तुम सजग हो
जाते हो और
सारा संसार खो
जाता है ऐसा
नहीं है कि
तुम तिरोहित
हो जाओगे या कि
मैं तिरोहित
हो जाऊंगा, लेकिन वह
संसार जिसे
तुम जानते थे,
तिरोहित हो
जाता है। एक
बिलकुल ही अलग
सत्य उदघटित
होता है। वह
सत्य है
ब्रह्म।
आज
इतना ही।
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