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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषद--प्रवचन--116

संत स्वयं को प्रेम करते हैं—(प्रवचन—एकसौसौहलवां)
अध्याय 72
दंड (1)

जब लोगों को बल का भय नहीं रहता,
तब, जैसा आम चलन है,
उन पर महाबल उतरता है।
उनके निवास-गृहों की निंदा मत करो,
उनकी संतति का तिरस्कार मत करो।
क्योंकि तुम उनका तिरस्कार नहीं करते,
इसलिए तुम खुद भी तिरस्कृत नहीं होओगे।
इसलिए संत अपने को जानते हैं, पर दिखाते नहीं,
वे अपने को प्रेम करते हैं, पर उछालते नहीं।
इसलिए एक को, शक्ति को, वे अस्वीकार करते हैं,
और दूसरे को, कुलीनता को, स्वीकार करते हैं।

नुष्य दो प्रकार के हैं। एक वे जो अंधेरे में जीते हैं और दूसरे वे जो आलोक में जीते हैं।
अंधेरे में जीने वाले को स्वयं का कोई पता नहीं। और जिसे स्वयं का पता नहीं है उसे दूसरों का क्या पता हो सकता है। उसका सारा जीवन ही एक गहन भ्रांति होता है। उसका जीवन ऐसा है जैसा एक सपना, जो निद्रा में देखा गया है और जागने पर जिसकी धूल भी हाथ में नहीं आती।
जो आलोक में जीता है--आलोक का अर्थ ही है कि वह स्वयं के प्रकाश को उपलब्ध हुआ--वह अपने को भी देखता है, दूसरे को भी देखता है। उसका जीवन आंख वाले का जीवन है, जाग्रत का जीवन है। उसके जीवन में ही सत्य की प्रतीति होती है।
जो अंधेरे में जीता है उसका सारा जीवन भय की एक लंबी कथा होगी। वह भयभीत ही जीएगा। कारण स्पष्ट है। जिसे अपना पता नहीं वह कंपता ही रहेगा। उसके पास खड़े होने की जगह नहीं। और उसे खुद का भरोसा नहीं है। उसे यह भी भरोसा नहीं है कि वह है भी या नहीं। उसे यह भी पक्का पता नहीं है--कहां से आता है, कहां जाता है। कुछ सूझ-बूझ नहीं पड़ता; अंधेरे में टटोलता है। अंधे आदमी की तरह कोशिश करता है कि मार्ग को खोज ले। लेकिन सिवाय भटकन के और कुछ हाथ लगता नहीं।
अंधेरे में जीने वाला आदमी जीवन भर भयाक्रांत जीता है। यह उसका लक्षण है। हर चीज भय से ही उठती है उसके भीतर। अगर वह धन कमाता है तो भय के कारण; शायद धन से सुरक्षा मिल जाए। अगर वह नैतिक आचरण करता है तो भय के कारण कि शायद नीति कवच बन जाए। अगर वह मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है तो भय के कारण कि शायद परमात्मा का सहारा मिल जाए। भयभीत आदमी का परमात्मा भी भय का ही एक रूप होता है। उसका भगवान उसके भय से ही जन्मता है। वह उसका अनुभव नहीं है; वह उसके भय का प्रक्षेपण है। मानता है परमात्मा को, क्योंकि बिना माने और भी भयभीत होगा। विश्वास से थोड़ा सा भय को सहारा मिलता है, थोड़ी सांत्वना मिलती है। रात अंधेरी भला हो, लेकिन कोई ऊपर बैठा है जो देखता है। कितनी ही जीवन में अर्थहीनता हो, लेकिन अंततः किसी परमात्मा ने सृष्टि को बनाया है; जरूर कोई अर्थ होगा। और मुझे पता न हो, लेकिन उसे पता है। मैं भटकूं, लेकिन अगर उसकी शरण गया तो वह मुझे उठा लेगा। ऐसा भयभीत आदमी सोचता है।
मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे ऐसे भयभीत आदमियों से भरे हुए हैं। वस्तुतः भयभीत आदमी ही वहां जाता है। अंधे ही वहां इकट्ठे होते हैं। अमावस की गहरी रात में ही तुम्हारे सारे तीर्थों का जन्म है। तुम्हारी पूजा, तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारी स्तुतियों की विधियां, गौर से देखना, तुम्हारे भय से उठी हैं। तुम डर रहे हो। तुम कंप रहे हो। वह कंपन ही तुम प्रार्थना बना लेते हो। उसी कंपन से ओंकार का नाद उठ रहा है। ऐसे ही जैसे अंधेरी रात में कोई आदमी एकांत गली से गुजरता है, जोर से गीत गुनगुनाने लगता है। जिसने कभी गीत न गाया उसको भी अंधेरे में गीत गाने का खयाल आता है। क्या होगा कारण? अपनी ही आवाज को सुन कर लगता है, अकेला नहीं हूं। जोर से अपनी ही आवाज की गूंज में अंधेरे और स्वयं के बीच एक पर्दा खड़ा हो जाता है। गुनगुनाहट हिम्मत दे देती है। कदमों में बल आ जाता है। पर यह सब गुनगुनाहट, यह सब बल उठ रहा है भय से।
भय से कहीं शक्ति का जन्म हुआ है? इसलिए तो सारा धर्म करीब-करीब व्यर्थ चला जाता है। क्योंकि सारा धर्म मनुष्य के भय से जुड़ जाता है।
यह जो भयभीत आदमी है इसकी मनस-दशा को ठीक से समझ लेना चाहिए, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तुम्हारी मनस-दशा भी इसी भयभीत आदमी की मनस-दशा होगी। और तुमने अगर इसे ठीक से न समझा तो तुम दूसरी तरह के आदमी कभी भी न बन सकोगे। इस भयभीत आदमी को न तो प्रेम का कोई उपाय है, न प्रार्थना का। क्योंकि प्रेम तो तभी जन्मता है जब भय समाप्त हो जाता है। और प्रार्थना तो अभय में पैदा होती है। अभय की भूमि चाहिए, तभी प्रार्थना का बीज खिलता है। और अभय से उठे स्वर ही परमात्मा तक पहुंचते हैं।
भयभीत आदमी क्यों भयभीत है? उसके भय का मूल कारण क्या है?
मूल कारण है: अमावस की अंधेरी रात में, आत्म-अज्ञान की अंधेरी रात में मौत ही सत्य मालूम होती है, जीवन सत्य मालूम नहीं होता। मौत प्रतिपल आती मालूम होती है, और जीवन तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। जीवन के नाम पर तो आपाधापी मालूम होती है, व्यर्थ की दौड़ मालूम होती है, जिसका कोई प्रयोजन, जिसका कोई अर्थ कहीं दिखाई नहीं पड़ता। और मृत्यु प्रतिपल आती मालूम पड़ती है, हर क्षण उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है। जगह-जगह वही द्वार पर दस्तक देती है। अंधेरी रात में तुम क्यों डर जाते हो? मौत मालूम होने लगती है सब तरफ छिपी हुई; कहीं पत्ता भी हिलता है तो लगता है मौत के चरण पड़ रहे हैं। हवा का झोंका द्वार को खटखटाता है, लगता है, मौत ने दस्तक दी।
जैसी अंधेरी रात में दशा होती है, उससे भी भयंकर दशा आत्म-अज्ञान की है। क्योंकि अंधेरी रात का अंधेरा तो बाहर है, आत्म-अज्ञान का अंधेरा भीतर है। भीतर का अंधेरा बहुत गहन है। भयभीत, अंधेरे में डूबा आदमी मौत को ही सच मानता है, जीवन को नहीं। जीवन तो अभी आया, अभी गया। जीवन तो ऐसा है, अंधेरी रात में जैसे जुगनू की चमक; हुई कि न हुई। और इस जुगनू की चमक का उपयोग भी क्या करोगे? उस जुगनू की चमक में जी तो नहीं सकते। उस जुगनू की चमक से कोई प्रकाश तो नहीं हो सकता, कोई रास्ता तो दिखाई नहीं पड़ सकता। वस्तुतः जुगनू की चमक के बाद रात का अंधेरा और घना हो जाता है। ऐसा ही अंधेरे में जीने वाले आदमी का जीवन है--जुगनू की चमक की भांति। अंधेरा भयंकर है, और जीवन बस जुगनू जैसा है। मौत व्यापक है, विराट है, और जीवन बस जरा सी चहल-पहल है। फिर मौत आएगी, पर्दा गिरेगा, सब मिट्टी में मिट्टी मिल जाएगी।
घबड़ाहट स्वाभाविक है। अगर तुम मिट्टी से ही बने हो तो अभय हो भी कैसे सकता है? अगर तुम मिट्टी के ही पुतले हो और अभी तभी गिरे। जरा सी वर्षा आएगी और रंग-रोगन बह जाएगा। और जरा सा झोंका आएगा और तुम्हारा भवन गिर जाएगा। जरा सी देर की बात और है, और तुम कब्र पर पहुंच जाओगे; जिन्हें तुमने अपना कहा था वे ही तुम्हें चिता पर जला आएंगे। बस जरा सी देर और है। इस जरा सी देर को कोई कैसे जीवन माने? इस जरा सी देर के कारण ही कोई कैसे आश्वस्त हो? यह थोड़ा सा जो क्षणभंगुर जीवन है बुलबुले जैसा, इससे कैसे कोई भरोसा करे? डर स्वाभाविक है।
आलोक में जीने वाले आदमी का जीवन बिलकुल भिन्न है। जिसने स्वयं को जाना उसने एक बात जानी कि मौत झूठ है, जीवन सत्य है। जिसने स्वयं को पहचाना, उसे पता चला, मैं तो अमृत हूं। मृत्यु न तो कभी हुई है और न कभी हो सकेगी। मृत्यु सबसे ज्यादा असंभव घटना है जो कभी हुई नहीं, कभी होगी भी नहीं; जिसका होना हो ही नहीं सकता। जो है वह मिट कैसे सकता है? रूप बदलते होंगे, वस्त्र बदलते होंगे, घर बदलते होंगे, यात्रा नये आयाम लेती होगी; लेकिन जो है वह सदा है, शाश्वत है।
पर यह तो दिखता है आलोक में। जैसे ही यह दिखाई पड़ता है कि मृत्यु नहीं है, भय विसर्जित हो जाता है। और तभी उठती है प्रार्थना। तब उस प्रार्थना में मांग नहीं होती। तब उस प्रार्थना में अनंत धन्यवाद होता है। और तभी जुड़ते हैं हाथ। लेकिन तब किसी तीर्थयात्रा पर जाने की जरूरत नहीं होती। तुम जहां हो, तुम जैसे हो, वहीं चारों तरफ तीर्थ हो जाता है। सारा अस्तित्व तीर्थ हो जाता है; क्योंकि सब तरफ उसी अमृत की धुन बज रही है। जो तुम्हारे भीतर जागा है, आज तुम पाते हो इस जागरण के क्षण में कि सभी जगह वही जागा हुआ है। पत्ते-पत्ते में, पत्थर-पत्थर में वही झांक रहा है। जो अमृत धुन तुम्हारे भीतर बजी है वही धुन सारे लोक-लोकांतर में बज रही है। चांदत्तारों में भी उसी की गूंज है। नदी-झरनों में भी उसी का गीत है। पशु-पक्षियों में भी उसी के बोल हैं।
जिस दिन तुम अपने को पहचान लेते हो, अचानक तुम सारे अस्तित्व को पहचान लेते हो। उस पहचान से भय तो विसर्जित हो जाता है और जन्म होता है प्रेम का। अज्ञान के साथ भय है, ज्ञान के साथ प्रेम है। और दुनिया में दो तरह के आदमी हैं। एक जो भय के आधार से जीते हैं। वे जीते क्या हैं, उनका जीना नाम मात्र को है। और दूसरे जो प्रेम के आधार से जीते हैं। उनका ही जीवन है। भय से तो केवल लोग मरते हैं, बार-बार मरते हैं। कहावत है, कायर हजार बार मरता है। हजार भी कम है। कायर प्रतिपल मरता है, क्योंकि मौत हर घड़ी मालूम पड़ती है। सब तरफ मौत ही दिखाई पड़ती है। कायर मरा हुआ ही जीता है। सिर्फ ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति एक बार मरता है; कायर हजार बार मरता है।
ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति एक बार मरता है। वह मरण भी बड़ा अनूठा है। वही मरण तो रूपांतरण है भय से प्रेम में। वही मरण तो रूपांतरण है अंधकार से प्रकाश में। वही मरण क्रांति है। उसी को हम समाधि कहते हैं। पुराना मर जाता है; नये का जन्म होता है। और ऐसे नये का जन्म होता है जो फिर कभी पुराना नहीं पड़ता। क्योंकि जो पुराना पड़ जाए वह नया है ही नहीं; जो आज नया है, कल पुराना पड़ जाएगा। वह आज भी क्या खाक नया था जिसको थोड़ा सा समय पुराना कर देगा? ऐसे नये का जन्म होता है जो सनातन, शाश्वत नया है; जो फिर कभी पुराना नहीं पड़ता। उसी को हम धर्म की भाषा में परमात्मा कहते हैं।
मनुष्य मिट जाता है और परमात्मा का जन्म होता है। तुम जैसे हो वैसे खो जाते हो; तुम जैसे होने चाहिए उसका जन्म होता है। तुम तो बिलकुल विलीन हो जाते हो अंधकार के साथ ही, क्योंकि तुम अंधकार की ही कृति थे। तुम अंधकार में ही बने थे; तुमने अंधकार में ही अपने को सम्हाला था; अंधकार ही तुम्हारी ईंट थी जिससे तुम्हारे जीवन का भवन बना था। मौत के आधार पर तुमने नींव रखी थी। जैसे ही तुम प्रकाश में आते हो वह सब व्यर्थ हो जाता है। तुम्हारी नींव, तुम्हारा भवन, तुम्हारा जीवन, तुम्हारी नीति, तुम्हारा आचरण, सब व्यर्थ हो जाता है। वह अंधकार के साथ ही गिर जाता है। जैसे सुबह जाग कर सपना गिर जाता है, ऐसे ही प्रकाश में उठ कर अंधकार और अंधकार का जीवन गिर जाता है।
ये दो प्रकार के मनुष्य हैं। और तुम ठीक से अपने को पहचान लेना कि तुम किस प्रकार के हो। तुम्हारा अहंकार तो कहेगा कि तुम दूसरे प्रकार के हो। और तुम्हारी असलियत को अगर तुम देखोगे तो तुम पाओगे कि तुम पहले प्रकार के हो। और अगर तुमने धोखा दे लिया कि तुम दूसरे प्रकार के हो तो तुम दूसरे प्रकार के कभी भी न हो पाओगे। इसी को लाओत्से ने मानसिक रुग्णता कहा है।
जो तुम हो वैसा ही अगर अपने को तुमने जाना तो क्रांति शुरू हो गई। अगर तुम यह भी पहचान लो कि तुम भय से भरे हुए व्यक्ति हो, इतना बोध भी भय के बाहर जाने के लिए पहला कदम हो गया। अगर तुम यह पहचान लो कि तुम मंदिर भय के कारण जाते हो तो व्यर्थ ही जाते हो, क्योंकि भय से तो परमात्मा का कोई संबंध नहीं जुड़ता। तुम अगर प्रार्थना भय के कारण करते हो तो जिससे तुम भय के कारण प्रार्थना करते हो उसे तुम प्रेम नहीं कर सकते। भय से कहीं प्रेम उपजा है? भय से घृणा पैदा हो सकती है, प्रेम नहीं। जिससे तुम भयभीत हो वह दुश्मन मालूम होता है, मित्र नहीं। डर के कारण भला तुम उसकी खुशामद करो। तो तुम्हारी स्तुतियां परमात्मा की खुशामद से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन अगर तुम गहरे में झांकोगे तो अपने ही भीतर तुम परमात्मा के प्रति विरोध पाओगे। क्योंकि जो तुम्हें डरा रहा है उसे तुम प्रेम कैसे कर सकते हो!
एक शब्द है, धार्मिक लोगों के लिए उपयोग में आता है: ईश्वर-भीरु, गॉड-फियरिंग। इससे गलत कोई शब्द नहीं हो सकता। धार्मिक आदमी को हम कहते हैं ईश्वर-भीरु, ईश्वर से डरा हुआ।
धार्मिक आदमी डरा हुआ होता ही नहीं; ईश्वर से तो बिलकुल ही नहीं। ईश्वर से और भयभीत? तो फिर तुम अभय कहां पाओगे? फिर तो कोई शरण न रही। अगर ईश्वर भी डराता है तो फिर तो इस जगत में कोई उपाय न रहा कि तुम अभय को उपलब्ध हो जाओ। फिर क्या शैतान की शरण जाकर तुम अभय को उपलब्ध होओगे? अगर ईश्वर से भी भय है, तब तुम बचोगे कहां? तुम कहां छिपाओगे अपना सिर?
नहीं, ईश्वर-भीरु शब्द एकांत रूप से गलत है, पूर्ण रूप से गलत है। धार्मिक व्यक्ति भीरु नहीं होता, अधार्मिक व्यक्ति भीरु होता है। हालांकि अधार्मिक व्यक्ति भी प्रार्थना-पूजा करता मिल जाएगा। अक्सर तो यह होगा कि अधार्मिक ही पूजा-प्रार्थना करता मिलेगा, क्योंकि वह भयभीत है। अपने भय को मिटाने के लिए उसे कुछ उपाय करना जरूरी है। वह कंप रहा है, उसे सहारा लेना जरूरी है। धार्मिक व्यक्ति का पूरा जीवन प्रार्थना होता है। वह प्रार्थना करता नहीं; उसका होने का ढंग प्रार्थना है। वह मंदिरों-मस्जिदों में नहीं जाता; वह जहां भी जीता है वहीं मंदिर-मस्जिद बन जाते हैं। उसके होने में छिपा है उसका राज। उसके उठने-बैठने में, उसकी धड़कन-धड़कन में, उसकी श्वास-श्वास में प्रार्थना छिपी है। शब्दों से वह कहे, न कहे। और शब्दों से कहने को है क्या?
परमात्मा से जब तुम शब्दों में बात करने लगते हो तभी तुम चूक जाते हो। क्योंकि परमात्मा की भाषा शब्द नहीं है। परमात्मा की भाषा मौन है। जब तुम कुछ कहते हो तब तुम यह मान ही लेते हो कि परमात्मा को भी तुम्हारे सलाह की, तुम्हारे कहने की जरूरत है। तुम कहोगे तब उसे पता चलेगा? तुम उसे इतना अज्ञानी मान रहे हो? अस्तित्व को तुम्हारा पता नहीं है? तुम कहोगे तब, निवेदन करोगे तब। और क्या तुम निवेदन करोगे तुम्हारे अज्ञान में? क्या तुम मांगोगे? जो तुम मांगोगे वह जहर होगा। जो भी तुम मांगोगे, मांग कर उलझोगे, मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि मांग उठेगी तुम्हारे अंधकार से; मांग उठेगी तुम्हारे अज्ञान से।
तो प्रार्थना न तो मांग है, प्रार्थना न तो शब्द है, न निवेदन है; प्रार्थना तो हृदय की एक भाव-दशा है। प्रार्थना तो होने की एक शैली है। उसके लिए कोई मंदिर-मस्जिद, कोई तीर्थ आवश्यक नहीं। उसके लिए तो तुम्हें अपने को बदलना होगा। ये तो उन आदमियों की तरकीबें हैं--तीर्थ, मंदिर, मस्जिद--जो अपने को नहीं बदलना चाहते। जो अंतर्यात्रा पर जाने को राजी नहीं हैं वे तीर्थयात्रा पर निकल जाते हैं।
तीर्थयात्रा पलायन है। जाना था भीतर, चल दिए काशी, काबा, कैलाश। इस तरह अपने को भ्रांति हो जाती है कि बड़ा कृत्य कर रहे हैं, धर्मयात्रा हो रही है। जाना था स्वयं में। स्वयं तो यहीं मौजूद था। तीर्थ में पहुंच कर स्वयं का होना ज्यादा नहीं हो जाएगा। इतना ही रहेगा जितना यहां है। और अगर भीतर मुड़ना था तो यहां भी मुड़ सकते थे; कहीं भी मुड़ सकते थे। भीतर के मुड़ने का स्थानों से कोई संबंध, लेन-देन नहीं है। ऐसा नहीं है कि पृथ्वी पर कुछ स्थान हैं जहां भीतर मुड़ना आसान है। मनोदशाएं हैं जहां भीतर मुड़ना आसान है, स्थान नहीं। और मनोदशाएं तुम्हारे हाथ की बात है।
इस बात को ठीक से समझ लो, भय में कोई धार्मिक नहीं हो सकता और भय में कोई आस्तिक नहीं हो सकता। भय में जो आस्तिकता है वह झूठी है, वह खोटा सिक्का है। उसे तुम यहां भला चला लो, यहां भला लोगों को तुम धोखा दे लो, क्योंकि लोग भी तुम जैसे ही अंधकार में हैं, कुछ अड़चन नहीं है उनको धोखा देने में; लेकिन तुम परमात्मा को धोखा न दे पाओगे, तुम समग्र को धोखा न दे पाओगे। तुम्हें भय के बाहर आना होगा।
इस भय के कारण ही तुम्हारा धर्म, तुम्हारा समाज, तुम्हारी सभ्यता, तुम्हारी संस्कृति, सब भय-आधारित हो गए हैं। राज्य भी तुम्हें डराता है; तभी तुम्हें काबू में रख पाता है। धर्मगुरु भी तुम्हें डराते हैं; तभी तुम्हें काबू में रख पाते हैं। तुम जहां जाओ वहीं तुम्हारे लिए दंड का विधान है। तुम इतने भयभीत हो कि तुम एक ही भाषा समझते हो जो दंड की है, या पुरस्कार की है, वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
छोटे बच्चे और बड़े-बूढ़ों में कोई फर्क मालूम नहीं होता, कोई विकास होता नहीं दिखाई पड़ता। छोटे बच्चे को स्कूल में हम डराते हैं कि पिटेगा, मारा जाएगा, दंड दिया जाएगा, अगर ठीक व्यवहार न किया। और अगर ठीक व्यवहार किया तो पुरस्कृत किया जाएगा, मिठाइयां भेंट मिलेंगी। वही खेल जारी है बूढ़े आदमी को भी। अगर ठीक से जीए तो स्वर्ग, अगर जरा गैर-ठीक जीए कि नरक। बच्चों में और बूढ़ों में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता। वही भय और प्रलोभन का जाल है। राज्य भी वही करता है। अगर ठीक-ठीक व्यवहार किया तो भारत-रत्न बन जाओगे; अगर ठीक व्यवहार न किया तो कारागृह में सड़ोगे। नीति भी वही: ठीक व्यवहार किया तो समाज सिर आंखों पर ले लेगा; अगर जरा समाज की लीक से यहां-वहां हटे कि निंदा के स्वर गूंज उठेंगे, आंखों में सब तरफ तुम्हें अपमान ही दिखाई पड़ेगा, सम्मान खो जाएगा। यह भयभीत आदमी के कारण राज्य भी, धर्म भी, नीति भी, सब भयभीत आदमी को सम्हालने के लिए भय से भर गए हैं।
जो आदमी प्रेम को उपलब्ध होता है--और प्रेम को उपलब्ध आदमी ही संतत्व को उपलब्ध होता है--वह भय से नहीं जीता; न भय के आधार से उसकी नीति होती है। तुम अगर दान देते हो तो भय के कारण कि नरक जाने से बच जाओ, कि स्वर्ग का पुरस्कार मिले। प्रेम से भरा हुआ आदमी देता है, क्योंकि देने में आनंद है; देने के बाहर और कोई उपलब्धि नहीं है। देता है, क्योंकि देना इतनी अदभुत मनोस्थिति है, देने में ऐसे फूल खिल जाते हैं भीतर आत्मा में जो और किसी तरह नहीं खिलते, देने के क्षण में ऐसी वीणा बजने लगती है हृदय में जो और कभी नहीं बजती। देने के बाहर कोई पुरस्कार नहीं है; देने में ही पुरस्कार है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लो, क्योंकि तुम्हारे भय के कारण सब सिद्धांत विकृत हो गए हैं। तुम्हें समझाया जाता रहा है कि अगर तुम अच्छा कर्म करोगे तो अगले जीवन में अच्छा जीवन पाओगे; अगर बुरा कर्म करोगे तो अगले जीवन में बुरा जीवन पाओगे।
अगले जीवन तक रुकने की जरूरत क्या है? आग में हाथ अभी डालोगे, अभी जलोगे कि अगले जीवन में जलोगे? फूल को नाक के पास ले जाओगे तो नासापुट अभी गंध से भर जाएंगे कि अगले जीवन में भरेंगे? अगले जीवन तक टालने की जरूरत क्या है? यह तुम्हारा परमात्मा बड़ा उधार मालूम पड़ता है। परमात्मा तो बिलकुल नगद है; अभी है। कल तक टालने की जरूरत क्या है? अस्तित्व कुछ भी टालता नहीं। अभी तुम झाड़ से गिरोगे तो फ्रैक्चर अभी होगा कि अगले जीवन में होगा? ग्रेविटेशन का नियम अभी परिणाम दे देगा, इसी क्षण दे देगा। कौन हिसाब रखेगा इस सब का कि तुम अगले जीवन में चढ़े थे वृक्ष पर और अब इस जीवन में गिरोगे? इस जीवन में चढ़ोगे और अगले जीवन में गिरोगे, कौन यह हिसाब रखेगा? कहां यह हिसाब रहेगा?
नहीं, प्रकृति बिलकुल नगद है। तुम अभी क्रोध करो, अभी जलोगे, अभी झुलसोगे, अभी पा लोगे कष्ट। तुम अभी पुण्य करो, अभी हर्षोन्माद से भर जाओगे, अभी तुम्हारे जीवन में एक पुलक और नृत्य आ जाएगा। जीवन नगद है। लेकिन भयभीत आदमी ने उसको भी उधार करवा लिया है। क्योंकि भयभीत आदमी आज को तो मान ही नहीं सकता। भयभीत आदमी सदा यह चेष्टा कर रहा है कि आज तो गया ही उसके लिए, कल को सम्हाल ले। भयभीत आदमी को आज तो जाया हुआ मालूम पड़ता है, जा चुका; अब उस पर हाथ कहां है? कल सम्हल जाए किसी तरह।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, यह जीवन तो गया।
तुम आए कैसे अगर यह जीवन जा चुका? तुम यहां मेरे पास बैठे हो भले-चंगे, श्वास ले रहे हो, मुझे देख रहे हो, बोल रहे हो। तुम कहते हो, यह जीवन जा चुका। तुम किसको धोखा दे रहे हो? तुम कुछ भी करना नहीं चाहते, इसलिए अब तुम कह रहे हो जीवन जा चुका।
अब तो कुछ ऐसा बताएं, वे मुझसे कहते हैं, कि अगली सुधर जाए, आने वाला जीवन सुधर जाए।
भयभीत आदमी हमेशा कल की तरफ देखता है; अभय से भरा आदमी आज को जीता है। भयभीत आदमी के कारण कर्म का पूरा सिद्धांत विकृत हो गया। कर्म का सिद्धांत सीधा-साफ है कि तुम करो, तत्क्षण फल है। मैं कहता हूं, तत्क्षण! एक क्षण का भी फासला नहीं है कर्म में और फल में। हो नहीं सकता। तुम अगर दान दोगे तो अभी आनंद पा लोगे। बात चुक गई। तुम अगर चोरी करोगे तो अभी पीड़ा पा लोगे। बात चुक गई। तुम क्रोध करोगे, अभी जलोगे-झुलसोगेतुमर् ईष्या से भरोगे, अभी जहर तुम्हारे भीतर फैल जाएगा। तुम्हारा जीवन एक फफोले, फोड़े की तरह हो जाएगा। तुम मवाद से भर जाओगे अभी।
अस्तित्व नगद है, इसे बहुत खयाल में रख लेना। लेकिन तुम कहते हो कि आज क्रोध करेंगे, कल दंड मिलेगा। इससे सुविधा मिल जाती है कि कोई हर्जा नहीं, आज तो अब जो हो रहा है कर लो, कल का कल देखेंगे। और फिर पुरोहितों ने तुम्हें रास्ते भी बता दिए हैं कि अगर क्रोध हो जाए, कोई हर्जा नहीं। गंगा-स्नान कर लेना, पाप धुल जाते हैं। मंदिर में जाकर नारियल चढ़ा आना, पाप से छुटकारा हो जाएगा। इधर चोरी करना, उधर थोड़ा दान दे देना। इधर धोखा देना, उधर जाकर एक मंदिर या धर्मशाला बनवा देना।
दूसरी बात तुम खयाल ले लो: बुरे कर्म को किसी अच्छे कर्म से काटा नहीं जा सकता, न किसी अच्छे कर्म को किसी बुरे कर्म से काटा जा सकता है। अच्छे और बुरे कर्म का मिलन ही नहीं होता। वे तो रेल की पटरियों की भांति समानांतर चलते हैं; कहीं उनका कोई मिलन नहीं होता। लेकिन भयभीत आदमी ने सोच रखा है कि कर लेंगे कुछ उपाय, कुछ धोखा दे देंगे। और मिलन हो भी जाए तो कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि बुरे को करने में ही बुरे का फल मिल गया। अब करोगे क्या? भले को करने में भले का फल मिल गया। कर्म संचित नहीं होते; प्रतिपल निपट जाते हैं।
इसीलिए तो इस बात की संभावना है कि अगर तुम परिपूर्ण मन से पुकारो तो इसी क्षण मुक्त हो जाओगे। नहीं तो तत्क्षण मुक्ति का कोई अर्थ ही न रह जाएगा। कितने जन्मों से तुम जी रहे हो? कितने कर्म तुमने इकट्ठे कर लिए हैं? अगर सब का हिसाब होना है तो कोई उपाय नहीं है।
मैंने सुना है, एक ईसाई फकीर बोल रहा था। ईसाइयों की मान्यता है कि एक जजमेंट, आखिरी निर्णय का दिन होगा, कयामत का, जब सब मुर्दे उठाए जाएंगे और परमात्मा निर्णय करेगा। जब वह फकीर बोल रहा था, मुल्ला नसरुद्दीन कंप रहा था, घबड़ा रहा था। सुन रहा था उसको; वह बड़ा ही वीभत्स वर्णन कर रहा था कि कैसे-कैसे कष्ट लोगों को मिलेंगे जिन्होंने पाप किए हैं। तो हाथ-पैर भय से भी कंप रहे थे। और जीभ में लार भी आ रही थी, क्योंकि वह वर्णन कर रहा था स्वर्ग के भी--कैसे-कैसे भोग वहां मिलेंगे, कैसे-कैसे सुखों की वहां वर्षा होगी जिन्होंने पुण्य किए हैं।
फिर आखिर में मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा हुआ और उसने कहा, एक सवाल है; क्या एक ही दिन में सब निर्णय हो जाएगा? सब मुर्दों का जितने अब तक हुए? और उनके सब कर्मों का? उस आदमी ने कहा, हां। उसने कहा, एक बात और। क्या औरतें भी वहां मौजूद रहेंगी कि सिर्फ आदमी? उसने कहा, औरतें भी रहेंगी। उसने कहा कि फिर कोई फिक्र नहीं; निर्णय हो नहीं सकता। एक दिन में! सारी औरतें! वे इतना कोलाहल मचाएंगी, और इतनी बकवास करेंगी; फिर कोई डर नहीं है।
ये सारे सिद्धांत भयभीत आदमी के कारण निर्मित हो गए हैं। न कहीं कोई कयामत का दिन है। और अगर कहीं है तो वह अभी है, इसी वक्त है। निर्णय आखिर में नहीं होगा। आखिर तो है ही नहीं अस्तित्व में। न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है। यह तो अनंत धारा है। जिसका प्रारंभ नहीं है उसका अंत कैसे होगा? आखिर तो कभी आएगा ही नहीं। तो फिर हिसाब कब होगा?
हिसाब प्रतिपल होता जाता है। हिसाब करना ही नहीं पड़ता, हिसाब तो नियम से प्रतिपल हो जाता है। तुम उलटे-सीधे चलो, गिरो, पैर टूट जाता है। तुम सम्हल कर चलो, घर बिना पैर तोड़े लौट आते हो।
प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति जीवन के इस नगदपन को अनुभव कर लेता है तब फिर वह किसी भय के कारण बुराई से नहीं रुकता, न किसी लोभ के कारण भलाई करता है। वरन उसका अनुभव ही उसके जीवन की नीति हो जाती है। वह शुभ करता है, क्योंकि आनंद मिलता है शुभ करने में। करने से नहीं, करने में। और दुख मिलता है बुरा करने में; बुरा करने से नहीं। और प्रतिपल जीवन, जैसा तुम चलते हो, जैसा तुम होते हो, वैसा तुम्हें देता चला जाता है। एक अनूठी नीति का जन्म होता है प्रकाश को उपलब्ध आदमी में। वह नीति, दूसरों के साथ अच्छा करना, इस पर आधारित नहीं होती। क्योंकि प्रकाश को उपलब्ध व्यक्ति दूसरों की तरफ उन्मुख ही नहीं होता। वह नीति निर्मित होती है, क्योंकि अच्छा करने में आनंद है।
तुम्हें मैं यह बात कहूं, तुम्हें थोड़ी कठिन लगेगी, लेकिन समझने की कोशिश करना। ज्ञानी से ज्यादा स्वार्थी आदमी संसार में होता ही नहीं। स्वार्थ ही बच रहता है। लेकिन स्वार्थ शब्द बड़ा अच्छा है। उसका अर्थ होता है, स्वयं का अर्थ ही बच रहता है। शेष सब स्वार्थ से ही उठता है। परार्थ भी स्वार्थ की गंध है।
दूसरे के साथ अच्छा करो, यह बात ही गलत है। क्योंकि तुम अपने साथ अच्छा नहीं कर सके हो, दूसरे के साथ क्या खाक करोगे? तुम अभी अपने को प्रेम नहीं कर पाए, दूसरे को कैसे प्रेम करोगे? तुम अपने प्रति करुणावान नहीं हो, दूसरे के प्रति कैसे करुणावान हो जाओगे? तुम्हारे भीतर मरुस्थल है और दूसरे के लिए तुम वर्षा का मेघ बनना चाहते हो! तुम भीतर अंधेरे से भरे हो, दीया बुझा है, और दूसरों के बुझे दीयों को जलाने चले हो! तुम कृपा करना, कहीं तुम किसी का जला हुआ दीया मत बुझा देना। तुम अपने मरुस्थल को जरा दूर ही रखना। तुम भला सोचते हो दूसरे पर मेघ बना रहे हैं, तुम अपने मरुस्थल को मत दूसरे पर बरसा देना।
स्वार्थ को पहले उपलब्ध हो जाओ। पहले स्वयं का अर्थ समझ लो। पहले स्वयं में ठहर जाओ। पहले भूल जाओ सब को, ताकि तुम अपने को जान सको। और दूसरे तुम्हें बाधा न दें। एक बार तुम्हारे जीवन में स्वार्थ पूरा हो जाए, तुम अपने अर्थ को पूरा जान लो, और तुम्हारे जीवन का दीया जल जाए, फिर परार्थ तो अपने आप उठेगा।
जो प्रेम से भरा है वह प्रेम ही दे सकेगा। वह चाह कर भी घृणा नहीं दे सकता, घृणा उसके पास न रही। जो करुणा से भरा है वह करुणा ही दे सकेगा। जो है, तुम वही तो दे सकोगे। जो नहीं है, उसे दोगे कैसे? तब तुम्हारे जीवन में एक परार्थ की गंध होगी जो गहन स्वार्थ से उठती है। स्वार्थ और परार्थ में विरोध नहीं है। परार्थ तो फूल है, स्वार्थ के वृक्ष पर लगता है।
और तुम्हारे नीतिशास्त्री तुम्हें कुछ उलटा समझा रहे हैं। वे समझा रहे हैं, छोड़ो स्वार्थ को। तुम तो जाओ मरीज के पैर दबाओ, अस्पताल में बैठो, सेवा करो, सर्वोदय में भर्ती हो जाओ; यह करो, वह करो। स्कूल चलाओ, अस्पताल खोलो, अनाथालय चलाओ, धर्मशालाएं बनाओ। वे तुम्हें जो भी सिखा रहे हैं, उससे ठीक है, धर्मशालाएं बन जाएंगी, लोग ठहरेंगे; अस्पताल में मरीजों की चिकित्सा होगी। अच्छा है, कुछ बुरा नहीं है। लेकिन तुम इस भूल में मत पड़ना कि धर्म को उपलब्ध हो जाओगे। अच्छा है, लेकिन काफी नहीं है। अच्छा है, चोरी न करने से धर्मशाला खोल कर बैठ गए; अच्छा है। डाकू न बने और एक आश्रम चलाने लगे; अच्छा है। कम से कम डाकू न बने, इतनी बड़ी कृपा है। लेकिन इसे पर्याप्त मत समझ लेना। इसमें अपने को भटका मत लेना। क्योंकि कुछ लोग हैं जो बुराई में भटक गए हैं, कुछ लोग हैं जो भलाई में भटक गए हैं। कुछ असाधु होकर भटक रहे हैं परमात्मा से, कुछ साधु होकर भटक रहे हैं।
और लाओत्से का भरोसा संत में है; न तो साधु में और न असाधु में। लाओत्से कहता है कि संत ऐसा व्यक्ति है जो अपने में ठहर गया और अब उसके जीवन की सारी गतिविधियां इसी अपने में ठहरे होने से उठती हैं। उससे शुभ ही पैदा होता है, क्योंकि अशुभ पैदा हो नहीं सकता। वह जो भी करेगा वह ठीक होगा। उसे ठीक, सोच-सोच कर करना नहीं पड़ता। वह विचार करके ठीक नहीं करता। वह ऐसा नहीं सोचता कि यह कर्तव्य है इसलिए करूं, यह अकर्तव्य है इसलिए न करूं। ऐसी बात नहीं है। वह तो जैसे पानी ढलान की तरफ बहता है ऐसा संत का स्वभाव शुभ की तरफ बहता है। पानी सोचता थोड़े ही है कि इधर ढाल है इधर चलें, उधर चढ़ाव है उधर जाना ठीक नहीं। चढ़ाव की तरफ जाओगे भी कैसे? संत जिस तरफ बहता है वहीं शुभ है। शुभ के अतिरिक्त वह कहीं बहता ही नहीं। लेकिन पहली घटना है संतत्व की। पहली घटना है भय से प्रेम की तरफ आ जाने की, अंधकार से आलोक की तरफ आ जाने की।
अब हम लाओत्से के वचन को समझने की कोशिश करें।
"जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, तब, जैसा आम चलन है, उन पर महाबल उतरता है।'
भयभीत लोगों का समाज, राज्य, नीति, धर्म लोगों को डरा कर ही संयम में बांधे हुए है। इसलिए लाओत्से कहता है कि ऐसे लोग अगर कभी निर्भय हो जाएं तो खतरा पैदा होता है। अंधेरे में जो आदमी है उसका निर्भय हो जाना खतरनाक है। क्योंकि निर्भय होते ही वह ऐसे चलने लगेगा जैसे प्रकाश में आदमी को चलना चाहिए। लेकिन प्रकाश तो है नहीं। टकराएगा, चोट खाएगा; सिर फोड़ लेगा।
तीन शब्द हैं हमारे पास, उन तीनों का स्वभाव समझ लेना चाहिए। एक शब्द है भय, दूसरा शब्द है निर्भय, और तीसरा शब्द है अभय। अभय तो प्रकाशित आदमी का लक्षण है। भय और निर्भय दोनों अंधेरे में होते हैं। अंधेरे में कुछ लोग होते हैं जो भयभीत होते हैं। अंधेरे में कुछ लोग होते हैं जो अपने भय को दबा कर और निर्भय होने की अकड़ बना लेते हैं, जिनको हम बहादुर कहते हैं।
ये बहादुर ज्यादा नुकसान करते हैं, क्योंकि ये ऐसे चलने की कोशिश करते हैं जो कि केवल प्रकाश में ही संभव है। ये अभय की कोशिश करते हैं, और अंधेरे में रहते हुए! उससे निर्भय तो मालूम पड़ते हैं कि बिलकुल नहीं डरते, लेकिन इन्हीं लोगों ने सारे संसार को कष्ट से भर दिया है। हिटलर, नेपोलियन, सिकंदर, ये अभय नहीं हैं; महावीर, कृष्ण, बुद्ध, इन जैसे अभय नहीं हैं; मगर निर्भय हैं। जहां शैतान भी जाने से डरे वहां भी ये घुस जाएंगे। लेकिन ये अपना ही सिर नहीं तोड़ते, ये अपने पीछे हजारों लोगों को भी चला लेते हैं। क्योंकि भयभीत लोग जब भी पाते हैं कि कोई निर्भय है, उसको नेता मान लेते हैं। जब भी भयभीत लोग देखते हैं कि कोई आदमी बिलकुल नहीं डरता तो वे सोचते हैं, यह आदमी ठीक है, इसके पीछे चलो। इस तरह अंधे अंधों के पीछे चलते हैं।
कबीर ने कहा है, अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत
अंधे अंधों को चलाते हैं और दोनों कुएं में गिर जाते हैं। इससे तो वे ही अंधे बेहतर हैं जो डरते हैं। कम से कम डर के कारण वे सीमा के बाहर नहीं जाते।
इसलिए सवाल भय से निर्भय हो जाने का नहीं है। जो भयभीत है वह साधु होगा; जो निर्भय हो गया वह असाधु हो जाएगा। जो भयभीत है वह नीति-आचरण से चलेगा; जो निर्भय हो गया वह नीति-आचरण को ताक पर रख देगा। वह डरता ही नहीं, वह किसी से नहीं डरता। जो निर्भय है वह अपराधी हो जाएगा।
अब यह बड़ी सोचने जैसी बात है। अगर तुम्हें भयभीत आदमी देखने हैं वस्तुतः तो साधुओं में पाओगे। आश्रमों में बैठे हैं, डरे हुए लोग हैं। इतना डर गए हैं कि बाजार में जा नहीं सकते, दुकान पर बैठ नहीं सकते, स्त्री को देख कर आंख बंद कर लेते हैं। रुपया दिखाई पड़ता है तो उनके हाथ-पैर कंपने लगते हैं। कामिनी-कांचन उनका प्राण लिए ले रहा है। वे डरे हुए लोग हैं। जेलखानों में, कारागृहों में, राजधानियों में, पागलखानों में तुम्हें वह आदमी मिलेगा जो डरा हुआ नहीं है। जो निर्भय है वह असाधु है।
राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, वे सब असाधु हैं। वे डरे हुए नहीं हैं। वे अगर तुम्हारी रामलीला के मैदान पर आ भी जाते हैं, राष्ट्रपति और तुम्हारे प्रधानमंत्री, तो सिर्फ तुम्हें खुश करने को। उन्हें कोई रामलीला से लेना-देना नहीं है। उनको वोट चाहिए। वे तुम्हारे मंदिरों में जाकर सिर भी झुका लेते हैं। वे मंदिरों को सिर नहीं झुका रहे, तुम्हारी नासमझी को सिर झुका रहे हैं। उनको मंदिर में सिर झुकाते देख कर तुम समझते हो कैसे धार्मिक व्यक्ति हैं! जैसे ही उनके हाथ में ताकत आएगी वे खतरनाक सिद्ध होंगे; क्योंकि उनको कोई भय नहीं है।
अंधेरे में दो तरह के लोग हैं: भय और निर्भय। अगर अंधेरे में ही चुनना हो तो लाओत्से कहता है, भयभीत होना बेहतर। अंधेरे को चुनने की कोई जरूरत नहीं है। प्रकाश को तुम चुन सकते हो। लेकिन अगर अंधेरे में ही जीने का तय कर लिया हो, कसम खा ली हो, तो फिर भय को चुनना बेहतर। कम से कम भय के कारण दूसरों को नुकसान तो न पहुंचाओगे।
हिटलर ने करोड़ों लोग मारे; स्टैलिन ने करोड़ों लोग मारे। जरा भी भय नहीं है। इससे तो वह जैन साधु बेहतर जो चींटी को बचा कर चल रहा है। हालांकि दोनों अज्ञानी हैं। क्योंकि यह खयाल कि तुम मार सकते हो उतना ही गलत है जितना यह खयाल कि तुम बचा सकते हो। दोनों अज्ञानी हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, हन्यते हन्यमाने शरीरे, शरीर को काट डालो तो भी उसे मारा नहीं जा सकता; नैनं छिन्दंति शस्त्राणि, छेद डालो शस्त्रों से तो भी छिदता नहीं। तो बचाना भी भूल है; मारना भी भूल है। ज्ञानी तो जानता है कि मृत्यु होती ही नहीं। लेकिन अज्ञान के जगत में, अंधेरे में, भयभीत! भयभीत होना ही बेहतर है, कम से कम चींटी को बचा कर चल रहे हो। चींटी मरती या न मरती तुम्हारे पैर से, यह सवाल नहीं है; लेकिन भय के कारण तुम अपनी सीमा बांध कर जी रहे हो।
जैन साधु अपनी आसनी भी साथ लिए चलते हैं; बिछा कर उसी पर बैठते हैं। एक पुराना भय है कि पता नहीं किसी की आसनी पर बैठो और उस पर स्त्रियां बैठी हों पहले, कोई पापी बैठा हो। तो स्त्रियों के स्त्रैण-अणु छूट जाते हैं; पापी के पाप के अणु छूट जाते हैं। तो अपनी आसनी साथ ही लेकर चलो, उसी पर बैठो।
एक बार ऐसा हुआ कि एक जैन साधु मेरे साथ यात्रा पर थे। हम दोनों कार में बैठे तो वे बाहर ही खड़े रहे। मैंने कहा, आप अंदर आएं। उन्होंने कहा, रुकिए, मेरी आसनी आ जाने दें। मैंने कहा, आसनी का क्या करना है? गद्दी बिलकुल ठीक है। पता नहीं गद्दी पर कौन-कौन बैठा हो! तो गद्दी पर उन्होंने आसनी रख ली, फिर वे आसनी पर बैठ गए। फिर वे निश्चिंत हो गए। अब कोई भय नहीं है, सुरक्षा है।
भयभीत आदमी कैसी छोटी-छोटी सुरक्षाएं बना रहा है। आसनी बचा रही है पाप से। काश, पाप इतना सस्ते में बचता होता! और अब उनको कोई भय नहीं है कि वे मखमल की गद्दी पर बैठे हैं। क्योंकि ऊपर उन्होंने आसनी रख ली है। वे तो आसनी पर बैठे हैं, मखमल की गद्दी से उन्हें क्या लेना-देना? मखमल की गद्दी पर तो मैं बैठा था, वे आसनी पर बैठे थे।
राजेंद्र प्रसाद जब पहली दफा राष्ट्रपति हुए तो भवन तो वाइसराय का था, और साधु पुरुष कैसे उस भवन में रहें? साधु पुरुष हमेशा समझौता निकाल लेते हैं। और गांधी का तो आधार ही समन्वय और समझौता था। तो उन्होंने क्या किया? वाइसराय के भवन में जिस कमरे में वे बैठते थे उसकी सुंदर बहुमूल्य दीवारों पर उन्होंने चटाई जड़वा दी। निश्चिंत बैठ गए फिर, कोई डर न रहा। चटाई ने सुरक्षा कर ली। अब यह कोई वाइसराय का भवन थोड़े ही रहा, गांधी की कुटिया हो गई। आदमी के धोखे देने का अंत नहीं है! और इस कारण लोग प्रशंसा करेंगे कि कैसा साधु पुरुष कि वाइसराय के भवन में चटाई लगा कर बैठ गया।
भई चटाई ही लगानी थी तो वाइसराय के भवन में बैठने की कोई जरूरत नहीं, चटाई की कुटी में बैठ जाते। रहना तो वाइसराय के भवन में है, लेकिन चटाई लगा कर। तो ऐसे साधुता भी चल जाती है, असाधुता भी बच जाती है। इसको समझौता, ऐसे एक बीच का रास्ता निकाल लिया। दुकानदार की तरकीब, चालाकी। लेकिन फिर भी ठीक है। भय के कारण ही हो रहा है यह कि कहीं स्वर्ग न खो जाए। चटाई लगा कर स्वर्ग बचाया जा रहा है।
लाओत्से कहता है, अगर अंधेरे में ही जीने की कसम खा ली हो तो भयभीत होना ही बेहतर, भीरु होना बेहतर। क्योंकि अगर तुम निर्भय हुए तो तुम खतरनाक हो जाओगे।
आस्तिक भय में जीते हैं; नास्तिक निर्भय हो जाता है। दोनों अंधेरे में हैं। न आस्तिक को पता है ईश्वर के होने का, न नास्तिक को पता है ईश्वर के न होने का। दोनों को कुछ पता नहीं है। दोनों अंधेरे में हैं। लेकिन आस्तिक भय में जीता है; नास्तिक निर्भय हो जाता है। इसलिए नास्तिक खतरनाक सिद्ध होता है।
अब तक मनुष्य-जाति के इतिहास में नास्तिकों के हाथ में सत्ता न आई थी। इधर इस सदी में रूस और चीन में नास्तिकों के हाथ में सत्ता आ गई। वे बड़े खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। आस्तिकों ने बहुत जघन्य अपराध किए हैं, लेकिन नास्तिक उनको मात कर रहे हैं। क्योंकि नास्तिक बिलकुल निर्भय है। उसे फिक्र ही नहीं। वह कहता है, कुछ मरता ही नहीं; आदमी काट दो, बात खतम। आदमी तो यंत्र है, मिट्टी की देह है; गिर गई, गिर गई। कोई अड़चन नहीं। माओ ने हजारों लोग काट डाले चीन में रत्ती भर भी बिना बेचैन हुए। तो ऐसी निर्भयता तो खतरनाक है।
लाओत्से कहता है, अगर बदलना हो तो भय से निर्भय में मत बदलना, भय से अभय में बदलना।
अभय बात ही अलग है। अभय का मतलब बहादुरी नहीं है। क्योंकि बहादुरी तो सिर्फ भयभीत आदमी में होती है। बहादुरी तो भयभीत आदमी को अपने को छिपाने का ढंग है। भयभीत आदमी अपने को भयभीत नहीं मानना चाहता तो बहादुरी पकड़ लेता है। अभय आदमी में न तो भय होता है और न निर्भयता होती है। अभय आदमी का भय के जगत से संबंध ही छूट जाता है। तो वह निर्भय भी कैसे हो सकता है?
इसलिए शब्दकोश में मत देखना इन शब्दों के अर्थ, क्योंकि वहां तो अभय का अर्थ भी निर्भय लिखा है। जीवन के शब्दकोश में अभय का निर्भय से कोई संबंध नहीं है और न भय से कोई संबंध है। अभय तो बात ही तीसरी है। अभय का तो प्रकाश से संबंध है; भय और निर्भय का अंधकार से संबंध है।
लाओत्से कहता है, जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, जब वे निर्भय हो जाते हैं, तब अनिवार्य हो जाता है कि उनको महान रूप से दंडित किया जाए, महाबल उनके ऊपर उतरे।
कोई उतारता नहीं; यह जीवन का सहज नियम है। जैसे मैंने कहा कि तुम अगर अकड़ कर चढ़े वृक्ष पर तो गिरोगे। वृक्ष पर तो सम्हल कर चलना जरूरी है, सम्हल कर चढ़ना जरूरी है। अकड़ में गिरोगे तो हड्डी-पसली टूट जाएगी। ऐसा नहीं कि कोई तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ रहा है, या पृथ्वी की कोई आकांक्षा थी कि तुम्हारी हड्डी-पसली टूट जाए। या वृक्ष का कोई इरादा था कि तुमको गिरा दे। नहीं, तुम्हारी अकड़ से ही तुम गिर गए। वृक्ष को पता भी नहीं है। पृथ्वी शांत अपने मौन में लीन है। कहीं कोई खबर भी नहीं हुई है। तुम अपने ही हाथ से उलझ गए।
अकड़ोगे तो गिरोगे। अगर अंधेरे में रहते निर्भय होने की कोशिश करोगे तो सिर टकराएगा दीवालों से, लहूलुहान होओगे।
तो लाओत्से कहता है, जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, तब उन पर महाबल उतरता है। वे अपने ही हाथ से दंडित होते हैं।
संत क्या करे? इन लोगों को, जो भय में जीते हैं और कभी-कभी निर्भय होने की कोशिश करके अपने ही हाथ से दंडित होते हैं, क्या इनकी निंदा करे जैसा कि साधु करते रहे हैं?
लाओत्से कहता है, "नहीं, उनके निवासगृहों की निंदा मत करो, उनकी संतति का तिरस्कार मत करो। क्योंकि तुम उनका तिरस्कार नहीं करते, इसलिए तुम खुद भी तिरस्कृत नहीं होओगे।'
साधुओं की आम वृत्ति है असाधुओं की निंदा करना। साधुओं को सुनने तुम जाओगे तो तुम असाधुओं के प्रति सिवाय गाली-गलौज के और कुछ भी न पाओगे। हां, गाली-गलौज बड़ी सुसंस्कृत होगी; तुम शायद पहचान भी न पाओ; बड़ी अलंकृत होगी। लेकिन काव्य में भी गाली ही छिपी होगी। उनके बड़े से बड़े उपदेश में भी निंदा छिपी होगी--तुम्हारे भय की, तुम्हारे लोभ की, तुम्हारी कामवासना की, तुम्हारे क्रोध की, तुम्हारे नारकीय जीवन की। उनके कारण तुम्हारे जीवन को वे नारकीय कहते हैं। उनकी व्याख्या निंदा की है। और तुम्हारी निंदा से छिपे-छिपे वे अपनी प्रशंसा करते हैं। तुम्हारी निंदा तो केवल बहाना है, असलियत में वे अपनी प्रशंसा करते हैं।
इसे थोड़ा समझो। यह कहना तो बहुत मुश्किल है कि मैं भला आदमी हूं। क्योंकि जिससे भी कहो वह भी कहेगा, क्या अपने ही मुंह मियां मिट्ठू बनते हो! यह तो कहना मुश्किल है कि मैं भला आदमी हूं। तब एक रास्ता है इसको कहने का कि तुम यह भी न कह सको कि मियां मिट्ठू बनते हो। मैं कहता हूं कि तुम बुरे हो। तुम्हारी बुराई को मैं ऐसा रंगता हूं कि अनजाने तुम्हारी बुराई की पृष्ठभूमि में मेरी भलाई की रेखा उभरनी शुरू हो जाती है।
तुमने सुनी होगी प्रसिद्ध कहानी कि अकबर ने अपने दरबारियों को कहा एक लकीर खींच कर कि इसे छोटा कर दो बिना छुए। दरबारी तो न कर सके, लेकिन बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। उसे छुआ ही नहीं, और लकीर छोटी हो गई। बड़ी लकीर खींच दी।
साधु तुम्हारी निंदा करते हैं; वे तुम्हें छोटा करते जाते हैं; उनकी लकीर बड़ी होती जाती है। वे तुम्हें बिलकुल क्षुद्र कर देते हैं, वे महान हो जाते हैं।
संत का लक्षण है कि वह तुम्हारी निंदा न करेगा। क्योंकि निंदा तो बताती है कि वह साधु है, संत नहीं। और साधु-असाधु दोनों एक ही जगत के निवासी हैं। वे एक-दूसरे की तरफ पीठ करके चल रहे हैं, लेकिन उनमें गुणात्मक भेद नहीं है। एक चोरी करता है; एक ने अचौर्य की कसम खा ली है। एक कामवासना में लिप्त है; दूसरा कामवासना से लड़ने में लिप्त है। लेकिन लिप्तता में कोई भेद नहीं है। चाहे तुम स्त्रियों में आकर्षित होकर उनके सपने देखो और चाहे तुम स्त्रियों से भयभीत होकर उनके सपनों से लड़ो, तुम्हारी नजर तो स्त्रियों पर ही लगी रहती है।
और अक्सर होता ऐसा है कि भोगी तो चाहे स्त्री को भूल भी जाए, त्यागी नहीं भूल पाता। त्यागी को तो चारों तरफ स्त्री घेरे रखती है--उसके सपने में, उसकी कल्पना में। और जितना उसके सपने में और कल्पना में घेरती है स्त्री, उतना ही वह जोर से निंदा करता है। वह कहता है, स्त्री नरक की खान। जितना वह घबड़ाता है भीतर स्त्री के रूप से, उतना ही बाहर वह निंदा करता है।
ऐसा हुआ। एक झेन फकीर औरत हुई। युवा थी, बहुत सुंदर थी। और कथा है कि जिन-जिन आश्रमों में गई उन सबने उसे इनकार कर दिया। कोई आश्रम उसको दीक्षा देने को तैयार नहीं। कारण उन्होंने बताया कि तू इतनी सुंदर है कि हमारे साधुओं को बड़ी मुश्किल खड़ी होगी; तू कहीं और जा। लेकिन कोई लेने को राजी न था; कोई उसे दीक्षा देकर साध्वी बनाने को राजी न था। और उसके प्राणों में बड़ी उत्कंठा थी कि वह साध्वी हो जाए। तो कथा है कि उसने अपने चेहरे को जला लिया। जब वह चेहरे को जला कर गई तो स्वीकृत कर ली गई।
तो तुम्हारे साधुओं की आंख भी लगी तो चमड़ी पर ही है। जला हुआ चेहरा स्वीकृत हो सकता है; सुंदर चेहरा स्वीकृत नहीं होता। क्योंकि सुंदर चेहरा तो वैसे ही सता रहा है; सपनों में सता रहा है। और वास्तविक रूप से मौजूद हो जाए तो और मुसीबत खड़ी हो जाएगी।
ईसाइयों ने इस तरह के आश्रम बना रखे हैं, ऐसे आश्रम हैं, जहां कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकती। सैकड़ों साल से किसी स्त्री ने आश्रम में प्रवेश नहीं किया है। और ऐसे आश्रम हैं जहां कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता। मध्य युग में एक बड़ी अनूठी घटना घटी वहां। वह घटना यह थी कि स्त्रियां, जिनके आश्रम में कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता, धीरे-धीरे मिरगी की बीमारी की शिकार होने लगीं। उन्हें फिट आने लगे। और फिट की अवस्था में वे उस तरह की भाव-भंगिमा करने लगीं जैसी स्त्रियां संभोग में करती हैं। और उन स्त्रियों ने कहा कि शैतान उनके साथ संभोग कर रहा है। यह बीमारी इतने जोर से फैली कि कुछ समझ में न आया कि क्या किया जाए। और अनेक साध्वियां इसकी शिकार हो गईं। अब मनसविद कहते हैं कि कुछ मामला न था। न कोई शैतान संभोग कर रहा था; न कोई शैतान है। मगर स्त्रियों ने इतनी-इतनी कामना की भीतर पुरुष की कि कल्पना सजीव हो गई। और पुरुष का अभाव इतना ज्यादा भीतर भर गया कि कल्पना को उन्होंने यथार्थ मान लिया।
इसका तुम्हें भी अनुभव हो सकता है। अगर तुम इक्कीस दिन के लिए मौन में चले जाओ, भोजन न करो, उपवास कर लो, तो तुम सातवें-आठवें दिन उपवास के बाद पाओगे कि तुम्हें भोजन यथार्थ रूप से दिखाई पड़ना शुरू हो गया। सपने में लड्डू बरसते हुए मालूम होंगे पहले, फिर धीरे-धीरे लड्डू ज्यादा वास्तविक होने लगेंगे। जैसे-जैसे भूख बढ़ेगी वैसे-वैसे कल्पना प्रगाढ़ होने लगेगी। अगर तुम इक्कीस दिन मौन में उपवास कर जाओ तो इक्कीस दिन करीब आते-आते तुम पाओगे कि तुम काल्पनिक भोजन कर रहे हो।
साधु डरता है, भयभीत है; असाधु डरता नहीं। इतना ही फर्क है। उनके दोनों के जीवन व्यवस्था में कोई अंतर नहीं; उनका तल एक है। और साधु अपना सम्मान करने का एक ही उपाय पाता है कि तुम्हारी निंदा करता रहे। तुम्हारी निंदा से वह अपने को भी समझाता है। वह एक तरकीब है। जब वह तुम्हारे सामने निंदा करता है कामवासना की, तब वह अपने को भी समझा रहा है कि कामवासना नरक है, पाप है। और जब तुम्हारी आंखों में झलक देखता है कि बिलकुल ठीक कह रहा, तुम जब ताली बजाते हो, तब उसे फिर भरोसा आ जाता है, फिर-फिर भरोसा आ जाता है कि मैं बिलकुल ठीक हूं।
और तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम्हें पता है कि कामवासना तुम्हें बहुत कष्टों में डाले हुए है। तो जब कोई निंदा करता है, तुम स्वीकार करते हो। करना ही पड़ेगा। तुम पीड़ा में हो। तुम्हें भी पता है कि क्रोध ने कष्ट दिया है। तुम्हें भी पता है किर् ईष्या ने जलाया है; फफोले पड़ गए हैं भीतर। तो जब भी कोई इनकी निंदा करता है, तुम्हारा सिर भी हिलता है कि बात तो ठीक है। जब तुम्हारा सिर हिलते देखता है साधु, तब उसे फिर वापस भरोसा आ गया।
भरोसा बड़ी अजीब चीज है। मुल्ला नसरुद्दीन एक मकान बेचना चाहता था। तंग आ गया था, कोई खरीदार न मिलता था। एक एजेंट को बुलाया। एजेंट ने विज्ञापन दिया अखबारों में। मुल्ला ने विज्ञापन पढ़ा, बड़ा प्रभावित हुआ। एजेंट ने ऐसा वर्णन किया था मकान का कि सुंदर झील के किनारे, बड़े वृक्षों के पास, बड़ा प्राचीन भवन है, जिसका लंबा इतिहास है, बड़े कुलीन लोग जिसमें रह चुके हैं। मुल्ला का अनुभव तो कहता था, सिर्फ खंडहर है, और झील के नाम पर एक गंदी तलैया है जिसमें सिवाय मच्छरों के और कुछ भी पैदा नहीं होता, और प्राचीनता के नाम पर सिर्फ पलस्तर गिरता है। अनुभव तो यह था। लेकिन जब विज्ञापन पढ़ा, और बार-बार पढ़ा, तो गया भागा हुआ एजेंट के पास और कहा, बेचना नहीं है मकान! जैसा मकान मैं चाहता था वैसा ही तो यह मकान है--झील के किनारे, प्राचीन।
तुम्हें खुद भी भरोसा करना हो तो दूसरों की आंखों से देखना शुरू करना पड़ता है। साधु निंदा करता है असाधुता की। वह अपने ही भीतर के हिस्से का खंडन कर रहा है जिसे वह आत्मसात नहीं कर पाया है, जो उसे सता रहा है। तुम्हारे बहाने वह उसकी निंदा करता है। तुम्हारी आंखों में आश्वासन देख कर उसे आश्वासन वापस आ जाता है; लड़ाई उसकी फिर शुरू हो जाती है। साधु और असाधु समझौते में हैं, एक ही षडयंत्र में हैं। वे एक-दूसरे को सम्हाले हुए हैं। असाधु सम्हाले हुए है साधु को। असाधु के बिना साधु एक क्षण न जी सकेगा। साधु सम्हाले हुए है असाधु को। क्योंकि साधु आशा देता है असाधु को कि कोई हर्जा नहीं, आज असाधु हैं, कल तुम जैसे हम भी हो जाएंगे। थोड़ा सा ही समय और है। लड़की की शादी निपट जाए, दुकान व्यवस्थित हो जाए, हमें भी साधु के जीवन में ही तो जाना है। असाधु को साधु आशा है भविष्य की, और साधु को असाधु का नरक इस बात का निश्चय है कि मैं ठीक हूं। दोनों अंधेरे में हैं। और अंधेरे से उठना है।
जो अंधेरे से बाहर उठ गया उसको लाओत्से संत कहता है। संत का अर्थ है, जिसने अपनी असाधुता को दबाया नहीं और जिसने साधुता को फुलाया नहीं; जो असाधुता-साधुता के द्वंद्व के बाहर हो गया; जो भय और निर्भयता के बाहर हो गया; जो जाग गया; जिसने सब सपने छोड़ दिए साधु-असाधु के, अच्छे-बुरे के; जो गुणातीत हो गया; जिसने चुना नहीं, एक के पक्ष में दूसरे को न चुना; जो च्वाइसलेस, चुनावरहित हो गया।
"उनके निवास-गृहों की निंदा मत करो।'
क्योंकि उनका कोई कसूर नहीं है। वे अंधेरे में हैं, इसलिए उनके निवास-गृह भी अंधेरे में हैं। और निंदा से तुम उनकी सहायता भी न कर पाओगे। निंदा से तुम उन्हें और भी निंदित कर दोगे, आत्मग्लानि से भर दोगे। यह मेरा अनुभव है कि जहां-जहां धर्मगुरु ज्यादा संख्या में होते हैं वहां-वहां लोग आत्मविश्वास खो देते हैं; वहां लोगों की आत्मग्लानि सघन हो जाती है; वहां लोग अपने ही प्रति इतनी निंदा से भर जाते हैं कि परमात्मा को खोजना तो दूर, खड़े होना उनकी हिम्मत के बाहर हो जाता है; यात्रा पर जाना तो बहुत दूर, पैर उठाने का भी सामर्थ्य खो जाता है।
मेरे पास लोग आते हैं, धर्मगुरुओं के मारे हुए, तब वे मुझसे कहते हैं कि हम पापी, हम महापापी, हमें उबारो। उनका यह कहना कि हम पापी, हम महापापी, अपने भीतर के परमात्मा का अस्वीकार है। उनका भरोसा डगमगा गया। उनकी आस्था टूट गई। इतनी निंदा की गई है उनकी कि वे अब यह मान ही नहीं सकते कि वे भी उबर सकते हैं। मैं उनसे कहता हूं, उबर जाओगे। वे कहते हैं, जन्मों-जन्म लगेंगे, हम बहुत पापी हैं, आपको पता नहीं। हम बहुत अपराधी हैं, हमने बड़े पाप किए हैं।
बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ईसाई कहते हैं कि पापियों को सदा-सदा के लिए नरक में डाल दिया जाएगा--सदा-सदा के लिए! अनंत काल के लिए! रसेल ने लिखा है, यह तो अन्यायपूर्ण मालूम पड़ता है। उसने कहा कि अगर मैंने जिंदगी में जितने पाप किए हैं सबकी मैं फेहरिस्त बना दूं, जो किए हैं उनकी भी और जो केवल मैंने सोचे हैं, किए नहीं, उनकी भी, तो कठोर से कठोर न्यायाधीश भी मुझे चार साल से ज्यादा की सजा नहीं दे सकता। लेकिन धर्मगुरु कह रहे हैं कि अनंत काल तक सड़ाए जाओगे।
कसूर तो बहुत छोटा मालूम पड़ता है, दंड बहुत ज्यादा मालूम पड़ता है। जैसे धर्मगुरुओं को मजा आ रहा है। नरक का वर्णन तुमने कभी साधुओं के मुंह से सुना? नरक का वर्णन करने में वे ऐसे कुशल हैं कि तुम्हारा रोआं-रोआं कंपा देंगे। आग, जलते हुए कड़ाहे, जलाए जाओगे लेकिन जलोगे नहीं। क्योंकि जल गए एक दफा तो फिर मजा ही क्या। जलाए जाओगे बार-बार, अनंत बार, और जलोगे नहीं, बचोगे। मर ही गया मरीज तो एक ही दफे में कष्ट खतम हो गया। कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर में से छेद करके घूमेंगे चारों तरफ और तुम मरोगे नहीं। भूखे रहोगे, प्यासे रहोगे; मरोगे नहीं।
कष्ट देने की इतनी इच्छा, सताने की इतनी वृत्ति जिन हृदयों से उठी होगी, उनके भीतर असाधु छिपा है, साधु ऊपर है। नरक की कल्पना ही असाधुओं की है, जिनको मनोवैज्ञानिक सैडिस्ट कहते हैं, जो दूसरों को दुख देने में रस लेते हैं। अब यह इतना दुख! तुमने कभी सोचा, तुमने पाप क्या किया है?
एक आदमी मेरे पास आया। वह कहता है, मैं बहुत पापी हूं। मैंने कहा, तू पहले पाप तो बता। वह कहता है, मैं सिगरेट पीता हूं।
कुछ पाप भी तो ढंग का करो। सिगरेट पी रहे हैं, धुआं बाहर-भीतर निकाल रहे हैं; इसमें पाप क्या है? मूर्खता हो सकती है, पाप तो नहीं है। नासमझी हो सकती है, बुद्धिहीनता हो सकती है कि धुएं को बाहर-भीतर करते रहते हैं और इसमें रस लेते हैं; मगर निर्दोष है। इसमें पाप क्या है? और सजा तो मिल ही जाएगा। अस्थमा हो जाएगी, टी.बी. हो जाएगी, कैंसर हो जाएगा। अब इसके लिए और अलग से नरक का इंतजाम करने की जरूरत क्या है? कैंसर काफी नहीं है? साधुओं को नहीं लगता काफी; वे कहते हैं, कैंसर से क्या हल होगा! सजा बड़ी चाहिए।
तुमने पाप भी क्या किया है? मैं कभी-कभी, पापों के संबंध में जब लोग मुझसे आकर कहते हैं, तो मैं हैरान होता हूं कि तुमने पाप भी क्या किया है!
नहीं, वे कहते हैं, आपको पता नहीं एक स्त्री के पीछे मैं दीवाना हो गया।
तो क्या पाप है? तुम्हारा एक देवता नहीं है शास्त्रों में जो दीवाना न हुआ हो। तुम इतने क्यों घबड़ा रहे हो? और परमात्मा भी स्त्री में उत्सुक होना चाहिए, नहीं तो बनाता नहीं। पाप कहां है? सारा अस्तित्व स्त्री-पुरुष के मेल से बना है। वृक्ष भी नर और मादा हैं; पशु-पक्षी भी; पौधे भी। ऐसा लगता है कि जीवन की ऊर्जा इस द्वंद्व के बिना थिर नहीं रह सकती। स्त्री और पुरुष का भेद और आकर्षण सृष्टि का सारा राज है। इसमें पाप कहां है!
जवान आदमी आ जाते हैं और कहते हैं कि मन में बड़ा पाप है, स्त्रियों की तरफ मन में आकांक्षा पैदा होती है।
वह तुमने तो पैदा नहीं की; की हो तो परमात्मा ने ही पैदा की होगी। और आखिरी निर्णय अगर कभी कोई होना है तो वही जिम्मेवार होगा। तुम इतना क्या परेशान हो रहे हो? और स्त्री में ऐसा क्या पाप है? अगर तुम्हारे पिता के मन में पाप न उठा होता तो तुम न होते। उनके पिता के मन में पाप न उठा होता तो तुम्हारे पिता भी न होते। बड़ी कृपा थी उनकी कि उन्होंने ब्रह्मचर्य नहीं रखा।
जीवन की सामान्य स्वाभाविकता को निंदित कर दिया गया है। इतना निंदित कर दिया गया है कि तुम कैसे मान सकोगे कि तुम मंदिर हो परमात्मा के। तुम तो वेश्यालय मालूम पड़ते हो, मंदिर नहीं; बूचरखाना मालूम पड़ते हो, मंदिर नहीं। और हो तुम मंदिर। इतनी निंदा के बाद तुम कैसे खोज पाओगे उस सूत्र को जो परमात्मा का है, तुम्हारे भीतर छिपा है।
इसलिए लाओत्से कहता है, "उनके निवास-गृहों की निंदा मत करो।'
अंधेरे में रहते हैं माना, उन पर दया करो, निंदा मत करो। उन्हें बाहर निकालने की कोशिश करो। निंदा करोगे तो वे और भी अंधकार में गिर जाएंगे। उन्हें उठाओ, सहारा दो, बल दो, हिम्मत दो। और उनसे कहो, घबड़ाओ मत, कुछ भी पाप नहीं है। परमात्मा हर पाप से बड़ा है। और तुम्हारे पुण्य की क्षमता तुम्हारे सब पापों के जोड़ से अनंत गुना बड़ी है। और तुमने जो किया है वह ना-कुछ है; तुम जो हो वह विराट है। तुम्हारे कृत्यों से तुम्हारी आत्मा का कोई मूल्यांकन नहीं होता। कृत्य तो क्षुद्र हैं। उठो!
इसलिए उपनिषद--जो संतों के वचन हैं, साधुओं के नहीं--उपनिषद कहते हैं, तुम ब्रह्म हो। और उपनिषद कहते हैं, सब कुछ ब्रह्ममय है; अन्न भी ब्रह्म है। इसलिए भूख लगे और तुम भोजन करो, तो तुम ब्रह्म को ही भोजन कर रहे हो। स्त्री भी ब्रह्म है। आकर्षण जगे, तो तुम यह फिक्र करना कि वह आकर्षण भी परमात्मा का ही आकर्षण बन जाए। स्त्री के माध्यम से भी तुम परमात्मा को ही खोजना। तुम अपने सब आकर्षणों को परमात्मा की ही खोज बना लेना। तब तुम्हारा मार्ग विधायक हुआ।
इसलिए संत निंदा नहीं करता, संत स्वीकार करता है। संत तुम्हारे अंधकार पर जोर नहीं देता, तुम्हारे प्रकाश की संभावना पर जोर देता है। साधु तुम्हारे अंधकार पर जोर देता है।
"उनके निवास-गृहों की निंदा मत करो। उनकी संतति को तिरस्कार मत करो। क्योंकि तुम उनका तिरस्कार नहीं करते, इसलिए तुम खुद भी तिरस्कृत नहीं होओगे।'
और संत का कोई तिरस्कार नहीं हो सकता, क्योंकि उसने कभी किसी का तिरस्कार नहीं किया है। यह तुम्हारे भी हित में है। लाओत्से कहता है, संत के भी हित में है।
"संत अपने को जानते हैं, पर दिखाते नहीं।'
दिखाने की आकांक्षा अज्ञान से पैदा होती है। जो अपने को नहीं जानता वह दिखाना चाहता है। क्योंकि दिखाने से ही उसे पता चलता है कि मैं कौन हूं, दूसरों के द्वारा ही पता चलता है कि मैं कौन हूं। जो अपने को जानता है उसे दूसरे के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं। वह दिखाता नहीं फिरता; वह जानता है वह कौन है। जब तुम दिखाने की आकांक्षा से भरो तो समझ लेना कि तुम्हें पता नहीं है कि तुम कौन हो। तुम दूसरों से पूछ रहे हो कि मैं कौन हूं।
कोई कह देता है, आप बड़े सुंदर! तुम सुंदर हो जाते हो। देखो फिर तुम्हारे पैर की गति, तुम्हारी शान, अकड़ वापस लौट आई। रीढ़ सीधी हो गई। लाख दफे कोशिश की थी आसन लगा कर रीढ़ को सीधा करने की, न होती थी। किसी ने कह दिया, बड़े सुंदर हो! रीढ़ एकदम सीधी हो गई। किसी ने कह दिया, तुम जैसा सच्चरित्र कोई भी नहीं! देखो उस क्षण में हजार-हजार फूल खिलने लगे; तुम बड़े प्रसन्न हो। किसी ने निंदा कर दी और किसी ने कह दिया, तुम और सुंदर? जरा आईने में शक्ल तो देखो! तुम उदास हो गए, भीतर सब मुर्दा हो गया, सब फूल मुर्झा गए। और किसी ने कह दिया कि दुश्चरित्र हो, और किसी ने निंदा कर दी, और तुम वही हो गए। तुम लोगों के मतों पर जीते हो। इसलिए तो तुम लोगों से भयभीत रहते हो कि लोग क्या कह रहे हैं। लोग जो कह रहे हैं वही तुम्हारी आत्मा है? वही तुम्हारी आइडेंटिटी है? वही तुम्हारी पहचान है?
संत अपने को जानता है, इसलिए दिखाता नहीं। कोई कारण नहीं दिखाने का, संत अपने को जानता ही है। तुमसे पूछने की कोई जरूरत नहीं कि मैं कौन हूं। तुम्हारे मत से नहीं जीता संत; संत अपने भीतर से जीता है। तुम अगर सब भी चले जाओ पृथ्वी से, अकेला संत रह जाए, तो भी कोई फर्क न पड?गा। उसका होना वैसा ही रहेगा। एकांत में या भीड़ में, कोई अंतर नहीं है। बाजार में या हिमालय में, कोई भेद नहीं है। क्योंकि तुम्हारे ऊपर संत निर्भर नहीं है।
"वे अपने को प्रेम करते हैं, पर उछालते नहीं।'
यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है। तुम अपने को प्रेम करते ही नहीं, इसीलिए उछालते हो। उछालने का मतलब है, कोई दूसरा तुम्हें प्रेम करे, इसका निमंत्रण। स्त्रियां देखो कितनी मेहनत उठाती रहती हैं आईने के सामने खड़ी-खड़ी! घंटों! हर पति जानता है कि तुम बजाते रहो हार्न बाहर, वह स्त्री कहती है, अभी आई। एक मिनट में आई, स्त्री कहती है। मैंने तो एक स्त्री को यह भी कहते सुना--उनके पति के साथ मैं कार में बैठा हूं, जाने की पति को जल्दी है, वे हार्न बजा रहे हैं--उसने बाहर झांका और कहा, क्यों हार्न बजाए जा रहे हैं? क्यों सिर खा रहे हैं? हजार बार कह चुकी कि अभी एक मिनट में आई।
हजार बार! और अभी एक मिनट पूरा नहीं हुआ। क्या कारण होगा स्त्री को इतना ज्यादा दर्पण के सामने तल्लीन होने में? वह तैयारी कर रही है उछालने की। राह पर, बाजार में, सिनेमागृह में, क्लब-घर में, मंदिर में, वह उछालने की तैयारी कर रही है।
मैं एक जैन घर में रहता था। तो जब भी कभी कोई जैन उत्सव होता, जो घर की गृहिणी थी वह अपने सब सोने के आभूषण निकाल लेती। मैं उसको पूछा कि मंदिर में? तो उसने कहा, और कोई मौका ही नहीं मिलता दिखाने का। धार्मिक स्त्री है, सिनेमा जाती नहीं, क्लब से कोई संबंध नहीं, होटल जा नहीं सकती, सात्विक शाकाहारी है। पति का भी इन चीजों में रस नहीं है। अब एक मंदिर ही बचा। पर स्त्री तो स्त्री है, मंदिर हो कि क्लब, फर्क क्या पड़ता है? वृत्ति तो वही है, उछालना है।
उछालने का अर्थ यह है कि तुम अपने को प्रेम नहीं कर पाए; तुम किसी और की प्रतीक्षा कर रहे हो जो तुम्हें प्रेम करे। और कोई तुम्हें प्रेम करे, तो ही तुम्हारा भय कम हो। जो व्यक्ति अपने को प्रेम करता है वह उछालता नहीं फिरता। और मजा तो यह है कि तुम जितना मांगोगे कि कोई तुम्हें प्रेम करे, मांगे से प्रेम नहीं मिलता। बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून। प्रेम ऐसी चीज है जो मांगने से मिलती ही नहीं। तुम्हें प्रेम मांग कर कभी भी न मिलेगा। तुम भिखारी ही रहोगे। और जहां भी मिलेगा, तुम पाओगे कि धोखा हुआ। हर बार तुम पाओगे कि धोखा हुआ; असली न था। प्रेम तो उन्हें मिलता है जो प्रेम पाने के योग्य होते हैं। और प्रेम पाने के योग्य होने की पहली शर्त है: तुम अपने को प्रेम करो। तभी तो कोई दूसरा तुम्हें प्रेम कर सकेगा। तुमने कभी अपने को प्रेम ही नहीं किया और दूसरे की आकांक्षा कर रहे हो कि वह तुम्हें प्रेम करे। जो गलती तुमने नहीं की वह दूसरा क्यों करेगा? तुम तो अपनी निंदा करते हो और दूसरे से चाहते हो तुम्हें प्रेम करे।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम अकेले में ऊब जाते हैं, हमें कोई संगी-साथी चाहिए। मैं कहता हूं, जब तुम खुद ही से अकेले में ऊब जाते हो तो दूसरा तुमसे ऊबेगा। जब तुम खुद भी अपने साथ रहने को राजी नहीं तो कौन तुम्हारे साथ रहने को राजी होगा? और वह दूसरा भी अपने से ऊबा हुआ होगा, तभी तो तुम्हारी तलाश में आ रहा है। तो दो ऊबे हुए आदमी जब मिलते हैं तो तुम सोच सकते हो क्या परिणाम होगा। जो हर विवाह में हो जाता है। पति-पत्नी ऐसे ऊब कर बैठे रहते हैं। पति-पत्नियों के चेहरे देखो; उनसे ज्यादा उदास चेहरे तुम कहीं भी न पाओगे। अगर तुम पुरुष को जरा प्रसन्न देखो तो समझना कि पत्नी उसकी नहीं है जो पास बैठी है, किसी और की होगी। अगर पुरुष को तुम रास्ते पर किसी स्त्री के साथ चलते हुए आनंद भाव में देखो, यह उसकी पत्नी नहीं है। क्योंकि उसकी पत्नी के साथ तो वह ऐसा डरा हुआ और कंपा हुआ और उदास और ऊबा हुआ चलता है कि तुम देख ही सकते हो, फौरन पहचान सकते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन मुझसे कहा कि मैं आदमियों को देख कर बता सकता हूं कि यह आदमी विवाहित है कि गैर-विवाहित। मैंने कहा, जरा मुश्किल मामला है। खैर, जो भी लोग आएं मुझसे मिलने, तुम नोट करते जाओ, और पीछे पता लगा लेंगे। उसने नोट किया और उसने बिलकुल ठीक-ठीक बता दिया। मैं थोड़ा हैरान हुआ कि तरकीब क्या है तेरी? उसने कहा, तरकीब यह है: जो आदमी शादीशुदा है वह बाहर पड़े हुए बिछावन पर पैर पोंछता है, जो गैर-शादीशुदा है वह सीधा चला आता है। पत्नी का भय! नहीं तो कौन पोंछता है पैर। अभ्यस्त हो गए हैं वे।
जीवन तुम्हारे भीतर से बाहर की तरफ जाएगा; बाहर से भीतर की तरफ नहीं आता। तुमने अगर अपने को प्रेम किया है तो तुम पाओगे बहुत लोग तुम्हें प्रेम करेंगे। तुम अगर अपने को प्रेम करने में समर्थ हो गए तो तुम पाओगे अनंत-अनंत प्राणों से तुम्हारी तरफ प्रेम की धारा बहनी शुरू हो जाती है। तुम अगर अपने को प्रेम न कर पाए, जो कि तुम्हारे साधुओं की शिक्षा के कारण असंभव हो गया है, तो तुम्हें कोई भी प्रेम न कर सकेगा।
मेरे हिसाब में, अगर तुमने अपने को प्रेम किया तो तुम पाओगे अनंत लोग तुम्हें प्रेम करते हैं। और यह प्रेम बढ़ता जाता है, बढ़ता जाता है। एक दिन अचानक तुम पाते हो कि परमात्मा का प्रेम भी तुम पर बरसा। तुम योग्य होते जाते हो। तुम इतने योग्य होते जाते हो, तुम अपने आप में इतने पूरे होते जाते हो कि वही प्रेम की पूर्णता एक दिन तुम्हारे ऊपर परमात्मा की वर्षा बनेगी।
परमात्मा को खोजने तुम जाओगे कहां? उसका कोई पता-ठिकाना नहीं। सच तो यह है कि परमात्मा तक कोई आदमी कभी नहीं पहुंचता; जब भी घटना घटती है परमात्मा आदमी तक आता है। इसके अतिरिक्त रास्ता भी नहीं है। जिस दिन तुम योग्य हो और तुम अपने प्रेम से इतने परिपूर्ण हो और तुम इतने तृप्त हो अपने प्रेम से कि तुम्हारे जीवन में कोई शिकायत नहीं है, कोई भिक्षा की इच्छा नहीं रही अब, तुम सम्राट हो गए हो; तुम आनंदित हो, जो तुम्हें मिला है बहुत है; ऐसी भाव-दशा में अचानक एक दिन द्वार पर दस्तक पड़ती है--परमात्मा द्वार पर खड़ा है!
अपने को प्रेम करो। और तब बड़ी कठिनाई होगी। जैसे-जैसे तुम अपने को प्रेम करोगे तुम अपने को बदलने भी लगोगे, क्योंकि प्रेम के योग्य भी तो बनाना होगा। एक बार तुम्हें यह खयाल आ जाए कि अपने को प्रेम करना है तो तुम्हें बहुत सी क्षुद्रताएं दिखाई पड़ने लगेंगी जो कि प्रेम न करने देंगी। उन क्षुद्रताओं को तुम्हें छोड़ देना होगा। वे तुम्हारी समझ से छूट जाएंगी। अगर तुम्हें अपने को प्रेम करना है तो प्रेम-पात्र के योग्य भी तो बनना होगा। तब तुम पाओगे कि बहुत सी क्षुद्रताएं असंभव हो गई हैं। क्योंकि कैसे तुम कर सकते हो वे क्षुद्रताएं? अगर करोगे तो निंदा शुरू हो जाती है।
अगर तुमने जरा सी बात में क्रोध किया तो तुम खुद आत्म-निंदित हो जाओगे कि यह क्या क्षुद्रता है! यह क्या उथलापन है! जरा सी बात में और गरम हो गया। इतनी भी शीतलता न थी कि इतनी सी बात को सह जाता। तुम अचानक पाओगे कि अगर अपने को प्रेम करना है तो क्रोध धीरे-धीरे छूटेगा। अगर अपने को प्रेम करना है घृणा धीरे-धीरे गिरेगी। नहीं तो तुम प्रेम न कर पाओगे। जब अपने को प्रेम करना है तो अपने को तैयार भी करना होगा। तुम धीरे-धीरे अपने को निखारने में लग जाओगे।
अब तक तुमने दूसरों के लिए अपने को तैयार किया था, तो तुम बाहर से सजाते थे--अच्छे वस्त्र पहनते थे, गंध छिड़कते थे, फूल बालों में खोंस लेते थे, रंग-रोगन कर लेते थे--बाहर से अपने को सजा-संवार कर जाते थे। जब तुम अपने को प्रेम करोगे तो बाहर की सजावट तो काम न आएगी, क्योंकि तुम तो भीतर हो। और तुम कितना ही रंग ऊपर पोत लो चेहरे के, तुम्हें तो अपना असली चेहरा पता ही है।
नहीं, जब तुम अपने को प्रेम करोगे तो तुम्हें भीतर सजाना पड़ेगा; भीतर का शृंगार शुरू होगा। और भीतर का शृंगार ही साधना है।
"संत अपने को जानते हैं, पर दिखाते नहीं। अपने को प्रेम करते हैं, पर उछालते नहीं। इसलिए एक को, शक्ति को वे अस्वीकार करते हैं; और दूसरे को, कुलीनता को स्वीकार करते हैं।'
संत शक्ति को अस्वीकार करते हैं, शांति को स्वीकार करते हैं। शक्ति को अस्वीकार करते हैं, गहन विनम्रता को स्वीकार करते हैं। क्या है राज इस बात का?
शक्ति को वही आदमी स्वीकार करता है जो भयभीत है। भय के कारण तुम शक्ति को स्वीकार करते हो। भय के कारण शक्ति ही तो बचाव बन सकती है। तो तुम चाहते हो धन इकट्ठा कर लूं; समय पड़ेगा, काम आएगा। तलवार खरीद लूं; दुश्मन आएगा, हाथ रहेगी, मौके पर काम आ जाएगी। मित्र बना लूं, क्योंकि शत्रुओं का डर है। किसी पद पर पहुंच जाऊं, क्योंकि पद पर जो आदमी है उसके पास ज्यादा ताकत है। प्रधानमंत्री हो जाऊं, तो उसके पास बड़ी ताकत है, बड़ी फौजें हैं, सुरक्षा है। भयभीत आदमी शक्ति की खोज करता है और शक्ति को मानता है।
तुम तो इस बात को क्राइटेरियन समझ लो, मापदंड, कि जो आदमी भी शक्ति की खोज में है वह भीरु है। नहीं तो शक्ति की खोज क्यों करता? जो आदमी भय से मुक्त हो गया, अभय हो गया, उसकी शक्ति की आकांक्षा खो जाती है। वह शक्ति की कोई आकांक्षा नहीं करता--न धन में, न पद में, न प्रतिष्ठा में। शक्ति की आकांक्षा ही खो जाती है। और जहां शक्ति की आकांक्षा खो जाती है वहीं विशिष्टता है।
लाओत्से कहता है, वही कुलीन है।
तुम्हारे किस कुल में तुम पैदा हुए उससे तुम कुलीन नहीं होते। जिस दिन तुम विनम्रता के कुल में पैदा होते हो उसी दिन कुलीन होते हो। जिस दिन तुम्हारी शक्ति की आकांक्षा छूट जाती, अहंकार विलीन हो जाता, भय चला जाता, निंदा खो जाती और तुम अपने भीतर तृप्त-संतुष्ट हो जाते हो, एक गहन परितोष तुम्हारे भीतर उठता है जैसे सुबह का सूरज उगता हो, उस परितोष के प्रकाश में तुम वस्तुतः कुलीन हुए।
बुद्ध ने कहा है बुद्ध के पिता से। क्योंकि बुद्ध के पिता ने जब बुद्ध वापस लौटे तो कहा कि तू हमारे कुल में पैदा हुआ! और हमारे कुल में कभी भिखारी नहीं हुए और तू भीख मांगता है, हमें शर्म आती है! तू सम्राट है; भीख मांगने की कोई जरूरत नहीं। और मैं तेरा पिता हूं, मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं; तू वापस लौट आ। बुद्ध ने कहा, आप अपनी तरफ से ठीक ही कहते हैं। लेकिन अब मैं दूसरे कुल में पैदा हो गया हूं। वह कुल आपका था जहां यह शरीर पैदा हुआ। और अब तो मैं बुद्धों के कुल में पैदा हो गया हूं। वहां आपके शरीर का, आपके कुल का, आपके साम्राज्य का, आपके सम्राट होने का कुछ भी लेना-देना नहीं। और जहां तक मैं जानता हूं, जिस कुल में मैं हूं, वैसे व्यक्ति सदा ही रास्ते के भिखारी रहे हैं।
कुलीन तुम तभी होते हो जब तुम जाग आते हो अंधेरे से। तब तुम बुद्धों के कुल में पैदा हुए। संन्यास उस यात्रा का पहला कदम है जिसके अंत में व्यक्ति बुद्धों के कुल में पैदा होता है।

आज इतना ही।


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