श्रीमद्भगवद्गीता
अथ
नवमोऽध्याय:
श्रीभगवानवाच
हदं तु ते
गुह्यतमं
प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं
विज्ञानसीहतं
यज्ञ्ज्ञात्वा
मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
1।।
राजविद्या
राजगुह्मं
यीवप्रीमदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं
धर्म्यं
सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
2।।
अश्रद्दधाना:
पुरूषा
धर्मस्यास्य
परंतप।
अप्राप्य
मां निवर्कन्ते
मृत्युसंसारवर्त्मीन।।
3।।
श्रीकृष्ण
भगवान बोले हे
अर्जुन, तुझ दोष—
दृष्टि रहित
भक्त के लिए हम
परम गोपनीय
ज्ञान को
रहस्य के सहित
कहूंगा? कि
जिसको जानकर
तू दुखरूप
संसार से मुक्त
हो जाएगा। यह
ज्ञान सब
विद्याओं का
राजा तथा सब
गोपनीयों का
भी राजा एवं
अति पवित्र
उत्तम प्रत्यक्ष
फल वाला और
धर्मयुक्त है, साधन करने
को बड़ा सुगम
और अविनाशी
है। और हे
परंतप इस तत्व—ज्ञान—
रूप धर्म में
श्रद्धारहित
पुरुष मेरे को
प्राप्त न
होकर
मृत्युरूप
संसार— चक्र
में भ्रमण
करते हैं।
जीवन को देखने
की एक दृष्टि
नकारात्मक भी
है और एक
दृष्टि
विधायक भी।
जीवन को ऐसे
भी देखा जा सकता
है कि उसमें
पदार्थ के
अतिरिक्त और
कुछ भी दिखाई
न पड़े, और
ऐसे भी कि
परमात्मा के
अतिरिक्त कोई
पदार्थ शेष न
रहे। जो कहते
हैं कि जीवन मात्र
पदार्थ है, वे केवल
इतना ही कहते
हैं कि उनकी
देखने की दृष्टि
नकारात्मक, निगेटिव है।
जो कहते हैं
कि जीवन
पदार्थ नहीं,
परमात्मा
है, वे भी
इतना ही कहते
हैं कि उनकी
देखने की दृष्टि
विधायक, पाजिटिव
है।
इस
सूत्र में
उतरने के पहले
इन दो
दृष्टियों को
ठीक से समझ
लेना जरूरी है, क्योंकि
जगत वैसा ही
दिखाई पड़ता है,
जैसी हमारी
दृष्टि होती
है। जो हम
देखते हैं, वह हमारी आख
की खबर है। जो
हम पाते हैं, वह हमारा ही
रखा हुआ है।
जो हमें दिखाई
पड़ता है, वह
हमारा ही भाव
है, और
हमारे ही भाव
का
प्रत्यक्षीकरण
है। विज्ञान
सोचता था कि
मनुष्य तटस्थ
होकर भी देख
सकता है। और
वितान की
आधारशिला यही
थी कि व्यक्ति
तटस्थ होकर
निरीक्षण
करे—कोई भाव न
हो उसका, कोई दृष्टि
न हो उसकी—तभी,
सत्य क्या
है, वह
जाना जा
सकेगा। लेकिन
विगत तीन सौ
वर्षों की
वैज्ञानिक
खोज ने
विज्ञान की
अपनी ही आधारशिला
को डगमगा दिया
है। और अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि कोई
उपाय ही नहीं
है कि व्यक्ति
दृष्टि को
छोड्कर और
तथ्य को देख
सके।
एक
बहुत कीमती
विचारक
पोल्यानी ने
इस सदी की महत्वपूर्ण
किताब लिखी
है। उस किताब
को नाम दिया
है, पर्सनल
नालेज। और
पोल्यानी का
कहना है कि
कोई भी ज्ञान
व्यक्ति से
मुक्त नहीं हो
सकता। जानने
में जानने
वाला
समाविष्ट हो
जाता है। जो
हम देखते हैं,
उसमें
हमारी आख की
छाप पड जाती
है। जो हम
छूते हैं, छूने
से हमें जो
अनुभव होता है,
वह वस्तु का
ही नहीं, अपने
हाथ की क्षमता
का भी है। जो
मैं सुनता हूं
उस सुनने में
मेरे कान पर
पड़ी हुई
ध्वनियों की
चोट ही नहीं, मेरे कान की
व्याख्या भी
सम्मिलित हो
जाती है।
व्याख्यारहित
देखना असंभव
है। कोई उपाय
नहीं है। हम
कितनी ही
चेष्टा करें, जो
निरीक्षण कर
रहा है, वह
बाहर नहीं रह
जाता, वह
भीतर
प्रविष्ट हो
जाता है। अगर
आप एक वृक्ष
के पास से
गुजरते हैं और
वह वृक्ष आपको
सुंदर दिखाई पड़ता
है, तो
इसमें वृक्ष
का सौंदर्य तो
है ही; आपकी
देखने की
क्षमता, आपकी
व्याख्या, आपके
मनोभाव, आपकी
मनःस्थिति, आप भी
सम्मिलित हो
गए। क्योंकि
ऐसा भी हो
सकता है कि जब
आप दुखी हों, तब यह वृक्ष
सुंदर दिखाई न
पडे। और ऐसा
भी होगा कि जब
आप आनंदित हों,
तो यह वृक्ष
भी नाचता हुआ
दिखाई पड़ने
लगे।
और जब
एक चित्रकार
वृक्ष के पास
से निकलता है, तो उसे जो
रंग दिखाई
देते हैं, वे
गैर—चित्रकार
को कभी भी
दिखाई नहीं दे
सकते। और जब
एक कवि उस
वृक्ष के पास
से निकलता है,
तो उस वृक्ष
के फूलों में
जो काव्य लग
जाता है—वह, जिसके पास
कवि का हृदय
नहीं है, उसे
कभी भी अनुभव
में नहीं आ
सकता है। और
उसी वृक्ष के
नीचे एक
व्यक्ति
दुकानदार की
तरह बैठा हो, तो उसे
वृक्ष में यह
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ेगा।
तो जब
हम वृक्ष को
देखते हैं, तो वृक्ष
को ही देखते
हैं या हम भी
उसमें
समाविष्ट हो
जाते हैं? या
कि कोई ऐसा
उपाय भी है कि
वृक्ष को हम
वैसा देख सकें,
जैसा वृक्ष
अपने में है—स्वयं
को
उसके
साथ संयुक्त
किए बिना?
कुछ
लोग सोचते रहे
हैं कि यह संभव
है। यह संभव
नहीं है।
यह बस
अप्राकृतिक
है। देखने में, देखने
वाला
प्रविष्ट हो
जाएगा। जैसा
स्वरूप है जगत
का, उसका
ही यह हिस्सा
है। और अब
वैज्ञानिक भी
स्वीकार करते
हैं कि हमने
जो विज्ञान
विकसित किया
है, वह भी
तथ्य कम है, व्याख्या
ज्यादा है। जो
हम देखते हैं,
उसे हम
शुद्ध नहीं
देखते, वह
हमसे
सम्मिश्रित
हो जाता है।
मनुष्य
का कोई भी ज्ञान
मनुष्य से
मिश्रित हुए
बिना नहीं बच
सकता है। अगर
यह ठीक है, अगर यह
सत्य है, तो
फिर हम
नास्तिक के
साथ भी विरोध
करने का कोई
कारण नहीं
पाते। अगर वह
कहता है, जगत
में ईश्वर
नहीं है, तो
वह केवल इतना
ही कहता है कि
मेरी जो
दृष्टि है, उससे जगत
में ईश्वर
दिखाई नहीं
पड़ता है। तब
आस्तिक से भी
कोई कठिनाई
नहीं है किसी
को। अगर वह
कहता है, मुझे
जगत में ईश्वर
दिखाई पड़ता है,
तो वह असल
में भाषा गलत
उपयोग कर रहा
है। उसे इतना
ही कहना चाहिए
कि जैसी मेरी
दृष्टि है, उसमें मुझे
जगत में ईश्वर
दिखाई पड़ता
है।
कृष्ण
ने इस सूत्र
की शुरुआत की
है, अर्जुन
को उन्होंने
कहा है, हे
अर्जुन! तुझ
दोष—दृष्टि
रहित भक्त के
लिए इस परम
गोपनीय ज्ञान के
रहस्य को अब
मैं कहूंगा।
दोष—दृष्टि
रहित! भक्त की
वह व्याख्या
है। जब आप किसी
व्यक्ति को
दुश्मन की तरह
देखते हैं, तब आप
उसमें जो
खोजते हैं, वह दोष के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
होता। ऐसा
नहीं कि उसमें
दोष ही दोष
हैं क्योंकि
कल वही आपका
मित्र था और
आपको दोष
दिखाई नहीं
पड़े थे। और कल
आपने उसे
प्रेम की आख
से देखा था, और उसमें
आपको जो
श्रेष्ठ है, उसका दर्शन
हुआ था। और आज
घृणा की आख से
उसी व्यक्ति
में जो
निकृष्ट है, वह दिखाई
पड़ता है। कल
आपको उस
व्यक्ति में
उज्ज्वल
शिखर। दिखाई
पड़े थे, आज
उसी व्यक्ति
में अंधेरी
खाई दिखाई
पड़ती है। कल
आपने उसकी
ऊंचाई को चुना
था, आज आप
उसकी नीचाई को
चुन रहे हैं।
और आप जो चुनना
चाहते हैं, वही आपको
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाता
है।
इसे
ऐसा समझें कि
मैं अगर अपने
मकान की खिड़की
के पास खड़ा
हूं। बाहर
आकाश में चांद
निकला है। मैं
चांद को देखूं
तो खिड़की मुझे
दिखाई नहीं
पड़ेगी; खिडकी भूल
जाएगी। चांद
दिखाई पड़ेगा,
आकाश में
घूमते हुए
बादल दिखाई
पड़ेंगे; खिड़की
विस्मृत हो
जाएगी, खिड़की
मौजूद ही नहीं
होगी। मेरी
दृष्टि से, मेरे दर्शन
से खिड़की का
विलोप हो
जायेगा।
लेकिन आप
चाहें तो अपनी
दृष्टि बदल ले
सकते भूल जाएं
चांद को, देखें
खिड़की को।
जब आप
खिडकी को
देखेंगे, तो 'चांद
पृष्ठभूमि
में छूट
जाएगा। और अगर
आप ध्यानपूर्वक
खिड़की को
देखेंगे, तो
चांद विलीन हो
जाएगा; आकाश
के बादल खो
जाएंगे, बाहर
के वृक्ष नहीं
हो जाएंगे।
खिड़की का चौखटा
आपको दिखाई
पड़ने लगेगा।
पश्चिम
के मनसविद इसे
गेस्टाल्ट
कहते हैं। वे
कहते हैं कि
जब भी हम कुछ
देखते हैं, तो हम जिस
बात पर ध्यान
देते हैं, वही
हमें दिखाई
पड़ता है, और
जिस पर हम
ध्यान नहीं
देते, वह
हमें दिखाई नहीं
पड़ता। ध्यान
ही हमारा
अनुभव है।
तो जब
मैं एक
व्यक्ति को
दुश्मन की तरह
देखता हूं? तो मुझे
कुछ और दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
मेरा ध्यान
किन्हीं और
चीजों की तलाश
करता है, और
जब मैं मित्र
की तरह देखता हूं, तब उसी।
व्यक्ति में
मुझे कुछ और
दिखाई पड़ता है,
मेरा ध्यान
कुछ और तलाश
करता है। वह
जो व्यक्ति
बाहर है, उसे
तो मैं जानता
नहीं। जब भी
मैं उस
व्यक्ति के
संबंध में कुछ
भी निष्कर्ष
निकालता हूं, तब वह मेरी
ही व्याख्या
है।
जगत को
जो दोष—दृष्टि
से देखेगा, जगत में
उसे कुछ भी
श्रेष्ठ
दिखाई नहीं
पड़ेगा; सत्य
की कोई
प्रतीति होती
नहीं मालूम
पड़ेगी, सौंदर्य
का कोई अनुभव
नहीं, काव्य
की कोई
प्रतीति नहीं,
कोई पुलक
नहीं; नृत्य
का उसे कोई भी
आभास नहीं
होगा। जगत एक
उत्सव है, यह
उसकी प्रतीति
नहीं बनेगी।
जगत उसे एक
उदास व्यवस्था
मालूम पड़ेगी। आंसू
उसे दिखाई पड़
सकते हैं, मुस्कुराहटें
उसकी आख से खो
जाएंगी, ओझल
हो जाएंगी।
उसे कांटे
दिखाई पड़ सकते
हैं, फूल? फूल बस
तिरोहित हो
जाएंगे। और इन
सबका जो जोड़ होगा,
वही
नास्तिक का
जगत है।
दोष—दृष्टि
से जगत को
देखा जाए, तो
नास्तिक के
दर्शन का जन्म
होता है।
लेकिन भक्त
जगत को और तरह
से देखता है।
कृष्ण
कहते है कि अब मैं
तुझ दोष—दृष्टि
रहित भक्त के
लिए रहस्य की
बात कहूंगा।
वह
रहस्य की बात
कही ही तब जा
सकती है, जब दोष—दृष्टि
मौजूद न हो।
अन्यथा उसे
कहा नहीं जा
सकता, क्योंकि
कहना व्यर्थ
है। क्योंकि
कहा भी जाए, तो सुना
नहीं जा सकता।
अगर अर्जुन
अभी दोष देखने
की मनोदशा में
हो, तो
कृष्ण रहस्य
की परम गोपनीय
बात को कहने
में समर्थ
नहीं हो सकते।
अर्जुन सुन ही
न पाएगा।
जीसस
ने बार—बार
बाइबिल में
कहा है, जिनके पास आंखें
हों, वे
देखें; और
जिनके पास कान
हों, वे
सुन लें, मैं
कहे जा रहा
हूं, मैं
प्रकट किए जा
रहा हूं।
जिनसे
वे बोल रहे थे, वे अंधे
भी नहीं थे और
बहरे भी नहीं
थे। उनके पास
ठीक आपके जैसी
ही आंखें थीं,
और आपके
जैसे ही कान
थे। लेकिन
जीसस को यह
बार—बार कहना
पड़ा है कि
जिनके पास आख
हो, वे देख
लें, क्योंकि
मैं मौजूद हूं;
और जिनके
पास कान हो, .वे सुन लें, क्योंकि मैं
बोल रहा हूं; जिनके पास
हृदय हो, वे
अनुभव कर लें,
क्योंकि
अनुभव सामने
साकार है।
कृष्ण
कहते हैं, अब मैं
गोपनीय बात कह
सकूंगा।
आठ
लंबे
अध्यायों की
चर्चा के बाद
कृष्ण श्रद्धा
के सूत्र पर
विचार करना
शुरू करते
हैं। अब तक वे
तर्क की बात
कर रहे थे। अब
तक वे अर्जुन
को समझाने की
कोशिश कर रहे
थे, क्योंकि
अर्जुन नासमझ
बने रहने की
जिद्द पर अड़ा
था। अब तक वे
अर्जुन के
संदेह काटने
में लगे थे, क्योंकि
अर्जुन संदेह
पर संदेह खड़े
किए जाता था।
अब तक वे
अर्जुन के
नास्तिक से
संघर्ष कर रहे
थे। अब वे
कहते हैं, तेरा
नास्तिक विसर्जित
हुआ। अब तेरी
दोष—दृष्टि खो
गई। अब तू
संदेह से भरा
हुआ दिखाई नहीं
पड़ता। अब तेरे
मन में दुविधा
नहीं है। अब तू
किसी जिद्द पर
अडा हुआ नहीं
है। अब तू
विपरीत
अपेक्षा से
सोचेगा नहीं।
अब तेरे हृदय
का द्वार
खुला। अब तू
दोष—दृष्टि को
छोड्कर देख
सकेगा। तो मैं
अब तुझसे परम
गोपनीय रहस्य
की बात कहता
हूं।
जब
चित्त संदेह
से भरा हो, तो
क्षुद्र
बातें ही कही
जा सकती हैं।
उन्हें भी
कहना मुश्किल
है, क्योंकि
क्षुद्र
बातों पर भी
संदेह खड़ा हो
जाता है। जब
गहन बातें
कहनी हों, तो
एक आत्मीयता
चाहिए, एक
इंटिमेसी, एक
ऐसा नैकटय, एक ऐसा
अपनापन, जहां
संदेह भेद खडा
नहीं करता है,
जहां
शंकाएं उठकर
बीच में जो
नैकटच की शात
झील बनी है, उस पर लहरें
नहीं उठाती, कोई कंपन
नहीं है संदेह
का—तभी जो
रहस्यपूर्ण
है, वह कहा
जा सकता है।
जरा—सा भी
संदेह का कंपन
हो, तो
रहस्यपूर्ण
नहीं कहा जा
सकता है। कहना
व्यर्थ है, क्योंकि
सुना नहीं जा
सकेगा। बताना
फिजूल है, क्योंकि
देखा नहीं जा
सकेगा।
कृष्ण
प्रसन्न होकर
इस सूत्र को
कहते हैं। इन आठ
अध्यायों में
उन्होंने
निरंतर
अर्जुन की बुद्धि
से संघर्ष
किया है, बुद्धि को
काटा है। ताकि
बुद्धि हट जाए,
तो हृदय उभर
आए। और बुद्धि
जब तक काम
करती है, तब
तक हृदय
विश्राम करता
है। और जब
बुद्धि विश्राम
पर चली जाती
है, तो
हृदय सक्रिय
हो जाता है।
और कुछ रहस्य
हैं, जो
केवल हृदय से
ही समझे जा
सकते हैं। ऐसा
समझें
कि जो भी
रहस्य हैं, वे हृदय
से ही समझे जा
सकते हैं।
क्योंकि हृदय
जरा—सी भी भेद
की रेखा नहीं
खींचता। हृदय
निकट आ सकता
है, बुद्धि
दूर ले जाती
है।
अगर दो
व्यक्ति बैठे
हों और उनके
बीच बुद्धि का
संबंध हो, तो उनके
बीच इतना
फासला है, जितना
किन्हीं दो
आकाश के तारों
के बीच है। वे
कितने ही निकट
बैठे हों, वे
एक—दूसरे के
गले में हाथ
डालकर बैठे
हों; लेकिन
अगर उनके बीच
बुद्धि का
आवागमन है, अगर उन
दोनों के बीच
विचार का लेन—देन
है, अगर
उनका संबंध
बौद्धिक है, इंटलेक्चुअल
है, तो वे
इतने फासले पर
हैं, जितने
फासले पर दो
बिंदु हो सकते
हैं। लेकिन अगर
दो दूर के
ताराओं पर भी
दो व्यक्ति
बैठे हों, और
उनके बीच
विचार का
आवागमन नहीं
है, और
हृदय के द्वार
खुल गए हैं, तो वे इतने
निकट हैं, जितने
निकट कभी भी
दो प्रेमी
नहीं हुए।
नैकटय, निस्तरंग
आत्मीयता का
नाम है। जब
दोनों के बीच
कोई तरंग न
उठती हो। जब
अर्जुन
अर्जुन न रहे और
अपनी बुद्धि
को तिलांजलि
दे दे, तो
ही कृष्ण जो
रहस्य उसे
कहना चाहते
हैं, उसके
कहने की
भूमिका
निर्मित होती
है, अर्जुन
पात्र बनता
है।
अब तक
उसने उठाए हैं
सवाल। सवाल दो
तरह से उठाए
जाते हैं। एक
तो इसलिए कि
जो कहा गया है, उसे और
गहरे में
समझना है, तब
सवाल हृदय से
आते हैं। और
एक इसलिए कि
जो कहा गया है,
उसे गलत
सिद्ध करना है,
तब सवाल
बुद्धि से
उठाए जाते
हैं। एक तो तब,
जब मैं
जानता हूं
पहले से ही कि
सही क्या है, और उसके
आधार पर सवाल
उठाए चला जाता
हूं। तब वे
बुद्धि से
उठाए जाते
हैं। और एक तब,
जब मुझे तो
पता नहीं कि
सही क्या है, लेकिन मैं
सही को जानना
चाहता हूं; तब हृदय से
सवाल उठाए
जाते हैं।
जो
सवाल हृदय से
आते हैं, वे संदेह
नहीं हैं। वे
प्रश्न
सत्संग बन
जाते हैं। और
जो सवाल
बुद्धि से आते
हैं, वे
सवाल दो के
बीच खाई को और
गहरा कर देते
हैं।
बुद्धि
और बुद्धि के
बीच की खाई को
पाटना असंभव
है। बुद्धि और
बुद्धि के बीच
किसी तरह का
सेतु निर्मित
नहीं होता है।
बुद्धि और
बुद्धि के बीच
सिर्फ टूट हो
सकती है, मेल नहीं हो
सकता। हृदय और
हृदय के बीच
टूट का कोई
उपाय नहीं, मेल
स्वाभाविक
है। इसलिए
कृष्ण ने पूरी
कोशिश की हे
कि अर्जुन की
बुद्धि को
काटकर गिरा
दें। बुद्धि हट
जाए, बुद्धि
का पर्दा हट
जाए, तो
हृदय उन्मुख
हो जाता है, सामने आ
जाता है।
अब
अर्जुन का
हृदय कृष्ण को
सामने मालूम
पड़ रहा है। अब
वे देख पा रहे
हैं कि अब
उसकी दोष—दृष्टि
खो गई है। और
जब दोष—दृष्टि
खोती है, तो आख से, चेहरे
से, एक—एक
भाव— भंगिमा
से, एक—एक
गेस्चर से वह
प्रकट होने
लगती है।
जब
आपके भीतर
संदेह होता है, तो आपकी
आख भी संदेह
से भर जाती है,
आपके होंठ
भी, आपकी
भाव— भंगिमा
भी। आपका
प्राण ही
संदेह से नहीं
भरता, आपका
रोआं—रोआं
शरीर का संदेह
से भर जाता
है।
किसी
दिन अगर
विज्ञान
समर्थ हो सका, तो संदेह
से भरे हुए
आदमी के खून
में और
श्रद्धा से
भरे हुए आदमी
के खून में
अगर रासायनिक
फर्क खोज ले, तो कोई
आश्चर्य न
होगा। अगर
केमिकल फर्क
मिल जाए, तो
कोई आश्चर्य न
होगा।
क्योंकि
विज्ञान यह तो
अनुभव करने
लगा है कि जब
एक आदमी प्रेम
से भरता है, तो उसके खून
की केमिकल, उसके खून की
रासायनिक
व्यवस्था
रूपांतरित हो
जाती है। और जब
एक आदमी क्रोध
से भरता है, तब उसके खून
की रासायनिक
व्यवस्था
रूपांतरित हो
जाती है। उसके
खून में जहर
फैल जाता है।
जब एक आदमी
उदास होता है,
तब उसके खून
का रासायनिक
रूप और होता
है, और जब
एक आदमी
प्रफुल्लित
होता है, आशा
से, उमंग
से भरा होता
है, जब
उसकी हृदय की
धड़कनें आशा के
गीत गाती होती
हैं, तब
उसके खून की
रासायनिक
व्यवस्था बदल
जाती है।
शरीर
का कण—कण भी
बदल जाता है, जब भीतर
का मन बदलता
है; क्योंकि
शरीर मन की
छाया मात्र
है। क्योंकि शरीर
जो भी है, वह
मन का ही
प्रतिफलन है।
कृष्ण
कहते हैं कि
अब यह संभव है
अर्जुन, तू दोष
देखने वाली
दृष्टि से
मुक्त हुआ, रिक्त हुआ, खाली हुआ, तो अब मैं
तुझसे रहस्य
की बात कह
सकूंगा।
दोष की
दृष्टि क्या
है? यह
नकारात्मक
देखने का ढंग
क्या है? अगर
मैं आपसे कहूं
कि ईश्वर है, तो जो दोष की
दृष्टि है, वह पूछेगी, कहां है? इसलिए
नहीं कि उसे
खोजना है; बल्कि
सिर्फ इसलिए
कि जो कहा गया
है, वह सही
नहीं है।
भक्तों ने भी
पूछा है कि कहां
है? लेकिन इसलिए
नहीं कि जो
कहा गया है, वह गलत है, बल्कि इसलिए
कि उसे कहां
खोजें? कहां
पाएं उसे? किस
तरफ देखें? किस मार्ग
पर चले?
भक्त
ने जब भी कभी उसने
पूछा है कि
समझा, है।
कैसे उसे पाएं?
उसने जब भी
प्रश्न उठाये
है। तो वे
प्रश्न है, कैसे?
उनका रूप कुछ
भी रहा हो।
उसने यह पूछा
है कि ठीक है, वह है। कहां
है? कैसे
उसे खोजें? क्या है
मार्ग? क्या
है विधि? कहां
तक, कैसे
मैं अपने को
रूपांतरित
करूं कि वह
मुझे मिल जाए?
उसने भी
प्रश्न पूछे
हैं, लेकिन
उसके प्रश्न
किसी अनुभूति
की पिपासा से
उठे हैं। और
जब एक नकारात्मक
दृष्टि पूछती
है, तब वह
यह पूछती है
कि गलत है यह
बात। कहां है?
प्रत्यक्ष
मेरे सामने
लाकर रखो।
यहां मेरे सामने
हो, तो मैं
मानूं। वह असल
में यह कह रहा
है कि अगर
परमात्मा एक
पदार्थ हो, तो मैं
स्वीकार
करूं।
परमात्मा अगर
एक वस्तु हो, तो मैं
स्वीकार
करूं।
प्रयोगशाला
में अगर परीक्षण
हो सके, तो
मैं स्वीकार
करूं। मैं उसे
डिसेक्ट कर
सकूं? काट—पीट
सकूं। जैसे कि
चिकित्साशास्त्र
का विद्यार्थी
अपनी टेबल पर
रखकर मेंढक को
काट—पीट रहा
है, जांच—पड़ताल
कर रहा है, आदमी
के अस्थिपंजर
में खोज कर
रहा है। ऐसा
अगर तुम्हारा
ईश्वर कहीं हो,
तो लाओ, उसे
रखो
प्रयोगशाला
की टेबल पर, सर्जरी की
टेबल पर, हम
उसे काटें—पीटें,
उसे खोजें,
क्या है
उसके भीतर? कुछ है भी या
धोखा है!
नकारात्मक
दृष्टि
विश्लेषण
मांगती है, एनालिसिस,
तोडो, खंड—खंड
करो, तभी
हम स्वीकार
करेंगे कि है।
अगर हमने
तोड़कर भी पाया
कि है, तो
ही हम मानेंगे
कि है।
नकारात्मक
दृष्टि खंड—खंड
करने में
भरोसा रखती
है। अगर हम एक
फूल दें, तो
नकारात्मक
दृष्टि तोडकर
सौंदर्य की
खोज करेगी।
पंखुड़ियों को
काट डालेगी।
एक—एक रस को
पृथक कर लेगी।
एक—एक खनिज को
तोड़ डालेगी।
और तब अलग— अलग
शीशियों में
बंद करके फूल
के सौंदर्य की
खोज करेगी।
स्वभावत:, फूल का
सौंदर्य नहीं
मिलेगा; क्योंकि
फूल का
सौंदर्य फूल
की पूर्णता
में है, उसकी
समग्रता में
है, उसकी
टोटेलिटी में
है। तोड़ते ही
खो जाता है। फूल
का सौंदर्य
उसके खंडों
में नहीं, उसकी
अखंडता में
है। और जो भी
अखंडता में है,
नकारात्मक
दृष्टि उसे
कभी भी नहीं
पा पाएगी।
परमात्मा
परिपूर्ण
अखंडता है।
अगर फूल अपनी अखंडता
में है, तो फूल की
समग्रता।
परमात्मा का
अर्थ है, सारे
अस्तित्व की
समग्रता।
पूरा
अस्तित्व अगर
एक फूल है, तो
परमात्मा
उसकी समग्रता
का सौंदर्य
है।
नकार
की दृष्टि
इंद्रियों पर
भरोसा करती
है। जो
इंद्रियों को
प्रतीत हो, वही सत्य
है; जिसे
इंद्रिया
इनकार कर दें,
वह सत्य
नहीं है।
लेकिन इस
दृष्टि को भी
धीरे— धीरे
जैसे—जैसे
गहरे उतरने का
मौका
मिला, उसे ऐसी
बातों को
स्वीकार करना
पड़ा है, जिनकी
इंद्रियां
कोई भी खबर
नहीं देतीं।
आज का
सारा विज्ञान
परमाणु की खोज
पर खड़ा है, इंद्रियां
उसकी कोई खबर
नहीं देतीं।
ज्यादा से
ज्यादा हम
परमाणु के जो
परिणाम हो
सकते हैं, इफेक्ट्स
हो सकते हैं, उन्हें जान
सकते हैं, लेकिन
स्वयं परमाणु
को नहीं।
लेकिन इसी
बुद्धि ने कल
यह मानने से
इनकार कर दिया
था कि आदमी के
भीतर प्रेम
है। प्रेम के
परिणाम तो
दिखाई पड़ते
हैं। क्योंकि
एक मां अपने
जीवन के न
मालूम कितने
कीमती समय को
प्रेम के लिए
विलीन कर देती
है! कि कोई
प्रेमी अपने
प्रेमी के लिए
मर जाता है!
जीवन को भी
छोड़ देता है
प्रेम के लिए!
तो
प्रेम के
परिणाम तो
भारी हैं, लेकिन
प्रेम को
काटकर जानने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
तो फिर प्रेम
एक कल्पना
होगी। फिर
प्रेम एक खयाल
है, फिर
उसकी कोई
वस्तुगत
सत्ता नहीं है,
ऐसा जो
मानते थे, वे
भी परमाणु को
स्वीकार
करेंगे। और वे
भी परमाणु के
नीचे उतरेंगे,
तो
इलेक्ट्रांस
को स्वीकार
करेंगे।
इंद्रियां
उनकी कोई भी
गवाही नहीं
देतीं।
विज्ञान
भी तोड़—तोड़कर
इस नतीजे पर
पहुंचा है कि
वे जो अंतिम खंड
हाथ में आते
हैं, वे
हाथ में आते
ही नहीं।
अंतिम खंड भी
हाथ से चूक
जाते हैं।
इंद्रियों की
पकड़ उन पर भी
नहीं बैठ
पाती। लेकिन
एक और दृष्टि
भी है, जिसे
विधायक, पाजिटिव
दृष्टि कहें।
जो जीवन को
तोड़कर नहीं, जोड़कर देखती
है। जो पूछती
है, तो
इसलिए कि
पहुंचें
कैसे। जो सवाल
भी उठाती है, तो इसलिए ताकि
जवाब मिल सके।
जवाब गलत है, इसलिए नहीं;
ताकि जवाब
किसी और का है
अभी, कल
मेरा भी कैसे
हो जाए इसलिए।
आज जो
कृष्ण कहते
हैं, कल
वह अर्जुन का
भी हो जाए, इसलिए
अगर सवाल पूछा
जाए, तो उस
सवाल की गरिमा
और गौरव अलग
है। उस सवाल की
गुणवत्ता, उसकी
क्वालिटी और
है। कृष्ण को
लगता है कि
अर्जुन अब उस
जगह आकर खड़ा हुआ
है, जहां
उसकी दोष की
दृष्टि खो गई
है। अब उससे
परम रहस्य की
बात कही जा
सकती है।
वे
कहते हैं, तुझ दोष—दृष्टि
रहित भक्त के
लिए इस परम
गोपनीय ज्ञान के
रहस्य को
कहूंगा।
दोष—दृष्टि
से जैसे ही
कोई व्यक्ति
रहित हुआ, वह भक्त
हो गया। भक्त
की इस परिभाषा
को ठीक से हृदय
में ले लें।
क्योंकि भक्त
से हम कुछ न मालूम
क्या समझते
हैं!
भक्त
से हमारे मन
में जो तस्वीर
उठती है, वह बहुत
बचकानी है।
भक्त से हमारे
मन में खयाल
उठता है कि
मंदिर में
पूजा का थाल
लिए जो खड़ा है!
भक्त से हमारे
मन में खयाल
उठता है कि जो
रोज नियम से, विधि से
प्रार्थना कर
रहा है! भक्त
से हमें खयाल
उठता है—जनेऊधारी,
टोपी लगाए
हुए, टीका
लगाए हुए!
भक्त से हमें
कुछ खयाल उठते
हैं; कुछ
तस्वीरें मन
में घूम जाती
हैं। लेकिन
भक्त का जो
अर्थ है, वह
है, जिसकी
दोष—दृष्टि
नष्ट हुई, जो
अब जीवन को
नकारात्मक
ढंग से नहीं
देखता; जिसने
अब जीवन को
उसकी
विधायकता में
देखने की तैयारी
जुटा ली।
इसे हम
ऐसा भी समझें, तो ठीक
होगा, मैंने
कहा कि
नकारात्मक जो
जीवन—दृष्टि
है, वह
चीजों को
तोड़कर देखती
है। तोड्ने के
लिए हमारे पास
एक शब्द है, विभक्त। चीजों
को बांटती है,
विभक्त
करती है। भक्त
का अर्थ इससे
उलटा है, जो
तोड़ता नहीं, जोड़ता है।
भक्त का अर्थ
है, जो
जोड़ता है।
विभक्त का
अर्थ है, जो
तोड़ता है।
अंग्रेजी
में भक्त के
लिए हम डिवोटी
शब्द का उपयोग
करते हैं। वह
एकदम ही गलत
है। उस डिवोटी
से हमारी वही
तस्वीर खयाल
में आती है, मंदिर
में पूजा का
थाल लिए। ठीक
भक्त का अगर अंग्रेजी
में कोई शब्द
हो सके
पर्यायवाची, तो वह
इंडिविजुअल
है। लेकिन
खयाल में नहीं
आएगा।
इंडिविजुअल
शब्द का भी
अर्थ होता है,
दैट व्हिच
कैन नाट बी
डिवाइडेड, इनडिविजिबल।
जो ! तोड़ा न जा
सके। जो टूटा हुआ
न हो। जिसका
भरोसा तोड्ने
पर न हो। जोडा
जा सके, जोड्ने
की तैयारी हो,
जुड़ा हुआ
हो।
कार्ल
गुस्ताव का ने
अपने
मनोविज्ञान
को ए थियरी आफ
इडिविजुएशन
कहा है—एक
होने का
विज्ञान।
भक्त का अर्थ
भी वही है। भक्त
का अर्थ है, जो जीवन
को जोड्ने
वाली दृष्टि
से। देखने में
समर्थ हुआ है।
यह सामर्थ्य
तभी आती है, जब हम
तोड्ने। वाली
दृष्टि को छोड
देते हैं, त्याग
कर देते हैं।
और जल्दी में
कोई छलांग
नहीं लगा
सकता।
कृष्ण
यह सूत्र गीता
के प्रारंभ
में भी कह सकते
थे, लेकिन
तब वह व्यर्थ
हुआ होता।
हममें से बहुत
लोग ऐसे ही
हैं, जो
गीता के आठ
अध्यायों की
यात्रा न करते,
सीधे इस
सूत्र से शुरू
करते। वे कृष्ण
से भी ज्यादा
समझदार अपने
को सोचते
होंगे!
कोई भी
व्यक्ति सीधा
भक्ति, में उतर कर बहुत
असफलता
पाएगा।
क्योंकि जब तक
बुद्धि अपनी
दौड़—धूप को शांत
न कर ले, तब
तक भक्त का
भाव उदय ही
नहीं हो जाए
तब तक बुद्धि थककर
हार न जाए, पराजित
होकर गिर न
जाए, अपने
ही हाथों अपनी
आत्महत्या न
कर ले—दौड़ ले, कोशिश कर ले,
संघर्ष कर
ले, विजय
की चेष्टा कर
ले, और सब
विफल हो जाए—तब
तक हृदय का
आविर्भाव
नहीं होता।
इसलिए
हृदय का अर्थ, अज्ञान
मत समझ लेना।
इसलिए हृदय का
अर्थ एक तरह
का भोला— भाला
बुद्धपन मत
समझ लेना।
इसलिए हृदय का
अर्थ बुद्धि
की कमजोरी मत
समझ लेना।
इसलिए यह मत समझ
लेना कि जिनकी
बुद्धि कमजोर
है, वे बड़े
धन्यभागी
हैं। यह भी मत
समझ लेना कि
जो सोच—विचार
नहीं सकते, उनका तो
भक्ति का
द्वार खुला ही
हुआ है!
नहीं।
भक्त तभी कोई
हो पाता है, जब
बुद्धि की
सारी
चेष्टाएं
असफल हो जाएं।
इसलिए भक्ति
बुद्धि के पार
ले जाती है, नीचे नहीं।
और जो बुद्धि
तक भी नहीं
पहुंच पाते, ध्यान रखें,
वे भक्ति तक
नहीं पहुंच
पाएंगे। यह
मेरी बात कठोर
मालूम पड़ेगी,
क्योंकि
भक्त ऐसा
सोचते हैं कि
ठीक है, बुद्धि
का तो बहुत
कठिन काम है।
हमारे में तो बुद्धि
है नहीं, तो
हम तो मंदिर
में घंटी
बजाकर, फूल
चढ़ाकर काम चला
लेंगे!
इस
धोखे में कोई
भी न पड़े।
जीवन के सत्य
की प्रतीति
श्रम मांगती
है। और कोई भी
क्षमा नहीं किया
जा सकता। और
जीवन के मंदिर
के प्रवेश में
सभी को संघर्ष
के रास्ते से
गुजरना ही
पड़ता है। वह अनिवार्यता
है। और पीछे
का कोई भी
दरवाजा नहीं है
कि आप कोई
रिश्वत देकर, कि भगवान
की स्तुति
करके पीछे के
किसी द्वार से
प्रवेश कर
जाएं।
इसलिए
कोई यह न सोचे
कि भक्ति का
मार्ग बड़ा सुगम
है। कृष्ण खुद
कहेंगे कि
सुगम है। लेकिन
ध्यान रखें कि
यह आठ
अध्यायों के
बाद वे अर्जुन
से कह रहे
हैं। आठ
अध्याय को मत
भूल जाएं। अगर
ऐसा ही सुगम
था, तो
कृष्ण बिलकुल
पागल हैं! यह
आधी गीता
व्यर्थ! जब
ऐसी सुगम ही
बात थी, तो
इसे शुरू में
ही कह देना
चाहिए था।
इतनी देर तक
अर्जुन का समय
गंवाने की क्या
है जरूरत? कठिन
मार्ग पहले
बताए, अब
सुगम बताते
हैं! सीधा
गणित तो यही
है। कि सुगम
पहले बता दिया
जाए। अकर सुगम
हो सके तो
कठिन बताया
जाए।
नहीं
कारण कुछ और
है भक्ति
सुगम है, अगर गीता के
आठ अध्याय आप
पार कर गये
हो। तो निश्चित
सुगम है।
लेकिन अगर वे
आठ आप सिर्फ
उलट गये हों, छोड़ ही गए
हों, तो
भक्ति अति कठिन
है। भक्ति की
सुगमता
बेशर्त नहीं
है। उसमें एक
शर्त है। और
शर्त में ही
सारा दांव है।
इसलिए
लोग कहते सुने
जाते हैं कि
हमारा मार्ग तो
भक्ति है।
उनका मतलब यह
होता है कि
बुद्धि की
झंझट में हम
नहीं पड़ते।
उनका मतलब यह
होता है कि
कौन उस उपद्रव
में पडे! और
अगर कोई
बुद्धि की
झंझट में पडा
है, तो
वे उसकी तरफ
ऐसे देखते हैं,
कि बेचारा।
अज्ञानी
अपने अज्ञान
में भी मजा
लेते हैं।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे कहते हैं,
पढ़ने—लिखने
से क्या होगा?
उनका मतलब
यह होता है कि
पढ़ा—लिखा जो आदमी
है, बेकार
गया। ऐसे वे
अपने मन में
संतोष कमाते
हैं।
मैं भी
जानता हूं
पढ़ने—लिखने से
क्या होगा!
लेकिन पढ़ने—लिखने
से क्या होगा, यह बहुत
पढ़े —लिखे
आदमी की बात
है। किताबें
बेकार हैं, यह उसकी बात
नहीं है, जिसे
काला अक्षर
भैंस बराबर
है। यह उसकी
बात है, जिसने
किताबों में
से गुजरकर
देखा है और
पाया है कि वे
बेकार हैं।
लेकिन
किताबें
बेकार हैं, यह किताबों
से गुजरे बिना
कभी किसी को
अनुभव नहीं
होता है। और
बुद्धि बेकार
है, यह
बुद्धि के
मार्ग से
गुजरे बिना
कभी भी पता नहीं
चलता है। इतनी
उपादेयता है।
बुद्धि से गुजरकर
फिर आदमी
बुद्धि का
भरोसा खो देता
है।
लेकिन
ध्यान रहे, इस भरोसे
के खोने के
लिए बुद्धि की
बड़ी जरूरत है।
इसलिए कृष्ण
ने पूरी मेहनत
की अर्जुन की
बुद्धि के
साथ। ऐसा नहीं
कहा कि क्या
जरूरत है ?' तू
भक्ति— भाव को
ग्रहण कर ले, तू भक्त हो
जा, समर्पित
हो जा। मान ले
मेरी, जो
मैं कहता हूं।
कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं कि
दुनिया में
कोई भी आदमी
तब तक मान
नहीं सकता, जब तक
उसकी जानने की
क्षमता पूरी
तरह पराजित न
हो जाए। जब तक
प्रश्न गिर ही
न जाएं, तब
तक
निष्प्रश्न
चित्त पैदा
नहीं होता। और
जब तक संदेह
अपनी पूरी
चेष्टा और
पूरा यत्न न
कर लें, तब
तक मरते नहीं
हैं; दबाए
जा सकते हैं।
हमारे पास जो
तथाकथित भक्तों
का समाज है, वह दबाया
हुआ समाज है।
वे दबाए हुए
संदेह उसके
भीतर भी हैं।
उसने कभी
संदेहों को
पार नहीं किया
है। वह उनको
दबाकर बैठ गया
है उनके ऊपर।
इसलिए उसकी
भक्ति कमजोर
और नपुंसक भी
है। क्षणभर
में डांवाडोल
हो जाती है।
इसलिए भक्त
होकर भी वह
डरता है।
नास्तिक की
बात सुनने में
घबड़ाता है।
कोई अगर ईश्वर
के विपरीत
बोलता हो, तो
कान में हाथ
डाल लेता है।
इतनी
घबड़ाहट भक्त
को? इतना
कमजोर भक्त? कि अगर वह
राम का भक्त
है—यह तो दूर
की बात है कि
नास्तिक की
बात वह न सुने—अगर
वह राम का
भक्त है, तो
कृष्ण की बात
नहीं सुनेगा!
इतनी नपुंसक
भक्ति? इतनी
कमजोर? इतनी
दीन? भक्ति
तो परम शक्ति
है। जब उसका
आविर्भाव होता
है, तो
उससे ज्यादा
बलशाली कोई
व्यक्ति ही
नहीं होता। वह
तो परम ऊर्जा
का जागरण है।
तो इस कमजोर
भक्त और परम
ऊर्जा के
जागरण का क्या
संबंध है?
एक
महिला चार दिन
पहले मेरे पास
आई। और वह कहने
लगी कि मैं
आपसे यह पूछने
आई हूं कि
मेरे गुरु तो
मर गए हैं, लेकिन वे
कह गए हैं कि
किसी और की
बात सुनने कभी
मत जाना, अन्यथा
मार्ग से
च्युत हो
जाएगी। तो
गुरु तो मर
चुके हैं, मैं
आपसे पूछने आई
हूं कि अगर
आपकी बात
सुनने आऊं, तो कोई हानि
तो न हो जाएगी?
सत्य
इतने कमजोर? और गुरु
इतने दीन? कहीं
कोई दूसरी बात
सुनकर
डांवाडोल तो न
हो जाएगा मन?
तो
जानना कि
डांवाडोल है
ही। अपने को
कब तक धोखा
दोगे? ऐसे
धोखे से नहीं
चलेगा। जरा—सा
हवा का झोंका
और सब प्राण
कैप जाएंगे, और सब
मुर्दा पत्ते
उड़ जाएंगे और
भीतर वे जो छिपे
हुए संदेह हैं,
ऊपर उघड
आएंगे। !? हम
ऐसे भक्त हैं,
जैसे
अंगारे के ऊपर
राख छा गई हो
बस। थोड़ा अंगारा
बुझ गया है, ऊपर—ऊपर राख
हो गई है, भीतर
अंगार जलती
है। भीतर
संदेह मौजूद
हैं। इसलिए हम
विपरीत बात से
भयभीत होते
हैं। भीतर संदेह
मौजूद है, वही
हमारा भय है।
हम भलीभांति
जानते हैं कि
कोई भी राख को
जरा—सी फूंक
मार देगा, तो
अंगारा भीतर
से प्रकट हो
जाएगा। ऐसी
भक्ति का कोई
भी मूल्य नहीं
है, आत्मवचना
है।
कृष्ण
ऐसी भक्ति की
बात नहीं कर
रहे हैं।
कृष्ण तो उन
मनीषियों में
हैं, जो
पलायन में
भरोसा नहीं
करते, भागने
में भरोसा
नहीं करते, लड़ने में
भरोसा करते
हैं—बाहर के
युद्ध में ही
नहीं, भीतर
के युद्ध में
भी।
अर्जुन
से उन्होंने
पूरी टक्कर
ली। अगर बुद्धि
के खेल में
अर्जुन को रस
आ रहा है, तो कृष्ण ने
भी उस रस में
पूरा भाग
लिया।
उन्होंने यह
नहीं कहा कि
यह क्या तू
बुद्धि की
बातें करता है,
बेकार!
क्योंकि किसी
के बेकार कहने
से कुछ भी बेकार
नहीं होता है।
बल्कि अक्सर
तो यह होता है,
बेकार कहने
से और भी
ज्यादा
रसपूर्ण हो
जाता है।
उन्होंने यह
नहीं कहा कि
बंद कर। श्रद्धा
जन्मा!
श्रद्धा
कोई जन्माई
नहीं जाती।
उन्होंने यह नहीं
कहा कि भरोसा
रख। क्योंकि
किसी के कहने
से अगर भरोसा
आता होता, तो सारी
दुनिया कभी की
भरोसे से भर
गई होती। कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं कि
भरोसा कहने से
पैदा नहीं
होता, भरोसा
तो बुद्धि की
असमर्थता से
जन्मता है।
ध्यान
रखें, जब
बुद्धि असहाय
हो जाती है, तभी श्रद्धा
का जन्म होता
है। जब बुद्धि
थककर गिर जाती
है, और
पाती है कि अब
एक इंच भी गति
का उपाय नहीं
है. बुद्धि के
मरघट पर ही
श्रद्धा का
बीज अंकुरित होता
है।
इसलिए
कमजोर बुद्धि
की नहीं, बड़ी
संघर्षशील
बुद्धि की
जरूरत है, बड़ी
जीवंत बुद्धि
की जरूरत है।
और भक्ति को
ऐसा मत समझ
लें कि वह
उनका काम है, जिनके पास
बुद्धि नाम
मात्र नहीं
है। भक्ति उनका
काम है, जिनके
पास बुद्धि की
यात्रा के भी
पार जाने का
समय आ गया है; जो बुद्धि
के भी ऊपर
उठने के करीब
पहुंच गए हैं,
जो उस सीमा—रेखा
पर, सीमांत
पर खड़े हो गए, जहां बुद्धि
समाप्त होती
है, और
भक्ति और हृदय
की यात्रा शुरू
होती है।
इसलिए
कृष्ण ने कहा
कि तुझ भक्त
के लिए।
अब तक
अर्जुन एक
जिज्ञासु था।
एक खोज थी
उसकी। समझना
चाहता था, लेकिन
बुद्धि से। अब
वह भक्त हुआ।
अब वह समझना
चाहता है, लेकिन
अब खोज पिपासा
बन गई है। अब
खोज केवल एक
इंटलेरूअल
इंक्वायरी
नहीं है, अब
हृदय की
अभीप्सा है।
अब। तक जो था, वह शब्दों
का जाल था। अब
अपने को दाव
पर लगाने की
भी हिम्मत
उसमें आ गई
है। इसलिए वे
कहते हैं कि
इस परम गोपनीय
ज्ञान को
रहस्य के सहित
कहूंगा। यह ज्ञान
परम गोपनीय है,
गुप्त रखने
योग्य है; न
कहा जाने
योग्य है।
बड़ी
उलटी बात
कृष्ण कहते
हैं, कि
जो गोपनीय है,
उसे कहूंगा!
उसे
कहूंगा, जिसे नहीं
कहना चाहिए!
उसे कहूंगा जा
सकता है! उसे
कहूंगा, जो
कि कहुंगा,
जो कहने पर भी
नहीं कहा गया
है! गोपनीय का
यह अर्थ होता
है, जो
गुप्त है स्वयंव
है, उसको
रहस्य सहित
कहूंगा! उस गोपनियता
को जा भी रहस्यमयता
है। उसके आस
पास जो रहस्य
का आभा मंडल
है। उसे भी
उघाड़कर
कहूंगा। जिसे
नहीं उघाड़ना
उसे निरवस्त्र
करूंगा। जिसे
छूपाये रखना
ही उचित है, उसे अब नहीं
छूपाऊंगा। क्यों?
कुछ बातें
खयाल में ले
लें।'
पहली
बात, जब
तक हृदय में
भक्ति का भाव
न हो तब तक कोई
भी ज्ञान
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है।
विज्ञान का
ज्ञान ऐसे ही
खतरनाक सिद्ध
हो रहा है। ज्ञान
खतरनाक नहीं
होता, लेकिन
ज्ञान जिसके
हाथ में जाएगा,
अगर उसके
पास भक्त का
भाव न हो, तो
ज्ञान का खतरा
निश्चित है।
विज्ञान
ने बड़े ज्ञान
की खोज की और
पदार्थ के
गुह्यतम
रहस्यों को बाहर
ले आया। लेकिन
उसका परिणाम
हिरोशिमा और नागासाकी
हुआ। और उसका
परिणाम अब यह
है कि खुद वैज्ञानिक
चिंतित हैं कि
हमने पाप
किया। ओपेनहेमर
ने, या
आइंस्टीन ने,
जिन्होंने
अणु की ऊर्जा
के विस्फोट
में सर्वाधिक
काम किया, उनके
भी अंतिम क्षण
बड़े दुख और
पश्चात्तापपूर्ण
थे, अपराधपूर्ण
थे, एक
भारी गिल्ट, छाती पर एक
बोझ था।
लीनियस पालिंग
या और दूसरे
वैज्ञानिक भी
अपने जीवन के
अंतिम क्षणों
में एक ही चीज
से परेशान
हैं। और वह
परेशानी यह है
कि हमने जो ज्ञान
मनुष्य को दे
दिया है, कहीं
वह ज्ञान ही
तो मनुष्य का
आत्मघात
सिद्ध न होगा?
कहीं उसके
कारण ही तो
जगत विनष्ट
नहीं हो जाएगा?
हमने तो
सोचा था कि
ज्ञान सदा ही
हितकारी है, लेकिन अब
ऐसा मालूम
नहीं पड़ता।
ज्ञान
सदा हितकारी
नहीं है। कभी—कभी
तो अज्ञान भी
हितकारी है।
गलत आदमी के
हाथ में
अज्ञान ही ठीक
है। सही आदमी
के हाथ में
ज्ञान ठीक हो
सकता है, क्योंकि
ज्ञान शक्ति
है। बेकन ने
कहा है, नालेज
इज पावर—ज्ञान
शक्ति है। और
शक्ति अगर गलत
हाथों में है,
तो खतरा
निश्चित है।
भक्त
का अर्थ है, अब जो गलत
नहीं कर सकता।
भक्त का अर्थ
है, जिसके
भीतर से गलत
करने वाली
बुद्धि विलीन
हो गई। भक्त
का अर्थ है, जिसने जीवन में
अब परम को
देखने की
क्षमता जुटा
ली। अब वह
निकृष्ट के
लिए प्रयासशील
नहीं होगा।
उसके हाथ में
शक्ति भी दे दी
जाए, तो अब
कोई खतरा नहीं
है।
विज्ञान
को जो भूल आज
समझ में आ रही
है, भारत
को पांच हजार साल
पहले किसी
दूसरे संदर्भ
में समझ में आ
गई है। जिसे
आज विज्ञान
पदार्थ में
गहरे उतरकर समझ
रहा है, और पश्चिम
के सारे
वैज्ञानिक
सारे सम्मेलन
एक ही बात पर
चिंता कर रहे
है। कि क्या
अब जो ज्ञान
हमें मिल रहा
है। वह सर्व
समान्य के
लिए सुलभ किया
जाना चाहिए या
नहीं। जो ज्ञान
हमें मिल रहा
है, वह
राजनैतिक
ताकत तक
पहूंचना
चाहिए या नहीं? जो हम जान
लेंगे, हम
कैसे समझें कि
अगर हमने उसे
प्रकट किया, तो वह
अहितकार
सिद्ध नहीं
होगा?
सिर्फ कौन
रोके? यह
जो ज्ञान हाथ
में आ जाए
इसे
रोके कौन? यह रुकेगा
कैसे? इसे
छिपाओगे कैसे?
बहुत
आश्चर्य न
होगा, अगर
आने वाले
पंद्रह
वर्षों में
सारी दुनिया के
वैज्ञानिकों
को इकट्ठा
होकर यह तय
करना पड़े कि
सिर्फ
वैज्ञानिक ही
वैज्ञानिक
अनुसंधान से
हुई
उपलब्धियों
को जान सकेंगे,
बाकी कोई
नहीं। और शायद
उन्हें ऐसी
भाषा विकसित
करनी पड़े—जों
विकसित हो रही
है—कि जिस
भाषा को गैर—वैज्ञानिक
समझ ही न सके।
आज भी नहीं
समझ सकता। आज
भी वैज्ञानिक
की भाषा धीरे—
धीरे स्पष्ट
रूप से गोपनीय
होती चली जा
रही है।
ठीक
ऐसा ही एक
अनुभव
आत्मज्ञान का
भारत को भी हुआ
है। उससे बहुत
कुछ सीखा जा
सकता है। भारत
ने भी मनुष्य
के अंतभेंदन
में उस जगह को उपलब्ध
कर लिया, जहां परम
शक्ति
का
स्रोत था। उन
सूत्रों को
छिपाने का
सवाल उठ गया, क्योंकि
उन सूत्रों का
बताया जाना
खतरनाक हो सकता
था।
इसलिए
एक गोपनीय
गुह्य—ज्ञान, एक
इसोटेरिक
नालेज
निर्मित हुई।
और उसे यहां तक
गुह्य करना
पड़ा कि उसे
शास्त्र में
भी न लिखा जाए;
क्योंकि
शास्त्र भी
पढ़े जा सकते
हैं। या इस ढंग
से लिखा जाए
कि पढ़ने वाला
कुछ और समझे, वह नहीं, जो
कहा गया है।
या इस ढंग से
लिखा जाए कि
उसके अनेक
अर्थ हो सकें,
और पढ़ने
वाला जब तक
जानता ही न हो,
तब तक अनेक
अर्थों में खो
जाए। या इस
ढंग से लिखा
जाए कि उसके
दो अर्थ हो
सकें। एक, जो
सामान्य आदमी
समझ ले, और
पाए कि बिलकुल
ठीक है, और
एक वह आदमी
समझे, जिसके
हाथ में
कुंजियां
हैं।
फिर
बहुत वर्षो तक, किताबें
न लिखी जाएं, इसका आग्रह
रहा। हजारों
वर्षों तक
हमने ज्ञान को
मुखाग्र रखा,
नहीं लिखने
की चेष्टा की।
मजबूरी में वह
लिखा गया।
इसलिए नहीं, जैसा कि
पश्चिम के
विचारक समझते
हैं कि ज्ञान
तब लिखा गया, जब लिखने का
आविष्कार
हुआ। नहीं; क्योंकि जो
ज्ञान का
आविष्कार कर
सकते थे, वे
निश्चित ही
लिखने का
आविष्कार कर
सकते थे। लिखना
बड़ी छोटी बात
है। जो ज्ञान
का आविष्कार
कर सकते थे, वे लिखने का
आविष्कार न कर
सकते हों, यह
बात समझ में
आने जैसी नहीं
है। असंगत है।
नहीं, जानने का
आविष्कार
रोका गया
लिखने से
हजारों वर्षों
तक, ताकि
वह जनसामान्य
तक न पहुंच
जाए; वह
गोपनीय रखा जा
सके। लिखने की
मजबूरी तो तब आई,
जब इतनी
शाखाएं हो गईं
उस ज्ञान की, और गुप्त
मार्गों से
यात्रा कर—करके
वह इतने लोगों
के हाथ में और
इतने ढंगों से
पहुंच गया कि
अब जरूरी हो
गया कि
सुस्पष्ट हो
सके, कि जो —जो
बातें लोगों
ने बीच में
मिला ली होंगी,
वे ठीक नहीं
हैं। इसलिए
स्मृति से उसे
कागज तक
उतारने की
चेष्टा करनी
पड़ी। ' फिर
भी उसे
सूत्रों में
लिखा गया।
सूत्र का मतलब
होता है, उसे
वही समझ सकेगा,
जो सूत्र की
भाषा में
निष्णात है।
अगर आइंस्टीन
के
सापेक्षवाद
के सिद्धात के
फार्मूले को हम
लिखें, तो
तीन छोटे—छोटे
शब्दों में
पूरा हो जाता
है, तीन
वर्णों में
पूरा हो जाता
है। पूरा का
पूरा उसका
जीवन—दर्शन, जिस पर
आधुनिक विज्ञान
की सारी
आधारशिला खड़ी
है, आपके
नाखून पर लिखा
जा सकता है।
बस, उतनी
ही उसकी खोज
है, शेष सब
विस्तार है।
लेकिन उस
नाखून पर लिखे
हुए सूत्र को
आप समझ नहीं
पाएंगे। वह
भाषा और है।
सूत्र
का मतलब होता
है, संक्षिप्त,
सार। इतना
सार कि उसे
वही जान सके, जिसे पूरे
विस्तार का
पता हो। सूत्र
से विस्तार
नहीं जाना जा
सकता, विस्तार
पता हो, तो
सूत्र खोला जा
सकता है।
सूत्र जो है, वह स्मरण
रखने के लिए
है, ताकि
पूरे विस्तार
को याद न रखना
पड़े। तो शास्त्र
सूत्रों में
लिखे गए।
फिर उन
सूत्रों को भी
जहां तक बन
सके ओरल
ट्रेडीशन से—गुरु
शिष्य को कहता
रहे, और
शिष्य अपने
शिष्यों को
कहता रहे।
सीधा मुंह से
ही कहे, ताकि
कहने में उसका
जीवन भी
समाविष्ट हो
जाए। ताकि जब
वह कहे, तो
उसकी आत्मा भी
उसमें प्रवेश
कर जाए। जब वह कहे,
तो उसका
अनुभव भी उस
कहे हुए को
रंग और रूप दे
जाए। अन्यथा
खाली शब्द चली
हुई कारतूस
जैसे होते
हैं। अनुभव से
सिक्त, अनुभव
से भरे, अनुभव
के रस में
डूबे हुए और
पके हुए शब्द
भरी हुई
कारतूस की तरह
होते हैं। तो
सूत्र गुरु अपने
शिष्य को कह
दे। वह भी कान
में कह दे।
अभी भी
कान में' कहे जा रहे
हैं सूत्र!
लेकिन बड़े
अजीब सूत्र। कान
में गुरु किसी
से कह देता है
कि राम—राम
जपना, यह
मंत्र दे
दिया।
कान
में वही बातें
कही जाती थीं, जो सुनने
वाले ने पहले
कभी सुनी ही न
हों। राम—नाम
का आप सूत्र
दे रहे हैं
उसको, वह
भलीभांति
सुना हुआ है।
और फिर भी
उसको कह रहे
हैं कि किसी
को बताना मत, गुप्त रखना!
कभी—कभी
चीजें
बेहूदगी की
सीमा को भी
पार कर जाती हैं!
सूत्र थे वे, जो सुनने
वाले ने कभी
सुने ही नहीं
थे। जो उसकी
चेतना में
पहली दफे
अवतरित किए जा
रहे थे। और
इसलिए गुरु ही
कहे उनको, क्योंकि
उसके पास उसके
पूरे जीवन से
निकला हुआ, अनुभव से
आया हुआ सूत्र
है। वह दूसरे
की चेतना पर
ट्रांसफर
करे। वह
हस्तांतरण था
एक अनुभव का, सूत्रबद्ध।
और साधना से
फिर उस सूत्र
के अर्थ को
खोज लेने के
उपाय थे।
कृष्ण
कहते हैं, मैं उन
गोपनीय बातों
को तुझसे
कहूंगा, और
रहस्य के सहित
कहूंगा।
क्योंकि
सिर्फ गोपनीय
बातें कह देने
से कुछ भी न
होगा। उनका
अर्थ भी बताना
होगा। उनका
रहस्य भी
समझाना होगा।
कि जिसको
जानकर तू दु:खरूप
संसार से
मुक्त हो
जाएगा।
ज्ञान
मुक्ति है। जो
जान लेता है, वह दुख के
बाहर हो जाता
है। इसलिए
नहीं कि जानना
कोई नाव है और
दुख कोई सागर
है; कि
जानने की नाव
मिल गई, तो
आप पार हो
जाएंगे।
नहीं।
बात थोड़ी और
ही है। असल
में अज्ञान ही
दुख है। जान
लिया, तो
सागर विलीन हो
जाता है, नाव
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
अज्ञान
और दुख
पर्यायवाची
हैं। अज्ञान
के कारण ही
दुख है। ऐसा
नहीं कि दुख
है, और
मैं अज्ञानी
हूं। मैं
अज्ञानी हूं
इसलिए दुख है।
मेरा अज्ञान
ही मेरा दुख
है। तो जिस दिन
मैं जान लूंगा,
उस दिन दुख
तिरोहित हो
जाएगा। ऐसा
नहीं कि जानने
के बाद फिर
ज्ञान की नौका
बनाकर और दुख
के भवसागर को
पार करूंगा।
दुख का कोई
भवसागर नहीं है।
मेरा अज्ञान
ही मेरा दुख
है। मेरा
अज्ञान ही
मेरी पीड़ाओं
का जन्मदाता
है। मेरे
अज्ञान के
कारण ही मैं
उलझ गया हूं।
मेरे अज्ञान
के कारण ही मैं
अपने ही पैरों
पुर अपने ही
हाथों
कुल्हाड़ी मारे
चला जाता हूं।
मैं अपने
अज्ञान के
कारण ही अपने
को ही जहर से
भर लेता हूं।
और अमृत से
वंचित रह जाता
हूं। वह मेरी
ही भूल है। सिर्फ
भूल है।
इसे
थोड़ा समझ ले, क्योंकि
यह बात बहुत
कीमती है।
पश्चिम
में जो धर्म
पैदा हुए, उन्होने
आदमी के पाप
पर जोर दिया
है। यह
बुनियादी
फर्क है। इस्लाम
यहुदी ओर
इसाईयत। ये
तीनों यहूदी
परंपरा के
हिस्से हैं?
और
दूनिया में दो
ही तरह के
धर्म की
परमपरा है। एक
यहूदी धर्म
परंपरा और एक
हिंदू धर्म
परंपरा। बस
दो। जो भी
धर्म दुनियां
में पैदा हुए
है या तो वह
यहूदी धर्म
परंपरा से जन्मे
है,
उनकी शाखाएं
है; या जो
धर्म पैदा हुए
है—जैसे जैन, बौद्ध...वे
हिंदू धर्म
परंपरा की
शाखाएं—परशाखाएं
है। ये दो तरह
की धर्म परंपराएं
हैं। और इन
दोनों धर्म
परंपराओं की बुनियादी
बात समझने ' जैसी है।
पश्चिम
के जो भी धर्म
हैं, यहूदी
धर्म से
संबंधित जो भी
धर्म हैं, वे
सभी धर्म पाप
को मनुष्य का
मूल कारण
मानते हैं दुख
का। भारत के
सभी धर्म
अज्ञान को दुख
का मूल कारण
मानते हैं, पाप को
नहीं। इसलिए
क्रिश्चिएनिटी
कहती है, दि
ओरिजिनल सिन,
वह जो मूल
पाप है, वही
सब दुखों का
आधार है। भारत
कहता है, वह
जो मूल अज्ञान
है, वही सब
दुखों का आधार
है।
और यह
जरा सोचने
जैसा है।
क्योंकि भारत
का यह कहना है
कि पाप भी अगर
हो सकते हैं, तो तभी, जब अज्ञान
हो। इसलिए पाप
मूल नहीं हो
सकता, अज्ञान
उससे भी पहले
चाहिए। पापी
होने के लिए भी
अज्ञानी होना
जरूरी है।
आदमी अगर गलत
भी करता है, तो इसीलिए
कि उसके जानने
में कहीं भूल
है। यह बहुत
मजे की बात है
कि कोई आदमी
जानकर गलत नहीं
कर सकता है!
लेकिन
आप कहते हैं
कि नहीं, मुझे पता है
कि सच बोलना।
चाहिए, झूठ
नहीं बोलना
चाहिए, फिर
भी मैं झूठ
बोलता हूं!
आपको
पता नहीं है।
सुन लिया होगा
आपने। किसी ने
कहा होगा।
कहीं पढ़ा
होगा। लेकिन
भीतर गहरे में
आप यही जानते
हैं कि झूठ
बोलने में ही
फायदा है।
भीतर आप यही
जानते हैं।
जानना आपका
झूठ .के ही
पक्ष में है।
आपने कितना ही
सुना हो कि सच
बोलना ठीक है, लेकिन आप
भीतर जानते
हैं कि वह
दूसरों के लिए
ठीक है। और
इसलिए भी ठीक
है दूसरों के
लिए कि अगर
दूसरे सच न
बोलें, तो
मैं झूठ कैसे
बोल पाऊंगा? अगर मेरे
झूठ को भी सफल
होना है, तो
वह तभी सफल हो
सकता है, जब
बाकी लोग सच
बोल रहे हो।
इस लिए
झूठ बोलने
वाला भी लोगों
को समझाता
रहता है, सच बोलो क्योंकि
अगर सारी
दुनियां दुनिया
झूठ बोलने लगे,
तो झूठ
बिलकुल व्यर्थ
हो जायेगा। आखिर
बेईमानी के
सफल होने के
लिए भी कछ तो
ऐसे समझदार
चाहिए। जो
चौरी नहीं
करते है, नहीं
तो बहुत
मुश्किल हो
जाएगो।
अगर
यहां सारे लोग
बैठे है, और सभी
जेबकट है;
जो तो जेब
नहीं कटेगी।
फिर जेब किसकी
काटिएगा। और
क्या फायद? कोई मतलब
नहीं; बात
बेकार हो गई, जेबकट सकती
है, इसलिए
कि कोई जेब कट
नहीं है।
इसलिए जेब कट
भी समझता है, जेब काटना
बहुत बुरा है।
समझना चाहिए।
मैंने सुना
है, एक
आदमी पर
मुकदमा चला और
अदालत ने उससे
कहा कि तुम
कैसे आदमी हो?
इस आदमी ने
तुम्हारा
इतना भरोसा
किया और तुमने
इसे ही धोखा
दिया! तो उस
आदमी ने कहा, अगर इसको
मैं धोखा न
देता, तो
किसको धोखा
देता! इसने
मुझ पर इतना
भरोसा किया, इसीलिए तो
मैं धोखा दे
पाया। अगर यह
भरोसा पहले से
ही न करता, तो
धोखा असंभव
था। सजा आप
सिर्फ मुझे ही
मत दें, इसे
भी दें। हम
दोनों
भागीदार हैं।
इसने भरोसा
किया, मैंने
धोखा दिया। यह
घटना हम दोनों
के सहयोग से
घटी है।
और यह
बात ठीक है। यह
बात बिलकुल ही
ठीक है। शायद
धोखा देने
वाला उतना
जिम्मेवार
नहीं है, जितना धोखा
खाने वाला
जिम्मेवार है,
क्योंकि
उसके बिना
धोखा नहीं
दिया जा सकता।
आप
जानते हैं कि
सच बोलना ठीक
है, दूसरों
के लिए, समझाने
के लिए; चेहरे
बनाने के लिए;
प्रदर्शन
के लिए। लेकिन
जब मौका आए, तो कुशलता
से झूठ बोलना
ही उचित है, वह आप भीतर
जानते हैं।
आपके भीतर झूठ
ही आपका भरोसा
है, सच
नहीं।
आप
कहते हैं, मैं
जानता हूं
क्रोध करना
बुरा है।
लेकिन यह आप
तभी जानते हैं,
जब कोई
दूसरा क्रोध
कर रहा होता
है, या आप
यह तब जानते
हैं, जब
आपका क्रोध
आकर जा चुका
होता है।
लेकिन जब
क्रोध होता है,
तब आपका रोआं—रोआं
जानता है कि
क्रोध ही उचित
है, आपका रोआं—रोआं
कहता है कि
क्रोध ही उचित
है।
भारत
कहता है, अज्ञान के
अतिरिक्त न
कोई पाप है और
न कोई दुख; और
ज्ञान के
अतिरिक्त कोई
मुक्ति नहीं
है।
स्वभावत:, पश्चिम
अगर मानता है
कि पाप आधार
है दुख का, तो
पुण्य आधार
होगा मुक्ति
का। इसलिए
ईसाई फकीर या
ईसाई मिशनरी
सेवा में लगा
है। सेवा का प्रयोजन
यह है कि पाप
कट जाए; बुरा
काम है, अच्छे
काम से कट
जाए।
इसलिए
पश्चिम के
विचारक को समझ
में नहीं आता
कि भारतीय
साधु ध्यान
करके क्या करता
है? सेवा
करनी चाहिए!
और विवेकानंद
और गांधी के
प्रभाव में
ईसाइयत का यह
भाव, नासमझी
से, हिंदू
मन में भी
प्रविष्ट हो
गया है। हिंदू
मन भी डरता
है। वह भी
कहता है, क्या
फायदा? ध्यान
से क्या होगा?
अस्पताल
खोलो। ध्यान
से क्या होगा?
जाकर
गरीबों के
झोपड़े में
सेवा करो।
रवींद्रनाथ
ने गाया है कि
मैं तो भगवान वहीं
देखता हूं,
जहां मजदूर
गिट्टी फोड़
रहा है।
रवींद्रनाथ
को पता नहीं
है कि अगर
मजदूर कभी ऐसा
वक्त आ गया और
उसने गिट्टी न
फोडी, तो
रवींद्रनाथ
भगवान को कहां
देखेंगे! वे
कहते हैं, मैं
तो भगवान वहीं
देखता हूं,
जहां भिखारी
भिक्षा मांग
रहा है। उसकी
सेवा करो। यह ठीक
है, बुरा
नहीं है, बहुत
अच्छा है।
उचित है कि
सेवा की जाए।
लेकिन इसमें
मौलिक भेद
हैं।
भारतीय
साधु ध्यान पर
जोर देता रहा
है, क्योंकि
ध्यान से ज्ञान
जन्मेगा। और
ईसाइयत जोर दे
रही है सेवा
पर, पुण्य
पर, क्योंकि
पुण्य से पाप
कटेगा। मौलिक
आधारों का भेद
है। अगर ज्ञान
चाहिए, तो
ध्यान मार्ग
होगा। और अगर
पाप काटना है,
तो पुण्य
उपाय है।
लेकिन
भारतीय मनीषा
कहती है कि
अगर बिना ज्ञान
के तुम पुण्य
भी करने लगे, तो पुण्य
भी तुम्हें
बहुत गहरे
नहीं ले जाएगा।
क्योंकि
अज्ञानी के
पुण्य का
मूल्य कितना
है? और
अज्ञानी की
सेवा किसी भी
क्षण खतरनाक
हो सकती है।
और अज्ञानी की
सेवा के पीछे
भी अज्ञान तो
खडा ही रहेगा।
तो मूल
रोग तो हटता
ही नहीं है।
मैं आपकी गर्दन
नहीं काटता, आपके पैर
दबाने लगता
हूं। लेकिन
मैं तो मैं ही हूं, वही का वही।
मेरे भीतर जो
चेतना है, वह
वही की वही
है। उसमें कोई
भेद नहीं पड़
गया है। मेरे
लोभ अपनी जगह
खडे हैं; लेकिन
उनका रूप बदल
गया, मिट
नहीं गए। मेरा
क्रोध अपनी
जगह खड़ा है।
लेकिन उसका
मार्गातीकरण
हो गया, सब्लिमेशन
हो गया। लेकिन
वह अपनी जगह
खड़ा है। और नए—नए
रूपों में
प्रकट होता
रहेगा।
भारत
कहता है, जानने के
अतिरिक्त कोई
मुक्ति नहीं
है। और इसलिए
कहता है कि जो
जान लेता है, वह उससे
विपरीत नहीं
जा सकता। अगर
मुझे पता है
कि यह आग है, तो मैं हाथ
नहीं डालता
हूं। और अगर
कभी डालता भी
हूं तो
भलीभांति
जानकर डालता
हूं कि यह आग है
और मैं जलूंगा।
फिर मैं जलने
के लिए पछताता
नहीं हूं। फिर
जलने के लिए
रोता नहीं
फिरता हूं।
फिर जलने के
लिए शिकायत
नहीं करता
हूं। फिर बात
ही शिकायत की
नहीं है।
मैंने जानकर
जो किया है, तो फिर इस
जगत में कोई
शिकायत का
उपाय नहीं है।
मैं
जिम्मेवार
हूं।
लेकिन
जानकर कोई आग
में हाथ नहीं
डालता है।
डालने का कोई
कारण नहीं है।
अज्ञान में
हाथ चला जाता
है आग में, और दुख
पैदा होता है।
अज्ञान दुख
है। हम सब तरह
की आग में हाथ
डालते हैं।
हालांकि यह हो
सकता है कि जब
हम हाथ डालते
हैं, तब
हमको आग दिखाई
ही न पड़ती हो।
अज्ञान
में कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता; आदमी
अंधे की तरह
चलता है।
सोचते हैं कि
यह अच्छा है, और बुरा
होता है।
सोचते हैं, यह भला है, और भला नहीं
निकलता।
सोचते हैं? यह फूल हैं, और जब
मुट्ठी
बांधते हैं, तो काटा छिद
जाता है और
लहूलुहान हो
जाते हैं।
लेकिन फिर भी
कुछ नहीं
सीखते। फिर कल
एक फूल दिखाई
पड़ता है, फिर
जोर से मुट्ठी
बांधते हैं, फिर कांटा
चुभता है, फिर
रोते हैं।
परसों फिर एक
फूल दिखाई
पड़ता है, फिर
हाथ मुट्ठी
बांधते हैं, फिर वही
दुख।
लेकिन
यह खयाल नहीं
आता कि जरा
फूल को अब गौर
से देख लें, कहीं हर
फूल कांटा तो
नहीं है? या
मेरे यह मुट्ठी
बांधने में ही
तो कांटे के
चुभने की
पैदाइश नहीं
है? यह
मेरा मुट्ठी
बांधने का जो
आग्रह है, यही
तो मेरा दुख
नहीं है? और
मैं यह फूल से
जो आकर्षित हो
जाता हूं,
यह क्यों हो
जाता हूं? यह
मेरी जो आत्मा
फूल की तरफ
बहने लगती है,
यह जो
आसक्ति और यह
जो राग पैदा
हो जाता है, यह क्यों हो
जाता है? इस
सबके मूल को
जो जान लेता
है, वह
मुक्त हो जाता
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, इस
ज्ञान को
जानकर तू इस
दु:खरूप संसार
से मुक्त हो
जाएगा।
लेकिन
ध्यान रखें, जानकर, सुनकर नहीं।
कृष्ण को कहना
चाहिए था, हे
अर्जुन, इस
ज्ञान को
सुनकर तू
मुक्त हो
जाएगा! अर्जुन
बहुत
प्रफुल्लित
हुआ होता। आप
भी
प्रफुल्लित
होते रहे हैं।
लोग सोचते हैं,
शास्त्रों
को सुनकर धर्म
हो जाएगा। लोग
सोचते हैं, गीता को
सुनकर ज्ञान
हो जाएगा।
इतना सस्ता अगर
ज्ञान होता, तो अज्ञानी
किसी को होने
की जरूरत ही न
थी। सुनकर
नहीं होगा। इसलिए
इफेटिकली, जोर
देकर कृष्ण
कहते हैं, जिसको
जानकर!
लेकिन
हम सुनने को
भी जानना समझ
लेते हैं। जो—जो
आप सुनते हैं, वह आपका
ज्ञान हो जाता
है। यह बड़ी
मजे—की बात
है। अखबार पढ़
लिया, आप
ज्ञानी हो गए।
गीता पढ़ लिया—
आप ज्ञानी हो
गए! जो भी पढ़कर
आपकी स्मृति
में चला गया, आप ज्ञानी
हो गए।
स्मृति
ज्ञान नहीं
है। लेकिन
हमारा स्कूल
विश्वविद्यालय
स्मृति को
ज्ञान बताता
है। सारा
संसार स्मृति
को ही ज्ञान
मानकर चल रहा
है। हम कहते
है, एक
आदमी बहुत
जानता है,
क्यो’कि उसकी
बहुत स्मृति
है, हम
कहते है कि एक
आदमी को गीता
कंठस्थ है।
उनका कंठ पागल
हो गया है,
और तो कोई सार
नहीं है।
कंठस्थ से क्या
होगा? फलां
आदमी को वेद
कंठस्थ हो
गये है। उसकी
गरिमा है। कंठ
का क्या कसूर
है। कंठ को क्या
परेशान कर रहे
हो?
कंठ
बड़ा ऊपर है, उससे कुछ
हृदय बदलता
नहीं। और कंठ
में मैं बहुत
खोजा, कोई
एकाध अज्ञानी
मिल जाए। वह
मिलता ही
नहीं। जिनके
ज्ञान अटक
जाता है, उनकी
फांसी लग जाती
है। फांसी में
सब ज्ञानी
हैं! और छोटे—मोटे
ज्ञानी नहीं
हैं, सब
ब्रह्मज्ञानी
हैं! होता
नहीं। बोलने
के लिए हो
सकता है।
दूसरे को
बताने के लिए
हो सकता है।
खुद के जीवन
के लिए उसका
कोई संबंध
नहीं होता।
जानने का अर्थ
स्मृति नहीं
है।
जानने
का अर्थ है, अनुभव।
तो कृष्ण कहते
हैं, जो
मैं तुझे
रहस्य
बताऊंगा, काश!
तू उसे जान ले,
अनुभव कर ले,
तो दुख के
सागर से मुक्त
हो जा सकता
है।
पर
जानना और
जानने में
फर्क है। एक
जानना है, वह हम सब
जानते हैं। एक
आदमी कहता है,
ईश्वर है।
जाना उसने
बिलकुल नहीं
है। इससे तो बेहतर
वह नास्तिक है,
जो कहता है,
मुझे कुछ
पता नहीं चलता
ईश्वर का। मैं
कैसे मानूं? यह नास्तिक
शायद किसी दिन
आस्तिक भी हो
जाए! लेकिन वह
जो पहला
आस्तिक है, जो कहता है, ईश्वर है।
क्योंकि उसने
सुना है, क्योंकि
उसके घर में
कहा गया है, क्योंकि
परंपरा से बात
चली आई है।
क्योंकि उसके
पितृ। ने, उसके
गुरु ने कहा
है। क्योंकि
शास्त्र में
पढ़ा है। या भय
की वजह से, या
मौत के डर से, या सहारे के
लिए, वह
माने चला जा
रहा है। लेकिन
वह कहता है, मैं जानता
हूं ईश्वर है।
जानने
शब्द का
प्रयोग जरा
सोचकर करना, ईमानदारी
से करना। और
जो आदमी जानने
का ईमानदार
अर्थ सीख जाए,
उसकी
जिंदगी में क्रांति
हो जाती है।
लेकिन हम सब
बेईमान हैं।
जानने के
संबंध में हम
बिलकुल
बेईमान हैं।
आप जरा
एक बार अपनी
खोपड़ी में
वापस खोज—बीन
करना। कितना
है, जो
आप जानते हैं?
तब आपको पता
चलेगा कि
संभावना जीरो
हाथ लगेती है।
जीरो भी लग
जाए, तो
बहुत है।
पाएंगे कि सब
सूना हुआ है
जौर से पकड़े
बैठे हैं, और
डरते भी हैं
कि जांच--पड़ताल
की अगर पता चल
गया कि अपना
जाना हुआ नहीं
और डरते भी है
जांच 'पड़ताल
भी नहीं करते।
और ऐसे लोग के
पास जाते रहत
है जो आपकी इस
नासमझी को
मजबूत करते
रहते है,
कहते हे, सुनते
रहो। सुनते—सुनते
हो जाएगा।
सुनते—सुनते
बहरे हो
जायेंगे, और सुनते—सुनते
सुनना बंद हो
जाएगा। और
सुनते—सुनते
आपको बहम पैदा
होगा,
इलूजन पैदा
होगा। कि सब
जान लिया।
हमारा
मुल्क ऐसे ही
ज्ञान से इतने
पीड़ित और परेशान
है! हम इतने अज्ञान
पिडित नहीं है
हमारा मुल्क
में अज्ञानी
तो कोई है ही
नहीं। मैं
बहुत खोजा, कोई एकाध
अज्ञानी मिल
जाए। वह मिलता
ही नहीं। सब
ज्ञानी है। और
छोटे—मोटे
ज्ञानी नहीं
है;
ब्रह्मज्ञानी
है।
एक
मित्र आये थे
कुछ दिन हुए।
मैंने कहा
बहुत दिन से
दिखाई नहीं
पड़ते हैं।
क्या करते रहे?
उन्होंने
कहा, कुछ
नहीं। नौकरी—चाकरी
मैंने सब छोड़
दी है। अब तो
लोगों को ब्रह्मज्ञान
समझाने में
लगा रहता हूं।
मैंने
कहा, तुम्हें
हो गया?
उन्होंने
कहा, होगा
क्यों नहीं? आज तीस साल
से सत्संग के सिवाय
कुछ किया ही
नहीं है। ऐसा
एक गुरु नहीं है
भारत में, जिसके
चरणों में मैं
नहीं बैठा
हूं। सब मुझे
हो गया है। अब
तो दूसरों को
मेरे द्वारा
हो रहा है। कई
लोग आने लगे
हैं, और
उनको ज्ञान
वितरित कर रहा
हूं।
जिनके
पास नहीं है, वे भी
वितरित कर
सकते हैं।
वितरित करने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। खोपड़ी पर
बोझ हो जाता
है सुन—सुनकर,
उसको
बांटकर
हल्कापन आ
जाता है।
लेकिन वह ज्ञान
नहीं है, वह
जानना नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, जान लेगा
अगर तू तो दुख
से मुक्त हो
जाएगा। यह ज्ञान
सब विद्याओं
का राजा और सब
गोपनीयों का भी
राजा एवं अति
पवित्र, उत्तम,
प्रत्यक्ष
फल वाला और
धर्मयुक्त है,
साधन करने
को बड़ा सुगम
और अविनाशी
है।
दो
बातें। कृष्ण
कहते हैं, श्रेष्ठतम
है यह ज्ञान।
इससे श्रेष्ठ
और कुछ भी
नहीं है। यह
राजविद्या है,
समस्त
विद्याओं में
श्रेष्ठ।
क्योंकि और विद्याओं
से आदमी अपने
अलावा कुछ भी
जान ले, खुद
को नहीं जान
पाता। और
विद्याओं से
आदमी अपने को
छोड्कर सब कुछ
पा ले, अपने
को नहीं
उपलब्ध हो
पाता। और जब
मैं अपने को
ही न जान पाऊं,
सब भी जान
लूं; और
अपने को न
उपलब्ध हो
सकूं? और
सब पा लूं; तो
भी उस पाने और
जानने का अर्थ
क्या है?
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, यह
परम ज्ञान है,
राजविद्या
है, दि
सुप्रीम
नालेज, आर
दि सुप्रीम
साइंस, परम
विज्ञान है।
इससे तू स्वयं
को जान लेगा।
और जो स्वयं
को जान लेता
है, वह सब
जान लेता है।
साधन
करने को बड़ा
सुगम और
अविनाशी है।
और यह
जो ज्ञान है, यह सनातन
है। यह न कभी
पैदा हुआ है
और न कभी इसका
अंत होगा।
इसलिए इस
ज्ञान से जो
संयुक्त हो
जाता, वह
भी अविनाशी हो
जाता है। और
एक बड़ी कीमती
बात कहते हैं
कि साधन करने
को सुगम है।
उसके
लिए सुगम है, जो इसका
अभ्यास
करेगा। जो
सुनेगा, उसे
बड़ा दुर्गम
है। जो सिर्फ
सुनेगा, चलेगा
नहीं, उसे
बड़ा कठिन है।
जो चलेगा भी, उसे बड़ा सरल
है।
इस
सरलता में दो
बातें छिपी
हैं। एक तो
मैंने कहा, यह आठ
अध्याय के बाद
कही गई सुगमता
है। अर्जुन
तैयार है, पात्र
है। अगर आप
पात्र हैं, तो सुगम
होगा। अगर आप
पात्र नहीं
हैं, तो
सुगम नहीं
होगा। आप पर
सब कुछ निर्भर
करता है। इस
अध्याय को
पढ़कर कई लोग
समझते हैं कि
बस, बात ही
सुगम है। खत्म
हो गया, कुछ
करने को भी
नहीं है।
इस
अध्याय को
सीधा मत पढ़ना!
आपकी पात्रता
निर्मित होनी
चाहिए। आपकी
दोष—दृष्टि खो
गई है, तो
यह सुगम है; यह शर्त है।
यह बेशर्त
नहीं है।
महात्मागण समझाते
रहते हैं लोगों
को कि कलियुग
में तो भक्ति
का साधन ही
एकमात्र सुगम
साधन है।
सतयुग में
कहते, तो
थोडा ठीक भी
होता।
क्योंकि
भक्ति जितना
शुद्ध हृदय
चाहती है, उतना
सतयुग में भी
मुश्किल है।
महात्मागण
समझाते हैं कि
भक्ति सुगम
साधन है कलियुग
में। अजीब—सी
और नासमझी की
बात है। भक्त
का हृदय जितना
शुद्ध हो, उतना तो
सतयुग में भी
पाना मुश्किल
होता है, तो
कलियुग में
कैसे आसान हो
जाएगा? वे
कहते हैं, राम—राम
का नाम ले
लिया, तो
कलियुग में
बड़ा सुगम साधन
है। लेकिन नाम
लेने के लिए
जो पात्रता
चाहिए, वह
कहा से लाइएगा?
नाम तो कोई
भी ले लेता
है। लेकिन जो
शुद्ध हृदय
चाहिए, जिसमें
वह राम के नाम
का फूल लगे, वह शुद्ध
हृदय कहां है?
लेकिन
लोगों को, आसान है
कोई बात, ऐसा
समझकर भी बड़ी
राहत मिलती
है। इसलिए कई
बार तो यह हो
जाता है कि
कठिनाई से डरे
हुए लोग, कोई
भी बात कोई कह
दे कि आसान है,
तो उसके
पीछे लग जाते
हैं। इसलिए
नहीं कि वह
आसान है, बल्कि
इसलिए कि वे
कठिनाई से
बहुत डरे हुए
हैं।
और
ध्यान रहे, जो
कठिनाई से डरा
है, वह
परमात्मा से
कभी भी न मिल
सकेगा।
क्योंकि वह
परम कठिनाई
है। वहा तो अपने
को खोने की और
मिटाने की
हिम्मत
चाहिए। वहा तो
आखिरी दाव का
साहस चाहिए।
वह तो आखिरी
एडवेंचर, दुस्साहस
है। जैसे कोई
छलांग लगाता
हो किसी अनंत
गड्ढ में, जिसके
नीचे की तलहटी
दिखाई ही न
पड़ती हो। वह तो
ऐसा है।
तो सरल
का मतलब यह
नहीं होता कि
आपको कुछ करना
नहीं पड़ेगा।
आपकी पात्रता
हो, उस
पात्रता के
लिए बहुत कुछ
करना पड़ेगा।
जैसे मैं कह
सकता हूं कि
पानी तो एक
क्षण में भाप
बन जाता है, लेकिन इसका
यह मतलब मत
समझ लेना कि
पानी को गरम
नहीं करना
पड़ता। सौ
डिग्री तक
पानी को गरम
होना ही पड़ता
है। सौ डिग्री
पर एक क्षण
में भाप बन
जाता है।
लेकिन सौ
डिग्री की
गर्मी एक क्षण
में नहीं आती।
सौ डिग्री की
गर्मी के लिए
वक्त लगता है।
ये दोनों
.बातें सच
हैं। अगर कोई
पूछे कि पानी
क्षणभर में
भाप बनता है
कि समय लेता
है, तो
क्या कहिएगा?
दो तरह के
चिंतन दुनिया
में रहे हैं।
एक जो कहते
हैं, सडेन
एनलाइटेनमेंट,
तत्काल
निर्वाण हो
सकता है, उपलब्धि
हो सकती है।
और एक जो कहते
हैं, ग्रेजुअल
एनलाइर्टेनमेंट,
क्रमश:, सीढ़ी—सीढ़ी
उपलब्धि होती
है। उन दोनों
में बड़ा संघर्ष
रहा है, लेकिन
एकदम नासमझी
से भरा हुआ।
क्योंकि उनकी बातचीत
ठीक वैसी ही
है, जैसे
कोई पइनी के
संबंध में तय
करे कि पानी
क्षण में भाप
बनता है कि
समय लगता है!
क्या कहिएगा?
पानी
दोनों करता
है। और पानी
को बांटा नहीं
जा सकता। सौ
डिग्री तक गरम
होने में उसे
वक्त लगता है।
और मजे की बात
यह है कि
निन्यानबे
डिग्री से भी
पानी अगर गर्म
होना बंद हो
जाए, तो
वापस लौट
जाएगा, भाप
नहीं बनेगा।
साढ़े
निन्यानबे
डिग्री से भी
वापस लौट
जाएगा। रत्तीभर
कमी रह जाए सौ
डिग्री में, तो पानी
पानी ही
रहेगा। और अगर
गर्मी देनी
बंद हो जाए, तो वापस लौट
जाएगा।
सौ
डिग्री पर आकर
छलांग घटित
होती है, और तत्काल
पानी भाप हो
जाता है। यह
घटना तो क्षण
में घटती है।
कहना चाहिए, क्षण के भी
हजारवें
हिस्से में
घटती है। कहना
चाहिए, समय
के बाहर घटती है।
जरा भी समय
नहीं लगता
पानी के भांप
बनने में, लेकिन
पानी को सौ डिग्री
तक पहुंचने में
बहुत समय लगता
है।
भक्त
बनने में बहुत
समय लगता है। भक्ति
को उपलब्धि तो
क्षण भर में
हो जाती है। भक्त
सौ डिग्री में
उबलता हुआ व्यक्ति
है।
तो आप यह मत
सोचना की आप उठे
और भक्त हो गये।
आप बिलकुल
ठंडे पानी
हैं। डर तो यह है
कि आप बर्फ न जमे
हो। फ्रीजन
जिसको पहले
पिघलाना पड़े,
तब कहीं वह सौ
डिग्री तक पहूंचने
में पचास बार कहे
कि कोई और र्साट
कट नहीं है। कहां
इतना समय लग रहा
है।
इसलिए महेश योगी
जैसे व्यक्तियि
लोगों को थोड़े
दिन के लिए
बहुत प्रभावी
हो जाते हैं; क्योंकि सार्ट
कट वे कहते
हैं, बस, यह मिनटभर
का काम है।
ऐसा कर लो, और
सब हो जाएगा।
कोई भी धोखे।
में पड़ जाता
है। क्योंकि
हमारे मन लोभी
हैं। लगता है,
जल्दी कुछ
होता हो, तो
ठीक है। इससे
हमारा शोषण
चलता है। नहीं,
कोई
शार्टकट नहीं
है। यात्रा
पूरी ही करनी
पड़ेगी।
क्योंकि उस
परम यात्रा
में कोई धोखा
नहीं चलेगा।
और जीवन के
शाश्वत नियम
हैं।
तो
सुगम है बहुत, अगर आपका
हृदय भक्त
होने की
परिभाषा को
पूरा करता
.हो। लेकिन
दूसरी बात भी
कही है कि
इतने से ही
सुगम हो जाएगा,
ऐसा नहीं
है। भक्त का
भी हृदय हो।
और सुन लें सिर्फ,
तो कुछ भी न
होगा। फिर
वापस गिर
जाएंगे। सौ डिग्री
तक पहुंचकर भी
वापस गिरने का
डर है, जब
तक कि भाप बन
ही न जाएं।
इसलिए चलना भी
पड़ेगा।
कृष्ण
कहते हैं, साधन
करने को बड़ा
सुगम है।
बड़ा
सरल है, अगर साधन
करना हो। अगर
सुनना ही हो, तो बहुत
कठिन है।
लेकिन हमें उलटी
बात समझ में
आती है। हमें
लगता है, सुनना
हो, तो बड़ा
सुगम है; करना
हो, तो बड़ा
कठिन है।
सुनना हमें
सरल मालूम
पड़ता है।
लेकिन मैं भी
आपसे कहता हूं, सुनना कठिन
है। क्योंकि
जिसे आप जानते
ही नहीं हैं, उसे सुन
कैसे सकिएगा?
और जिसका
आपको पता ही
नहीं है, वह
आपकी समझ में
कैसे आएगा? और जिसे
आपने जाना ही
नहीं है, किसी
के भी शब्द—वे
कृष्ण के
क्यों न हों—वे
शब्द आपको कुछ
भी न बता
पाएंगे। वह
भाषा ही अनजानी,
अपरिचित
है।
एक
आदमी अरबी में
आपके पास बोल
रहा हो, आपको वहम
होता है कि
सुन रहे हैं, क्या खाक
सुन रहे हैं!
एक आदमी चीनी
में बोले चला जा
रहा है आपको
लगता है कि
सुन रहे हैं, लेकिन क्या
सुन रहे हैं? लेकिन चीनी और
अरबी के मामले
में झंझट नहीं
है। आप समझते
हे कि यह भाषा हमें
आती ही नहीं!
आप भूल में
मत पड़ना यह
की भाषा आपको
और भी बड़ी अरबी
और भी बड़ी चीनी
है। यह बिलकुल
नहीं आ सकती
है। अरबी में थोड़ा
समझ जाए, उस आदमी की आंख,
उस आदमी के
होंठ की गति को
समझ जाये। उसकी
भाव भंगिमा कुछ
कह दे। यह कृष्ण
तो भाव—रहित है।
इसके होठो से कुछ
पता नहीं
चलेगा। इसकी आँख
कुछ न कहेगी, क्योंकी ऐसे
व्यक्ति ऐसे
शून्य हो गए
होते हैं, कह
रहे हैं, कठिन
है इनसे कुछ पता
लगाना। और जो यह
कह रहे है, वह
भाषा समझ में आती
हुई मालूम पड़ती
है, समझ में
बिलकुल नहीं
आती। वह भाषा
बिलकुल ही
कठिन है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि सुनने
में तो नहीं
है सुगम, लेकिन अगर
तू करे, तो
सुगम है।
अगर
कोई अंधा
मुझसे कहे कि
प्रकाश मुझे
समझा दो, तो समझाना
बहुत कठिन है।
लेकिन अगर वह
कहे कि मेरी
आख का इलाज
करवा दो, या
मेरी आख का
कोई अभ्यास
करवाओ, जिससे
मेरी आंखें
खुल जाएं, तो
मैं कहता हूं —वह
सुगम है। अंधे
की आख खुल
सँकती है किसी
दिन और वह
प्रकाश को देख
सकता है। कोई
मुझसे कहे कि
प्रेम समझा दो
मुझे, तो
कठिन है बहुत।
लेकिन अगर वह
तैयार हो
प्रेम में कूद
पड़ने को, प्रेम
करने को, तो
सुगम है। जीवन
में अनुभव के
अतिरिक्त और
कोई सुगमता
नहीं है। शब्द
सुगम मालूम
पड़ते हैं, बिलकुल
दुर्बोध हैं।
शब्दों से कुछ
भी समझ में न
कभी आया है, न आ सकता है।
सिर्फ अनुभव,
सिर्फ अपनी
ही प्रतीति, अपना ही
साक्षात्कार
प्रकट करता है
सत्य को।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, सुगम
है, साधन
करने को बड़ा
सुगम है।
और हे
परंतप, इस ज्ञानरूप
धर्म में
श्रद्धारहित
पुरुष मेरे को
प्राप्त न
होकर मृत्युरूप
चक्र में
परिभ्रमण
करते हैं।
जो
श्रद्धारहित
हैं, वे
सुन लें, समझ
लें, चलने
की भी कोशिश
करें, तो
भी मुझ तक
नहीं
पहुंचते। मुझ
तक तो वे ही पहुंचते
हैं, जो
श्रद्धायुका
हैं। कारण?
कारण, परमात्मा
तक पहुंचने का
द्वार हृदय
है। कारण, परमात्मा
तक पहुंचने का
भाव प्रेम है।
कारण, उस
तक पहुंचने की
जो तैयारी है,
वह केवल
श्रद्धायुक्त
हृदय में होती
है। यह
श्रद्धायुक्त
हृदय का अर्थ
है, ट्रस्टिंग
हार्ट, भरोसा
करने वाला
हृदय।
छोटा
बच्चा है, वह कहता
है कि मुझे, सूरज उगता
है सुबह, वह
देखने चलना
है। या कहता
है कि बगीचे
में सुना है
कि फूल खिले
हैं, मुझे देखने
चलना है। या
कहता है कि सागर
में बड़ी
तरंगें आई हैं,
मुझे देखने
चलना है। या
कुछ और कहता
है। उसका पिता
कहता है, मेरा
हाथ पकड़ और चल!
बेटा
कह सकता है कि
तुम्हारा हाथ
पकड़कर चलूं? रास्ते
में तुम छोड़
तो न दोगे? तुम्हें
अपने हाथ का पक्का
भरोसा है कि
मैं भटक तो न
जाऊंगा? क्या
तुम्हें
पक्का खयाल है
कि तुम जहां
ले जा रहे हो, वह जगह है? और पहले तुम
मुझे सब
तर्कयुक्त
रूप से समझा
दो कि सूरज है,
कि सागर है,
कि फूल खिले
हैं, कि
पक्षी गीत
गाते हैं। जब
मैं सब समझ
लूं, तब मुझे
यह भी समझाओ
कि तुम
धोखेबाज तो
नहीं हो? तब
तुम मुझे यह
भी बताओ कि
तुम्हारे हाथ
से तुमने कभी
किसी को
पहुंचाया भी
है कि मुझको
ही पहुंचाते
हो? और मैं
कैसे मानूं कि
तुमने किसी को
पहुंचाया है?
इसकी कोई
गवाहियां हैं?
और फिर मैं
कैसे मानूं कि
वे गवाहियां
तैयार की हुई
नहीं हैं?
यह सब
वह पूछने लगे, तो असंभव
है यात्रा।
लेकिन बेटा उठकर
खड़ा हो जाता
है, और
पिता का हाथ
पकड़ लेता चल
पड़ता है। यह
पिता का हाथ
पकड़ने में जो
भाव बेटे का
है, उसका
नाम श्रद्धा
है।
श्रद्धा
का अर्थ है, एक गहरा
अपनापन, एक
भरोसा।
श्रद्धा का
अर्थ है, एक
आत्मीयता, अज्ञात
के प्रति, अनजान
के प्रति भी
भरोसे का भाव।
ध्यान
रहे, श्रद्धा
करके भूल भी
हो जाए, तो
हानि नहीं है;
और
अश्रद्धा
करके लाभ भी
हो जाए, तो
हानि है।
अश्रद्धा
करके लाभ भी
हो जाए, तो
हानि है।
क्योंकि
अश्रद्धा से
जो मिलेगा, वह दो कौड़ी का
होगा; लेकिन
अश्रद्धा
मजबूत हो
जाएगी, जो
कि बहुत बड़ी
हानि है।
श्रद्धा करके
हानि भी हो
जाए, तो
हानि नहीं है,
लाभ ही है।
क्योंकि
श्रद्धा की, यह बड़ी घटना
है।
इस जगत
में जो सबसे
बड़ी घटना है, वह
श्रद्धा है।
यह बड़ी हैरानी
की बात है।
खयाल में न
आएगा।
क्योंकि श्रद्धा
एक असंभव बात
है, इपासिबिलिटी।
किसी पर
श्रद्धा करना
एक असंभव बात
है। क्योंकि
हमारी पूरी की
पूरी बुद्धि सब
तरह के अडंगे
खड़े करेगी। वह
कहेगी अर्जुन
से कि यह
कृष्ण! यह
मेरे साथ खेला
है और मुझसे
कहता है, श्रद्धा!
यह कृष्ण!
इसके गले में
मैं हाथ डालकर
नाचा हूं कूदा
हूं, यह
मुझसे कहता है,
श्रद्धा! यह
कृष्ण! जिससे
मौका पड़ा है, तो कुश्ती
भी की है, यह
कहता है, श्रद्धा!
यह कृष्ण जो
कि मेरा सारथी
होकर खड़ा है
इस युद्ध में,
मुझसे कहता
है, श्रद्धा!
यह कृष्ण!
इसको भी चोट
लग जाती है, तो हाथ से
खून निकल आता
है। इसको भी भूख
लगती है। रात
नींद नही
आती है, तो सुबह थका—मादा
होता है। यह मुझ
से कहता है, श्रद्धा! यह
कृष्ण भी मरेगा।
यह कृष्ण भी एक
दिन पैदा हुआ।
यह कृष्ण भी
प्रेम में
पड़ता है, यह
गोपियों के साथ
नाचता है। यह,
कृष्ण भी लेन—देन
करता है, राजनीति
चलाता है। मुझ
से कहता है, श्रद्धा!
अर्जुन को हजार
सवाल आने स्वाभाविक
हैं। और बिलकुल
प्राकृतिक
हैं।
श्रद्धा
बड़ी असंभव
घटना है।
श्रद्धा ऐसा
फूल है, जो कभी—कभी
करोड़ों में
कभी एक बार
खिलता है।
लेकिन जब खिलता
है, तो
उससे अनंत के
द्वार खुल
जाते हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं, श्रद्धारहित
होकर, तो
फिर मुझ तक
कोई नहीं पहुंच
पाता है।
क्योंकि मुझ
तक पहुंचने का
द्वार और सेतु
ही श्रद्धा
है। और जो मुझ
तक नहीं पहुंचता,
वह मृत्यु
और जन्म, जन्म
और मृत्यु, मृत्यु और
जन्म के पहिए
में घूमता
रहता है, भटकता
रहता है। आज
इतना ही।
लेकिन
उठेंगे नहीं।
एक पांच—सात
मिनट श्रद्धा
रखकर कीर्तन संन्यासी
करेंगे, उसमें
.सम्मिलित
हों। सुनें मत,
सम्मिलित
हों।
जिन
मित्रों को भी
नाचने का भाव
हो, वे
भी यहां सामने
आ सकते हैं।
शेष सब अपनी
जगह बैठे
रहेंगे।
कोई
उठेगा नहीं।
ताली बजाए।
कीर्तन में
सम्मिलित हों
पाच—सात मिनट।
इसे हमारे संन्यासियों
का प्रसाद समझें।
आज इतना
ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं