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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषद--प्रवचन--122

संत संसार भर को देता है, और बेशर्त—(प्रवचन—एकसौबाईसवां)
अध्याय 77
धनुष झुकाना

स्वर्ग का ताओ-मार्ग, क्या वह धनुष के झुकाने जैसा नहीं है?
शिखर नीचे चला आता है और अधोभाग ऊपर उठ जाता है;
अतिरिक्त (लंबाई) छोटा होता है और अपर्याप्त (चौड़ाई) बढ़ जाता है।
स्वर्ग का ढंग है कि वह उनसे छीन लेता है, जिनके पास अतिशय है;
और उन्हें दिए देता है जिनको पर्याप्त नहीं है।
मनुष्य का ढंग यह नहीं है। वह उनसे छीन लेता है जिनके पास नहीं है;
और उसे वह भेंट के रूप में उन्हें दिए देता है, जिनके पास अतिशय है।
कौन है जिसके पास सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है?
केवल ताओ का व्यक्ति।
इसलिए संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं करते;
संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते;
क्योंकि उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।


जीसस का वचन है कि जो यहां प्रथम हैं वे मेरे प्रभु के राज्य में अंतिम होंगे, और जो यहां अंतिम हैं वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे।
अंतिम प्रथम हो जाता है; प्रथम अंतिम हो जाते हैं।
लेकिन साधारणतः मनुष्य की दौड़ प्रथम होने की है। और प्रथम होने की दौड़ में जो पड़ा वह अंततः पाएगा कि अंतिम हो गया, और बुरी तरह अंतिम हो गया। और जो अंतिम होने के लिए राजी है वह अंततः पाता है कि समग्र अस्तित्व ने ही उसे प्रथम बना दिया। यह पहेली सी मालूम पड़ेगी, पर यह जीवन की कुंजियों में से एक है। और इसे बहुत सूक्ष्मता से, इसकी एक-एक पर्त को समझ लेना जरूरी है।
सभी के भीतर कामना है प्रथम होने की; कामना बुरी भी नहीं है। कामना के पीछे जरूर कोई राज है। असल में, प्रत्येक व्यक्ति प्रथम होने को ही बना है; इससे कम किसी की भी नियति नहीं है। परमात्मा से कम पर राजी होने का उपाय भी नहीं है। उससे कम पर तुम राजी हो गए तो तुम दुखी और विपन्न ही रहोगे, पीड़ा ही रहेगी। एक संताप तुम्हें घेरे ही रहेगा; एक बेचैनी, एक कमी, कुछ खोया-खोया, कुछ जो पाया जा सकता है और नहीं पाया जा सका। जैसे कोई वृक्ष फूलने से वंचित रह गया हो; पत्ते लगे हों, हरियाली आई हो; फिर कलियां न लगीं, फिर फूल न खिले, फिर फल न लगे। जैसे कोई वृक्ष निष्फल रह गया हो, बांझ रह गया हो, ऐसा तुम अनुभव करोगे।
प्रथम होने की आकांक्षा के भीतर यही गहन बात छिपी है कि तुम्हारी नियति प्रथम होना है। तुम पैदा ही प्रथम होने को हुए हो। तुम्हारा स्वभाव ही प्रथम होना है। तुम किसी से पीछे रहने को नहीं हो। और प्रथम तो परमात्मा ही है। शेष सब तो उसके पीछे ही होगा। इसलिए जब तक तुम परमात्मा न हो जाओ, उस परम पद को न पा लो, तब तक तुम दौड़ोगे, भागोगे, चाहोगे, भटकोगे, हारोगे, विषाद से भरोगे, चूकोगे बहुत बार।
कामना तो ठीक है, लेकिन कामना काफी नहीं है, समझ भी चाहिए। यह तो ठीक है कि तुम प्रथम होना चाहते हो, लेकिन गलत ढंग से अगर तुम प्रथम होना चाहे तो कभी भी न हो पाओगे। प्रथम होने का ठीक ढंग भी है, गलत ढंग भी है। समझ की कमी है; भाव तो बिलकुल ठीक ही उठा है। सिंहासन पर होने को ही तुम पैदा हुए हो। वह तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। लेकिन कौन सा सिंहासन?
आदमी के बनाए सिंहासनों पर होने से तुम तृप्त न हो पाओगे, जब तक परमात्मा ही तुम्हें सिंहासन पर न बिठा दे। तब तक सभी सिंहासन कामचलाऊ होंगे; आज होंगे, कल छीन लिए जाएंगे। आदमी का दिया कितनी देर टिक सकता है? और आदमी इधर देता है, उधर छीनने को तैयार हो जाता है। और आदमी का सिंहासन आदमी का ही बनाया सिंहासन है। आदमी की सामर्थ्य क्या है? तुम पद पर होना चाहते हो, वह तो ठीक है। तुम परम पद पर होना चाहते हो, वह भी ठीक है। लेकिन राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री होने से हल न होगा। वहां भी तुम पाओगे: पा लिए पद मनुष्य के, लेकिन भीतर की आकांक्षा तो अतृप्त ही रह गई। जल-स्रोत भी करीब आ गया, और प्यास मिटती भी नहीं। तो जल-स्रोत धोखा होगा, मृग-मरीचिका होगा। पदों पर पहुंच कर भी तो आदमी कहां परम पद को उपलब्ध हो पाता है! वहां भी तो भूख उतनी ही रह जाती है, प्यास उतनी ही बनी रहती है, दौड़ उतनी ही जारी रहती है। धन पाकर भी तो परम धन नहीं मिलता।
असल में, आकांक्षा तो बिलकुल ठीक है, लेकिन कैसे उस आकांक्षा को पूरा करें, वहां कहीं भूल हो रही है। धर्म तुम्हारे भीतर की परम अभीप्सा को पूरा करने की विधि है। अधर्म भी तुम्हारे भीतर की अभीप्सा को पूरा करने की विधि है; लेकिन गलत। अधर्म भी रास्ता दिखाता है कि आओ।
ऐसी कथा है कि जीसस जब परम क्षण के करीब आए और जब उनकी प्रार्थना पूरी होने को हुई, और जब परमात्मा उन्हें अंगीकार करने को राजी हो गया, एक क्षण की देर थी कि जीसस तो मिट जाएंगे और क्राइस्ट का जन्म हो जाएगा, तभी शैतान बीच में आ खड़ा हुआ। और शैतान ने कहा, तुम जो चाहते हो मैं पूरा करने को राजी हूं। तुम्हें सारे संसार का सम्राट बनना है? बस कहो, कहने की देर है और मैं तुम्हें बना दूं। तुम्हें धन चाहिए? अपरिसीम धन चाहिए? कुबेर का खजाना चाहिए? बोलो! तुम बोले कि मैं पूरा कर दूं। तुम्हारी जो भी कामना हो, जिस लिए तुम प्रार्थना कर रहे हो, तुम बता दो।
जीसस ने कहा, हट शैतान, मेरे पीछे हट! मैं तुझसे नहीं मांग रहा हूं। और तुझसे अगर जो भी लेने को राजी हो गया वह सदा-सदा भटकेगा। तेरे धन से तो निर्धन होना बेहतर। और तेरे राज्य से तो भिखारी होना बेहतर। क्योंकि तू मृग-मरीचिका है। तू धोखा है।
जब भी कोई खोजने निकलेगा तब हजार धोखों के जाल भी हैं। कोई शैतान नहीं तुम्हें धोखा दे रहा है; तुम्हारा मन ही सस्ता रास्ता चुनता है। वह कहता है, सिंहासन चाहिए? दिल्ली चलो। धन चाहिए? धन कमाओ। बाजार है, चोरी करो, बेईमानी करो, लूटो-खसोटो। रास्ता तो यह है, हम बताए देते हैं तुम्हें जो चाहिए। मंदिर में प्रार्थना करने किसलिए जा रहे हो? पूजा-अर्चना किसकी कर रहे हो? विधि हमारे पास है। मन तुम्हें रास्ता दे देता है।
और मन के रास्ते पर चल-चल कर तुम जन्मों-जन्मों भटके हो। अभी भी मंजिल करीब नहीं दिखाई पड़ती, उतनी ही दूर है, जितनी पहले दिन तुम्हारी चेतना के लिए रही होगी। रत्ती भर भी यात्रा नहीं हो पाई। चले बहुत हो, लेकिन एक वर्तुलाकार परिधि में घूम रहे हो। कोल्हू के बैल जैसी तुम्हारी यात्रा है। चलता दिन भर है, पहुंचता कहीं भी नहीं। सांझ पाता है वहीं खड़ा है। फिर भी दिन भर चलता है इसी आशा में कि शायद कहीं पहुंच जाएगा।
कोल्हू के बैल को चलाने के लिए उसका मालिक उसकी आंखों के दोनों तरफ पट्टियां बांध देता है, ताकि उसे आस-पास दिखाई न पड़े, सिर्फ सामने दिखाई पड़े। तांगे में घोड़े को जोतते हैं तो उसके पास भी पट्टियां बांध देते हैं, उसे सामने दिखाई पड़े। सामने दिखाई पड़ने से भ्रांति पैदा होती है; रास्ता गोलाकार है, यह नहीं दिखाई पड़ता। जब सामने दिखाई पड़ता है, रास्ता सीधा मालूम पड़ता है। अगर वह आस-पास देख ले तो पता चल जाए कि यह तो मैं वहीं के वहीं घूम रहा हूं।
मन भी रेखाबद्ध कोल्हू के बैल की तरह चलता है। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि मैं वहीं-वहीं घूम रहा हूं। थोड़ा जाग कर, थोड़ा मन से दूर खड़े होकर देखो। वही क्रोध, वही काम, वही लोभ बार-बार तुम करते रहे हो। नया क्या है? हर बार किया है, पछताया है। पछतावा तक नया नहीं है, वही तुम बार-बार करते रहे हो। लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। तुम सोचते हो यात्रा हो रही है। यात्रा नहीं हो रही, तुम सिर्फ चल रहे हो, पहुंच नहीं रहे। जरा सी भी तो तृप्ति की गंध नहीं आती। जरा सा भी तो परितोष नहीं बरसता। कहीं से भी तो कोई दीया नहीं जलता दिखाई पड़ता। अंधेरा वैसा का वैसा है।
आकांक्षा तो ठीक है, परम पद चाहिए; विधियां गलत हैं। और विधियों को जिसने ठीक कर लिया, उसकी आकांक्षा पूरी हो जाती है। बुद्ध ने बार-बार कहा है कि तुम मुझसे गंतव्य मत पूछो, गंतव्य तो तुम्हें ही पता है। तुम सिर्फ केवल मुझसे विधियां सीख लो। मंजिल मत पूछो, मंजिल तो तुम्हें भी पता है; मार्ग भर पूछ लो।
बुद्ध के वचनों में कहीं भी मंजिल का उल्लेख नहीं है, सिर्फ मार्ग का।
मंजिल किसे पता नहीं है?
आंखें अंधी हों तो भी आदमी आनंद खोज रहा है। पैर लंगड़े हों तो भी आदमी आनंद खोज रहा है। बीमार हो, स्वस्थ हो, बच्चा हो, जवान हो, बूढ़ा हो, आदमी आनंद खोज रहा है। पौधे, पक्षी, सभी आनंद खोज रहे हैं। मार्ग, मार्ग भला गलत हो, मंजिल किसी की भी गलत नहीं है। सुरत्तान बंधी है भीतर मंजिल की तरफ। लेकिन कैसे पहुंचें? कहां है आनंद? कहां है स्वर्ग का राज्य? ताओ का अर्थ भी होता है मार्ग। ताओ मंजिल नहीं है। मंजिल देने की जरूरत ही नहीं है। उसकी खबर लेकर तो तुम पैदा ही हुए हो। वह तो तुम्हारा ब्लू-प्रिंट है; वह तो तुम्हारे रोएं-रोएं में लिखी है। उसे किसी से भी सीखने की जरूरत नहीं है। वह तुम सीखे हुए ही आए हो। अगर तुम उसे सीखे हुए न आए होते तो कोई तुम्हें सिखा भी न सकता था।
थोड़ी देर को सोचो, अगर आनंद की अभीप्सा ही तुम्हारे भीतर न होती, तो बुद्ध सिर पटकें और मर जाएं, कहीं आनंद की अभीप्सा पैदा करवाई जा सकती है? अभीप्सा भीतर हो तो कोई जगा दे; अभीप्सा भीतर हो तो कोई जला दे। अभीप्सा ही भीतर न हो तो क्या करोगे तुम? अगर बुद्ध पुरुषों का तुम पर प्रभाव पड़ता है, अगर सदगुरु तुम्हें अनुप्रेरित करते हैं, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो तुम चाहते थे, उस चाह को ही उन्होंने निखार कर साफ कर दिया। जो तुम चाहते ही थे सदा से उसी को उन्होंने तुम्हें समझा दिया। जो तुम्हारे भीतर छिपा ही था उसी को उन्होंने प्रकट कर दिया। जो अनजाना था, अपरिचित था, धुंधला-धुंधला था, उसे उन्होंने साफ कर दिया। कोई किसी को मंजिल नहीं दे सकता। मार्ग दिया जा सकता है। ताओ का अर्थ है मार्ग।
बुद्ध के वचनों का जो सबसे महत्वपूर्ण संग्रह है उसका नाम है धम्मपद। उसका अर्थ होता है: दि राइट वे। धम्म का अर्थ होता है ठीक और पद का अर्थ होता है जिस पर चला जाए, जिस पर पैर पड़ें। बुद्ध ने कहा है, तुम्हारे पास सब है, सिर्फ कैसे तुम उस तक पहुंचो, बस उस मार्ग की जरूरत है।
मार्ग क्या है? मार्ग है कि अगर तुम प्रथम होना चाहते हो तो अंतिम हो जाओ, तुम प्रथम हो जाओगे। अगर तुम सदा ही अंतिम रहना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी, प्रथम होने की दौड़ में लग जाओ। तुम सदा अंतिम रह जाओगे। लेकिन तब रोना मत, पछताना मत। यह मत कहना कि मैंने इतनी दौड़ की, इतना श्रम किया, इतना कष्ट उठाया, और फिर भी मैं अंतिम हूं। तुम अंतिम अपने कारण हो। अगर तुम सच में ही प्रथम होना चाहते हो तो तुम प्रथम होने की दौड़ छोड़ दो। क्यों? क्योंकि प्रथम होने की दौड़ तुम्हें अपने स्वभाव से वंचित करा देगी। जैसे ही तुम किसी के साथ प्रतिस्पर्धा में लगते हो, नजर बाहर हो जाती है।
प्रथम होने की दौड़ का अगर ठीक-ठीक अर्थ निकालना चाहो, निचोड़, सार, तो क्या है? प्रथम होने की दौड़ का अर्थ है दूसरे को पीछे करने की दौड़। तुम्हारा संबंध दूसरे से हो जाता है। तुम दूसरे को देखने लगते हो। तुम दूसरे की चालों का जवाब देने लगते हो। तुम दूसरे से संघर्ष करने लगते हो। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो। तुम दूसरे को गिराने में लग जाते हो। क्योंकि वही एकमात्र रास्ता दिखाई पड़ता है कि कैसे तुम प्रथम हो जाओगे। जितने प्रतिस्पर्धी हैं, उनको समाप्त करना होगा, तभी तो प्रथम हो सकोगे।
जो आदमी प्रथम होने की दौड़ में लगता है उसकी नजर दूसरे से उलझ जाती है। और जो दूसरे से उलझ गया वह अपने को खो देता है। और अपने को पा लेना ही प्रथम होना है। क्योंकि तुम परमात्मा हो ही। तुम्हारे परमात्मा को खोने का एक ही ढंग है कि तुम दूसरे से उलझ जाओ। तो तुम्हारी नजर अपने पर लौटना मुश्किल हो जाती है। कैसे आएगी?
राजनीतिज्ञ हमेशा दूसरे की सोचता है। इंदिरा के सपनों में जयप्रकाश होंगे, जयप्रकाश के सपनों में इंदिरा होगी। न जयप्रकाश को अपना पता, न इंदिरा को अपना पता। फुरसत कहां? दूसरे पर नजर है। जो पहुंच गया पद पर उसकी भी नजर दूसरे पर है। क्योंकि लोग पैर खींच रहे हैं, उनसे बचना जरूरी है। क्योंकि दूसरों को भी प्रथम होना है। और सभी तो प्रथम नहीं हो सकते इस संसार में। सभी तो दिल्ली के सिंहासन पर नहीं बैठ सकते। अन्यथा सिंहासन भारत जितना बड़ा बनाना पड़ेगा। वह सिंहासन ही न रह जाएगा। वह भारत ही हो जाएगा। तुम बैठे ही हो सिंहासन पर; फिर कोई जरूरत ही नहीं दिल्ली जाने की। सिंहासन पर तो कोई एक बैठ सकता है। और पचास करोड़ प्रतिस्पर्धी होंगे जो सब तरफ से तुम्हारे रोएं-रोएं को खींच रहे हैं।
तो जो पद पर बैठा है वह भी निश्चिंत नहीं है कि अपनी सोच ले। पद पर जो बैठा है उसे पद की रक्षा करनी है; जो पा लिया उसकी रक्षा करनी है। अन्यथा एक क्षण में ही खो जाएगा। चारों तरफ दुश्मन मौजूद हैं; दुश्मन ही दुश्मन हैं। और जो पद पर नहीं पहुंचा है वह भी कैसे निश्चिंत होकर ध्यान करे? वह कैसे आंख बंद करे? वह कैसे प्रार्थना-पूजा में उतरे? सोचता है, जब सिंहासन पर पहुंच जाएंगे, जब सब पा लेंगे, तब कर लेंगे पूजा। अभी क्या जल्दी है? और अभी अगर पूजा में लग गए तो ये दूसरे जो आगे निकले जा रहे हैं, और आगे निकल जाएंगे। करोड़ों लोग चल रहे हैं सिंहासन की खोज में। तुम पूजा के लिए बैठ गए रास्ते के किनारे उतर कर, भटक जाओगे, पीछे छूट जाओगे। फुरसत कहां है? भागो, दौड़ो। न सोओ, न ठीक से भोजन करो।
प्रेम खो जाता है, प्रार्थना की तो बात दूर। पद का आकांक्षी न प्रेम कर सकता है, न दो क्षण बैठ कर गीत सुन सकता है। न संगीत का रस ले सकता है, न फूलों को देख सकता है। सारी ऊर्जा उसे लगानी पड़ती है प्रतिस्पर्धा में। भयंकर संघर्ष है। उस संघर्ष में सुविधा नहीं। सोचता है, सिंहासन पर पहुंच कर! सिंहासन पर पहुंचा आदमी डरा हुआ है पूरे वक्त। क्योंकि चली आ रही है भीड़ हजारों प्रतिस्पर्धियों की। वे सभी जान लेने को तत्पर हैं।
सिंहासन पर बैठा भी दूसरों को देखता रहता है; सिंहासन पर जो नहीं हैं वे भी दूसरों को देखते रहते हैं: कोई आगे न निकल जाए। जो पीछे हैं उन्हें पीछे रखना है। जो आगे हैं उन्हें भी पीछे करना है। एक पल खोने को नहीं है। जिंदगी एक कशमकश मालूम होती है, एक गहन संघर्ष और एक युद्ध। कैसे तुम अपनी तरफ देखोगे?
जिसने पहले होने की दौड़ में भाग ले लिया, वह और सबको देखेगा, अपने भर को न देख पाएगा। और जो अपने को न देख पाएगा वह कैसे प्रथम होगा? क्योंकि प्रथम तो तुम हो ही। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम खोजते कहां हो? तुम पाने कहां चले हो? तुम दूसरों के द्वार पर दस्तक दे रहे हो, और तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। उसे तुम लेकर ही आए हो। वह तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वभाव है।
इसलिए ज्ञानी कहते हैं कि जो प्रथम होने की दौड़ में लग जाएगा वह परमात्मा के राज्य में अंतिम रह जाएगा।
दौड़ में कुछ बुराई न थी। अभीप्सा बिलकुल ठीक थी। लेकिन विधि गलत हो गई। अगर तुम वस्तुतः प्रथम होना चाहते हो तो जीसस ठीक कहते हैं कि तुम अंतिम खड़े हो जाओ। क्योंकि जो अंतिम खड़ा है उसे कोई भी भय नहीं, उससे कोई कुछ छीन नहीं सकता। उसके पास कुछ है ही नहीं, तुम छीनोगे क्या? तो वह निश्चिंत बैठ सकता है। वह आंख बंद करके ध्यान कर सकता है। वह अपने स्वभाव में उतर सकता है। उसकी किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वह अंतिम है। उससे पीछे कोई है ही नहीं जो उससे आगे निकलना चाहे। उसके आगे जो है वह तो प्रसन्न है कि तुम ध्यान कर रहे हो, बैठे हो, बहुत अच्छा, कृपा है; ऐसे ही बैठे रहना। नहीं तो एक प्रतियोगी और बढ़ जाता है।
इसीलिए तो संसारी लोग संन्यासियों का पैर छूते हैं। वे कहते हैं, बड़ी कृपा! संन्यास ले लिया, बड़ा अच्छा किया। वे यह कह रहे हैं कि चलो, इतने प्रतिस्पर्धी कम हुए। अगर तुम्हारा खुद का बेटा संन्यास ले ले तो तुम दुखी होते हो, किसी दूसरे का बेटा ले ले तो तुम उसको धन्यवाद देने जाते हो कि सौभाग्यशाली हो, धन्यभाग तुम्हारे कि ऐसा बेटा घर में पैदा हुआ। और तुम्हारा बेटा संन्यास ले ले? तुम्हारा बेटा संन्यास ले ले तो तुम्हारी महत्वाकांक्षा की रीढ़ टूट जाती है। इसके ही सहारे तो तुम आशा कर रहे थे। तुम्हारे तो पैर टूट चुके हैं दौड़-दौड़ कर। अब यह तुम्हारी बैसाखी था। जो महत्वाकांक्षा तुम पूरी नहीं कर पाए हो और सड़ गए, अब तुम चाहते थे इसके कंधे पर सवार होकर पूरी कर लो। और यह संन्यास ले रहा है!
जब बुद्ध ने संन्यास लिया होगा तो बुद्ध के पिता को, तुम सोच सकते हो, कैसी पीड़ा हुई होगी। इकलौता बेटा था। साम्राज्य के बढ़ने की इसी से आशा थी; सम्हालने की भी इसी से आशा थी। बुढ़ापे में घर छोड़ कर भाग गया; सब महत्वाकांक्षाएं चकनाचूर हो गई होंगी।
नहीं, दूसरे का बेटा जब संन्यास लेता है तब तुम प्रसन्न होते हो। तुम शायद सोचते होओगे कि संन्यास का तुम्हारे मन में बड़ा आदर है; तो तुम बड़ी गलती में हो। क्योंकि संन्यास का ही आदर होता तो तुमने खुद ही संन्यास ले लिया होता। अगर संन्यास की ही समझ होती तो तुमने अपने बेटों को भी अनुप्रेरित किया होता कि जाओ, क्यों देर कर रहे हो, क्यों गंवा रहे हो! नहीं, संन्यास का तुम्हारे मन में न तो समादर है, न संन्यास के प्रति कोई प्रेम, कोई आस्था, कोई श्रद्धा का भाव है। लेकिन तुम धन्यवाद देने जाते हो कि जितने प्रतियोगी कम हुए उतना ही अच्छा। तो तुम भी संन्यासी हो गए, अच्छा हुआ।
बुद्ध के नाम के कारण बुद्धू शब्द प्रचलित हुआ है। शायद बुद्ध के पिता ने सबसे पहले कहा होगा: यह बुद्ध क्या हुआ, बुद्धू! सब छोड़-छाड़ कर भाग गया। दूसरे समझदारों ने भी कहा होगा। और जब किसी का बेटा ध्यान करने बैठने लगता है तो वह कहता है, क्या बुद्धू की तरह बैठे हो! उठो, काम में लगो; ऐसे बैठने से दुनिया न चलेगी। बुद्ध जैसे परम पुरुष के नाम के पीछे बुद्धू जैसी गाली जुड़ गई। कुछ कारण होगा।
और ऐसा बुद्ध के साथ ही नहीं हुआ है, ऐसा बहुत ज्ञानी पुरुषों के साथ हुआ है। गोरख के पीछे गोरखधंधा शब्द चल पड़ा है। क्योंकि गोरख ने बड़ी विधियां खोजीं, ध्यान की बड़ी गहन विधियां खोजीं। और बड़ा ही सूक्ष्म उन विधियों का जाल था। तो लोग एक-दूसरे को कहने लगे, उठो! क्या गोरखधंधे में पड़े हो? गोरखधंधे का मतलब कि यह गोरख की झंझट में उलझ गए? बचो इससे! इसमें उलझे कि गए।
महावीर के पीछे एक शब्द चलता है जो है नंगा-लुच्चा। तुमने कभी सोचा भी न होगा, क्योंकि तुम किसी को गाली देते हो तब कहते हो कि नंगा-लुच्चा। लेकिन वह आया महावीर से है। महावीर नग्न रहते थे, और बालों की लोंच करते थे। क्योंकि बालों को कटाते नहीं थे। वे कहते थे कि इतना भी साधन का उपयोग करना, उस तरह का उपयोग करना व्यर्थ है। बिना साधन के जो चीज हो सकती है उसमें साधन की निर्भरता क्यों? तो वे अपने बाल को लोंच लेते थे। नंगा-लुच्चा महावीर के आधार पर बना शब्द है: जो नंगे रहते हैं और अपने बाल लोंचते हैं।
महापुरुषों के साथ तुम्हारे भीतर की आकांक्षा किस भांति प्रकट हुई है, यह तुम समझ सकते हो। तुमने गालियां दी हैं! बातें तुम पूजा की करते हो। लेकिन यह इस तरह पैदा हुआ होगा कि जब किसी का बेटा, किसी का पति घर छोड़ कर महावीर के पीछे चलने लगा होगा, तो लोगों ने कहा होगा, क्या नंगे-लुच्चों की बातों में पड़े हो? जब कोई गोरखधंधे में उलझने लगा होगा, तब लोगों ने कहा होगा कि बचो, अपने को बचाओ; यह गोरखधंधा है; इसमें कुछ सार नहीं। गोरख भूल गए; गोरखधंधा याद है। महावीर कितने लोगों को पता हैं? जो लोग नंगा-लुच्चा शब्द प्रयोग करते हैं, उनमें से लाखों को महावीर का कोई पता नहीं है। और बुद्धू का प्रयोग तो सभी लोग करते हैं; लेकिन बुद्ध से किसका क्या जोड़ है?
जीवन बड़ा जटिल है। और बड़ी से बड़ी जटिलता यह है कि तुम जो पाने निकले हो, अगर वह तुम्हें मिला ही हुआ था तो तुम्हारे पाने की हर कोशिश उसके मिलने में बाधा होगी। कैसे तुम उसे पा सकोगे जो मिला ही हुआ है? उसे पाने का तो एक ही उपाय है कि तुम पाने की सब दौड़ छोड़ कर थोड़ी देर शांत होकर बैठ कर अपने को पहचान लो तुम कौन हो। उसी पहचान से तुम्हारा पद तुम्हें मिल जाएगा। तुम सिंहासन पर विराजमान ही हो। अब तुम किस और सिंहासन की खोज कर रहे हो?
इसलिए जीसस कहते हैं कि जो अंतिम है वह मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम है। है ही। कोई ऐसा नहीं कि परमात्मा अंतिम को बड़ा प्रेम करता है, इसलिए उठा कर उसको सिंहासन पर रख देता है। परमात्मा हो या न हो, अंतिम सिंहासन पर पहुंच ही जाएगा। अंतिम सिंहासन पर है ही। अंतिम होने में ही मिल जाता है सिंहासन। क्योंकि जब तुम सबके पीछे खड़े हो जाते हो, कतार में बिलकुल आखिरी, तुम्हें कोई धक्का-मुक्का नहीं देता।
क्यू में खड़े होकर देख लो। अगर तुम बिलकुल आखिर में हो, तुम्हें बिलकुल धक्के-मुक्के न लगेंगे। अगर तुम बीच में हो, धक्के-मुक्के खाओगे। अगर प्रथम हो तो पिटाई भी हो सकती है। अगर तुम आखिर में खड़े हो तो तुम्हारा कोई भी दुश्मन नहीं है; सभी तुम्हारे मित्र हैं। तुम सभी की मैत्री पाओगे। अगर तुम प्रथम खड़े हो तो सभी तुम्हारे दुश्मन हैं। जो मित्र की तरह दिखाई पड़ते हैं वे भी दुश्मन हैं। क्योंकि भीतर तो उनके भी वही आकांक्षा लगी है कि कब तुम हटो, कब तुम विदा हो जाओ, ताकि वे तुम्हारी जगह पर आरूढ़ हो जाएं।
अंतिम खड़ा होना दो तरह से हो सकता है। एक तो कि तुमने कोशिश तो की थी प्रथम खड़े होने की, लेकिन तुम्हारे पैर न टिक पाए, धक्का-मुक्की भारी थी, तुम कमजोर सिद्ध हुए; लोग ज्यादा मजबूत थे, और उन्होंने तुम्हें पीछे कर दिया। यह अंतिम होने से तुम यह मत सोचना कि परमात्मा के राज्य में तुम प्रथम हो जाओगे। क्योंकि भला तुम पीछे खड़े हो, लेकिन आकांक्षा तो तुम्हारी पहले ही खड़े होने की है। भला तुम कमजोर हो इसलिए असहाय हो। इस असहाय अवस्था में तुम्हें स्वभाव का पता न चलेगा।
इसलिए एक बात जो जीसस ने नहीं कही है, मैं उसमें जोड़ देता हूं कि जो सभी अंतिम खड़े हैं वे सभी परमात्मा के राज्य में प्रथम न हो जाएंगे। क्योंकि हजार अंतिम खड़े लोगों में नौ सौ निन्यानबे तो मजबूरी में खड़े हैं। मजबूरी कोई मुक्ति नहीं है। वे वहां खड़े इसलिए हैं कि लोगों ने जबरदस्ती वहां उन्हें खड़ा कर दिया है, मजबूर कर दिया है। मगर उनके प्राण तड़प रहे हैं। सपना तो वे प्रथम खड़े होने का ही देख रहे हैं।
नहीं, ये लोग प्रथम न हो पाएंगे। असलियत में प्रथम पहुंचो, असलियत में प्रथम पहुंचने की कोशिश करो, या तुम्हारे सपनों में तुम प्रथम होने की कोशिश करो; कोई भेद नहीं है। कभी खाली कुर्सी पर बैठे-बैठे खयाल आ जाता है कि प्रधानमंत्री हो गए। तब तुम थोड़ी देर को रसलीन हो जाते हो। तब तुम योजनाएं भी बनाने लगते हो कि क्या करोगे, क्या करवा दोगे दुनिया में। कोई भेद नहीं है, सपना देखो या सच्चाई में पहुंच जाओ; लेकिन तुम्हारी भीतर की आकांक्षा प्रथम होने के लिए दौड़ कर रही है।
अंतिम तो वही है जो स्वेच्छा से अंतिम है; जिसे किसी ने पीछे नहीं कर दिया है; जो खुद पीछे हो गया। किसी कमजोरी के कारण नहीं, किसी गहरी समझ के कारण; किसी असहाय अवस्था के कारण नहीं, बोधपूर्वक।
और स्वेच्छा शब्द भी ठीक नहीं है। क्योंकि उसमें भी लगता है कि जैसे थोड़ी सी तकलीफ रही, समझा लिया, सांत्वना कर ली और हट गए। नहीं, स्वेच्छा शब्द भी कमजोर है। अगर ठीक ही कहना हो, तो जो उत्सवपूर्वक अंतिम खड़ा है, अहोभाव से, आनंद से अंतिम खड़ा है, अंतिम होने में जिसने जीवन की कृतार्थता जानी है, जो अंतिम होकर परमात्मा को धन्यवाद दे रहा है, जो अंतिम होकर यह कह रहा है, पा लिया! यही तो पाना था। सांत्वना नहीं है, बड़ा परितोष है, बड़ी गहन तृप्ति है। आनंद से नाच रहा है, क्योंकि अंतिम है। गीत गा रहा है, क्योंकि अंतिम है। अब गीत गा सकता है, क्योंकि अंतिम है, अब कोई प्रथम होने की दौड़ न रही। अब नाच सकता है, क्योंकि अब अंतिम है। अब धन्यवाद दे सकता है, अब प्रार्थना कर सकता है। अब घुटने टेक कर आकाश के सामने झुक सकता है। अब पैरों के लिए और कोई काम न रहा, अब पैर प्रार्थना में झुक सकते हैं। अब हृदय के लिए और कोई उलझन न रही; अब हृदय रस-विभोर हो सकता है। जो रस-विभोर होकर अंतिम है वही जीसस के अर्थों में पहुंच सकेगा।
इसलिए सभी अंतिम न पहुंच जाएंगे, क्योंकि सभी अंतिम ही नहीं हैं। अंतिम तो वही है जो प्रसन्नता से अंतिम है, जो हार्दिकता से अंतिम है, जो संपूर्णता से अंतिम है। इसी को मैं संन्यासी कहता हूं। संन्यास का अर्थ है: अहोभावपूर्वक अंतिम खड़े हो जाने की दशा; जिसने सब प्रतिस्पर्धा छोड़ दी। प्रतिस्पर्धा यानी राजनीति। प्रतिस्पर्धा यानी दूसरे के गले काटने की चेष्टा। प्रतिस्पर्धा अहंकार की दौड़ है। जो अंतिम है वह विनम्र हो जाता है, अहंकार की दौड़ समाप्त हो गई। यह जो अंतिम खड़ा आदमी है, इसने दूसरे की तरफ देखना ही बंद कर दिया; जैसे दूसरा है ही नहीं। यह अकेला ही है। यह सारा विराट आकाश, ये अनंत-अनंत चांदत्तारे इस अकेले के लिए हैं। दूसरा खो गया; क्योंकि दूसरा तभी तक है जब तक तुम उसके लिए सोच रहे हो।
इसे तुम समझ लेना। दूसरा तभी तक है जब तक तुम उसके विचार में पड़े हो। जब विचार ही न दूसरे का रहा तो दूसरा खो गया। होगा न होगा, कोई अर्थ न रहा। तुम्हारे लिए आकाश अकेले का हो गया; तुम परम स्वतंत्र हो उड़ने को अब। अब तुम्हारे पंख बंधे नहीं हैं। संसार में जिसने दौड़ छोड़ दी उसके पास सारी ऊर्जा बच जाती है। वही ऊर्जा तो पंख बनती है परमात्मा की तरफ जाने का। अब तुम्हारी उड़ान मुक्त है। और ध्यान रखना, परमात्मा की तरफ यात्रा में कोई स्पर्धा नहीं है; कोई स्पर्धा कर भी नहीं रहा है।
मैंने सुना है, एक नया दुकानदार मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में आया। वह वहां दुकान खोलना चाहता था। नसरुद्दीन पुराना दुकानदार है तो उसने सलाह ली, गांव-बाजार के संबंध में जानकारी ली। और बातचीत में उसने कहा कि मैं एक ईमानदार आदमी हूं; और ईमान से ही काम करना चाहता हूं। ईमानदारी ही मेरी दुकानदारी है। नसरुद्दीन ने कहा, तुम बेफिक्र रहो; तब तो तुम बिलकुल निश्चिंत, आ सकते हो। क्योंकि तुम्हारा कोई प्रतिस्पर्धी इस गांव में नहीं है। ईमानदारी में कौन प्रतिस्पर्धा कर रहा है? अगर बेईमान होते तो मुश्किल में पड़ते। ईमानदारी? मजे से आओ। अकेले ही हो। और किसी को कोई झगड़ा नहीं है, तुम मजे से अपनी ईमानदारी करो।
ईमानदारी में कौन स्पर्धा कर रहा है? और धर्म तो वहां कोई तुम्हारे साथ दौड़ ही नहीं रहा। तुम अकेले ही दौड़ रहे हो। जहां भी खड़े हो जाओ वहीं प्रथम हो। न दौड़ो तो भी प्रथम, दौड़ो तो भी प्रथम। वहां कोई तुम्हारे साथ दौड़ ही नहीं रहा। और बात कुछ ऐसी है कि धर्म के जगत में प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं सकता। क्योंकि धर्म के जगत में प्रवेश ही तब होता है जब प्रतिस्पर्धा गिर जाती है। नहीं तो कोई धर्म के जगत में प्रवेश नहीं करता।
अगर तुम मुझसे परिभाषा पूछो तो यह परिभाषा हुई: संसार का अर्थ है प्रतिस्पर्धा का जगत, और परमात्मा का अर्थ है गैर-प्रतिस्पर्धा का जगत। वहां तुम नितांत अकेले हो। महावीर ने तो उस स्थिति को कैवल्य कहा है; बिलकुल अकेले, इतने अकेले कि केवल तुम हो, और कोई भी नहीं बचता। कहीं कोई दीवार नहीं। कहीं कोई रोकने वाला नहीं। कहीं कोई जंजीर नहीं। स्वभावतः, तुम प्रथम हो जाओगे। जहां तुम अकेले हो वहां तुम्हारे द्वितीय होने का उपाय भी कहां? कौन तुम्हें द्वितीय करेगा? तुम चाहो तो क्यू में खड़े हो जाओ, तो भी तुम प्रथम ही रहोगे।
जार्ज माइक्स ने इंग्लैंड के संबंध में एक किताब लिखी है। और उसने लिखा है कि इंग्लैंड अकेला मुल्क है जहां एक आदमी भी बस-स्टैंड पर हो तो क्यू में खड़ा होता है। सारी दुनिया में अकेला ही मुल्क है। एक आदमी भी, जहां कोई है ही नहीं, वह भी क्यू में ही खड़ा रहता है।
परमात्मा के जगत में, तुम चाहो क्यू में खड़े हो जाओ, तुम ही अंतिम हो, तुम ही प्रथम हो।
कुछ और बातें समझ लें, फिर हम इस सूत्र में आसानी से गति कर पाएंगे।
प्रथम होने की दौड़ तुम्हारे भीतर की जरूर किसी गहरी हीनता से पैदा होती है। तुम क्यों दूसरे को पीछे करना चाहते हो? तुम डरते हो कि कहीं दूसरा तुम्हें पीछे न कर दे। तुम डरते हो कि कहीं तुम्हारी हीनता जगत में प्रकट न हो जाए, कोई तुम्हें हरा न दे।
मेरा अनुभव है कि लोग प्रतिपल सुरक्षा में लगे रहते हैं। तुम अपने निकटतम मित्रों के साथ भी सुरक्षा का उपाय करते रहते हो। कोई ऐसी बात न कह दे, कोई ऐसा विवाद न उठ आए, जिसमें तुम हार जाओ। तुम ऐसी चर्चा में नहीं पड़ते जिसमें कोई संघर्ष पैदा हो जाए, कोई प्रतिस्पर्धा हो जाए। तुम अपने को बचाए फिरते हो। तुम सब तरफ से यह कोशिश करते हो कि कोई ऐसी स्थिति न बने जिसमें तुम किसी भांति पीछे दिखाई पड़ जाओ।
इसका सीधा-सीधा अर्थ है, गहनता में तुम जानते ही हो कि तुम पीछे हो और हीन हो। अन्यथा यह इतनी हीनता की ग्रंथि क्यों? इतना भय किसका? अगर यह बात तुम्हें ठीक से समझ आ जाए तो हीनता की ग्रंथि से ही प्रथम होने की दौड़ पैदा होती है। इसलिए राजनीति में तुम पाओगे कि सबसे ज्यादा हीनता-ग्रंथि पीड़ित लोग तुम्हें मिलेंगे। या तो पागलखाने में मिलेंगे और या राजधानियों में मिलेंगे। पागल भी वे इसीलिए हो गए हैं कि हीनता ने उनको इतना-इतना हीन कर दिया कि वे कल्पनाएं करने लगे अपने कुछ होने की।
जब हिटलर जिंदा था तो पागलखानों में ऐसे कई लोग थे जिन्होंने अपने को एडोल्फ हिटलर घोषित कर दिया। क्या मुश्किल थी उन बेचारों की? उनकी मुश्किल यह थी कि हो तो न सके वे एडोल्फ हिटलर, तब एक ही उपाय रहा अपनी हीनता से मुक्त होने का कि उन्होंने मान ही लिया कि वे एडोल्फ हिटलर हैं। और तुम उनको समझा भी नहीं सकते किसी तरह कि वे नहीं हैं। पागल के भीतर प्रवेश करना मुश्किल है। वह सब तरफ से दुर्ग खड़ा कर लेता है।
खलिल जिब्रान ने लिखा है कि उसका एक मित्र पागल हो गया तो वह उसे मिलने गया। वह पागलखाने की दीवार के भीतर बगीचे की एक बेंच पर बैठा हुआ था, बड़ा प्रसन्न था। जिब्रान ने सोचा था उदास पाऊंगा उसे; प्रसन्न पाकर जिब्रान थोड़ा उदास हुआ। वह इतना प्रसन्न था कि जैसे उसे पता ही न हो कि वह पागलखाने में है। और जिब्रान तो सांत्वना, धीरज धराने आया था। उसकी कोई जगह न रही। वह बड़ा ही प्रसन्न था। इतना प्रसन्न वह कभी बाहर नहीं था। जिब्रान उसके पास बैठ गया। उसकी प्रसन्नता देख कर जिब्रान ने कहा कि तुम्हें पता है कि तुम कहां हो?
उस आदमी ने कहा, मुझे और पता न होगा? मैं उस पागलखाने को, जिससे तुम आ रहे हो, दीवार के उस तरफ छोड़ आया। यहां बड़ी शांति है। थोड़े से लोग हैं, और सभी समझदार। अब भूल कर मैं तुम्हारे पागलखाने में वापस नहीं आना चाहता।
जिब्रान गया था सांत्वना बंधाने, कोई उपाय न था। पागलपन के घेरे के भीतर तुम प्रवेश नहीं कर सकते। तुम सोचते हो कि वे पागल हैं और पागल सोचते हैं कि तुम सब पागल हो।
हर आदमी अपने आस-पास एक घेरा बना लेता है; उस घेरे के भीतर जीता है। तुम अपने को जो समझते हो, दुनिया में कोई तुमको वैसा नहीं समझता। इस पर तुमने कभी खयाल किया? तुम अपने को सुंदर समझते हो; कोई उतना सुंदर तुम्हें नहीं समझता। तुम अपने को बुद्धिमान समझते हो; उतना बुद्धिमान तुम्हें कोई नहीं समझता। न तुम्हारी पत्नी समझती है, न तुम्हारा बेटा समझता है। तुम अपने भीतर अपने को न मालूम क्या समझते रहते हो। वह पागलपन है। वही थोड़ा और बढ़ जाए...।
पंडित नेहरू एक पागलखाने में गए बरेली। और एक पागल उस दिन मुक्त हो रहा था, तो उनके हाथ से मुक्त करवाया गया। ऐसे ही पूछ लिया उत्सुकतावश कि इस आदमी का पागलपन क्या था?
तो उस आदमी ने कहा कि मेरा पागलपन? मैं जब तीन साल पहले आया तो अपने को पंडित जवाहरलाल नेहरू समझता था। मगर इन लोगों की कृपा कि बिलकुल ठीक कर दिया, रास्ते पर लगा दिया। अब वह झंझट न रही। उस पागल ने पूछा, और आप कौन हैं? मैंने तो पूछा ही नहीं। तो नेहरू ने कहा कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू हूं। वह पागल खिलखिला कर हंसा। उसने कहा, घबराओ मत, तीन साल लगेंगे, अगर इन्हें एक मौका दो। मुझको भी ठीक कर दिया, ये तुम्हें भी ठीक कर देंगे।
पागल की अपनी दुनिया है। और तुम ध्यान रखना, जब तक तुम्हारी कोई निजी दुनिया है तब तक तुम थोड़े न बहुत पागल हो। क्योंकि ज्ञानी की कोई निजी दुनिया नहीं रह जाती। ज्ञानी के भीतर अपने प्रति कोई भाव ही नहीं रह जाता। न वह दूसरे के संबंध में कोई भाव रखता है, न अपने प्रति कोई भाव रखता है। वह खाली हो जाता है। और खाली हो जाना विमुक्ति है। जब तक तुम सोचते हो, मैं ऐसा हूं, मैं वैसा हूं, तब तक तुम समझना कि जो तुम हो उसको दबाने का तुम उपाय कर रहे हो। मूढ़ आदमी अपने को बुद्धिमान समझता है; कुरूप अपने को सुंदर समझता है। यही उपाय है कुरूपता से बचने का और ढांकने का। दीन-हीन अपने को बड़ा शक्तिशाली समझता है। असहाय अपने को बड़ा अहंकारी समझता है। तुम जो भी अपने को समझते हो, खयाल करना, वह तुम्हारी दशा से बिलकुल विपरीत होगा। और तुम जो भी समझते हो, वह सभी गलत है।
अंतिम खड़े हो जाने का अर्थ है, तुम अपनी सब दौड़ छोड़ देते हो--बाहर की, भीतर की। न तुम बाहर से किसी की प्रतिस्पर्धा में हो, न भीतर से। तभी तो तुम्हारी विक्षिप्तता शांत होती है, और धीरे-धीरे तुम्हें वह दिखाई पड़ता है जो तुम हो। उसको ही आत्मज्ञान कहा है। आत्मज्ञान तुम्हें राम-राम जपने से न मिलेगा, न राम चदरिया ओढ़ लेने से मिलेगा, न माला फेरने से मिलेगा। आत्मज्ञान तो तुम्हें मिलेगा, अगर तुम अंतिम खड़े होने की सामर्थ्य जुटा लो। और कोई उपाय नहीं है। और सब उपाय धोखे हैं, तरकीबें हैं। और सब उपाय ऐसे ही हैं जैसे बीमारी तो कैंसर की है और तुम मलहम-पट्टी कर रहे हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। बीमारी बहुत गहरी है; तुम चमड़ी पर मालिश में लगे हो। इस तरह हो सकता है तुम अपने को समझा लो, भुला लो, वंचना दे लो; लेकिन तुम रूपांतरित न हो पाओगे।
अंतिम खड़े हो जाने का अर्थ है: तुम जैसे हो, वैसे ही अपने को जान लेना। और जब कोई प्रतिस्पर्धा न रही तो डर क्या है? तुम अपने को खोल कर देख लोगे। अगर दीन हो तो दीन हो; अगर मूढ़ हो तो मूढ़ हो; अज्ञानी हो तो अज्ञानी हो। दावा किसके सामने करना है ज्ञान का? जब प्रतिस्पर्धा न रही तो किसको धोखा देना है?
और ध्यान रखना, जब तुम दूसरों को धोखा देना बंद कर देते हो, तभी तुम अपने को धोखा देना बंद करते हो। क्योंकि वे दोनों चीजें संयुक्त हैं। दूसरे को धोखा देने का बहुत गहरा अर्थ अपने को ही धोखा देना है। दूसरे को जब तुम धोखा देने में सफल हो जाते हो तब तुम्हें खुद भी धोखा आ जाता है कि ठीक है, जब इतने लोग मुझे बुद्धिमान समझते हैं तो जरूर मैं बुद्धिमान होना चाहिए। ऐसा कैसे हो सकता है! इतने लोग थोड़े ही धोखा खा जाएंगे? मेरे कहने से कोई इतने लोग थोड़े ही मान लेंगे? बात कुछ होनी ही चाहिए मुझमें। तुम धोखा दूसरे को देने जाते हो; अपने को दे लेते हो। इस धोखे में अगर रहोगे, तो तुमने जीवन बहुत गंवाए, यह जीवन भी गंवा दोगे। जागने का समय आ गया। ऐसे भी काफी सो लिए हो।
और अगर जागना हो, पंक्ति में पीछे खड़े हो जाओ, पंक्ति को छोड़ दो। खोने को कुछ भी नहीं है पंक्ति को छोड़ने में, सिवाय तुम्हारी आत्म-वंचनाओं के। पाने को कुछ भी नहीं है पंक्ति के भीतर खड़े होकर, किसी ने कभी कुछ नहीं पाया। सिकंदरों ने नहीं पाया, तुम क्या पाओगे!
मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक चोर घुस गया। मुल्ला ने देखा कि चोर घुस गया है तो वह एक बड़ी अलमारी में छिप कर खड़ा हो गया। पीठ कर ली दरवाजे की तरफ और अलमारी में छिप कर खड़ा हो गया। जब चोर वहां आया तो वह बहुत हैरान हुआ। उसने दीया जब जला कर देखा कि मुल्ला छिपा खड़ा है, उसने कहा, अरे नसरुद्दीन, हम तो सोचते थे तुम बड़े बहादुर आदमी हो! और तुम इस तरह डर कर क्यों खड़े हो?
नसरुद्दीन ने कहा कि भाई, बहादुर तो हम हैं ही। और यह तुमसे किसने कहा कि हम डर कर खड़े हैं? हम तो शरम के मारे खड़े हैं। बीस साल से इस मकान में हम रह रहे हैं। खोज-खोज कर मर गए, कुछ न पाया। अब तुम खोजने आए हो। शरम के मारे खड़े हैं कि तुम खाली हाथ लौटोगे। आए इतनी दूर से, इतनी मेहनत की, और कुछ न पाया। तो अपनी दीनता की शरम--कि घर में कुछ है नहीं। और अगर तुम राजी होओ तो मैं भी तुम्हें साथ दूं खोजने में। बीस साल कोशिश करके यहां हमने कुछ खोज नहीं पाया।
तुम अगर सिकंदरों से पूछो तो वे भी आखिर में अलमारियों में छिप कर खड़े हो जाते हैं। कुछ नहीं पाया; शरम के मारे खड़े हो जाते हैं। सिकंदर ने मरते वक्त कहा कि मेरे हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, क्योंकि मैं चाहता हूं लोग ठीक से देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। और अकेली अरथी है दुनिया में जो हाथ लटकी हुई निकली। क्योंकि सिकंदर की आज्ञा थी, इसलिए मानी गई। उसके दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके थे। लाखों लोग उसकी अरथी को देखने इकट्ठे हुए थे। पूछने लगे कि यह क्या मामला है? इस तरह की अरथी कभी देखी नहीं! सांझ होते-होते राजधानी के लोगों को पता चला कि सिकंदर की मर्जी थी कि उसके हाथ बाहर लटके रहें, ताकि लोग ठीक से पहचान लें कि मैं भी कुछ पाकर नहीं जा रहा हूं; खाली हाथ जा रहा हूं।
जहां से सिकंदर खाली हाथ लौट जाते हैं वहां तुम पंक्ति में खड़े होकर करोगे भी क्या? प्रथम पहुंचे हुए लोग भी खाली हाथ जाते हैं। खोने को कुछ भी नहीं है पंक्ति अगर छोड़ दो; पाने को बहुत कुछ है।
लेकिन पंक्ति छोड़ने में डर लगता है। क्योंकि पंक्ति में जो खड़े हैं वे कहते हैं, अरे, भगोड़े हो गए? संन्यास ले लिया? पलायनवादी! एस्केपिस्ट!
पंक्ति में जो खड़े हैं स्वभावतः ऐसा कहेंगे; क्योंकि तभी वे पंक्ति में खड़े रह सकते हैं। अन्यथा तुम्हारा पंक्ति को छोड़ कर जाना उनको दीनता और शरम से भर देगा। जब वे तुमसे कहते हैं एस्केपिस्ट, पलायनवादी, भगोड़े, तो वे यह कह रहे हैं कि हम भगोड़े नहीं हैं, हम डट कर खड़े रहेंगे। वे अपनी आत्म-रक्षा कर रहे हैं। बहुत से लोग इसीलिए पंक्ति में खड़े हैं डर के मारे कि अगर निकलेंगे तो लोग कहेंगे, भाग गए! मैदान छोड़ दिया! पीठ दिखा दी! हमने न सोचा था कि तुम इतने कमजोर साबित होओगे!
बुद्ध से भी यही कहा गया। खुद बुद्ध के सारथी ने बुद्ध से यह कहा, जो छोड़ने गया था उन्हें जंगल में। उसे पता न था। बुद्ध ने कहा, चलो जंगल, तो वह चल पड़ा। जब बुद्ध रुके एक नदी के किनारे, उन्होंने कहा, अब तुम वापस लौट जाओ। और अपने हाथ के आभूषण और गले के आभूषण सब उतार कर दे दिए। तो सारथी ने कहा, यह पलायन है। सारथी! उसने भी बुद्ध को शिक्षा दी। क्योंकि वह भी पंक्ति में खड़ा है। माना कि बहुत दूर पीछे खड़ा है, लेकिन बिलकुल पीछे तो नहीं खड़ा है, उससे भी पीछे लोग हैं। और बुद्ध तो प्रथम खड़े थे। उसने कहा, यह पलायन है, यह भागना है। योग्य नहीं है मेरे कि मैं आपको शिक्षा दूं, लेकिन आप भगोड़ापन कर रहे हैं। हिम्मतवर लड़ते हैं; पीठ नहीं दिखा देते।
बुद्ध ने कहा कि मैं जहां से भाग रहा हूं वहां आग लगी है। और जब किसी के घर में आग लगती है और कोई आदमी बाहर भाग कर आता है, उसे तुम भगोड़ा कहते हो? उस वक्त क्या तुम यह कहोगे कि खड़े रहो भीतर! क्या पीठ दिखा रहे हो? जल जाओ, मगर बाहर मत निकलना। अगर कोई आदमी ऐसा डट कर भीतर खड़ा रहे, तुम उसको बहादुर कहोगे कि मूर्ख? उस सारथी ने कहा, मुझे कहीं आग नहीं दिखाई पड़ती। महल। वहां कैसी आग? सुंदर पत्नी। वहां कैसी आग?
बुद्ध ने कहा, जो तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, वह मुझे दिखाई पड़ रहा है; क्योंकि तुम्हारे पास देखने की आंखें नहीं हैं। वहां महल नहीं है, सिवाय लपटों के। और वहां कोई सुंदर पत्नी नहीं है, सिवाय लपटों के। मैं भाग नहीं रहा हूं।
यह बड़े मजे की बात है। जिंदगी इतनी जटिल है कि कभी-कभी भगोड़े ही साहसी होते हैं; और जो खड़े हैं, लड़ रहे हैं, वे कमजोर होते हैं इसलिए खड़े हैं। लेकिन खड़े होने वालों की बड़ी भीड़ है; भीड़ से कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब भी तुम छोड़ने को, पीछे जाने को हटोगे, भीड़ तुम्हें कहेगी: कहां जाते हो? छूट गई हिम्मत? साहस मिट गया? डटे रहो। टूट जाओ, झुको मत। यही बहादुरों का लक्षण है।
संन्यासी भगोड़ा लगता है। संन्यासी भगोड़ा है नहीं। वह वहां से हट रहा है, जहां आग लगी है।
अब हम लाओत्से के सूत्र को समझें।
"स्वर्ग का, ताओ का मार्ग, क्या वह धनुष के झुकाने जैसा नहीं है?'
लाओत्से कहता है कि स्वर्ग का मार्ग ऐसा है, जैसे कोई धनुर्धर प्रत्यंचा को खींचता है और धनुष को झुकाता है। तीर चलता तभी है जब धनुष झुकता है। और जब कोई प्रत्यंचा को खींचता है तो क्या घटना घटती है? जो सिरा ऊपर था वह झुक कर नीचे आ जाता है; जो सिरा नीचे था वह उठ कर ऊपर जाता है। और जितना ही बड़ा धनुर्धर होगा उतनी ही बड़ी यह घटना घटेगी। ऊपर का सिरा नीचे आएगा; नीचे का सिरा ऊपर जाएगा।
कहता है लाओत्से, "स्वर्ग का ताओ-मार्ग, क्या वह मनुष्य के द्वारा धनुष के झुकाने जैसा नहीं है? शिखर नीचे चला जाता है, अधोभाग ऊपर उठ जाता है।'
और एक संतुलन निर्मित हो जाता है। जो आगे था वह पीछे खींच लिया जाता है; जो पीछे था वह आगे बढ़ा दिया जाता है। और जीवन एक संतुलन में आ जाता है। जीवन की अति खो जाती है।
संतुलन सार है लाओत्से के वचनों का। प्रथम होना भी सार्थक नहीं है, अंतिम होना भी सार्थक नहीं है। यहां जीसस और लाओत्से में तुम्हें फर्क साफ दिखाई पड़ेगा। जीसस कहते हैं, जो प्रथम खड़ा है वह अंतिम हो जाए, क्योंकि वही मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होने का उपाय है। लाओत्से यह नहीं कहता। लाओत्से कहता है कि प्रथम और अंतिम तो एक ही द्वंद्व के दो भाग हैं। इसलिए लाओत्से जीसस से गहरा जाता है। या तो तुम प्रथम खड़े होते हो, या जब तुम सब छोड़ देते हो, तुम अंतिम खड? हो जाते हो। लाओत्से कहता है कि जीवन का मार्ग तो संतुलन है।
तो वह यह नहीं कहता कि जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जाएंगे और जो प्रथम हैं वे अंतिम हो जाएंगे। लाओत्से कहता है, जो अंतिम हैं वे थोड़े ऊपर आ जाएंगे; जो प्रथम हैं वे थोड़े नीचे आ जाएंगे; और एक जगह दोनों एक समान लयबद्धता में लीन हो जाएंगे; एक संतुलन निर्मित हो जाएगा।
"शिखर नीचे चला जाता है, अधोभाग ऊपर उठ जाता है। अतिरिक्त लंबाई छोटी हो जाती है...।'
धनुष लंबा था; चौड़ाई छोटी थी, लंबाई ज्यादा थी; वह असंतुलन था। जब प्रत्यंचा खींची जाती है तो लंबाई छोटी हो जाती है।
"अतिरिक्त लंबाई छोटी हो जाती है, अपर्याप्त चौड़ाई बड़ी हो जाती है।'
खिंची हुई प्रत्यंचा में धनुष की चौड़ाई और लंबाई बराबर हो जाती है।
"स्वर्ग का ढंग है, वह उससे छीन लेता है जिसके पास अतिशय है, और उन्हें दिए देता है जिनको पर्याप्त नहीं है।'
क्योंकि स्वर्ग निरंतर संतुलन बना रहा है। तो जो पीछे खड़े हैं उनको आगे ले आता है; जो आगे खड़े हैं उनको पीछे ले आता है। जिनके पास बहुत है उनसे छीन लेता है; और जिनके पास बहुत नहीं है उन्हें दे देता है। पहाड़ों को गिराता है, घाटियों को भरता है। अहंकारियों को काटता है; विनीत को, विनम्र को देता है। अकड़े हुओं से छीन लेता है; और जिनकी नमने की क्षमता है उनको बांट देता है। जहां कमी है वहां भरता है; जहां ज्यादा है वहां से हटाता है। सारी प्रकृति सदा एक गहरे संतुलन की चेष्टा में संलग्न है।
"स्वर्ग का ढंग है, उनसे छीन लेता है जिनके पास अतिशय है, और उन्हें दिए देता है जिनको पर्याप्त नहीं है।'
इसलिए अगर तुम्हें प्रथम होना हो तो अंतिम खड़े हो जाना। क्योंकि स्वर्ग का नियम तुम्हें खींच कर आगे ले आएगा। और अगर तुम्हें अंतिम ही होना हो तो तुम प्रथम की कोशिश करना। आखिर में तुम पाओगे तुम खींच कर पीछे ले आए गए। लाओत्से की विचार-पद्धति जीसस से गहरी जाती है। लेकिन विधि तो वही रहेगी जो जीसस की है। तुम यह मत सोचना कि हम बीच में खड़े हो जाएं। बीच में तो तुम पता भी न लगा पाओगे कहां बीच है, कहां मध्य है। और मध्य में होने का तो अर्थ यह हुआ कि संघर्ष जारी रहेगा। क्योंकि कुछ तुम्हारे पीछे होंगे, कुछ तुम्हारे आगे होंगे। जो पीछे हैं वे आगे जाना चाहेंगे। तुम्हें अपने मध्य को भी बचाना पड़ेगा। जो आगे हैं वे तुम्हें आगे न बढ़ने देंगे। जो पीछे हैं वे तुम्हें पीछे खींचेंगे। मध्य में भी संघर्ष जारी रहेगा। इसलिए उपाय तो वही है जो जीसस कह रहे हैं। लेकिन लाओत्से की समझ और ऊंचाई पर ले जाती है।
लाओत्से यह नहीं कहता कि तुम अंतिम खड़े होओगे तो तुम प्रथम हो जाओगे। और यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। क्योंकि आदमी का अहंकार ऐसा है कि वह इसीलिए अंतिम खड़ा हो सकता है ताकि प्रथम हो जाए। तब भीतर-भीतर तो वह प्रथम होना चाहता है। गहरे में तो वह प्रथम होना चाहता है। अब मानते नहीं हैं जीसस और कहते हैं कि यही रास्ता है प्रथम होने का कि अंतिम खड़े हो जाओ, इसलिए अंतिम खड़ा हो जाता है। लेकिन अंतिम वह होना नहीं चाहता, होना तो प्रथम चाहता है।
तो आदमी इतना बेईमान है और इतना चालाक है, इतना चालाक है कि अपने साथ भी चालाकी कर लेता है; अपनी ही एक जेब में से चुरा कर दूसरी जेब में रख लेता है। तो जीसस की बात से खतरा है। वह खतरा यह है कि तुम विनम्र हो सकते हो सिर्फ इसीलिए ताकि परमात्मा के राज्य में तुम्हारे अहंकार की पूर्ति हो।
जीसस के मरने के दिन, एक ही रात पहले, जीसस के शिष्य जीसस से पूछते हैं कि स्वर्ग के राज्य में यह तो निश्चित है कि आप परमात्मा के पास बैठे होंगे, हम बारह शिष्यों की क्या दशा होगी? हम कहां-कहां खड़े होंगे, कहां बैठेंगे? परमात्मा के दरबार में हमारी जगह का क्या हिसाब है? हममें से, बारह में से कौन आपके पास होगा और कौन दूर होगा?
ये शिष्य जीसस को समझे ही नहीं। ये जीसस के साथ भी इसीलिए हैं कि वहां प्रथम होने का मौका सुविधा से मिल जाएगा। अपना ही आदमी परमात्मा का बेटा है। तो यह तो भाई-भतीजावाद हुआ वहां भी कि तुम जब प्रथम खड़े होओगे, परमात्मा के पास, तो हमारी क्या स्थिति होगी? जाने के पहले कम से कम यह तो बता जाओ। यह कोई धार्मिक व्यक्तियों का लक्षण न हुआ। इसलिए जीसस के वचन और जीसस की जीवन-चेतना बिलकुल ही ईसाइयत ने मार डाली, क्योंकि इन बारह आदमियों ने ईसाइयत को खड़ा किया, जिनको कोई समझ नहीं है, जो जीसस को बिलकुल चूक ही गए। वहां भी प्रतिस्पर्धा जारी है। परमात्मा के राज्य में भी प्रथम होने का मोह जारी है। और जब तक तुम प्रथम होना चाहते हो, तुम ध्यान रखो, तुम हीन ही रहोगे।
जब हम कहते हैं कि अंतिम खड़े हो जाओ तो तुम प्रथम हो जाओगे, इसका यह अर्थ नहीं है कि हम तुम्हें प्रथम होने की तरकीब बता रहे हैं। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो भी अंतिम हो जाता है वह प्रथम हो जाता है। वह उसका परिणाम है, वह सहज घटता है। लेकिन अंतिम होने का अर्थ है प्रथम होने की सारी आकांक्षा को छोड़ देना। तभी वह महान घटना घटती है। इसलिए लाओत्से, जो अंतिम खड़े हैं उनको यह नहीं कहता कि तुम प्रथम हो जाओगे। न, वह बात ही काट देता है। क्योंकि उससे तुम्हारे धोखा देने की संभावना है।
लाओत्से कहता है, स्वर्ग का ढंग है, उनसे छीन लेता है जिनके पास अतिशय है, उन्हें दे देता है जिनके पास पर्याप्त नहीं है। तो परमात्मा के राज्य में अंतिम प्रथम नहीं हो जाएंगे और प्रथम अंतिम नहीं हो जाएंगे। न तो परमात्मा के राज्य में कोई प्रथम रह जाएगा और न कोई अंतिम रह जाएगा। परमात्मा के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं होगा। प्रथम और अंतिम तो दूसरे के साथ तुलना है। परमात्मा के राज्य में प्रथम व्यक्ति का अर्थ हुआ दूसरे पीछे खड़े हैं; वह तो फिर भी नजर दूसरे पर रही। परमात्मा के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं होगा। तुलना टूट जाएगी, कंपेरिजन खो जाएगा। परमात्मा के राज्य में तुम तुम होओगे, मैं मैं होऊंगा। न तुम मुझसे आगे होओगे, न मैं तुमसे पीछे। न मैं तुमसे आगे, न तुम मुझसे पीछे। प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूरी खिलावट में खिल जाएगा। कमल गुलाब से पीछे है या आगे? कमल कमल है, गुलाब गुलाब है। कौन पीछे है? कौन आगे है? परमात्मा के राज्य में सभी खिल जाएंगे। कोई आगे-पीछे नहीं होगा। आगे-पीछे की धारणा ही सांसारिक धारणा है। वह अहंकार की ही तुलना है।
लाओत्से कहता है, सब सम हो जाएगा, एक संगीत पैदा होगा। सबके पास बराबर होगा। सभी अद्वितीय होंगे अपनी निजता में, लेकिन सभी के पास बराबर होगा।
"मनुष्य का ढंग यह नहीं है।'
मनुष्य का ढंग परमात्मा के ढंग से बिलकुल उलटा है।
"वह उनसे छीन लेता है जिनके पास नहीं है।'
तुम गरीबों से तो छीनते हो और अमीरों को भेंट दे आते हो। दीन-दरिद्र से तो छीन लेते हो और सम्राट के चरणों में चढ़ा आते हो। जिसे कोई जरूरत न थी उसे तो तुम भेंट देते हो, और जिसे जरूरत थी उसे तुम इनकार कर देते हो, उससे उलटा छीन लेते हो। तुम भिखारी के खीसे से निकालते हो और सम्राटों के खीसों में डालते हो। तुम उसे भोजन का निमंत्रण दे आते हो जिसका पेट भरा ही हुआ है, जो तुम्हारी थाली पर बैठ कर थोड़ा स्वाद लेगा इधर-उधर, और सब पड़ा छोड़ जाएगा। और जो तुम्हारे द्वार पर भीख मांगने खड़ा होता है, उससे तुम कहते हो, आगे जाओ, यहां खड़े मत हो। जो भूखा तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है वह तो आगे हटा दिया जाता है। और भरे पेट लोग, तुमने जो भी बनाया है उनके स्वागत-समारोह में, उसे वैसा ही पड़ा छोड़ जाएंगे।
असल में, तभी तुम प्रसन्न होते हो जब कोई सब पड़ा छोड़ जाए। उसका अर्थ हुआ कि कोई बड़ा मेहमान तुम्हारे घर आया था। अगर सब जो तुमने परोसा था वह सब खा जाए, तो तुम समझोगे कहां के दीन-दरिद्र को घर बुला बैठे! तो शिष्टाचार भी यह कहता है कि किसी के घर अगर बुलाए जाओ तो भूख भी लगी हो तो भी खाना मत। क्योंकि भूख के कारण तुम नहीं बुलाए गए हो। और भूख के कारण तो तुम अगर खड़े होते द्वार पर तो हटा दिए गए होते। तुम भरे पेट के कारण बुलाए गए हो। तुम बुलाए ही इसलिए गए हो कि तुम्हारे पास बहुत है; वे तुम्हें और देना चाहते हैं। इसलिए तुम भूल कर भी यह प्रकट मत करना कि तुम्हें भूख लगी है। तुम थाली पर ऐसे बैठना जैसे उपेक्षा से; ऐसा जरा सा दाना यहां से ले लेना, जरा सा सूप यहां से चख लेना, एकाध रोटी का टुकड़ा तोड़ लेना, और सब ऐसे ही कचरे में डला रह जाने देना। तभी घर के लोग प्रसन्न होंगे कि कोई बड़ा आदमी घर आया था। अगर तुमने सभी भोजन कर लिया तो वे भी दुखी होंगे, कहां के भिखारी को बुला बैठे! गलती हो गई। दोबारा तुम्हें निमंत्रण न मिलेगा। आदमी के ढंग बड़े अजीब हैं।
ऐसा हुआ, कि उर्दू में बहुत बड़ा महाकवि हुआ गालिब। दिल्ली के सम्राट ने गालिब को किसी उत्सव में निमंत्रण दिया। बड़ा निमंत्रण था, बड़ा भोज था। लेकिन सम्राट को गालिब के वचनों में लगाव था, उसके गीतों में रस था। गालिब के मित्रों ने कहा कि जा रहे हो तो थोड़ा सोच-समझ कर जाओ। ये कपड़े तुम्हारे ठीक नहीं हैं, ये सम्राट के दरबार के योग्य नहीं हैं। ये फटे-पुराने कपड़े पहन कर जाओगे, कोई पहचानेगा भी नहीं। और डर यह है कि पहरेदार शायद तुम्हें भीतर न घुसने दें। पर उसने कहा कि निमंत्रण मुझे मिला है! यह निमंत्रण-पत्र मेरे पास है, यह तो मैं दिखा सकता हूं। उन्होंने कहा, तुम इस भूल में मत पड़ो, ढंग से जाओ। कोई निमंत्रण-पत्र नहीं पूछेगा। इस हालत में तो पूछेगा और भरोसा भी नहीं करेगा कि तुम्हें मिल कैसे गया! पर गालिब को बात जंची नहीं। गालिब ने कहा, मुझे बुलाया है, वस्त्रों को तो नहीं।
तो वैसे ही गया। द्वारपाल ने भीतर घुसने ही न दिया। धक्का-मुक्की की हालत आ गई। उसने निकाल कर अपना निमंत्रण-पत्र दिखाया। उसने कहा, फेंक निमंत्रण-पत्र! किसी का चुरा लिया होगा। तू भाग जा यहां से, नहीं तो हम पकड़वा देंगे।
गालिब उदास घर लौटा। मित्र तो जानते ही थे। तो उन्होंने इंतजाम कर रखा था। कपड़े उधार ले आए थे; शेरवानी, पगड़ी, सब तैयार कर रखी थी, जूते। घर लौट कर आया तो उन्होंने कहा, समझ गए? फिर गालिब कुछ बोला नहीं, उसने पहन लिए उधार कपड़े, वापस गया। वही पहरेदार झुक कर सलाम किए। आदमियों की थोड़े ही कोई पूछ है, कपड़े की पूछ है। यह भी न पूछा--गालिब बेचारा खीसे में हाथ डाले था कि जल्दी से निकाल कर कार्ड बता देगा--लेकिन किसी ने कार्ड पूछा ही नहीं। बात ही बदल गई।
वह भीतर गया। सम्राट ने अपने पास बिठाया। जब वह भोजन करने लगा तो सम्राट थोड़ा हैरान हुआ कि यह क्या कर रहा है! उसने मिठाइयां उठाईं, अपने कोट को छुआईं और कहा, ले कोट, खा ले! पगड़ी को छुआया और कहा, ले पगड़ी, खा ले! सम्राट ने कहा कि माफ करें। कवियों से विचित्र व्यवहार की अपेक्षा होती है, लेकिन इतना विचित्र व्यवहार! यह तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा, मैं तो आया था, लेकिन लौटा दिया गया। अब तो कपड़े आए हैं। मैं आया था, लेकिन लौटा दिया गया। अब तो जिनके सहारे मैं आया हूं पहले उनको भोजन देना जरूरी है। अब तो मैं नंबर दो हूं।
आदमी का व्यवहार स्वर्ग के व्यवहार से भिन्न है। यहां जिनके पास है उनको दिया जाता है, जिनके पास नहीं है उनसे छीन लिया जाता है। स्वर्ग का व्यवहार स्वभावतः इससे उलटा है। जिनके पास नहीं है उन्हें दिया जाता है, जिनके पास है उनसे छीन लिया जाता है। क्योंकि स्वर्ग एक संतुलन है। स्वर्ग न तो गरीब का है न अमीर का। क्योंकि गरीबी एक बीमारी है और अमीरी भी एक बीमारी है। क्योंकि दोनों अतिशय हैं। अमीर के पास अमीरी ज्यादा है, गरीब के पास गरीबी ज्यादा है। गरीब से थोड़ी गरीबी छीन कर अमीर को देना जरूरी है। अमीर से थोड़ी अमीरी छीन कर गरीब को देना जरूरी है। मध्य हमेशा संतुलित है और स्वस्थ है।
"मनुष्य का ढंग यह नहीं है। वह उनसे छीन लेता है जिनके पास नहीं है, और उन्हें दे देता है--कर के रूप में, भेंट के रूप में--जिनके पास अतिशय है।'
"कौन है जिसके पास सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है?'
मनुष्य तो देता है उसको जिसके पास है। और स्वर्ग का राज्य देता है उसे जिसके पास नहीं है। लाओत्से संत को स्वर्ग से भी ऊपर उठा देता है। लाओत्से कहता है, कौन है जिसके पास सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है? जो किसी से छीन कर किसी को नहीं देता? स्वर्ग का राज्य भी किसी से छीन कर किसी को देता है। लेकिन कौन है जिसके पास सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है?
"केवल ताओ का व्यक्ति।'
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि संत स्वर्ग से ऊपर है। संत में स्वर्ग है, स्वर्ग में संत नहीं। संत का घेरा बड़ा है।
ऐसी यहूदी कथा है कि एक यहूदी फकीर झुसिया ने रात सपना देखा कि वह स्वर्ग पहुंच गया है। वह बड़ा हैरान हुआ; उसने कभी सोचा भी न था। स्वर्ग में महान-महान संत हैं सदियों पुराने। पूरे अनंत काल से चले आ रहे। वे सब, कोई झाड़ के नीचे बैठा प्रार्थना कर रहा है, कोई सड़क के किनारे बैठे घुटने टेक कर हाथ जोड़े है। वह बिलकुल हैरान हुआ। उसने कहा कि हमने तो सोचा था कम से कम स्वर्ग में जाकर तो यह छुटकारा मिलेगा प्रार्थना से। प्रार्थना तो स्वर्ग आने के लिए ही करते थे; अब ये लोग किसलिए प्रार्थना कर रहे हैं? और सारा स्वर्ग प्रार्थना और पूजा से गूंज रहा है। बात तो ठीक है; क्योंकि यह अगर यहां भी जारी है तो छुटकारा फिर कहां होगा? तो उसने पूछा किसी देवदूत को कि यह क्या हो रहा है? यह स्वर्ग है कि नरक? क्योंकि हमने तो सोचा था आदमी जब दुखी होता है तो प्रार्थना करता है, पूजा करता है। यहां तो सुख ही सुख है। तो ये सब लोग पूजा क्यों कर रहे हैं?
उस देवदूत ने कहा, संत की प्रार्थना में स्वर्ग है। स्वर्ग यहां है नहीं। इन सब की प्रार्थनाओं के कारण स्वर्ग है; संत के हृदय में स्वर्ग है। उस देवदूत ने कहा कि तुम यह भ्रांति छोड़ दो कि संत स्वर्ग में जाता है; संत जहां जाता है वहां स्वर्ग जाता है।
स्वर्ग कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है कि उठे और टिकट खरीदी, पहुंच गए। तुम्हारे धर्मगुरुओं ने ऐसी ही हालत बना दी है कि स्वर्ग जैसे कोई भौगोलिक स्थिति है। इधर दो दान, उधर नाम लिख दिया, कि इनका पक्का हो गया, रिजर्वेशन हो गया। अब तुम्हें कोई भी रोकेगा नहीं। कोई दरवाजा थोड़े ही है वहां। न कोई द्वारपाल हैं। सब दरवाजे, सब द्वारपाल कथाएं हैं। स्वर्ग तो भाव-दशा है। प्रार्थना के क्षण में स्वर्ग में तुम होते हो। या ज्यादा अच्छा होगा: स्वर्ग तुम में होता है।
संत स्वर्ग से ऊपर है। स्वर्ग तो केवल संतुलन कर पाता है। संतुलन ठीक है, लेकिन काफी नहीं। संतुलन बिलकुल ठीक है। संतुलन ऐसा है, जैसे कोई आदमी जो बीमार नहीं है, बिलकुल ठीक है, स्वस्थ है। अगर डाक्टर के पास ले जाओ तो कोई बीमारी पकड़ में नहीं आती, और डाक्टर कह देता है कि बिलकुल ठीक है। लेकिन तुम्हें पता है कि डाक्टर के बिलकुल ठीक कह देने से काफी नहीं है, पर्याप्त नहीं है। जितना होना चाहिए उतना नहीं है। स्वास्थ्य तो एक अहोभाव है, एक पुलक है। स्वास्थ्य केवल बीमारी का अभाव नहीं है। स्वास्थ्य का अपना एक भाव है, एक अपनी पाजिटिविटी है, अपनी विधायकता है। कभी-कभी तुम पाते हो कि एक वेल-बीइंग, एक प्रसन्नता रोएं-रोएं में भरी है। किसी सुबह, अचानक, अकारण कभी तुम पाते हो, सब पुलकित है, सब आह्लादित है।
इस आह्लाद को डाक्टर पकड़ न पाएगा। अगर तुम उसके पास जाओगे कि बताओ मैं आह्लादित क्यों हूं? या कहां कारण है? वह न पकड़ पाएगा। डाक्टर तो केवल बीमारी पकड़ सकता है; ज्यादा से ज्यादा बीमारी का अभाव बता सकता है कि कोई बीमारी नहीं, तुम ठीक हो। मेडिकली फिट का अर्थ नहीं होता कि तुम परम स्वस्थ हो। मेडिकली फिट का इतना ही अर्थ होता है कि कोई बीमारी नहीं है; संतुलित हो। स्वास्थ्य तो एक बाढ़ है, ऐसा पूर कि किनारे तोड़ कर बह जाता है।
प्रकृति तो संतुलन से जीती है; संत समाधि से जीता है। इसलिए लाओत्से कहता है कि कौन है जिसके पास पर्याप्त है? इतना पर्याप्त है कि सारे संसार को दे दे?
"केवल ताओ का व्यक्ति।'
संत किसी से छीनता नहीं। क्योंकि उसकी संपदा छीनने वाली संपदा नहीं है। उसके पास अपनी संपदा है जो वह देता है। जो भी लेने को राजी हो उसे दे देता है। और उसके पास इतना भरपूर है! एक अलग सूत्र काम करता है संत के लिए। जैसे मनुष्य का सूत्र है: उससे छीन लो जिसके पास नहीं है, उसको दे दो जिसके पास है। स्वर्ग का या प्रकृति का सूत्र है: जिसके पास है उससे ले लो और उसे दे दो जिसके पास नहीं है, ताकि संतुलन हो जाए। संत का तीसरा सूत्र है। उसका सूत्र यह है कि जो भी तुम्हारे पास है तुम बांटते जाओ। जितना तुम बांटते हो उतना वह बढ़ता है। तुम दो। किसी से छीन कर किसी को देना नहीं है। संत के पास खुद है। उसे अपने हृदय को उलीचना है।
कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए, यही संतन का काम।
उलीचते जाओ! और जैसे कोई कुएं को उलीचता है, और नये जल-स्रोत के झरने निकलते आते हैं, और कुआं फिर भर गया, फिर भर गया, फिर भर गया। ऐसा संत अपने को बांटता जाता है। और उसके पास इतना है कि वह सारे संसार के लिए देने के लिए पर्याप्त है। वह संपदा और! वह संपदा बांटने से बढ़ती है। इस संसार की संपदा बांटने से घटती है।
एक भिखारी एक द्वार पर खड़ा है। घर की गृहिणी ने उसे भोजन दिया, कपड़े दिए। उसे उस पर बड़ी दया आई। और दया का कारण यह था कि उसके चेहरे से बड़ा संपन्न होने का भाव था, जैसे कभी उसके पास संपत्ति रही हो, सुविधा रही हो। उसके चेहरे पर संस्कार था, एक कुलीनता थी। वह भिखारी मालूम नहीं पड़ता था। उसके कपड़े फटे-पुराने थे, लेकिन भीतर से एक सुसंस्कृत व्यक्ति की आभा थी। भोजन के बाद, कपड़े देने के बाद उस गृहिणी ने पूछा, तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? उस आदमी ने कहा, जल्दी ही तुम्हारी भी हो जाएगी। इसी तरह हुई! जो आया द्वार पर उसको ही दिया; मांगा भोजन तो कपड़े भी दिए। तुम्हारी भी हो जाएगी।
इस संसार की संपत्ति को बांटो तो घटती है। अगर ठीक से समझो तो उसको संपत्ति ही क्या कहना जो बांटने से घट जाए? वह विपत्ति है, संपत्ति है नहीं। जो बांटने से घट जाए वह संपत्ति ही नहीं है। क्योंकि संपत्ति का तो तभी पता चलता है जब तुम बांटो और बढ़े।
संत के पास एक संपत्ति है--उसके आनंद की, उसके ध्यान की, उसकी समाधि की--जो जितनी बांटी जाए उतनी बढ़ती है। उसे घटाने का कोई उपाय नहीं। उसके घटाने का एक ही उपाय है कि उसे मत बांटो। तो वह सड़ जाती है। इसीलिए तो बुद्ध चले जाते हैं जंगल, जब वे अज्ञानी हैं; महावीर चले जाते हैं पहाड़ों में, जब वे अज्ञानी हैं; जीसस एकांत में, मोहम्मद एकांत में। और जब संपदा बरसती है उन पर तो भागे हुए बाजार में आ जाते हैं। क्योंकि अब बांटना पड़ेगा। पाने के लिए अकेला होना जरूरी था। बांटने के लिए तो दूसरे चाहिए। इसलिए समस्त ज्ञानी पुरुष ज्ञान की खोज में एकांत में जाते हैं। लेकिन फिर क्या होता है? ज्ञान को पाते ही तत्क्षण भागते हैं समाज की तरफ। क्योंकि सड़ जाएगा स्रोत; जिस कुएं से कोई पानी न भरेगा, वह गंदा हो जाएगा। अब चाहिए कि कोई पानी भरे, अब लोग आएं और अपने प्यास के घड़े लटकाएं संत के हृदय में--भरें, उलीचें। संत द्वार-द्वार जाता है बांटने को, देने को। जो भी राजी हो उसे देने को वह तैयार है। और कभी-कभी तो ऐसी घड़ी आ जाती है कि तुम चाहे राजी न भी हो, वह देता है। क्योंकि सवाल तुम्हारे लेने का नहीं है, सवाल उसके देने का है। अन्यथा सड़ेगा
तिब्बत में एक बहुत बड़ा संत हुआ, मिलरेपा। उसने जिंदगी भर इनकार किया लोगों को समझाने से। शास्त्र न लिखा; न किसी को समझाए। और जब भी कोई उसका शिष्य बनने आए तो वह ऐसी कठिन शर्तें बताए कि कोई शिष्य न हो सके। उसकी शर्तों को पूरा करना मुश्किल।
फिर उसके मरने का दिन आया और उसने घोषणा कर दी कि तीसरे दिन मैं मर जाऊंगा। और जो आदमी पास था उससे कहा कि तू भाग कर बाजार में जा और जो भी राजी हो लेने को उसको बुला ला। पर उस आदमी ने कहा कि जीवन भर तो आप ऐसी शर्तें लगाते रहे कि हजारों लोग आए, लेकिन शर्तें ऐसी कठिन थीं कि कौन पूरा करे! कोई पूरा न कर सका तो आपने किसी को शिष्य की भांति स्वीकार न किया, न किसी को दीक्षा दी। अब आप क्या आखिरी वक्त में दिमाग आपका खराब हो गया है? आप कहते हैं किसी को भी! क्या मतलब? शर्तों का क्या होगा?
उसने कहा, तू शर्तों की फिक्र छोड़। वे शर्तें तो इसलिए थीं कि मेरे पास था ही नहीं। अब मेरे पास है। और अब इसकी फिक्र छोड़ कि कौन लेने को राजी है या कौन नहीं। जो तुझे मिल जाए! तू बाजार में डुंडी पीट दे कि मिलरेपा बांट रहा है; आ जाओ। और जिसको भी लेना हो आ जाए।
एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारे पास इतना होता है कि बांटे बिना न चलेगा, बोझ हो जाएगा। संत के पास इतना है कि सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है; क्योंकि वह घटता नहीं।
उसी संपदा को खोजो जो देने से कम न होती हो। तभी तुम सम्राट हो सकोगे, अन्यथा तुम भिखारी रहोगे। जो देने से कम होती हो वह संपदा तुम्हें भिखारी ही बनाए रखेगी। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, पर रहोगे भिखारी ही। बड़े से बड़ा अमीर भी भिखारी ही रहता है। क्योंकि उसकी संपदा देने से घट जाएगी। तो वह मांगता ही रहता है: लाओ! वह बुलाता ही रहता है कि आओ, और लाओ! उसके और की दौड़ कम नहीं होती। क्योंकि मांगने से बढ़ती है, छीनने से बढ़ती है संपदा; देने से घटती है। संत के पास एक संपदा है जो देने से बढ़ती है, बांटने से बढ़ती है।
"केवल ताओ का व्यक्ति। इसलिए संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं करते। संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते। उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।'
"संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं करते।'
वे देते हैं, लेकिन देकर इतना भी नहीं चाहते कि तुम उनके अनुगृहीत हो जाओ। क्योंकि वह तो अधिकृत करना होगा, वह तो तुम पर मालकियत करनी होगी। यह बड़ी अनूठी बात है। संत देते हैं और तुम्हीं को मालिक बनाते हैं। संत देते हैं और इतना भी नहीं चाहते कि तुम उनके अनुगृहीत हो जाओ। उतना भाव भी संतत्व में कमी होगी। तुम धन्यवाद दो, उसकी भी आकांक्षा हो तो अभी संत संसार का ही हिस्सा है। तब वह तुम्हारे धन्यवाद की संपत्ति जोड़ रहा है। संत का अर्थ ही यह है कि तुम उसे अब कुछ भी देने में समर्थ नहीं रहे; वह तुम्हारे देने की सीमा के बाहर हो गया। तुम अपना सब कुछ भी दे डालो तो भी संत तुम्हारे देने की सीमा के बाहर हो गया है। और संत तुम्हें जो भी दे रहा है, वह ऐसा है कि तुम उसे लेने में डरना मत।
तुम लेने में भी डरते हो। क्योंकि तुम्हें लगता है, जिससे भी लेंगे उसके अनुगृहीत हो जाते हैं, एक ऑब्लिगेशन हो जाता है। तुमने केवल संसार की चीजें ली हैं। तो किसी से अगर दो पैसे ले लिए तो उसका भार तुम्हारी छाती पर बैठ जाता है। वह आदमी रास्ते पर मिलता है तो इस भांति देखता है कि दो पैसे दिए हैं। इसलिए इस संसार में तुम्हें जो भी कुछ दे देता है वह तुम्हें अधिकृत कर लेता है, पजेस करता है। वह कहता है, मैंने तुम्हें प्रेम दिया। दूसरों की तो बात छोड़ दो, मां, जिसका प्रेम शुद्धतम कहा जाता है, वह भी अपने बेटे से कहती है कि मैंने तुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, इतना तेरे लिए श्रम उठाया, गर्भ में ढोया, कष्ट पाए, और तू कुछ भी नहीं कर रहा है!
तो मां का प्रेम तक जहां अधिकृत करता हो तो वहां दूसरे प्रेमों का तो क्या कहना? और घृणा की तो बात ही क्या पूछनी है? यहां तो तुम्हें कोई कुछ देता है सिर्फ इसीलिए ताकि तुम्हें अधिकृत कर ले। कब्जा करना चाहता है। यहां देना तो राजनीति का हिस्सा है। इसलिए तुम संतों से लेने में भी डरते हो। तुम भयभीत होते हो कि कहीं इनसे लिया, ऐसा न हो कि अधिकृत हो जाएं। लेकिन संत तो वही है जो पजेस नहीं करता, अधिकृत नहीं करता।
ऐसी कथा है कि जुन्नून एक सूफी फकीर हुआ। वह इतना परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया कि देवदूत उसके द्वार पर प्रकट हुए। और उन्होंने कहा कि परमात्मा ने खबर भेजी है कि हम तुम्हें वरदान देना चाहते हैं, तुम जो भी वरदान मांगो मांग लो।
जुन्नून ने कहा, बड़ी देर कर दी; कुछ वर्ष पहले आते तो बहुत मांगने की आकांक्षाएं थीं। अब तो हम परमात्मा को दे सकते हैं। अब तो इतना है! उसकी कृपा वैसे ही बरस रही है। अब हमें कुछ चाहिए नहीं। उसने वैसे ही बहुत दे दिया है, इतना दे दिया है कि अगर उसको भी कभी जरूरत हो तो हम दे सकते हैं।
लेकिन देवदूतों ने जिद्द की। ऐसा घटता है। जब तुम नहीं मांगते तब सारी दुनिया देना चाहती है, सारा अस्तित्व देना चाहता है। जब तुम मांगते थे, हर द्वार से ठुकराए गए। देवदूतों ने कहा कि नहीं, यह तो ठीक न होगा। कुछ तो मांगना ही पड़ेगा। जुन्नून ने कहा कि तो फिर तुम्हें जो ठीक लगता हो दे दो। तो उन्होंने कहा, हम तुम्हें यह वरदान देते हैं कि तुम जिसे भी छुओगे, वह अगर मुर्दा भी हो तो जिंदा हो जाएगा, बीमार हो तो स्वस्थ हो जाएगा। उसने कहा, ठहरो! ठहरो! अभी दे मत देना। देवदूतों ने कहा, क्या प्रयोजन ठहरने का? उसने कहा, ऐसा करो, मेरी छाया को वरदान दो, मुझे मत। क्योंकि अगर मैं किसी को छुऊंगा और वह जिंदा हो जाएगा तो उसे धन्यवाद देना पड़ेगा। सामने ही रहूंगा खड़ा। और इस संसार में लोग धन्यवाद देने से भी डरते हैं। मरना पसंद करेंगे, लेकिन अनुगृहीत होना नहीं। इससे उनके अहंकार को चोट लगती है। तुम ऐसा करो, मेरी छाया को वरदान दे दो। मैं तो निकल जाऊं, मेरी छाया जिस पर पड़ जाए, वह ठीक हो जाए। ताकि किसी को यह पता भी न चले कि मैंने ठीक किया है। और मैं तो जा चुका होऊंगा, और छाया को धन्यवाद देने की किसको जरूरत है?
यह जुन्नून बड़ी समझ की बात कह रहा है। संत अगर देना भी चाहें तो तुम लेने को राजी नहीं होते। संत अगर उंडेलना भी चाहें तो तुम्हारा हृदय का पात्र सिकुड़ जाता है। तुम लेने तक में भयभीत हो गए हो। तुम्हारे प्राण इतने छोटे हो गए हैं, देना तो दूर, तुम लेने तक में भयभीत हो। तुम्हारे जीवन के बहुत से अनुभवों से तुमने यही सीखा है: जिससे भी लिया उसी ने गुलाम बनाया। उसी अनुभव के आधार पर तुम संतों के साथ भी व्यवहार करते हो। बड़ी भूल हो जाती है। संत तो वही है जो तुम्हें देता है और मुक्त करता है, और देता है और तुम्हें मालिक बनाता है।
"संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं; संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते।'
ऐसे ही जैसे छाया ने सब कर दिया, उन्होंने कुछ नहीं किया। इसलिए संत कभी भी नहीं कहते कि हमने यह किया, हमने यह किया। जहां यह आवाज हो करने की, वहां तुम समझना कि संतत्व नहीं है। संत तो ऐसे हो जाते हैं जैसे बांस की पोंगरी, गीत परमात्मा के हैं। संत निमित्त मात्र हो जाते हैं। संत अपने को बिलकुल हटा लेते हैं। संत पारदर्शी हो जाते हैं। तुम अगर उनमें गौर से देखोगे तो परमात्मा को खड़ा पाओगे; तुम उनको खड़ा हुआ न पाओगे।
इसलिए तो हमने बुद्ध को भगवान कहा, महावीर को भगवान कहा। महावीर ठीक तुम्हारे जैसे, बुद्ध ठीक तुम्हारे जैसे। लेकिन जिन्होंने गौर से देखा, उन्होंने पाया कि वहां बुद्ध हैं ही नहीं, वे तो निमित्त हो गए। वह घर तो खाली है; वहां तो परमात्मा ही सिंहासन पर विराजमान है।
इसलिए बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने चालीस वर्ष निरंतर बोला, और एक शब्द नहीं बोला। और चालीस वर्ष निरंतर उन्होंने यात्रा की, और एक कदम नहीं चले। इसका अर्थ समझ लेना। इसका अर्थ यह है कि परमात्मा ही बोला, परमात्मा ही चला। बुद्ध तो उसी दिन समाप्त हो गए जिस दिन समाधि उपलब्ध हुई।
"संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते। क्योंकि उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।'
वरिष्ठ दिखने की कामना तो हीन-ग्रंथि से पैदा होती है। संत तो परमात्मा को उपलब्ध हो गए; कोई हीनता न बची, कोई हीनता की रेखा न बची। कुछ पाने को न बचा। अब हीनता कैसी? नियति पूरी हो गई; गंतव्य उपलब्ध हो गया; मंजिल आ गई। अब कुछ और इसके आगे नहीं है। इसलिए अब तुमसे वरिष्ठ होने की, श्रेय लेने की बात ही नासमझी की है। और अगर कोई श्रेय लेना चाहे तो समझना कि उसकी मंजिल अभी नहीं आई। और अगर कोई वरिष्ठ होना चाहे तो समझना कि अभी राह पर है, राहगीर है, अभी पहुंचा नहीं।
सदगुरु को पहचानने के जो सूत्र हैं, उनमें एक सूत्र यह भी है कि वह वरिष्ठ न होना चाहेगा, वह श्रेय न लेना चाहेगा। तुम अगर उसके पास ज्ञान को भी उपलब्ध हो जाओगे तो वह यही कहेगा कि तुम अपने ही कारण उपलब्ध हो गए हो; मैं तो केवल बहाना था।
बुद्ध मरने लगे, आनंद रोने लगा। तो बुद्ध ने कहा, रुक, क्यों रोता है? आनंद ने कहा कि आपके बिना मैं कैसे ज्ञान को उपलब्ध होऊंगा?
बुद्ध ने कहा, पागल! ज्ञान को तो तू ही उपलब्ध होता, मेरे रहते या न रहते कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरी मौजूदगी तो सिर्फ बहाना है। और अगर तूने मुझे प्रेम किया है तो मेरी मौजूदगी सदा बनी रहेगी। उस बहाने का तू कभी भी उपयोग कर सकता है।
वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, वह है कैटेलिटिक एजेंट। कुछ घटनाएं घटती हैं किन्हीं चीजों की मौजूदगी में। जिन चीजों की मौजूदगी में घटती हैं उनकी मौजूदगी से कुछ भी क्रिया नहीं होती; सिर्फ मौजूदगी! हाइड्रोजन आक्सीजन मिलते हैं, लेकिन विद्युत की मौजूदगी चाहिए। विद्युत के कारण नहीं मिलते, विद्युत का जरा सा भी उपयोग नहीं होता। लेकिन बिना मौजूदगी के नहीं मिलते; मौजूदगी चाहिए। बस सिर्फ मौजूदगी काफी है।
तो संत तो कैटेलिटिक एजेंट हो जाता है। उसकी मौजूदगी में कुछ घटनाएं घटती हैं। वह उनका श्रेय नहीं लेता।
तुम निकलते हो, और राह के किनारे अगर पक्षी भी गीत गाने लगे तो तुम समझते हो शायद तुम्हारी वजह से ही गा रहा है; कि फूल खिल जाए तो तुम सोचते हो शायद तुम्हारी वजह से ही खिल रहा है। अहंकारी आदमी अपने को केंद्र मानता है सारे अस्तित्व का; सब कुछ उसकी वजह से हो रहा है।
संत का अहंकार टूट गया; सब कुछ अपने आप हो रहा है।
तो बुद्ध ने कहा कि तू अपने ही कारण ज्ञान को उपलब्ध होगा। तेरा भीतर का ही दीया जलेगा। मेरी मौजूदगी गैर-मौजूदगी का कोई सवाल नहीं है। और अगर तुझे बहाना ही लेना हो तो तेरे लिए मैं सदा मौजूद हूं। क्योंकि शरीर ही गिर रहा है, मैं तो रहूंगा।
संत जरा सा भी श्रेय लेने की आकांक्षा नहीं रखते। तभी तो वे संत हैं। संतत्व खिलता ही तब है जब सारी हीनता गिर जाती है। जब कोई अपने भीतर की परम आत्यंतिक श्रेष्ठता को उपलब्ध हो जाता है तब तुमसे धन्यवाद भी क्या मांगेगा?
"कौन है जिसके पास सारे संसार को देने के लिए पर्याप्त है? केवल ताओ का व्यक्ति। इसलिए संत कर्म करते हैं, लेकिन अधिकृत नहीं; संपन्न करते हैं, लेकिन श्रेय नहीं लेते। क्योंकि उन्हें वरिष्ठ दिखने की कामना नहीं है।'

आज इतना ही।


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