अध्याय
71
रुग्ण
मानसिकता
जो
जानता है कि
मैं नहीं
जानता हूं,
वह
सर्वश्रेष्ठ
है;
जो
उसे भी जानने
का ढोंग करता
है
जो
वह नहीं जानता,
वह
मन से रुग्ण
है।
और
जो रुग्ण
मानसिकता को
रुग्ण
मानसिकता
की तरह
पहचानता है,
वह
मन से रुग्ण
नहीं है।
संत
मन से रुग्ण
नहीं हैं।
क्योंकि
वे रुग्ण
मानसिकता को
रुग्ण
मानसिकता
की तरह
पहचानते हैं,
इसलिए
वे मन से
रुग्ण नहीं
हैं।
अस्तित्व
का ज्ञान
असंभव है। उसे
जानने का कोई उपाय
नहीं है।
उपाय
नहीं है, क्योंकि
अस्तित्व मनुष्य
के पूर्व है; मनुष्य के
पश्चात भी है।
मनुष्य तो एक
छोटी सी तरंग
है उठी सागर
में। तरंग
कैसे सागर को
जान सकेगी? तरंग न थी तब
भी सागर था, तरंग न हो
जाएगी तब भी
सागर होगा।
क्षण भर को तरंग
है। सागर
शाश्वत है।
तरंग की सीमा
है, ओर-छोर
है। सागर का
कोई ओर-छोर
नहीं, कोई
सीमा नहीं।
छोटी सी तरंग
कैसे समा
पाएगी पूरे
सागर को अपने
ज्ञान में? इठला सकती है; थोड़ी
देर बेहोशी
में यह भान भी
बना सकती है
कि जान लिया।
लेकिन वह
भ्रांति ही
सिद्ध होगी।
माना
कि पक्षी आकाश
में उड़ सकते
हैं। लेकिन कितने
दूर?
आकाश का कोई
ओर-छोर है? पक्षियों
के पंख आकाश
की विराटता को
कैसे नाप पाएंगे?
जहां तक
पक्षी उड़
लेंगे, समझेंगे
वहीं आकाश का
अंत आ गया।
पंखों की सामर्थ्य
जहां चुक जाती
है वहां आकाश
का अंत नहीं
है, सिर्फ
पंखों की
सामर्थ्य चुक
गई है। पक्षी
भी इठला
सकते हैं कि
जान लिया, माप
लिया, यात्रा
कर आए। लेकिन
क्या है उस
यात्रा का
मूल्य? और
विराट की
तुलना में
क्या उसका
अर्थ है?
मनुष्य
भी विचार के
पंख से थोड़ा
सा जानने की कोशिश
करता है; उड़ता है थोड़ा, तड़फड़ाता है। उस तड़फड़ाहट
को तुम आकाश
का माप लेना
मत समझ लेना।
उस तड़फड़ाहट
की थोड़ी-बहुत
उपयोगिता हो
सकती है, लेकिन
अंतिम अर्थों
में कोई
सार्थकता
नहीं है। अंश
पूर्ण को कभी
भी जान नहीं
सकता। यह तो ऐसे
ही होगा कि
जैसे मेरे हाथ
मेरे पूरे
शरीर को जानने
का दावा करें।
हाथ कैसे पूरे
शरीर को जान
सकेंगे? हाथ
उतना ही जान
सकते हैं
जितने में वे
हैं। शरीर
उनसे बड़ा है।
हम इस विराट
की तुलना में
अणु-मात्र भी
तो नहीं हैं।
यह अणु कैसे
परम को जान
सकेगा?
इसलिए
जानने के दावे
सिर्फ
अज्ञानी करते
हैं। ज्ञानी
तो एक बात जान
पाता है कि
ज्ञान संभव नहीं
है। ऐसा जानते
ही सारी अकड़
खो जाती है। ऐसा
जानते ही सारा
अहंकार गिर
जाता है। और
उस निरहंकार
अवस्था में
कुछ घटता है, जिसे
ज्ञान तो नहीं
कह सकते, लेकिन
जिसे अज्ञान
कहना भी गलत
होगा। मेस्टर
इकहार्ट ने, जर्मनी के
एक बहुत बड़े
ईसाई फकीर ने,
इस घड़ी के
संबंध में एक
वचन कहा है जो
बड़ा स्मरणीय
है। उसने कहा
है, जब
मैंने जान
लिया कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं, तत्क्षण एक
पर्दा उठ गया;
परमात्मा
सामने खड़ा था।
लेकिन तब मैं
मौजूद न था।
और इकहार्ट ने
कहा, अगर
क्षमा करें
मुझे और भाषा
की भूल-चूक न
निकालें तो
मैं कहना
चाहूंगा, परमात्मा
ने मेरे
द्वारा स्वयं
को जाना उस क्षण
में। जैसे
परमात्मा की
ऊर्जा बही
मुझसे और लौट
गई अपने को
स्रोत में।
परमात्मा ने
ही परमात्मा
को जाना, मेरे
माध्यम से। तब
वे आंखें मेरी
न थीं; तब
उन आंखों में
परमात्मा ही
देख रहा था।
परमात्मा ही
देखने वाला था
और परमात्मा
ही देखा जाने
वाला था। मैं
तो खो गया था।
पूर्ण
ही पूर्ण को
जान सकेगा। जब
तुम मिट जाओगे
तब तुम पूर्ण
हो जाते हो।
जब लहर मिट जाती
है तो सागर हो
जाती है। उस
घड़ी में जानना
हो सकता है।
अब यह
बड़ी उलझन की
बात है। जब तक
तुम चाहो कि
जानना हो जाए
तब तक हो न
सकेगा; क्योंकि
तुम मौजूद
रहोगे। जब तुम
राजी हो जाओगे
अज्ञान के लिए
भी, तभी
तुम मिट जाओगे।
ज्ञान
अहंकार का
सबसे बड़ा
सहारा है।
इसलिए धन छोड़
दो,
कुछ भी न
होगा। धन छोड़
कर यह मत
सोचना कि
अहंकार छूट
गया।
त्यागियों का
अहंकार तो और
भी गहन हो
जाता है।
क्योंकि
त्यागियों को
खयाल होता है,
उनके पास
त्याग है।
तुम्हारे पास
तो धन है, ठीकरे
हैं, जो आज
नहीं कल मौत
छीन लेगी।
त्यागी को
खयाल होता है,
उसने ऐसे
सिक्के कमा
लिए जो मौत के
बाद भी उसके
साथ जाएंगे।
तुम्हारा
बैंक बैलेंस
यहीं है; उसका
बैंक बैलेंस
परलोक में है।
उसने खाते आगे
खोल दिए। और
तुम्हारा धन
तो चोरी जा
सकता है; त्याग
की कैसे चोरी
करिएगा? तुम्हारे
धन का तो
दिवाला निकल
सकता है; त्यागी
का दिवाला कभी
नहीं निकलता।
उसका धन ज्यादा
सूक्ष्म है। न
छीना जा सकता,
न चुराया जा
सकता; न
बाजार में कोई
परिवर्तन हो
जाए, इससे
उसके त्याग के
मूल्य में कोई
परिवर्तन होता
है। उसका
अर्थशास्त्र
ज्यादा गहरा
है। तुम्हारे
अर्थशास्त्र
की नींव रेत
पर रखी होगी; उसके
अर्थशास्त्र
की नींव
चट्टानों पर
रखी है।
इसलिए
त्यागी तो धनी
से भी ज्यादा
अहंकारी हो जाता
है। परिवार
छोड़ सकते हो, धन
छोड़ सकते हो, पद-प्रतिष्ठा
छोड़ सकते हो; कुछ भी न
होगा, जब
तक ज्ञान न छोड़ो।
क्योंकि
ज्ञान गहरी से
गहरी संपदा
है। और ज्ञान
की अकड़ गहरी
से गहरी है।
इसलिए तुम
अक्सर देखोगे
कि पंडित चाहे
फकीर हो, कपड़े-लत्ते
फटे-पुराने
हों, लेकिन
उसकी अकड़ और
है। ब्राह्मण
की अकड़ पांडित्य
की अकड़ से
पैदा हुई है।
क्षत्रियों
की तलवार में
भी वह धार
नहीं है जो
ब्राह्मण के
चेहरे पर होती
है। बड़े से
बड़े धनी के भी
भीतर वैसा
अहंकार नहीं है
जो ब्राह्मण
जब चलता है तो
उसकी चाल में
होता है। उसके
पास कुछ भी
नहीं है, लेकिन
ज्ञान की
संपदा है।
इसलिए मैं
देखता हूं कि
कभी यह तो हो
भी जाए कि
पापी पहुंच
जाए परमात्मा
के पास, लेकिन
पंडित कभी
नहीं पहुंचता
है। पंडित के
पहुंचने का
उपाय ही नहीं
है। क्योंकि उसकी
दीवाल बड़ी
सूक्ष्म है, बड़ी मजबूत
है। और उसके
अहंकार की बड़ी
गहनता में
छिपी है, जिसको
पहचानने के
लिए बड़ी प्रगाढ़
और तीव्र
आंखें चाहिए।
जिसने
ज्ञान को छोड़
दिया उसके पास
कुछ भी नहीं
बचता; वह भीतर
खाली हो जाता
है। तिजोरी
में रखा हुआ
धन तो तिजोरी
में रखा है; ज्ञान का धन
भीतर भरा है।
और जब तक तुम
ज्ञान से भरे
हो तब तक तुम
अज्ञानी ही
रहोगे।
क्योंकि
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर न उतर
सकेगा। लहर मिटेगी
न तो सागर
उतरेगा कैसे?
बूंद खोने
को राजी न
होगी तो विराट
कैसे होगी? तब तुमने
क्षुद्र को ही
सब कुछ मान
लिया। और तुम
क्षुद्र में
ही कैद हो
जाओगे।
अज्ञान को
अनुभव कर लेना
ज्ञान का पहला
चरण है।
अज्ञान को भर
लेना ज्ञान से,
और महा
अज्ञान में
गिर जाना है।
उपनिषदों
में बड़ा
प्यारा वचन
है। ऐसा वचन
दुनिया के
किसी भी
शास्त्र में
नहीं। उपनिषद
कहते हैं, अज्ञानी
तो भटकते ही
हैं अंधकार
में, ज्ञानी
महा अंधकार
में भटक जाते
हैं। अज्ञानी
का भटकना तो
समझ में आ
जाता है। हम
सभी जानते हैं
कि अज्ञानी
भटकता है। जो
जानता ही नहीं
वह भटकेगा ही।
लेकिन उपनिषद
कहते हैं, जिसको
भ्रांति है कि
जानता हूं, वह महा अंधकार
में भटक जाता
है। तो
अज्ञानी तो
छोटे-मोटे अंधकार
में होते हैं,
पुकार लिए
जा सकते हैं; प्रकाश से
बहुत दूर नहीं
हैं; पास
ही उनका डेरा
है। ज्ञानी
बड़ी दूर की
यात्रा पर
निकल जाता है।
सूरज की तरफ
पीठ कर लेता
है ज्ञानी।
ज्ञानी यानी
पंडित; ज्ञानी
यानी
प्रज्ञावान
नहीं, कोई
बुद्ध नहीं, कोई कृष्ण
नहीं, पंडित!
जिसने शब्दों
को सीख लिया
है; जिसने
शास्त्रों को
कंठस्थ कर
लिया है; जिसने
उधार विचारों
से अपने को भर
लिया है; और
अब इस उधार और
जूठन पर जिसकी
सारी अकड़ है।
पहली
बात खयाल में
ले लें: अंश
अंशी को नहीं
जान सकता है, खंड
अखंड को नहीं
पहचान सकता
है। इसका कोई
उपाय ही नहीं
है। उपाय है
तो यह कि खंड
खुद भी अखंड हो
जाए। ईश्वर को
जाना नहीं जा
सकता, लेकिन
ईश्वर हुआ जा
सकता है।
जानने में तो
फासला है, दूरी
है; होने
में कोई फासला
नहीं है, कोई
दूरी नहीं है।
तुम ईश्वर
होकर ही ईश्वर
को जान पाओगे।
तुम तुम रहते
ईश्वर को न
जान सकोगे।
इसलिए
तो ज्ञानियों
ने अहं
ब्रह्मास्मि
की घोषणा की
है। उस घोषणा
में तुम अहं
शब्द पर जोर मत
देना। उस
घोषणा में
ब्रह्मास्मि
पर जोर है।
मैं ब्रह्म
हूं,
इसका अर्थ
ही होता है कि
मैं नहीं हूं
और ब्रह्म है।
अगर तुम इसका
ऐसा अर्थ करो
कि मैं ब्रह्म
हूं तो तुम भूल
में पड़ जाओगे।
मैं ब्रह्म
हूं, इसका
अर्थ ही होता
है कि अब मैं
नहीं हूं, ब्रह्म
ही है; इसलिए
मैं ब्रह्म
हूं। यह मैं
के मिटने पर
घटती है घटना।
यह कोई मैं की उदघोषणा
नहीं है।
ईश्वर
हुआ जा सकता
है;
ईश्वर को
जाना नहीं जा
सकता। तुम
अस्तित्व में
डूब सकते हो, खो जा सकते
हो; तुम
अस्तित्व के
साथ एक हो जा
सकते हो, एकरस।
उस एकरसता में
ही ज्ञान है।
लेकिन तब तुम
जानने वाले न
रहोगे, और
न कोई होगा
जिसे तुमने
जाना। एक ही
बचेगा, जो
स्वयं को ही
जानता है। तुम
जा चुके
होओगे।
इसलिए लाओत्से
बहुत जोर देता
है: अज्ञान से
तो छूटना ही
है,
ज्ञान से भी
छूटना है।
अज्ञान से
छूटे, यह
काफी नहीं है।
जरूरी है, पर्याप्त
नहीं है। अभी
ज्ञान से भी
छूटना है। बीमारी
से तो छूटना
ही है, औषधि
से भी छूटना
है। कुछ बीमार
होते हैं कि बीमारी
से तो छूट
जाते हैं, फिर
औषधि से उलझ
जाते हैं, फिर
औषधि नहीं
छूटती।
क्योंकि डर
लगता है, अगर
औषधि छोड़ी
तो कहीं
बीमारी न लौट
आए। तब फिर
औषधि भी बीमारी
हो गई।
बीमारी
से भी छूटना
है और सजगता
रखनी है कि औषधि
से जकड़ न हो
जाए। कांटा
पैर में लग
जाए उसे तो
निकालना ही है, लेकिन
जिस कांटे से
उसे निकालना
है उसे घाव
में नहीं रख
लेना है।
दोनों कांटों
को एक साथ ही
फेंक देना है।
कांटे तो
कांटे ही हैं।
गड़ा हुआ
कांटा भी
कांटा है, और
जिस कांटे से
तुमने उसे
निकाला वह भी
कांटा है।
दोनों को साथ
ही फेंक देना
है।
अज्ञान
तो मिटाना ही
है;
ज्ञान भी
मिटाना है।
ज्ञान से
अज्ञान निकल
जाए, तब
तुम ज्ञान से
अगर जकड़ जाओ, तो तुमने
बंधन बदल लिए,
बंधन मिटे
नहीं। पहले
तुम्हारे पास
जंजीरें थीं
लोहे की थीं, अब तुम्हारे
पास जंजीरें
सोने की हैं, या हो सकता
है प्लैटिनम
की हों।
जंजीरें बदल गईं;
सुंदर
जंजीरें आ गईं;
बड़ी प्यारी
जंजीरें आ गईं,
कीमती और
बहुमूल्य।
लेकिन इससे
क्या फर्क पड़ता
है? तुम्हारा
कारागृह कायम
रहा।
और
लोहे की जंजीरों
को तो तोड़ने
का मन भी होता
है,
सोने की जंजीरों
को तोड़ने का
मन भी न होगा।
कारागृह और भी
गहन हो गया, मजबूत हो
गया। अब तो
जंजीरें
आभूषण जैसी मालूम
पड़ेंगी। अब
तुम इसे
कारागृह
मानोगे ही न; तुमने बहुत
सजा लिया।
अज्ञानी
अंधकार में
रहता है, बे-सजे
अंधकार में; उसका घर
खंडहर जैसा
है। और जिनको
तुम ज्ञानी कहते
हो, उन्होंने
घर को ठीक सजा
लिया। उनका घर
महलों जैसा है
जो बड़ा
बहुमूल्य है।
लेकिन वह घर
वही है जिसमें
अज्ञानी रहता
था। क्योंकि
अहंकार में कोई
अंतर नहीं पड़ा
है, घर
बदला नहीं गया
है।
अज्ञान
से तो छूटना
ही है, ज्ञान
से भी छूटना
है। और तब एक
अनूठे अज्ञान का
जन्म होता है,
जहां न
ज्ञान है, न
जहां अज्ञान;
जहां जानने
का दावा ही खो
गया होता है।
तो न जहां कोई न
जानने वाला
होता है, न
जानने वाला
होता है; जहां
एक विराट
शून्य छा जाता
है; जहां
भीतर कोई
विचार की तरंग
नहीं उठती; जहां परम
मौन हो जाता
है; उस मौन
के क्षण में
ही कोई प्रवेश
करता है परमात्मा
के मंदिर में।
अस्तित्व तभी
खोलता है द्वार
जब तुम मिट
जाते हो।
जलालुद्दीन
रूमी की बड़ी
प्यारी कविता
है कि प्रेमी
ने प्रेयसी के
द्वार पर
दस्तक दी।
भीतर से पूछा
गया: कौन है? प्रेमी
ने कहा, मैं
तेरा प्रेमी।
और भीतर
सन्नाटा हो
गया, उदास
सन्नाटा।
उसने बार-बार
दरवाजा
खटखटाया, भीतर
से आवाज आई कि
अभी तू तैयार
नहीं। और द्वार
तभी खुल सकते
हैं जब तू
तैयार हो। लौट
जा! तैयार
होकर वापस
लौट।
प्रेमी
वर्षों तक
पहाड़ों में, जंगलों
में, मौन
में, शांति
में, ध्यान
में डूबा रहा।
चांद उगे, गए;
दिन, रातें,
महीने, वर्ष
बीते। और तब
एक दिन प्रेमी
वापस लौटा, द्वार पर
दस्तक दी। फिर
वही सवाल: कौन
है? इस बार
उसने कहा, तू
ही है; मैं
नहीं। द्वार
खुल गए।
जिस
दिन भी तुम कह
सकोगे
अस्तित्व के
द्वार पर
जाकर: तू ही है, मैं
नहीं; उस
दिन द्वार
खुले ही हैं।
अगर ठीक से
समझो तो द्वार
कभी बंद ही न
थे, तुम्हारे
मैं ने ही
द्वार बंद किए
थे। पर्दा परमात्मा
पर नहीं पड़ा
है; पर्दा
तुम्हारी आंख
पर पड़ा है।
परमात्मा पर
से पर्दा नहीं
उठाना है; नहीं
तो एक आदमी
उठा देता और
सब दर्शन कर
लेते। बुद्ध
उठा देते, महावीर
उठा देते, कृष्ण
उठा देते, और
बाकी अपनी जगह
खड़े-खड़े दर्शन
कर लेते। पर्दा
अगर परमात्मा
पर पड़ा होता
तो एक बार उठ
जाता, बात
खतम हो गई।
पर्दा हर आदमी
की आंख पर पड़ा
है। इसलिए
बुद्ध कितना
ही पर्दा
उठाएं, तुम्हारी
आंख से न
उठेगा।
महावीर कितना
ही उठाएं, तुमसे
न उठेगा।
महावीर
उठाएंगे तो
उनका ही पर्दा
उठेगा; तुम
उठाओगे तो
तुम्हारा
उठेगा।
द्वार
बंद नहीं हैं।
तुम्हारे मैं
की ही एक दीवाल
है,
जिसमें तुम
ही घिरे हो।
और ज्ञान
तुम्हारे मैं
को बड़ी गहरी
शक्ति देता
है। अज्ञान
में तो तुम
कंपते हो; ज्ञान
में तुम अकड़
जाते हो। जैसे
ही तुम्हें लगता
है मैं जानता
हूं, वैसे
ही तुम्हारा
भय खो जाता
है। जैसे ही
तुम्हें लगता
है मैं जानता
हूं, वैसे
ही तुम कुछ और
हो गए। इसे भी
छोड़ देना है।
अन्यथा तुम
ज्ञान से जकड़े
रहोगे। ज्ञान
तुम्हारा
बंधन हो
जाएगा। और ज्ञान
तो वही है जो
मुक्त करे। तो
जो ज्ञान बंधन
बना ले वह
अज्ञान से
बदतर है। यह
पहली बात।
दूसरी
बात खयाल में
रख लेनी जरूरी
है कि जिसे हम
ज्ञान कहते
हैं वह है
क्या? वस्तुतः
वह ज्ञान है? या कि ज्ञान
का धोखा है?
ऐसा
समझो कि
अंतरिक्ष की
यात्रा पर
तुम्हें मंगल
ग्रह का एक
यात्री मिल
जाए,
और तुमसे
पूछे, कहां
रहते हो? और
तुम कहो, कोरेगांव
पार्क। और वह
पूछे, कभी
सुना नहीं, कहां है यह
कोरेगांव
पार्क? और
तुम कहो, पूना।
और वह कहे कि
यह तो एक उलझन
को तुम दूसरी
उलझन से सुलझाते
हो, कहां
है पूना? और
तुम कहो, महाराष्ट्र।
वह पूछे, कहां
है
महाराष्ट्र? तो तुम कहो, भारत। और वह
कहे, कहां
है भारत? तो
तुम कहो, पृथ्वी
पर। वह पूछे, कहां है
पृथ्वी? और
तुम कहो कि
सौर परिवार
में। पर वह
कहे कि तुम
बात का हल
नहीं कर रहे
हो। तुम उत्तर
नहीं दे रहे
हो। मैं पूछता
हूं अ, तुम
बताते हो ब।
जब मैं पूछता
हूं ब, तो
पता चलता है
वह भी तुम्हें
पता नहीं है, तब तुम
बताते हो स।
तुम एक
अनजान को
दूसरे अनजान
से हल कर रहे
हो। तुम्हें
किसी का भी
पता नहीं है।
क्योंकि जैसे
ही उसका सवाल
उठता है, तुम
फिर पीछे कहीं
और हट जाते हो;
तुम कहते हो
महाराष्ट्र, भारत, सौर
परिवार। कहां
है सौर परिवार?
अगर पूछने
वाला पूछता ही
जाए तो एक घड़ी
ऐसी आ जाएगी
जब तुम्हें
कहना पड़ेगा
पता नहीं। और
जब आखिरी बात
पता नहीं है
तो पहली बात, जिसको तुम
आखिरी से हल
करना चाहते थे,
वह कैसे पता
हो सकती है?
वैज्ञानिकों
में एक मजाक
चलता रहा है। एडिंग्टन
ने अपनी
किताबों में
उस मजाक की
चर्चा की है। और
वह यह है कि
वैज्ञानिक से
अगर पूछो कि
व्हाट इज़
मैटर? पदार्थ
क्या है? तो
वह कहता है, नाट माइंड।
पदार्थ की
परिभाषा? तो
वह कहता है, जो मन नहीं।
और पूछो, मन
क्या है? तो
वह कहता है, जो पदार्थ
नहीं।
पर
ज्ञान कहां है? हम
पूछते हैं एक
बात, तुम
दूसरे अज्ञान
पर हट जाते
हो। हम पूछते
हैं, मन
क्या है? तुम
कहते हो, पदार्थ
नहीं।
स्वभावतः
सवाल उठता है
कि पदार्थ
क्या है जिसको
तुम मन को
समझाने के लिए
उपयोग में ला
रहे हो? तुम
तत्क्षण कहते
हो, जो मन
नहीं। जानते
तुम दोनों को
नहीं हो। एक अज्ञान
से तुम दूसरे
अज्ञान को
छिपाने की
कोशिश कर रहे
हो।
हमारा
सारा ज्ञान
ऐसा है, कामचलाऊ
है, यूटिलिटेरियन है; उसकी
उपयोगिता है।
लेकिन उसकी
सार्थकता क्या
है? हम
जानते क्या
हैं? छोटी-छोटी
बातें भी तो
हमें पता नहीं
हैं।
डी.एच.लारेंस से
एक छोटे से
बच्चे ने पूछा
कि वृक्ष हरे
क्यों हैं? और
लारेंस
ने लिखा है कि
मेरा सारा
ज्ञान मिट्टी
में गिर गया।
वृक्ष हरे
क्यों हैं? कुछ उत्तर न सूझा।
लारेंस
बहुत ईमानदार
आदमी है। बच्चे
तो तुमसे भी
ऐसे सवाल
पूछते हैं
जिनको बड़े-बड़े
दार्शनिक
जवाब नहीं दे
सकते। लेकिन
तुम उनका मुंह
बंद करने की
कोशिश करते
हो। क्योंकि
तुम यह मानने
में डरोगे
कि बच्चे के
सामने तुम कहो
कि मैं
अज्ञानी हूं, मुझे
पता नहीं। हर
बाप बच्चे का
मुंह बंद करता
है। वह कहता
है, जब बड़े
हो जाओगे तब
जान लोगे। और
खुद को भी पता नहीं
है; बड़ा वह
हो गया है। और
जब तक बच्चा
बड़ा होगा, जान
नहीं पाएगा, लेकिन उसके
बच्चे पैदा हो
जाएंगे जो जान
लेने लगेंगे।
वह उनसे कहेगा,
जब बड़े हो
जाओगे तब जान
लोगे। डी.एच.लारेंस
ईमानदार आदमी
है। उसने कहा
कि वृक्ष हरे
क्यों हैं, मुझे पता
नहीं। वृक्ष
हरे हैं
क्योंकि हरे
हैं। मुझे पता
नहीं।
तुम्हें
पता है, वृक्ष
हरे क्यों हैं?
तुम कहोगे
कि नहीं, वैज्ञानिक
को पता है। वह
बता देगा कि क्लोरोफिल
के कारण वृक्ष
हरे हैं।
लेकिन क्लोरोफिल
वृक्षों में
क्यों है? बात
तो वहीं की
वहीं रही, कोई
हल नहीं होता
इससे। हम
पूछते हैं, वृक्ष हरे
क्यों हैं? तुम सवाल को
एक कदम पीछे
हटा देते हो, तुम कहते हो,
क्लोरोफिल के कारण।
लेकिन क्लोरोफिल
क्यों है
वृक्षों में?
जरा ही तुम
ज्ञान को
पूछते चले जाओ
दो-चार कदम, और पाओगे
अज्ञान आ गया।
जहां-जहां
ज्ञान पाओ, जरा पूछने
की हिम्मत
करना, दो-चार
कदम भी न चल
पाओगे कि
अज्ञान आ
जाएगा। और
जैसे ही
अज्ञान
खुलेगा वैसे
ही पता चलेगा
कि ज्ञान
सिर्फ ढांकना
था।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
बाजार गया था
पत्नी के लिए साड़ी
खरीदने।
पत्नी भी चकित
थी,
क्योंकि पैसे
उसके पास न
थे। पर ईद
करीब आ गई थी
और कुछ भेंट
वह देना चाहता
था। खाली जेब
चलने लगा तो पत्नी
ने पूछा, खाली
जेब? उसने
कहा, घबरा
मत, हर चीज
में से रास्ता
है। पत्नी ने
कहा, होगा।
साथ गई।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने दो साड़ियां
चुनीं डेढ़-डेढ़ सौ
रुपये की।
पत्नी भी चकित
हुई,
इतनी कीमती साड़ियां
खरीद रहा है
और जेब खाली
है! दुकानदार
ने पैकेट भी
बांध दिया, बिल भी
तैयार करने
लगा। तब उसने
अचानक मन बदल लिया
और उसने कहा
कि ठहरो। बजाय
दो साड़ियों
के डेढ़-डेढ़
सौ की मैं यह
तीन सौ की एक
ही साड़ी
ले लेता हूं।
तीन सौ की साड़ी
बांध दी गई।
दबा कर साड़ी
वह बाहर
निकलने लगा।
दुकानदार ने
कहा, सुनिए,
आप पैसा
चुकाना भूल
गए। उसने कहा,
पैसा किस
बात का? उन
दो साड़ियों
के बदले में
ली है।
दुकानदार ने
कहा, वह तो
आप ठीक कहते
हैं, लेकिन
उन दो का पैसा
कहां चुकाया?
उसने कहा, जो खरीदी
नहीं उनका
पैसा क्यों चुकाएं? वे तो आपके
पास ही हैं।
आदमी
का सारा ज्ञान
ऐसा गोल-गोल
है,
किसी चीज का
कुछ भी पता
नहीं है।
लेकिन सब चीजों
पर हमने लेबल
लगा दिए हैं
कि पता है।
जरूरी है।
छोटा बच्चा
जैसे पैदा
होता है तो हम
एक नाम रख
देते हैं कि
राम। पता हमें
कुछ भी नहीं
है कि इनका
नाम क्या है।
लेकिन बिना
नाम के काम न
चलेगा। एक लेबल
लगा दिया कि
इनका नाम राम,
और हम
उन्हें राम
कहने लगे।
उन्होंने भी
सुना, वे
भी अपने को
राम मानने
लगे। अब
रास्ते पर कोई
गाली दे देता
है राम को और
वे झगड़ा
करने को खड़े
हो जाते हैं।
जो बिना नाम
के आया था; जिसका
कोई नाम नहीं
था; न किसी
को पता है।
कामचलाऊ एक
नाम चिपका
दिया है ऊपर
से, नहीं
तो मुश्किल
पड़ेगी। घर में
दस बच्चे हैं,
किसको बुलाइएगा?
और फिर इतनी
बड़ी दुनिया है,
अगर सब लोग
बिना नाम के
घूम रहे हों
तो बड़ी अड़चन आ
जाएगी। तो
झूठा नाम भी
बड़ा काम का
है। लेकिन फिर
कोई गाली दे
दे राम को तो
वे लकड़ी लेकर
खड़े हैं, जान
देने-लेने को
राजी हैं--उस
नाम के लिए
जिसको वे लेकर
कभी आए न थे; उस नाम के
लिए जिसको
लेकर वे कभी
जाएंगे न; जो
कि बीच की
दुनिया की
उपयोगिता थी;
जिसकी कोई
सार्थकता
नहीं थी।
न तो
नाम तुम्हारा
है,
न तुम्हारा
कोई पता-ठिकाना
है कि तुम
कहां से आए हो,
कि तुम कहां
जा रहे हो, कि
तुम क्यों आए
हो, कि तुम
क्यों जी रहे
हो, कि तुम
क्यों मर रहे
हो। गहन
अज्ञान है।
लेकिन अज्ञान
से घबराहट
होती है, डर
लगता है। तो
हम अज्ञान के
ऊपर ज्ञान को
चिपका कर बैठ
गए हैं। उससे
थोड़ी
सांत्वना मिलती
है; सब
चीजें मालूम
होता है कि
जानी-पहचानी
हैं।
अजनबी
आदमी तुम्हें
ट्रेन में मिल
जाता है, तुम
अगर अकेले
डब्बे में हो
तो पहला काम
तुम करना
चाहते हो कि
जान लो इस
आदमी का नाम
क्या है? कहां
का रहने वाला
है? हिंदू
है कि मुसलमान
है कि ईसाई है?
थोड़ा
पता-ठिकाना कर
लो। क्योंकि
अकेले इसके
साथ बैठे हो; सो जाओ, बिस्तर
उठा कर ले जाए,
पेटी खोल ले,
क्या करे, गर्दन पर
सवार हो जाए।
थोड़ी जानकारी
जरूरी है।
लेकिन
जानकारी तुम
किससे लोगे? उसी आदमी से!
और जानकारी वह
क्या दे सकता
है? वह
कहेगा, हां,
मेरा नाम
राम है, मैं
हिंदू हूं।
अगर तुम भी
हिंदू हो तो
आश्वस्त हुए।
अगर तुम
मुसलमान हो तो
दुश्मन कमरे
में है। इसे
कुछ पता नहीं
इसके नाम का, इसे कुछ पता
नहीं इसके
धर्म का। धर्म
भी दिया हुआ
है। वह भी
मां-बाप दे
रहे हैं। नाम
भी मां-बाप दे
रहे हैं।
तुम्हारी
सारी
आइडेंटिटी, तुम्हारा
सारा पता किसी
के द्वारा
दिया गया है।
और पूछोगे
किससे तुम?
इसी आदमी से।
बातचीत कर
लोगे; थोड़ी
जान-पहचान कर
लोगे। अब यह
आदमी अजनबी न
रहा।
लेकिन
तुमने कभी
सोचा कि जिस
पत्नी के साथ
तुम तीस साल
से रह रहे हो
वह अभी भी
अजनबी है, स्ट्रेंजर है। जान
क्या पाए हो? तीस साल रह
कर भी तो
जानना संभव
नहीं है। छोड़ो
पत्नी को, अपने
साथ तो तुम
पचास साल से
रह रहे हो; अपने
को जान पाए हो?
वह भी कुछ
पता नहीं है।
पूछो किससे? तुम्हें खुद
ही अपना पता
नहीं है। तुम
पूछोगे किससे?
और जब
तुम्हें पता
नहीं तो किसको
पता होगा?
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
पोस्ट आफिस
गया एक पार्सल
छुड़ाने।
क्लर्क ने गौर
से देखा, आदमी
थोड़ा संदिग्ध
मालूम पड़ा।
उसने कहा कि
लेकिन पक्का
क्या कि यह
नाम तुम्हारा
ही है? और
नाम तुम्हारे
ही पार्सल है।
उसने कहा कि
प्रमाण है।
जेब से उसने
अपना
पासपोर्ट
निकाला, खोल
कर बताया कि
देख लो यह
फोटो। उस
क्लर्क ने गौर
से फोटो देखा,
नसरुद्दीन की तरफ
देखा। कहा कि
बिलकुल तुम ही
हो। पार्सल दे
दी।
अब मजा
यह है कि तुम
पूछोगे किससे? नसरुद्दीन से ही पूछ
रहे हो। उसी
का पासपोर्ट
है, उसी का
फोटो है, मान
लिया। लेकिन
यह आदमी नसरुद्दीन
है जिसके नाम
पार्सल है, इसका क्या
प्रमाण है?
कोई भी
प्रमाण नहीं
है। लेकिन
जिंदगी चल रही
है। जिंदगी
बिना प्रमाण
के चल जाती
है। लेकिन सत्य
की खोज बिना
प्रमाण के न
चलेगी। तुम जो
भी जानते हो, उससे
तुमने किसी
तरह जिंदगी
में काम चला
लिया है।
लेकिन क्या वह
ज्ञान है? क्या
जानते हो तुम?
अब तक
दुनिया में
हजारों तरह की
ज्ञान की धाराएं
बनीं और सब एक
समय के बाद
अंधविश्वास
हो जाती हैं।
कभी वे ज्ञान
की धाराएं थीं; अब
वे
अंधविश्वास
हैं। दुनिया
ने जितनी चीजों
को अब तक
ज्ञान समझा था,
सब कचरे की
टोकरी में जा
चुका है। और
तुम यह मत सोचना
कि जिसे तुम
ज्ञान समझ रहे
हो वह कचरे की
टोकरी में नहीं
चला जाएगा। वह
भी रोज जा रहा
है। वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अब तो विज्ञान
पर भी भरोसा
करना मुश्किल
है। क्योंकि
हर दिन सब बदल
जाता है। विज्ञान
पर बड़ी
किताबें
लिखना
मुश्किल हो
गया। क्योंकि
जब तक किताब
पूरी होगी तब
तक विज्ञान
बदल जाता है।
तो छोटी-छोटी
किताबें लिखी
जाती हैं, पीरियाडिकल्स में लेख
लिखे जाते हैं
बिलकुल छोटे।
क्योंकि इसके
पहले कि लेख
छपे, कहीं
ऐसा न हो कि
बात बदल जाए।
इतनी जल्दी सब
करना पड़ता है।
तीन सौ साल
में विज्ञान
तीस हजार बार
बदल चुका है।
कुछ भी तय नहीं
है। सब बदल
रहा है। और जो
कल सही था वह
आज गलत हो
जाता है। जो
आज गलत है वह
कल सही हो
सकता है। जो
आज सही है वह
कल गलत हो
सकता है।
आदमी
का ज्ञान
कामचलाऊ है।
उसके ज्ञान
में कभी भी
जड़ें न होंगी।
हो नहीं
सकतीं।
परमात्मा ही
जान सकता है
ठीक-ठीक क्या
है। आदमी तो बाहर-बाहर
घूमता है; कुछ
भी इकट्ठा कर
लेता है; भरोसा
कर लेता है कि
ज्ञान है; काम
चला लेता है।
काम भी चल
जाता है। और
यहीं कठिनाई
है कि जिन
चीजों से काम
चल जाता है, हम समझते
हैं कि वे ठीक
होनी चाहिए, सत्य होनी
चाहिए। जरूरी
नहीं है।
तुम्हारा भरोसा
कि वे सत्य हैं
काफी है। उनका
सत्य होना
जरूरी नहीं।
देखो, दुनिया
में कितनी पैथीज
हैं! एलोपैथी
है, आयुर्वेद
है, यूनानी
है, होमियोपैथी
है, नेचरोपैथी
है, एक्युपंक्चर है, हजार...।
कौन ठीक है? अब तो
वैज्ञानिक भी
संदिग्ध हो गए
हैं कि कुछ साफ
मामला नहीं है
कौन ठीक है।
क्योंकि सभी इलाजों से
मरीज ठीक होते
पाए जाते हैं।
और करीब-करीब अनुपात
बराबर है। इस
बात को देख कर
कि होमियोपैथी
से भी मरीज
ठीक हो जाता
है, एलोपैथी
से भी ठीक हो
जाता है, आयुर्वेद
से भी ठीक हो
जाता है--मरीज
बड़े अनूठे हैं,
कोई एक
सिद्धांत को
मान कर नहीं
चलते मालूम होता
है, बीमारी
भी बड़ी अजीब
है--तो पश्चिम
में बहुत से प्रयोग
किए गए जिसको
वे प्लेसबो
कहते हैं। एक
मरीज को
एलोपैथी की
दवा दी जाती है।
उसी बीमारी के
दूसरे मरीज को
सिर्फ पानी दिया
जाता है। और
बताया नहीं
जाता कि किसको
दवा दी जा रही
है, किसको
पानी दिया जा
रहा है। बड़ी
हैरानी है, सत्तर परसेंट
दोनों ठीक हो
जाते हैं!
पानी जिसको
मिलता है, वह
भी उतना ही
ठीक हो जाता
है; जिसको
दवा मिलती है,
वह भी उतना
ही ठीक हो
जाता है।
तो ऐसा
लगता है कि
आदमी ठीक होना
चाहता है इसलिए
ठीक हो जाता
है। और जिसका
जिस पर भरोसा
हो। अगर
होमियोपैथी
पर तुम्हें
भरोसा है तो
एलोपैथी
तुम्हें ठीक न
कर पाएगी। अगर
एलोपैथी पर
तुम्हें
भरोसा है तो
होमियोपैथी
तुम्हें ठीक न
कर पाएगी। तुम्हारा
भरोसा ही
तुम्हें ठीक
करता है।
इसीलिए तो राख
भी दे देता है
कोई तो कभी
काम कर जाती
है।
मैं एक
साधु को जानता
हूं।
उन्होंने मुझे
कहा। ग्रामीण
हिस्से में
रहते हैं। बड़े
सरल आदमी हैं।
बेपढ़ा-लिखा
इलाका है। आदिमवासी
हैं सब आस-पास
बस्तर में
जहां उनका
निवास है। बेपढ़े-लिखे
लोग,
जंगली लोग
हैं।
उन्होंने
मुझे कहा कि
एक दफे एक
आदमी आया।
लगता था कि वह
क्षयरोग से
बीमार है।
उनको औषधि का
थोड़ा ज्ञान
है। तो
उन्होंने कुछ
दवा--अब वहां
कुछ था नहीं
लिखने को; ईंट
का एक टुकड़ा
पड़ा था; उस
ईंट के टुकड़े
पर ही
उन्होंने लिख
दिया कि तुम
जाकर बाजार से
और ये दवा ले
लेना।
वह
आदमी गैर
पढ़ा-लिखा। वह
कुछ समझा नहीं
कि क्या मामला
है। वह घर गया, उसने
समझा कि यह
ईंट दवा है, उसको
घोंट-घोंट कर
वह पी गया। जब
तीन महीने में
बिलकुल ठीक हो
गया तब वह आया
कि थोड़ी औषधि
और दे दें; ऐसे
तो मैं बिलकुल
ठीक हो गया।
उन्होंने कहा,
भई औषधि तो
बाजार में
मिलेगी। उसने
कहा, बाजार
जाने की क्या
जरूरत? आपने
दी थी वह काम
कर गई।
उन्होंने
पूछा, क्या
किया तुमने? उसने कहा कि
हम तो घोल-घोल
कर पी गए उसको
और बिलकुल ठीक
हो गए हैं। और
बिलकुल ठीक था,
चंगा खड़ा
था।
तो वह
साधु मुझसे कह
रहे थे कि फिर
मैंने उचित न
समझा कहना कि
वह ईंट थी और
उसको पीने से टी.बी. ठीक
नहीं होती।
लेकिन जब ठीक
हो ही गई तो अब
कुछ कहना ठीक
नहीं है, अब
चुप ही रह
जाना उचित है।
और एक ईंट के
टुकड़े पर वही
मंत्र लिख कर
दे दिया जो
पहले लिखा
था--वही दवाई
का नाम।
क्योंकि उसने
कहा कि मंत्र
लिख देना आप।
ईंट तो हमारे
गांव में भी
है, लेकिन मंत्रसिक्त
बात ही और है।
अब तो प्लेसबो
पर सारी
दुनिया में
प्रयोग हुए
हैं। और पाया
गया है कि कोई
भी दवा हो, सत्तर
प्रतिशत मरीज
तो ठीक होते
ही हैं। इसलिए
दवा का कोई
बड़ा सवाल नहीं
मालूम पड़ता।
क्या
ज्ञान है? बुद्ध
ने ज्ञान की
परिभाषा की
है: जिससे काम
चल जाए। यह
समझ में आती
है परिभाषा।
ज्ञान का यह
अर्थ नहीं कि
यह सत्य है; ज्ञान का
इतना ही अर्थ
है कि जिससे
काम चल जाए।
वही ज्ञान है,
कामचलाऊ
ज्ञान है। जब
काम न चले तो
अज्ञान हो जाता
है वही। जब
काम चला देता
है तो ज्ञान
हो जाता है
वही।
डाक्टरों
को पता है कि
जब भी कोई नयी
दवा निकलती है
तो पहले
तीन-चार महीने
बहुत काम करती
है,
फिर
धीरे-धीरे असर
कम होने लगता
है। दवा वही; असर क्यों
कम होने लगता
है? पहले
जब दवा निकलती
है, नयी
दवा, तो
तीन-चार महीने
तो ऐसा काम
करती है जादू
का कि लगता है
कि अब इससे
बेहतर दवा इस
बीमारी के लिए
नहीं हो
सकेगी।
क्योंकि
डाक्टर भी नये
के भरोसे से
भरा होता है; मरीज भी नयी
दवा के भरोसे
से भरा होता
है। और जब
मरीज शुरू में
ठीक होते हैं
तो दूसरे
मरीजों में भी
संक्रामक खबर
फैल जाती है
कि यह दवा काम
करती है।
लेकिन
फिर धीरे-धीरे
उत्साह तो सभी
चीजों में क्षीण
हो जाता है।
चार-छह महीने
में डाक्टर का
उत्साह भी
क्षीण हो जाता
है। एकाध-दो
मरीज ऐसे भी
निकल आते हैं
जिनको तुम ठीक
ही नहीं कर
सकते। उनके
कारण दवा पर भरोसा
गिर जाता है।
जिद्दी तो सब
जगह होते हैं।
तीस परसेंट
लोग जिद्दी
होते हैं हर
चीज में।
बीमारी में सौ
में से सत्तर
आदमी जिद्दी
नहीं होते, तीस
आदमी जिद्दी
होते हैं। वे किसी
चीज में भरोसा
नहीं उनका। वे
पक्के नास्तिक
हैं हर चीज
में। हर चीज
को वे इनकार
की भाषा में
देखते हैं। इस
कारण उन पर
कोई परिणाम नहीं
होता। जैसे ही
वे आदमी आ गए, और उन पर
परिणाम न हुआ,
मरीजों में
भी खबर पहुंच
जाती है कि अब
काम न हो
सकेगा। यह दवा
भी गई। तब
तत्क्षण
दूसरी दवा
खोजनी पड़ती
है।
जो काम
करे वह ज्ञान।
मगर यह तो बड़ी
कमजोर परिभाषा
हुई। ज्ञान की
परिभाषा तो
होनी चाहिए:
जो सदा है वही
ज्ञान। लेकिन
वैसा ज्ञान तो
मनुष्य के पास
नहीं है। वैसा
ज्ञान तो तभी
उपलब्ध होता
है जब तुम
अपनी
मनुष्यता को
भी छोड़ कर अतिक्रमण
कर जाते हो।
और तुम्हारी जानकारियां
सिर्फ अज्ञान
को छिपाने के
उपाय हैं।
उससे तुम जी
लेते हो
सुविधा से।
लेकिन सुविधा
से जी लेने का
नाम जीवन के
रहस्य को जान
लेना नहीं है।
यह
दूसरी बात। और
तीसरी बात; फिर
हम सूत्र में
प्रवेश करें।
जब भी
तुम किसी चीज
को जानते हो
तो जानने का
अर्थ ही होता
है कि तुममें और
जिसे तुम जान
रहे हो एक
फासला है।
वहां तुम बैठे
हो,
मैं
तुम्हें देख
रहा हूं। यहां
मैं बैठा हूं,
तुम मुझे
देख रहे हो।
अगर हम बहुत
करीब आ जाएं तो
देखना कम होने
लगेगा। अगर हम
अपने चेहरे बिलकुल
करीब कर लें, तो हम देख ही
न पाएंगे। अगर
हम दोनों की
आंखें इतने करीब
आ जाएं कि
एक-दूसरे को
छूने लगें, तो फिर कुछ
भी न दिखाई
पड़ेगा। ज्ञान
के लिए फासला
चाहिए, दूरी
चाहिए। और यही
अड़चन है।
क्योंकि
जिससे हम दूर
हैं उसे हम
जान कैसे
सकेंगे?
इंद्रियां
उसे ही जान
सकती हैं जो
दूर है। और परमात्मा
को,
सत्य को
जानने का एक
ही उपाय है कि
वह इतने पास आ
जाए, इतने
पास आ जाए कि
हम और उसके
बीच कोई भी
रत्ती भर का
फासला न रहे।
तो परमात्मा
को इंद्रियों से
न जाना जा
सकेगा।
क्योंकि
इंद्रियां तो
दूर को ही जान
सकती हैं।
अतींद्रिय
अनुभव से ही
परमात्मा को जाना
जा सकेगा।
लेकिन
तुम्हारा तो
सारा ज्ञान
इंद्रियों का
है। कुछ तुमने
आंख से जाना
है, कुछ
हाथ से जाना
है, कुछ
कान से जाना
है। लेकिन सब
जाना है
इंद्रियों
से।
इंद्रियां मन
के द्वार हैं।
जो-जो इंद्रियां
जान कर लाती हैं,
मन को दे
देती हैं। मन
ज्ञानी बन
जाता है। मन के
पीछे छिपी है
तुम्हारी
चेतना।
और एक
और ज्ञान है
जो दूरी से
नहीं जाना
जाता, जो पास
होने से जाना
जाता है। जो
प्रेम जैसा है;
ज्ञान जैसा
कम। परमात्मा
को तो
प्रार्थना में
जाना जा सकेगा;
जब हृदय भरा
होगा गहन प्रेम
से। परमात्मा
को आंखों से
तो नहीं देखा
जा सकता।
आंखों से तो
जो देखा जा
सकता है वह
संसार है। या
चाहो तो ऐसा
कहो कि आंखों
से जब तुम परमात्मा
को देखते हो
तो जो तुम्हें
दिखाई पड़ता है
वह परमात्मा
का एक अंश है, संसार। जब
तुम आंख बंद
करके देखोगे
तब तुम उसे
देख पाओगे जो
परमात्मा है।
जब तुम सारी
इंद्रियों को
बंद करके देखोगे
तब तुम उसे
जान पाओगे जो
परमात्मा है।
क्योंकि
इंद्रियों के
बंद होते ही
मन का व्यापार
बंद हो जाता
है।
विज्ञान, ज्ञान,
सब
इंद्रियों के
ही माध्यम से
जाने गए हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है, ज्ञानी
का पहला लक्षण
है यह जान
लेना कि जो हम
जानते हैं वह
ज्ञान नहीं
है। और इस
ज्ञान से
हमारा छुटकारा
हो तो फिर परम
ज्ञान की दिशा
में पैर बढ़ें।
जिसने इसी को
ज्ञान समझ
लिया वह इसे
छाती से लगा
कर बैठ जाता
है; वह इसे
मंजिल समझ
लेता है। फिर
यात्रा
अवरुद्ध हो
जाती है।
अब हम
लाओत्से के
सूत्र को
समझें।
"जो
जानता है कि
मैं नहीं
जानता हूं, वह
सर्वश्रेष्ठ
है।'
इस
ज्ञान को
लाओत्से
सर्वश्रेष्ठ
ज्ञान कहता
है: इस जानने
को कि मैं
नहीं जानता
हूं। अज्ञानी
है,
ज्ञानी है,
और परम
ज्ञानी है।
अज्ञानी का
अर्थ है: जो
जानता भी नहीं,
लेकिन यह भी
नहीं जानता कि
मैं नहीं
जानता हूं।
ज्ञानी का
अर्थ है: जो
जानता नहीं, लेकिन जानता
है कि जानता
हूं। परम
ज्ञानी का अर्थ
है: जो जानता
है कि नहीं
जानता हूं। तो
परम ज्ञानी
में एक बात तो
अज्ञानी की है,
नहीं जानता
हूं। और एक
बात ज्ञानी की
है कि जानता
हूं। अज्ञानी
और ज्ञानी
दोनों के पार
हो जाता है
परम ज्ञानी।
अज्ञानी
जानता नहीं, लेकिन यह भी
नहीं जानता कि
मैं नहीं
जानता हूं।
परम ज्ञानी भी
नहीं जानता, लेकिन जानता
है कि नहीं
जानता हूं।
ज्ञानी जानता
नहीं, लेकिन
जानता है कि
जानता हूं।
परम ज्ञानी
इतना ही जानता
है कि नहीं
जानता हूं। इन
दोनों के
समन्वय में
परम ज्ञान की
प्रज्ञा का
प्रज्वलन
होता है।
सुकरात
ने कहा है कि
जब मैं जवान
था तब मैं जानता
था मैं सब
जानता हूं।
ऐसा कुछ भी न
था जो मेरी
जवानी की अकड़
में मैं न
जानता होऊं।
फिर मैं बूढ़ा
हुआ। तब
धीरे-धीरे
मेरे ज्ञान के
भवन की ईंटें
गिरने लगीं। प्रौढ़ता
आई;
हिम्मत आई
स्वीकार करने
की कि बहुत सी
बातें मैं
नहीं जानता
हूं। और जैसे
ही यह हिम्मत
आई वैसे ही
पता लगा कि
जानता तो बहुत
कम हूं, न
जानना तो बहुत
बड़ा है। और
आखिरी क्षणों
में सुकरात ने
कहा है कि अब
जब कि जीवन की
धारा पूरी जा
चुकी, जब
मैं अब
परिपूर्ण रूप
से विनम्र हो
गया हूं, वह
दंभ और अहंकार
खो गया, शरीर
और मन की अकड़
जाती रही, और
मौत ने द्वार
पर दस्तक दे
दी है, तो
अब मैं कह
देना चाहता
हूं संसार को
कि मैं सिर्फ
एक ही बात
जानता हूं कि
मैं कुछ भी
नहीं जानता।
ऐसा
हुआ,
कि यूनान
में एक बहुत
प्रसिद्ध
मंदिर है, डेलफी
का मंदिर। उस
मंदिर के
पुजारी पर
देवी का अवतरण
होता था। और
वह मंदिर का
पुजारी, जब
देवी का अवतरण
होता था, तो
कई तरह की घोषणाएं
करता था। वे
सदा सच होती
थीं। कुछ लोग डेलफी के
मंदिर गए थे।
जो भी लोग
पूछते थे देवी
की आविष्ट
अवस्था में, पुजारी
उत्तर देता
था। किसी ने
यह पूछ लिया
कि यूनान में
सबसे बड़ा
ज्ञानी कौन है?
तो पुजारी
ने कहा, यह
भी कोई पूछने
की बात है!
सुकरात परम
ज्ञानी है।
वे लोग डेलफी के
मंदिर से वापस
आए। उन्होंने
सुकरात से कहा
कि डेलफी
के पुजारी ने
देवी की
आविष्ट दशा
में घोषणा की
है कि तुम
सबसे बड़े
ज्ञानी हो।
सुकरात
ने कहा, कहीं
जरूर कुछ भूल
हो गई होगी।
तुम वापस जाओ
और पुजारी को
कहो कि सुकरात
तो स्वयं कहता
है कि मुझसे
बड़ा अज्ञानी
और कोई भी
नहीं; मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं।
लोग
वापस गए।
लोगों ने
पुजारी को कहा
कि आप तो कहते
हैं,
लेकिन खुद
सुकरात इनकार
करता है। और
उसने कहा कि
कहीं कोई भूल
हो गई; तुम
जाओ वापस और
जाकर बता दो
कि सुकरात ने
तो कहा है कि
मैं इतना ही
भर जानता हूं
कि कुछ भी नहीं
जानता। मुझसे
बड़ा अज्ञानी
कौन है! डेलफी
के मंदिर की
देवी हंसी और
उसने कहा, इसीलिए
तो हम उसे परम
ज्ञानी कहते
हैं। इसीलिए
कि सुकरात
स्वयं कहता है
कि मैं
अज्ञानी हूं,
इसीलिए तो
हमने उसे परम
ज्ञानी कहा
है। भूल कहीं
भी नहीं हुई
है। और हमारे
वक्तव्य में
और सुकरात के
वक्तव्य में
विरोध नहीं
है। सुकरात जो
कह रहा है उसी
के कारण तो हम
कहते हैं वह
परम ज्ञानी
है। अगर उसने
स्वीकार कर
लिया होता
दुर्भाग्य से
कि वह परम
ज्ञानी है तो
हमें अपना
वक्तव्य
बदलना पड़ता।
फिर वह ज्ञानी
न रह जाता।
ज्ञान
विनम्र है; ज्ञान
आत्यंतिक रूप
से विनम्र है।
ज्ञान का कोई
भी दावा नहीं
है।
"जो
जानता है कि
मैं नहीं
जानता हूं, वह
सर्वश्रेष्ठ
है।'
लेकिन
ध्यान रखना, सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
ऐसी घोषणा मत
करना। अन्यथा
चूक जाओगे।
आदमी का मन
बहुत बेईमान
है। इस वचन को
पढ़ कर तुम्हें
भी लग सकता है:
तब तो बात
सीधी साफ है; घोषणा कर दो
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं और सरलता
से
सर्वश्रेष्ठ
हो जाओ।
सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
ऐसी घोषणा की,
तब तो तुम
चूक गए। यह
सर्वश्रेष्ठ
होने का उपाय
नहीं है। ऐसा
जिसके जीवन
में घट जाता
है, सर्वश्रेष्ठता छाया की
भांति उसका
पीछा करती है।
यह परिणाम है;
उपाय नहीं।
तुम
सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
अगर अज्ञान का
दावा करोगे तो
वह दावा भी ज्ञान
का ही दावा है
और अहंकार का
ही दावा है। तुम
यह मत सोचना
कि ज्ञान का
ही दावा हो
सकता है। आदमी
चालाक है; अज्ञान
का भी दावा कर
सकता है।
लेकिन दावे
में बात है।
और अगर
सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
ही दावा कर
रहे हो तो
कठिनाई में पड़
जाओगे।
और
बहुत से
धार्मिक लोगों
को मैं ऐसी
कठिनाई में
पड़ा देखता
हूं। मेरे पास
धार्मिक लोग आ
जाते हैं; मुझसे
आकर कहते हैं
कि पापी तो
सुख में हैं, और हम पुण्य
कर रहे हैं, फिर भी दुख
में हैं। और
शास्त्रों
में कहा है, पुण्यात्मा
को सुख मिलता
है, स्वर्ग
मिलता है।
वे सुख
और स्वर्ग
पाने के लिए
पुण्य कर रहे
हैं। वहीं चूक
हो गई। पुण्य का
पहला लक्षण तो
यह है कि वह
निर्लोभ
होगा। अगर
पुण्य भी लोभी
हो तो पाप और
पुण्य में
फर्क क्या है? अब
वे देख रहे
हैं बैठे, राह
लगाए हुए, हिसाब-किताब
किए हुए बैठे
हैं कि इतना
पुण्य कर दिया
और अभी तक सुख
नहीं मिला। और
शास्त्र में
लिखा है, सुख
मिलेगा। और जब
सुख ही नहीं
मिल रहा है तो
स्वर्ग का
क्या भरोसा
करें? जब
अभी नहीं मिल
रहा तो आगे का
क्या भरोसा
करें? मिले
न मिले! कोई
लौट कर बताता
भी तो नहीं।
कहीं ऐसा न हो
कि पाप से भी
चूक जाएं, पुण्य
करके फिजूल
समय गंवाएं,
और कुछ भी न
मिले।
और
उनको दिख रहा
है कि पापी को
सुख मिल रहा
है। इसे थोड़ा
समझें। जब
किसी को दिखाई
पड़ता है कि पापी
को सुख मिल
रहा है तब वह
पुण्य के
द्वारा ऐसा ही
सुख चाहता है
जैसा पापी को
पाप के द्वारा
मिल रहा है।
पुण्यात्मा
को तो दिखाई
पड़ेगा कि पापी
दुखी है। पुण्यात्मा
को कभी दिखाई
ही नहीं पड़
सकता कि पापी और
सुखी हो सकता
है। यह असंभव
है! सिर्फ
पापी मन को ही
दिखाई पड़ता है
कि पापी सुखी
है। यही तुम्हारा
सुख है। यही
तुम्हारी सुख
की परिभाषा है।
यही तुम चाहते
हो।
तुम भी
चाहते हो कि
धन का अंबार
लग जाए। कुछ
हिम्मतवर हैं, वे
चोरी करके और
तस्करी करके
कर रहे हैं।
तुम जरा कमजोर
हिम्मत के हो,
तुम
दान-दक्षिणा
देकर कर रहे
हो। लेकिन
चाहते तुम वही
हो। तुम जरा
डरे हुए आदमी
हो, कायर
हो। कहीं पकड़ा
न जाओ, तो
तुम सुगम उपाय
खोज रहे हो।
कुछ लोग पुलिस
के
अधिकारियों
को रिश्वत
देकर कर रहे
हैं; तुम
परमात्मा को
रिश्वत देकर
कर रहे हो।
बाकी तुम करना
वही चाहते हो।
तुम्हारे मन
के तर्क में
जरा भी भेद
नहीं है। और
तुम्हारी
आकांक्षा भी
वही है। तुम
बिना दांव पर
अपने को लगाए
पापी का सुख
पाना चाहते
हो। तुम
ज्यादा चालाक
हो।
पापी
तो सीधा-सादा
है। उसके गणित
में बहुत
जटिलता नहीं
है। उसे जो
चाहिए वह पागल
होकर कर रहा
है। चाहे किसी
भी तरह मिले, येन
केन प्रकारेण,
कुछ भी हो
परिणाम, वह
लगा है। चोरी
करेगा, डाका
डालेगा, सब
करेगा। वह कम
से कम
हिम्मतवर है।
और जो चाहता
है उसे करने
की सीधी कोशिश
कर रहा है।
तुम बेईमान हो
और तुम चालाक
हो। तुम जेब
भी काटना
चाहते हो, और
दूसरे की जेब
में हाथ भी
नहीं डालना
चाहते। तुम
चाहते हो कि
दूसरे की जेब
अचानक
तुम्हारी जेब
में अपने आप
उलट जाए। या
दूसरा खुद
अपनी जेब में
हाथ डाले और
तुम्हारी जेब
में पैसे रख दे।
और तुम कर
क्या रहे हो
इसके लिए?
तुम
सुबह रोज बैठ
कर आधा घंटा
राम-राम, राम-राम
कर लेते हो; या थोड़े से
चने-फुटाने
रख लिए हैं, वे तुम
भिखारियों को
बांट देते हो;
या जो
दवाइयां
तुम्हारे घर
में काम नहीं
आईं, तुम
अस्पताल में
दे आते हो। या
जो कपड़े अब
तुम्हारे
योग्य नहीं
रहे, वे
तुम दान कर
देते हो; बंगला
देश भेज देते
हो। तुम्हारा
पुण्य बड़ा दीन
है। और भीतर
तुम्हारा वही
मन छिपा है जो
पापी का है।
तब तुम चिंता
में पड़ते हो।
अगर
तुमने सच में
ही पुण्य किया
हो तो पुण्य के
करने में ही महासुख
बरस जाता है।
कहीं बाद में
थोड़े ही सुख
मिलने वाला
है! स्वर्ग कल
थोड़े ही मिलने
वाला है! न तो
स्वर्ग कल है
और न नरक कल
है। तुम जो
करते हो उस
कृत्य में ही
तो तुम पर दुख
या सुख बरस
जाता है।
कभी
चोरी करके
देखो। तब तुम
पाओगे, कैसी
छाती धड़कती
है! कैसी
चिंता, बेचैनी,
परेशानी, घबराहट, भय!
सो नहीं सकते,
खुद के ही
पैरों से डर
जाते हो और
चौंक जाते हो;
खुद की ही
आवाज डराती
है। वह जो
चोरी कर रहा
है, तुम
उसका भवन ही
मत देखो कि
उसने बड़ा भवन
बना लिया है।
तुम उसकी
अंतरात्मा भी
देखो कि प्रतिपल
वह गल रहा है
और प्रतिपल
घाव बन रहे
हैं। और प्रतिपल
डरा हुआ है, बेचैन है, परेशान है, कंप रहा है।
तुम उसके
वस्त्र मत
देखो, तुम
उसके प्राण
देखो। तुम
उसके पास धन
मत देखो, तुम
उसकी भीतर की
दशा देखो। तब
तुम पाओगे, वह महा दुख
में है; नरक
उसे मिल रहा
है।
लेकिन
जिसने सच में
ही दान दिया
है--और दान का अर्थ
है,
किसी लोभ के
कारण नहीं।
क्योंकि लोभ
अगर दान में
हो तो वह दान
कैसे होगा? तब तो सौदा
होगा। और
जिन्होंने
शास्त्रों में
तुम्हें वचन
दिया है कि
यहां एक पैसा
दो और एक करोड़
गुना स्वर्ग
में पाओगे, वे बेईमान
हैं। और वे
तुम्हारा मन
जानते हैं। तुम्हारे
शोषण का
उन्होंने
उपाय किया था।
तुम इससे कम
में दोगे भी
नहीं। तुम थोड़ा
सोचो भी तो!
जुआरी भी इतना
नहीं पाता कि
एक पैसा लगाए,
एक करोड़
गुना पाए।
तुम्हारी
आकांक्षा बड़ी
भयंकर है; एक
पैसा देकर एक करोड़ गुना
तुम वहां पाना
चाहते हो।
काशी में और
प्रयाग के
पंडे तुम्हें
शोषण कर रहे
हैं इसीलिए।
तुम्हारे लोभ
का शोषण है।
तुम चोर हो।
क्योंकि एक
पैसा देकर एक करोड़ गुना
पाना चोरी की
आकांक्षा है।
इसलिए तुम्हें
दूसरे चोर मिल
जाएंगे जो
तुमसे ज्यादा
कुशल हैं और
तुम्हारा
शोषण करेंगे।
अगर तुम बेईमान
नहीं हो तो
तुम्हें कोई
बेईमान नहीं
मिल सकता। अगर
तुम चोर नहीं
हो तो
तुम्हारी
चोरी नहीं की
जा सकती। अगर
तुम लोभी नहीं
हो तो
तुम्हारा
शोषण नहीं किया
जा सकता।
एक
आदमी कुछ दिन
पहले मेरे पास
आया। और उसने
कहा,
एक साधु
मुझे धोखा दे
गया। वह बड़ा
नाराज था; साधुओं
के बड़े खिलाफ
था। क्या धोखा
दिया उसने? उसने कहा कि
उसने पहले तो
पता नहीं क्या
किया कि एक
नोट के दो नोट बना
दिए। और फिर
उसने कहा कि
तुम्हारे पास
जितने नोट हों
सब ले आओ; मैं
दोहरे कर देता
हूं। तो हमने
सब, जो भी
घर में
जेवर-जवाहरात
था सब बेच
दिया, सबके
नोट कर लिए।
और वह आदमी सब
लेकर नदारद हो
गया। वह बड़ा
बेईमान था।
मैंने
कहा,
बेईमान तुम
हो; वह
नंबर दो था।
तुम सौ के नोट
के दो नोट
बनाना चाहते
थे, इस बात
को तुम नहीं
सोचते, और
उसको तुम
बेईमान कह रहे
हो! अगर तुम न
होओ तो उसके
होने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए तुम आधार
हो, तुम जड़
हो। और सजा
अगर मिलनी
चाहिए, तो
मुझसे अगर सजा
मिलती हो तो
पहले तुम, फिर
हम उसको
देखेंगे। लेकिन
पहले तुम सजावार
हो। तुम सौ
रुपये के दो
सौ रुपये करना
चाहते थे, इसमें
तुम्हें
बेईमानी न
दिखाई पड़ी? और जो ऐसा
करने आएगा, वह साधु
होगा? तो
वह आदमी साधु
नहीं था, यह
तुम भी जानते
हो। तुम भी
साधु नहीं हो,
तुम भी
जानते हो। तुम
दोनों गुंडे
हो। दोनों का
मेल मिल जाता
है।
पापी
को तुम देखते
हो कि सुख पा
रहा है। इसका
मतलब है कि
वही सुख
तुम्हारी भी
आकांक्षा है।
नहीं, कोई
पापी कभी सुख
नहीं पाता।
पुण्य के
अतिरिक्त कोई
सुख है ही
नहीं। लेकिन
पुण्य तक उठना
बड़ा कठिन है।
पुण्य का अर्थ
है, निर्लोभ
दान। पुण्य का
अर्थ है, जो
तुम्हारे पास
है उसमें
दूसरे को
सहभागी बनाना।
पुण्य का अर्थ
है, जो सुख
तुम्हें मिला
है उसमें
दूसरे को साझी
बनाना--बेशर्त,
कुछ पाने की
आकांक्षा से
नहीं।
कभी
तुमने खयाल
किया हो, कोई
रास्ते पर गिर
पड़ा और तुमने
उसे हाथ का सहारा
देकर उठा
दिया। उस क्षण
अचानक तुम स्वर्ग
में पहुंच
जाते हो। कुछ
भी तुमने किया
नहीं है, सिर्फ
हाथ बढ़ा दिया
है और उसे उठा
लिया है। लेकिन
तुम्हारी चाल
बदल जाती है।
तुम्हारे भीतर
की उदासी टूट
जाती है। जैसे
सुबह हो गई
अचानक; जैसे
बादल घिरे थे
आकाश में, और
थोड़ा सा बादल
फट गए और
तुम्हें नीला
आकाश दिखाई
पड़ा। न तो उस
समय तुम्हें
पुण्य का खयाल
था, न
शास्त्र का
खयाल था। बस
सहज मनुष्यता
के कारण घट
गया। कोई आदमी
गिर रहा था, तुमने उठा
लिया। तुमने
सोचा भी न कि
इस समय फोटोग्राफर
आस-पास है या
नहीं? कोई
अखबार वाला है
या नहीं? खाली
सड़क पर उठाने
का फायदा क्या
है? उस
वक्त तुमने यह
भी न सोचा कि
परमात्मा का
कोई आदमी लिख
रहा है इस समय
या नहीं? तुमने
यह भी खड़े
होकर विचार न
किया कि इसको
उठाएंगे तो
क्या लाभ होगा
भविष्य में? तुमने कुछ
सोचा ही न।
अनसोचे क्षण
में तुम झुके,
तुमने उठा
लिया। तुमने
धन्यवाद की भी
आकांक्षा न की।
तुम अपनी राह
चले गए। अगर
उस आदमी ने
धन्यवाद भी न
दिया तो भी
तुम्हें मन
में ऐसा न लगा
कि कैसा आदमी
था! मैंने
इतना सहारा
दिया, इसने
धन्यवाद भी न
दिया!
अगर
तुम्हें इतना
भी लग जाए कि
इसने धन्यवाद
नहीं दिया तो
तुम चूक गए।
तब स्वर्ग
बिलकुल पास था
और तुम फिर नरक
में गिर गए।
स्वर्ग होने
का एक ढंग है।
नरक भी होने
का एक ढंग है।
इसलिए
खयाल रखना, लोभ
के कारण दान
दोगे तो वह
लोभ का ही
विस्तार है।
अगर तुम
सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
ऐसी धारणा
अपने मन में
जमा लो कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं तो
इससे तुम
सर्वश्रेष्ठ
भी न हो जाओगे
और न न जानने
का वह अमृत
तुम्हें
मिलेगा, न
न जानने की वह
गहन शांति
तुम्हें
मिलेगी। तुम
चूक जाओगे। और
सभी
शास्त्रों के
साथ तुमने ऐसा
ही किया है।
तुम अपनी ही
समझदारी से
नासमझ हो; तुम
अपनी कुशलता
से चूकते हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। उनसे मैं
कहता हूं कि ध्यान
तो घटित होगा, लेकिन
तुम ध्यान की
बहुत अपेक्षा
मत करो। क्योंकि
अपेक्षा बाधा
बन जाएगी। अगर
तुम शांत होकर
बैठे हो तो
तुम बहुत
ज्यादा
आकांक्षा मत
करो कि कब
शांत होंगे।
शांति की बात
ही छोड़ दो। तुम
सिर्फ शांत
होकर बैठ जाओ।
जब होंगे, होंगे।
जल्दी मत करो।
तो वे कहते
हैं, अच्छा
ऐसा ही
करेंगे।
दो-चार दिन
बाद आकर वे कहते
हैं कि जैसा
आपने कहा था
वैसा ही किया,
लेकिन
शांति अभी तक
नहीं आई।
चूकते ही जाते
हैं। वह भी
किया, लेकिन
पीछे खड़े वे
देखते ही रहे
कि शांति आ रही
कि नहीं। चार
दिन हो गए, अभी
तक नहीं आई!
शांति
आती है उन
क्षणों में जब
तुम बिलकुल
मौजूद नहीं
होते। तुम्हारी
मौजूदगी
अशांति है। जब
तुम इतने गैर-मौजूद
हो जाते हो, सारी
आकांक्षाएं,
वासनाएं, चिंताएं छोड़
कर बैठ रहते
हो, जैसे
कुछ करने को
नहीं है, कुछ
होने को नहीं
है, कहीं
जाने को नहीं
है, कुछ
पाने को नहीं
है, जब तुम
ऐसे बैठ रहते
हो, अचानक
तुम पाते हो, वर्षा होने
लगी, मेघ
घिर गए; शांति
सब तरफ बरस
रही है। तुम
सराबोर हुए जा
रहे हो। तुम
मदमस्त हुए जा
रहे हो।
लेकिन
जीवन में जो
भी घटता है
सर्वश्रेष्ठ, वह
तुम्हारे
कारण नहीं
घटता।
तुम्हारे
कारण तो
निकृष्ट ही
घटता है।
इसीलिए तो
ज्ञानियों ने
कहा है कि परम
ज्ञान या परम
अनुभूति
प्रसाद है
परमात्मा का,
हमारा
प्रयास नहीं।
तो तुम
सर्वश्रेष्ठ
होने के लिए
मत अज्ञान की घोषणा
कर देना। हां, अज्ञान
की घोषणा
तुम्हारे
जीवन में आ
जाए तो तुम
सर्वश्रेष्ठ
हो जाओगे। वह
परिणाम है।
"जो
उसे भी जानने
का ढोंग करता
है जो वह नहीं
जानता, वह
मन से रुग्ण
है।'
लाओत्से
कहता है, वह
बीमार है; उसे
मनोचिकित्सा
की जरूरत है।
तुम अगर इसको
सोचोगे तो तुम
पाओगे, तब
तो करीब-करीब
हर आदमी मन से
बीमार है।
क्योंकि ऐसा
आदमी मुश्किल
ही है पाना जो
सीधा-सीधा कह
सके मैं नहीं
जानता।
तुमसे
अगर कोई पूछता
है,
परमात्मा
है? तो
तुमने कभी यह
जवाब दिया कि
मैं नहीं
जानता। नहीं,
या तो तुमने
कहा, नहीं
है। अगर तुम
नास्तिक हो, कम्युनिस्ट
हो, तो
तुमने कहा, नहीं है। वह
भी ज्ञान का
दावा है कि
मुझे पता है, नहीं है। या
तुमने कहा, है। वह भी
ज्ञान का दावा
है। लेकिन कभी
तुम्हारे मन
से सीधी-साफ
बात उठी कि
मुझे पता नहीं
है; जो कि
असलियत है।
तुमसे कोई कुछ
भी पूछे, उत्तर
देने की बड़ी
जल्दी और
तैयारी है।
ऐसा क्षण नहीं
आता जब तुम
निरुत्तर खड़े
रह जाओ और वास्तविक
रूप से कह दो
कि नहीं, मुझे
पता नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से एक आदमी ने
आकर कहा कि
मैं गुरु की
तलाश में हूं।
और कई गुरुओं
के पास गया, लेकिन
कुछ पाया
नहीं। कुछ है
नहीं उनमें।
जल्दी ही उनका
ज्ञान चुक
जाता है। कोई
रहस्य नहीं है
ऐसा जो चुके
ही न। तो किसी
ने तुम्हारी
मुझे खबर दी
कि तुम्हारे
पास बड़ा
रहस्यपूर्ण
गुप्त ज्ञान
है। मैं उसी
को जानने आया
हूं। नसरुद्दीन
ने कहा कि ठीक,
तुम मेरी
सेवा में रहो,
तैयारी
करो। जब तुम
तैयार हो
जाओगे तब मैं
गुप्त ज्ञान
तुम्हें दे
दूंगा। उस
आदमी ने कहा
कि ठीक है; सेवा
शुरू करने के
पहले मैं यह
भी पूछ लेना
चाहता हूं कि
तैयारी की कसौटी,
मापदंड
क्या होगा कि
मैं तैयार हो
गया! नसरुद्दीन
ने कहा, मापदंड
यह होगा जिस
दिन तुम यह
कहने की
हिम्मत जुटा
सकोगे कि जो
गुप्त ज्ञान
मैं तुम्हें
दे रहा हूं
तुम उसे गुप्त
रखने में
समर्थ हो गए हो
और किसी को
बताओगे नहीं।
उस आदमी ने
कहा कि बात
बिलकुल ठीक है।
तीन
वर्ष सेवा की।
बार-बार उसने
पूछा। नसरुद्दीन
ने कहा, रुको,
तैयार हो
जाओ। आखिर तीन
वर्ष पर उसने
कहा, अब
मैं बिलकुल
तैयार हो गया
हूं। और आप जो
भी ज्ञान मुझे
देंगे मैं उसे
गुप्त
रखूंगा।
नसरुद्दीन ने
कहा,
तब बात खतम
हो गई।
क्योंकि मेरे
गुरु ने भी मुझसे
यही कहा था कि
जो भी ज्ञान
मैं तुम्हें
दे रहा हूं, गुप्त रखना।
मैं भी गुप्त
रखे हूं। और
तुम गुप्त रख
सकते हो तो
मैं भी गुप्त
रख सकता हूं।
तुमने मुझे
समझा क्या है?
और अब जब
बात उठ ही गई
है तो मैं
तुम्हें बता
दूं कि मेरे
गुरु के गुरु
ने भी यही कहा
था। और मेरे गुरु
ने भी मुझे
कभी बताया
नहीं। ऐसा सदा
से चला आया
है। और तुमको
भी मैंने
बताया नहीं, लेकिन इससे घबड़ाने की
कोई जरूरत
नहीं। तुम
शिष्य खोज
सकते हो, बताने
की कोई
आवश्यकता ही
नहीं है।
गुप्त
ज्ञान चल रहे
हैं। न
तुम्हें पता
है,
न तुम्हारे
गुरु को पता
है, न
तुम्हारे
शिष्य को पता
है। पता होना
बड़ा कठिन है; इतना आसान
नहीं है।
लेकिन
दावेदारी
बहुत आसान है।
तुम भी बताना
चाहोगे। कोई
पूछ भर ले। तुम
प्यासे तड़प
रहे हो, चारों
तरफ घूम रहे
हो कि कोई मिल
भर जाए जो पूछ ले
तुमसे कुछ, और तुम बता
दो।
एक बड़े
मनोवैज्ञानिक
के संबंध में
मैंने सुना है
कि वह एक बड़े
अमीर आदमी की
चिकित्सा कर
रहा था, मनोविश्लेषण
कर रहा था। एक
दिन अमीर आदमी
को आने में
देर हो गई; कोई
पांच-दस मिनट
देर से
पहुंचा।
उस
मनोचिकित्सक
ने बड़ी
नाराजगी से
कहा कि सुनो, अगर
तुम न आए होते
पांच मिनट और
तो मैंने तुम्हारे
बिना ही शुरू
कर दिया होता!
आदमी
इतना ज्यादा
बताने को
उत्सुक है कि
तुम इसकी
फिक्र ही नहीं
करते कि दूसरा
आदमी सुनने को
मौजूद भी है!
जब तुम लोगों
से बात करते
हो तब दूसरा
अक्सर मौजूद
नहीं होता, भागने
की तैयारी में
होता है।
लेकिन तुम
बताने के लिए पकड़े रखते
हो उसको। और
जिन चीजों का
तुम्हें कोई
भी पता नहीं
है। क्या पता
है? ईश्वर
का पता है? मोक्ष
का पता है? स्वर्ग-नरक
का पता है? पाप-पुण्य
का पता है? शुभ-अशुभ
का पता है? जीवन-मृत्यु
का पता है? क्या
पता है? लेकिन
सबको तुम ऐसा
मान कर चलते
हो कि पता है। थोड़ी
जांच-परख करो।
गुरजिएफ
के पास जब रूस
का एक बहुत
बड़ा विचारक ऑसपेंस्की
गया। और ऑसपेंस्की
ने बड़ी ऊंची
किताबें लिखी
थीं। एक किताब
तो उसकी अनूठी
है
मनुष्य-जाति
के पूरे
इतिहास में।
अगर पांच
किताबों के
नाम मुझे लेने
को कहा जाए तो
एक उसकी किताब
का नाम लूंगा।
उसकी किताब
है: टर्शियम आर्गानम।
बड़ी अनूठी
गणित और दर्शन
की किताब है।
कभी हजार साल
में एकाध वैसी
किताब पैदा
होती है। तो
वह आदमी
जग-जाहिर था।
और गुरजिएफ को
कोई भी नहीं
जानता था।
गुरजिएफ एक
साधारण फकीर
था। जब ऑसपेंस्की
गया तब यह
किताब
प्रसिद्ध हो
चुकी थी, छप
चुकी थी।
गुरजिएफ से ऑसपेंस्की
ने कहा कि मैं
कुछ पूछने आया
हूं।
गुरजिएफ
ने कहा, बताऊंगा।
लेकिन पहले यह
कोरा कागज हाथ
में ले लो, बगल
के कमरे में
चले जाओ, और
इस पर एक फेहरिस्त
बना दो, एक
तरफ लिख दो जो
तुम जानते हो,
और दूसरी
तरफ लिख दो जो
तुम नहीं
जानते हो। क्योंकि
तुम बड़े
ज्ञानी हो, तुम्हारी
किताब मैंने
देखी है, तुम
शब्दों के
संबंध में बड़े
कुशल हो। तो
तुम साफ खुद
ही लिख दो कि
जो तुम जानते
हो। उसकी हम कभी
चर्चा न
करेंगे। जब
तुम जानते ही
हो, बात
खतम हो गई। और
साफ-साफ लिख
दो जो तुम
नहीं जानते
हो। बस उसकी
मैं तुमसे
चर्चा
करूंगा।
ऑसपेंस्की ने
लिखा है कि
मेरी जिंदगी
में इतना कठिन
क्षण कभी आया
ही न था। उस
कागज को लेकर
मैं कमरे में
चला गया। और
सर्दी के दिन
थे,
बरफ पड़ रही
थी, और
मेरे माथे से
पसीना चूने
लगा। कलम उठाऊं,
समझ में न
आए कि क्या लिखूं?
क्या जानता
हूं? इस
गुरजिएफ ने तो
मुसीबत में डाल
दिया। बहुत
बार कोशिश की
कि हां, यह
मैं जानता
हूं। लेकिन जब
लिखने गया तब
मुझे साफ हो
गया कि जानता
तो यह भी मैं
नहीं हूं। उधार
है सब जानकारी,
दूसरों से
सीख ली है; अपना
तो कोई भी
अनुभव नहीं
है।
घड़ी भर
बाद आकर कोरा
कागज गुरजिएफ
को दे दिया, और
कहा, कुछ
भी नहीं जानता
हूं; आप
शुरू कर सकते
हैं। और
गुरजिएफ ने ऑसपेंस्की
को और ही ढंग
का आदमी बना
दिया, एक
अनूठा ही आदमी
बना दिया; उसका
सारा जीवन
रूपांतरित कर
दिया।
लेकिन
उस रूपांतरण
की बुनियाद
रखी है ऑसपेंस्की
के स्वीकार
में कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं। और
बड़ा कठिन रहा
होगा ऑसपेंस्की
जैसे जग-जाहिर
व्यक्ति को, जिसको
लोग ज्ञानी
समझते थे, उसे
यह लिखना
निश्चित ही
मुश्किल पड़ा
होगा, यह
कहना मुश्किल
पड़ा होगा कि
मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं।
जिस
दिन तुम कह
सकते हो कि
मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं,
तुम कोरे
कागज की तरह
हो जाते हो।
और अब इस कोरे
कागज पर कुछ
लिखा जा सकता
है।
"जो
उसे भी जानने
का ढोंग करता
है जो वह नहीं
जानता, वह
मन से रुग्ण
है।'
वह
बीमार है।
उसके इलाज की
जरूरत है। इस
अर्थ में सभी
लोग बीमार
हैं। क्योंकि
तुमने सभी ने दावे
किए हैं उन
बातों को
जानने के
जिन्हें तुम
बिलकुल नहीं
जानते।
"और जो
रुग्ण
मानसिकता को
रुग्ण
मानसिकता की तरह
पहचानता है, वह मन से
रुग्ण नहीं
है।'
लेकिन
अगर तुम पहचान
लो अपनी इस
रुग्ण दशा को, तो
तुम स्वस्थ
होने शुरू हो
गए। जिस आदमी
को समझ में आ
जाए कि मैं
जानता तो नहीं
हूं, लेकिन
दावा करता हूं,
उसका सुधार
शुरू ही हो
गया। वह
यात्रा पर चल
पड़ा। उसकी बदलाहट
निकट है। उसका
इलाज प्रारंभ
हो गया। उसके जीवन
में औषधि आ
गई। ऐसा ही
जैसे रात सपने
में अगर
तुम्हें पता
चल जाए कि यह
सपना है, तो
नींद टूट जाती
है। जब तक पता
चलता है, यह
सपना नहीं है,
सत्य है, तभी तक नींद
रहती है। पता
चलना शुरू हुआ
कि यह सपना है
कि सपना गया।
तुम आधे जागे
हो ही गए।
ठीक
ऐसे ही अगर मन
के रोग
तुम्हें
पहचान में आ जाएं।
और यह बड़ा से
बड़ा रोग है।
मनुष्यता
ज्ञान से
बिलकुल
विक्षिप्त हो
गई है।
तुम्हें समझ में
आ जाए कि यह
रोग है, जानता
तो मैं कुछ भी
नहीं हूं।
तत्क्षण तुम
सरल होने
लगोगे, तुम्हारी
ग्रंथियां
खुल जाएंगी।
"संत
मन से रुग्ण
नहीं हैं।'
और
लाओत्से कहता
है,
वही संत है
जो साफ-साफ
जानता है कि
मैं कुछ भी नहीं
जानता। जितना
तुम जागोगे
उतना ही
तुम्हें पता
चलेगा कि तुम
क्या जानते
हो! एक ऐसी घड़ी
आती है कि सब ज्ञान
खो जाता है; तुम परम
अज्ञान में
खड़े रह जाते
हो। उस परम अज्ञान
के मौन का कोई
मुकाबला नहीं
है। उस परम अज्ञान
की शांति का
कोई मुकाबला
नहीं है। उस
परम अज्ञान
में बड़ा
प्रकाश है। और
तुम्हारे ज्ञान
में महा
अंधकार था। उस
परम ज्ञान--या
परम अज्ञान--के
क्षण में अचानक
तुम खो गए, मिट
गए, पिघल
गए, और
तुम्हारी जगह
कुछ और अवतरित
होने लगा। वही
सत्य है। वही
ब्रह्म है।
"संत
मन से रुग्ण
नहीं हैं।
क्योंकि वे
रुग्ण मानसिकता
को रुग्ण
मानसिकता की
तरह पहचानते हैं,
इसलिए मन से
रुग्ण नहीं
हैं।'
बड़ी
अनूठी
क्रांति घटित
होती है अगर
तुम अपनी
स्थिति को
ठीक-ठीक पहचान
लो। स्थिति को
ठीक-ठीक पहचान
लेना, क्रांति
शुरू हो गई।
अगर कोई पागल
आदमी मान ले
और जान ले कि
पागल है, वह
आदमी ठीक होना
शुरू हो गया।
पागल कभी नहीं
मानते।
पागलखाने में
जाकर तुम देखो,
कोई पागल
मानने को राजी
नहीं हो सकता
कि वह पागल
है। सारी
दुनिया को
पागल समझता है,
खुद को पागल
नहीं समझता।
जो लोग
पागलों की
चिकित्सा
करते हैं, वे
कहते हैं कि
जब कोई पागल
यह समझने लगता
है कि वह पागल
है, तब हम
जानते हैं कि
अब वह ठीक
होने के करीब
आ गया।
क्योंकि इतना
होश आ जाना कि
मैं पागल हूं,
काफी ठीक हो
जाना है। कौन
जानेगा कि मैं
पागल हूं! जो
जान रहा है वह
पागलपन से अलग
हो गया, भिन्न
हो गया। मन
दूर रह गया; चेतना ऊपर
उठ गई। तभी तो
चेतना जान
सकती है कि मैं
पागल हूं।
अब यह
तो बड़ी अदभुत
बात हो गई। यह
तो ऐसा उलटा हो
गया हिसाब कि
जो समझते हैं
कि हम पागल
नहीं हैं वे
पागल हैं। और
जो समझते हैं
कि हम पागल हैं
वे पागल नहीं
हैं।
तुम्हें
कभी खयाल आया
कि तुम पागल
हो?
कभी तुम
शांत होकर
भीतर मन को
देखे कि कितना
पागलपन चल रहा
है? कभी एक
कोरे कागज को
लेकर बैठ जाओ
और मन में जो भी
चलता हो लिख डालो।
जैसा चलता हो
वैसा ही लिख डालो; जरा
भी बदलो
मत। तुम बड़े
हैरान होगे, तुम पाओगे
कि यह तो
बिलकुल
पागलपन है।
लेकिन
तुम पीठ किए
खड़े हो अपने
ही मन की तरफ, और
तुम्हारा
पागलपन बढ़ता
जाता है। हर
आदमी पागल
होने के करीब
है। मनसविद
कहते हैं कि
सौ में से
पचहत्तर आदमी
बिलकुल पागलपन
के करीब ही खड़े
हैं। जरा सा
धक्का--दिवाला
निकल जाए, पत्नी
मर जाए, बच्चा
मर जाए, कोई
एक्सीडेंट हो
जाए, आग लग
जाए मकान
में--जरा सा
धक्का, और
वे पागल हो
जाएंगे। वे
निन्यानबे
डिग्री पर
हैं। एक
डिग्री और, सौ डिग्री
पर वे पागल हो
जाएंगे।
हर
आदमी
करीब-करीब
पागलपन के
करीब है, मगर
पता किसी को
भी नहीं। मजे
से तुम जीए
चले जाते हो; अपने पागलपन
को भीतर दबाए
रखते हो, बाहर
एक चेहरा बनाए
रखते हो। इस
चेहरे के पीछे
झांकना जरूरी
है। अन्यथा
खतरा है कि
तुम कभी पागल
हो जाओगे। या
तो मनुष्य
विक्षिप्त हो
सकता है या
विमुक्त हो
सकता है, दो
उपाय हैं। जो
विमुक्त न
होगा वह
विक्षिप्त हो
जाएगा। और
जिसे
विक्षिप्त
होने से बचना
हो उसे विमुक्त
होने की
चेष्टा करनी
चाहिए। और
विमुक्त होने
का पहला लक्षण
कि तुम अपने
पागलपन को ठीक-ठीक
पहचान लो, सब
तरफ से उसका
निरीक्षण कर
लो। इस
निरीक्षण में
ही तुम पाओगे
कि तुम मालिक
होने लगे। मन
का ठीक-ठीक
निरीक्षण
तुम्हें मन का
मालिक बना
देगा।
और अगर
तुम अपने रोग
को जान लो, जैसा
रोग है, तो
एक बड़ी सूत्र
की बात है।
शरीर की
चिकित्सा में
निदान के बाद
औषधि की जरूरत
पड़ती है, डायग्नोसिस पहले। और जो
लोग शरीर की
चिकित्सा
करते हैं उन्हें
पता है कि
असली चीज डायग्नोसिस
है; निदान
बड़ी से बड़ी
चीज है; औषधि
तो कोई भी बता
देगा, एक
दफा निदान हो
जाए बीमारी
का। तो ठीक से
समझा जाए तो
नब्बे
प्रतिशत तो
निदान और दस
प्रतिशत
औषधि--शरीर की
चिकित्सा
में। मन की
चिकित्सा में
सूत्र और भी
गहन है। वहां
तो सौ प्रतिशत
निदान।
क्योंकि
निदान ही वहां
चिकित्सा है।
तुम अगर ठीक
से जान लो कि
तुम्हारी
बीमारी क्या
है, बात
समाप्त हो गई।
तुम सचेतन हो
जाओ बीमारी के
प्रति, तुम्हारी
सचेतना
की अग्नि में
ही बीमारी राख
हो जाती है।
इसलिए
ज्ञानियों ने
एक ही बात कही
है बार-बार, हजार
बार, कि
तुम जाग जाओ
तो मन समाप्त
हो जाता है; तुम होश से
भर जाओ, बस
इतना ही काफी
है। बुद्ध ने
कहा है, सम्यक
स्मृति, राइट
माइंडफुलनेस।
कृष्णमूर्ति
चिल्लाए चले
जाते हैं, अवेयरनेस,
जागो, होश सम्हाल
लो। कबीर कहते
हैं, सुरति,
होश।
महावीर से
किसी ने पूछा,
साधु कौन? तो महावीर
ने कहा, असुत्ता मुनि। जो
सोया हुआ नहीं,
वह साधु, वह मुनि। और
असाधु कौन? तो महावीर
ने कहा, सुत्ता अमुनि।
जो सोया हुआ
है, जो
जागा हुआ नहीं,
वह असाधु।
महावीर ने यह
नहीं कहा कि
जो बुरा करता
है वह असाधु; महावीर ने
यह नहीं कहा
कि जो भला
करता है वह साधु।
महावीर ने कहा,
जो जागा हुआ
है वह साधु, और जो सोया
हुआ है वह
असाधु।
तुम्हारे
सोए होने में
ही सारा रोग
है। तुम्हारे
जागने में ही
निदान है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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