सूत्र :
समाधातुं
वाह्मादृष्ट्या
प्रारब्धं
वदीत श्रुति:।
न तु
देहादिसत्यत्व
बोधनाय
विपीश्चताम्।।
60।।
पीरपूर्णमनाद्यन्तमप्रमेयमीवक्तियम्।
सद्घनं
चिद्घनं
नित्यमानन्दघनमव्यम्।।
611।
प्रत्कोकरसं
पूर्णमनन्त
सर्वतोमुखम्।
अहेयमुनपादेयमनधेयमनाश्रयम्।।
62।।
निर्गुण
निष्क्रियं
सूक्ष्मं
निर्विकल्प
निरंजनम्।
अनिरूप्यस्वरूपं
यन्मनोवाचामगोचरम्।।
63।।
सत्समृद्धं
स्वत: सिद्ध
शुद्धं
बुद्धिमनीदृशम्।
एकमेवढ़यं
ब्रह्म नेह
नानाऽस्ति
किंचन।। 64।।
स्वानुभूत्या
स्वयं
ज्ञात्वा
स्वमात्मानमखीडतम्।
स सिद्ध:
सुसुखं
तिष्ठन्
निर्विकल्पात्मनाऽत्मत्रि।।
65।।
देह आदि
सत्य है, ऐसा
ज्ञानियों को
समझाने के लिए
श्रुति प्रारब्ध
कर्म की बात
नहीं कहती। पर
अज्ञानियों
का समाधान
करने के लिए
ही श्रुति
प्रारब्ध
कर्म की बात
कहती है। वास्तव
में परिपूर्ण,
आदि—अंतरहित,
अमाप (नाप
सकने में
असंभव), विकाररहित,
सत्तामय, चैतन्यमय, नित्य, आनंदमय,
अविनाशी, हर एक में
व्यापक होने
वाला, एकरस
वाला, पर्णू,
अनंत, सर्व
तरफ मुख वाला,
त्याग कर
सकने में अथवा
ग्रहण कर सकने
में अशक्य, आधार के ऊपर
नहीं रहने
वाला, आश्रयरहित,
निर्गुण, क्रियारहित,
सूक्ष्म, विकल्परहित,
स्वतःसिद्ध,
शुद्ध—बुद्ध,
अमुक के
समान नहीं, एक और
अद्वैत
ब्रह्म ही सब
कुछ है, और
कोई भी नहीं।
इस प्रकार
अपने अनुभव से
स्वयं ही अपनी
आत्मा को
अखंडित जान कर
तू सिद्ध हो, और
निर्विकल्प
स्वरूप आत्मा
में ही अत्यंत
सुखपूर्वक
स्थिति कर।
देह
आदि सत्य है, ऐसा
ज्ञानियों को
समझाने के लिए
श्रुति प्रारब्ध
कर्म की बात
नहीं कहती। पर
अज्ञानियों का
समाधान करने
के लिए ही
श्रुति प्रारब्ध
कर्म की बात
कहती है।’
जो
कहा जाता है, वह उससे
ही संबंधित
नहीं होता जो
कहता है, बल्कि
उससे भी
संबंधित होता
है जिससे कहा
जाता है।
ज्यादा
महत्वपूर्ण
वही है, जिससे
कहा जा रहा है :
जो उसकी समझ
में आ सके, जो
उसकी बुद्धि
के पार न पड़
जाए; जो
उसे उलझा न दे,
सुलझाए; जो
उसके लिए
मार्ग बने, ऊहापोह नहीं,
जो उसके लिए
मात्र चिंतन
की यात्रा न
हो जाए, वरन
जीवन को बदलने
की व्यवस्था
हो।
तो
यह सूत्र कहता
है कि श्रुति
अज्ञानियों
से और भाषा
में बोलती है, ज्ञानियों
से और भाषा
में। सच तो यह
है कि बुद्ध
पुरुष
प्रत्येक
व्यक्ति से
दूसरी भाषा
में बोलते
हैं। और
इसीलिए शास्त्र
में इतनी
असंगतियां
हैं; क्योंकि
वक्तव्य अलग—
अलग लोगों के
लिए दिए गए
हैं।
बुद्ध
आज कुछ कहते
हैं, कल
कुछ कहते हैं,
परसों कुछ
कहते हैं। और
मुश्किल हो
जाती है यह
सोच कर कि ये
तीनों बातें
एक ही व्यक्ति
ने कैसे कही
होंगी!
क्योंकि
तीनों में
विपरीतता है,
विरोध है, कोई संगति
नहीं है। और
बुद्ध को
मानने वाला जबरदस्ती
संगति बिठाने
की चेष्टा
करता है, ताकि
बुद्ध असंगत न
मालूम पड़े। पर
वास्तविक बात
केवल इतनी है
कि बोलने वाला
तो तीनों में
एक है, लेकिन
सुनने वाला
तीनों में अलग
था। और सुनने
वालों को
ध्यान में रख
कर कही गई
बातें.।
चिकित्सक
एक हो, लेकिन
बीमार अलग—
अलग होंगे तो
दवा अलग— अलग
हो जाएगी।
बुद्ध के वचन
सिद्धात नहीं
हैं। बुद्ध
पुरुषों के
वचन सिद्धात
नहीं हैं—दवाइयां
हैं, औषधियां
हैं। और इसलिए
यह जानना
जरूरी है कि किससे
कही गई है
बात।
श्रुति
अज्ञानियों
से कुछ और
कहती है, ज्ञानियों
से कुछ और
कहती है।
ज्ञानियों से
कहती है कि
देह है ही
नहीं, अज्ञानियों
से कहती है
देह है, लेकिन
तुम देह नहीं
हो।
ज्ञानियों से
कहती है देह
है ही नहीं, बस तुम ही हो;
अज्ञानियों
से कहती है
देह है, लेकिन
तुम देह नहीं
हो।
ये
दोनों बातें
विपरीत हैं।
अगर देह नहीं
है, तो
नहीं है, चाहे
ज्ञानी से कही
जाए, चाहे
अज्ञानी से
कही जाए। और
अगर देह है, तो है, फिर
तानी— अज्ञानी
से क्या फर्क
पड़ेगा? इसे
थोड़ा हम
सूक्ष्मता से
समझ लें।
एक
तो ऐसे सत्य
हैं, जिन्हें
हम तथ्य कहते
हैं, आब्जेक्टिव
फैक्ट्स।
सुबह है। तो
जानी हो या अज्ञानी,
इससे क्या
फर्क पड़ता है!
सुबह है। और
रात हो गई, सूरज
ढल गया। तो
तानी हो या
अज्ञानी, इससे
क्या फर्क
पड़ता है! सूरज
ढल गया और रात
हो गई।
वितान
तथ्यों की खोज
करता है, इसलिए विज्ञान
संगत भाषा
बोलता है।
विज्ञान, बाहर
जो है उसकी
बात करता है।
इसलिए
विज्ञान की
भाषा में बड़ी
संगति, कसिस्टेंसी
है।
धर्म, भीतर जो
देखने वाला है
उसके अनुकूल
भाषा बोलता है,
सब्जेक्टिव
है। तथ्य पर
उतना जोर नहीं
है, जितना
दृष्टि पर जोर
है। तो जो
देखता है उसके
हिसाब से भेद
पड़ जाते हैं।
तानी
जब देखता है
तो देह दिखाई
ही नहीं पड़ती, अज्ञानी
जब देखता है
तो आत्मा का
कोई पता नहीं
चलता।
अज्ञानी के
देखने का ढंग
ऐसा है कि देह ही
पकड़ में आती
है, और
ज्ञानी के
देखने का ढंग
ऐसा है कि
आत्मा ही पकड़
में आती है।
ज्ञानी को देह
दिखाई पड़नी
असंभव है, अज्ञानी
को आत्मा
दिखाई पड़नी
असंभव है।
इसीलिए तो शंकर
जैसे मनीषी कह
सके कि जगत
मिथ्या है, है ही नहीं।
और बृहस्पति
जैसे
पदार्थवादी
कह सके कि
आत्मा—परमात्मा
सब असत्य हैं,
केवल
पदार्थ है। इन
दोनों में कोई
विरोध नहीं है,
क्योंकि इन
दोनों में
कहीं कोई मिलन
ही नहीं होता।
ये दो अलग ढंग
से देखे गए
वक्तव्य हैं।
जीवन को देखने
की व्यवस्था
ही दोनों की
अलग है। जहां
से शंकर देखते
हैं, वहा
जगत दिखाई
नहीं पड़ता, जहां से
चार्वाक
देखता है, वहा
से जगत ही
दिखाई पड़ता
है। यह दृष्टि—
भेद है। यह
वक्तव्य
बिलकुल अलग—
अलग देखे गए
लोगों के वक्तव्य
हैं, जिनके
देखने का ढंग
अलग है।
जैसे
समझें कि अगर
सुगंध ही आपकी
परख का ढंग हो, अगर नाक
ही सिर्फ आपके
पास हो और गंध
से ही आप पता
लगाते हों।
बहुत से पशु—पक्षी
हैं, बहुत
से कीड़े—मकोड़े
हैं, जो
गंध से ही
जीते हैं, गंध
के ही आधार
चलते हैं; गंध
ही उनकी आंख है,
गंध ही उनका
मार्ग खोजने
का ढंग है।
ऐसे कीड़े—मकोड़ों
को, जो गंध
से ही चलते
हैं, संगीत
का कोई भी पता
नहीं चलेगा, क्योंकि गंध
से संगीत को
जांचने का कोई
उपाय नहीं है।
संगीत में कोई
गंध होती ही
नहीं। अच्छा
संगीत हो तो
सुगंध नहीं
होती और बुरा
संगीत हो तो दुर्गंध
नहीं होती, गंध का
ध्वनि से कोई
लेना—देना
नहीं है।
तो
जिसके पास
जांचने की
व्यवस्था गंध
की हो, वह
ध्वनि से
अपरिचित रह
जाएगा, उसके
लिए ध्वनि है
ही नहीं।
हमारे लिए वही
है जगत में, जिसको
जांचने का
हमारे पास
उपाय है।
ध्यान
रहे, हमारे
पास पांच
इंद्रियां हैं।
इसलिए हमें
पांच महाभूत
का पता चलता
है। अगर दस
इंद्रियां
हों तो दस
महाभूतों का
पता चलेगा।
आदमी से नीचे
पशु हैं, जिनके
पास चार
इंद्रियां
हैं, तीन
इंद्रियां
हैं, दो
इंद्रियां
हैं, तो
जितनी उनकी
इंद्रियां
हैं, उतना
ही उनका जगत
है। जिस पशु
के पास कान
नहीं हैं, और
सब है, उसके
लिए ध्वनि का
कोई अस्तित्व
ही नहीं है। इसलिए
नहीं कि ध्वनि
नहीं है, लेकिन
ध्वनि को
पकड़ने का उपाय
न हो तो आपके
लिए तो ध्वनि
नहीं हो जाती
है, यह जगत
शून्य है
ध्वनि से। कान
नहीं हैं तो
जगत में कोई
ध्वनि नहीं
है। आंख नहीं
है तो जगत में
कोई प्रकाश
नहीं है। तो
आप किस माध्यम
से खोजने चलते
हैं, वही
आपको मिलता
है। आपका
माध्यम ही
आपका जगत है।
अज्ञानी
शरीर के
माध्यम से
खोजता है।
इसलिए अज्ञानी
अक्सर पूछता
है, कहां
है ईश्वर? दिखा
दो! वह यह कह
रहा है, जब
तक मेरी आंख
गवाही न दे, मैं न
मानूंगा। वह
कह क्या रहा
है? जब आप
कहते हैं, जब
तक ईश्वर का
दर्शन न होगा,
हम नहीं मान
सकते, आप
क्या कह रहे
हैं? आप यह
कह रहे हैं कि
जब तक ईश्वर
मेरी आंख का
विषय न बने, तब तक मानने
का मेरे पास
कोई उपाय नहीं
है।
लेकिन
आपको यह किसने
कहा कि ईश्वर आंख
का विषय है? अगर वह आंख
का विषय है ही
नहीं, तो
फिर आपका मिलन
उससे कभी नहीं
होगा, क्योंकि
जो जिद आप कर
रहे हैं आंख
की, उससे
उसका कोई
संबंध ही नहीं
हो पाएगा। रूप
होता है आंख
का विषय और
समस्त ज्ञानी
कहते हैं कि
ईश्वर अरूप
है। और आप
कहते हैं हम आंख
से देखेंगे, तब मानेंगे।
तो आपने न
मानने का
निर्णय पक्का कर
लिया है। और
कोई उपाय नहीं
है कभी भी कि
आप आंख से
ईश्वर को देख
सकें।
क्योंकि
जिसका अरूप होना
स्वभाव है, उसको आप रूप
में कैसे
देखेंगे?
और
ध्यान रहे, अगर आपको
कभी ईश्वर रूप
में दिख जाए, तो आप फौरन
कहेंगे, यह
ईश्वर नहीं हो
सकता, क्योंकि
शास्त्रों
में कहा है वह
अरूप है।
मार्क्स
ने मजाक की
है। मार्क्स
ने कहा है, मैं किसी
ईश्वर को नहीं
मानता हूं, नहीं
मान सकता हूं
क्योंकि मैं
तो उसी तथ्य
को मानता हूं
जो वितान—प्रमाणित
हो। अगर ईश्वर
को मैं
प्रयोगशाला में
विज्ञान की, टेस्ट—टयूब
में जांच सकूं?
प्रयोगशाला
की टेबल पर रख
कर शल्य—क्रिया
कर सकूं? सब
तरफ छान—बीन
कर सकूं भीतर,
तो ही मान
सकता हूं।
लेकिन फिर
उसने मजाक में
यह भी कहा है, लेकिन अगर
कभी ईश्वर ने
ऐसी भूल की कि
वह प्रयोगशाला
की टेस्ट—टयूब
में और
प्रयोगशाला
की टेबल पर आकर
जांच—परीक्षा
करवाने को
राजी हो गया, तो फिर वह
ईश्वर न रह
जाएगा।
निश्चित ही, जिसको आप
टेस्ट—टयूब
में बंद करके
जांच लेंगे, उससे आप बड़े
हो जाएंगे।
जिसको आप टेबल
पर काट—पीट
करके समझ—बूझ
लेंगे भीतर
क्या है, वह
पदार्थवत हो
जाएगा, वह
ईश्वर नहीं रह
जाएगा।
तो
हमारी मांग
ऐसी है कि अगर
पूरी न हो तो
कठिनाई है, अगर पूरी
हो जाए तो
कठिनाई है।
लोग कहते हैं
कि जब तक हम
ईश्वर को
प्रत्यक्ष न
कर ले, आंख
के सामने न कर
लें—प्रत्यक्ष
का मतलब होता
है, आंख के
सामने—तब तक
हम न मानेंगे।
तो उन्होंने
एक बात तय कर रखी
है कि जो आंख
के सामने है, उतना ही
उनका संसार
है। जो आंख के
सामने नहीं है,
वह नहीं है।
जगत
बड़ा है। तब
जानी क्या करे
न: जिसने उसे
देख लिया है
जो आंख से
दिखाई नहीं
पड़ता, जिसने
आंख बंद करके
उसे देख लिया
है जो खुली आंख
से दिखाई नहीं
पड़ता, जिसने
कान बंद करके
उसे सुन लिया
है जो खुले
कान से सुनाई
नहीं पड़ता, और जिसने
बिना हाथ से
स्पर्श किए
अंतस्तल में उसका
स्पर्श पा
लिया है, वह
किस भाषा में
बोले? अज्ञानी
समझ सके—तो
उसे कुछ और
ढंग से कहना
होगा। और अगर
वही बात वह
ज्ञानी से कहे,
तो ज्ञानी
को हंसी आएगी।
मुसलमान
फकीर शेख फरीद
और कबीर का
मिलना हुआ था।
तो दोनों में
बात न हुई। दो दिन
तक साथ रहे, हंसे, गले
मिले, पास
बैठे, घंटों
बैठे—कोई बात
न हुई! बड़ी भीड़
इकट्ठी हो गई
थी। कबीर के
भक्त, फरीद
के भक्त, और
कुतूहलवश
बहुत लोग आ गए
थे कि कबीर और
फरीद का मिलना
हुआ है, कुछ
बात कीमत की
होगी, थोड़ा
हम भी सुन
लेंगे।
लेकिन
दो दिन ऐसे ही
बीत गए! फिर
विदा का क्षण
भी आ गया। बड़ी
निराशा हुई।
जो इकट्ठे हुए
थे सुनने, बड़े उदास
हुए। और कहा, यह भी क्या
मामला है? इतने
बड़े दो
अनुभवियों का
मिलना हुआ, कुछ बात
होती तो हमारे
लाभ की हो
जाती। लेकिन कबीर
और फरीद की
मौजूदगी में
पूछने की किसी
की हिम्मत भी
न पड़ी।
फिर
जब फरीद चल
पड़ा अपनी
यात्रा पर तो
उसके भक्तों
ने उसे कहा कि
यह भी क्या
हुआ, कुछ
बोलते आप! तो
फरीद ने कहा, जो बोलता, वह अज्ञानी
साबित होता।
जो बोलता, वह
अज्ञानी
साबित होता!
और फिर बोलते
भी क्या? जो
मैं जानता हूं,
वही
कबीर भी जानते
हैं, जहा
से वे देख रहे
हैं, वहीं
से मैं देख
रहा हूं।
कबीर
से भी पूछा
उनके मित्रों
ने, आश्रमवासियों
ने।
कबीर
ने कहा, पागल हुए हो!
हंस सकते थे
ज्यादा से
ज्यादा कि उन
दो का मिलन हो
रहा हैं जो दो
हैं ही नहीं, जो मिल ही
चुके हैं।
बोलना किससे था?
कबीर
ने कहा है कि
बोलने की घटना
घटती कब है? दो
अज्ञानी काफी
बोलते हैं एक—दूसरे
से। हालांकि न
एक दूसरे को
समझता है, न
दूसरा पहले को
समझता है। दो
अज्ञानी डट कर
चर्चा करते
हैं, परिणाम
कुछ नहीं होता—विवाद;
कहीं कुछ
लेन—देन नहीं
होता, कोई
निष्कर्ष
नहीं होता, विवाद होता
है। तो दो
अज्ञानियों
की चर्चा शब्दों
में होती है, हालांकि
शब्द कहीं
पहुंचते
नहीं। दो जानी
भी मिलते हैं;
शब्द का
उपयोग असंभव
हो जाता है।
मौन में मिलना
होता है, शब्द
नहीं बोले
जाते।
क्योंकि
दोनों के दर्शन
एक, दृष्टि
एक, अनुभव
एक—कहने को
क्या है?
फिर
बोलना कब घटित
होता है? जब एक
अज्ञानी और एक
ज्ञानी मिलता
है, तभी
बोलना घटित
होता है। जब
एक जानता है
और एक नहीं
जानता तो
बोलने का कोई
अर्थ है, जब
दोनों जानते
हैं तो बोलने
का कोई भी
अर्थ नहीं है।
और जब दोनों
नहीं जानते
हैं, तो
रुक नहीं सकते
बोलने से। बोलेंगे
बहुत, अर्थ
कोई भी नहीं
है। तीन ही
उपाय हैं।
तो
जब ज्ञानी
अज्ञानी से
मिलता है तो
वह क्या
बोलेगा?
एक
तो उपाय यह है
कि जो उसका
अनुभव है वह
बोले चला जाए, बिना
फिक्र किए कि
किससे बोल रहा
है। तब उसकी बातें
दीवालों से हो
रही हैं; तब
कोई उसको
सुनेगा नहीं,
समझेगा भी
नहीं; या
गलत समझेगा।
जो वह कहेगा, उससे विपरीत
समझेगा।
अनर्थ होगा, अर्थ नहीं
होगा। इससे तो
चुप रह जाना
बेहतर है। या
फिर अज्ञानी
जो समझ सके वह
बोले।
अज्ञानी गलत
ही समझ सकता
है। तो क्या
ऐसा कोई उपाय
है कि गलत को
इस ढंग से
बोला जाए कि
सही की तरफ
अज्ञानी का
मुंह हो जाए? बस इतना ही
ध्यान में
रखना जरूरी
है।
देह
है नहीं, लेकिन
अज्ञानी को
देह ही है। तो
क्या किया जाए?
बीच का कोई
मार्ग, विधि
खोजी जाए कि
अज्ञानी को
कहा जाए देह
भी है, तुम
भी हो, लेकिन
तुम देह नहीं
हो, इसकी
तलाश में लगो!
अगर अज्ञानी
से यह कहा जाए कि
देह है ही
नहीं, तलाश
ही बंद हो
जाती है। वह
कहेगा, अब
बस चुप रहें।
देह नहीं है? और मुझे देह
के सिवाय कुछ
अनुभव नहीं
होता! देह ही
है। वह कहेगा,
आत्मा
वगैरह कुछ भी
नहीं है। और
उसके कहने में
गलती नहीं है,
उसका जो
अनुभव है, वह
कह रहा है।
तानी का जो
अनुभव है, वह
कह रहा है, अज्ञानी
का जो अनुभव
है, वह कह
रहा है।
आपने
अपने को देह
के अतिरिक्त
कभी भी जाना
है? कभी
ऐसी कोई झलक
आपको मिली है
कि आपको पता
लगे कि मैं
देह नहीं हू? आपको यह
पक्का भरोसा
है कि अगर
आपकी गर्दन
काट दी जाए तो
आप नहीं
कटेंगे? आपको
इसकी थोड़ी सी
भी प्रतीति है
कि जब लाश
आपकी जलाई
जाएगी मरघट में
तो आप नहीं
जलेंगे न:
असंभव
है! क्योंकि
जब पैर में
काटा गड़ता है
छोटा सा तो आप
में गड़ जाता
है, हाथ
जल जाता है तो
आप जल जाते
हैं। तो जब
पूरा शरीर
जलेगा तो यह
आशा रखनी
असंभव है कि
आप नहीं जलेंगे।
जरा सी चोट, जरा सी गाली
आप में प्रवेश
कर जाती है, तो जब
मृत्यु आप में
घुसेगी तो आप
में प्रवेश नहीं
करेगी, यह
आप मत सोचना।
आपको कोई
अनुभव नहीं है
कि आप शरीर के
अलावा भी कुछ
हैं, इतना
ही अनुभव है
कि शरीर हूं।
ही, आप
मानते हों भला
कि मैं आत्मा
हूं और मरूंगा
नहीं, वह
आपकी मान्यता
है। और
मान्यता बड़ी
धोखे की है।
और वह मान्यता
भी अज्ञान का
ही हिस्सा है।
सभी आदमी मानना
चाहते हैं कि
न मरें। कोई
मरना नहीं
चाहता।
इस
थोड़ी बात को
खयाल में ले
लें। कोई मरना
नहीं चाहता।
और जो भी मरना
नहीं चाहता
उसको पक्का
पता है कि
मरना पड़ेगा, इसीलिए
तो मरना नहीं
चाहता।
ज्ञानी मरना
चाहता है, अज्ञानी
मरना नहीं
चाहता।
ज्ञानी मरना
चाहता है, क्योंकि
वह जानता है
कि मरने से भी
कुछ मरता नहीं
है। इतनी
मृत्यु में
प्रवेश करना
चाहता है, क्योंकि
वह जानता है
कि मृत्यु में
प्रवेश करके
अमृत का
शुद्धतम
अनुभव होगा।
जहा विपरीत
होता है, वहां
अनुभव आसान
होता है। सफेद
रेखा खींच दें
काले ब्लैक
बोर्ड पर, चमक
कर दिखाई पड़ती
है। बादल घिरे
हों काले, बिजली
चमकती है, साफ
दिखाई पड़ती
है। दिन में
सफेद बादलों
में बिजली
चमके, दिखाई
नहीं पड़ती।
ज्ञानी
मृत्यु में
प्रवेश करना
चाहता है—आग्रहपूर्वक,
आनंदपूर्वक,
अहोभावपूर्वक—ताकि
वह जो अमृत
भीतर छिपा है,
चारों तरफ
मृत्यु के
काले बादल घिर
जाएं, तो
वह अमृत की
लकीर, वह
शुभ रेखा कौंध
जाए, और
अनुभव साफ—साफ
हो जाए कि
मृत्यु सदा
मेरे चारों ओर
घटती है, मुझमें
कभी नहीं
घटती।
अज्ञानी
मृत्यु में जाने
से डरता है, भयभीत होता
है, क्योंकि
उसे पक्का पता
है कि मृत्यु
का मतलब समाप्ति,
कुछ बचेगा
नहीं।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि
इसीलिए
अज्ञानी, कि बिलकुल
मर न जाए, आत्मा
अमर है, ऐसा
विश्वास करता
है। यह
विश्वास ज्ञान
के कारण नहीं,
यह विश्वास
भय के कारण
है। इसीलिए
जवान आदमी
आत्मा वगैरह
में उतना
विश्वास नहीं
करता। जैसे—जैसे
का होने लगता
है, ज्यादा
विश्वास करता
है। क्योंकि
मौत करीब आती
है, भय बड़ा
होने लगता है।
खाट पर पड़ा
हुआ मरता आदमी
आमतौर से
धार्मिक हो
जाता है। जो
खाट पर भी अधार्मिक
है, वह जरा
हिम्मत का
आदमी है। मरते
वक्त भी जो
अधार्मिक है,
वह जरा
हिम्मत का
आदमी है। बड़े
से बड़ा
नास्तिक भी
मरते वक्त
डावाडोल होने
लगता है, और
सोचता है पता
नहीं र और फिर
मौत का भय और
उस अंधेरे में
प्रवेश। उस भय
के कारण वह सब
सिद्धातों को
पकड़ लेता है।
आप
भी मानते हैं
कि आत्मा अमर
है, यद्यपि
आप जानते हैं
कि मैं शरीर
से ज्यादा कुछ
भी नहीं हूं।
किस आत्मा की
बात कर रहे
हैं जो अमर है,
जिसका आपको
कोई अनुभव
नहीं है!
जिसकी किंचित
मात्र
प्रतीति नहीं
हुई, वह
अमर है, आप
कह रहे हैं!
आपका भय आपका
सिद्धात बन
जाता है।
जितने भयभीत
लोग होते हैं,
जल्दी
आत्मवादी हो जाते
हैं।
इसलिए
हमारे मुल्क
में दिखाई
पड़ती है यह
घटना, कि
पूरा मुल्क
आत्मवादी है
और अंधेरे में
जाने से डर
लगता है, और
आत्मा का
पक्का भरोसा
है! मौत से
प्राण कंपते
हैं, आत्मा
का पक्का
भरोसा है!
आत्मवादियो
का मुल्क एक
हजार साल तक
गुलाम रहा!
आत्मवादियों
के मुल्क पर
कोई भी छोटी—मोटी
कौम हावी हो
गई! और
आत्मवादी
आत्मा को मानते
रहे कि आत्मा
अमर है, लेकिन
युद्ध के
मैदान पर जाने
में डरते रहे!
भय
आपके सिद्धात
का आधार है—अनुभव
नहीं, ज्ञान
नहीं। नहीं तो
आत्मवादी को
तो कोई गुलाम
बना ही नहीं
सकता। उसको तो
कोई भय ही
नहीं है। आखिर
गुलामी बनती
ही भय के कारण
है कि मार डालेंगे
अगर नहीं
गुलाम बनोगे
तो। तो आदमी
इस कीमत पर, जिंदा रहने
की कीमत पर, गुलाम रहना
भी पसंद कर
लेता है, मरना
नहीं चाहता
है।
अगर
यह मुल्क सच
में आत्मवादी
होता, जैसा
कि लोग कहते
फिरते हैं, तो यह मुल्क
कभी गुलाम नहीं
हो सकता था।
यह पूरा मुल्क
कट जाता, और
कहता कि न
शस्त्रों से
हमें छेदा जा
सकता है—नैनम्
छिन्दति
शस्त्राणि—न
आग से हमें
जलाया जा सकता
है। तो जलाओ
और छेदो! इस
मुल्क को
गुलाम बनाना
असंभव था, अगर
यह आत्मवादी
होता। लेकिन
यह आत्मवादी
वगैरह नहीं है,
परिपूर्ण देहवादी
है। लेकिन भय
के कारण आत्मा
को माने चला
जाता है।
आपकी
प्रतीति तो
देह की है कि
मैं देह हूं
और तानी की
प्रतीति है कि
देह है ही
नहीं। तो कहां
बने
मिलन, जहां
आप एक—दूसरे
की भाषा समझ
सकें? तो
श्रुति ने एक
उपाय खोजा है,
शास्त्र ने
एक विधि खोजी
है, वह यह, कि आपको
बिलकुल इनकार
करना उचित
नहीं होगा कि देह
है ही नहीं।
वह इनकार तो
आपका दरवाजा
बंद कर देगा, फिर तो आपकी
समझ मुश्किल
हो जाएगी। तो
आपके लिए कहते
हैं कि देह
है। इससे
अज्ञानी
आश्वस्त हो
जाता है कि हम
बिलकुल गलत
नहीं हैं, देह
है, हमारी
मान्यता भी
ठीक है। इससे
यस मूड पैदा
होता है। इससे
ही का भाव पैदा
होता है।
अमरीकी
विचारक डेल
कारनेगी ने यस
मूड पर बड़ा काम
किया है, हा का भाव।
उसका कोई धर्म
से लेना—देना
नहीं। वह तो
चीजें कैसे
बेची जाएं, सेल्समैनशिप,
उसका जाता
है; मित्रता
कैसे खरीदी
जाए, उसका
ज्ञाता है।
उसकी किताब, हाऊ टु विन
फ्रेंड्स एंड
इनश्वएंस
पीपुल, बाइबिल
के बाद सबसे
ज्यादा बिकने
वाली किताब है
दुनिया में।
कैसे दोस्ती
जीती जाए और
कैसे लोग
प्रभावित किए
जाएं, सीक्रेट
फार्मूला है
हाऊ टु क्रिएट
दि यस मूड—दूसरे
आदमी में ही
का भाव कैसे
पैदा किया
जाए। जब ही का
भाव पैदा हो
जाता है तो न
करना मुश्किल
होने लगता है।
तो
डेल कारनेगी
कहता है कि
अगर किसी को
प्रभावित
करना हो, किसी को
बदलना हो, किसी
का विचार
रूपांतरित
करना हो, तो
ऐसी बात मत
कहना जिसको वह
पहले ही मौके
पर न कह दे।
क्योंकि अगर
उसने पहले ही
न कह दी, तो
उसका न का भाव
मजबूत हो गया।
अब दूसरी बात—जों
हो सकता था, पहले कही
जाती, तो
वह ही भी कह
देता—अब उस
बात पर भी वह न
कहेगा। इसलिए
पहले दो—चार
ऐसी बात करना
उससे जिसमें
वह ही कहे, फिर
वह बात उठाना
जिसमें
साधारणत: उसने
न कही होती।
चार ही कहने
के बाद न कहने
का भाव कमजोर हो
जाता है। और
जिस आदमी की
हमने चार बात
में हां भर दी,
वृत्ति
होती है उसकी
पांचवीं बात
में भी ही भर
देने की। और
जिस आदमी की
हमने चार बात
में न कह दी, पांचवी बात
में भी न कहने
का भाव प्रगाढ़
हो जाता है।
डेल
कारनेगी ने एक
संस्मरण लिखा
है, कि
एक गांव में
वह गया। जिस
मित्र के घर
ठहरा था, वह
इंश्योरेंस
का एजेंट था।
और उस मित्र
ने कहा कि तुम
बड़ी किताबें
लिखते हो कैसे
जीतो मित्रता,
कैसे
प्रभावित
करो। इस गाव
में एक बुढ़िया
है, अगर
तुम उसका
इंश्योरेंस
करवा दो, तो
हम समझें, नहीं
तो सब बातचीत
है।
डेल
कारनेगी ने
बुढ़िया का पता
लगाया। बड़ा
मुश्किल काम
था, क्योंकि
उसके दफ्तर
में ही घुसना
मुश्किल था।
जैसे ही पता
चलता कि
इंश्योरेंस
एजेंट, लोग
उसे वहीं से
बाहर कर देते।
बुढ़िया अस्सी
साल की विधवा
थी, करोड़पति
थी, बहुत
कुछ उसके पास
था, लेकिन
इंश्योरेंस
के बिलकुल
खिलाफ थी।
जहां घुसना ही
मुश्किल था, उसको
प्रभावित
करने का मामला
अलग था।
डेल
कारनेगी ने
लिखा है कि सब
पता लगा कर, पाच बजे
सुबह मैं उसके
बगीचे की
दीवाल के बाहर
के पास घूमने
लगा जाकर।
बुढिया छह बजे
उठती थी। वह
अपने बगीचे
में आई, मुझे
अपनी दीवाल के
पास फूलों को
देखते हुए खड़े
होकर उसने
पूछा कि फूलों
के प्रेमी हो?
तो मैंने
उससे कहा कि
फूलों का
प्रेमी हूं
जानकार भी हूं;
बहुत गुलाब
देखे सारी
जमीन पर, लेकिन
जो तुम्हारी
बगिया में
गुलाब हैं, इनका कोई
मुकाबला नहीं
है। बुढ़िया ने
कहा, भीतर
आओ दरवाजे से।
बुढ़िया साथ ले
गई बगीचे में,
एक—एक फूल
बताने लगी!
मुर्गियां
बताईं, कबूतर
बताए, पशु—पक्षी
पाल रखे थे, वे सब बताए.।
और डेल
कारनेगी ने यस
मूड पैदा कर लिया।
रोज
सुबह का यह
नियम हो गया।
दरवाजे पर
बुढ़िया उसके
स्वागत के लिए
तैयार रहती।
दूसरे दिन बुढ़िया
ने चाय भी
पिलाई, नाश्ता भी
करवाया।
तीसरे दिन बगीचे
में घूमते हुए
उस बुढ़िया ने
पूछा कि तुम
काफी होशियार
और कुशल और
जानकार आदमी
मालूम पड़ते हो,
इंश्योरेंस
के बाबत
तुम्हारा
क्या खयाल है?
इंश्योरेंस
के लोग मेरे
पीछे पड़े रहते
हैं, यह
योग्य है
करवाना कि
नहीं? तब
डेल कारनेगी
ने उससे
इंश्योरेंस
की बात शुरू
की। लेकिन अभी
भी कहा नहीं
कि मैं
इंश्योरेंस
का एजेंट हूं
क्योंकि उससे
न का भाव पैदा
हो सकता है।
जिंदगी भर
जिसने
इंश्योरेंस
के एजेंट को
इनकार किया हो,
उससे न का
भाव पैदा हो
सकता है।
लेकिन सातवें दिन
इंश्योरेंस
डेल कारनेगी
ने कर लिया।
जिससे हा का
संबंध बन जाए,
उस पर आस्था
बननी शुरू
होती है। जिस
पर आस्था बन
जाए, भरोसा
बन जाए, उसको
न कहना
मुश्किल होता
चला जाता है।
अंगुली पकड़ कर
ही पूरा का
पूरा हाथ पकड़ा
जा सकता है।
तो
श्रुति अज्ञानी
से ऐसी भाषा
में बोलती है
कि उसे ही का
भाव पैदा हो
जाए। तो ही
आगे की यात्रा
है। अगर सीधे
कहा जाए. न कोई
संसार है, न कोई देह
है, न तुम
हो। अज्ञानी
कहेगा, तो
बस अब काफी हो
गया, इसमें
कुछ भी भरोसे
योग्य नहीं
मालूम होता।
इसलिए
श्रुति कहती
है अज्ञानी से
कि देह आदि सत्य
है, तुम्हारा
संसार बिलकुल
सत्य है।
अज्ञानी की रीढ़
सीधी हो जाती
है, वह आश्वस्त
होकर बैठ जाता
है कि यह आदमी
खतरनाक नहीं
है, और हम
एकदम गलत नहीं
हैं। क्योंकि
किसी को भी यह
लगना बहुत
दुखद होता है
कि हम बिलकुल
गलत हैं। थोडे
तो हम भी सही
हैं! थोड़ा जो
सही है, उसी
के आधार पर
आगे यात्रा हो
सकती है।
लेकिन
आप बिलकुल गलत
हैं, ज्ञानी
का अनुभव यह
है कि आप
बिलकुल गलत
हैं, शत
प्रतिशत गलत
हैं। मगर यह
कहने का मतलब
यह होगा कि
आगे कोई संबंध
नहीं जुड़
सकता। इसलिए
ज्ञानी कहता
है कि नहीं, आप काफी दूर
तक सही हैं।
शरीर है, संसार
है, सब है; इसमें कोई
आपकी भूल—चूक
नहीं है; भूल
जरा सी है, और
वह यह है कि आप
शरीर को आत्मा
समझ बैठे हैं।
अज्ञानी
में ही का भाव
पैदा हो जाता
है। वह कहता
है कि बहुत
दूर तक तो मैं
भी सही हूं; थोड़ा सा
ही फर्क है
मुझ में और
तानी में कि
मैं शरीर को
आत्मा समझ
बैठा हूं। और
अज्ञानी भी चाहता
है कि शरीर को
आत्मा न समझे,
क्योंकि
शरीर सिवाय
दुख के कुछ और
देता नहीं। और
फिर शरीर मरता
भी है, मृत्यु
भी आती है। तो
वह चाहता भी
है खोजना कि उसका
पता चल जाए जो
शरीर नहीं है,
तो अमरत्व
का भी पता चल
जाए। और फिर
ज्ञानी कहता
है कि परम
आनंद है उस
आत्मा को जान
लेने में जो
शरीर नहीं है,
तो अज्ञानी
का लोभ भी जगता
है। वह भी उस
परम आनंद को
जानने के लिए
उत्सुक हो
जाता है। तब
यात्रा शुरू
होती है।
लेकिन
यात्रा ऐसी है
कि जैसे—जैसे
अज्ञानी
उसमें बढ़ता है, वैसे—वैसे
उसे पता चलता
है कि जो इतनी
ने हां भरी थी
कि देह है, वह
है नहीं, जो
संसार ही भरा
था, वह है
नहीं। और जैसे—जैसे
गहरा होता है,
वैसे—वैसे
ज्ञानी उस पर
शर्तें जोड़ता
है, वह
कहता है कि
अगर आनंद का
लोभ किया, तो
आनंद कभी
मिलेगा नहीं—हालाकि
वह लोभ से ही
चला था!
मगर
ये बाद की
बातें हैं। जब
रास्ते पर चल
पड़े, थोड़ी
दूर यात्रा कर
ली, लौटना
भी मुश्किल हो
गया—क्योंकि
यह रास्ता ऐसा
है, इस पर
लौटना नहीं हो
सकता। जितना
आपने जान लिया,
उसको फिर से
अनजाना नहीं
किया जा सकता।
ज्ञान से
वापसी असंभव
है। तो जहा तक
आप आ गए, वहां
से आगे ही
जाया जा सकता
है, पीछे
नहीं जाया जा
सकता।
और
बड़े मजे की
बात यह है कि
अज्ञानी जब
रास्ते पर
चलने लगता है, तो जितने
कष्ट में वह
कभी नहीं था, आगे बढ़ कर
उतने कष्ट में
पड़ जाता है!
क्योंकि पहले
जो कुछ था, गलत
ही था, लेकिन
सब साफ था।
जैसे ही आगे
बढ़ता है, तो
पिछला तो सब
धुंधला और
व्यर्थ हो
जाता है, मध्य
में अटक जाता
है। पीछे लौट
नहीं सकता, आगे जाने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए फिर
ज्ञानी जो—जो
शर्तें देता
है, वे
पूरी करनी
पड़ती हैं। वह
कहता है, लोभ
छोड़ दो तो
आनंद होगा।
हालांकि पहली
दफा शानी ने
लोभ ही जगाया
था कि परम
आनंद है। कहां
पड़े हो
नर्क में! कहा
पड़े हो दुख
में! पास ही है
अमृत का झरना,
आ जाओ!
तो
वह दुख को
छोड़ने की आशा
में, सुख
पाने की आशा
में—आनंद से
लगा कि बड़ा
सुख होगा वहां—इस
आशा में बढ़ता
है। यह लोभ ही
है। लेकिन
थोड़ी ही देर
में तानी कहता
है, लोभ
बिलकुल छोड़
दो। आनंद
मांगना मत, नहीं तो
मिलेगा कभी
नहीं। अब बड़ी
मुश्किल हुई!
पीछे लौटा
नहीं जा सकता।
मन होता है कि
वह सुख ठीक था;
लेकिन अब
वहा सुख दिखाई
पड़ नहीं सकता;
अब वहां दुख
साफ दिखाई
पड़ने लगा। तो
जो था हाथ में
वह छूटता है, और जो मिलने
की आशा से
छोड़ा था, वह
मिलता दिखाई
नहीं पड़ता। और
अब तानी कहता
है कि आशा भी
छोड़ दो मिलने
की। छोड़नी ही
पड़ेगी! पीछे
लौट नहीं सकते,
छोड़नी ही
पड़ेगी।
ऐसा
इंच—इंच तानी
आपके गलत मोहो
को तोड़ता है, और धीरे—धीरे,
धीरे— धीरे
वहां ले जाता
है, जहा
अगर आपसे पहले
ही कहा जाता
कि ले जा रहे
हैं, तो आप
कभी न गए
होते।
बुद्ध
ने ऐसी भूल की
है। बुद्ध से
ज्यादा सीधी—सीधी
बात कह देने
वाले लोग बहुत
कम हुए हैं।
इसलिए
बुद्ध—धर्म
भारत में टिक
नहीं सका।
नहीं टिकने का
कारण है, सिर्फ यही, कि अज्ञानी
के साथ जो
कुशलता बरतनी
चाहिए, वह
बुद्ध ने नहीं
बरती।
बुद्ध
को जो अनुभव
हुआ था, उन्होंने
सीधा—सीधा कह
दिया। उसका
कारण है, बुद्ध
ब्राह्मण घर
में पैदा नहीं
हुए थे। ब्राह्मण
पुराने चालाक
हैं। लंबा
उनका धंधा है,
ओल्डेस्ट।
इस दुनिया में
ज्ञान का धंधा
उन्होंने
सनातन से किया
है। वे कुशल
हैं। उन्हें पता
है, कहां
से बात करनी
है। ये थे
क्षत्रिय के
बेटे। बाप—दादों
ने कभी यह
धंधा किया
नहीं था। इसकी
कोई कुशलता न
थी। धंधे में
नए—नए आए थे।
नई दुकान थी, ग्राहक से
क्या कहना, कैसे ग्राहक
को पटा लेना—उसका
बुद्ध को कोई
पता नहीं था।
कह फंसे! जो सीधा—सीधा
था, वैसा
ही कह दिया।
क्या कहा
बुद्ध ने, आपको
पता है g: बुद्ध
के पास कोई
आता कि मुझे
आत्मा को पाना
है। बुद्ध
कहते, आत्मा
है ही नहीं, पाओगे क्या
खाक!
वह
आदमी गया!
उसने कहा कि
यह क्या हो
गया? आत्मा
तो है! यहां तक
भी समझ लेते
कि शरीर नहीं है,
आप कह रहे
हैं आत्मा भी
नहीं है!
बुद्ध के पास
कोई आता और
पूछता कि
मोक्ष में
आनंद तो बहुत
होगा न?
बुद्ध
कहते, कैसा
मोक्ष? कैसा
आनंद? शून्य
रह जाता है, न कोई आनंद, न कोई
मोक्ष।
क्योंकि जहा
तक आनंद का
पता चलेगा, वहा तक दुख
रहेगा। रहेगा
ही, क्योंकि
पता विपरीत का
चलता है। तो
बुद्ध कहते, वहां कोई
आनंद वगैरह
नहीं है। तो
वह जो आदमी आया
था लोभ की
थोड़ी सी आशा
बांध कर, उसको
बिलकुल तोड़
दिया दरवाजे
पर ही। वह
भीतर ही नहीं
जाता। वह कहता,
जब आनंद भी
नहीं बचेगा तो
यह क्षणभंगुर
सुख भी क्या
बुरा है!
शाश्वत
सुख है नहीं, क्षणभंगुर
सुख है।
ज्ञानियों ने
सदा उसके क्षणभंगुर
सुख को
तुड़वाया था
शाश्वत सुख के
लोभ में।
बुद्ध ने कहा,
कोई शाश्वत
सुख वगैरह है
नहीं। सुख है
ही नहीं। न क्षणभंगुर
कोई सुख है, न शाश्वत
कोई सुख है, तुम धोखे
में हो। तो उस
आदमी ने कहा
कि क्षमा करिए;
जो अभी पास
है, उसको
ही संभालें।
हाथ की आधी
रोटी स्वर्ग
की पूरी रोटी
से बेहतर है।
और आप कहते हो,
न कोई
स्वर्ग है, न कोई पूरी
रोटी है, तो
आधी रोटी हम
क्यों छोड़े?
बुद्ध
से लोग पूछने
जाते हैं कि
ईश्वर मिलेगा? बुद्ध
कहते हैं, कोई
ईश्वर नहीं
है।
बुद्ध
के पास जब
पहली दफा
सारिपुत्त
गया, तो
वह तो
ब्राह्मण का
बेटा था; ज्ञानी
था, जानकार
था, उसने
बुद्ध से कहा
कि अगर कुछ भी
नहीं है, शून्य
ही शून्य है, तब तो फिर
हमें संसार को
बचाने की
कोशिश करनी
चाहिए, कम
से कम कुछ तो
है। और आप
अजीब बात कर
रहे हैं! सब
छीनना चाहते
हैं और देने
का कोई भी
वायदा नहीं है,
तो कौन आएगा?
तो वह
ब्राह्मण का
बेटा था, उसने
कहा, आएगा
कौन? सब
छुड़वाना
चाहते हैं! सब,
कहते हैं, छोड़ दो। और
पाने की जब हम
पूछते हैं, तो आप कहते
हैं, पाने
को कुछ है
नहीं। तो
छोड़ेगा कोई
किसलिए?
छोड़ता तो आदमी
पाने के मोह
में है। बुद्ध
ने कहा, लेकिन
जो पाने के
मोह में छोड़ता
है, वह
छोड़ता ही
नहीं।
त्याग
का मतलब क्या
है? त्याग
अगर इसलिए है
कि कुछ मिलेगा,
तो यह सौदा
हुआ, त्याग
कहां है? एक
आदमी महल छोड़
देता है कि
स्वर्ग में
महल मिल जाएगा,
यह सौदा है।
एक आदमी पुण्य
करता है कि
सुख मिलेगा; यह सौदा है।
एक आदमी सेवा
करता है, धर्म
करता है, दान
करता है, इस
आशा में कि
इसके
प्रतिकार में
कुछ मिलेगा किसी
लोक में, किसी
जन्म में, यह
सौदा है।
इसमें कहा
त्याग है?
बुद्ध
ने कहा, त्याग तो
तभी है, जब
कोई छोड़ता है
और पाने की
कोई आशा नहीं
रखता। पर
सारिपुत्त ने
कहा कि होगा
यह त्याग, लेकिन
फिर आप त्यागी
कहीं पा न
सकेंगे।
त्यागी
मिलेगा कहा?
हम
सब सौदेबाज
हैं। हम अगर
ईश्वर के साथ
भी संबंध
जोड़ते हैं तो
वह व्यवसाय का
है। अज्ञानी
कुछ और कर भी
नहीं सकता।
तो
बुद्ध का धर्म
भारत में टिक
नहीं सका। और
जब भारत में
नहीं टिक सका
तो कहां टिक
सकता था! लेकिन
दूसरे
मुल्कों में
टिका। टिका कब? टिका जब,
जब बुद्ध के
अनुयायियों
ने वे सारी
ट्रिक्स, वह
सारा
गोरखधंधा सीख
लिया जो
ब्राह्मणों
को सदा से शांत
था, तब
टिका।
आप
जान कर हैरान
होंगे कि
बुद्ध
क्षत्रिय हैं, लेकिन
उनके सब बड़े
शिष्य
ब्राह्मण हैं;
और
उन्होंने
टिकाया।
लेकिन भारत
में तो बात बुद्ध
बिगाड़ गए थे, भारत में तो
बुद्ध कह गए
थे, इसलिए
शिष्य भी उस
पर जबरदस्ती
दूसरी बातें नहीं
थोप सकते थे।
इसलिए भारत
में तो नहीं
टिका, लंका
में टिका, बर्मा
में टिका, जापान
में टिका, चीन
में टिका, तिब्बत
में टिका, श्याम
में, कोरिया
में—सारे
एशिया में टिक
गया, भारत
में नहीं
टिका।
क्योंकि भारत
ने बुद्ध से
आमने—सामने
बात कर ली थी
और बुद्ध ने
कहा था कुछ
पाने को नहीं है।
इसलिए भारत
में फिर से
पाने का लोभ
जगाना मुश्किल
था। भारत के
बाहर जगा
दिया। इसलिए
भारत के बाहर
जो बुद्ध—
धर्म है, वह
हिंदू धर्म का
रूपांतर है।
वह बुद्ध की
वाणी नहीं है।
वह वास्तविक
नहीं है, इसलिए
टिका।
वास्तविक था
तो बिलकुल
नहीं टिका।
आप
जानते हैं, महावीर
क्षत्रिय थे,
लेकिन
महावीर के
ग्यारह गणधर
सब ब्राह्मण
हैं, उन्होंने
टिकाया।
महावीर की
हैसियत की बात
नहीं थी
टिकाने की।
क्षत्रिय को
पता नहीं है, यह धंधा ही
नहीं उसका, वह तलवार
वगैरह चलाना
जानता होगा।
यह शास्त्र की
दुनिया, यह
शब्द का जो
खेल है, उसका
उसे कोई पता
नहीं है। तो
ग्यारह के
ग्यारह
महावीर के जो
बड़े शिष्य हैं,
गणधर हैं, उन्होंने
टिकाया।
और
सुविधा बन गई।
क्योंकि
बुद्ध तो बोले
खुद, इसलिए
शिष्य भी उसको
बिगाड़ने में
मुश्किल में
पड़ गए। महावीर
बोले नहीं, महावीर चुप
रहे, गणधर
बोले। सुविधा
रही। महावीर
का सीधा
वक्तव्य न
होने से, गणधरों
ने जो कहा, समझा
गया यही जैन
धर्म है।
महावीर चुप
रहे। कहा जाता
है कि महावीर
मौन रहे। उनके
मौन को उनके
गणधरों ने
समझा, और
गणधरों ने फिर
लोगों को
समझाया।
इसलिए महावीर
का धर्म थोड़ा
सा टिका।
फिर
भी बहुत
ज्यादा टिका
हुआ नहीं
दिखाई पड़ता।
कोई पच्चीस
लाख जैन हैं, पच्चीस
सौ साल में।
अगर पच्चीस
आदमी भी महावीर
से प्रभावित
होते, और
शादी कर लेते,
तो इतने
बच्चे पच्चीस
सौ साल में
पैदा हो जाते।
यह कोई संख्या
किसी मतलब की
नहीं है। कारण
क्या है? कारण
वही है, क्षत्रिय
को पता नहीं
है उस भाषा का,
जो अज्ञानी
से बोलनी
चाहिए। वह तो
सदियों में
विकसित होती
है।
यह
श्रुति कहती
है ’देह आदि
सत्य है, ऐसा
ज्ञानियों को
समझाने के लिए
श्रुति प्रारब्ध
कर्म की बात
नहीं कहती।’ ज्ञानियों
को नहीं
समझाना है
ऐसा।
'पर
अज्ञानियों
का समाधान
करने के लिए
श्रुति प्रारब्ध
कर्म की बात
कहती है।’
'वास्तव में
परिपूर्ण, आदि—
अंतरहित, अमाप
(नाप सकने में
असंभव ), विकार
रहित, सत्तामय,
चैतन्यरूप,
नित्य, आनंदमय,
अविनाशी, हर एक में
व्यापक होने
वाला, एकरस
वाला, पूर्ण,
अनंत, सर्व
तरफ मुख वाला,
त्याग कर
सकने में अथवा
ग्रहण कर सकने
में अशक्य, आधार के ऊपर
नहीं रहने
वाला, आश्रय
रहित, निर्गुण,
क्रिया रहित,
सूक्ष्म, विकल्प रहित,
स्वतसिद्ध,
शुद्ध—बुद्ध,
अमुक के
समान नहीं, एक और
अद्वैत
ब्रह्म ही सब
कुछ है, और
कोई भी नहीं।’
बाकी
सब असत्य है, वास्तव
में। जो हमें
सत्य दिखाई
पड़ता है, वह
इसीलिए’ सत्य
दिखाई पड़ता है
कि हमारे पास
वह देखने की आंख
ही नहीं है जो
सत्य को देख
सके। हमारे
पास वह मन है
केवल जो असत्य
को जन्माता
है। हमारे पास
स्वप्न पैदा
करने वाला मन
है, सत्य
देखने वाला
चक्षु नहीं।
इसलिए जो झूठ
है वह हमें
दिखाई पड़ता है,
जो नहीं है
वह हमें दिखाई
पड़ता है, और
जो है उससे हम
चूक जाते हैं।
वह कैसे चक्षु
पैदा हो, वह
ज्ञान—चक्षु
कैसे जगे, वह
शिव—नेत्र
कैसे खुले—जिससे
हम देख सकें, क्या सत्य
है g:
एक
छोटा बच्चा
है। खिलौनों
में जीता है।
खिलौने उसके
लिए वास्तविक
हैं। इसलिए
उसकी गुड़िया
की टांग टूट
जाए तो वह
वैसे ही रोता
है, जैसे
वस्तुत: किसी
की टांग टूट
गई हो। रात
उसे नींद नहीं
आती। उसकी गुड़िया
या गुड्डा
उसके पास न
रखा हो, तो
उसे वैसी ही
बेचैनी होती
है, जैसे
आपका
वास्तविक
प्रेमी आपके
पास न हो। बच्चे
के लिए अभी
गुड्डा—गुडियां
वास्तविक
हैं। बड़ा होकर
हंसेगा खुद ही
कि मैं किस
खेल में उलझा
था! बड़ा होकर
खुद ही गुड्डे—गुड़ियों
को भूल जाएगा।
वे कचरे के
कोने में पड़
जाएंगे, फेंक
दिए जाएंगे, रोएगा नहीं।
क्या, हुआ क्या?
गुड्डा—गुडिया
वही हैं, इसको
क्या हुआ?
इसकी
बुद्धि ऊपर
उठी। यह
ज्यादा देखने
में समर्थ
हुआ। लेकिन
सिर्फ इतने से
ही कुछ फर्क
नहीं हो जाएगा, गुड्डा—गुड्डी
की जगह दूसरे
गुड्डा—गुड्डी
आ जाएंगे, ज्यादा
जीवित होंगे।
एक दिन गुड़िया
को छाती से
लगा कर सो गया
था, फिर
किसी स्त्री
को छाती से
लगा कर सो
जाएगा। गुड्डे—गुड़िया
बदल जाएंगे, लेकिन चित्त?
फिर
इस चित्त के
भी ऊपर उठने
का उपाय है।
बहुत कम लोग
उठ पाते हैं।
बचपन से तो सभी
लोग जवान हो
जाते हैं।
क्यों? क्योंकि
जवानी के लिए
आपको कुछ करना
नहीं पड़ता, वह
प्राकृतिक
विकास है। अगर
आपको ही जवान
होने के लिए
कुछ करना पड़े,
तो इस
दुनिया में दो—चार
आदमी जवान
मिलेंगे, बाकी
सब बच्चे रह
जाएंगे। आपको
कुछ नहीं करना
पड़ता, जवानी
मजबूरी है; आप बढ़ते चले
जाते हैं। आप
कुछ कर नहीं
सकते, रोक
नहीं सकते, इसलिए जवान
हो जाते हैं।
लेकिन
आध्यात्मिक होश
नहीं आता, क्योंकि
उसके लिए कुछ
आपको करना
पड़ता है। कुछ करेंगे
तो। वह विकास
आपके निर्णय
पर निर्भर है।
प्रकृति उसको
थोपती नहीं
आपके ऊपर।
आपकी
स्वतंत्रता पर
छोड़ दिया है।
इसीलिए
दो—चार लोग
बुद्ध और
कृष्ण और
क्राइस्ट हो
पाते हैं, क्योंकि
श्रम, साधना!
जिस
दिन आप जाग कर
देखेंगे उस
दिन सारा जगत
आपको बच्चों
के खेल जैसा
मालूम पड़ेगा।
उतनी प्रौढता
के स्तर पर
चीजें पीछे की
झूठी होती चली
जाती हैं।
तो
यह सूत्र कहता
है, वास्तव
में तो एक ही
है ब्रह्म। और
इसके बाबत कुछ
बड़ी
महत्वपूर्ण
सूचनाएं दी
हैं, इस एक
ब्रह्म के
बाबत। अनेक तो
हमारी परिचित
हैं, उनकी
मैं चर्चा
नहीं करूं।
'परिपूर्ण, आदि—
अंतरहित, अमाप,
विकाररहित,
सत्तामय, चैतन्यमय, नित्य, आनंदमय,
अविनाशी, हर एक में
व्यापक, एकरस
वाला, पूर्ण,
अनंत, सर्व
तरफ मुख वाला'—ये हमारे
परिचित शब्द
हैं, जो
ब्रह्म के लिए
हमने उपयोग
किए हैं।
लेकिन इसमें
कुछ दो—तीन
लक्षण बड़े
अदभुत हैं।’त्याग
कर सकने में
अथवा ग्रहण कर
सकने में अशक्य'—यह बड़ी
महत्व की बात
है। जिसे आप
छोड़ न सकें और
जिसे आप पकड़
भी न सकें—ऐसा।
इसका क्या
मतलब हुआ?
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, ईश्वर
को खोजना है।
मैं उनसे
पूछता हूं, खोया कब? कहां?
क्योंकि
जिसे खोया हो,
उसे खोजा जा
सकता है, जिसे
खोया ही न हो, बड़ी मुश्किल
की बात है! वे कहते
हैं, नहीं,
खोया कहां,
कब, कुछ
पता नहीं! तो
मैं उनसे
पूछता हूं, पहले इसका
तो पता करो, खोया भी है
कभी? खोया
हो अगर, पक्का
करके आओ, तो
मैं खोज की
तरकीब
तुम्हें बता
दूं। और तुमने
खोया ही न हो
और मैं
तुम्हें खोज
की तरकीब बता
दूर तो तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
क्योंकि तुम
खोजने निकल
जाओगे उसको
जिसे कभी खोया
नहीं, तो
कैसे खोज
पाओगे? और
तुम्हारी खोज
तुम्हें भटका
देगी।
परमात्मा
है हमारा
स्वभाव, उसे हम खो
कैसे सकते हैं?
हम भूल सकते
हैं, विस्मृत
कर सकते हैं, खो नहीं
सकते। इस फर्क
को समझ लें।
विस्मरण हो
सकता है, ध्यान
न दिया हो
बहुत दिन तक, भूल गए हों
कि कौन भीतर
छिपा है। इतने
निकट है हमारे
कि ध्यान देने
की जरूरत न
पड़ी हो। दूर की
बातों पर नजर
लगी रही हो और
पास का स्मरण
न रहा हो, यह
हो सकता है।
लेकिन खो नहीं
सकते।
इसलिए
संतों ने कहा
है, उसका
स्मरण ही काफी
है, खोजने
की कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिए नानक ने,
कबीर ने, दादू ने, रैदास
ने नाम—स्मरण
पर जोर दिया।
नाम—स्मरण का
कुल मतलब इतना
है कि जिसे
खोया नहीं, उसे खोजने
की तो बात करो
मत, सिर्फ
उसको स्मरण
करने की फिक्र
करो, पुनर्स्मरण।
वह भी स्मरण
नहीं, पुनर्स्मरण
है। वह सदा
मौजूद ही है।
यह
सूत्र बड़ा
अदभुत और क्रांतिकारी
है।
'त्याग कर
सकने में अथवा
ग्रहण कर सकने
में अशक्य।’
जिसे
हम खो नहीं
सकते, वही
है स्वभाव।
अगर खो सकते
हैं, तो वह
स्वभाव न रहा।
अगर आग अपनी
आग्नेयता को खो
दे, तो फिर
वह उसका
स्वभाव न रहा।
अगर आग ठंडी
हो, तो कुछ
और होगी, आग
नहीं होगी। आग
का आग्नेय
होना उसका
स्वभाव है।
आकाश का रिक्त
होना उसका
स्वभाव है।
स्वभाव का
अर्थ यह है कि
चाहे कुछ भी
हो जाए, जिससे
हम अलग नहीं
हो सकते।
जिससे हम अलग
हो सकते हैं, वह हमारा
स्वभाव नहीं
है।
इसे
बहुत गहरे में
बैठ जाने दें, इस विचार
को। जिससे हम
अलग हो सकते
हैं, वह
हमारा स्वभाव
नहीं है।
जिससे हम जुड़
सकते हैं, वह
हमारा स्वभाव
नहीं है।
क्योंकि
जिससे हम जुड़
सकते हैं, उससे
हम टूट सकते
हैं। न जिससे
जुड़ सकते हैं,
न जिससे टूट
सकते हैं, वही
है मेरा होना,
वही है
हमारा होना।
ब्रह्म हमारा
होना है। उससे
भागने का कोई
उपाय नहीं, उससे बचने
का कोई उपाय
नहीं, उसे छोड़ने
का कोई उपाय
नहीं, उसे
पाने का कोई
उपाय नहीं।
लेकिन
अज्ञानी को
अगर यह बात
कही जाए, तो वह कहेगा
कि फिर ठीक, जिसे खोया
ही नहीं, खोजें
क्यों? और
जो सदा है ही, उसको पाने
की जरूरत क्या
है? तो फिर
ठीक है, हम
अपने संसार
में रहें।
क्या जरूरत? पागलपन
क्यों करें?
नहीं, तो
अज्ञानी को यह
नहीं कहा जा
सकता।
अज्ञानी को यह
कहा जाएगा कि
खो दिया है
उसे तुमने; उसे तुम खो
चुके हो जो
तुम्हारा
वास्तविक होना
है, उसे
खोजो। जब तक
उसे न खोज
लोगे, तब
तक तुम दुख
में रहोगे।
खोजो उसे। जब
तक तुम
परमात्मा को न
पा लोगे, तब
तक तुम्हारा
जीवन विषाद, चिंता और
संताप ही
रहेगा।
खोज
की भाषा
अज्ञानी को
समझ में आती
है। क्योंकि
उसे लगता है
कि ठीक। सब
चीजें खोजता
है—धन खोजता
है, पद
खोजता है, यश
खोजता है—वह
कहता है, ठीक
है। खोज तो
अपनी जारी
रहेगी, धन
न खोजेंगे, धर्म
खोजेंगे अब।
अज्ञानी खोज
की भाषा को
समझता है।
उसने जिंदगी
भर, जिंदगी—जिंदगी
खोजने का ही
धंधा किया है,
काम किया
है। एक ही
व्यवसाय रहा
है उसका, खोजो,
आज इसे खोजो,
कल उसे
खोजो। वह कहता
है, ठीक
है। धन भी खोज
लिया, यश
भी खोज लिया, पद भी खोज
लिया, अब
आप कहते हो कि
इसमें मजा
नहीं मिलता—और
हमको भी अनुभव
आता है कि मजा
नहीं मिलता—अब
हम तुम्हारा
परमात्मा
खोजते हैं, ठीक।
जैसे
वह खोज पर
निकलेगा, बाद में यह
बताया जाएगा
कि परमात्मा
को तो खोजा
नहीं जा सकता,
जब तक तू
खोज नहीं छोड़
देगा, तब
तक उसे पा
नहीं सकता। अब
वह मुश्किल
में पड़ा; क्योंकि
उसने धन की
खोज छोड़ दी, पद की खोज
छोड़ दी, यश
की खोज छोड़ दी,
वे व्यर्थ
हो गईं, इसी
आशा में कि अब
सार्थक खोज
करूंगा, वह
परमात्मा की
खोज में आया।
जब वह इस खोज
में आगे आ गया,
और पीछे
नहीं लौट सकता
अब, अब धन
की खोज में
नहीं जा सकता।
वह व्यर्थ हो
गई, इसीलिए
तो इस तरफ आया
एक नई खोज की
सार्थकता में।
और अब उसका
गुरु उसे
कहेगा, अब
तू खोज छोड़
दे। पहले धन
छोडा, पद
छोड़ा, यश
छोड़ा, आधी
बात बचा ली थी—खोज।
धन की खोज—धन
छोड़ दिया था, खोज बचा ली
थी। धन बाहर
था, खोज
भीतर थी। बाहर
का छोड़ना आसान
था। अब यह खोज
भी छोड़ दे!
क्योंकि जिसे
तू खोज रहा है,
उसे कभी
खोया ही नहीं
है।
जब
कोई खोज भी
छोड़ कर खड़ा हो
जाता है, तो तत्क्षण
उसमें प्रवेश
हो जाता है, जिसमें हम
सदा से हैं।
परमात्मा
हमारा होना है।
इसलिए यह
सूत्र बड़ा क्रांतिकारी
है और बड़ा
कीमती है!
'त्याग कर
सकने में अथवा
ग्रहण कर सकने
में अशक्य।’
बुद्ध
को हुआ ज्ञान, तो किसी
ने पूछा है कि
क्या मिला? तो बुद्ध ने
कहा, मिला
कुछ भी नहीं; जो मिला ही
हुआ था, उसी
का पता चला
है। मिला कुछ
भी नहीं!
बस
यही बुद्ध की
गलती है। आपसे
कह दें कि कुछ
भी नहीं मिला, तो आप
कहेंगे. चलो, अपने काम पर
लगो! आठ दिन
खराब किए इस
आदमी के साथ।
यह कहता है, कुछ भी मिला
ही नहीं, जब
ज्ञान हुआ तो
कुछ भी नहीं
मिला! तो हम
काहे के लिए
मेहनत कर रहे
हैं, श्रम
कर रहे हैं!
इतना उछलकूद,
थकाए डाल
रहे हैं अपने
को। और यह
आदमी कहता है,
कुछ मिलता
नहीं आखिर
में!
बुद्ध
ने कहा, कुछ भी नहीं
मिला।
जिसने
पूछा था, उसने कहा, कुछ भी नहीं
मिला? तो
फिर शिक्षा
किसकी दे रहे
हैं आप लोगों
को? बुद्ध
ने कहा, इसी
की। उस हालत
में आ जाओ, जब
न कुछ पाने को
रहे, न कुछ
खोने को रहे, और यह अनुभव
हो जाए न कुछ
पाया जा सकता है,
न कुछ खोया
जा सकता है।
पर
यह शानी की
समझ में आने
वाली बात है।
'आधार के ऊपर
नहीं रहने
वाला, आश्रयरहित,
निर्गुण, क्रियारहित,
सूक्ष्म, विकल्परहित,
स्वतःसिद्ध,
शुद्ध—बुद्ध'—ये भी हमारे
परिचित शब्द
हैं।
'अमुक के
समान नहीं।’
किसी
से उसकी तुलना
नहीं की जा सकती।
अद्वितीय है, बेजोड़
है। ऐसा नहीं
कहा जा सकता, इसके समान।
तो जितनी
तुलनाएं की
जाती हैं, वे
सब कामचलाऊ
हैं।
हम
कहते हैं, आकाश के
समान शून्य।
नहीं, यह भी ठीक
नहीं है, क्योंकि
आकाश भी उसमें
समाया हुआ है।
वह आकाश से
बड़ा है आकाश
के समान नहीं
हो सकता।
हम
कहते हैं, महासूर्य
की तरह
तेजस्वी।
यह
भी छोटी बात
है, क्योंकि
उसके लिए
महासूर्य भी
छोटे टिमटिमाते
दीए हैं। इनसे
कोई तुलना
नहीं की जा
सकती।
हम
कहते हैं, आनंदरूप।
तो
हमारे मन में
कहीं न कहीं
सुख से तुलना
शुरू हो जाती
है। सुख से
उसका कोई
संबंध नहीं
है। हम कहते हैं, शांत ।
तो
हमारे मन में
अशांति के
विपरीत शांति
का खयाल है। अशांति
का उसे कभी
अनुभव नहीं
हुआ है। इसलिए
हमारी शांति
का उसे कोई
पता नहीं हो
सकता।
हमारी
कोई तुलना काम
की नहीं है।
उस अनुभव के लिए, किसी और
बात से कहने
का कोई उपाय
नहीं है। संतों
ने कहा है, बस
अपने ही जैसा;
किसी और
जैसा नहीं, बस अपने ही
जैसा। खुद ही
अपने समान है;
खुद ही। कोई
उपाय नहीं है
उसे किसी और
से बताने का।
लेकिन बताया
जाता है, वह
अज्ञानी के
लिए बताया
जाता है कि
ऐसा, ऐसा, ऐसा। आखिर
में पता चलता
है कि वह तो
किसी जैसा नहीं
है। ‘एक और
अद्वैत ब्रह्म
ही सब कुछ है
और कोई भी
नहीं।’
'इस प्रकार
अपने अनुभव से
स्वयं ही अपनी
आत्मा को
अखंडित जान कर
तू सिद्ध हो, और
निर्विकल्प
स्वरूप आत्मा
से ही अत्यंत
सुखपूर्वक
स्थिति कर।’
'इस प्रकार
अपने अनुभव से
स्वयं ही अपनी
आत्मा को
अखंडित जान कर
तू सिद्ध हो।’
शास्त्र
से जान कर
नहीं चलेगा
काम।
श्रुतियां
कहें, स्मृतियां
कहें, नहीं
चलेगा काम।
सुन कर हल
नहीं होगी
बात। अपने ही
अनुभव से ऐसा
जान कर तू
सिद्ध हो।
सिद्ध
का अर्थ है, जिसके
आगे कोई
यात्रा और गति
नहीं। सिद्ध
का अर्थ है, अंतिम पड़ाव,
अंतिम
मुकाम, जिसके
आगे रास्ते
समाप्त हो
जाते हैं।
असिद्ध
का अर्थ है, जैसे हम
हैं। असिद्ध
का अर्थ है, जिसका अभी
कुछ काम बाकी
है, अभी
कुछ करना है, अभी कुछ
होगा, तो
सुख होगा।
असिद्ध का
अर्थ है, कुछ
होगा, कुछ
करना है, कुछ
पूरा करना है,
कुछ पाना
है। वह मिल
जाएगा तो सुख
होगा। असिद्ध
का सुख किसी
चीज पर निर्भर
है। कोई
स्त्री मिल
जाएगी, कोई
पुरुष मिल
जाएगा, कोई
मकान मिल
जाएगा, कोई
जमीन मिल
जाएगी, कोई
पद मिल जाएगा,
राष्ट्रपति
हो जाऊंगा, प्रधानमंत्री
हो जाऊंगा; यह हो
जाऊंगा, वह
हो जाऊंगा—कहीं
सुख है, वह
मिलेगा तो सुख
मिलेगा—कंडीशनल
है, सशर्त
है।
सिद्ध
का अर्थ है, जिसका
अपने होने में
ही सुख है।
कुछ भी मिले, न मिले, उसका
कोई सवाल ही
नहीं है। छिन
जाए, आ
जाएं। उसका
सुख किसी बात
पर निर्भर
नहीं है, स्वयं
के होने पर ही
निर्भर है। बस
मैं हूं, इतना
काफी है। और
कोई बात शर्त
नहीं है।
बेशर्त जिसका
सुख है, वह
सिद्ध है। अभी
और यहीं उसका
सुख है।
आपका
सुख सदा कभी
और कहीं है, अभी और
यहीं कभी आपका
सुख नहीं
होता। कभी
किसी आदमी को
आपने देखा, जो कहे कि
मैं सुखी हूं
अभी और यहीं? अभी और यहीं
तो सब दुखी
होते हैं। सुख
होता है कहीं
आगे, कहीं
आगे।
एक
मेरे मित्र
हैं। एक राज्य
में उपमंत्री
थे, डिप्टी
मिनिस्टर थे।
तो बड़े दुखी
थे। मैंने उनसे
पूछा कि मामला
क्या है? कहा
कि जब तक
मिनिस्टर न हो
जाऊं, मन
में बड़ी
बेचैनी है।
फिर
वे मिनिस्टर
हो गए। फिर
मुझे मिले।
वैसे ही दुखी
थे! पूछा, क्या मामला
है? अब तो
मिनिस्टर हो
गए। अब तो
आपको सिद्ध हो
जाना चाहिए।
उन्होंने
कहा कि सिद्ध? जब तक चीफ
मिनिस्टर न हो
जाऊं, कुछ
नहीं हो सकता!
कोशिश में लगा
हूं? कभी न
कभी हो
जाऊंगा।
इस
बार वे चीफ
मिनिस्टर भी
हो गए! मैंने
उन्हें खबर
भिजवाई कि अब
तो सिद्ध—
अवस्था आ गई
होगी? उन्होंने
कहा, आप भी
क्यों मेरे
पीछे पड़े हैं?
सिद्ध—
अवस्था कहीं
नहीं दिखाई
पड़ती। चीफ
मिनिस्टर तो
हो गया, कुछ
हल नहीं हुआ।
कुछ हल नहीं
हुआ। और आगे
बहुत से बिंदु
दिखाई पड़ रहे
हैं जो पूरे
हो जाएं, तो
शायद।
सुख
सदा आगे सरकता
जाता है।
असिद्ध का यह
लक्षण है, सुख सदा
आगे सरकता
जाता है।
सिद्ध का यह
लक्षण है, सुख
अभी और यहीं।
कोई हो स्थिति,
कुछ हो बाहर,
भीतर की सुख—
धार में जरा
भी अंतर नहीं
पड़ता। और कोई
शर्त नहीं है
कि यह शर्त
पूरी होगी।
जिसकी
शर्त है, वह दुखी
रहेगा। कोई
शर्त कभी पूरी
नहीं होती। और
शर्त पूरी हो
जाए, तो
शर्त बनाने
वाला मन नई
शर्तें बनाता
है। जैसे
वृक्ष पर
पत्ते लगते
हैं, पुराने
गिर जाएं, कोई
फर्क नहीं
पड़ता, नए
लग जाते हैं।
सच तो यह है कि
नए लगना चाहते
हैं, इसीलिए
पुराने गिरते
हैं। नए भीतर
से धक्का देने
लगते हैं
निकलने के लिए,
पुराने
पत्ते बाहर से
गिरने लगते
हैं। पुराना
पत्ता गिरा कि
नया लग गया।
पुरानी शर्त
गिरती है तभी,
जब नई शर्त
भीतर धक्का
मारने लगती है
और ऊगने लगती
है। वृक्ष पर
पत्ते लगते
हैं, आदमी
के मन में
शर्तें लगती
हैं।
सशर्त
जिसका जीवन है, दुख उसका
परिणाम होगा।
बेशर्त जिसका
जीवन है, अभी
और यहीं, जो
बना किसी कारण
के सुखी है, अकारण सुखी
है। अकारण
सुखी का मतलब
होता है, बाहर
से सुख नहीं
आता, भीतर
से सुख जाता
है, भीतर
से सुख की धार
बहती है, झरना
अपना है, स्रोत
अपना है। यह
किसी से उधार
मांगने की बात
नहीं है। यह
सारा जगत भी
विलीन हो जाए,
ये सब चांद—तारे
टूट जाएं, ये
सारे लोग खो
जाएं, समाप्त
हो जाएं, तो
भी सिद्ध के
सुख में अंतर
नहीं पड़ेगा।
और
आपके लिए? जैसा आप
चाहते हैं, ठीक वैसा
जगत बना दिया
जाए, तो भी
आपके दुख में
कोई अंतर नहीं
पड़ेगा। शायद
आप और ज्यादा
दुखी हो जाएं।
जब आपकी
मांगें पूरी
हो जाती हैं, तब पता चलता
है कि इतनी
मेहनत की, इतना
श्रम उठाया, पाया कुछ भी
नहीं, और
ज्यादा दुखी
हो जाते हैं।
सिद्ध
होने के लिए
सूत्र कहता है
'अपने अनुभव
से स्वयं ही
अपनी आत्मा को
अखंडित जान कर
तू सिद्ध हो, और
निर्विकल्प
स्वरूप आत्मा
से ही अत्यंत
सुखपूर्वक
स्थिति कर।’
उसमें
बना रह, उसमें रुका
रह, उसमें ठहर,
स्थिति कर।
उसमें ही लीन
हो जा। उससे
बाहर मत जा।
इसका
थोड़ा स्मरण
रखें। उठते, बैठते, बेशर्त सुख
की खोज करें।
चलते, सोते,
जागते, खाते,
पीते—परिस्थिति
कुछ भी हो—बेशर्त
सुख की तलाश
करें। सुखी
रहें।
यह
बड़ा अजीब लगता
है हमें कि
किसी से कहो
कि बस सुखी
रहो। वह कहेगा, कैसे
सुखी रहें? क्योंकि
हमें खयाल ही
यह है कि सुख
बाहर से आए, तो ही। भीतर
से सुखी रहें!
यह बात ही
हमारी समझ में
नहीं आती।
हमने कभी जाना
ही नहीं भीतर
का सुख। इसकी
थोड़ी खोज
करें। भीतर
सुख भरा है।
जरा हिम्मत
करें और भीतर
जाएं। तोड़ दें
बीच का पर्दा
शर्त का, और
आप पाएंगे कि
भर गए सुख से।
इतने भर गए कि
आप चाहें तो
अपने सुख से
सारे जगत को
भर दें, वह
फैलता चला
जाए।
हम
सब मांग रहे
हैं दूसरे से।
और उससे मांग
रहे हैं, जो खुद
हमारे पास मांगने
आया है।
भिखमंगों की
जमात है, एक—दूसरे
के सामने
भिक्षापात्र
लिए खड़े हैं
कि कुछ मिल
जाए! और सभी
मांग रहे हैं।
कभी सोचा इस
पर कि यह सारा
संसार
भिखमंगों की
जमात है! मैं
आपके पास आया
हूं कि थोड़ा
सुख दो, आप
इसीलिए मेरे
पास आए हैं कि
थोड़ा सुख दो।
न मैंने कभी
अपने भीतर सुख
पाया, न
आपने कभी अपने
भीतर सुख
पाया। इसलिए
जितने संबंध
हमारे हैं, सब दुख देते
हैं, कोई
सुख नहीं
देता। दे नहीं
सकता; जो
पास नहीं है, वह देंगे
कैसे? जो
खुद नहीं पाया,
उसको
दूसरों को
देने चले गए
हैं!
बाप
बेटे को सुख
दे रहा है!
पत्नी पति को
सुख दे रही है!
बेटा मां को
सुख दे रहा है!
और पूछो, देने वाले
का खयाल है दे
रहे हैं और
मिलने वाले को
दुख मिल रहा
है। सारी दुनिया
एक—दूसरे को
सुख दे रही है,
और सब छाती
पीट कर रो रहे
हैं कि हम
दुखी हैं, कोई
सुखी हो नहीं
रहा है। पर जब
आपके पास ही
नहीं है, आप
दूसरे को देने
जा रहे हैं!
इस
दुनिया में
सुखी होने का
एक ही उपाय है
कि आप किसी से
मांगने मत
जाना। वह है
ही नहीं दूसरे
के पास, आपके पास
है। आप सारी
माग छोड़ कर
रुक जाओ। अगर दुख
भी हो रहा हो
तो उसी में
रुक जाओ, प्रतीक्षा
करो, मत
जाओ मांगने।
एक दिन आप
अचानक पाओगे
कि मांगने की
आदत के छूट
जाने से भीतर
का पत्थर हट
जाता है, झरना
फूट पड़ता है; अचानक रोआं—रोआं
सुख से भर
जाता है। यह
सुख अकारण है।
फिर इसे कोई
नहीं छीन
सकता। यह आपके
भीतर से आता
है। फिर हो भी
सकता है कि
कोई आपकी
सन्निधि में
आपकी इस सुख
की धार से
आदोलित हो
जाए।
मगर
बड़े मजे की
बात है, हम सुख मांगते
हैं और सुख
देना चाहते
हैं! सुख दे नहीं
पाते, सुख
मांग नहीं
पाते, मिल
नहीं पाता।
ऐसा कोई
व्यक्ति, जिसकी
अपनी धारा फूट
जाती है, अपना
स्रोत खुल
जाता है, किसी
से सुख मांगता
भी नहीं और
किसी को सुख
देना भी नहीं
चाहता, पर
ऐसे व्यक्ति
से सुख मिल
जाता है
अनेकों को।
देना नहीं
चाहता।
कोई
बुद्ध किसी को
सुख देने नहीं
जाते, बस
उनकी
मौजूदगी।
उनके भीतर
खिले हुए फूल,
उनकी सुगंध,
उनके भीतर
फूटा हुआ झरना,
उसका कल—कल
नाद। वह कोई
भी, जो
उनकी सन्निधि
में होता है, जो खुला
होता है, जो
अपने हृदय के
द्वार बंद किए
नहीं बैठा
होता, उसको
झनक पहुंच
जाती है; स्वर
उसको भी छू
लेते हैं।
और
बुद्ध जैसे
व्यक्ति के
पास जो आंख
खुला होकर
बैठा हो, उसे यह भी
दिखाई पड़ जाता
है कि इसका
सुख कहीं से
आता नहीं
मालूम पड़ता, किसी पर
निर्भर नहीं
मालूम पड़ता, इसका सुख
भीतर से ही
फूटता मालूम
पड़ता है। इसकी
किरणें उधार
नहीं हैं, इसकी
किरणें अपनी
हैं। यह चांद
की तरह नहीं
है कि सूरज की
किरणों को लौटाता
हो। यह सूरज
की तरह है, जिसके
पास अपनी किरण
है सीधी निकल
रही है, सीधी
फूट रही है।
इसको
हमने सत्संग
कहा है। बुद्ध
जैसे व्यक्तियों
के पास होने
का नाम सत्संग
है। तो शायद हम
भी अपनी मूढ़ता
से डगमगा जाएं; शायद हमारा
भी पत्थर
सरकने की
स्थिति में आ
जाए; शायद
यह देख कर कि
कोई अपने आप
में भी सुखी
हो सकता है, हमारी यह
भ्रांति टूट
जाए कि दूसरे
से सुख मांगते
हैं, मलते
चले जाते हैं,
और भ्रांति
को सजाए रहते
हैं कि मिलेगा—कभी
भी, आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों—मगर
मिलेगा दूसरे से,
शायद यह
भ्रांति टूट
जाए। स्वयं को
बेशर्त कर लें,
मांग को छोड़
दें, यह
आशा तोड़ दें कि
कहीं और से
सुख आएगा, तो
एक दिन सुख
मिल जाता है।
वह अवस्था
सिद्ध की
अवस्था है; जब अपने सुख
की धार उपलब्ध
होती है।
आज इतना ही।
last pravachan chhoot gaya hai.
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