अध्याय—9
सूत्र:
समोऽहं
सर्वभूतेषु न
मे
द्वेष्योऽस्ति
न प्रिय:।
ये
भजन्ति तु मां
भक्त्या मयि
ते तेषु चाप्यहम्।।
29।।
अपि
चेत्सुदराचारो
भजते
मामनन्यभाक्।
साधुरेव
स मन्तव्य:
सम्यग्व्यवलितो
हि सः।। 30।।
क्षिपं
भवति
धर्मात्मा
शश्वव्छान्तिं
निगव्छीत।
कौन्तेय
प्रति जानीहि
न मे भक्त:
प्रणश्यति।।
31।।
मैं सब
भूतों में सम—भाव
से व्यापक हूं; न कोई मेरा
अप्रय है और न
प्रिय है। परंतु
जो भक्त मेरे
को प्रेम से
भजते है,
वे मेरे में
और मैं भी
उनमें प्रकट
हूं।
यदि
कोई अतिशय
दुराचारी भी
अनन्य भाव से
मेरा भक्त हुआ
मेरे को
निरंतर भजता है, वह साधु
ही मानने
योग्य है; क्योंकि
वह यथार्थ
निश्चय वाला
है।
हसलिए वह
शीघ्र ही
धर्मात्मा हो
जाता है और
सदा रहने वाली
शांति को
प्राप्त होता
है। है
अर्जुनु तू
निश्चयपूर्वक
सत्य जान क्रई
मेरा भक्त
नष्ट गी होता।
जीवन के संबंध
में एक बहुत
बुनियादी
प्रश्न इस सूत्र
में उठाया गया
है। और जो
जवाब है, वह आमूल रूप
से क्रांतिकारी
है। उस जवाब
की क्रांति
दिखाई नहीं
पड़ती, क्योंकि
गीता का हम
पाठ करते हैं,
समझते
नहीं। हम उसे
पढ़ते हैं, दोहराते
हैं, लेकिन
उसकी गहनता
में प्रवेश
नहीं हो पाता।
बल्कि अक्सर
ऐसा होता है, जितना
ज्यादा हम उसे
दोहराते हैं,
और जितना हम
उसके शब्दों
से परिचित हो
जाते हैं, उतनी
ही समझने की
जरूरत कम
मालूम पड़ती
है। शब्द समझ
में आ जाते
हैं, तो
आदमी सोचता है
कि अर्थ भी
समझ में आ गया!
काश, अर्थ
इतना आसान
होता और
शब्दों से समझ
में आ .सकता, तो जीवन की
सारी
पहेलियां हल
हो जातीं।
लेकिन अर्थ
शब्द से बहुत
गहरा है। और
शब्द केवल
अर्थ की ऊपरी
पर्त को छूते
हैं। लेकिन
शब्द को हम
कंठस्थ कर
सकते हैं। और
शब्द की
ध्वनि
बार—बार कान
में गूंजती
रहे, तो
शब्द परिचित
मालूम होने
लगता है। और
परिचय को हम
ज्ञान समझ
लेते हैं!
इस
सूत्र में
कृष्ण ने कहा
है कि आचरण
महत्वपूर्ण
नहीं है।
कृष्ण के मुंह
से ऐसी बात
सुनकर हैरानी
होगी। कृष्ण
कहते हैं, आचरण.
महत्वपूर्ण
नहीं है, अंतस
महत्वपूर्ण
है।
सब
धर्म, जैसा
हम सोचते हैं
ऊपर से, आचरण
पर जोर देते मालूम
पड़ते हैं। वे
कहते हैं, यह
करो और यह मत
करो! और अगर
तुम्हारा
सदाचरण होगा,
तो तुम
प्रभु को
उपलब्ध हो
जाओगे।
सदाचरण की बात
ठीक ही मालूम
पड़ती है। और
कौन होगा जो कहेगा
कि सदाचरण के
बिना भी
परमात्मा
उपलब्ध हो
सकता है! कौन
है जो कहेगा
कि अनैतिक
जीवन भी परमात्मा
को उपलब्ध हो
सकता है!
नीति
तो आधार है, ऐसा हम
सभी को लगता
है। लेकिन
नीति आधार
नहीं है। और
स्थिति
बिलकुल ही
विपरीत है।
सदाचरण से कोई
परमात्मा को
उपलब्ध होता हो,
ऐसी कोई
अनिवार्यता
नहीं है। ही, परमात्मा को
जो उपलब्ध हो
जाता है, वह
जरूर सदाचरण
को उपलब्ध हो
जाता है। वह
जो परमात्मा
की प्रतीति है,
वह
प्राथमिक और
मौलिक है, आचरण
गौण है, द्वितीय
है।
होना
भी यही चाहिए; क्योंकि
आचरण बाहरी
घटना है और
प्रभु—
अनुभूति आंतरिक।
और आचरण तो
अंतस से आता
है; अंतस
आचरण से नहीं
आता। मैं जो
भी करता हूं
वह मुझसे
निकलता है; लेकिन मेरा
होना मेरे
करने से नहीं
निकलता। मेरा
अस्तित्व
मेरे करने के
पहले है। मेरा
होना, मेरे
सब करने से
ज्यादा गहरा
है। मेरा सब
करना मेरे ऊपर
फैले हुए
पत्तों की भांति
है, वह
मेरी जड़ नहीं
है, वह
मेरी आत्मा
नहीं है।
इसलिए
यह भी हो सकता
है कि मेरा
कर्म मेरे संबंध
में जो कहता
हो, वह
मेरी आत्मा की
सही गवाही न
हो। कर्म धोखा
दे सकता है, कर्म
प्रवंचना हो
सकता है, कर्म
पाखंड हो सकता
है, हिपोक्रेसी
हो सकता है।
मेरे भीतर एक
दूसरी ही
आत्मा हो, जिसकी
कोई खबर मेरे
कर्मों से न
मिलती हो।
यह तो
हम जानते हैं
कि मैं बिलकुल
साधु का आचरण
कर सकता हूं
पूरी तरह
असाधु होते
हुए। इसमें
कोई बहुत अड़चन
नहीं है।
क्योंकि आचरण
व्यवस्था की
बात है। मेरे
भीतर कितना ही
झूठ हो, मैं सच बोल
सकता हूं; अड़चन
होगी, कठिनाई
होगी, लेकिन
; अभ्यास
से संभव हो
जाएगा। मेरे
भीतर कितनी ही
हिंसा हो, मैं।
अहिंसक हो
सकता हूं।
बल्कि दिखाई
ऐसा पड़ता है
कि जिसको भी
अहिंसक होना
हो इस भाति, उसके भीतर
काफी हिंसा
होनी चाहिए।
क्योंकि स्वयं
को भी अहिंसक
बनाने में बड़ी
हिंसा करनी
पड़ती है; स्वयं
को भी दबाना
पड़ता है, स्वयं
की भी गर्दन
पकड़नी पड़ती
है!
यह हो
सकता है कि
मेरे बाहर
क्रोध प्रकट न
होता हो और
मेरे भीतर
बहुत क्रोध
हो। संभावना
यही है कि मैं
इतना क्रोधी
आदमी हो सकता
हूं कि क्रोध
मेरे लिए इतना
खतरा हो जाए
कि या तो मैं
क्रोध करूं या
मैं जी सकूं।
और जीना हो, तो मुझे
क्रोध को
दबाना पडे।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
छोटे —मोटे
क्रोधी कभी
क्रोध को नहीं
दबाते। इतना महंगा
नहीं है उनका
क्रोध। उतने
क्रोध के रहते
भी जिंदगी चल
सकती है।
लेकिन बड़े
क्रोधी को तो
क्रोध दबाना
ही पड़ता है, क्योंकि
जिंदगी असंभव
हो जाएगी; जीना
ही मुश्किल हो
जाएगा। वह आग
इतनी ज्यादा है
कि जला डालेगी
सब। कोई संबंध
संभव नहीं रह जाएंगे।
तो बड़े
क्रोधी को
क्रोध को
दबाना पड़ता
है। दबाने में
भी क्रोध की
जरूरत पड़ती
है। क्योंकि
दबाना क्रोध
का एक कृत्य
है; चाहे
दूसरे को
दबाना हो, चाहे
स्वयं को
दबाना हो। तो
यह हो सकता
है। यह होता
है। यह कठिन
नहीं है। यह
बहुत ही सहज
घटता है कि
बाहर जो आचरण
में दिखाई
पड़ता है, वह
भीतर नहीं
होता है। हम
आचरण में धोखा
दे सकते हैं।
लेकिन
आचरण से जो
धोखा दिया
जाता है, वह लोगों
की। आंखों को
हो सकता है, लेकिन वह
धोखा स्वयं को
नहीं दिया जा
सकता। नीति का
संबंध है
दूसरे को धोखा
न देने से, धर्म
का संबंध है
स्वयं को धोखा
न देने से। नीति
का संबंध है
समाज की आंखों
में शुभ होने
से; धर्म
का संबंध है
परमात्मा के
सामने शुभ
होने से। नैतिक
होना आसान है।
सच तो यह है कि
अनैतिक होने में
इतनी ' कठिनाइयां
होती हैं कि
आदमी को नैतिक
होना ही पडता
है। लेकिन
धार्मिक होना
बड़ा कठिन है, क्योंकि
धार्मिक न
होने से कोई
भी अड़चन नहीं
होती, कोई
भी कठिनाई
नहीं होती।
बल्कि सच तो
यह है कि
धार्मिक होने
से ही कठिनाई
शुरू होती है
और अड़चन शुरू '
होती है।
धार्मिक
होकर जीना बड़े
दुस्साहस का
काम है। धार्मिक
होकर जीने का
अर्थ है कि अब
मेरे जीवन का
नियम मेरे
भीतर से
निकलेगा; अब इस जगत का
कोई भी नियम
मेरे लिए
महत्वपूर्ण
नहीं है; अब
मैं ही अपना
नियम हूं। और
अब चाहे कुछ
भी परिणाम हो,
चाहे कितना
ही दुख हो, और
चाहे नर्क में
भी पड़ना पडे, लेकिन अब
मेरा नियम ही
मेरा जीवन है।
धार्मिक
होकर जीना अति
कठिन है।
धार्मिक होकर
जीने का
परिणाम तो
भुगतना पड़ता
है। किसी जीसस
को सूली लगती
है, किसी
सुकरात को जहर
पीना पड़ता है।
यह बिलकुल अनिवार्य
है। धार्मिक
होकर जीना
बहुत कठिन है।
ध्यान
रहे, अनैतिक
होकर भी जीना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
अनैतिक होते
ही आप समाज के
संघर्ष में पड़
जाते हैं—कानून, अदालत, पुलिस।
अनैतिक होते
ही आप समाज से
संघर्ष में पड़
जाते हैं।
अनैतिक होकर
जीना बहुत
मुश्किल है।
धार्मिक होकर
जीना भी बहुत
मुश्किल है; क्योंकि
धार्मिक होते
ही आप
स्वतंत्र
जीवन शुरू कर
देते हैं।
अनैतिकता से
इसलिए कठिनाई
आती है कि जब
आप दूसरों के
हितों को
नुकसान पहुंचाते
हैं, तो आप
कठिनाई में
पड़ेंगे।
धार्मिक होने
से इसलिए
कठिनाई आती है
कि आप दूसरों
को मानना ही बंद
कर देते हैं।
आप ऐसे जीने
लगते हैं, जैसे
पृथ्वी पर
अकेले हैं, जैसे पृथ्वी
पर कोई भी
नहीं है। आपका
समस्त नियम
आपके भीतर से
निकलने लगता
है। तब भी
कठिनाई होती
है।
ध्यान
रहे, अनैतिक
होना कठिन है,
धार्मिक
होना कठिन है।
नैतिक होना
कनवीनिएंट है,
नैतिक होना
बड़ा सुविधापूर्ण
है, पार्ट
आफ
रिस्पेक्टिबिलिटी
है। वह जो
हमारा चारों
तरफ
सम्मानपूर्ण
समाज है, उसमें
नैतिक होकर
जीना सबसे
ज्यादा
सुविधापूर्ण
है। इसलिए
जितना चालाक
आदमी होगा, उतना नैतिक
होकर जीना
शुरू करेगा।
नैतिकता
अक्सर चालाकी
का हिस्सा
होती है। धर्म
भोलेपन का परिणाम
है, निर्दोषता
का, नैतिकता
चालाकी का, हिसाब का,। कैलकुलेशन
का, अनैतिकता
नासमझी का
परिणाम है, अज्ञान का।
समझ लें।
अनैतिकता
नासमझी का
परिणाम है, अज्ञान का, नैतिकता
होशियारी का,
चालाकी का,
गणित का, धर्म
निर्दोष साहस
का।
लेकिन
समाज जोर देता
है कि जो
नैतिक नहीं है, वह
धार्मिक नहीं
हो सकेगा।
इसलिए अगर
परमात्मा तक
जाना है, तो
नैतिक बनो!
समाज का जोर
ठीक है।
समाज
इस जोर को दिए
बिना जी नहीं
सकता। समाज को
जीना हो, तो उसे
नैतिकता की
पूरी की पूरी
व्यवस्था कायम
करनी ही
पड़ेगी। वह
नेसेसरी ईविल
है, जरूरी
बुराई है। जब
तक कि सारी
पृथ्वी
धार्मिक न हो
जाए, तब तक
नैतिकता की
कोई न कोई
व्यवस्था
करनी ही पड़ेगी;
क्योंकि
अनैतिक होकर
जीना इतना
असंभव है। तो नैतिकता
की व्यवस्था
करनी पड़ेगी।
अगर दस
चोर भी चोरी
में कोई संगठन
कर लेते हैं, तो भी
अपने भीतर एक
नैतिकता की
व्यवस्था
उन्हें निर्मित
करनी पड़ती है।
दस चोरों को
भी! समाज के
साथ वे अनैतिक
होते हैं, लेकिन
अपने भीतर, उनके गिरोह
के भीतर
अतिनैतिक
होते हैं। और
यह मजे की बात
है कि चोर
जितने नैतिक
होते हैं अपने
मंडल में, उतने
साधु भी अपने
मंडल में
नैतिक नहीं
होते!
उसका
कारण है। उसका
कारण है कि
चोर भलीभांति
समझता है कि
अनैतिक होकर
जब समाज में
जीना इतना
असंभव है और
मुश्किल है, तो अगर हम
अनैतिक भीतर
भी हो गए, तो
हमारा जो
आल्टरनेटिव
समाज है, जो
वैकल्पिक
समाज है, वह
भी मुश्किल हो
जाएगा। हम
पूरे समाज के
खिलाफ तो जी
ही रहे हैं, वह मुश्किल
हो गया है। अब
अगर हम दस लोग
भी, जो
खिलाफ होकर जी
रहे हैं, हम
भी अगर अनैतिक
व्यवहार करें,
और रात में
हम भी एक—दूसरे
की जेब काट
लें, और
वायदा दें और
पूरा न करें, तो फिर
हमारा जीना
असंभव हो
जाएगा।
इसलिए
चोरों की अपनी
नैतिक
व्यवस्थाएं
होती हैं।
उनका अपना
मारल कोड है।
और ध्यान रहे, साधुओं
से उनका मारल
कोड हमेशा
श्रेष्ठतर साबित
हुआ है। उसका
कारण है। उसका
कारण है कि साधु
तो समाज के
साथ नैतिक
होकर जीता है।
उसे कोई अलग
समाज नैतिक
बनाकर जीने की
जरूरत नहीं पड़ती।
इसलिए दो
साधुओं को
इकट्ठा करना
मुश्किल मामला
है। दो साधुओं
को इकट्ठा
करना मुश्किल
मामला है। सौ—पचास
साधुओं को
इकट्ठा करना
उपद्रव लेना
है! लेकिन सौ
चोरों को
इकट्ठा करें,
तो एक बहुत
नैतिक समाज
उनके भीतर
निर्मित हो जाता
है।
बुरे
आदमी की अपनी
नैतिक
व्यवस्था है, क्योंकि
वह यह समझता
है कि बिना उस
व्यवस्था के
जीना असंभव
है। बाहर तो
वह लड़ ही रहा
है, अगर
भीतर अपने
गिरोह में भी
लड़े, तो
अति कठिनाई हो
जाएगी।
समाज
को नैतिकता की
व्यवस्था
जारी रखनी ही
पडेगी, क्योंकि
आदमी इतना
अज्ञानी है।
लेकिन समाज यह
भी जोर देता
है कि जब तक
कोई नैतिक न
होगा, तब
तक वह धार्मिक
नहीं हो सकता।
यह वक्तव्य जरूरी
है, लेकिन
खतरनाक है और
असत्य है।
सचाई उलटी है।
सचाई यह है कि
जब तक कोई
धार्मिक न
होगा, तब
तक उसकी
नैतिकता
आरोपित, थोपी
हुई, ऊपर
से लादी हुई
होगी, अस्थाई
होगी, आंतरिक
नहीं होगी, आत्मिक नहीं
होगी।
धार्मिक
होकर ही
व्यक्ति के
जीवन में नीति
का आविर्भाव
होता है। उस
नीति का, जो किसी भय
के कारण नहीं
थोपी गई होती।
न किसी प्रलोभन,
न किसी
पुरस्कार के
लिए, न
स्वर्ग के लिए;
न नर्क के
डर से, न
स्वर्ग के लोभ
से, न
प्रतिष्ठा के
लिए, न
सम्मान के लिए,
न सुविधा के
लिए, बल्कि
इसलिए कि भीतर
अब नैतिक होने
में ही आनंद
मिलता है और
अनैतिक होने
में दुख मिलता
है। लेकिन ऐसी
नैतिकता का
जन्म धर्म के
बाद होता है।
तो
कृष्ण ने इस
में एक सूत्र
कहा है, और वह सूत्र
समझने जैसा
है। वह कहा है,
अतिशय
दुराचारी भी
अनन्य भाव से
मेरा भक्त हुआ,
मुझे
निरंतर भजता
है, वह
साधु मानने
योग्य है; क्योंकि
वह यथार्थ
निश्चय वाला
है।
यहां
साधु की
परिभाषा में
कृष्ण ने
हैरानी की बात
कही है। साधु
से
सामान्यतया
हम समझते हैं, सदाचारी।
साधु का अर्थ
होता है, सदाचारी;
असाधु का
अर्थ होता है,
दुराचारी।
यहां कृष्ण
कहते हैं,।
अतिशय
दुराचारी भी
यदि मेरी
भक्ति में
अनन्य भाव से
डूबता है, तो
वह साधु है।
यहां
साधु की पूरी
परिभाषा बदल
जाती है। साधु
का अर्थ ही
होता है, सदाचारी।
यहां कृष्ण
कहते हैं, अतिशय
दुराचारी भी
साधु कहा जाने
योग्य है! फिर
साधु की क्या
परिभाषा होगी?
कृष्ण
कहते हैं, क्योंकि
वह यथार्थ
निश्चय वाला
है—ए फर्म
डिटरमिनेशन।
एक
यथार्थ
निश्चय यहां
साधु की
परिभाषा है।
और वह यथार्थ
निश्चय क्या
है? वह
यथार्थ
निश्चय है, प्रभु के
स्मरण का। वह
यथार्थ
निश्चय है, प्रभु के
प्रति समर्पण
का। वह यथार्थ
निश्चय है, उसकी अनन्य
भक्ति का।
यहां
दो—तीन बातें
हम समझ लें।
एक तो यथार्थ
निश्चय वाले
को साधु कहना
बड़ी नई बात
है। आपको इस सूत्र
को पढ़ते वक्त
खयाल में न आई
होगी। क्योंकि
यह तो कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि असाधु भी
साधु है, अगर वह
यथार्थ
निश्चय वाला
है। असाधु का
मतलब होता है,
दुराचारी।
असाधु को भी
साधु जानना, अगर वह
यथार्थ
निश्चय वाला
है, और
उसका निश्चय
मेरी तरफ
गतिमान हो गया
है।
तो दो
बातें।
यथार्थ
निश्चय का
क्या अर्थ है? यथार्थ
निश्चय के दो
अर्थ हैं। एक,
समग्र हो, उसके विपरीत
कोई भी भाव मन
में न हो, तो
ही यथार्थ
होगा, अन्यथा
डावाडोल होता
रहेगा। पूरे
मन से लिया गया
हो, पूरे
प्राणों ने
हामी भर दी
हो। अगर पूरे
प्राणों ने
हामी भर दी हो,
तो वह
निश्चय
यथार्थ हो
जाएगा। और अगर
पूरे प्राणों
ने हामी न भरी
हो, तो
निश्चय
काल्पनिक
रहेगा, वास्तविक
नहीं होगा। और
मन डोलता
रहेगा; और
हम ही बनाएंगे
और हम ही
मिटाते
रहेंगे; एक
हाथ से निश्चय
की ईंटें
रखेंगे, दूसरे
हाथ से निश्चय
की ईंटों को
गिरा देंगे।
दोनों तरफ से
हम काम करते
रहेंगे, एक
तरफ निर्णय
लेंगे, एक
तरफ निर्णय को
तोड्ने का
उपाय करते
रहेंगे। कहीं
पहुंचेंगे
नहीं। यथार्थ
निश्चय का अर्थ
हुआ कि पूरे
चित्त से लिया
गया हो।
एक
सूफी फकीर हसन
एक गाव में
आया है। रात आंधी
हो गई है, कहीं ठहरने
को कोई जगह
नहीं है; अजनबी,
अपरिचित
आदमी है। सराय
के मालिक ने
कहा कि कोई
गवाह ले आओ, तब मैं
ठहरने दूंगा।
आंधी
रात, गवाह
कहा खोजे? अनजान,
अपरिचित
गांव है। कोई
पहचान वाला भी
नहीं है। परेशान
है। एक झाडू
के नीचे सोने
को जा रहा है
कि तब एक आदमी
उसे पास से गुजरता
हुआ दिखाई
पड़ा। उसने उस
आदमी से कहा
कि पूरी बस्ती
सो गई है, किसी
को मैं जानता
नहीं हूं।
क्या आप मेरे
लिए थोड़ी
सहायता
करेंगे कि
चलकर सराय के
मालिक को कह
दें कि आप
मुझे जानते
हैं!
उस
आदमी ने कहा—पास
आकर हसन को
देखा कि फकीर
है—हसन को कहा
कि पहले तो
मैं तुम्हें
अपना परिचय दे
दूं क्योंकि
मैं एक चोर
हूं और रात
में अपने काम
पर निकला हूं।
एक चोर की
गवाही एक साधु
के काम पड़ेगी
या नहीं, मैं नहीं
जानता! सराय
का मालिक मेरी
बात मानेगा, नहीं
मानेगा। मेरी
गवाही का बहुत
मूल्य नहीं हो
सकता। लेकिन
मैं एक निवेदन
करता हूं कि
मेरा घर खाली
है। मैं तो
रातभर काम में
लगा रहूंगा, तुम आकर सो
सकते हो।
हसन
थोड़ा चिंतित
हुआ। और उसने
कहा कि तुम एक
चोर होकर भी
मुझ पर इतना
भरोसा करते हो
कि अपने घर
में मुझे
ठहराते हो?
उस चोर
ने कहा, जो बुरे से
बुरा हो सकता
है, वह मैं
करता हूं। अब
इससे बुरा और
कोई क्या कर सकेगा?
चोरी ही
करोगे न
ज्यादा से
ज्यादा! यह आम
अपना काम है।
तुम घर आकर रह
सकते हो।
सराय
में जगह नहीं
मिली। सराय
अच्छे लोगों
ने बनाई थी।
एक चोर ने जगह
दी! और उसने
कहा, अब
और बुरा क्या
हो सकता है!
लेकिन फिर भी
हसन डरा कि
चोर के घर में
रुकना या नहीं
रुकना! या
झाडू के नीचे
ही सो जाना बेहतर
है!
बाद
में हसन ने
कहा कि उस दिन
मुझे पता चला
कि मेरा साधु
उस चोर से
कमजोर था।
साधु डरा कि
चोर के घर
रुकूं या न
रुकूं! और चोर
न डरा कि इस
अजनबी आदमी को
घर में ठहराऊं
या न ठहराऊं!
चोर को यह भी
भय न लगा कि यह
साधु है, अपना दुश्मन
है, अपने
को बदल
डालेगा! साधु
को यह भय लगा
कि चोर के साथ
रहने से कहीं
मेरी साधुता
नष्ट न हो जाए!
हसन ने
बाद में कहा
कि उस दिन
मुझे पता चला
कि मेरे साधु
का जो निश्चय
था, वह
चोर के निश्चय
से कमजोर था।
वह ज्यादा दृढ़
निश्चयी था।
गया, चोर के घर
रात रुका। कोई
सुबह, भोर
होने के पहले
चोर आया, हसन
ने दरवाजा
खोला। हसन ने
पूछा, कुछ
मिला? चोर
ने हंसते हुए
कहा, आज तो
नहीं मिला, लेकिन फिर
कोशिश
करेंगे। उदास
नहीं था, परेशान
नहीं था, चिंतित
नहीं था; आकर
मजे से सो गया!
दूसरी रात भी
गया। और हसन
एक महीने उसके
घर में रहा, और रोज ऐसा
हुआ कि रोज वह
खाली हाथ
लौटता और हसन
उससे पूछता कि
कुछ मिला? और
वह कहता, आज
तो नहीं, लेकिन
फिर कोशिश
करेंगे!
फिर
बरसों बाद हसन
को आत्म—शान
हुआ। दूर उस
चोर का कोई
पता भी न था कहां
होगा। जिस दिन
हसन को आत्म—शान
हुआ, उसने
पहला धन्यवाद
उस चोर को
दिया और
परमात्मा से
कहा, उस
चोर को
धन्यवाद!
क्योंकि उसके
पास ही मैंने
यह सीखा कि
साधारण—सी
चोरी करने यह
आदमी जाता है
और खाली हाथ
लौट आता है, लेकिन उदास
नहीं है, थकता
नहीं, निश्चय
इसका टूटता
नहीं। कभी ऐसा
नहीं कहता कि
यह धंधा बेकार
है, छोड़
दें, कुछ
हाथ नहीं आता!
और जब
मैं परमात्मा
को खोजने
निकला, उस परम
संपदा को
खोजने निकला,
तो न मालूम
कितनी बार ऐसा
लगता था कि यह
सब बेकार है, कुछ मिलता
नहीं। न कोई
परमात्मा
दिखाई पड़ता है,
न कोई आत्मा
का अनुभव होता
है। पता नहीं
इस सब बकवास
में मैं पड़
गया हूं छोडूं।
और जब भी मुझे
ऐसा लगता था, तभी मुझे उस
चोर का खयाल
आता था कि
साधारण—सी
संपदा को
चुराने जो गया
है, उसका
निश्चय भी
मुझसे ज्यादा
है, और मैं
परम संपदा को
चुराने निकला हूं, तो मेरा
निश्चय इतना
डांवाडोल है!
तो जिस दिन
उसे ज्ञान हुआ,
उसने पहला
धन्यवाद उस
चोर को दिया
और कहा कि मेरा
असली गुरु वही
है। हसन के
शिष्यों ने
उससे पूछा कि
उसके असली
गुरु होने का
कारण? तो
उसने कहा, उसका
दृढ़ निश्चय!
दृढ़
निश्चय का
अर्थ है कि
पूरे प्राण
इतने आत्मसात
हैं कि चाहे
हार हो, चाहे जीत; चाहे सफलता
मिले, चाहे
असफलता, निर्णय
नहीं बदलेगा।
दृढ़ निश्चय का
अर्थ है, चाहे
असफलता मिले,
चाहे
सफलता, चाहे
जन्मों—जन्मों
तक भटकना पड़े,
निर्णय
नहीं बदलेगा।
खोज जारी
रहेगी। सब खो
जाए बाहर, लेकिन
भीतर खोजने
वाला संकल्प
नहीं खोएगा।
वह जारी
रहेगा। सब
विपरीत हो जाए,
सब
प्रतिकूल पड़
जाए, कोई
साथी न मिले, कोई संगी न
मिले, कोई
अनुभव की किरण
भी न मिले, अंधेरा
घनघोर हो, टूटने
की कोई आशा न
रहे, तब
भी।
कीर्कगार्ड
ने इस दृढ़
निश्चय की
परिभाषा में कहा
है, वन
हू कैन होप
अगेंस्ट होप।
जो आशा के भी विपरीत
आशा कर सके, वही दृढ़
निश्चय वाला
है।
दृढ़
निश्चय का
अर्थ है, जब सब तरह से
आशा टूट जाए, बुद्धि कोई
जवाब न दे कि
कुछ होगा नहीं
अब, रास्ता
समाप्त है, आगे कोई
मार्ग नहीं है,
शक्ति चुक
गई; श्वास
लेने तक की
हिम्मत नहीं
है, एक कदम
अब उठ नहीं
सकता और मंजिल
कोसों तक कोई
पता नहीं है, तब भी भीतर
कोई प्राण
कहता चला जाए
कि मंजिल है, और चलूंगा; और चलता
रहूंगा। यह जो
आत्यंतिक
संकल्प है, इसका नाम
दृढ़ निश्चय
है।
और
कृष्ण कहते
हैं, दृढ़
निश्चय साधु
का लक्षण है।
दुराचरण—
आचरण की चिंता
छोड़ देते हैं।
अब इसे थोडा
हम गहरे में
समझेंगे, तो हमें
खयाल में आएगा
कि उनके छोड़ने
का कारण क्या
है?
क्योंकि
ध्यान रहे, दुराचरण
का मौलिक कारण
क्या है न:
सदाचरण की आकांक्षा
सभी में पैदा
होती है, लेकिन
निश्चय ही कभी
दृढ़ नहीं हो
पाता, तो
दुराचरण पैदा
होता है।
दुराचरण गहरे
में निश्चय की
कमी है।
ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिसने न
चाहा हो कि
क्रोध से
छुटकारा मिल
जाए, जिसने
न चाहा हो कि
झूठ बोलना बंद
करूं। क्योंकि
झूठ स्वयं को
भी गहरे में
पीड़ा देता है,
और क्रोध
खुद को ही
जलाता है, और
निंदा अपने ही
मन को गंदा कर
जाती है, और
अनीति जिसे हम
कहते हैं, वह
भीतर एक
कुरूपता को, एक कोढ़ को
पैदा करती है।
तो कौन है
जिसने न चाहा
हो?
लेकिन
चाह से कुछ भी
नहीं होता, क्योंकि
चाह संकल्प
नहीं बन पाती।
चाहते हैं बहुत,
चाहते हैं
बहुत, और
समय पर सब
बिखर जाता है।
भीतर संकल्प
नहीं होता है,
तो चाह
सिर्फ चाह रह
जाती है, निश्चय
नहीं बन पाती।
तो
कृष्ण कहते
हैं कि अगर
कोई दुराचारी
भी हो, तो
चिंता नहीं है;
असली सवाल
यह है कि उसके
पास एक दृढ़
निश्चय है या नहीं
है।
और यह
बडे मजे की
बात है कि
बुरे आदमियों
के पास एक तरह
का निश्चय
होता है, जो भले
आदमियों के
पास नहीं
होता। बुरे
आदमी अपनी बुराई
में बड़े
जिद्दी होते
हैं। और बुरे
आदमी अपनी
बुराई में बड़े
पक्के होते
हैं। और बुरा
आदमी अपनी
बुराई का इस
तरह पीछा करता
है, जैसा
कोई भला आदमी
अपनी भलाई का
कभी नहीं करता।
और बुरा आदमी
अपनी बुराई से
सब तरह के
कष्ट पाता है,
फिर भी
बुराई में
अडिग बना रहता
है, और भला
आदमी कष्ट
नहीं भी पाता,
फिर भी
डांवाडोल
होता रहता है!
कहीं
ऐसा तो नहीं
है, जिसे
हम भला आदमी
कहते हैं, वह
सिर्फ भय के
कारण भला होता
है, उसके
पास दृढ़
निश्चय नहीं
होता? ऐसा
तो नहीं है कि
जो चोरी नहीं
करता, वह
इसलिए चोरी न
करता हो, क्योंकि
पकड़े जाने का
डर है। ऐसा तो
नहीं है कि
इसलिए चोरी न
करता हो कि
नर्क में कौन
भुगतेगा! ऐसा
तो नहीं है कि इसलिए
चोरी न करता
हो कि बदनामी
हो जाएगी। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि चोरी न
करना, केवल
गहरे में
कायरता हो।
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि वह
आदमी अहिंसक
बनकर बैठ गया
है। वह कहता
है, हम
किसी को मारना
नहीं चाहते, क्योंकि
गहरे में वह
जानता है कि
मारोगे तो पिटने
की तैयारी
होनी चाहिए।
क्योंकि कोई
भी आदमी मारने
जाए और मार
खाने की
तैयारी न रखता
हो, तो
कैसे जाएगा? तो कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
सारी अहिंसा
केवल भीतर की
कायरता का
बचाव हो, कि
न मारेंगे, न मारे
जाएंगे। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि मार खाकर
भी अपने को
बचा लेने की
तरकीब हो, कि
तुम। कितना ही
मारो, हम
तो अहिंसक हैं,
हम जवाब न
देंगे।
भला
आदमी जिसे हम
कहते हैं, सौ में
नब्बे मौके पर
कमजोरी के
कारण भला होता
है। इसीलिए तो
भलाई इतनी
कमजोर है दुनिया।
में और बुराई
इतनी मजबूत
है। और बुरे
आदमी को दो
सजाएं, और
बुरे आदमी को
अपराध में दंड
दो, जेलखानों
में रखो, फांसिया
लगाओ। और बुरा
आदमी है कि
परसिस्ट करता
है, अपनी
बुराई पर
मजबूत रहता
है। एक बात का
तो आदर करना
ही पड़ेगा कि
उसकी मजबूती
गहरी है; उसकी
बुराई बुरी है,
लेकिन उसकी
मजबूती बड़ी
गहरी है और
बड़ी अच्छी है।
तो
कृष्ण कहते
हैं कि अगर
कोई आदमी दृढ़
निश्चय वाला
है और
दुराचारी भी
है, तो
भी उसे साधु
समझना; क्योंकि
अगर वह अपने
दृढ़ निश्चय को
मेरी ओर लगा
दे, तो सब
रूपांतरण हो
जाएगा। इसलिए
अक्सर ऐसा हुआ
है कि कोई वाल्मीकि,
सब तरह से
बुरा है, हत्यारा
है, चोर है,
लुटेरा है,
डाकू है, और फिर
अचानक महर्षि
हो जाता है!
जरा—सी घटना, इतनी—सी
घटना से इतनी
बड़ी क्रांति
कैसे होती
होगी? क्योंकि
आचरण जन्मों—जन्मों
का बुरा हो, तो क्षणभर
में सदाचरण
कैसे बन जाएगा?
एक ही
बात हो सकती
है कि उस
दुराचरण के
पीछे जो दृढ़
संकल्प था, वह दृढ
संकल्प अगर अब
सदाचरण के
पीछे लग जाए, तो क्षणभर
में क्रांति
हो जाएगी।
क्योंकि वह
दुराचरण भी उस
संकल्प के
कारण ही चलता
था। बुरे आदमी
मजबूत होते है,
पागल होते
हैं, जो
करते हैं, उसको
बिलकुल
पागलपन से
करते हैं।
हिटलर
जैसा साधु
खोजना अभी भी
मुश्किल है।
बहुत मुश्किल
है। स्टैलिन
जैसा साधु
खोजना अभी भी मुश्किल
है। अगर
स्टैलिन को एक
धुन सवार थी, तो एक
करोड़ आदमियों
की हत्या वह
कर सकता है! अगर
हिटलर को एक
खयाल सवार था,
तो सारी
दुनिया को आग
में डाल सकता
है; खुद जल
सकता है, सारी
दुनिया को जला
डाल सकता है।
इतना बल, बुराई
के लिए, जिससे
कि अंततः दुख
के सिवाय कुछ
भी हाथ नहीं आता
है, निश्चित
ही एक गहरी
बात है। कहना
चाहिए, इस
तरह के
व्यक्तियों
के पास एक तरह
की आत्मा है, एक
पोटेंशियल, एक बीज—रूप
आत्मा है!
हिटलर
के पास बड़ी
आत्मा है बजाय
उस आदमी के, जो डर के
मारे साधु बना
बैठा है।
क्योंकि भय तो
आत्मा को जंग
मार देता है।
हिटलर बुरा है,
बिलकुल
बुरा है; शैतान;
जितना
शैतान हो सकता
है, उतना
शैतान है।
लेकिन इस
शैतान के पास
भी एक आत्मा
है, एक
संकल्प है। और
यह संकल्प जिस
दिन भी बदल जाए,
उस दिन यह
आदमी क्षणभर
में क्रांति
से गुजर
जाएगा। किसी
भी जन्म में, कहीं भी, इस
हिटलर को किसी
दिन जब संकल्प
का रूपांतरण होगा,
तो इसकी
आत्मा से एक
बहुत महान
तेजस्वी
व्यक्तित्व
का जन्म हो
जाएगा एक क्षण
में। क्योंकि यह
धारा कोई पतली
धारा नहीं है,
कोई नदी—नाला
नहीं है। यह
महासागर की
धारा है। अगर
बुराई की तरफ जाती
थी, तो
बुराई की तरफ
सारा जगत
बहेगा इसके
साथ। अगर भलाई
की तरफ जाएगी,
तो इतना ही
बड़ा प्रचंड
झंझावात भलाई
की तरफ भी
बहने लगेगा।
कृष्ण
कहते हैं, दुराचार
असली सवाल
नहीं है, असली
सवाल यह है कि
वह जो भीतर
संकल्प की
क्षमता है, दृढ़ निश्चय
है। एक। और
दूसरी बात, अकेला दृढ
निश्चय ही हो,
तो काफी
नहीं है, क्योंकि
दृढ़ निश्चय से
आप बुरा भी कर
सकते हैं, भला
भी कर सकते
हैं। दृढ़
निश्चय तो
तटस्थ शक्ति
है। इसलिए
दूसरी शर्त है, अनन्य भाव
से मेरा भक्त
हुआ निरंतर
मुझे भजता है,
वह साधु
मानने योग्य
है। और शीघ्र
ही धर्मात्मा हो
जाएगा। शीघ्र
ही धर्मात्मा
हो जाएगा।
यह जो
दृढ़ निश्चय की
चेतना है, इसका
क्या अर्थ है?
अगर हम अपनी
चेतना को
समझें, तो
हमारी चेतना
ऐसी है, जैसे
किसी कुएं में
बाल्टी डालें,
और छेद ही
छेद वाली
बाल्टी हो।
फिर कुएं से
खींचें पानी
को, तो
पानी भरेगा तो
जरूर, पहुंचेगा
नहीं। भरेगा
तो जरूर, और
जब तक बाल्टी
पानी में डूबी
रहेगी, पूरी
भरी मालूम
पड़ेगी, लबालब,
और जैसे ही
पानी से
खींचना शुरू
हुआ कि बाल्टी
खाली होनी
शुरू हो
जाएगी। बडा
शोरगुल मचेगा
कुएं में, क्योंकि
सब धाराओं से
पानी नीचे
गिरेगा। आवाज
बहुत होगी, हाथ कुछ भी न
आएगा। हाथ
खाली बाल्टी
लौट आएगी।
हमारी
चेतना ऐसी है।
इतने छिद्र
हैं हमारे संकल्प
में कि कई बार
भर लेते हैं
बिलकुल, और ऐसा लगता
है कि सब ठीक
हो गया। बस, पानी में
डूबी रहे, तभी
तक। पानी में
डूबी रहने का
अर्थ, जब
तक कल्पना में
डूबी रहे, तब
तक। तब तक सब
ठीक हो जाता
है। आज साझ तय
कर लेते हैं, तब लगता है
कि बिलकुल
साधु हो गया
मैं अब, अब
कुछ कारण नहीं
रहा। रात
बिलकुल साधु
की तरह सो
जाता हूं। और
सुबह हाथ खाली
बाल्टी! बड़ा
रातभर शोरगुल
होता है, बड़ी
आवाजें आती
हैं कि भरकर
बाल्टी आ रही
है।
ध्यान
रहे, जब
भरकर बाल्टी
आती है, तो
आवाज बिलकुल
नहीं होती; और जब खाली
बाल्टी आनी
होती है, तो
आवाज बहुत
होती है।
हमारे
मन में कितनी
आवाज चलती है!
रोज—रोज
निर्णय करते
हैं, रोज—रोज
बिखर जाते
हैं। और धीरे—
धीरे हम
भलीभांति जान
जाते हैं कि
हमारे निर्णय
का कोई भी
मूल्य नहीं
है। जिस दिन
हमें यह अनुभव
हो जाता है कि
हमारे निर्णय
का कोई भी
मूल्य नहीं है,
हमारे
संकल्प की कोई
क्षमता नहीं
है, उसी
दिन समझना
आपकी मृत्यु
हो गई। शरीर
कुछ दिन चलेगा,
वह अलग बात
है, आप मर
गए, आत्मिक
रूप से आप मर
गए। लाशें जी
सकती हैं, जीती
हैं, मुर्दे
चल सकते हैं, चलते हैं, लेकिन जिस
दिन पता आपको
चल गया कि
आपके पास कोई
संकल्प नहीं
है, उसी
दिन आप मर गए।
तो हम
अपने को धोखा
देते रहते हैं; यह भी पता
नहीं चलने
देते। रोज—रोज
नए संकल्प
करते रहते
हैं। और
क्षुद्रतम संकल्प
भी कभी पूरे
होते नहीं
दिखाई पड़ते।
बहुत क्षुद्र
संकल्प करिए,
और आपकी
छिद्रों वाली
बाल्टी उसको
बहाकर रख देगी!
हमारी
चेतना ऐसी है, बहुत
छिद्रों
वाली। जितने
ज्यादा छिद्र
होंगे, उतना
ही संकल्प
मुश्किल हो
जाएगा। दृढ
संकल्प का
अर्थ है, जिस
बाल्टी में
कोई छिद्र
नहीं है। उसका
अर्थ हुआ कि जो
चेतना अपने
संकल्प से
अपने को भर
लेती है, तो
बिखर नहीं
पाती, बिखराव
नहीं होता।
क्या करें कि
ऐसा हो जाए?
यह तो
हम जानते हैं
कि छिद्रों
वाली हमारी
चेतना है।
क्या करें? क्या
करें कि ये
छिद्र बंद हो
जाएं? इनसे
हमारा
छुटकारा हो
जाए! पहली बात,
कभी भी बडे
संकल्प मत
करें। बचपन से
ही हम हर आदमी
को बड़े संकल्प
करवाने की
शिक्षा देते
हैं, उससे
असफलता हाथ
लगती है। बहुत
छोटे संकल्प करें।
असली सवाल
संकल्प का बड़ा
होना और छोटा
होना नहीं है,
असली सवाल
संकल्प का सफल
होना है। बहुत
छोटे संकल्प
करें, लेकिन
संकल्पों को
सफलता तक
पहुंचाएं।
बडे संकल्प मत
करें।
क्योंकि अगर
असफलता मिलती
है, तो
धीरे—धीरे
भीतर हीनता
गहरी होती चली
जाती है। हर
असफलता एक
छिद्र बन जाती
है। हर असफलता
एक छिद्र बन
जाती है। हर
सफलता
छिद्रों का
रुकना बन जाती
है। बहुत छोटे
संकल्प करें,
बड़े संकल्प
का कोई सवाल
नहीं है।
तिब्बत
में, जब
कोई साधु
प्रवेश करता
है किसी आश्रम
में, तो
बड़े छोटे
संकल्पों की
शिक्षा देते
हैं, बहुत
छोटा संकल्प।
साधु को कह
देते हैं, बाहर
दरवाजे पर बैठ
जाओ। आंख बंद
रखना, और
जब तक गुरु
आकर न कहे, तब
तक आंख मत
खोलना।
यह कोई
बड़ा संकल्प
नहीं है। कौन—सा
बड़ा संकल्प
है! आप कहेंगे, आंख बंद
रख लेंगे।
लेकिन बंद
रखकर जब
बैठेंगे दो —चार
घंटे, तब
पता चलेगा! कई
बार बीच में
धोखा देने का
मन आएगा। कई
बार जरा—सी आंख
खोलकर देख
लेने का मन
होगा कि अभी
तक गुरु आया कि
नहीं आया त्र'
कौन गुजर
रहा है? नहीं
तो कम से कम
घड़ी का जरा—सा
खयाल आ जाएगा
कि कितना बज
गया? कितनी
देर हो गई? और
मन इतना
बेईमान है कि
आपको पता भी
नहीं चलेगा और
आप कर
गुजरेंगे।
बहुत
छोटा—सा
संकल्प है, लेकिन
बैठा हुआ है
व्यक्ति, आंख
बंद किए हुए
बैठा है। छ:
घंटे बीत गए
हैं, वह आंख
बंद किए हुए
बैठा है। कोई
बड़ा काम नहीं
करवाया गया
है। लेकिन छ:
घंटे भी अगर
उसने
ईमानदारी से,
आथेटिकली, प्रामाणिक
रूप से आंख
बंद रखी है, तो छ: घंटे के
बाद उस आदमी
की बाल्टी के
कई छेद बंद हो
गए होंगे। यह
छोटा—सा
प्रयोग है।
कोई बहुत बड़ा
प्रयोग नहीं
है। बहुत छोटा—सा
प्रयोग है।
सब
धर्मों के पास
छोटे—छोटे
प्रयोग हैं।
वे छोटे—छोटे
प्रयोग धर्म
के लिए नहीं
हैं, संकल्प
के लिए हैं।
समझ लें, कोई
धर्म कहता है
कि आज उपवास
कर लें। कोई
धर्म कहता है,
आज यह नहीं
खाएंगे। कोई
धर्म कहता है,
आज यह नहीं
पहनेंगे। कोई
धर्म कहता है,
आज रात
सोएंगे नहीं।
कोई धर्म कहता
है, दिनभर
खाना नहीं
खाएंगे, रात
खाना खाएंगे।
इनका धर्म से
कोई भी सीधा
संबंध नहीं
है। इन सबका
संबंध संकल्प
के, वह जो
छिद्रों वाली
बाल्टी है, उसको भरने
से है।
लेकिन
जैसा मैंने
कहा कि आंख
खोलकर धोखा
देने का मन होगा, वह तो समझ
में भी आ
जाएगा, क्योंकि
आंख खोलनी
पड़ेगी। अगर
आपने एक दिन
का उपवास किया
है, तो वह
उपवास उसी
वक्त टूट जाता
है, जिस
वक्त भोजन का
खयाल आ जाता
है और आप
कल्पना में
भोजन करना
शुरू कर देते
हैं। उसी वक्त
टूट जाता है।
फिर उपवास
रखने का कोई
मूल्य नहीं रह
गया। कोई
मूल्य नहीं रह
गया।
और
आमतौर से साधक, जो उपवास
करते हैं, वे
क्या करते हैं?
जैसे जैनों
में उपवास के
संकल्प का
बहुत प्रयोग
किया गया है।
तो जब वे
उपवास करेंगे
उनके पर्युषण
में, तो
उपवास करके
मंदिर में
पहुंच जाएंगे!
साधु की चर्चा
सुनेंगे, शास्त्र
सुनेंगे, मंदिर
में बैठे
रहेंगे। न
भोजन दिखाई
पड़ेगा, न
भोजन की चर्चा
होगी, न
उसकी याद
आएगी। इसलिए
बचाव करेंगे
वहां जाकर।
यह
धोखा है। भोजन
करने या नहीं
करने का मूल्य
नहीं है, मूल्य तो
संकल्प को
जगाने का है।
तो मैं आपसे कहता
हूं कि जिस
दिन उपवास
करें, उस
दिन तो चौके
में ही अड्डा
जमा दें; उस
दिन चौका
छोड़ना ही नहीं
है। और जितनी
अच्छी चीजें
आपको पसंद हों,
सब बनवाकर
अपने चारों
तरफ रख लें, और बीच में
ध्यानस्थ
होकर बैठ
जाएं। एक—एक
चीज पर ध्यान
दें, और
भीतर भी ध्यान
जारी रखें कि
भोजन करने का
खयाल उठे.?।
और आप
हैरान होंगे
कि मंदिर में
भोजन का खयाल
आ जाएगा, चौके में
नहीं आएगा! और
ऐसा कोई नियम
न बनाएं कि
करेंगे ही
नहीं। अगर
खयाल आता है, तो खयाल
करने की बजाय
भोजन कर लेना
बेहतर है। क्योंकि
खयाल ज्यादा
गहरे जाता है,
भोजन उतना
गहरा नहीं
जाता। भोजन
शरीर में जाता
है, शरीर
से निकल जाता
है; खयाल
संकल्प में
चला जाता है, और संकल्प
में छेद कर
जाता है। छोटे—छोटे
संकल्पों की
साधना से
गुजरना जरूरी
है। बड़े संकल्प
मत करें। जो
पूरे न हो
सकें, उनको
छुए ही मत, जो
पूरे हो सकें,
उनको ही
छुए।
मेरे
एक मित्र हैं, सिगरेट
से परेशान
हैं। चेन
स्मोकर हैं।
दिनभर पीते
रहेंगे! भले
आदमी हैं, साधु—संन्यासियों
कै पास जाते
हैं। न मालूम
कितनी बार
कसमें खा आए।
सब कसमें टूट
गईं। कई बार
तय कर लिया, घंटे दो
घंटे नहीं में
भी चलाई हालत।
लेकिन फिर
नहीं चल सका!
कभी दिन दो
दिन भी खींच
लिया। लेकिन
तब खींचना
इतना भारी हो गया
कि उससे तो
सिगरेट पी
लेना ही बेहतर
था। सब काम—
धाम रोककर अगर
इतना ही काम
करना पड़े कि
सिगरेट नहीं
पीएंगे, तो
भी जिंदगी
मुश्किल हो
जाए।
रात
नींद न आए, दिन में
काम न कर सकें,
चिड़चिड़ापन
आ जाए, हर
किसी से झगड़ने
और लड़ने को
तैयार हो
जाएं! तो
मैंने कहा, इससे तो
सिगरेट बेहतर
थी। यह झगड़ा—झांसा
चौबीस घंटे
का! हरेक के
ऊपर उबल रहे
हैं। जैसे
उन्होंने कोई
भारी काम कर
लिया है, क्योंकि
सिगरेट नहीं
पी है! और हरेक
की गलतियां
देखने लगें।
जब भी वे
सिगरेट छोड़
दें दिन दो दिन
के लिए, तो
सारी दुनिया
में उनको पापी
नजर आने लगें!
स्वभावत:, उन्होंने
इतना ऊंचा काम
किया है, तो
उनको खयाल में
आएगा ही।
बहुत
उपाय करके वे
थक गए। फिर
उन्होंने मान
लिया कि यह
नहीं छूटेगी।
लेकिन बड़ी
दीनता छा गई मन
पर कि एक छोटा—सा
काम नहीं कर
पाए। मुझसे वे
पूछते थे कि
क्या करूं? मैंने
कहा कि मुझसे
तुम मत पूछो'। कितनी
सिगरेट पीते
हो, मुझे
संख्या बताओ!
उन्होंने कहा
कि मैं अंदाजन
कोई तीस
सिगरेट तो हर
हालत में
दिनभर में पी जाता
हूं।
तो
मैंने कहा, कसम खाओ
कि साठ पीएंगे
कल से, लेकिन
एक कम नहीं।
उन्होंने
कहा, आप
पागल हैं!
मैंने
कहा कि तुमने
जो संकल्प
किया, वह
हमेशा टूट गया,
उससे बड़ा
नुकसान
पहुंचा। एकाध
तो पूरा करके
दिखाओ। साठ
पीयो कल से।
लेकिन एक कम
अगर पी, तो
ठीक नहीं; फिर
मेरे पास
दुबारा मत
आना।
उन्होंने
कहा, क्या
कहते हैं!
चित्त
उनका बड़ा
प्रसन्न हो
गया। ऊपर से
तो कहने लगे
कि आप क्या
कहते हैं!
लेकिन उनकी आंखें, उनका
चेहरा, सब
आनंदित हो
गया। कि आप
आदमी कैसे! आप
कहते क्या
हैं! साठ! पीयो कल
से। लेकिन कम नहीं।
लेकिन
आप साठ से अगर
एक भी कम हुई, तो
दुबारा मेरे
पास दुबारा मत
आना।
उन्होंने
साठ सिगरेट
पीनी शुरू की।
कठिन था मामला।
कठिन था मामला, क्योंकि
जबर्दस्ती
उनको तीस
सिगरेट और
पीनी पड़ती
थीं। नहीं पीनी
थीं और पीनी
पड़ती थीं। और
जब भी कोई चीज
न पीनी हो और
पीनी पडे, तो
अरुचि बढ़ जाती
है, और जब
पीनी हो और न
पीनी पड़े, तो
रुचि बढ़ जाती
है। आदमी का
मन बहुत अदभुत
है।
तीन—चार
दिन बाद आकर
मुझसे बोले कि
यह संकल्प कब
तक पूरा करना
पड़ेगा? मैंने कहा
कि यह मेरे
हाथ में है, तुम जारी
रखो। यह, जब
मैं कहूंगा, तब इसको
तुड़वा देंगे।
उन्होंने
कहा, यह
बहुत मुश्किल
मामला मालूम
पड़ता है।
जारी
रखो! एक काम तो
जिंदगी में
मुश्किल करके दिखाओ।
सातवें दिन वे
हाथ—पैर जोड़ने
लगे।
उन्होंने कहा
कि मैं बिलकुल, !र मुझे
ऐसा पागलपन
लगता है कि
मुझे पीना
नहीं है और
मैं पी रहा।
हूं! और आपने
मेरी बाकी तीस
सिगरेट भी
खराब कर दीं।
अब ये साठों
ही बेकार लग
रही हैं!
अभी
पीयो! और एक—दो
सप्ताह चलने
दो। यह बिलकुल
जब !_, नर्क
हो जाए; और
जैसा तुम पहले
छोड़कर लोगों
पर चिडचिडाते
थे, जब
इसको पीकर
चिड़चिड़ाने
लगो और झगड़ने
लगो और उपद्रव
करने लगो, तब
देखेंगे।
तीन
सप्ताह में उनकी
हालत पागलपन
की हो गई। तीन
सप्ताह। बाद
वे आए। मैंने
कहा कि अब कोई
दिक्कत नहीं
है, छोड़
दो।। मैंने
उनसे कहा कि
इस समय
तुम्हें कैसा
लगता है? छोड़
पाओगे? उन्होंने
कहा, क्या
आप कह रहे हैं!
किसी तरह भी
छुटकारा हो। जाना
चाहिए इससे।
छूट गई
सिगरेट। वह
मुझसे अब
पूछते हैं—वर्षभर
बाद मुझे मिले, तो मुझसे
पूछते हैं—इसका
राज क्या है? मैंने कहा, राज कुछ भी
नही है। एक
संकल्प जीवन
में तुम्हारा
पूरा हुआ।
तुम्हारी
आत्म—ऊर्जा
जगी। तुम्हें
लगा, मैं
भी कुछ पूरा
कर सकता हूं!
गलत ही सही, पूरा तो कर
सकता हूं।
तुमने जिंदगी
में कभी कुछ
पूरा नहीं
किया था।
ध्यान
रहे, जो
भी संकल्प लें,
वह पूरा हो
सके, तो ही
लें; अन्यथा
मत लें; न
लेना बेहतर
है। एक दफा
उनका टूटना, खतरनाक छेद
छूट जाते हैं।
और हर बच्चे
की जिंदगी में
जो इतने। छेद
बन जाते हैं, उसके लिए हम
जिम्मेवार
हैं; शिक्षक,
मां—बाप, समाज, सब
जिम्मेवार
हैं। न मालूम
क्या—क्या
उनको करवाने
की कोशिश करते
हैं, जो वे
नहीं कर
पाएंगे। उनका
संकल्प टूट
जाएगा। छेद—छेद
आत्मा हो
जाएगी। फिर
दृढ़ संकल्प
होना बहुत मुश्किल
है।
और
दूसरी बात; दृढ़
संकल्प बनाने
की दिशा में
बढ़े। छोटे—छोटे
संकल्प करें,
उन्हें
पूर्ण करें।
धीरे— धीरे आप
पाएंगे कि आप
भी कुछ कर
सकते हैं। और
कोई जरूरत
नहीं है कि
बहुत बड़े—बड़े
काम में लगें,
बहुत छोटे—से
काम में लगें,
कि एक मिनट
तक मैं इस
अंगुली को ऊपर
ही रखूंगा, नीचे नहीं
गिराऊंगा।
अब
इसमें कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन आप
पाएंगे, एक मिनट में
पच्चीस दफे मन
होगा कि क्या
कर रहे हो? नीचे
कर लो! क्या
फायदा? कोई
देख न ले कि यह
अंगुली ऊंची
क्यों रखे हुए
हो! कोई यह न समझ
जाए कि पागल
हो गए हो!
मेरे
पास लोग आते
हैं संन्यास
के लिए, वे कहते हैं
कि गेरुआ कपड़ा
न पहनें तो? माला बाहर न
रखें तो? मैं
उनसे कहता हूं, बाहर ही रखना।
माला का मतलब
नहीं है।
लेकिन किसके
डर से भीतर कर
रहे हो? इतना
भी काफी है कि
तुम माला
पहनकर, गेरुआ
कपड़ा पहनकर
बाजार में
निकल जाओगे, तो भी
तुम्हारा
संकल्प बड़ा
होगा।
ये सब
छोटी बातें
हैं, लेकिन
इनका मूल्य
है। मूल्य
इनका संकल्प
के लिहाज से
है, और कोई
मूल्य नहीं
है। और कोई
मूल्य नहीं
है।
एक
अमेरिकी
युवती पिछले
माह मेरे पास
थी। उसे मैंने
लिखा था..... तीन
बार मेरे पास
आकर गई है। दो
वर्ष से
निरंतर उसका
आना—जाना हुआ
है, लेकिन
संकल्प की
क्षीणता
तकलीफ दे रही
थी। उतने दूर
से आती है; फिर
जो मैं कहता
हूं वह नहीं
कर पाती; फिर
सब द्वंद्व
में पड जाती
है; वापस
लौट जाती है।
इस बार उसने
मुझे लिखा, तो मैंने
उसे लिखा कि
इस बार एक बात
पक्की करके
आना, जो भी
मैं कहूं
उसमें नो, नहीं
नहीं कह सकोगी,
उसमें यस ही
कहना पड़ेगा; जो भी मैं
कहूं! यह
बेशर्त है।
अन्यथा आना
मत। जो भी मैं
कहूं उसमें ही
कहने की
तैयारी हो, तो आना।
स्वभावत:, उसे
सोचना पड़ा कि
पता नहीं मैं
क्या कहूंगा?
उसे खयाल
आया कि जिस
मकान में मैं
रहता हूं वह
छब्बीस मंजिल
मकान है। कहीं
मैं
छब्बीसवीं
मंजिल से
कूदने के लिए
कहूं, तो
मेरी क्या
तैयारी है? उसने तय
किया कि अगर
मैं कूदने के
लिए कहूंगा, तो कूद
जाऊंगी। ही
कहूंगी। उसे
खयाल आया, स्त्री
है, उसे
खयाल आया कि
मैं अगर कहूं
कि जाओ, भरे
बाजार नग्न, चौपाटी का
एक चक्कर लगा
आओ, तो मैं
लगाऊंगी? उसने
तय कर लिया।
कि लगाऊंगी।
वह तय करके
आई। तय करने
से ही बदल
गई।। मुझे न
उसे छब्बीस
मंजिल मकान से
कुदवाना पड़ा
और न चौपाटी
पर नग्न चक्कर
लगवाना पड़ा।
यह जो निर्णय
है—कि ठीक—यह
निर्णय ही बदल
गया।
ध्यान
रखें, बदलने
के लिए और कुछ
भी नहीं करना
पड़ता है; एक
गहरा निर्णय,
और बदलाहट
हो जाती है।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा गहरा
संकल्प जिसका
हो, और इस
संकल्प को वह
मेरे भजन में
लगा दे, मेरे
स्मरण में लगा
दे, यह जो
संकल्प की
धारा है, यह
मेरी तरफ बहने
लगे।
एक
दूसरे प्रतीक
से हम समझ
लें।
हम ऐसी
नदी हैं, जौ कई
दिशाओं में बह
रही है। तो
सागर तक हम
नहीं पहुंचते,
हर जगह
रेगिस्तान आ
जाता है। अगर
गंगा भी कई दिशाओं
में बहे, तो
सागर तक नहीं
पहुंचेगी; सब
जगह
रेगिस्तान
में पहुंच
जाएगी। जहां
भी पहुंचेगी,
वहीं
रेगिस्तान
होगा। सागर तक
पहुंचती है, क्योंकि एक
दिशा में बहती
है।
दूसरा
ध्यान रख लें
कि आपकी चेतना
अगर बहुत दिशाओं
में बहती रहे, तो आपकी
जिंदगी एक
मरुस्थल हो
जाएगी, एक
रेगिस्तान।
सब सूख जाएगा,
और सब जगह
मार्ग खो
जाएगा। लेकिन
अगर एक दिशा में
बह सके, तो
किसी दिन सागर
पहुंच सकती है।
अनन्य
भाव से जो
मुझे स्मरण
करता है, अनन्य भाव
से मेरा भक्त
हुआ...।
इसका
केवल इतना ही
अर्थ है कि
चाहे वह कुछ
भी करता हो, लेकिन
उसकी चेतना की
धारा मेरी ओर
उन्मुख बनी
रहती है। वह
कुछ भी करता
हो।
कभी आप
देखें किसी घर
में, मां
अंदर खाना बना
रही है, खाना
बनाती है, बर्तन
मल रही है, बुहारी
लगा रही है, लेकिन उसकी चेतना
की धारा उसके
बच्चे की तरफ
लगी रहती है।
शोरगुल ही रहा
हो, तूफान
हो. बाहर आंधी
हो, हवा चल
रही हो, बैंड—बाजे
बज रहे हों, बादल गरज
रहे हों, बिजली
कड़क रही हो, लेकिन बच्चे
की जरा सी
रोने की आवाज
उसे सुनाई पड़
जाती है। रात
मां सोई हो—मनसविद
भी बहुत हैरान
हुए हैं—मां
सोई हो, तो।
आकाश में बादल
गरजते रहें, उसकी नींद
नहीं टूटती!
और बच्चा जरा—सा
कुनमुन कर दे,
और उसकी
नींद टूट जाती
है! बात क्या होगी?
क्या होगा
इसका कारण?
इसका
एक ही कारण है, एक अनन्य
धारा, एक
प्रेम का
अनन्य भाव बहा
जा रहा है।
अभी एक
डच महिला मेरे
पास थी। वह
किसी आश्रम में
' संन्यासिनी
है। बच्चा
उसको है छोटा।
वह मेरे पास
आई, उसने
कहा कि जब से
यह बच्चा हुआ
है, तब से
मैं ध्यान
नहीं कर पाती।
कितना ही
ध्यान लगाकर
बैठूं? बस मुझे
इसका ही। जब
ध्यान लगाती हूं, तो और इसका
खयाल आता है
कि पता नहीं, कहीं बाहर न
सरक गया हो; कहीं झूले
से नीचे न उतर
गया हो, कहीं
गाय के नीचे न
आ जाए; कहीं
कुछ हो न जाए!
तो मेरा सब
ध्यान नष्ट हो
गया है। दो
साल से आश्रम
में हूं इस
बच्चे की वजह से
मेरा सब ध्यान
नष्ट हो गया
है। तो अब मैं
क्या करूं?
मैंने
उससे कहा, ध्यान को
छोड़, बच्चे
पर ही ध्यान
कर। अब ध्यान
को बीच में क्यों
लाना! बच्चा
काफी है।
मैं
क्या करूं?
ध्यान
मत कर, जब
बच्चा झूले
में लेटा हो, तो तू पास
बैठ जा और
बच्चे पर ही आंख
से ध्यान कर।
बच्चे को ही
भगवान समझ।
अच्छा मौका
मिल गया।
बच्चे पर इतना
ध्यान दौड़ रहा
है सहज, बच्चे
में भगवान
देखना शुरू
कर।
पंद्रह
दिन में उसे
लगा कि मैंने
वर्षों ध्यान
करके जो नहीं
पाया, वह
इस बच्चे पर
ध्यान करके पा
रही हूं। और
अब बच्चा मुझे
दुश्मन नहीं
मालूम पड़ता; बीच में जब
मुझे ध्यान
में बाधा पड़ती
थी, बच्चा
दुश्मन मालूम
पड़ता था। अब
बच्चा मुझे सच
में ही भगवान
मालूम पड़ने
लगा है; क्योंकि
इसके ऊपर मेरा
ध्यान जितना
गहरा हो रहा
है, उतना
किसी भी
प्रक्रिया से
कभी नहीं हुआ
था।
अनन्य
भाव का अर्थ
है, जहां
भी आपका भाव
दौड़ता हो, वहीं
भगवान को
स्थापित कर
लें।
दो
उपाय हैं। एक
तो यह है कि
कहीं भगवान है, आप सब तरफ
से अपने ध्यान
को खींचकर
भगवान पर ले
जाएं। यह बहुत
मुश्किल है; इसमें आप
हारेंगे; इसमें
जीत की
संभावना न के
बराबर है। कभी
हजार में एक
आदमी जीत पाता
है सब तरफ से
खींचकर भगवान
की तरफ ले जाने
में। कठिन है।
शायद नहीं हो
पाएगा।
पर एक
बात हो सकती
है, जहां
भी ध्यान जा
रहा हो, वहीं
भगवान को रख
लें। अगर
वेश्या के घर
भी आपके पैर
जा रहे हैं, और ध्यान
वेश्या की तरफ
जा रहा है, तो
चूके मत मौका;
वेश्या को
भी भगवान ही
समझ लें। और
आपके पैर की
धुन बदल जाएगी,
और आपकी
चेतना का भाव
बदल जाएगा, और एक न एक
दिन आप पाएंगे
कि वेश्या के
घर गए थे, लेकिन
मंदिर से वापस
लौटे हैं!
यह जो क्रांति
की संभावना है, यह अनन्य
भाव से उसकी
भक्ति में है।
तो
कृष्ण कहते
हैं कि वह
दुराचारी भी
हो, कोई
फिक्र नहीं।
लेकिन मुझे
देखने लगे अपने
कर्मों में, चारों तरफ
मुझे अनुभव
करने लगे, सब
ओर मेरी
प्रतीति
उसमें गहरी
होती चली जाए,
मेरे स्मरण
का तीर उसमें
गहरा होता चला
जाए, तो
शीघ्र ही
धर्मात्मा हो
जाता है।
सदाचारी
नहीं कहते वे।
कहते हैं, धर्मात्मा।
सदाचार से बड़ी
ऊंची बात है।
धर्मात्मा का
अर्थ है, जिसकी
आत्मा धर्म हो
जाती है। आचरण
तो अपने आप
ठीक हो जाता
है। आचरण तो
गौण है, आदमी
के पीछे छाया
की तरह चलता
है। चूंकि
भीतर हम कुछ
भी नहीं हैं, इसलिए बाहर
सब
अस्तव्यस्त
है। जिस दिन
भीतर हम कुछ
हो जाते हैं, बाहर सब
सुव्यवस्थित
हो जाता है।
भीतर के मालिक
को सिंहासन पर
बिठा दें, बाहर
के सब नौकर—चाकर
हाथ जोड़कर
सेवा में रत
हो जाते हैं।
भीतर का मालिक
बेहोश पडा है।
सिंहासन
से नीचे औंधा
पड़ा है। मुंह
से उनके फसूकर
निकल रहा है।
भीतर के मालिक
इस हालत में हैं, बाहर सब
नौकर—चाकर
गड़बड़ में हो
जाते हैं।
जिसको
हम अनीति कहते
हैं, वह
हमारी
इंद्रियों के
ऊपर मालिक का
अभाव है, अनुपस्थिति
है। वहा मालिक
मौजूद ही नहीं
है,। बेहोश
पड़ा है। तो
ठीक है, जिसको
जो सूझ रहा है,
वह कर रहा है।
इसमें
इंद्रियों की
कोई गलती भी
नहीं है। इंद्रियों
को दोष देना
मत, इंद्रियों
की कोई भी
गलती नहीं है।
इंद्रियों को
कोई देखने
वाला ही नहीं
है, दिशा
देने वाला
नहीं है, सूचन
देने वाला
नहीं है। और
तब इंद्रियों
से जो बनता है,
वह करती
हैं।
और सब
इंद्रियां
अलग—अलग हैं, उनके बीच
कोई
एकसूत्रता
नहीं रह जाती।
कैसे रहेगी? एकसूत्रता
जिससे मिल
सकती है, वह
सोया हुआ है।
तो जब सोया
हुआ है सूत्र
मूल, जो
सबको जोड़ता।
है, तो कान
कुछ सुनते हैं,
आंखें कुछ
देखती हैं, हाथ कुछ
खोजते हैं, पैर कहीं
चलते हैं, मन
कहीं भागता है,
सब
अस्तव्यस्त
हो जाता है।
नदी कई धाराओं
में बंट जाती
है। फिर एक
दिशा नहीं रह
जाती। धर्मात्मा
हो जाता है वह
व्यक्ति।
उसकी आत्मा ही
धर्म हो जाती
है। फिर आचरण
तो अपने आप
बदल जाता है।
सदा रहने वाली
शांति को
उपलब्ध होता
है।
अनैतिक
व्यक्ति शांति
को उपलब्ध
नहीं होता।
कैसे होगा? बुरा
करेगा दूसरों
के साथ, दूसरे
उसके साथ बुरा
करेंगे।
नैतिक व्यक्ति
भी शांति को
उपलब्ध नहीं
होता।
क्योंकि
बुराई को दबाता
है; बुराई
भीतर धक्के
मारती है कि
मुझे मौका दो।
भीतर अशांति
हो जाती है।
अनैतिक
व्यक्ति को
अशांति झेढ़नी
पड़ती है, दूसरों और
स्वयं के बीच
में, नैतिक
व्यक्ति को
झेलनी पड़ती है,
अपने ही
भीतर। अनैतिक
डरा रहता है
कि बाहर कहीं
फंस न जाए।
नैतिक डरा
रहता है कि
भीतर जिसको
दबाया है, कहीं
वह निकल न आए।
दोनों ही अशांत
होते हैं।
केवल
सदा रहने वाली
शांति को वही
उपलब्ध होता है, जो भीतर
धर्मात्मा हो
जाता है।
धर्मात्मा का अर्थ
है, जिसकी
आत्मा प्रभु
में स्थापित हो
जाती है।
प्रभु की तरफ
दौड़ते—दौड़ते
बहकर नदी सागर
में गिर जाती
है। जिस दिन
सागर और नदी
का मिलन होता
है, जहां
सागर और नदी
का संगम होता
है, वहीं
धर्मात्मा का
जन्म होता है।
जिस दिन आत्मा
परमात्मा से
मिलती है, वह
जो संगम—स्थल
है, वहीं
धर्मात्मा का
जन्म है। फिर
कोई अशांति
नहीं है, न
बाहर, न
भीतर।
हे
अर्जुन, तू
निश्चयपूर्वक
जान, मेरा
भक्त कभी नष्ट
नहीं होता है।
नष्ट
होने का कोई
कारण ही न
रहा। नष्ट तो
वे ही होते
हैं, जो अशांत
हैं। बिखरते
तो वे ही हैं, जो भीतर
टूटे हुए हैं।
जो भीतर एक हो
गया, संयुक्त
हो गया, उसके
नष्ट होने का
कोई कारण नहीं
है। और अब हम
पहले सूत्र को
लें।
मैं सब
भूतों में सम—
भाव से व्यापक
हूं। न कोई
मेरा अप्रिय
है और न कोई
प्रिय। परंतु
जो भक्त मेरे
को प्रेम से
भजते हैं, वे मेरे
में और मैं
उनमें प्रकट
हो जाता हूं।
सब
भूतों में सम—
भाव से हूं।
ऐसा नहीं
है कुछ, जैसा लोग
कहते हैं
अक्सर कि फलां
व्यक्ति पर परमात्मा
की बड़ी कृपा
है। परमात्मा
की कृपा किसी
पर भी कम—ज्यादा
नहीं है।
भूलकर इस शब्द
का उपयोग दोबारा
मत करना। एक
आदमी कहता है
कि प्रभु की
कृपा है.।
उसका मतलब
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
कभी उसकी
अकृपा भी होती
है? या एक
आदमी कहता है
कि मुझ पर अभी
प्रभु की कोई कृपा
नहीं है। तो
उसका अर्थ हुआ
कि उसकी अकृपा
होगी!
नहीं, उसकी
अकृपा होती ही
नहीं। इसलिए
उसकी कृपा का कोई
सवाल नहीं है।
वह सम— भाव से
सबके भीतर
मौजूद है। यह
कहना भी भाषा
की कठिनाई है,
इसलिए; अन्यथा
सब में वही है,
या सब वही
है। जरा भी, रत्तीभर
फर्क नहीं है।
कृष्ण में या
अर्जुन में, मुझ में या
आप में, आप
में या आपके
पड़ोसी में, आप में या
वृक्ष में, आप में या
पत्थर में, जरा भी फर्क
नहीं है।
लेकिन
फर्क तो दिखाई
पड़ता है! कोई
बुद्ध है। कैसे
हम मान लें कि
बुद्ध में वह
ज्यादा प्रकट
नहीं हुआ है!
कैसे हम मान
लें कि बुद्ध
में वह ज्यादा
नहीं है, और हम में, हम में भी
उतना ही है!
कठिनाई है।
साफ दिखाई पड़ता
है। गणित
कहेगा, नाप—जोख
हो सकती है कि
बुद्ध में वह
ज्यादा है, कृष्ण में
वह ज्यादा है।
इसीलिए तो हम
कहते हैं, कृष्ण
अवतार हैं, बुद्ध अवतार
हैं, महावीर
तीर्थंकर हैं,
जीसस भगवान
के पुत्र हैं,
मोहम्मद
पैगंबर हैं, आदमियों से
अलग करते हैं
उन्हें।
उनमें वह
ज्यादा दिखाई पड़ता
है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, मैं
सम— भाव से
व्यापक हूं।
फिर भेद कहां
पड़ता होगा? न मेरा कोई
अप्रिय है और
न मेरा कोई
प्रिय।
प्रेम जब
पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय
रह जाता, न
कोई प्रिय।
क्योंकि जब तक
मैं कहता हूं
कोई मुझे
प्रिय है, तो
उसका अर्थ है
कि कोई मुझे
अप्रिय है। और
जब तक मैं
कहता हूं कोई
मुझे प्रिय है,
उसका यह भी
मतलब है कि जो
मुझे प्रिय है,
वह कल
अप्रिय भी हो
सकता है, क्योंकि
आज जो अप्रिय
है, वह कल
प्रिय हो सकता
है। जब प्रेम
पूर्ण होता है,
तो न कोई
अप्रिय होता,
न कोई प्रिय
होता। और न आज
प्रिय होता और
न कल अप्रिय
होता। ये सारे
भेद गिर जाते
हैं। परमात्मा
पूर्ण प्रेम
है, इसलिए
कोई उसका
प्रिय नहीं है
और कोई अप्रिय
नहीं है।
परंतु
जो भक्त मेरे
को प्रेम से
भजते हैं, वे मेरे
में और मैं
उनमें प्रकट
हूं।
यह
फर्क है, यहीं भेद
है। यहीं
बुद्ध कहीं
भिन्न, महावीर
कुछ और, और
हम कुछ और
मालूम पड़ते
हैं।
जो
भक्त मुझे
प्रेम से भजते
हैं, मैं
उनमें प्रकट
हो जाता हूं; जो मुझे
नहीं भजते हैं,
उनमें मैं
अप्रकट बना
रहता हूं।
व्यापकता
में भेद नहीं
है, लेकिन
प्रकट होने
में भेद है।
एक बीज
है। बीज को
माली ने बो
दिया, अंकुरित
हो गया। एक
बीज हम अपनी
तिजोड़ी में रखे
हुए हैं।
दोनों बीजों
में जीवन समान
रूप से व्यापक
है! और दोनों
बीजों में
संभावना पूरी
है। लेकिन एक
बीज बो. दिया
गया और एक
तिजोड़ी में बंद
है। जो बो
दिया गया, वह
अंकुरित हो
जाएगा। जो
अंकुरित हो
जाएगा, उसमें
फूल लग
जाएंगे। कल हम
अपने तिजोड़ी
के बीज को
निकालें, और
उस
वृक्ष
के पास जाकर
कहें कि तुम
दोनों समान हो, हमारा
तिजोड़ी का बीज
मानने को राजी
नहीं होगा।
वह कहेगा
कैसे समान? कहां यह वृक्ष, जिस पर हजारों
पक्षी गीत गा
रहे हैं। कहां
यह वृक्ष, जिसके
फूलों की
सुगंध दूर—दूर
तक फैल गई है।
कहां यह वृक्ष,
जिससे सूरज
की किरणें रास
रचाती हैं। कहां
यह वृक्ष और
कहां मैं, बंद
पत्थर की तरह!
कुछ भी तो
मेरे पास नहीं
है। मैं दीन—दरिद्र,
मेरे पास
कोई आत्मा
नहीं है, कोई
फूल, कोई
सुवास नहीं
है। मुझे इस
वृक्ष के साथ
एक कहकर क्यों
मजाक उड़ाते हो?
क्यों
व्यंग करते हो?
लेकिन
हम जानते हैं, उन दोनों
में वृक्ष सम—
भाव से व्यापक
है। पर एक में
प्रकट हुआ, क्योंकि खाद
मिली, जमीन
में पड़ा, पानी
पड़ा, सूरज
के लिए मुक्त
हुआ, उठा, हिम्मत की, साहस जुटाया,
संकल्प
बनाया, आकाश
की तरफ फैला, अज्ञात में
गया, अनजान
की यात्रा पर
निकला, तो
वृक्ष हो गया
है।
कृष्ण
कहते हैं, जो मुझे
प्रेम से भजते
हैं!
यह
प्रेम से भजना
ही बीज को
जमीन में
डालना है।
प्रेम से भजने
का अर्थ है कि
जो आदमी दिन—रात
प्रभु को सब
तरफ स्मरण
करता है, उसके चारों
तरफ प्रभु की
भूमि निर्मित
हो 'जाती
है—चारों तरफ।
उठता है तो, बैठता है तो,
खाता है तो,
प्रभु को
स्मरण करता
रहता है।
चारों तरफ
धीरे—धीरे, उसकी चेतना
के बीज के
चारों तरफ
प्रभु की भूमि
इकट्ठी हो
जाती है। उसी
भूमि में बीज
अंकुरित होता
है। निश्चित
ही, जमीन
में बीज को
गाड़ना पड़ता
है। तो प्रकट
बीज है, प्रकट
जमीन है। यह
जो चेतना का
बीज है, अप्रकट
है, अप्रकट
ही इसकी जमीन
होगी। उस जमीन
को पैदा करना
पड़ता है।
चारों तरफ
मिट्टी
इकट्ठी करनी
पड़ती है उस
जमीन की। वही
प्रभु की
भक्ति है।
और तब
वे मेरे में
और मैं उनमें
प्रकट होता हूं।
यह
प्रकट होना भी
दोहरा है। जब
एक वृक्ष आकाश
में खुलता है, तो दोहरी
घटना घटती है।
यह वृक्ष तो
आकाश में
प्रकट होता ही
है, आकाश
भी इस वृक्ष
में प्रकट
होता है। यह
वृक्ष तो सूरज
के समक्ष
प्रकट होता ही
है, सूरज
भी इस वृक्ष
के भीतर से
पुन: प्रकट
होता है। यह
वृक्ष तो
हवाओं में
प्रकट होता ही
है, हवाएं
इस वृक्ष के
भीतर श्वास
लेती हैं और
प्रकट होती
हैं। यह वृक्ष
तो प्रकट होता
ही है, इस
वृक्ष के साथ
जमीन भी प्रकट
होती है, इस
वृक्ष के साथ
जमीन की सुगंध
भी प्रकट होती
है। यह वृक्ष
ही प्रकट नहीं
होता, वृक्ष
के साथ सारा
जगत भी इसके
भीतर से प्रकट
होता है।
तो जब कोई एक
भक्त बीज बन
जाता है और
अपने चारों
तरफ परमात्मा
के स्मरण की
भूमि को
निर्मित कर
लेता है, तो दोहरी घटना घटती
है। भक्त परमात्मा
भक्त में
प्रकट होता
है। वे दोनों
प्रकट हो जाते
हैं। वे आमने—सामने
हो जाते हैं।
एनकाउंटर।
हम सब ने सदा
भगवान से
साक्षात्कार
का मतलब ऐसा
ही सोचा है कि
आमने —सामने
खड़े हो
जाएंगे। वे
मोर—मुकुट
बांधे हुए ' खड़े
होंगे, हम
हाथ जोड़े, उनके
घुटनों में
पैर टेके खड़े
होंगे!
ऐसा
कहीं नहीं
होने वाला है।
यह तो कवि का
काव्य है, और मधुर
है, प्रीतिकर
है, लेकिन
काव्य है। वस्तुत:
जो
अभिव्यक्ति
होगी प्रकट
होने की, वह
ऐसी नहीं
होगी। वह तो
ऐसी होगी कि
जब हम अपने
भीतर के बीज
को तोड्ने में
समर्थ हो
जाएंगे, तो
जो
अभिव्यक्ति
होगी, वह
दो व्यक्ति
आमने—सामने
खड़े हैं ऐसी
नहीं,।
बल्कि दो
दर्पण आमने—सामने
रखे हैं।
दो
दर्पण अगर
आमने—सामने
रखे हैं, तो पता है
क्या होगा? एक दर्पण
दूसरे में
दिखाई पड़ेगा,
दूसरा
दर्पण पहले
में दिखाई
पड़ेगा। और फिर
अनंत दर्पण, एक के भीतर, एक के भीतर, एक के भीतर
दिखाई पड़ते
जाएंगे। वह जो
इनफिनिटी, वह
जो अनंत दर्पण
दिखाई पड़ेंगे,
और हर दर्पण
फिर उसको
दिखाएगा, और
फिर वह दर्पण
इसको
दिखाएगा। और
यह अनंत होगा।
दो
दर्पण एक—दूसरे
के सामने हों, तो जो
होगा, वही
जब हमारी
चेतना
परमात्मा की
चेतना के सामने
होती है, तो
होता है।
अंतहीन हो
जाते हैं हम।
और वह तो
अंतहीन है ही।
अनंत हो जाते
हैं हम, वह
तो अनंत है
ही। अनादि हो
जाते हैं हम, वह तो अनादि
है ही। अमृत
हो जाते हैं
हम, वह तो
अमृत है ही।
और दोनों एक—दूसरे
में झांकते
हैं। और यह
झांकना अनंत
है। इस झांकने
का फिर कोई
अंत नहीं
होता। यह फिर
कभी समाप्त
नहीं होता।
तो
ध्यान रखें, परमात्मा
से मिलन होता
है, फिर
बिछुड़न नहीं
होती। फिर वह
मिलन अनंत है।
और फिर उस
मिलन की रात
का कोई अंत
नहीं है। उस
सुहागरात का
फिर कोई अंत
नहीं है। वहा
से फिर कोई
वापस नहीं
लौटता। वहा से
पुनरागमन
नहीं है।
पर
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
परमात्मा किसी
को प्रेम करता
है और उसे
दर्शन दे देता
है, और
किसी को प्रेम
नहीं करता और
उसको चकमा
देता रहता है
कि दर्शन नहीं
देंगे!
नहीं, इससे कोई
संबंध नहीं
है। परमात्मा
के प्रेम का
सवाल नहीं है,
आपके श्रम
का सवाल है।
उसकी कृपा का
सवाल नहीं है, आपके
संकल्प का
सवाल है।
उसकी
कृपा प्रतिपल
बरस रही है, लेकिन आप
अपने मटके को
उलटा रखकर
बैठे हैं। आप
चिल्ला रहे
हैं कि कृपा
नहीं है। पास
का मटका भरा
जा रहा है। वह
मटका सीधा रखा
है, आप
अपने मटके को
उलटा रखे बैठे
हैं। और अगर
कोई आकर कोशिश
भी करे आपके मटके
को सीधा रखने
की, तो आप
बहुत नाराज
होते हैं। आप
कहते हैं, यह
हमारा ढंग है;
यह हमारी
मान्यता है; यह हमारा
दृष्टिकोण है;
यह हमारा
धर्म है, यह
हमारा मत है; यह हमारे
शास्त्र में
लिखा है!
आप
हजार दलीलें
देते हैं अपने
मटके को उलटा
रखे रहने के
लिए। और जब भी
कोई अगर जोर—जबर्दस्ती
आपके मटके के
साथ सीधा करने
की करे, तो कष्ट
होता है, पीड़ा
होती है, झंझट
होती है; सुखद
नहीं मालूम
पड़ता। मटका
उलटा रखा है
सदा से। हमें
लगता है, यही
इसके रखे होने
का ढंग है।
फिर पास का
मटका भर जाता
है, तो हम
चिल्लाते हैं,
परमात्मा
किसी पर ज्यादा
कृपालु मालूम
हो रहा है और
हम पर कृपालु
नहीं है।
परमात्मा
की वर्षा
निरंतर हो रही
है, जो
भी अपने मटके
को सीधा कर
लेता है, वह
भर जाता है।
और कोई बाधा
नहीं है। आपके
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। आपके
अतिरिक्त और कोई
आपका शत्रु
नहीं है। आपके
अतिरिक्त और किसी
ने कभी कोई विध्न
नहीं डाला है।
अगर आप
परमात्मा से
नहीं मिल पा
रहे हैं, तो इसमें
आपका ही हाथ
है। अगर आप
मिल पाएंगे, तो यह आपकी
ही आपके ऊपर
कृपा है।
परमात्मा की कृपा
का इसमें कुछ
लेना—देना
नहीं है। उसका
प्रेम सम है।
उसका अस्तित्व
हमारे भीतर
समान है। उसकी
क्षमता, उसकी
बीज— क्षमता
हमारे भीतर एक—सी
है। लेकिन फिर
भी हम
स्वतंत्र
हैं। और चाहें
तो उस बीज को
वृक्ष बना लें,
और चाहें तो
उस बीज को बंद
रख लें।
हम सब
तिजोडियों
में बंद बीज
हैं। और सब
अपनी—अपनी
तिजोडियो पर
ताले डाले हुए
हैं मजबूत कि कोई
खोल न दे! कहीं
बीज बाहर न
निकल जाए!
इसके
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। दो—तीन
प्रश्न रोज
मुझसे लोग पूछ
रहे हैं, एक—दो मिनट
उनके संबंध
में आपसे कह
दूं। कुछ प्रश्न
तो ऐसे हैं, जिनका कोई
भी संबंध नहीं
है। उनको
उत्तर नहीं दिया
जाता, तो
वे तकलीफ
अनुभव करते
हैं। क्योंकि
किसी के
प्रश्न का
उत्तर न मिले,
तो उसके
अहंकार को चोट
लग जाती है।
उसको इसकी फिक्र
ही नहीं होती कि
उसका प्रश्न
क्या था।
एक
मित्र ने पूछा
है कि चंद्रमा
पर आदमी पहुंच
गया, लेकिन
हिंदू
शास्त्रों
में लिखा है
कि वहां देवताओं
का वास है!
इसका उत्तर
दीजिए।
इधर
गीता चल रही
है, उससे
इसका कोई
प्रयोजन नहीं
है। इस पर अगर
मैं चर्चा
करने बैठ जाऊं,
तो गीता बंद
कर देनी पड़े।
फिर चर्चा का
दूसरा रुख, वह मेरी आदत
नहीं है। जो
मैं बात कर
रहा हूं उससे
इतर बात करना
मुझे पसंद
नहीं है। इस
तरह के प्रश्न
का उत्तर नहीं
दिया जाता है,
तो उनको
लगता है कि
भारी नुकसान
हो गया। फिर
मुझे यह भी
समझ में नहीं
पड़ता कि साधक
को क्या
प्रयोजन कि
चांद पर देवता
रहते हैं कि
नहीं रहते।
आपके भीतर कौन
रहता है, इसकी
फिक्र करनी
उचित है। चांद
पर न भी रहते हों,
तो कुछ
हर्जा नहीं
है। और रहते
भी हों, तो
मजे से रहें!
आपको कुछ लेना—देना
नहीं है। इन
सब बातों का
साधक के लिए
कोई अर्थ नहीं
होता।
मैं
उतनी ही बातें
आपसे कहना
पसंद करता हूं
जो किसी तरह
आपकी साधना के
लिए उपयोगी
हों। व्यर्थ
की बातों में
प्रयोजन मुझे
नहीं है। आपका
प्रश्न गलत है, यह नहीं
कहता। किसी के
लिए सार्थक हो
सकता है, वह
खोज में लगे।
एक
मित्र छपा हुआ
पर्चा रोज
यहां बांटकर
मुझे दे जाते
हैं। पोस्ट से
भी मुझे घर
भेजा है। भारी
नाराज हैं। वे
जो मित्र रोज
शोरगुल करके
खड़े हो जाते
हैं, उनका
पर्चा है। उस
पर्चे में है
कि राजस्थान में
किसी आदमी ने कोई
किताब लिखी है, कि दशरथ
नपुंसक थे, या लक्ष्मण
व्यभिचारी
थे।
मुझे
पता नहीं है!
मैंने वह
किताब पढ़ी
नहीं। जिन्होंने
पर्चा छापा है, उन्होंने
भी नहीं पढ़ी
है। किसी
अखबार में उन्होंने
यह पढ़ा है कि
ऐसा किसी आदमी
ने लिखा है। वे
बार—बार मुझे
यहां चिट्ठी
लिखकर भेजते
हैं कि मैं जवाब
दूं।
मेरी
समझ में नहीं
आता! मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है। और दशरथ
नपुंसक थे या
नहीं, इस
रिसर्च में
जाने का भी
मुझे कोई अर्थ
नहीं समझ में
आता। हों, तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता; न
हों, तो
कोई प्रयोजन
मुझे नहीं है।
जिसको
प्रयोजन हो, वह खोजबीन
में लगे।
लेकिन इधर उस
सवाल को उठाने
का कोई कारण नहीं
है।
लेकिन
हमारे मन न
मालूम कहा—कहा
के सवाल उठाते
हैं! हम सोचते
हैं, भारी
काम हो रहा
है। वह मित्र
कल मुझे
चिट्ठी लिखकर
दे गए हैं, दो
दिन से रोज
चिट्ठी लिखकर
देते हैं, कि
वे यहां आधा घंटा
मंच पर आकर एक
बात सिद्ध
करना चाहते
हैं। वे यह
सिद्ध करना
चाहते हैं कि
मैं मूर्ख
हूं।
इसे
सिद्ध करने की
कोई जरूरत
नहीं है। मैं
बिना सिद्ध
किए इसे मान
लेता हूं। इसे
सिद्ध तो तब
करना पड़े, जब मैं
कहूं कि मैं
नहीं हूं या
उनकी बात को
गलत कहूं। मैं
मूर्ख हूं।
क्योंकि अगर
मैं मूर्ख न
होऊं, तो
उन जैसे बुद्धिमान
जनों को
समझाने की
कोशिश ही
क्यों करूं।
सहज—साफ ही
है। इसको
सिद्ध करने की
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि
सिद्ध करने
में समय व्यय
करना है। मैं
मान ही लेता
हूं।
कृष्ण
के वक्त में
अगर वे होते, तो कृष्ण
ने एक सूत्र
अर्जुन से और
कहा होता। उन्होंने
कहा होता, हे
कौन्तेय, जिनके
दिमाग के स्कू
थोड़े ढीले हैं,
उनमें भी
मैं हूं। वह
कृष्ण नहीं कह
पाए, यह एक
नुकसान हुआ।
उनकी मौजूदगी
जरूरी थी। गीता
ज्यादा
समृद्ध हुई
होती। उसमें
एक सूत्र और
उपलब्ध हो
जाता। लेकिन
यह बात पक्की
है, स्कू
ढीले हों कि
ज्यादा कसे
हों, मैं
उनके भीतर
हूं। इसमें
कोई शक—शुबहा
नहीं है।
इस तरह
की बातें
हमारे मुल्क
के मन में न
मालूम कैसे—कैसे
घूमती रहती
हैं! इन सारी
बातों ने
हमारे मुल्क
को एकदम
क्षुद्रतम
हालत में खड़ा
कर दिया है।
सोचें
विराट को, खोजें
विराट को; व्यर्थ
की बातों में
समय जाया न
करें। लेकिन हम
समझते हैं कि
भारी संकट आ
गया। किसी ने
लिख दिया कि
दशरथ नपुंसक
थे। अब वह
बेचारा कुछ
खोज—बीन कर
रहा होगा। गलत
होगा, सही
होगा।
किन्हीं को
उत्सुकता हो,
वे सिद्ध
करने में
लगें।
पर बड़ा
मुश्किल
मामला है
सिद्ध करना कि
थे कि नहीं
थे। बहुत कठिन
है। पर मुझे
तो प्रयोजन भी
नहीं है।
जिनको
प्रयोजन है, वे भी
क्यों इतने
आतुर हैं, कुछ
समझ में नहीं
आता! इस तरह की
बातों को जरा
भी मूल्य देने
की जरूरत नहीं
है। कोई लिखे,
तो भी देने
की जरूरत नहीं
है। उसको तूल
देने की भी
जरूरत नहीं है
कि शोरगुल
मचाओं। उस
शोरगुल से और
प्रचार होता
है कि यह क्या
मामला है! इन
सबमें पड़ने की
जरा भी जरूरत
नहीं है।
धार्मिक
आदमी का यह
लक्षण नहीं
है। धार्मिक आदमी
को एक। ही
चिंता है कि
किसी भांति
उसके जीवन का
एक—एक पल रीता
जा रहा है, उस रीतते
हुए जीवन में
वह खाली हाथ
ही लौट जाएगा?
या कि उस
रीतते हुए
जीवन में प्रभु
की कोई झलक
मिलनी संभव है?
मैं उसी
दृष्टि से सब
बोल रहा हूं।
आप पूछ लेते
हैं, आवश्यक
नहीं है कि
मैं जवाब दूं।
आप पूछ लेते
हैं, आपका
काम पूरा हो
गया। मुझे
लगेगा कि इससे
आपकी साधना
में कोई
सहायता
मिलेगी, तो
ही जवाब
दूंगा।
कुछ
ऐसे सवाल लोग
पूछते हैं, जो उनके
निजी, वैयक्तिक
हैं। अब एक
व्यक्ति पूछ
लेता है। यहां
तीस—चालीस
हजार आदमी
बैठे हों, इनके
तीस हजार घंटे
खराब करना एक
व्यक्ति के निजी
प्रश्न के लिए
बेमानी है।
तीस हजार घंटे
बहुत बड़ा वक्त
है। अगर एक
आदमी की
जिंदगी, तो
दस साल की
जिंदगी एक
आदम। की खतम
होती है, चालीस
हजार घंटे अगर
हम खराब करें
तो।
तो एक
आदमी कुछ पूछ
लेता है, उसकी
व्यक्तिगत रुचि
है, उसे
मेरे पास आ
जाना चाहिए। यहां
जोर देने की
जरूरत नंदी
है।
और एक
बात पक्की समझ
लें कि आपने
पूछा, मैंने
जवाब नहीं
दिया, उसका
कुल कारण इतना
है कि मैं
नहीं समझता कि
इतने लोग जो यहां
इकट्ठे हैं, इनके लिए उस
जवाब की कोई
भी जरूरत है।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट
बैठेंगे।
कीर्तन में
सम्मिलित हों
और फिर जाएं।
thank you guruji
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