अध्याय—9
सूत्र
येऽम्मन्यदेक्ता
भक्त? यजन्ते
श्रद्धायान्त्रिता।
तेऽयि
मामेव
कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्
।। 23।।
अहं हि
सर्वज्ञानां
भोक्ता च
प्रभुरेव च।
न तु
मामीभजानन्ति
तत्वेनातश्व्यवन्ति
ते।। 24।।
यान्ति
देवव्रता
देवान्
पितृन्यान्ति
पितृक्ता।
भूतानि
यान्ति
भूतेज्या
यान्ति
मद्याजिनोऽपि
माम् ।। 25।।
और हे
अर्जुन
यद्यपि
श्रद्धा
युक्त हुए जो
सकाम भक्त
दूसरे
देवताओं को
पूजते है, वे भी
मेरे को ही
पूजते हैं।
किंतु उनका यह
पूजन।
अविधिपूर्वक
है, अर्थात
अज्ञानपूर्वक
है। क्योंकि
संपूर्ण यज्ञों
का भोक्ता और
स्वामी भी मैं
ही हूं।
परंतु
वे मुझे
अधियज्ञ—
स्वरूप
परमेश्वर को
तत्व से नहीं
जानते है। इसी
से गिरते है, अर्थात
पुनर्जन्म को
प्राप्त होते
हैं।
कारण
यह है कि
देवताओं को पूजने
वाले देवताओं
को प्राप्त
होते है, पितरों
को पूजने वाले
पितरों को
प्राप्त होते
है। भूतों को
पूजने वाले
भूतों को
प्राप्त होते
है, और
मेरे भक्त
मेरे को ही
प्राप्त होते
हैं। हसलिए मेरे
भक्तों का पूनर्जन्म
नही होता।
मनुष्य की
खोज चाहे हो
कुछ भी, चाहे माग हो
कोई, चाह
हो कोई, किसी
भी दिशा में
दौड़ता हो, कुछ
भी पाना चाहता
हो, लेकिन
अंततः मनुष्य
परमात्मा को ही
पाना चाहता
है। उसकी सब
चाहो में
परमात्मा की
ही चाह छिपी
होती है। उसकी
सब वासनाओं
में उस प्रभु
की तरफ
पहुंचने की ही
आकांक्षा का
बीज छिपा होता
है। और जरूरी
नहीं है कि यह
उसे ज्ञात हो,
इसका ज्ञान
न भी हो। नहीं
होता है। तो
भी बीज परमात्मा
की ही तलाश का
है।
हम एक
बीज को बोते
हैं जमीन में, उस बीज को
पता भी नहीं
होगा कि वह
किस लिए टूट रहा
है और किस लिए
अंकुरित हो
रहा है। उसे
यह भी पता
नहीं होगा कि
इस अंकुरण की
प्रक्रिया का
अंतिम रूप
क्या होने को
है। उसे यह भी
पता नहीं है
कि यह जो आकाश
की तरफ उसकी
दौड़ चल रही है,
यह जो आकाश
में शाखाओं को
फैला देने का
आयोजन चल रहा
है, यह किस
लिए है? वह
किसे पाना
चाहता है? उसे
उन फूलों का
तो कोई भी
स्मरण न होगा,
कोई भी
स्वप्न भी
नहीं होगा, जो फूल उसकी
शाखाओं पर
खिलेंगे। और
उन बीजों की
उसे कोई खबर
नहीं हो सकती
है, जो
उसके ऊपर लगने
वाले हैं। उस
जीवन का भी
उसे कोई अंदाज
नहीं हो सकता,
जो कि वृक्ष
का जीवन होगा।
ठीक, आदमी भी
बीज की तरह
परमात्मा की
तरफ बढ़ता है, अनजाने। उसे
पता भी नहीं
कि वह क्या
खोज रहा है!
क्यों खोज रहा
है! उसकी सब
खोजों में
अंतर्निहित
खोज क्या है!
इसे हम थोड़ा
आदमी की इच्छाओं
को समझें, तो
समझना आसान हो
जाएगा।
एक
आदमी है, जो धन चाहता
है; धन के
पीछे दौड़ रहा
है। उससे अगर
हम कहें कि वह भी
परमात्मा को
खोज रहा है, तो वह भी
मानने को राजी
नहीं होगा, दूसरे तो
राजी होंगे ही
नहीं। एक आदमी
पद की तलाश कर
रहा है, प्रतिष्ठा
की, यश की।
अगर हम कहें
कि वह भी
प्रभु को खोज
रहा है, तो
कौन तैयार
होगा इस असंगत
बात को
स्वीकार करने
को? एक
आदमी प्रेम को
खोज रहा है, और हम कहें
परमात्मा को
खोज रहा है, तो कोई
तालमेल नहीं
मालूम पड़ता।
लेकिन अगर थोड़ा
गहरे उतरें, तो सीढ़ियां
दिखाई पड़नी
शुरू हो
जाएंगी, श्रृंखला
साफ होने
लगेगी।
एक
आदमी धन खोजता
है, किस
लिए? और धन
से क्या उसका
प्रयोजन है
ग्र
धन
खोजता है तीन
कारणों से।
पहला, सुरक्षा
के लिए, फार
सिक्योरिटी।
कल की कोई
सुरक्षा नहीं
है। अगर धन
पास में है, तो कल की
सुरक्षा हो
जाएगी। अगर धन
पास में है, तो कल के लिए
निश्चित हो
सकता है। अगर
धन पास में है,
तो कल की
फिक्र छोड़ी जा
सकती है।
इसका
अर्थ हुआ कि
धन खोज रहा है
इसलिए कि एक
ऐसा जीवन मिल
जाए, जहां
फिक्र न हो, चिंता न हो।
एक ऐसा जीवन
मिल जाए जहां
सुरक्षा हो, असुरक्षा न
हो, जहां
भय न हो; जहां
मैं असहाय
अनुभव न करूं
अपने को। वह
एक ऐसा जीवन
खोज रहा है।
लेकिन धन खोज
रहा है इस
जीवन के लिए।
धन से यह जीवन
नहीं मिलेगा,
लेकिन आकांक्षा
यही है।
एक
आदमी जब धन
खोज रहा है, तो वह भी
ऐसा धन खोजता
है—दूसरी बात—जो
छीना न जा
सके। इसलिए तो
इतना इंतजाम
करता है
तिजोडियों का,
बैंकों का,
सेफ्टी का,
सारा
इंतजाम करता
है कि छीना न
जा सके।
आकांक्षा यह
है कि धन हो तो
ऐसा, जो कोई
छीन न सके।
हालाकि जो भी
धन हम इंतजाम
करते हैं, वह
छीना जा सकता
है। छीना जाता
है। अब तक
आदमी कोई उपाय
नहीं कर पाया
कि ऐसा धन खोज
ले, जो
छीना न जा
सके। सब उपाय
व्यर्थ हो
जाते हैं।
लेकिन
आदमी की
आकांक्षा को
खोजें, तो वह जरूर
ऐसा धन खोजना
चाहता है, जो
फिर उसका ही
हो, और फिर
कभी भी ऐसा न
हो कि पराया
हो जाए। हर
आदमी एक ऐसी
संपदा खोजना
चाहता है, जो
सदा—सदा के
लिए शाश्वत
उसकी अपनी हो।
परमात्मा के सिवाय
ऐसी कोई संपदा
हो नहीं सकती,
जो छीनी न
जा सके। सिर्फ
वही है, जो
छीना नहीं जा
सकता।
आदमी
जब धन खोजता
है, तो—तीसरे
नंबर पर—भीतर
वह खालीपन
अनुभव करता है,
रिक्तता
अनुभव करता है,
उसे भर लेना
चाहता है।
पूरी जिंदगी
दौड़कर भी, धन
की राशि लग
जाती है, भीतर
का खालीपन
नहीं भरता।
लेकिन आदमी
खोजता इसीलिए
है कि भीतर भर
जाए, एक आंतरिक
फुलफिलमेंट
हो, एक
भीतर तृप्ति
हो जाए भरापन
आ जाए; ऐसी
कोई कमी न
मालूम पड़े, कोई अभाव न
मालूम पड़े, संतुष्ट हो
जाए भीतर, तृप्ति
आ जाए; क्षणभर
को भी ऐसा न
लगे कि मुझे
कुछ और चाहिए।
यह तीसरी बात
है।
आदमी
धन इसलिए
खोजता है कि
ऐसी अवस्था आ
जाए कि कुछ
उसे मांगने को
न बचे, कुछ
चाहने को न
बचे, ऐसा न
रहे उसे कि
फला चीज मेरे
पास नहीं है, अभाव न खटके,
खालीपन न
खटके; सब
मेरे पास है, ऐसी तृप्ति
हो। लेकिन
कितना ही धन
मिल जाए, ऐसी
तृप्ति होती
नहीं। ऐसी
तृप्ति तो
केवल उसी को
होती है, जिसे
परमात्मा का
धन मिल जाता
है।
तो धन
की भी खोज
कितनी ही गलत
हो, दिशा
कितनी ही
भ्रांत हो, आकांक्षा
बिलकुल सही
है। वह जो
भीतर बीज है, वह बिलकुल
सही है। मार्ग
चाहे अंकुर का
कितना ही
विकृत हो जाए,
लेकिन उसकी
अनजानी खोज
बिलकुल
प्रामाणिक है।
एक
आदमी पद चाहता
है। पद चाहता
है तीन कारणों
से, किसी
से हीन न
मालूम पडुं
किसी से नीचा
न मालूम पडूं।
लेकिन कितना
ही कोई पद
खोजें, सदा
कोई न कोई आगे
मौजूद रहता
है। अब तक ऐसा
एक भी आदमी
किसी पद पर
नहीं पहुंच
पाया, जहां
जाकर वह कह
सके, अब
मेरे आगे कोई
भी नहीं है।
कुछ भी हो जाए,
कितनी ही
बड़ी सीढ़ी चढ़
जाए, जितनी
बड़ी सीढ़ी चढ़ता
है, पाता
है कि आगे और
सीढ़ियों पर
लोग पहले से
चढ़े हुए हैं।
और ऐसा
सभी को अनुभव
होता है।
अनुभव होने के
कई जटिल कारण
हैं। एक तो
जिंदगी इकहरी
सीढ़ी नहीं है, अनेक
सीढ़ियों का
जोड़ है। अगर
आप एक सीढ़ी पर
चढ़ जाते हैं, तो अनेक बार
उसी में चढ़ने
की वजह से
दूसरी सीढ़ी पर
नीचे उतर जाते
हैं। अगर दो
सीढ़ियों पर चढ़
जाते हैं, तो
चार पर नीचे
उतरना पड़ता
है। वह कीमत
चुकानी पड़ती
है।
एक
आदमी अगर एक
बड़े पद पर
पहुंच जाता है, तो पद पर
पहुंचने के
लिए जो बेचैनी
और परेशानी
उठानी पड़ती है,
उसमें
स्वास्थ्य खो
देता है। तब
एक दिन देखता
है कि सड़क पर
एक फकीर जा
रहा है, जिसके
पास
स्वास्थ्य की
अपार संपदा है,
तब मन
ईर्ष्या से भर
जाता है। एक
सीढ़ी पर कोई चढ़ा
हुआ है, जहां
वह नीचे पड़
गया है।
एक
आदमी पद की
दौड़ में
प्रतिभा को खो
देता है। असल
में पद की दौड़
अगर पूरी करनी
हो, तो
प्रतिभा की
जरूरत भी नहीं
है।
प्रतिभा
हो, तो
खतरा है। उतनी
दौड़ में जाना
मुश्किल
होगा। एक गहरी
मूढ़ता चाहिए
तो पद की दौड़
में आदमी अंधा
होकर लग जाता
है। वह
योग्यता है।
प्रतिभा खो
देता है। इधर
प्रतिभा खो
जाती है, जिस
दिन पद पर
पहुंचता है, उस दिन पाता
है कि चारों
ओर प्रतिभा के
दीए जल रहे
हैं, और
सीढ़ियों में
वह पिछड़ गया
है। जिंदगी
अनेक सीढ़ियां
हैं। अगर कोई
एक सीढ़ी पर
चढ़ता है, दूसरों
पर नीचे उतर
जाता है। और
किसी भी सीढ़ी पर
कितना भी चढ़
जाए, फिर
भी पाता है कि
उससे भी ऊपर
सीढ़ियों पर
लोग चढ़े हुए
हैं!
लेकिन
आदमी की
आकांक्षा सही
है। आदमी
चाहता है ऐसी
अवस्था, जहां वह
किसी से नीचा
न रह जाए।
सिवाय
परमात्मा को
पाए और कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन
एक मजे की बात
है। आदमी
चाहता है कि
मैं किसी से
नीचे न रह
जाऊं, इसलिए
दूसरों को
नीचा करने में
लग जाता है! पर उसे
पता नहीं है
कि जो वह कर
रहा है, वही
सारे लोग भी
कर रहे हैं!
मैं एक आदमी
हूं; तीन
अरब आदमी जमीन
पर हैं। मैं
भी इस कोशिश
में लगा हूं
कि किसी से
नीचे न रह
जाऊं। और इसके
लिए दूसरों को
नीचा करने में
लगा हूं। तीन
अरब आदमी, इसी
कोशिश में वे
भी लगे हैं! वे
भी दूसरों को
नीचा करने में
लगे हैं, ताकि
वे ऊपर हो
जाएं। एक—एक
आदमी तीन—तीन
अरब आदमियों
के खिलाफ लड़
रहा है!
हारेगा नहीं,
तो क्या
होगा? तीन
.अरब आदमी
मुझे नीचा
करने में लगे
हैं; मैं
तीन अरब
आदमियों को
नीचा करने में
लगा हूं! एक
पागलों की भीड़
है, जिसमें
कोई कहीं
पहुंच नहीं
सकता।
लाओत्से
ने कहा है कि
मैंने तो शांति
का सूत्र इसी
में जाना कि
उस जगह बैठ
जाओ, जिससे
नीची कोई जगह
न हो, अन्यथा
उठाए
जाओगे।
उस गड्डे में
गिर जाओ, जिससे नीचा
कोई गड्डा न
हो, अन्यथा
लतियाए
जाओगे।
लाओत्से ने
कहा, मैंने
तो शांति और
संतुष्टि
इसमें पाई, जब मैंने
दूसरे को नीचा
करना तो दूर, अपने को
सबसे नीचा
स्वीकार कर
लिया। उस दिन
के बाद मुझे
कोई नीचा नहीं
कर सका है।
जीसस
ने कहा है, जो आदमी
पंक्ति में
सबसे अंतिम
खडे होने को
राजी है, वही
प्रथम हो
जाएगा।
लेकिन
हमारा क्या
होगा, जो
पंक्ति में
प्रथम खड़े
होने के लिए
आतुर हैं! हम
संघर्ष
करेंगे, लड़ेंगे,
परेशान
होंगे और आखिर
में पाएंगे, आगे नहीं
पहुंच पाए
हैं। संभवत:
पंक्ति सीधी नहीं
है, सर्कुलर
है; गोल
घेरे में है।
इसीलिए तो कोई
आदमी अनुभव नहीं
कर पाता कि
मैं आगे आ
गया। कितना ही
दौड़ता है, लेकिन
क्यू के आगे
नहीं पहुंच
पाता। क्यू गोलाकार
है, अन्यथा
कोई न कोई
पहुंच जाता।
कोई सिकंदर, कोई
नेपोलियन, कोई
हिटलर, कोई
स्टैलिन कहीं
न कहीं पहुंच
जाता, और
एक दिन कह
देता कि ठीक
है, मैं
क्यू! के
आखिरी हिस्से
में आ गया, नंबर
एक हो गया!
लेकिन कहीं भी
कोई पहुंच जाए
वह पाता है कि
उसके आगे लोग
मौजूद हैं।
इसका
एक ही मतलब हो
सकता है कि
जिंदगी सीधी
रेखा में नहीं
चल रही है, वर्तुलाकार
है, सर्कुलर
है। इसलिए आप
एक गोल घेरे
में अगर दस—बारह
लोग खड़े हैं, उनमें से
कोई कितना ही
दौड़े, और
कितनी ही
कोशिश करे, जिंदगी गंवा
दे नंबर एक
होने के लिए, कभी नंबर एक
नहीं हो
पाएगा।
क्योंकि गोले
में कोई नंबर
एक होता ही
नहीं। हमेशा
कोई आगे होता
है, कोई
पीछे होता है।
कहीं भी जाए; हमेशा कोई
आगे होता है, कोई पीछे
होता है।
लेकिन
आकांक्षा ठीक
है और आकांक्षा
उचित खबर देती
है। वह खबर यह
है कि जब तक
कोई व्यक्ति
अपने को
परमात्मा के
साथ एक. न समझ
ले, तब तक
हीनता नहीं
मिटती। और जब
तक हीनता, इनफीरिआरिटी
नहीं मिटती है,
तब तक
ईर्ष्या भी
नहीं मिटती।
और जब तक
हीनता और
ईर्ष्या नहीं
मिटती है, तब
तक दूसरे को
नीचा दिखाने
की कोशिश भी
नहीं मिटती।
और इस सबका
अंतिम परिणाम
चिंता और संताप
के सिवाय और
कुछ भी नहीं
होता है।
लेकिन आदमी
चाहता है परम
पद। वह
परमात्मा को
चाहता है।
इसका उसे बोध
न हो, इसका
उसे होश न हो, यह हो सकता
है।
एक और
तरफ से देखें।
हर
आदमी मृत्यु
से भयभीत है, कंपित
है। हर आदमी
डरा हुआ है।
चाहे कितना ही
सुरक्षित हो,
मौत कहीं
किनारे पर खड़ी
हुई मालूम पड़ती
है, और
किसी भी क्षण
गर्दन को दबा
ले सकती है।
हर व्यक्ति
डरा हुआ है
मृत्यु से।
छोटा—सा
बच्चा पैदा
होता है, वह भी डरता
है, डरता
हुआ पैदा होता
है। जोर की
खटके की आवाज
हो जाए, कैप
जाता है।
अंधेरा हो, भयभीत होने
लगता है। कोई
पास न हो, अकेला
हो, चीखने—चिल्लाने
लगता है। पहले
दिन से ही भय
में जन्मा हुआ
है। पूरा जीवन
एक भय से
कंपता हुआ
पत्ता है। हम
उपाय करते हैं,
हम कई तरह
के उपाय करते
हैं, ताकि
मृत्यु से बच
सकें।
आकांक्षा
बिलकुल ठीक है,
लेकिन अब तक
कोई मृत्यु से
बच नहीं पाया,
और बच भी
नहीं पाएगा।
और अक्सर
तो यह होता है, जो
मृत्यु से
बचने का जितना
इंतजाम करते
हैं, उतने
ही जल्दी अपने
ही इंतजाम में
दबकर मर जाते
हैं। ऐसी हालत
हो जाती है, जैसे कोई
आदमी मौत न आए,
तो अपने
चारों तरफ
लोहे का एक
बख्तर बनाकर
पहन ले, लोहे।,
के कपड़े पहन
ले, कहीं
से मौत न घुस
जाए! तो अभी मर
जाएगा। कल के
लिए
प्रतीक्षा
नहीं करनी पड़ेगी।
हम सब अपनी
जिंदगी को
चारों तरफ से
इतना
सुरक्षित कर
लेते हैं कि
जिंदगी मर
जाती है।
जिंदगी
असुरक्षा में
है। जिंदगी तो
असुरक्षा में
है, अनसर्टेंटी
में, अनिश्चय
में। हम सब
निश्चित करके,
सब
व्यवस्था ठीक
से बिठाकर, उसके भीतर
मुर्दे की तरह
बैठ जाते हैं।
मौत से केवल
मुर्दा बच
सकता है; जो
मर ही चुका है,
वह भर बच
सकता है। जो
जिंदा है वह
तो मरेगा ही।
इसलिए
कितना ही हम
उपाय करें, उपाय
करने में मौत
तो नहीं रुकती,
जिंदगी
गंवा बैठते
हैं। उपाय में
ही जिंदगी खो
जाती है। मौत
से बचने का
उपाय करते—करते,
करते—करते
जिंदगी का समय
चुक जाता है।
घड़ी का कांटा
घूम जाता है
और मौत आ जाती
है। और हम तब
घबड़ाकर कहते
हैं कि अभी तो
हम सिर्फ मौत
से बचने का इंतजाम
कर रहे थे! यह
समय तो हमने
मौत से बचने
में गंवा
दिया! अभी हम
जीए कहां थे?
जीना
समाप्त हो
जाता है जीने
के इंतजाम
में। जीने का
मौका ही नहीं
मिलता; अवसर नही
मिलता; सुविधा
नहीं मिल
पाती। लेकिन आकांक्षा
दुरुस्त है।
मौत से बचने
की आकांक्षा
दुरुस्त है, लेकिन दिशा
गलत है।
मौत से
बचने का एक ही
उपाय है कि हम
उसे जान लें, जो अमृत
है; हम उसे
पहचान लें, जो मरता ही
नहीं; हम
उसके साथ अपनी
एकता को खोज
लें, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं है। यह
तो ठीक दिशा
होगी। हम
इंतजाम करते
हैं मौत से बचने
का, और
उससे जुड़े
जिसमें
अंतर्निहित
है, मृत्यु
जिसका हिस्सा
है। उसका हम
इंतजाम करते
हैं बचाने का!
इंतजाम में
समय व्यतीत हो
जाता है और
मौत आ जाती
है। उसकी खोज
नहीं कर पाते,
जो कि कभी
मरा ही नहीं
है और कभी
मरेगा ही नहीं।
वह भी मौजूद
है।
अगर यह
आकांक्षा ठीक
हो, तो
अमृत की खोज
बनेगी, अगर
यह आकांक्षा
गलत हो, तो
मृत्यु से
बचाव बनेगी।
अगर धन की खोज
ठीक हो, तो
उस परम धन की
खोज बन जाएगी,
परम संपदा
की। अगर गलत
हो, तो हम
धातु के ठीकरे
इकट्ठे करने
में जिंदगी व्यतीत
कर देंगे। अगर
पद की खोज सही
हो, तो
परमात्मा के
सिवाय और कोई
पद नहीं है।
अगर गलत हो, तो हम
आदमियों को
नीचे—ऊंचे
बिठालने में
अपनी सारी
शक्ति को व्यय
कर देंगे। यह
मनुष्य की।
(बीच
से उठकर किसी
ने कुछ पूछा।)
लिखकर
कुछ भी दे दें, इतनी दूर
से सुनाई नहीं
पड़ेगा। लिखकर
दे दें, और
लोगों को बाधा
न डालें।
लिखकर पहुंचा
दें।
कृष्ण
ने कहा है इस
सूत्र में कि
हे अर्जुन, यद्यपि
श्रद्धा से
युक्त हुए जो
सकाम भक्त दूसरे
देवताओं को
पूजते हैं, वे भी मेरे
को ही पूजते
हैं।
चाहे
पूजा किसी की
भी हो रही हो, अंततोगत्वा
पूजा मेरी ही
होती है, कृष्ण
कहते हैं।
पूजने वाले को
भी पता न हो कि
वह किसकी पूजा
कर रहा है, लेकिन
पूजा मेरी ही
हो सकती है।
कारण? पूजा
करने वाले को
भी जब पता
नहीं है, तो
कृष्ण किस
अर्थ में कह रहे
होंगे कि पूजा
मेरी ही होती
है?
वे इसी अर्थ
में कह रहे है कि
तुम्हारी वासनाए
कहीं भी दौड़े और
तुम्हारी
पूजा किन्हीं
चरणों में पड़े, और तुम
श्रद्धा से
कहीं भी सिर
रखो, तुम
मेरी ही तलाश
में हो। इससे
कोई अंतर नहीं
पड़ता कि कहां
तुम्हारी आंख
जा रही है।
अंततः तुम्हारी
आंख मुझे ही
खोज रही है।
तुम कहीं
भीखोजो, तुम्हारी
आँख की आंत्यतिक
शरण मैं ही हूं।
किंतु
उनका वह पूजना
अविधि पूर्वक
है, अज्ञान
पूर्वक है।
पूजते
वे मुझे ही हैं, फिर भी ज्ञानपूर्वक
नही। क्योंकि उन्हें
स्वयं ही पता
नहीं है कि वे
क्या खोज रहे
हैं। उन्हें स्वयं
ही पता नहीं
है।
सकाम
पूजा का अर्थ
है, धन
के लिए, पद
के लिए जीवन
के मांग रहा
है परमात्मा
से कुछ, किसी
भी देवता के सामने
मांग रहा है, इसलिए की गई
पूजा; सुख
के लिए की गई
पूजा। मंदिर
में खड़ा कोई पूजास्थल
हैं; लेकिन
जब भी किसी
पूजास्थल पर
और किसी भी
देवता की
प्रतिमा के
समक्ष कोई कुछ
मांग रहा है, तब वह
अज्ञान से भरा
हुआ है।
क्योंकि
जिसके पास
होने से ही सब
मिल जाता है, अगर उससे भी
मांगना पड़े, तो उसका
अर्थ है कि
हमें पास होना
ही पता नहीं है।
जिसके निकट
होने से ही सब
मिल जाता है, उसके पास भी
जाकर मांगना
पड़े, तो
उसका अर्थ है,
हम पास
पहुंचे ही
नहीं, उपासना
हुई ही नहीं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, अविधिपूर्वक
है। उसे विधि
का भी पता
नहीं है कि वह
क्या कर रहा
है!
अगर
सूरज के सामने
कोई हाथ जोड़कर
खड़ा हो और कहे
कि हे सूरज
मुझे प्रकाश
दे। तो एक बात
पक्की है कि
वह आदमी अंधा
होगा।
क्योंकि सूरज
के सामने आंख
खोलकर खड़े
होने से
प्रकाश .
मिलता ही है, अब इसकी
मांग की कोई
जरूरत न रही।
लेकिन अगर कोई
आदमी मांग रहा
है सूरज के
सामने हाथ
जोड़कर, गिड़गिड़ा
रहा है, रो
रहा है, घुटने
टेके खडा है, और कह रहा है
कि हे सूरज, मुझे प्रकाश
दे! तो एक बात
तय है कि वह
आदमी अंधा है।
उसे यह भी पता
नहीं है कि वह
सूरज के सामने
खड़ा है। और
सूरज के सामने
होने का मतलब
ही प्रकाश का
मिल जाना हो
जाता है। और
कुछ मांगने की
जरूरत नहीं।
तो जो
व्यक्ति
परमात्मा के
सामने भी कुछ
मांगता हुआ
पहुंचता है, एक बात
पक्की है, उसे
पता नहीं है
कि जहां वह
मांग रहा है, वहां
परमात्मा है।
उसकी मांग ही
बता रही है कि
उसे परमात्मा
के पास होने
का खयाल भी
नहीं है। वह
अपनी मांग में
ही घिरा हुआ
चल रहा है।
चारों तरफ
मांग ही उसको
घेरे हुए है।
उपासना संभव
नहीं है उसे।
वासना में ही
दबा हुआ है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, चाहे
वह कितनी ही
विधि करता हो।
विधि बहुत करता
है। सच तो यह
है कि जो विधि
बिलकुल नहीं
जानता है, वह
बहुत विधि
करता है।
कितनी
विधियां नहीं
पूजा और
प्रार्थना
करने वाले लोग
करते हैं!
सकाम विधियां
हजार हैं, लाख
हैं। कितना—कितना
उपाय करना
पड़ता है! क्या—क्या
सामग्री
जुटानी पड़ती
है! एक—एक
व्यवस्था से
एक—एक कदम
उठाना पड़ता
है।
पूजा
एक पूरा
रिचुअल है, एक
क्रिया—काड है;
उसमें जरा
भी भूल—चूक
नहीं होनी
चाहिए; गणित
की पूरी
व्यवस्था है।
जब कोई भी
उपासक सकाम
वासना से भरकर
पूजा में लगता
है, तो
रत्ती—रत्ती
हिसाब रखता है,
पूरी विधि
का पालन करता
है। और कृष्ण
कहते हैं, अविधिपूर्वक!
हालांकि वे
खुद ही कह रहे
हैं कि हे
अर्जुन, यद्यपि
श्रद्धा से
युक्त हुए जो
सकाम भक्त दूसरे
देवताओं को
पूजते हैं, वे भी मेरे
को ही पूजते
हैं, किंतु
उनका वह पूजना
अविधिपूर्वक
है।
विधि
तो उन्हें भी
पता है। विधि
की कोई कठिनाई
नहीं है। एक—एक
चरण विधि का
ज्ञात है, और चरण
पूरा किया
जाता है।
लेकिन फिर भी
कृष्ण
अविधिपूर्वक
कहते हैं!
अविधिपूर्वक
कहने का कारण
है। परमात्मा
के पास, सिर्फ पास
होना ही
पर्याप्त
विधि है, और
किसी विधि का
अर्थ नहीं है।
बाकी सब
विधियां
स्वयं को दिए
गए धोखे हैं।
उसके पास होने
की कला ही आ
जाए, उसकी
मौजूदगी को
अनुभव करने का
द्वार खुल जाए,
तो
पर्याप्त
विधि हो गई।
लेकिन विधि तो
वे करते हैं!
कृष्ण
कहते हैं, अज्ञानपूर्वक।
अज्ञान
भी विधि कर
सकता है, अक्सर करता
है, करेगा
ही; और
उसको कुछ उपाय
भी नहीं होता।
हम सारे लोग
अज्ञानपूर्वक
न मालूम कितनी
विधियों को
विकसित कर लिए
हैं! बडा जटिल
जाल निर्मित
किया है।
बुद्ध
को हम चलते
देखते हैं, उठते
देखते हैं, बैठते देखते
हैं—हम विधि
का निर्माण कर
लेते हैं। हम
सोचते हैं, अगर ऐसे ही
हम उठे, ऐसे
ही हम चले, ऐसे
ही हम बैठे, तो बुद्ध को
जो हुआ है, वह
हमें भी हो
जाएगा।
हम
मीरा को नाचते
देखते हैं, गीत गाते
देखते हैं, आनंद से
विभोर देखते
हैं। हम सोचते
हैं, मीरा
ने जैसे कपडे
पहने, मीरा
ने जैसा तिलक
लगाया, मीरा
जिस मंदिर के
सामने खड़ी है,
मीरा ने जो
कृष्ण की
मूर्ति बनाई,
मीरा का जो
पूजा का ढंग
है, अगर
वही ढंग हमने
भी पूरा—पूरा
पाला, तो
जो मीरा को
मिला है, वह
हमें भी मिल
जाएगा!
और यह
हो सकता है कि
हम मीरा की
विधि का पूरा—पूरा
अनुगमन कर लें, लेकिन जो
मीरा को मिला
है, वह
हमें इससे
नहीं मिल
जाएगा।
क्योंकि जो
दिखाई पड़ रहा
था, वह तो
केवल ढांचा था,
आत्मा नहीं
थी, जो
नहीं दिखाई पड़
रही है—विधि, उपासना, निकट
होने की
क्षमता—वह
ढांचा नहीं
है। वह दिखाई
नहीं पड़ता। वह
आंतरिक है। वह
भीतरी है।
रामकृष्ण
को पुजारी के
पद पर रखा था
दक्षिणेश्वर
में, तो
आठ दिन बाद ही
ट्रस्टियों
की कमेटी को
रामकृष्ण को
बुलाना पड़ा।
शिकायतें
बहुत आईं कि
रामकृष्ण को
पूजा करने की
विधि नहीं
आती।
रामकृष्ण से
ज्यादा गहरा
पुजारी खोजना
मुश्किल है
पूरे मनुष्य
के इतिहास
में। लेकिन
ट्रस्टियों
की कमेटी ने, जो केवल
चौदह रुपया
महीना रामकृष्ण
को तनख्वाह
देते थे—निश्चित
ही, वे
मालिक थे—उन्होंने
रामकृष्ण को
बुला लिया
अदालत में। ट्रस्टियों
की अदालत बैठ
गई। और
उन्होंने कहा
कि तुम्हें
हमें निकालना
पड़ेगा, क्योंकि
पता चला है कि
तुम्हें पूजा
की विधि नहीं
आती। रामकृष्ण
ने कहा, पूजा
और विधि का
संबंध क्या है?
पूजा आती है,
विधि की फिक्र
क्या है? और
विधि आती हो, पूजा न आती
हो, तो
विधि का करोगे
क्या?
लेकिन
ट्रस्टियों
को समझ में
नहीं आया। आने
की बात भी न
थी। यह कोई
बात हुई!
शिकायत गहरी
थी। ट्रस्टियों
ने कहा कि
इतनी ही नहीं
है; शिकायत
थोड़ी ऐसी है
कि
अपराधपूर्ण
है। खबर हमें
मिली है कि
फूल पहले तुम
सूंघ लेते हो
और फिर चढ़ाते
हो! और खबर हमें
मिली है कि
भोग पहले तुम
लगा लेते हो, फिर भगवान
को लगाते हो!
रामकृष्ण
ने कहा, अपनी नौकरी
सम्हालो, मैं
तो ऐसे ही
पूजा करूंगा।
क्योंकि मेरी
मां जब कुछ
बनाती थी, तो
पहले खुद चख
लेती थी। अगर
मेरे खाने
योग्य ही न हो,
तो मुझे
नहीं देती थी।
मैं भगवान को
बिना चखे नहीं
लगा सकता हूं।
अगर खाने
योग्य न हो, तो फेंक
दूंगा, फिर
बनाऊंगा।
लेकिन यह
असंभव है कि
मैं पहले उन्हें
चढ़ा दूं और
मुझे पता ही न
हो कि मैं
क्या चढ़ा रहा
हूं! अब यहां
विधि तो पूरी
टूट गई। निश्चित
ही, फूल
सूंघकर कैसे
चढ़ाना! लेकिन
रामकृष्ण
कहते हैं, बिना
सूंघे मैं चढ़ा
ही नहीं सकता
हूं। अगर फूल
में सुगंध ही
न हो? मुझे
कैसे पता चले?
और मैं तो
भगवान को वही
चढ़ाऊंगा, जो
मुझे
प्रीतिकर हो।
तो मुझे पहले
पता लगा लेना
होगा कि
प्रीतिकर
मुझे है या
नहीं?
रामकृष्ण
ने कहा, या तो मैं
पूजा ऐसी ही
करूंगा और या
अपनी नौकरी आप
सम्हाल ले
सकते हैं, क्योंकि
नौकरी के लिए
पूजा नहीं
छोड़ी जा सकती।
अब यह
जो आदमी है, कृष्ण
इसको कहेंगे,
विधिपूर्वक
है। हालांकि
विधि सब टूट
गई। लेकिन फिर
भी इसकी विधि
में एक
आत्मीयता है,
और इसकी
विधि में एक
रस है, और
इसकी विधि में
एक हार्दिक
प्रेम है, और
इसकी विधि में
फूल
महत्वपूर्ण
नहीं रहा, भोजन
महत्वपूर्ण
नहीं रहा, बाहरी
औपचारिकता
महत्वपूर्ण न
रही, अंतस
का निवेदन
महत्वपूर्ण
हो गया है। यह
जब खड़ा है
सामने भगवान
के, तो सब
मिट गया बाहर
का। इसके भीतर
का आंतरिक
लगाव ही सब
कुछ है।
एक दिन
ऐसा हुआ कि
रामकृष्ण खड़े
हुए रो रहे हैं।
पूजा के फूल
कुम्हला गए, पूजा के
लिए जलाया गया
दीप बुझ गया, और रामकृष्ण
खड़े रो रहे
हैं, पूजा
शुरू ही नहीं
हुई है। जो
पूजा देखने
चले आए थे, वे
थोड़ी देर में
ऊबकर जाने लगे
कि यह किस
भांति की पूजा
है! दीया बुझ
गया, फूल
कुम्हला गए, भोग भी रखा—रखा
ठंडा हो गया, रामकृष्ण
खड़े होकर आंख
बंद किए रो
रहे हैं। यह
कब तक चलेगा!
लोग
चले गए, मंदिर खाली
हो गया, आंधी
रात हो गई।
रामकृष्ण ने आंखें
खोलीं, और
काली के सामने
लटकी थी तलवार,
उसको
खींचकर निकाल
लिया। और कहा
चिल्लाकर कि
बहुत चढ़ाए फूल
और बहुत चढ़ाया
भोग, अब तक
कुछ हुआ नहीं
उससे, आज
अपने को ही
चढ़ाता हूं!
तलवार
गर्दन के पास
आ गई एक झटके
में, और
जैसे बिजली
कौंध गई।
किसने हाथ से
तलवार छीन ली,
पता नहीं!
कैसे तलवार
नीचे गिर गई, पता नहीं!
सुबह
रामकृष्ण
बेहोश मिले।
बेहोश तो थे, लेकिन चेहरे
पर उनके जो
स्वर्ण —आभा आ
गई थी, वह
कभी—कभी
सदियों में
एकाध आदमी के
चेहरे पर आती
है।
तीन
दिन लगे होश
में आने में।
तीन दिन बाद
जब होश में आए, तो लोगों
ने पूछा, क्या
हुआ? रामकृष्ण
ने कहा, पूजा
हुई। पूजा
पूरी हो गई।
उस दिन
के बाद
रामकृष्ण ने फूल
नहीं चढ़ाए, उस दिन के
बाद भोग नहीं
लगाया, उस
दिन के बाद
दिनों बीत
जाते थे, मंदिर
के भीतर भी
नहीं जाते थे।
फिर तो दूसरा पुजारी
रख लेना पड़ा, जो जब वे
नहीं आते थे, तो पूजा कर
देता था। कभी—कभी
रामकृष्ण
जाते थे, और
जाकर ऐसी
बातचीत कर
लेते थे, जैसी
मित्रों के बीच
होती है। कोई
पूछता कि आपने
पूजा बंद कर दी?
रामकृष्ण
कहते कि अपने
को ही चढ़ा
दिया; अब
बचा नहीं वह, जो पूजा
करे।
पूजा
की आत्यंतिकता
तो तब है, जब कोई अपने
को ही समर्पित
कर देता और
चढ़ा देता है।
लेकिन विधिया
औपचारिक हैं,
फार्मल हैं,
बाहर हैं।
कृष्ण जानते
हैं भलीभांति
कि यह जो
देवताओं की
पूजा चलती है,
विधिपूर्वक
चलती है, लेकिन
उसे वे अविधि
कहते हैं।
इसलिए
क्योंकि अज्ञान
में अविधि ही
हो सकती है।
ज्ञान में ही
विधि का जन्म
होता है। और
वह विधि
विधियों जैसी
नहीं होती, वैयक्तिक
होती है, निजी
होती है, एक—एक
व्यक्ति की
अपनी होती है।
क्योंकि
संपूर्ण
यज्ञों का
भोक्ता और
स्वामी भी मैं
ही हूं।
चढ़ाओ
तुम कहीं से
फूल, मुझ
तक पहुंच जाते
हैं, और
गाओ। तुम गीत
कहीं, वह
मेरे पास चला
आता है, और
करो तुम कुछ, सभी कुछ
मुझे समर्पित
हो जाता है।
कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि मैं केंद्र
हूं अस्तित्व
का। तुम कहीं
भी कुछ करोगे—तुम्हारा
बुरा भी, तुम्हारा
भला भी, तुम्हारा
ठीक भी, तुम्हारा
गलत भी—सब मुझ
तक पहुंच जाता
है, तुम्हें
पता हो या न
पता हो। फर्क
पड़ेगा, अगर
तुम्हें पता
हो। तो
तुम्हारी
जिंदगी में क्रांति
हो जाएगी।
परंतु
वे मुझ
अधियज्ञ—स्वरूप
परमेश्वर को
तत्व से नहीं
जानते
वे जो
सारा जीवन
मेरे आस—पास
घूमते हैं, उन्हें
तत्व से पता
नहीं है कि वे
किसकी परिक्रमा
कर रहे हैं? किसका
परिभ्रमण कर
रहे हैं? किसके
आस—पास घूम
रहे हैं? घूमते
रहते हैं पागल
की तरह, पर
उन्हें पता
नहीं कि जहां
वे घूम रहे
हैं, वह प्रभु
का मंदिर है, उसकी
परिक्रमा है।
इसी से
गिरते हैं, अर्थात
पुनर्जन्म को
उपलब्ध होते
हैं।
इस
संबंध में दो—तीन
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं, जो
कि भारतीय
चिंतन के आधार
कहे जा सकते
हैं।
एक, भारतीय
चिंतन सदा से
विकासवादी है,
एवोल्यूशनरी
है। भारतीय
चिंतन मानता
है कि व्यक्ति
को लौट—लौटकर
उसी अवस्था
में बार—बार
नहीं गिरना
चाहिए, क्योंकि
उसका अर्थ हुआ
कि उसके जीवन
में कोई विकास
नहीं हो रहा
है। कल मैंने
जो किया था, अगर वही भूल
मैं आज भी
करता हूं और
कल भी करता हूं
तो मेरी चेतना
में कोई विकास
नहीं हो रहा है।
अगर जिंदगीभर
मैं एक सर्किल
में घूमता
रहता हूं,
बार—बार वही
करता हूं बार—बार
वही भोगता हूं
तो मेरी
जिंदगी
विकासमान नहीं
है, मेरी
जिंदगी
वर्तुलाकार
है और चाक की
भांति घूमती
चली जाती है।
विकासमान तो
वह है, जो
नए को उपलब्ध
होता है और
पुराने को
पुनरुक्त
नहीं करता।
रिपीटीशन
नहीं करता
पुराने का, तो आगे जाता
है।
एडीसन
ने अपने एक
पत्र में किसी
को लिखा है कि
रोज सांझ को
सूरज से यह
प्रार्थना
करता हूं कि जहां
तूने सुबह
मुझे पाया था, वहां
सांझ मुझे मत
पाना; रात
यह प्रार्थना
करके सोता हूं
कि सूरज, सांझ
तू मुझे जहां
छोड़ गया है, कुछ ऐसा हो
कि सुबह तू
मुझे वैसा ही
न पाए कुछ बदल
जाए, कुछ
नया हो जाए।
लेकिन
जैसा हमारा मन
है, वह
पुनरुक्त
करता है। मन
रिपिटीटिव
है। मन की कुछ
बातें मैंने
आपसे पीछे कही
हैं। यह बात
भी आप खयाल
में ले लें कि
मन एक
रिपीटीशन, एक
पुनरुक्ति
है। वही—वही
रोज करता है।
एक घेरा बना
लेता है। जैसे
छोटे बच्चों
की रेलगाड़ी
होती है, एक
गोल पटरी पर
चलती है। चाबी
भर दी, पटरी
का चक्कर लगा
लेती है। चाबी
चुक गई, फिर
चाबी भर दी, फिर पटरी का
चक्कर लगा
लेती है।
हमारी चाबी चुकती
रहती है। रोज
हम भरते रहते
हैं भोजन से।
चक्कर रोज
पूरा होता रहता
है। स्थूल डाल
दिया, ईंधन
डाल दिया शरीर
में, वह
अपना रोज का
चक्कर पूरा कर
लेता है।
कभी आप
अपने चौबीस
घंटे के
वर्तुल का
अध्ययन करें, तो आप
बहुत चकित हो
जाएंगे कि रोज—रोज
आप वही करते
हैं। रोज—रोज!
मेरा
मतलब यह नहीं
है कि रोज आप
अलग—अलग दफ्तर
में जाएं। यह
भी मतलब नहीं
है कि रोज—रोज
नई दुकान
खोलें। दुकान
तो वही रहेगी, दफ्तर
वही रहेगा।
नहीं, लेकिन
रोज—रोज आपके
मन की जो
चित्त—दशाएं
हैं, वे भी
वही होती हैं।
चौबीस घंटे
में आपको कितनी
बार क्रोध
करना है, उतनी
बार आप रोज कर
लेते हैं।
कितनी बार
उत्तेजित
होना है, आप
उतनी बार
उत्तेजित हो
लेते हैं।
कितनी बार दुखी
होना है, आप
उतनी बार दुखी
हो लेते हैं।
कई बार आप
चकित भी होते
हैं कि अभी तो
दुख का कोई
कारण नहीं था,
मैं दुखी
क्यों हो रहा
हूं?
वक्त आ
गया! जैसे
वक्त पर चाय
पीनी पड़ती है, या
सिगरेट पीनी
पड़ती है, वैसे
ही वक्त पर
दुखी भी होना
पड़ता है। वक्त
आ गया। भीतर
से दशा लौट
आई।
मन
चौबीस घंटे
दोहराए चला
जाता है
यंत्रवत। इस
मन के दोहराने
को अगर हम
लंबा फैलाएं
पूरे जीवन के
विस्तार पर, तो इसके
कई वर्तुल
हैं। रोज
घूमता है, वर्ष
प्रतिवर्ष
घूमता है, फिर
जीवन से दूसरे
जीवन में घूमता
चला जाता है।
इसको
पुनर्जन्म
कहता है भारत।
भारत
कहता है कि
आदमी जैसा है, अगर वह
अपने को रोज—रोज
विकासमान न
करे, तो वह
फिर पूरा का
पूरा जीवन
वापस दोहर
जाएगा। जन्म
के बाद हम
मृत्यु तक
जहां तक
पहुंचे हैं, मृत्यु हमें
वापस पुरानी
जगह पर खडा कर
देगी; हम
फिर से जन्म
शुरू कर देंगे,
फिर वही का
वही, फिर
वही का वही।
बुद्ध
और महावीर ने
एक अनूठा
प्रयोग अपने
साधकों के लिए
खोजा था। वे
तब तक किसी
व्यक्ति को
साधना में नहीं
ले जाते थे, जब तक
उसको पिछले
जन्मों का
स्मरण न करा
दें।
बुद्ध
से कोई पूछता
है कि पिछले
जन्म को स्मरण
करने से क्या
प्रयोजन है? मैं तो
अभी शांत होना
चाहता हूं
उसका मुझे कोई
रास्ता
बताइए। बुद्ध
ने कहा कि
इसलिए, कि
पहले भी पिछले
जन्मों में तू
यह बात किन्हीं
और बुद्धों से
कह चुका है कि
मैं शांत होना
चाहता हूं
मुझे कोई
रास्ता
बताइए। और
रास्ते तुझे
पिछले जन्मों
में भी बताए
गए हैं, कभी
तूने उनका
पालन नहीं
किया। तो तू
मेरा समय नष्ट
मत कर। मैं
तुझे रास्ता
बताऊंगा; पहले
भी दूसरे
बुद्धों से
तूने रास्ते
इसी तरह पूछे
हैं, कभी
तूने उनका
पालन नहीं
किया। तू
सिर्फ अपनी आदत
दोहरा रहा है।
तू वही करेगा,
जो तूने
पीछे किया था।
इसलिए पहले
मैं तुझे याद
दिला दूं। तू
अपने दो —चार
जन्मों का
पहले स्मरण कर
ले, ताकि
तुझे साफ हो
जाए कि तू उसी
वर्तुल को फिर
से तो नहीं
दोहरा रहा है!
उस
आदमी को बात
समझ में पड़ी।
एक वर्ष तक वह
बुद्ध के पास
पिछले जन्मों
के स्मरण के
लिए रुका।
हैरान हुआ।
पिछले जन्म
में भी जब
उसकी पत्नी
मरी थी, तभी वह एक
बुद्धपुरुष
के पास गया था!
उसके पहले भी
उसकी पत्नी जब
मरी थी, तब
वह एक
बुद्धपुरुष
के पास गया था!
और अभी भी इस
जन्म में उसकी
पत्नी मर गई
थी, तो वह
फौरन बुद्ध के
पास आ गया था, कि मेरा मन
बड़ा अशांत है,
मुझे शांति
चाहिए! और मजा
यह है कि पहले
जन्म में भी शांति
की तलाश करते—करते
नई स्त्री के
मोह में पड़
गया था। और
दूसरे जन्म
में भी शांति
की तलाश करने
गया था और एक
भिक्षुणी के
प्रेम में पड़
गया था।
तब वह
बहुत घबड़ाया।
उसने बुद्ध से
कहा कि यह क्या
है? यह
मैं कर रहा
हूं या मुझसे
जबरदस्ती
करवाया जा रहा
है?
बुद्ध
ने कहा, अगर तू
जानता नहीं है,
तो तू करता
ही चला जाएगा।
क्योंकि तुझे
पता ही नहीं
है कि तू
सिर्फ दोहर
रहा है, तू
सिर्फ
पुनरुक्ति कर
रहा है। लेकिन
स्मरण नहीं है,
इसलिए हम
बार—बार वही
दोहरा लेते
हैं, बार—बार
वही दोहरा
लेते हैं।
छोड़े, पिछले
जन्म का स्मरण
तो थोड़ा कठिन
पड़ेगा, लेकिन
रोज का तो
स्मरण है बीता
कल तो आपको
पता है। कल भी
आपने जिस बात
पर क्रोध किया
था, और
पछताए भी थे
कि अब क्रोध
नहीं करूंगा,
आज भी उसी
बात पर क्रोध
किया है और आज
भी पछताए हैं
कि क्रोध नहीं
करूंगा! और आज
भी आप सोच रहे हैं
कि अब कल
क्रोध नहीं
होगा, क्योंकि
मैं पछता लिया
हूं। लेकिन
पछताए तो आप
कल भी थे, परसों
भी थे।
आप
सिर्फ
पुनरुक्त कर
रहे हैं।
क्रोध भी करते
हैं, पछता
भी लेते हैं।
फिर क्रोध
करते हैं, फिर
पछता लेते
हैं।
एक
मित्र मेरे
पास आते हैं; क्रोधी
हैं। ऐसे तो
कौन नहीं है; थोड़े ज्यादा
हैं। कहते हैं
कि किसी तरह
मेरा क्रोध
छूट जाए। बहुत
पछताते हैं, रोते हैं, छाती पीटते
है—जब क्रोध
कर लेते हैं।
मैंने
उनसे कहा, क्रोध की
फिक्र छोड़ो, तुम पछताना
बंद कर दो। एक
काम करो। तुम
जिंदगीभर से
क्रोध छोड़ने
की कोशिश कर
रहे हो, वह
तो नहीं छूटा;
तुम मेरी
मानो, क्रोध
की फिक्र छोड़ो,
तुम पछताना
बंद कर लो। एक
बात पक्की कर
लो कि अब
क्रोध होगा, तो पछताऊंगा
नहीं।
उन्होंने
कहा, आप
कैसे खतरनाक
आदमी हैं! मैं
आया हूं क्रोध
छोड़ने, आप
मेरा पछतावा
भी छुड़ा देना
चाहते हैं!
फिर तो मैं
महानर्क में
पड़ जाऊंगा।
मैंने
उनसे कहा, कोई भी तो
आदत तोड़ो। अगर
क्रोध की नहीं
टूटती, पछतावे
की तोडो; सर्किल
टूट जाएगा; पछतावा ही
तोड़ो। तो
दूसरे क्रोध
को आने का मौका
नहीं रहेगा, क्योंकि बीच
की एक सीढ़ी हट
गयी। अब तक की
व्यवस्था यह
है तुम्हारी—क्रोध, पछतावा, क्रोध,
पछतावा; क्रोध।
यह तुम्हारा
सर्किल है।
कहीं से भी सर्किट
तोड़ो, कहीं
से भी तार को
अलग खींच लो।
क्रोध से नहीं
खींच सकते, पछतावे से
खींच लो। अगर
पछतावा नहीं
कर पाए, तो
मैं वचन देता
हूं कि दूसरा
जो क्रोध इसके
पीछे आना
चाहिए, उसके
लिए रास्ता
नहीं मिलेगा।
यह आप
चकित होंगे
जानकर कि आप
इसलिए नहीं
पछताते हैं कि
आप जानते हैं
कि क्रोध बुरा
है। आप इसलिए
पछताते हैं, ताकि
क्रोध की पहली
अवस्था फिर से
पा ली जाए, और
फिर से आप
क्रोध करने
में समर्थ हो
जाएं।
पछतावा
जो है, वह
क्रोध की
ट्रिक है।
पछतावा जो है,
पश्चात्ताप
जो है, वह
क्रोध की
होशियारी है,
वह अहंकार
की उस्तादी है,
चालाकी है।
जब आप क्रोध
कर लेते हैं, तो आपको
लगता है, उतना
अच्छा आदमी
नहीं हूं
जितना मैं
अपने को समझता
था। पछतावा
करके आप फिर
समझते हैं कि
उतना ही अच्छा
आदमी हूं
जितना अपने को
समझता था। अहंकार
अपना पुराना
लेबल फिर से
पा लेता है; वहीं पहुंच
जाता है, जहां
क्रोध के पहले
था।
क्रोध
के कारण एक
गड्डे में पड़
गए थे, क्रोध
के कारण थोड़ी
दीनता आ गई
थी। क्रोध के
कारण मन को
लगा कि उतना
अच्छा आदमी
नहीं हूं,
जितना दावा
करता था।
पछतावा करके
वापस अपनी जगह
खड़ा हो गया, उसी जगह, जहां
क्रोध के पहले
था। अब आप फिर
क्रोध कर सकते
हैं, क्योंकि
उसी जगह से
आपने क्रोध
किया था।
मन एक
पुनरुक्ति
है। और मन के
आधार पर जीने
वाला आदमी
अपने पूरे
जीवन को एक
पुनरुक्ति
बना लेता है, जस्ट ए
रिपीटीशन, ए
मैकेनिकल
रिपीटीशन; यंत्रवत
घूमते चले
जाते हैं।
इसका जो बड़े
से बड़ा वर्तुल
है, वह
पूरा जीवन है।
सिर्फ भारत को
इस बात का खयाल
आ पाया।
भारतीय
धर्मों के
अतिरिक्त
दुनिया का कोई
धर्म
पुनर्जन्म का
खयाल नहीं
करता, रि—बर्थ
का खयाल नहीं
करता।
क्योंकि भारत
के अलावा
दुनिया के
किसी धर्म ने
मनुष्य के मन
की इस कीमिया
को ठीक से
नहीं समझा कि
अगर मनुष्य का
मन पुनरुक्त करता
है, तो
पूरा जीवन भी
एक वृहदकाय
वर्तुल होगा
और आदमी फिर
पुनरुक्त
करेगा! और
हमने बार—बार
किया है!
हम बार—बार
उसी तरह लोभ
में पड़े हैं, अनेक
जन्मों में।
बार—बार उसी
तरह वासना में
गिरे हैं, अनेक
जन्मों में।
बार—बार मकान
बनाए, धन
कमाया, पद
कमाया। बार—बार
असफल हुए, अनेक
जन्मों में।
और हर बार फिर
वही, हर
बार फिर वही!
कृष्ण
कहते हैं कि
ऐसे जो
देवताओं को
भजते हैं, बिना
मुझे जाने, अर्थात जो
अपनी वासनाओं
को ही उपासना
बना लेते हैं,
जो किसी माग
से प्रार्थना
करते हैं, वे
बार—बार गिरते
हैं और
पुनर्जन्म को
उपलब्ध होते हैं।
कारण यह है कि
देवताओं को
पूजने वाले
देवताओं को
प्राप्त होते
हैं।
यह
बहुत कीमती
सूत्र है।
कारण
यह है कि
पितरों को
पूजने वाले
पितरों को
प्राप्त होते
हैं। कारण यह
है कि भूतों
को पूजने वाले
भूतों को
प्राप्त होते
हैं। कारण कि
व्यक्ति जो भी
पूजता है, अंततः
वही हो जाता
है। और
व्यक्ति जो भी
पूजता है, अंततः
उससे ऊपर नहीं
जा सकता। कोई
भी व्यक्ति अपने
श्रद्धेय से
ऊपर नहीं जा
सकता।
इसे
थोड़ा हम समझ
लें।
आप
जिसको
श्रद्धा करते
हैं, वह
आपका
मैक्सिमम, आपका
श्रेष्ठतम, अंतिम बिंदु
हो गया।
श्रद्धा जरा
सोचकर करना, क्योंकि
श्रद्धा आपके
भविष्य की
लकीर हो जाएगी।
जिसको आप
श्रद्धा
करते
हैं, उससे
ऊपर आप कभी
नहीं जा सकते
हैं। आपकी
श्रद्धा आपका
अंतिम बिंदु
बन जाती है।
वह आपके व्यक्तित्व
के विकास का
लक्ष्य हो
जाती है। तो
आदमी जिसको
पूजता है, अनजाने
तय कर रहा है
कि यही मैं
होना चाहता हूं।
ध्यान
रखें, आज
अगर सड़क से एक
संन्यासी जा
रहा हो, तो
कोई भीड नहीं
लग जाती उसके
आस—पास। कभी
लगती थी। आज
से दो हजार
साल पीछे, बुद्ध
अगर गांव से
गुजरते, संन्यासी
गाव से गुजरता,
तो भीड़ लग
जाती थी। सारा
गांव इकट्ठा
हो जाता था।
क्योंकि चाहे
कोई दुकान कर
रहा हो, चाहे
कोई खेती कर
रहा हो, अंतिम
श्रद्धा यही
थी कि एक दिन
मुझे भी संन्यासी
हो जाना है।
चाहे न हो पाए;
तो इसकी
पीड़ा रह जाएगी,
दंश रह
जाएगा। लेकिन
आज संन्यासी
को देखकर कोई
भीड़ इकट्ठी
नहीं होती। ही,
अभिनेता
निकलता हो, तो भीड़
इकट्ठी हो
जाती है। वह
हमारी
श्रद्धा है।
वही हम होना
चाहते हैं।
भला न हो पाएं,
भला न हो
पाएं, होना
वही चाहते
हैं।
जो हम
होना चाहते
हैं, वह
हमारा
श्रद्धा—पात्र
हो जाता है।
श्रद्धा—पात्र
का अर्थ है, वह मेरे
भविष्य की
तस्वीर है, यही मैं
होना चाहता
हूं। और जो
व्यक्ति
जिसको
श्रद्धा करता
है, धीरे—
धीरे वैसा ही
हो जाता है।
हो ही जाएगा, क्योंकि
श्रद्धा से
हमारी आत्मा
निर्मित होती
है, और
श्रद्धा
हमारी आत्मा
का गठन करती
है, और
श्रद्धा
हमारी आत्मा
को रूपांतरित
करती है।
श्रद्धा
सोचकर करना!
बहुत
होशियारी से,
बहुत
बुद्धिमानी
से। क्योंकि
श्रद्धा ढांचा
बनेगी, जिसमें
अंततः आप ढल
जाएंगे।
तो
कृष्ण कहते
हैं, जो
देवताओं को
पूजते हैं, वे देवताओं
को प्राप्त
होते हैं।
लेकिन
देवता तो
स्वयं ही
वासनाओं से
घिरे हुए जीते
हैं! चाहे
इंद्र हो, तो भी
वासनाओं से
भरा हुआ जीता
है! हम सबको
कथाएं पता हैं
कि अगर पृथ्वी
पर कोई आदमी
बहुत
तपश्चर्या
करे, तो
इंद्र का
सिंहासन
डोलने लगता
है। इसका मतलब
यह है कि
ईर्ष्या से वह
भर जाता है, क्योंकि उसे
डर होता है कि
कोई दूसरा
समर्थ आदमी
इंद्र होने की
स्थिति में
आया जा रहा
है। अगर यह
सफल हो गया
तपश्चर्या
में, तो
मुझे पद से हट
जाना पड़ेगा, और यह आदमी
मेरे पद पर
बैठ जाएगा।
तो
इंद्र बेचारा
चौबीस घंटे
अपने सिंहासन
को बचाने में
ही लगा हुआ है!
कहीं कोई
तपश्चर्या करे, कठिनाई
उसे होती है!
भेजता है
उर्वशियों को,
अप्सराओं
को कि जाकर
भ्रष्ट करो!
इस आदमी को डांवाडोल
करो! यह थोडा
डांवाडोल हो
जाए, तो
मेरा सिंहासन
स्थिर हो जाए।
जो भी
सिंहासन पर है, वह सदा
डरा हुआ रहेगा
ही; घबड़ाया
रहेगा।
मैंने
सुना है, इटली में एक
बहुत पुराना
मंदिर है; अभी
भी है। उसकी
बड़ी पुरानी
कथा है और बड़ी
हैरानी की है।
उस मंदिर का
इतिहास अनूठा
है। एक पहाड़
की तलहटी में
एक छोटी—सी
झील के पास वह
मंदिर है, एक
बड़े वृक्ष के
नीचे। उस
मंदिर का जो
पुजारी है, वह दुनिया
के इतिहास में
अनूठे ढंग का
पुजारी है। उस
मंदिर का
पुजारी बनने
का एक ही उपाय
है; अगर
कोई व्यक्ति
मौजूद पुजारी
की हत्या कर
दे, तो ही
वह व्यक्ति
वहां का
पुजारी बन
सकता है।
तो
तलवार लिए
पुजारी खड़ा
रहता है चौबीस
घंटे। क्योंकि
पूरे वक्त
सोना मुश्किल
हो जाता है। सो
नहीं सकता।
सोए, कि
गए! जिंदगी
हराम हो जाती
है, क्योंकि
पूरे वक्त.।
और कोई नहीं
है उस जंगल
में, उस
वृक्ष के नीचे
एक पुजारी
अपनी तलवार
लिए अपनी
रक्षा करता
रहता है। और
आज नहीं कल, उसे पता है
कि मौत तो
होगी ही।
क्योंकि वह भी
इसी तरह
पुजारी बना
है! वह भी किसी
को इसी तरह मारा
है, तभी
पुजारी बना
है। और यह सतत
परंपरा है।
कोई उसे
मारेगा और
पुजारी
बनेगा। और जो
बनेगा पुजारी,
वह
भलीभांति
जानता है कि
वह जिस जगह जा
रहा है, वहां
तलवार लिए खड़े
रहना है, और
कोई उसकी
हत्या करेगा।
यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है! सभी
पदों की हालत
ऐसी ही है। जो
भी वहा
पहुंचता है, किसी को
मारकर, हटाकर,
परेशान
करके पहुंचता
है। पहुंचते
से ही फिर
उसको चौबीस
घंटे तलवार
लिए खड़े रहना
पड़ता है, क्योंकि
जिस रास्ते से
वह आया है, उसी
रास्ते से
दूसरे भी
आएंगे। और उसे
पक्का मालूम
है कि वह सदा
वहां नहीं रह
सकता, कोई
आएगा पीछे।
क्योंकि अगर
सदा वहां कोई
रह सकता होता,
तो वह खुद
भी वहां नहीं
पहुंच सकता
होता। कोई और
ही रहा होता।
वह पहुंच गया;
कोई और
पहुंच जाएगा।
हर पद
के पास, हर धन के पास,
हर
प्रतिष्ठा के,
हर सिंहासन
के पास मौत की
घबड़ाहट है।
इंद्र घबड़ाया
हुआ है; देवता
घबडाए हुए
हैं। वासना से
भरे हुए हैं, इच्छाओं से
भरे हुए हैं।
कृष्ण कहते
हैं कि
देवताओं को
पूजकर ज्यादा से
ज्यादा अगर
कोई आदमी पूरी
तरह सफल हो
गया, तो
देवता हो
जाएगा, इससे
ऊपर नहीं जा
सकता।
लेकिन
देवता कोई
बहुत ऊंची
अवस्था नहीं
है। यह भी
बहुत हैरानी
की बात है कि
भारत अकेला
देश है, जो देवताओं
की अवस्था को
बहुत ऊंची अवस्था
नहीं मानता!
और यह भी
मानता है कि
देवताओं को भी
अगर मुक्त
होना हो, तो
उन्हें पहले
मनुष्य होना
पड़ेगा।
मनुष्य चौराहा
है। देवता का
एक रास्ता है,
मनुष्य से
जाता है आगे।
मालूम पड़ता है,
आगे जाते।
लेकिन अगर
देवता को भी
मुक्त होना है,
तो उसे वापस
चौराहे पर लौटकर
मुक्ति का
रास्ता पकड़ना
पड़ेगा।
मनुष्य
चौराहा है, क्रास—रोड
है। पशु को भी
अगर मुक्त
होना है, तो
मनुष्य होना
पड़ेगा; देवता
को भी मुक्त
होना है, तो
मनुष्य होना
पड़ेगा। एक
अर्थ में
देवता ऊपर मालूम
पड़ सकता है, क्योंकि
ज्यादा सुख
में है। लेकिन
एक अर्थ में
नीचे है, क्योंकि
देवता की
स्थिति से
अंतिम
ट्रासफामेंशन,
अंतिम क्रांति
नहीं हो सकती,
उसे मनुष्य
तक वापस लौटना
पड़ेगा।
मनुष्य
से ही कोई
क्राति संभव
है। इस अर्थ
में भी भारत
ने. देवताओं
के पास मनुष्य
से ज्यादा शक्ति
है, ज्यादा
उम्र है, ज्यादा
इच्छाओं की
पूर्ति का साधन
है, ज्यादा
सुख है—सब कुछ
है—लेकिन
आत्मक्रांति
का उपाय नहीं
है। उन्हें
वापस लौट आना
पड़ेगा।
इसलिए
भारत ने
मनुष्य को एक
अर्थ में चरम
माना है।
मनुष्य की
इतनी गरिमा
दुनिया में
कहीं भी नहीं
है। इस अर्थ
में चरम माना
है कि सिर्फ
मनुष्य की ही
आत्मा में
मुक्त होने की
आत्यंतिक
घटना घट सकती
है, परम
स्वतंत्रता
और प्रभु का
दर्शन मनुष्य
के साथ ही
घटित हो सकता
है। पशु के
साथ नहीं हो
सकता, क्योंकि
वे भी अज्ञान
में हैं, और
देवताओं के
साथ भी नहीं
हो सकता, क्योंकि
वे भी अज्ञान
में हैं। पशु
दुख में होगा,
देवता सुख
में होंगे, लेकिन दोनों
अज्ञान में
हैं। मनुष्य
के साथ घटना
घट सकती हैं
तीनों।
भारत
कहता है कि
मनुष्य नीचे
गिरना चाहे, तो पशुओं
से नीचे गिर
सकता है, ऊपर
उठना चाहे, तो देवताओं
से पार जा
सकता है, और
मुक्त होना
चाहे, तो
समस्त घेरे के
बाहर छलाग लगा
सकता है।
कृष्ण
कहते हैं, जो पूजा
करेगा पितरों
की, वह
पितरों को
प्राप्त हो
जाएगा। जो भी
पूजा होगी, अगर सफल हो
गए, तो वही
हो जाओगे।
और
मेरे भक्त
मुझको ही
प्राप्त होते
हैं। इसलिए
मेरे भक्तों
का पुनर्जन्म
नहीं है। मेरे
भक्त मुझको ही
प्राप्त होते
हैं! जो मुझे
भजता है, वह धीरे—
धीरे, धीरे—
धीरे मुझमें
ही एक हो जाता
है।
सिर्फ
परमात्मा की
पुनरुक्ति
नहीं होती, बाकी सब
चीजें
पुनरुक्त
होती हैं।
सिर्फ परमात्मा
का कोई
रिपीटीशन
नहीं होता, बाकी सब
चीजें दोहरती
हैं। जो
शाश्वत है, वही
पुनरुक्त
नहीं होता।
इसे
समझना कठिन
पड़ेगा; पर दो—तीन
बातें खयाल
में लें, तो
शायद समझ में
आ जाए।
दुनिया
में सब चीजें
नई होती हैं, क्योंकि
सभी चीजें
पुरानी पड़
जाती हैं। जो
भी नई है, वह
कल पुरानी हो
जाएगी। जो आज
पुरानी है, ध्यान रखना,
वह कल नई
थी। सिर्फ
परमात्मा न
नया है और न
पुराना। वह
सिर्फ है। वह
कभी पुराना
नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह
कभी नया नहीं
था।
जो चीज
नई है, वही
पुरानी हो
सकती है। जो
नई नहीं है, उसके पुराने
होने का कोई
उपाय न रहा।
तो परमात्मा न
नया है, न
पुराना।
इसलिए हमने एक
अलग शब्द गढ़ा
है, वह है
सनातन, वह
है शाश्वत, वह है अनादि,
अनंत। इस
भाषा में हमने
उसे कहा है कि
वह सदा है।
परमात्मा
पुराना नहीं
होता, नया
नहीं होता, बस होता है।
जो चीज
नई है, वह
कल पुरानी हो
जाएगी। और जब
पुरानी हो
जाएगी, तो
फिर नए होने
के लिए
संभावना शुरू
हो जाएगी। जो
चीज पुरानी है,
वह कल
पुरानी हो —होकर
नष्ट हो जाएगी,
खो जाएगी; फिर नए होने
का मौका मिल
जाएगा।
दुनिया
में सब चीजें
दोहरती रहती
हैं। कई दफे बहुत
हैरानी की
बातें होती
हैं। अगर आप
दुनिया के
फैशन का
इतिहास देखें, तो बहुत
चकित हो
जाएंगे! दस—पांच
साल में फैशन
वापस आ जाते
हैं। जिन
कपड़ों को दस—पांच
साल पहले
पुराना समझकर
छोड़ दिया, दस—पांच
साल बाद वे
लौट आते हैं।
जिन बालों के
ढंग को दस—पांच
साल पहले
पुराना समझकर
छोड़ा था, दस—पांच
साल बाद वे
वापस लौट आते
हैं!
दस—पांच
साल काफी वक्त
है। पुरानी
चीजें भूल जाती
हैं, फिर
नई हो जाती
हैं। और आदमी
की स्मृति
इतनी कमजोर है
कि वह देख ही
नहीं पाता, वह खयाल भी
नहीं कर पाता
कि हम क्या कर
रहे हैं! फिर
वही चुनकर ले
आता है, फिर
वही चुनकर ले
आता है। आदमी
के मन के साथ
नए और पुराने
का खेल चलता
रहता है, पुनरुक्ति
चलती रहती है।
कृष्ण
कहते हैं, जो मुझे
उपलब्ध होता
है, वह
पुनर्जन्म को
उपलब्ध नहीं
होता, क्योंकि
वह शाश्वतता
के साथ एक हो
गया।
इसका
दूसरा अर्थ भी
है।
पुनर्जन्म तो
उसका ही होता
है, जो
समझता हो कि
मेरा जन्म
होता है। और
जो समझता है
कि मेरा जन्म
होता है, फिर
उसे मृत्यु की
भी पीड़ा भोगनी
पडती है। परमात्मा
को जो जानने
लगता है, वह
तो जानता है
कि न मेरा
जन्म होता है
और न मेरी
मृत्यु होती
है। तो जन्म
और मृत्यु
साधारण घटनाएं
रह जाती हैं, हवा के
बबूलों की
तरह। और वह तो
जन्म के भी
पहले होता है
और मृत्यु के
भी बाद होता
है। अब उसका
कोई जन्म और
मृत्यु नहीं
होती।
बुद्ध
से कोई पूछता
है, मरने
के दिन, कि
क्या आप
मृत्यु के बाद
कहीं होंगे या
बिलकुल खो
जाएंगे? तो
बुद्ध कहते
हैं, अगर
मैं मृत्यु के
पहले कहीं था,
तो रहूंगा।
अगर पहले ही
खो गया, तो
पीछे भी बचेगा
क्या?
सुनने
वाले की समझ
में नहीं आया
है, उसने
फिर दूसरी तरह
से पूछा। उसने
पूछा कि छोड़े,
यह जरा कठिन
है। मैं यह
पूछता हूं
जन्म के पहले आप
कहीं थे या
जन्म के बाद
ही आप हुए?
बुद्ध
ने कहा, अगर जन्म के
पहले मैं कहीं
था, तो
जन्म के बाद
भी कहीं
रहूंगा; और
अगर जन्म के
बाद भी कहीं
नहीं था, तो
जन्म के पहले
भी कहीं नहीं
था।
पर उस
आदमी की समझ
में नहीं आया।
उसने कहा, पहेली
में मत जवाब
दें। मुझे
सीधा—सीधा
कहें। तो
बुद्ध ने कहा,
जिसे तुम
देखते हो, वह
तो जन्म के
साथ पैदा हुआ
है और मृत्यु
के साथ मर
जाएगा। लेकिन
जिसे मैं
देखता हूं वह
कभी पैदा नहीं
हुआ और कभी
मरेगा भी
नहीं। लेकिन
वह देखना आंतरिक
है, वह
देखना भीतर
है। वह सिर्फ
मैं ही देख
सकता हूं; तुम्हें
वह दिखाई नहीं
पड़ेगा। तुम भी
देख सकते हो, अगर तुम
अपने भीतर
देखने में
समर्थ हो जाओ।
लेकिन
हम सबका देखना
बाहर है। बाहर
जो हमें दिखाई
पड़ता है, वह तो जन्म
और मृत्यु का
घेरा है। भीतर
कोई हमारे
जरूर छिपा है,
जो न जन्मता
है और न मरता
है। उसकी अगर
पहचान हो जाए,
तो फिर कोई
पुनर्जन्म
नहीं है, फिर
कोई लौटना
नहीं है।
लौटने
को एक तीसरी
तरह से भी
समझें।
अगर
कुछ बच्चे एक
क्लास में पढ़
रहे हों, और हर साल
उन्हें वापस
परीक्षा के
बाद उसी क्लास
में भेज दिया
जाए, तो
इसका क्या
मतलब होगा? इसका एक ही
मतलब होगा कि
पढ़ा—लिखा
उन्होंने बहुत
होगा, लेकिन
गुना बिलकुल
नहीं, पढ़ा—लिखा
बहुत होगा, लेकिन समझा
बिलकुल नहीं;
पढ़ा—लिखा
बहुत होगा, मेहनत बहुत
की होगी, लेकिन
कोई ग्रोथ, कोई विकास, कोई बढ़ती
उनके भीतर
नहीं हुई।
वापस उसी
क्लास में
लौटा दिए गए।
जीवन
तभी हमें वापस
भेजता है किसी
स्थिति में, जब हम
उससे बिना कुछ
सीखे गुजर
जाते हैं। जिस
स्थिति से आप
बिना सीखे
गुजर जाएंगे,
आपको वापस
लौटना पड़ेगा।
सिर्फ उसी
स्थिति में आप
वापस नहीं
लौटेंगे, जिससे
आप सीखकर गुजर
जाएंगे।
लेकिन
हम हर चीज से
बिना सीखे
गुजर जाते
हैं! कितनी
बार क्रोध
किया—सीखा
क्या? कितनी
बार प्रेम
किया—सीखा
क्या? कितनी
बार कामवासना
में डूबे—सीखा
क्या? कितनी
बार ईर्ष्या
की—सीखा क्या?
कितना लोभ
किया—जिंदगी
में बहुत कुछ
किया—सीखा
क्या? संपत्ति
क्या है? सार
क्या है? हाथ
में निचोड़
क्या है?
अगर
निचोड़ कुछ भी
नहीं है, तो आपको
लौटना पड़ेगा।
जिंदगी किसी को
क्षमा नहीं
करती, जिंदगी
फिर अवसर
देगी। जिंदगी
फिर कहेगी कि
वापस उसी जगह
लौट जाओ!
और हम
ऐसे हैं कि
बार—बार लौटकर
हम पुख्ता
होते चले जाते
हैं। धीरे—
धीरे हमको
लगता है कि इस
क्लास में
वापस आना, यह तो
अपना घर है!
उसमें हम वापस
आए चले जाते
हैं। सीखना
शायद और मुश्किल
होता चला जाता
है। हम
अभ्यासी हो
जाते हैं। हम
अभ्यासी हो
जाते हैं। और
हममें जो अभ्यासी
हैं, वे
कभी—कभी आगे
निकल जाते
हैं। मैं
जानता हूं।
मैं एक
क्लास में नया—नया
पहुंचा; बाकी सब
विद्यार्थी
तो एक ही उम्र
के थे, एक
विद्यार्थी
बहुत उम्र का
था। तो मैंने
शिक्षक को
पूछा, तो
उन्होंने कहा
कि यह छ: साल से
इसी क्लास में
हैं; लेकिन
अब कैप्टन हो
गए हैं। क्लास
के कैप्टन हैं!
और वह लड़का
अकड़कर खड़ा था।
निश्चित ही।
छ: साल वापस
उसी क्लास में
लौटने का
चुकता परिणाम
इतना हुआ है
कि वे अब
कैप्टन हो गए
हैं! अब वे उस क्लास
से शायद जाना
भी न चाहें, क्योंकि
दूसरी क्लास
में कैप्टन वे
न हो पाएंगे।
इस
जिंदगी में भी
जो बहुत तरह
के कैप्टन
दिखाई पड़ते
हैं—राजनीति
में, धन
में, यहां—वहां—उनमें
अधिक लोग इसी
तरह के हैं, जो पुख्ता
हो गए हैं, मजबूत
हो गए हैं, दोहर—दोहरकर
जिंदगी में
इतने यंत्रवत
मजबूत हो गए
हैं, कि जो
नए बच्चे आ
रहे होंगे
जिंदगी में, उनके सामने,
कोई
राष्ट्रपति, कोई
प्रधानमंत्री,
कोई कुछ
होकर खड़ा हो
जाता है। उनसे
अगर कहो भी कि
जन्म—मरण से
छुटकारा, वे
कहेंगे कि
नहीं, हम
तो बार—बार
किसी तरह इसी पद
पर लौटते रहें,
यही
आकांक्षा है!
जिंदगी
में जो कई बार
सफल दिखाई
पड़ते हैं, उनका एक
ही कारण हो
सकता है गहरे
में कि जिंदगी
के असली
लक्ष्य से वे
असफल हो गए
हैं। मगर यह बड़ा
कठिन है
समझना। जो
जिंदगी में
तथाकथित सफलता
दिखाई पड़ती है,
सो—काल्ड
सक्सेस, इसके
पीछे जिंदगी
की बड़ी गहरी
असफलता कारण
हो सकती है!
बहुत बार लौट—लौटकर
इसी जगह वे
काफी ज्ञानी
और अनुभवी हो
गए हैं! इसी
क्लास में
उन्हें सब रट
गया है, सब
कंठस्थ हो गया
है, कुशल, चालाक हो गए
हैं। यद्यपि
अनुभव उन्हें
कुछ भी नहीं
हुआ, क्योंकि
अनुभव हो जाए
तो लौटने का
कोई उपाय नहीं
है।
जिस
चीज को हम जान लेते
हैं, हम
उसको
ट्रासेंड कर
जाते हैं; उसके
पार निकल जाते
हैं। लेकिन जो
आदमी परमात्मा
को ही जान
लेगा, फिर
तो उसके कहीं
भी लौटने का
कोई उपाय न
रहा, क्योंकि
जीवन की अंतिम
शिक्षा पूरी
हो गई।
परमात्मा
का अर्थ है, जीवन का
अंतिम
निष्कर्ष, अस्तित्व
का सार, अस्तित्व
का केंद्र; अस्तित्व का
आखिरी कमल खिल
गया, अस्तित्व
ने आखिरी गीत
गा लिया, अस्तित्व
ने आखिरी
नृत्य देख
लिया, अस्तित्व
की जो गहनतम
संभावना थी, वह
अभिव्यक्त हो
गई; अब
लौटने का कोई
उपाय न रहा।
तो
परमात्मा जो
है, वह
प्वाइंट आफ
नो रिटर्न है।
वहां से आप
वापस नहीं गिर
सकते। और जहां
से भी आप वापस
गिर सकते हैं,
वहां तक
जानना कि
परमात्मा
नहीं है, वहां
तक संसार है।
और जहां से भी
आप वापस गिर
सकते हैं, तो
समझ लेना कि
आप छलांग
लगाकर उचकने
की कोशिश किए
होंगे, लेकिन
वह नई अवस्था
आपके लिए सहज
नहीं थी। आप अपनी
पुरानी अवस्था
में गिर गए
हैं।
एक
आदमी छलांग
लगाए आकाश में, तो
क्षणभर के लिए
उचक सकता है।
फिर जमीन खींच
लेगी। अपनी
जगह फिर खड़ा
हो जाएगा। अगर
आकाश में छलाग
ही लगानी हो, तो फिर जमीन
का
गुरुत्वाकर्षण
तोड्ने का कोई
उपाय करना
पड़ेगा। हवाई जहाज
कोई उपाय करता
है, तो
जमीन के गुरुत्वाकर्षण
के बाहर हो
जाता है, या
जमीन के
गुरुत्वाकर्षण
के रहते भी
आकाश में सदा
रह जाता है।
हम सब ऐसे
हवाई जहाज हैं,
जिनको यह
पता ही नहीं
है कि हम जमीन
के गुरुत्वाकर्षण
से ऊपर उठ
सकते हैं। और
हमारा उपयोग लोकवाहक
की तरह, पब्लिक
कैरियर की तरह
किया जा रहा है!
समान ढो
रहे हैं, जमीन पर ही।
हवाई जहाज से
हम चाहें तो
ठेले का काम
भी ले सकते
हैं, लारी
का, ट्रक
का। और अगर
हवाई जहाज के
पायलट को खयाल
ही न हो कि यह
हवाई जहाज
जमीन को छोड़कर
भी उड़ सकता है,
तो बेचारा
जमीन पर ही
ट्रक का काम
करता रहेगा; जमीन पर ही
सामान ढोता
रहेगा!
ध्यान
रहे, ट्रक
तो आकाश में
नहीं उड़ सकता,
लेकिन हवाई जहाज
जमीन पर चल
सकता है।
श्रेष्ठ में
निकृष्ट तो समाया
होता है, लेकिन
अगर आप
निकृष्ट के
आदी हो जाएं, तो श्रेष्ठ
का खयाल ही
मिट जाता है।
परमात्मा
के स्मरण का
इतना ही अर्थ
है, उसकी
पूजा का इतना
ही अर्थ है, कि तुम्हीं
हो मेरे
गंतव्य, कि
जब तक मैं
तुम्हीं न हो
जाऊं, तब
तक मेरे लिए
कोई भी ठहराव
नहीं है, तुम्हीं
हो मुकाम, और
जब तक तुम्हीं
न मिल जाओ, तब
तक मेरे लिए
कोई पड़ाव पड़ाव
नहीं है।
रुकूंगा, रातभर
ठहरूंगा, सिर्फ
इसलिए कि सुबह
चल सकूं!
रुकूंगा, विश्राम
कर लूंगा, सिर्फ
इसलिए कि पैर
थक गए; और
पैरों की ताकत
लौट आई तो फिर
चल पडूगा।
लेकिन
हम भी, चलते
तो हम भी बहुत
हैं, लेकिन
हमारा चलना
ऐसा है कि जिस
जमीन पर हम बार—बार
चल चुके हैं, हम उसी पर
लौट—लौटकर
चलते रहते
हैं। एक ही
जगह को हम कई
बार पार करते
रहते हैं।
हमारी जिंदगी
गति नहीं करती;
जैसे कि
मालगाड़ी के
डब्बे शंटिंग
करते हैं स्टेशन
पर, वैसी
हमारी जिंदगी
है, वहीं—वहीं
शंटिंग करते
रहते हैं।
कहीं कोई
अंतिम मुकाम
नहीं आता। बस,
दौड़— धूप
में, आखिर
में यह शंटिंग
होते—होते हम
टूटते और चुक
जाते हैं।
पुनर्जन्म
का अर्थ है, शंटिंग।
उसका अर्थ है
कि यात्रा पर
नहीं निकल पा
रहे हैं आप।
फिर वहीं लौट
आने का अर्थ
है कि आगे कोई
गति नहीं सूझ
रही है आपको।
कृष्ण
कहते हैं, लेकिन जो
मुझे भजता है,
वह फिर नहीं
लौटता है।
क्योंकि वह
भजन अंतिम है।
परमात्मा
अंतिम
निष्कर्ष है—आखिरी, दि अल्टिमेट,
परम। उसके
पार कुछ नहीं
है। या हम ऐसा
कहें, जिसके
पार हमारी कोई
समझ नहीं जाती,
वही
परमात्मा है।
जिसके पार हम
सोच भी नहीं
सकते; जिसके
अतीत और जिसके
पार की कल्पना
भी नहीं बनती,
वही
परमात्मा है।
इस
परमात्मा के
भजने, इस
परमात्मा के
पूजने का क्या
अर्थ? कैसे
कोई पूजेगा? तीन बातें
अंत में आपसे
कहूं।
एक, जीवन को
पुनरुक्ति न
बनने दें, स्मरणपूर्वक
पुनरुक्ति से
बचें। डोंट गो
ऑन रिपीटिग, दोहराए मत
चले जाएं।
कहीं से भी
ढांचे को तोडे।
और कहीं से भी
इस दोहरती हुई
यांत्रिक
प्रक्रिया के
बाहर हो जाएं।
छोटे—मोटे
प्रयोग से भी
आदमी बाहर
होना शुरू हो
जाता है, बहुत
छोटे—मोटे
प्रयोग से!
हमारी
सबकी
प्रतिक्रियाएं
बंधी हुई हैं।
अगर मैंने
आपको गाली दी, तो
प्रेडिक्टेबल
है कि आप क्या
करोगे! जो
आपको जानते
हैं, वे
भलीभांति बता
सकते हैं कि
आप क्या
करोगे! एक
पत्नी बीस साल
पति के साथ रहकर
भलीभांति
जानती है कि
अगर वह यह
कहेगी, तो
पति यह जवाब
देगा! आदमी
प्रेडिक्टेबल
हो जाता है।
पति भलीभांति
जानता है कि
घर पहुंचकर पत्नी
क्या पूछने
वाली है!
उत्तर भी
रास्ते में
तैयार कर लेता
है कि वह यह
कहेगी, यह
उत्तर हो
जाएगा! और यह
भी जानता है
कि इस उत्तर
को वह मानने
वाली नहीं है।
पत्नी भी
जानती है कि
मैं यह
पूछूंगी, तो
क्या उत्तर
मिलेगा! जानते
हुए भी कि यह
उत्तर मिलेगा,
वह पूछेगी;
उत्तर
पाएगी, मानेगी
नहीं। लेकिन
कहीं से भी हम
अपनी यंत्रवत
व्यवस्था को
तोड़ेंगे
नहीं।
कहीं
से भी तोड़े।
कोशिश करें
अनप्रेडिक्टेबल
होने की।
कोशिश करें कि
आपके बाबत
भविष्यवाणी न
हो सके। कोई
यह न कह सके कि
अगर हम चांटा
मारेंगे, तो वे क्या
करेंगे!
जिस
दिन आप
अनप्रेडिक्टेबल
हो जाते हैं, जिस दिन
आपके बाबत कोई
प्रतिक्रिया
को पूर्व—घोषित
नहीं किया जा
सकता, आप
पहली दफा
मनुष्य होते
हैं। उसके
पहले आप
यंत्रवत होते
हैं।
कुछ
नहीं कहा जा
सकता, अगर
जीसस के गाल
पर आप चांटा
मारे, तो
जीसस क्या
करेंगे, कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। अगर
बुद्ध को आप
पत्थर मारे, तो बुद्ध
क्या करेंगे,
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता।
एक
आदमी ने बुद्ध
के ऊपर आकर थूक
दिया था, तो वह आदमी सोच
भी नहीं सकता
था कि बुद्ध
क्या करेंगे।
बुद्ध ने अपनी
चादर से उस
आदमी के थूक
को पोंछ लिया
और उस आदमी से
कहा, तुम्हें
कुछ और भी
कहना है?
उस
आदमी ने कहा, आप क्या
कह रहे हैं? मैंने थूका
है, कुछ
कहा नहीं!
बुद्ध
ने कहा, मैं समझ
गया। कई बार
ऐसा हो जाता
है कि आदमी
इतने भाव से
भर जाता है कि
शब्दों में
नहीं कह पाता,
तो
किसी
चेष्टा से
कहता है। तुम
शायद ज्यादा
क्रोध से भर
गए हो कि गाली
भी कम पड़ती
होगी; तुमने
थूककर कहा।
मैं समझ गया।
अब तुम बोलो, तुम्हें और
क्या कहना है?
अब यह
अनप्रेडिक्टेबल
है। इस आदमी
को हम यांत्रिक
नहीं कह सकते।
इस आदमी को
यांत्रिक
कहना मुश्किल
है। यह आदमी
दोहरा नहीं
रहा है।
लेकिन
वह दूसरा आदमी
तो मुश्किल
में पड़ गया। रातभर
उसने सोचा, सो नहीं
पाया। अगर ये
बुद्ध उसको
गाली दे देते,
या उसके ऊपर
यूक देते, तो
ज्यादा दया
होती। एक अर्थ
में वह रात सो
सकता। अगर ये
भी नाराज हो
जाते, तो
वह रात
निश्चित सो
जाता, क्योंकि
दिक्कत ही खतम
हो गई थी।
सर्किल पूरा हो
जाता। घटना
पूरी हो जाती।
बुद्ध ने
पोंछकर पूछ
लिया कि और
कुछ कहना है? तो अटक गई
बात अधूरी। मन
रातभर बेचैन
रहा कि यह
आदमी कैसा है?
फिर मन को
यह भी होने
लगा कि मैंने
गलत आदमी के
ऊपर थूक दिया!
यह ठीक नहीं
किया मैंने थूककर!
ऐसे आदमी पर
तो कम से कम
नहीं फना था!
रातभर
जागता रहा।
बेचैन रहा।
सुबह ही भागा
हुआ आया।
बुद्ध के पैर
पर गिर पड़ा।
पैर पर उसके आंसू
टपकने लगे।
बुद्ध ने उसे
उठाया, चादर से पैर
के आंसू पोंछे
और पूछा, और
कुछ कहना है? क्योंकि आज
तुम फिर उसी
हालत में आ
गए। कुछ कहना
चाहते हो, नहीं
कह पा रहे, शब्द
ओछे पड़ते हैं,
आंसू
टपकाकर कहते
हो। बोलो, क्या
कहना है?
उस
आदमी ने कहा, मैं
क्षमा मांगने
आया हूं।
बुद्ध
ने कहा, छोड़ो भी। कल
तो कब का बह
गया, तुम
किससे क्षमा मांगने
आए हो? वह
आदमी अब
तुम्हें कहां
मिलेगा, जिसके
ऊपर तुमने थूका
था?
उस
आदमी ने कहा, क्या आप
वह आदमी नहीं
हैं? क्या
कह रहे हैं? क्यों मुझे
मुसीबत में
डाल रहे हैं!
आप ही वे आदमी
हैं, जिन
पर मैं यूक
गया था।
बुद्ध
ने कहा, लेकिन चौबीस
घंटे में, जानते
हो, गंगा
का कितना पानी
बह जाता है? चौबीस
घंटेभर बाद
अगर तुम उसी
गंगा से क्षमा
मांगने जाओगे,
जिसमें थूक
गए थे, तो
वह गंगा कहेगी,
मुझे पता ही
नहीं। किस में
तुम यूक गए थे?
पानी कितना
बह गया चौबीस
घंटे में!
छोड़ो भी। भूलो
भी। क्यों रुक
गए हो उस पर? थूककर जितनी
गलती की थी, उससे बडी
गलती यह कर
रहे हो कि अब
उसी पर रुके हुए
हो, रातभर
खराब की!
छोड़ो।
लेकिन
वह आदमी कैसे
छोड़ दे? वह दूसरे
दिन फिर आता
है कि मुझे
क्षमा कर दो। वह
तीसरे दिन फिर
आता है कि
मुझे क्षमा कर
दो। वह चौथे
दिन फिर आता
है कि मुझे
क्षमा कर दो!
वह
पुनरुक्त कर रहा
है; एक
घेरे में घूम
रहा है। वह एक
घेरे में घूम
रहा है। और
बुद्ध आनंद से
कहते हैं कि
अगर इसे मैं
क्षमा कर दूं
तो यह फिर यूक
सकता है। यह
प्रेडिक्टेबल
है, इसकी
घोषणा की जा
सकती है। यह
बेचैन हो रहा
है सिर्फ
इसीलिए कि एक
क्रिया पूरी
नहीं हो पा रही
है। इसको बेचैनी
मालूम हो रही
है।
मन
पूरा करना
चाहता है कोई
भी काम, पूरा हो जाए
तो निश्चित हो
जाता है।
इनकंप्लीट, कोई चीज
अधूरी रह गई, तो मन ऐसे ही
बेचैन होता है,
जैसे दांत
गिर जाए आपका
एक, तो जीभ
वहां बार—बार
जाती है, खाली
जगह को बार—बार
छूती है।' लाख
कोशिश करो कि
मत छुओ; पता
तो है कि गिर
गया दांत, फिर
जीभ वहीं चली
जाती है। वह
जीभ यह कहती
है, समथिंग
इनकंप्लीट; कोई चीज
अधूरी है, इसको
पूरा करो, भरो।
ठीक, मन ऐसे ही
पूरे समय
कोशिश करता है
भरने की। लेकिन
बुद्ध जैसे
व्यक्ति
अघोष्य हो जाते
हैं; अनप्रेडिक्टेबल
हो जाते हैं।
उनके बाबत कुछ
कहा नहीं जा
सकता। इतने
ज्यादा हो
जाते हैं।
एक
आदमी सुबह
बुद्ध से
पूछता है, ईश्वर है?
बुद्ध कहते
हैं, नहीं
है। दोपहर
दूसरा आदमी
पूछता है, ईश्वर
है? बुद्ध
कहते हैं, है।
तीसरा आदमी
शाम पूछता है,
ईश्वर है? बुद्ध कुछ
भी नहीं कहते,
चुप रह जाते
हैं।
रात
आनंद घबड़ा
जाता है। उनके
साथ था वह
दिनभर। वह रात
पूछता है कि
मेरी मुश्किल
कर दी। मैं सो
न सकूंगा।
पहले मुझे
समझा दो। सुबह
एक आदमी से
कहा ईश्वर
नहीं है; दोपहर एक
आदमी से कहा
है, सांझ
बिलकुल चुप रह
गए, कुछ भी
न कहा! बुद्ध
ने कहा, जो
उत्तर तुझे
दिए नहीं गए, वे तूने लिए
क्यों? वे
जिनको दिए गए
थे, उनके
और मेरे बीच
का मामला है।
आनंद
ने कहा, लेकिन मैं
बहरा तो नहीं
हूं! मुझे
सुनाई पड़ गए।
और अब मैं सोच
रहा हूं कि
सही बात क्या
है?
बुद्ध
ने कहा, सही बात तो
तीनों में ही
नहीं है। तू
सो जा।
उसने
कहा, अब
मैं बिलकुल न
सो सकूंगा। वह
सही बात क्या
है? रातभर
मेरे मन में
यही दोहरता
रहेगा कि वह
सही बात क्या
है? बुद्ध
ने कहा, सही
बात कुल इतनी
है कि जो आदमी
सुबह आया था
और पूछता था, ईश्वर है? वह आस्तिक
था; पर
वैसा ही
आस्तिक, जैसे
अक्सर आस्तिक
होते हैं।
उसका अपना कोई
अनुभव नहीं था,
सिर्फ
मान्यता थी।
और वह इसलिए
नहीं आया था
कि ईश्वर को
जानना चाहता
था। सिर्फ
इसलिए आया था
कि बुद्ध और
उसके मत और
विश्वास के
सहायक हो जाएं।
वह अपने
विश्वास को
मजबूत करने
आया था, जानने
नहीं। जानने
की उसकी कोई
तैयारी न थी।
वह तो सिर्फ
यह कहने आया
था कि किसी
दिन वह कह सके
कि मैं तो
मानता ही हूं, बुद्ध भी
मानते हैं! वह
मुझे भी अपनी
कतार में खड़ा
करने आया था!
तो
उससे मुझे
कहना पड़ा कि
नहीं, ईश्वर
नहीं है। उसके
अहंकार को
तोडना जरूरी था।
और उससे कहना
जरूरी था कि
ऐसे मानने से
कुछ भी न
होगा। है ही
नहीं, मानकर
क्या करेगा!
देखा तूने कि
वह कैसे कैप
गया, जैसे
झंझावात में
कोई वृक्ष की
जड़ें कंप जाएं।
देखा तूने, उसका चेहरा
कैसा लाल आग
से भर गया!
देखा तूने कि
उसके अहंकार
को कैसी भयंकर
चोट लगी! अब वह
किसी से अपने
अहंकार की
पुष्टि में
मेरा नाम नहीं
ले पाएगा। और
अब एक बेचैनी
की तरह मैं
उसका पीछा
करूंगा। अब
उसे पता तो है
नहीं कि ईश्वर
है या नहीं? बुद्ध ने
कहा कि नहीं
है। अब उसे
खोजना ही पड़ेगा।
इसके पहले अब
वह हिम्मत से
कभी न कह
सकेगा कि है।
दोपहर
जो आदमी आया
था, वह
नास्तिक था।
वह मेरे से
गवाही लेने
आया था कि मैं
भी कह दूं कि
नहीं है, ताकि
वह जाकर लोगों
से कहे कि मैं
ही नहीं कहता,
बुद्ध भी
कहते हैं कि
ईश्वर नहीं
है। उससे मुझे
कहना पड़ा कि
है। उसे भी
हिलाना जरूरी
था।
झूठी
श्रद्धाएं जब
तक हिले न, तब तक
सच्ची
श्रद्धाएं
पैदा नहीं
होतीं। थोथे
विश्वास जब तक
उखाड़ें न जाएं,
तब तक
आत्मगत भरोसों
का जन्म नहीं
होता।
और
सांझ जो आदमी
आया था, वह सीधा, सरल,
निर्दोष
आदमी था। उसकी
कोई मान्यता न
थी। न वह
मानता था कि
है, न वह
मानता था कि
नहीं है। वह
बच्चों की तरह
भोला था। उसे
कोई भी उत्तर
देना उचित न
था। चुप रह
जाना उचित था।
वह मेरी बात
समझ गया। वह
आनंदित वापस
लौट गया। वह
समझ गया कि
ईश्वर के संबंध
में चुप होने
से ही उसका
पता चलेगा।
मौन रह जाने
से ही। कुछ मत
कहो। है और
नहीं में उसे
नहीं कहा जा
सकता। वह मेरी
चुप्पी को समझ
गया, वह
मेरे पैर छूकर
गया है। आनंद,
तूने देखा!
वह पैर छूकर
गया है। पैर
छूते वक्त तूने
उसकी आंखें
देखी थीं? वे
जैसे शांत झील
की तरह हो गई
थीं। और वह
आदमी जल्दी ही
प्रभु को पा
लेगा।
अब ऐसे
आदमी से अगर
आप जाकर पूछें, तो उत्तर
तक निश्चित
नहीं है कि वह
क्या कहेगा!
स्पाटेनियस
होगा, रिपिटीटिव
नहीं होगा।
सहज होगा; पुनरुक्ति
नहीं होगी। वह
वही कहेगा, जो उस क्षण
में उसकी पूरी
अंतरात्मा से
निकलेगा। वह
वही करेगा उस
क्षण में, जो
उसके पूरे प्राणों
से जन्म लेगा।
वह किसी चीज
को दोहराएगा
नहीं। और अगर
हमें दोहराता
हुआ भी दिखाई
पड़े, तो वह
हमारी ही भूल
होगी।
हमको
रोज लगता है
कि सुबह सूरज
निकलता है, वही
सूरज। लेकिन
जो सूर्योदय
को देखते हैं,
वे जानते
हैं कि दुबारा
एक सूर्योदय
फिर नहीं होता;
न तो वैसे
बादल होते, न वैसे रंग
होते, न
वैसी सुबह
होती, न वे
गीत होते, न
वह आकाश होता।
हर रोज सुबह
नया सूरज उगता
है। नए सूरज
का मतलब, सब
नया होता है।
ऐसा
व्यक्ति
प्रतिपल नया
होता है।
तो एक
बात ध्यान
रखें, पुनरुक्ति
को तोड़े।
दूसरी बात
ध्यान रखें, जो कुछ भी
चाहें, गहरे
खोजें, तो
हर चाह में
परमात्मा की
चाह छिपी हुई
मिलेगी। अपनी
हर चाह में
अंततः
परमात्मा को
खोजने का उपाय
करें। तो धीरे—
धीरे चाहें
गिर जाएंगी और
परमात्मा की
मौलिक चाह ही
शेष रह जाएगी;
ऊपरी चाहें
गिर जाएंगी और
भीतरी चाह
प्रकट हो जाएगी।
और
तीसरी बात, अंतिम को
ही लक्ष्य
बनाएं, बीच
का कोई पड़ाव
मंजिल नहीं हो
सकता।
परमात्मा से
कम को लक्ष्य
मत बनाएं।
क्योंकि जो
लक्ष्य है, अंततः आपकी
चेतना का तीर उसी
लक्ष्य में
बिंध जाएगा, और उसी के
साथ एक हो
जाएगा। इसलिए
छोटे लक्ष्य
मत बनाएं।
हम
सबकी जिंदगी
बहुत छोटी—छोटी
रह जाती है, छोटे—छोटे
लक्ष्यों के
कारण। हम
क्षुद्र रह
जाते हैं, क्षुद्र
लक्ष्यों के
कारण।
अब एक
आदमी की
जिंदगी का
लक्ष्य अगर
रुपया ही इकट्ठा
करना है, तो इस आदमी
के पास जो
आत्मा होगी, वह आत्मा
बहुत बड़ी नहीं
हो सकती। कैसे
होगी? इसकी
आत्मा इसकी
अभीप्सा ही तो
है। यह धन
इकट्ठा करना
ही इसकी कुल
जमा दौड़ है।
तो इसकी आत्मा
ज्यादा से
ज्यादा एक
लोहे की
तिजोड़ी हो
सकती है। और
क्या हो सकती
है? इसकी
आत्मा का और क्या
होगा मूल्य? इसकी आत्मा
रुपए से भी
छोटी होगी।
तभी तो रुपए
के प्रति इतनी
आकर्षित और आंदोलित
है।
एक
आदमी बड़ी
कुर्सी पर
पहुंचना
चाहता है, तो पहुंच
जाएगा एक दिन।
लेकिन इसकी
आत्मा एक मुर्दा
कुर्सी से
ज्यादा बड़ी
नहीं हो सकती!
अंतिम
को लक्ष्य
बनाएं, क्योंकि अंतत:
वही आप हो
जाएंगे। उस पर
श्रद्धा रखें
जो आखिरी है, चाहे वह
असंभव ही
क्यों न मालूम
पड़े। क्योंकि संभव
को जो चुनता
है, वह
क्षुद्र हो
जाता है।
असंभव को
चुनें।
और
ईश्वर से
ज्यादा असंभव
कुछ भी नहीं
है। अदृश्य, अरूप, निराकार
असंभव मालूम
पड़ता है। उसे
चुनें। उसकी
तरफ उपासना को
बढ़ाते चलें।
एक दिन पाएंगे
कि वह तो मिल
गया, आप खो
गए। एक दिन
पाएंगे, आप
तो नहीं बचे, वही रह गया।
एक दिन पाएंगे,
आप वही हो
गए हैं।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट
रुके। कोई बीच
में उठे न।
कीर्तन पूरा
हो जाए, फिर जाएं।
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