दिनांक
2 जुलाई 1974
(प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
जीवन
का गंतव्य
क्या है, इस संबंध
में प्राचीन
हिंदू मनीषी
चार चीजें बताते
हैं:
धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष।
और
आप कहते हैं, मैं तुम्हें
एक साथ जीवन
में जड़ें देना
चाहता हूं
और
जीवन के महाआकाश
में उड़ने
के पंख भी।
कृपाकर
बताएं कि
दोनों बातों
में मेल क्या
है और फर्क
क्या है?
साथ
ही यह भी
बताने का कष्ट
करें कि
प्रज्ञा और
तर्क; अमृत
और प्रकाश;
आनंद
और प्रेम; तथा मोक्ष
और निर्वाण एक
ही लक्ष्य के
अलग-अलग नाम
हैं,
अथवा
उनमें भेद भी
है?
जो
भी जानते हैं, उनके लिए इस
संसार में और
उस संसार में
कोई भेद नहीं।
जो नहीं जानते
हैं, उनके
लिए भी उस
संसार में और
इस संसार में
कोई भेद नहीं;
लेकिन
दोनों के कारण
अलग हैं।
अज्ञानी को
दिखाई पड़ता है
यही संसार सब
कुछ है; इसलिए
दूसरे संसार
का कोई सवाल
नहीं। यह भोग,
ये इच्छाएं,
ये
तृष्णाएं, ये
आकांक्षाएं,
बस यही जीवन
है।
एपिक्युरस, बृहस्पति और
चार्वाक
परंपरा के लोग
कहते हैं, चाहे
घी उधार भी
क्यों न लेना
पड़े, लेकिन
दिल भरकर घी
पी लेना। चाहे
भोग के लिए झूठ
ही क्यों न
बोलना पड़े, लेकिन भोग
भोग लेना
क्योंकि गया
हुआ जीवन वापिस
नहीं लौटता।
उधार लेकर
भोगा या अपने
श्रम से भोगा,
कोई अंतर
नहीं है; क्योंकि
मरने के बाद न
लेनदार बचता
है, न
देनदार बचता
है; सभी
मिट जाते हैं।
न कोई नीति है,
न कोई
अनीति।
बृहस्पति और एपिक्युरस
जैसे विचारक
अज्ञानी इस
संसार को ही
सब कहते हैं; उसके समर्थन
में हैं। वे संसारवादी
हैं।
इससे
बड़ी झंझट पैदा
होती है, बड़ा
उलझाव खड़ा
होता है, क्योंकि
परम
ज्ञानियों ने
कहा है कि वह
संसार और यह
संसार एक ही
है। परम
ज्ञानियों को
भी कोई भेद
नहीं दिखाई
पड़ता क्योंकि
परम ज्ञानियों
को वह संसार
जैसे ही दिखाई
पड़ता है, यह
संसार खो जाता
है।
अज्ञान
में भी एक
बचता है--यह
संसार।
और
ज्ञान में भी
एक बचता है--वह
संसार।
लेकिन
तुम्हारे लिए
दो हैं
क्योंकि न तुम
अज्ञानी हो, और न तुम
ज्ञानी। और यह
बड़ी दुविधा की
दशा है। तुम
मध्य में हो।
त्रिशंकु की
तरह चित्त है
तुम्हारा।
तुम हो तो
अज्ञानी, लेकिन
समझते खुद को
ज्ञानी हो।
इसलिए दो संसार
हैं। और इन दो
संसारों से
तुम्हारी
सारी तकलीफ
पैदा होती है,
क्योंकि
कहां जाएं? यह संसार
खींचता है, इसके विपरीत
वह संसार
खींचता है। और
इसमें प्रवेश
करें तो मन
में अपराध
लगता है कि
दूसरे को भटक
रहे हैं, चूक
रहे हैं। उस
तरफ जाएं तो
यह संसार खोता
हुआ मालूम
पड़ता है।
तुम्हारी
अवस्था धोबी
के गधे की तरह
है, जो न घर
का न घाट का।
घाट भी खींचता
है, घर भी
खींचता है; दोनों
विपरीत मालूम
पड़ते हैं।
अगर
तुम सच में ही
अज्ञानी हो, जैसे कि
पशु-पक्षी हैं,
तो वह संसार
नहीं है।
पशु-पक्षियों
में कोई चिंता
नहीं। चिंता
मानवी ईजाद
है। वृक्षों
में कोई चिंता
नहीं है
क्योंकि
चिंता तो तब
पैदा होती है
जब विपरीत
लक्ष्य मन में
जगह बना ले। जब
तुम दो तरफ खिंचे
जाने लगो, तब
तनाव पैदा
होता है। जब
तुम एक ही तरफ
जा रहे हो, तब
कोई तनाव पैदा
नहीं होता।
तनाव का अर्थ
ही है कि
तुम्हारे दो
विपरीत
गंतव्य हैं।
इसलिए
जितना तनाव हो, उतना ही
समझना कि तुम
दो दिशाओं में
एक साथ यात्रा
कर रहे हो। दो
नावों पर सवार
हो, जो दो
अलग तरफ जा
रही हैं। एक
इस किनारे की
तरफ, एक उस
किनारे की
तरफ।
तुम्हारी
तकलीफ गहन है।
और तुम एक नाव
में सवार भी
नहीं हो पाते
क्योंकि तुम
पशुओं की भांति
अज्ञानी भी
नहीं और तुम
बुद्धों की
भांति ज्ञानी
भी नहीं।
अज्ञान
भी अद्वैतवादी
है और ज्ञान
भी अद्वैतवादी
है।
इसलिए
समस्त
पदार्थवादी
कहते हैं, बस पदार्थ
की ही सत्ता
है, परमात्मा
की नहीं।
संसार ही सत्य
है और सब असत्य।
शरीर ही सब
कुछ है, आत्मा
कुछ भी नहीं! अद्वैतवादी
हैं--एपिक्युरस,
दिदरो, माक्र्स,
एन्जल्स,
लेनिन, स्टैलिन,
माओ--सब अद्वैतवादी
हैं; एक को
ही मानते हैं।
और परम
ज्ञानी भी
कहता है कि
ब्रह्म ही है, माया का कोई अस्तित्व
नहीं। वही
सत्य है, यह
सब झूठ है।
तुम आत्मा हो,
शरीर आभास
है। तो महावीर,
बुद्ध, शंकर,
रमण--वे सब
भी अद्वैतवादी
हैं।
तुम
द्वैतवादी हो; यह तुम्हारा
तनाव है।
तुम्हारी
मुसीबत यह है कि
एक तरफ से पशु
तुम्हें खींच
रहा है और एक
तरफ से बुद्ध
तुम्हें खींच
रहे हैं।
तुम्हारी
आंखें बुद्ध
पर लगी हैं और
तुम्हारे पैर
पशुओं से जुड़े
हैं। तुम सीढ़ी
के मध्य में
लटके हो।
तुम्हारे पैर
नीचे की तरफ
जाना चाहते
हैं, तुम्हारी
आंखें ऊपर की
तरफ जाना
चाहती हैं। तुम्हारा
जीवन बड़ा कष्ट
का होगा।
यूनान
में ऐसा हुआ, एक बहुत बड़ा
ज्योतिषी एक
रात तारों का
अध्ययन करता
हुआ, आकाश
को देखता हुआ
चल रहा था कि
एक कुएं में
गिर पड़ा। आंख
आकाश पर लगी
थी, कुएं
का पता ही न
चला।
चिल्लाया, घबरा
गया। रास्ता
वीरान था।
सिर्फ दूर
किसी एक झोपड़े
में एक बूढ़ी
औरत थी; कोई
किसान की मां।
आवाज सुनकर
आई। उसने झांककर
नीचे देखा तो
उस ज्योतिषी
ने कहा, 'मां,
मुझे
निकाल। मैं एक
महान
ज्योतिषी
हूं। शायद तुमने
मेरा नाम सुना
हो। एथेन्स
में कौन है, जो मुझे न
जानता हो? दूर-दिगंत
तक मेरी
ख्याति है।' अपना नाम
उसने बताया और
उसने कहा कि
बड़े-बड़े सम्राट
अपनी
जन्मकुंडली
दिखाने मेरे
पास आते हैं।
हजारों रुपया
मेरी फीस है।
तू मुझे बाहर
निकाल दे, तेरी
जन्मकुंडली
मैं मुफ्त ही
देख लूंगा। तेरा
भविष्य मैं
ऐसे ही बता
दूंगा।
उस
बूढ़ी स्त्री
ने कहा, 'जिसको
सामने का कुआं
नहीं दिखाई
पड़ता, उसको
दूर के आकाश
के तारे क्या
समझ में आते
होंगे। तू
अपनी जन्मकुंडली
और अपने ज्ञान
को अपने पास
रख। और जिसे यह
भी नहीं दिखाई
पड़ता कि वह
कुएं में
गिरने जा रहा
है, वह दूर
का भविष्य
कैसे देख
पाएगा?--दूसरे
का, वह भी!
तुझे बाहर
निकाल देती
हूं, लेकिन
मुझे तेरे
ज्योतिष से
कुछ लेना-देना
नहीं!'
हम सभी
कुओं में गिर
पड़ते हैं क्योंकि
पैर कहीं जा
रहे हैं, आंखें
कहीं देख रही
हैं। हम
जगह-जगह
टकराते हैं।
हमारी पूरी
जिंदगी एक
संघर्ष के
अतिरिक्त और
कुछ भी मालूम
नहीं पड़ती।
चले नहीं कि
टकराये; उठे
नहीं कि गिरे;
कदम उठाया
नहीं कि भटके।
और
कहीं भी जाएं, कष्ट मालूम
पड़ता है। अगर
संसार में
जाएं तो पीछे
ग्लानि लगती
है कि चूक रहे
हैं। इतनी देर
में तो
परमात्मा मिल
जाता, मंदिर
में जाकर
प्रार्थना कर
ली होती, ध्यान
कर लिया होता।
इस संसार में
क्या रखा है? ज्ञानियों
के शब्द याद
आते हैं, जब
तुम संसार में
जाते हो।
जब तुम
संभोग में
उतरते हो, तब तुम्हें
समाधि पकड़ती
है; तब
तुम्हें खयाल
आता है कि
कहां जीवन को
खो रहा हूं!
शक्ति नष्ट कर
रहा हूं। परम
अवसर मिला है,
उससे राम
मिल जाता; उसको
काम में गंवा
रहा हूं। राम
तुम्हें याद आता
है काम के
क्षण में।
उसकी वजह से
काम भी सुखद
नहीं रह जाता।
पशुओं की कामवासना
बड़ी सुखद और
निर्दोष है।
आदमी की
कामवासना भी
एक चिंता का
भार है। वह भी
दूसरी दृष्टि में
धुआं ही धुआं
है।
और जब
तुम राम को भजने
जाते हो मंदिर
में, जब तुम
आंख बंद करके
पालथी लगाते
हो, जब तुम
बैठते हो
सिद्धासन
में--बस तुम
बैठ भी नहीं
पाये कि काम
पकड़ लेता है।
मन में
दोहराते हो
राम-राम-राम; वह ऊपर ही
ऊपर चलता है, भीतर गहरे
में काम ही
काम दुहरता
है। इधर राम
की याद करते
हो, कोई
सुंदर स्त्री
याद आती है, कोई सुंदर
पुरुष याद आता
है, सपने
खड़े होते हैं।
जब भी दुकान
पर बैठते हो, तब दान की
इच्छा आती है।
जब भी दान देने
जाते हो, तब
तुम्हें
दुकान का खयाल
आता है। तुम
कहीं भी पूरे
नहीं जा पाते,
क्योंकि
तुम आधे-आधे
बंटे हो।
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं जब भी हम
ध्यान करने
बैठते हैं तो दूसरी
बातें याद आती
हैं। किस तरह
इनको रोकें? तो मैं उनसे
कहता हूं, जब
तुम दूसरी
बातें करते हो
तब ध्यान याद
आता है कि
नहीं? वे
कहते हैं, याद
आता है। मैं
उनसे पूछता
हूं उसको
रोकना है कि
नहीं? वे
कहते हैं, आप
भी कैसी बातें
कर रहे हैं! वह
तो अच्छा लक्षण
है।
जब तुम
खाना खा रहे
हो तब ध्यान
याद आये, यह
अच्छा लक्षण
है? और जब
तुम ध्यान कर
रहे हो तब
खाना याद आये,
यह बुरा
लक्षण है? यह
कैसा गणित हुआ?
और इस गणित
को माननेवाला
कभी भी उस
अवस्था में
नहीं
पहुंचेगा, जब
ध्यान करे और
भोजन की याद न
आये। जब तुम
भोजन कर रहे
हो, तब
ध्यान की भी
याद नहीं आनी
चाहिए; तभी
यह घटना
घटेगी--जब तुम
ध्यान करोगे,
तब भोजन
तुम्हें नहीं
सतायेगा। जब
तुम संभोग में
हो तब समाधि
का आकर्षण
शून्य हो जाना
चाहिए; तभी
वह घड़ी आयेगी
जब समाधि में
तुम प्रवेश
करोगे, संभोग
तुम्हें नहीं
खींचेगा।
अन्यथा तुम सदा
ही बंटे-बंटे
रहोगे।
द्वैतवादी
कभी भी अखंड
नहीं हो सकता।
इसलिए अखंड
जिन्होंने
होना चाहा उन्होंने
अद्वैत की बात
कही। क्योंकि
जब तक दो हैं, तब तक तुम
दोनों को पाना
चाहोगे। जब एक
बचेगा, तभी
तुम्हारी
आकांक्षा दो
की समाप्त
होगी और यात्रा
सुगम होगी। तब
तुम्हारे
जीवन से चिंता
और भार विदा
हो जाएगा।
मैं जो
कहता हूं कि
तुम्हें इस
पृथ्वी में
मैं जड़ें देना
चाहता हूं और
उस आकाश में
तुम्हें पंख
देना चाहता
हूं, उसका
कारण है। उसका
कारण यह नहीं
है कि पृथ्वी
और आकाश
अलग-अलग हैं।
बताओ कहां
पृथ्वी समाप्त
होती है, और
कहां आकाश
शुरू होता है?
खोदो गङ्ढा
पृथ्वी में; तुम जहां तक खोदोगे, वहीं तक
पाओगे आकाश
है। उतरो गहरे
कुएं में, हटाओ
मिट्टी को; जितना तुम
हटाओगे, पाओगे,
वहीं आकाश
है। कहां शुरू
होता है आकाश?
पृथ्वी
भी सांस लेती
है। पृथ्वी भी
पोरस है; उसके
अंग-अंग में
आकाश समाया
है।
वैज्ञानिक से
पूछो, वह
कहता है कि
अगर हम पृथ्वी
से सारे आकाश
को बाहर निकाल
दें तो पृथ्वी
एक नारंगी की
तरफ छोटी रह
जाएगी--सिर्फ
एक नारंगी की
तरह। इतना
आकाश है, इतनी-सी
पृथ्वी हैं।
मैटर तो
इतना-सा है, बाकी तो
खाली शून्य
है।
और अगर
तुम्हारे
भीतर से आकाश
बाहर निकाल
दिया जाए, तुम्हें पता
है तुम्हारी
क्या गति होगी?
जब पृथ्वी
नारंगी के
बराबर रह जाए,
आकाश अलग कर
लेने पर--और यह
भी ठीक नहीं
है क्योंकि आकाश
अलग किया नहीं
जा सकता, फिर
भी बचेगा; हमारे
साधन चुक
जाएंगे। अगर
और साधन हों
तो पृथ्वी और
छोटी हो जाएगी;
और साधन
हों...अगर
हमारे पास
पूरे साधन हों
तो पृथ्वी खो
जाएगी, आकाश
ही रह जाएगा।
जब तुम
मां के पेट में
एक छोटे-से
अणु थे तो
तुम्हें पता
है, क्या बात
थी? उसमें
और अब में
तुममें क्या
फर्क पड़ा था? थोड़ा ज्यादा
आकाश तुममें
प्रवेश कर गया
है। तब तुम कन्डेन्स्ड
थे।
वैज्ञानिक
कहते हैं, इस सदी के
पूरे
होते-होते हम
चीजों को आकाश
से खाली करने
की कला में
कुशल हो जाएंगे।
तो वे कहते
हैं, इक्कीसवीं सदी में ऐसी
घटना घट सकती
है कि एक आदमी
एक ट्रेन से
उतरे और
चिल्लाये कि
दस-बारह
कुलियों की
जरूरत है। और
उसके पास-पड़ोस
के यात्री
उससे कहें कि
सामान तो
तुम्हारा
दिखाई नहीं
पड़ता। सिर्फ
एक सिगरेट की
डिब्बी रखे
हुए है, उस
पर एक माचिस
रखी है। किसके
लिए दस-बारह
कुली बुला रहे
हो?
वह
कहता है, थोड़ा
रुको। वे
दस-बारह कुली
आते हैं और
सिगरेट के
डिब्बे को
नहीं उठा पाते
क्योंकि
उसमें एक कार 'कन्डेन्स्ड'
है। उसका, आकाश कार का
बाहर निकाल
लिया गया है।
तो वह माचिस
की डब्बी में,
सिगरेट की
डब्बी में समा
जाती है। इतनी
बड़ी कार को
अमेरिका से
भारत लाना
फिजूल है, बहुत
जगह घेरती है,
वहां कार को
कन्डेन्स्ड
कर लेंगे।
जैसे कन्डेन्स्ड
मिल्क है, ऐसी
कार कन्डेन्स्ड
है। फिर उसको
यहां लाकर
फैक्टरी में फुला
लेंगे। आकाश
उसमें वापिस
डाल देंगे तब
वह फिर बड़ी हो
जाएगी। तो
बड़े-बड़े हवाई
जहाज, रेल
के इंजन माचिस
के डिब्बी में
आ सकेंगे।
जब
पूरी पृथ्वी
का आकाश खिंचकर
नारंगी के
बराबर हो जाता
है, तुम्हारे
भीतर का आकाश
खिंच जाएगा, तुम क्या
बचोगे? खाली
आंख से देखे न
जा सकोगे। मां
के पेट में तुम्हारा
जो अणु था, उसको
देखने के लिए
यंत्र चाहिए,
खुर्दबीन
चाहिए। खाली
आंख से तुम
देखे नहीं जा
सकते थे।
कहां
पृथ्वी शुरू
होती है, कहां
आकाश समाप्त
होता है? रोज
नई पृथ्वियां
बन रही हैं, कोरे आकाश
से निकलती
हैं। और रोज पृथ्वियां
खो जाती हैं, कोरे आकाश
में लीन हो
जाती हैं।
हिंदू
इसको कहते हैं
कि जब प्रलय
होता है तो सब
आकाश हो जाता
है। प्रलय का
अर्थ है:
सिर्फ आकाश रह
जाता है, शून्य
रह जाता है; सब पदार्थ
खो जाते हैं।
और जब पुनः
सृष्टि होती
है तो फिर
पदार्थ प्रगट
होता है।
शून्य से आता
है संसार, शून्य
में ही जाता
है।
विज्ञान
की जितनी खोज
आगे बढ़ती है
उतना ही पता
चलता है कि
हिंदुओं की
धारणाएं सच
मालूम होती
हैं, बाकी और
धारणाएं
बचकानी मालूम
पड़ती हैं क्योंकि
हिंदू कहते
हैं जगत शून्य
से आया; ना-कुछ
से आया और फिर
ना-कुछ में
चला जाएगा। इसका
मतलब यह हुआ
कि ना-कुछ, सब
कुछ का ही
छिपा हुआ रूप
है। इसलिए जब
मैं कहता हूं
शून्य, तो
तुम यह मत समझ
लेना कि
ना-कुछ।
शून्य
का अर्थ: छिपा
हुआ पूर्ण; अप्रगट पूर्ण।
पूर्ण
का अर्थ:
प्रगट हो गया
शून्य।
जब मैं
तुमसे नहीं
बोल रहा था, आकर बैठा था
इस कुर्सी पर
क्षण भर को, तब शून्य
था। फिर मैं
बोला। कहां से
आया यह शब्द? शून्य से
बनी यह ध्वनि,
शब्द; फैला,
तुम तक
पहुंचा। शब्द
पदार्थ है
इसलिए शब्द को
रिकार्ड किया
जा सकता है।
उसकी चोट है।
इसलिए शब्द
सुना जा सकता
है क्योंकि
तुम्हारे कान
पर धक्का
मारता है।
शून्य सुना
नहीं जा सकता
क्योंकि
शून्य
अपदार्थ है।
जन्म के पहले
तुम क्या थे? मरने के बाद
तुम कहां
होओगे? जन्म
के पहले तुम अप्रगट
थे। छिपा है
छोटे-से बीज
में पूरा
वृक्ष।
एक
वैज्ञानिक
वनस्पतिशास्त्री
प्रयोग कर रहा
था। सभी का
यही खयाल है
कि जब वृक्ष
बड़ा होता है
तो वृक्ष में
जो पदार्थ आ
रहा है, वह
पदार्थ
मिट्टी, खाद,
पानी, रोशनी
इनसे आ रहा
है। बड़ी अनूठी
खोज है वनस्पतिशास्त्रियों
की। वे कहते
हैं, यह
बात सब गलत
सिद्ध हुई। एक
वनस्पतिशास्त्री
ने वर्षों तक
प्रयोग किया
एक पौधे पर।
जब उसने पौधे
के बीज को
गमले में डाला
तो गमले का वजन
लिया।
रत्ती-रत्ती
वजन का हिसाब
रखा। कोई भी
खाद डाला तो
वजन लिया।
वृक्ष बड़ा हो
गया तब वजन
लिया तो बड़ा
हैरान हुआ; क्योंकि
जितना वजन
उसने डाला था,
उससे यह वजन
तो कई गुना
ज्यादा था।
तो
उसने वृक्ष के
पौधे को
बिलकुल अलग कर
लिया, निकाल
लिया। रत्ती
भर मिट्टी
उसके साथ न
जाने दी। और
जब उसने तौला
तो वह चकित
हुआ। वह वजन
उतना ही था, जितना होना
चाहिए। जितनी
मिट्टी, खाद
डाली थी, जितना
वजन था शुरू
में बीज डालने
के पहले, यह
वजन गमले का
उतना का उतना
था। मिट्टी
इसमें से
रत्ती भर बाहर
नहीं गयी। खाद
गया नहीं कहीं;
और यह वृक्ष
इतना बड़ा है, जो कि गमले
से तीन-चार
गुना ज्यादा
वजनी है। यह
कहां से वृक्ष
आया? इस
वृक्ष में जो
पदार्थ पैदा
हुआ, वह
आकाश से आया।
सिर्फ
हिंदुओं ने
स्वीकार किया
है पंचत्तत्वों
में आकाश को; कि तुम्हारे
शरीर में चार
तत्व तो हैं
ही--जल है, पृथ्वी
है, पानी
है, अग्नि
है; एक
चौथा, चार
के पार एक
पांचवां भी
पदार्थ है:
आकाश।
चार्वाक
चार को मानते
हैं। वे कहते
हैं, पंच
पदार्थ से
आदमी नहीं बना
क्योंकि आकाश
न तो दिखाई
पड़ता है, न
तौला जा सकता
है, न नापा
जा सकता है; आकाश तो
बातचीत है। यह
आकाश तो ईश्वर
जैसा कोरा
सिद्धांत है।
आदमी चार से
बना है--अग्नि,
जल, मिट्टी,
वायु; इनसे
बना है। आकाश
नहीं है। आकाश
दिखाई नहीं
पड़ता।
लेकिन
वनस्पतिशास्त्री
कहते हैं, ये पूरे
इतने-इतने बड़े
वृक्ष आकाश से
आ रहे हैं।
तुम भी जो बड़े
हो रहे हो, मां
के पेट में जो
अणु विकसित हो
रहा है, फिर
तुम्हारा
जन्म हो रहा
है, फिर
तुम बढ़ रहे
हो। कुछ भी
तुम्हारा वजन
न था, बीज
की तरह थे तुम मां
के पेट में; और अब तुम सौ
किलो के हो
सकते हो।
तुममें जो वजन
आया है, यह
तुम्हारे
भोजन से आया
है? बड़ी
कठिन बात है; यह आकाश से
आया है।
अब तक
इस संबंध में
वैसी खोज नहीं
हो सकी, जैसी
पौधे के संबंध
में हुई है; लेकिन
अमरीका का एक
वैज्ञानिक
कहता है कि यह
भी आकाश से
आया है
क्योंकि आदमी
भी पौधे से
भिन्न नहीं हो
सकता; यह
भी शून्य से
आया है। उस
वैज्ञानिक का
कहना है, इसलिए
हम कभी न कभी
वह तरकीब खोज
लेंगे कि आदमी
बिना भोजन के
जी सके। वह
कहता है, भोजन
की जीने के
लिए जरूरत
नहीं है, भोजन
सिर्फ एक
पुरानी आदत
है। इसलिए कुछ
लोग बिना भोजन
के ही जीये
हैं। महावीर
की कथा में
अर्थ मालूम
पड़ता है कि
बारह साल में
उन्होंने
केवल तीन सौ
पैंसठ दिन
भोजन लिया, ग्यारह साल
भूखे रहे।
यूरोप
में बवेरिया
में थेरेसा
न्यूमन
नाम की एक
स्त्री इसी
सदी में चालीस
साल तक बिना
भोजन के रही।
दुबली-पतली औरत
नहीं थी, वह
वैसी ही रही
वजनी, जैसी
वजनी थी। काफी
हृष्ट-पुष्ट
स्त्री थी। और
भी एक चमत्कार
उसके साथ घट
रहा था, जिसको
कि ईसाई स्टेगमेटा
कहते हैं। स्टेगमेटा
एक ईसाई घटना
है; कीमती
है। भक्त जब
जीसस के साथ
इतना एक हो
जाता है, कि
उसके सब फासले
टूट जाते हैं
तो शुक्रवार
के दिन जब
जीसस को सूली
लगी तब उस भक्त
के हाथों में,
जहां जीसस
को खीले चुभे गए थे,
हृदय में
जहां खीला
चोभा गया था, पैरों
में...सब तरफ
छेद हो जाते
हैं शुक्रवार
के दिन; जैसे
कि निश्चित खीले चुभाकर
छेद किए गए
हों! और उनसे
सतत खून की
धार बहने लगती
है।
यह थेरेसा
न्यूमन
को चालीस साल
तक निरंतर
हुआ। न तो वह
भोजन करती।
चालीस साल तक
निरंतर
शुक्रवार को
उसके हाथों-पैरों
और हृदय से
खून की धारा
बहने लगती, घाव पैदा हो
जाते। चौबीस
घंटे के भीतर
घाव भर जाते।
खून बंद हो
जाता। और उसके
वजन में कभी फर्क
न पड़ा।
पश्चिम
के चिकित्सा-शास्त्रियों
के लिए न्यूमन
एक चमत्कार हो
गई। बड़े
अध्ययन किए गए
उसके। उसकी
सारी पेट की
अस्थियां सिकुड़कर
कांटे जैसी हो
गई थीं
क्योंकि उनसे
कोई भी भोजन
नहीं गुजर रहा
था। उसका पेट
बिलकुल सिकुड़
गया था। उसका
उपयोग ही
चालीस साल से
नहीं हुआ था।
लेकिन शरीर उसका
कायम रहा।
शरीर का वजन
कायम रहा। और
हर शुक्रवार
को यह जो खून
का रक्तपात हो
रहा है, इससे
भी उसके शरीर
के वजन में
कोई फर्क न
पड़ा। उसके
हजारों कपड़े
इकट्ठे किए गए,
जिन पर खून
के धब्बे हैं;
क्योंकि हर
शुक्रवार
को...।
क्या
घटना घट रही
थी?
हिंदू
कहते हैं, तुम्हारा
मौलिक आधार
आकाश है।
वैज्ञानिक जो
खोज करते हैं,
वे कहते हैं,
फिर इस भोजन
की क्या जरूरत
है? अगर
आदमी बिना
भोजन के जी
सकता है, अगर
एक जी सकता है
तो सब जी सकते
हैं। अपवाद यहां
कोई भी नहीं।
वह जो एक है, उससे नियम
सिद्ध होता
है। एक अनूठी
बात उनके खयाल
में आयी है और
वह यह कि भोजन
से केवल
तुम्हारे भीतर...।
जैसे
कि पानी से
बिजली पैदा की
जाती है, तो
पानी से बिजली
पैदा करने के
लिए डाइनेमो
लगाने पड़ते
हैं। पानी उन
पर गिरता है। डाइनेमो
का चक्कर
घूमता है, उससे
बिजली पैदा
होती है।
बिजली घूमते
हुए चक्र से
पैदा नहीं होती,
बिजली तो
पानी से पैदा
होती है, लेकिन
अगर चक्र न
घूमे तो नहीं
पैदा होती।
बिजली तो पानी
में छिपी है
लेकिन उस चके
की जरूरत है
ताकि पानी
गतिमान हो
जाए।
कुछ
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
भोजन केवल तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
जीवनत्तत्व
को गतिमान
करता है। उससे
कुछ तुम्हें
मिलता नहीं।
जैसे पानी
गिरता है चके
पर, न तो चके
से बिजली
निकलती है, न चका
पानी को कुछ
देता; लेकिन
चका
सिर्फ पानी की
चोट से घूमता
है। उस घूमने
के कारण पानी
में छिपी
बिजली प्रगट
होती है। तुम्हारे
भीतर रोज
गिरता हुआ
भोजन
तुम्हारे
आकाश को कंपाता
है, आकाश
को गतिमान
करता है। भोजन
तो मल बनकर
निकल जाता है,
लेकिन
तुम्हारा
आकाश गतिमान
हो जाता है; उससे जीवन
पैदा होता है।
इस
सिद्धांत के
सत्य होने की
करीब-करीब
संभावना है
क्योंकि यही
संतों का
अनुभव भी है।
किसी दिन यह
आसान होगा कि
पृथ्वी पर
आदमी बिना भोजन
के रह सके। और
अब अगर बिना
भोजन का न रहा
तो रह भी न
सकेगा क्योंकि
आदमी ज्यादा
होते जाते हैं, और भोजन कम
पड़ता जाता है।
आकाश
तुम्हारा
भोजन है। आकाश
शून्य है
लेकिन तुम्हारे
भीतर जाकर
अभिव्यक्त
होता है, पदार्थ
बनता है, प्रगट
होता है।
सृष्टि और
प्रलय अंत में
ही नहीं घटते,
तुम्हारे
जन्म के साथ
सृष्टि शुरू
होती है, तुम्हारी
मृत्यु के साथ
तुम्हारा
प्रलय हो जाता
है। कम से कम
तुम शून्य और
पूर्ण के बीच
बहुत बार घूम
चुके हो।
कहां
शुरू होती है
पृथ्वी? कहां
शुरू होता है
पदार्थ? कहां
अंत होता है
आकाश का? नहीं,
वे दोनों
मिले-जुले
हैं। यह ऐसे
ही है, जैसे
एक पत्थर की
चट्टान पानी
में तैर रही
हो; अलग
दिखती है
क्योंकि पानी
अलग, चट्टान
अलग। पानी से
ऊपर उठी दिखती
है; लेकिन
कहां पत्थर की
बरफ की चट्टान
अलग होती है
पानी से? कहीं
भी अलग नहीं
होती।
प्रतिपल बरफ
पिघल रहा है
और नदी बन रहा
है। और यह भी
हो सकता है, प्रतिपल नदी
जम रही है और
बरफ बन रही
है। वे दोनों
एक ही
अस्तित्व के
दो छोर हैं।
एक ठोस हो गया,
एक तरल।
बस, ऐसी ही
पृथ्वी और
आकाश है।
पृथ्वी ठोस हो
गई, आकाश
तरल है।
पृथ्वी
व्यक्त हो गई,
आकाश
अनभिव्यक्त! पृथ्वियां
पिघल रही हैं
क्योंकि
पुरानी हो
जाती हैं, जरा
जीर्ण हो जाती
हैं। उनको
शून्य में
वापिस जाना
पड़ता है। जैसे
तुम्हें
मृत्यु में
वापिस जाना
पड़ता है फिर
ताजा होने को,
फिर बच्चे
की तरह पैदा
होने को, ऐसे
पृथ्वियों
को आकाश में
जाना पड़ता है।
फिर नई पृथ्वियां
पैदा हो रही
हैं।
तो जब
मैं तुमसे
कहता हूं, इस पृथ्वी
में तुम्हें
जड़ें और उस
आकाश में तुम्हें
पंख देना
चाहता हूं, तो तुम यह मत
सोचना कि मैं
पृथ्वी और
आकाश को अलग-अलग
कर रहा हूं।
सिर्फ
तुम्हारे
कारण द्वैत की
भाषा का उपयोग
कर रहा हूं
क्योंकि तुम
वही भाषा समझ
सकते हो।
अद्वैत की
भाषा बेबूझ हो
जाती है, पागलपन
मालूम पड़ने
लगती है, उलटबांसी हो जाती है; फिर समझ में
नहीं आती।
और
तुम्हें
समझाने के लिए
प्रयास कर रहा
हूं। कुछ ऐसी
बात कहूं, जो तुम्हारी
समझ में ही न
आए तो
तुम्हारे मन के
द्वार बंद ही
हो जाते हैं।
इसलिए
तुम्हारी भाषा
बोल रहा हूं।
और तुम्हारी
भाषा में उसको
डालने की
कोशिश कर रहा
हूं, जो
तुम्हारी
भाषा में
ढालना
करीब-करीब
असंभव है। सभी
संत असंभव
चेष्टा कर रहे
हैं। वे कहना
चाहते हैं, जो नहीं कहा
जा सकता। उससे
कहना चाहते
हैं, जो
सुनने की
स्थिति में
नहीं हैं। तुम
द्वैत में
जीते हो, तुम
दो को समझते
हो। तुमने एक
में कोई जीवन
जाना नहीं है।
लेकिन वही
असली जीवन है।
तो जब
मैं कहता हूं 'इस'
पृथ्वी और 'उस' आकाश
में, तो
मैं दो की बात
नहीं कर रहा
हूं, तुम्हारी
वजह से दो
शब्दों का
उपयोग कर रहा
हूं। मेरे लिए
तो वह आकाश
यही पृथ्वी है,
और यही
पृथ्वी वह
आकाश है।
लेकिन
स्मरण रखना, अज्ञान में
भी अद्वैत
होता है और
ज्ञान में भी।
मैं पशुओंवाला
अद्वैत
तुम्हारे लिए
नहीं चाहता।
उन्हें एक दिखाई
पड़ता है
क्योंकि वे
अंधे हैं।
अंधेरे में सब
चीजें एक हो
जाती हैं
क्योंकि
दिखाई नहीं
पड़ता। देखने
के लिए आंखें
चाहिए और एक
देखने के लिए
बड़ी गहरी
आंखें चाहिए,
जो कि सभी
भेदों और
सीमाओं के पार
देख सके।
तो
एकता दो तरह
की है; एक तो
अंधेरे की
एकता है। घर
में बिजली बुझ
गई, एकता
सिद्ध हो गई।
अंधेरा एक है।
अब न टेबल कुर्सी
से अलग है, न
आदमी औरत से
अलग है। अब
कुछ अलग नहीं,
सब इकट्ठा
हो गया।
अंधेरे में सब
एक हो जाता है
क्योंकि
दिखाई नहीं
पड़ता। आंख भेद
पैदा करती है,
क्योंकि
दिखाई पड़ता है,
तो सीमाएं
दिखाई पड़ती
हैं।
तो एक
तो अंधे की
एकता है; वह प्रकृतिवादी
नास्तिक की
एकता है। वह
अज्ञानी की
एकता है। और
एक उस ज्ञानी
की एकता है, जो इतना
गहरा देखता है,
जिसकी
आंखें एक्सरे
की तरह देखती
हैं कि तुम उसके
लिए ट्रान्सपेरेंट
हो जाते हो, पारदर्शी हो
जाते हो। वह
तुम्हें ही
नहीं देखता, तुम्हारे
आर-पार देखता
है। और तब
सीमाएं फिर खो
जाती हैं और
असीम प्रगट हो
जाता है।
मैं उस
अद्वैत की बात
कर रहा हूं, जो गहरी आंख
से उपलब्ध
होता है। उस
अद्वैत की नहीं,
जो अंधी आंख
का अद्वैत है।
इसलिए बहुत-से
लोग मेरे
शब्दों को
सुनकर बहुत
बार भ्रांति
में पड़ जाते
हैं। कोई
सोचता है, शायद
मैं नास्तिक
हूं। कोई
सोचता है, शायद
मैं परमात्मा
को नहीं
मानता।
आस्तिक आता है
तो वह मेरे
पास दिक्कत
में पड़ता है
क्योंकि उसको
लगता है, इस
संसार का
विरोध मुझे
करना चाहिए, तभी तो उस
संसार का पक्ष
होगा। वह दो
की भाषा में
सोचता है। वह
सोचता है कि
मैं नास्तिक
हूं। नास्तिक
मेरे पास आता
है तो वह कहता
है, उस
संसार की बात
ही क्यों करनी?
यह संसार
काफी है।
दोनों मेरे
पास से
असंतुष्ट
लौटते हैं।
दोनों मेरे
पास से नाराज
लौटते हैं। नास्तिक
सोचता है कि
मैं छिपा हुआ
आस्तिक हूं; आस्तिक
सोचता है, मैं
छिपा हुआ
नास्तिक हूं।
मैं दोनों
नहीं हूं।
क्योंकि हां
कहो तो तुमने
अस्तित्व को
तोड़ दिया। ना
कहो तो तुमने अस्तित्व
को तोड़ दिया।
जहां हां और
ना समानार्थी
हो जाते हैं, वहां धर्म
का जन्म है।
जहां हां और
ना एक हो जाते
हैं, वहां
धर्म का जन्म
है।
मेरी
अड़चन तुम्हें
समझ में आ
सकती है। इस
संसार के मैं
विरोध में
नहीं हूं
क्योंकि मैं
जानता हूं, इसी में वह
दूसरा संसार
छिपा है। मैं
तुम्हारे
शरीर के विरोध
में नहीं हूं
क्योंकि मैं
जानता हूं, इसी में वह
अशरीरी वास कर
रहा है। मैं
तुम्हारे भोग
के विरोध में
नहीं हूं
क्योंकि तुम
इसी में अगर
गहरे गए, होशपूर्वक
गए तो तुम्हें
पतंजलि का
सारा योग वहां
लिखा हुआ मिल
जाएगा। मैं
संभोग के विपरीत
नहीं बोलता
क्योंकि मैं
जानता हूं, उसी में अगर
तुम अपने को
पूर्ण रूप से
छोड़ सके और
होश तुमने
कायम रखा, बेहोश
न हुए तो
तुम्हें
समाधि का पहला
स्वाद उपलब्ध
हो जाएगा।
समाधि
की पहली सीढ़ी
वहीं रखी
जाएगी, जहां
तुम हो। तुम
जहां नहीं हो,
वहां समाधि
की सीढ़ी रखी
रहे, उससे
तुम कैसे
यात्रा करोगे?
कैसे चढ़ोगे?
उसका क्या
अर्थ है? तुम
जहां हो, वहीं
हमें
परमात्मा की
पहली सीढ़ी
रखनी पड़ेगी, ताकि तुम
वहां से
यात्रा करो।
तुम्हारे
संसार में ही
कहीं मंदिर को
बनाना पड़ेगा,
तुम्हारे
घर में ही
सीढ़ी टिकानी
पड़ेगी। निश्चित
दूसरा छोर आकाश
में चला
जाएगा। लेकिन
पहला छोर
तुम्हारे पास
होना चाहिए।
अगर पहला छोर
भी तुमसे दूर है
तो यात्रा
कैसे शुरू
होगी?
इस
पृथ्वी से
मेरा अर्थ है:
तुम जहां हो।
उस आकाश से
मेरा अर्थ है:
तुम्हें जहां
होना चाहिए।
इस पृथ्वी से
मेरा अर्थ है:
तुम जो आज
दिखाई पड़ते
हो। उस आकाश
से मेरा अर्थ
है: वह, जो
तुम अपनी परम
गरिमा में जब
पहुंचोगे तो
प्रगट होगा।
इस पृथ्वी से
अर्थ है:
तुम्हारे बीज जैसे
व्यक्तित्व
का; उस
आकाश से अर्थ
है: तुम्हारे
वृक्ष जैसे
प्रगट हो गए
परमात्मा का।
नीत्शे
ने कहा है कि
आदमी एक सीढ़ी
है जो दो अनंतताओं
के बीच टिकी
है। तो ठीक
कहा है कि
आदमी एक पुल
है, जो दो अनंतताओं
के बीच में
फैला हुआ है।
उस पुल को
बनाने की चेष्टा
है। तुम एक
किनारे खड़े हो,
इस किनारे
खड़े हो। और
तुम्हारे
धर्मगुरु कहते
हैं, धर्म
उस किनारे है।
तुम क्या करो?
उस किनारे
तुम हो नहीं, इसलिए धर्म
को तुम जीयोगे
कैसे?
इसलिए
लोग धर्म को
टालते हैं, जब तक मौत न आ
जाए। वे कहते
हैं, बुढ़ापे
में देखेंगे।
जब वह किनारा
पास आने लगेगा,
तब सोचेंगे;
अभी तो बहुत
दूर है। धर्म
को लोग सोचते
हैं बिना मरे
उपलब्ध ही न
होगा। और जो
जीवन में उपलब्ध
न हो सके, वह
तुम्हें मरकर कैसे
उपलब्ध होगा?
जो तुम्हें
आज न मिल सके
वह तुम्हें कल
कैसे मिलेगा?
क्योंकि कल
के बीज आज बोए
जा रहे हैं।
और कल जो फसल
तुम काटोगे, उसकी तैयारी
आज करनी है।
और आज अगर तुम
बैठे रहे तो
कल कोई फसल कटनेवाली
नहीं। तुम इसी
किनारे पर
रहोगे।
तो एक
तो तथाकथित धर्मगुरु
हैं, वे कहते
हैं, धर्म
है उस किनारे
पर। वे दिखाई
तो पड़ते हैं कि
धार्मिक हैं,
लेकिन वे
अधर्म के
जन्मदाता हो
जाते हैं। क्योंकि
तुम उस किनारे
पर नहीं हो।
किनारा इतना दूर
है कि दिखाई
भी नहीं पड़ता।
तब तुम क्या
करो?
और
दूसरे
तथाकथित
नास्तिक हैं, पदार्थवादी
हैं, भौतिकवादी
हैं, वे
कहते हैं, यही
किनारा है। जो
दिखाई पड़ता है,
वही सच है।
और जब पुरोहित
कहता है कि वह
किनारा धर्म
है, वहां
परमात्मा है;
और नास्तिक
कहते हैं कि
यह किनारा तो
दिखाई पड़ता है,
यहां तुम हो,
इसे भोग लो;
जो हाथ में
है उसे छोड़ो
मत--उसके लिए जो
आशा और सपने
में है। पता
नहीं मिले या
न मिले! फिर उस
किनारे से कोई
कभी लौटकर खबर
भी नहीं देता
कि वह किनारा
है। कहीं ऐसी
भ्रांति न
करना कि यह
किनारा भी छोड़
दो और वह
किनारा भी न
हो। तो तुम
दोनों तरफ से
गए!
तो
तुम्हारे
पुरोहित और
तुम्हारे
नास्तिक दोनों
सांठ-गांठ में
मालूम पड़ते
हैं। दोनों की
कान्स्प्रेसी
है। तुम्हारा
पुरोहित
तुम्हें
बताता है कि वह
किनारा बहुत
दूर है, अदृश्य
है; वहां
पहुंचना आसान
नहीं। कभी कोई
विरला पहुंच
पाता है। और
जीते जी तो
वहां पहुंचता
कोई नहीं।
मोहम्मद
के जीवन में
उल्लेख है कि
वे जीते जी घोड़े
पर सवार
स्वर्ग में
प्रवेश कर गए।
यह कोई
ऐतिहासिक
घटना नहीं है।
तुम अपने घोड़ों
को कहां ले
जाओगे उस
स्वर्ग में? और घोड़े पर
बैठे हुए कैसे
पहुंच जाओगे?
लेकिन यह
प्रतीक बड़ा
मीठा है और
अर्थपूर्ण है।
यह यह बता रहा
है कि वह
दूसरा किनारा
इससे जुड़ा है।
इस किनारे के
घोड़े उस
किनारे पर
पहुंच जाते
हैं। इस किनारे
से छूटनेवाली
नाव उस किनारे
तक जाती है।
और मोहम्मद
सशरीर प्रवेश
कर जाते हैं, इसका मतलब
है कि यही
पृथ्वी
स्वर्ग में
प्रवेश करती
है; कटे
हुए नहीं हैं,
जुड़े हैं।
यह पृथ्वी और
वह आकाश एक
हैं। यह बात
है, मोहम्मद
के स्वर्ग में
घोड़े पर बैठे
प्रवेश कर
जाने की।
वही
मैं तुमसे कह
रहा हूं।
तुम्हारी इस
पृथ्वी को और
उस आकाश को
जोड़ देना है।
तुम्हारी जड़ें
इस पृथ्वी में
होनी चाहिए, जहां तुम
हो। विरोध
दीखता है
लेकिन विरोध
नहीं है।
तुम्हारी
जड़ें जितनी
गहरी इस
पृथ्वी में
जाएंगी, उतनी
ही तुम्हारी
शाखाएं उस
आकाश में ऊपर
उठने लगेंगी।
तुम
जितने भीतर
गहरे उतरोगे
उतने ही बाहर
फैलते जाओगे।
अगर तुम पाताल
छू लोगे अपनी
जड़ों से, तो
तुम अपने
फूलों से आकाश
छू लोगे; और
दोनों जुड़े
हैं। वृक्ष से
पूछो कि तेरा
फूल और तेरी
जड़ें दो हैं? तो वृक्ष
कहेगा कि मेरा
फूल मेरी जड़ों
के कारण है।
जड़ें मेरे फूल
का ही दूसरा
हिस्सा हैं।
कितनी ही
कुरूप और एढ़ी-टेढ़ी
मालूम पड़ती
हों, फूल
का सारा
सौंदर्य
उन्हीं से आया
है, रस
उन्होंने ही
खींचा है।
तुम
फूल को देखकर
खुश लौट आते
हो। जड़ों को
तुमने कभी
धन्यवाद नहीं
दिया। तुम्हारी
नासमझी का कोई
अंत नहीं है।
यह फूल कभी
होते ना। ये सतरंगे
फूल खिलते हैं
आकाश में, क्योंकि
जड़ें निरंतर
पाताल में काम
कर रही हैं।
और इनमें जो
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है,
वह उनकी
कुरूपता पर
निर्भर है।
क्योंकि जड़ें सुंदर
नहीं हो
सकतीं। उनको आड़ा-तिरछा
होना पड़ेगा। उनको
रास्ते बनाने
पड़ेंगे, पत्थरों
को तोड़ना
पड़ेगा। जमीन
को पकड़ना
पड़ेगा। उनका इरछा-तिरछापन
जमीन को पकड़ने
के काम आता
है। उनको
अंधेरे में
छिपा रहना पड़ेगा
क्योंकि अगर
वे प्रगट हो
जाएं तो वृक्ष
मर जाएगा।
उनको आकाश में
छिपा रहना
पड़ेगा। वे सामने
नहीं आ सकतीं।
अगर तुम
फूलों से पूछो
तो वे निरंतर धन्वाद दे
रहे हैं जड़ों
को। अगर तुम
जड़ों से पूछो
तो वे निरंतर
फूलों को
धन्यवाद दे
रही हैं। जड़ें
जीयी ही इसलिए
हैं कि फूल
खिल जाएं।
उनका सौभाग्य
खिला है। उनके
जीवन भर का
श्रम खिला है।
उनके जीवन की
गरिमा प्रगट
हुई है।
सार्थक हो गईं
वे।
जिस
दिन फूल खिलते
हैं, उस दिन
जड़ों के आनंद
का ठिकाना
नहीं क्योंकि
सारा श्रम
सार्थक हुआ
है। हो सकता
है पचास साल श्रम
किया हो, तब
फूल आये हैं।
अंधेरे में, पत्थरों में,
जमीन में, जल की तलाश
की है, तब
फूल आए हैं।
सब तरह का
संघर्ष किया
है, तब फूल
आए हैं। तो
फूल उनकी चरम
सार्थकता है,
उनकी
सिद्धि है। और
फूल जड़ों के
बिना जी नहीं सकते;
वे एक दूसरे
से जुड़े हैं।
वह
आकाश और यह
पृथ्वी जुड़ी
है।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं इसमें तुम
अपनी जड़ें फैलाओ।
और डरो मत।
अगर तुम भयभीत
हुए जड़ें
फैलाने में, तो तुम्हारी
शाखाएं सिकुड़
जाएंगी। अगर
तुम बहुत
ज्यादा डर गए
और तुमने जड़ें
फैलाईं ही
नहीं, कि
यहां तो
अंधेरा ही है,
यह तो
पृथ्वी है, यह तो
पदार्थ है, यह तो भोग है,
यह तो संसार
है। अगर तुम
भयभीत हो गए, तो तुम
सिकुड़ जाओगे।
तुम्हारी
जड़ें सिकुड़ी,
तुम्हारा
आकाश छोटा हो
गया। अब तुम
फैल न सकोगे।
तुम
जाओ, अपने
तथाकथित तपस्वियों
को देखो। वहां
तुम ऐसे ही
व्यक्ति
पाओगे जिनकी
जड़ें सिकुड़ गई
हैं और जिनका
आकाश भी छोटा
हो गया है। और
वे चौबीस घंटे
डरे हुए हैं
कि जड़ें फैल न
जाएं क्योंकि
यह संसार है।
इस भय में इस बुरी
तरह लगे हैं, फैलने का
मौका ही नहीं
मिलता।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
केवल वे ही
लोग इस जगत
में
सृजनात्मक और
क्रिएटिव
होते हैं--बड़े
वैज्ञानिक, बड़े कवि, बड़े
चित्रकार, बड़े
विचारक; वे
ही लोग इस जगत
में नये को
खोजते हैं; दुस्साहस
करते हैं, नये
का निर्माण
करते हैं, जो
लोग इस जगत के
भीतर गहरे होते
हैं।
उसमें
मैं यह भी जोड़
देना चाहता
हूं--मनोवैज्ञानिक
इसे नहीं जोड़ते
क्योंकि यह
उनकी समझ के
बाहर है--कि
बड़े बुद्ध, बड़े महावीर,
बड़े कृष्ण,
बड़े
क्राइस्ट जो
कि चेतना के
स्रष्टा हैं,
जिनकी
पेंटिंग किसी
बाहर के
कैनवास पर
नहीं है और
जिनका गीत
शब्दों में
नहीं गाया गया
है, और
जिन्होंने
मूर्ति
निर्मित नहीं
की बल्कि खुद
को ही निर्मित
किया है; जो
मूर्तिकार
हैं स्वयं के,
जिन्होंने
स्वयं को सृजन
किया है, जो
खुद एक गीत बन
गए हैं, जिनकी
पूरी चेतना एक
सुंदर
प्रतिमा बन गई
है, ये भी
तभी पैदा होते
हैं, जब
जड़ें पृथ्वी
में गहरी होती
हैं।
इस
पृथ्वी पर
किसी वृक्ष के
होने का उपाय
नहीं है, जो
जड़ों से डर
जाए।
तुम्हारे
तथाकथित
साधु-संन्यासी
जड़ों से भयभीत
हैं। उनके भय
के कारण वे
सृजनात्मक
नहीं हो पाते।
भय ही उनकी
शक्ति को पी
जाता है। लड़-लड़कर ही वे
मर जाते हैं
और कहीं पहुंच
नहीं पाते हैं।
तुम्हें
मैं निर्भय
करना चाहता
हूं। यह पृथ्वी
परमात्मा के
विपरीत नहीं
है; अन्यथा
यह पैदा नहीं
हो सकती थी।
यह जीवन उसीसे
बहा है; अन्यथा
यह आता कहां
से? और यह
जीवन वापिस
उसी में जा
रहा है; अन्यथा
जाने की कोई
जगह नहीं है।
इसलिए तुम
द्वंद्व खड़ा
मत करना; तुम
फैलना। तुम
संसार में ही
जड़ें डालना, तुम आकाश
में भी पंख
फैलाना। तुम
दोनों का विरोध
तोड़ देना। तुम
दोनों के बीच
सेतु बन जाना।
तुम एक सीढ़ी
बनना, जो
जमीन पर टिकी
है--मजबूत
जमीन पर; और
जो उस खुले
आकाश में
मुक्त है, जहां
टिकने की कोई
जगह नहीं है।
ध्यान रखना, आकाश में
सीढ़ी को कहां टिकाओगे? टिकानी हो
तो पृथ्वी पर
ही टिकानी
होगी। दूसरी
तरफ तो अछोर
आकाश है; वहां
टिकाने की भी
जगह नहीं है।
वहां तो तुम बढ़ते
जाओगे।
धीरे-धीरे
सीढ़ी भी खो
जाएगी, तुम
भी खो जाओगे।
जड़
बहुत मजबूत है, पार्थिव है।
पत्ते उतने
मजबूत नहीं
हैं। जरा-सी
धूप, और
कुम्हला जाते
हैं। जरा-सा
ज्यादा पानी,
और सड़ने
लगते हैं।
उतने मजबूत
नहीं हैं। फूल
और भी सूक्ष्म
हैं, और भी
नाजुक हैं।
पत्ता टिक जाए,
उतनी धूप
में भी नहीं
टिक पाते।
पत्ता टिक जाए,
उतने भी
पानी में नहीं
टिक पाते। बड़ा
नाजुक जोड़ है।
लेकिन
फूल के बाद
फिर सुगंध है, उसको तुम
पकड़ भी नहीं
पाते कि वह
कहां है--आई, गई! सुगंध का
रूप भी पता
नहीं चलता; अरूप है।
इसलिए
मंदिरों में
हमने धूप जलाई,
दीप बाले।
वह धूप सुगंध
के लिए है
ताकि तुम समझो
कि परमात्मा
सुगंध की तरह
है। वह इस
पृथ्वी की
आखिरी...आखिरी निचोड़, नाजुकता
है। वह आखिरी
सूक्ष्मता है,
जहां सब
पदार्थ खो
जाता है, बस,
गंध रह जाती
है। वह गंध आई
और गई! और पता
भी नहीं चलता।
पहचानने में
भी नहीं आती।
थोड़ी देर में विराट
आकाश में खो
जाती है। खोता
तो कुछ भी नहीं
है। वह गंध
कहीं तो रहती
ही होगी। अरूप
हो जाती है।
अरूप के प्रतीक
की तरह हमने
धूप मंदिरों
में जलायी है,
मुसलमानों
ने लोबहान
जलाया है--वह
अरूप। फूल में
भी रूप है, फूल
का भी निचोड़
है।
इसलिए
इस्लाम ने
इत्र को बड़ा
महत्व दिया
है। मुसलमान
अपने उत्सव के
दिन इत्र
लगाकर निकलता है।
उसको शायद पता
भी न हो क्यों
इत्र लगाकर
निकलता है! वह
सार है, संचय
है। जड़ें बड़ी
स्थूल हैं; इत्र बिलकुल
सार-संचित है,
आखिरी निचोड़
है।
जड़ों
से और इत्र तक
तुम्हारी
यात्रा है। पर
ध्यान रखना, इत्र खो
जाएगा अगर
जड़ें न हों।
और अगर अकेली
जड़ें हों तो
उनका क्या अर्थ
है? नास्तिक
जोर देता है
अकेली जड़ों पर;
तथाकथित
आस्तिक जोर
देता है सिर्फ
इत्र पर।
मेरा
जोर दोनों पर
है क्योंकि
मुझे वह दोनों
दो नहीं मालूम
पड़ते। वह एक
का ही फैलाव
है। जड़ों के
बिना इत्र
नहीं, इत्र
के बिना जड़ें
निरर्थक हैं।
उनके जीवन में
कोई अर्थ नहीं,
उनके होने
का कोई सार ही
नहीं। जड़ें
फैलाओ, ताकि
कभी तुम इत्र
बन सको।
और
बाजार से
खरीदे गए
इत्रों से काम
न चलेगा। मंदिरों
में जलाई गई
धूप काफी नहीं
है। तुम्हें
धूप बनना
पड़ेगा, तुम्हें
सुगंध बनना
पड़ेगा। जिस
दिन तुम्हारे
जीवन की सुगंध
फैलेगी, उस
दिन दूसरी
सीढ़ी का छोर
पास आने लगा; उसमें तुम
खो जाओगे, उसमें
तुम लीन हो
जाओगे।
धूप को
जलते देखा है? धुआं उठता
है, थोड़ा-सा
दिखाई पड़ता है,
फिर खो जाता
है। ऐसे ही
तुम भी पदार्थ
से परमात्मा
की तरफ खोते
रहोगे।
विरोध
खड़ा मत करना।
जिसने
द्वंद्व खड़ा
किया, वह
चूक गया। जो
निर्द्वंद्व
जीया, वह
पहुंच गया।
हिंदुओं
को यह पता था, इसलिए
हिंदुओं ने
अपनी
जीवन-व्यवस्था
चार पुरुषार्थों
में बांटी:
धर्म, अर्थ,
मोक्ष, काम।
उसे हमें थोड़ा
समझ लेना
चाहिए। काम स्थूलतम, मोक्ष
सूक्ष्मतम।
काम है जड़, मोक्ष
है सुगंध। काम
है जड़, मोक्ष
है अंतिम
सूक्ष्मतम
सुगंध। इसलिए
काम दिखाई
पड़ता है और
राम दिखाई नहीं
पड़ता। इसलिए
संभोग समझ में
आ जाता है, समाधि
समझ में नहीं
आती। लेकिन जड़
संभोग है, समाधि
फूल है।
हिंदू
कहते हैं, तुम काम को
भी साधना
क्योंकि वह
परमात्मा की पहली
सीढ़ी है।
हिंदू कहते
हैं, तुम
काम में भी
उतरना उसका ही
अनुग्रह
मानकर। उसने
जो भी दिया है
वह सार्थक है,
उसे तुम
उपयोग करना।
उसे राह की
बाधा मत समझना,
सीढ़ी बना
लेना। एक
पत्थर पड़ा है,
तुम लौट भी
जा सकते हो कि
रास्ते पर
पत्थर पड़ा है,
आगे कैसे
बढ़ें? जो
समझदार है, वह पत्थर पर चढ़कर
देखेगा कि
पत्थर पर चढ़कर
नया रास्ता
शुरू होता है,
जो पहले से
ऊंचा है, जिसका
तल बदल गया।
काम से
कुछ लोग लौट
जाते हैं।
वहीं टकराते
हैं, लौट जाते
हैं; रास्ता
बंद हो जाता
है। जो काम के
आगे खोज करेंगे,
वे एक दिन
मोक्ष तक
पहुंच जाते
हैं। काम है
जड़--प्रथम: यह
संसार, यह
पृथ्वी।
इसलिए काम बड़ा
पार्थिव है; एकदम
पार्थिव है, शारीरिक है।
फिर
बचते हैं
दो--अर्थ और
धर्म। जड़ों को
बचाना हो, अकेली जड़ें
नहीं बच
सकतीं। पानी
चाहिए, खाद
चाहिए, सूरज
की गर्मी
चाहिए, सुरक्षा
चाहिए। अर्थ: इकनोमिक्स।
जीवन की इकनोमिक्स
है। भोजन
चाहिए, वस्त्र
चाहिए, मकान
चाहिए तो ही
काम जी सकता
है, नहीं
तो काम की
जड़ें सूख
जाएंगी। धन के
बिना काम नहीं
जी सकता।
इसलिए धन का
इतना
महत्वपूर्ण
रस लोगों के
मन में है।
लोग
चिल्लाते हैं, क्यों धन के
पीछे पागल हो?
कोई धन के
पीछे पागल
नहीं है।
लेकिन धन के
बिना काम की
जड़ें सूख
जाएंगी।
लेकिन कभी-कभी
ऐसा पागलपन
सवार होता है
कि तुम लक्ष्य
भूल ही जाते
हो और साधन
में उलझ जाते
हो। धन की
तलाश इसीलिए
चलती है कि
किसी दिन मैं
काम को
निश्चिंतता
से भोग सकूं।
लेकिन फिर तुम
धन इकट्ठे
करने में आबसेस्ड
हो जाते हो।
तुम भूल ही
जाते हो कि किसलिये
धन इकट्ठा कर
रहे हो! तुम एक
दिन धन भी
इकट्ठा कर
लोगे तब तुम
परेशान होओगे
कि धन इकट्ठा
करने में तो
जीवन ही
समाप्त हो
गया।
भोजन, वस्त्र, शृंगार,
सौंदर्य, स्वास्थ्य
सब जड़ों को
संभालते हैं।
इसलिए आप
चाहें तो
सस्ता
छुटकारा पा
सकते हैं काम
से, अगर
भोजन न करें।
इसलिए अनेक
लोग उपवास में
लग जाते हैं।
उनका उपवास
फिजूल है, वे
जड़ों को काट
रहे हैं।
उपवास का कुल
इतना प्रयोजन
है कि न होगा
भोजन, न
जड़ों को पानी
मिलेगा। जड़ें
सूख जाएंगी।
लेकिन जिस दिन
जड़ें सूख जाएंगी,
उस दिन
मोक्ष के फूल
कहां खिलेंगे?
जड़ें तो सूख
जा सकती हैं।
भोजन मत करो, कामवासना खो
जाती है तीन
सप्ताह के
भीतर। तीन सप्ताह
भोजन न किया
कि जड़ें सूख
गईं। कोई रस न मालूम
पड़ेगा।
पश्चिम
में बहुत
प्रयोग किए गए
हैं। एक विद्यार्थियों
के दल पर
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग कर रहे
थे; उन्हें
भूखा रखा।
युवक थे सब, स्वस्थ थे, लड़कियों में
रस था, फिल्म
देखते थे, नग्न
तस्वीरों में
आनंद लेते थे।
एक सप्ताह के
बाद रस खोने
लगा। रेडियो
पर कितना ही
कामुक संगीत
चल रहा हो, वे
बंद कर देते।
उससे सिर्फ
कानों में
उपद्रव मालूम
पड़ता। कितनी ही
चमकदार पत्रिकाएं
नग्न
स्त्रियों के
चित्र लिए पड़ी
हों, 'प्ले बॉय' पड़ा
हो, उसको
उलटकर भी न
देखते कि भीतर
क्या है।
इक्कीस दिन
पूरे
होते-होते सब
रस खत्म हो
गया। नग्न स्त्री
उनके पास से
गुजर जाए तो
आंखें न उठाते।
सुंदरतम
स्त्री को, 'मिस युनिह्वर्स'
को खड़ा कर दो,
तो भी वे
अपनी आंखें
बंद किए सुस्त
बैठे हैं।
क्या
हुआ? यह कोई
ऋषि-मुनि हो
गए, सिर्फ
इक्कीस दिन
भूखे रहने से?
तुम्हारे
बहुत ऋषि-मुनि
इसी दशा में
हैं। फिर उनको
भोजन देना
शुरू किया।
जैसे-जैसे
शरीर में भोजन
गया, वैसे-वैसे
कामवासना में
रस वापिस
लौटा। दो दिन के
भोजन के बाद
फिर रेडियो
में रस है, 'प्ले
बॉय' उलटने
लगे, लड़कियों
की बातचीत
शुरू हो गई, मजाक चल पड़ा,
कहानियां
एक-दूसरे को
बताने लगे।
सात दिन के भोजन
के बाद वे
वापिस स्वस्थ
हैं। जड़ों में
फिर पानी आ
गया।
इन
लड़कों को
ऋषि-मुनि रखा
जा सकता है।
इनको थोड़ा-थोड़ा
भोजन दिया जाए
जीवन भर, लेकिन
इतना न दिया
जाए जिससे कि
जड़ों में कभी भी
अंकुर आ सकें;
बस, किसी
तरह जी लें; जीवन में
इतनी ऊर्जा न
हो कि बाहर
बहने लगे, तो
ये तुम्हें
ब्रह्मचारी
मालूम
पड़ेंगे। लेकिन
यह
ब्रह्मचर्य
झूठा है। यह
ब्रह्मचर्य भूख
के कारण है।
यह ब्रह्मचर्य
कोई उपलब्धि
नहीं है, अभाव
है।
हिंदू
कहते हैं, अर्थ को भी
साधना; नहीं
तो जड़ें सूख
जाएंगी। और
जड़ें सूख गईं
तो फूल कभी न
आयेंगे। और
फूल लाने हैं।
तो
अर्थ साधन है
काम का।
जैसे
अर्थ साधन है
काम का, ऐसे
धर्म साधन है
मोक्ष का।
अर्थ से
संभालना वृक्ष
को, लेकिन वृक्ष
की सार्थकता
तो उसके फूल
आने में है।
इसलिए अर्थ
काफी नहीं है,
धर्म का
सहारा भी
चाहिए। इसलिए
अर्थ को भी
संभालना है।
दुकान को
संभालना और
मंदिर को भूल
मत जाना।
दुकान का इस
भांति उपयोग
करना कि वह मंदिर
की तरफ उन्मुख
होने लगे। धन
का सिर्फ इतना
ही उपयोग मत करना
कि जड़ें संभलें।
धन का ऐसा
उपयोग करना कि
वह दान बनने
लगे ताकि फूल
भी संभलें।
अगर धन सिर्फ
भोग हो तो
पानी जड़ों की
तरफ तो बह रहा
है, लेकिन
फूलों की तरफ
भी बहना
चाहिए।
पानी
की यात्रा
दोहरी होनी
चाहिए--नीचे
की तरफ, ऊपर
की तरफ। और
ऊपर की तरफ की
यात्रा कठिन है
क्योंकि वह 'ग्रेविटेशन'
के विपरीत
है। इसलिए
जड़ों में पानी
पहुंचाना बहुत
आसान है।
तुम्हें
अंदाज नहीं कि
फूल, वृक्ष
कितना
चमत्कार कर
रहे हैं! सारे
वैज्ञानिक सिद्धातों
को तोड़कर
पानी ऊपर की
तरफ जा रहा
है। जाना
चाहिए हर चीज नीचे
की तरफ। नदियां
यह चमत्कार
नहीं कर सकतीं
कि नीचे की
तरफ बह रही
हैं, लेकिन
वृक्षों ने एक
चमत्कार किया
है, कि नदियां
ऊपर की तरफ बह
रही हैं। बड़ी
गहरी कीमिया
है वृक्ष की, वह कैसे
पानी को ऊपर
की तरफ चढ़ा
रहा है!
क्योंकि ऊपर
की तरफ नहीं चढ़ेगा
पानी, ऊर्ध्वगामी
नहीं होगी
जीवन-चेतना, तो फूल कैसे
खिलेंगे? क्योंकि
फूल तो ऊपर खिलने
हैं।
क्या
तरकीब है
वृक्ष की? कैसे वह
पानी को ऊपर
चढ़ा रहा है? सांझ को जब
सूरज ढल जाए
तब तुम वृक्ष
के पास बैठकर
देखना तो तुम
पाओगे कि
वृक्ष के
पत्ते-पत्ते
से भाप उठ रही
है। दिनभर
की गरमी को
वृक्ष पी गया
है, ताप को
पी गया है। और
उस ताप के
माध्यम से हर
वृक्ष का
पत्ता भाप बना
रहा है। वह
भाप आकाश में
उड़ रही है, यह
उसका दान है।
इसने पानी
लिया ही नहीं,
वह दे रहा
है। ये
तुम्हारे जो
बादल आकाश में
उठ रहे हैं, यह वृक्षों
का दान है।
उसने पानी
चूसा ही नहीं
है, त्यागा
है। और जैसे
ही वृक्ष का
पत्ता पानी का
त्याग करता है,
भाप बन जाता
है, वैसे
ही वृक्ष का
पत्ता सूखा हो
जाता है। सूखते
ही उसके नीचे
जो पानी है
शाखा में, वह
सूखे होने के
कारण सूखे की
तरफ बहता है।
तुम कोई सूखी
चीज पानी में
रखो, तत्क्षण
पानी उसमें भर
जाएगा।
जिसने
दिया है, उसे
मिलेगा।
जिसने
छोड़ा है, वह
पाएगा।
'तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः--जिन्होंने
त्याग किया, उन्होंने
भोगा।
इस
पत्ते ने छोड़
दिया है, इसने
पकड़ा नहीं। यह
कंजूस होता तो
मरता। कंजूस
धन पर रुक
जाता है। जड़ें
उसकी काफी
होती हैं।
जड़ों को
संभालने का
इंतजाम काफी
होता है, लेकिन
ऊर्ध्वगमन
नहीं होता।
इसलिए धन दान
बने।
तुम्हारे
जीवन के कृत्य
सेवा बनें।
तुम कुछ पकड़ो
ही मत, छोड़ो भी; ताकि
हाथ खाली हों।
यह वृक्ष का
पत्ता खाली होते
ही नीचे का
पानी दौड़ता
है। इस तरकीब
से पानी ऊपर
चढ़ रहा है।
शाखा का पानी
पत्ते में चला
जाता है तो
शाखा सूख जाती
है; तो
शाखा नीचे से
जड़ से खींचना
शुरू कर देती
है। जहां खाली
जगह होती है, पानी उसको
भरने जाता है।
इस
अस्तित्व में
खाली जगह पसंद
नहीं है। तुम
खाली होना, परमात्मा
तुम्हें
भरेगा। तुमने
अपने को पकड़ा,
कि
परमात्मा की
तरफ से भरना
बंद हो जाएगा।
किसी वृक्ष को
राजी कर लो
कंजूस होने के
लिये, वह
मर जाएगा।
तरकीब है, तुम
ऐसा करो कि
पत्तों को
पेंट कर दो
ताकि उनसे
पानी ऊपर न उड़
सके। दो-चार
दिन में तुम
पाओगे, वृक्ष
मर गया।
देना
पड़ेगा। लेने
का राज देने
में छिपा है।
इसलिए
धर्म। धर्म का
नीचे से अर्थ
है: दान, त्याग,
छोड़ने की
क्षमता, सेवा।
और वह सूत्र
है, वह
साधन है।
जल्दी ही
वृक्ष पर फूल
आएंगे क्योंकि
पानी ऊपर की
तरफ बहने लगा।
और जब पानी
ऊपर की तरफ
बहता है तो
आखिरी फल लगने
शुरू होते हैं।
फूल लगेंगे, फल लगेंगे।
वृक्ष गरिमा
को उपलब्ध
हुआ। सार्थकता
मिली; अंत
आ गया, सिद्धि
हुई।
हिंदू
कहते हैं, काम है जड़; अर्थ है
व्यवस्था; धर्म
है साधन आखिरी
साध्य का; और
मोक्ष है फूल।
इसलिए
हिंदुओं ने
कहा कि तुम
बीच से मत भाग
जाना।
हिंदुओं ने
चार जीवन के पुरुषार्थ
कहे। ये चारों
तुम पूरे
करना। यह तुम्हारे
पुरुष होने का
अर्थ इनमें
छिपा है। और बीच
से मत भागना
क्योंकि बीच
से तुम भागे
कि तुम अधूरे
वृक्ष रह
जाओगे। इसलिए
हिंदुओं ने
बीच से
संन्यास की
आज्ञा नहीं
दी। उन्होंने
कहा, पहले
पच्चीस वर्ष
ब्रह्मचर्य।
यह बड़े
मजे की बात
है। इसको कभी
कोई सोचता नहीं।
तथाकथित
हिंदू पंडित
इस पर विचार
ही नहीं करते
कि यह क्या
अर्थ हुआ? पच्चीस वर्ष
ब्रह्मचर्य।
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य
के लिए नहीं, ऊर्जा
संग्रह! ताकि
तुम कामवासना
में परिपूर्ण
तृप्त हो सको।
जो
ब्रह्मचर्य
से रहा है प्राथमिक
चरण में, वही
संभोग की
गहराई पा
सकेगा। जिसने
ऊर्जा कच्ची
लुटा दी है, वह संभोग की
गहराई नहीं पा
सकेगा।
हिंदू
अनूठे हैं।
उनकी पकड़ गहरी
होनी स्वाभाविक
भी है। इस
जमीन पर वह
सबसे पुरानी
जाति है।
उन्होंने बड़े
अनुभव लिए
हैं। उन
अनुभवों के आधार
पर उन्होंने
काफी खोज की
है और कुछ
सूत्र निकाल
लिए हैं।
पच्चीस
वर्ष...अगर सौ
साल हम आदमी
की जिंदगी मान
लें, तो
पच्चीस वर्ष
पहला चरण है।
वह जो पहला
पुरुषार्थ है
काम, उसके
मुकाबले जीवन
का पहला आश्रम
ब्रह्मचर्य
है। इसलिए चार
पुरुषार्थ, और चार
आश्रम हैं, और चार वर्ण
हैं। हिंदुओं
का गणित साफ
है।
पहला
काम--जड़ों का
जगत है। वहां
ब्रह्मचर्य
को संभालना।
वहां चित्त
में कोई
कामवासना न
उठे ताकि तुम
एक लबालब
ऊर्जा हो जाओ।
तुम एक आपूर
ऊर्जा हो जाओ।
तुम बहो तो
बहने में कुछ
रस हो। और
नहीं तो तुम
ऐसे टपकोगे, जैसा गर्मी
के दिनों में
नल का पानी
टपकता है--बूंद...बूंद।
उससे कोई
सरिता नहीं
बनेगी, जो
सागर तक जाने
वाली है।
आज की
दुनिया में
करीब-करीब ऐसा
होता है।
क्योंकि
जिसने ब्रह्मचर्य
नहीं देखा वह
संभोग का रस
भी नहीं देख
पाता; खिन्न
ही रह जाता है;
बूंद-बूंद
टपकता है।
प्रवाह चाहिए
अनुभव के लिए--अतिरेक
चाहिए। इस जगत
में सभी अनुभव
अतिरेक से
होते हैं।
इतनी
प्राण-ऊर्जा
चाहिए कि तुम
एक छलांग ले
सको, और एक
दूसरे जगत में
प्रवेश कर
सको।
पच्चीस
वर्ष तक काम
के मुकाबले
हिंदू कहते हैं
ब्रह्मचर्य।
पच्चीस
वर्ष अर्थ के
मुकाबले
हिंदू कहते
हैं गृहस्थ।
तब तुम धन की
फिक्र करना।
चलाना दुकान, लड़ना
राजनीति में।
जूझना, डरना
मत। कमाना, भय मत खाना।
तीसरे
पच्चीस वर्ष
हिंदू कहते
हैं, वानप्रस्थ--धर्म
के सामने। तब
तुम धर्म की
साधना में लग
जाना। धन
तुमने पा लिया,
काम तुमने
जान लिया, अब
तुम्हारे ऊपर
के वृक्ष की
यात्रा शुरू
होगी। जीवन का
वर्तुल पचास
वर्ष पर मुड़ता
है। क्योंकि
अगर सौ वर्ष
जीवन की आखरी
सीमा मान लें
तो पचास
वर्ष--आधा जगत
पूरा हुआ। दो
पुरुषार्थ
पूरे हुए, दो
बचे। अब एक
नयी यात्रा
शुरू हुई। तुम
वानप्रस्थ हो
जाना। तुम
संन्यस्त का
भाव ले लेना।
और
अंतिम पच्चीस
वर्ष मोक्ष के, संन्यास के।
अर्थ
के साथ
गृहस्थी। काम
के साथ
ब्रह्मचर्य।
धर्म के साथ
वानप्रस्थ।
मोक्ष के साथ
संन्यास।
अंतिम फूल
संन्यास के।
और इन
चारों के साथ
उन्होंने चार
वर्ण की व्यवस्था
दी, कि जो
पहले पर रुक
जाए, वह
शूद्र। इसे
तुम समझ लो
मेरी
व्याख्या को।
जो काम पर रुक
जाए, वह
शूद्र। इसलिए
हिंदू कहते
हैं, पैदा
तो सभी शुद्र
होते हैं
क्योंकि काम
से ही पैदा होते
हैं। जो दूसरे
पर रुक जाए, वह वणिक, वैश्य--बस
धन पर ही रुक
जाए; दुकान
ही सब कुछ हो
जाए। जो तीसरे
पर रुक जाए, वह
क्षत्रिय। धन
क्षत्रिय का
रस नहीं है, यश...! और
वानप्रस्थ को
जितना यश
मिलता है, उतना
किसी को भी
नहीं। लड़ाका
है; जिंदगी
में लड़ भी
लिया, लड़ाई
के पार भी उठ
गया क्योंकि
पा लिया यश।
लेकिन यश की
आकांक्षा बनी
रहती है, अहंकार
बना रहता है।
वानप्रस्थ को
भी अहंकार बना
रहता है।
क्षत्रिय
अहंकार की
प्रतिमा है; इसलिए वह
वानप्रस्थ तक
जा सकता है
क्योंकि संन्यास
में तो अहंकार
छोड़ देना
पड़ेगा।
तो
वानप्रस्थ पर
जो रुक जाए, वह
क्षत्रिय। और
जो मोक्ष को
उपलब्ध हो जाए,
वह
ब्राह्मण।
ऐसे
चार
पुरुषार्थ, चार आश्रम
और चार वर्ण।
हिंदुओं का
गणित है और
कीमती गणित
है। और अगर
कोई समझ ले तो
किसी और गणित
की जरूरत
नहीं।
आज
इतना ही।
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