सूत्र :
मायोपष्टिर्जगद्योंनि:
सर्वज्ञत्वादिलक्षण:।
पारोक्ष्यशबल:
सत्याद्यात्मकस्तत्पदत्मिधः।।
30।।
आलम्बतनया
भाति योsस्मत्सत्ययशब्दये।:।
अंतःकरणसंत्मईन्नबा:
एधः अ
त्वपदत्मिधः।।
31।।
मायाऽविद्ये
विहायैव
उपाधी
परजींवयो:।
अखंड
सच्चिदानन्दं
परं क्ल
विलक्ष्मते।।
32।।
मायारूप
उपाधि वाला, जगत का
उत्पत्ति
स्थान, सर्वज्ञता
आदि लक्षणों
से युक्त, परोक्षपन
से मिश्र और
सत्य आदि
स्वरूप वाला जो
परमात्मा है,
वही तत्
शब्द से
प्रसिद्ध है।
और जो मैं
ऐसे अनुभव तथा
शब्द का आश्रय
जान पड़ता है, जिसका
ज्ञान
अंतःकरण से
मिथ्या है, वह (जीव)
त्वम् शब्द से
पुकारा जाता
है।
इस
परमात्मा को
माया और जीव
को अविद्या—ऐसी
दो उपाधि हैं, इनको
त्याग करने से
अखंड
सच्चिदानंद
परम ब्रह्म ही
जान पड़ता है।'
ईश्वर
को पुकारा गया
है बहुत नामों
से। अनेक—अनेक
संबंध मनुष्य
ने ईश्वर के
साथ स्थापित किए
हैं। कहीं
ईश्वर को पिता, कहीं
माता, कहीं
प्रेमी, कहीं
प्रेयसी भी, कहीं मित्र,
कहीं कुछ और,
ऐसे बहुत—बहुत
संबंध आदमी ने
परम सत्य के
साथ स्थापित करने
की कोशिश की
है। लेकिन
उपनिषद अकेले
हैं इस पूरी
पृथ्वी पर, जिन्होंने
परमात्मा को
सिर्फ कहा है
दैट, वह; तत्। कोई
संबंध
स्थापित नहीं
किया।
इसे
थोड़ा समझ लेना
चाहिए। यह बडी
गहरी
अंतर्दृष्टि
है। परमात्मा
को हम प्रेम
से पिता, माता पुकार
सकते हैं, लेकिन
उस पुकारने
में समझ कम और
नासमझी ज्यादा
है। परमात्मा
से हम कोई भी
संबंध
स्थापित करें,
वह नासमझी
का है। क्यों?
क्योंकि
संबंध में एक
अनिवार्य बात
है कि दो की
मौजूदगी होनी
ही चाहिए; संबंध
बनता ही दो से
है। मैं हू
मेरे पिता हैं,
तो दोनों का
होना जरूरी है।
मैं हूं या
मेरी मां है, तो दो का
होना जरूरी है।
परमात्मा के
साथ ऐसा कोई
भी संबंध सही
नहीं है, ऐसा
कोई भी संबंध
संभव नहीं है,
जिसमें हम
दो रह कर
संबंधित हो
पाएं। उसके
साथ तो खोकर
ही संबंधित
हुआ जा सकता
है, अलग रह
कर संबंधित
नहीं हुआ जा
सकता।
इस
जगत के सारे
संबंध अलग रह
कर ही संबंध
होते हैं।
परमात्मा के
साथ जो संबंध
है, वह
लीन होकर, खोकर,
एक होकर
स्थापित होता
है। यह बडी
उलझन की बात
है। संबंध के
लिए दो का
होना जरूरी है।
इसलिए हम यह
भी कह सकते
हैं कि
परमात्मा से
कोई संबंध कभी
स्थापित नहीं
हो सकता। अगर
संबंध के लिए
दो का होना
जरूरी है, तो
परमात्मा से
फिर कोई संबंध
स्थापित नहीं
हो सकता।
क्योंकि
परमात्मा से
तो मिलन ही तब
होता है जब दो
मिट जाते हैं
और एक रह जाता
है।
कबीर
ने कहा है? खोजने
निकला था, बहुत
खोज की और
तुझे नहीं
पाया। खोजते —खोजते
खुद खो गया, तब तू मिला।
वह जो खोजने
निकला था, वह
जब तक था, तब
तक तुझसे कोई
मिलना न हुआ; और जब खोजते —खोजते
तू तो न मिला, लेकिन खोजने
वाला खो गया, तब तुझसे
मिलना हुआ।
इसका
तो मतलब यह
हुआ कि मनुष्य
का परमात्मा
से मिलना कभी
भी नहीं होता
है। क्योंकि
जब तक मनुष्य
रहता है, परमात्मा
नहीं होता। और
जब परमात्मा
होता है तो
मनुष्य नहीं
होता। दोनों
का मिलना कभी
नहीं होता।
इसलिए इस जगत
के जितने
संबंध हैं, उनमें से
कोई भी संबंध
हम परमात्मा
पर लागू करके
भूल करते हैं।
पिता से मिला
जा सकता है
बिना मिटे; मिटना कोई
शर्त नहीं है।
माता से मिला
जा सकता है
बिना मिटे, मिटना कोई
शर्त नहीं है।
लेकिन
परमात्मा से
मिलने की
बुनियादी
शर्त है मिट
जाना। संबंध
होता है दो के
बीच, और
परमात्मा से
संबंध होता है
तब, जब दो
नहीं होते।
इसलिए संबंध
बिलकुल उलटा
है।
उपनिषदों
ने परमात्मा
नहीं कहा, पिता
नहीं कहा, माता
नहीं कहा, कोई
मानवीय संबंध
स्थापित नहीं
किए। सब
मानवीय संबंध
स्थापित करना,
समाजशास्त्री
कहते हैं, एंक्षोपोसेन्ट्रिक
है, मानव—केंद्रित
है। आदमी अपने
को ही थोपता
चला जाता है
हर चीज में।
इस
एंथ्रोपोसेन्ट्रिक, यह मानव—केंद्रित
जो दृष्टि है,
इसे थोड़ा
समझ लेना
चाहिए, क्योंकि
आधुनिक
मनसशास्त्र, समाजशास्त्र
इस शब्द से
बहुत
प्रभावित हैं
और इसका बड़ा
मूल्य
स्वीकार करते
हैं। आदमी जो
कुछ भी देखता
है, उसमें
आदमी को
आरोपित कर
लेता है। चांद
पर बादल घिरे
हों, तो हम
कहते हैं, चांद
का मुखड़ा
घूंघट में
छिपा है। न
वहा कोई मुखड़ा
है और न वहा
कोई घूंघट है।
पर आदमी अपने
अनुभव को, स्वाभाविक,
स्वाभाविक,
स्वभावत:, अपने अनुभव
को आरोपित कर
लेता है, हर
चीज को!
चंद्रमा पर
ग्रहण लगा हो,
तो हम कहते
हैं, राहू—केतु
ने ग्रस लिया,
दुश्मन
चंद्र के उसके
पीछे पड़े हैं।
आदमी—आदमी
की ही भाषा
में सोच सकता
है। इसलिए हम
अपने चारों
तरफ जो भी
देखते हैं, उसमें हम
अपने को
आरोपित करते
चले जाते हैं।
पृथ्वी को हम
माता कहते हैं;
आरोपण है।
आकाश को हम
पिता कहते हैं,
आरोपण है।
और हम खोजने
जाएंगे तो
आदमी ने जो —जो
संबंध
निर्धारित
किए हैं अपने
जगत से, उन
सब में अपने
ही संबंधों को
स्थापित कर
दिया है।
फ्रायड
कहता है कि
ईश्वर की जो
बात है, वह असल में
पिता का सब्स्टीटयूट
है, परिपूरक
है। बच्चा
पैदा होता है।
असहाय होता है,
कमजोर होता
है, असुरक्षित
होता है; पिता
वरदहस्त बन
जाता है, बचाता
है, बड़ा
करता है; उसकी
छाया में बड़ा
होता है। छोटा
बच्चा अपने
पिता को परम
शक्ति मानता
है; उससे
बड़ा कोई
दुनिया में
नहीं। इसलिए
छोटे बच्चे
अक्सर विवाद
करते रहते हैं
कि किसका पिता
बड़ा है। हर
बच्चा दावा
करता है, मेरा
पिता बड़ा है।
और हर बच्चे
को लगता है कि
उसके पिता से
बडा और क्या
हो सकता है!
आखिरी, अल्टीमेट,
जो आखिरी
बात हो सकती
है शक्ति की, वह पिता के
हाथ में है।
बचपन
में बच्चा
सहारा लेकर
बड़ा होता है
पिता का।
भरोसा, आस्था, आदर,
सब उसका
पिता के प्रति
होता है। अगर
पिता उसका हाथ
पकड़ कर आग में
भी चला जाए, तो वह मजे से
हंसता हुआ चला
जाएगा; क्योंकि
जहा पिता जा
रहा है, वहा
जाने में कोई
अड़चन नहीं है।
अभी न कोई
संदेह जगा है,
न अभी कोई
अनास्था पैदा
हुई है; अभी
पिता परम
श्रद्धा का
पात्र है।
लेकिन
जैसे—जैसे
बच्चा बड़ा
होगा, यह
श्रद्धा
टूटने लगेगी;
पिता की
कमजोरियां
दिखाई पड़नी
शुरू हो जाएंगी।
सबसे पहली
कमजोरी तो यह
दिखाई पड़ेगी
कि जैसे ही
बच्चा थोड़ा
बडा होगा और
समझेगा, तो
पाएगा कि सौ
में नब्बे
मौके पर माता
ज्यादा
ताकतवर है, पिता कमजोर
है। सौ में
नब्बे, निन्यानबे
मौके पर पाएगा
कि पिता की सब
अकड़—धकड़, शान—शौकत,
वह सब बाहर—बाहर
है घर के, घर
के भीतर वह दब
कर आता है, डरा
हुआ आता है।
उसकी श्रद्धा
में पहली अड़चन
हो जाएगी। फिर
जैसे—जैसे बड़ा
होगा, समझ
बढ़ेगी, देखेगा
कि पिता का भी
बीस है, जिसके
सामने पिता
बिलकुल खड़ा
हुआ कंपता है।
तो
बचपन में जो
श्रद्धा पोसी
थी पिता के
प्रति, वह पिता से
हट जाएगी, खाली
हो जाएगी। वह
खाली श्रद्धा
ही आदमी—फ्रायड
के हिसाब सें—परमात्मा
पर थोपता है, एक कल्पित
पिता पर, ताकि
मन खाली न रह
जाए। इसलिए
आदमी
परमात्मा को
पिता कहते हैं,
कि वह परम
पिता है, महान
शक्तिशाली है।
खयाल
रखें, बच्चे
जो—जो गुण
पिता में
बताते हैं, वही गुण
धार्मिक लोग
परमात्मा में
बताते हैं। और
जैसे बच्चे
लड़ते हैं कि
हमारा पिता
बड़ा, ऐसे
ही हिंदू र
मुसलमान, ईसाई
लड़ते हैं कि
हमारा पिता
बड़ा! किसका
ईश्वर बड़ा? वे सब
बचकानी बातें
हैं। मगर
ईश्वर की
धारणा पर पिता
का आरोपण ही
बचकाना है, वह बच्चे की
ही बुद्धि से
पैदा हुआ है।
तो
फ्रायड ने तो
कहा कि जब तक
बच्चों को
उनके पिता के
पास बड़ा किया
जाता है, तब तक
परमात्मा से
छुटकारा बहुत
मुश्किल है।
वह पिता का ही
रूप है।
इसमें
थोड़ी सचाई
मालूम पड़ती है।
क्योंकि जिन
समाजों में
मातृ—सत्ताक
व्यवस्था है, मेट्रिआकल
सोसाइटी जहा
है, जहा
मां प्रधान है
और पिता गौण
है, वहा
कोई परमात्मा
को पिता नहीं
कहता, वहा
परमात्मा को
माता कहा जाता
है। इससे बात
जाहिर होती है
कि फर्क। जैसे
काली के पूजक
हैं, वे
मां के रूप
में देखते हैं
परमात्मा को,
पिता के रूप
में नहीं। ये
काली के पूजक्
मातृ —सत्ताक
समाज से आते
हैं, जहा
मा प्रधान है,
जहां पिता
गौण है। अभी
भी समाज हैं
जमीन पर, जहां
मां प्रधान है
और पिता गौण
है। उन सभी
समाजों में
ईश्वर की
धारणा मां की
है, पिता
की नहीं है।
इससे
फ्रायड की बात
को थोडा सहारा
मिलता है कि
बचपन में कोई
धारणा
निर्मित होती
है। और बचपन
बहुत कीमती
क्षण हैं, क्योंकि
बचपन में जो
भी बन जाता है
ढांचा, पैटर्न
चित्त का, उसमें
जब भी कमी
होती है तो
बेचैनी मालूम
पड़ती है। उस
कमी को पूरा
करना जरूरी हो
जाता है। और
आदमी जिंदगी
भर अपने बचपन
में बनाए हुए
ढाचे को पूरा
करने की कोशिश
करता रहता है।
इससे
एक और मजेदार
बात आपको खयाल
में लेनी चाहिए।
जिन समाजों
में परिवार
उखड़ गया है—जैसे
आज अमरीका में
परिवार उखड़ा
हो गया है, जडें टूट
गई हैं, न
बच्चों को
पिता की फिक्र
है, न मां
की, न मां
और बाप को
बहुत फिक्र है
बच्चों की, बीच का
संबंध शिथिल
हो गया है—उन
समाजों में
ईश्वर की
धारणा भी
शिथिल हो जाती
है। जहां
परिवार
डगमगाका, वहा
परमात्मा भी
डगमगा जाता है।
वहां
नास्तिकता
फैल जाती है।
जिन समाजों
में पिता का
बल बहुत
प्रगाढ है और पिता
की आशा
सर्वोपरि है
और अनुशासन
सुनिश्चित है,
उन समाजों
में
नास्तिकता
पैदा नहीं
होती।
तो
फ्रायड इससे
जो निष्कर्ष
निकालता है, वे अदभुत
हैं, लेकिन
आधे सच हैं।
उसकी इस बात
में सचाई है
कि परमात्मा
में पिता
देखना, यह
मनुष्य के
मानसिक अभाव
को भरने की
चेष्टा है।
लेकिन फ्रायड
कहता है, बस
परमात्मा
इतना ही है, यहां भूल हो
जाती है।
आदमी
पृथ्वी को
माता कहे, यह आदमी
की बात है, लेकिन
पृथ्वी को
माता कहने से
पृथ्वी नहीं
नहीं हो जाती।
आदमी
परमात्मा को
पिता कहे, माता
कहे, जो
कहना चाहे कहे।
यह उसके
परिवार, उसके
बचपन, उसके
मनस का
विस्तार हो
सकता है, लेकिन
जिस पर यह
विस्तार होता
है वह
परमात्मा गलत
नहीं हो जाता।
उसको हम क्या
नाम देते हैं,
वह हम पर
निर्भर है, लेकिन उसका
होना हम पर निर्भर
नहीं है।
उपनिषद
को अगर फ्रायड
जानता होता तो
बडी मुश्किल
में पड़ता, क्योंकि
उपनिषद कोई
संबंध ही
निर्मित नहीं
करता। फ्रायड
ने अगर उपनिषद
पढे होते तो
आधुनिक मनोविज्ञान
की कथा दूसरी
होती, क्योंकि
फ्रायड
ईमानदार आदमी
था। और अगर
उसे यह पता भी
चल जाता कि
कोई एक ऐसी
परंपरा भी है
विचार की, चितना
की, अनुभव
की, जो
किसी तरह का
संबंध ईश्वर
से निर्धारित
नहीं करती, बिलकुल
इम्पर्सनल
शब्द का उपयोग
करती है : तत्।
ईश्वर यानी वह,
दैट। इससे
ज्यादा
इम्पर्सनल
संबोधन, निवैंयक्तिक
संबोधन दूसरा
नहीं हो सकता।
तो फ्रायड को
तब बड़ी
मुश्किल होती
कि ये कौन लोग
हैं
जिन्होंने वह
कहा ईश्वर को!
वह का मतलब
कोई नाम नहीं
दिया, सिर्फ
इशारा किया।
वह कोई नाम
नहीं है, सिर्फ
इशारा है, सिर्फ
अंगुली—निर्देश
है।
निश्चित
ही, बचपन
के किसी अभाव
से यह बात
पैदा नहीं हो
सकती, वह।
मां का खयाल आ
सकता है। पिता
का खयाल आ
सकता है, लेकिन
वह, इसका
बचपन के
मनोविज्ञान
से कोई भी
संबंध नहीं।
सच तो यह है, इसका कोई भी
संबंध मनुष्य
से नहीं, इसका
कोई भी संबंध
मनोविज्ञान
से नहीं। इसका
संबंध तो मन
के पार जो गए
हैं, उनके
अनुभव से है; मनुष्य के
पार जो गए हैं,
उनके अनुभव
से है।
यह
मनुष्य और मन
शब्द को भी
समझ लेना
चाहिए। हमने
इस मुल्क में
मनुष्य कहा है
आदमी को।
सिर्फ इसीलिए
कहा है कि जो
मन से घिरा है, जो मन में
ही जी रहा है, मन ही जिसका
ओरिएंटेशन है,
मन से ही जो
रस पाता है, इसलिए हमने
उसे मनुष्य
कहा है।
अंग्रेजी का
मैन भी मन का
ही रूपांतरण
है, और
संस्कृत के ही
शब्द की
यात्रा है।
मन
ही मनुष्य है।
जहा मन का
अतिक्रमण
होता है, वहां
मनुष्यता का
भी अतिक्रमण
हो जाता है।
यह उन लोगों
का वक्तव्य है
जो मनुष्य के
पार गए, मन
के पार गए, और
उन्होंने
इशारा किया :
वह।
पर
इसमें कई
बातें सोच लेने
जैसी हैं।
पिता की पूजा
हो सकती है, वह की
पूजा कैसे
करिएगा! पिता
का मंदिर बन
सकता है, मा
का मंदिर हो
सकता है, वह
का मंदिर कैसे
बनाइका! या
बना सकते हैं?
वह! इसका
कैसे मंदिर
बने? पुरुष,
स्त्री, माता,
पिता, इनकी
शतइrयां बन
सकती हैं, वह
की क्या
मूर्ति
बनाइगा? उपनिषद
से बड़े मूर्तिभंजक
शास्त्र
दूसरे नहीं
हैं, हालांकि
एक शब्द नहीं
कहा है
उन्होंने कि
मृर्ति की
पूजा मत करना।
यह
भी थोड़ा समझ
लेने जैसा है।
मुसलमान
मूर्ति को
तोड़ने में लगे
रहे हैं, सिर्फ
इसीलिए कि
मोहम्मद ने
कहा उसकी कोई
स्तुतइr नहीं
हो सकती।
मोहम्मद की
वाणी ठीक
उपनषिद की बात
है, कि
उसकी कोई
मूर्ति नहीं
हो सकती।
लेकिन जिसकी
मूर्ति बन
नहीं सकती, उसकी मूर्ति
तोड़ी जा सकती
है यह मुसलमान
मानते हैं।
जिसकी बन ही
नहीं सकती
उसकी तोड़ी
क्या खाक जा सकती
है! तो एक तरह
के पागल बनाने
में लगे हैं, दूसरी तरह
के पागल मिटाने
में लगे हैं!
यह
बड़े मजे की
बात है कि
मूर्तिभंजक
भी ग्रतइrपूजक ही
होता है। वह
जो मूर्ति को
तोड़ने जाता है,
वह भी
मूर्ति को
मानता तो है
ही, कम से
कम तोड़ने
योग्य मेहनत
तो उठाता ही
है। इतना तो
भरोसा उसका भी
है। फर्क क्या
है? एक
पूजा के फूल
रखने जाता है,
एक जाकर
हथौडे से सिर
तोड़ आता है।
छैनियों
और हथौड़ों से
ही ये मूर्तियां
बनती हैं और
छैनी—हथौडों
से ही तोड़ी
जाती हैं।
दोनों की
आस्था में
बहुत फर्क
नहीं है।
दोनों मानते
हैं कि ग्रतइr में कोई
महत्व है।
पूजा करने
वाला मानता है
कि महत्व है, तोड़ने वाला
भी मानता है
कि महत्व है।
कभी—कभी तो
तोड़ने वाला
ज्यादा महत्व
मानता है, क्योंकि
पूजा करने
वाला जीवन को
संकट में नहीं
डालता मूर्ति
के लिए, तोड़ने
वाला जीवन को
संकट में
डालता है। जान
लगा देता है
अपनी उसको
तोड़ने में, कुरान कहती
है कि जिसकी
कोई शतइr ही
नहीं हो सकती।
तो किसकी मूर्ति
तोड़ते हो?
उपनिषद
न तो
मूर्तिपूजक
हैं और न
मूर्तिभंजक।
उपनिषद की
दृष्टि रूप, आकार, मूर्ति
के बिलकुल पार
चली गई है।
कहा वह, दैट,
तत्। इसकी
क्या मूर्ति बन
सकती है? इसकी
कोई मूर्ति नहीं
बन सकती। वह
रूप नहीं है।
वह का कोई रूप
है? आकार
है? वह कोई
रूप नहीं है, वह निराकार
है। शब्द भी
निराकार है वह।
उसका अगर
बनाना भी
चाहें कोई रूप
तो बनेगा नहीं।
है क्या यह वह,
तत्? इशारा
है, जैसे
किसी ने
अंगुली की और
कहा दैट, वह।
विटगिन्सटीन
एक बहुत अदभुत
आधुनिक चिंतक
हुआ। इस सदी
में जो बडे से
बडे तर्क के
जन्मदाता हुए, उनमें विटगिन्सटीन
है।
विटगिन्सटीन
ने अपनी
बहुमूल्य, इस
सदी में लिखी
गई दो —चार, पांच
किताबों में
एक मूल्यवान
किताब, टैक्टेटस
लाजिकस में
लिखा है, कि
कुछ बातें ऐसी
हैं जो कही
नहीं जा सकतीं,
सिर्फ उनकी
तरफ इशारा
किया जा सकता
है। देअर आर
थिंग्स व्हिच
कैन नाट बी
सेड, बट
स्टिल दे कैन
बी शोड। कहा
तो नहीं जा
सकता उनके
बाबत कुछ, लेकिन
इशारा किया जा
सकता है।
उपनिषद इशारा
करते हैं
परमात्मा की
तरफ, कहते
कुछ भी नहीं
हैं। सिर्फ
इशारा है. वह।
इस इशारे में
कई बातें
निहित हैं, वह खयाल में
ले लें।
एक
तो यह बात
निहित है कि
उससे कोई संबंध
नहीं जोड़ा जा
सकता। इसलिए
उपनिषद नहीं
कहते, तू!
उपनिषद नहीं
कहते, तू; तू से संबंध
बन जाता है
मैं का। जहा
तू है, वहा
मैं भी होगा।
तू बिना मैं
के नहीं हो
सकता। जब भी
मैं किसी से
कहता हूं —तुम,
तू; तब
मैं आ गया; तब
मैं मौजूद हो
गया। मेरे ही
संबंध में कोई
तू होता है, और किसी तू
के संबंध में
मैं होता हूं।
मैं और तू
गठजोड़ा है
दोनों का; एक
साथ होते हैं।
वह अकेला है।
उसके साथ किसी
दूसरे के होने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
वह से कोई
ध्वनि नहीं
निकलती कि कोई
और भी है। जब
भी हम कहते
हैं तू तो
जिससे भी हम
कहते हैं, वह
हमारे ही तल
पर आ जाता है।
हम और वह साथ—साथ
खड़े हो जाते
हैं। जब हम
कहते हैं वह, तो हमारे तल
से उसका कोई
भी संबंध नहीं
जुड़ता। वह कहा
है? नीचे
है, ऊपर है,
साथ है? कुछ
पता नहीं चलता।
उपनिषदों ने
बहुत सोच कर
तत् कहा है
ब्रह्म को। इस
सूत्र को हम
समझें।
'मायारूप
उपाधि वाला, जगत का
उत्पत्ति
स्थान, सर्वज्ञता
आदि लक्षणों
से युक्त, परोक्षपन
से मिश्र, सत्य
आदि स्वरूप
वाला जो
परमात्मा है,
वही तत्
शब्द से
प्रसिद्ध है।'
'और जो मैं
ऐसे अनुभव तथा
शब्द का आश्रय
जान पड़ता है, जिसका शान
अंतःकरण से
मिथ्या है, वह (जीव)
त्वम् शब्द से
पुकारा जाता
है।'
त्वम्; दाऊ; तू।
जब
भी हम किसी को
कहते हैं तू
त्वम्, दाऊ, वैसे
ही हमने
स्वीकार कर
लिया सीमा को।
दूसरा हमें
पूरा—पूरा
दिखाई पड़ रहा
है। उसका आकार
है, शरीर
है। आप किसी
अशरीरी
अस्तित्व को
तू नहीं कह
सकते। आकाश की
तरफ आख उठा कर
तू कहिए तो
पता चलेगा।
कोई अर्थ नहीं
होता। आकाश से
कैसे तू
कहिएगा? कोई
संबंध नहीं
जुड़ता। इतना
विस्तार है, कोई सीमा
नहीं दिखाई
पडती, तू
का संबंध नहीं
जुड़ता। तू का
संबंध वहीं
जुड़ता है, जहां
आकार हो।
परमात्मा तो
आकाश से भी
विस्तीर्ण है।
आकाश भी जहां
एक घटना है।
इस परमात्मा
के साथ त्वम्
का कोई संबंध
नहीं जुड़ता है,
तू का कोई
संबंध नहीं
जुड़ता है।
इसलिए
भी नहीं जुड़ता
है कि
परमात्मा के
सामने खड़े
होकर मैं की
कोई याद नहीं
बच सकती है कि
मैं हूं। जिसे
अभी भी खयाल
है कि मैं हूं, वह
परमात्मा को
देख ही नहीं
पाएगा। मैं ही
तो पर्दा है, मैं ही तो
बाधा है। जब
तक मैं है, तब
तक मैं तू को
ही देखूंगा सब
जगह, तब तक
निराकार से
मेरा संबंध
नहीं होगा, आकार से ही
मेरा संबंध
होगा।
ध्यान
रहे, इसे
एक सूत्र, गहरा
सूत्र समझ लें
कि जो मैं हूं, जैसा मैं
हूं? जहा
मैं हूं उसी
तरह के संबंध
मेरे निर्मित
हो सकते हैं। अगर
मैं मानता हूं
मैं शरीर हूं, तो मेरे
संबंध केवल
उनसे ही हो
सकते हैं जो
शरीर हैं। अगर
मैं मानता हूं
कि मैं मन हूं, तो मेरे
संबंध उनसे
होंगे जो
मानते हैं कि
मन हैं। अगर मैं
मानता हूं कि
मैं चेतना हूं, तो मेरे
संबंध उनसे हो
सकेंगे जो
मानते हैं कि
वे चैतन्य हैं।
अगर मैं
परमात्मा से
संबंध जोड़ना
चाहता हूं तो
मुझे
परमात्मा की
तरह ही शून्य
और निराकार हो
जाना पड़ेगा
जहा मैं की
कोई ध्वनि भी
न उठती हो, क्योंकि
मैं आकार देता
है। वहा सब
शून्य होगा तो
ही मैं शून्य से
जुड़ पाऊंगा।
निराकार भीतर
मैं हो जाऊं, तो ही बाहर
के निराकार से
जुड़ पाऊंगा।
जिससे जुड़ना
हो, वैसे
ही हो जाने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं है।
जिसको खोजना
हो, वैसे
ही बन जाने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं है।
दो
शब्द : तत् और
त्वम्। जीव को
हम कहते हैं
त्वम्; उस चेतना को
जो शरीर में
घिरी है, सीमित
है। और उस
चेतना को हम
कहते हैं तत्,
जो सब
सीमाओं के पार
विस्तीर्ण है,
असीम है।
बूंद को हम
कहते हैं
त्वम् और सागर
को हम कहते हैं
तत्। अणु को
हम कहते हैं
त्वम् और
विराट को हम
कहते हैं तत्।
जो क्षुद्र है,
उसे हम कहते
हैं त्वम्; और जो विराट
है, उसे हम
कहते हैं तत्।
यह
तत् पर, वह पर, दैट
पर क्यों इतना
आग्रह
उपनिषदों का
है? आपसे
कोई अपेक्षा
उपनिषद की
नहीं है कि आप
परमात्मा की
पूजा में, प्रार्थना
में लग जाएं।
नहीं, उपनिषद
की अपेक्षा
आपसे कोई
परमात्मा की
भक्ति करने के
लिए नहीं है।
उपनिषद की
अपेक्षा तो
आपसे है कि आप
परमात्मा हो
जाएं।
इस
फर्क को थोड़ा
ठीक से समझ
लें।
उपनिषद
की
महत्वाकांक्षा
अंतिम है, चरम है, इससे बड़ी
कोई
महत्वाकांक्षा
जगत में कभी
पैदा नहीं हुई।
आप परमात्मा
की पूजा करें,
प्रार्थना
करें, भक्ति
करें, उपनिषद
इससे राजी नहीं
है। उपनिषद
कहता है, जब
तक परमात्मा
ही न हो जाएं, तब तक परम
सत्य हाथ नहीं
लगता है।
उपनिषद मानता
है कि
परमात्मा हुए
बिना नियति पूरी
नहीं होती है।
वह का मतलब है
कि हम कोई
पूजा का, कोई
भक्ति का
संबंध
परमात्मा से
जोड़ने नहीं जा
रहे हैं, वह
से संबंध जोड़ा
भी नहीं जा
सकता, हम
सब संबंध
छोड़ने जा रहे
हैं। हम अंत
में अपने को
भी छोड़ देंगे,
ताकि
संबंधित होने
वाला ही न रहे
और संबंध भी न
हो सके। और
अंततः हम वही
हो जाएंगे
जिसको हमने वह
कह कर पुकारा
है।
इसलिए
बात कठिन भी
हो जाती है, क्योंकि
धर्म से हमारी
धारणा आमतौर
से होती है
भक्ति की, धारणा
आमतौर से होती
है पूजा —प्रार्थना
की, स्तुति
की। उपनिषद की
धर्म से धारणा
पूजा, स्तुति,
प्रार्थना
की बिलकुल
नहीं है।
उपनिषद की
धारणा है
प्रत्येक
व्यक्ति में
छिपा हुआ वह, तत्—उसको
उघाड़ने, उदघाटित
करने की।
उपनिषद
धर्म का
विज्ञान है।
जैसे विज्ञान
पदार्थ के
भीतर छिपे हुए
सत्य को खोजता
है। जैसे
विज्ञान
पदार्थ को
तोड़ता है, अणु—अणु
को तोड़ता है
और उसके भीतर
छिपी हुई
ऊर्जा का पता
लगाता है, नियम
की खोज करता
है। किस नियम
के आधार पर
पदार्थ चल रहा
है, इसका
अन्वेषण करता
है —वैसे ही
उपनिषद चेतना
के अणु—अणु
में प्रवेश
करते हैं। और
चैतन्य का
क्या नियम है,
और चैतन्य
कैसे जगत में
गतिमान है, कैसे स्थिर
है, कैसे
छिपा है, कैसे
प्रकट है, इसकी
खोज करते हैं।
विज्ञान
की भाषा है
उपनिषद की
भाषा। अगर एक
वैज्ञानिक
हाइड्रोजन
खोज लेता है, या एक
वैज्ञानिक
एटामिक एनर्जी
खोज लेता है, तो वह ऐसा
नहीं कहता कि
एटामिक
एनर्जी मेरी
मां है कि
मेरा पिता है;
कोई संबंध
नहीं जोड़ता।
वह! एक नियम है
जो उसने खोज
लिया। उससे
कोई संबंध
बनाने की बात
नहीं है। उससे
कोई राग की
भाषा नहीं
निर्मित करता।
और विज्ञान
राग की भाषा
निर्मित करे
तो विज्ञान न
रह जाए। राग, संबंध, अवैज्ञानिक
है; विकृत
करेगा सत्य को।
इसलिए दूर, तटस्थ खड़े
रह कर संबंध
से विज्ञान के
सत्य को देखना
होगा
वैज्ञानिक को,
कोई निकट
जाकर अपना
आत्मीय संबंध
निर्मित नहीं
करना है।
उपनिषद
भी विज्ञान की
भाषा बोलते
हैं। कहते
हैं. वह। कोई
संबंध नहीं
जोड़ते। अपने
को अलग रख
लेते हैं, दूर हटा
लेते हैं। जब
उपनिषद कहता
है वह, तो
हमें पता भी
नहीं चलता कौन
कह रहा है। जब
कोई कहता है
पिता, परम
पिता है
परमात्मा, तो
हमें पता चलता
है कौन कह रहा
है। कोई, जिसकी
पिता की वासना
पूरी नहीं हुई।.
कोई, जिसका
पुत्रपन अधूरा
रह गया। कोई, जिसे मां—बाप
का प्यार न
मिला हो। कोई,
जिसे
ज्यादा प्यार
मिल गया हो और
अपच हो गया हो।
लेकिन कोई, जिसके संबंध
में पिता और
जिसके संबंध
में कहीं न
कहीं कोई अड़चन
हो गई है, वही
पुकार रहा है।
लेकिन जब कोई
कहता है वह, तो बोलने
वाले का कोई
पता नहीं चलता,
कौन पुकार
रहा है। उसके
बाबत कोई खबर
नहीं मिलती।
इशारा बड़ा
निवैंयक्तिक
है, और
इसलिए
बहुमूल्य है।
और
जैसे ही हम
कहते हैं वह, झगड़ा
समाप्त हो
जाता है। यह
बड़े मजे की
बात है। अगर
ईश्वर को हम
तत् कहें, तो
हिंदू —मुसलमान
लड़े कैसे? ईसाई
के तत् में और
हिंदू के तत्
में क्या फर्क
होगा? ईसाई
कहे परमात्मा
को वह, हिंदू
कहे परमात्मा
को वह, मुसलमान
कहे परमात्मा
को वह, तो
तीनों में कोई
भी झगड़ा नहीं
हो सकता। चाहे
वह के लिए कोई
भी शब्द उपयोग
किया जाए। तत्
कहे कोई, दैट
कहे कोई, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता, झगड़ा नहीं
हो सकता।
लेकिन
जब मुसलमान
कहता है उसे
कुछ, हिंदू
कहता है कुछ, ईसाई कहता
है कुछ; जब
पिता कहते हैं
वे, तो
पिता के साथ
ही उन सबकी
धारणाएं बदल
जाती हैं। यह
बहुत सोचने
जैसी बात है।
फ्रायड ने कहा
है कि जब भी
कोई परमात्मा
को पिता कहता
है, तो
थोड़ा विचार
करे भीतर, वह
अपने
परमात्मा की
धारणा में
अपने पिता की
तस्वीर को
पाएगा। पाएगा
ही! जब आप
कहेंगे मां, तो आपकी मां
उपस्थित हो
जाएगी। आपकी
मां की धारणा
क्या है? तो
थोड़ा—बहुत
परिष्कार
करके, शुद्ध
करके, साफ—सुथरा
करके, रंग—रोगन
करके, अपनी
ही मां की
धारणा को आप
परमात्मा बना
लेंगे।
दिदरो
ने, एक
फ्रेंच
विचारक ने
बहुत गहरी
मजाक की है।
उसने कहा है
कि अगर घोड़े
अपना
परमात्मा
बनाएं, तो
उनकी शकल
घोड़ों की ही
होगी—परमात्मा
की शकल! कोई
घोड़ा आदमी की
शकल का
परमात्मा
नहीं बना सकता,
यह पक्का है।
और यह हम
जानते हैं।
नीग्रो
परमात्मा को
बनाता है, तो
उसके बाल
घुंघराले
होते हैं, होने
वाले हैं।
उसके ओंठ
नीग्रो के ओंठ
होंगे। उसकी
शकल काली शकल
होगी, नीग्रो
की शकल होगी।
चीनी
परमात्मा की
शकल बनाते हैं,
तो गाल की
हड्डिया
निकली हुई
होंगी ही।
क्योंकि
परमात्मा, और
चीनी न हो, यह
भी हो सकता है!
हमारी
ही धारणा तो
हम आरोपित
करेंगे।
अंग्रेज कभी
कल्पना कर
सकते हैं काले
परमात्मा की!
कोई उपाय नहीं
है। हिंदुओं
ने परमात्मा
की जो कल्पना
की है, वह
आप देखते हैं!
कृष्ण हैं, राम हैं, सब
श्याम—वर्ण
हैं! श्याम —वर्ण
हिंदुओं के मन
में खूब
सौंदर्य का
प्रतीक रहा है।
रहेगा! नाक—नक्यग़
आप देखते हैं!
वह जो हिंदू
चित्त की धारणा
है सौंदर्य की,
वही राम और
कृण पर रहेगी।
होगी ही!
आपने
राम, कृष्ण,
क्राइस्ट, मोहम्मद, कभी खयाल
किया कि इनके
कान बहुत बड़े —बडे
नहीं हैं, छोटे
हैं। लेकिन
आपने बुद्ध, महावीर, इनकी
मूर्तियां
देखी हैं, कान
कंधे को छूते
हैं! क्योंकि
जैनों और
बौद्धों की
धारणा है कि
जो तीर्थंकर
होता है, उसका
कान कंधे को
छूता है। इसका
कुल कारण इतना
ही मालूम होता
है कि उनका जो
पहला
तीर्थंकर है
जैनों का, उसके
कान लंबे रहे
होंगे, कंधे
को छुए होंगे।
फिर वह धारणा
बन गई। और यह
मानने का कोई
कारण नहीं है
कि चौबीस ही
तीर्थंकरों
के कानों ने
कंधे को छुआ
होगा। लेकिन
एक दफा धारणा
बन जाए तो फिर
मूर्तियां धारणा
के अनुसार
बनती हैं, व्यक्तियों
के अनुसार
नहीं बनतीं।
इसलिए
अगर आप जैनों
की चौबीस
मुर्तियों को
देखें तो आप
बता नहीं सकते
कि कौन सी मूर्ति
महावीर की, कौन सी
पार्श्व की, कौन सी नेमी
की है। कोई
नहीं बता सकते,
जब तक कि
नीचे का आप
प्रतीक न
देखें कि
चिह्न किसका
बना है।
मुर्तियां सब
एक जैसी हैं।
एक
धारणा तय हो
जाती है, फिर उस धारण
के अनुसार हम
चलते और जीते
हैं। हमारे सब
परमात्मा
हमारी
धारणाओं से
निर्मित हो
जाते हैं।
लेकिन वह की
कोई धारणा
नहीं हो सकती।
इसलिए जिस दिन
दुनिया में
कभी सार्वभौम
धर्म का उदय
होगा, उस
दिन उपनिषद
पहली दफा ठीक
से समझे
जाएंगे। उस
दिन हम
समझेंगे कि
उपनिषदों ने
पहली दफा वैतानिक
भाषा का
प्रयोग किया
है और आदमी का
वह जो
गथोपोसेष्ट्रिक,
मनुष्य—केंद्रित
जो भाषा का
जाल है, उसको
बिलकुल छोड़
दिया है, उसको
हटा दिया है। 'इस
परमात्मा को
माया और जीव
को अविद्या—ऐसी
दो उपाधि हैं,
इनको त्याग
करने से अखंड
सच्चिदानंद
परम ब्रह्म का
अनुभव होता है।
'
यह
थोड़ा कठिन
सूत्र है।
परमात्मा को
माया की उपाधि
है और जीव को
अविद्या की।
उपाधि कहें, बीमारी
कहें।
परमात्मा को
माया की उपाधि
है...।
यह, इस
प्रत्यय में
प्रवेश करना
पड़ेगा। थोड़ा
जटिल है और
सूक्ष्म है।
और मनुष्य के
मन में अनेक—अनेक
ऊहापोह हुए
हैं। थोड़ा
ऊहापोह समझ
लें, फिर
इसमें उतर
जाएं।
एक
कठिनाई सदा से
रही है
चिंतनशील
आदमी के सामने
कि अगर हम
परमात्मा को
मानें तो जगत
को मानना बहुत
मुश्किल हो
जाता है, और अगर हम
परमात्मा को
मानें तो जगत
की व्याख्या
कठिन हो जाती 'है। अब जैसे,
अगर
परमात्मा ने
जगत बनाया तो
इतनी बीमारी,
इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतना पाप!
अगर परमात्मा
ने ही जगत
बनाया तो आदमी
को ऐसे अज्ञान
में डालने की
जरूरत क्या है?
जिम्मेवार
आदमी नहीं रह
जाता, जिम्मेवार
परमात्मा हो
जाता है।
अभी
एक ईसाई पादरी
मुझे मिलने आए
थे। मैंने
उनसे पूछा कि
किस काम में
लगे हैं? वे बोले कि
हम पाप से
लड़ने में लगे
हैं। मैंने
कहा, पाप!
यह पाप आया
कहां से? उन्होंने
कहा, यह
शैतान ने पैदा
किया है।
अभी
तक वह बिलकुल
आश्वस्त थे।
आमतौर से कोई
ज्यादा इन
बातों में
पूछताछ नहीं
करता, क्योंकि
ज्यादा
पूछताछ करने
में अड़चन आती
है।
मैंने
उनसे पूछा, और शैतान
को किसने
बनाया?
तब
वे जरा झिझके, क्योंकि
अब कठिन बात आ
गई। वे डरे भी
अगर कहें कि
ईश्वर ने
बनाया, तो
मामला बड़ा
खराब हो जाता
है। क्योंकि
ईश्वर शैतान
को बनाता है, शैतान पाप
को बनाता है, यह पूरा
गोरखधंधा
क्या है! और
ईश्वर को इतनी
भी बुद्धि
नहीं है कि
शैतान को न
बनाए! और जब ईश्वर
तक चूक गया
शैतान को
बनाने में, तो हम और आप
चूक जाएं पाप
करने में, तो
इसमें अड़चन
क्या है? और
फिर पाप शैतान
बनाता है और
शैतान को
ईश्वर बनाता
है और हम पाप
करते हैं, तो
जिम्मेवार
कौन है? हम
तो विक्टिम
हैं, हम तो
शिकार हो गए
मुफ्त! हमारा
इसमें कोई संबंध
ही नहीं है।
परमात्मा
हमको बनाता, परमात्मा
शैतान को
बनाता, शैतान
पाप को बनाता,
हम पाप करते
हैं। इस पूरे
वर्तुल में
हमारी
जिम्मेवारी
कहा है? न
हम परमात्मा
को बनाते, न
हम शैतान को
बनाते, न
हम पाप को
बनाते, हम
इन तीनों के
नाहक उपद्रव
को झेल रहे
हैं!
वे
थोड़े बेचैन हो
गए। कोई उत्तर
नहीं है
ईसाइयत के पास।
किसी के पास
उत्तर खोजना
मुश्किल है; क्योंकि
यह बड़ी अड़चन
की बात है। या
कुछ लोगों ने,
जैसे कि
पारसी मानते
हैं, जरथुस्त्र
की मान्यता है
कि ये दो तत्व
हैं—परमात्मा
और शैतान, ये
दो तत्व हैं।
किसी ने किसी
को बनाया नहीं,
दोनों
शाश्वत हैं।
तब और खतरा
खड़ा हो जाता
है! क्योंकि
अगर दोनों शाश्वत
हैं तो कोई भी
कभी जीत नहीं
सकता और कोई
कभी हार नहीं
सकता, शैतान
और परमात्मा
लड़ते रहेंगे।
आप कौन हैं? आप क्षेत्र
हैं, जहां
वे लड़ रहे हैं,
कुरुक्षेत्र!
और कोई जीत
नहीं सकता, कोई हार
नहीं सकता, क्योंकि
दोनों शाश्वत
हैं।
उनकी
भी कठिनाई है
कि अगर शाश्वत
न मानें और यह
कहें कि शैतान
हार सकता है, तो सवाल
उठता है कि
अभी तक हारा
क्यों नहीं? इतना जमाना
हो गया, अभी
तक हारा नहीं,
आगे क्या
पक्का भरोसा
है? हालत
तो उलटी दिखती
है कि शैतान
रोज जीत रहा है!
हारना तो बहुत
दूर है, हालत
यह दिखती है
कि शैतान रोज
जीत रहा है!
आप
जान कर हैरान
होंगे कि
अमरीका में
अभी उन्नीस सौ
सत्तर में एक
चर्च रजिस्टर
करवाया गया है।
केलिफोर्निया
में एक नया
चर्च रजिस्टर
करवाया गया है
—दि फर्स्ट
चर्च ऑफ डेविल, शैतान का
पहला मंदिर!
और उनके
अनुयायी हैं,
उनका आर्च
प्रीस्ट है।
और उन्होंने
अपनी बाइबिल
छापी है। और
उन्होंने कहा
है कि अब हम यह
घोषणा कर देते
हैं कि
पर्याप्त है
अब समय अनुभव
करने के लिए कि
परमात्मा हार
रहा है और
शैतान जीत रहा
है।
वे
भी बात तो ठीक
कहते हैं, अगर
दुनिया को
देखें तो उनकी
बात एकदम गलत
नहीं मालूम
पड़ती। दुनिया
को अगर देखें,
तो शैतान का
अनुयायी जीत
जाता है, ईश्वर
का अनुयायी
मात खा जाता
है। शैतान के
अनुयायी पदों
पर
प्रतिष्ठित
हो जाते हैं, ईश्वर का
अनुयायी इधर—उधर
भटकता रहता है।
कोशिश करके
देखें।
इसलिए
ईश्वर के
अनुयायी भी ट्रिक
समझ गए हैं; नाम
ईश्वर का लेते
हैं, काम
शैतान से
करवाते हैं!
वे समझ गए हैं
कि जीतता कौन
है, आखिरी
हिसाब में
शैतान जीतता
है। लेकिन मन
में डर भी बना
रहता है कि
कहीं भूल —चूक
कभी परमात्मा
जीत जाए, तो
राम—राम भी
जपते रहो!
दोनों नाव पर
सवार रहते हैं
सभी समझदार
लोग। जब जरूरत
होती है, शैतान
से काम लेते
हैं, और जब
कोई जरूरत
नहीं होती, फुर्सत का
समय होता है, तो माला फेर
लेते हैं!
इससे एक
समझौता बना
रहता है, और
एक बैलेंस। और
फिर आखिर में
क्या पता, कौन
जईतेगा!
जगत
अगर कोई खबर
देता है तो
शैतान के
जीतने की देता
है, परमात्मा
की जीत तो
कहीं दिखाई
नहीं पड़ती।
शुभ बढ़ता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता, अशुभ
कमता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता। प्रकाश
बढ़ता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता, अंधकार
कम होता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता।
तो
शाश्वत मानें
तो अड़चन है।
अगर ऐसा मानें
कि शाश्वत
नहीं है, शैतान अंतत:
हारेगा—बीच में
कितना ही जीते,
आखिर में तो
हारेगा ही।
लेकिन इसका
भरोसा क्या है?
इसकी
गारंटी क्या
है? और जो
बीच में जीतता
है, वह
आखिर में
क्यों हारेगा?
जो सदा
जीतता है, वह
आखिर में
अचानक हार
जाएगा! इसमें
कोई तुक और
संगति नहीं
मालूम पड़ती।
यह
प्रश्न सारी
मनुष्य—जाति
के साथ है।
अलग—अलग
धर्मों ने अलग—अलग
उपाय किए हैं
इस द्वंद्व को
सुलझाने के, लेकिन
कोई सुलझाव
होता नहीं। इस
सब में उपनिषद
की धारणा कम
से कम गलत
मालूम पड़ती है,
कम से कम
गलत, एकदम
सही नहीं।
लेकिन और सब
धारणाओं के
बीच अगर तौला
जाए तो उपनिषद
की बात सबसे
ज्यादा ठीक
मालूम पड़ती है;
बिलकुल ठीक
नहीं, सबसे
ज्यादा—तौल
में, रिलेटिव,
सापेक्ष।
उपनिषद
कहते हैं कि
संसार और
परमात्मा में
विरोध नहीं है, कोई
शैतान नहीं है,
और
परमात्मा के
विपरीत कोई
शक्ति नहीं है।
फिर यह संसार
कैसे है? तो
उपनिषद कहते
हैं कि
परमात्मा
अपने किसी विरोधी
को पैदा करके
संसार पैदा
नहीं कर रहा
है, परमात्मा
के होने में
ही, परमात्मा
की आभा में ही —जिसको
वे माया कहते
हैं; परमात्मा
की छाया में
ही—जिसको वे
माया कहते हैं,
संसार है।
जैसे कोई आदमी
खड़ा हो और
उसकी छाया बने।
छाया का कोई
अस्तित्व तो
नहीं होता —तलवार
से काटें तो
कट नहीं सकती,
आग से जलाएं
तो जल नहीं
सकती, पानी
में डुबाना
चाहें, डूब
नहीं सकती —फिर
भी छाया होती
है। अस्तित्व
नहीं होता, फिर भी छाया
तो होती है।
आपके पीछे
चलती है। दौड़े
तो आपके पीछे
दौड़ती है, रुके
तो रुक जाती
है।
उपनिषद
कहते हैं, जब भी कोई
चीज अस्तित्ववान
होती है, तो
उसकी छाया भी
होती है; शैडो।
यह जरा समझ
लें। और इस पर
विज्ञान और
मनोविशान की
आधुनिकतम खोजें
भी इसका साथ
देती हैं कि
इस बात में
सचाई है। कोई
भी चीज बिना
छाया के नहीं
होती। जो भी
चीज होती है, उसकी छाया
होती है। अगर
ब्रह्म है, तो उसकी छाया
होगी। और उस
छाया को वे
कहते हैं माया।
ब्रह्म
की छाया संसार
है।
जुंग
ने, एक
बड़े
मनोवैशानिक
ने इस सत्य पर
किसी दूसरे आयाम
से काफी खोज
की। और उसने
पाया कि हर
आदमी का एक
छाया
अस्तित्व भी
है —ए शैडो
पर्सनैलिटी।
आपको भी थोड़ा
समझ लेना
चाहिए; आपके
पास भी छाया अस्तित्व
है।
आप
भले आदमी हैं, क्रोध
नहीं करते; शांत हैं, धैर्यवान
हैं। लेकिन
अचानक एक दिन
कोई छोटी सी
बात! बात भी इतनी
बड़ी नहीं है
कि क्रोध किया
जाए और आप
आदमी ऐसे नहीं
हैं कि क्रोध
करते हों; बड़ी
बातों पर
क्रोध नहीं
करते, किसी
दिन एक छोटी
सी बात पर ऐसा क्रोध
उबल आता है कि
आपके भी समझ
के बाहर हो जाता
है कि क्या हो
रहा है कौन कर
रहा है! इसलिए
लोग कहते हैं
बाद में कि
मेरे बावजूद
हो गया, इन्सपाइट
ऑफ मी। मैं
कोई करना नहीं
चाहता था, हो
गया! क्यों? कैसे हो गया?
आप नहीं
करना चाहते थे,
फिर कैसे हो
गया?
कई
बार आप कोई
बात नहीं कहना
चाहते और मुंह
से निकल जाती
है! आप कहना ही
नहीं चाहते थे
और मुंह से
निकल गई! आप
पीछे पछताते
हैं कि मैंने
सोचा ही नहीं
था कि कहूंगा; तय ही कर
लिया था कि
नहीं कहने का
है; फिर
निकल गई!
जुंग
कहता है कि
आपका एक छाया
व्यक्तित्व
है, जिसमें
जो—जो आप
इनकार कर देते
हैं अपने भीतर,
वह इकट्ठा
होता जाता है।
कभी—कभी मौका
पाकर, कोई
कमजोर क्षण
पाकर, कोई
संधि पाकर, छाया
व्यक्तित्व
अपने को प्रकट
कर देता है।
इस
छाया
व्यक्तित्व
के कारण एक
बड़ी बीमारी तक
मनोविज्ञान
में अध्ययन की
जाती है। बड़ी
बीमारी है, सारी
दुनिया में
फैली हुई है।
उसे स्किट
पर्सनैलिटी—आदमी
दो टुकड़ों में
टूट जाता है।
कभी—कभी ऐसा
हो जाता है कि
आदमी में दो
व्यक्तित्व
हो जाते हैं।
ऐसा मालूम
पड़ता है कि एक
आदमी के भीतर
दो आदमी हैं।
कहता कुछ है, करता कुछ है,
कोई तालमेल
नहीं दिखाई
पड़ता। सुबह
कुछ है, सांझ
कुछ है। कोई
पक्का भरोसा
नहीं किया जा
सकता उसकी बात
का, उसके
होने का। वह
खुद भी डरता
है कि मैं क्या
कर रहा हूं, क्या कह रहा
हूं,
तालमेल नहीं
बैठता; जैसे
भीतर दो आदमी
हैं। कभी बड़ा शांत,
कभी बड़ा अशांत,
कभी मौन, कभी बड़ा
मुखर; दो
हिस्से हो गए
हैं।
ऐसा
भी हो जाता है, हजारों
पागलखानों
में हजारों
पागल बंद हैं,
उनकी
बीमारी यह है
कि उनका एक
व्यक्तित्व
अचानक खो गया
और वे दूसरे
व्यक्ति हो गए।
कल तक वे राम
थे, और
अचानक कोई
घटना घटी, एक्सीडेंट
हो गया, कार
से गिर पड़े, सिर में चोट
आ गई, और
रहीम हो गए! अब
वे याद ही
नहीं करते कि
राम थे कभी; अपने पिता
को नहीं
पहचानते; मां
को, पत्नी
को नहीं
पहचानते; अब
वे अपने को
रहीम बताते
हैं। और वे
सारा हिसाब ही
दूसरा बताते
हैं कि उनका कोई
संबंध ही इस
घर से नहीं है,
पहचान भी
नहीं है!
क्या
हो गया? इस
एक्सीडेंट
में उनका जो
प्रमुख
व्यक्तित्व
था वह आघात खा
गया और उनका
जो छाया
व्यक्तित्व था
वह सक्रिय हो
गया। इसलिए वह
दूसरा नाम और
सब उन्होंने
बदल लिया।
इस
छाया
व्यक्तित्व
को ठीक भी
किया जाता है—इलाज
से, शॉक
से। कभी—कभी
वह ठीक हो
जाता है तो वे
फिर राम हो गए,
फिर वे
दूसरे आदमी हो
गए; उनका
सब व्यवहार बदल
जाता है।
हर
आदमी के भीतर
छिपा हुआ यह
छाया
व्यक्तित्व है।
इसको अगर
उपनिषद की
भाषा में कहें
तो उपनिषद कहते
हैं, व्यक्ति
के साथ बंधी
है अविद्या, वह उसका
छाया
व्यक्तित्व
है; और
ब्रह्म के साथ
बंधी है माया,
वह उसका
छाया
व्यक्तित्व
है। ब्रह्म के
विपरीत नहीं
है यह माया, उसकी छाया
ही है; उसके
होने का
अनिवार्य अंग
है। यह संसार
ब्रह्म का
शत्रु नहीं है,
ब्रह्म के
होने का छाया
अंग है।
इसे
हम विज्ञान की
भाषा से समझें
तो शायद आसान
हो जाए, वैसे बात
आसान नहीं है।
अभी
उन्नीस सौ साठ
में एक आदमी
को नोबल
प्राइज मिली।
यह नोबल
प्राइज सबसे
अनूठी है। इस
आदमी को नोबल
प्राइज मिली
है एंटीमैटर
की खोज पर। यह
शब्द बड़ा अजीब
है,
एंटीमैटर।
इस आदमी की
खोज यह है कि
पदार्थ भी है
जगत में और
पदार्थ के
विपरीत भी एक
अपदार्थ है, एंटीमैटर
है।
और हर
चीज के विपरीत
चीजें हैं।
कोई चीज इस जगत
में बिना
विपरीत के
नहीं होती।
जैसे प्रकाश
है तो अंधेरा
है,
जीवन है, तो मृत्यु
है; गर्मी
है, तो
सर्दी है; स्त्री
है, तो
पुरुष है।
सारा जगत
दोहरी व्यवस्था
से जीता है।
क्या आप सोचते
हैं ऐसा कोई
जगत जिसमें
पुरुष न हों, स्त्रियां
ही स्त्रियां
हों? असंभव!
क्या आप सोचते
हैं ऐसा कोई
जगत कि पुरुष
ही पुरुष हों,
स्त्रियां
न हों? असंभव!
तालमेल इतना
गहरा है कि जब
बच्चे पैदा होते
हैं तो लड़के
एक सौ पंद्रह
पैदा होते हैं
और लड़कियां सौ
पैदा होती है,। लेकिन
पंद्रह साल की
उमर तक पंद्रह
लडके समाप्त
हो जाते हैं; सौ और सौ का
अनुपात बराबर
हो जाता है।
बायोलाजिस्ट
कहते हैं, चूंकि
लडके लड़कियों
से कमजोर हैं,
इसलिए
प्रकृति को
ज्यादा पैदा
करने पड़ते हैं,
ताकि
पंद्रह उमर
पाते -पाते
शादी की तो
समाप्त हो
जाएंगे।
यह जान
कर आप हैरान
होंगे कि
बायोलाजी के
हिसाब से
स्त्री
ताकतवर है, पुरुष
कमजोर है।
पुरुष की जो
ताकत है वह
मस्कुलर है, बड़ा पत्थर
उठा सकते हैं,
लेकिन बड़ा
दुख नहीं झेल
सकते। स्त्री
की जो ताकत है,
वह
सहनशीलता है।
इसलिए
स्त्रियां
बडी बीमारियां
झेल लेती हैं।
और जरूरी है, क्योंकि बड़ी,
सबसे बड़ी
बीमारी तो
प्रसव है, वह
झेल लेती हैं।
अगर पुरुष को
बच्चे पैदा
करने
पड़े-पुरुष कभी
की आत्महत्या कर
लें। इस जगत
में फिर पुरुष
खोजने से नहीं
मिलेगा! नौ
महीने एक
बच्चे को
ढोना! नौ दिन
तो कंधे पर
लेकर देखें!
नौ घंटे सही!
नौ मिनट सही!
कठिन मामला
है। और फिर
प्रसव की
पीडा! उतनी
पीड़ा झेलने के
योग्य
प्रकृति
स्त्री को
बनाती है।
मजबूत है, ताकतवर
है। उसकी ताकत
और ढंग की है।
लड़ नहीं सकती,
जोर से दौड़
नहीं सकती, इससे यह मत
समझना कमजोर
है। उसका आयाम
अलग है, शक्ति
का। सहन
क्षमता उसकी
ज्यादा है।
तो
पंद्रह वर्ष
की उम्र पर
बराबर हो जाते
हैं। सारी
दुनिया में यह
अनुपात बराबर
बना रहता है।
आप जान
कर हैरान
होंगे, जब
युद्ध होता है,
तो लड़के
ज्यादा कट
जाते हैं!
निश्चित ही, लड़के जाते
हैं युद्ध के
मैदान पर।
स्त्रियां बढ़
जाती हैं।
युद्ध के बाद
के दिनों में
लड़कों की
पैदावार बढ़
जाती है, लड़कियों
की कम हो जाती
है।
कौन
करता होगा यह
आयोजन? और यह
कैसे होता
होगा?
युद्ध
हो गया! दूसरा
महायुद्ध हुआ, पहला
महायुद्ध
हुआ। तो बड़ी
कठिनाई हुई कि
पहले
महायुद्ध में
जो लाखों लोग
मर गए-पुरुष।
युद्ध के बाद
के दो -तीन साल
में लड़कों का
अनुपात पैदावार
का बढ़ गया और
लड़कियों का
एकदम कम हो गया,
और अनुपात
फिर घिर हो
गया। तब चिंतन
शुरू हुआ।
दूसरे
महायुद्ध में
फिर वही हुआ।
तब ऐसा लगा कि
प्रकृति भीतर
से विपरीत में
संतुलन करती
रहती है।
आप ऐसा
मत सोचें कि
इस जमीन पर
कभी प्रकाश ही
प्रकाश रह
जाएगा, अंधेरा
नहीं होगा। यह
नहीं हो सकता।
अंधेरा और
प्रकाश
संतुलित
होंगे।
यह एंटीमैटर
की खोज इसी
आधार पर है कि
जगत विरोध का
संतुलन है। तो
पदार्थ है, तो
पदार्थ के
विपरीत क्या
है? वह
दिखाई नहीं
पडता हमें। और
फिजिसिस्ट की
जो धारणा है, वह बड़ी जटिल
है। जैसे एक पत्थर
रखा हुआ है, इस टेबल पर
एक पत्थर रखा
हुआ है। तो
पत्थर दिखाई
पड़ता है। हम पत्थर
उठा लें, तो फिर तो
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। आप
ऐसा कल्पना
करें कि एक
पत्थर रखा हुआ
है यहां, और
यहां एक छेद
रखा हुआ है—छेद
किया हुआ नहीं,
पत्थर की
जैसी खाली जगह।
पत्थर को हम
हटा लें, और
उतनी अगर जगह
खाली रह जाए
जहा पत्थर रखा
था, वह
खाली जगह रखी
हुई है पास में।
उसका नाम
एंटीमैटर है।
अभी तक उसको
किसी ने देखा
नहीं। नोबल
प्राइज मिल गई
है। और मिलने
का कारण यह है
कि उस आदमी को
गलत सिद्ध
नहीं किया जा
सकता, क्योंकि
जगत में जब
सभी चीजें
विपरीत से भरी
हैं, तो
पदार्थ के
होने के लिए
भी उसका
विपरीत होना
जरूरी है, जो
उसके पास ही
कहीं छिपा हो।
वह दिखे, न
दिखे, लेकिन
सैद्धांतिक
रूप से उसको
स्वीकार करने
के सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
माया, हम कहें
कि ब्रह्म की
छाया है।
ब्रह्म भी
नहीं हो सकता
बिना माया के,
माया भी
नहीं हो सकती
बिना ब्रह्म
के। और बड़े
विराट पैमाने
पर माया है
छाया ब्रह्म
की—कहें एंटी
ब्रह्म, तो
भी चलेगा—वैसे
ही व्यक्ति के
छोटे से तल पर
अविद्या है।
अविद्या
व्यक्ति के
पैमाने पर
माया है। आपके
आस—पास
अविद्या भी है।
अब क्या किया
जा सकता है? अविद्या है
व्यक्ति के
पास! अविद्या
को कैसे छोड़े?
और अगर यह
नियति है, अगर
यह विश्व की
व्यवस्था है
कि विपरीत
होगा ही, और
अगर ब्रह्म भी
अब तक माया को
नहीं छोड़ पाया
है, अगर
परम अस्तित्व
भी माया से
घिरा है, तो
हम छोटे—छोटे
क्षुद्र जन, छोटे—छोटे
व्यक्ति, हम
कैसे अविद्या
को छोड़
पाएंगे!
ब्रह्म नहीं छोड़
पाया माया को,
हम अविद्या
को कैसे छोड़
पाएंगे! और
अगर नहीं छोड़
पा सकते, तो
सारी धर्म की
चेष्टा
व्यर्थ हो
जाती है।
नहीं; छोड़ सकते
हैं। लेकिन
प्रक्रिया
समझ लें। हम
अविद्या को
तभी छोड़ सकते
हैं, जब हम
मिटने को राजी
हो जाएं। अगर
हम मिटने को
राजी नहीं हैं,
तो अविद्या
नहीं मिट सकती,
द्वंद्व
जारी रहेगा। या
तो दोनों
रहेंगे या
दोनों मिट
जाएंगे। अगर
मैं कहूं कि
मैं तो बचना
चाहता हूं और
अविद्या को
मिटाना चाहता
हूं, तो
फिर अविद्या
कभी नहीं
मिटेगी। वह
आपकी छाया है।
इसे ऐसा समझ
लें कि मैं
कहूं कि मैं
तो रहना चाहता
हूं मेरी छाया
मिटाना चाहता
हूं। वह कभी
नहीं मिटेगी।
एक ही रास्ता
है कि मैं मिट
जाऊं, तो
मेरी छाया मिट
जाए।
इसलिए
अहंकार को
मिटाने पर
इतना जोर है।
मैं मिट जाऊं
तो मेरी छाया
मिट जाए। और
जब मैं मिट
जाता हूं, मेरी
छाया मिट जाती
है, तो मैं
ब्रह्म से लीन
होकर एक हो
जाता हूं। मैं
की तरह नहीं, शून्य की
तरह ब्रह्म
में लीन हो
जाता हूं।
मेरी अविद्या
का क्या होता
होगा? जब
मैं मिटता हूं, मैं ब्रह्म
में लीन हो
जाता हूं मेरी
अविद्या माया
में लीन हो
जाती है। मैं
खो जाता हूं
ब्रह्म में, अविद्या खो
जाती है माया
में। जब भी
मैं निर्मित होता
हूं, मैं
निकलता हूं
ब्रह्म से, अविद्या
निकलती है
माया से।
अविद्या, हम
सबको माया का
मिला हुआ भाग,
छोटी —छोटी
जमीन माया की
हमको मिली हुई।
माया
दुख देती है, अविद्या
पीड़ा देती है,
इसलिए हम
छूटना चाहते
हैं। ब्रह्म
को पीड़ा नहीं
देती होगी? ब्रह्म नहीं
छूटना चाहता
होगा? ब्रह्म
से मतलब कोई
व्यक्ति नहीं,
यह विराट
अस्तित्व।
इसको पीड़ा
नहीं होती
होगी? यह
नहीं छूटना
चाहता होगा? हमें पीड़ा
होती है, हम
छूटना चाहते
हैं, ब्रह्म
नहीं छूटना
चाहता होगा?
ब्रह्म
के तल पर
समस्त
स्वीकार है।
ब्रह्म के तल
पर माया का
होना स्वीकृत
है। उसका कोई
इनकार नहीं है।
उसका कोई
इनकार नहीं है, इसलिए
कोई पीड़ा नहीं
है। हमारे तल
पर पीड़ा है।
अगर हम भी
स्वीकार कर
लें तो वहा भी
कोई पीड़ा नहीं
है।
मेरे
हाथ में चोट
लगे, तो
पीड़ा चोट से
नहीं होती, पीड़ा होती
है इस बात से
कि चोट नहीं
लगनी चाहिए थी।
अगर मैं स्वीकार
कर लूं कि चोट
लगनी ही चाहिए
थी, चोट
होनी ही चाहिए
थी, चोट
होती ही, चोट
होना नियति है,
फिर कोई
पीड़ा नहीं है।
पीड़ा है विरोध
में; पीड़ा
है अस्वीकार
में। तो हम
स्वीकार नहीं
कर पाते हैं, इसलिए पीड़ा
है। कोई हममें
स्वीकार कर
लेता है उसे—कोई
जनक, कोई
कृष्ण उसे
स्वीकार कर
लेता है, तो
यहीं, बिना
कुछ किए, अविद्या
माया बन जाती
है, कृष्ण
ब्रह्म हो
जाते हैं।
कृष्ण
स्वीकार कर
लेते हैं उसे।
कृष्ण
और बुद्ध, कृष्ण और
महावीर के
रास्ते में यह
फर्क है।
महावीर अपने
को मिटाते हैं
ताकि अविद्या
मिट जाए। कृष्ण
न अपने को
मिटाते हैं, न अविद्या
को; स्वीकार
कर लेते हैं।
महावीर अपने
को मिटा कर
अविद्या
मिटाते हैं, कृष्ण
स्वीकार करके
ब्रह्मरूप हो
जाते हैं—तत्क्षण।
क्योंकि जब
ब्रह्म माया
नहीं मिटा रहा
है और स्वीकार
कर रहा है, तो
कृष्ण भी
स्वीकार कर
लेते हैं।
इसलिए
कृष्ण को हमने
पूर्ण अवतार
कहा है। कोई
अस्वीकार
नहीं है वहां, इसलिए
पूर्णता है।
जरा सा भी
अस्वीकार हो,
अपूर्णता
हो जाती है।
इसलिए हमने
राम को कभी
पूर्ण अवतार
नहीं कहा। कह
नहीं सकते; क्योंकि राम
के मन में
बहुत
अस्वीकार हैं;
बड़ी
मर्यादाएं, सीमाओं की
धारणा है। एक
धोबी कह देता
है कि सीता पर
संदेह है, तो
राम यह भी
नहीं सह पाते।
एक धोबी! अब
कोई, नासमझों
की कोई कमी है
दुनिया में!
कोई भी कुछ कह
दे! और कोई राम
के वक्त के
धोबी बहुत
समझदार होते
होंगे, ऐसा
तो है नहीं
कुछ। पर एक
धोबी भी यह कह
दे कि सीता पर
संदेह है। और
अपनी स्त्री
से कह दे कि एक
रात घर के
बाहर रही, भीतर
न घुसने दूंगा।
मैं कोई राम
नहीं हूं,
क्या समझा है
तूने, कि
इतने दिन रावण
के घर सीता रह
गई और वह
सज्जन लेकर
वापस लौट आए
हैं।
मैं
कोई राम नहीं
हूं, यह
बात पीड़ा कर
गई; राम के
मन में काटा
चुभ गया। राम
के मन में
पूरी
स्वीकृति
नहीं है। वह
यह न देख पाए, यह न सुन पाए
कि मेरी नीति
पर, मेरे
चरित्र पर
लाछन हो जाए।
सीता को फेंक
सके, हटा
सके, लाछन
को स्वीकार न
कर सके। इसलिए
हिंदू मन ने
कभी राम को
पूर्ण अवतार
नहीं कहा। कहा,
मर्यादा
पुरुषोत्तम; मनुष्यों
में इससे बड़ी
मर्यादा का
आदमी नहीं हुआ।
लेकिन ध्यान
रहे, मनुष्यों
में! मर्यादा
पुरुषोत्तम!
लेकिन बस एक
सीमा है।
शुद्ध हैं
बहुत, और
शुद्ध का इतना
आग्रह है कि
अशुद्धि का डर
है।
लेकिन
कृष्ण और तरह
के आदमी हैं; बदनामी
का कोई डर ही
नहीं है! जैसे
बदनामी को निमंत्रण
है! जैसे
कितने बदनाम
हो सकें, इसकी
पूरी चेष्टा
है! क्या
मामला होगा?
कोई
अस्वीकृति
नहीं है। जो
भी है, ठीक
है। इसलिए गजब
की घटना घटी
कृष्ण के जीवन
में। ठीक वैसी
घटना घटी, जैसा
ब्रह्म और
माया की विराट
में घट रही है।
एक छोटी भूमि
पर जैसे विराट
छोटा होकर उतर
आया और आस—पास माया
की छोटी घटना
घटी। पूरी
स्वीकृति है।
जहां
अविद्या
स्वीकृत है, वहा नष्ट
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
जहा स्वीकृत
नहीं है, वहां
अविद्या नष्ट
करनी पड़ेगी।
लेकिन नष्ट
करने का एक ही
उपाय है, खुद
को नष्ट करना।
तो ही नष्ट हो
पाएगी। इसलिए
महावीर और
बुद्ध का
रास्ता कठिन
है, काटने
वाला है, अहंकार
को तोड़ने वाला
है, मिटाने
वाला है। एक—एक
जड़ से तोड़ेंगे,
मिटाएंगे, तब छाया
मिटेगी, छुटकारा
होगा। कृष्ण
का स्वीकार का
है।
कहीं
कोई तोड़ना
नहीं है।
लेकिन आसान वह
भी नहीं है।
लगता है आसान, शायद
गहरे खोजें तो
और भी ज्यादा
कठिन भी हो
सकता है।
क्योंकि मन
स्वीकार करने
को राजी नहीं
होता। मन कहता
है यह हो, यह
न हो। ऐसा हो, ऐसा न हो। मन
कहता ही चला
जाता है क्या
न हो, क्या
हो। मन बांटता
ही चला जाता
है। तो दो ही
मार्ग हैं जगत
में। एक मार्ग
है, दोनों
को मिटा दो।
और एक मार्ग
है, दोनों
से राजी हो
जाओ। दोनों
हालत में
छुटकारा हो
जाता है।
'इस परमात्मा
को माया और
जीव को
अविद्या—ऐसी
दो उपाधि हैं,
इनके त्याग
करने से अखंड
सच्चिदानंद
परम ब्रह्म ही
जान पड़ता है।'
इनके
त्याग करने
से! त्याग के
दो मार्ग
मैंने आपको
कहे। एक मार्ग
है मिट जाएं, अविद्या
मिट जाए। एक
मार्ग है.
राजी हो जाएं,
स्वीकार कर
लें, जो है
उसके बाहर
जाने की आकांक्षा
छोड़ दें, जैसा
है उसमें
रत्ती भर फर्क
करने का विचार
न करें। तो भी,
जो शेष रह
जाता है वह
सच्चिदानंद
ब्रह्म है।
आज
इतना ही
आपने राम, कृष्ण, क्राइस्ट, मोहम्मद, कभी खयाल किया कि इनके कान बहुत बड़े —बडे नहीं हैं, छोटे हैं। लेकिन आपने बुद्ध, महावीर, इनकी मूर्तियां देखी हैं, कान कंधे को छूते हैं! क्योंकि जैनों और बौद्धों की धारणा है कि जो तीर्थंकर होता है, उसका कान कंधे को छूता है। इसका कुल कारण इतना ही मालूम होता है कि उनका जो पहला तीर्थंकर है जैनों का, उसके कान लंबे रहे होंगे, कंधे को छुए होंगे। फिर वह धारणा बन गई। और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि चौबीस ही तीर्थंकरों के कानों ने कंधे को छुआ होगा। लेकिन एक दफा धारणा बन जाए तो फिर मूर्तियां धारणा के अनुसार बनती हैं, व्यक्तियों के अनुसार नहीं बनतीं।
जवाब देंहटाएंmaine to aaj tak mohhamad ki murti nahi dekhi. mohhamad ki murti ya photo banane walon ka sir kalam kra diya jata hai.