अध्याय
69
छद्मावरण
सैन्य
रणनीतिज्ञों
का यह सूत्र
है:
मैं
आक्रमण में
आगे होने का
साहस नहीं
करता,
बल्कि
आक्रांत होना
पसंद करता
हूं।
एक
इंच आगे बढ़ने
के बजाय
एक
फुट पीछे हटना
श्रेयस्कर
है।
उसका
अर्थ है:
सैन्यदल के
बिना कूच करना, आस्तीन
नहीं समेटना,
सीधे
हमलों से चोट
नहीं करना, बिना
हथियारों के
हथियार-बंद
रहना।
शत्रु
की शक्ति को
कम कर आंकने
से बड़ा अनर्थ
नहीं है;
शत्रु
की शक्ति का
अवमूल्यन
मेरे खजाने
नष्ट कर सकता
है;
इसलिए
जब दो समान बल
की सेनाएं
आमने-सामने
होती हैं,
तब
जो सदाशयी
है,
झुकता है, वह जयी होता
है।
मनुष्य
ने दो तरह के
जीवन-दर्शन
जाने हैं। एक
जीवन-दर्शन है
अहंकार का, और
एक जीवन-दर्शन
है निरहंकारिता
का।
अहंकार
का जीवन-दर्शन
अपने आप में
परिपूर्ण शास्त्र
है। और वैसे
ही निरहंकार
का जीवन-दर्शन
भी अपने आप
में परिपूर्ण
है। अहंकार के
जीवन-दर्शन की
अंतिम
उपलब्धि नरक
है--अपने
आस-पास दुख और
पीड़ा का एक
साम्राज्य।
और निरहंकार
जीवन-दर्शन की
अंतिम
उपलब्धि
मोक्ष है--मुक्ति, सच्चिदानंद।
लेकिन
अहंकार का
जीवन-दर्शन
आश्वासन देता
है मोक्ष तक
पहुंचाने का, और
अहंकार का
जीवन-दर्शन सब
तरह के
प्रलोभन देता
है। अहंकार के
द्वार पर भी
लिखा है
स्वर्ग, और
अहंकार के
आमंत्रण बड़े
ही भुलावेपूर्ण
हैं। वे ऐसे
ही हैं जैसे
कोई मछलियां
पकड़ने
जाता है तो
कांटे पर आटा
लगा देता है।
कोई मछलियों
को आटा खिलाने
के लिए नहीं; खिलाना तो
कांटा है।
लेकिन आटे के
बिना कांटा
मछलियों तक
पहुंचेगा
नहीं। अहंकार
बड़े प्रलोभन
देता है; दुख
के कांटे पर
बड़ा आटा लगा
देता है। आटे
के लोभ में ही
हम उसे निगल
जाते हैं। और
फिर बहुत देर
हो गई होती है;
फिर उसे थूक
देना संभव
नहीं। कांटा
छिद गया होता
है; घाव बन
गए होते हैं।
और फिर अहंकार
के कारण ही यह
कहना भी बहुत
मुश्किल होता
है कि हमने
भूल की।
यह
जिंदगी की बड़ी
गहरी बातों
में नहीं, छोटी-छोटी
बातों में भी
ऐसा है। तुम
कभी भोजन करते
समय गरम आलू
मुंह में रख
लेते हो, तो
भी उसे थूकते
नहीं। जलता है
मुंह, तो
भी अहंकार
कहता है अब सब
के सामने इसे
बाहर थूकना
कैसे संभव है।
मुंह जल जाए, लेकिन तुम
गरम आलू को भी
किसी तरह गटक
जाते हो। और
ऐसा कोई गरम
आलू के साथ ही
नहीं है। यह
तो तुम्हारे
जीवन का
दृष्टिकोण
है। तुमने जो
चुन लिया वह
गलत कैसे हो
सकता है? तुम
उसे थूक कर
कैसे स्वीकार
करोगे कि
तुमसे भूल हो
गई। तुमसे और
कहीं भूल होती
है? तो
जलता होता है
मुंह, तो
भी तुम चेहरे
पर प्रसन्नता
बनाए रखते हो।
कहानी
है कि मुल्ला नसरुद्दीन
की पत्नी
नाराज थी पति
पर। और जब पत्नियां
नाराज होती
हैं तो किसी न
किसी रूप में
प्रतिशोध
लेती हैं।
उसने सूप बनाया, और
इतना गरम कि
मुल्ला पीएगा
तो जलेगा।
लेकिन बातचीत
में भूल गई, और भूल ही गई
कि सूप दुश्मन
की तरह बनाया
है, और
मुल्ला को
जलाने को
बनाया है। तो
खुद बातचीत
में भूल कर
सूप को पीना
शुरू कर दिया।
जल गया कंठ।
आंख से आंसू
बहने लगे।
लेकिन अब यह
कहना कि इतना गरम
सूप पी गई है, और यह कहना
कि यह बनाया
था मुल्ला के
लिए, मुश्किल।
और यह स्वीकार
कर लेने पर तो
फिर मुल्ला पीएगा ही
नहीं। तो आंख
से आंसू बहते
रहे, लेकिन
वह सूप पीए
गई। मुल्ला ने
पूछा, क्या
बात है, आंख
से आंसू बह
रहे हैं? तो
उसने कहा कि
मुझे मेरी मां
की याद आ गई; ऐसा ही सूप
मेरी मां भी
बनाया करती
थी। और इसलिए
आंख से आंसू
बह रहे हैं।
और कोई बात
नहीं।
मुल्ला
ने भी सूप
चखा। वह तो
जलती आग था।
उसकी भी आंख
से आंसू बहने
लगे,
लेकिन वह भी
पीए चला गया।
पत्नी ने पूछा,
क्या बात है
मुल्ला, तुम्हारी
आंख से आंसू
क्यों बह रहे
हैं? तो
उसने कहा, मेरी
आंख से इसलिए
आंसू बह रहे
हैं कि
तुम्हारी मां
मर गई, और
तुम्हें
क्यों छोड़ गई!
तुम्हें भी ले
जाती तो अच्छा
होता।
जीवन
में रोज
छोटे-छोटे
कामों में भी
तुम्हारा मूल
जीवन-दर्शन
प्रकट होता
है। तुम भूल
स्वीकार नहीं
कर सकते।
अहंकार कभी
भूल स्वीकार
नहीं कर सकता।
क्योंकि अगर
भूल स्वीकार
की तो ज्यादा
देर न लगेगी
जब कि तुम्हें
यह भी पता चल
जाएगा कि
अहंकार तो महा
भूल है। इसलिए
अहंकार कोई
भूल स्वीकार
नहीं करता।
क्योंकि कहीं
से भी भूल
स्वीकार की गई
तो ज्यादा देर
न लगेगी कि
तुम पाओगे कि
अहंकार तो महा
भूल है। इसलिए
अहंकार भूलों
का निषेध करता
है,
इनकार करता
है; वह
उनको स्वीकार
नहीं करता।
और
अहंकार की बड़ी
से बड़ी भूल यह
है कि जो अंत
में दुख देता
है,
उसमें
प्रारंभ में
वह सुख देखता
है। जहां-जहां
प्रारंभ में
सुख दिखाई पड़े
वहां-वहां अंत
में तुम पाओगे
कि दुख
मिलेगा।
क्योंकि सुख
इतना सस्ता
नहीं हो सकता
कि प्रारंभ
में मिल जाए।
सुख तो यात्रा
की मंजिल की
सुवास है। वह
यात्रा का
पहला पड़ाव
नहीं है, न
द्वार है। वह
तो यात्रा का
अंत है। सुख
तो उपलब्धि
है। इसलिए
जहां-जहां
पहले सुख
मिलता है वहां-वहां
पीछे दुख
मिलेगा। और जहां-जहां
पहले दुख
दिखाई पड़ता है,
अगर तुमने
साहस रखा तो
तुम पाओगे कि
पीछे वहीं से
महा सुख के
द्वार खुलते
हैं।
दुख को
झेलने की
जिसकी क्षमता
है वही सुख को
पा सकेगा। दुख
को सुखपूर्वक
झेल लेने की
जिसकी सामर्थ्य
है महा सुख उस
पर बरसेगा।
लेकिन जिसने
कहा कि दुख को
मैं झेलना ही
नहीं चाहता, मैं
तो पहले ही
कदम पर सुख
चाहता हूं, वह आटे के
लोभ में बड़े
कांटों में
उलझ जाएगा।
तो
अहंकार का एक
जीवन-दर्शन है
जो शुरू में
सुख का आभास
खड़ा करता है, सब
तरफ फंदा है
वहां। वहां एक
दफा भीतर उतर
गए तो लौटना
कठिन होता
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का बेटा उससे
पूछ रहा था कि
अब मैं एक
लड़की के प्रेम
में पड़ रहा
हूं,
ऐसा मालूम
पड़ता है। क्या
आप उचित समझते
हैं कि अब मैं
विवाह कर लूं?
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, अभी
तुम प्रौढ़
नहीं हुए, विवाह
के योग्य नहीं
हुए। जब प्रौढ़
हो जाओ तब मुझसे
कहना। उस लड़के
ने पूछा, और
मैं यह भी जान
लूं कि प्रौढ़
होने का लक्षण
क्या है? यानि
कब मेरा प्रौढ़
होना सिद्ध
होगा? नसरुद्दीन ने कहा, जब
तुम विवाह का
खयाल ही भूल
जाओगे तभी तुम
प्रौढ़ हुए। जब
तक तुम्हारे
मन में खयाल
उठता रहे कि
विवाह करना है
तब तक समझना
अभी बचकाने
हो, विवाह
के योग्य
नहीं। और जब
तुम्हें समझ
में आ जाए कि विवाह
बेकार है तब
तुम प्रौढ़ हो
गए। तब अगर तुम्हें
विवाह करना हो
तो मुझसे
कहना।
यह
कठिन शर्त
मालूम पड़ती है, लेकिन
जीवन की भी
यही शर्त है।
तुम जब तक सुख
के लिए बहुत
आतुर हो तब तक
तुम प्रौढ़
नहीं हुए, और
तुम दुख में
फंसोगे।
क्योंकि हर
जगह दुख ने
छद्म-आवरण बना
रखा है सुख
का। नहीं तो
दुख को कौन चुनेगा,
सोचो! कांटे
को कौन मछली चुनेगी? कांटे को
चुनने को तो
कोई भी राजी
नहीं है। दुख
को तो कोई भी न चुनेगा इस
संसार में, अगर दुख पर
दुख ही लिखा
हो। लेकिन सब
जगह दुख पर
सुख लिखा है, स्वागतम बने
हैं; द्वार
पर ही
बैंड-बाजे बज
रहे हैं कि आओ,
स्वागत है!
और
तुम्हारा
अहंकार ऐसा है
कि तुम एक बार
द्वार में
प्रविष्ट हो
जाओ तो लौटना
तुम्हें अपने ही
कारण मुश्किल
हो जाएगा।
क्योंकि
दुनिया में
भद्द होगी; लोग
हंसेंगे कि
तुम गए और
वापस लौट आए! फिर
तो आगे ही आगे
तुम चलते जाते
हो। पीछे लौटना
अहंकार को
बहुत मुश्किल
है। इसी तरह
तो तुम संसार
में गहरे उतर
गए हो। एक दुख
को छोड़ते हो, दूसरा चुन
लेते हो। और
भी गहन दुख
में पड़ते जाते
हो। और अगर
कोई आदमी
तुम्हारे बीच
से इस सबको
छोड़ कर जाता
है तो तुम
कहते हो: एस्केपिस्ट
है, पलायनवादी;
देखो भाग
खड़ा हुआ। तो
तुम दूसरों को
भी नहीं भागने
देते। घर में
आग लगी हो और
अगर कोई घर के
बाहर जाता है
तो तुम कहते
हो: एस्केपिस्ट
है, पलायनवादी
है, भगोड़ा है; देखो
भाग रहा है।
तो न
केवल तुम अपने
को रोकते हो, अहंकारियों
की भीड़ दूसरों
को भी निकलने
नहीं देती।
समझ में भी
किसी को आ जाए
तो भी तुम सब
तरह की बाधा
खड़ी करते हो
कि वह निकल न
जाए। क्योंकि
न केवल उसके
भागने से यह
सिद्ध होगा कि
उसने जान लिया
जहां दुख था वहां
सुख की
भ्रांति हुई
थी, उसके
भागने से
तुम्हें अपने
पैरों पर भी
अविश्वास आ
जाएगा। और एक
के भागने से
अनेक को यह
हिम्मत आनी
शुरू हो जाएगी
कि हम भी भाग
जाएं। इसलिए
तुम एक को भी
भागने नहीं
देते।
लेकिन
इस सूत्र को
खयाल में रख
लेना:
जहां-जहां तुम
सुख पहले चरण
में पाओ, समझ
लेना कि धोखा
है। क्योंकि
पहले चरण में
अगर सुख मिलता
होता तो सारा
संसार कभी का
सुखी हो गया
होता। सुख तो
अंतिम चरण की
उपलब्धि है।
सुख तो
पुरस्कार है।
सुख तो पूरी
जीवन-यात्रा
का निचोड़
है। सुख तो
सार है सारे
अनुभवों का।
सुख खुद कोई
अनुभव नहीं है;
सुख तो सारे
अनुभवों के
बीच से गुजर
कर तुम्हें जो
प्रौढ़ता
उपलब्ध होती
है, जो जागृति
आती है, उस
जागृति की
छाया है। सुख
अपने आप में
कोई अनुभव
नहीं है; सुख
जागे हुए आदमी
की प्रतीति
है। और जागना
तो मंजिल पर
होगा, अंत
में होगा।
प्रथम तो तुम
कैसे जाग
सकोगे?
इसलिए
जहां-जहां सुख
हो वहां-वहां
सावधान हो जाना।
और अहंकार की
यह तरकीब अगर
तुम्हारी समझ
में आ जाए तो
बहुत कुछ साफ
हो जाएगा। अहंकार
की यह रणनीति
है। इसी तरह
उसने तुम्हें फंसाया
है--व्यक्ति
को भी, समाज को
भी, राष्ट्रों
को भी, सभ्यताओं
को भी। इस
अहंकार की
रणनीति के कुछ
सूत्र समझ
लेने चाहिए तो
लाओत्से आसान
हो जाएगा।
लाओत्से
अहंकार की
रणनीति के
बिलकुल
विपरीत है।
लेकिन
दुनिया में दो
आदमी हुए हैं
जो अहंकार की
रणनीति के बड़े
से बड़े
प्रस्तोता
हैं। एक आदमी
हुआ पश्चिम
में,
मैक्यावेली;
और एक आदमी
हुआ भारत में,
चाणक्य।
उनके नाम ही
अलग हैं, उनकी
बुद्धि
बिलकुल समान
है।
मैक्यावेली
कहता है कि
सुरक्षा का
सबसे बड़ा उपाय
आक्रमण है। दि
ग्रेटेस्ट
डिफेंस इज़
टु अटैक।
और कभी दुश्मन
को मौका मत दो
कि वह हमला
तुम पर करे।
क्योंकि वह तो
हार की शुरुआत
हो गई। हमेशा
आक्रमण तुम
करो; आक्रांत
दूसरे को होने
दो। एक बार
दूसरे ने हमला
कर दिया तो
तुम्हारी हार
तो शुरू हो
गई। आधे तो
तुम हार ही
गए। कभी मौका
मत दो दूसरे
को आक्रमण
करने का। इसके
पहले कि कोई
आक्रमण करे
तुम आक्रमण कर
दो। तो
तुम्हारी जीत
सुनिश्चित होती
है।
क्यों
ऐसा होता होगा? क्योंकि
अहंकार के
भीतर बड़ा भय
भरा हुआ है।
अहंकार
बिलकुल रेत का
भवन है। या तो
तुम दूसरे को
डरा दो, अन्यथा
दूसरा
तुम्हें डरा
देगा। और एक
बार तुम डर गए
तो सम्हलना
मुश्किल हो
जाएगा।
क्योंकि
अहंकार का भवन
आश्वस्त नहीं
है। भीतर कोई
आश्वासन नहीं
है; भीतर
तो तुम कंप ही
रहे हो। और एक
बार अगर दूसरे
ने हमला कर
दिया और
कंपकंपी
तुम्हारी
बाहर आ गई, तो
न केवल तुम कंपोगे,
दूसरे भी
जान लेंगे कि
तुम कंप रहे
हो। और दूसरों
की आंखों में
देख कर अपना
कंपन तुम इतने
कंप जाओगे कि
तुम गिर
जाओगे। तो
अच्छा यह है
कि तुम दूसरे
पर पहले हमला
कर दो, ताकि
उसकी कंपकंपी
बाहर आ जाए, उसका भय
बाहर आ जाए, वह घबड़ा
जाए। वह अगर
घबड़ा गया तो
हार हो गई।
अहंकार
के भीतर भय
छिपा है। सभी
अहंकारों के भीतर
भय छिपा है।
और भय के
छिपने का कारण
है। क्योंकि
अहंकार की
मृत्यु होने
वाली है।
अहंकार
वास्तविक
नहीं है; इंद्रधनुष
जैसा है; क्षण
भर का खेल है।
क्षण भर का
संयोग है कि
आकाश में
बदलियों में
पानी के कण
लटके हैं और
सूरज की
किरणें उन
पानी के कणों
से गुजर रही
हैं। यह क्षण
भर का संयोग
है। थोड़ी ही
देर में सूरज
नीचे उतर
जाएगा, किरणों
और पानी की
बूंदों का कोण
टूट जाएगा। इंद्रधनुष
विदा हो
जाएगा। या
थोड़ी ही देर
में बूंदें
बरस जाएंगी, बादल खाली
हो जाएगा।
किरणें
गुजरती
रहेंगी, लेकिन
इंद्रधनुष न
बनेगा।
इंद्रधनुष
जैसा है
अहंकार।
संयोग है, सत्य
नहीं है। कुछ
चीजों के जोड़
से निर्मित है;
जोड़ के
टूटते ही खो
जाएगा। इसलिए
अहंकार सदा डरा
हुआ है।
अगर
कहीं
इंद्रधनुष
में भी कोई
चेतना होती तो
तुम सोच सकते
हो,
इंद्रधनुष
कंपता ही
रहता--अब गया, तब गया। पल
का भरोसा नहीं
है। ऐसी ही
दशा अहंकार की
है। शरीर, मन
और आत्मा के
एक खास कोण पर
मिलने से
अहंकार निर्मित
होता है। वह
कोण टूट जाए, अहंकार
विलीन हो जाता
है। ध्यान की
प्रक्रिया
में हम उस कोण
को तोड़ने का
ही प्रयोग
करते हैं कि
वह कोण टूट
जाए। एक दफा
कोण टूटा कि
तुम अचानक जाग
कर देखते हो, तुम हो ही
नहीं।
तुम्हारे
भीतर कुछ और
है जिसको
तुमने पहचाना
भी न था कभी।
परमात्मा है,
तुम नहीं
हो।
पर कोण
टूटे तो
अहंकार का
इंद्रधनुष
विसर्जित हो
जाता है, कोण
बना रहे तो
चलता रहता है।
और तुम्हारी
पूरी चेष्टा
कोण को
सम्हालने की
रहती है कि
जितना बैंक
बैलेंस है वह
कम न हो जाए, जितनी बाजार
में
प्रतिष्ठा है
वह नीचे न गिर
जाए। येन केन,
कैसे भी तुम
अपनी
प्रतिष्ठा को
बनाए रखते हो।
घर सब खोखला
हो जाता है तो
भी बाहर तुम
अपनी अकड़ को
कायम रखते हो।
भीतर दिवाला
निकल जाता है तो
भी बाहर तुम
रईस की तरह ही
चलते हो।
सम्हालना है
किसी तरह कोण
को; जरा भी
हिल जाए कोण, टूट जाएगा।
सब तरह से तुम
सम्हालते हो।
सब तरह से
धोखा देते हो।
दूसरों को
देते हो वह तो
ठीक है, लेकिन
वह गौण है।
मूलतः अपने को
देते हो।
अहंकार
एक संयोग है
और आत्मा एक
सत्य है।
संयोग के कारण
तुम आत्मा को
भूल जाते हो।
इंद्रधनुष
में रंग बहुत
सुंदर हैं; आकाश
तो खाली है।
कहना चाहिए
आकाश में कोई
रंग नहीं है।
आकाश तो
रंगहीन है, निर्गुण है।
आकाश को कौन
देखता है? इंद्रधनुष
होता है तो
तुम आकाश की
तरफ आंख उठाते
हो। और
इंद्रधनुष
में बड़ा रस
मालूम पड़ता
है। सपने जैसा
है, लेकिन
बड़ा रंगीन है।
और अहंकार भी
सपने जैसा है,
बड़ा रंगीन
है। आत्मा
निर्जन है, शून्य है, निराकार है;
वहां कोई
रंग नहीं है, कोई आकृति
नहीं है, कोई
परिभाषा नहीं
है। सूने आकाश
की भांति है। तो
इंद्रधनुष को
तुम सम्हालते
हो। जो नहीं
है उसे
सम्हालते हो,
और जो है
उसे भूल जाते
हो। आंखें गड़
जाती हैं क्षणभंगुर
पर, और
शाश्वत का
विसर्जन हो
जाता है, विस्मरण
हो जाता है।
इसलिए
जितने भी
अहंकार के
समर्थक हैं, चाणक्य,
मैक्यावेली,
वे कहते हैं,
दूसरे पर
हमला कर देना
पहले, नहीं
तो तुम्हारी
हार शुरू हो
गई। दूसरे को
पहले भयभीत कर
देना, नहीं
तो वह तुम्हें
भयभीत कर
देगा। इसके
पहले कि कोई
तुम्हें कंपाए,
तुम दूसरे
को कंपा देना।
तुम इतना कंपा
देना कि वह
खुद को
सम्हालने में
लग जाए और
तुम्हें कंपाने
की क्षमता न
रह जाए।
लाओत्से
इनसे बिलकुल
विपरीत है।
लाओत्से की
रणनीति का
पहला सूत्र है
कि "मैं
आक्रमण में
आगे होने का
साहस नहीं
करता, बल्कि
आक्रांत होना
पसंद करता
हूं। एक इंच
आगे बढ़ने की
बजाय एक फुट
पीछे हटना
श्रेयस्कर है।'
दुनिया
का कौन
राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ,
रणनीतिज्ञ लाओत्से से
राजी होगा? लेकिन बुद्ध,
कृष्ण और
क्राइस्ट
राजी होंगे।
क्योंकि
लाओत्से यह कह
रहा है कि
आक्रमण करने
में तो
तुम्हारा अहंकार
मजबूत ही होगा,
आक्रांत
होने में शायद
टूट जाए।
आक्रमण में तो
तुम दूसरे का
शायद तोड़ दो, लेकिन उससे
तुम्हें क्या
लाभ है? आक्रांत
होने में
तुम्हारा टूट
जाएगा। और इससे
बड़ी क्या विजय
हो सकती है कि
अहंकार टूट
जाए! तुम कंप
जाओ तुम्हारी
जड़ों से, इससे
ज्यादा
श्रेयस्कर
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
उस कंपने में
ही शायद
तुम्हें
इंद्रधनुष की
तरफ से ध्यान
हट जाए, और
आत्मा की तरफ,
आकाश की तरफ
ध्यान उठ जाए।
एक बात
तो निश्चित है
कि जैसे तुम
हो अगर तुम
ऐसे ही सम्हले
रहे तो तुम
परमात्मा को
कभी न पा
सकोगे। तुम्हें
हिल जाना तो
जरूरी है। आए
एक तूफान और
गिरा दे
तुम्हारे भवन
को;
आए आंधी और
हिला दे
तुम्हें जड़ों
से; आए
भयंकर
झंझावात, टुकड़े-टुकड़े
हो जाए
तुम्हारा
इंद्रधनुष, तो ही शायद
तुम जाग सको।
और लाओत्से
कहता है कि
तुम आक्रमण मत
करना, तुम
आक्रांत
होना। दूसरा
आक्रमण करे, ठीक; तुम
आक्रमण मत
करना।
क्योंकि
आक्रांत होने
की दशा में ही
तुम जाग सकते
हो। गहन दुख
में ही तुम
जागोगे। सुख
में तो तुम
नींद से भर
जाते हो। सुख
में तो तुम
सम्मोहित हो
जाते हो। विजय
जब हो रही हो
तब कभी कोई
जागा है? जब
तुम जीत रहे
हो संसार में
तब कभी
संन्यास का
खयाल उठा है? जब तुम्हारा
भवन बड़ा होता
जाता है और धन
का अंबार लगता
जाता है तब
तुमने कभी
बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट
के संबंध में
सोचा है? जब
सब तरफ सुख
है--लगता है कि
सुख है--जब सब
तरफ जीत है, जब सब तरफ
सफलता मिलती
है, तब
तुम्हें कभी
परमात्मा का
स्मरण आता है?
नहीं
आता। कोई कारण
नहीं है। तुम
खुद ही काफी मालूम
पड़ते हो।
परमात्मा की
कोई जरूरत
नहीं है। और
सब चीजें इतनी
ठीक जा रही
हैं कि यह
खयाल ही नहीं
आता कि जिस
नाव में हम
यात्रा कर रहे
हैं वह कागज
की है। यात्रा
सब ठीक चल रही
है तो कागज की
नाव कैसे हो
सकती है!
डूबते
हो,
तभी पता
चलता है कि
नाव कागज की
थी। मिटते हो,
गिरते हो, तभी पता
चलता है कि
जिसका सहारा
लिया था वह कोई
सहारा न था।
जब आक्रांत
होते हो सब
तरफ से, सब
तरफ से
तुम्हारे
संसार का दिवाला
निकल जाता है,
बैंक्रप्ट हो जाते हो, तभी तुम्हें
याद आती है कि
जिन चीजों पर
भरोसा किया था
वे भरोसे
योग्य ही न
थीं; जिन-जिन
का सहारा लिया
था वे सहारे न
थे, सहारे
की
भ्रांतियां
थे; और
जिसको अपना
जाना था वह
अपना न था। वे
सब किसी और
बात के कारण
संगी-साथी थे;
दुख में सब
छोड़ जाते हैं।
सब प्रेम
खोखला मालूम
होने लगता है।
सब आसक्ति के
पीछे कुछ और
दिखाई पड़ता
है। लोभ होगा,
धन होगा--और
हजार बातें
होंगी--लेकिन
प्रेम नहीं।
जब तुम सब
भांति
आक्रांत और
टूट कर गिर गए होते
हो तब
तुम्हारे पास
कोई होता है
तो ही पता
चलता है कि
कोई प्रेम था,
कोई
संगी-साथी था;
अन्यथा कुछ
पता नहीं
चलता।
बौद्ध
कथा है, एक
बौद्ध भिक्षु
गांव से
गुजरता है। एक
वेश्या ने
देखा; मोहित
हो गई।
संन्यासी और
वेश्या दो छोर
हैं विपरीत, और विपरीत
छोरों में बड़ा
आकर्षण होता
है। वेश्या को
साधारण
सांसारिक
व्यक्ति बहुत
आकर्षित नहीं
करता; क्योंकि
वह तो उसके
पैर दबाता
रहता है, वह
तो सदा दरवाजे
पर खड़ा रहता
है कि कब बुला
लो। वेश्या को
अगर आकर्षण
मालूम होता है
तो संन्यासी
में, जो कि
ऐसे चलता है
रास्ते पर
जैसे उसने उसे
देखा ही नहीं।
जहां उसका
सौंदर्य
ठुकरा दिया जाता
है, जहां उसके
सौंदर्य की
उपेक्षा होती
है, वहीं
प्रबल आकर्षण
होता है, वहीं
पुकार उठती
है--चुनौती!
वेश्या बड़ी
सुंदरी थी।
उन
दिनों भारत
में एक रिवाज
था कि गांव की
या नगर की जो
सबसे सुंदर
युवती होती
उसका विवाह नहीं
करते थे, क्योंकि
वह ज्यादती
होगी गांव के
साथ। कोई एक उसका
मालिक हो
जाए--बड़े
समाजवादी लोग
थे--इतनी सुंदर
स्त्री का एक
मालिक हो जाए
तो सारा गांव जलेगा।
इस झगड़े को
खड़ा करना ठीक
नहीं। इसलिए सबसे
सुंदर लड़की को
नगरवधू
की तरह घोषित
कर देते थे कि
वह सारे गांव
की पत्नी है।
वेश्या का वही
मतलब। और उसका
बड़ा सम्मान था,
बड़ा आदर था।
क्योंकि
सम्राट भी
उसके द्वार पर
आते थे। वह नगरवधू
थी। आम्रपाली
का तुमने नाम
सुना, वैसी
ही नगरवधू
वह भी थी।
भिक्षु
वहां से गुजर
गया। वह द्वार
पर खड़ी थी।
भिक्षु की आंख
भी न उठी; वह
कहीं और लीन
था, किसी
और आयाम में
था, किसी
और जगत में
था। वह भागी, भिक्षु को
रोका। रोक
लिया तो
भिक्षु रुक
गया, लेकिन
उसके चेहरे पर
कोई हवा का
झोंका भी न आया,
आंख में कोई
वासना की
दीप्ति न आई।
वह वैसे ही खड़ा
रहा। उस
वेश्या ने कहा,
क्या मेरा
निमंत्रण
स्वीकार
करोगे कि एक
रात मेरे घर
रुक जाओ? उस
भिक्षु ने कहा,
आऊंगा जरूर, लेकिन
तब जब जरूरत
होगी। वेश्या
तो कुछ समझी
नहीं, वह
समझी कि शायद
भिक्षु को अभी
जरूरत नहीं
है। भिक्षु
कुछ और ही बात
कह रहा था। और
ठीक ही है, भिक्षु
और वेश्या की
भाषा इतनी अलग
कि समझ मुश्किल।
दुखी, पराजित,
क्योंकि यह
पहला पुरुष था
जिसने
निमंत्रण ठुकराया
था, वह लौट
गई। लेकिन
जीवन भर यह
याद कसकती
रही, घाव
की तरह पीड़ा
बनी रही।
उम्र
ढल गई। कितनी
देर लगती है
उम्र के ढलने
में?
सूरज जब उग
आता है तो
डूबने में देर
कितनी? जवानी
आ जाती है तो
कितनी देर रुकेगी?
वह बुढ़ापे
का पहला चरण
है। बुढ़ापे ने
द्वार पर
दस्तक दे दी
जवानी के साथ
ही। जल्दी ही
शरीर चुक गया;
वह स्त्री कोढ़ग्रस्त
हो गई। उसका
सारा शरीर
भयानक रोग से
भर गया। उसके
शरीर से बदबू
आने लगी।
जिन्होंने
उसके द्वार पर
नाक रगड़ी
थी, जो
उसके द्वार पर
खड़े
प्रतीक्षा
करते थे क्यू लगा
कर, उन्होंने
ही उसे निकाल
गांव के बाहर
फेंक दिया।
दुर्गंध से
भरी स्त्री की
कौन फिकर करता
है? सौंदर्य
भयानक
कुरूपता में
बदल गया। जिस
शरीर में
स्वर्ण काया
मालूम होती थी,
वह काया
देखने योग्य न
रही, वीभत्स
हो गई। आंख पड़
जाए तो दो-चार
दिन ग्लानि
होती रहे, वमन
की इच्छा हो।
गांव के बाहर
फेंकने के
सिवाय कोई
उपाय न रहा।
अमावस की रात;
वह प्यासी
गांव के बाहर
मर रही है। वह
पानी के लिए
पुकारती है।
किसी का हाथ
बढ़ता है
अंधेरे में और
उसे पानी
पिलाता है। और
वह पूछती है, तुम कौन हो?
बीस
साल पहले की
बात,
उस भिक्षु
ने कहा, मैं
वही भिक्षु
हूं। मैंने
कहा था, जब
जरूरत होगी तब
मैं आ जाऊंगा।
और मुझे पता
था कि यह
जरूरत जल्दी
ही आएगी। क्योंकि
कितने दिन तक
शरीर को भोगा
जा सकता है? और कितने
दिन तक शरीर
को बेचा जा
सकता है? आज
तुझे जरूरत है,
मैं हाजिर
हूं।
आज
वेश्या को समझ
में आया कि
जरूरत का मतलब
भिक्षु की
जरूरत न थी।
भिक्षु तो वही
है जिसकी कोई
जरूरत नहीं
है। लेकिन इस
क्षण में ही, उस
भिक्षु ने कहा,
अब तू पहचान
सकेगी कि तुझे
कौन प्रेम
करता है। वे
जो तेरे द्वार
पर इकट्ठे
होते रहे थे
उनका तुझसे
कोई भी
प्रयोजन न था;
वे अपने को
ही प्रेम करते
थे। तुझे
भोगते थे पदार्थ
की तरह, वस्तु
की तरह। उन्होंने
तेरी आत्मा को
कभी कोई
सम्मान न दिया
था। और प्रेम
तो तभी पैदा
होता है जब
तुम किसी की
आत्मा को
सम्मान देते
हो।
लेकिन
वैसा प्रेम तो
पैदा कैसे
होगा? तुमने
अभी अपनी ही
आत्मा को
सम्मान नहीं
दिया तो तुम
दूसरे की
आत्मा को तो पहचानोगे
कैसे? सम्मान
कैसे दोगे? तो प्रेम तो
इस जगत में
कभी-कभी घटता
है जब दो आत्माएं
एक-दूसरे को
पहचानती हैं।
यहां तो अपनी
ही आत्मा को
पहचानना इतना
दूभर है, इतना
मुश्किल है, कि कठिन है
यह संयोग कि
दो आत्माएं
एक-दूसरे को
पहचान लें।
मनुष्य
जान ही नहीं
पाता सफलता
में कि कभी
जरूरत भी
पड़ेगी। जब सब
ठीक चल रहा
होता है, सब
तार-धुन बंधी
होती है, जीवन
की सीढ़ियों पर
तुम रोज आगे
बढ़ते जाते हो,
तब तुम्हें
खयाल भी नहीं
होता कि ह्रास
भी होता है
जीवन में।
विकास ही नहीं,
ह्रास भी।
इवोल्यूशन ही
नहीं होती
दुनिया में, इनवोल्यूशन भी होती है।
और तभी तो
वर्तुल पूरा
होता है। बढ़ते
जाते हो, बढ़ते
जाते हो। सदा
नहीं बढ़ते
जाओगे। बढ़ने
में से ही
घटना शुरू हो
जाता है। एक
दिन अचानक तुम
पाते हो कि
घटना हो गया
शुरू। वहीं
पहुंच जाते हो
जहां से शुरू
हुए थे। शून्य
से शून्य तक
पहुंच जाना
है। जो
व्यक्ति इसको
पहचान लेगा वह
आक्रांत होना
पसंद करेगा, आक्रमण करना
नहीं।
क्योंकि
शून्य होना
नियति है।
यह
व्यक्ति के
संबंध में भी
सच है, राष्ट्रों
के संबंध में
भी सच है।
व्यक्ति तो कभी-कभी
हुए हैं, कोई
बुद्ध, कोई
लाओत्से, जिसने
आक्रांत होना
पसंद किया, लेकिन
आक्रमण करना
नहीं।
राष्ट्र अब तक
ऐसे नहीं हुए
हैं। इसलिए
दुनिया में
कोई भी राष्ट्र
धार्मिक नहीं
है। लोग सोचते
हैं कि भारत
धार्मिक है, गलती खयाल
है। कोई
राष्ट्र अब तक
धार्मिक नहीं
हुआ। अभी तो
कभी-कभी
व्यक्ति ही हो
पाए हैं बड़ी
मुश्किल से; राष्ट्र का
होना तो
करीब-करीब
असंभव मालूम
पड़ता है। करोड़-करोड़
लोग कैसे
धार्मिक हो
पाएंगे? राष्ट्र
तो राजनैतिक
ही रहे हैं।
और राष्ट्र तो
चाणक्य और
मैक्यावेली
से ही राजी
हैं, लाओत्से
से राजी नहीं
हैं। तो
दिल्ली में
जहां
राजनीतिज्ञ
रहते हैं, उसका
नाम हमने चाणक्यपुरी
रखा हुआ है।
जिन्होंने
रखा सोच कर ही
रखा होगा।
उनको कुछ याद
न पड़ा और कोई
नाम। चाणक्य
की स्मृति आई।
वे सब चाणक्य
हैं छोटे-मोटे,
छुटभैया; बहुत बड़े
चाणक्य भी
नहीं हैं।
लेकिन रास्ते
पर तो वही हैं;
रास्ता वही
है--आक्रमण का,
दूसरे को
मिटा डालने
का।
दूसरे
को मिटाने में
एक आभास होता
है;
और वह आभास
कि मैं न मिट
सकूंगा। जब भी
तुम दूसरे को
मिटाते हो तब
तुमको अपने
शाश्वत होने
की भ्रांति
होती है। तुम
सोचते हो कि
देखो, मैं
तो मिटा सकता
हूं, मुझे
कौन मिटा
सकेगा? इसलिए
तो आक्रमण में
इतना मजा है, इतना रस है।
लेकिन
तुम मिटोगे।
नेपोलियन, सिकंदर,
हिटलर, कोई
भी बचता नहीं।
और तब
तुम्हारी सब
विजय की
यात्राएं पड़ी
रह जाएंगी।
तुम मिटोगे।
लेकिन जब तुम
किसी को
मिटाते हो तो
क्षण भर को
ऐसी भ्रांति
होती है कि
तुम्हें कौन
मिटा सकेगा!
तुम अपराजेय
हो, तुम्हारी
जीत आखिरी है।
लेकिन ऐसी
भ्रांति तुम्हीं
को होती है, ऐसा मत
समझना। सदा से
होती रही है।
और भ्रांति एक
न एक दिन टूट
जाती है। क्योंकि
मौत तुम्हारी
भ्रांतियों
को नहीं देखती;
मौत में तो
वही बचता है
जो सच्चा है।
मौत परीक्षा
है। सब झूठ
गिर जाता है।
तो मौत
सिकंदर को भी
गांव के
साधारण आदमी
के साथ बराबर
कर देती है।
मौत भिखारी और
सम्राट को
बराबर कर देती
है। दोनों एक
से पड़े रह
जाते हैं।
सम्राट और
भिखारी की लाश
में रत्ती भर
भी तो फर्क नहीं
होता; दोनों
धूल में पड़
जाते हैं और
दोनों धूल में
गिर जाते हैं।
उमर खय्याम
ने कहा है, डस्ट
अनटू
डस्ट। धूल धूल
में गिर जाती
है। और धूल
अमीर की कि
गरीब की, कोई
भी तो अंतर
नहीं है। क्या
तुम किसी मरे
हुए आदमी की लाश
से पता लगा
सकोगे कि यह
सम्राट था कि
भिखारी था? अमीर था कि
गरीब था? सफल
था कि असफल था?
मौत उस सब
को तोड़ देती
है जो तुमने
सपने की तरह बनाया
था।
लाओत्से
कहता है, आक्रांत
हो जाना बेहतर,
आक्रमण
करना बेहतर
नहीं।
और अगर
तुम आक्रांत
होने की कला
सीख जाओ तो
शत्रु भी
तुम्हें
मित्र ही
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि
जिसने
तुम्हें
मिटाया उसने
ही तो तुम्हें
बोध दिया उसका
जो मिट नहीं
सकता है। तब
तुम शत्रु को
भी धन्यवाद
दोगे। अभी तो
हालत ऐसी है
कि मरते वक्त
तुम मित्र की
भी शिकायत ही
करोगे।
क्योंकि जब सब
छूटने लगेगा
तब तुम्हें लगेगा, जो
संगी-साथी थे
सब व्यर्थ, जिन्होंने
सहारा दिया सब
व्यर्थ, जो
हमने किया वह
सब व्यर्थ, समय यों ही
गंवाया, कमाई
कोई भी न हो
सकी। लेकिन जो
आक्रांत होने को
राजी है, जो
हार जाने को
राजी है--बहुत
कठिन है हार
जाने को राजी
होना, इसलिए
तो धर्म कठिन
है--लेकिन जो
हार जाने को राजी
है वह उसे पा
लेता है जिसकी
फिर कोई हार
नहीं।
आक्रांत ही
किसी दिन
विजेता हो
पाता है। ऐसे विजेताओं
को हमने जिन
कहा है--बुद्ध
को, महावीर
को--कि
उन्होंने जीत
लिया। और जीता
उन्होंने हार
कर।
"सैन्य
रणनीतिज्ञों
का यह सूत्र
है: मैं
आक्रमण में
आगे होने का
साहस नहीं
करता, बल्कि
आक्रांत होना
पसंद करता
हूं।'
मिट
जाना बेहतर है
मिटाने की
बजाय।
क्योंकि जितना
तुम मिटाते
जाओगे उतनी ही
तुम्हारी भ्रांति
मजबूत होती
चली जाती है।
मिटा देने दो
सारी दुनिया
को तुम्हें; तुम
राजी हो जाओ
मिटने से। और
तुम अचानक
पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर कुछ बच
रहा है जो कोई
भी नहीं मिटा
सकता। उसकी
पहली दफा
तुम्हें
स्मृति आएगी।
जब जो भी मिट
सकता है मिट
गया, जो भी
हार सकता है
हार गया, जो
भी खोया जा
सकता है खो
गया, तब
तुम्हें पहली
दफा उस परम धन
का स्मरण आएगा
जिसे न कोई
छीन सकता, न
कोई मिटा
सकता। तुम
पहली दफा
इंद्रधनुष से
हटे और आकाश
की तरफ
तुम्हारी
दृष्टि मुड़ी।
ऐसा
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
कुछ लोग, जो
मरने की आखिरी
घड़ी में पहुंच
गए थे और किसी कारण
बचा लिए गए, उनके जो
अनुभव हैं वे
बड़े अनूठे
हैं। कभी कोई
आदमी पहाड़ से
गिर गया; आल्प्स
की चढ़ाई
कर रहा था, पैर
फिसल गया और
गिर गया।
भयंकर खड्ड!
निश्चित है कि
वह मर रहा है, अब कोई बचने
का उपाय नहीं।
मौत घट गई।
लेकिन संयोगवशात
नहीं टकराया
चट्टानों से
उसका सिर, गिर
गया नीचे हरी
दूब पर, और
बच गया। इस
तरह के आदमी का
अनुभव यह है
कि मरने के
क्षण में उसने
परम आनंद का
अनुभव किया।
वह जो थोड़ी सी
देर क्षण भर को
बीती पहाड़ से
गिरने में और
घास पर आने
में, उस
बीच उसने जीवन
का परम आनंद
जाना। और ऐसी
एकाध घटना
नहीं है; ऐसी
हजारों
घटनाएं हैं।
कि कोई आदमी
नदी में डूब
रहा था--और बिलकुल
डूब चुका था, अपनी तरफ से
तो मर चुका
था--फिर लोगों
ने खींच लिया,
पानी निकाल
डाला, और
वह बच गया।
ऐसे लोगों का
भी यह अनुभव
है कि उन्होंने
उस डूबने के
पहले क्षण में
तो बड़ी पीड़ा
जानी, क्योंकि
वे मर रहे हैं,
सब तरफ से
वे घबरा गए; लेकिन थोड़ी
ही देर में यह
तय हो गया कि
मरना है और वे
राजी हो गए।
करेंगे भी क्या?
कोई सुनने
वाला नहीं।
दूर-दूर तक
आवाज गूंजती
है, कोई
उत्तर नहीं।
राजी हो गए।
और जैसे ही
राजी हुए, एक
अपरिसीम आनंद
उतरने लगा।
जैसे पर्दा हट
गया, सब
दुख खो गया।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मृत्यु का यह
जो अनुभव कुछ
लोगों को हुआ
है,
लाओत्से
उसी अनुभव की
चर्चा कर रहा
है कि तुम मिट
जाओ, आक्रांत
हो जाओ। और
यही तो समर्पण
का सार सूत्र
है कि तुम मिट
जाओ। अगर तुम
अपने हाथ से
मिटने को राजी
हो जाओ, लड़ो न, तो इसी
क्षण समाधि
घटित हो सकती
है। समाधि पाने
की चेष्टा से
नहीं, क्योंकि
वह भी संघर्ष
है। आनंद को
पाने की कोई
कोशिश से नहीं,
क्योंकि वह
भी लड़ाई है।
तुम राजी हो
जाओ, जीवन
जहां ले जाए।
तत्क्षण तुम
पाओगे, तुम्हारे
राजी होते ही
मृत्यु जैसी
घटना घट गई; अहंकार मर
गया। और जो बच
गया वह
सच्चिदानंद
है।
तो जो
कभी-कभी
आकस्मिक रूप से
किसी
दुर्घटना में
घटा है, उसी
को ही
व्यवस्था दे
दी है योग ने, तंत्र ने, धर्म ने; उसका
विज्ञान बना
दिया है।
इसलिए जीसस
कहते हैं, जब
तक तुम मरोगे
नहीं तब तक
तुम्हारा
पुनर्जन्म
नहीं है। और
जब तक तुम
मिटोगे नहीं
तब तक तुम उसे
न पा सकोगे जो
कभी नहीं
मिटता है।
इसलिए कृष्ण
अर्जुन को
कहते हैं, मामेकं शरणं व्रज,
सर्वधर्मान् परित्यज्य।
सब छोड़-छाड़
कर तू मेरी
शरण आ जा।
अर्जुन को भी
वह मौत जैसी लगती
है। इसलिए तो
इतना संघर्ष
करता है, इतनी
लंबी गीता
चलती है। वह
लड़ता है सब
तरफ से, तर्क
खड़े करता है; वह शरण जाना
नहीं चाहता।
क्योंकि शरण
जाने का मतलब
है: मिट गए।
शरण जाने का
मतलब है: अब हम
न रहे; किसी
और की मरजी को
हमने अपनी
मरजी बना
लिया। शरण
जाने का अर्थ
है: अब अहंकार
को खड़े होने
की कोई जगह न
बची।
शिष्यत्व
तभी उपलब्ध
होता है जब
कोई इतनी हिम्मत
जुटाता है और
किसी के चरणों
में आकर मर
जाता है। और
कह देता है, जो
था वह मर गया।
अब मेरी कोई
मरजी नहीं। अब
जहां ले जाओ, जैसे ले जाओ,
जो करवाओ,
मैं
चलूंगा। अब
मैं छाया की
तरह हो गया।
अब मैं न सोचूंगा;
अब सब
सोचना-विचारना
छोड़ दिया।
यह तो
मृत्यु है। और
इसी मृत्यु
में तुम्हें पहली
दफे अमृत का
पता चलेगा।
जैसे कि काले ब्लैकबोर्ड
पर कोई सफेद
चाक से लिख
देता है तो
दिखाई पड़ता है; सफेद
दीवाल पर लिखे
तो दिखाई नहीं
पड़ता। ऐसे ही
जब तुम्हारा
अहंकार
बिलकुल मर रहा
होता है, उसकी
मृत्यु की
कालिमा चारों
तरफ घिर जाती
है, और उसी
कालिमा में
पहली दफे
तुम्हारे अमृत
की शुभ्र रेखा
दिखाई पड़ती है,
अन्यथा
दिखाई नहीं
पड़ती। मर कर
ही जानता है
कोई अमृत क्या
है; मिट कर
ही जानता है
कोई सनातन
क्या है, शाश्वत
क्या है।
क्षणभंगुर
टूटता है सपना
तो शाश्वत का
सूर्योदय
होता है।
लाओत्से
कहता है, आक्रांत
होना उचित है।
अहंकार को दौड़ाओ
मत, गिरा
दो।
"एक
इंच आगे बढ़ने
की बजाय एक
फुट पीछे हटना
श्रेयस्कर
है।'
अगर
लाओत्से की
सुनी जाए बात
तो यह सारी
पृथ्वी शांति
से भर सकती
है। लेकिन
जिनकी बात
चलती है, जिनका
सिक्का चलता
है, वे
चाणक्य और
मैक्यावेली
हैं। लाओत्से
का सिक्का
चलता नहीं। और
जिस पर चल गया,
उसने परम
आनंद को जान
लिया। हट जाओ
पीछे। लाओत्से
ने एक पूरा का
पूरा
निरहंकार-रणनीति
का शास्त्र
निर्मित किया
है। वह कहता
है, जो हट
जाए वही
सम्मान योग्य
है। उलटी ही
उसकी धारणा
है। वह कहता
है, जो हट
जाए वही
सम्मान योग्य
है। हम हटने
वाले को कायर
कहते हैं। हम
कहते हैं, जो
हट जाए वह
कायर है। और
हमारी इन्हीं
धारणाओं ने
मनुष्य को
युद्धों से भर
दिया है। जो
हट जाए वह
विनम्र है, हमने ऐसा
क्यों न कहा? और धारणाओं
पर बहुत कुछ
निर्भर करता
है। दो आदमी
लड़ते हैं। तो
जो छाती पर चढ़
जाता है उसको
हम फूलमालाएं
पहनाते हैं।
जो हार गया, जो जमीन पर
चारों खाने
चित्त पड़ा है,
उसको कोई
उठाने भी नहीं
जाता। तुम
हिंसा का इतना
सम्मान क्यों
करते हो? यह
जो आदमी छाती
पर चढ़ गया है
यह हिंसक है, यह जंगली
जानवर जैसा
है।
इसलिए
तुम अपने
पहलवानों को
देखो।
तुम्हारे जो
बड़े पहलवान
हैं वे जंगली
जानवरों जैसे
दिखाई
पड़ेंगे। यह
कोई शरीर का
सौष्ठव नहीं
है। और न ही
तुम्हारे
पहलवानों के शरीर
स्वस्थ होते
हैं। सभी घातक
बीमारियों से मरते
हैं। गामा टी
बी से मरता
है। और चालीस
साल के बाद
सभी पहलवान
अड़चन में पड़ना
शुरू हो जाते
हैं। क्योंकि
शरीर के साथ
उन्होंने जबरदस्ती
की है। ये जो
उनकी फूली हुई
मसलें
दिखाई पड़ती
हैं ये
जबरदस्ती और
अपने शरीर के साथ
की गई हिंसा
के सबूत हैं।
यह जंगलीपन
है। यह कोई
शरीर का
सौष्ठव नहीं
है,
न कोई शरीर
का सौंदर्य
है। यह पशुता
है। और एक आदमी
दूसरे को
चारों खाने
चित्त कर देता
है इसको हम विजेता
मानते हैं, हिंद-केसरी!
यह पागलों की
दुनिया मालूम
पड़ती है। तुम
सम्मान हिंसा
को क्यों देते
हो? दुष्ट
को क्यों देते
हो? तुम
कायर क्यों
कहते हो जो
हार गया?
मूल्य
बदल जाएं, अगर
जो हार गया
उसको तुम
विनम्र कहने
लगो, जीवन
की पूरी
व्यवस्था बदल
जाए। जो हट
गया उसको तुम
शिष्ट कहो, जो आगे बढ़
गया उसको तुम
अशिष्ट कहो, तो जीवन और
नयी यात्रा पर
निकल जाए। कभी
न कभी लाओत्से
सुना जाएगा।
क्योंकि
मैक्यावेली और
चाणक्य
दुनिया को
जहां ले आए
हैं, वह
कोई अच्छी दशा
नहीं है।
युद्ध और
युद्ध, कलह
और कलह, और
हर जगह गलाघोंट
प्रतिस्पर्धा
है। और जो
आदमी जितने
लोगों के गले
घोंट दे उतना
महान हो जाता
है। और जो
आदमी जितने
लोगों के
सिरों की सीढ़ियां
बना ले और बैठ
जाए सिंहासन
पर, वह
विजेता हो
जाता है।
तुम्हारे
मूल्यांकन
पागलपन के
मूल्यांकन हैं।
यह नीति नीति
नहीं मालूम
पड़ती।
तुम्हारी राजनीति, राजनीति
नहीं मालूम
पड़ती, अनीति
मालूम पड़ती
है। कोमल को, विनम्र को
तुम्हारे
जीवन-शास्त्र
में कोई भी जगह
नहीं है।
तूफान आता है,
बड़े वृक्ष
गिर जाते हैं,
लड़ते हैं, घास का पौधा
बच जाता है।
लेकिन घास के
पौधे का तुम्हारे
मन में कोई
सम्मान नहीं
है। तुमने विनम्रता
की शक्ति
बिलकुल नहीं
पहचानी। तुम
यही कहे चले जाते
हो कि टूट
जाना भला, लेकिन
झुकना मत। और
झुकना लोच है।
और झुकना जीवंतता
है। जो नहीं
झुक सकता वह
बूढ़ा है, उसकी
हड्डियां अकड़
गई हैं, पक्षाघात
से भरा है।
किसी न
किसी दिन
लाओत्से समझ
में आएगा तो
तुम जिनका
सम्मान करते
थे उनको तुम पैरालाइज्ड
कहोगे, और
जिनको तुमने फूलमालाएं
पहनाई थीं, हिंद-केसरी
कहा था, उनको
तुम जंगली
जानवर
मानोगे। वैसे
तुम्हारे
हिंद-केसरी
में भी छिपा
तो है ही
रहस्य, केसरी
जंगली जानवर
ही है। जिनको
तुमने पद्मभूषण
और महावीर
चक्र बांटे थे
उनका तुम
मानसिक इलाज करवाओगे, और जिनको
तुम भारत-रत्न
कहते थे उनको
तुम भारत की
मिट्टी कहना
भी पसंद न
करोगे। लेकिन
मूल्यांकन की
पूरी क्रांति
घटित हो जाती
है।
लाओत्से
विनम्रता की
राह से चल रहा
है। वह कह रहा
है,
हट जाओ, यह
सौष्ठव है।
राह दे दो।
"एक
इंच आगे बढ़ने
की बजाय एक
फीट पीछे हटना
श्रेयस्कर
है।'
क्यों? क्योंकि
आगे जाने की
यात्रा
अहंकार की
यात्रा है।
उसमें बहुत
लोग गए, किसी
ने कुछ पाया
नहीं। तुम
हटते जाओ।
तुम्हारा मन
कहेगा, ऐसे
हटने लगे तो
सारी दुनिया
हमें हटा ही
डालेगी। कोई
हर्जा नहीं
है। कहां
पहुंच जाओगे?
सबसे आखिर
में खड़ा कर
देगी।
लेकिन
सबसे आखिर में
होने में हर्ज
क्या है? और
जिन्होंने भी
जाना है
उन्होंने
सबसे आखिर में
खड़े होकर जाना
है। क्योंकि
वहां न संघर्ष
है, न
प्रतियोगिता
है, न प्रतिस्पर्धा
है। बुद्ध और
महावीर अगर
भिखारी हो
जाते हैं राह
के तो उसका
कारण क्या है?
क्या कुछ
भिखारी होने
में कोई सत्य
के मिलने की
ज्यादा
सुविधा है?
नहीं, वे
असल में
प्रतिस्पर्धा
से हट रहे
हैं। बड़ी कलह
थी, बड़ी
प्रतिस्पर्धा
थी। वे
प्रतिस्पर्धा
से हट रहे हैं,
वे ना-कुछ
होने को राजी
हैं; लेकिन
लड़ कर कुछ
होने को राजी
नहीं हैं।
क्योंकि लड़ कर
भी हुए तो
क्या हुए!
जबरदस्ती हुए
तो क्या हुए!
वे चुपचाप हट
गए हैं। वे भगोड़े
नहीं हैं, पलायनवादी
नहीं हैं।
उनके पास बड़ी
गहरी दृष्टि
है। उन्होंने
देख लिया कि
लड़ कर भी
पाओगे क्या? बढ़ कर भी
जाओगे कहां? क्योंकि जो
बिलकुल आगे
पहुंच गए हैं
वे बड़े दुख
में खड़े हैं।
वे पीछे हट गए
हैं; उन्होंने
प्रतिस्पर्धा
छोड़ दी है। वे
गांव के
भिखारी हो गए।
जहां सम्राट
थे वहां
भिक्षा का
पात्र ले लिया
हाथ में। वे
सिर्फ यह कह
रहे हैं कि हम
दौड़, उपद्रव,
झगड़ा, प्रतिस्पर्धा,
प्रतियोगिता
से बाहर हैं।
हम पर कृपा
करो। हमने सब
मैदान छोड़
दिया।
कृष्ण
का एक नाम
मुझे बहुत
प्रीतिकर है, वह
है रणछोड़दास।
उसका मतलब
होता है, जो
युद्ध से भाग
खड़ा हुआ, जिसने
रण छोड़ दिया।
ऐसा कोई नाम
दुनिया में किसी
ने भी किसी
अवतार को नहीं
दिया है। रणछोड़दास
जी की
प्रतिमाएं
हैं, मंदिर
हैं।
और
सारी रणनीति
लाओत्से की रणछोड़दास
जी की है। छोड़
दो झगड़ा; बाहर
हट जाओ। जहां
कलह पाओ वहां
से चुपचाप हट जाओ।
क्योंकि कलह
तुम्हें मिटा
देगी; चाहे
तुम जीतो,
चाहे तुम हारो। कलह
तुम्हें हरा
देगी; चाहे
तुम जीतो,
चाहे तुम हारो।
जीते तो भी
आखिर में
पाओगे हार गए,
हारे तब तो
पाओगे ही कि
हार गए। कलह
जहां हो वहां
से हट जाओ।
क्योंकि कलह
में होना जीवन
की ऊर्जा का
क्षरण है। कलह
में होना जीवन
की ऊर्जा पर
जंग लगवाना
है। तुम
चुपचाप हट
जाओ। जैसे धूप
में खड़ा आदमी
हट जाता है
वृक्ष की छाया
में, ऐसे
ही
प्रतियोगिता
की धूप में
खड़े हुए समझदार
हट जाता है अप्रतियोगिता
की छाया में।
तब वहां परम
विश्राम है।
और उस परम
विश्राम में
ही तुम स्वयं
को जान सकोगे।
क्योंकि वहां
अहंकार तो बच
ही नहीं सकता।
अहंकार
तो जीता है
प्रतियोगिता
से,
महत्वाकांक्षा
से। कलह भोजन
है अहंकार के
लिए, अकेले
में नहीं जी
सकता। अकेले
में तो गिर
जाता है। उसके
पास पैर ही
नहीं हैं
अकेले में। वह
तो दूसरे से
लड़ने के सहारे
चलता है।
अहंकार तो ऐसा
ही है जैसे
कोई साइकिल
चलाता है तो
पैडल चलाता
है। पैडल
चलाता रहे तो
साइकिल चलती
है। पैडल
चलाना रोक दे,
थोड़ी-बहुत
देर चल जाए, घाट हो तो
थोड़ी और
ज्यादा चल जाए,
बाकी फिर
अपने आप रुक
जाती है।
सम्हल नहीं
सकती। अहंकार
साइकिल जैसा
है, तुम
चलाते रहो।
छोटे
बच्चे से चलना
शुरू हो जाता
है,
कि क्लास
में प्रथम आना
है, कि
नंबर एक खड़े
होना है। शुरू
हो गई यात्रा।
छोटे-छोटे
बच्चे
विक्षिप्त
होने लगते
हैं। परीक्षा
में प्रथम खड़े
होना है।
रुग्ण मां-बाप
हैं। अगर
प्रथम न आया
बच्चा तो
इज्जत का सवाल
है। अगर प्रथम
न आया तो घर में
कोई सम्मान न
मिलेगा।
मां-बाप पीछे
लगेंगे कि
प्रथम आओ।
क्योंकि यह
शिक्षण है प्रथम
होने का। आज
नहीं कल बाजार
में फिर इसका उपयोग
करना है। अगर
अभी से तुम
ढीले पड़े और
पीछे खड़े होने
को राजी हो गए,
तो जिंदगी
में क्या
करोगे? जिंदगी
में बड़ी लड़ाई
है। छोटे से
बच्चे में जहर
डालना शुरू हो
जाता है। फिर
जिंदगी भर यह
जहर चलता
है--धन, मकान,
पद, प्रतिष्ठा--सब
जगह
प्रतिस्पर्धा
है। किसी को
हराना है, किसी
को चारों खाने
चित्त करना
है।
लाओत्से
कहता है, अगर
कोई तुम्हें
चारों खाने
चित्त करने आए,
उसे कष्ट भी
मत देना, तुम
खुद ही लेट
जाना, चारों
खाने चित्त हो
जाना। और उससे
कहना, तू
बैठने का छाती
पर थोड़ा मजा ले
ले जितना तुझे
लेना हो, फिर
जब तुझे जाना
हो चले जाना।
वह
आदमी का तुमने
मजा ही छीन
लिया उस आदमी
का। क्योंकि
मजा तो
तुम्हारे
लड़ने में और
तुम्हारे हराए
जाने में था।
अगर तुम लड़े
ही न,
मजा ही गया।
वह आदमी कहेगा,
लेटे रहो, हम कहीं
किसी और को
खोजते हैं।
तुमसे क्या
सार है! तुम
पड़े रहो चारों
खाने चित्त; तुम्हारे
ऊपर कोई आकर
नहीं बैठेगा।
क्योंकि उसमें
मजा ही क्या
है तुम्हारे
ऊपर बैठने में?
तुम लड़ते ही
नहीं। तुम
हारे ही हुए
हो। मजा तो है
कि तुम्हें
हराया जाए।
मजा तो यह है
कि तुम लड़ो।
और जितना बड़ा
दुश्मन हो
उतना ज्यादा
मजा है। जितना
शक्तिशाली
दुश्मन हो
उतना ज्यादा
मजा है। ऐसे
दुश्मन से
क्या सार!
क्योंकि इससे
अहंकार को कोई
भोजन न
मिलेगा।
लाओत्से
इसलिए कह रहा
है कि तुम न तो
खुद अपने अहंकार
को बढ़ाओ
और न अपने
कारण दूसरे के
अहंकार को
भोजन दो। क्योंकि
वह भी पाप है।
तुम उसको भी
गलत इंद्रधनुषों
में उलझा रहे
हो। तुम खुद
उलझ रहे हो और
दूसरे को उलझा
रहे हो। तुम
हार ही जाओ।
तुम सर्वहारा
हो जाओ।
और जो
सर्वहारा हो
गया वही
संन्यासी है।
अब उसकी किसी
से कोई
वैमनस्य की
दशा न रही।
महावीर कहते
हैं,
मित्ति मे सब्ब भुए सू; वैरं मज्झ न केणई।
सबसे मेरी
दोस्ती है, और किसी से
मेरा वैर
नहीं। यह तभी
घट सकता है जब
तुम सर्वहारा
होने की कला
सीख लो। और यह
बड़ी से बड़ी
कला है। और
पृथ्वी उसी
दिन स्वर्ग बन
सकेगी जिस दिन
इस कला के
व्यापक
विस्तार की
संभावना हो
जाएगी कि सब शिक्षणशालाएं
विनम्रता सिखाएंगी,
प्रथम होने
का अहंकार
नहीं; कि
मां-बाप हारना
सिखाएंगे,
जीतना नहीं;
कि सम्मान
उसका होगा जो
पीछे हट जाता
है, उसका
नहीं जो आगे
बढ़ जाता है।
बड़ी
पुरानी कथा है
चीन में कि एक
अजनबी विदेश से
आया। वह जैसे
ही उतरा नाव
से,
घाट पर बड़ी
भीड़ लगी देखी।
दो आदमी लड़
रहे थे; दोनों
लाओत्से के
अनुयायी
मालूम पड़ते।
बड़ा झगड़ा
चल रहा था।
बड़ी गालियां
दे रहे थे, घूंसे
उठाते थे, दौड़ते
थे। लेकिन
हमला नहीं हो
रहा था। बस यह
सब बातचीत चल
रही थी। और
चेहरे पर
क्रोध भी नहीं
था उनके।
गालियां भी दे
रहे थे, लेकिन
क्रोध भी नहीं
था। वह अजनबी
बड़ा हैरान हुआ।
थोड़ी देर खड़ा
देखता रहा, फिर उसने
कहा, यह
मामला क्या
है! इतने जोश
में दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
टूट क्यों
नहीं पड़ते? और यह भीड़
खड़ी क्या देख
रही है?
तो
लोगों ने कहा
कि भीड़ यह देख
रही है कि जो
पहले टूट पड़े
वह हार गया।
बस भीड़ विदा
हो जाएगी। बात
खतम हो गई। ये
एक-दूसरे को
उकसा रहे हैं
कि पहले तुम
आक्रमण कर दो, क्योंकि
जिसने आक्रमण
कर दिया वह
हार गया। इनकी
पूरी कोशिश यह
है कि दूसरा
इतना प्रोवोकेशन
में आ जाए, इतना
उत्तेजित हो
जाए कि हमला
कर बैठे। बस
हमला किया कि
भीड़ विसर्जित
हो जाएगी। बात
खतम हो गई।
जिसने हमला किया
वह हार गया।
कभी
ऐसी दुनिया
बनेगी जब हमला
करने वाला
हारा हुआ समझा
जाएगा; तब
जीवन एक नयी
यात्रा पर
निकलेगा।
लाओत्से
कहता है, "सैन्यदल
के बिना कूच
करना, आस्तीन
नहीं समेटना,
सीधे हमलों
से चोट नहीं
करना, बिना
हथियारों के
हथियारबंद
रहना।'
यह न
केवल
व्यक्तियों
के लिए, बल्कि
राष्ट्रों के
लिए भी सुझाव
है। कमजोर आदमी
जल्दी से
आस्तीन समेट
लेता है। असल
में, कमजोर
आदमी जल्दी से
क्रोध में आ
जाता है। क्रोध
कमजोरी का
लक्षण है।
क्रोध का अर्थ
ही है कि
तुम्हारी
बुद्धि की
सीमा आ गई; इसके
पार अब तुम
बुद्धू होने
को राजी हो। तुम्हारी
समझ खो गई; अब
तुम पागल होने
को राजी हो।
क्योंकि
क्रोध क्षण भर
के लिए आ गया
पागलपन है।
क्रोध की और
पागल की
अवस्था में
भेद समय का है,
गुण का नहीं
है। क्रोध का
अर्थ है टेंपरेरी,
अस्थायी
पागलपन। और
पागलपन का
अर्थ है स्थायी
क्रोध। पागल
चौबीस घंटे
उत्तेजित है।
उसने समझ को
बिलकुल ही ताक
पर रख दिया।
तुम कभी-कभी
ताक पर रखते
हो। फिर थोड़ी
देर बाद फिर
उठा कर सम्हाल
लेते हो, कि
गलती हो गई, पछतावा कर
लेते हो।
लेकिन क्रोध
में तुम जो करते
हो वह पागल ही
कर सकता है।
तुम
अगर क्रोध में
अपनी अवस्था
देखना चाहो तो
कभी आईने के
सामने खड़े
होकर क्रोध की
सब भाव-भंगिमा
करना। तब
तुम्हें पता
लगेगा, कैसे
सुंदर तुम
दिखाई पड़ते हो
जब तुम क्रोध
में आ जाते हो!
उचकना, कूदना,
गाली देना,
चीजें
तोड़ना-फोड़ना;
आईने के
सामने जरा
देखते रहना
अपने को। यही
तुम्हारी
क्रोध की
स्थिति है।
क्रोध में तुम
बताते हो कि
तुम विकसित
नहीं हो पाए, तुम्हारे
पास चैतन्य की
क्षमता नहीं
है। क्रोध का
अर्थ है कि
तुम अपने भीतर
नहीं हो, बाहर
हो। तो कोई भी
तुम्हें हिला
देता है बाहर
से; कोई भी
डांवाडोल कर
देता है। जरा
सी बात, और
तुम्हारा
संतुलन खो
जाता है। यह
संतुलन है ही नहीं;
किसी तरह
तुम अपने को
सम्हाले हो।
"आस्तीन
नहीं समेटना,
सैन्यदल के
बिना कूच करना,
सीधे हमलों
से चोट नहीं
करना, बिना
हथियारों के
हथियारबंद
रहना।'
इस
लाओत्से के
वचन पर एक
पूरा शास्त्र जूडो का
निर्मित हुआ
है। और वह
शास्त्र यह है
कि सीधा हमला
न करना। जूडो
का
प्रशिक्षार्थी
जब किसी से
लड़ता है तो
हमला नहीं
करता, हमला
झेलता है। जूडो
की पूरी कला
है हमले को
झेलना। और
हमले को इस तरह
झेलना कि शरीर
में कोई
प्रतिशोध और
प्रतिरोध न
हो।
समझो
कि आप एक
घूंसा मुझे मारें। तो
जो सहज
सामान्य
वृत्ति होगी
वह यह होगी कि
घूंसे के
विपरीत मैं
अपने हाथ को
खड़ा कर दूं, ताकि
हाथ पर घूंसा
पड़ जाए और
मेरे चेहरे को
नुकसान न
पहुंचे।
लेकिन हाथ
अकड़ा होगा, हड्डी सख्त
होगी।
क्योंकि जब
कोई हमला कर
रहा है तो
जितना हाथ
अकड़ा होगा--यह
हमारा खयाल
है--उतनी ही
चोट आसानी से
बचाई जा सकेगी,
क्योंकि
हाथ अकड़ा होगा
तो शक्तिशाली
होगा।
जूडो
कहता है, बिलकुल
गलत है बात।
दूसरे की चोट
से तुम्हारा हाथ
नहीं टूटता, तुम्हारी
अकड़ से टूटता
है। क्योंकि
दूसरा एक ऊर्जा
फेंक रहा है
घूंसे के
द्वारा, और
तुम्हारा हाथ
अकड़ा है। उस
ऊर्जा और
तुम्हारे हाथ
में संघर्ष हो
जाता है। अकड़
की वजह से हड्डी
टूट जाती है।
तुम कहोगे
लोगों से जाकर
कि इसने मेरी
हड्डी तोड़ दी।
जूडो
कहता है, तुम
गलती बात कर
रहे हो; हड्डी
तुमने खुद तोड़
ली। काश तुम
हड्डी को लोचपूर्ण
रखते! भीतरी, बारीक फासला
है। तुम हड्डी
को ऐसे रखते
जैसे यह आदमी
चोट करने नहीं
आ रहा, आलिंगन
करने आ रहा है,
प्रेम करने
आ रहा है।
और
तुम्हारी तो
दशा इतनी
विकृत हो गई
है कि कोई
आलिंगन भी करे
तो भी तुम
हड्डी को
मजबूत रखते हो
कि पता नहीं
क्या इरादा
हो। कभी तुमने
गौर किया कि
कोई तुम्हें
आलिंगन में भर
ले तो भी तुम सम्हले
रहते हो।
चारों तरफ
देखते हो, कोई...इसका
इरादा क्या? मुस्कुराते
हो, लेकिन
छूटना चाहते
हो। हड्डी अकड़ी
रहती है
आलिंगन में
भी। इसलिए
प्रेम तक भी
तुम में
प्रवेश नहीं
कर पाता।
जूडो
कहता है कि जब
तुम्हारे हाथ
पर कोई चोट
मारे, तुम्हारा
हाथ कोमल हो।
अगर हाथ कोमल
है तो एक बहुत
बड़ी ऊर्जा की
घटना घटती है।
वह घटना यह है
कि घूंसा एक
खास मात्रा की
ऊर्जा और
विद्युत लेकर
आ रहा है। वह
आदमी नासमझ
है। वह अपनी
ऊर्जा गंवाने
को तैयार है।
क्योंकि जब
तुम किसी को
घूंसा मारते
हो तो तुम्हारी
खास मात्रा
में ऊर्जा
व्यय हो रही
है। घूंसा ऐसे
ही नहीं मारा
जाता। इसीलिए
तो दो-चार-दस घूंसों के
बाद तुम थक
जाओगे; क्योंकि
ऊर्जा चुक गई।
जूडो
कहता है, जब
कोई तुम्हें ऊर्जापूर्ण
हाथ से चोट कर
रहा है तब तुम
पीने को तत्पर
रहो, लड़ने
को नहीं। वह
जो ऊर्जा आ
रही है
तुम्हारे हाथ
पर, उसको
तुम पी जाओ, विरोध मत
करो, तुम
खाली जगह दे
दो। इसको
लाओत्से ने
कहा है स्त्रैण
होने की कला।
जैसे स्त्री
पी जाती है पुरुष
की ऊर्जा को
ऐसे तुम इस
ऊर्जा को पी
जाओ। जगह दे
दो; कोमल
रहो। और तुम
पाओगे कि जो
ऊर्जा उसने
फेंकी वह
तुम्हारे
शरीर का
हिस्सा हो गई।
और अब तो इसको जांचने के
वैज्ञानिक
उपाय भी हैं।
बराबर
निश्चित ही उसकी
शरीर की ऊर्जा
तुम्हारे
शरीर में
प्रवेश कर
जाती है। इसको
लाओत्से कहता
है बिना चोट किए,
बिना हराए
हराना। तुम
उसको चोट करने
दो।
मगर जूडो
सीखने में
लोगों को दस
से लेकर बीस
साल तक लग
जाते हैं।
क्योंकि
हमारी आदतें
लड़ने की इतनी
पुरानी हैं कि
उनको छोड़ना
मुश्किल।
बार-बार लौट
आती हैं। जब
कोई जूडो
सीख लेता है, तुम
उसे हरा नहीं
सकते। और वह
तुम्हें हराएगा
नहीं, और
तुम हार
जाओगे।
क्योंकि वह
तुम्हें थका
डालेगा। तुम
चोट करोगे, और वह
तुम्हारी
ऊर्जा को पीता
रहेगा।
पांच-सात मिनट
के भीतर तुम
पाओगे तुम थक
गए। तब
तुम्हें सिर्फ
हाथ का धक्का
दे देना काफी
है और तुम चारों
खाने चित्त
पड़े होगे।
उतना भी जरूरी
नहीं है। अगर जूडो का
आदमी पूरा
कुशल हो तो
तुम्हें एक
ऐसी हालत में
ला देगा
थका-थका कर कि
तुम खुद ही
गिर कर चारों
खाने चित्त हो
जाओगे। तुम
उससे हाथ जोड़
लोगे कि तू
भैया, जा!
बड़ा
महत्वपूर्ण
शास्त्र है
दुनिया में।
बहुत कम
शास्त्र इतने
महत्वपूर्ण
हैं जितना जूडो
या जुजुत्सु
या अकीदो।
ये तीन
शास्त्र
जापान और
चाइना में
विकसित हुए।
बड़ी अदभुत
कलाएं हैं।
तुमने
देखा, शराबी
रास्ते पर गिर
पड़ता है तो
चोट नहीं आती।
शराबी कोमलता
से गिरता है।
उसे पता ही
नहीं कि वे
गिर रहे हैं, तो अकड़ेंगे
कैसे? तुम
गिरो, पच्चीस
जगह हड्डियां
टूट जाएंगी।
शराबी रात भर
पड़ा रहता है
सड़क पर, अनेक
जगह गिरता है,
फिर उठता
है। सुबह तुम
देखो, वे नहा-धोकर
फिर दफ्तर की
तरफ जा रहे
हैं। बिलकुल
ठीक-ठाक हैं।
रात तुम सोचते
हो कि इनको तो
अस्पताल में न
मालूम कितने
दिन रहना
पड़ेगा।
शराबी जूडो
जानता है; पता
नहीं है उसे।
लेकिन वह होश
में ही नहीं
है, तो
गिरता है तो
वह समझता ही
नहीं कि गिर
रहे हैं। वह
गिर जाता है।
बस गिर जाता
है; कोई
लड़ाई नहीं है।
और जब लड़ाई
नहीं होती तो
पृथ्वी और
उसके बीच कलह
नहीं है। और
जब कोई लड़ाई नहीं
है तो वह
बिलकुल गिर
जाता है, जैसे
कि मां की गोद
में गिर रहा
हो। इसलिए हड्डियां
नहीं टूटतीं।
छोटे
बच्चे भी दिन
भर गिरते हैं, और
कुछ नहीं बिगड़ता।
अभी उन्होंने
हार्वर्ड में
एक प्रयोग
किया। एक
पहलवान को रखा
एक बच्चे के
पीछे कि आठ
घंटे जो बच्चा
करे वही
तुम्हें करना
है। तो देखें
कि बच्चे के
पास ऊर्जा
कितनी है! छह
घंटे बाद पहलवान
पस्त हो गए।
और उसने कहा
कि हाथ जोड़े!
बहुत पैसा
उसको दिया
जाने वाला था।
उसने कहा, लेकिन
यह आठ घंटा हम
पूरा नहीं कर
सकते। यह हमें
मार ही
डालेगा। और
बच्चा और मजे
में आ गया। जब
उसने देखा कि
कोई उसका
अनुकरण करता
है--वह उचकता
है तो पहलवान
उचकता है, वह
गिरता है तो
पहलवान गिरता
है--तो बच्चे
ने तो पूरा
आनंद लिया। और
बच्चा बिलकुल
नहीं थका था।
वह आठ घंटे के
बाद बिलकुल
ताजा था। रोज
तो थोड़ा सो भी
जाता था, आज
सोया भी नहीं।
इस पहलवान को
उसने बिलकुल
मिट्टी में
मिला दिया।
लेकिन बच्चे
की कला क्या है?
वह सिर्फ
गिरता है, चोट
नहीं खाता।
जैसे-जैसे बड़ा
होने लगता है
वैसे-वैसे चोट
लगनी शुरू
होने लगती है।
जैसे-जैसे
अहंकार
निर्मित होता
है वैसे-वैसे
बचाव शुरू हो
जाता है।
तुमने
बचाया कि तुम
मुश्किल में
पड़ोगे। लाओत्से
कहता है, बचाओ
मत। और इसको
वह कहता है
बिना हथियार
के हथियारबंद
रहना। सारे
संसार को तुम
स्वीकार कर
लो।
और अब
गहरी बात! यह
तो बाहर की
बात है। इसका
एक गहरा पहलू
है। और वह पहलू
है: भीतर के
शत्रुओं के
साथ भी यही
व्यवहार करना।
कि लोभ है, क्रोध
है, काम है;
इनसे भी तुम
लड़ना मत।
अन्यथा तुम
हार जाओगे। इनसे
भी तुम
द्वंद्व में
मत पड़ जाना; अन्यथा तुम
मिट जाओगे।
क्रोध के साथ
भी तुम पीछे
हट जाना।
क्रोध को कहना
कि ठीक है आ
जा। क्रोध
तुम्हारी
छाती पर बैठे,
बैठ जाने
देना, तुम
चारों खाने
लेट जाना, कि
बैठ! क्रोध से
लड़ना मत। अगर
तुम क्रोध से
लड़े तो क्रोध
जीतेगा, तुम
हारोगे। तुम
लाख कसमें खाओ,
पश्चात्ताप
करो; कोई
फर्क न पड़ेगा।
क्योंकि
क्रोध
तुम्हारी ही
ऊर्जा है, उससे
लड़ने का मतलब
है तुम अपने
को दो खंडों
में बांट रहे
हो। तुम्हीं लड़ोगे
क्रोध की तरफ
से; और
तुम्हीं लड़ोगे
क्रोध के
विरोध की तरफ
से।
यह तो
पागलपन है। यह
तो ऐसा हुआ कि
वृक्ष को पानी
भी सींच रहे
हैं,
शाखाओं को
भी काटे जा
रहे हैं। पानी
भी दिए जाते
हैं; शाखाएं
भी काटते हैं।
तुम ही हो
दोनों तरफ। जैसे
बाएं-दाएं हाथ
को तुम लड़ाओगे
तो कौन जीतेगा?
हां, तुम
चाहो धोखा
अपने को देना
तो दाएं को
बाएं के ऊपर
कर लो और सोच
लो कि जीत गए।
लेकिन तुम किसी
और को धोखा
नहीं दे रहे, अपने को
धोखा दे रहे
हो। एक क्षण
में चाहो तो
बाएं को फिर
दाएं के ऊपर
कर लो। वही
तुम कर रहे
हो। जिंदगी-जिंदगियों
से क्रोध से
लड़ते हो। कौन
है वहां लड़ने
को जिससे तुम
लड़ रहे हो? तुम्हारी
ही ऊर्जा।
तुम लड़ो
मत। तुम ऊर्जा
को वापस पी
जाओ। क्रोध का
अर्थ है:
ऊर्जा दूसरे
की तरफ जानी
शुरू हुई
है--विनाश के
लिए। तुम शांत
हो जाओ। तुम
क्रोध को कहो
कि हमारी कोई
लड़ाई ही नहीं
है। तू हो, तू
रह। उठने दो
धुआं क्रोध का
तुम्हारे
चारों तरफ; घिरने दो धुएं को।
तुम कुछ मत
करो। तुम शांत
भीतर बैठे
रहो। तुम लड़ो
ही मत। तुम
अचानक पाओगे,
क्रोध
धीरे-धीरे
आत्मसात हो
गया, खुद
में फिर वापस
डूब गया। वह
तुम्हारी ही
लहर थी; जैसे
सागर में लहर
उठती ऐसे फिर
वापस सो गई। और
जब तुम एक दिन
इस कला को सीख
लोगे कि क्रोध
तुममें ही
वापस सो जाता
है तो तुम
पाओगे कि कितनी
ऊर्जा
तुम्हारे पास
है! अनंत
ऊर्जा के तुम
धनी हो जाते
हो।
कामवासना
उठती है; देखते
रहो। लड़ो
मत। न भोगने
जाओ, न
लड़ने जाओ।
क्योंकि
भोगोगे तो भी खोओगे। लड़ोगे तो
भी खोओगे।
अगर लड़ने और
भोगने में ही
चुनना हो तो
भोगना बेहतर;
क्योंकि
ऊर्जा तो
दोनों कारण खो
जाएगी। अगर लड़ने
और भोगने में
चुनना हो तो
भोगना बेहतर।
कम से कम कुछ
उपयोग तो हो
जाएगा।
इसलिए
मुझसे अगर तुम
पूछो तो
हिमालय में
रहते संन्यासी
से बाजार में
रहते गृहस्थ
का मेरा चुनाव
है। वह बेहतर।
क्योंकि कम से
कम ऊर्जा का
कुछ उपयोग तो
हो रहा है।
संन्यासी तो
सिर्फ ऊर्जा
से लड़ रहा है।
और लड़ने वाला
ज्यादा कठिनाई
में पड़ेगा
अंततः।
क्योंकि लड़ने
से कभी कोई
समझ नहीं आती।
भोग से तो
ज्ञान आ भी
जाए,
त्याग से
कभी ज्ञान
नहीं आता।
इसलिए
तो परमात्मा
भोगी पैदा
करता है, त्यागी
पैदा नहीं
करता। त्यागी
खुद बन जाते हैं।
परमात्मा की
समझ साफ है कि
परमात्मा
भोगी पैदा
करता है, क्योंकि
पता है कि भोग
की ही समझ से
एक दिन योग का
जन्म होगा।
भोग में से
गुजर कर ही एक
दिन समझ
परिपक्व होगी,
योग का फल पकेगा।
इसलिए
परमात्मा
संसार बनाता
है; संसार
से गुजरना
अपरिहार्य
है। अगर तुमने
लड़ना शुरू कर
दिया, काम
की ऊर्जा से
लड़े तो तुम
अपने से ही लड़
रहे हो, तुम
धीरे-धीरे
विक्षिप्त हो
जाओगे।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बुढ़ापे
में गांव का
काजी बना दिया
गया,
गांव का
न्यायाधीश हो
गया। पहला ही
मुकदमा आया।
और मुकदमा बड़ा
उलझन से भरा
था। एक पति और
पत्नी में झगड़ा
हुआ था। और वे
अदालत में
काजी के पास आ
गए थे। पति के
कान से खून बह
रहा था और वह
कह रहा था कि
पत्नी ने उसका
कान काट लिया।
और पत्नी इनकार
कर रही थी। तो नसरुद्दीन
ने कहा कि इस
पर फिर विचार
करना पड़ेगा, यह तो बड़ी
जटिल बात है।
पत्नी इनकार
करती है। और
कोई गवाह नहीं
है। क्योंकि
घर में वे
दोनों अकेले
थे, रात
में झगड़ा
हुआ। पत्नी
कहती है, मैंने
काटा नहीं।
इन्होंने खुद
ही अपना कान
काट लिया, पत्नी
कह रही थी।
सारी अदालत
राजी हो गई कि
कोई अपना कान
कभी काट सकता
है! लेकिन नसरुद्दीन
इतनी आसानी से
राजी नहीं हो
सकता। उसने
कहा कि एक
घंटे का मुझे
समय चाहिए।
दरवाजा
बंद करके बगल
के कमरे में
गया। सब तरह उछला-कूदा
अपने कान को
काटने के लिए।
कई दफे सिर
टकरा गया
दीवार से, कभी
जमीन पर गिरा,
सब छिल गया,
लहूलुहान
हो गया, लेकिन
कान न काट
पाया।
थका-मांदा
चारों खाने चित्त
पड़ा सोचने लगा
कि क्या मामला
क्या है! तो उसे
याद आया कि यह
काम बड़ी
कुशलता का
मालूम पड़ता है,
इसके लिए
अभ्यास की
जरूरत है। कई
दफे कान के
बिलकुल करीब
भी पहुंच गया
था, मगर
चूक गया। यह
मालूम होता है
कि कोई योग का
अभ्यास है; यह इतनी
जल्दी हल नहीं
हो सकता।
लेकिन एक बात हाथ
आ गई; सूत्र
पकड़ में आ
गया।
वह
बाहर आया। उसे
देख कर उसकी
अदालत भी
हैरान हुई--कि
सब कपड़े फट गए, लहूलुहान!
पूछा कि क्या
हुआ? उसने
कहा कि मैंने
पहले कोशिश की
कि यह आदमी झूठ
बोल रहा है या
सच? या
पत्नी झूठ बोल
रही है या सच? अब एक काम
किया जाए कि
इस आदमी के
शरीर को जांचा
जाए। अगर इसको
जगह-जगह चोट
लगी हो तो इसी
ने काटा है।
क्योंकि मेरी
हालत देख रहे
हो! काटने की
कोशिश में यह
हालत हो गई।
तो पत्नी ने
नहीं काटा है।
लेकिन देखा
गया आदमी, उसको
कहीं चोट नहीं
थी। तो नसरुद्दीन
ने कहा, इससे
जाहिर होता है
कि यह आदमी
बड़ा कुशल है।
यह बड़ा
अभ्यासी, हठयोगी
मालूम होता
है। यह सालों
के अभ्यास से
ऐसी कला और
सिद्धि आती है
आदमी को। अपना
ही कान काटना
कोई आसान
मामला नहीं
है।
और सब हठयोगी
यही कर रहे
हैं--अपना ही
कान काटने की
कोशिश कर रहे
हैं। तुम उछलो-कूदो
कितने ही, उलटे-सीधे
कितने ही खड़े
होओ, अपना
कान न काट
पाओगे। अपने
को तुम काट ही
न पाओगे।
क्योंकि वहां
तुम ही हो, दूसरा
नहीं है। लड़ो
काम से, क्रोध
से, तुम
कभी जीत न
पाओगे। और तुम
सदा पाओगे कि
काम और क्रोध
तुम्हारे मन
पर सवार हैं।
जिससे तुम लड़े
वह तुम्हारा
पीछा करेगा।
लाओत्से
कहता है, आत्मसात
कर लो।
तो अगर
भोग और त्याग
में चुनना हो
तो मैं भोग के
पक्ष में।
लेकिन अगर भोग
और योग में
चुनना हो तो
मैं योग के
पक्ष में।
क्योंकि योग
अतिक्रमण है, ट्रांसेंडेंस है। वह भोग
के अनुभव से
ऊपर जाना है।
अब तुम
एक प्रयास
करके देखो: जब
क्रोध उठे, द्वार
बंद कर लो, शांत
बैठ जाओ, उठने
दो क्रोध को।
तुम न तो
क्रोध किसी पर
प्रकट करो, और न तुम
क्रोध के
विपरीत लड़ो
और उसे दबाओ।
तुम उठने दो
क्रोध को, उसे
पूरी छूट दे
दो कि तुझे जो
होना है हो।
मन में बड़े
विचार उठेंगे,
बड़ी तरंगें
आएंगी, किसी
की हत्या कर
देनी है। उठने
दो तरंगें, कोई चिंता
नहीं, तुम
दूर खड़े देखते
रहो, जैसे
सिर्फ एक
दर्शक हो।
कितनी देर यह
टिकेगा? थोड़ी
ही देर में
तुम पाओगे
लहरें जा
चुकीं, सब
शांत हो गया।
ऊर्जा वापस
अपने स्रोत
में गिर गई।
ऐसे ही
कामवासना की
ऊर्जा भी वापस
अपने स्रोत में
गिर जाती है।
और जो इस कला
में निष्णात
हो जाता है
उसके पास इतनी
ऊर्जा होती है
कि जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
महावीर
ने तो कहा है, अनंत
वीर्य! ऐसा
व्यक्ति अनंत
ऊर्जा से भर
जाता है।
इतनी
ऊर्जा हो
तुम्हारे
पंखों में तो
ही परमात्मा
की तरफ उड़
पाओगे। तो न
तो तुम्हारा
त्यागी उड़
पाता है, क्योंकि
वह लड़ने से ही
मरा जा रहा है;
न तुम्हारा
भोगी उड़ पाता
है, क्योंकि
वह भोग में
टूटा जा रहा है;
दोनों से
अलग है
यात्रा। भोग
में योग को
साध लो। मेरी
संन्यास की
वही परिभाषा
है कि तुम जहां
हो वहीं अपनी
ऊर्जा को
आत्मसात करने
लगो, व्यर्थ
मत गंवाओ। न
लड़ने की कोई
जरूरत है, न
फेंकने की कोई
जरूरत है। लीन
कर लेना है।
तो जब
क्रोध आए तब
तुम लड़ने आगे
मत बढ़ो, तुम
पीछे हट जाओ।
जब क्रोध की
बिजली चमके तब
तुम कोई
संघर्ष खड़ा मत
करो, तुम
शांत बैठ जाओ।
चमकने दो
बिजली, वह
तुम्हारी ही
ऊर्जा है। और
जल्दी ही तुम
पाओगे--जैसा
मैंने कहा, कमजोर क्रोध
करता है; शक्तिशाली
करुणा करता है,
वह भी तुमसे
कह देना
चाहिए--जब
शक्ति बहुत होती
है तब क्रोध
तो होता ही
नहीं, करुणा
ही होती है।
वह बहुत शक्ति
का लक्षण है।
क्रोध तो कम
शक्ति का
लक्षण है।
क्रोध तो दिवालिया
शक्ति का
लक्षण है।
करुणा महान
शक्ति का
लक्षण है। गहन
होती है शक्ति,
तब तुमसे
करुणा ही पैदा
हो सकती है।
और
क्रोध और
करुणा की
शक्ति एक ही
है,
मात्रा का
ही भेद है।
कामवासना
छोटी शक्ति का
लक्षण है; प्रेम
महान शक्ति का
लक्षण है। जब
शक्ति विराट
होती है तो
प्रेम बन जाती
है; जब
शक्ति
क्षुद्र होती
है, बूंद-बूंद
चूती है, तब कामवासना
बन जाती है।
शक्तियां वही
हैं। जब शक्ति
कम होती है तब
अहंकार बन
जाती है; जब
विराट होती है
तो परमात्मा
बन जाती है।
जब तुम
छोटे-छोटे
होते हो, थोड़े-थोड़े
होते हो, तो
तुम्हारी
सीमा होती है;
जब तुम ओवरफ्लो
होते हो, बहने
लगते हो चारों
तरफ
कूल-किनारे
तोड़ कर, तब
तुम विराट हो
जाते हो।
आत्मसात
करो शक्ति को; छिद्रों
से बाहर मत जाने
दो। और लड़ो
भी मत। कितनी
देर टिकेगा
क्रोध, यह
कभी तुमने
खयाल किया? कितनी देर
टिकेगा दुख? कितनी देर
टिकेगा
तुम्हारा सुख?
सभी
क्षणभंगुर
हैं। तुम जरा
रुको तो। वे
अपने आप आते
हैं और चले
जाते हैं। तुम
नाहक बीच में खड़े
हो जाते हो।
तुम अपने को
हटा लो। सुबह
होती है, सांझ
होती है; ऐसे
ही दुख आते
हैं, सुख
आते हैं।
वर्षा होती है,
ग्रीष्म
होता है; ऐसे
ही क्रोध आता
है, दया
आती है। वसंत
है और पतझड़
है; ऐसे ही
तुम्हारे मन
के मौसम हैं।
तुम जल्दी मत
करो। सब अपने
से आता है, चला
जाता है।
तुम्हारी कोई
जरूरत ही नहीं
है बीच में
आने की। तुम
थोड़े दूर खड़े
होना सीख लो।
जरा सा फासला,
और बड़ी
क्रांति हो
जाती है।
तो
भीतर के लिए
भी यही रणनीति
है।
"शत्रु
की शक्ति को
कम कर आंकने
से बड़ा अनर्थ
नहीं है।
शत्रु की
शक्ति का
अवमूल्यन
मेरे खजाने
को नष्ट कर
सकता है।
इसलिए जब दो
समान बल की सेनाएं
आमने-सामने
होती हैं तब
जो सदाशयी
है, झुकता
है, वही
जीतता है, वही
जयी होता है।'
बाहर
के युद्ध के
लिए भी शत्रु
की शक्ति को
कभी कम मत
मानना।
अन्यथा वही
तुम्हारी हार
बनेगी। शत्रु
की शक्ति को
अपने से
ज्यादा ही
मानना, तो ही
तुम तत्पर रह
सकोगे, तो
ही तुम सजग
रहोगे। जिसने
शत्रु की
शक्ति को कम
मान लिया, वह
हारने के
रास्ते पर जा
चुका।
लेकिन
अहंकार हमेशा
उलटा करता है।
अहंकार अपनी
शक्ति को बहुत
मानता है; दूसरे
की शक्ति को
हमेशा कम करके
मानता है। अहंकार
खुद को तो फुला
कर रखता है; दूसरे को सिकुड़ा
कर देखता है।
इसलिए अहंकार
जगह-जगह
पराजित होता
है और दुख
पाता है। विनम्रता
सदा दूसरे को
बड़ा मानती है।
अपने को सदा
छोटा मानती
है। इसलिए अगर
विनम्र आदमी
से कभी कोई
अहंकारी आदमी
जूझ जाए तो
अहंकारी हारेगा
ही। उसके
हारने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए नहीं कि
विनम्र उसे
हराता है, बल्कि
उसका अहंकार
ही उसे हरा
देता है।
मैंने
सुना है कि एक
राजनीतिज्ञ
को एक जंगल में
एक आदिवासी
कौम ने पकड़
लिया। वह
आदिवासी कौम
नरभक्षी है।
आदिवासी कौम
का जो प्रधान
था वह कभी-कभी
राजधानी भी
गया था
उत्सवों में।
गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता
दिवस, उसको
निमंत्रण मिलते
थे। वह अकेला
आदमी था जो
राजधानी होकर
आया था। सारा
कबीला तो
उत्सुक था कि
जल्दी से जल्दी
इस
राजनीतिज्ञ
का भुरता
बनाया जाए और
खा लिया जाए।
वे भूखे थे।
बहुत दिन से
आदमी नहीं मिला
था। लेकिन वह
कबीले का जो
प्रमुख था वह
उसकी बड़ी
प्रशंसा और
स्तुति कर रहा
था कि तुम
महान से महान
नेता हो, तुम
जैसा
बुद्धिमान
नेता संसार
में कहीं भी नहीं
है। असली में
तुम्हीं को
प्रधानमंत्री
होना चाहिए।
लेकिन लोग
नासमझ हैं और
तुमको अभी तक
नहीं पहचान
पाए।
आखिर
लोग परेशान हो
गए। एक ने आकर
कान में कहा कि
क्या बकवास
लगा रखी है! हम
भूखे हैं, इसका
भुरता बनाएं।
उसने कहा, तुम
ठहरो। यह
राजनीतिज्ञ
है। पहले इसे फुला देने
दो तो जरा यह
ज्यादा बड़ा हो
जाएगा, तो
सब का पेट भर
सकेगा। जरा
बड़ा इसे कर
लेने दो।
अहंकार
को फुलाए
जाओ,
वह बड़ा होता
जाता है। वह रबड़ के
फुग्गों जैसा
है। और उसे
पता नहीं कि
जितना बड़ा
होगा उतना ही
फूटने के करीब
आ रहा है।
अहंकार अपने
से ही टूटता
है, किसी
को तोड़ने की
जरूरत नहीं।
वह खुद
आत्मघाती है।
लाओत्से
कहता है, शत्रु
की शक्ति को
कम आंकने से
बड़ा अनर्थ
नहीं है। उससे
तुम्हारा
जीवन का खजाना
नष्ट हो सकता
है। इसलिए जब
दो समान बल की
सेनाएं आमने-सामने
होती हैं, तब
वही जीतता है
जो सदाशयी
है, झुकता
है, विनम्र
है।
विनम्रता
में बड़ी
सुरक्षा है; अहंकार
में बड़ी
असुरक्षा है।
क्योंकि
विनम्रता को
तोड़ा नहीं जा
सकता; अहंकार
तो अपने आप ही
टूट रहा है।
तुम्हारे सहारे
के बिना भी
टूट जाएगा।
तुम्हें
तोड़ने की जरूरत
भी नहीं है।
अहंकार तो
अपने आप ही
जहर है।
विनम्रता
अमृत है।
यह
बाहर के
शत्रुओं के
संबंध में तो
सच है ही, भीतर
के शत्रुओं के
संबंध में भी
सच है। तुम क्रोध
को छोटा करके
मत मानना, नहीं
तो मुश्किल
में पड़ोगे।
बहुत लोगों ने
माना और
मुश्किल में
पड़े हैं। तुम कामवासना
को छोटा करके
मत मानना।
जिन्होंने माना
वे झंझट में
पड़ गए हैं।
कामवासना बड़ी
ऊर्जा है।
सारी प्रकृति
का खेल उसमें
छिपा है। सारी
प्रकृति की
जीवन-धारा है
काम-ऊर्जा, छोटा करके
मत मानना।
छोटा करके
मानने वाले सब
तरफ हैं। वे
तुम्हें
जगह-जगह मिल
जाएंगे।
एक संन्यासी
मेरे पास आए।
वे कुछ दिन
मेरे पास रुके।
मैंने उनको
कहा कि तुम और
सब तो ठीक है, मगर
ये लकड़ी की खड़ाऊं
घर में मत
पहनो। दिन भर
खटर-पटर! तुम
जहां जाते हो
यह तो बड़ा
उपद्रव है।
उन्होंने कहा,
यह तो पहननी
ही पड़ेगी; क्योंकि
नहीं तो
ब्रह्मचर्य
खंडित हो
जाएगा। मैंने
कहा, क्या
पागलपन की बात
है! लकड़ी की खड़ाऊं
से
ब्रह्मचर्य
का क्या
लेना-देना? उन्होंने
कहा, आपको
पता होना
चाहिए, मेरे
गुरु ने बताया
है, और ऐसी
पुरानी धारणा
है भारत में
कि दोनों अंगुलियों
के बीच में, अंगूठे और
अंगुली के बीच
में जब लकड़ी
की खड़ाऊं पकड़ी जाती
है, तो
वहां कोई नस
है, उस नस
पर दबाव पड़ने
से आदमी
ब्रह्मचारी
रहता है।
कितना छोटा
करके मान रहे
हो तुम
ब्रह्मचर्य
को और
कामवासना को!
तो मैंने उनसे
कहा, तुझे
ब्रह्मचर्य
उपलब्ध हुआ? उसने कहा, अभी हुआ तो
नहीं इसीलिए
तो खड़ाऊं
छोड़ भी नहीं
सकता। यह तर्क
होता है भीतर।
अभी हुआ नहीं।
कितने दिन से खड़ाऊं
पहनते हो? उसने
कहा, कोई
आठ साल हो गए।
तो आठ साल में
भी ब्रह्मचर्य
उपलब्ध नहीं
हुआ। थक गया
तेरा अंगूठा
भी, नस भी
अब तक जड़ हो
चुकी होगी। और
अगर नसबंदी ही
करवानी है तो
अस्पताल में
जाकर करवा लो।
खड़ाऊं का
झंझट काहे के
लिए लेकर चलना?
छोटा
करके मत मान
लेना, नहीं तो
तुम जो उपाय
करोगे वे बहुत
छोटे होंगे।
और उन उपायों
से तुम जो
पाना चाहते हो
वह बहुत बड़ा
है। बहुत से
लोग इसी तरह
के उपाय कर
रहे हैं। एक
योगी को मैं
जानता हूं, जो आएंगे तो
वे पहले पूछते
हैं कि इस जगह
पर कोई स्त्री
तो नहीं बैठी
थी? मैं
पूछा कि यह
मामला क्या है?
उन्होंने
कहा, दस
मिनट तक उस
स्थान पर
स्त्री की
शक्ति, स्त्रैण-शक्ति
की तरंगें
रहती हैं, और
उनसे
ब्रह्मचर्य
में खंडन हो
जाता है।
अब यह
पागल है।
स्त्री बैठी
थी,
उस जगह
बैठने में
इनको घबराहट
और डर है। और
यह पूरी पृथ्वी
स्त्री है।
जहां बैठोगे
वहीं स्त्री
है। इसीलिए तो
हम पृथ्वी को
माता कहते
हैं। और कैसे
बचोगे तुम
स्त्री से? स्त्री से
पैदा हुए हो।
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
स्त्री है। जब
एक बच्चे का
जन्म होता है
तो आधा तो दान
बाप का होता
है, आधा
मां का होता
है। तो
तुम्हारा आधा
शरीर स्त्री
है, आधा
पुरुष है।
एक-एक कण में
स्त्री और
पुरुष छिपे
हैं। और तुम
कुर्सी पर
बैठने में डर
रहे हो और आधी
स्त्री भीतर
लिए चल रहे
हो। जिसको तुम
हिमालय चले
जाओ, कैलाश,
तो भी कोई
उपाय नहीं है।
वह तुम्हारे
साथ ही रहेगी।
तुम्हारे
शरीर का कण-कण
स्त्री-पुरुष
के मेल से बना
है। और इतने
अगर डरे हुए हो
कि दस मिनट
पहले बैठी हुई
स्त्री की
तरंगें
तुम्हें
दिक्कत देंगी,
तब तुम बच न
पाओगे। सब तरफ
स्त्रियां
घूम रही हैं, तरंगें ही
तरंगें हैं।
जहां जाओगे
वहीं स्त्रियां
हैं, पुरुषों
से थोड़ी
ज्यादा ही
हैं। कहां
जाओगे? बचोगे
कहां?
लेकिन
तुमने शत्रु
को छोटा करके
मान लिया है। इसलिए
तुम छोटे-छोटे
उपाय कर रहे
हो। तुम चम्मचों
से सागर को
खाली करने की
कोशिश में लगे
हो। यह कभी
खाली न होगा।
भीतर
की शक्तियों
को भी छोटा
करके मत
मानना। क्रोध
भी बड़ी विराट
शक्ति है।
इसीलिए तो
जिंदगी भर
कोशिश करके भी
मिटता नहीं।
रोज तय करते
हो कि अब न
करेंगे, और जब
आता है तब
बिलकुल भूल
जाते हो। जब
आता है तब याद
ही नहीं रहती।
सब निर्णय, सब संकल्प
मिट्टी हो
जाते हैं। जब
आता है तो झंझावात
की तरह पकड़
लेता है। हां,
जब चला जाता
है तब तुम फिर
बुद्धिमान हो
जाते हो। फिर
पछताने लगते
हो कि यह गलती
हो गई आज। अब
दोबारा न
करूंगा। और
तुम यह भी
नहीं सोचते कि
यह बात तुम
कितनी बार कह
चुके हो कि
दुबारा न
करूंगा।
कामवासना पकड़ती
है तब तुम
बिलकुल पागल
हो जाते हो।
हां, जब
कामवासना जा
चुकी तब
तुम्हें सब
ब्रह्मचर्य
की बातें याद
आने लगती हैं।
तब तुम सोचने
लगते हो कि
ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।
उठा लेते हो
किताबें और ब्रह्मचर्य
के शास्त्र
पढ़ने लगते हो
और निर्णय करते
हो: बस अब यह
आखिरी हो गया।
और तुम कभी यह
पूछते भी नहीं
कि कितनी बार
तुमने कहा कि
यह आखिरी हो
गया। और इतने
बार हार कर भी,
तुम्हारी
बेशर्मी की हद
है, कि तुम
फिर-फिर वही
कहे चले जाते
हो कि अब की बार
आखिरी हो गया।
शरम भी नहीं
आती। यह भी
नहीं देख पाते
कि कितनी बार
पराजित हो
चुके। फिर अब किस
मुंह से यह
निर्णय कर रहे
हो। कम से कम
यह मुंह ही
बंद कर दो, यह
निर्णय ही छोड़
दो।
एक
बूढ़े आदमी ने कलकत्ते
में मुझे कहा।
वे एक बहुत
अनूठे आदमी
थे। उन्होंने
मुझसे कहा कि
मैंने चार बार
ब्रह्मचर्य
का निर्णय
जीवन में
लिया। एक मूरख
सज्जन भी मेरे
पास बैठे थे, वे
बड़े प्रभावित
हुए। मैंने
कहा, तुम
प्रभावित न
होओ, पहले
पूछो तो कि
ब्रह्मचर्य
का संकल्प भी
चार बार लेना
पड़ता है? तो
पहली बार लिया
उसका क्या हुआ?
फिर दूसरी
बार लिया उसका
क्या हुआ? फिर
तीसरी बार
लिया उसका
क्या हुआ? तुम
इतने
प्रभावित! वे
चार बार से
बहुत प्रभावित
हुए, कि
चार बार!
मैंने कहा, यह चार बार
का मतलब क्या
होता है? और
मैंने कहा कि
तुम जल्दी मत
करो, क्योंकि
मेरा हिसाब
कुछ और है।
मैं यह पूछता
हूं कि पांचवीं
बार क्यों
नहीं लिया? तो उन्होंने
कहा, मैं
इतना हार गया
कि फिर मेरी
हिम्मत ही न
रही।
वह
आदमी ईमानदार
है। फिर मेरी
हिम्मत न रही।
चार बार बहुत
हो गया। जब
बार-बार हारना
है और पराजय
बार-बार होनी
है,
तो अब
निर्णय भी किस
मुंह से लेना?
क्या सार है
लेने का?
शक्ति
को छोटी करके
मत मानना। सब
शक्तियां विराट
हैं;
क्योंकि
सभी शक्तियां
परमात्मा से
ही आती हैं।
सभी शक्तियां
विराट हैं।
चाहे ऊपर से
तुम्हें लहर
छोटी दिखाई
पड़ती हो, नीचे
तो सागर ही
छिपा है।
क्रोध भी उसका
है, काम भी
उसका है। तुम
छोटा करके मत
मानना। खड़ाऊंओं
से हल न होगा।
जिस
दिन तुम यह
समझोगे कि यह
सभी विराट का
है,
और सभी
विराट है, उस
दिन तुम लड़ाई
तो उठाओगे ही
नहीं। विराट
से क्या लड़ना
है? तब तुम
दर्शक हो
जाओगे, द्रष्टा
हो जाओगे। और
जैसे ही कोई
व्यक्ति अपने
भीतर साक्षी
हो जाता है, हट जाता है, लड़ाई नहीं
करता, चुपचाप
देखता है। जो
भी विराट की
लीला चल रही है
उसका
निरीक्षण
करता है, बिना
किसी निर्णय
के। न तो कहता
है यह बुरा है,
न कहता है
वह भला है। न
तो
ब्रह्मचर्य
के पक्ष में
है, न काम
के पक्ष में
है। देखता है
कि क्या हो
रहा है, कैसा
यह खेल है! कि
काम उठता है, अगर तुम उस
बीच उसके साथ
जुड़ जाओ, साक्षी-भाव
खो जाए तो भोग
लोगे; अगर
उस बीच तुम
उससे लड़ने लगो
तो
ब्रह्मचर्य का
संकल्प कर
लोगे। लेकिन
अगर तुम सिर्फ
देखते रहो, कर्ता बनो
ही न, इधर न
उधर, इस
तरफ न उस तरफ, न पक्ष में न
विपक्ष में, तो तुम एक
बड़े अनूठे
रहस्य पर
पहुंचते हो; वही
काम-ऊर्जा
वापस तुम में
समा जाती है।
तुमसे ही उठी
थी; वर्तुल
पूरा हो जाता
है। तुम उसका
कोई उपयोग नहीं
करते--न लड़ने
में, न
भोगने में।
उपयोग ही नहीं
होता।
कामवासना फिर
वापस अपने में
समा जाती है।
और जब
कामवासना
वापस तुम में
समाती है तब
तुम इतनी
मधुरिमा से भर
जाओगे, ऐसी
मिठास उठने
लगेगी पूरे
व्यक्तित्व
में, ऐसी
गहन शांति का
तुम्हें
अनुभव होगा जो
बिलकुल
अपरिचित है।
कोई सुर बजने
लगेगा
तुम्हारे भीतर
जब शक्ति
तुम्हारी तुम
में वापस लौट
आती है।
वह
मिलन है। उसी
का नाम योग
है। जहां से
उठी शक्ति
वहीं वापस मिल
जाए,
उसका नाम
योग है। वह
परम संभोग है।
वहां तुमने
अपने को ही
अपने में भोग
लिया। वहां एक
ने एक को ही
भोग लिया।
वहां दूसरे की
जरूरत न रही; वहां
तुम्हें अपना
ही स्वाद आ
गया। और वह
स्वाद इतना महान
है कि सब
स्वाद फीके पड़
जाते हैं। और
वह नृत्य इतना
अनूठा है। जब
शक्ति तुममें
नाचती हुई वापस
लौट आती है, बिना संसार
में खोए, बिना
भोगी बने, बिना
त्यागी बने, जब ऊर्जा
तुममें वापस
लौट आती है
नाचती हुई, तब तुम
मंदिर बन जाते
हो।
उस घड़ी
में जो घटता
है उसका नाम
समाधि है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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