जीवन एक
वर्तुल है—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक
25 जून 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
आज
एक लोककथा
जैसी दिखने
वाली सूफी
कहानी का अर्थ
आप
हमें समझाने
की कृपा करें।
एक
चोर चोरी के
इरादे से
खिड़की की राह, एक महल में
घुस रहा था।
खिड़की
की चौखट के
टूटने से वह
जमीन पर गिर
पड़ा और उसकी
टांग टूट गई।
चोर
ने इसके लिए
महल के मालिक
पर अदालत में
मुकदमा कर
दिया।
गृहपति
ने कहा, 'इसके लिए तो
चौखट बनाने
वाले बढ़ई पर
मुकदमा होना
चाहिए।'
बढ़ई
जब बुलाया गया, तब उसने कहा,
'राज ने
खिड़की का
द्वार ठीक से
नहीं बनाया
इसलिये
दोषी राज है।' और राज ने
अपनी सफाई में
कहा कि मेरे
दोष के लिए
वह
सुंदर स्त्री जुम्मेवार
है, जो
उसी वक्त उधर
से निकली थी;
जब
मैं खिड़की पर
काम करता था।
और उस स्त्री
ने अपनी सफाई
में कहा,
'उस
समय मैं एक
बहुत खूबसूरत
दुपट्टा ओढ़े
थी। साधारणतः
तो
मेरी ओर कोई
ताकता नहीं
है। यह इस
दुपट्टे का
कसूर है,
जो
कि चतुराई के
साथ
इंद्रधनुषी
रंग में रंगा गया।'
इस
पर न्यायपति
ने कहा, 'अब अपराधी
का पता चल
गया।
उस
चोर की टांग
टूटने के लिए
यह रंगरेज जुम्मेवार
है।'
लेकिन
जब रंगरेज
पकड़ा गया, तब वह उस
स्त्री का पति
निकला,
और यह
भी पता चला कि
वही खुद चोर
भी था!
कहानी
प्रीतिकर है।
पहली
बात: कि जीवन
एक संयुक्त
घटना है; सब
जुड़ा है। ऊपर
से देखते हैं
तो कहानी
बेबूझ मालूम
पड़ती है, मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ती
है। और
न्यायाधीश
पागल मालूम
पड़ता है।
लेकिन कहानी
बड़ी कीमती है।
कहानी
जिंदगी के संबंध
में ज्यादा सच
है, बजाय
तुम्हारे
शास्त्रों के;
बजाय
तुम्हारे
सिद्धांतों
के; क्योंकि
जीवन का
प्राथमिक
सत्य यह है कि
हम अलग-अलग
नहीं हैं, इकट्ठे
हैं। और अगर
कहीं कोई चोरी
कर रहा है, तो
साधु भी जुम्मेवार
है, जिसका
चोरी से कोई
संबंध नहीं
दिखाई पड़ता।
कहीं अगर
युद्ध हो रहा
है तो
तुम--जिन्हें
कि उसकी खबर
भी नहीं
है--तुम भी
अपराधी हो।
क्योंकि जीवन
संयुक्त है।
यहां
घटनाएं
अलग-अलग कटी
हुई, बंटी हुई
नहीं हैं। हम
सब जुड़े हैं
और हम सब एक ही
चेतना के भाग
हैं। हम सब
लहरें एक ही
सागर की हैं।
अगर पास में
कोई लहर कंपती
है, तो
हमारा उसमें
हाथ है।
बुद्ध
ने कहा है, कि जब तक
आखरी पापी
मुक्त न हो
जाये, तब
तक मैं मुक्त
कैसे हो
सकूंगा? यह
सिर्फ करुणा
की बात नहीं, सत्य है।
अगर जीवन
इकट्ठा है, तो यह कैसे
संभव है, कि
एक व्यक्ति
मुक्त हो
जाये! बुद्ध
ने कहा है, 'रुकूंगा द्वार पर
निर्वाण के, उस समय तक, जब तक अंतिम
यात्री
प्रवेश न कर
जाये।'
लोगों
ने समझा कि यह
सिर्फ महा
करुणा का वचन
है। करुणा तो
उसमें है ही, लेकिन कुछ
और भी है। वह
यह है कि आखरी
पापी भी बुद्ध
का ही हिस्सा
है। तो जब
मेरा एक हाथ
पाप कर रहा हो,
तो मेरी
आत्मा स्वर्ग
में कैसे
प्रवेश कर
सकेगी? जब
मेरा बायां
हाथ पाप करता
हो तो मेरा
दायां हाथ
साधु कैसे हो
सकेगा? पहली
तो यह बात समझ
लें।
और
दूसरी बात यह
समझें कि जीवन
अगर गणित जैसा
हो तो यह
न्यायाधीश
पागल है, और
यह सूफी कथा
विक्षिप्तता
की है। लेकिन
जीवन गणित
जैसा नहीं है,
साफ-सुथरा
नहीं है, यहां
हर चीज एक
दूसरे में
घुल-मिल जाती
है। यहां
सीमाएं बंटी
हुई नहीं हैं;
एक दूसरे के
साथ जुड़ी हैं।
वस्तुतः
सीमाएं नहीं
हैं। चोर साधु
में पिघल रहा
है, साधु
चोर में पिघल
रहा है।
प्रतिपल तुम
कभी साधु होते
हो, कभी
चोर हो जाते
हो।
जिंदगी
तरल है, ठोस
नहीं है।
इसलिये
खंडों में
बांटने का
उपाय नहीं है।
सुबह जब तुम
प्रार्थना
में बैठे थे
तो तुम परम साधु
थे। फिर तुम
दुकान पर
पहुंच जाते हो, साधुता खो
जाती है; तुम
चोर हो जाते
हो। फिर मंदिर,
फिर
प्रार्थना; फिर ध्वनि
उठती है
मंत्रों की, घंटनाद होता है, तुम
बदल जाते हो।
आदमी
तरल है।
तर्क
सही हो सकता
है, अगर
जिंदगी ठोस
होती। जिंदगी
ठोस नहीं है, तरल है; इसलिये
तर्क सही नहीं
हो सकता।
यह
कहानी बड़ी
अतक्र्य है, इललाजिकल है। पर जीवन
ही अतक्र्य है;
उसे समझने
का बुद्धि से
कोई भी उपाय
नहीं है। उसे
समझने के लिए
कोई और आंखें
चाहिये, जो
बुद्धि नहीं
देती।
ऐसा
हुआ, चीन में
लाओत्से को
मानने वाला
उसका एक भक्त,
न्यायाधीश
हो गया। पहला
ही मुकदमा
उसके हाथ में
आया। एक आदमी
ने चोरी की थी,
बड़ी चोरी की;
चोर ने
स्वीकार भी कर
लिया। जिस
धनपति के घर चोरी
हुई थी, वह
प्रसन्न था।
तब न्यायाधीश
ने अपना
निर्णय दिया,
और उसने कहा
कि छह महीने
की सजा चोर के
लिए, और छह
महीने की सजा
साहुकार के
लिए। जिस के
घर चोरी हुई
है, वह भी
छह महीने के
लिए जेल; और
जिसने चोरी की
है, वह भी
छह महीने के
लिए जेल।
धनपति ने कहा
कि तुम पागल
तो नहीं हो गए
हो? बुद्धि
तो तुम्हारी
ठीक है? मेरे
घर चोरी हुई, और मुझे जेल?
उस
न्यायाधीश ने
कहा, कि
तुमने इतना धन
इकट्ठा कर
लिया, इसलिये
चोरी हुई। और
जब भी कोई
इतना धन
इकट्ठा कर
लेगा, चोरी
नहीं होगी तो
क्या होगा? यह चोर नंबर
दो का कसूरवार
है। और दया है
मेरी कि
तुम्हें भी छह
महीने की सजा
देता हूं, अन्यथा
तुम छह साल के
योग्य थे।
और जब
तक चोर ही
दंडित किया
जायेगा, तब
तक चोरी बंद न
होगी।
क्योंकि चोर
सिर्फ आधा
कसूरवार है।
उससे भी पहले
किसी ने धन
इकट्ठा कर
लिया, तब
तो चोरी हो
सकती है!
उस
न्यायाधीश ने
कहा, 'पूरा
गांव भूखा मर
रहा है, सिर्फ
तुम्हारे पास
संपदा है, और
इन्हीं सबसे
तुमने संपदा छीनी है।
वे भूखे मर
रहे हैं, क्योंकि
तुम्हारी
तिजोरी भरी
है। उनके पेट
खाली हैं
क्योंकि
तुमने तिजोरी
भर ली है।
कसूरवार कौन
है?'
न्यायाधीश
निकाल दिया
गया पद से, क्योंकि
सम्राट की समझ
में यह बात न
आई। और सम्राट
को भी डर लगा
होगा कि अगर
आज धनपति जाता
है जेल, तो
कल यह
न्यायाधीश
मुझे जेल भेज
सकता है। इसलिये
अपराधियों की
सांठ-गांठ है।
बड़े अपराधियों
की सांठ-गांठ
है। सम्राट से
किसी ने पूछा
कि यह बात तो
ठीक मालूम
पड़ती थी; यह
न्यायाधीश
गलत तो नहीं
था। सम्राट ने
कहा, 'गलत
और सही का
सवाल नहीं है,
अगर यह सही
है तो मैं भी
अपराधी हूं।
यह नहीं हो
सकता। इसलिये
इस न्यायाधीश
को गलत होना
ही पड़ेगा।'
तो धनपतियों
की एक
सांठ-गांठ है।
और उनकी
सांठ-गांठ की
वजह से चोरी
पैदा होती है।
और जब चोरी
पैदा होती है
तो चोरी अपराध
है।
लाओत्से
ने कहा है, 'जब तक धनपति
है, तब तक
दुनिया से
चोरी नहीं
मिटाई जा
सकती। और जब
तक दुनिया में
साधु हैं, तब
तक असाधु भी
रहेंगे।'
धनपति
के साथ चोर का
संबंध तो हम
समझ भी लें; साधु के साथ
असाधु का
बिलकुल समझ
में नहीं आता।
तो हम कहेंगे
ठीक है, यह
बात भी समझ
में आती है कि
बहुत धन इकट्ठा
तुम कर लोगे, तो कोई न कोई
चोरी करेगा, लेकिन क्या
यह बात
सूक्ष्म
अर्थों में
साधु के साथ
भी लागू नहीं
है? कि जो
बहुत गुण
इकट्ठे कर
लेगा, वह
कहीं किन्हीं
लोगों को
दुर्गुण में
छोड़ देगा। जो
इतनी साधुता
साध लेगा, उसकी
साधुता के
साधने के लिए
किसी न किसी
को असाधु हो
जाना पड़ेगा, क्योंकि
जीवन एक
संतुलन है।
वहां बेलेंस
चाहिए, नहीं
तो जीवन खो
जायेगा।
तुम
सोच भी तो
नहीं सकते कि
अगर राम अकेले
हों और रावण न
हों तो राम की
कथा कैसे खड़ी
रहेगी? तो
राम की कथा
में कौन नायक
है--राम या
रावण? जो
भी कहे राम, वह गलत। जो
भी कहे रावण, वह गलत। राम
और रावण
संयुक्त नायक
हैं। क्योंकि
दोनों एक साथ
ही हो सकते
हैं। रावण न
हो तो राम
नहीं हो सकते।
राम न हो तो
रावण नहीं हो
सकते। राम-कथा
गिर जायेगी, क्योंकि
राम-कथा चलती
है राम और
रावण के संतुलन
पर। पूरा खेल
चलता है। जैसे
नट चलता है
रस्सी पर; तो
कभी बायें
झुकता है, कभी
दायें झुकता
है। जब लगता
है उसे कि
दायें ज्यादा
झुक गया है, तो संतुलन
लाने के लिए
बायें झुकता
है। जब लगता
है अब गिर जाऊंगा
बायें, तो
संतुलन लाने
के लिए दायें
झुकता है।
समाज
एक संतुलन है।
वहां
साधु-असाधु; गरीब-अमीर; बुद्धिमान-बुद्धिहीन
एक दूसरे को
संतुलित कर
रहे हैं।
गुरजिएफ
का एक अनूठा
खयाल था कि
दुनिया में बुद्धिमत्ता
की भी मात्रा
है। और जब एक
व्यक्ति बहुत
बुद्धिमान हो
जाता है, तो
निश्चित बहुत
लोगों को
बुद्धिहीन
छोड़ देता है।
कसूरवार कौन
है? इसमें
थोड़ी सचाई
मालूम पड़ती है,
गुरजिएफ के
सिद्धांत
में। और इस
सिद्धांत के
आधार पर
बहुत-सी बातें
साफ हो सकती
हैं।
जैन
कहते हैं, कि केवल एक
कल्प में
चौबीस
तीर्थंकर हो
सकते हैं; पच्चीस
नहीं हो सकते।
पर क्यों
चौबीस? हिंदू
कहते हैं, एक
कल्प में केवल
चौबीस अवतार
हो सकते हैं, पच्चीस
नहीं। पर
क्यों चौबीस?
बौद्ध कहते
हैं, कि एक
कल्प में
बुद्ध चौबीस
हो सकते हैं, ज्यादा
नहीं! पर
क्यों चौबीस?
क्या राज है?
गुरजिएफ
अगर सही हो तो
राज साफ हो
जायेगा। अगर
एक खास मात्रा
है तीर्थंकरत्व
की तो सीमा
निश्चित हो
गई। उतने लोग
ही तीर्थंकर
हो सकते हैं।
और मात्रा चुक
जायेगी। अगर
एक खास मात्रा
है जल की, तो
कुछ लोग ही
तृप्त हो सकते
हैं पानी से, बाकी प्यासे
रह जायेंगे।
और बात सच
मालूम पड़ती है
क्योंकि
बुद्धि भी
भौतिक है; मस्तिष्क
भी भौतिक है।
इसलिये
मात्रा तो होनी
ही चाहिए। और
एक खास मात्रा
से ज्यादा
तीर्थंकर
नहीं हो सकते।
इसका
तो यह अर्थ
हुआ कि
तीर्थंकर भी
दोषी हैं। जो
लोग तीर्थंकर
नहीं हो पाते
उनके लिये वह
उतना ही दोषी
है; जैसा कि
धनी उनके लिए
दोषी है, जो
भिखमंगे
रह जाते हैं।
तो
ज्ञानी भी
अज्ञानी के
लिए भागीदार
है। सूफी इस
कहानी में यही
कह रहे हैं।
बड़ी
मजेदार कहानी
है, इसलिए
बड़ी मीठी है।
एक चोर घुसा
है एक घर में। इरछी-तिरछी
थी खिड़की। चोट
खा गया, सिर
टूट गया, हाथ-पैर
की हड्डी टूट
गई। जाकर उसने
अदालत में
मुकदमा कर
दिया।
पहले
तो हमें लगेगा
कि चोर अकसर
मुकदमा नहीं करते।
लेकिन तुम
गलती में हो।
चोर सबसे पहले
मुकदमा करता
है। अदालतों
में चोरों के
अतिरिक्त और
कोई मुकदमे
करने जाता ही
नहीं। और इसके
पहले कि दूसरा
चोर मुकदमा
करे, होशियार
चोर पहले ही
मुकदमा कर
देता है।
इस
सत्य को थोड़ा
समझने की
कोशिश करो।
अगर अभी यहां
किसी की जेब
कट जाये, तो
जो आदमी जेब
काटेगा वह
सबसे ज्यादा
शोरगुल मचाएगा;
कि जेब
काटना बहुत
बुरा है।
किसने काटा? पकड़ो, मारो!
यह जरूरी है, अगर वह
बुद्धिमान
है। और अगर वह
बुद्धू है, तो वह छिपने
की कोशिश
करेगा। छिपने
में पकड़ा जायेगा।
अगर थोड़ा भी
कुशल है तो
शोरगुल मचाएगा।
शोरगुल से साफ
हो जायेगा, किसी को यह
खयाल भी नहीं
आएगा कि यह
आदमी और चोर
हो सकता है?
बर्ट्रेंड
रसल ने कहा है
कि जब भी कोई
शोरगुल मचाए
चोरी के खिलाफ
तो पहले उसे
पकड़ लेना।
पापी
बहुत ज्यादा
पुण्य की
बातें करते
हैं। क्योंकि
पुण्य की
चर्चा, पाप
को छिपाने के
लिए धुआं बन
जाती है।
असाधु, साधुता
के गुणगान
गाते हैं। व्यभिचारी,
ब्रह्मचर्य
की पर्त खड़ी
करते हैं
चर्चा में; ताकि
व्यभिचार छिप
जाये। असल में
जिसे भी छिपाना
हो, उससे
विपरीत की
बातचीत करनी
चाहिए। जिसे
तुम चाहते हो
प्रगट न हो
जाये, उससे
उल्टा
प्रदर्शन
करना चाहिए।
चोर
अदालत जाते
हैं और छोटे
चोरों को पकड़ा
देते हैं। बड़े
चोर बाहर रह
जाते हैं।
छोटे पापी ही पकड़े जाते
हैं, क्योंकि
कानून का जाल
बड़े पापियों
को नहीं पकड़
पाता; क्योंकि
बड़े पापी तो
कानून का जाल
बनाते हैं। तो
जाल की डोर
उनके हाथ में
है। फिर छोटे
पापी फंस जाते
हैं, क्योंकि
जाल मजबूत और
छोटे पापी
कमजोर। बड़े पापी
मजबूत हैं, जाल तोड़कर
बाहर हो जाते
हैं।
तुम
अगर नदी में
मछलियों को पकड़ने के
लिए जाल डालो, तो तुम उस
मछली को न पकड़
पाओगे, जो
तुम्हारे जाल
से ज्यादा
मजबूत हो। वह तोड़कर
बाहर निकल
जायेगी।
सिर्फ कमजोर मछलियां
पकड़ में आएंगी,
जो जाल को न
तोड़ सकें। तो
छोटे चोर अदालतों
में फंस जाते
हैं, कारागृहों
में सड़ते
हैं। बड़े चोर...!
उनका इतिहास
लिखा जाता है।
नेपोलियन
क्या है? सिकंदर
क्या है? तैमूरलंग क्या है? बाबर,
औरंगजेब,
अकबर, अशोक
क्या हैं? कैसे
ही उनके ढंग
हों ऊपर से, महाचोर हैं। उनसे
बड़े लुटेरे
खोजने
मुश्किल हैं।
पर लूट इतनी
बड़ी है कि लूट
जैसी मालूम
नहीं होती, सम्राट
मालूम होते
हैं। बड़े डाकू
हैं। उनसे बड़े
हत्यारे
खोजने
मुश्किल हैं।
एच. जी. वेल्स ने
लिखा है, 'अगर
तुम एकाध
हत्या करो तो
मुश्किल में
पड़ोगे। अगर
तुम लाखों हत्याएं
करो तो इतिहास
तुम्हारे
गुणगान
करेगा।' इस
जगत में सिर्फ
छोटा फंसता
है, बड़ा बच
जाता है।
चोर
अदालत पहुंच
गया होगा।
होशियार आदमी
था। इसके पहले
कि कोई सवाल
उठाए कि तू
चोरी करने क्यों
गया, उसने
सवाल उठा दिया
कि यह आदमी
शैतान है।
इसने खिड़की
ऐसी बनाई कि
यह किसी की
जान ही ले ले।
यह आदमी
हत्यारा है।
और भी
एक बात समझने
की है कि भला
तुम चोरी करने
गए हो, तब भी
तुम दोषी
दूसरे को ही
मानते हो। वह
भी मन का
सीधा-सा नियम
है। चोर भी
दोषी दूसरे को
मानता है। दोष
हम सदा ही
दूसरे पर रखते
हैं। यह खयाल
ही नहीं आता
कि मैं दोषी
हो सकता हूं।
दीये के तले
हमेशा ही
अंधेरा रहता
है। सब तरफ
रोशनी होती है,
उसी में सब
दिखाई पड़ता
है। 'मैं' भर छिप जाता
हूं।
इस चोर
को भी यह खयाल
न आया कि मैं
चोरी करने गया
था। सिर में
लगी चोट, हाथ-पैर
टूट गए, खयाल
आया कि आदमी, मकान का
बनाने वाला जो
मालिक है, शरारती
है। पहले से
इसने खिड़की
ऐसी बनाकर रखी,
कि किसी की
जान ले ले।
फिर उसने अपने
को समझाया
होगा कि अभी
मैंने कोई
चोरी तो की
नहीं थी, सिर्फ
घुस ही रहा
था। अभी घटना
कोई घटी तो थी
नहीं। इसलिये
दोषी होने का
कोई अभी सवाल
नहीं है।
क्योंकि चोरी
हो जाये तभी
दोष है।
हम कृत्य
में दोष मानते
हैं, विचार
में दोष नहीं
मानते। अगर
तुम किसी की
हत्या कर दो
तभी दोषी हो।
तुम सिर्फ
सोचते हो कि हत्या
कर दें, तो
तो कोई अदालत
तुम्हें पकड़
नहीं सकती। इस
आदमी ने भी
चोरी तो की
नहीं थी, खिड़की
पर ही था अभी; सोचा ही था।
सोचने से तो
कोई चोर होता
नहीं। यह
हमारा मन हमें
समझाता है।
सोचने से कोई
हत्यारा नहीं
होता, व्यभिचारी
नहीं होता। जो
पाप दुनिया
में आदमी, कोई
भी आदमी कर
सकता है, वह
सब तुम करते
हो, लेकिन
मन में! खिड़की
पर ही थे अभी, भीतर तो गये
नहीं थे।
मैंने
सुना है, एक
महिला ने एक
बहुत विशाल
समृद्ध होटल
के मैनेजर को
जाकर कहा बड़े
क्रोध में, कि मैं तो
सोचती थी कि
यह एक
सम्मानित
होटल है।
लेकिन अभी-अभी
मैंने देखा कि
इस होटल का एक
बैरा एक
स्त्री के
पीछे भाग रहा
है। यह अशोभन
है। मैनेजर ने
कहा कि उसने
स्त्री को
पकड़ा तो नहीं?
उसने कहा, नहीं। उस ने
कहा, यह
होटल अभी भी
सम्मानित है।
जब तक वह पकड़
ही न ले, तब
तक इस होटल का
सम्मान खोने
का कोई कारण
नहीं है। जो
अभी हुआ ही
नहीं है, उसके
लिए क्या
शिकायत कर रही
हो?
इस चोर
ने भी सोचा
होगा कि कोई
चोरी तो मैंने
की नहीं। गया
था, मन में
खयाल था, घटना
कोई घटी न थी।
और यह आदमी
शरारती है।
मजिस्ट्रेट
जरूर बड़ी गहरी
समझ का आदमी
रहा होगा।
क्योंकि या तो
गहरी समझ के
आदमी ऐसा काम
कर सकते हैं, या पागल।
उसने कहा, यह
बात ठीक है।
बुलाओ उस आदमी
को; वह जुम्मेवार
है, अपराधी
है। वह आदमी
बुलाया गया।
उसने कहा, क्षमा
करें; मेरा
इसमें कोई
कसूर नहीं है।
जिसने खिड़की
बनाई है, उस
बढ़ई का कसूर
है। बढ़ई को
बुलाया गया और
बढ़ई ने कहा, कि मैं क्या
कर सकता हूं? राज ने इरछी-तिरछी
दीवाल उठाई
थी। कसूर मेरा
नहीं है। राज
बुलाया गया।
उसने कहा, मैं
क्या कर सकता
हूं? जब
मैं दीवाल उठा
रहा था, मन
मेरा
डांवाडोल हो
गया। एक
खूबसूरत औरत
वहां से निकल
गई। मैं उसको
देखने में लग
गया। उतनी देर
में सब
भूल-चूक हो गई।
कसूर उसी
स्त्री का है।
उस स्त्री ने
कहा, मुझे
तो कोई देखता
भी नहीं। पर
उस दिन मैंने
एक दुपट्टा ओढ़ा था, उस
दुपट्टे की सब
भूल-चूक मालूम
पड़ती है, बड़ा
रंगीन था, सतरंगी
था। सभी की
आंखों का
आकर्षण का
केंद्र बन गया
था। रंगरेज का
कसूर है।
एक बात
समझने जैसी है
कि हर आदमी
कसूर दूसरे पर
टालता चला
जाता है। कोई
भी न्यायाधीश
यह नहीं कहता
कि यह क्या
पागलपन है? हर आदमी
कसूर दूसरे पर
टाल देता है।
यही सुगम है, यही आसान
है। और जिंदगी
जुड़ी हुई है, कसूर टाला
जा सकता है।
क्योंकि कोई न
कोई कारण तो
रहा होगा। ठीक
ही कह रहा है
राज कि मैं
क्या कर सकता
हूं! एक
खूबसूरत औरत
निकल गई, उसमें
मेरी आंखें
उलझ गयीं। मन
डांवाडोल हो गया,
वासना से भर
गया, भूल-चूक
हो गई।
यह
कहानी पागलपन
की लगती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक
यही कहते हैं।
अगर बच्चा
पागल हो गया
तो वे कहते
हैं, मां
को पकड़ो। उसने
बचपन में दर्ुव्यवहार
किया होगा।
मां कहती है, मैं क्या कर
सकती हूं? मेरी
मां को पकड़ो।
क्योंकि मेरे
साथ बचपन में दर्ुव्यवहार
हुआ होगा।
किसको पकड़ियेगा?
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, शिक्षक को
पकड़ो, शिक्षाशास्त्री
को पकड़ो, मां-बाप
को पकड़ो, समाज
को पकड़ो--दोष
किसी और का
है। अगर आज
पश्चिम में
इतने जोर से
युवकों में
बगावत है, तो
उस बगावत का
नब्बे
प्रतिशत कारण
मनोविज्ञान
की धारणायें
हैं।
मनोविज्ञान
कहता है, कोई
न कोई कसूरवार
है। कसूर तुम
में तो पैदा
हो ही नहीं
सकता, क्योंकि
बच्चा तो
शुद्ध पैदा
होता है। कोई
न कोई उसके मन
को विकृत करता
है। जो विकृत
करता है, वही
कसूरवार है।
लेकिन इसका तो
यह अर्थ हुआ, कि सिवाय
परमात्मा के
और कोई
कसूरवार नहीं
हो सकता; क्योंकि
पकड़ते
जाओ, हटते
जाओ पीछे।
तो बढ़ई
कहता है, राज;
राज कहता है,
औरत; औरत
कहती है, रंगरेज।
कहानी
का अंत हो सका, क्योंकि
संयोग से
रंगरेज उसका
पति था। और
इतना ही संयोग
नहीं था, वही
आदमी चोर था; जो अदालत के
सामने मुकदमा
लाया था, वही
चोरी करने
घुसा था।
इसलिये
एक अनूठा आयाम
है कहानी में।
अगर हम जगत
में दोषी को पकड़ने
जायें, तो
जब तक
परमात्मा न
मिल जाये, तब
तक दोषी को पकड़ना
असंभव है।
किसको दोषी ठहराइएगा?
महावीर
ने परमात्मा
को इनकार किया
सिर्फ इस कारण
से क्योंकि
अगर परमात्मा
है, तो तुम
दोषी नहीं हो
सकते। तुम
कैसे दोषी हो
सकते हो? जिसने
तुम्हें
बनाया है, उसने
बनाया इस ढंग
से तुम्हें कि
तुमसे भूल हो
रही है; कि
तुम पाप कर
रहे हो, कि
तुम बेईमान हो,
कि तुम चोर
हो। अगर एक
पेंटिंग में
कुछ भूल-चूक
है तो पेंटिंग
को तो कोई
कसूरवार नहीं
कह सकता, चित्रकार
को ही पकड़ा
जायेगा। अगर
एक मूर्ति
बेहूदी है, तो
मूर्तिकार
पकड़ा जायेगा,
मूर्ति को
तो सजा देने
का कोई अर्थ
नहीं। अगर परमात्मा
स्रष्टा है तो
तुम मुक्त हो
गए। दोष तुम्हारा
नहीं है। यह
तो पाप के लिए
सीधा खुला
रास्ता होगा।
तो
महावीर ने बड़ी
हिम्मत का काम
किया और कहा कि
परमात्मा नहीं
है, बस तुम ही
हो। इसलिये
दोष को कहीं
तुम टाल न सकोगे।
तुम्हारा ही
पाप है, तुम्हारा
ही पुण्य है, तुम ही जुम्मेवार
हो। स्वर्ग
होगा तो तुम, नरक होगा तो
तुम। जहां भी
तुम हो, तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई आधार नहीं
है। इसलिये
महावीर का
परमात्मा को
इनकार करना बड़ा
धार्मिक है; बड़ी गहरी
बात है।
हिंदुओं ने तो
समझा, यह
आदमी नास्तिक
है, ईश्वर
को इनकार करता
है। लेकिन
महावीर को अगर
ठीक से समझोगे
तो यही आदमी
आस्तिक है।
क्योंकि इसकी
आस्तिकता
तुम्हें जुम्मेवार
ठहराती है; और तुम अगर जुम्मेवार
हो तो बदलाहट
हो सकती है।
अगर परमात्मा जुम्मेवार
है, तुम
क्या करोगे?
इस
कहानी में
हरेक दूसरे पर
कसूर टालता
जाता है। यह
कहानी अंतहीन
चल सकती थी।
वह तो कहानी को
खत्म करना था, नहीं तो
कहानी खत्म
नहीं होती।
आखिर में परमात्मा
पकड़ा जाता है।
लेकिन
परमात्मा को
पकड़ा भी नहीं
जा सकता।
मनोविज्ञान
ने एक उपद्रव
का द्वार खोल
दिया यह कहकर
कि तुम जुम्मेवार
नहीं हो, जुम्मेवार कोई और है।
तो बस ठीक है, जब मैं जुम्मेवार
नहीं हूं, तो
मैं जो भी कर
रहा हूं, ठीक
है। और दूसरों
के कारण मैं
कर रहा हूं।
तो मैं तो बदल
नहीं सकता, जब तक दूसरे
न बदल जायें।
माक्र्स
और फ्रायड--दोनों
ने आज की
सभ्यता को
बुरी तरह से
रोगग्रस्त
किया है।
क्योंकि
माक्र्स कहता
है कि परिस्थितियां
जुम्मेवार
हैं और फ्रायड
कहता है, अन्य
व्यक्ति जुम्मेवार
हैं। दोनों एक
बात से राजी
हैं कि तुम जुम्मेवार
नहीं हो। अगर
कोई चोर है तो
वह इसलिये कि
वह गरीब है। अगर
कोई
व्यभिचारी है
तो इसलिये कि
बचपन से उसको
जो शिक्षा दी
गई है, जो
दीक्षा दी गई
है, उसने
व्यभिचार
पैदा किया है।
दोनों
तुम्हें मुक्त
कर देते हैं:
तुम्हारा
दायित्व
शून्य हो जाता
है।
और जिस
क्षण
तुम्हारा
दायित्व
शून्य हो जाता
है, उसी क्षण
तुम्हारा पतन
हो जाता है।
फिर तुम्हें
पतन से रोकने
का कोई उपाय
भी नहीं है।
फिर कोई मार्ग
नहीं है कि
तुम्हें रोका
जा सके गिरने
से। फिर अतल
खाई है, जिसमें
तुम गिरोगे।
तो पश्चिम जो
गिर रहा है, हर व्यक्ति
जो अपनी
निम्नतम
स्थिति में आ
रहा है, और
हर व्यक्ति यह
कह रहा है कि
मैं क्या कर
सकता हूं!
मेरे वश के
बाहर है; अवश
हूं।
यह बड़े
मजे की बात है
कि पश्चिम की
नास्तिकता उसी
जगह ले आई, जहां पूरब
की तथाकथित
आस्तिकता लाई
थी। पश्चिम की
नास्तिकता यह
कह रही है कि
तुम जुम्मेवार
नहीं हो, परिस्थिति
जुम्मेवार
है। पूरब की
तथाकथित
आस्तिकता ने
कहा परमात्मा,
भाग्य, विधि
जुम्मेवार
है, तुम जुम्मेवार
नहीं हो।
दोनों ने
तुम्हें
मुक्त कर
दिया। पश्चिम
भी पतित हो
रहा है, पूरब
बुरी तरह पतित
पहले हो चुका
है।
हिंदुओं
के पास पुराने
से पुराने
धर्मशास्त्र
हैं, लेकिन
ओछी से ओछी
नीति है; तुच्छ
से तुच्छ नीति
है। श्रेष्ठ
से श्रेष्ठ ऊंचाइयां
हैं उपनिषदों
की, लेकिन
हिंदू का आचरण?
क्षुद्र
है। इसलिये
कभी-कभी बड़ा
चकित होकर देखना
पड़ता है।
त्याग की इतनी
महिमा है, लेकिन
जिस तरह हिंदू
पैसे को पकड़ता
है, इस
पृथ्वी पर कोई
नहीं पकड़ता।
जिनको हम
भौतिकवादी
कहते हैं, वे
भी पैसे को इस
पागलपन से
नहीं पकड़ते।
जितना लोभी
हिंदू है, उतनी
पृथ्वी पर कोई
भी जाति खोजनी
कठिन है। और
अलोभ की इतनी
चर्चा है!
इतनी ऊंचाई
विचार की और
आचरण की इतनी
क्षुद्रता!--क्या
होगा कारण?
पश्चिम
से लोग खोज
करने आते हैं
सत्य को पूरब, और जब यहां
के लोगों को
देखते हैं तब
बहुत हैरान
होते हैं।
इनसे ज्यादा
क्षुद्र वृत्ति
के लोग उन्हें
कहीं भी मिलने
मुश्किल हैं।
आत्मा-परमात्मा
की बातें हैं,
लेकिन इनका
व्यवहार
अत्यंत जमीन
से बंधा हुआ है,
और रुग्ण
है।
क्या
होगा कारण? यह है कारण:
जब एक दफे यह
बात साफ हो गई
कि सबके लिए जुम्मेवार
परमात्मा है,
भाग्य है, विधि है, कुछ
किया नहीं जा
सकता, तो
तुम जैसे हो, वैसे हो।
अतल खाई खुल
गई गिरने की।
जब भी
कोई व्यक्ति
अनुभव करता है, मैं जुम्मेवार
हूं, तब
उसकी चेतना
सजग होगी। तब
वह जागता है।
तब वह श्रम
करता है, चेष्टा
करता है, सम्हालता
है। क्योंकि
तुम अपने को सम्हालोगे
तो ही इस खाई
में गिरने से
बच सकते हो।
तुमने अपने को
नहीं सम्हाला
तो कोई
तुम्हें
सम्हालने
वाला नहीं है।
सभी तुम्हें
धक्के दे सकते
हैं, लेकिन
सम्हालने
वाला तुम्हें
कोई भी नहीं
है। क्योंकि
तुम्हारी
ऊंचाई में
किसकी उत्सुकता
है? तुम्हारी
शुद्धता में
किसका रस है? और तुम जीवन
के परम कगार
बन जाओ, इसके
लिए कौन मेहनत
करेगा? सब
अपने लिए
मेहनत कर रहे
हैं। जिस दिन
व्यक्ति का
दायित्व
शून्य हो जाता
है, बस उसी
दिन उसके आधार
समाप्त हो
जाते हैं। उसके
पैर के नीचे
की जमीन जैसे
किसी ने खींच
ली।
अगर
महावीर और
बुद्ध ने
पृथ्वी पर
महानतम प्रयोग
किया है और
हजारों लोगों
की चेतनाओं को
निर्वाण तक
पहुंचाया है, उस सबका
आधार एक था कि
उन्होंने कहा,
कि कोई
परमात्मा
नहीं है, कोई
भाग्य नहीं
है--तुम हो। और
इसलिये अगर
तुम नरक में
जी रहे हो तो
तुम ही कारण
हो। निराश
होने की कोई
जरूरत नहीं है
क्योंकि तुम
ही नरक में
भीतर गए हो, बाहर आ सकते
हो। किसी ने
तुम्हें भेजा
नहीं है। यह
तुम्हारा
अपना निर्णय
है। स्वेच्छा
से तुम गए हो।
जब तुम
स्वेच्छा से
गए हो, तो
स्वेच्छा से
बाहर आ सकोगे।
इस पर किसी का
दबाव नहीं है।
न परिस्थिति
तुम्हें दबा
रही है, न
भाग्य
तुम्हें दबा
रहा है, न
परमात्मा
तुम्हें धका
रहा है, तुम
अपनी ही गति
से चल रहे रहो,
तुम परम
स्वतंत्र हो।
मनुष्य
की
स्वतंत्रता
को पूर्ण करने
के लिए महावीर
को परमात्मा
को इनकार कर
देना पड़ा। क्योंकि
अगर परमात्मा
है तो तुम्हारी
स्वतंत्रता
परम नहीं हो
सकती।
तुम्हारी स्वेच्छा
झूठी होगी।
तुम्हारी
स्वेच्छा ऐसी
होगी, जैसा
मैंने सुना है
कि एक स्कूल
के कुछ बच्चों
ने स्कूल में
आग लगा दी।
किसी शिक्षक
से वे नाराज
थे। शिक्षक
कमरे के भीतर
था, वह
अधजला हो गया।
अदालत में
मुकदमा चला।
लेकिन बच्चे
छोटे थे, नाबालिग
थे।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, कि
जो-जो बच्चे
स्वीकार कर
लेंगे अपना
कसूर, वे
माफ कर दिए
जायेंगे। जो
बच्चे
स्वीकार नहीं
करेंगे, उन्हें
फिर दंडित
करने के सिवाय
कोई रास्ता नहीं
है। तो सभी
मां-बाप ने
अपने बच्चों
को कोशिश की
कि स्वीकार कर
लो। एक मां
अपने बेटे को
लेकर अदालत
में आई और
उसने कहा कि
महानुभाव, इसने
स्वेच्छा से
स्वीकार कर
लिया है, कि
इसने आग लगाने
में भाग लिया
और यह क्षमा
मांगता है। तो
मजिस्ट्रेट
ने पूछा, स्वेच्छा
से तेरा क्या
मतलब?
तो उस
स्त्री ने कहा
कि स्वेच्छा
से इसने स्वीकार
किया। आज पहले
तो मैंने इसकी
अच्छी मरम्मत
की, ठीक से
इसकी पिटाई
की। फिर इसे
आंगन में बंद
किया, इसके
सब कपड़े उतार
लिए। ठंडी
रात...और भोजन
नहीं दिया। और
इससे कहा कि
रात भर तू
यहां आंगन में
ही रहेगा, सुबह
फिर तेरी
मरम्मत की
जायेगी; अन्यथा
स्वेच्छा से
स्वीकार कर
ले। आधा घंटे
में महानुभाव,
इसने
स्वेच्छा से
स्वीकार कर
लिया, कि
मैंने गलती की
है। और यह
क्षमा मांगता
है।
अगर
परमात्मा है
तो स्वेच्छा
इसी तरह की
होगी। अगर तुम
बनाए गए हो तो
तुम्हारी
स्वेच्छा क्या
हो सकती है? अगर कोई
स्रष्टा है, तो तुम्हारी
स्वतंत्रता
क्या है? तुम
कठपुतली हो, धागे किसी
और के हाथ में
हैं। कोई
तुमसे कुछ करवा
रहा है, तुम
कर रहे हो।
इसलिये हिंदू
जाति का पतन
हुआ; क्योंकि
दायित्व का
कोई भाव न
रहा। कोई करवा
रहा है, और
हम कर रहे हैं;
कठपुतली
हैं। हिंदू
कहते ही हैं, कि परमात्मा
धागे खींच रहा
है और हम
कठपुतलियों
की तरह नाच
रहे हैं। वही
करनेवाला है।
अगर
वही करनेवाला
है तो चोरी
करते वक्त तुम
कैसे अपने को रोकोगे? पाप करते
वक्त तुम कैसे
अपने को रोकोगे?
तुम्हारी
स्वेच्छा
झूठी है।
स्वेच्छा हो
ही नहीं सकती।
महावीर
ने एक परम
दृष्टि दी, कि परमात्मा
के साथ
स्वतंत्रता
नहीं हो सकती।
इसे समझा नहीं
जा सका। इसे
जैन भी नहीं
समझ पाए।
क्योंकि
जैनों को भी
यह बात घबड़ाने
वाली लगती है
कि परमात्मा
के साथ
स्वतंत्रता नहीं
हो सकती। और
अगर महावीर को
ठीक से समझा जाये
तो
स्वतंत्रता
ही परमात्मा
है। तब स्वतंत्रता
परम तत्व है।
इसलिये मोक्ष
परम तत्व है, परमात्मा
नहीं। मुक्ति
परम तत्व है, परमात्मा
नहीं।
तुम्हें
परमात्मा
नहीं होना है, तुम्हें
मुक्त होना
है। तुम्हें
परम स्वतंत्र
होना है।
लेकिन परम
स्वतंत्र तुम
तभी हो सकोगे,
जब गुलामी
तुम्हारी
अपने हाथ से
पैदा की गई हो।
अगर किसी ने
तुम्हें
गुलाम बनाया,
तुम कैसे
स्वतंत्र
होओगे? वह
तुम्हें फिर
गुलाम बना
सकता है। तब
मोक्ष आत्यंतिक
नहीं हो सकता।
तुम मोक्ष में
भी बैठे हो, परमात्मा की
मर्जी बदल
जाये, तो
तुम्हें फिर
संसार में पटक
देगा।
क्योंकि पहले
भी उसी ने
पटका था। तुम
मोक्ष में ही
बैठे रहे
होओगे।
क्योंकि पहले
तुम कहां थे? वह फिर
तुम्हें
संसार में भेज
देगा। फिर नया
खेल करने लगे।
फिर नयी लीला रचाए।
तुमसे कहे, उठो! चलो! तुम
क्या करोगे? कठपुतली के
धागे को
खींचकर वह
स्वतंत्र कर
दे, बिठा
दे आकाश में, फिर धागा
खींच दे, गिरा
दे जमीन पर।
परमात्मा
के साथ तुम
स्वतंत्र
नहीं हो सकते।
परमात्मा के
साथ जगत एक
लोकतंत्र
नहीं है, एक
तानाशाही है।
लेकिन
महावीर कहते
हैं कि
स्वतंत्रता
ही परम तत्व
है, वही
परमात्मा है।
जिस दिन तुम
परम स्वतंत्र
हो गए, जानना
कि तुमने
परमात्मा को
पा लिया। और
कोई परमात्मा
नहीं है।
हमारा
मन सदा दूसरे
पर दोष डालने
का होता है। यही
यह कहानी कह
रही है। अदालत
बुलाती गई
लोगों को, और हरेक ने
कहा कि मेरा
इसमें कुछ
मामला नहीं है,
किसी और ने...
और जरा
सोचें तो, उनकी बात
सही भी मालूम
पड़ती है। राज
क्या कर सकता
है, अगर एक
सुंदर औरत सामने
से गुजर जाये!
तुम क्या
करोगे? सुंदर
औरत सामने से
गुजरेगी तो
तुम्हारा इसमें
क्या कसूर है?
न तुमने
सुंदर औरत
बनाई, न
तुमने उससे
गुजरने के लिए
आग्रह किया।
यह परिस्थिति
तुम्हारे हाथ
के बाहर है। न
तुमने यह हृदय
अपना बनाया, जो कि सुंदर
औरत को देखकर
डांवाडोल
होता है। न
तुमने यह
वासना अपने
हाथ से पैदा की।
यह तुममें
छिपी है; यह
परमात्मा का
दान है। यह
तुम्हारी
प्रकृति है।
इसमें क्या
कसूर है राज
का, कि
उसके पास
आंखें थीं, सौंदर्य को
देखने की
क्षमता थी, रूप आकर्षित
करता था! क्या
कर सकता है
राज? उसके
हाथ में कुछ
भी नहीं है, वह
मूर्च्छित चल
रहा है। एक
बेहोशी है, जो खींचे
लिए जा रही
है। यह बात
ठीक भी मालूम
पड़ती है कि
आदमी जुम्मेवार
नहीं है।
लेकिन अगर यह
तुम्हारे मन
में गहरे बैठ
जाये, तो
तुम पाप के
अतल गर्त में
गिर जाओगे, क्योंकि
तुम्हारी
चेतना ही
तुम्हें
रोकती है। तुम्हारा
होश ही
तुम्हें
सम्हालता है।
तुम दलदला
जाओगे और गिर
पड़ोगे। तुम
जमीन पर चल
रहे हो, चल
पा रहे हो, पैरों
पर खड़े हो, थोड़ा-सा
होश है
इसलिये। अगर
यह राज
थोड़ा-सा होशपूर्ण
होता तो क्या
सुंदर स्त्री
इसे खींच पाती?
क्योंकि
सुंदर स्त्री
केवल
मूर्च्छा में
ही खींच सकती
है। सुंदर
स्त्री केवल
मूर्च्छा में
ही वासना को
पैदा कर सकती
है। अगर यह
होश से भरा होता,
अगर यह सजग
होता, अगर
यह देख रहा
होता कि क्या
हो रहा है
मेरे भीतर और
क्या हो रहा
है बाहर, तो
सुंदर स्त्री
गुजर जाती।
कुछ
युवक जंगल में
एक नग्न
वेश्या को आमोद-प्रमोद
के लिए ले आए
थे। जब वे
ज्यादा बेहोश
हो गए शराब
पीकर तो वह
भाग गई। जब
उन्हें आधी
रात होश आया, जब ठंड बढ़ी, नशा थोड़ा कम
हुआ, तब
उन्होंने
देखा कि वह
स्त्री तो भाग
गई, तो
उसकी खोज में
निकले--पच्चीस
सौ साल पहले
की घटना हैं।
वृक्ष के नीचे
उन्होंने बुद्ध
को बैठे हुए
पाया--और तो
कोई था नहीं
उस जंगल में।
उन्होंने
हिलाया बुद्ध
को और कहा कि
एक सुंदर
स्त्री नग्न
इस रास्ते से
निकली थी, तुमने
जरूर देखा
होगा। किस तरफ
वह गई है? क्योंकि
तुम जहां बैठे
हो, यहीं
से रास्ते फूट
जाते हैं दो
मार्गों पर। तो
हम बायें जायें
कि दायें?
बुद्ध
ने कहा, कोई
निकला जरूर, लेकिन बताना
मुश्किल है कि
स्त्री थी या
पुरुष!
पगध्वनि
मैंने जरूर
सुनी है, कान
चूंकि खुले
हैं, पर
आंख मेरी बंद
थी। और कुतूहल
अब मुझ में
पैदा नहीं
होता कि आंख
खोलकर देखूं
कि कौन है? कोई
गुजरा जरूर; स्त्री थी
या पुरुष, कहना
कठिन है। कुछ
वर्षों पहले
यह घटना घटी
होती...तो
बुद्ध ने कहा,
मैं जरूर
बता देता कि
स्त्री
है या पुरुष;
क्योंकि तब
मेरा पुरुष
भीतर
मूर्च्छित
था। मूर्च्छित
पुरुष स्त्री
की तलाश में
है। हर पगध्वनि
स्त्री की ही
मालूम पड़ती
है। इतना ही
कह सकता हूं
कि कोई गुजरा
था। हड्डी, मांस, पिण्ड
का संग्रह था।
पुरुष था या
स्त्री, मुश्किल
है। और सुंदर
की पूछते हो; तो सौंदर्य
तो व्याख्या
है, वासना
है। अब न मुझे
कुछ सुंदर है,
न कुरूप।
किस
चीज को तुम
सुंदर कहते हो? बड़ा मजेदार
मामला है। तुम
सोचते हो कोई
तुम्हें
आकर्षित करता है
क्योंकि
सुंदर है। तो
तुम गलत सोचते
हो। कोई
तुम्हें
आकर्षित करता
है इसलिये
सुंदर मालूम
पड़ता है। फिर
वासना
सौंदर्य को
पैदा करती है,
सौंदर्य
वासना का
जन्मदाता
नहीं है। जब
तुम्हारी
वासना खो जाती
है, तो
सौंदर्य भी खो
जाता है।
तुम्हारे
भीतर वासना है,
वही सौंदर्य
को पैदा करती
है। तुम्हारी
वासना की व्याख्या
है। तुम्हारी
वासना जिसको
भोग योग्य पाती
है, उसको
सुंदर कहती
है। जिसको भोग
योग्य नहीं पाती,
उसको
असुंदर कहने
लगती है।
जिसको तुम भोग
लेते हो, वह
भी सुंदर नहीं
रह जाता है।
क्योंकि जब
भूख चली गई, सौंदर्य
कैसे बच सकता
है?
इसीलिये
पत्नी किसी
पति को सुंदर
नहीं मालूम पड़ती।
अगर पत्नी पति
को सुंदर
मालूम पड?ती
हो तो उसका
अर्थ यही है
कि यह संबंध
वासना का नहीं,
प्रेम का
है। क्योंकि
वासना जब भर
जायेगी...जब तुम
भूखे हो तब
भोजन में जो
गंध मालूम
होती है, वह
भरे पेट कैसे
मालूम हो सकती
है? जब तुम
भूखे हो, तब
थाली पर बैठकर
तुम्हें जो रस
मालूम होता है
थाली में, जब
भरे पेट हो
जाओगे तो कैसे
मालूम होगा? भरे पेट का
अर्थ ही यह है
कि भोजन का रस
खो गया। और
अगर कोई
जबरदस्ती
तुम्हें भोजन
करवाए भरे पेट,
तो न केवल
रस मालूम नहीं
होगा, विरसता
आएगी; वमन
करने का मन
होगा। वह भोजन
जो इतना
आकर्षित करता
था, विकर्षित
करेगा।
मैंने
सुना है, एक
ड्राइवर रोका
गया एक चौराहे
पर। पुलिस के
आफिसर ने उसके
पास आकर उसके
कागजात गाड़ी
के देखना
चाहे। वह एक
राज्य से
दूसरे राज्य
में प्रवेश कर
रहा था।
कागजात सही
थे। और उसने
पूछा कि
तुम्हारे साथ
कौन है? तो
उसने कहा, मेरी
पत्नी। उस
अधिकारी ने
कहा कि और सब
तो ठीक है, लेकिन
तुम्हारे पास
क्या प्रमाण
है कि जिस स्त्री
को तुम ले जा
रहे हो, वह
तुम्हारी
पत्नी है? वह
ड्राइवर
खिड़की के बाहर
झुका। आफिसर
के कान में
उसने कहा कि
अगर तुम सिद्ध
कर दो कि यह
मेरी पत्नी
नहीं, तो
हजार रुपया
नगद!
हर पति
पत्नी से
छुटकारा पाना
चाहता है।
पत्नी पति से
छुटकारा पाना
चाहती है।
क्योंकि सौंदर्य
खो गया है। या
तो वासना
भरपूर हो गई, या निरंतर
निकट रहने से
विकर्षण हो
गया, पेट
भर गया है। और
सौंदर्य तो
वासना ही पैदा
करता है।
इसलिये जितना
दूर हो
व्यक्ति, उतना
सुंदर मालूम
पड़ता है।
जाननेवाले
तो कहते हैं
कि तुम्हारे
भीतर वासना है
इसलिये तुम
बाहर
व्याख्या
करते हो सौंदर्य
की, कुरूपता
की। तुम्हारे
भीतर से वासना
गई कि न कुछ
सुंदर है इस
जगत में, न
कुछ कुरूप है;
क्योंकि न
कुछ भोग्य है,
न कुछ
अभोग्य। पर
बेहोश चित्त
सोचता है, सुंदर
स्त्री है, उसने खींच
लिया है।
लेकिन
उस स्त्री ने
भी बड़ी बढ़िया
बात कही। और उसने
मजिस्ट्रेट
को कहा कि
क्षमा करें, मैं तो बहुत
साधारण
स्त्री हूं।
कोई मेरी तरफ देखता
भी नहीं। यह
तो इस दुपट्टे
का कसूर है।
यह बड़ा रंगीन
है, सतरंगा
है, इंद्रधनुषी
है। रंगनेवाले
ने गजब का काम
किया है। इस
दुपट्टे की
वजह से इस
आदमी को रस
पैदा हुआ
होगा।
स्त्रियां
इसे भलीभांति
जानती हैं, कि शरीर में
उतना रस नहीं
है, जितना
दुपट्टों में
है। इसलिये
वस्त्र, आभूषण,
सजावट--जिन
स्त्रियों
में तुम्हें
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है,
उनमें
अस्सी
प्रतिशत
सजावट है, धोखा
है, दुपट्टे
हैं वहां! उस
स्त्री ने ठीक
ही कहा कि मैं
तो बहुत
साधारण-सी
स्त्री हूं।
इस दुपट्टे का
ही कसूर होना
चाहिए। मेरी
तरफ कोई कभी
देखता नहीं।
और यह आदमी
इतने रस से भर
गया है कि चूक
हो गई इसके
काम में। यह
तो हो ही नहीं
सकता।
सभी
सौंदर्य
ऊपर-ऊपर
हैं--चाहे
दुपट्टे का हो, चाहे शरीर
का हो। शरीर
भी दुपट्टा है,
खूब रंगा
गया है।
'इस
रंगरेज को पकड़
लो'; उसने
कहा, 'मैं
क्या कर सकती
हूं?'
रंगरेज
पकड़ भी लिया
गया, लेकिन
मुसीबत यह हो
गई कि वही आदमी
चोर था।
इस
कहानी का अर्थ
यह है कि अगर
तुम खोजते ही
चले जाओ तो
आखिर में तुम
ही पकड़े
जाओगे। तुम
दोष किसी को
भी दो, अगर
तुम्हारी खोज
जारी रहे, तो
आखिर में तुम
दोषी स्वयं को
पाओगे। कितना
ही लंबा
वर्तुल हो, कितना ही
तुम सरकाओ
दोष को दूसरे
पर, कितना
ही दायित्व
दूसरे के कंधे
पर रखो; अगर
तुम खोजते ही
चले गए, तो
आखिर में तुम
पाओगे कि
तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई दोषी नहीं
है। चोर भी
तुम हो, रंगरेज
भी तुम हो।
चोरी करने भी
तुम ही गए थे और
सिर जो
तुम्हारा
टूटा है, वह
भी तुम्हारे
कारण ही टूटा
है। तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई भी नहीं
है इस जगत
में।
तुम्हारे
सारे कष्ट, तुम्हारे
सारे जंजाल, जंजीरें, कांटे, तुम्हारे
ही बोये हुए
हैं।
तुम्हारी ही
फसल है, जो
तुम काट रहे
हो।
बड़ा
मजा हुआ होगा
उस दिन अदालत
में; क्योंकि
तब तो रंगरेज
को कुछ भी
कहने को नहीं बचा
होगा; इसलिये
कहानी खतम हो
गई। क्योंकि
चोरी करने भी
वही गया था, और उसके ही
कारण, उसके
ही दुपट्टे ने,
उसकी ही
पत्नी ने सब
भटकाव पैदा
किया था।
एक
वर्तुल है
जीवन में।
इसलिये जो
बुद्धिमान हैं, वे दूसरे को
दोष देते ही
नहीं, वह
पहले से ही
स्वीकार कर
लेता है कि
दोषी मैं हूं--इतना
लंबा चक्कर
है। आखिर में
दुपट्टा रंगता
हुआ मैं ही
पकड़ा जाऊं, इसमें कुछ
अर्थ नहीं है।
चोरी भी मेरी
है, दुपट्टा
भी मेरा ही
रंगा हुआ है, सिर मेरे ही
कारण टूट रहा
है।
यह
चक्कर कहानी
में बहुत छोटा
है क्योंकि
कहानी तो
कल्पित है।
जीवन में बहुत
बड़ा है, अनेक
जन्मों का है,
क्योंकि
जीवन कोई
कल्पित नहीं
है। अनंत जन्मों
का चक्कर है।
आखिर में तुम
ही पकड़े
जाओगे।
ईसाई
और मुसलमानों
का एक
सिद्धांत है: 'दि
डे ऑफ लास्ट
जजमेंट'--कयामत
की रात, या
कयामत का दिन।
जिस दिन
तुम्हारे
सारे चक्कर के
बाद निर्णायक
स्थिति आयेगी,
उस दिन तुम पकड़े
जाओगे।
सूफी
कहते हैं कि
कयामत के लिए
क्यों रुकते
हो? फिर उस
दिन कुछ करने
को न बचेगा।
फिर कोई उपाय न
होगा। तुम आज
ही क्यों नहीं
निर्णय ले
लेते हो? यह
निर्णय
व्यक्ति के
जीवन में धर्म
का जन्म बन
जाता है, कि
मैं जुम्मेवार
हूं। चाहे मन
कितना ही कहे,
लेकिन हर भूल
के लिए अगर
तुमने अपने को
जुम्मेवार
माना तो जल्दी
ही तुम पाओगे
कि भूलें
समाप्त हो
गईं। हर दोष
के लिए अगर
तुमने अपने को
दोषी समझा तो
तुम पाओगे कि
दोष धीरे-धीरे
खो गए और तुम
निर्दोष हो
गए। क्योंकि
अगर मैं ही जुम्मेवार
हूं तो काटना
बहुत आसान है।
अगर मैं ही कारणभूत
हूं तो अड़चन
क्या है? अगर
मेरी ही फसल
मेरे जीवन को
विष से भरती
है तो मैं बीज
बोना बंद कर
रहा हूं। कर्म
का सिद्धांत,
इस कहानी का
आधार है। कर्म
के सिद्धांत
का अर्थ है, तुम जो भी फल
पा रहे हो, वह
तुम्हारे ही
कर्मों का है।
आदमी का मन
कितना अदभुत
है और कितना
चालाक है!
कर्म का
सिद्धांत
भाग्य के बिलकुल
विपरीत है, लेकिन
हिंदुओं ने
कर्म के
सिद्धांत का
इस ढंग से
व्यवहार किया
है कि वह
भाग्य मालूम
होता है। लोग
कहते हैं, क्या
करें, कर्मों
का चक्कर है।
जैसे कि कर्म
इनको चक्कर में
डाल रहा है!
कोई कर्म है
जैसे, जो इन्हें
चकरा रहा है!
लोग कहते हैं,
अब क्या
किया जा सकता
है, पिछले
जन्मों का
कर्मफल भोग
रहे हैं।
कर्मफल को
उन्होंने
भाग्य का
पर्यायवाची
बना लिया है; जबकि कर्म
का सिद्धांत
भाग्य के
विपरीत है। इसलिये
महावीर ने
परमात्मा को
इनकार किया, कर्म को
इनकार नहीं
किया।
हिंदुस्तान
में तीन बड़े
धर्म पैदा हुए
हैं। और इनका
कोई मुकाबला
पृथ्वी पर
कहीं भी नहीं
है। बाकी सब
धर्म इन
धर्मों के
मुकाबले फीकी
छायाएं हैं।
हिंदू धर्म
पैदा हुआ, जैन धर्म, और बौद्ध
धर्म; ये
तीन महान धर्म
भारत में पैदा
हुए। इन तीनों
में हजारों
फर्क हैं, विवाद
हैं; सिर्फ
एक बात
निर्विवाद है,
वह कर्म का
सिद्धांत है।
महावीर
परमात्मा को
नहीं मानते।
हिंदुओं का सारा
आधार
परमात्मा पर
खड़ा है। बुद्ध
न परमात्मा को
मानते हैं, न आत्मा को
मानते हैं।
जैनों का सारा
आधार आत्मा पर
खड़ा है। ये
बड़े कठिन और
कुछ इस तरह के
विरोध हैं, कि इनके बीच
कोई सेतु नहीं
बनाया जा
सकता। हिंदू
मानते हैं; आत्मा, परमात्मा,
संसार। जैन
मानते हैं, आत्मा और
संसार। और
बुद्ध मानते
हैं, तीनों
को ही नहीं--न
आत्मा, न
परमात्मा, न
संसार; शून्यता!
लेकिन एक
मामले में
तीनों राजी
हैं, वह
कर्म का
सिद्धांत है।
निश्चित ही
कर्म का
सिद्धांत
इतना गहरा है
कि उस संबंध
में विवाद
नहीं हो सकता।
शायद
कर्म का
सिद्धांत
भारत की गहरी
से गहरी खोज
है--परमात्मा
से गहरी, आत्मा
से गहरी, निर्वाण
से गहरी; क्योंकि
उस संबंध में
बुद्ध, महावीर
और कृष्ण में
मतभेद नहीं
हैं। उस संबंध
में वे राजी
हैं, एकमत
हैं। सोचने
जैसा है कि
जिसमें इस तरह
के तीन लोग, जो सब चीजों
में विपरीत
हैं एक दूसरे
से राजी होते
हों तो बात
कुछ ऐसी है कि
सिद्धांत की
नहीं होगी, सत्य की
होगी। कुछ
जीवन के नियम
की होगी। व्याख्या
की नहीं होगी।
व्याख्या में
तो झगड़ा
हो ही जायेगा।
कर्म
के सिद्धांत
का अर्थ है कि
तुम जुम्मेवार
हो।
तुम
जहां हो, अपने
ही कारण हो।
तुम जो
हो, अपने ही
कारण हो।
तुम
जैसे हो, अपने
ही कारण हो।
तुम
अपने ही
कर्मों का
संघात, जोड़
हो।
जिस
दिन तुम इसे
पहचान लोगे, उसी दिन
कहानी समाप्त
हो जायेगी।
उसी दिन तुम पाओगे,
चोरी करने
भी तुम ही गए, दुपट्टा
तुमने रंगा, पत्नी को
सुंदर बनाया,
राज की
आंखें चौकाईं,
बढ़ई को
मुश्किल में
डाला, मकान-मालिक
को फंसाया,
चोरी को तुम
ही गए। सब
तुमने ही
किया--शुरू से
लेकर आखिर तक।
प्रथम से लेकर
अंत तक सारी
कहानी में तुम
ही जुम्मेवार
हो।
जिस दिन
किसी व्यक्ति
को यह साफ हो
जाता है कि
मैं ही जुम्मेवार
हूं, मेरे
जीवन का
स्रष्टा मैं
हूं, उसी
क्षण धर्म का
जन्म होता है।
जिस क्षण तुम दूसरे
को जुम्मेवार
ठहराना बंद कर
देते हो, उसी
क्षण क्रांति
शुरू हो जाती
है। क्योंकि अब
पलायन नहीं
किया जा सकता।
दुख है तो
मेरा, सुख
है तो मेरा।
मेरे
अतिरिक्त कोई
भी नहीं है, जो रत्ती भर
भी कुछ
सुख-दुख दे
रहा हो। तो अब
फिर मेरे हाथ
में है। अगर
मैं दुख पाना
चाहता हूं तो
पाता रहूं; लेकिन तब
रोने की कोई
जरूरत नहीं।
अब मेरे हाथ
में है, सुख
पाना हो तो
दुख के बीज न बोऊं। बात
बिलकुल सीधी
और साफ हो
जाती है। और
विज्ञान की हो
जाती है।
इसलिये
मैं कहता हूं, कहानी मधुर
है और बड़ी
गहरी है। और
उसे ठीक से समझना,
हंसना मत।
क्योंकि इस
कहानी का
उपयोग करीब-करीब
लोग भूल ही गए
हैं। यह बात
ही भूल गए कि
यह सूफियों की
कथा है। यह तो
बच्चों की
किताबों में
लिखी जा रही
है। छोटे
बच्चे स्कूल
में पढ़ रहे
हैं और हंस
रहे हैं, जैसे
कि यह कोई
व्यंग्य हो!
यह कोई जोक
नहीं है, यह
तो बड़ी
आधारभूत बात
है। यह किसी
पागल, विक्षिप्त
मजिस्ट्रेट
का झक्कीपन
नहीं है, यह
तुम्हारे
जीवन की कथा
है। यह कर्म
का सिद्धांत
है। देर-अबेर
तुम पकड़े
जाओगे और
पाओगे कि तुम
ही चोर हो, तुम
ही रंगरेज हो।
कब तक
इसे टालोगे? इन दोनों
छोरों को
जल्दी मिला लो,
कहानी को
पूरा करो। ये
दोनों छोर
मिले कि तुम बाहर
हो सकते हो इस
वर्तुल के। यह
जो जीवन का चक्र
है, इससे
तुम कूद सकते
हो। जब तक तुम
इसको न समझ पाओगे,
तब तक तुम
इस संसार के
इस चक्र में
भटकते ही रहोगे।
इस बात को
समझना कि मैं
ही चोर हूं और
मैं ही रंगरेज
हूं, अपनी
स्वतंत्रता
को समझ लेना
है। अपनी
शक्ति को समझ
लेना है। अपनी
सामर्थ्य को
समझ लेना है।
तुम्हारी
सामर्थ्य
अपरंपार है।
यह तुम्हारी
सामर्थ्य का
फल है कि
तुमने इतना
बड़ा नरक अपने
आसपास
निर्मित किया
है। इसलिये
मैं नहीं कहता
कि परमात्मा
ने जगत बनाया।
मैं कहता हूं, तुमने
बनाया। एक तरफ
से दुपट्टा
रंगा है और एक
तरफ से चोरी
करने निकल गए
हो। बायें हाथ
से दुपट्टा
रंग रहे हो, दायें हाथ
से चोरी कर
रहे हो। और
तुम्हारा, दोनों
हाथों के बीच
में तुम्हारा
ही सिर फूट रहा
है।
इसे
समझो। इस
कहानी को गुनो।
इसको
हंसी-मजाक मत
समझना। इस तरह
की बहुमूल्य
कहानियां जब
हंसी-मजाक बन
जाती
हैं...शायद वह भी
हमारी तरकीब
हो। शायद उस
तरकीब से हम
पीड़ा से बच
जाते हों।
उनका जो दंश
है, वह अलग हो
जाता है, कांटा
हट जाता है।
हम समझते हैं
कि व्यंग्य है,
हंस लिया, बात खत्म हो
गई। छोटे
बच्चे कहानी
पढ़कर प्रसन्न
हो लेते हैं।
यह कहानी
बूढ़ों को
समझने के लिए
है। और
सूफियों ने इस
तरह की
बहुत-सी कहानियां
पैदा की हैं, जिनमें
बच्चे भी रस
ले सकें और
जिनमें बूढ़े भी
क्रांति पा
सकें। जिनको
बच्चे भी समझ
लें एक तल पर
और दूसरे तल
पर बूढ़ों को
भी समझना मुश्किल
हो जाये।
कहानी
के कई तल होते
हैं। एक तल तो
ऊपर होता है, जो कि साफ
है। और एक तल
गहरा है, जो
कि साफ नहीं
है। उसी तल को
दिखाने की
कोशिश मैं कर
रहा हूं। वह
भी तुम्हें दिखाई
पड़ जाये गहरा
तल, तो यह
कहानी
तुम्हारे लिए
कयामत की रात
हो सकती है।
इसे पढ़कर तुम
दूसरे ही आदमी
हो जाओगे। तब
यह तुम्हारी
साधना बन जाती
है।
भगवान
: ...कुछ और?
भगवान!
क्या हम इस
कहानी को एक
सिद्धांत की
तरह स्वीकार
करके आगे बढ़
सकते हैं...?
सिद्धांत
के रूप में
कोई भी चीज
स्वीकार करके
कभी कोई आगे
नहीं बढ़ता।
सिद्धांत के
रूप में
स्वीकार करने
का अर्थ ही है
कि तुमने
अस्वीकार कर
दिया, तुम
समझे नहीं।
खोज करनी
पड़ेगी। इस
कहानी के तत्व
को जीवन में
खोजना होगा। खोजोगे, तो ही
सिद्धांत
तुम्हें
मिलेगा।
सिद्धांत
शब्द बड़ा अदभुत
है। इसका अर्थ
है, जो सिद्ध
हो गया, ऐसा
अंत।
सिद्धांत
जैसा शब्द
अंग्रेजी में
या दूसरी
भाषाओं में
नहीं है।
सिद्धांत का
अर्थ
प्रिंसिपल
नहीं है।
सिद्धांत का
अर्थ तो होता
है कि जिसे
तुमने जीवन
में सिद्ध कर
लिया। जो
तुम्हारा
अनुभव हो गया,
बस वही
सिद्धांत है।
तुम्हारे
अनुभव के बिना
कोई सिद्धांत,
सिद्धांत
नहीं है।
बातचीत है, परिकल्पना
है, थियरी
है, शास्त्र
है; सिद्धांत
नहीं है।
तुम्हें तो
जीवन में खोजना
पड़े। किसी भी
कोने से खोजो,
जल्दी
पहुंच जाओगे।
जब
तुम्हें
क्रोध आए, तत्क्षण मन
कहानी में
उतरेगा। और
तुम कहोगे कि
इसने इस तरह
की बात कही
इसलिए क्रोध
आया है। तब
जरा गौर से
देखना कि
क्रोध क्या
कोई दूसरा
तुममें पैदा
कर सकता है? क्रोध
तुममें होगा
तो दूसरा उभार
सकता है। शायद
और गहरे देखोगे
तो तुम यह भी
पाओगे कि
क्रोध भी
तुममें चाहिए और
उभरने की
क्षमता भी
चाहिए, तो
ही दूसरा उभार
सकता है। तब
दूसरे का क्या
अर्थ रहा?
तब तुम
ऐसी स्थितियां
भी देखना, जब कि दूसरा
है ही नहीं, तब भी तुम
क्रोधित हो
जाते हो। अगर
तुम्हें चौबीस
घंटे कमरे में
बंद कर दिया
जाये, जहां
कोई भी न हो, तुम्हें कोई
बाधा न देता
हो, भोजन
नीचे से सरका
दिया जाता हो,
पानी
पहुंचा दिया
जाता हो, सब
सुविधा हो, तब भी तुम
चौबीस घंटे
में पाओगे कि
कभी तुम क्रोधित
हो जाते हो, कभी खिन्न
हो जाते हो, कभी उदास हो
जाते हो, कभी
तुम अचानक
पाते हो कि
बड़ी
प्रसन्नता है,
बड़ी शांति
है। कोई कारण
नहीं है। जैसे
सभी तुम्हारे
भीतर से पैदा
होता है। बाहर
तुम सिर्फ
निमित्त
खोजते हो। बाहर
तुम सहारे
खोजते हो। तुम
दूसरों के
कंधों पर हाथ
रखकर उन पर जुम्मेवारी
छोड़ते हो।
बहुत-से
प्रयोग किए गए
हैं पश्चिम
में, जिसको वे सेन्स डिप्राइवेशन
कहते हैं। एंद्रिक
अनुभूतियों
को सब तरह से
रोक दिया जाता
है। इस तरह की
छोटी-छोटी कोठरियां
बनाई गई हैं, जिनमें सब
सुविधा है।
भोजन भी
तुम्हें उठकर
नहीं करना
पड़ता, वह इन्जेक्शन
तुम्हारे
शरीर में चला
जाता है।
अंधकार है; न कोई ध्वनि
सुनाई पड़ती है,
न कोई ध्वनि
बाहर जाती
है--निर्ध्वनि
की स्थिति है।
तुम परम सुख
की अवस्था में
विश्राम कर
रहे हो। कोई एंद्रिक
संवेदना नहीं
आती। और
तुम्हारे
मस्तिष्क से तार
जुड़े हैं, जो
खबर दे रहे
हैं कि
तुम्हारे मन
की स्थिति प्रतिपल
बदल रही है; और कारण कोई
भी नहीं है
वहां। कारण सब
बंद कर दिए गए
हैं। कभी तुम
क्रोधित हो
जाते हो, खबर
देता है तार।
ग्राफ पर खबर
आती है कि तुम
क्रोधित हो।
शायद तुम कोई
सपना देख रहे
हो। शायद
तुमको कोई
दुश्मन मिल गया
सड़क पर, जिसने
कोई बात कह
दी। कोई मिला
नहीं है, तुम
अंधेरे में
अकेले पड़े हो।
लेकिन अब तुम
कल्पना कर रहे
हो।
मनोवैज्ञानिक
इस नतीजे पर
पहुंचे हैं, कि अगर
इक्कीस दिन
किसी व्यक्ति
को पूरी तरह
से इंद्रियों
की संवेदना से
शून्य रखा
जाये, तो
वह सपने खुली
आंख से देखना
शुरू कर देता
है, बंद
करने की जरूरत
नहीं रहती। तब
कोई सपना नहीं
देखता, वह
अनुभव करता है
कि मित्र पास
बैठा है, बातचीत
हो रही है, उसने
कुछ बात कह दी,
नाराज हो
गया।
पागलों
को तुम जाकर
देखो, वे
यही कर रहे
हैं। वह
पागलपन
तुम्हारे
भीतर भी छिपा
है। पागल
मित्रों से
बात कर रहे
हैं, झगड़ रहे हैं
दुश्मनों से।
और कोई भी
नहीं है वहां,
वे अकेले
हैं। इक्कीस
दिन में
तुम्हारी भी
यही हालत हो
जाती है कि
तुम पागलों
जैसे हो जाते हो,
हेल्युसिनेशन पैदा हो
जाता है। तब
तुम्हें सपना
नहीं होता, तुम वस्तुतः
पाते हो कि
मित्र सामने
बैठा है, बातचीत
हो रही है।
उसने कुछ
नाराजगी की
बात कह दी, तुम
क्रोधित हो गए,
तुम मारने
को खड़े हो गए।
अभी तुम मन
में यह सब बातें
करते हो।
कभी
तुमने खयाल
किया कि जब
तुम मारने की
बात सोचते हो, तब तुम्हारे
भीतर क्रोध
उतना ही उठ
आता है, जितना
कि वस्तुतः
मारने में
उठता है! जब
तुम कामवासना
से भरते हो, तब तुम्हारा
शरीर उसी तरह कामोत्तेजित
हो जाता है, जैसा
कामवासना से
होता है।
स्त्री की
मौजूदगी
जरूरी नहीं है,
सिर्फ
तुम्हारी
कल्पना काफी
है। यह भी हो
सकता है, स्त्री
निकली ही न हो,
सिर्फ एक
डंडे पर रंगा
हुआ दुपट्टा
निकला हो। लेकिन
दुपट्टे से
खयाल आ जाये
स्त्री का, तो बस काम
शुरू हो गया।
मन की
क्षमता सारा
संसार
निर्मित करने
की है। बाहर
का संसार तो
सिर्फ बहाना
है। खूंटी की
तरह उसका उपयोग
है। तुम अपना
क्रोध टांग
देते हो, प्रेम
टांग देते हो,
घृणा टांग
देते हो, लेकिन
तुम उसे तैयार
भीतर रखे हो।
तो पहले तो जब
क्रोध आए तब
देखना कि सच
में क्रोध
दूसरे ने पैदा
किया है, या
मुझ में था! तब
जरा भीतर खोज
करना कि मैं
कहीं दूसरे की
प्रतीक्षा तो
नहीं कर रहा
था कि कोई जरा
उकसा दे, तो
जुम्मेवारी
मुझ पर न रहे
और मैं
क्रोधित हो
जाऊं! और तब
एकांत में
देखना कि
क्रोध बिना
कारण भी आता
है; तब
क्रोध
तुम्हारी
भीतरी क्षमता
है, बाहर
से उसका कोई
भी संबंध
नहीं।
इस तरह
तुम खोजोगे
अपने जीवन के
अलग-अलग
आयामों में, तब तुम्हें
इस कहानी का
सिद्धांत
खयाल में
आएगा। तब यह
कहानी
तुम्हारे लिए
सिद्धांत हो
जायेगी। लेकिन
सिद्धांत से
मेरा अर्थ
थियरी से नहीं
है। तब यह
तुम्हारा
अनुभव, प्रयोग
हो जायेगा। तब
तुम जानोगे।
तब तुम्हें
कोई समझाने की
बात न रहेगी, तब यह एक
तथ्य होगा, व्याख्या नहीं।
और
जीवन में जो
भी क्रांति
आती है, वह
व्याख्याओं
से नहीं आती, तथ्यों से
आती है। और हम
तथ्यों से
बचते हैं और
व्याख्याओं
को पकड़ते
हैं। तुम इसे
पकड़ ले सकते
हो व्याख्या
की तरह। तब
तुम कोशिश
करोगे इसे ठीक
बिठाने की कि
हां, यह
बिलकुल ठीक
है। लेकिन ठीक
तो हमें उसी
को बिठाना
पड़ता है, जो
ठीक नहीं है।
जो ठीक है, उसे
बिठाना नहीं
पड़ता, वह
प्रगट होने
लगता है।
इस
कहानी को तुम
जीवन में
खोजना। पहले
से ठीक मान
लेने की कोई
जरूरत नहीं
है। अभी इसे
कहानी ही रहने
देना। अपने
जीवन में
खोजना और जब
तुम जीवन में
पाओ कि यही
जीवन में घट
रहा है, तब
यह कहानी
तत्क्षण रूप
बदल लेगी, और
सिद्धांत हो
जायेगी।
बुद्ध
ने, महावीर
ने, क्राइस्ट
ने, जीवन
के जो भी परम
तत्व हैं, छोटी-छोटी
कहानी, पेरेबल्स में कहे
हैं। वे
इसीलिये पेरेबल्स
में कहे हैं
कि तुम इसे
कहानी ही
मानना, जब
तक यह
तुम्हारे
जीवन का अनुभव
न बन जाये। तब
तक इसे
सिद्धांत
समझने की
जरूरत नहीं
है। तब तक यह
बस एक कहानी
है, एक
मनोरंजन है।
पर इससे तुम
सूत्र पकड़
लेना और जीवन
में खोजने
निकल जाना।
थोड़ी
परख करोगे, अगर कहानी
में कहीं भी
कोई सिद्धांत
है, तो
तुम्हें खयाल
में आ जायेगा।
और यही फर्क
है नई और
पुरानी कहानी
में। पुरानी
कहानियों के भीतर
छिपे हुए तथ्य
हैं। नई कहानी
सिर्फ परिकल्पना
है। पुरानी
कहानी के भीतर
कुछ सत्य छिपे
हैं, रत्तीभर
असत्य उनमें
नहीं है। अगर
कोई असत्य भी
है, तो
उनके रूप में
है। जैसे ही
तुम रूप के
भीतर घुसोगे,
पाओगे कि
वहां सत्य की
जलती आग है।
गुरजिएफ
ने कला के दो
विभाजन किए
हैं: एक कला को
वह कहता है, आब्जेक्टिव,
तथ्यगत। और
एक कला को वह
कहता है, सब्जेक्टिव,
आत्मगत। तो
कहानियां दो
तरह की हैं, चित्र दो
तरह के हैं, कविताएं दो
तरह की हैं।
एक तो ऐसे
चित्र हैं, जो कि
तुम्हारे मन
के रोग को
बाहर पर्दे पर
ले आते हैं, बस! जैसे पिकासो
के चित्र हैं,
वह आब्जेक्टिव
नहीं हैं। इस
सदी का बड़े से
बड़ा चित्रकार
किसी उपयोग का
नहीं है। उसके
जो भीतरी रोग
हैं, उनको
वह पेंट कर
देता है। वह केथारसिस
का काम कर रहे
हैं। उससे पिकासो
हलका अनुभव
करता है। उसका
रोग निकल गया।
लेकिन उसे
देखने वाला
रोगग्रस्त होगा।
अगर पिकासो
के चित्र पर
तुम ध्यान
लगाकर देखो, तो थोड़ी ही
देर में
तुम्हारा सिर
घूमने लगेगा।
और तुम्हें
लगेगा कि पागल
हो जाऊंगा।
अगर पिकासो
की पूरी
प्रदर्शनी
में तुम घंटे
दो घंटे रह जाओ,
तो तुम बहुत
थके हुए, खिन्न,
उदास, जैसे
तुम्हारी कोई
शक्ति खो गई
है, वापिस
लौटोगे।
आधुनिक
कला
विक्षिप्तता
जैसी है।
क्योंकि कलाकर
अपना रोग
निकाल रहा है।
आधुनिक कविता
को तुम पढ़ो, तो पढ़कर
तुम्हारे
भीतर कोई फूल
न खिलेंगे। आधुनिक
कविता को पढ़कर
तुम किसी
शांति और किसी
आनंद में मग्न
न हो जाओगे।
आधुनिक कविता
तुम्हें ठीक
लगेगी, क्योंकि
तुम्हारा भी
जीवन ऐसा ही
खिन्न है, जैसी
आधुनिक कविता
खिन्न है; उन
दोनों में
तालमेल
मिलेगा।
गुरजिएफ
कहता है कि
थोड़े से
पुराने चित्र, पुरानी
मूर्तियां, पुरानी
कहानियां
तथ्यगत हैं, आब्जेक्टिव हैं। उसमें
किसी ने अपना
रोग नहीं
निकाला है बल्कि
अपने जीवन के
अनुभव को
समाया है।
और
जिसने यह सूफी
कहानी लिखी, इसने जीवन
का कोई
सिद्धांत खोज
लिया था अनुभव
से। इसने जीवन
की कोई पहचान
कर ली, एक
साक्षात्कार
इसे हुआ। उस
साक्षात्कार
को इसने ऐसे
शब्दों में रख
दिया कि बच्चा
भी समझ ले और
बूढ़ा भी समझना
चाहे तो बड़ी
कठिनाई पाये।
यह आब्जेक्टिव
है। और
सदियों-सदियों
तक यह कहानी
उस सत्य को छिपाए
रहेगी।
और एक
मजे की बात है; सिद्धांतों
की भाषा हमेशा
बदल जाती है, कहानी की
भाषा कभी नहीं
बदलती।
इसलिये अगर दो
हजार साल
पुरानी सिद्धांत
की भाषा
तुम्हारी समझ
में न आए, लेकिन
दो हजार साल
पहले की कहानी
तुम्हें समझ में
आएगी।
इसलिये
बुद्ध ने, महावीर ने, जरथुस्त्र
ने, क्राइस्ट
ने अपना
महत्वपूर्ण
कहानियों में डाल
दिया। और सूफी
तो अदभुत
कथाकार हैं।
सूफियों ने तो
आब्जेक्टिव
आर्ट को इतनी
गहराई में
जन्म दिया है,
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
मगर वह खोता
जाता है। क्योंकि
हम...हमारे
सामने भी खड़ा
हो, जैसे
ताजमहल खड़ा
है--ताजमहल आब्जेक्टिव
आर्ट का एक
नमूना है, लेकिन
किसी को उससे
मतलब नहीं।
बाकी तो कहानी
है कि मुमताज
के लिए उसके
प्रेमी ने
बनाया है। वह
तो सब कहानी
है। बनाया वह
भी ठीक है, उस
कहानी में कुछ
असत्य भी नहीं
है, पर वह
तो ऊपरी
रूपरेखा है।
ताजमहल
पर अगर कोई
ध्यान करे तो
तत्क्षण शांत हो
जाये। उसकी
बनावट, और
विशेष रातों
में उससे उठती
हुई जो आभा
है--चांद और संगमर्मर
का जो मेल है, पूरे चांद
की रात में
ताजमहल से
ज्यादा शांत
कोई मकान इस
पृथ्वी पर
नहीं होता।
लेकिन वहां
लोग पूर्णिमा
की रात पहुंच भी
जाते हैं, तो
मूंगफली खाते
रहते हैं, या
रेडियो खोलकर
सुनते रहते
हैं। रेडियो
घर ही सुना जा
सकता था! या
फिजूल की
बकवास करते
हैं। या
राजनीति की
चर्चा करते
हैं। उन्हें
पता भी नहीं
कि वे एक बहुत
बड़ी अनूठी आब्जेक्टिव
कृति, एक
तथ्यगत कृति
के पास खड़े
हैं, जिसमें
ध्यान का राज
छिपा है। यह
कोई मुमताज के
लिए नहीं
बनाया गया है।
वह तो बहाना
है। मुमताज तो
बहाना है।
सूफी फकीरों
ने शाहजहां
का उपयोग कर
लिया है और संगमर्मर
में एक कहानी
खड़ी कर दी है।
लेकिन
सूत्र खो गए।
जैसे यह कहानी
बच्चे पढ़ रहे
हैं।
नहीं, इसे
सिद्धांत की
तरह मानकर मत
चलना। मानकर
चलने से ही
जीवन में
भ्रांति शुरू
होती है। मानने
की कुछ जरूरत
नहीं है, खोजने
की--खोजना! एक
दिन तुम पाओगे,
यह कहानी
सत्य है। उस
दिन कहानी खो
जायेगी, सिद्धांत
बचेगा। और वह
सिद्धांत
जीवन को बदलने
वाला हो सकता
है। बदलेगा ही,
निश्चित
बदलेगा; क्योंकि
जब भी तुम कुछ
सत्य को देख
लेते हो, तब
तुम वही नहीं
रह सकते, जो
देखने के पहले
थे।
सत्य
का दर्शन, तुम्हारे
पुराने को
नष्ट कर देता
है और नये को
जन्म देता है।
आज
इतना ही।
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