प्रश्नसार:
1—कृष्णमूर्ति
लगातार बोले
जाते हैं, लेकिन
क्या वे नहीं
जानते कि
लोग उन्हें
समझ ही नहीं
पा रहे हैं? और आप
कहते है कि
मैं
सबके लिए
मार्ग बना
सकता हूं,फिर भी आप
स्वयं का
खंडन
करके कई लोगों
को अपने से
दूर क्यों
हटाया करते हो?
2—व्यक्ति
से प्रेम, गुरु से
प्रेम—और फिर
परमात्मा से
प्रेम।
भक्ति
के संदर्भ में
इसे समझने की
कृपा करें।
3—क्या
सद्गुरू कभी
जँभाई लेते है?
पहला
प्रश्न :
ऐसा
कैसे है कि
कृष्णमूर्ति
जैसे बुद्ध—
पुरुष नहीं
देख सकते कि
वे मदद नहीं
कर पा रहे हैं
लोगों की? यदि वे
बुद्ध— पुरुष
हैं तो क्या
वे यह सब देख
नहीं पाते? और आप कहते
हैं कि आप हर
प्रकार के
लोगों की मदद
करने योग्य
हैं लेकिन आप
यह भी कहते
हैं कि आप
प्रयोजनवश
विरोधात्मक
हैं जिससे कि
कुछ लोग दूर
चले जाएंगे।
यदि आप सभी की
मदद कर पाते
हैं तो क्यों
कुछ लोगों का
दूर जाना आवश्यक
है?
कृष्णमूर्ति
जैसा आदमी देख
सकता है। कोई
अड़चन नहीं, कोई बाधा
नहीं, और
वह देख लेता
है हर चीज को
जो —जो घट रही
है उसके आसपास।
लेकिन एक
बुद्ध—पुरुष
कुछ कर नहीं
सकता ?इ है।
उसे वैसा ही
होना होता है
जैसा कि वह
होता है, मुक्त
और स्वाभाविक।
कुछ करना ले
आता है तनाव, और करना
तुम्हें बना
देता है
अस्वाभाविक।
तब तुम धारा
के विपरीत बह
रहे होते हो।
कृष्णमूर्ति
जानते हैं कि
क्या घट रहा
है, किंतु
वे कुछ कर
नहीं सकते।
उन्हें घटने
देना होता है
इसे। इसी
भांति समष्टि
इसे चाहती है।
कुछ नहीं किया
जा सकता इस
विषय में।
कर्ता सदा
रहता है
अज्ञान में।
जब कोई जाग
जाता है तो
कर्ता कभी
नहीं मिलता।
जब कोई जाय
जाता है तो जो
कुछ भी हो
अवस्था, वह
स्वीकार करता
है उसे।
तो मत
सोच लेना कि
कृष्णमूर्ति
जानते नहीं हैं।
वे
संपूर्णतया
जानते हैं, तो भी इसी
प्रकार घटी है
बात और भीतर
कोई नहीं है
यह निर्णय
देने को कि
ऐसा इस तरह
घटना चाहिए या
किसी दूसरी
तरह। कुछ नहीं
किया जा सकता
है। गुलाब का
फूल तो गुलाब
का फूल ही
होता है, और
आम का वृक्ष
होता है आम का
वृक्ष।
आम्रवृक्ष
गुलाबों को
नहीं ला सकता,
गुलाब का पौधा
आमों को नहीं
ला सकता। ऐसा
ही होता है—एक
समग्र
स्वीकार।
और जब
मैं कहता हूं 'समग्र
स्वीकार', तो
ऐसा तुम्हें
मात्र समझाने
को ही। अन्यथा
एक संबोधि को
उपलब्ध हुई
चेतना में स्वीकार
नहीं होता
क्योंकि वहां
कोई अस्वीकार नहीं
होता। इसीलिए
मैं इसे कहता
हूं समग्र। यह
परम समर्पण ही
होता है
समग्रता के
प्रति। हर चीज
ठीक होती है।
मैं तुम्हें
मदद दे सकता
हूं या कि
नहीं, यह
मेरे निर्णय
की बात नहीं।
समग्रता
निर्णय करती
है, और
समग्रता मेरा
उपयोग करती है।
यह उस पर है।
यदि यह ठीक है
कि लोगों की
मदद नहीं की
जानी चाहिए, तो समग्रता
मुझे मदद नहीं
करने देगी
लोगों की, लेकिन
मैं कहीं नहीं
होता इसमें।
यह होती है
संबोधि की
अवस्था। तुम
नहीं समझ सकते
इसे, क्योंकि
तुम सदा कर्ता
के ढंग से
सोचते हो।
बुद्ध —पुरुष
वस्तुत:
अस्तित्व ही
नहीं रखता। वह
वहां होता ही
नहीं। एक
विशाल
शून्यता होती,
इसीलिए जो
कुछ भी घटता
है, घटता
है; जो कुछ
नहीं घटता
नहीं घटता है।
और तुम
पूछते हो
मुझसे, ' और आप कहते
हैं कि आप सभी
प्रकार के
खोजियों की
मदद कर पाते है
किंतु आप यह
भी कहते हैं
कि आप
प्रयोजनवश
विरोधात्मक
हैं, जिससे
कि कुछ लोग दूर
चले जायेंगे।
यदि आप सभी की
मदद कर पाते
हैं, तो
क्यों कुछ
लोगों का दूर
जाना आवश्यक
है?'
हां, ऐसा ही है
यह। सभी को
मदद मिल सकती
है मेरे
द्वारा। जब
मैं कहता हूं
कि सभी को मदद मिल
सकती है मेरे
द्वारा, तो
मेरा मतलब यह
नहीं होता कि
सभी को मदद
मिलनी चाहिए,
क्योंकि
ऐसा केवल मेरी
ओर से ही संबंधित
नहीं है। यह
निर्भर करता
है उस व्यक्ति
पर भी जिसे कि
मदद मिलनी होती
है। ऐसा आधा—
आधा होता है।
एक नदी बहती
है और मैं
पानी पी सकता
हूं उसका, तो
भी यह तो निश्चित
नहीं कि सभी
को पीना होगा।
कुछ दूर चले
जाएंगे। हो
सकता है यह
उनके लिए सही
समय न हो और जब
सही समय न हो
तो किसी को
मदद नहीं मिल
सकती। हर चीज
अपने समय से
घटती है।
कई को
मदद नहीं मिल
सकती क्योंकि
वे बंद हैं।
और तुम
जबर्दस्ती
नहीं कर सकते, और तुम आक्रामक
नहीं हो सकते।
आध्यात्मिक
घटना घटती है
एक गहन निष्क्रियता
में। जब शिष्य
निष्किय होता
है। केवल तभी
वह घटती है।
यदि मैं पाता
हूं कि तुम
बहुत सक्रिय
हो तुम्हारी
ओर से या कि
मैं पाता हूं कि
तुम बहुत बंद
हो या कि मैं
पाता हूं कि
यह सही समय
नहीं है
तुम्हारे लिए,
तो सबसे
अच्छा जो घट
सकता है वह यह
कि तुम मुझसे
दूर चले जाओ, क्योंकि
वरना तो तुम
केवल बरबाद ही
करोगे अपना
समय—मेरा नहीं,
क्योंकि
मेरा कोई समय
नहीं, तुम
मात्र बरबाद
करोगे अपना
समय।
इस बीच
में, तुम्हारा
ध्यान भंग
होता रहा है।
तुम्हें रहना
चाहिए था
संसार में
किसी दूसरी जगह,
किसी बाजार
में। तुम्हें
कहीं और होना
चाहिए था, क्योंकि
वहां घट गई
होती
तुम्हारी प्रौढ़ता।
यहां तो तुम व्यर्थ
कर रहे हो
अपना समय। यदि
तुम्हारे लिए
यह सही समय
नहीं है तो
बेहतर है कि
तुम दूर चले जाओ।
कुछ और देर को
तुम्हें
संसार में
घूमते रहना है।
तुम्हें कुछ
और देर पीड़ा
में से गुजरना
है। तुम अभी
तैयार न हुए, अभी पके
नहीं, और
पकना ही सब
कुछ है, क्योंकि
गुरु कुछ कर
नहीं सकता। वह
कर्ता नहीं है।
यदि तुम पके
हुए हो और
गुरु मौजूद है
तो समग्रता
में से कुछ
प्रवाहित हो
जाता है गुरु
के द्वारा और
पहुंच जाता है
तुम तक और पका
फल गिर पड़ता
है धरती पर।
लेकिन कच्चा
फल नहीं गिरेगा,
और यह अच्छा
है कि वह न
गिरे।
तो जब
मैं कहता हूं
कि मैं
विरोधात्मक हूं, तो मेरा
मतलब होता है
कि एक निश्चित
प्रकार की स्थिति
सदा निर्मित
हुई होती है, मेरे द्वारा
नहीं, बल्कि
संपूर्ण
द्वारा, मुझमें
से होकर।
इसलिए
लोग जो तैयार
नहीं हैं, उन्हें
किसी भी तरह
समय व्यर्थ
नहीं करने देना
चाहिए।
उन्हें जाना
होगा और पाठ
सीखना होगा, उन्हें
गुजरना होगा
जीवन की
पीड़ाओं में से,
एक निश्चित
प्रौढ़ता
उपलब्ध करनी
होगी, और
फिर आना होगा
मेरे पास। हो
सकता मैं यहां
न रहूं तो भी
तब कोई और
होगा यहां। क्योंकि
यह मेरा या
किसी दूसरे का
सवाल नहीं है;
सारे बुद्ध—पुरुष
एक जैसे ही
हैं। यदि मैं
यहां नहीं होता
हूं, यदि
यह शरीर यहां
नहीं होता है,
तो कोई और
शरीर कार्य कर
रहा होगा
समग्रता के लिए,
इसलिए कोई
जल्दी नहीं है।
अस्तित्व
प्रतीक्षा कर
सकता है
अनंतकाल तक, लेकिन कच्चे
हो, तो
तुम्हारी मदद
नहीं की जा
सकती है।
ऐसे
शिक्षक हैं—उन्हें
मैं गुरु नहीं
कहता हूं
क्योंकि वे जागे
हुए नहीं हैं, वे
शिक्षक हैं—जो
कच्चे
व्यक्ति को भी
दूर नहीं जाने
देंगे। वे हर
प्रकार की
स्थितियां
निर्मित कर
देंगे जिससे
कोई व्यक्ति
भाग नहीं सकता
है। वे खतरनाक
हैं क्योंकि
यदि व्यक्ति
पका नहीं होता,
तो वे भटका
रहे होते हैं
व्यक्ति को।
यह व्यक्ति
परिपक्व नहीं
होता है और
उसे कोई बेमौसमी
चीज दे दी
जाती है, वह
सृजनात्मक
नहीं होगी, वह
ध्वसांत्मक
होगी।
यह ऐसा
होता है जैसे
यदि तुम किसी
छोटे बच्चे को
शिक्षा देने
लगते हो
कामवासना के
बारे में और
वह नहीं जानता
कि वह क्या
होती है। उसके
कोई अंतरावेश
नहीं, उसका
अभी प्रकट
होना बाकी है।
तुम विनष्ट कर
रहे हो उसके
मन को। प्यास
उठने दो, अंतरावेश
को मौजूद होने
दो, तब वह
खुला होगा और
समझने को
तैयार होगा।
आध्यात्मिकता
कामवासना
जैसी ही है।
कामवासना को
जरूरत होती है
एक खास प्रौढ़ता
की; चौदहवें
वर्ष की आयु
में ही बच्चा
तैयार होगा।
उसकी अपनी
उत्तेजना आ
बनेगी। वह
पूछना शुरू कर
देगा, और
वह ज्यादा से
ज्यादा जानना
चाहेगा उसके
बारे में।
केवल तभी
संभावना होती
है उसे कुछ
निश्चित चीजें
समझाने की।
ऐसा ही
होता है
आध्यात्मिकता
के साथ: एक
निश्चित
परिपक्वता
आने पर आवेश
उठता है, तुम खोज कर
रहे होते हो
परमात्मा की।
संसार तो पहले
से ही समाप्त
हो चुका। तुम
उसे जी चुके
होते हो पूरी
तरह, तुमने
उसे देख लिया
पूर्णतया। वह
समाप्त हो
चुका है। कोई
आकर्षण नहीं
है उसमें, कोई
अर्थ नहीं है
उसमें। अब
अंतप्रेंरणा
उठती है स्वयं
अस्तित्व का
ही अर्थ जानने
की। तुम खेल
चुके सारे खेल,
और अब कोई
खेल तुम्हें
आकर्षित नहीं
करता। जब
संसार खो चुका
होता है अपना
अर्थ, तब
तुम प्रौढ़
होते हो।
अब
तुम्हें
जरूरत होगी
गुरु की, और गुरु सदा
होते हैं, इसलिए
कोई जल्दी
नहीं है। हो
सकता है कि
गुरु इस रूप
में न हो, इस
देह में न हो, बल्कि किसी
दूसरी देह में
हो। रूप और
आकार कोई मतलब
नहीं रखते, शरीर कोई
संबंध नहीं
रखते। गुरु की
आंतरिक
गुणवत्ता सदा
वही होती है, वही होती है,
और वही होती
है। बुद्ध बार
—बार कहते हैं,
'तुम सागर
के पानी को
कहीं से चखो, वह सदा
नमकीन होता है।’
इसी भांति,
गुरु का सदा
एक ही स्वाद
होता है। वह
स्वाद होता है
जागरूकता का।
और गुरु सदा
होते हैं, वे
सदा होंगे, इसलिए कोई
जल्दी नहीं है।
और यदि
संसार के साथ
तुम्हारी बात
समाप्त नहीं
हुई, यदि
एक छिपी हुई आकांक्षा
है कामवासना
को जानने की, धन क्या ला
सकता है, इस
बात को जानने
की, सत्ता
तुम्हें क्या
दे सकती है, इस बात को
जानने की, तब
तुम तैयार न
हुए।
आध्यात्मिक
प्यास बहुत—सी
प्यासों में
से ही एक
प्यास नहीं है।
नहीं, जब
सारी :प्यासे
अपने अर्थ खो
देती हैं तब
उठती है वह।
आध्यात्मिक
प्यास दूसरी
प्यासों के
साथ नहीं बनी
रह सकती—वैसा
संभव नहीं। वह
पूरा अधिकार
कर लेती है, तुम्हारे
संपूर्ण
अस्तित्व पर।
वह एक और
एकमात्र आकांक्षा
बन जाती है।
केवल तभी गुरु
किसी तरह
सहायक हो सकता
है तुम्हारे
लिए।
लेकिन
शिक्षक हैं।
वे चाहेंगे
तुम चिपके रहो
उनसे और वे
चिपके रहेंगे
तुमसे। वे ऐसी
स्थिति बना
देंगे जिसमें
से यदि तुम भागे
तो सदा तुम
अपराधी अनुभव
करोगे। गुरु
के पास एक
वातावरण होता
है उसके चारों
ओर, यदि
तुम रहते हो
उसमें, तो
तुम रहते हो
तुम्हारे
अपने निर्णय
द्वारा। यदि
तुम चले जाते
हो, तो तुम
चले जाते हो
अपने निर्णय
द्वारा। और जब
तुम जाते हो, तो गुरु
नहीं चाहेगा
कि तुम अपराधी
अनुभव करो इस
बारे में, तो
वह ऐसा रंग—रूप
दे देता है
स्थिति को कि
तुम अनुभव
करते हो, 'यह
गुरु तो गुरु
नहीं', या
कि 'यह
गुरु हमारे
लिए नहीं' या
कि 'वह
इतना
विरोधात्मक
है कि वह
बेतुका है।’वह तुम्हारे
लिए सारी
जिम्मेदारी
उठा लेता है।
अपराधी अनुभव
मत करो। तुम
बस चले जाओ
उससे दूर, पूरी
तरह स्पष्ट
होकर और उससे
कट कर।
इसीलिए
मैं
विरोधात्मक
हूं। और जब
मैं कहता हूं 'प्रयोजनवश',
इसका यह
अर्थ नहीं
होता कि मैं
कर रहा हूं
वैसा, बस
मैं वैसा हूं
ही। लेकिन 'प्रयोजनवश'
का अर्थ
होता है, और
वह अर्थ है
मैं नहीं
चाहूंगा कि जब
कभी तुम मुझे
छोड़ो तो तुम
उसके बारे में
अपराधी अनुभव करो।
मैं सारी
जिम्मेदारी
ले लेना
चाहूंगा। मैं
चाहूंगा कि
तुम अनुभव करो,
'यह आदमी
गलत है', और
इसलिए तुम
छोड्कर जा रहे
हो। इसलिए
नहीं कि तुम
गलत हो, क्योंकि
यदि वैसी
अनुभूति
तुम्हारे
अस्तित्व में
चली जाती है
कि तुम गलत हो
और ऐसा अच्छा नहीं,
तो फिर
ध्वंसात्मक
हो जाएगी बात,
तुम्हारे
भीतर एक
ध्वंसात्मक
बीज पड़ जाएगा।
गुरु
कभी तुम पर
कब्जा नहीं
करता। तुम
उसके साथ हो
सकते हो, तुम दूर जा
सकते हो, लेकिन
उसमें कोई
मालकियत नहीं
होती। उसके
साथ होने की
या दूर चले
जाने की वह
तुम्हें
पूर्ण
स्वतंत्रता
देता है। यही
होता है मेरा
मतलब, जब
मैं कहता हूं
कि यदि तुम
यहां हो, तो
उत्सव मनाओ
मेरे साथ। जो
कुछ मैं हूं, उसे बांटो
मेरे साथ।
लेकिन यदि
किसी निश्चित
घड़ी में तुम अनुभव
करते हो दूर
चले जाने की
बात, तो
तुम्हारी पीठ
फेर लेना और
फिर कभी मत
देखना मेरी
तरफ, और मत
सोचना मेरे
बारे में, और
मत अनुभव करना
अपराधी।
गहरी
समस्याएं
जुड़ी होती हैं
इस बात से।
यदि तुम
अपराधी अनुभव
करते हो तो
तुम दूर जा सकते
हो मुझसे, किंतु
अपराध संतुलित
करने को ही
तुम मेरे
विरुद्ध
बातें कहे
जाओगे।
अन्यथा कैसे
तुम
प्रभावहीन
करोगे अपराध—
भाव को? तुम
मेरी निंदा
करते रहोगे।
जिसका मतलब, तुम चले गए
और अभी तक गए
भी नहीं।
निषेधात्मक
रूप से तुम
होते हो मेरे
साथ और वह बात
ज्यादा
खतरनाक होती
है। यदि
तुम्हें मेरे
साथ होना है, तो विधायक
रूप से रहो
मेरे साथ।
अन्यथा, बिलकुल
भुला ही दो
मुझे, 'यह
आदमी
अस्तित्व ही
नहीं रखता।’ क्यों निंदा
करते जाना? लेकिन यदि
तुम अपराधी
अनुभव करते हो,
तो तुम्हें
लानी ही होगी
व्याख्या। जब
तुम अपराध—
भाव अनुभव
करते हो, और
वह भारी होता
है, तब तुम
मेरी निंदा
करना चाहोगे।
और निंदा करके
तुम एक
हल्कापन
अनुभव करोगे,
लेकिन तब
निषेधात्मक
रूप से तुम
मेरे साथ बने रहोगे।
मेरी छाया के
साथ तुम चलोगे—फिरोगे।
वह तो फिर
तुम्हारे समय
का और
तुम्हारे
जीवन का, तुम्हारी
ऊर्जा का
व्यर्थ हो
जाना ही हुआ।
इसलिए
जब मैं कहता
हूं कि
प्रयोजनवश
मैं निर्मित
करता हूं
स्थितियों को, तो मेरा
मतलब होता है :
जब कभी मैं
अनुभव करता हूं
कि कोई एक
व्यक्ति
तैयार नहीं है,
वह व्यक्ति
पका नहीं है, उस व्यक्ति
को संसार में
थोड़ा और पकने
की जरूरत है, या कि कोई
व्यक्ति बहुत
बौद्धिक है और
आस्था नहीं रख
सकता, उसे
शिक्षक की
जरूरत है न कि
गुरु की; या
कि कोई
व्यक्ति अपनी
ओर से किए गए
किसी निर्णय
के कारण नहीं
आया है मेरे
पास, बल्कि
बस बहता हुआ आ
पहुंचा है
संयोगवशांत:::।
तुम
यों ही चले आ
सकते हो।
तुम्हारा कोई
मित्र आ रहा
होता है मुझे
मिलने और
रास्ते में
तुम भी पीछे
हो लेते हो।
अब तुम पकड़
में आते जाते
और फंस जाते
और तुमने कभी
इरादा नहीं
किया था यहां
होने का। तुम
जा रहे थे
कहीं और, किंतु संयोगवशांत
तुम यहां आ गए!
जब मैं अनुभव
करता हूं कि
तुम संयोगवश
ही यहां हो, तो मैं
चाहूंगा कि
तुम दूर चले
जाओ क्योंकि यह
तुम्हारे लिए
सही स्थान
नहीं। मैं
नहीं चाहूंगा
कि किसी का
अपने मार्ग से
ध्यान भंग हो
जाए। यदि
तुम्हारे
मार्ग पर तुम
मिल सको मुझसे,
तो अच्छा है।
यदि मिलन
स्वाभाविक है,
यदि ऐसा
घटना ही था, यदि ऐसा
होना भाग्य से
जुड़ा ही था, तुम तैयार
और तैयार और
तैयार हो रहे
थे और ऐसा
घटना ही था, तब यह बात
सुंदर होती है।
अन्यथा, मैं
तुम्हारा समय
खराब करना
नहीं चाहूंगा।
इस बीच तुम
सीख सकते हो
बहुत सारी
चीजें।
या कई
बार मैं अनुभव
करता हूं कि
कोई मेरे पास आया
है किसी कारण
से जो कि सही
कारण नहीं है।
बहुत लोग आ
जाते हैं गलत
कारणों से।
कोई आ गया
होगा उसमें उठ
रहे नए अहंकार
को अनुभव करने
के लिए ही, वह
अहंकार जिसे
धर्म दे सकता
है, वह
अहंकार जिसे
दे सकता है
संन्यास।
धर्म द्वारा
तुम अनुभव कर
सकते हो बहुत
विशिष्ट, असाधारण।
यदि मैं अनुभव
करता हूं कि
कोई इसी चीज
के लिए आया है,
तब यह ठीक कारण
नहीं मेरे पास
आने का, क्योंकि
अहंकारी मेरे
निकट नहीं रह
सकते।
कोई
शायद मेरे
विचारों से
आकर्षित हुआ
होगा—वह भी
गलत कारण होता
है। मेरे
विचार
तुम्हारी
बुद्धि को
आकर्षित करते
होंगे, लेकिन
बुद्धि कुछ
नहीं। वह
तुम्हारे
संपूर्ण
अस्तित्व के
लिए एक बाहरी
वस्तु ही बनी
रहती है। जब
तक तुम मेरी
ओर आकर्षित
नहीं होते, बल्कि जो
मैं कहता हूं
उसके प्रति
आकर्षित होते
हो, तो तुम यहां
होते हो गलत
कारणों से ही।
मैं कोई
दार्शनिक
नहीं हूं और
मैं कोई सत्य
का सिद्धात
नहीं सिखा रहा
हूं।
इसीलिए
मेरे पास
असंगत होने की
इतनी स्वतंत्रता
है, क्योंकि
यदि कोई
सिद्धात सिखा
रहा होता है, तो वह असंगत
होने की
सामर्थ्य
नहीं पा सकता
है। मैं किसी
चीज का उपदेश
नहीं दे रहा
हूं। मेरे पास
तुम पर लादने
को कोई
सिद्धात नहीं
है। मेरा
तुम्हारे साथ
बोलना कोई
शिक्षा देना
नहीं है।
इसीलिए मैं
स्वतंत्र हूं
पूरी तरह
स्वतंत्र हूं
स्वयं का खंडन
करने के लिए।
कुछ मैंने कल कहां,
मैं आने
वाले कल उसका
खंडन कर सकता
हूं। जो मैं
आज कह रहा हूं, उसे मैं कल
काट सकता हूं।
मैं कवि की
भांति हूं और
यदि तुम मेरा
गान समझ लेते
हो तो तुम
यहां होते हो
ठीक कारण से।
यदि तुम समझ
लेते हो मेरी
लय, तो तुम
यहां होते हो
ठीक कारण से।
यदि तुम 'मुझे'
समझते हो, जो मैं कहता
हूं उसे नहीं,
बल्कि मेरी
उपस्थिति को
समझते हो, केवल
तभी ठीक है यहां
होना, वरना
नहीं।
संसार
बड़ा है, यहां क्यों
अटकना! और सदा
ध्यान रहे, यदि यहां
किसी ढंग से
तुम गलत
कारणों से हो,
तो तुम सदा
फंसा हुआ
अनुभव करोगे।
जैसे कि कुछ
ऐसा घट गया हो,
जिसे नहीं
घटना चाहिए था।
तुम सदा
बेचैनी अनुभव
करोगे। मैं
तुम्हारे लिए
सुख—चैन नहीं
होऊंगा। मैं
एक कारा बन
जाऊंगा। और
मैं नहीं
चाहूंगा किसी
के लिए कारा
बनना। यदि मैं
तुम्हें कुछ
दे सकता हूं
यदि कुछ ऐसा
है जो कि
महत्व का है
तो वह है
स्वतंत्रता।
इसीलिए मैं
कहता हूं, 'प्रयोजनवश'।
लेकिन
गलत मत समझ
लेना मुझे, यह कुछ
ऐसा नहीं जिसे
मैं कर रहा
हूं मैं इस ढंग
से हूं ही।
यदि मैं चाहूं
भी तो इसे बंद
नहीं कर सकता,
और
कृष्णमूर्ति
ऐसा नहीं कर
सकते, वे
चाहें भी तो।
वे अपने ढंग
से खिले हुए
हैं, मैं
अपने ढंग से
खिला हुआ हूं।
ऐसा
हुआ एक बार कि
एक संदेश मिला
एक मित्र द्वारा, जो कि
मेरे मित्र
हैं और
कृष्णमूर्ति
के भी मित्र
हैं। संदेश
पहुंचा
कृष्णमूर्ति
की ओर से कि वे
मुझसे मिलना
चाहेंगे।
मैंने कहां उस
संदेशवाहक से
कि यह तो
बिलकुल ही
बेतुकी बात हो
जाएगी। हम अलग
— अलग दो छोर
हैं। या तो हम
मौनपूर्वक
बैठ सकते हैं,
और वह ठीक
होगा, या
फिर हम बहस
किए जा सकते
हैं अनंतकाल
तक बिना किसी
निष्कर्ष तक पहुंचे
हुए। ऐसा नहीं
है कि हम एक
दूसरे के
विरुद्ध हैं,
हम तो बस
विभिन्न हैं।
और मैं कहता
हूं
कृष्णमूर्ति
उन महानतम
बुद्ध—पुरुषों
में से एक हैं
जो आज तक हुए
हैं। उनकी एक
अपनी
अद्वितीयता
है।
यह बात
बहुत गहरे रूप
से समझ लेनी
है। ऐसा थोड़ा
कठिन होगा।
अबुद्ध पुरुष
तो लगभग सदा एक
से ही होते
हैं। कोई
ज्यादा अंतर
नहीं होता है, हो नहीं
सकता। अंधकार
उन्हें एक
जैसा बना देता
है, अज्ञान
उन्हें बना
देता है लगभग
एक जैसा ही।
वे एक दूसरे
की नकल होते
हैं और तुम
मौलिक को नहीं
पा सकते। सभी
कार्बन —कॉपी
होते हैं, प्रतिकृति
होते हैं।
अज्ञान में
लोग कुछ
ज्यादा अलग
नहीं होते। वे
हो नहीं सकते।
अज्ञान है उस
काले कंबल की
भांति जो कि
ढांक लेता है
सभी को। अंतर
क्या होते हैं?
मात्रा के
अंतर हो सकते
हैं, लेकिन
अद्वितीयता
में अंतर नहीं
होते।
साधारणतया, अज्ञानी
व्यक्ति बने
रहते हैं
सामान्य भीड़
की भांति। एक
बार कोई
व्यक्ति
संबोधि को
उपलब्ध हो
जाता है तो वह
संपूर्ण रूप से
बेजोड़ हो जाता
है। तब तुम
उसकी तरह का
कोई दूसरा
नहीं खोज सकते,
इतिहास के
इस क्षण में
भी नहीं, न
ही फिर कभी।
अतीत में नहीं,
भविष्य में
नहीं। फिर कभी
न होगा
कृष्णमूर्ति
की तरह का
आदमी, और
कभी था भी
नहीं। मैं फिर
से दोहराया
नहीं जाऊंगा।
बुद्ध बुद्ध
हैं, महावीर
हैं महावीर —अद्वितीय
ढंग की
खिलावटें।
बुद्ध —पुरुष
होते हैं
पर्वतशिखरों
की भांति।
साधारणतया
तो अज्ञानी
व्यक्ति सपाट
जमीन की भांति
होते हैं; हर चीज एक
—सी ही होती है।
यदि भेद
अस्तित्व
रखते भी हैं
तो इस तरह के
ही होते हैं
कि तुम्हारे
पास छोटी कार
होती है और
किसी के पास
बड़ी कार होती
है, या कि
तुम अशिक्षित
होते हो और
कोई शिक्षित
होता है, या
तुम गरीब होते
हो और कोई
अमीर होता है।
यह तो कुछ
नहीं। वास्तव
में ये तो भेद
न हुए।
तुम्हारे पास
सत्ता हो सकती
है और कोई सड़क
का भिखारी और
गरीब हो सकता
है, लेकिन
यह अंतर नहीं
हैं, ये
बेजोड़पन नहीं
हैं। यदि
तुम्हारी
सारी चीजें ले
ली जाती हैं, तुम्हारी
शिक्षा और
तुम्हारी
सत्ता, तब
तुम्हारे
राष्ट्रपति
और तुम्हारे
भिखारी एक
समान ही दिखाई
पड़ेंगे।
पश्चिम
के बड़े
मनसविदों में
से एक है
विक्टर फ्रेंकल।
उसने
मनोविश्लेषण
में एक नई
विचारधारा
विकसित की है।
वह उसे कहता
है
लोगोथैरेपी।
वह एडोल्फ
हिटलर के
यातना—शिविरों
में रहा था, और वह
अपनी एक किताब
में संस्मरण
लिखता है कि जब
वे कई सौ
लोगों के साथ
प्रवेश कर रहे
थे यातना
शिविरों में,
तो हर चीज
दरवाजे पर ही
ले ली जाती थी,
हर चीज—तुम्हारी
घड़ी, हर चीज।
अचानक ही, धनी
व्यक्ति और
निर्धन
व्यक्ति सभी
एक जैसे हो गए।
जब तुम प्रवेश
करते दरवाजे
में तो
तुम्हें गुजरना
होता था इस
परीक्षा से और
हर किसी को
बिलकुल ही
नग्न होना
पड़ता था। केवल
इतना ही नहीं,
बल्कि वह हर
किसी के बाल
भी मूड देते।
फ्रेंकल याद
करता है कि हजारों
लोगों सहित
बाल मुडाए हुए,
नग्न हो
जाने से, अकस्मात
सारे भेद
तिरोहित हो
जाते थे। वह
एक सामूहिक —
अनुष्ठान
होता था।
तुम्हारे केश
संवारने का
ढंग, तुम्हारी
कार, तुम्हारे
मूल्यवान
कपड़े, या
फिर तुम्हारी
हिप्पियों
जैसी पोशाक :
यही होते हैं
भेद।
सामान्य
मनुष्यता
अस्तित्व
रखती है भीड़
की भांति।
वस्तुत:
तुम्हारे पास
आत्माएं नहीं, तुम हो
भीड़ का हिस्सा
मात्र, उसका
एक अंश। तुम
प्रतिकृति
होते हो
प्रतिकृतियों
की, एक
दूसरे की नकल
करते हुए। तुम
नकल करते हो
पड़ोसी की और
पड़ोसी नकल
करता है
तुम्हारी और
यही कुछ चलता
चला जाता है।
लोग
अध्ययन करते
रहे हैं पेड़ों
का और कीट—पतंगों
का और
तितलियों का।
अब वे कहते
हैं कि एक
निरंतर नकल घट
रही है प्रकृति
में।
तितलियां नकल
करती हैं
फूलों की, और फिर
फूल नकल करते
हैं तितलियों
की। कीड़े नकल
करते हैं
वृक्ष की और
फिर वृक्ष नकल
करते हैं
कीड़ों की। अत:
ऐसे कीट—पतंगे
होते हैं जो
छिप सकते हैं
उसी रंग के वृक्षों
में, और जब
वृक्ष बदलता
है अपना सा, तो वे भी
बदलते हैं
अपना रंग। तो
अब वे कहते
हैं कि सारी
प्रकृति में
निरंतर नकल की
प्रक्रिया
चलती है।
वह
व्यक्ति जो
संबोधि को
उपलब्ध होता
है, वह
हो जाता है शिखर
की भांति, एक
एवरेस्ट।
दूसरी कोई और
संबोधि भी
होती है शिखर
की भांति, एक
और एवरेस्ट।
भीतर गहरे में
वे उपलब्ध हो
चुके होते हैं
एक ही बात को, लेकिन वे
होते हैं
बेजोड़। कोई
सामान्य चीज
अस्तित्व
नहीं रखती
बुद्ध—पुरुषों
के बीच, यही
है विरोधाभास।
वे माध्यम हैं
एक ही समष्टि
के, लेकिन
उनके भीतर कोई
बात एक जैसी
दोहरती नहीं।
वे बेजोड़
माध्यम होते
हैं।
इस बात
ने एक गहरी
समस्या खड़ी कर
दी है धार्मिक
व्यक्तियों
के लिए, क्योंकि
जीसस जीसस हैं
और बिलकुल
दिखायी नहीं
पड़ते बुद्ध की
भांति। बुद्ध
बुद्ध हैं और
कृष्ण की
भांति बिलकुल
नहीं लगते। जो
लोग कृष्ण से
प्रभावित हैं
वे सोचेंगे कि
बुद्ध में
किसी तरह की
कमी है। जो
लोग बुद्ध से
प्रभावित हैं
वे सदा
सोचेंगे कि
कृष्ण कुछ न
कुछ गलत हैं।
क्योंकि तब
तुम्हारे पास
एक आदर्श होता
है और तुम
निर्णय बनाते
हो उस आदर्श
द्वारा, और
बुद्ध—पुरुष
तो बस व्यक्ति
होते हैं। तुम
कोई मापदंड
नहीं बना सकते,
तुम उन्हें
किन्हीं
आदर्श
स्वरूपों
द्वारा नहीं
जांच सकते।
वहां कोई
आदर्श
अस्तित्व
नहीं रखता।
उनके पास, उनके
भीतर एक समान
तत्व होता है;
वह है
भगवत्ता, जो
है संपूर्ण
ब्रह्म के लिए
एक माध्यम
बनना, लेकिन
बस इतना ही।
वे अपने अलग—
अलग गान गाते
हैं।
यदि
इसे तुम याद
रख सको, तो ज्यादा
सक्षम हो
जाओगे, विकास
की उस उच्चतम
पराकाष्ठा को
समझने में जो
कि एक बुद्ध—पुरुष
होता है। और
मत रखना किसी
चीज की
अपेक्षा उससे;
वह कुछ नहीं
कर सकता है।
वह बस वैसा
होता है।
मुक्त और सहज
स्वाभाविक
होकर वह जीता
है अपने
अस्तित्व को।
यदि तुम कोई
घनिष्ठ नाता
अनुभव करते हो
उसके साथ, तो
बढ़ जाना उसकी
तरफ और उत्सव
मनाना उसके
अस्तित्व के
साथ; साथ
हो लेना उसके।
यदि तुम कोई
घनिष्ठता
अनुभव नहीं
करते; तो
कोई विरोध
नहीं बनाना।
तो बस चले ही
जाना किसी
दूसरी जगह।
कहीं किसी जगह
कोई जरूर
अस्तित्व
रखता होगा तुम्हारे
लिए। किसी और
के साथ तुम
तालमेल अनुभव
करोगे।
तो मत
परवाह करो यदि
तुम मोहम्मद
के साथ तालमेल
अनुभव नहीं
करते हो।
क्यों खड़ी
करनी
अनावश्यक
चिंताएं? मोहम्मद को
मोहम्मद ही
रहने दो और
उन्हें करने
दो अपना काम।
तुम उसके बारे
में मत करो
चिंता। यदि
तुम बुद्ध के
साथ तालमेल
जुड़ा अनुभव
करते हो, तो
बुद्ध हैं
तुम्हारे लिए;
सारे विचार
गिरा देना।
यदि तुम मेरे
साथ तालमेल
अनुभव करते हो,
तो केवल मैं
ही एक बुद्ध—पुरुष
होता हूं
तुम्हारे लिए।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण—फेंक
दो उन्हें रही
की टोकरी में।
यदि तुम मेरे
साथ तालमेल अनुभव
नहीं करते तो
मुझे फेंक
देना रही की
टोकरी में और
चलते चलना
अपने स्वभाव
के अनुसार। कहीं
—न—कहीं, कोई
गुरु
अस्तित्व रख
रहा होता है
तुम्हारे लिए।
जब कोई प्यासा
होता है तो
पानी अस्तित्व
रखता है। जब
कोई भूखा होता
है तो भोजन
अस्तित्व
रखता है। जब
किसी में गहन
प्यास होती है
प्रेम की, तो
प्रिय
अस्तित्व
रखता है। जब
आध्यात्मिक
अभीप्सा जगती
है—वह वास्तव
में उठ ही
नहीं सकती यदि
ऐसा कोई
व्यक्ति न हो
जो कि उसे
पूरा कर सकता
हो।
यही
है गहन
समस्वरता, ऋतम्भरा।
यही है छिपी
हुई समस्वरता।
असल में तो —यदि
तुम मुझे इसे कहने
दो, क्योंकि
यह बेतुका
मालूम पड़ेगा —यदि
कोई बुद्ध—पुरुष
मौजूद न हो, जो कि
तुम्हारी
अभीप्सा। को परिपूरित
कर सकता हो तो
वह आकांक्षा,
अभीप्सा
पहुंच ही नहीं
सकती है तुम
तक। क्योंकि
संपूर्ण ब्रह्मांड
एक है एक
हिस्से में
आकांक्षा
जगती है, तो
कहीं दूसरे
हिस्से में
परिपूर्ति
प्रतीक्षा कर
रही होती है।
वे साथ—साथ
उदित होती हैं।
साथ—साथ होता
है शिष्य और
गुरु का विकास,
लेकिन ऐसा
बहुत ज्यादा
हो जाएगा
तुम्हारे लिए।
जब
मैं खोज रहा
था अपनी
संबोधि को, तो
तुम खोज रहे
थे तुम्हारे
शिष्यत्व को।
संपूर्ण
द्वारा अपनी
परिपूर्ति के
लिए साथ —साथ
स्थिति का
निर्माण किए
बिना कुछ नहीं
घट सकता। हर
चीज जुड़ी है।
वह इतने गहरे
रूप से जुड़ी
हुई होती है
कि व्यक्ति
निश्चित हो
सकता है, कोई
जरूरत नहीं है
फिक्र लेने की।
यदि तुम्हारी
अंतर्अभीप्सा
सचमुच ही जाग
चुकी है तो
तुम्हें गुरु
को खोजने जाने
की भी जरूरत नहीं,
गुरु को आना
ही होगा तुम
तक। या तो
शिष्य जाता है
या गुरु आता
है।
मोहम्मद
ने कहां है, 'यदि
पहाड़ नहीं आ
सकता है
मोहम्मद तक, तो मोहम्मद
को जाना होगा
पहाड़ तक।' पर
मिलन होना ही
है, यह
नियत है।
कुरान
में ऐसा कहां
है कि एक फकीर
को,
संन्यासी
को, उस
व्यक्ति को
जिसने तज दिया
संसार, उसे
नहीं जाना
चाहिए राजाओं
के, सत्ताशालियो
के, धनपतियों
के महलों में।
लेकिन ऐसा हुआ
कि महान
सूफियों में
से एक
जलालुद्दीन
रूमी आया करता
था सम्राट के
महल में। संशय
उठ खड़ा हुआ।
लोग इकट्ठे
हुए और वे
कहने लगे, 'यह
तो ठीक नहीं, और तुम एक
बुद्ध—पुरुष
हो। क्यों तुम
जाते हो सम्राट
के महल में, और जब कि
कुरान में
लिखा है —कि
तुम्हें नहीं
जाना चाहिए।’
और मुसलमान
तो बिलकुल आसक्त
होते हैं
कुरान पर।
किसी पुस्तक
द्वारा इतने
आविष्ट हुए
तुम कोई दूसरे
लोग नहीं ढूंढ
सकते।’ ऐसा
लिखा है कुरान
में कि यह गलत
है। तुम
मुसलमान नहीं?
क्या उत्तर
दोगे तुम? कौन—सा
उत्तर है
तुम्हारे पास?
कुरान में कहां
है कि जिस
आदमी ने
दुनिया को छोड़
दिया हो उसे उन
लोगों के यहां
नहीं जाना
चाहिए जो कि
धनवान होते
हैं और सत्ताशाली
होते हैं। यदि
वे लोग चाहते
हैं, तो
उन्हें आना
चाहिए।’
जलालुद्दीन
हंस दिया और
वह बोला, 'यदि
तुम समझ सको
तो यह है मेरा
उत्तर: चाहे
मैं महल में जाऊं
या राजा के
पास, या कि
राजा आए मेरे
पास, जो
कुछ भी घटे, सदा राजा ही
आता है मेरे
पास। चाहे मैं
चला भी जाता
हूं महल में, तो भी वह
राजा ही है जो
कि आता है
मेरे पास। यह
है मेरा उत्तर।
यदि तुम समझ
सकते हो, तो
समझ लो।
अन्यथा, भूल
जाओ इसके बारे
में। मैं यहां
कुरान का
अनुसरण करने के
लिए नहीं हूं, लेकिन मैं
कहता हूं
तुमसे कि जो
कुछ भी हो वस्तुस्थिति,
चाहे रूमी
जाता हो हल तक
या राजा आता
हो रूमी तक, सदा राजा ही
आता है रूमी
के पास, क्योंकि
वह प्यासा
होता है, और
मैं हूं वह
पानी जो कि
बुझा सकता है
उसकी प्यास।’
और फिर बोला,
'कई बार ऐसा
होता है कि
रोगी इतना
बीमार होता है
कि डाक्टर को
जाना पड़ता है।
और निस्संदेह
राजा बहुत—बहुत
बीमार होते हैं
करीब—करीब
अपनी
मृत्युशय्या
पर ही पड़े
होते हैं।’
यदि
तुम नहीं आ
सकते, तो मैं
आऊंगा
तुम्हारे पास,
लेकिन ऐसा
होगा ही। इससे
बचा नहीं जा
सकता।
क्योंकि हम
दोनों विकसित
होते रहे हैं
साथ—साथ, एक
सूक्ष्म छिपी
हुई समस्वरता
में। जब ऐसा
घटता है कि एक
शिष्य और गुरु
का मिलन होता
है, और वे
अनुभव करते
हैं समस्वरता
को, तो वह
क्षण संपूर्ण
अस्तित्व के
सबसे अधिक संगीतमय
क्षणों में से
एक होता है।
तब उनके हृदय
एक ही लय में
धड़कते हैं, तब उनकी
चेतना एक ही
लय में
प्रवाहित
होती है; तब
वे एक दूसरे
का हिस्सा हो
जाते हैं एक
दूसरे के अंश
हो जाते हैं।
जब
तक कि ऐसा घट न
जाए,
मत ठहरना।
भूल जाना मेरे
बारे में। इसे
एक स्वप्न की
भांति समझ
लेना। जितनी
जल्दी से
जल्दी हो सके
भाग निकलना
मुझसे दूर। और
मैं हर ढंग से
तुम्हारी मदद
करूंगा भाग निकलने
में, क्योंकि
तब मैं
तुम्हारे लिए
नहीं। कोई और
कहीं
प्रतीक्षा कर
रहा है
तुम्हारी। और
उन्हें चले
जाना चाहिए
उसी के पास, या वह आ
जाएगा
तुम्हारे पास।
एक प्राचीन
मिस्री
परंपरा कहती
है: जब शिष्य
तैयार होता है
तब गुरु के
दर्शन होते
हैं।
महान
सूफी संतो में
से एक, झुनून, कहां करते
थे, जब
मैंने पाया
परम सत्य को, तब मैंने कहां
परमात्मा से,
'मैं खोज
रहा था
तुम्हें इतनी
देर से, इतनी
देर से, अनंतकाल
से!' परमात्मा
ने जवाब दिया 'इससे पहले
कि तुमने
तुम्हारी खोज
आरंभ की तुम पा
ही चुके थे
मुझे, क्योंकि
जब तक तुमने
पाया नहीं
होता तुम खोज
आरंभ कर ही
नहीं सकते।’
ये
बातें विरोधाभासी
मालूम पड़ती
हैं,
लेकिन यदि
तुम ज्यादा
गहरे में जाते
हो तो तुम एक
बहुत गहन छिपा
हुआ सत्य
पाओगे उनमें।
ठीक है यह
इससे पहले कि
तुमने मेरे
बारे में सुना
भी हो, मैं
पहुंच चुका था
तुम तक। ऐसा
नहीं है कि
मैं कोशिश कर
रहा हूं
पहुंचने की, इसी तरह ही
घटता है यह।
तुम यहां हो
केवल
तुम्हारे
कारण ही नहीं,
मैं यहां
हूं केवल मेरे
कारण ही नहीं।
एक सुनिश्चित
अंतर्संबंध
घटता है। एक
सुनिश्चित
अंतर्संबंध
होता है। और
एक बार जब तुम
समझ लेते हो
अंतर्संबंध
को, तभी एक
वही गुरु ही
श्रेष्ठ गुरु
होता है। इस
कारण बहुत
कट्टरपन
निर्मित हो
जाता है
अनावश्यक रूप
से।
ईसाई
कहते हैं, 'जीसस
एक मात्र बेटे
उत्पन्न हुए
हैं ईश्वर के।’
यह बात
बिलकुल ठीक
होती है, यदि
तालमेल बैठ
जाता है तो
जीसस ही
एकमात्र बेटे
उत्पन्न हुए
हैं ईश्वर के —तुम्हारे
लिए, हर एक
के लिए नहीं।
आनंद
फिर—फिर कहते
हैं बुद्ध के
बारे में कि
कोई कभी ऐसी
सर्वोच्च
संबोधि को उपलब्ध
नहीं हुआ जैसे
कि बुद्ध— 'अनुत्तर
सम्यक संबोधि'
—कभी इससे
पहले किसी के
द्वारा
उपलब्ध नहीं
हुई। नितांत
सत्य है यह
बात। ऐसा नहीं
है कि पहले वह
किसी और के
द्वारा उपलब्ध
नहीं की गयी
है। इसके पहले
लाखों उपलब्ध
हो गए, किंतु
आनंद के लिए
वही बात
संपूर्णतया
सत्य है; आनंद
के लिए कोई
अन्य गुरु
अस्तित्व ही
नहीं रखता, केवल यह
बुद्ध ही हैं
उसके लिए।
'प्रेम
में, एक
स्त्री
संपूर्ण
स्त्रीत्व बन
जाती है, एक
पुरुष
संपूर्ण
पुरुषत्व बन
जाता। और
समर्पण में जो
कि प्रेम का
उच्चतम रूप है,
एक गुरु हो
जाता है
एकमात्र
ईश्वर।
इसीलिए
शिष्यों को वे
नहीं समझ सकते
जो कि बाहरी
व्यक्ति होते
हैं। वे अलग
भाषा में बात
करते हैं।
उनके पास अलग
भाषा होती है।
यदि तुम मुझे 'भगवान' कहते
हो, तो यह
बात उनकी समझ
में नहीं आ
सकती जो कि
बाहरी
व्यक्ति हैं।
वे तो हंस ही
पड़ेंगे, उनके
लिए मैं भगवान
नहीं हूं और
बिलकुल सही हैं
वे; और तुम
भी बिलकुल सही
हो। यदि तुमने
मेरे साथ किसी
तालमेल की
अनुभूति पायी
है, तो उस
तालमेल में
भगवान हो जाता
हूं मैं तुम्हारे
लिए। यह एक
प्रेम का
संबंध होता है
और तालमेल में
गहनतम होता है।
दूसरा
प्रश्न:
कुछ
भक्ति
संप्रदाय
प्रेम की
उच्चतर
अवस्थाओं का
ध्यान करना
सिखाते है—
पहले प्रेम
करो एक साधारण
व्यक्ति से
फिर गुरु से
फिर परमात्मा
से वगैरह—
वगैरह। क्या
आप इस विधि के
विषय में हमें
कुछ बताएंगे।
प्रेम
कोई विधि नहीं।
यही है दूसरी
सारी विधियों
और
भक्तिमार्ग
के बीच का
अंतर। भक्ति
के मार्ग में
कोई विधि नहीं
होती। योग के
पास विधियां
हैं,
भक्ति के
पास एक भी
नहीं। प्रेम
कोई विधि नहीं
है। इसे विधि
कहना इसे गलत
नाम देना है।
प्रेम
सहज —स्वाभाविक
होता है। वह
पहले से ही
वहा होता है
तुम्हारे
हृदय में फूट
पड़ने को तैयार।
एक ही चीज
करनी होती है; वह
यह कि उसे
होने देना
होता है, उगने
देना होता है।
तुम खड़ी कर
रहे होते हो
सब प्रकार की
रुकावटें और
बाधाएं। तुम
उसे आने नहीं
दे रहे होते।
वह मौजूद ही
है वहां, तुम
जरा थोड़ा शांत
होओ और वह आ
पहुंचेगा, वह
फूट पड़ेगा, वह खिल
जाएगा। और जब
वह खिलता है
एक साधारण
मनुष्य के लिए,
तो तुरंत वह
साधारण
मनुष्य
असाधारण हो
जाता है।
प्रेम
हर किसी को
असाधारण बना
देता है। वह
ऐसी कीमिया है।
एक साधारण
स्त्री अचानक
रूपांतरित हो
जाती है जब
तुम उसे प्रेम
करते हो। वह
फिर साधारण न
रही;
वह हो जाती
है ऐसी सबसे
अधिक असाधारण
स्त्री जैसी
कि कभी हुई न
होगी। ऐसा
नहीं है कि
तुम अंधे होते
हो, जैसा
कि दूसरे कहते
होंगे।
वस्तुत: तुमने
देख लिया होता
है उस
असाधारणता को
जो कि छिपी
रहती है
प्रत्येक
साधारणता में।
प्रेम
ही है एकमात्र
आंख,
एकमात्र
दृष्टि, एकमात्र
स्पष्टता।
तुम उस साधारण
स्त्री में
देख लेते हो
संपूर्ण
स्त्रीत्व को —अतीत,
वर्तमान, भविष्य की
सारी
स्त्रियां एक
साथ मिल जाती
हैं। जब तुम
प्रेम करते हो
किसी स्त्री
को, तब
तुमने जान
लिया होता है
उसकी असली
स्त्रीत्वमयी
आत्मा को ही।
अकस्मात वह हो
जाती है
असाधारण।
प्रेम हर एक
को असाधारण
बना देता है।
प्रेम
में ज्यादा
गहरे उतरने
में
कठिनाइयां हैं, क्योंकि
जितना ज्यादा
गहरे तुम जाते
हो, उतना
ही तुम खोते
हो स्वयं को।
यदि तुम
ज्यादा गहरे
उतरते हो
तुम्हारे
प्रेम में, तो भय उठ खड़ा
होता है, एक
कंपन जकड़ लेती
है: तुम्हें।
तुम प्रेम की
गहराई से बचना
शुरू कर देते
हो, क्योंकि
प्रेम की
गहराई मृत्यु
की भांति ही है।
तुम
अवरोध बना
लेते हो
तुम्हारे और
तुम्हारे प्रिय
के बीच, क्योंकि
स्त्री जान
पड़ती है अतल
शून्य की भांति,
तुम
समाविष्ट किए
जा सकते हो
उसमें। और वह
होती है अतल
शून्य। तुम
जन्म पाते हो
स्त्री के
भीतर से, इसलिए
वह आत्मसात कर
सकती है
तुम्हें। यही
होता है भय।
वह है गर्भाशय,
अगाध शून्य।
जब वह जन्म दे
सकती है तुमको,
तो मृत्यु
क्यों नहीं? वास्तव में,
जो तुम्हें
जन्म दे सकता
है केवल वही
दे सकता तुम्हें
मृत्यु। तो भय
होता है।
स्त्री
खतरनाक है, बहुत
रहस्यपूर्ण
है। तुम नहीं
रह सकते उसके
बिना और तुम
नहीं रह सकते
उसके साथ। तुम
उससे बहुत दूर
नहीं जा सकते
क्योंकि अधिक
दूर तुम जाते
हो, तो
अचानक उतने
ज्यादा
साधारण हो
जाते हो तुम।
और तुम बहुत
निकट नहीं आ
सकते क्योंकि
जितने ज्यादा
तुम निकट आते
हो, उतने
ज्यादा तुम
मिटते हो।
यही
संघर्ष है
प्रत्येक
प्रेम का। तो
करना पड़ता है
समझौता—तुम
बहुत दूर नहीं
जीते, तुम
बहुत निकट
नहीं जाते।
तुम कहीं ठीक
बीच में खड़े
रहते हो, स्वयं
को संतुलित
करते हुए।
लेकिन तब
प्रेम गहरे
नहीं उतर सकता।
गहराई उपलब्ध
होती है केवल
तब जब तुम
सारे भय गिरा
देते हो और
तुम ज्यादा
सोचे —समझे
बिना, बड़ी
तेजी से कूद
पड़ते हो।
खतरा होता है,
और खतरा
सच्चा होता है;
प्रेम मार
देगा
तुम्हारे
अहंकार को।
अहंकार के लिए
प्रेम विष है।
तुम्हारे लिए
वह जीवन है, किंतु
अहंकार के लिए
मृत्यु है।
लगानी ही पड़ती
है छलांग। यदि
तुम आत्मीयता
को विकसित
होने देते हो,
यदि —तुम
ज्यादा और
ज्यादा और
ज्यादा निकट
होते जाते हो
और विलीन होते
जाते हो
स्त्री के
स्त्रीत्व
में, तब वह
केवल असाधारण
ही न रहेगी, वह हो जाएगी
दिव्य, क्योंकि
वह शाश्वतता
का द्वार बन
जाएगी। जितना
ज्यादा तुम
स्त्री के
निकट आते हो, उतना ज्यादा
तुम अनुभव
करते हो कि वह
पार की किसी
चीज का द्वार
है।
ऐसा
ही घटता है
स्त्री को
पुरुष के साथ।
उसकी अपनी
समस्याएं हैं।
समस्या यह
होती है कि जितना
ज्यादा निकट
वह आती है
पुरुष के, उतना
ज्यादा उससे
भागना शुरू कर
देता है पुरुष।
ज्यादा निकट
आती है स्त्री
तो पुरुष होता
जाता है
अधिकाधिक
भयभीत।
स्त्री जितना
और निकट आती
है, उतना
ज्यादा भागने
लगता है पुरुष
उससे। दूर
जाने के
हजारों बहाने
खोज लेता है।
इसलिए
स्त्री को
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
और यदि वह
प्रतीक्षा
करती है, तो
फिर एक समस्या
आ बनती है।
यदि वह कोई
उतावलापन
नहीं दिखाती
तो यह बात उदासीनता
जैसी जान पड़ती
है, और
उदासीनता मार
सकती है प्रेम
को।
प्रेम
के लिए
उदासीनता से
ज्यादा
खतरनाक कोई दूसरी
चीज नहीं।
घृणा भी ठीक
है,
क्योंकि कम
से कम जिस
आदमी से तुम
घृणा करते हो
उसके लिए एक
निश्चित
प्रकार का
संबंध तो होता
है तुम्हारे
पास। प्रेम
बना रह सकता
है घृणा होने
पर, लेकिन
प्रेम नहीं
बना रह सकता
है उदासीनता
के होने से।
और स्त्री सदा
कठिनाई में
रहती है, यदि
वह पहल करती
है तो पुरुष
भाग ही निकलता
है। कोई पुरुष
उस स्त्री को
बरदाश्त नहीं
कर सकता जो
पहल करती हो।
इसका अर्थ
होता है कि वह
अतल शून्यता
अपने से तुम्हारे
पास आ रही है।
इससे पहले कि
बहुत देर हो
जाए, तुम
भाग निकलते हो।
इसी
भांति
निर्मित होते
हैं डॉन जुआन।
तब वे चलते
चले जाते हैं
एक स्त्री से
दूसरी स्त्री
तक। वे जीते
हैं पाने और
फिर भाग खड़े
होने के प्रेम
—संबंध में, क्योंकि
यदि वे ज्यादा
वहां रहते हैं,
तो वह अगाध
शून्य अपने
में विलीन कर
लेगा उन्हें।
डॉन जुआन
प्रेमी नहीं
होते, बिलकुल
नहीं। वे लगते
हैं
प्रेमियों की
भाति क्योंकि
वे लगातार
क्रियाशील
रहते हैं। रोज
एक नयी
स्त्री! लेकिन
वे गहरे भय में
जीने वाले लोग
हैं। क्योंकि
यदि वे बहुत
समय तक एक ही
स्त्री के साथ
रहते हैं, तो
गहन आत्मीयता विकसित
होगी। वे
ज्यादा निकट :आ
जायेंगे, और
कौन जाने क्या
घट जाए? इसलिए
वे ठहरते हैं
केवल कुछ समय
के लिए ही और
इससे पहले कि
बहुत देर हो
जाए, वे
भाग निकलते
हैं।
अपने
जीवन की छोटी—सी
अवधि में
बायरन ने कई
सौ स्त्रियों
से प्रेम किया
था। वह इसका
आदर्श नमूना
है —डॉन जुआन
का। उसने कभी
नहीं जाना
प्रेम को।
कैसे तुम जान
सकते हो प्रेम
को जब कि तुम
सरकते रहते हो
एक से दूसरे
तक,
और दूसरे तक
और दूसरे तक? प्रेम को
आवश्यकता
रहती है पकने
की। उसे थिर
होने के लिए
जरूरत होती है
समय की, उसे
जरूरत होती है
भरोसे की। तो
स्त्री को सदा
मुश्किल रहती
है कि 'क्या
करे?' यदि
वह अपनी ओर से
पहल करती है
तो पुरुष भाग
जाता है। यदि
वह ऐसी बनी
रहती है जैसे
उसे रस ही
नहीं, तब
भी पुरुष भाग
निकलता है, क्योंकि
उसकी दिलचस्पी
नहीं।
उसे
चुननी पड़ती है
बीच की चीज:
थोड़ी—सी
उत्सुकता और
थोड़ी
उदासीनता, साथ
—साथ, एक मिश्रण।
और दोनों ही
बुरे रूप होते
हैं, क्योंकि
ये समझौते
तुम्हें
विकसित न होने
देंगे।
समझौता
कभी किसी को
विकसित नहीं
होने देता है।
समझौता एक गुणनात्मक, चालाक
चीज है। वह
व्यापार की
भांति है, प्रेम
की भांति नहीं।
जब प्रेमी
वास्तव में ही
एक—दूसरे से
भयभीत नहीं
होते और
अहंकार के
बाहर आ चुके
होते हैं, तो
वे बड़ी
तीव्रता से
छलांग लगा
देते हैं एक दूसरे
में। वे इतनी गहराई
से छलांग
लगाते हैं कि
वे परस्पर एक
हो जाते हैं।
वास्तव में वे
एक हो जाते
हैं। और जब यह एकमयता
घटती है तब
प्रेम
रूपांतरित हो
जाता है प्रार्थना
में। जब यह
एकमयता घटती
है, तब
अकस्मात ही एक
धार्मिक
गुणवत्ता चली
आती है प्रेम
में।
पहले
प्रेम में
गुणवत्ता
होती है
कामवासना की।
यदि वह
संकीर्ण है, तो
वह मात्र
कामवासना
होगी, वह
प्रेम न होगा।
यदि प्रेम और
ज्यादा गहरा
जाता है, तो
उसमें
गुणवत्ता आ
जाएगी
आध्यात्मिकता
की, दिव्यता
की गुणवत्ता।
तो प्रेम एक
सेतु होता है
इस संसार और
उस संसार के
बीच, सेक्स
और समाधि के
बीच। इसीलिए
मैं कहता चला
जाता हूं कि
यात्रा सेक्स
से लेकर समाधि
तक की है।
प्रेम तो एक
सेतु है। यदि
तुम सेतु की
ओर नहीं बढ़ते,
तो
कामवासना ही
बन जाएगा
तुम्हारा
जीवन, तुम्हारा
संपूर्ण जीवन;
बहुत
मामूली, बहुत
असुंदर।
सेक्स सुंदर
हो सकता है, किंतु केवल
प्रेम सहित, प्रेम के
अंश के रूप
में। अकेले
अपने में वह
असुंदर होता
है। यह बात
बिलकुल ऐसी
होती है :
तुम्हारी आंखें
सुंदर होती है,
लेकिन यदि आंखें
'उनकी
सॉकेट से
निकाल ली जाती
हैं तो असुंदर
बन जाएंगी।
सुंदरतम आंखें
असुंदर बन
जाएंगी यदि
उन्हें देह से
काट दिया तो।
ऐसा
हुआ वानगॉग के
साथ। कोई नहीं
प्रेम करता था
उसे,
क्योंकि
उसका शरीर
असुंदर और
नाटा था। फिर
एक वेश्या ने,
उसे खुश कर
देने को —प्रशंसा
करने लायक और
कोई चीज उसके
शरीर में न पाकर,
उसके कान की
प्रशंसा कर दी,
यह कहते हुए
कि उसके पास
सुंदरतम कान
हैं। प्रेमी
कानों की बात
कभी नहीं कहते
क्योंकि कई और
चीजें होती
हैं प्रशंसा
करने के लिए, लेकिन उसमें
कुछ था ही नहीं।
शरीर बहुत—बहुत
असुंदर था, और इसीलिए
उस वेश्या ने
कह दिया था, 'तुम्हारे
कान बड़े सुंदर
है।’ वह घर
गया। किसी ने
भी कभी उसके
शरीर की किसी
चीज को गुणवान
नहीं माना था।
किसी ने कभी
उसके शरीर को
स्वीकार न
किया था। ऐसा पहली
बार हुआ था, और वह इतना
रोमांचित हो
गया कि उसने
अपना ही कान
काट दिया, वापस
आया उस वेश्या
के पास और कान
पेश कर दिया।
अब तो वह कान
बिलकुल ही
असुंदर था।
कामवासना
अंश है प्रेम
का,
अधिक बड़ी
संपूर्णता का।
प्रेम उसे
सौंदर्य देता
है, अन्यथा
तो यह सबसे
अधिक असुंदर
क्रियाओं में
से एक है।
इसीलिए लोग
अंधकार में
कामवासना की
ओर बढ़ते हैं।
वे स्वयं भी
इस क्रिया का
प्रकाश में
संपन्न किया
जाना पसंद
नहीं करते हैं।
तुम देखते हो
कि मनुष्य के
अतिरिक्त सभी
पशु संभोग
करते हैं दिन
में ही। कोई
पशु रात में
कष्ट नहीं
उठाता; रात
विश्राम के
लिए होती है।
सभी पशु दिन
में संभोग
करते हैं, केवल
आदमी संभोग
करता है
रात्रि में।
एक तरह का भय
होता है कि
संभोग की
क्रिया थोड़ी असुंदर
है। और कोई
स्त्री अपनी
खुली आंखों
सहित कभी
संभोग नहीं
करती है, क्योंकि
उनमें पुरुष
की अपेक्षा
ज्यादा सुरुचि—संवेदना
होती है। वे
हमेशा मुंदी आंखों
सहित संभोग
करती हैं, जिससे
कि कोई चीज
दिखाई नहीं
देती।
स्त्रियां
अश्लील नहीं
होती हैं, केवल
पुरुष होते
हैं ऐसे।
इसीलिए
स्त्रियों के
इतने ज्यादा
नग्न चित्र
विद्यमान
रहते हैं।
केवल पुरुषों
का रस है देह
देखने में
स्त्रियों की
रुचि नहीं
होती इसमें।
उनके पास
ज्यादा
सुरुचि—संवेदना
होती है, क्योंकि
देह पशु की है।
जब तक कि वह
दिव्य नहीं
होती, उसमें
देखने को कुछ
है नहीं।
प्रेम सेक्स
को एक नयी
आत्मा दे सकता
है। तब सेक्स
रूपांतरित हो
जाता है—वह
सुंदर बन जाता
है। वह अब
कामवासना का
भाव न रहा, उसमें
कहीं पार का
कुछ होता है।
वह सेतु बन
जाता है।
तुम
किसी व्यक्ति
को प्रेम कर
सकते हो।
इसलिए
क्योंकि वह
तुम्हारी
कामवासना की
तृप्ति करता
है। यह प्रेम
नहीं, मात्र
एक सौदा है।
तुम किसी
व्यक्ति के:
साथ कामवासना
की पूर्ति कर
सकते हो इसलिए
क्योंकि तुम
प्रेम करते हो।
तब कामभाव
अनुसरण करता
है छाया की
भांति, प्रेम
के अंश की
भांति। तब वह
सुंदर होता है,
तब वह पशु—संसार
का नहीं रहता।
तब पार की कोई
चीज पहले से
ही प्रविष्ट
हो चुकी होती
है। और यदि
तुम किसी
व्यक्ति से
बहुत गहराई से
प्रेम किए चले
जाते हो, तो
धीरे— धीरे
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है।
आत्मीयता
इतनी संपूर्ण
हो जाती है कि
कामवासना की
कोई आवश्यकता
नहीं रहती।
प्रेम स्वयं
में पर्याप्त
होता है। जब
वह घड़ी आती है
तब प्रार्थना
की संभावना तुम
पर उतरती है।
ऐसा
नहीं कि उसे
गिरा दिया गया
होता है, ऐसा
नहीं है कि
उसका दमन किया
गया, नहीं।
वह तो बस
तिरोहित हो
जाती है। जब
दो प्रेमी
इतने गहन
प्रेम में
होते हैं कि प्रेम
पर्याप्त
होता है और
कामवासना
बिलकुल गिर
जाती है, तब
दो प्रेमी
समग्र एकत्व
में होते हैं,
क्योंकि
कामवासना
विभक्त करती
है। अंग्रेजी
का शब्द 'सेक्स'
तो आता ही उस
मूल से है
जिसका अर्थ
होता है विभेद।
प्रेम जोड़ता
है; कामवासना
भेद बनाती है।
कामवासना
विभेद का मूल
कारण है।
जब
तुम किसी
व्यक्ति के
साथ कामवासना
की पूर्ति
करते हो, स्त्री
या पुरुष के
साथ, तो
तुम सोचते हो
कि सेक्स
तुम्हें
जोड़ता है।
क्षण भर को
तुम्हें भ्रम
होता है एकत्व
का, और फिर
एक विशाल
विभेद अचानक
बन आता है।
इसीलिए
प्रत्येक काम—क्रिया
के पश्चात एक
हताशा, एक
निराशा आ
घेरती है।
व्यक्ति
अनुभव करता है
कि वह प्रिय
से बहुत दूर
है। कामवासना
भेद बना देती
है, और जब
प्रेम ज्यादा
और ज्यादा
गहरे में
उतरता है और
ज्यादा और
ज्यादा जोड़
देता है तो
कामवासना की
आवश्यकता
नहीं रहती।
तुम इतने
एकत्व में
रहते हो कि
तुम्हारी आंतरिक
ऊर्जाएं बिना
कामवासना के
मिल सकती हैं।
जब
दो प्रेमियों
की कामवासना
तिरोहित हो
जाती है तो जो
आभा उतरती है
तुम देख सकते
हो उसे। वे दो
शरीरों की
भांति एक आत्मा
में रहते हैं।
आत्मा उन्हें
घेरे रहती है।
वह उनके शरीर
के चारों ओर एक
प्रदीप्ति बन
जाती है।
लेकिन ऐसा
बहुत कम घटता
है।
लोग
कामवासना पर
समाप्त हो
जाते हैं।
ज्यादा से
ज्यादा जब
इकट्ठे रहते
हैं;
तो वे एक—दूसरे
के प्रति
स्नेहपूर्ण
होने लगते हैं—ज्यादा
से ज्यादा यही
होता है।
लेकिन प्रेम
कोई स्नेह का
भाव नही है, वह आत्माओं
की एकमयता है—दो
ऊर्जाएं
मिलती हैं और
संपूर्ण इकाई
हो जाती हैं।
जब ऐसा घटता
है, केवल
तभी
प्रार्थना
संभव होती है।
तब दोनों
प्रेमी अपनी
एकमयता में
बहुत परितृप्त
अनुभव करते
हैं, बहुत संपूर्ण,
कि एक
अनुग्रह का
भाव उदित होता
है। वे
गुनगुनाना
शुरू कर देते
हैं
प्रार्थना को।
प्रेम
इस संपूर्ण
अस्तित्व की
सबसे बड़ी चीज
है। वास्तव
में,
हर चीज हर
दूसरी चीज के
प्रेम में होती
है। जब तुम
पहुंचते हो
शिखर पर, तुम
देख पाओगे कि
हर चीज, हर
दूसरी चीज को
प्रेम करती है।
जब कि तुम
प्रेम की तरह
की भी कोई चीज
नहीं देख पाते,
जब तुम घृणा
अनुभव करते हो
—घृणा का अर्थ
ही इतना होता
है कि प्रेम
गलत पड़ गया है।
और कुछ नहीं।
जब तुम
उदासीनता
अनुभव करते हो, इसका केवल
यही अर्थ होता
है कि प्रेम
प्रस्फुटित
होने के लिए
पर्याप्त रूप
से साहसी नहीं
रहा है। जब तुम्हें
किसी बंद
व्यक्ति का
अनुभव होता है,
उसका केवल
इतना ही अर्थ
होता है कि वह
बहुत ज्यादा भय
अनुभव करता है,
बहुत
ज्यादा
असुरक्षा—वह
पहला कदम नहीं
उठा पाया।
लेकिन
प्रत्येक चीज
ओम है।
हालांकि
जब एक जानवर
दूसरे जानवर
पर जा कूदता
है और उसे खा
जाता है, जब एक
शेर एक हिरण
के ऊपर छलांग
लगा देता है
और उसे खा
जाता है, तो
वह प्रेम ही
होता है। यह
लगता है हिंसा
की भांति
क्योंकि
तुम्हें पता
नहीं होता, वह प्रेम
होता है। वह
जानवर, वह
शेर समाविष्ट
कर रहा होता
है हिरण को
अपने में।
निस्संदेह यह
बात बहुत
अपरिष्कृत
होती है, बहुत
बहुत अनगढ़ और
जंगली, यह
होती है पशु—सदृश
लेकिन तो भी
यह है प्रेम
ही। प्रेमी एक
—दूसरे को
भोजन जानते
हैं, वे
अपने में
समाते है, एक—दूसरे
को। पशु बहुत
जंगली ढंग से
ऐसा कर रहा
होता है, बस
यही होती है
बात।
सारा
अस्तित्व
प्रेममय है।
वृक्ष प्रेम
करते हैं
पृथ्वी को।
वरना कैसे वे
साथ —साथ
अस्तित्व रख
सकते थे? कौन—सी
चीज उन्हें
साथ—साथ पकड़े
हुए होगी? कोई
तो एक जुड़ाव
होना चाहिए।
केवल जड़ों की
ही बात नहीं
है, क्योंकि
यदि पृथ्वी
वृक्ष के साथ
गहरे प्रेम में
न पड़ी हो तो
जड़ें भी मदद न
देंगी। एक गहन
अदृश्य प्रेम
अस्तित्व
रखता है। संत
अस्तित्व, संपूर्ण
ब्रह्माड घूइrमता है
प्रेम के
चारों ओर।
प्रेम
ऋतम्भरा है।
इसलिए कल कहां
था मैंने सत्य
और प्रेम का
जोड़ है
ऋतम्भरा।
अकेला सत्य
बहुत रूखा —सूखा
होता है।
यदि
तुम समझ सको—बिलकुल
अभी तो यह
केवल एक
बौद्धिक समझ हो
सकती है, लेकिन
तुम्हारी
स्मृति में रख
लेना इसे।
किसी दिन यह
बात बन सकती
है एक
अस्तित्वगत
अनुभव। ऐसा ही
अनुभव करता
हूं मैं।
शत्रु
एक—दूसरे से
प्रेम करते
हैं,
वरना क्यों
करेंगे वे एक —दूसरे
की चिंता? वह
व्यक्ति भी जो
कि कहता है कि
ईश्वर नहीं है,
प्रेम करता
है ईश्वर से, क्योंकि वह
निरंतर कहता
जाता है कि
ईश्वर नहीं है।
वह
वशीभूत है, मुग्ध
है, वरना
क्यों करेगा
वह परवाह? एक
नास्तिक जीवन
भर यही
प्रमाणित
करने की कोशिश
करता है कि
ईश्वर नहीं है।
वह इतने प्रेम
में होता है, और इतना
भयभीत होता है
ईश्वर से कि
यदि 'उसका'
अस्तित्व
होता है, तो
फिर उसके अपने
अस्तित्व में
बड़ा जबर्दस्त रूपांतरण
घटेगा। तो, भयभीत होकर
वह यह
प्रमाणित
करने का
प्रयत्न किए
चला जाता है
कि कहीं कोई
ईश्वर नहीं है।
ईश्वर नहीं है,
यह बात
प्रमाणित
करने के
प्रयास में, वह बड़ा गहरा
भय ही दिखला
रहा होता है कि
ईश्वर पुकार
रहा है। और
यदि ईश्वर है
तो फिर वह वही
नहीं बना रह
सकता है।
यह
बात उस साधु
की भांति ही
है जो शहर की
सड़क पर आंखें
मूंद कर या आंखें
आधी मूंद कर
चल रहा होता
है ताकि वह
किसी स्त्री
को न देख सके।
वह कहता जाता
है स्वयं से 'कहीं
कोई स्त्री
नहीं। यह सब
कुछ माया है, भ्रम है। यह
स्वप्न की
भांति है।’ लेकिन वह
क्यों यह
प्रमाणित
करने की कोशिश
करता है कि
कहीं कोई
प्रेम की बात
अस्तित्व
नहीं रखती? —क्योंकि
वरना तो मसजिद—मंदिर
मिट जाएंगे, साधु समाप्त
हो जाएगा, और
जीवन का उसका
सारा ढांचा
बिखर—बिखर
जाएगा।
सब
कुछ प्रेम है, और
प्रेम सब कुछ
है।
सर्वाधिंक
अनगढ़ से लेकर
परम उच्चता तक,
चट्टान से
लेकर परमात्मा
तक, प्रेम
है। बहुत सारी
परतें होती
हैं, बहुत
सारे सोपान
होते हैं, बहुत
सारी
मात्राएं
होती हैं, तो
भी होता है
प्रेम ही। यदि
तुम स्त्री से
प्रेम करते हो
तो तुम गुरु
से प्रेम कर
पाओगे। यदि
तुम गुरु से
प्रेम कर सकते
हो, तो तुम
परमात्मा से
प्रेम कर
पाओगे।
स्त्री से
प्रेम करना
देह से प्रेम
करना 'है।
देह सुंदर है,
गलत नहीं है
कुछ उसमें।
सचमुच वह
चमत्कार है।
लेकिन यदि तुम
प्रेम कर सको,
तो प्रेम
विकसित हो
सकता है।
ऐसा
हुआ कि भारत
के बड़े भक्तों
में से एक, रामानुज
एक शहर से
गुजरते थे। एक
आदमी आया, और
आदमी उस तरह
का रहा होगा
जो कि
साधारणतया धर्म
की ओर आकर्षित
होता है: योगी,
तपस्वी
प्रकार का
आदमी जो बिना
प्रेम के जीने
की कोशिश करता
है। कोई सफल
नहीं हुआ है
अब तक। कोई
कभी होगा नहीं
सफल, क्योंकि
प्रेम ही
आधारभूत
ऊर्जा है जीवन
की और
अस्तित्व की,
कोई इसके
विरुद्ध होकर
सफल नहीं हो
सकता है।
उस
आदमी ने पूछा
रामानुज से, 'मैं
दीक्षित होना
चाहता हूं
आपसे। कैसे
मैं पा सकता
हूं परमात्मा
को? मैं
शिष्य के रूप
में स्वीकृत
होना चाहता
हूं।’ रामानुज
ने देखा उस
आदमी की तरफ, और वह देख
सकते थे कि
आदमी प्रेम के
विरुद्ध है।
वह मृत चट्टान
की भांति था, संपूर्णतया
सूखा हुआ, हृदय
विहीन।
रामानुज बोले,
'पहले मुझे
कुछ बातें
बताओ। क्या
तुमने कभी
किसी आदमी से
प्रेम किया है?'
वह आदमी तो
घबड़ा गया
क्योंकि
रामानुज जैसा
आदमी प्रेम की
बातें कर रहा
था, इतनी
साधारण
सांसारिक बात!
वह
कहने लगा, 'क्या
कह रहे हैं आप?
मैं एक
धार्मिक आदमी
हूं। मैंने
कभी किसी से
प्रेम नहीं
किया।’ रामानुज
ने फिर आग्रह
किया। वे बोले,
'जरा अपनी आंखें
मुंदो और थोड़ा
सोचो। तुमने
किया होगा
प्रेम, चाहे
तुम उसके
विरुद्ध भी हो।
तुमने यथार्थ
में शायद नहीं
किया हो प्रेम,
लेकिन
कल्पना में
किया है।’ वह
आदमी कहने लगा,
'मैं तो
बिलकुल ही
विरोधी हूं
प्रेम का, क्योंकि
प्रेम ही माया
का, भ्रम
का पूरा ढांचा
है। और मैं इस
संसार के बाहर
चला जाना
चाहता हूं।
प्रेम ही है
वह कारण जिससे
कि लोग इसके
बाहर नहीं जा
सकते हैं।
नहीं, कल्पना
में भी नहीं।’
रामानुज
ने फिर जोर
दिया। वे बोले, 'जरा
भीतर देखो। कई
बार सपनों में
प्रेम का विषय
प्रकट हुआ
होगा।’ वह
आदमी बोला, 'इसलिए तो
मैं ज्यादा
सोता नहीं।
लेकिन मैं
यहां प्रेम
सीखने को नहीं
हूं, मैं यहां
आया हूं
प्रार्थना
सीखने को।’ रामानुज
उदास हो गए और
वे बोले, 'मैं
तुम्हारी मदद
नहीं कर सकता,
क्योंकि
जिस व्यक्ति
ने प्रेम को
नहीं जाना है,
वह कैसे जान
सकता है
प्रार्थना को?'
प्रार्थना
सर्वाधिक
सूक्ष्म
प्रेम है, सारभूत
प्रेम है —जैसे
कि देह मिट जाती
हो और केवल
प्रेम की आत्मा
बनी रहती हो, जैसे कि
दीया वहां
बचता ही न हो, मात्र अग्नि
—शिखा रहती हो,
जैसे फूल खो
जाता है धरती
में, लेकिन
सुवास बनी
रहती है हवा
में—वही होती
है प्रार्थना।
काम— भाव देह
है प्रेम की; प्रेम है
आत्मा। फिर
प्रेम देह है
प्रार्थना की;
प्रार्थना
है आत्मा। तुम
बना सकते हो
सकेंद्रित
वर्तुल। पहला वर्तुल
है काम, दूसरा
वर्तुल है
प्रेम और
तीसरा वर्तुल
जो कि केंद्र
है, वह है
प्रार्थना।
काम द्वारा
तुम दूसरे की
देह को खोजते
हो, और
दूसरे की देह
को खोजने के
द्वारा तुम
खोजते हो
तुम्हारी
अपनी ही देह
को।
वह
व्यक्ति जो
किसी के साथ
काम—संबंधों
द्वारा नहीं
जुड़ा रहा, उसमें
अपनी देह का
कोई बोध नहीं
ता, क्योंकि
कौन देगा
तुम्हें बोध?
किसी ने
तुम्हारी देह
को प्रेममय
हाथों से नहीं
छुआ होता; किसी
ने प्रेममय
हाथों से
तुम्हारी देह
को सहलाया
नहीं होता, किसी ने
तुम्हारी देह
को
आलिंगनबद्ध
नहीं किया होता।
कैसे तुम
प्रतीति पा
सकते हो
तुम्हारी देह
की? तुम तो
हो बस एक
प्रेत की
भांति। तुम
नहीं जानते
कहां
तुम्हारी देह की
समाप्ति है और
कहां दूसरे की
देह का आरंभ।
केवल
एक
प्रेमपूर्ण
आलिंगन में
पहली बार देह एक
आकार लेती है।
प्रेमिका
तुम्हें
तुम्हारी देह
का आकार देती
है। वह
तुम्हें एक
रूप देती, वह
तुम्हें एक
आकार देती, वह चारों ओर
से तुम्हें
घेरे रहती और
तुम्हें
तुम्हारी देह
की पहचान देती
है। प्रेमिका
के बगैर तुम
नहीं जानते
तुम्हारा शरीर
किस प्रकार का
है, तुम्हारे
शरीर के मरुस्थल
में मरूद्यान कहां
है, फूल
कहां हैं? कहां
तुम्हारी देह
सबसे अधिक
जीवंत है और
कहां मृत है? तुम नहीं
जानते। तुम
अपरिचित बने
रहते हो। कौन
देगा तुम्हें
वह परिचय?
वास्तव में जब
तुम प्रेम में
पड़ते हो और
कोई तुम्हारे
शरीर से प्रेम
करता है तो
पहली बार तुम
सजग होते हो अपनी
देह के प्रति
कि तुम्हारे
पास देह है।
प्रेमी
एक दूसरे की
मदद करते हैं
अपने शरीरों को
जानने में।
काम तुम्हारी
मदद करता है
दूसरे की देह
को समझने में—और
दूसरे के
द्वारा
तुम्हारे
अपने शरीर की
पहचान और
अनुभूति पाने
में। कामवासना
तुम्हें
देहधारी बनाती
है,
शरीर में
बद्धमूल करती
है, और फिर
प्रेम
तुम्हें
स्वयं का, आत्मा
का, स्व का
अनुभव देता है—वह
है दूसरा
वर्तुल। और
फिर
प्रार्थना तुम्हारी
मदद करती है
अनात्म को अनुभव
करने में, या
ब्रह्म को, या परमात्मा
को अनुभव करने
में।
ये
हैं तीन चरण:
कामवासना से
प्रेम तक, प्रेम
से प्रार्थना
तक। और प्रेम
के कई आयाम
होते हैं, क्योंकि
यदि सारी
ऊर्जा प्रेम
है तो फिर
प्रेम के कई
आयाम होने ही
होते हैं। जब
तुम किसी
स्त्री से या
किसी पुरुष से
प्रेम करते हो
तो तुम परिचित
हो जाते हो
अपनी देह के
साथ। जब तुम
प्रेम करते हो
गुरु से, तब
तुम परिचित हो
जाते हो अपने
साथ, अपनी
सत्ता के साथ
और उस परिचय
द्वारा, अकस्मात
तुम सपूर्ण के
प्रेम में पड़
जाते हो।
स्त्री
द्वार बन जाती
है गुरु का, गुरु
द्वार बन जाता
है' परमात्मा
का। अकस्मात
तुम संपूर्ण
में जा पहुंचते
हो, और तुम
जान जाते हो
अस्तित्व के
अंतरतम मर्म
को।
जीसस
ठीक ही कहते
हैं,
'प्रेम है
परमात्मा', क्योंकि
प्रेम वह
ऊर्जा है जो
चलाती है
सितारों को, जो चलाती है
बादलों को, जो बीजों को
फूटने देती है,
जो
पक्षियों को
चहचहाने देती
है, जो
तुम्हें यहां
होने देती है।
प्रेम सबसे
अधिक
रहस्यपूर्ण
घटना है। वह
है 'ऋतम्भरा।’
अंतिम
प्रश्न:
क्या
गुरु कभी
जंभाई लेते
हैं?
हां, वे
जंभाई लेते
हैं लेकिन वे
संपूर्ण रूप
से जंभाई लेते
हैं। और यही
एक बुद्ध—पुरुष
और अबुद्ध—पुरुष
के बीच का भेद
है। भेद है
केवल समग्रता
का।
तुम
जो कुछ करते
हो,
तुम करते हो
आशिक रूप से।
तुम प्रेम
करते हो, लेकिन
केवल
तुम्हारा कोई
हिस्सा ही
प्रेम करता है।
तुम सोते हो, लेकिन
तुम्हारा एक
हिस्सा ही
सोता है। तुम
खाते हो, लेकिन
तुम्हारा एक
हिस्सा ही
खाता है। तुम
जंभाई लेते हो,
लेकिन
तुम्हारा एक
हिस्सा ही
जंभाई लेता है।
एक और हिस्सा
होता है इसके
विरुद्ध, उस
पर नियंत्रण
करता हुआ।
एक
सद्गुरु जीता
है समग्र रूप
से,
जैसे और जो
कुछ वह जीता
है। यदि वह
खाता है, तो
वह समग्ररूप
से खा रहा
होता है। कुछ
और होता ही
नहीं सिवाय
खाने के। जब
वह चलता है, तो वह चलता
है, चलने
वाला वहां
नहीं होता है।
चलने वाले का
तो अस्तित्व
ही नहीं होता,
क्योंकि कहां
अस्तित्व
रखेगा चलने
वाला? चलना
इतना समग्र है।
तुम जंभाई
लेते हो, तो
तुम होते हो
वहा। जब गुरु
जंभाई लेता है
तो केवल जंभाई
ही होती है
वहां। और यदि
तुम्हें यकीन
नहीं हुआ हो, तो तुम पूछ
सकते हो विवेक
से, वही
होगा प्रमाण!
तुम पूछ सकते
हो गवाह से!
आज
इतना ही।
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