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रविवार, 28 दिसंबर 2014

बिन बाती बिन तेल-(प्रवचन-15)

आखिरी भोजन हो गया?—(प्रवचन—पंद्रहवां)
दिनांक 5 जुलाई 1974 (प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!

एक नया-नया शिष्य, गुरु जोशू के पास आकर बोला,

'मैं हाल ही धर्मसंघ में सम्मिलित हुआ हूं और ध्यान का पहला सूत्र सीखना चाहता हूं।

क्या आप मुझे वह सिखाने की कृपा करेंगे?'

जोशू ने पूछा, 'क्या तुमने शाम का भोजन कर लिया?'

शिष्य ने कहा, 'जी, मैंने कर लिया।'

गुरु ने तब कहा, 'अब जाकर अपनी थाली धो लो।'

भगवान! कृपा कर इस लघुवार्ता का अभिप्राय बतायें।

छोटी-सी दीखने वाली कथा जीवन का, साधना का सारा सार-संक्षिप्त लिए हुए है। वह सार-संक्षिप्त इतना ही है, कि यदि वासनाएं पूरी हो गई हों, यदि भोजन पूरा हो गया हो, तो अब थाली को धो डालो। अगर मन की दौड़ पूरी हो गई हो, तो अब मन को धो लो। अगर संसार में चलने की आकांक्षा भर गई हो, तो अब थाली को धो लो। इतना ही ध्यान का सार भी है।
पहले हम ध्यान का अर्थ समझें और फिर वापिस कथा के अर्थ पर लौट आएं। ध्यान का अर्थ है: मन काम कर रहा है चौबीस घंटे, सतत। चाहे तुम जागो, चाहे तुम सोओ, चाहे तुम उठो, चाहे बैठो; चाहे श्रम करो, चाहे विश्राम; लेकिन मन निरंतर काम में लगा है। मन की थकान धूल की तरह इकट्ठी होती है। और मन की प्रत्येक क्रिया तुम्हारी चेतना को धुएं से भर जाती है। क्योंकि मन की क्रिया में भी ईंधन जलता है।
रास्ते से कार गुजरती है, तो धुआं चाहे दिखाई न पड़े लेकिन हवा में छूट जाता है, वायु को दूषित कर जाता है। दीया जलता है तो धुआं चारों तरफ छूटता है, वायु को दूषित कर जाता है।
तुम्हारा मन का दीया जल रहा है। उसमें ईंधन काम आ रहा है। क्योंकि मन वह दीया नहीं है, जो बिन बाती और बिन तेल जलता है। तुम भोजन कर रहे हो, पानी पी रहे हो, उस सबसे ईंधन निर्मित हो रहा है। तेल और बाती बन रही है। और तेल और बाती से तुम्हारे मन का दीया जल रहा है। जितना ही तुम मन के दीये को जलाते हो, उतना ही भीतर धुआं, धूल इकट्ठी होती है।
फिर मन प्रतिक्षण स्मृति को इकट्ठी कर रहा है। तुम जो भी करते हो, वह करते ही नहीं हो, उसे तुम याद भी कर लेते हो। तुम जो नहीं करते हो, देखते हो, वह भी स्मृति बनता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि एक क्षण में कोई एक करोड़ सूचनाएं तुम्हारे मन पर अंकित हो रही हैं। तुम तो डर ही जाओगे। एक करोड़ सूचनाएं एक क्षण में कैसे अंकित हो रही हैं? तुम्हें तो उनका पता भी नहीं चलता। तुम्हारा मन तो थोड़ी-सी बातों को ही चेतन रूप से संकलित करता है, बाकी अचेतन रूप से संकलित करता है।
मैं बोल रहा हूं, तुम मुझे सुन रहे हो। तुम्हारा चेतन मन मेरी तरफ लगा है। एक पक्षी वृक्ष पर गीत गाता है, रास्ते से कार गुजरती है, कोई पड़ोस में बच्चा रोता है, कुत्ते भोंकते हैं, उस तरफ तुम्हारा कोई ध्यान नहीं है; लेकिन तुम्हारा मन उनको भी अंकित कर रहा है। एक करोड़ सूचनाएं प्रतिक्षण तुम अंकित कर रहे हो। एक जीवन में तुम कितनी धूल इकट्ठी न कर लोगे!
यह सारी की सारी धूल ही तुम्हारा रोग है।
इस धूल को झाड़ देना, पोंछ देना ही ध्यान है।
ठीक कहा जोशू ने। पूछा था शिष्य ने, नये-नये शिष्य ने कि 'नया-नया संघ में सम्मिलित हुआ हूं, दीक्षित हुआ हूं, पहला कदम ध्यान का उठाना है; क्या करूं? क्या है ध्यान? मुझ अज्ञानी को बता दें।'
जोशू ने देखा होगा इस शिष्य की तरफ और कहा कि 'भोजन कर चुके हो सांझ का?'
उस शिष्य ने कहा, 'कर चुका हूं।'
तो जोशू ने कहा, 'जाओ और बर्तन मांज डालो, बर्तन धो लो।'
ऊपर से देखने पर कथा बेबूझ लगती है। शिष्य पूछता है ध्यान की बात और जोशू कहता है बर्तन धो डालो
जोशू के एक दूसरे शिष्य की कथा है। बहुत दिनों तक जोशू के पास रहा। लेकिन ध्यान का राज हाथ में न आया। बहुत दिन तक जोशू का सत्संग किया लेकिन सत्संग हुआ नहीं। भीतर कोई किरण न फूटी, कोई दीया न जला। भीतर कोई नई सुगंध न आई। पुराना था, पुराना ही रहा। तो एक दिन जोशू को उसने पूछा कि 'अब तो बहुत वर्ष बीत गये, और अब तक कुछ हुआ नहीं। अब मैं क्या करूं?'
तो जोशू ने कहा, कि 'तू एक काम कर। मैं जानता हूं एक सदगुरु को, जो फलां-फलां गांव, फलां-फलां धर्मशाला का मालिक है। तू वहां चला जा। और अब तू उसी से सीख। शायद तू उससे सीख जाए।'
शिष्य बड़ी उत्सुकता से, बड़ी आतुरता से भागा; पहुंचा दूसरे गांव। लेकिन वहां जाकर बड़ा उदास हुआ, क्योंकि वह मालिक कोई सदगुरु नहीं था। वह तो एक छोटी-सी सराय को चलाने वाला गरीब आदमी था। एक धर्मशाला को चलाता था; सस्ती धर्मशाला थी राह के किनारे। उससे कुछ सीखने की संभावना भी न थी। जोशू ने मजाक किया, या जोशू ने पिंड छुड़ाना चाहा? लेकिन रात देर हो गई थी, और रात तो रुक ही जाना था।
तो उसने सराय के मालिक को पूछा कि 'मैं रात रुक जाऊं? वैसे मुझे जोशू ने भेजा है। लेकिन कहीं कोई भूल हो गई। जोशू ने तो कहा था कि आप एक गुरु हैं और जो उसके पास नहीं सीख पाया, आपके पास सीख लूंगा।'
उस सराय के मालिक ने कहा, 'मुझे कुछ पता नहीं। कैसे गुरु, कैसे शिष्य? और मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं है। लेकिन अब तुम आ गये हो, तो रात रुक जाओ। विश्राम कर लो, सुबह चले जाना।'
पर जोशू ने कहा था कि वह जो गुरु है, उस धर्मशाला का जो मालिक है, वह कुछ बोलेगा नहीं, तू उसके आचरण को देखना; वह आचरण से ही बोलता है। तू उस पर नजर रखना; उसके इशारे समझना। तो इस शिष्य ने सोचा, कि 'अब आ ही गया हूं तो जरा देखता ही रहूं, क्या कर रहा है यह आदमी! चौबीस घंटे रुक ही लूं।'
तो वह देखता रहा। कुछ देखने जैसा भी न था, कुछ समझने की बात भी न थी। कभी वह बुहारी लगा रहा है, कमरे साफ कर रहा है, कभी वस्त्र धो रहा है, कभी बर्तन साफ कर रहा है। कभी मेहमानों की सेवा कर रहा है। बस इसी तरह के काम थे, जिनमें सीखने जैसा कुछ भी न था। फिर रात हो गई, वह धर्मशाला का मालिक सो गया।
सुबह जोशू का शिष्य उठा भोर में, और उसने कहा, 'मैं जाऊं? क्योंकि यहां सीखने को कुछ भी नहीं। एक ही बात और पूछनी है। क्योंकि बाकी तो सब मैंने देख लिया। रात सो जाने के बाद तुमने क्या किया, वह मुझे पता नहीं है। शायद गुरु कहे कि तुमने चौबीस घंटे क्यों न निरीक्षण किया?'
उसने कहा, 'रात सो जाने के बाद? रात सोते समय धर्मशाला के सब बर्तन मैंने धोकर रख दिये थे। फिर रात निश्चिंत सोया, क्योंकि बर्तन धुले थे। फिर सुबह उठा, थोड़ी धूल जम गई थी। बिना कारण भी बर्तन रात भर रखे रहें, तो थोड़ी धूल जम जाती है। कुछ करना ही जरूरी नहीं है, निष्क्रिया तक में धूल जम जाती है। सोचना जरूरी नहीं है, खाली बैठे-बैठे भी धूल जम जाती है। समय बीतता है तो धूल जमती है। समय भी धूल है। तो उसने कहा कि सुबह थोड़ी धूल जम गई थी, फिर से उन्हें धो डाला। सब ठीक है।'
इस शिष्य ने अपने सिर पर हाथ मार लिया कि मैं भी किस ना-समझ के पीछे पड़ा हूं! यह सिर्फ धर्मशाला का मालिक है। सिर्फ बर्तन जमाना, धोना, साफ करना, इतनी ही इसकी समझ है। वह वापिस लौट आया।
जोशू से उसने कहा। जोशू ने कहा, 'तू चूक गया। इतना ही तो राज है।'
दिन में तो धूल जमती ही है, रात तुम सपना देखते हो उसमें भी धूल जम जाती है। मन उसमें भी विकृत हो जाता है। मन उसमें भी अशांत और बेचैन हो जाता है। सुबह उठकर फिर साफ कर लो। जितना बन सके बर्तन साफ करते रहो। लेकिन बर्तन तुम साफ तभी कर पाओगे, जब सांझ का भोजन कर लिया हो।
आखिर जोशू यह भी तो कह सकता था, 'सुबह का भोजन कर लिया?' लेकिन उसने कहा, सांझ का भोजन। सांझ का भोजन मतलब, अंतिम भोजन। सांझ का भोजन मतलब, जब सूर्यास्त हो रहा है, सब ढल रहा है। सांझ के भोजन का अर्थ है, आखिरी वासना को भी चख लिया, स्वाद ले लिया? अगर ले लिया है स्वाद, तब क्या देर कर रहे हो? बर्तन धो डालो। और अगर अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ, तो अभी ध्यान की बात ही मत पूछो।
जिनकी वासनाएं अभी अधूरी हैं, जिन्होंने संसार को अभी जाना नहीं, वे ध्यान की बात ही न पूछें। संसार को बिना जाने कोई संसार से मुक्त न कभी हुआ है, न हो सकेगा। और जिनकी अभी शरीर की दौड़ ही कायम है, जो उससे थक नहीं गये हैं, ऊब नहीं गये हैं, जिन्होंने पहचान नहीं लिया है कि शरीर व्यर्थ है, उसकी दौड़ व्यर्थ है, वे ध्यान के संबंध में न पूछें तो अच्छा। कोई सदगुरु उन्हें उत्तर नहीं देगा। वे ऐसे ही हैं, जैसे छोटे बच्चे कामवासना के संबंध में कुछ पूछें। कौन उन्हें उत्तर देगा? उत्तर का कोई अर्थ नहीं है।
जब तक संसार व्यर्थ न हो जाए, तब तक धर्म सार्थक नहीं होता। और जब संसार व्यर्थ हो जाए ऐसी 'तुम्हारी' प्रतीति हो--मेरे कहने से नहीं; कबीर और बुद्ध और क्राइस्ट समझाएं इससे नहीं; वे तो चिल्ला रहे हैं कि संसार व्यर्थ है। तुम काफी भोजन कर चुके, रुको। थाली को धो डालो। अब और मत दौड़ो, काफी दौड़ चुके, ठहरो। लेकिन उनके कहने से तुम न रुकोगे; और अगर रुके तो भी भूल हो जाएगी। क्योंकि भला तुम रुक जाओ, लेकिन तुम्हारा मन न रुकेगा। तुम बुद्ध की मानकर संसार से मुड़ भी आओ, लेकिन तुम लौट-लौटकर संसार की तरफ देखते रहोगे।
इसलिए जोशू ने पूछा, 'सांझ का भोजन पूरा हो गया? आखिरी वासना भी तृप्त कर ली या नहीं?'
अब यह बड़े मजे की बात है; कि वासना तृप्त करने से तृप्त तो होती नहीं। भोजन करने से कभी किसी की भूख मिटी? भोजन करने से सिर्फ नई भूख शुरू होती है। पानी पीने से सिर्फ नई प्यास का प्रारंभ होता है। थोड़ी देर के लिए भुलावा होता है। तो पानी पीने से प्यास बुझती नहीं; बुझ जाए, तो फिर पानी की दुबारा जरूरत न हो। पानी पीने से प्यास छिपती है, दबती है। भोजन से भूख मरती नहीं, सिर्फ थोड़ी देर के लिए भूख भूल जाती है, विस्मरण हो जाती है। कामभोग से कामवासना नष्ट नहीं होती, सिर्फ थोड़ी देर के लिए तुम थक जाते हो, फिर जाग आएगी।
इसलिए भूख के बाद सभी को उपवास सार्थक मालूम होता है। संभोग के बाद सभी को संभोग की व्यर्थता मालूम होती है। लेकिन घंटे, दो घंटे, चार घंटे--भूख फिर लौटेगी। चौबीस घंटे, अड़तालीस घंटे--कामवासना फिर जगेगी। और जब वासना जगेगी तब सब वही सार्थक मालूम होने लगेगा, जो व्यर्थ मालूम हुआ था।
जोशू कह रहा है, 'आखिरी भोजन कर लिया? यदि आखिरी भोजन कर लिया है तो जाओ और बर्तन साफ कर डालो'
मन के बर्तन में ही हमारी वासनाओं का भोजन चला है। और एक दिन नहीं, जन्मों-जन्मों से चला है। मन का बर्तन बिलकुल गंदा हो गया है। अगर हो गई है बात पूरी तो जाओ, और मन का बर्तन साफ कर लो; इतना ही ध्यान है।
और शिष्य निश्चित ही समझ गया होगा। क्येंकि उसने फिर कोई सवाल न उठाया। उसे बात दिखाई पड़ गई होगी।
क्या है बात? बात इतनी है कि अगर वासना व्यर्थ हो गई तो ध्यान करने की जरूरत भी कहां है? अगर तुमने जान ही लिया दौड़ना व्यर्थ है, तो रुकने के लिए कुछ श्रम करना पड़ेगा? तुम्हें पहचान आ गई कि हाथ में कंकड़-पत्थर हैं, हीरे नहीं, तो क्या छोड़ने के लिए तुम्हें कोई बड़ा प्रयास करना पड़ेगा? छोड़ने का प्रयास तो तभी करना पड़ता है, जब कंकड़-पत्थर हीरे मालूम पड़ते हैं। हाथ खाली हो जाएंगे, तुम छोड़ ही दोगे। मिट्टी पर कौन मुट्ठी बांधता है? और जैसे ही तुम छोड़ दोगे, वैसे ही ध्यान फलित हो जाएगा।
तो ध्यान क्या है?
ध्यान है, वासना का अभाव।
ध्यान है, आकांक्षा का अभाव।
ध्यान है, दौड़ से मुक्ति।
ध्यान का अर्थ हुआ, अब मैं कुछ भी नहीं चाहता हूं। मैं जैसा हूं, तृप्त हूं। मैं जो भी हूं, राजी हूं। जहां हूं, वहीं मेरी मंजिल है। वहां से कहीं और मुझे नहीं जाना।
वासना का स्वरूप है कि जहां मैं हूं, वहां से कहीं और मुझे जाना है। कहीं भी मैं होऊं, वहां से मुझे कहीं और जाना है। मंजिल कहीं और है। जहां भी मैं हूं, वहीं अतृप्त हूं। वासना कभी भी तृप्त नहीं है, दुष्पूर है। तुम स्वर्ग में रहो तो भी वासना कहेगी, आगे क्या? इससे क्या होगा? स्वर्ग भी मिल गया तो क्या होगा? तुम मोक्ष भी चले जाओ तो भी तुम्हारी वासना तुम्हें संसार में वापस ले आएगी।
तुम्हारी वासना संसार है।
बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि बालसेन मरा--एक यहूदी फकीर और वह स्वर्ग पहुंचा। और वहां उसने देखा कि बड़े-बड़े पुराने यहूदी फकीर बैठकर शास्त्रों का अध्ययन कर रहे हैं; तालमुद का अध्ययन कर रहे हैं। झुके हैं अपनी-अपनी किताबों पर, पाठ कर रहे हैं। यह थोड़ा हैरान हुआ बालसेन। इसने कहा, 'स्वर्ग में रहकर शास्त्रों की क्या जरूरत है अब? अब यहां भी अगर शास्त्रों का पाठ ही चल रहा है तो फिर मंजिल कहां है?'
जो देवदूत उसे स्वर्ग का राज्य घुमा रहा था, उसने कहा कि सुनो, संत स्वर्ग में नहीं होते, स्वर्ग संतों में होता है। स्वर्ग कोई जगह नहीं है, जहां संत प्रवेश करते हैं। स्वर्ग एक भावदशा है, जो संत के भीतर होती है।
तुम थोड़े ही स्वर्ग में प्रवेश करोगे! स्वर्ग तुममें प्रवेश करेगा। तुम द्वार दो ताकि स्वर्ग प्रवेश कर सके। लेकिन तुम्हारा द्वार वासनाओं से बंद है। तो तुम अगर स्वर्ग में भी पहुंच गये तो कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम तालमुद ही पढ़ोगे। तुम वही किताब पढ़ते रहोगे, जो और आगे ले जाने का उपाय है।
तुम अगर स्वर्ग में भी पहुंच गये, जिसके ऊपर कुछ भी नहीं, तो भी अपनी सीढ़ी साथ ले जाओगे, कहीं लगाकर और ऊपर चढ़ने के लिये। तुम बिना सीढ़ी के हो ही नहीं सकते। तुम सीढ़ी को ढोओगे ही; चाहे सीढ़ी कितनी ही वजनी हो। तुम नाव को सिर पर लेकर चलोगे ही; चाहे तुम उस किनारे पर क्यों न पहुंच जाओ। क्योंकि तुम्हारे लिये कोई दूसरा किनारा नहीं हो सकता; तुम्हारे लिए हर किनारा छोड़ने वाली जगह है। और हर पहुंचने वाली जगह कहीं दूर है, जहां तुम्हें नाव से जाना होगा।
ध्यान का अर्थ है, तुम उस किनारे पर हो, जहां से आगे नहीं जाना। तुम दूसरे किनारे पर हो। तुम सदा ही वहां हो, जहां होना तृप्ति है। तुम प्रतिक्षण जहां भी पहुंचते हो, तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारे साथ चलता है।
ठीक कहा जोशू ने, कि अगर तेरा आखिरी भोजन हो गया, तो अब तू बर्तन साफ कर ले।
यही मैं तुमसे पूछता हूं कि क्या तुम्हारा आखिरी भोजन हो गया? और भोजन तुम बहुत जन्मों से कर रहे हो। भूख तुम्हारी मिटी नहीं। छोटा-सा गणित है, जो तुम अब तक हल न कर पाये। भोजन से भूख मिटेगी भी नहीं। मिटती होती तो कब की मिट गई होती। छोड़ो पिछले जन्मों को, इस जन्म में भी काफी भोजन कर चुके, भूख मिटती नहीं। लगता ऐसा है कि भोजन भी भूख को ही मिटाता है, भूख बढ़ती है। कितना तुम पानी पिये हो और कितने सरोवर तुमने खोजे, प्यास कहीं गई नहीं। तुम्हारा कंठ प्यासा का प्यासा रह जाता है। शायद पानी तुम्हें और नई तलफ जगाता है। पानी सिर्फ आभास देता है तृप्ति का; तृप्ति नहीं लाता।
कब तक तुम इसको ही जारी रखोगे? कब तुम देख सकोगे कि भूख से भोजन का कोई संबंध नहीं। प्यास से पानी का कोई संबंध नहीं। प्यास पानी से नहीं मिटेगी।
जिस दिन तुम जानोगे कि प्यास पानी से मिटती ही नहीं, उस दिन तुम कुछ और खोजोगे, जिससे प्यास मिटती है। यह जरा कठिन है। हम सोचते हैं पानी से प्यास मिटती है, तृप्ति आती है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, तृप्ति से प्यास मिटती है, और पानी आता है। अब यह जरा...जो जानते हैं वे कहते हैं, तृप्ति से प्यास मिटती है, और पानी आता है। सरोवर प्रगट हो जाता है। लेकिन तृप्ति से प्यास मिटती है। तृप्ति से भूख मिटती है। तृप्ति से काम मिटता है। तुम जहां तृप्त हुए, वहीं वासना शांत हो जाती है।
क्या तुम आखिरी भोजन कर चुके?
यही सवाल है, जो हर नये साधक को अपने से पूछना है। और अगर अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ तो बेहतर है, संतों के पास मत जाओ। पहले आखिरी भोजन कर लो। उनके पास जाकर समय अपना और उनका खराब मत करो। क्योंकि उनके पास तुम कुछ भी न पा सकोगे। तुम गलत जगह पहुंच गए। वह जगह तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें अभी संसार में थोड़ा और चलना है। तुम्हें अभी और थोड़ी खोज करनी है। तुम्हें अभी थोड़ा और भटकना है। अभी तुम थके नहीं, अभी तुम्हारे पैरों में ताकत है; और तुम अभी और चलने के लिए उत्सुक हो। अभी तुम थोड़े और दौड़ो
मैं भी तुमसे यही कहता हूं कि संसार का तुम ठीक से भोग कर लो। तुममें से अधिक की कठिनाई यही है, कि तुम संसार का भोग किये नहीं और अध्यात्म की वासना तुम्हें पकड़ गई है। अध्यात्म कोई वासना नहीं है। संसार से तुम भरे नहीं और मोक्ष की भी आकांक्षा तुम्हें पकड़ गई है। तुम बड़ी दुविधा में हो। तो ऊपर से तुम कुछ कहते हो और भीतर तुम्हारे कुछ चलता है। ऊपर से तुम मोक्ष की चर्चा करते हो, भीतर संसार चलता है। तुम दोहरी यात्रा पर चल रहे हो।
मैंने सुना है, कि एक साधारण सैनिक अपनी बहादुरी, युद्ध के मैदान पर अपनी कुशलता...बड़ा सम्मानित हुआ; और उसे कर्नल का पद दे दिया गया। वह उसके योग्य भी था। एक दिन वह अपने 'कमांडर इन चीफ' के साथ रास्ते से गुजर रहा था। अब वह कर्नल हो गया है। जो भी सैनिक रास्ते पर मिलते हैं, तत्क्षण खड़े होकर सलाम ठोकते हैं। कर्नल भी सलाम करता है। लेकिन कमांडर थोड़ा हैरान हुआ, कि यह जो कल तक सैनिक था, अब कर्नल हो गया है--कमांडर हैरान हुआ! तो वह धीरे से कहता है 'दि सेम टू यू।' ऐसा जब दस-पांच बार उसने सुना तो वह थोड़ा चकित हुआ। उसने पूछा कि यह तुम्हारी क्या विचित्र-सी आदत है? जब भी कोई नमस्कार करता है, और पैर ठोकता है तब तुम धीरे-से क्या फुसफुसाकर कहते हो कि 'दि सेम टू यू': 'वही तुम्हें भी?'
उसने कहा, 'मैं पहले सैनिक रह चुका हूं। ये सब भीतर से तुम गाली दे रहे हो। मैं भी देता रहा हूं। यह नमस्कार ऊपर-ऊपर है। इसलिए मैं इनको भलीभांति जानता हूं कि ये भीतर क्या कह रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं, 'दि सेम टू यू'! कुछ भी कह रहे हों भीतर--'वही तुम्हें भी'
ऊपर से तुम नमस्कार करते हो मंदिरों में, और भीतर? ऊपर तुम संतों का सत्संग करते हो और भीतर? ऊपर तुम ब्रह्मचर्य के सूत्र पढ़ते हो और भीतर? ऊपर तुम निर्वासन और ध्यान, समाधि, विपस्सना की चर्चा करते हो और भीतर? भीतर संसार चलता है।
और जो तुम भीतर हो, वही तुम्हारी वास्तविक यात्रा है। जो तुम ऊपर हो, वह यात्रा काम की नहीं।
इसलिए पूछता है जोशू, आखिरी भोजन कर लिया? वह यह पूछ रहा है कि भीतर का उपद्रव समाप्त हुआ? थक गये उससे या अभी भी रस कायम है? भूख बाकी है या हट गई?
उस युवक ने कहा, कि 'जी हां। आखिरी भोजन कर चुका हूं। तभी तो आया हूं आपके पास; नहीं तो आने का कोई सवाल न था। यहां आया इसलिए हूं, ध्यान की पूछता इसलिए हूं, कि आखिरी भोजन हो चुका। अब कोई और भोजन करने को नहीं बचा है।' तो जोशू ने कहा, 'मामला सीधा-साफ है, बड़ा सरल है।'
और मैं भी तुमसे कहता हूं इतना ही सरल मामला है, जैसा जोशू ने कहा कि जा और बर्तन साफ कर लो। और कुछ और करना नहीं। निन्यान्नबे प्रतिशत तो ध्यान घट ही गया, अगर आखिरी भोजन हो गया। एक प्रतिशत बचा है। वह पुराने जो भोजन की प्रक्रिया चली है जन्मों-जन्मों तक, वह जो मन पर कचरा इकट्ठा हो गया है, उसको साफ कर डालो
निन्यान्नबे प्रतिशत ध्यान घटता है वासना की व्यर्थता के बोध से; कि भोजन से भूख न मिटे, पानी से प्यास न मिटे! संभोग से भोग की आकांक्षा नहीं जाती, बढ़ती है। जैसे कोई घी डालता हो आग में, और भभकती है। ऐसी प्रतीति में निन्यान्नबे प्रतिशत तो ध्यान पूरा हो गया। जो एक प्रतिशत बचा है, वह बहुत छोटा-सा काम है। वह बर्तन धो लेने जैसा है। वह मन में जो कचरा इकट्ठा है अतीत का, उसे पोंछ डालना है; वह एक स्नान है।
ध्यान के दो चरण हुए। एक चरण, कि जीवन जैसा तुम जी रहे हो, वह तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ जाए। 'तुम्हें' व्यर्थ मालूम पड़े। यह 'तुम्हारी' प्रतीति हो। इस पर बहुत जोर देने का है। यह प्रामाणिक तुम्हारा अनुभव हो। इसमें उधारी नहीं चलेगी। इसमें बुद्ध की गवाही नहीं चलेगी। इसमें कितने ही बुद्ध खड़े होकर कहें कि हां, हम कहते हैं, मान लो। न, वह काम नहीं आएगा। तुम्हारे भीतर का ईश्वर उठे और कहे।
तुम्हारा मन जल्दी से मानने को राजी भी हो जाता है क्योंकि तुम परेशान तो काफी हो रहो हो; लेकिन पूरे नहीं हुए हो। तुम काफी कुनकुने तो हो, लेकिन इतने गर्म नहीं हुए हो कि भाप बन जाओ। तो तुम्हें भी लगता है कि तकलीफ तो है संसार में, दुख तो है, और इसको छोड़ना है।
बस, यहीं खेल की कुंजी है। तुम्हें लगता है दुख तो है, लेकिन दूसरी बात भी तुम्हें लगती है कि यहां सुख भी है। और नीत्से ने कहा है...और वह तुम्हारा अनुभव है। अब यह बड़ी जटिलता है। बुद्ध जो कहते हैं, वह तुम्हारा अनुभव नहीं है, लेकिन बुद्ध से तुम राजी होते हो। और नीत्से जो कहता है, वह तुम्हरा अनुभव है लेकिन उससे तुम राजी नहीं होते।
नीत्से ने कहा है, 'माना कि दुख है, लेकिन सुखों के मुकाबले कुछ भी नहीं। और माना कि दुख काफी है, लेकिन सुख उससे गहरा है।' और नीत्से ने कहा है, 'मैं उन मूढ़ों में से नहीं हूं, जो कांटे के कारण गुलाब के फूल को फेंकते हैं। हम कांटे से बचने की कोशिश करेंगे और फूल को भोगेंगे।' तो नीत्से को तो बुद्ध मूढ़ हैं। तुम्हें भी मूढ़ हैं। तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं कि तुम सच-सच कह सको; नीत्से हिम्मतवर है। और नीत्से दोहरा आदमी नहीं है। बात इकहरी है। वह कह रहा है, आखिरी भोजन हुआ नहीं और कभी हम आखिरी भोजन करेंगे नहीं। माना कि तकलीफ है, भोजन चबाने की तकलीफ है, दांत को भी पीड़ा होती है, पचाना भी पड़ता है; लेकिन उसमें स्वाद है। और वह स्वाद इतनी तकलीफ झेलने जैसा है।
एक अमीर मर रहा था, और उसने अपने बेटे को बुलाकर कहा कि देख, मैं तेरे लिए अपने पूरे जीवन के अनुभव से कहता हूं कि धन में कोई सुख नहीं है। गरीब भी दुखी है, अमीर भी दुखी है। इसलिए जो भूल मैंने की उस भूल में तू मत पड़ना। उस बेटे ने कहा कि देखें, आपकी भूल का मुझे पता नहीं, आपके अनुभव का मुझे पता नहीं। अगर आप मुझे चुनने का मौका दें, तो मैं अमीर का दुख चुनना पसंद करूंगा बजाय गरीब के दुख के। माना कि दोनों में दुख है, लेकिन मैं अमीर का दुख चुनना पसंद करूंगा।
तुम जानते हो कि जीवन में दुख है। और तुम यह भी जानते हो कि वासना पीड़ा में ले जाती है लेकिन यह आधा ही जानना है। भीतर आधा स्वर यह भी है कि सुख भी है। इसलिए तुम्हारी चेष्टा संसार से मुक्त होने की नहीं है। तुम्हारी चेष्टा संसार के दुख से मुक्त होने की है। सुख बच जाए, दुख कट जाए। इसीलिए तुमने स्वर्ग की ईजाद की है। स्वर्ग कहीं है नहीं, स्वर्ग तुम्हारी कामना है। और इसीलिए तुमने नर्क की ईजाद की है। नर्क कहीं है नहीं; वह वह जगह है, जहां तुम दूसरों को भेजना चाहते हो--शत्रुओं को। स्वर्ग वह जगह है, जहां तुम जाना चाहते हो।
स्वर्ग और नर्क दोनों मिले हुए हैं पृथ्वी में; संयुक्त हैं। तुमने उनको काट-काटकर अलग कर लिया है दिमाग में। तुम अपने लिए स्वर्ग चाहते हो। सब कांटे तुमने गुलाब के अलग कर दिये, सिर्फ फूल ही फूल बचाए। और सब कांटे तुमने इकट्ठे कर दिये उनके लिए, जो तुम्हारे दुश्मन हैं, तुमसे राजी नहीं हैं; और जिन्हें तुम कांटों में डालना चाहोगे। लेकिन ध्यान रहे, जिंदगी में फूल और कांटे साथ-साथ हैं। तुम उन्हें अलग-अलग न कर पाओगे।
इसलिए ज्ञानी स्वर्ग और नर्क की बात नहीं करते; ज्ञानी संसार और मोक्ष की बात करते हैं। अज्ञानी संसार, स्वर्ग और नर्क की बात करते हैं। ज्ञानी संसार और मोक्ष की बात करते हैं। ज्ञानी कहते हैं, स्वर्ग-नर्क का कोई सवाल नहीं है, संसार या संसार से मुक्ति। और जब तुम संसार से मुक्त होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि संसार के दुख वहां न होंगे, और संसार के सब सुख वहां होंगे। न वहां संसार के सुख होंगे, न वहां दुख होंगे। वहां सुख-दुख दोनों खो जाएंगे। वहां सुख-दुख की दोनों स्थितियां समाप्त हो जाएंगी। न वहां फूल होंगे, न वहां कांटे होंगे। और इसीलिए बुद्ध या महावीर उस परम दशा को शांति या आनंद की दशा कहते हैं, जहां सुख-दुख दोनों का अभाव है।
क्या तुम्हारा दुख का भोजन पूरा हो गया? क्या तुमने दुख का पूरा स्वाद ले लिया? क्या तुम्हारा मुंह दुख की तिक्तता से भर गया? क्या तुम्हारे ओंठ जीवन की कडुवाहटता को अनुभव कर लिए? क्या तुम्हारे हृदय में जीवन के कांटे काफी चुभ गए और उनकी पीड़ा पूरी हो गई? तो फिर जाओ और बर्तन साफ कर लो। फिर ज्यादा काम नहीं बचता है।
ध्यान सरल है, अगर पहला काम पूरा हो गया। और ध्यान असंभव है अगर पहला काम पूरा नहीं हुआ। और तुम ध्यान में इसीलिए असफल होते हो क्योंकि वह निन्यान्नबे प्रतिशत काम तो अधूरा पड़ा है और एक प्रतिशत तुम करना शुरू करते हो। जो तुम्हें पहले करना था, वह तो तुमने पीछे के लिए छोड़ रखा है। और जो तुम्हें पीछे करना था, वह तुम पहले कर रहे हो। तुम बर्तन साफ करने में लगे हो और इसका तुम्हें खयाल ही नहीं कि अभी आखिरी भोजन नहीं हुआ। तुम साफ भी करोगे, क्या फायदा है? तुम फिर भोजन करोगे। तुम बर्तन साफ ही इसीलिए करते हो ताकि फिर भोजन कर सको। लोग ध्यान भी करने इसीलिए आते हैं, ताकि जिंदगी में महत्वाकांक्षा की दौड़ है, वहां भी शांति से महत्वाकांक्षा की दौड़ पूरी कर सकें।
एक मेरे मित्र हैं। वे आकर मुझे अकसर कहते हैं--राजनीति में हैं--वे कहते हैं ध्यान थोड़ा मुझे मिल जाए, तो मैं विरोधियों को पछाड़ दूं। चित्त अशांत रहता है इसलिए न तो मैं ठीक से सो पाता हूं, न मेरा स्वास्थ्य ठीक रह पाता है, इसलिए विरोधियों को मैं पछाड़ नहीं पाता। और वे मुझसे पूछते हैं, बड़ी हैरानी की बात है कि विरोधी किस तरह चल रहे हैं? न उनके सिर में दर्द होता है, न रात उनकी नींद खोती है। राजनीति का चक्कर आप जानते हैं, चौबीस घंटे चक्कर में हैं। उसे रत्ती भर विश्राम नहीं है। लेकिन इन मित्र को तकलीफ यह है कि ये इतना नहीं झेल पाते। ये डावांडोल हालत है इनकी। यह ध्यान भी इसलिए चाहते हैं ताकि संसार में ठीक से गति हो सके। ये ध्यान को भी संसार की नाव बनाना चाहते हैं।
ऐसे तो चोर भी ध्यान चाहेगा। क्योंकि चोरी करने में अगर आप ध्यानस्थ हो सकें तो पकड़े जाने की संभावना कम है। अगर चोरी करते वक्त आप इतने थिर भाव से कर सकें कि जैसे अपना ही घर है, तो आपका हाथ नहीं डगमगाएगा। चाबी जल्दी लगेगी, ताला आसानी से खोला जा सकेगा।
हत्यारा अगर ध्यानी हो सके, तो जितनी कुशलता से हत्या कर सकेगा उतनी कुशलता से आप न कर सकेंगे। आपका हाथ चूकेगा, भय लगेगा, हृदय धड़केगा, रक्तचाप बढ़ेगा, आप मुसीबत में पड़ेंगे। हत्यारा भी चाहता है कि कोई तरकीब हो शांत होने की। चोर भी चाहता है, राजनीतिज्ञ भी चाहता है, धनपति भी चाहता है कि कोई शांत होने की तरकीब हो, ताकि संसार में विजय मिल सके।
ध्यान रखो, ध्यान को संसार में नाव बनाने का कोई उपाय नहीं है। तुम तो हद्द पागलपन की बात कर रहे हो। तुम तो जोशू से पूछना चाहते हो कि ध्यान भी बर्तन बन जाए। जिसमें हम वासनाओं का भोजन कर सकें। तुम जोशू से पूछना चाहते हो कि ठीक है, तुम कह रहे हो तो हम बर्तन साफ कर लेंगे लेकिन हम साफ इसलिए करना चाहते हैं ताकि और ढंग से भोजन कर सकें।
अमरीका में, जहां पहली दफा वैश्यों ने संस्कृति निर्मित की है, जहां व्यापारी के हाथ में, वणिक के हाथ में सारी सत्ता आ गई है, वहां अगर आपको ध्यान का भी प्रचार करना हो तो यही समझाना पड़ता है कि ध्यान से एफिशियंसी बढ़ेगी, काम करने की कुशलता बढ़ेगी। ध्यान से धन के द्वार खुलेंगे। ध्यान अगर तुमने किया तो तुम महत्वाकांक्षा के जगत में आसानी से सफल हो जाओगे, संसार में विजय मिलेगी। ध्यान तुम्हारे लिए शक्ति है।
स्वाभाविक है; वणिक सभ्यता में ऐसा होगा। वहां अगर ध्यान को भी चलाना हो तो भी धन के सहारे ही चलाया जा सकता है। और धन मिलता हो तो ही कोई दौड़ने को राजी हो सकता है। अगर तुम लोगों को कहो कि यह परमात्मा की खदान है, इसको तुम खोदो; पास में तुम कहो कि यह सोने की खदान है। तुम्हें परमात्मा की खदान खोदता हुआ कोई भी नहीं मिलेगा। लोग सोने की खदान पहले खोदेंगे। और लोग कहेंगे कि सोने की खदान पहले खोद लेनी जरूरी है। परमात्मा प्रतीक्षा करता रहेगा; जल्दी क्या है? अगर परमात्मा और सोना सामने रखा हो तो तुम भी सोना ही चुनोगे।
अपने मन को बहुत गहरे में पूछना, तुम्हारा चुनाव क्या होगा? और अगर तुम सोना ही चुनना चाहो तो तुमने अभी आखिरी भोजन नहीं किया। अभी बर्तन तुम साफ कर भी कैसे सकोगे? क्योंकि तुम साफ कर भी न पाओगे, नई वासनाएं तुम्हारे बर्तन को फिर गंदा कर जाएंगी।
तुम मन को शांत करना चाहते हो? महत्वाकांक्षी व्यक्ति अगर मन को शांत करेगा, कैसे सफल होगा? क्योंकि हर महत्वाकांक्षा मन को गंदा कर जाती है। जब भी तुम भरते हो आकांक्षा से कि कुछ पा लूं, कहीं पहुंच जाऊं, कुछ हो जाऊं, तभी तुम फिर गंदे हो गए। महत्वाकांक्षी चित्त मन को शांत नहीं कर सकता। महत्वाकांक्षा शून्य चित्त ही मन को शांत कर सकता है।
ठीक कहा जोशू ने। तुम भी अपने से पूछना, क्या आखिरी भोजन हो चुका? तो फिर देर क्यों कर रहे हो? जाओ, और बर्तन साफ कर लो।
बर्तन साफ होते ही तुम स्वयं मोक्ष हो। वह निर्मलता, जो तुम्हारा स्वभाव है, प्रगट हो जाएगी। वह दीया जो बिन बाती बिन तेल जलता है, जिससे कोई धुआं नहीं उठता--धूम्रहीन! जिसमें किसी ईंधन का उपयोग नहीं होता है, इसलिए कोई कचरा पैदा नहीं होता; जो तुम्हारे भीतर के आकाश को दूषित नहीं करता, वह दीया तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। वह जल ही रहा है, लेकिन उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं है।
दौड़ने वाले आदमी का ध्यान सदा कहीं और है--स्वयं को छोड़कर। वह सब देखता है, अपने भर को नहीं देखता। उसे फुरसत भी नहीं है अपने को देखने की। उसकी आंखें सब तरफ भटकती हैं। एक जगह को वह छोड़ देता है--खुद को। तुम्हारी आंख तुम्हारी खोज पर जब ही निकलेगी जब और कहीं खोजने को कुछ भी न बचेगा। जब तुम कह सकोगे कि ठीक है, देख लिया। ये सब रास्ते चल लिए, कहीं पहुंचे नहीं। ये सब स्वाद ले लिए; इनसे भूख बढ़ती है, घटती नहीं। ये सब जल पी लिए; इनसे प्यास जलती है, समाप्त नहीं होती। ये सब आकांक्षाएं पूरी करके देख लीं, कुछ भी पूरा नहीं होता। सब अधूरा का अधूरा रह जाता है।
जिस दिन तुम्हें ऐसा लग जाए, आखिरी भोजन हो गया।
आखिरी भोजन के बाद ध्यान बड़ी सरल घटना है। शायद कुछ करना भी न पड़े। बर्तन का गंदा होना बंद हो गया। पुराने बर्तन को साफ कर लेना कितनी कठिनाई की बात है? जरा-सी भी कठिनाई नहीं।
जोशू की कथा को भीतर सोचना और एक बात खयाल रखना: पके बिना तुम वृक्ष से न गिर सकोगे। और कच्चे तुम गिरने की कोशिश मत करना। कच्चा गिरकर कोई भी कहीं पहुंचता नहीं, सिर्फ सड़ता है। इससे मेरी बात बड़ी कठिन मालूम पड़ती है कि साधारणतया तुम किसी और के पास जाओ तो वह कहेगा, 'धन्यभाग, कि तुम संसार छोड़कर और प्रार्थना पूजा में उत्सुक हो रहे हो।'
मैं तुमसे नहीं कहूंगा, धन्यभाग! क्योंकि मैं जानता हूं कि यह तुम्हारा दुर्भाग्य भी हो सकता है। दुर्भाग्य तब होगा, जब तुम्हारा मन तो अभी दुकान से तो भरा नहीं था और तुम मंदिर आ गए। यह मंदिर झूठा होगा। और दुकान तुम्हें खींचती रहेगी। और मंदिर में तुम प्रार्थना करोगे, लेकिन सिर तुम्हारा दुकान में झुका रहेगा। यहां परमात्मा के चरण तुम पकड़े रहोगे, लेकिन तुम्हारे हाथ परमात्मा के चरणों तक नहीं पहुंचेंगे। यह सब झूठा-झूठा होगा। और झूठ से कहीं कोई यात्रा होती है स्वर्ग की, या मोक्ष की या आनंद की? झूठ से तुम कहीं भी न जाओगे।
झूठे मत होना; प्रामाणिक होना। और मैं कहता हूं, कोई चिंता नहीं, तुम दुकान पर ही प्रामाणिक हो जाना। तुम कह देना कि अभी कैसा परमात्मा? कैसा मोक्ष? अभी मैंने संसार भी नहीं जाना। यह तुम्हारी ईमानदारी होगी। इस आदमी को मैं धार्मिक कहता हूं। क्योंकि यह कम से कम सच्चा है। और जो सच्चा है, वह ज्यादा देर तक नहीं भटक सकता। जो झूठा है, उसकी बड़ी कठिनाई है; वह खुद को तक धोखा दे लेता है। वह खुद से भी झूठ बोल लेता है। वह खुद को भी समझा लेता है। वह खुद के साथ भी वंचना करता है।
मैंने सुना है, एक पुलिस का आदमी रात एक रास्ते से निकल रहा था। और उसने एक दुकान के भीतर बड़ा शोरगुल सुना। जैसे दो आदमी भारी विवाद कर रहे हैं और हालत ऐसी है कि सिर फुटव्वल हो जाएगी। उसने दरवाजा खटखटाया। दुकान के मालिक ने दरवाजा खोला। पुलिस के आदमी ने अंदर झांककर देखा, वहां कोई और दूसरा नहीं है। उसने कहा कि अभी मैं सुन रहा था कि यहां आवाज दो की थी और विवाद काफी था। और गर्मी इतनी थी कि मुझे लगा कि कुछ खतरा होने वाला है। दूसरा आदमी कहां है?
वह दुकानदार हंसा, और उसने कहा कि जाने भी दीजिए कोई दूसरा है नहीं; मैं अपने से ही बातें कर रहा था। उस पुलिसवाले ने कहा, 'हद हो गई! लेकिन आवाज बिलकुल अलग-अलग मालूम पड़ रही थी।' उस आदमी ने कहा, 'यह बात ठीक है, क्योंकि मेरे भीतर कई आवाजें हैं।' और उसने कहा, 'यह भी ठीक है, लेकिन विवाद भी चल रहा था, और एक दूसरे का खंडन हो रहा था।' उसने कहा वह भी ठीक है। जब भी मैं अपने से बात करता हूं तो विवाद शुरू हो जाता है। पुलिसवाले ने कहा, लेकिन खुद से तुम विवाद कैसे करते हो? तो उसने कहा कि मुझे झूठी बातें बिलकुल नापसंद हैं। और मैं ऐसा झूठा हूं कि खुद से भी झूठ ही बोलता हूं; फिर विवाद शुरू हो जाता है। फिर मैं इतना गुस्से में आ जाता हूं कि गर्दन दबा दूंगा, अगर झूठ बोले।
तुम अगर अपने को पकड़ोगे तो कई मौके पाओगे जब तुम खुद से झूठ बोल रहे हो। और दूसरे से झूठ बोलना क्षमा किया जा सकता है, खुद से झूठ बोलकर तुम कहां जाओगे? जब तुम मंदिर में हाथ जोड़े खड़े हो, तब पूछना कि ये हाथ सच में जुड़े हैं, या तुम अपने से झूठ बोल रहे हो? बेहतर है तुम दुकान पर ही रुकना; दुकान का अनुभव पूरा हो जाने दो। दुकान इतनी निस्सार है कि तुम कितनी देर रुकोगे? लेकिन अगर तुम बीच-बीच मंदिर जाते रहे तो खतरा है। तुम बहुत ज्यादा रुक जाओगे। क्योंकि बीच में मंदिर आने से फिर दुकान में रस जग जाता है।
मैंने सुना है कि एक आदमी अपने मित्र को कह रहा था कि पिछले तीन महीने परम आनंद के थे। तुम्हारी भाभी ने ऐसा सुख दिया कि जैसे फिर हनीमून वापिस लौट आया; फिर सुहागरात आ गई। उस मित्र ने कहा ऐसा! तुम्हारे विवाह हुए तो कोई बीस साल हो गए। उसने कहा कि हां, बीस साल बाद फिर से जैसे सुहागरात वापिस आई। ये तीन महीने ऐसे आनंद के थे, रस ही रस बह गया। मित्र ने पूछा, फिर तुम आज उदास क्यों मालूम पड़ रहे हो? उसने कहा कि आज पत्नी मायके से तीन महीने के बाद वापस लौट रही है।
जब पत्नी मायके होती है, तब सब रस वापस लौट आता है। जब तुम मंदिर में जाते हो, तब दुकान मायके में है। सब रस वापस लौट आता है। जब तुम प्रार्थना करते हो तब धन मायके में है। तब सब रस वापस लौट आता है। जब तुम ध्यान करते हो, तब सारा संसार तुमने मायके भेज दिया। फिर सुहागरात वापस आ जाती है।
दूरी होते से ही रस पैदा हो जाता है। हो सकता है तुम बड़े होशियार हो; तुम मंदिर इसलिए जाते हो ताकि दुकान का रस बिलकुल मर न जाए। हो सकता है तुम बड़े चालाक हो; तुम इसीलिए गीता पढ़ लेते हो, कुरान पढ़ लेते हो, बाइबिल सुन लेते हो, संतों के पास बैठ आते हो ताकि जिंदगी का, संसार का रस कायम रहे। संतों की बात सुनकर जब फिर तुम धन की आवाज सुनते हो, खनक सुनते हो तो खनक में जो माधुर्य और सौंदर्य मालूम पड़ता है, कान फिर से जीवित हो जाते हैं।
उपवास करके भोजन किया है? बस वैसा ही! उपवास करके भोजन में रस लौट आता है। स्वाद पुनरुज्जीवित हो जाता है।
तुम्हारा धर्म तुम्हारा धोखा है। तुम्हारा सत्संग तुम्हारी प्रवंचना है। तुम संतों के पास जा कैसे सकते हो, जब तक कि आखिरी भोजन न हो गया हो? और जिस दिन आखिरी भोजन हो जाएगा उस दिन तुम जहां हो, वहां संत प्रगट होने लगेंगे। वहां कोई तुम्हारे द्वार-दरवाजे को खटखटाते आने लगेगा।
इस युवक को जाने की जरूरत न थी जोशू के पास; जोशू गया होता। आखिरी भोजन भर हो जाए!
हर वासना को जल्दी आखिरी करो। और जितनी त्वरा में भोग सको, उतनी जल्दी आखिरी हो जाए। और बीच-बीच में स्वाद मत बदलो। पत्नी को मायके मत भेजो, नहीं तो छुटकारा कभी भी न होगा। रस फिर-फिर लौट आएगा। फिर तुम एक वर्तुल में घूमते रहोगे।
भोगो संसार को। डर कुछ भी नहीं है। क्योंकि संसार इतना असार है कि भोगकर भी तुम भटक तो नहीं सकते। भोगकर कोई कभी भटका नहीं। अधूरा भोगी भटकता है। तुम भोगो संसार को। धन इतना व्यर्थ है कि तुम कब तक ढोओगे उसका वजन? साफ हो जाएगा। सोने में कुछ सार तो नहीं है, लेकिन सोना पास में न हो तो बहुत सार है। पास हो तभी निस्सार है। तुम संसार को पा ही लो, जितना पा सकते हो। तुम उसको चख लो भरपूर। आकंठ तुम भर जाओ। वह इतना व्यर्थ है कि डर का कोई कारण नहीं। उसकी व्यर्थता जब उसकी संपूर्णता में प्रगट होगी...!
गुरजिएफ ने कहा है कि जब मैं बच्चा था तो काकेशस में मिलने वाले एक फल से मुझे बड़ा लगाव था। वह लगाव इतना ज्यादा था, कि उस फल को मैं अकसर ज्यादा खा लेता और पेट में दर्द हो जाता और तकलीफ होती, बुखार आ जाता। जंगली फल! और बच्चे उसको खाना पसंद करते।
तो गुरजिएफ ने कहा है कि मेरे दादा ने एक दिन एक टोकरी भर फल लाए और कहा कि तू मेरे सामने बैठ और खा। गुरजिएफ बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने फल खाना शुरू किया लेकिन दादा डंडा लिये बैठा था। जब वह हटने लगा खाकर, उसने कहा 'बैठ, आज यह टोकरी पूरी करनी है।' गुरजिएफ ने कहा, 'क्या मेरी जान लेनी है? अब मैं अब और नहीं खा सकता। मैं जितना खा सकता था वह तो पहले ही खा चुका हूं।' उसके दादा ने कहा, 'नहीं, अभी तू और खा सकता है। तू कोशिश कर।' थोड़ी उसने और कोशिश की। उसने कहा, कि 'अब तो मुश्किल है, अब तो वमन हो जाएगा।' उसके दादा ने कहा कि 'वमन हो जाए, लेकिन अब रुकना नहीं है। यह टोकरी पूरी करनी है।'
गुरजिएफ ने लिखा है, तब तक खिलाया मेरे दादा ने--वह डंडा लिए बैठा रहा--जब तक कि मैं नारकीय अनुभव न करने लगा। और चिल्लाने लगा, रोने लगा, भागने लगा, लेकिन वह राजी नहीं था। वह कहता था और! जब तक कि वमन नहीं हो गया, और मैं बेहोश होकर न गिर गया। लेकिन बस, वह आखिरी दिन था।
गुरजिएफ ने लिखा है, उस दिन के बाद वह फल मैंने चखा नहीं। उस बात को बीते कोई पचास साल हो गए, तब उसने यह घटना दोहराई; फिर मैंने वह चखा नहीं। उस झाड़ के नीचे से भी निकलता हूं तो उस फल को देखकर मेरे रोंगटे कंपने लगते हैं, भयभीत हो जाता हूं।
यही मैं तुमसे कहता हूं; तुम संसार की टोकरी सामने रखकर चख ही लो। तुम आखिरी भोजन कर ही लो। तुम वहां तक मत रुको, जहां तक कि वमन न हो जाए। जब तुम्हारी वासनाओं का वमन हो जाता है, ध्यान निन्यान्नबे प्रतिशत पूरा हुआ। फिर काम बड़ा छोटा बचता है। वह उतना ही काम है, जैसा सांझ गृहिणी जब भोजन चुक जाता है तो बर्तन को धोकर रख देती है।

भगवान : ...और कुछ?
भगवान! भगवान बुद्ध तो दुख से नहीं भागे थे, सुख से भागे थे। पूरा भोजन ही नहीं, आखिरी भोजन करके निकले थे। लेकिन भगवान, उनको भी ध्यान खोजने में वर्षों क्यों लगे?

बुद्ध निश्चित ही सुख से भागे इसीलिए वर्षों में काम पूरा हो गया, जनम न लगे। तुम सोचते हो वर्षों लगे? तुम्हें लगता है कि बहुत ज्यादा समय लगा? छह साल कोई वक्त है? जहां तुम्हारे हजारों जन्म हुए हों, वहां छह साल कोई समय है? तुम्हें लगता है कि छह साल! इतने छह साल ज्यादा क्यों लगते हैं?
एक बच्चा स्कूल में पढ़ने जाता है, तुम कभी नहीं कहते कि सात साल में मेट्रिक होगा, सिर्फ मेट्रिक होगा? फिर छह साल में ग्रेजुएशन की डिग्री मिलेगी, सिर्फ ग्रेजुएट होगा? फिर तीन साल, दो साल लगेंगे तो डाक्टरेट की डिग्री मिलेगी। आधी जिंदगी सर्टिफिकेट इकट्ठा करने में लग जाती है, लेकिन कोई कभी नहीं कहता कि इतना ज्यादा समय? बुद्धत्व छह साल में मिलता हो तो भी हमें लगता है, ज्यादा समय लग गया!
क्या कारण है? असल में युनिवर्सिटी से हमारी महत्वाकांक्षा जुड़ी है। उससे कुछ धन, पद, प्रतिष्ठा, मिलने वाली है। इसलिए कितना भी समय लगे, थोड़ा लगता है। और बुद्धत्व में हमें कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं; क्या मिल गया? किसी एम्प्लाइमेंट दफ्तर के 'क्यू' में बुद्ध खड़े हो जाते तो आफिसर कह देता कि सर्टिफिकेट कहां है? कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से कोई नौकरी मिलती है? कि बुद्ध अगर बेचने जाते अपने बुद्धत्व को तो कितने पैसे मिल सकते थे? क्या मिलता? कौन खरीदता? किसको मतलब है? लोग मुफ्त भी बुद्धत्व लेने को तैयार नहीं हैं।
कोई तुम्हारे घर अचानक आ जाए, और कहे कि बुद्धत्व तुम्हें देता हूं। तुम कहोगे, ठहर भाई! सोच लेने दे। पत्नी से बात कर लेने दे। बच्चे भी हैं। यह उपद्रव इतनी जल्दी नहीं। और फिर सार क्या है?
हमें लगता है कि छह साल काफी लंबे हैं! लंबे क्यों लगते हैं? लंबे लगने का कारण छह साल की लंबाई नहीं है। छह साल के बाद जो मिलता है, उसमें हमें कुछ सार नहीं दिखाई पड़ता। निस्सार बुद्धत्व मिलता है और छह साल भटककर! छह साल में तो दुकान जम जाती। छह साल में तो दिल्ली पहुंच जाते। छह साल में तो क्या से क्या नहीं हो जाता! और कुल बुद्धत्व मिला!
तो पहली तो बात यह है कि हम समय का माप करते हैं आकांक्षा से। और फल क्या मिल रहा है, उससे हम सोचते हैं। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर साठ जन्मों में भी बुद्धत्व मिलता तो भी जल्दी मिला है। क्योंकि जो मिलता है वह अकूत है। छह साल से क्या उसकी गणना? जल्दी मिला। छह साल कोई वक्त है? कोई भी वक्त नहीं। पलक झपके निकल गए छह साल।
लेकिन फिर भी पूछने जैसा है कि जब सुख से बुद्ध जाग गए, और उन्हें लगा कि सब जीवन असार है, तब तो बर्तन धोना ही बचा था; तो जल्दी हो जाना चाहिए।
जल्दी ही हो गया है। लेकिन बर्तन धोने में...थोड़ा सोचना पड़ेगा, क्योंकि कितने-कितने जन्मों का भोजन उन बर्तनों से लगा है! बुद्ध को जो सफाई करनी पड़ी है, यह सफाई बहुत पुरानी है, धूल-धूसरित व्यक्तित्व की है। दर्पण एकदम गंदा हो गया है। और धूल इतने दिनों की जमी है कि बिलकुल पत्थर जैसी हो गई है। पुरानी आदतों का जाल है। तुम जाग भी जाओ तो भी आदतें पीछा करती हैं। तुम संसार से हट भी जाओ, तो भी इतना आसान नहीं है क्योंकि संसार बाहर ही तो नहीं था, भीतर भी था।
फिर बुद्ध की तलाश उस व्यक्ति की, जो पहुंचने की कला बता दे; जो बर्तन को साफ करने की कला बता दे। क्योंकि अगर बर्तन साफ करने की कला न आती हो तो यह भी हो सकता है कि साफ करने में तुम और गंदा कर लो। क्योंकि नाजुक है बात! मन से नाजुक बर्तन खोजना कठिन है। तुम अपनी घड़ी को भी अगर बिगड़ जाए तो खोलकर नहीं बैठ जाते हो सुधारने। कुछ नासमझ बैठ जाते हैं, फिर वह कभी नहीं सुधरती। घड़ी बिगड़ जाए तो तुम जाते हो जानकार के पास। क्योंकि घड़ी भी बड़ा महीन जाल है।
लेकिन घड़ी में क्या जाल है? कुछ भी जाल नहीं। अगर मनुष्य के मन को तुम समझो तो इससे बड़ा जटिल कोई यंत्र जगत में अब तक नहीं है। और संभावना भी नहीं है कि हम कभी इससे जटिल यंत्र पैदा कर सकेंगे।
इस छोटी-सी खोपड़ी के भीतर, जिसका वजन मुश्किल से कोई डेढ़ किलो है, कोई सात करोड़ तंतु हैं। और प्रत्येक तंतु अरबों सूचनाओं को संग्रहीत कर सकता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जितने पुस्तकालय हैं पृथ्वी पर, एक व्यक्ति स्मरण कर सकता है--चुकता! न कर पाओ यह दूसरी बात है, लेकिन क्षमता है। मस्तिष्क बड़ा बारीक और बड़ा जटिल है। सारे जगत का ज्ञान उसमें इकट्ठा हो सकता है। ज्ञान ही इकट्ठा नहीं होता है, सारे जगत की धूल भी इकट्ठी हो सकती है। जिसको तुम ज्ञान कहते हो, अकसर धूल ही होती है।
सफाई समय लेगी। लेकिन छह साल कोई बड़ा समय नहीं है।
फिर बुद्ध एक-एक द्वार पर गये, जहां-जहां उन्हें आशा थी कि कोई सफाई करवाने वाला मिल जाए। बुद्ध ने होशियारी का काम किया। बुद्ध घड़ी को खोलकर नहीं बैठ गए। नहीं तो शायद छह साल भी काफी न होते। बुद्ध ने विशेषज्ञ को खोजा कि कोई जो खोल चुका हो, जान चुका हो, जिससे सीधा रास्ता मिल जाए। क्योंकि कभी-कभी छोटी-सी ही भूल-चूक होती है, सुधारने में और बिगड़ जाती है।
मैंने सुना है, कि एक बहुत बड़ी फैक्ट्री में एक कंप्यूटर लगाया गया। बड़ा कीमती कंप्यूटर था। कुछ बिगड़ गया। सारी फैक्ट्री बंद हो गई। दस हजार लोग काम करते थे, उनकी जगह कंप्यूटर अकेला ही काम करता था। सारी फैक्ट्री ठप्प हो गई। एक विशेषज्ञ को बुलाया गया। उसने जरा-सा एक स्क्रू कसा, सब काम शुरू हो गया। मालिक प्रसन्न हुआ, उसने उसकी फीस पूछी। तो उसने कहा, 'पांच हजार डालर।'
'पांच हजार डालर?' एक सेकेंड भी नहीं लगा उसे स्क्रू को कसने में। तो उस मालिक ने पूछा कि यह जरा ज्यादा है। सिर्फ जरा-सा स्क्रू कसने के पांच हजार डालर?
उसने कहा कि 'नहीं, स्क्रू का तो एक डालर कसने का। लेकिन कैसे कसना, उसके चार हजार नौ सौ निन्यान्नबे डालर। स्क्रू कसने का तो एक ही डालर लेता हूं। लेकिन कैसे कसना, कहां कसना, कौन-सा स्क्रू ढीला है, उसके लिए मैंने जिंदगी लगा दी; उसके दाम ले रहा हूं। और स्क्रू कसवाना हो तो किसी और से अगली दफा कसवा लेना।'
तो बुद्ध तलाश में गए किसी विशेषज्ञ की, किसी गुरु की, जो चल चुका रास्ते पर, जो पहुंच चुका मंजिल पर। जिससे व्यर्थ का भटकाव बचेगा, यहां-वहां के रास्तों पर जाने से बचाव हो जाएगा। क्योंकि बड़ी भूल-भुलैया है। अनेक गुरुओं के पास गए। गुरु थे और काफी दूर तक जानते थे। लेकिन ऐसा कोई गुरु न मिला, जो बुद्धत्व दे सके। क्योंकि बुद्धत्व की आकांक्षा बड़ी अनूठी थी।
यहां फर्क समझ लें। बुद्ध तो सुख से ऊबकर आए थे; जिन गुरुओं के पास गए, वे दुख से ऊबकर आए थे, इसलिए बड़ी मुसीबत थी। जिन गुरुओं के पास गए उन्होंने भी ध्यान साधा था, लेकिन उन्होंने ध्यान एकाग्रता का साधा था, जिससे और शक्ति मिलती है। मंत्रत्तंत्र साधा था, योग साधा था। बड़े शक्तिशाली हो गए थे। बीमार आदमी को छू दें तो स्वस्थ हो जाए। जिंदा आदमी को छू दें तो मुर्झा जाए। ताकत थी उनके पास, शक्ति थी। लेकिन बुद्ध कोई बीमारी ठीक करवाने न आए थे। अंधी आंखें नहीं थीं उनकी, जिनको छूने से आंखें मिल जाएं। वह भीतर की आंख चाहते थे।
सब गुरुओं को उन्होंने थका डाला। बड़ी मीठी कथा है कि हर गुरु ने आखिर में उनसे कहा कि अब तू जा। क्योंकि जो हम जानते थे वह हमने बता दिया, लेकिन उससे तेरी तृप्ति नहीं। बुद्ध कहते, मैं शांति की तलाश में आया हूं, शक्ति की तलाश में नहीं। मुझे बीमारी ठीक नहीं करनी, मुझे चमत्कार नहीं करने, हाथ से ताबीज नहीं निकालने, यह मुझे करना नहीं। मुझे तो वह जानना है, जो परम सत्य है; जो आत्यंतिक सत्य है। वह मुझे जानना है। वह है या नहीं! मुझे तो मेरी परम सत्ता का उदघाटन करना है। मुझे दूसरों को प्रभावित नहीं करना है। मैं मान लेता हूं कि तुम आंख से इशारा करते हो, पक्षी आकाश से नीचे गिर जाता है--जैसे तीर लग गया! ऐसी तुम्हारी एकाग्रता है। सिर्फ आंख के तीर से आकाश में उड़ता पक्षी नीचे गिर जाता है। तुम्हारा निशाना कभी नहीं चूकता, लेकिन मुझे कोई पक्षी गिराना नहीं। इसे करूंगा क्या? माना कि तुम पानी पर चल जाते हो, लेकिन वह काम तो नाव से ही हो जाता है। उसकी मुझे चिंता नहीं है।
बहुत गुरुओं के पास बुद्ध गए। सभी गुरुओं ने देखा कि इसकी आकांक्षा ही कुछ और है, इसकी खोज कुछ और है। यह शक्ति नहीं खोज रहा, यह परम शांति खोज रहा है। उन्होंने कहा, उसका तो हमें भी पता नहीं। हम योग जानते हैं, मंत्र जानते हैं, तंत्र जानते हैं। तुम जो भी सीखना चाहो सीख लो, लेकिन यह निर्वाण, यह मोक्ष, इसका हमें भी पता नहीं।
ये छह साल बुद्ध अनेक-अनेक मार्गों पर गए, अनेक विधियां कीं, अनेक साधन किए, और सभी साधन व्यर्थ पाए। और सभी विधियां व्यर्थ पाईं।
यह समझ लेना जरूरी है। मोक्ष की कोई विधि नहीं हो सकती। क्योंकि जो विधि से पाया जाए, वह विधि से बड़ा नहीं हो सकता। मोक्ष का कोई मार्ग नहीं हो सकता, क्योंकि जो मार्ग से पहुंचा जाए, वह अंत नहीं हो सकता। उसके आगे भी मार्ग हो सकते हैं। मोक्ष की कोई तरकीब नहीं हो सकती क्योंकि जो तरकीब से मिल जाए, उसकी क्या कीमत है? वह तुमसे छोटा होगा। तुम्हारी तरकीब से मिल गया।
बुद्ध उसको खोज रहे थे, जो खोजने से मिलता ही नहीं। वह तभी मिलता है जब खोज खो जाती है। संसार व्यर्थ हो गया, आधी खोज पूरी हो गई। लेकिन बुद्ध के मन में एक नई खोज पैदा हो गई--मोक्ष को खोजने की; यह भी उपद्रव है। इससे छह साल लगे। संसार नहीं खोजना, साफ हो गया। लेकिन मोक्ष खोजना है--खोज जारी है। जो पहले संसार खोज रहा था, अब मोक्ष खोज रहा है। लेकिन खोज जारी है। दौड़ने वाला जिंदा है। महत्वाकांक्षी भीतर मौजूद है। छह साल थक गए।
एक खोज पहले खत्म हो गई थी संसार की, दूसरी खोज भी खत्म हो गई मोक्ष की। खोज ही खत्म हो गई।
जिस सांझ बुद्ध को मुक्ति का अनुभव हुआ, उस दिन वह कुछ भी नहीं खोज रहे थे। उस दिन वृक्ष के नीचे वे शांत बैठे थे। जब तक खोज है, तुम शांत होओगे कैसे? क्योंकि खोज अशांत करती है। अभी तक नहीं मिला, कब मिलेगा? मिलेगा कि नहीं मिलेगा? कहीं मैं भटक तो नहीं जाऊंगा? खोज विचार पैदा करती है, अशांति पैदा करती है।
उस दिन बुद्ध को...जैसा छह साल पहले महल छोड़ा था उन्होंने, ऐसा ही मंदिर भी छोड़ दिया। दुकान पहले छूट गई थी, यह मंदिर भी उसी दुकान का हिस्सा था, यह भी छूट गया। एक पहलू पहले समाप्त हुआ, दूसरा भी समाप्त हुआ। पूरा सिक्का बुद्ध के हाथ से गिर गया। उस रात वे सोये। कोई खोज न थी, कहीं जाना न था, कुछ पाना न था। न कोई मोक्ष, न कोई परमात्मा, न कोई शांति, न कोई आनंद। कुछ भी नहीं पाना था। बस! उस वृक्ष के नीचे वे सिर्फ थे। उसी दिन घटना घट गई।
भोजन तो हो चुका था, उस रात बर्तन साफ हो गये।
बर्तन उसी दिन साफ होते हैं, जब तुम्हारी सब खोज मिट जाती है। बर्तन उसी दिन साफ होते हैं, जिस दिन तुम्हारी सब आकांक्षा गिर जाती है।
और जब मैं कहता हूं सब, तो मेरा अर्थ है सब!
अगर तुम ध्यान की भी आकांक्षा कर रहे हो तो बर्तन साफ न होंगे। ध्यान भी भोजन है। वह भी बर्तन को गंदा करेगा।
संसार में दो तरह के महत्वाकांक्षी हैं: एक संसारी और एक धार्मिक; दोनों महत्वाकांक्षी हैं। दोनों पदातुर हैं, दोनों कुछ पाना चाहते हैं।
एक तीसरे तरह का व्यक्ति कभी-कभी घटता है, वह अनूठी घटना है; जो कुछ भी नहीं पाना चाहता।
और जब तुम कुछ भी नहीं पाना चाहते, तब तुम सब कुछ हो जाते हो। उसी क्षण बर्तन साफ हो गए। निर्मलता उपलब्ध हो गई। वह दीया जलने लगा, जो बिन बाती बिन तेल जलता है।
आज इतना ही।




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