दिनांक
23 जून 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
झेन
संत, होजेन अपने
शिष्यों से
कहा करते थे, कि ध्यान उस
आदमी की तरह
है,
जो
एक ऊंची
चट्टान के
किनारे खड़े
वृक्ष को दांत
से पकड़कर
लटक रहा है।
न
उसके हाथ किसी
डाली को थामे
हैं, और
न उसके पांवों
को ही कोई
सहारा है।
और
तभी चट्टान के
किनारे खड़ा
दूसरा आदमी
उससे पूछता है,
'बोधिधर्म
भारत से चीन
क्यों आये?'
यदि
वह उत्तर नहीं
देता है तो वह
खो जायेगा और
अगर
उत्तर देता है
तो वह मर
जायेगा।
वह
क्या करे?
और भगवान!
क्या ध्यान
ऐसी असंभव
साधना है
कि
उपनिषद उसको
छुरे की धार
पर चलना कहते
हैं?
ध्यान
की साधना तो
कठिन है, लेकिन
असंभव नहीं; पर ध्यान की
अभिव्यक्ति
असंभव है।
ध्यान करना
आसान है।
ध्यान क्या है,
यह बताना
अति कठिन है; करीब-करीब
असंभव।
क्योंकि
ध्यान इतनी भीतरी
अनुभूति है, शब्द उसे
प्रगट नहीं कर
पाते। और जो
भी शब्दों में
उसे प्रगट
करने की कोशिश
करता है, वह
अनुभव करता है
कि जो कहना
चाहता था, वह
नहीं कहा गया।
जो नहीं कहना
था, वह
शब्दों से
प्रगट हो गया।
जो कहना था वह
भीतर छूट गया।
खाली कोरे
शब्द चले
गए--मुर्दा! निष्प्राण!
ध्यान
कर लेना इतना
कठिन नहीं, लेकिन ध्यान
से जो जाना
जाता है वह
उसे बता देना,
जिसने कभी
ध्यान न किया
हो; करीब-करीब
असंभव है।
यह
कहानी ध्यान
की कठिनाई के
संबंध में
नहीं है, यह
कहानी ध्यान
को बताने के
संबंध में है।
कहानी
बड़ी प्रीतिकर
है। एक आदमी लटका
है एक वृक्ष
के पत्तों को
मुंह से पकड़े
हुए। मुंह ही
एकमात्र
सहारा है; उसी से वह वह
वृक्ष से लटका
है। नीचे
भयंकर खड्ड
है। बोला, कि
गया! और वहां
उससे कोई
पूछता है कि
बोधिधर्म
भारत से चीन
क्यों आया?
पहले
तो इस सवाल को
समझ लें कि
झेन परंपरा का
यह पारिभाषिक सवाल
है। कोई चौदह
सौ वर्ष पहले
एक बहुत अनूठा
आदमी भारत से
चीन गया। उस
अनूठे आदमी का
नाम था
बोधिधर्म।
भारत से जो
लोग बाहर गये
हैं, इससे
ज्यादा अनूठा
आदमी कभी भारत
के बाहर नहीं
गया।
बोधिधर्म
चीन क्यों गया?
झेन
फकीर इस सवाल
को पूछते हैं।
यह एक पहेली है।
बोधिधर्म
भारत से चीन
गया, बड़े गहन
कारण थे उसके।
उसके पास कोई
संपदा थी, जो
वह किसी को
देना चाहता था;
लेकिन लेने
वाला आदमी न
मिला। मजबूरी
में उसे चीन
जाना पड़ा
खोजने, इस
आशा में कि
शायद कोई चीन
में मिल जाये।
संपदा
सभी को तो
नहीं दी जा
सकती। हीरे
उन्हीं को
दिये जा सकते
हैं जो पारखी
हों; अन्यथा
हीरे फेंक दिए
जायेंगे, खो
जायेंगे।
क्योंकि जो
नहीं जानते
उनके लिए तो
हीरा पत्थर है;
उनके लिए
हीरा खिलवाड़
हो जायेगा और
खोने में
ज्यादा देर न
लगेगी।
ध्यान
की जो संपदा
है, वह तो
अदृश्य है; उसके पारखी
खोजना तो बहुत
मुश्किल है।
और जो उसे
लेने को तैयार
न हों उन्हें
देने का कोई
उपाय नहीं है।
अभी जिनके
हृदय के द्वार
बिलकुल खुले
हों, केवल
वे ही उस
संपदा को
संभाल
पाएंगे।
तो
बोधिधर्म
दरवाजे
खटखटाता था
अनेक लोगों के
लेकिन पाया
उसने कि कोई
आदमी खोजना
मुश्किल है।
आखिर भारत
जैसे देश में, जहां ध्यान
की इतनी लंबी
परंपरा है, कि इतनी
लंबी परंपरा
संसार में
कहीं भी नहीं;
वहां
बोधिधर्म को
एक आदमी न
मिला, जिसको
वह ध्यान की
संपदा दे देता?
इसलिए
प्रश्न पूछने
जैसा है कि
बोधिधर्म चीन क्यों
गया?
लेकिन
उसके पीछे
कारण हैं। इसी
कारण कि भारत
के पास ध्यान
की बड़ी पुरानी
संपदा है, भारत ने उसे
खो दिया। कुछ
संपदाएं ऐसी
हैं कि उन्हें
अगर रोज नया न
किया जाये, तो वे खो
जाती हैं। कुछ
संपदाएं ऐसी
हैं कि अगर
पुरानी हो
जायें, सड़ जाती हैं।
कुछ संपदाएं
ऐसी हैं कि
अगर आप आश्वस्त
हो जायें कि
वे आपके हाथ
में हैं, तो
आपके हाथ रिक्त
हो जाते हैं।
भारत
की ध्यान की
परंपरा अति
प्राचीन है।
इतिहास के पार
जाती है
यात्रा; प्रागैतिहासिक
है। मोहनजोदड़ो,
हरप्पा जैसे
पुराने अवशेष,
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कोई सात हजार
वर्ष पुराने
हैं। वहां भी
मूर्तियां
मिली हैं, जो
ध्यानस्थ
हैं। सात हजार
साल पहले भी हरप्पा और
खजुराहो में
कोई न कोई
ध्यान कर रहा
था।
फिर
बोधिधर्म को
भारत में कोई
मिल क्यों न
सका ग्राहक, खरीददार? परंपरा इतनी
पुरानी हो गई,
और शब्द
इतने रटे-रटाये
हो गए, और
शास्त्र इतने
कंठस्थ हो गए,
कि लोग
ध्यान के संबंध
में तो जानने
लगे, ध्यान
को भूल गए। और
ध्यान के
संबंध में
जानना एक बात,
ध्यान को
जानना बिलकुल
दूसरी बात।
प्रेम
के संबंध में
जानना एक बात, और प्रेम को
जानना बिलकुल
दूसरी बात। आप
पंडित भी हो
सकते हैं, प्रेम
के संबंध में
सारा शास्त्र
पढ़ डालें। प्रेम
पर शोधकार्य
भी कर सकते
हैं। कोई
विश्वविद्यालय
आपको डी. लिट.
की डिग्री भी
दे दे, लेकिन
प्रेम करना
बात और है; क्योंकि
प्रेम करने
में तो मिटना
होता है। प्रेम
तो बड़ी खतरनाक
यात्रा है।
वहां तो
अहंकार समाप्त
होता है। वहां
तो बूंद खोती
है सागर में।
प्रेम
तो इस जगत में
असंभव जैसी
घटना है
क्योंकि वहां
आप कम महत्वपूर्ण
और दूसरा
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है। वहां
आपकी आत्मा
जैसे दूसरे
में समा जाती
है। जैसे उसका
जीवन आपका
जीवन, उसकी
मृत्यु आपकी
मृत्यु हो
जाती है। यह
असंभव घटना
है। दूसरे का
साधन की तरह
उपयोग नहीं, साध्य की
तरह उपयोग--असंभव
है। तो प्रेम
तो बहुत कठिन
है। प्रेम के
संबंध में
जानना बहुत
आसान है।
शास्त्र
खरीदे जा सकते
हैं।
सिद्धांत
कंठस्थ हो सकते
हैं।
ध्यान
के संबंध में
भारत को इतनी
बातें पता चल
गईं कि लोगों
ने समझा कि अब
ध्यान करने की
कोई जरूरत
नहीं; सब
मालूम है। और जब
सब मालूम ही
है तो अब और
खोज करने को
क्या रहा? बुद्ध-महावीर
खो गए, बुद्ध
और महावीर की
वाणी हाथ में
रह गई।
बोधिधर्म
भटकता रहा।
पंडित उसे
मिले जो बड़े जानकार
थे। शास्त्र
जिनकी जीभ पर
रखा था। सरस्वती
के जो
वरद-पुत्र थे
और गणित में
उनका कोई मुकाबला
न था। तर्क
उनसे करें तो
हार के सिवाय
आपको कुछ भी न
मिलेगा।
लेकिन वे
आंखें न मिलीं, जो ध्यानस्थ
हों। वह हृदय
न मिला, जो
ध्यान से भरा
हो। वह
व्यक्तित्व न
मिला, जो
ध्यान की
समाधिस्थ
अवस्था में हो;
जिसको
संपदा
बोधिधर्म दे
दे। पंडित
मिले बहुत, आचार्य मिले
बहुत, जानकार
मिले बहुत, अनुभवी न
मिला।
झेन
फकीर पूछते
हैं कि
बोधिधर्म चीन
क्यों गया? भारत में
आदमी न मिला
ध्यान
करनेवाला, तो
चीन जाना पड़ा?
यह
प्रश्न बड़ा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
बोधिधर्म के
जाने के साथ
ही भारत का
अध्यात्म
तिरोहित हो
गया।
बोधिधर्म का
जाना इस बात
का सूचक था कि
अध्याय
समाप्त हुआ।
अब यहां
रूखे-सूखे लोग
हैं, उनमें
हरियाली खो
गई। अब यहां
निष्प्राण कबें्र
हैं। अब उनमें
मंदिर का
खोजना
मुश्किल है।
बोधिधर्म का
भारत के बाहर
जाना किसी
ध्यानी व्यक्ति
की तलाश
में...भारत की
गरिमा जैसे
अस्त हो गई!
भारत से सूर्य
जैसे विदा हो
गया!
लेकिन
बोधिधर्म चीन
ही क्यों गया? बड़ी दुनिया
थी, कहीं
भी जा सकता
था। आखिर चीन
क्यों चुना? इसलिए
प्रश्न बड़ा
महत्वपूर्ण
है।
भारत
क्यों छोड़ा?
भारत
इसलिए छोड़ा कि
कोई ध्यानी न
मिला, जिसको
संपदा दे दे।
चीन
क्यों गया?
चीन
में थोड़ी आशा
थी, क्योंकि
भारत में अगर
बुद्ध पैदा
हुए तो चीन
में लाओत्से
पैदा हुआ।
दोनों
करीब-करीब एक
ही समय में
पैदा हुए। जब
भारत में
बुद्ध थे, तब
चीन में
लाओत्से था।
और बुद्ध ने
तो थोड़ा-बहुत
शब्दों का भी
उपयोग किया, लाओत्से ने
शब्दों का
बिलकुल उपयोग
नहीं किया। और
भारत तो
पांडित्य से
भर गया, लेकिन
लाओत्से की जीवनधारा
अभी भी बह रही
थी, जो अभी
पांडित्य से
नहीं भरी थी।
क्योंकि लाओत्से
का पूरा-पूरा
जोर पांडित्य
के विपरीत था,
जानकारी के
विरोध में था,
सूचनाओं से
कोई सार नहीं।
लाओत्से
का बुद्धत्व
बुद्ध से भी
ज्यादा शब्द-शून्य
है।
तो
जहां लाओत्से की
हवा थी, सोचा
बोधिधर्म ने
कि शायद वहां
कोई व्यक्ति मिल
जाये। और अगर
लाओत्से और
बुद्ध का मिलन
हो जाये तो जो
धारा पैदा
होगी, वह
सदियों तक
बहेगी। यह एक 'क्रास
ब्रीडिंग' का
बड़ा गहरा
प्रयोग था। हम
पश्चिम से सांड़
को खरीदकर
लाते हैं; भारतीय
गाय, पश्चिम
का सांड़--तो
जो बच्चे पैदा
होंगे वे सबल
होंगे, सक्षम
होंगे, ज्यादा
दूध देनेवाले
होंगे।
जो हम सांड़ के
साथ करते हैं, वह बोधिधर्म
ने ध्यान के
साथ किया।
यहां बुद्ध की
धारा थी, महावीरों
की धारा थी, उपनिषदों की
धारा थी। एक
बड़ी गहरी
क्रांतिकारी
खोज थी लेकिन
उसको संभालनेवाला
नहीं मिल रहा
था। संपदा
इतनी बड़ी थी, कि उतना बड़ा
हृदय नहीं मिल
रहा था। शायद
लाओत्से की
धारा में कोई
जिंदा हो! और
अगर इन दोनों
का मिलन हो
जाये तो एक
ऐसा नया
जीवन-प्रयोग
होगा कि शायद
बहुत जी सके।
और बोधिधर्म
सही साबित
हुआ।
झेन वह
परंपरा है, जो बुद्ध और
लाओत्से के
मिलने से पैदा
हुई। तो झेन न
तो बौद्ध है, और न ताओवादी
है, झेन
दोनों का मिलन
है। इसलिए झेन
में जो मधुरिमा
है, वह न
बुद्ध की धारा
में है, न
लाओत्से की
धारा में है।
जब भी दो
भिन्न धाराएं
मिलती हैं तो
जिस बच्चे का
जन्म होता है,
वह अनूठा
होता है।
जितने दूर की
धाराएं हों, उतनी ही
अद्वितीय
संतति पैदा
होती है।
इसलिए
हम भाई-बहन को
शादी नहीं
करने देते
क्योंकि
भाई-बहन इतने
करीब हैं, बच्चा बहुत
अच्छा नहीं हो
सकता। तनाव
नहीं होगा। और
जब तनाव नहीं
होगा तो जीवन
क्षीण होगा।
अगर भाई-बहन
विवाह करें तो
बच्चे की उम्र
ज्यादा नहीं
होती। बच्चा
जल्दी मर
जायेगा। और बच्चे
में प्रतिभा
भी नहीं होगी,
क्योंकि
प्रतिभा के
लिए बड़ी दूर
की धाराओं का मिलन
चाहिए। तब एक
नयी चीज की
उत्पत्ति
होती है।
भाई-बहन इतने
एक जैसे हैं
कि उन्हीं
जैसा एक बच्चा
पैदा होगा; अद्वितीय
नहीं होगा, बेजोड़ नहीं होगा।
इसलिए सारी
दुनिया में
भाई-बहन की
शादी को हम
रोकते हैं।
संबंधियों की
शादी को रोकते
हैं--जितना
दूर का हो...।
अगर यह
तर्क ठीक से
समझा जाये; और इससे
जीवन-शास्त्री
राजी हैं कि
तर्क ठीक है।
तो इसका मतलब
यह हुआ कि
जहां तब बन
सके न केवल
जाति, न
केवल परिवार की
निकटता को
रोकना चाहिए
बल्कि खून, रंग, भाषा
जितनी दूर की
हो, जितनी
अंतर्राष्ट्रीय
शादी हो, उतना
बच्चा ज्यादा
सप्राण पैदा
होगा। और जब दूर-दूर
की धाराएं
मिलती हैं तब
ऐसे बच्चे
पैदा होते
हैं...!
ऐसा और
भी दफा हुआ
है। बुद्ध और
लाओत्से के मिलन
से झेन पैदा
हुआ। इस्लाम
और हिंदुओं के
मिलन से सूफी
चिंतना पैदा
हुई। ईसाइयत
और यहूदियों
के मिलन से
हसीद पैदा
हुए। और ये
तीनों धाराएं
सबसे ज्यादा
जीवंत धाराएं
हैं। इस समय
पृथ्वी पर जो
सबसे ज्यादा
मूल्यवान है, वह यह इन तीन
धाराओं में
हैं--होना भी
चाहिए। बुद्ध
जैसा पिता और लाओत्से
जैसी मां; या
लाओत्से जैसा
पिता और बुद्ध
जैसी मां मिल
सके तो जो
संतति पैदा
होगी, वह
अप्रतिम
होगी।
क्यों
गया बोधिधर्म
भारत से चीन?
बोधिधर्म
बुद्ध जैसा
था। बुद्ध भी
मिल जाते तो
बोधिधर्म को
ठीक अपने जैसा
पाते; पाते
कि जैसे दर्पण
में देख रहे
हैं अपने को।
वह लाओत्से की
तलाश में गया
और चीन में उसने
खोज की; और
आदमी खोज लिया,
जिसके हृदय
में यह अपने
हृदय को उंड़ेल
सका।
इस पर
एक बड़ी
जिम्मेवारी
थी।
महाकाश्यप को
जो बुद्ध ने
दिया था और
महाकाश्यप के
बाद जो अलग-अलग
गुरुओं को सक्सेशन
में मिला था, परंपरा से
मिला था, वह
बोधिधर्म के
पास था।
ऐसा
कठिन सवाल पूछ
रहा है एक
आदमी उससे, जो मुंह के
बल लटका हुआ
है खाई के ऊपर,
वह उससे पूछ
रहा है कि
बोधिधर्म
भारत से चीन क्यों
गया?
कथा
कहती है कि
अगर यह आदमी
बोले, तो
मरे। क्योंकि
वाणी निकली, कि इसकी जो
पकड़ है वृक्ष
से, वह छूट
जायेगी। बोला
कि मरा। न
बोले तो भटक
जाये; न
बोले तो भटक
जाये इसलिए, कि जिसके
पास भी ध्यान
की संपदा हो, वह अगर देने
से इंकार करे
तो वह संपदा
खो जाये। इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
इस जगत
में दो तरह की
संपदाएं हैं; एक तो अगर आप
दें, तो खो
जाती है। धन
है आपके पास; अगर आप दें
तो खो जायेगा।
अगर बचाना है
तो अपना तो
देना ही मत; दूसरे का
छीनना। ऐसी
संपदा जो देने
से खो जाती है
और छीनने से
बढ़ती है, उसको
ही हमने पाप
कहा है। और एक
और संपदा है
पुण्य की, जिसका
नियम इसके ठीक
विपरीत है।
अगर रोको, मर
जाती है; दे
दो, बच
जाती है। जितना
बांटो उतना
बढ़ती है, जितना
बचाओ उतना सड़ती
है। बाहर की
संपदा छीननी
पड़ती है, शोषण
करना पड़ता है;
भीतर की
संपदा का दान
करना पड़ता है।
भीतर और बाहर
के नियम
बिलकुल अलग
हैं।
यह
कहानी कहती है
कि अगर वह
आदमी न बोले
तो खो जाये।
क्योंकि कोई
पूछ रहा है, ध्यान क्या
है? कोई
पूछ रहा है, बोधिधर्म
भारत से चीन
क्यों गया? वह यही पूछ
रहा है कि
ध्यान क्या है?
यह बुद्ध और
लाओत्से का
मिलन क्या है?
इस मिलन से
जो जन्म हुआ, वह क्या है? वह रहस्य
क्या है? यह
आदमी जानता है
उस रहस्य को।
बोले तो पकड़
छूटती है और
खो जायेगा। न
बोले तो भटक जायेगा।
यह आदमी क्या
करे?
यह झेन
पहेली है।
साधक को दी
जाती है कि वह
उस पर ध्यान
करे, और पता
लगाकर लाए कि
वह आदमी क्या
करे?
तुम
मुश्किल में
पड़ोगे, क्योंकि
इसमें दोनों
तरफ उपाय नहीं
दिखते। बोला,
तो मर
जायेगा; शायद
बोल भी नहीं
पाएगा और मर
जायेगा।
क्योंकि जैसे
ही पहला शब्द
निकलेगा कि
पकड़ छूट
जायेगी, वह
खाई में गिर
जायेगा। शायद
पूरी बात कह
भी नहीं पाएगा
इस आदमी से। न
बोले तो भटक
जायेगा। और दो
ही उपाय दिखते
हैं। बुद्धि
की समझ में नहीं
आता, अब और
क्या किया जा
सकता है!
तो झेन
गुरु अपने
साधकों को
कहता है बैठो, इस पर ध्यान
करो कि यह
आदमी क्या करे?
समझो कि तुम
लटके हो; तुम
क्या करोगे? भूल जाओ
कहानी को। तुम
ही इस स्थिति
में हो, क्या
तुम्हारा
उत्तर होगा? क्या
तुम्हारा
प्रत्युत्तर
होगा? बोलोगे
या चुप रहोगे?
बुद्धि
के साथ मजा है; कि बुद्धि
के पास सदा दो
विकल्प होते
हैं, तीसरा
नहीं होता।
बुद्धि
द्वंद्वात्मक
है। उसका
द्वंद्व
है--हां और ना
बस दो ही
उत्तर होते
हैं। और दोनों
उत्तर पहले से
ही बंद हैं।
एक उत्तर दोगे
तो खो जाओगे, दूसरा उत्तर
दोगे तो भी खो
जाओगे; और
तीसरा उत्तर
बुद्धि के पास
नहीं है। अगर
तुम इस पर
सोचोगे-सोचोगे-सोचोगे...तो
एक ऐसी घड़ी
आएगी जब तीसरे
उत्तर का जन्म
होगा। वह
बुद्धि से
नहीं आएगा
क्योंकि बुद्धि
के पास तीसरा
होता ही नहीं;
उसके पास
हमेशा दो होते
हैं। एक दूसरे
के विपरीत
होते हैं। और
तीसरा बिलकुल
भिन्न है, गुणात्मक
रूप से भिन्न
है।
ऐसा
हुआ, बोकूजू के एक शिष्य
को उसने यह
कहानी दी और
कहा, इस पर
ध्यान कर।
उसने कई
तरकीबें खोजीं
क्योंकि ये दो
तो उपाय थे
नहीं। तो उसने
कहा कि वह कुछ
हाथ से इशारा
करे। बुद्धि
ने कुछ रास्ता
खोजने की
कोशिश की कि
हाथ से कुछ
इशारा करके
बताये। तो बोकूजू
ने कहा, जो
शब्दों से
कहना मुश्किल
है, क्या
हाथ के इशारे
से कहा जा
सकेगा? क्या
उपाय है, कहकर
बताओ।
बोधिधर्म
क्यों आया चीन,
इसको हाथ के
इशारे से कहकर
बताओ।
यह कोई
पानी पीना तो
नहीं है कि
तुम हाथ के
इशारे से बता
दो कि पानी
पीना है, कि
भूख लगी है।
शरीर के संबंध
में थोड़ी
सूचनाएं हाथ
के इशारे से दी
जा सकती हैं
क्योंकि
दूसरे को भी
उनकी अनुभूतियां
हैं। दूसरे को
भी प्यास लगी
है कभी, तो
तुम जब हाथ की
अंजुली बनाकर
इशारा करते हो,
वह समझ जाता
है कि प्यास
लगी है। दूसरे
को भी भूख लगी
है तो तुम, जब
हाथ की मुट्ठी
बांधकर मुंह
की तरफ इशारा
करते हो तो वह
समझ जाता है।
इशारा काम का
है, अगर
दूसरे का भी
अनुभव वैसा ही
हो, जैसा
तुम्हारा।
लेकिन
अगर दूसरे को
पता ही होता
कि बोधिधर्म क्यों
चीन आया, तो
तुमसे पूछता
क्यों?
ध्यान
के संबंध में
कुछ भी तो
कहना मुश्किल
है क्योंकि
दूसरे का कोई
भी अनुभव नहीं
है; इसलिए
भाषा असमर्थ है।
अगर मैं कहूं
प्रेम, तुम
थोड़ा-बहुत समझ
जाते हो। मैं
कहूं वृक्ष, तुम
थोड़ा-बहुत समझ
जाते हो। मैं
कहूं प्रार्थना,
तुम कुछ भी
नहीं समझ
पाते। मैं
कहूं
परमात्मा, शब्द
गूंजता है, खो जाता है।
भीतर कोई आकार
निर्मित नहीं
होता, कोई
अर्थ नहीं
बनता। भीतर
कोई सुगंध नहीं
फैलती। कोई
सत्य का
साक्षात्कार
नहीं होता।
परमात्मा
शब्द गूंजता
है, खो
जाता है; जैसे
हवाएं गूंजी हों
वृक्षों में,
थोड़ी
चहल-पहल हुई
हो, कुछ
सूखे पत्ते
गिर गए, हवाएं जा चुकीं, वृक्ष फिर
मौन खड़े हैं।
ऐसा ही
परमात्मा
गूंजता है, लेकिन भीतर
कोई अर्थ
निर्मित नहीं
होता।
अर्थ
होता ही तब
निर्मित है, जब तुम भी
अनुभव से
गुजरे होते
हो। यही
कठिनाई है।
अगर तुम भी
अनुभव से
गुजरे हो तो
इशारे की भी
जरूरत नहीं
है। तुम अनुभव
से नहीं गुजरे
तो कोई इशारा
काम नहीं
करेगा। और जब
शब्द, जो
कि ज्यादा
सूक्ष्म हैं,
जो कि बारीक
और महीन हैं, जो कि नाजुक
इशारे कर सकते
हैं, जब वे
असमर्थ हैं तो
इतना स्थूल
इशारा हाथ का कैसे
काम आएगा?
बोकूजू
ने कहा, भाग
जा यहां से; और दुबारा
इस तरह के
उत्तर मत
लाना। ऐसे
शिष्य बहुत
उत्तर लाया।
कभी उसने कहा
कि आंख से। कभी
उसने कहा कि
मुंह को तो
बंद रखे, लेकिन
भीतर आवाज
करे। उसने कई
रास्ते खोजे,
लेकिन कोई
रास्ता
स्वीकार नहीं
किया जा सका। क्योंकि
ध्यान को किसी
इशारे से नहीं
कहा जा सकता।
और अगर यह
आदमी ध्यान को
उपलब्ध था तो
इसकी आंखें तो
कह ही रही थीं
कि ध्यान क्या
है, अब और
क्या किया जा
सकता है? अगर
आदमी दरवाजे पर
खड़ा हुआ आंखों
को समझ पाता
तो पूछता ही
नहीं।
फिर
क्या हुआ? साल बीत गया,
शिष्य अनेक
उत्तर लाया, सब उत्तर
अस्वीकार कर
दिये गए। उसकी
बुद्धि चक्कर
खाती रही, खाती
रही, खाती
रही--थक गया।
फिर उसने खोज
ही छोड़ दी।
फिर उसे साफ
दिखाई पड़ गया
कि उत्तर हो
ही नहीं सकता।
यह स्थिति
बेबूझ है।
बहुत दिन तक
शिष्य नहीं
आया तो बोकूजू
उसकी तलाश में
गया कि क्या
हुआ? क्योंकि
वह तो दो-चार
दिन में उत्तर
खोजकर ले आता
था। देखा एक
वृक्ष के नीचे
शिष्य मौन
बैठा है। बोकूजू
ने उसे हिलाया,
शिष्य ने
आंखें खोलीं--उसकी
आंखें शून्य
थीं: उसके भीतर
कोई विचार न
था। उसके मन
के आकाश पर
कोई बदली न थी;
कोई पक्षी न
उड़ता था।
वह ऐसे बैठा
रहा, जैसे
कुछ भी नहीं
हुआ है। बोकूजू
आया है, यह
भी जैसे कोई
घटना नहीं
घटी। उसकी
आंखों में
रत्ती भर फर्क
न पड़ा। गुरु
सामने खड़ा था,
उसने झुककर
प्रणाम भी न
किया। गुरु
सामने खड़ा था,
जरा-सी भी
झिझक उसके
भीतर न आयी कि
पूछेगा, कि
वह सवाल...उस
आदमी का क्या
हुआ, वह जो
वृक्ष से लटका
है? उसने
क्या उत्तर
दिया? न
सवाल उठा, न
जवाब उठा, न
गुरु की
मौजूदगी से
कोई भेद पड़ा।
बोकूजू
झुका और शिष्य
के चरण छुए।
वह बात
फिर नहीं उठाई
गई। वह सवाल फिर
नहीं पूछा
गया। वह बात
जैसे समाप्त
ही हो गई।
उत्तर मिल
गया।
जब तक
बुद्धि उत्तर
देगी, तब तक
उत्तर नहीं
मिलेगा। जब
बुद्धि चुप हो
जाती है तो
उत्तर मिल
जाता है।
उत्तर तुम में
छिपा है; वह
बुद्धि के
विकल्पों में
नहीं है। वह
बुद्धि के
द्वंद्व में
नहीं है, वह
तुम्हारी निर्द्वंद्वता
में है। और
तुम कब होते
हो
निर्द्वंद्व,
अखंड? जब
बुद्धि शांत
होती है। जब
तुम सोचते
नहीं, तब
तुम इकट्ठे
होते हो। जब
तुम सोचते हो,
तब तुम बंट
जाते हो।
जितने ज्यादा
विचार, उतने
तुम्हारे खंड
हो जाते हैं।
जितना निर्विचार,
उतने तुम
अखंड हो जाते
हो। जब तुम
अखंड हो, वहीं
उत्तर है। यह
कोई प्रश्न
उत्तर पाने के
लिए नहीं था, यह प्रश्न
बुद्धि को
थकाने के लिए
था।
मैं जो
भी ध्यान के
प्रयोग तुमसे
करने को कह रहा
हूं, वे
तुम्हारे
शरीर और
तुम्हारी
बुद्धि को थकाने
के प्रयोग
हैं। तुमसे कह
रहा हूं कि 'दरवेश...ह्विरलिंग'। दरवेश
नृत्य...तुम
घूमते ही जाते
हो, घूमते
ही जाते हो, चकरी खाते
जाते हो, थोड़ी
देर में
बुद्धि भी थक
जाती है, शरीर
भी थक जाता
है। अगर तुम थकने के
पहले ही गिर
गए तो चूक
जाओगे। अगर
तुम बिलकुल थक
गए, इतनी
भी ऊर्जा न
बची भीतर कि
एक विचार
निर्मित हो
सके--अचानक
तुम शून्य हो
जाओगे।
उसी
शून्य में
उत्तर है कि
बोधिधर्म चीन
क्यों आया?
उसी
शून्य में
उत्तर है कि
ध्यान क्या है?
ध्यान
में ही उत्तर
है कि ध्यान
क्या है! और कोई
उपाय नहीं।
क्या
करे वह आदमी? वह कुछ भी न
करे, वह
सिर्फ ध्यान
में रहे। न
बोलने की जरूरत
है; क्योंकि
बोला तो
गिरेगा। न
न-बोलने की
जरूरत है; क्योंकि
नहीं बोला तो चूकेगा।
यह
थोड़ा-सा जटिल
है क्योंकि
हमें लगता है
यही तो दो स्थितियां
हैं: बोलो, या न बोलो।
एक और भी
स्थिति है, जिसको कहते
हैं शांत रहो;
वह न बोलने
से अलग है। न
बोलने की
स्थिति बोलने
के विपरीत है।
तुम बोलते हो,
तुम्हें
कुछ करना पड़ता
है। जब तुम
नहीं बोलते तब
भी तुम्हें
कुछ करना पड़ता
है, रोकना
पड़ता है।
मैंने तुमसे
पूछा, तुम्हारा
नाम क्या है? तुम बोलो, तो तुम्हें
प्रयत्न करना
पड़ता है। तुम
न बोलो तो
तुम्हें
प्रयत्न से
अपने को रोकना
पड़ता है क्योंकि
नाम तुम्हें
मालूम है।
तुम्हारा नाम
तुम्हें पता
है। न बोलो तो
तुम्हें
प्रयत्न करना
पड़ता है रोकने
का, कि न
बोलूं। बोलो
तो प्रयत्न
करना पड़ता है,
न बोलो तो
प्रयत्न करना
पड़ता है। शांत
होना बिलकुल
तीसरी अवस्था
है; वहां
कोई प्रयत्न
नहीं है--न
बोलने का, न
न-बोलने का।
वह
आदमी लटका ही
रहे; न तो बोले,
और न
न-बोले।
क्योंकि
दोनों में
झंझट है। बोले
तो गिरेगा, न बोले तो
भटक जायेगा।
वह बोलने की
झंझट में ही न
पड़े, न
न-बोलने की
झंझट में पड़े;
वह चुनाव न
करे। बोलना, न-बोलना
एक-दूसरे के
विपरीत है।
न
बोलना, शांत
होना नहीं है।
न बोलने में
भीतर आग जलती
रहती है। न
बोलने में तुम
भीतर तो बोलते
ही चले जाते
हो। न बोलने
में तुम बोलना
तो चाहते थे, रोकते हो। न
बोलना
नकारात्मक
बोलना है, वह
भी बोलना है।
किसी को तुम
गाली दो, यह
बोलना है। और
फिर किसी को
गाली न दो, रोको,
तो गाली तो
भीतर गूंजती
चली जाती है।
एक
तीसरी अवस्था
है: गाली उठती
ही नहीं। न
तुम बोलते हो, न न-बोलते हो;
गाली की लहर
ही नहीं आती।
इस तीसरी
अवस्था का नाम
ध्यान है।
वह जो
आदमी वृक्ष से
लटका है, वह
लटका ही रहे; वह कुछ भी न
करे। रत्तीभर
भी चहल-पहल
उसके भीतर न
हो। इस आदमी
ने पूछा कि
बोधिधर्म
क्यों चीन गया?
इस प्रश्न
से कोई भी
उत्तर उसके
भीतर न उठे। वह
कोई उत्तर की
तलाश भी न
करे। तब न तो
बोलना होगा--और
न न-बोलना
होगा। तब वह
द्वंद्व के
पार हो जायेगा।
तब वह शांत
रहेगा, जैसे
किसी ने कुछ
पूछा ही नहीं।
जैसे किसी को कोई
जवाब देना भी नहीं
है। तब वह
ध्यानस्थ
होगा। और
ध्यान का उत्तर
सिर्फ ध्यान
है। जब भी कोई
उतनी गहरी बात
पूछता है तो
शब्द तो छिछले
हैं, ऊपर-ऊपर
हैं। इनसे उस
गहराई की कोई
खबर नहीं दी
जा सकती।
तुम्हें उस
गहराई में खड़े
रह जाना पड़ेगा।
और अगर वह
तुम्हारी
गहराई न समझ
पायेगा तो तुम्हारे
शब्द कैसे
समझेगा?
नान-इन
से किसी ने
पूछा कि सार
बात एक शब्द
में कह दो।
ज्यादा न तो
मेरे पास समय
है, न सुविधा
है। सार बात
एक शब्द में
कह दो। नान-इन
चुप रहा। उसने
कहा, 'अगर
सार ही पूछना
है तो एक शब्द
का भी आग्रह
मत करो। अगर
असार जानना है,
तो जितना कहो,
उतना बोल
सकता हूं।
लेकिन अगर सार
जानना है तो
एक शब्द का भी
आग्रह मत करो।'
पर उस
आदमी ने कहा, 'यह जरा
ज्यादा हो
जाएगा।
संक्षिप्त
करें, लेकिन
इतना
संक्षिप्त
नहीं। थोड़े
में कहें, लेकिन
इतने थोड़े में
भी नहीं
क्योंकि फिर
मैं समझूंगा
ही नहीं अगर
आप चुप रह गए।
एक शब्द, इशारे
के लिए!'
तो
नान-इन ने कहा, 'ध्यान।'
उस
आदमी ने कहा
कि काफी नहीं
है। थोड़ा बढ़ाएं, थोड़ी
व्याख्या...।
तो
नान-इन ने कहा, 'ध्यान और
ध्यान...!'
उस
आदमी ने कहा, 'यह
पुनरुक्ति
है। इससे कुछ
विस्तार नहीं
हुआ। थोड़ी और
कृपा!'
तो
नान-इन ने कहा, 'ध्यान और
ध्यान और
ध्यान...'
वह
आदमी उठकर खड़ा
हो गया। और
उसने कहा कि
यह पागलपन की
बात है। आप
वही दोहराए जा
रहे हैं।
नान-इन
ने कहा, 'पहली
तो बात, जब
तुमने शब्द का
आग्रह किया
तभी सब खो
गया। एक शब्द
मैंने किसी
तरह कहा, कुछ
थोड़ा उसमें
बचा; अगर
व्याख्या की,
वह भी खो जायेगा।
ध्यान
का उत्तर, ध्यान के
संबंध में कुछ
पूछा गया हो
तो ध्यान ही
है। अगर कोई
तुमसे पूछे, प्रेम क्या
है? तो
तुम्हारा
प्रेमपूर्ण
होना ही उत्तर
हो सकता है, और कोई
उत्तर नहीं हो
सकता। तुम जो
भी उत्तर दोगे,
वह छोटा
पड़ेगा, ओछा
पड़ेगा। इसलिए
सभी संत पीड़ित
रहे हैं कि वे
कह नहीं पाते,
जो कहना
चाहते हैं।
रवींद्रनाथ
ने अपने अंतिम
दिनों में
लिखा है।
रवींद्रनाथ
तो महाकवि
हैं। कोई छह
हजार गीत उन्होंने
लिखे हैं।
पश्चिम में
शैली को बहुत बड़ा
कवि कहा जाता
है, उसके दो
हजार गीत हैं।
शैली के सभी
गीत संगीत में
नहीं बांधे जा
सकते, रवींद्रनाथ
के सभी गीत संगीतबद्ध
हैं। तो और
क्या उपलब्धि
हो सकती है? इस पृथ्वी
पर महान से
महान से महान,
कवि!
एक
मित्र ने मरते
समय उनसे कहा
कि तृप्त हो
तुम? संतुष्ट
हो? जो
पाना था, तुमने
पा लिया। यश, प्रतिष्ठा,
ख्याति सब
तुम्हें
मिला। एक पैंगंबर
की तरह तुम
पूजे गये। कवि
की तरह नहीं, एक ऋषि की
तरह तुम्हें
सम्मान मिला।
और तुमने इतने
गीत लिखे कि
शायद दोबारा
कोई आदमी नहीं
लिख सकेगा। और
हर गीत अनूठा
है, तुकबंदी
नहीं है, हृदय
से आया है।
रवींद्रनाथ
ने कहा, बंद
करो यह सब
बातचीत
क्योंकि मैं
बड़े दुख में
मर रहा हूं।
जो मैं गाना
चाहता था, वह
तो मैं अभी तब
गा नहीं पाया।
अगर तुम मुझसे
पूछो तो मैं
मरते इन
क्षणों में
परमात्मा से प्रार्थना
कर रहा हूं कि
यह भी क्या
बात हुई! बामुश्किल
तो ठोंक-पीटकर
साज बिठा पाया
था, अब
गाने का वक्त
करीब आ रहा था
कि पर्दा
गिरने लगा।
अभी तो सिर्फ
ठोंक-पीट कर
रहा था अपने
वाद्य-यंत्रों
पर कि तैयारी
हो जाये तो गाऊं।
अभी गा कहां
पाया था? और
जिसे लोगों ने
संगीत समझा, वह तो केवल
साज बिठा रहा
था। और अब जब
कि लगता है कि
साज बैठने के
करीब आया, संगति
बंधती थी,
सुर सम्हले
थे, भरोसा
बढ़ा था और
हृदय आपूरित
था कि अब बहूंगा,
अब गाऊंगा,
यह जाने का
वक्त आ गया! यह
क्या मजाक है?
जो भी
जानते हैं, उन्हें यह
मजाक खयाल में
आयेगा ही।
क्योंकि जब वे
कहने में
समर्थ होते
हैं, तब
वाणी खोने के
करीब आ जाती
है। जब वे बता
सकते थे, तब
जाने का समय आ
जाता है। जबकि
स्वागत होना था,
समारंभ
होना था उनके
आने का, तब
विदा का क्षण!
जबकि वे पैदा
होने के करीब
थे, तब मौत
घट जाती है।
और ऐसा
सदा ही होगा।
इसमें किसी
परमात्मा के हाथ
कोई मजाक
नहीं। यह जीवन
की प्रक्रिया
है कि जितना
गहरा तुम
पाओगे, उतना
ही बताना
मुश्किल होता
जायेगा।
रवींद्रनाथ
को अगर सौ साल
की उम्र और दे
दी जाती तो
मैं कहता हूं
कि सौ साल के
बाद भी वे यही
कहते मरते
वक्त; इससे
कुछ भेद न
पड़ता। इससे
जरा भी भेद
नहीं पड़ता।
शायद पीड़ा और
भी बढ़ जाती
क्योंकि सौ
साल में वे और
भी गहरे हो
जाते। और
जितनी भीतर
गहराई बढ़ती है,
उतना बाहर
तक खबर लाना
मुश्किल होता
जाता है।
सत्य
को कहा नहीं
जा सकता।
ध्यान को, प्रेम को
बताया नहीं जा
सकता; जीया
जा सकता है, इसलिए जीना
ही बताने का
एकमात्र ढंग
है।
तो उस
आदमी को न तो
बोलने की
जरूरत है... न
न-बोलने की
जरूरत है। वह
ध्यान का फूल
बना लटका रहे।
और
क्यों ऐसी
कहानी चुनी
होगी इन झेन फकीरों ने? क्योंकि कोई
भी तो ऐसा
वृक्ष के
पत्तों को मुंह
में पकड़कर
लटका नहीं। पर
मैं तुमसे
कहता हूं, कहानी
यही है। सभी
लोग लटके हैं;
क्योंकि
किसी भी क्षण
मौत घट सकती
है। अब इतना
ही सहारा है
जैसे दांत से
दबा रखी हो
वृक्ष की शाखा।
बस, इतना ही
सहारा है। जरा
में टूट सकता
है यह धागा।
यह धागा बहुत
बारीक है; मकड़ी के
जाल से भी
ज्यादा
बारीक। जरा सा
इशारा--और यह
टूट सकता है।
यह
मतलब है कथा
का। हर आदमी
ऐसा ही लटका
है। नीचे खाई
है, किसी भी
क्षण मौत घट
सकती है।
महाभारत
में एक मधुर
घटना है। एक
भिखारी भीख
मांग रहा है, युधिष्ठिर
के द्वार पर।
पांडव, पांचों
भाई
अज्ञातवास
में छिपे हैं।
मांगनेवाले
को भी पता
नहीं, छिपे
हुए सम्राट
हैं।
युधिष्ठिर
सामने ही पड़ गये
हैं।
उन्होंने कहा,
'कल आ जाना।'
भीम
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
युधिष्ठिर ने
पूछा कि तू
पागल तो नहीं
हो गया? क्यों
खिलखिला रहा
है? उसने
कहा कि मैं
जाता हूं, गांव
में डिंडोरी
पीट आऊं कि
मेरे बड़े भाई
ने समय को जीत
लिया है। एक
भिखारी को
उन्होंने
वायदा किया है
कि कल आ जाना।
युधिष्ठिर
दौड़े, उस
भिखारी को
वापस लाए और
कहा कि भीम
ठीक कहता है।
ऐसे वह जरा
बुद्धि से मंद
है, लेकिन
फिर भी
कभी-कभी उसे
झलक आती है।
कभी-कभी
मंद-बुद्धि
लोगों को
झलकें आ जाती
हैं और बहुत
कुशल बुद्धि
लोग चूक जाते
हैं। कुशल बुद्धि
अकसर पंडित हो
जाते हैं। जो
युधिष्ठिर को
न दिखाई
पड़ा...और वे
धर्मराज थे, धर्म के
ज्ञाता थे!
लेकिन धर्म के
ज्ञाता अकसर
अंधे होते हैं,
क्योंकि
शास्त्र
आंखों पर छप
जाता है। फिर
सत्य नहीं
दिखायी पड़ता।
जो है, वह
नहीं दिखायी
पड़ता, पर्तें
शास्त्रों की
इकट्ठी हो
जाती हैं। इसलिए
जो दिखायी
नहीं पड़ा
युधिष्ठिर को,
वह दिखायी
पड़ गया भीम
को। भीम
सीधा-सादा
आदमी है, निष्कपट
है। लड़ सकता
है, क्रोधित
हो सकता है, प्रेम कर
सकता है, लेकिन
पंडित नहीं
है। जी सकता
है, लेकिन
शब्दों का कोई
मालिक नहीं
है। लेकिन उसे
यह सीधी सी
बात दिखाई पड़
गयी कि यह भी
क्या मजाक है?
कल का भरोसा
नहीं है और
तुम भिखारी से
कहते हो, कल
आ जाना? कल
तुम रहोगे
यहां? तुम्हें
पक्का है, कल
भिखारी बचेगा?
चीन
में कथा है
ताओ को
स्वीकार करने
वाले लोगों की, कि एक
सम्राट नाराज
हो गया अपने
वजीर पर; उसे
उसने जेल में
डाल दिया।
लेकिन जिस दिन
उसको फांसी
लगनेवाली थी,
अचानक उसके
घर के लोग तो
रो रहे थे, छाती
पीट रहे थे, वह घोड़े पर
सवार घर वापस
लौट आया।
पत्नी को
भरोसा न हुआ, बेटों को
भरोसा न हुआ, उन्होंने
कहा कि क्या
हुआ? क्या
चमत्कार? हम
तो समझे थे कि
बस, छह बजे
शाम फांसी हो
जानेवाली है।
वजीर
ने कहा कि
चमत्कार ही
समझो। नियम है
राज्य का, कि घंटे भर
फांसी के पहले
सम्राट आता है
जिसकी फांसी
हो रही है, उससे
मिलने। वह
मिलने मुझसे
आया था। और जब
वह मिलने
मुझसे आया, मैंने सोचा
कि एक दांव
लगाना बुरा
नहीं। मैं रोने
लगा। मुझे
रोते देखकर
सम्राट ने
पूछा कि तू और
रोता है? और
मैं तो सोचता
था कि तू एक
बहादुर आदमी
है। तूने अनेक
युद्ध लड़े, तू अनेक बार
जीता, तू
रोएगा यह मैं
सोच भी नहीं
सकता। मैंने
कहा कि मैं
इसलिए रो भी
नहीं रहा हूं।
मौत देखकर
नहीं रो रहा
हूं, तुम्हारे
घोड़े को देखकर
रो रहा हूं, जो तुम
दरवाजे के
बाहर बांध आये
हो।
सम्राट
हैरान हुआ; उसने कहा, घोड़े को
देखकर रोने की
क्या बात है?
वजीर
ने कहा कि मैं
एक कला सीखा था, कि मैं घोड़ों
को आकाश में उड़ना सिखा
सकता हूं।
लेकिन एक खास
जाति का घोड़ा
चाहिए। उसे
खोजता रहा
जिंदगी भर, वह न मिला; और जिस घोड़े
पर बैठकर तुम
आये हो, यही
उस जाति का
घोड़ा है। रो
रहा हूं कि
सारी कला
व्यर्थ गई।
घंटे भर बाद
तो मुझे मरना
है; अब तो
कुछ उपाय नहीं।
जो मैं जानता
था, मेरे
साथ खो
जायेगा।
सम्राट
लोभी!
स्वभावतः अगर
उसके पास उड़नेवाला
घोड़ा हो सके
तो जगत में
उसका कोई
मुकाबला न हो।
उसने कहा कि
तू ठहर, घबड़ा
मत। कितना समय
चाहता है? तो
वजीर ने कहा, एक साल। एक
साल में इस
घोड़े को उड़ना
सिखा दूंगा।
सम्राट ने कहा,
कुछ अड़चन की
बात नहीं। अगर
एक साल में
घोड़ा उड़ना
सीख गया तो
तेरी मौत तो
बचेगी ही, मैं
अपनी लड़की से
तेरी शादी भी
करूंगा और आधा
राज्य भी तुझे
दे दूंगा।
लेकिन अगर एक
साल बाद घोड़ा उड़ना नहीं
सीख पाया तो
तेरी फांसी हो
जायेगी। हर्ज
कुछ भी नहीं
है।
पत्नी
और जोर से छाती
पीटकर रोने
लगी कि यह भी
तुमने क्या
किया? क्योंकि
मुझे
भलीभांति पता
है, ऐसी
कोई कला तुम
जानते नहीं।
वजीर ने कहा, वह तो मुझे
भी पता है, लेकिन
साल भर में
क्या भरोसा? घोड़ा मर
जाये, सम्राट
मर जाये, मैं
मर जाऊं। साल
भर इतना लंबा
वक्त है! और
दुनिया में चमत्कार
तो घटते हैं।
कौन जाने, घोड़ा
सीख ही जाये! उड़ना सीख
जाये! साल भर
काफी है; बहुत
ज्यादा है।
भीम को
दिखाई पड़ गया
कि एक दिन का
भरोसा नहीं। कल
तुम बचो न बचो, देने की
हालत बचे न
बचे, यह
भिखारी बचे न
बचे, फिर
यह वचन अधूरा
रह जायेगा
धर्मराज! तो
लोग लिखेंगे कि
तुम झूठ बोले।
युधिष्ठिर
दौड़े, उस
भिखारी को
भिक्षा दी, कहा कि तू
जल्दी ले जा; देर न हो
जाये।
हम सब
लटके हैं।
किसी भी क्षण
शाखा टूट सकती
है। किसी भी
क्षण मुंह खुल
सकता है।
और
क्यों यह कथा
इस तरह चुनी
है? क्योंकि
जब भी आदमी
मरता है तो
अकसर मुंह खुल
जाता है।
इसलिए झेन
फकीर कहते हैं,
मुंह से पकड़कर
हम रुके हैं।
जब आदमी मरता
है तो मुंह
खुल जाता है, पकड़ छूट
जाती है। हाथ
वगैरह से पकड़ने
का उपाय नहीं,
मुंह से ही पकड़े हुए
हैं।
ऐसी यह
बात और भी
गहराई में सच
है; क्योंकि
जिस श्वास के
धागे से हम
बंधे हैं, वह
हमारे मुंह से
जुड़ा है, हाथों
से नहीं।
श्वास कटी, हम कट गए। तो
अगर जीवन को
हम एक वृक्ष
समझें तो श्वास
के धागे से हम
मुंह से उससे
बंधे हैं। श्वास
ही हमें रोके
हुए है। श्वास
गई, फिर
हाथ से श्वास
को पकड़ने
का कोई उपाय
नहीं। इसलिए
फकीर जो भी
कहते हैं, मतलब
तो होता ही
है। बेमतलब-मतलब
वे कुछ कहेंगे
भी नहीं। मुंह
से पकड़े
हुए हैं और
लटके हैं।
प्रतिपल
मौत है। और
जीवन हर क्षण
खतरे में है।
जो जानता है, वह बोलेगा
भी नहीं; क्योंकि
बोलते से ही
सब गलत हो
जाता है। सत्य
को बोला नहीं
जा सकता।
बोलते से ही
सब गलत हो जाता
है क्योंकि
सत्य को बोला
ही नहीं जा
सकता।
फिर
बुद्ध बोलते
हैं, कृष्ण
बोलते हैं, बोलते ही
चले जाते हैं।
तो सवाल उठता
है, कि जब
सत्य बोला
नहीं जा सकता
तो बुद्ध
बोलते क्यों?
चुप क्यों
नहीं हो जाते?
बुद्ध
जो भी बोलते
हैं वह सत्य
नहीं है। सत्य
तो बोला ही
नहीं जा सकता।
बुद्ध
कुछ और बोल
रहे हैं। वह
ऐसा ही है, जैसे बच्चों
को मिठाई बांटी
जा रही हो
ताकि बच्चे
बैठे रहें।
कुछ और घटाने
का आयोजन है।
मगर मिठाई न बांटी
जाये, बच्चे
भाग जायें।
इसलिए हम
मंदिर में
प्रसाद बांटते
हैं, मिठाई
बांटते हैं।
बुद्ध मिठाई
बांट रहे हैं,
वह प्रसाद
है; क्योंकि
कुछ बच्चे
सिर्फ मिठाई
को ही समझ
सकते हैं और
कोई चीज नहीं
समझ सकते।
मैं
तुमसे बोल रहा
हूं; जो बोल
रहा हूं, वह
सत्य नहीं है।
वह सत्य हो
नहीं सकता।
बोलते ही सत्य
खो जाता है; अखट
खाई में गिर
जाता है आदमी।
वहां से कुछ
बोला नहीं जा
सकता। एक शब्द
बोले कि गए!
फिर तुमसे बोल
रहा हूं, वह
मिठाई बांटना
है। उस बोलने
के बहाने तुम
यहां बैठे हो।
अगर मैं चुप
हो जाऊं, तुम
जा चुके। मेरी
चुप्पी में
तुम न बैठे
सकोगे। बोलने
के बहाने तुम
बैठे हो, वह
सिर्फ मिठाई
है, वह
प्रसाद है।
तुम शायद
प्रसाद लेने
मंदिर आए हो, प्रार्थना
करने नहीं।
लेकिन प्रसाद
के बहाने शायद
प्रार्थना भी
हो जाये, बोलने
के बहाने शायद
मेरे पास
बैठे-बैठे
तुम्हें
शांति का सुर
भी पकड़ जाये; शायद शून्य
की झलक भी आ
जाये। तो यह
केवल बहाना
है।
बुद्ध
बोलते हैं, वह बहाना
है। बुद्ध
चाहते तो वह
देना हैं तुम्हें,
जो कि बोलकर
नहीं दिया
सकता। लेकिन
तुम शब्द ही
समझ सकते हो, इसलिए शब्द
का उपयोग है।
वह तुम्हारे
लिए है, सत्य
के लिए नहीं
है। तुम्हारे
कारण है, सत्य
के कारण नहीं
है। जो भी
बोला जायेगा,
वह बोलते ही
असत्य हो जाता
है। इसलिए सब
बोलना कथा है,
कहानी है।
मैं जो
इतनी
कहानियों का
उपयोग करता
हूं, उसका
कारण कुल इतना
है कि सब
बोलना एक
कहानी है; सब
बोलना एक
पुराण है।
सत्य को तो
जाना जा सकता
है।
जानने
की यात्रा भी
कठिन तो है, असंभव नहीं।
लेकिन दोनों
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। ध्यान
में उतरना
कठिन है, इसलिए
नहीं कि ध्यान
कठिन है बल्कि
इसलिए, कि
तुम जटिल हो।
एक
आदमी नदी के
किनारे खड़ा है, तैरना कठिन
नहीं है, लेकिन
डर के मारे वह
नीचे पैर ही
नहीं रख पाता।
डर के मारे
पानी में नहीं
उतर पाता। वह
डर कठिनाई
पैदा कर रहा
है; तैरना
कठिन नहीं है।
इस आदमी को
फेंक दिया जाये
पानी में, यह
तैरना, हाथ-पैर
तड़फड़ाना
शुरू कर देगा।
तैरने में और
अनजान आदमी के
हाथ-पैर तड़फड़ाने
में बहुत फर्क
नहीं है; शैली
का फर्क है।
जरा-सी
व्यवस्था का
फर्क है। अगर
तुम्हें कोई
ऐसे ही धक्का
दे दे पानी
में तो भी तुम तैरोगे, लेकिन
तुम्हारे
तैरने में
संगति न होगी।
यह भी हो सकता
है, तुम
डूब जाओ। नदी
के कारण तुम न
डूबोगे, उल्टा-सीधा
तैरने की वजह
से डूब जाओगे।
तुम खुद ही
उलझन खड़ी कर
लोगे। जिस दिन
तुम तैरना सीख
जाओगे, क्या
सीखोगे
तुम? यही
हाथ-पैर का
फेंकना, तड़फड़ाना थोड़ा
व्यवस्थित हो
जायेगा, तुम
थोड़े आश्वस्त
हो जाओगे, भय
कम हो जायेगा।
इसलिए जो
तुम्हें
तैरना सिखाता
है, वह
तैरना नहीं
सिखाता, सिर्फ
तुम्हें
आश्वासन
सिखाता है।
बाकी तैरना
तुम जानते हो।
तो
गुरु के पास
कोई ध्यान
नहीं सीखता, सिर्फ
आश्वासन
सीखता है
क्योंकि ध्यान
में उतरना
छलांग लगाना
है। किसी का
भरोसा चाहिए।
कोई कहता है, कूद जाओ, डरो
मत, मैं
खड़ा हूं। मैं
सम्हाल
लूंगा। जो लोग
भी तैरना
सिखाते हैं, उनकी कुल
कला इतनी है
कि वे अपना
भरोसा दिला देते
हैं कि मैं
खड़ा हूं। तुम
जानते हो, यह
आदमी तैरना
जानता है।
तुमने इसे नदी
पार होते देखा,
कोई डर नहीं
है। बस, तुम्हारे
डर को कम करने
की जरूरत है।
गुरु तुम्हारे
डर को काटता
है।
गुरु
भगवान नहीं दे
सकता, भय को
काट सकता है।
भय कटा कि तुम
भगवान हो। तुम्हारी
हिम्मत बढ़ी, तुमने छलांग
ली, कि
तैरना तो
तुम्हें आता
ही है। तैरने
को तुम कभी
भूले ही नहीं
हो, इसलिए
एक बार तैरना
आ जाये तो फिर
कोई कभी नहीं
भूलता। बड़ी
मजे की बात है;
और सब चीजें
भूल जाती हैं,
तैरना
क्यों नहीं
भूलता? तुम
तीस साल तक मत तैरो, भूलोगे
नहीं। तीस साल
तक और कोई चीज
याद रखने की
कोशिश करो।
तीस साल तक
मां को न देखा
हो तो मां का
चेहरा भूल
जायेगा।
संदिग्ध हो
जाओगे। तीस
साल तक भाषा
का उपयोग न
किया हो, भाषा
भूल जायेगी।
तीस साल लंबा
वक्त है। लेकिन
तीस साल तैरना
मत, तो भी भूलोगे
नहीं। पानी
में उतरे कि
तैरना है।
जरूर
तैरने में कुछ
फर्क है।
तैरने का
संबंध तुम्हारी
स्मृति से
होता, तो
तुम इसीलिए
भूल जाते।
तैरना तुम
शायद जानते ही
हो। इसका
संबंध समृति
से नहीं, इसे
तुमने कभी
सीखा नहीं।
अगर सीखा होता
तो भूल सकते
थे। इसका
सिर्फ
आविष्कार हुआ
है। यह मौजूद
था; तुम
सिर्फ पहचाने,
प्रत्यभिज्ञा
हुई, रिकग्नाइज किया कि मैं
जानता हूं।
और जिस
दिन तुम ठीक
से पहचान लोगे, उस दिन
तैरने की भी
जरूरत नहीं
पड़ती। कुशल
तैराक नदी में
लेट जाता है।
हाथ-पैर भी
नहीं तड़फड़ाता।
नदी ही उसे
सम्हालती है।
इतनी भी जरूरत
नहीं रहती
क्योंकि उसका
भय बिलकुल कम
हो गया है। भय
ही डुबाता है,
नदी नहीं
डुबाती।
इसलिए मुर्दे
को डुबाना मुश्किल
है क्योंकि
मुर्दे को
भयभीत करना
मुश्किल है।
मुर्दे को छोड़
दो नदी में, वह तैरता
चला जाता है।
लाख नदी कोशिश
करे, कितनी
ही गहरी हो, नदी मुर्दे
को नहीं डुबा
सकती। जिंदा
को डुबाती है
क्योंकि
जिंदा भयभीत
होता है।
तब जरा
सोचने जैसा है, कि नदी
डुबाती है या
भय डुबाता है?
तैरने में
कठिनाई है, या तुम्हारे
भयभीत चित्त
की जटिलता है?
तुम्हारे
भय में सारी
जटिलता है।
ध्यान
तो सरल है, तुम कठिन
हो। तुम्हारी
कठिनाई जितनी कटेगी, उतना
ही ध्यान सरल
होता जायेगा।
जिस दिन तुम्हारे
भीतर कोई
कठिनाई न होगी,
तुम पाओगे
ध्यान इतना
सरल है, जैसे
श्वास लेना।
तुम्हें कुछ
भी नहीं करना
होता।
एक
अर्थ में
ध्यान से
ज्यादा सरल
कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह
तुम्हारा
स्वभाव है।
दूसरे अर्थ में
ध्यान से कठिन
कुछ भी नहीं
है, क्योंकि
तुम बहुत जटिल
हो गए हो।
तुम्हारी
जटिलता काटने
में ही सारी
साधना है।
लेकिन यह
असंभव नहीं है
क्योंकि जटिल
तुम ही हुए हो, जानकर हुए
हो, कोशिश
कर-कर के हुए
हो। विपरीत
यात्रा करोगे,
जटिलता कट
जायेगी।
तुम्हारी
हालत ऐसी है, जैसे कोई
आदमी कमर
झुकाकर चलने
का अभ्यास कर
ले। कमर
झुकाकर चले।
साल दो साल
अभ्यास करना
पड़े, फिर
सरल हो जाये।
फिर उसको सीधी
कमर करना
मुश्किल हो
जाये।
जन्मों-जन्मों
तक तुम विचार
के साथ चले हो,
विचार ने
तुम्हारी कमर
तिरछी कर दी
है। उसके कुछ
फायदे हैं, इस वजह से।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
आदमी था। रोज
राज्य में
युद्ध होते
रहते। जवान
पकड़ लिए जाते,
स्वस्थ आदमी
पकड़ लिए जाते।
तो उसने पहले
से ही झुककर
चलना शुरू कर
दिया।
धीरे-धीरे
उसकी कमर
तिरछी हो गई।
जवान पकड़े
जाते, लेकिन
उसे कोई कभी
नहीं पकड़ता
था। वह सोचता
था कि यह
झुककर चलने से
कुछ हर्जा तो
है नहीं; जब
चाहेंगे, सीधे
खड़े हो
जायेंगे।
इसमें लाभ ही
लाभ था। लेकिन
थोड़े दिन में
उसने पाया कि
अब सीधे खड़ा
होना असंभव
है। कमर झुक
ही गई।
इन्वेस्टमेंट
जब भी तुम
करते हो किसी
गलत चीज में
तब थोड़ा होश
से करना; उससे
कुछ लाभ दिखाई
पड़ रहा हो भला
तात्कालिक, लंबे अर्सों
में महंगा पड़
जायेगा।
विचार का कुछ
लाभ है। चिंता
का कुछ लाभ है,
तनाव का कुछ
लाभ है; इसलिए
तुम तने हो, चिंता से
भरे हो, विचार
से भरे हो। इस
जगत में कुछ
चीजें बिना चिंता
के नहीं मिलतीं।
इस जगत
में जो
निश्चिंत है, वह कुछ
चीजें तो पा
ही नहीं सकता।
धन कमाना बहुत
मुश्किल है, जो निश्चिंत
है। जो
निश्चिंत है,
वह दिल्ली
नहीं पहुंच
सकता; राजपदों
पर बैठना कठिन
है। जो
निश्चिंत है,
वह दूसरों
की छाती पर
सवार नहीं हो
सकता। क्योंकि
जब तुम दूसरों
की छाती पर
सवार होते हो
तो चिंता पकड़ती
है। क्योंकि
दूसरों को भी
तुम मौका देते
हो कि
तुम्हारी
छाती पर सवार
होने की कोशिश
करें। कम से
कम तुम्हारे
छुटकारे से
बाहर निकलने
की चेष्टा
करें। जब तुम
पद की तलाश
में जाते हो
तो चिंता
स्वाभाविक
है।
एक
राज्य के
मुख्यमंत्री
मेरे पास आते
थे। वह हमेशा
कहते किसी तरह
से मेरी चिंता
से छुटकारा दिलाएं।
मैंने उनसे
कहा कि एक बात
साफ कर लो; अगर
मुख्यमंत्री
रहना है तो
चिंता में
कुशलता
प्राप्त करो,
छुटकारे की
कोशिश मत करो;
क्योंकि यह
मुख्यमंत्री
पद नहीं बचेगा,
अगर चिंता
से छुटकारा
करना है। और
अगर चिंता से
ही छूटना है
तो इतनी
तैयारी रखो कि
मुख्यमंत्री
पद छूट जाये।
वे बोले कि
नहीं आप
तो...आपकी कृपा
हो तो दोनों
चल सकते हैं।
किसी की कृपा
से दोनों नहीं
चल सकते।
'--फिर
आपका
आशीर्वाद
चाहिए।'
मैं
आशीर्वाद
इसमें दे भी
नहीं सकता।
क्योंकि यह
होने ही वाला
नहीं है।
चिंता न हो और
मुख्यमंत्री
का पद बना
रहे--कैसे
होगा? राकफेलर होना चाहते
हैं, और भिखमंगे
की तरह शान से
सोना भी चाहते
हो; दोनों
नहीं हो सकते।
भिखमंगे
को कुछ तो
बचने दो! इसको
नींद बची है, वह भी तुम
चाहते हो।
भिखमंगा
शांति से सो
सकता है
क्योंकि खोने
को कुछ नहीं
है, इसलिए
अशांति और
चिंता का कारण
क्या है? तुम्हारे
पास जितना
खोने को होगा,
उतनी
अशांति और
चिंता बढ़ेगी।
लेकिन
आदमी इसी मूढ़ता
का प्रयोग
करना चाहता है
जीवन में, इसी आशा में
कि चिंता भी न
रहे, धन भी
हो, पद भी
हो, प्रतिष्ठा
भी हो, महत्वाकांक्षा
भी पूरी हो और
चिंता भी न
हो। तुम असंभव
की मांग कर
रहे हो। यह
असंभव
होनेवाला
नहीं है, यह
स्पष्ट हो
जाना जरूरी
है।
चिंता
जायेगी तो महत्वाकांक्षा
जायेगी; तब
ध्यान
उत्पन्न
होगा।
इसलिए
बहुत लोग
ध्यान में
उत्सुक होते
हैं, लेकिन
गलत कारण से
उत्सुक होते
हैं। और जो
धंधा करने
वाले गुरु हैं,
वे समझते
हैं कि किस
कारण से लोग
ध्यान में उत्सुक
होते हैं। तो
महेश योगी
जैसे व्यक्ति
प्रचारित
करते हैं: कि
इस जगत में भी
लाभ होगा, उस
जगत में भी
लाभ होगा।
ध्यान
करोगे--धन भी
मिलेगा, धर्म
भी मिलेगा।
अमरीका
में अगर किसी
से कहा जाये
कि सिर्फ धर्म
मिलेगा तो फिर
वह उत्सुक ही
नहीं होते।
धर्म चाहता
कौन है? लोग
धन चाहते हैं।
और धन के
साथ-साथ अगर
शांति भी
मिलती हो तो
लोग लेने को
तैयार हैं।
लेकिन बात ही
व्यर्थ है।
चिंता
का कुछ लाभ है, इसलिए तो
लोग चिंतित
हैं, नहीं
तो लोग चिंतित
क्यों होते? लोग बिना
कारण चिंतित
हैं? बिना
लाभ के चिंतित
हैं? तुम
चिंता छोड़ना
चाहते हो, लाभ
बचा लेना
चाहते हो; यही
जटिलता है।
जिस दिन
तुम्हें यह
साफ हो जायेगा,
उस दिन तुम
चिंता को उतारकर
रख सकते हो, लेकिन साथ
ही लाभ भी
जाता है चिंता
का। महालाभ
के द्वार
खुलते हैं, लेकिन उनका
तुम्हें कोई
पता नहीं है।
ध्यान
सरल है।
तुम्हारी
सरलता चाहिए।
और
तुम्हारी
सरलता का अर्थ
है, विपरीत
दिशाओं में
यात्रा मत करो,
तुम सरल हो
जाओगे। तुम
विपरीत
दिशाओं में
चलोगे, तुम
जटिल हो
जाओगे।
एक
आदमी ने बैलगाड़ी
में दोनों तरफ
बैल जोत लिये
हैं, वह दोनों
तरफ हांक रहा
है; बैलगाड़ी कहीं नहीं
जा रही है। वह
परेशान है, वह
चीख-चिल्ला
रहा है। वह कह
रहा है, कोई
रास्ता बताओ।
उससे मैं कहता
हूं, एक
दिशा के बैल
खोल दो। दोनों
जोड़ियों
को एक ही दिशा
में जोत दो।
यह गाड़ी अभी
सरपट भागेगी।
पर दोनों
दिशाओं में
उसके लक्ष्य
हैं। इस तरफ
दुकान है, इस
तरफ मंदिर है;
इस तरफ
चिंता है, इस
तरफ शांति है;
इस तरफ धन
है, इस तरफ
ध्यान है; दोनों
वह चाहता है।
वह कहता है, आप कहते तो
ठीक हैं, लेकिन
कुछ ऐसा
आशीर्वाद दो
कि यह बैलगाड़ी
दोनों मंजिलों
पर पहुंच
जाये।
इसी
आशीर्वाद की
तलाश में
चमत्कारी
गुरुओं की खोज
करता है।
क्योंकि मेरे
जैसा आदमी तो
यह आशीर्वाद
दे ही नहीं
सकता।
क्योंकि जो
देता है, वह
या तो मूढ़
है, या
शैतान है। इस
आशीर्वाद का
आश्वासन देना
भी संघातक है।
क्योंकि उस
आदमी का जीवन
नष्ट हो रहा
है; उसकी
ऊर्जा व्यर्थ
हो रही है।
विपरीत
लक्ष्य एक साथ
नहीं पाये जा
सकते, यह
तुम्हें साफ
हो जाये तो
तुम सरल हो
जाओगे।
सरलता
का अर्थ है, तुम्हारे
जीवन में
विपरीत खो गये,
तुम्हारा
जीवन एक
लयबद्ध धारा
हो गया, तुम
एक तरफ बहना
शुरू हो गये।
फिर कोई अड़चन
नहीं है। फिर
तुम्हारी
सरिता ध्यान
के सागर में अपने
आप गिर
जायेगी। फिर
तुम्हें
ध्यान सीखने
की भी शायद
जरूरत न पड़े
क्योंकि
ध्यान कोई सिखा
नहीं सकता।
सरल व्यक्ति
के जीवन में
ध्यान के फूल
लगना शुरू हो
जाते हैं।
तो
तुमसे मैं
कहूंगा, सरल
हो जाओ, निर्दोष
हो जाओ। और
ध्यान रहे, जब मैं कहता
हूं निर्दोष
हो जाओ तो
मेरा मतलब यह
नहीं कि तुम
सिगरेट मत
पीना, तो
निर्दोष हो
जाओगे; कि
तुम शराब मत
पीना, तो
तुम निर्दोष
हो जाओगे; कि
तुम मांस मत
खाना, तो
तुम निर्दोष
हो
जाओगे--नहीं।
हालांकि मैं
जानता हूं, तुम निर्दोष
हो जाओगे तो
तुम सिगरेट न
पी सकोगे, शराब
तुम न छू
सकोगे, मांसाहार
असंभव होगा।
लेकिन तुम
शराब न पीओ, मांस न खाओ, सिगरेट न
पीओ तो तुम
निर्दोष हो
जाओगे, यह
मैं नहीं
कहता।
इतना
सस्ता नहीं है
मामला।
क्योंकि बहुत-से
लोग न शराब पी
रहे हैं, न
मांस खा रहे
हैं, न
सिगरेट पी रहे
हैं और
निर्दोष नहीं
हैं। बल्कि कई
दफे तो ऐसा
होता है कि
ऐसे आदमी
ज्यादा खतरनाक
हैं।
हिटलर
न शराब पीता, न मांस खाता,
न सिगरेट
पीता, हिटलर
शुद्ध
शाकाहारी है।
शुद्ध
शाकाहारी ही
इतना उपद्रव
कर सकता है, जितना हिटलर
ने किया। मुसोलिनी
शुद्ध
शाकाहारी है।
इन दो शाकाहारियों
ने इस पृथ्वी
पर जितना नर्क
खड़ा किया, उतना
कोई
मांसाहारी
कभी नहीं कर
पाया। अगर साधुओं
से पूछो तो
हिटलर बिलकुल
साधु मालूम
पड़ेगा। न
फिल्म देखता
है, न
संगीत में उसे
रस है, न
नाच देखने जाता
है। एक अर्थ
में करीब-करीब
ब्रह्मचारी
है, क्योंकि
स्त्री में भी
उसे रस नहीं।
ब्रह्म-मुहूर्त
में उठता है; और
करीब-करीब
अपनी कोठरी
में बंद है।
लेकिन बड़ा
विस्फोटक
आदमी सिद्ध
हुआ।
तो मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
इन-इन चीजों
को छोड़ दोगे
तो सरल हो
जाओगे। अगर तुमने
सरलता के लिए
इन्हें छोड़ा
तो तुमने गणित
तो पहले बिठा
लिया। यही
गणित तो
तुम्हारी
जटिलता है।
तुमको कोई
भरोसा दिला
देता है कि
सिगरेट मत पीओ
तो मोक्ष मिल
जायेगा; तो
तुम छोड़ देते
हो। कभी तुमने
सोचा कि कितने
सस्ते में तुम
मोक्ष पाना
चाहते हो? सिगरेट
छोड़कर तुम
मोक्ष पाना
चाहते हो।
सिगरेट छोड़कर
अगर मोक्ष
मिलता हो तो
पाने योग्य भी
नहीं है।
क्योंकि कीमत
कितनी! अगर
शराब छोड़कर
मोक्ष मिलता
हो तो पाने
योग्य भी नहीं
है। कितना
मूल्य होगा उसका,
जो शराब
छोड़ने से मिल
जाता हो?
नहीं, तुम क्या
करते हो, इससे
बहुत सवाल
नहीं है।
तुम्हारी
सरलता का
संबंध है कि
तुम विपरीत दिशाओं
में मत बहो।
तुम जो भी करो,
उसमें एक
संगति हो; उसमें
एक आंतरिक
संगीत हो; उसमें
विघटन और
विरोध न हो।
सरलता
का अर्थ है:
तुम एक तरफ
प्रवाहित। और
यही
बुद्धिमानी
का लक्षण है
कि तुम बहुत
तरफ न बहो, बहुत दिशाओं
में यात्रा मत
करो।
तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा एक
तीर की तरह
चले, तो
तुम लक्ष्य तक
पहुंच जाओगे।
लक्ष्य दूर नहीं
है। सरल होते
ही चित्त
ध्यान को
उपलब्ध हो जाता
है।
इस कथा
में ध्यान की
कठिनाई नहीं
बताई गई है; बताया गया
है, ध्यान
के संबंध में
बताना कठिन
है। तो एक तो कठिनाई
है बुद्ध की, जब वह छह
वर्ष तक ध्यान
की साधना करते
हैं। वह कठिनाई
बड़ी नहीं है।
दूसरी कठिनाई
है, चालीस
वर्षों तक जब
वे ध्यान के
संबंध में लोगों
को समझाते
हैं। वह दूसरी
कठिनाई बड़ी
है। पहली
कठिनाई तो वे
छह साल में
पार कर गये।
दूसरी कठिनाई
वे चालीस साल
में भी पार
नहीं कर पाये।
पहली कठिनाई
तो सभी लोग थोड़े-बहुत
दिनों में पार
कर लेते हैं, दूसरी
कठिनाई अब तक
कोई पार नहीं
कर पाया; कभी
कोई पार कर भी
नहीं पाएगा।
सत्य
को जानना सरल
है, सत्य को
बताना
मुश्किल है।
सत्य को जीना
सरल है। जीकर
ही बताना एक
मात्र रास्ता
है।
आज
इतना ही।
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