सूत्र:
पिताहमस्य
जगतो माता
धाता पिताम्ह:।
वेद्यं
पवित्रमोंकार
ऋक्साम
यजुरेव च।। 17।।
गतिर्भर्ता
प्रभु: साक्षी
निवास: शरणं
सुह्रत्।
प्रभव:
प्रलय: स्थानं
निधान
बीजमध्ययम्।।
18।।
और हे
अर्जुन! मैं
ही इस संपूर्ण
जगत का धाता
अर्थात धारण करने
वाला, पिता,
माता और
पितामह हूं, और जानने
योग्य पवित्र
ओंकार तथा
ऋग्वेदु
सामवेद और
यजुर्वेद भी
मैं ही हूं।
और है
अर्जुन
प्राप्त होने
योग्य गंतव्य
तथा भरण- योषण
करने वाला
सबका स्वामी, सबका साक्षी,
सबका वास
स्थान और शरण
लेने योग्य
तथा हित करने
वाला और उत्पत्ति
और प्रलयरूय
तथा सबका आधार, निधान
अर्थात
प्रलयकाल में
सबका जिसमें
लय होता ह्रै
और अविनाशी, बीज कारण भी
मैं ही हूं।
जैसे मार्ग
हैं अनेक और
मंजिल एक है, वैसे ही
प्रभु के रूप
भी हैं अनेक, वह जो
रूपायित हुआ
है, वह एक
है। ऐसा नहीं
है कि उसे एक
ही रूप में
देखा जा सके!
कोई रूप की
सीमा नहीं है।
जो जिस रूप
में खोजना चाहे,
उसे खोज ले
सकता है। सभी
रूप उसके हैं।
जो भी है, वही
है।
कृष्ण
इस सूत्र में
बहुत-से
शब्दों का
संकेत किए
हैं। वे
शब्द-संकेत
समझने जैसे
हैं, क्योंकि
उन शब्द-संकेतों
से ही साधना
का पथ भी
विस्तीर्ण
होता है। कहा
है, अर्जुन,
मैं ही इस
संपूर्ण जगत
का धाता
अर्थात धारण
करने वाला
हूं।
धर्म
शब्द से हम
परिचित हैं।
धर्म शब्द का
अर्थ होता है, जो धारण
करे, जो
धारण किए हुए
है! धर्म शब्द
से अर्थ
रिलीजन नहीं
होता। धर्म
शब्द से अर्थ
मजहब भी नहीं
होता। मजहब का
अर्थ होता है,
पंथ, सेक्ट,
संप्रदाय।
रिलीजन शब्द
का मौलिक अर्थ
होता है, जिससे
हम बंधे हैं, रिलीगेर, जिससे हम
बंधे हैं।
लेकिन यह बड़ी
कीमती बात है
कि भारत धर्म
को इस भाति
नहीं सोचता कि
जिससे हम बंधे
हैं, बल्कि
इस भांति
सोचता है कि
जिस पर हम सधे
हैं।
बंधन
शब्द
अप्रीतिकर भी
है, कुरूप
भी है। शायद
पश्चिम ने
धर्म को एक
बांधने वाली
सीमा-रेखा की
तरह देखा है, इसीलिए
पश्चिम ने
धर्म से मुक्त
होने की चेष्टा
भी की है।
जिससे हम बंधे
हैं, उससे
हम मुक्त भी
होना
चाहेंगे।
बंधन चाहे कितना
ही स्वर्ण का
क्यों न हो, विद्रोह
पैदा करेगा।
भारतीय
मनीषा धर्म को
एक बंधन नहीं
मानती, धर्म को एक
मुक्ति मानती
है। धर्म एक
ग्रंथि नहीं
है, जिससे
हम बंधे हैं; धर्म एक
स्वतंत्रता
है, जिसमें
हम मुक्त हो
सकते हैं।
धर्म शब्द का
अर्थ
जिसके
हम धारण किया
है। उससे हम
बंधे नहीं है, हम उससे ही
निष्पन्न हुए
हैं।
एक
वृक्ष है।
वृक्ष के नीचे
उतरें, तो जड़ों का
फैलाव है।
वृक्ष ऐसा भी
सोच सकता है
कि जमीन वह है,
जिससे मैं
बंधा हूं। और
इस सोचने में
भी गलती न
होगी।
क्योंकि
वृक्ष ऐसा देख
सकता है कि यह जमीन
ही है, जिसमें
मेरी जड़ें
उलझी हैं और
जिससे मैं
बंधा हूं।
वृक्ष जड़ों और
जमीन के बीच
के संबंध को
बंधन की भांति
भी देख सकता
है। और वृक्ष
इस भांति भी
देख सकता है
कि जमीन मेरा
बंधन नहीं है,
यह जमीन ही
है, जिस पर
मैं सधा हूं।
यह जड़ों और
जमीन के बीच
बंधन नहीं है,
जड़ों और
जमीन के बीच प्राणों
का संबंध है।
अगर
वृक्ष ऐसा
देखे कि जमीन
से मैं बंधा हूं, तो जमीन
से मुक्त होने
की कोशिश शुरू
हो जाएगी। इस
देखने से ही
कोशिश शुरू हो
जाएगी। यह दृष्टि
ही छुटकारे का
प्रारंभ
होगी। और
अभागा होगा वह
वृक्ष।
क्योंकि जहां
तक देखने का
संबंध है, वहा
तक तो कोई
हर्ज नहीं है
कि वृक्ष समझे
कि मैं जमीन
से बंधा हूं
क्योंकि आकाश
में उड़ नहीं
सकता, लेकिन
जिस दिन वृक्ष
इस बंधन से
मुक्त होने की
कोशिश करेगा,
उस दिन
वृक्ष अपने ही
हाथों अपनी
आत्महत्या कर
लेगा।
क्योंकि जड़ें
बंधन नहीं हैं,
जीवन हैं।
धर्म
का अर्थ है, जिसने
हमें धारण
किया है। वह
बंधन नहीं है,
वह हमारे प्राणों
का स्रोत है।
जड़ें बंधन
नहीं हैं, जड़ें
वृक्ष के
प्राण हैं। और
पृथ्वी ने उसे
बांधा नहीं है,
जीवन दिया
है। सच तो यह
है कि जड़ों के
कारण ही वह
आकाश में
फैलने में
समर्थ हुआ है।
जड़ों में जो
रस, जड़ों
में जो प्राण,
जो ऊर्जा
उसे उपलब्ध हो
रही है, वही
उसके पत्ते और
फूल बनकर आकाश
में खिली है।
यह जो वृक्ष
की यात्रा है
आकाश की तरफ
उठने की, यह
जो महत्वाकांक्षा
है कि आकाश को
छू लूं , यह
जड़ों के ही
आधार पर है।
और
ध्यान रहे, जितनी
जड़ें गहरी
जाएंगी जमीन
में, उतना
ही वृक्ष ऊपर
जाएगा आकाश में।
अगर जड़ें जमीन
के पूरे के
पूरे प्राणों
में प्रविष्ट
हो जाएं, तो
वृक्ष आकाश को
स्पर्श कर
लेगा। जितनी
होगी गहराई
जड़ों की, उतनी
ऊंचाई हो
जाएगी वृक्ष
की। जड़ें
दुश्मन नहीं
हैं, और
जड़ें ऊंचे
उठने में बाधा
भी नहीं हैं; और जड़ें
आकाश में उड़ने
में सहयोगी
हैं, साथी
हैं। उनके
बिना वृक्ष
बचेगा ही नहीं,
आकाश में
उड़ने का तो
सवाल ही नहीं
है।
भारतीय
मनीषा कहती है
कि धर्म है वह, जो हमें
धारण किए है।
इसमें एक और
मजे की बात है
कि अगर आपको
बंधन में डाला
जाए, तो
आपकी जानकारी
के बिना नहीं
डाला जा सकता।
और बंधन में
डालने का तो अर्थ
ही यह होगा कि
पहले कभी आप
बंधन के बाहर
भी थे, और
कभी बंधन में
डाल दिए गए
हैं, और
कभी बंधन से
फिर अलग भी हो
सकते हैं।
यहां
एक दूसरा
सूत्र आप खयाल
ले लें।
भारतीय मनीषा
की दृष्टि ऐसी
है कि धर्म वह
है, जिससे
हम चाहें तो
भी अलग नहीं
हो सकते, कोई
उपाय नहीं है।
हम चाहें तो
भी हम धर्म से
अलग नहीं हो
सकते, क्योंकि
धर्म हमारे
प्राणों का
आधार है। धर्म
से अलग होकर
हम हो ही नहीं
सकते, हमारा
अस्तित्व भी
नहीं होगा।
जैसे वृक्ष जमीन
से अलग होकर
नहीं हो सकता,
और जैसे
मछली सागर से
अलग होकर नहीं
हो सकती। क्योंकि
सागर सिर्फ
मछली के लिए
माध्यम ही
नहीं है, जिसमें
वह होती है, वह उसका
प्राण भी है।
सागर ने उसे
धारण भी किया
है, जन्माया
भी है, जिलाया
भी है। सागर
उसे लीन भी
करेगा अपने
में। सागर ही
मछली के भीतर
भी दौड़ रहा
है। इसलिए सागर
के बाहर आकर
मछली को जीना
असंभव है।
थोड़ी-बहुत देर
जी सकती है, जितनी देर
तक, भीतर
जो सागर था, वह सूख न
जाए।
थोड़ी-बहुत देर
वृक्ष भी हरा
रहेगा, जितनी
देर तक जमीन
से खींची गई
रस- धार मौजूद
रहेगी। फिर
सूख जाएगा।
धर्म
वह है, जिससे
हम अलग नहीं
हो सकते। वह
हमारी आत्मा
है। इसलिए
धर्म की जो
दूसरी बड़ी
व्याख्या भारत
ने की है, वह
महावीर ने की
है। हिंदुओं
ने व्याख्या
की है कि धर्म
वह है, जो
धारण किए है।
महावीर ने
व्याख्या की
है कि धर्म वह
है, जो
हमारा स्वभाव
है। बात एक ही
है। क्योंकि
स्वभाव ही
हमें धारण किए
हुए है; या
जो हमें धारण
किए हुए है, वही हमारा
स्वभाव है, वही हमारा
इनट्रिजिक
नेचर है; वही
हम हैं।
तो
कृष्ण अपनी
पहली परिभाषा
देते हैं, वे कहते
हैं, मैं
धर्म हूं; मैं
धाता हूं; मैं
वह हूं, जो
धारण किए है।
जो
हमें धारण किए
है, उसे
हम भूल सकते
हैं, उससे
हम दूर नहीं
हो सकते। जो
धारण किए है, उसे हम भूल
सकते हैं, उससे
हम दूर नहीं
हो सकते। उसका
हम विस्मरण कर
सकते हैं, उससे
हम विच्छिन्न
नहीं हो सकते।
उसे हम
जन्मों-जन्मों
तक याद न करें,
यह हो सकता
है, लेकिन
हम क्षणभर को
भी उससे भिन्न
नहीं हो सकते।
इसलिए सारी
दुनिया में
धर्म को सीखने
की भाषा में
समझा गया है, धर्म भी एक
लर्निग है, एक शिक्षण
है। भारत ने
उसे इस भाषा
में नहीं समझा।
भारत के लिए
धर्म शिक्षण
नहीं है, पुनर्स्मरण
है, रिमेंबरिंग
है। हम सिर्फ
भूल सकते हैं,
खो नहीं
सकते। और जो
बहुत निकट
होता है, उसे
भूलना आसान
है।
वृक्ष
अगर अपनी जड़ों
को भूल जाए, तो बहुत
कठिन नहीं है।
कई कारण हैं।
पहला तो कारण
यह है कि जड़ें
छिपी होती हैं
जमीन के भीतर।
असल में जहां
भी जन्म होता
है, वहां
गुह्य अंधकार
चाहिए। चाहे
मां के पेट में
बच्चे का जन्म
होता हो, तो
भी गुह्य
अंधकार
चाहिए। और
चाहे जड़ों में
वृक्ष का जन्म
होता हो, तो
भी पृथ्वी का
गुह्य अंधकार
चाहिए। जहां
भी जन्म होता
है, वहा
इतनी निजता
चाहिए कि
प्रकाश भी
बाधा न डाले।
वहा इतना मौन
चाहिए, इतनी
शांति चाहिए
कि प्रकाश की
किरण भी आकर
कंपन पैदा न करे।
प्रकाश
के साथ
हलन-चलन शुरू
हो जाता है।
अंधकार महाशांति
है। और इसलिए
हम अंधकार से
डरते हैं, क्योंकि
हम कोई भी शांति
नहीं चाहते।
जो भी शांति
चाहेगा, वह
अंधकार से
नहीं डरेगा, अंधकार को
प्रेम करने
लगेगा। जो
जितनी ज्यादा
अशांति से भरा
होगा, उतना
अंधकार से
डरेगा, भयभीत
होगा। मैं ऐसे
लोगों को
जानता हूं जो
अंधकार में सो
भी नहीं सकते!
रात को प्रकाश
जलाकर ही
सोएंगे। यह
अशांति की
आखिरी सीमा
है। जड़ें तो
अंधकार में
बड़ी होती हैं,
इसलिए छिपी
होती हैं। जो
भी
महत्वपूर्ण
है, वह
गुप्त होता
है। जो प्रकट
होता है, वह
महत्वपूर्ण
नहीं है।
ध्यान
रहे, जो
भी
महत्वपूर्ण
है, वह सदा
गुप्त होता
है। जडें
गुप्त हैं, वे
महत्वपूर्ण
हैं; उन्हें
उघाड़ा नहीं जा
सकता। शाखाएं
उघडी हैं, जो
उतनी
महत्वपूर्ण
नहीं हैं। हम
एक वृक्ष की शाखाओं
को काट दें, नई शाखाएं आ
जाएंगी। एक
पूरा वृक्ष
गिर जाए, नए
अंकुर निकल
आएंगे और नया
वृक्ष
निर्मित हो जाएगा।
क्योंकि वह जो
प्राण है, वह
नीचे छिपा है।
उस पर आघात भी
नहीं पहुंचता
है। लेकिन
जड़ें काट दें,
फिर सारा
वृक्ष
कुम्हला
जाएगा और मर
जाएगा।
तो
जहां जीवन का
सूत्र है, उसे
छिपाकर रखा है
जीवन ने। जड़ें
छिपी हैं; वृक्ष
भूल सकता है।
बहुत
स्वाभाविक है
कि वृक्ष को
जड़ों की कोई
याद न आए। फूल
दिखाई पड़े, शाखाएं
दिखाई पड़ें।
रोशनी में
हैं, आकाश
में फैली हैं,
महत्वाकांक्षा
का हिस्सा
हैं। पक्षी
आते हैं, शाखाओं
पर विश्राम
करते हैं। फूल
आते हैं, पक्षी
गीत गाते हैं।
सुबह सूरज
निकलता है, हवाएं झोंके
देती हैं।
तूफान आते हैं,
आंधिया आती
हैं। वर्षा
होती है, रात
में चांदनी
बरसती है। सब
वृक्ष के ऊपर
घटित होता है।
वृक्ष इसमें
खो जा सकता है,
जड़ें भूल जा
सकता है।
लेकिन
जब वृक्ष को
जडों की
बिलकुल भी याद
नहीं है, तब भी जड़ें
ही उसे धारण
किए हुए हैं।
जब उसे बिलकुल
भी स्मरण नहीं
है, जब वह
कभी धन्यवाद
का एक शब्द भी
जड़ों से नहीं कहता,
जब कभी
लौटकर जड़ों का
कोई आभार भी
नहीं मानता, तब भी जड़ें
उसे धारण किए
हुए हैं।
तो एक
व्यक्ति
नास्तिक हो, ईश्वर को
इनकार कर दे, तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता है, ईश्वर
ही उसे धारण
किए हुए है।
और एक व्यक्ति
भूल जाए, और
ईश्वर की उसे
कोई सुध न रहे,
तो भी कोई
फर्क नहीं
पड़ता, ईश्वर
ही उसे धारण
किए हुए है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं हूं
धाता, मैं
वह हूं जो
धारण किए हुए
है। कोई जाने,
न जाने, पहचाने,
न पहचाने, स्मृति आती
हो, न आती
हो, चाहे
तो इनकार भी
कर दे, तो
भी मैं धारण
किए हुए हूं।
आप
इनकार कर सकते
हैं, लेकिन
ईश्वर से बच
नहीं सकते। आप
भाग सकते हैं,
कितने ही
भागें! जैसे
कोई मछली सागर
में सागर से
भागती हो, भागती
जाए, मीलों
के चक्कर लगाए
और फिर भी पाए
कि सागर में
है। ऐसे ही हर
व्यक्ति जो
ईश्वर से
भागता है, एक
दिन पाता है
कि वह जिसमें
भाग रहा था, वही तो
ईश्वर है। कहौ
भागकर जाने का
उपाय है?
इसलिए
हमने बहुत
मौलिक और
आधारभूत
व्याख्या
पकड़ी है धर्म
की, और
वह है कि जो
हमें धारण किए
है। और आपको
ही नहीं।
सारी
दुनिया में
धर्मों ने
मनुष्य को
केंद्र बना
लिया है।
इसलिए बहुत
धर्म हैं, जो
कहेंगे कि
जानवरों में
तो कोई आत्मा
ही नहीं है, इसलिए उनकी
हिंसा की जा
सकती है, वृक्षों
में कोई आत्मा
नहीं है, उन्हें
काटा जा सकता
है, सिर्फ
आदमी में
आत्मा है।
अधिकतर धर्म
एन्थोपोसेंट्रिक
हैं, आदमी
को केंद्र मान
लिया है।
भारत
ऐसा नहीं
मानता। भारत
यह नहीं कहता
कि जो आदमी को
धारण किए हुए
है, वह
ईश्वर है।
भारत यह कहता
है कि
अस्तित्व ही
जिसमें
सम्हला हुआ है,
जो
अस्तित्व को
ही धारण किए
हुए है, वह
ईश्वर है। वही
नहीं है ईश्वर,
जो आपको
धारण किए हुए
है; वह जो
वृक्ष को धारण
किए हुए है, वह भी ईश्वर
है। वह जो नदी
में बह रहा है,
वह भी ईश्वर
है। वह जो
सूरज में
पिघलकर आग बन
रहा है, वह
भी ईश्वर है।
और वही ईश्वर
नहीं है, जो
आपको
प्रीतिकर है,
जो
अप्रीतिकर है,
वह भी ईश्वर
है। अमृत ही
ईश्वर नहीं है,
जहर भी
ईश्वर है। जहर
के होने के
लिए भी उसका ही
आधार चाहिए।
उसके बिना कुछ
भी नहीं हो
सकता है।
इसे हम
ऐसा समझें, कि ईश्वर
से हमारा अर्थ
है, अस्तित्व
का जो सार है।
इसलिए ईश्वर
हमारे लिए
व्यक्ति नहीं
है। वह कहीं
आकाश में सात
आसमानों के
ऊपर बैठा हुआ
सिंहासन पर
कोई व्यक्ति
नहीं है, जो
राज-काज चला
रहा है। इतनी
बचकानी हमारी
धारणा नहीं
है। यह बच्चों
का ईश्वर है।
इससे और गहरे
ईश्वर को
बच्चे नहीं
समझ सकते।
लेकिन हमारे लिए
ईश्वर का अर्थ
है, जिसमें
सभी कुछ धारा
हुआ है-सभी
कुछ; जन्म
भी और मृत्यु
भी, और
सृजन भी और
प्रलय भी।
तो
इसका साधक के
लिए क्या अर्थ
होगा?
साधक
के लिए अर्थ
होगा कि जब भी
आप किसी चीज
को देखें, तो उसकी
शाखाओं पर कम,
उसकी जड़ों
पर ज्यादा
ध्यान दें। और
जब भी किसी
चीज को आप
देखें, तो
जो प्रकट है, उस पर कम, और
जो अप्रकट है,
उस पर
ज्यादा ध्यान
दें। जो दिखाई
पड़ रहा है, उस
पर कम, और
जिसके कारण
दिखाई पड़ रहा
है, उसकी
खोज करें।
मछली को देखें,
तो सागर की
याद करें'।
और वृक्ष को
देखें, तो
जड़ों का स्मरण
आ जाए। सदा ही
उसकी खोज करते
रहें, जो
नीचे छिपा है
और सभी को
सम्हाले हुए
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, मैं
धाता हूं। और
अगर कोई धर्म
की खोज करता
रहे, तो
मुझ तक पहुंच
जाता है।
मैं
पिता हूं माता
हूं? पितामह
हूं।
अजीब
है बात।
क्योंकि वे कह
रहे हैं, मैं पिता भी
हूं! पिता
कहते हों, तो
फिर माता नहीं
कहना चाहिए; कहते हैं, मैं माता भी
हूं! और यहां
तक भी ठीक था, फिर बात और
भी अतर्क्य हो
जाती है, वे
कहते हैं, पिता
का पिता भी
मैं ही हूं; पितामह भी
मैं ही हूं? ऐसा कहकर
क्या कहना
चाहते हैं? ऐसा कहकर वे
यह कहना चाहते
हैं-इसे हम
थोड़ा दो-तीन
तरफ से समझने
की कोशिश
करें। आप पैदा
हुए। तो शायद
आपको खयाल
होगा, जन्म
की एक तिथि है
और फिर मृत्यु
की एक तिथि है,
इन दोनों के
बीच आप समाप्त
हो जाएंगे।
लेकिन इस जगत
में कोई भी
चीज
आइसोलेटेड
नहीं है। इस जगत
में कोई चीज
अलग- थलग नहीं
है। जन्म के पहले
भी आपको किसी
न किसी रूप
में होना ही
चाहिए, अन्यथा
आपका जन्म
नहीं हो सकता।
जगत एक श्रृंखला
है, जगत एक
कड़ियों का जोड़
है, जिसमें
हर कड़ी पीछे
की कड़ी से
जुड़ी है, और
हर कड़ी आगे की
कड़ी से भी
जुड़ी है। जिसे
आप जन्म कहते
हैं, वह
सिर्फ एक कड़ी
की शुरुआत है;
पिछली कड़ी
पीछे छिपी है।
और जिसे आप
मृत्यु कहते
हैं, वह
फिर एक कड़ी का
अंत है; लेकिन
अगली कड़ी आगे
मौजूद है। इस
जगत में कोई चीज
विच्छिन्न
नहीं है। जीवन
एक सतत
श्रृंखला है,
एक प्रवाह
है।
अगर
ईश्वर को
खोजना है, तो
प्रवाह को
देखना पड़ेगा;
और अगर
ईश्वर से बचना
है, तो
व्यक्ति को
देखना पड़ेगा।
अगर आप
व्यक्ति को
देखेंगे, तो
ईश्वर को
खोजना
मुश्किल है।
मैं
पैदा हुआ, मैं मर
जाऊंगा, अगर
यही जीवन है, तो इस जगत
में ईश्वर का
कोई अनुसंधान
नहीं हो सकता।
मेरा जन्म भी
तब बेबूझ है, क्योंकि कोई
कारण नहीं, एक
एक्सिडेंट, एक दुर्घटना
मालूम होती है
कि मैं पैदा हुआ;
और मेरी
मृत्यु भी एक
दुर्घटना
होगी। इन दोनों
के पार, जगत
के अस्तित्व
से मेरा क्या
संबंध है? जब
मैं नहीं था, तब भी जगत था;
और जब मैं
नहीं रहूंगा,
तब भी जगत
रहेगा। तो मैं
इस जगत से अलग
हो गया, मेरे
संबंध टूट गए।
और जब
मैं नहीं
रहूंगा, तब भी फूल
खिलते रहेंगे।
और जब मैं
नहीं रहूंगा,
तब भी वसंत
आएगा और पक्षी
गीत गाते
रहेंगे। और जब
मैं नहीं
रहूंगा, तब
भी झरने
बहेंगे और
नाचेंगे और
सागर की तरफ चलेंगे।
तब तो इस जगत
से मेरी
शत्रुता भी
निर्मित हो
गई!।, क्योंकि
मेरे होने न
होने से इस
जगत की धारा का
कोई भी संबंध
नहीं मालूम
पड़ता। मैं अलग
हो गया। मैं
टुकड़ा हो गया।
पश्चिम
की दृष्टि ऐसी
ही है, व्यक्ति
को एक टुकडे
की तरह देखने
की। और इसलिए
पश्चिम में
जीवन को देखने
का ढंग संघर्ष
का हो गया।
अगर मैं अलग
हूं तो जीवन
संघर्ष है; और अगर मैं
एक हूं, तो
जीवन समर्पण
होगा।
अगर
मैं इस जगत से
अलग हूं और
मेरे जन्म से
इस जगत को कोई
प्रयोजन नहीं
है; मैं
जब नहीं था, तो जगत में
कौन-सी कमी थी?
कोई भी तो
मेरे न होने
से फर्क नहीं
पड़ता था। और
जब मैं कल
नहीं हो
जाऊंगा, तो
जगत में
कौन-सी कमी हो
जाएगी? कोई
भी तो फर्क
नहीं पड़ेगा।
तो
मेरा होना और
जगत का होना, दोनों
संबद्ध नहीं
मालूम होते।
नहीं तो जब मैं
नहीं था, तो
जगत में कुछ
कमी होनी
चाहिए। और जब
मैं न रह जाऊं,
तब एक खाली
जगह, एक
रिक्त जगह छूट
जानी चाहिए, जो फिर भरी न
जा सके।
लेकिन
ऐसा नहीं
होगा। मेरे
होने न होने
से इस विराट
प्रवाह में
कहीं भी कोई
भनक भी न
पड़ेगी। तो फिर
मैं अलग हूं
और यह जगत अलग
है। और
निश्चित ही इस
जगत और मेरे
बीच जो संबंध
है, वह
मैत्री और
प्रेम का नहीं,
संघर्ष का
और शत्रुता का
है। इस। जगत
से मुझे जीतना
है, ताकि
मैं ज्यादा जी
सकूं। इस जगत
से मुझे बचना
है, ताकि
यह जगत मुझे
पीस न डाले।
जगत
बिलकुल
बेरुखा मालूम
पड़ता है।
वृक्ष के नीचे
खड़े हों, वृक्ष ऊपर
गिर जाता है!
और जरा भी खबर
नहीं देता है
कि मैं गिर
रहा हूं? हट
जाओ! .और तूफान
आता है, और
आप गिर जा
सकते हैं। आंधी
आपको मिटा दे
सकती है। सागर
आपको डुबा ले
सकता है। पहाड़
आपको दबा दे
सकता है। इस
जगत में चारों
तरफ अस्तित्व
को आपकी कोई
भी चिंता नहीं
है। एक
शत्रुता है, जगत आपको
मिटाने पर
तुला है। तो
आप जगत से संघर्ष
करने को तत्पर
हो जाएं।
इसलिए
पश्चिम ने एक
भाषा खोजी है, वह भाषा
युद्ध की भाषा
है, संघर्ष
की भाषा है।
इसलिए ऐसी
किताबें लिखी
गई हैं पिछले
पचास वर्षों
में।
बर्ट्रेड
रसेल ने भी एक
किताब लिखी है,
नाम दिया है,
कांक्वेस्ट
आफ नेचर, प्रकृति
की विजय!
विजय
की भाषा ही
संघर्ष और
युद्ध की भाषा
है। हम उसे
कैसे जीत सकते
हैं, जो
हमारा प्राण
है? हम उसे
कैसे जीत सकते
हैं, जो
हमें धारण किए
है? हमारा
उससे क्या
संघर्ष हो
सकता है? मछली
का क्या
संघर्ष सागर
से? वृक्ष
की जड़ों का
क्या संघर्ष
पृथ्वी से? लेकिन
दृष्टि पर
निर्भर
करेगा।
तो
कृष्ण कहते
हैं, मैं
तुम में ही
नहीं हूं,
मैं तुम्हारी
मां में भी
हूं? तुम्हारे
पिता में भी, पिता के
पिता में भी।
श्रृंखला
की खबर दे रहे
हैं वे। वे यह
कह रहे हैं कि
तुम तुम में
ही नहीं हो, तुम
तुम्हारी मां
में भी थे, तुम
तुम्हारे
पिता में भी
थे, और तुम
तुम्हारे
पिता के पिता
में भी थे। और
तुम अपने
बच्चों में भी
रहोगे, और
तुम अपने
बच्चों के
बच्चों में भी
रहोगे। यह जगत
तुमसे कभी भी
खाली नहीं
होगा, और
यह जगत तुमसे
कभी खाली नहीं
था। यह जगत
तुमसे सदा ही
भरा रहा है; और यह जगत
सदा तुमसे भरा
ही रहेगा। इस
जगत के तुम
अनिवार्य
हिस्से हो। इस
जगत में और
तुम्हारे बीच
एक पारिवारिक
नाता है। यह
जगत तुम्हारा
पड़ोसी ही नहीं
है, इस जगत
के और
तुम्हारे बीच,
जैसे मां और
बेटे के बीच, पिता और
बेटे के बीच
नाता हो, वैसा
नाता है। तुम
इसकी ही कड़ी
हो।
एक लहर
उठती है सागर
में, क्षणभर
को नाचती है
आकाश में, सूरज
को छूने की
कोशिश करती है,
और फिर गिर
जाती है। लहर
सोच सकती है
कि मैं सागर
से अलग हूं।
सोच सकती है।
अलग होती भी
है क्षणभर को।
प्रकट ही
दिखाई पड़ता है
कि सागर से
अलग है। छलांग
भरती है आकाश
की तरफ, पूरा
सागर नीचे पड़ा
रह जाता है, सिर्फ लहर
उठती है।
तो लहर
को यह खयाल
अगर आ जाए, यह
अहंकार अगर आ
जाए कि मैं
अलग हूं तो
गलती तो कुछ
भी नहीं है।
और जब लहर को
सागर नीचे
खींचने लगे, तो लहर को
ऐसा लगे कि
सागर मुझे
मिटाने को तत्पर
है, और
हवाएं मुझे
तोड़ देने को
उत्सुक हैं, और सारा जगत
मेरे खिलाफ है,
और सारा जगत
मुझे मिटाने
की चेष्टा में
लगा है, तो
मुझे लड़ना है!
यह भी
तर्कयुक्त
होगा। पहले निर्णय
के बाद, यह
दूसरी बात
स्वाभाविक
है।
लेकिन
लहर को सागर
मिटाने को
उत्सुक है? सागर लहर
को मिटाने को
उत्सुक हो भी
कैसे सकता है!
और यह सच है कि
लहर सागर में
ही मिटती है।
फिर भी सागर
लहर को मिटाने
को उत्सुक
नहीं है। क्योंकि
लहर को यह पता
ही नहीं है कि
वह सागर का बढ़ा
हुआ हाथ है, और कुछ भी
नहीं है। वह
सागर की ही
छाती पर उठी
एक तरंग है।
वह सागर की ही
छाती है। वह
सागर की ही
महत्वाकांक्षा
है, जो छलांग
लगा गई है।
इससे भिन्न
नहीं है। सागर
उसे क्यों
मिटाएगा! सागर
ही है वह।
कृष्ण
कहते हैं, मैं मां
भी हूं पिता
भी हूं? पितामह
भी हूं।
वे यह
कह रहे हैं कि
मैं वह अनंत
श्रृंखला हूं, जिसकी
तुम एक कड़ी
हो। मैं
तुम्हारे
पीछे
तुम्हारे
पिता की तरह
छिपा हूं; तुम्हारे
पीछे
तुम्हारी मां
की तरह छिपा
हूं; उनके
भी पीछे, उनके
भी पीछे, मैं
सदा तुम्हारे
पीछे खड़ा हूं।
तुम मेरे ही बढ़े
हुए हाथ हो; तुम मेरी ही
लहर हो; तुम
मेरी ही तरंग
हो। और
तुम्हीं नहीं
हो, तुम्हारी
मां भी थी; तुम्हारे
पिता भी थे, उनके पिता
भी थे।
समझें।
एक दृष्टि है
व्यक्ति को
व्यक्ति मानने
की, एटामिक,
अणु की तरह
अलग। लीबनिज
ने इसके लिए
एक ठीक शब्द
पश्चिम में
खोजा है। उसने
शब्द दिया है,
मोनोड।
मोनोड का मतलब
होता है, एक
ऐसा अणु, जिसमें
कोई
खिड़की-दरवाजे
नहीं हैं; जो
सब तरफ से बंद
है।
तो हम
व्यक्ति को
मोनोड समझ
सकते हैं, विडोलेस,
डोरलेस, एटामिक,
क्लोब्द, सब तरफ से
बंद एक मकान, जिसमें कोई खिड़की
नहीं, कोई
दरवाजा नहीं।
सब तरफ से
बंद। कहीं
बाहर से
जुड्ने का कोई
सेतु नहीं। कोई
चर्चा नहीं हो
सकती। पड़ोसी
से मिलने का
कोई उपाय
नहीं। हाथ
फैलाकर
दोस्ती नहीं
बांधी जा
सकती। सब तरफ
से बंद। ऐसा
प्रत्येक
व्यक्ति एक
बंद अणु है।
अगर ऐसा है, तो जगत एक
भयंकर संघर्ष
होगा और एक
भयंकर असफलता
भी।
कृष्ण
कहते हैं, जगत या
व्यक्ति, अलग-अलग
चीजें नहीं
हैं, एक
लंबी
श्रृंखला है।
जिसमें हर चीज
पिछली कड़ी से
और अगली कड़ी
से जुड़ी है।
यह जो वृक्ष
की जड़ है, यह
जो वृक्ष के
शिखर पर फूल
खिला है, इससे
जुड़ी है। अगर
फूल से बात कर
रहे होते अर्जुन
की जगह कृष्ण,
तो फूल से
वे कहते कि
मैं तेरे भीतर
तो हूं ही; तेरी
जडों के भीतर
भी मैं ही
हूं। और तेरी
जड़ें जिस बीज
से पैदा हुई
थीं, उसके
भीतर भी मैं
ही था। और वह
बीज जिस वृक्ष
पर लगा था, वह
भी मैं हूं।
और वह वृक्ष
जिन जड़ों से
आया था, वह
भी मैं। और तू
लौटता जा पीछे;
मैं तेरा
पूरा इतिहास
हूं दि होल
हिस्ट्री। मैं
तेरा अनंत
इतिहास हूं।
सब जो हुआ है
पहले, उसमें
मैं था। और
अभी जो हो रहा
है, वह
उससे जुड़ा हुआ
अंग है।
व्यक्ति
अपने को
अस्तित्व से
अलग न समझे, तो ही
धर्म के अनुभव
में उतरता है।
अलग समझे, तो
अधर्म के
अनुभव में
यात्रा शुरू
हो जाती है।
व्यक्ति अपने
को जगत से एक
जान पाए, तो
तत्क्षण लहर
फैलकर सागर बन
जाती है।
और काश!
मैं यह देख
सकूं कि मैं
अपने पिता में, अपनी मां
में, उनके
पिता में, उनकी
मां में, अनंत-अनंत
श्रृंखलाओं
में किसी न
किसी रूप में
मौजूद था, तो
फिर मेरा जन्म
कोई अनहोनी
घटना नहीं रह
जाती, एक
लंबी
श्रृंखला का
हिस्सा हो जाता
है। फिर मेरी
मृत्यु भी
मृत्यु नहीं
होगी; क्योंकि
जब मेरा जन्म
मेरा जन्म
नहीं है, तो
मेरी मृत्यु
भी मेरी
मृत्यु नहीं
हो सकती। मेरा
जन्म एक लबी
श्रृंखला का
हिस्सा है और
मेरी मृत्यु
भी एक लंबी
श्रृंखला का
हिस्सा होगी।
और
तीसरी बात
कहते हैं, और जानने
योग्य पवित्र
ओंकार मैं
हूं। अतीत की
बात कही कि यह
मैं हूं। अतीत
की सारी
श्रृंखला मैं हूं;
एम दि पास्ट,
दि होल
पास्ट। पूरा
बीता हुआ सब
मैं हूं। और तत्क्षण
भविष्य की बात
कहते हैं कि
जानने योग्य
ओंकार भी मैं
हूं।
'ओंकार
का अनुभव इस
जगत का
आत्यंतिक, अंतिम
अनुभव है।
कहना चाहिए, दि अल्टिमेट
फ्यूचर। जो हो
सकती है आखिरी
बात, वह है
ओंकार का
अनुभव।
तो
कृष्ण कहते
हैं, भविष्य
भी मैं हूं।
कहते हैं, अतीत
ही मैं नहीं
हूं तुम्हारा
पिता ही मैं
नहीं हूं? पिता
का पिता ही
मैं नहीं हूं, तुम्हारी
जो भी संभावना
है भविष्य की,
वह भी मैं
हूं। तुम जो
हो सकते हो, वह भी मैं
हूं। तुम जो
थे, वह मैं
हूं ही। तुम
जो हो, वह
मैं हूं ही।
तुम जो हो
सकते हो; वह
फूल, जो
अभी नहीं खिला,
खिलेगा; वह
भी मैं हूं।
और वह जो बीज
अभी नहीं लगा,
लगेगा, वह
भी मैं हूं।
इस जगत का
अतीत ही मैं
नहीं हूं? इस
जगत की संपूर्ण
संभावना भी
मैं हूं। जो
कुछ भी हो
सकेगा, वह
भी मैं हूं।
क्योंकि
अगर परमात्मा
सिर्फ अतीत है
और भविष्य
नहीं, तो
व्यर्थ है।
क्योंकि अतीत
तो हो चुका।
जो हो चुका, अब उससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। जो
नहीं हुआ है, वही हमारी
आशा है। अगर
परमात्मा
सिर्फ हमारा अतीत
है, तो
भविष्य
अंधकार है।
अतीत तो जा
चुका, मर
चुका, हो
चुका। मौलिक
रूप से
परमात्मा को
हमारा भविष्य
होना चाहिए।
तो ही आशा, सार्थक
आशा का जन्म
होता है, तो
ही सार्थक
अभीप्सा का, उस
महत्वाकांक्षा
का, जो
अंतिम को
अनुभव करना
चाहती है।।
कृष्ण
कहते हैं, मैं
तुम्हारा
भविष्य भी
हूं। और
भविष्य में अंतिम
घटना घट सकती
है, वह वे
कहते हैं। वे
कहते हैं, ओंकार
भी मैं हूं।
ओंकार
का अर्थ है, जिस दिन
व्यक्ति अपने
को विश्व के
साथ एक अनुभव
करता है, उस
दिन जो ध्वनि
बरसती है। जिस
दिन व्यक्ति
का आकार में
बंधा हुआ आकाश
निराकार आकाश
में गिरता है,
जिस दिन
व्यक्ति की
छोटी-सी सीमित
लहर असीम सागर
में खो जाती
है, उस दिन
जो संगीत
बरसता है, उस
दिन जो ध्वनि
का अनुभव होता
है, उस दिन
जो मूल-मंत्र
गूंजता है, उस
मूल-मंत्र का
नाम ओंकार है।
ओंकार जगत की
परम शांति में
गंजने वाले
संगीत का नाम
है।
संगीत
दो तरह के
हैं। एक संगीत
जिसे पैदा
करने के लिए
हमें स्वर
उठाने पड़ते
हैं, शब्द
जगाने पड़ते
हैं, ध्वनि
पैदा करनी
पड़ती है। इसका
अर्थ हुआ, क्योंकि
ध्वनि पैदा
करने का अर्थ
होता है कि कहीं
कोई चीज घर्षण
करेगी, तो
ध्वनि पैदा
होगी। जैसे
मैं अपनी
दोनों ताली
बजाऊं, तो
आवाज पैदा
होगी। यह दो
तालियों के
बीच जो घर्षण
होगा, जो
संघर्ष होगा,
उससे आवाज
पैदा होगी।
तो
हमारा जो
संगीत है, जिससे हम
परिचित हैं, वह संगीत
संघर्ष का
संगीत है।
चाहे होंठ से
होंठ टकराते
हों, चाहे
कंठ के भीतर
की मांस-पेशियां
टकराती हों, चाहे मेरे
मुंह से
निकलती हुई
वायु का धक्का
आगे की वायु
से टकराता हो,
लेकिन
टकराहट से
पैदा होता है
संगीत। हमारी
सभी ध्वनियां
टकराहट से
पैदा होती
हैं। हम जो भी
बोलते हैं, वह एक
व्याघात है, एक
डिस्टरबेंस
है।
ओंकार
उस ध्वनि का
नाम है, जब सब
व्याघात खो
जाते हैं, सब
तालियां बंद
हो जाती हैं, सब संघर्ष
सो जाता है, सारा जगत
विराट शांति
में लीन हो
जाता है, तब
भी उस सन्नाटे
में एक ध्वनि
सुनाई पडती
है। वह
सन्नाटे की
ध्वनि है, वॉइस
आफ साइलेंस; वह शून्य का
स्वर है। उस
क्षण सन्नाटे
में जो ध्वनि
गूंजती है, उस ध्वनि का,
उस संगीत का
नाम ओंकार है।
अब तक
हमने जो
ध्वनियां
जानी हैं, वे पैदा
की हुई हैं।
अकेली एक
ध्वनि है, जो
पैदा की हुई
नहीं है, जो
जगत का स्वभाव
है, उस
ध्वनि का नाम
ओंकार है।
इस
ओंकार को
कृष्ण कहते
हैं, यह
अंतिम भी मैं
हूं। जिस दिन
सब खो जाएगा, जिस दिन कोई
स्वर नहीं
उठेगा, जिस
दिन कोई अशांति
की तरंग नहीं
रहेगी, जिस
दिन जरा-सा भी
कंपन नहीं
होगा, सब
शून्य होगा, उस दिन जिसे
तू सुनेगा, वह ध्वनि भी
मैं ही हूं।
सब के खो जाने
पर भी जो शेष
रहेगा, वह
मैं हूं। या
ऐसा कहें, जब
सब खो जाता है,
तब भी मैं
शेष रह जाता
हूं। जब कुछ
भी नहीं बचता,
तब भी मैं
बच जाता हूं।
मेरे खोने का
कोई उपाय नहीं
है, वे यह
कह रहे हैं।
वे कह
रहे हैं, मेरे खोने
का कोई उपाय
नहीं है। मैं
मिट नहीं सकता
हूं क्योंकि
मैं कभी बना
नहीं हूं।
मुझे कभी
बनाया नहीं
गया है। जो
बनता है, वह
मिट जाता है।
जो जोड़ा जाता
है, वह टूट
जाता है। जिसे
हम संगठित
करते हैं, वह
बिखर जाता है।
लेकिन जो सदा
से है, वह
सदा रहता है।
इस
ओंकार का अर्थ
है, दि
बेसिक
रियलिटी; वह
जो मूलभूत
सत्य है, जो
सदा रहता है।
उसके ऊपर रूप
बनते हैं और
मिटते हैं, संघात
निर्मित होते
हैं और बिखर
जाते हैं, संगठन
खडे होते हैं
और टूट जाते
हैं, लेकिन
वह बना रहता
है। वह बना ही
रहता है।
यह जो
सदा बना रहता
है, इसकी
जो ध्वनि है, इसका जो
संगीत है, उसका
नाम ओंकार है।
यह मनुष्य के
अनुभव की आत्यंतिक
बात है। यह
परम अनुभव है।
इसलिए
आप यह मत
सोचना कि आप
बैठकर ओम, ओम का
उच्चार करते
रहें, तो
आपको ओंकार का
पता चल रहा
है। जिस ओम का
आप उच्चार कर
रहे हैं, वह
तो उच्चार ही
है। वह तो
आपके
द्वारा पैदा
की गई ध्वनि
है।
इसलिए
धीरे- धीरे
होंठ को बंद
करना पड़ेगा।
होंठ का उपयोग
नहीं करना
पड़ेगा। फिर
बिना होंठ के
भीतर ही ओम का
उच्चार करना।
लेकिन वह भी
असली ओंकार नहीं
है। क्योंकि
अभी भी भीतर
मांस-पेशियां
और हड्डियां
काम में लाई
जा रही हैं।
उन्हें भी छोड़
देना पड़ेगा।
भीतर मन में
भी उच्चार
नहीं करना
होगा। तब एक
उच्चार सुनाई
पड़ना शुरू
होगा, जो
आपका किया हुआ
नहीं है।
जिसके आप
साक्षी होते
हैं, कर्ता
नहीं होते
हैं। जिसको आप
बनाते नहीं, जो होता है, आप सिर्फ
जानते हैं।
जिस
दिन आप अपने
भीतर ओम की उस
ध्वनि को सुन
लेते हैं, जो आपने
पैदा नहीं की,
किसी और ने
पैदा नहीं की,
हो रही है, आप सिर्फ
जान रहे हैं, वह प्रतिपल
हो रही है, वह
हर घड़ी हो रही
है। लेकिन हम
अपने मन में
इतने शोरगुल से
भरे हैं कि वह
सूक्ष्मतम
ध्वनि सुनी
नहीं जा सकती।
वह प्रतिपल
मौजूद है। वह
जगत का आधार है।
इस
संबंध में एक
बात समझ लेनी
जरूरी है।
पश्चिमी
मनोविज्ञान, पश्चिमी
विज्ञान, पश्चिम
की समस्त खोज
इस नतीजे पर
पहुंची है कि
जगत का जो
आत्यंतिक
आधार है, वह
विद्युत है, इलेक्ट्रिसिटी
है। और इसलिए
पश्चिम का
आधुनिक चिंतन
कहता है कि
ध्वनि मूल
नहीं है, विद्युत
मूल है। और
ध्वनि, साउंड
भी विद्युत का
एक प्रकार है।
साउंड जो है, ध्वनि जो है,
वह भी
विद्युत का ही
एक प्रकार है,
ए मोड।
लेकिन
पूरब की बात
बिलकुल ही
भिन्न है।
पूरब कहता है
कि साउंड, ध्वनि जो
है, वह
अस्तित्व का
मूल उपकरण है,
और विद्युत
जो है, वह
ध्वनि का ही
एक प्रकार है,
ए मोड।
पश्चिम
विद्युत को
मूल मानता है,
ध्वनि को
विद्युत का ही
एक रूप; पूरब
ध्वनि को मूल
मानता है और
विद्युत को
ध्वनि का ही
एक रूप।
इसलिए
पूरब में वे
लोग हुए, जिन्होंने
ध्वनि के
माध्यम से दीए
जला दिए। जिन्होंने
एक राग गाया
और बुझा दीया
जला। यह बात
सही हो कि न हो,
पर पूरब की
मान्यता यह है
कि विद्युत
ध्वनि का ही
एक रूप है। तो
अगर ध्वनि की
एक खास ढंग से
चोट की जाए, तो आग जल
जानी चाहिए।
अगर ध्वनि एक
खास ढंग से की जाए,
तो आकाश में
बिजली कड़कने
लगनी चाहिए।
अगर विद्युत
ध्वनि का ही
एक रूप है, तो
ध्वनि की
तरंगों के
आघात से अग्नि
का जन्म हो
जाना चाहिए।
भविष्य
तय करेगा कि
इन दोनों
मान्यताओं
में क्या
संभावना है। जहां
तक मेरा संबंध
है, मैं
मानता हूं,
यह झगड़ा वैसा
ही बचकाना है,
जैसा कुछ
लोग मुर्गी और
अंडे के बाबत
किए रहते हैं।
कुछ लोग कहते
हैं, मुर्गी
पहले है और
अंडा बाद में;
और कुछ लोग
कहते हैं, अंडा
पहले है और
मुर्गी बाद
में। मगर
दोनों नासमझ
हैं। क्योंकि
जब भी हम
मुर्गी कहते
हैं, तो
उसके पहले
अंडा आ ही
जाता है। और
जब भी हम अंडा
कहते हैं, तो
उसके पहले
मुर्गी आ ही
जाती है।
इसलिए
ज्यादा उचित
हो कि हम
मुर्गी और
अंडे में पहले
कौन है, इसकी फिक्र
छोड़े।
क्योंकि कोई
भी पहले हो
नहीं सकता।
कैसे अंडा
पहले होगा
मुर्गी के? कैसे होगा? उसके होने
के लिए ही
मुर्गी की
जरूरत पड़ जाती
है। कैसे मुर्गी
होगी पहले
अंडे के? उसके
होने के लिए
ही अंडे की
जरूरत पड जाती
है।
इसलिए
शायद कहीं
भाषा की भूल
है, लिंग्विस्टिक
भूल है। असल
में अंडा और
मुर्गी दो
चीजें नहीं
हैं; अंडा
और मुर्गी एक
ही चीज के दो
रूप हैं। ऐसा
कहना चाहिए कि
अंडा जो है, वह छिपी हुई
मुर्गी है, मुर्गी जो
है, वह
प्रकट हो गया
अंडा है। इनको
दो में बांटने
की बात ही गलत
है। दो में
बाटने से फिर
कभी हल नहीं
होता। मुझे
ऐसा खयाल में
आता है कि
विद्युत और
ध्वनि के बीच
ठीक वैसा ही
संबंध है।
इसलिए ध्वनि
के बिना
विद्युत नहीं
हो सकती, और
विद्युत के
बिना ध्वनि नहीं
हो सकती।
लेकिन पूरब और
पश्चिम में यह
बुनियादी
फर्क क्यों
आया, उसका
कारण है। उसका
कारण कीमती
है। वह समझ
लेना चाहिए।
वह
फर्क इसलिए है
कि पश्चिम ने
जो खोज की है, वह
पदार्थ को
तोड़कर की है।
पदार्थ को
तोड़ा, आखिरी
परमाणु की खोज
की, कि
कौन-सी चीज से
पदार्थ बना है?
विद्युत
मिली। पूरब ने
जो खोज की है, वह पदार्थ
को तोड़कर नहीं
की है, वह
अपने ही मन को
तोड़कर की है।
ध्यान रखें, मैटर हैज
बीन
एनालाइब्द इन
दि वेस्ट एंड
माइंड इन दि
ईस्ट।
अगर आप
पदार्थ को
तोड़ेंगे, तो जो अंतिम
अणु हाथ में
आने वाला है, वह विद्युत
का होगा। अगर
आप मन को
तोड़ेंगे, तो
जो अंतिम अणु
हाथ में आने
वाला है, वह
ध्वनि का
होगा। किसी न
किसी दिन
पदार्थ का जो
अंतिम अणु है
वह, और मन
का जो अंतिम
अणु है वह, वे
एक ही सिद्ध
होंगे; या
एक के ही दो
रूप सिद्ध
होंगे।
अगर
मुझसे पूछें, तो मैं
ऐसा कहूंगा कि
वह जो पदार्थ का
अणु है, वह
अप्रकट मन है;
और वह जो मन
का अणु है, वह
प्रकट हो गया
पदार्थ है।
परमाणु भी
पदार्थ का
छिपा हुआ मन
है, ए
हिडेन माइंड।
क्षुद्रतम
में भी विराट
छिपा हुआ है, और विराट को
भी प्रकट होना
हो, तो
क्षुद्र का ही
सहारा है।
ओंकार
कहकर कृष्ण
कहते हैं कि
मैं वह परम
अस्तित्व हूं, जहां
केवल उस ध्वनि
का साम्राज्य
रह जाता है, जो कभी पैदा
नहीं हुई' और
कभी मरती नहीं
है, जो
अस्तित्व का
मूल आधार है।
उस संगीत के
सागर का नाम
ओंकार है।
उस तक
पहुंचना हो, तो अपने
मन से सब
ध्वनियां
समाप्त करनी
चाहिए। अपने
मन से एक-एक
ध्वनि को
छोड़ते जाना
चाहिए, एक-एक
शब्द को, एक-एक
विचार को और
मन की ऐसी
अवस्था ले आनी
चाहिए, जब
मन निर्ध्वनि
हो जाए, साउंडलेस
हो जाए। और
जिस दिन आप
पाएंगे कि मन. हो
गया
ध्वनिशन्य, उसी दिन आप
पाएंगे, ओंकार
प्रकट हो गया!
ओंकार वहां
निनादित हो ही
रहा था। ओंकार
की धुन वहां
बज ही रही थी
सदा से, अनंत
से, अनादि
से। लेकिन आप
इतने शोरगुल
में व्यस्त थे,
आप इतने जोर
में लगे थे
बाहर कि आपको
वह ध्वनि सुनाई
नहीं पड़ती थी।
आपका
यह उपद्रव
शांत हो जाए, आपका यह
बुखार से भरा
हुआ, दौड़ता
हुआ पागलपन
शांत हो जाए, तो जो सदा ही
भीतर बज रहा है,
वह अनुभव
में आने लगता
है। वह मनुष्य
की आत्यंतिक
अवस्था है। वह
उसका परम
भविष्य है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं
ओंकार हूं। और
कृष्ण कहते
हैं, ऋग्वेद,
सामवेद, यजुर्वेद
भी मैं ही
हूं।
ओंकार
के बाद वेद की
बात कहने का
कारण है, प्रयोजन है।
कृष्ण कहते
हैं, वह
परम ध्वनि मैं
हूं और उस परम
ध्वनि को
पहुंचने वाले
जितने भी
शास्त्र हैं,
वह भी मैं
हूं। उस परम
ध्वनि की ओर
जिन-जिन शास्त्रों
ने इशारा किया
है, वह भी
मैं हूं। वह
ध्वनि तो मैं
हूं ही, लेकिन
जो इंगित; वह
चांद तो मैं
हूं ही, जिन
अंगुलियों ने
चांद की तरफ
इशारा किया है,
वे
अंगुलियां भी
मैं ही हूं।
क्योंकि मेरे
अतिरिक्त
मेरे उस
गुह्यतम रूप
की तरफ इशारा
भी कौन कर
सकेगा? मेरी
तरफ अंगुली भी
कौन उठा सकेगा
सिवाय मेरे?
तो
कृष्ण कहते
हैं, वेद
भी मैं ही
हूं।
वेद का
अर्थ है, वह सब, जिसने
ओंकार की ओर
इशारा किया
है। वेद का
अर्थ है, वह
सारा ज्ञान, जिसने उस
परम ध्वनि की
तरफ ले जाने
का मार्ग खोला
है। उन्होंने
तीन वेद का
नाम लिया है।
विचारपूर्वक
ही यह बात है।
क्योंकि कल
मैंने आपसे
कहा, तीन
प्रकार के
मनुष्य हैं।
तो तीन प्रकार
के वेद होंगे।
तीन प्रकार के
मन हैं, तो
तीन प्रकार के
ज्ञान होंगे।
तीन तरह के
टाइप हैं, प्रकार
हैं, तो
तीन प्रकार के
इशारे होंगे।
कृष्ण
ने कहा कि वे
तीनों वेद मैं
हूं।
चाहे
कोई कर्म से
अपने कर्ता को
मिटा दे, तो ओंकार
में प्रवेश कर
जाता है। चाहे
कोई अपने
प्रेम से
प्रेमी को
डुबा दे, तो
ओंकार में
प्रवेश कर
जाता है। और
चाहे कोई अपने
ज्ञान से
द्वैत के पार
हो जाए, अद्वैत
में प्रवेश कर
जाए, तो उस
ओंकार को
उपलब्ध हो
जाता है।
वेद का
अर्थ है, वे किताबें
नहीं, जो
वेद के नाम से
जानी जाती
हैं। वेद से
अर्थ है, वे
समस्त इशारे,
जो
मनुष्य-जाति
को कभी भी और
कहीं भी
उपलब्ध हुए
हों, जो
ओंकार की तरफ
ले जाते हैं।
ध्यान रखें, वेद शब्द
बहुत अदभुत
है। इसके बड़े
विस्तीर्ण अर्थ
हैं। वेद शब्द
का अर्थ होता
है, ज्ञान।
इसलिए वेद को
किसी किताब
में बांधा नहीं
जा सकता। जहां
भी ज्ञान है, वहीं वेद
है। जहां भी
इशारा है, वहीं
वेद है।
उन
दिनों तक
कृष्ण ने जब
यह बात कही, तो वह
सारा ज्ञान
तीन पुस्तकों
में संगृहीत था।
इसलिए इन तीन
पुस्तकों का
नाम लिया। अगर
आज कृष्ण हों,
तो इन तीन
का नाम नहीं
लेंगे। इसमें
कुरान भी सम्मिलित
होगा, इसमें
बाइबिल भी
सम्मिलित हो
जाएगी, इसमें
जेंदावेस्ता
भी जुड़ेगा, इसमें
लाओत्से का
ताओ तेह किंग
भी आने ही
वाला है। इन
पांच हजार
वर्षों में, कृष्ण के
बाद, जो-जो
इशारे उस
ओंकार की तरफ
हुए हैं, वे
भी वेद का
हिस्सा हो गए।
वेद एक
विकासमान
धारा है। वेद
कोई सीमित
किताब नहीं
है। इसीलिए
वेद का कोई
लेखक नहीं है।
एक-एक वेद में
सैकड़ों
ऋषियों के वचन
हैं। उस जमाने
तक जितने
ऋषियों का
ज्ञान था, वह सब
संगृहीत हो
गया। फिर वेद
के दरवाजे बंद
हो गए। और जिस
दिन वेद के
दरवाजे बंद
हुए, उसी
दिन हिंदू
धर्म मुर्दा
हो गया। वेद
का दरवाजा
खुला ही रहना
चाहिए। उसमें
नए ऋषि होते
रहेंगे। उनके
वचन संगृहीत
होते ही चले
जाने चाहिए। चाहे
वे कहीं भी
हों।
वेद
किसी व्यक्ति
की किताब नहीं
है। यह बड़े मजे
की बात है।
वेद न मालूम
कितने
व्यक्तियों
का संग्रह है।
उस जमाने तक
जितने लोगों
ने जाना था, उन सबका
संग्रह है।
लेकिन फिर
द्वार बंद हो
गए। जब कोई
धर्म जीवंत
होता है, तो
भयभीत नहीं
होता, खुले
दरवाजे रखकर
सोता है। जब
कोई धर्म
कमजोर हो जाता
है, मरने
के करीब आता
है, बूढ़ा
हो जाता है, तो दरवाजे
बंद कर देता
है और पहरे
लगा देता है।
ये कमजोरी के
लक्षण हैं।
लेकिन जिस दिन
दरवाजा बंद
होता है, उसी
दिन ज्ञान तो
आगे बढ़ता चला
जाता है, किताब
रुक जाती है।
किताब रुक
जाती है। ठीक
वैसी घटना अभी
थोड़े दिन पहले
फिर घटी। उससे
आपको बात समझ
में आ जाएगी।
सिक्खों
का वेद है, गुरु-ग्रंथ।
नानक के समय
में, उस
समय के जितने
ज्ञानियों के
इशारे थे, सब
उसमें
संगृहीत किए
गए हैं। उसमें
फिक्र नहीं की
गई है कि कौन
हिंदू है, कौन
मुसलमान है, कौन
ब्राह्मण है,
कौन शूद्र
है। उसमें
फरीद के भी
वचन हैं, उसमें
और कबीर के भी,
उसमें दादू
के भी। उस समय
जितने भी फकीर
इशारे वाले थे,
उन सबके वचन
संगृहीत कर
लिए गए हैं।
लेकिन
फिर धीरे-
धीरे बात मरने
लगी। फिर
धीरे- धीरे
दरवाजे सख्त
होने लगे। फिर
उसमें वही सम्मिलित
हो सकेगा, जो सिक्ख
है। फिर दसवें
गुरु ने द्वार
बंद कर दिए।
धर्म कमजोर हो
गया। फिर
दसवें गुरु ने
कहा कि अब इस
किताब में आगे
नहीं जोड़ा जा
सकेगा। उसी
दिन यह किताब
बूढ़ी होकर मर
गई। क्योंकि
अब इसमें ग्रोथ
नहीं हो सकती।
लेकिन दस
गुरुओं तक यह
किताब विकासमान
होती रही, बढ़ती
होती रही।
इसमें जुड़ता
रहा।
शान एक
धारा है, जैसे गंगा
एक धारा है।
गंगा अगर कह
दे प्रयाग में
आकर कि अब
नदी-नाले
मुझमें नहीं
जुड़ सकेंगे, अब कोई
मुझमें आगे
नहीं जुड़ेगा।
अब मैं गंगा हूं।
और एक गंदे
नाले को मैं
नहीं गिरने
दूंगी।
क्योंकि
कहां पवित्र
गंगा, और
एक साधारण-सा
नाला आकर
मुझमें गिर
जाए और गंदा
कर जाए!
जिस
दिन गंगा यह
कहती है कि एक
साधारण-सा
नाला मुझमें
गिरकर मुझे
गंदा कर देगा, उस दिन वह
गंगा नहीं
रही। क्योंकि
गंगा का मतलब
ही यह है कि
जिसमें कोई भी
गिरे, गिरते
से पवित्र हो
.जाए। अब नाला गंगा
को गंदा कर
देगा, तो
नाला ज्यादा
शक्तिशाली हो
गया!
जब भी
कोई धर्म
भयभीत हो जाता
है और डरता है
कि कुछ
मिश्रित न हो
जाए, कुछ
गलत न हो जाए, इसलिए सब
घेराबंदी कर
लो, उस दिन
किताबें बंद
हो जाती हैं।
वेद की
जब कृष्ण ने
यह बात कही, तब ये
तीनों
किताबें
जिंदा किताबें
थीं। अब ये
तीनों
किताबें
जिंदा किताबें
नहीं हैं। एक
जगह इनके
द्वार बंद हो
गए। अगर वे
द्वार खुले
होते, तो
वेद ने जगत के
सारे शान को
संगृहीत किया
होता।
जैसा
कि आपने देखा
होगा, वेद
ठीक वैसी ही
चीज थी इस मुल्क
में, जैसे
कि आज
इनसाइक्लोपीडिया
ब्रिटानिका है।
हर वर्ष उसको
नए एडीशन करने
पड़ते हैं। क्योंकि
ज्ञान विकसित
होता है, उसे
सम्मिलित कर
लेना होता है।
रोज ज्ञान बढ़ता
है, तो
इनसाइक्लोपीडिया
को रोज ज्ञान
को बढ़ाए जाना
पड़ता है। उसके
पुराने एडीशन
बाहर होते जाएंगे।
रोज यह ज्ञान
बढ़ता रहेगा।
किसी
दिन अगर
इनसाइक्लोपीडिया
वाले यह सोचें
कि बस, अब
हम और शान को
भीतर नहीं आने
देंगे, उसी
दिन
इनसाइक्लोपीडिया
आउट आफ डेट हो
जाएगा, उसी
दिन मर जाएगा।
वेद हमारा
इनसाइक्लोपीडिया
था। ओंकार की
तरफ जितने
इशारे किए गए
थे, हमने
वेद में
संगृहीत किए
थे।
तो
कृष्ण कहते
हैं, वे
तीनों वेद मैं
ही हूं।
और हे
अर्जुन, प्राप्त
होने योग्य
गंतव्य, भरण-पोषण
करने वाला, सबका स्वामी,
सबका
साक्षी, सबका
वास स्थान, शरण लेने
योग्य, हितकारी,
उत्पत्ति, प्रलय सबका
आधार, निधान
और वह, जिसमें
सबका लय होता
है, अविनाशी,
बीज कारण भी
मैं ही हूं।
इसमें तीन-चार
बातें
महत्वपूर्ण
हैं, वह
हमें खयाल में
ले लेनी
चाहिए।
गंतव्य, दि एंड, आखिरी मंजिल,
जो पाने
योग्य है, वह
मैं ही हूं।
और अगर मेरे
अतिरिक्त कुछ
भी तुझे पाने
योग्य लगता है,
तो थोड़ा
सोच-समझ लेना,
वह पाने
योग्य नहीं हो
सकता।
परमात्मा के
अतिरिक्त जो
भी व्यक्ति
कुछ और पाने
में लगा है, सच पूछिए तो
पाने में नहीं,
खोने में
लगा है।
परमात्मा
के अतिरिक्त
अगर आपने कुछ
पा भी लिया, तो आखिर
में आप पाएंगे
कि आपने सब खो
दिया, पाया
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
और हम कुछ भी
पा लें, वह
हमारी संपदा
नहीं बनती, सिर्फ
विपत्ति बनती
है। संपत्ति नहीं,
विपत्ति।
कुछ भी हम
इकट्ठा कर लें,
वह हमसे
बाहर ही छूट
जाता है। वह
हमारे प्राणों
का विकास नहीं
होता, सिर्फ
प्राणों पर
बोझ बन जाता
है। और एक न एक
दिन मृत्यु सब
छीन लेती है।
मृत्यु सब छीन
लेती है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी
मरणशथ्या पर
पड़ा है। आखिरी
घड़ी है। वह आंख
खोलता है और
अपनी पत्नी से
कहता है कि
मेरा जो सागर
के तट पर भवन
है, चाहता
हूं कि मेरे
मित्र अहमद को
दे दिया जाए-वसीयत
कर रहा है।
उसकी
पत्नी कहती है, अहमद को?
इस आदमी की
शक्ल मुझे
पसंद ही नहीं।
बेहतर हो, यह
हम रहमान को
दे दें!
मुल्ला
दुख में आंख
बंद कर लेता
है। फिर आंख
खोलता है और कहता
है, ठीक,
मेरा जो
पहाड़ पर बंगला
है, वह मैं
चाहता हूं कि
मेरी बड़ी लड़की
को दे दिया जाए।
उसकी
पत्नी कहती है, बड़ी लड़की
को? उसके
पास काफी है!
मेरी छोटी
लडकी के लिए
एक मकान की
पहाड़ पर जरूरत
है। वह उसको
दे देना उचित
है।
मुल्ला
और भी थोड़ी
देर तक आंख
बंद किए पड़ा
रहता है। फिर आंख
खोलता है और
कहता है कि
मेरी जो बड़ी
कार है, वह मेरे
मित्र मर गए
हैं, उनका
बेटा है, उसको
दे देना चाहता
हूं।
उसकी
पत्नी कहती है, उस पर तो
मेरी बहुत दिन
से आंख है। वह
मैं किसी को
नहीं दे सकती
हूं। वह तो
मेरे छोटे
बेटे के काम
में आने वाली
है।
मुल्ला
तब आंख बंद
करके कहता है
कि एक बात
पूछूं आखिरी? मैं यह
जानना चाहता
हूं मर कौन
रहा है? मैं
मर रहा हूं कि
तू मर रही है? तू कम से कम
इतना धीरज तो
रख कि मुझे मर
जाने दे। फिर
तुझे जो करना
हो, करना।
इतना तो मुझे
पता ही है कि
जब जिंदगी
अपनी न हुई, तो वसीयत
क्या अपनी
होने वाली है!
मौत सब
छीन लेती है।
लेकिन फिर भी
आदमी वसीयत तो
कर जाना चाहता
है। यह मरने
के बाद भी
अपना दावा
रखने की
चेष्टा है। जो
भी हम इकट्ठा
कर लेंगे, मौत छीन
लेगी। सिर्फ
एक संपदा है, जो मौत नहीं
छीन पाती है।
वह संपदा
परमात्मा की
है। वह संपदा
प्रभु के
अनुभव की है।
वह संपदा उस
स्वभाव की है,
जो हम में
ही छिपा है।
वह उस ओंकार
की है, जो
सदा है और कभी
छीना नहीं जा
सकता।
कृष्ण
कहते हैं, गंतव्य
मैं हूं सबका
स्वामी, सबका
साक्षी, सबका
वास स्थान! जहां
सब रह रहे हैं,
वह मैं हूं।
जो सबको चला
रहा है, वह
मैं हूं। और
जो सबको देख
रहा है, वह
भी मैं हूं।
शरण लेने
योग्य, जिसकी
शरण तुम आओ, ऐसा भी मैं
हूं। हित करने
वाला; उत्पत्ति-प्रलय-रूप।
जन्म मुझसे
तुम्हारा हुआ,
सम्हाला
मैंने
तुम्हें, खोओगे
भी तुम मुझमें
ही। सबका
अंतिम बीज
कारण मैं हूं।
यह कृष्ण
क्यों कह रहे
हैं अर्जुन को?
वह इसलिए कह
रहे हैं कि
अर्जुन तू
व्यर्थ अपने
को बीच में मत
ला।
यह
अंतिम सूत्र
ठीक से समझ
लें।
वे यह
कह रहे हैं, तू
व्यर्थ अपने
को बीच में मत
ला। बनाया
मैंने, सम्हाला
मैंने, मिटाऊंगा
मैं; तू
व्यर्थ अपने
को बीच में मत
ला।
वह
अर्जुन कह रहा
है कि युद्ध
में मैं नहीं
जाना चाहता
हूं क्योंकि
मुझे लगता है, यह पाप
है। कृष्ण
कहते हैं, मालिक
मैं हूं
साक्षी मैं हूं
निर्माता मैं
हूं और तुझे
लगता है कि
पाप है! गवाही
मैं हूं तेरी
अंतिम गवाही
मैं हूं; और
तू कुछ भी
करेगा, मैं
ही तेरे भीतर
करूंगा, तू
जाने या न
जाने। लेकिन
तू कहता है कि
यह मुझे लगता
है, पाप है!
तू कहता है कि
मेरे मन को
पीड़ा होती है,
कि अपने ही
प्रियजनों से
कैसे लडूं!
वह
कृष्ण कहते
हैं, सबका
आधार मैं हूं
सबका पिता मैं
हूं सबका भविष्य
मैं हूं लेकिन
तू अपने को
बीच में क्यों
ला रहा है? मतलब
यह है कि
अहंकार अपने
को मालिक
समझता है, और
अहंकार अपने
को निर्णायक
समझता है। और
अहंकार समझता
है कि मैं ही
निर्णय
करूंगा, वैसा
ही मुझे चलना
है। अहंकार
समर्पण करने
को तैयार नहीं
है।
समर्पण
तो तभी हो
सकेगा, जब हमें पता
चले कि न
मैंने मुझे
बनाया है, न
मैं स्वयं को
सम्हाले हुए
हूं। अभी यह
शब्द मेरे
मुंह से
निकलता है, दूसरा न
निकले, उसे
भी निकालने का
मेरे पास कोई
उपाय नहीं है।
एक सांस आती
है, और फिर
न आए, तो एक
सांस लेने का
भी कोई उपाय
नहीं है। इतना
निरुपाय, इतना
असहाय, इतना
न होने के
बराबर मैं
हूं। लेकिन
फिर भी मैं
निर्णय करता
हूं कि मैं यह
करूंगा और यह
नहीं करूंगा,
और यह ठीक
है, और यह
गलत है!
निर्णायक
मेरा अहंकार
बनना चाहता
है। कृष्ण उसे
यही समझा रहे
हैं कि अगर तू
गौर से देखेगा,
तो नीचे-ऊपर
सब दिशाओं में
सब भांति मुझे
छाया हुआ पाएगा।
और अच्छा हो
कि तू अपनी यह
मालकियत छोड़
दे। यह
मालकियत ही
तेरा दुख और
तेरा पाप है।
एक ही
पाप है, स्वयं की
अस्मिता को, अहंकार को
मजबूत किए
जाना। और एक
ही पुण्य है, स्वयं की
अस्मिता को, अहंकार को
पिघलाते चले
जाना। एक घड़ी
आ जाए, जिस
दिन मैं न रहूं, मेरा बोध न
रहे, तो उस
दिन मेरे भीतर
जो बोलेगा, जो चलेगा, जो उठेगा, जो करेगा, वह परमात्मा
है। उस दिन न
मेरा कोई पाप
है, न मेरा
कोई पुण्य है।
उस दिन न मेरा
कोई कर्तव्य
है और न कुछ
अकर्तव्य है।
उस दिन जो
होगा, वह
सहज होगा; जैसे
श्वास चलती है,
खून बहता है,
हवाएं चलती हैं,
सूरज
निकलता है। उस
दिन मेरी कोई
जरूरत ही नहीं
है।
कृष्ण
उस दिशा में
अर्जुन को
इशारा कर रहे
हैं कि तू
थोड़ा समझ। तू
यह फिक्र छोड़
कि तू इनका
मारने वाला है, कि तू
इनका बचाने
वाला हो सकता
है। तू यह भी
फिक्र छोड़ कि
तेरे ऊपर यह
निर्णय है कि
यह युद्ध शुभ
है या अशुभ
है। तू जरा
चारों तरफ गौर
से देख। तू
सिर्फ एक लहर
है। एक क्षण
को उठा है और
एक क्षण बाद
खो जाएगा। मैं
सागर हूं। मैं
तुझसे कहता
हूं कि तू
मेरे से ही
उठा है, मुझसे
ही सम्हाला
गया है। मैं
ही तेरा अभी
भी मालिक हूं
अभी भी मैं ही
तेरा साक्षी
हूं। जब तू
नहीं था, तब
भी मैं था; जब
तू नहीं होगा,
तब भी मैं
रहूंगा। तू
मेरी तरफ देख
और अपने कर्ता
के भाव को
मेरे ऊपर छोड़
दे। मुझे हो
जाने दे कर्ता
और तू बन जा
केवल उपकरण, तू बन जा
केवल एक बांस
की पोगरी। गीत
मुझे गाने दे,
तू बीच में
मत आ। तू बीच
में आएगा, वही
तेरा दुख, वही
तेरी पीड़ा, वही तेरा
संताप है।
यह
सारी की सारी
बात समझाने के
पीछे अहंकार
को पिघलाने का
इशारा है।
अहंकार बर्फ
की तरह हमारे
भीतर जमा हुआ
है, फ्रोजन।
उसे थोड़ा
पिघलाना
जरूरी है।
कभी
आपने खयाल
किया, सागर
में एक बर्फ
की चट्टान तैर
रही हो, तो
सागर से
बिलकुल अलग
मालूम पड़ती
है। पीछे
मैंने कहा, लहर सागर से
अलग मालूम
पड़ती है।
लेकिन लहर का भ्रम
ज्यादा देर
नहीं चल सकता,
क्योंकि
लहर कितनी देर
उठी रहेगी? क्षणभर बाद
गिर जाएगी और
खो जाएगी।
लेकिन लहर अगर
फ्रोजन हो जाए,
जम जाए, बर्फ
बन जाए, फिर
लहर का भ्रम
बहुत देर चल
सकता है।
क्योंकि जब तक
बर्फ न पिघले!
और अगर चारों तरफ
दूसरी लहरें
भी जमकर बर्फ
हो गई हों, तो
यह भ्रम और भी
बहुत देर चल
सकता है।
क्योंकि
गर्मी भी कहीं
से नहीं
मिलेगी, सब
तरफ से अहंकार
की ठंडक ही
मिलेगी, यह
और जम जाएगी।
हम सब ऐसी ही
लहरें हैं, फ्रोजन वेक।
और चूंकि हम
चारों तरफ सभी
बर्फ बन गए
हैं जमकर, एक-दूसरे
को हम ठंडक
देते रहते हैं
और जमाते रहते
हैं। हम सब
एक-दूसरे के
अहंकार को
जमाने की
चेष्टा में
लगे रहते हैं,
हमें पता हो
या न पता हो।
बाप
बेटे से कहता
है कि शाबाश, तू पहला
नंबर आ गया है
स्कूल में!
आएगा क्यों नहीं;
आखिर मेरा
ही बेटा जो है!
ये एक-दूसरे
को जमा रहे
हैं। बेटे के
अहंकार को
जमाने की
चेष्टा चल रही
है।
बेटा
आज अगर प्रथम
नहीं आया है, तो घर
बिलकुल उदास
है। मां बेचैन
है, बाप
पराजित मालूम
पड़ रहा है।
बेटा भी
चिंतित है।
क्या हुआ है? जरा बर्फ
पिघलने लगी।
वह अहंकार, मैं-हमारे
घर में कभी
कोई नंबर दो
आया ही नहीं, और यह बेटा
नंबर दो आ गया!
हम सब एक
-दूसरे को जमाने
की कोशिश में
लगे हैं।
हमारी शिक्षा,
हमारी
सभ्यता, हमारी
संस्कृति, सब
एक-दूसरे को
जमा रही है; सब जम जाएं, सख्त हो
जाएं भीतर।
अगर जब
सारी लहरें
एक-दूसरे को जमाने
में लगी हों, तो फिर
नीचे के सागर
का खयाल आना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
इसलिए जिन
लोगों को समाज
को छोड्कर
भागना
पड़ा-बुद्ध को
या महावीर को
या जीसस को या
मोहम्मद को भी
स्वात में भाग
जाना पड़ा-उसका
कारण अगर
मौलिक आप
समझना चाहें,
तो सिर्फ
इतना ही है कि
आप सब इतने
जमे हुए बर्फ
की चट्टानें
हैं कि आपके बीच
में पिघलना
बहुत मुश्किल
है! पूरा
टेंपरेचर
नहीं है
पिघलने का
वहां। सब जीरो
डिग्री से
नीचे जमे हुए
हैं। वहा अगर
कोई पिघलना भी
चाहे, तो
पिघलना
मुश्किल है।
चारों तरफ
जमाने वाले लोग
मौजूद हैं।
इसलिए
बुद्ध या
महावीर को
समाज छोड्कर
भागना पड़ता
है। समाज को
छोड्कर भागने
का और कोई
कारण नहीं है।
अकेले में जाना
पड़ता है, ताकि वहा कम
से कम अपनी ही
ठंडक से लड़ना
पड़े; दूसरों
की ठंडक से तो
न लड़ना पड़े।
अकेले, एकांत
में, जहां
चारों तरफ कोई
ठंडक न हो।
मैंने
सुना है, फकीर बोकोजू
जंगल में था।
उसके ज्ञान की
खबर राजधानी
तक पहुंच गई।
सम्राट उससे
मिलने आया।
सम्राट आया था
मिलने, तो
सम्राट था, कुछ भेंट
लानी चाहिए।
तो एक बहुत
बहुमूल्य;.' लाखों रुपए
की कीमत का एक
कोट सिलवा
लाया। उसमें
लाखों रुपए के
हीरे-जवाहरात
लगा दिए। बड़ा
कीमती वस्त्र
था। शायद
पृथ्वी पर
वैसा खोजना
दूसरा
मुश्किल हो। सम्राट
उसे बड़ी मेहनत
से बनवाकर
लाया था।
जब
सम्राट फकीर
के सामने
मौजूद हुआ, तो फकीर
एक चट्टान पर
नग्न, एक
वृक्ष से टिका
हुआ बैठा है।
सम्राट ने चरण
छुए, भेंट
रखी। फकीर
भेंट को देखकर
हंसा। फिर
फकीर ने ऊपर
वृक्ष की तरफ
देखा। फिर
आस-पास हिरण
घूमते थे, उनकी
तरफ देखा। फिर
आकाश में चीले
उड़ती थीं, उनकी
तरफ देखा।
उस
सम्राट ने कहा, आप क्या
देख रहे हैं? तो उसने कहा,
मैं यह देख
रहा हूं कि
तुम्हारा यह
कोट मुझे बड़ी
दिक्कत में
डालेगा।
क्योंकि अगर
यह कोट तुमने
मुझे राजधानी
में दिया होता,
तो राजधानी
में सभी आदमी
इस कोट की
प्रशंसा करते
और कहते कि
मैं बहुत महान
हो गया हूं, क्योंकि
मुझे यह राजा
का कोट मिल
गया है। लेकिन
यहां जंगल में
बेपढ़े-लिखे
जानवर हैं, असभ्य, इन
को कुछ पता
नहीं है।
मैंने ऊपर
देखा इसलिए कि
वे जो तोते
बैठे हैं, वे
हंस रहे हैं।
मैंने ऊपर
देखा कि वह जो
चील उड़ रही है,
वह मजाक
उड़ाएगी।
मैंने हिरण की
तरफ देखा, उसकी
आंख में शरारत
है।
आपके जाते ही
ये सब कहेंगे, बन गए
बुद्ध! कैसे
मुक्त थे, कैसे
आनंद में थे, नग्न! कैसे
स्वतंत्र थे,
कैसे
परमात्मा की
हवाएं सीधा
छूती थीं! पहन
लिया कोट! और
फिर यहां
हीरे-जवाहरात
का कोई पता
रखने वाला भी
नहीं है। तो
मैं शान भी
बघारूंगा, तो
किसके सामने?
और अकड़कर
चलूंगा भी, तो कहां? यहां
अगर अकड़कर
चलूंगा, तो
यह सारा जंगल
मुझ पर
हंसेगा। तो
यहां मैं सम्राट
के द्वारा
सम्मानित कम
और किसी सर्कस
का जोकर
ज्यादा मालूम
पडूगा। यह कोट
तुम ले जाओ, इतनी कृपा
करो।
जंगल
में आपके
आस-पास ठंडक
देने वाला कोई
भी नहीं है, आपके
अहंकार को
ठंडा करने
वाला कोई भी
नहीं है, पिघल
जाएगा आसानी
से। इसलिए
भागते रहे
लोग।
कृष्ण
उसी अहंकार को
पिघलाने के
लिए कह रहे हैं, सब मैं
हूं। अगर तुझे
यह स्मरण आ
जाए अर्जुन, तो तू जो इस
खयाल से भर
रहा है कि तू
ही केंद्र है
और तेरे ऊपर
ही सब
दारोमदार है,
यह खयाल
तेरा छूट जा
सकता है। और
यह खयाल न छूटे,
तो आदमी की
आंखें अंधी ही
रह जाती हैं।
अहंकार
अंधापन है। और
अहंकार के छूट
जाते ही
प्रज्ञा की आंख
खुलती है, और जीवन
जैसा है वैसा
पहली बार
दिखाई पड़ता
है।
आज
इतना ही।
लेकिन
कोई उठेगा
नहीं। पांच
मिनट कीर्तन
में सम्मिलित
हों। और
कीर्तन पूरा
हो जाए तभी
उठें।
सभी प्रबुद्ध जनों ने क्यूँ एकांत में,वन-जंगल में,पर्वत पर या गुफा में साधना की उसका सटीक एवं सचोट ह्रदयस्पर्शी मूल्याकंन से "आहह" ह्रदयोद्गार प्रवाहित हों गए 🙏🙏🌹🌹🙏🙏धनस्वरूप अहंकार को परिवार जनों से,समाज से,.. जो ऑक्सीजन मिलता हैं परिणाम स्वरूप अहंकार ठोस तदनन्तर सधन ठोस होता रहता हैं उससे निजात दूरी बनाने के लिए एकांत उचित नहीं बल्कि नितांत आवश्यक हैं | ऑे ओशो! सचमुच ह्रदय आज बहुत ही बड़ा हों गया |
जवाब देंहटाएं/
thank you guruji
जवाब देंहटाएं