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शनिवार, 13 दिसंबर 2014

बुद्ध ने श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ो की बात कही—(कथा—109)

बुद्ध ने श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ो की बात कही-(एस धम्‍मो सनंतनो)


 पहला सूत्र—

            दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सचत्य जायति ।
            यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति ।।

'पुरुष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता। वह धीर जहा उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।'

            सुखो बुद्धानं उयादो सुखा सद्धम्मदेसना ।
            सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो सुखो ।। 

'बुद्धों का उत्पन्न होना सुखदायी है। सद्धर्म का उपदेश सुखदायी है। संघ में एकता सुखदायी है। एकतायुक्त तप सुखदायी है।'

            पूजारहे पूजयतो बुद्धे यदि व सावके ।
            पपज्वसमतिक्कंते तिण्‍णसोकपरिद्दवे ।।
            ने तादिसे पूजयतो निब्‍बुते अकुतोभये ।
            न सक्का पुज्‍जं संखातुं इमेतंपि केतचि ।। 


'जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए, जो शोक और भय को पार कर गए, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता।'
इन सूत्रों का जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ, उन्हें समझें पहले।
पहली परिस्थिति—

एक दिन बुद्ध ने श्रेष्ठ और अश्रेष्ट घोड़ों की बात कही।
मैं बहुत बार तुम्हें कहा भी हूं कि बुद्ध कहते हैं, अश्व वही है जो कोड़े की छाया से चल पड़े। उससे कम श्रेष्ठ वह है जिसे कोड़े की फटकार चलाने के लिए जरूरी हो। उससे कम श्रेष्ठ वह है जिस घोड़े को कोड़े की चोट मारनी जरूरी हो। उससे कम श्रेष्ठ वह है जो मारे—मारे न चले। चले भी तो जबरदस्ती चले।
बुद्ध कह रहे थे श्रेष्ठतम अश्व कौन है। आनंद ने पूछा भगवान आपने बताया कि श्रेष्ठ अश्व कौन है और कहां उत्पन्न होता है कैसे उत्पन्न होता है लेकिन आपने कभी नहीं बताया कि उत्तम पुरुष कौन है और उत्तम पुरुष कहां उत्पन्न होता है। तो शास्ता ने कहा आनंद, उत्तम पुरुष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते। वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते हैं और जन्म से ही महाधनवान होते हैं वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्‍पन्‍न होते है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

            दुल्‍लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्‍बस्थ जायति ।
            यत्‍थ सो जायति धीरो तं कुल सुखमेधति ।।

पुरूषश्रेष्ठ दुर्लभ है, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह धीर जहा उत्पन्न होता, उस कुल में सुख बढ़ता है।
इस गाथा का अर्थ बौद्धों ने अब तक जैसा किया है, वैसा नहीं है। सीधा—सीधा अर्थ तो साफ मालूम पड़ता है कि बुद्ध महाधनवान घर में पैदा होते हैं। फिर कबीर का क्या होगा। फिर क्राइस्ट का क्या होगा! फिर फरीद का क्या होगा! फिर मोहम्मद का क्या होगा! ये तो महाधनवान घरों में पैदा नहीं हुए। तो फिर बुद्धपुरुष नहीं हैं ये? यह तो बड़ी संकीर्णता हो जाएगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजपुत्र हैं, सही। हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं, सही। और बुद्ध भी राजपुत्र हैं, सही। इसलिए स्वभावत: इस वचन का यही अर्थ लिया गया है अब तक कि बुद्धपुरुष राजघरों में ही पैदा होते हैं—महाधनवान।
लेकिन अब तो दुनिया से राजा मिट गए, मिटते चले जा रहे हैं! दुनिया में आने वाले भविष्य में केवल पांच राजा बचेंगे—चार ताश के पत्तों के और एक इंग्लैंड का। बाकी तो और कोई बच सकता नहीं। बाकी तो सब गए! तो बुद्धपुरुषों को पैदा होने की जगह—या तो पत्तों के घरों में पैदा हों, या इंग्लैंड के राजघराने में पैदा हों। 
और जैसे पत्तों के राजा झूठे, ऐसा इंग्लैंड का राजा झूठा, इसीलिए बचेगा। बचने का और कोई खास कारण नहीं है। है ही नहीं, इसलिए बच जाएगा। न कुछ है, प्रतीकात्मक है।
तो दुनिया में अब बुद्धपुरुष पैदा नहीं होंगे? भूल है। कहीं अनर्थ हो गया शब्द का। मैं महाधनवान का अर्थ करता हूं —जन्म से ही महाधनवान होते हैं, इसका अर्थ हुआ कि बुद्धपुरुष आकस्मिक पैदा नहीं होते, जन्मों—जन्मों की संपदा लेकर पैदा होते हैं। संपदा भीतर है। संपदा आतरिक है। महाधनवान ही पैदा होते हैं। शायद बस आखिरी तिनका रखा जाना है और ऊंट बैठ जाएगा। सब हो चुका है, शायद थोड़ी सी कमी रह गयी है, निन्यानबे डिग्री पर उबल रहा है पानी, एक डिग्री और, और फिर दुबारा जन्म नहीं होगा।
यही अर्थ है महाधनवान का। ऐसा कम से कम मैं अर्थ करता हूं। महाधनवान का यही अर्थ है कि बुद्धपुरुष दरिद्र पैदा नहीं होते। यह दरिद्रता धन की दरिद्रता नहीं है, यह अंतर्धन की। यह महाऐश्वर्य धन का ऐश्वर्य नहीं है, यह महाऐश्वर्य ध्यान का ऐश्वर्य है, समाधि का ऐश्वर्य है, भीतर की शांति और आनंद का ऐश्वर्य है।
इसलिए कबीर भी महाधनवान ही पैदा होते हैं। क्राइस्ट भी महाधनवान ही पैदा होते हैं। महाधनवान होने का अर्थ है, अपनी संपदा अपने भीतर लेकर पैदा होते हैं। खाली हाथ पैदा नहीं होते, भरे हाथ पैदा होते हैं। हाथ करीब—करीब पूरे भरे हैं, जरा सी कमी रह गयी है, वह इस जीवन में पूरी हो जाएगी, फिर दुबारा पैदा नहीं होंगे। क्योंकि जो पूरा—पूरा हो गया, उसके आने की फिर कोई जरूरत नहीं रह जाती।
तो मैं तुमसे कहता हूं, भविष्य में भी बुद्धपुरुष होते रहेंगे, राजा रहें, न रहें। धनवान रहें, न रहें, बुद्धपुरुष होते रहेंगे। क्योंकि बुद्धपुरुष के होने का धन से क्या संबंध हो सकता है! भीतरी धन से निश्चित संबंध है, बाहरी धन से कोई संबंध नहीं हो सकता।
दूसरी बात बुद्ध कहते हैं : आनंद, उत्तमपुरुष सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते।
यह तो सच है। बुद्धत्व हर कहीं थोड़े ही घट जाता है। जन्मों —जन्मों की साधना, जन्मों—जन्मों की पात्रता, जन्मों—जन्मों तक जो ग्राहकता अर्जित की है, ध्यान किया है, तपश्चर्या की है, उस पात्रता में ही घटना घटती है, हर कहीं नहीं घट जाती। जिसने बीज बोए हैं, वहीं तो फसल काटेगा न! और जिसने श्रम किया है, वही तो फल पाएगा न! तो सर्वत्र यह घटना नहीं घटती।'       हर एक व्यक्ति बुद्ध हो सकता है, मगर हो नहीं पाता। कोई—कोई कभी—कभी हो पोता है, विरला हो पाता है। होना तो सभी की संभावना है, लेकिन संभावनाओं को सत्य बनाना आसान तो नहीं। संभावनाओं को सत्य बनाने के लिए तो पूरे जीवन को दाव पर लगाना पड़ता है। तो जन्मों—जन्मों की छोटी—छोटी बातों का मूल्य है। छोटी—छोटी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। छोटी—छोटी बातों के परिणाम तुम्हारे जीवन को रूपांतरित करते जाते हैं।
तुमने किसी को गाली दे दी, किसी का अपमान कर दिया, यह बात ऐसे ही न चली जाएगी। गाली देने में, अपमान करने में तुम्हारी चेतना को भी कुछ हो गया। तुमने किसी को दान दे दिया, किसी को प्रेम किया, किसी के ऊपर करुणा की, यह बात इतने में ही समाप्त नहीं हो गयी, ऐसा करने में तुम भी बदले।
तो तुम्हारे छोटे—छोटे कृत्य तुम्हारी जीवनधारा को बदलते जाते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, जब तुम्हारी जीवनधारा उस जगह पहुंच जाती है, शुभ की ऐसी प्रकीर्ण घड़ी आती है, जहा सत्य तुम्हारे घर में मेहमान हो सकता है, जहां भगवान तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है कि मुझे भीतर आ जाने दो। सिंहासन तैयार हो गया तो मेहमान आ जाता है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते।
लेकिन बौद्धों ने इसका क्या अर्थ लिया, जानते हैं? हिंदुओं ने इसका क्या अर्थ लिया? उन्होंने कहा कि बुद्धपुरुष भारत में ही पैदा होते हैं—सर्वत्र पैदा नहीं होते। जातीय अहंकार, राष्ट्रीय अहंकार! भारत में ही पैदा होते हैं! यही है पवित्रतम देश। यही है धर्मभूमि। सदियों से भारत का अहंकार अपने आपकी पूजा करता रहा है। भारत का अहंकार कहता रहा है कि देवता भी यहां पैदा होने को तरसते हैं, क्योंकि यहां बुद्धपुरुष पैदा होते हैं।
फिर क्राइस्ट को क्या कहोगे? फिर जरथुस्त्र को क्या कहोगे? फिर मोहम्मद का क्या करोगे? और फिर बुद्ध के चले जाने के बाद जो बुद्धों की असली परंपरा चली, वह तो चीन में चली और जापान में चली और बर्मा में चली और लंका में चली! और सैकड़ों व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। वे सब भारत के बाहर उपलब्ध हुए। उनको क्या कहोगे?
नहीं, ऐसी संकीर्ण बात इसका अर्थ नहीं हो सकती। भारतीय मन को यह बात सुख देती है, क्योंकि तुम्हारे अहंकार को तृप्त करती है। मैं इसके लिए राजी नहीं हूं। बुद्धपुरुष सर्वत्र पैदा नहीं होते, यह सच है। सभी के भीतर यह घटना नहीं घटती, इसमें सच्चाई ज्यादा खोजने की जरूरत ही नहीं है, साफ ही है बात, करोड़ों में कभी कोई एक होता है। लेकिन वह एक भारत में होता है, ऐसी भ्रांति मत पालना। वह एक कहीं भी हो सकता है, जहा कोई तैयार होगा वहां हो जाएगा।
दूसरी बात—वे मध्यदेश में ही उत्पन्न होते हैं। यह मध्यदेश ने बड़ी झंझट खड़ी की है बौद्धशास्त्रों में। उन्होंने तो हिसाब—किताब भी आंककर बता दिया है कि कितना योजन लंबा और कितना योजन चौड़ा मध्यदेश है। तो मध्यदेश में बिहार आ जाता है, उत्तरप्रदेश आ जाता है, थोड़ा सा मध्यप्रदेश का हिस्सा आ जाता है, बस यह मध्यदेश है। तो पंजाब में पैदा नहीं हो सकते, सिंध में पैदा नहीं हो सकते, बंगाल में पैदा नहीं हो सकते। ये तो सीमांत देश हो गए। ये मध्यदेश न रहे। यह बात बड़ी ओछी है। ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है।
लेकिन मैं झंझट भी समझता हूं कि बौद्ध टीकाकारों की झंझट भी रही कि फिर मध्यदेश का अर्थ क्या करें? कहा है बुद्ध ने, यह सच है।
मैं कुछ अर्थ करता हूं, वह समझने की कोशिश करो।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा भौतिकशास्त्री है—ली कांते दूनाय उसने एक अनूठी बात कही—ली कांते दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे लगा कि यह तो मध्यदेश की बात कर रहा है। मगर बुद्ध और ली कांते दूनाय में तो पच्चीस सौ साल का फासला है। और बिना ली कांते दूनाय के बुद्ध के मध्यदेश की परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए मैं क्षमा करता हूं जिन्होंने दो हजार पाच सौ साल में मध्यदेश की इस तरह की व्याख्या की है। उन पर मैं नाराज नहीं हूं क्योंकि वे कुछ कर नहीं सकते थे।
एक अनूठी बात तय ने खोजी है और वह यह कि मनुष्य अस्तित्व में ठीक मध्य में है। मध्यदेश है। छोटे से छोटा है परमाणु, एटम और बड़े से बड़ा है विश्व। और ली कांते दूनाय ने सिद्ध किया है कि मनुष्य इनके, दोनों के ठीक बीच में मध्यदेश है। ठीक बीच में है। इसका अर्थ होता है, परमाणु में और मनुष्य के बीच में जो अनुपात है, मनुष्य जितने गुना बड़ा है परमाणु से, उतने ही गुना बड़ा विश्व है मनुष्य से। मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है—एक छोर पर परमाणु है, परमाणु और मनुष्य के बीच. जितना फासला है, उतना ही फासला मनुष्य और विश्व की परिधि के बीच है। वे फासले बराबर हैं। और मनुष्य ठीक मध्य में खड़ा है।
ली कांते दूनाय को पढ़ते वक्त अचानक मुझे धम्मपद का यह वचन याद आया। शायद ली कांते दूनाय को तो बुद्ध के इस वचन का कोई पता भी न होगा। हो भी नहीं सकता। लेकिन यह मध्यदेश का अर्थ हो सकता है—होना चाहिए—कि बुद्धपुरुष मनुष्य में ही पैदा होते हैं, मनुष्य—योनि में ही पैदा होते हैं।
अब तक सुना भी नहीं गया कि कोई हाथी, कोई घोड़ा बुद्धपुरुष हुआ हो। देवता भी बुद्धपुरुष नहीं होते। मनुष्य से पीछे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य के आगे भी कोई बुद्धपुरुष नहीं होता, मनुष्य चौराहा है, चौरस्ता है। मनुष्य की कुछ खूबी है, वह समझ लेनी चाहिए, वह क्यों मध्यदेश है?
मध्यदेश की कुछ खूबी है, कुछ अड़चन भी है मध्यदेश की। मध्यदेश का मतलब होता है, बीच में खड़े हैं। न इस तरफ हैं, न उस तरफ, चौराहे पर खड़े हैं। मनुष्य का अर्थ है, अभी कहीं गए नहीं, खड़े हैं, सीढ़ी के बीच में हैं, दोनों तरफ जाने की सुविधा है—निम्नतम होना चाहें तो मनुष्य से ज्यादा नीच और कोई भी नहीं हो सकता। मनुष्य पशुओं से भी नीचा गिर जाता है। जब तुम कभी—कभी कहते हो, मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया, तो तुम कभी सोचना कि पशुओं ने ऐसा व्यवहार कभी किया है?
टालस्टाय ने लिखा है कि जब भी कोई कहता है कि इस मनुष्य ने पशुओं जैसा व्यवहार किया तो मुझे क्रोध आता है कि यह आदमी पशुओं के साथ ज्यादती कर रहा है। क्योंकि जैसे व्यवहार मनुष्य ने किए हैं, वैसे तो पशुओं ने कभी नहीं किए।
कौन से पशु ने एडोल्फ हिटलर जैसा काम किया है—या चंगेज खां, या तैमूर लंग, या जोसेफ स्टैलिन—किस पशु ने ऐसा काम किया है? किसी पशु ने ऐसा काम नहीं किया। पशु मारता है जरूर, हिंसा भी करता है, लेकिन भोजन के अतिरिक्त और किसी कारण से नहीं। अगर सिंह का पेट भरा हो, तो तुम उस,के पास से निकल सकते हो, वह हमला भी नहीं करेगा।
सिर्फ आदमी अजीब है, यह खिलवाड़ में भी मारता है, यह कहता है, शिकार करने जा रहे हैं! इसको कोई प्रयोजन नहीं है, यह मारकर खाएगा भी नहीं, भूखा भी नहीं है, भरा पेट है, लेकिन खेल के लिए जा रहा है! और जब यह आदमी जाकर जंगल में किसी जानवर को मार लेता है, तो कहता है, खूब मजा आया! शिकार हुई! और अगर जंगली जानवर इसको मार ले, तब यह नहीं कहता कि खूब मजा आया, शिकार हुई। जंगली जानवर ने शिकार की, तब शिकार नहीं कहता। और जंगली जानवर कभी शिकार के लिए शिकार नहीं करता, जब भूखा होता है तभी।
मैंने सुना है, एक दिन एक सिंह और एक खरगोश एक होटल में गए। दोनों बैठ गए, तो खरगोश ने बेयरे को बुलाया और कहा कि नाश्ता ले आओ। तो बेयरे ने पूछा, और आपके मित्र क्या लेंगे? खरगोश ने कहा, बात ही मत करो, अगर मित्र भूखे होते तो तुम सोचते हो मैं यहां इनके पास बैठा होता! वह नाश्ता कर चुके होते! मित्र भूखे नहीं हैं, तभी तो मैं इनके पास बैठा हूं।
जानवर तो केवल तभी मारता है जब भूखा होता है। आदमी खेल में, खिलवाड़ में मारता है। हिंसा खिलवाड़ है। दूसरे का जीवन जाता है, तुम्हारे लिए खेल है! फिर कोई जानवर अपनी ही जाति के जानवरों को नहीं मारता—कोई सिंह सिंह को नहीं मारता है, और कोई सांप किसी सांप को नहीं काटता, और कोई बंदर कभी किसी बंदर की गर्दन काटते नहीं देखा गया है। आदमी अकेला जानवर है जो आदमियों को काटता है। और एक—दों में नहीं, करोड़ों में काट डालता है। इसके पागलपन की कोई सीमा नहीं है।
तो अगर आदमी गिरे तो पशु से बदतर हो जाता है, और अगर आदमी उठे तो परमात्मा के ऊपर हो जाता है। बुद्धत्व का अर्थ है, उठना; पशुत्व का अर्थ है, गिरना; और मनुष्य मध्य में है। इसलिए दोनों तरफ की यात्रा बराबर दूरी पर है। जितनी मेहनत करने से आदमी परमात्मा होता है, उतनी ही मेहनत करने से पशु भी हो जाता है। तुम यह मत सोचना कि एडोल्फ हिटलर कोई मेहनत नहीं करता है, मेहनत तो बड़ी करता है तब हो पाता है। यह मेहनत उतनी ही है जितनी मेहनत बुद्ध ने की भगवान होने के लिए, उतनी ही मेहनत से यह पशु हो जाता है।
उतने ही श्रम से तुम ध्यान की संपदा पा लोगे, जितने श्रम से तुम अपने को गंवा दोगे। तुम पर निर्भर है, तुम ठीक मध्य में खड़े हो, उतने ही कदम उठाकर तुम पशु के पास पहुंच जाओगे, पशु से भी नीचे। और उतने ही कदम उठाकर तुम परमात्मा हो जा सकते हो। यह अर्थ है मध्यदेश का। और स्वभावत: मध्य में से ही चौराहा जाता है।  
पुरूष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह मध्यदेश में ही उत्पन्न होता है और जन्म से ही महाधनवान होता है।
तो मनुष्य की महिमा भी अपार है, क्योंकि यहीं से द्वार खुलता है। और मनुष्य का खतरा भी बहुत बड़ा है, क्योंकि यहीं से कोई गिरता है। तो सम्हलकर कदम रखना, एक—एक कदम फूंक—फूंककर रखना। क्योंकि सीढ़ी यहीं से नीचे भी जाती है, जरा चूके कि चले जाओगे।
और सदा खयाल रखना, गिरना सुगम मालूम पड़ता है, क्योंकि गिरने में लगता है कुछ करना नहीं पड़ता, उठना कठिन मालूम पड़ता है। यद्यपि गिरना भी सुगम नहीं है, उसमें भी बड़ी कठिनाई है, बड़ी चिंता, बड़ा दुख, बड़ी पीड़ा। लेकिन साधारणत: ऐसा लगता है कि गिरने में आसानी है—उतार है। चढ़ाव पर कठिनाई मालूम पड़ती है। लेकिन चढ़ाव का मजा भी है। क्योंकि शिखर करीब आने लगता है आनंद का, आनंद की हवाएं बहने लगती हैं, सुगंध भरने लगती है, रोशनी की दुनिया खुलने लगती।
तो चढ़ाव की कठिनाई है, चढ़ाव का मजा है। उतार की सरलता है, उतार की अड़चन है। मगर हिसाब अगर पूरा करोगे तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बराबर आता है हिसाब। बुरे होने में जितना श्रम पड़ता है, उतना ही श्रम भले होने में पड़ता है। इसलिए वे नासमझ हैं, जो बुरे होने में श्रम लगा रहे हैं। उतने में ही तो फूल खिल जाते। जितने श्रम से तुम दूसरों को मार रहे हो, उतने में तो अपना पुनर्जन्म हो जाता।
और भी आगे बुद्ध ने कहा कि वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं। इसकी भी झंझट रही है सदियों तक। क्षत्रिय या ब्राह्मण. कुल में ही उत्पन्न होते हैं। तो फिर वैश्य और शूद्रों का क्या? फिर रैदास तो शूद्र हैं। रैदास का क्या! तो क्या फिर वैश्यों और शूद्रों में कभी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ?
ब्राह्मण और क्षत्रिय तो ऐसा मानना चाहेंगे कि नहीं, कोई कभी उत्पन्न नहीं हुआ। लेकिन यह बात गलत है। जीसस तो बढ़ई हैं। मोहम्मद व्यवसायी हैं। मोहम्मद व्यवसाय ही करते थे, जब उन्हें पहली दफा इलहाम हुआ। तो यह अर्थ तो नहीं हो सकता। और यह अर्थ इसलिए भी नहीं हो सकता कि बुद्ध ने तो बार—बार इनकार किया है कि मैं वर्णों को मानता नहीं, मैं मानता नहीं कि कोई ब्राह्मण है, कि कोई शूद्र है, कि कोई क्षत्रिय है। जन्म से तो कोई वर्ण हैं नहीं, इसलिए बुद्ध के वचन का यह अर्थ तो हो नहीं सकता। बुद्ध ने तो वर्णों की पूरी धारणा को ही इनकार किया है—वही तो उनकी क्रांति थी। फिर बुद्ध का क्या अर्थ होगा? 
मैं कुछ अर्थ करता हूं वह अर्थ ऐसा कि वही व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, जिसमे ब्राह्मण के जैसी ब्रह्म को खोजने की आकांक्षा हो, और क्षत्रिय जितना साहस हो जीवन को दाव पर लगा देने का। मैं इसकी भी फिकर नही करता कि बौद्ध पंडित मुझसे राजी होंगे कि नहीं—पंडितों की मैं फिकर ही नहीं करता हूं। लेकिन मेरा यह अर्थ है। क्षत्रिय से मेरा अर्थ है, साहस। वह प्रतीक है साहस का। दाव पर लगाने की बात है।
यही मैं भी मानता हूं कि व्यवसायी बुद्धि का आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता। मैं यह नहीं कहता—कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो सकता, लेकिन व्यवसायी बुद्धि का आदमी नहीं उपलब्ध हो सकता। क्योंकि व्यवसायी कभी हिम्मत ही नहीं करता, वह कौड़ी—कौड़ी का हिसाब लगाता रहता है, हिम्मत क्या करे! जुआरी उपलब्ध हो सकता है, वह सब दाव पर लगाने की हिम्मत करता है—वह कहता है, या इस तरफ, या उस तरफ। या तो पार हो जाएंगे, या डूब जाएंगे, ठीक।
व्यवसायी सोचता है कि लाभ कितना होगा, हानि कितनी होगी, पैसा घर में ही रखें तो इतना तो ब्याज ही आ जाएगा, धंधा करने से क्या सार है! धंधे में कुछ ज्यादा मिलता हो तो ही। लेकिन वह यह भी देखता रहता है कि कहीं ज्यादा मिलने के लोभ में ऐसा न हो कि खो जाए। तो इतनी दूर भी नहीं जाता। वह चालाकी से चलता है। क्षत्रिय और वैश्य का यही फर्क है।
तो व्यवसायी तो नहीं कभी सत्य को उपलब्ध हो पाता, यह मैं भी कहता हूं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वैश्य उपलब्ध नहीं हो पाता। क्योंकि बहुत वैश्य हो सकते हैं जो क्षत्रिय जैसा साहस रखते हों और बहुत से क्षत्रिय हो सकते हैं जो कि वणिक की बुद्धि के हों। कोई क्षत्रिय होने से थोड़े ही क्षत्रिय हो जाता है, साहस चाहिए। क्षत्रिय भी तो कायर होते हैं। इसलिए असली सवाल साहस का है।
और निश्चित ही ब्राह्मण जैसी ब्रह्म की खोज चाहिए। सभी ब्राह्मण में होती भी नहीं। इसलिए जिनमें ब्रह्म की खोज होती है, अभीप्सा होती है, उन्हीं को ब्राह्मण कहना उचित है। उन्हीं को बुद्ध ने भी ब्राह्मण कहा है। ब्रह्म के तलाशी, ब्रह्म को पा लेने वाले ब्राह्मण। शब्द भी साफ है। किसी खास घर में पैदा होने से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता। लेकिन किसी खास भावदशा में पैदा हो जाने से ब्राह्मण होता है।
तो यह मैं भी कहता हूं कि ब्राह्मण ही उपलब्ध होंगे, लेकिन ब्राह्मण से जन्मवाची अर्थ मत लेना; ब्रह्म के तलाशी, सत्य के खोजी। स्वभावत: जिसने खोज ही नहीं की, वह पहुंचेगा कैसे? जो चला ही नहीं, वह पहुंचेगा क्यों?
और शूद्र कभी उपलब्ध नहीं हो सकते बुद्धत्व को, इसका मतलब भी जन्मवाची मत लेना। शूद्र का अर्थ ही वही है, जो क्षुद्र में उलझे हैं। छोटी—मोटी चीजों में उलझे हैं। एक मकान बना लें, भोजन मिल जाए, अच्छे वस्त्र मिल जाएं, बस खतम हुआ—जीवन का सार समाप्त हुआ, जीवन की इति आ गयी। क्षुद्र में जिनका उलझाव है, वे ही शूद्र। विराट में जिनका लगाव है, वे ही ब्राह्मण।
तो इस अर्थ में बुद्ध ने ठीक ही किया कि वैश्य और शूद्र को छोड़ दिया। उन्होंने कहा, वे क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में ही उत्पन्न होते हैं। ठीक ही किया। क्योंकि बहुत से शूद्र भी ब्राह्मण हो सकते हैं, और बहुत से ब्राह्मण भी शूद्र हो सकते हैं। बहुत से वैश्य क्षत्रिय हो सकते हैं, बहुत से क्षत्रिय वैश्य हो सकते हैं। इसे खयाल में लेना, तब एक अलग अर्थ प्रगट होगा।
तो दो गुण चाहिए। बिना दो गुणों के न होगा। ब्रह्म की खोज हो और साहस न हो, तो तुम बैठे रहोगे, तुम्हारी खोज नपुंसक रहेगी। तुम बैठे घर में माला फेरते रहोगे। तुम किसी अनजान पथ पर प्रवेश न करोगे। तो अकेली खोज की आकांक्षा काफी नहीं है, खोज के लिए जाना भी पड़ेगा। फिर कोई दूसरा हो सकता है खोज के लिए तो निकल पड़ा है, लेकिन खोज की कोई प्रगाढ़ आकांक्षा नहीं है। तो वह भटकेगा। वह पहुंचेगा नहीं। सिर्फ घर से निकल पड़ने से थोड़े ही कोई पहुंच जाता है। दिशा भी साफ चाहिए, दृष्टिकोण सुथरा चाहिए। आंखें शुद्ध चाहिए, मन पवित्र चाहिए, प्यास ज्वलंत चाहिए। न
तो जहां खोज और प्यास का मिलन होता है, जहा कोई व्यक्ति ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों होता है, वहीं घटना घटती है, वहीं बुद्धत्व पैदा होता है—उसी कुल में।
इस घड़ी में आनंद को जवाब देते हुए बुद्ध ने यह गाथा कही थी—

            दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सब्बत्थ जायति।

सभी जगह तो बुद्ध पैदा नहीं होते, पुरुषश्रेष्ठ तो दुर्लभ है, और बुद्धत्व को ही बुद्ध कहते हैं पुरुषश्रेष्ठ। मनुष्य तो सभी हैं, लेकिन जब तक तुम्हारे जीवन में बुद्धत्व की किरण न हो, तब तक तुम श्रेष्ठ नहीं हो। तब तक तुम नाममात्र के आदमी हो। कामचलाऊ आदमी हो। तुम्हारे भीतर अभी श्रेष्ठ का अवतरण नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर का दीया नहीं जला। तुम्हारी बुद्धि अभी निखरी नहीं। तुम्हारी बुद्धि पर हजार—हजार कालिख पुती है और तुम्हारी बुद्धि पर हजार—हजार पर्दे पड़े हैं।
श्रेष्ठ पुरुष का अर्थ है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, जिसके भीतर का बोध जागा, जिसके जीवन में किरणें फैलीं, जिसके भीतर का दीया जला और अब जिसका जीवन एक रोशनी है। इस रोशनी के बाद तुम जो भी करोगे उस सबमें श्रेष्ठता आ जाएगी। तुम जो भी करोगे वह श्रेष्ठ हो जाएगा। तुम मिट्टी छुओगे, सोना हो जाएगी। तुम्हारा स्पर्श अमृत का स्पर्श हो जाएगा। और तब तुम्हारे लिए कोई कितना ही दुख दे, कोई कितनी ही पीड़ा दे, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा, तुम्हारी श्रेष्ठता को कोई डिगा न सकेगा।
            जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले ।
            फिर भी इसी की अखौवत का परस्तार रहा
यह बुद्धत्व की परिभाषा है—आदमियों ने जिसे सताया परेशान किया..
            जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले,
            फिर भी इंसां की अखौवत का परस्तार रहा
फिर भी उसकी अनुकंपा अकंप रही। फिर भी आदमी का भला हो, यही उसकी आकांक्षा रही।
जीसस को सूली पर लटकाया, तो भी आखिरी समय जीसस ने यही कहा—हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते क्या कर रहे हैं। और जिनके लिए वह क्षमा मांग रहे थे, वे पत्थर फेंक रहे थे, सड़े—गले फल फेंक रहे थे, गंदगी फेंक रहे थे, जूते फेंक रहे थे। जितना अपमान हो सकता था जीसस का, कर रहे थे। मरते हुए आदमी के साथ दुर्व्यवहार कर रहे थे—जीते जी भी दुर्व्यवहार किया, मरते क्षण में भी उनको दया न आयी।
जीसस को प्यास लगी है, सूली पर लटके हैं—वह सूली जो यहूदी देते थे उन दिनों, आदमी जल्दी नहीं मरता था; हाथ ठोंक चेते, पैर ठोंक देते कीलों से, कभी छह घंटे लगते मरने में, कभी आठ घंटे लगते, कभी आदमी चौबीस घंटे लटका रहता, खून बहता रहता, जब सारा खून बह जाता. शरीर से तब आदमी मरता, वह आजकल जैसी सूली नहीं थी जो क्षण में हो जाती है, बड़ी पीड़ादायी थी—तो खून बहने लगा है उनकी देह से और बड़ी गहरी प्यास लगी। लगती है प्यास, जब खून बहेगा तो पानी कम होने लगता है, क्योंकि खून के साथ शरीर का पानी बहने लगता है। तो उन्हें बड़ी तीव्र प्यास लगी है, उनका कंठ जल रहा है प्यास से, भरी दुपहरी है और उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि मुझे प्यास लगी है। तो किसी ने गंदी नाली में एक मशाल डालकर मशाल बुझा दी और मशाल के ऊपर जो गंदगी लग गयी, पानी लग गया नाली का, वह उठाकर जीसस के चेहरे के पास कर दिया कि इसे चाट लो, इससे थोड़ी प्यास बुझ जाएगी। इनके लिए वह प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
            जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले
            फिर भी इसी की अखौवत का परस्तार रहा, 
      ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ है। उसे न कोई अपना है, न कोई पराया है।
            द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
            द्वैत दर्शन में है
तुम घर के भीतर बैठे हो, बच्चा बाहर खेल रहा है, तुम कहते हो बाहर खेल रहा है। बच्चा भीतर आ गया, तुम कहते हो भीतर आ गया। लेकिन द्वार से पूछो कि क्या बाहर है, क्या भीतर है, तो द्वार के लिए तो दोनों बराबर दूरी पर हैं बाहर और भीतर।
            द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
            द्वैत दर्शन में है 
जो द्वार बनकर खड़ा हो गया है उसे न कोई अपना है, न कोई पराया, न कुछ बाहर है, न भीतर है; न कुछ सुख है, न दुख; उसका द्वंद्व गया, द्वैत गया, अब तो उसे एक ही दिखायी पड़ता है। इस एक की प्रतीति का नाम श्रेष्ठत्व है।
और बुद्ध ने कहा, ऐसा श्रेष्ठ व्यक्ति सब जगह उत्पन्न नहीं होता। फिर जब कभी ऐसा अनूठा व्यक्ति कहीं पैदा होता है—
'वह धीर जहां उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है। '
कुल का अर्थ भी समझना, उसके भी साथ भूल होती रही है।
उसका अर्थ हुआ कि जिस घर में बुद्ध पैदा होते हैं उसमें सुख बढ़ता है, वह तो ठीक ही है, बुद्ध की मौजूदगी जहां होगी वहा सुख बढ़ेगा। अकारण भी कोई बुद्ध के करीब से गुजर जाएगा तो भी सुख की एक झलक, सुख का एक झोंका उसे लग जाएगा। बुद्ध के पास न जानकर भी आए हुए आदमी को थोड़ी सी सुगंध तो लग ही जाएगी। तो जिस घर में बुद्ध पैदा होंगे उस घर में तो सुख होगा, यह ठीक है, मगर यह बात असली नहीं है। बुद्ध की भाषा में कुल का कुछ और अर्थ होता है।      बुद्ध कहते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई थिर आत्मा नहीं है, तुम्हारे भीतर कोई ठोस आत्मा नहीं है, तुम्हारे भीतर एक संतति है। जैसे हम सांझ को दीया जलाते हैं; शाम को दीया जलाया, फिर सुबह अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या यह वही दीया है जो रात तुमने जलाया था, तो तुम क्या कहोगे? तुम अगर थोड़ा सोच—विचार करोगे तो तुम कहोगे कि दीया तो वही है एक अर्थ में, लेकिन एक अर्थ में नहीं भी है, क्योंकि जो ज्योति हमने जलायी थी वह तो कभी की बुझ चुकी। दूसरी ज्योति आ रही है प्रतिक्षण। जो ज्योति हमने जलायी थी वह तो हवा में लीन होती जा रही है और दूसरी ज्योति आती जा रही है। तो यह दीया इस अर्थ में वही है कि इस दीए में जो ज्योति अभी जल रही है, वह उसी ज्योति की संतति है, उसी कुल में आयी है, मगर वह ज्योति तो कभी की जा चुकी। हजारों ज्योतिया आ चुकीं रात में और जा चुकीं।
जैसे नदी है। तुम कहते हो, यह गंगा है। तुम कहो कि हम पिछले वर्ष भी यहां आए थे, यह वही नदी है। तो बुद्ध कहते हैं, यह वही नदी है? ठीक से सोचकर कह रहे हो? नहीं, उसी नदी के कुल में है। वह नदी तो कब की बह गयी! जो तुम देख गए थे सालभर पहले, वह तो सागर में गिर चुकी। हो, उसी की धारा में बहने वाली नदी है, उसी से जुड़ी है—उससे भिन्न भी नहीं है, उसके साथ एक भी नहीं है।
इसको बुद्ध ने संतति का नियम कहा है। इसको बुद्ध कहते हैं, कुल।
तुम जब पैदा हुए थे, तुम वही हो? कितनी तो धारा बह चुकी, कितनी तो नदी बह चुकी! गंगा का कितना पानी तो बह चुका! तुम जवान हो गए अब, कितने बह गए! के होओगे तब तुम यही रहोगे? बहुत कुछ बह चुका होगा। लेकिन एक अर्थ में तुम यही रहोगे, क्योंकि एक ही धारा है। जो पैदा हुआ था, वही तो नहीं मरेगा; जो बच्चा पैदा हुआ था सत्तर साल पहले, वही थोड़े ही मरेगा, सत्तर साल में सब बदल गया, लेकिन फिर भी एक अर्थ में वही मरेगा, वही धारा टूटेगी।
इस धारा के सिद्धात को बुद्ध ने बड़ा मूल्य दिया है। यह उनकी अनूठी खोज है। इसका अर्थ हुआ कि इस जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है, तुम भी थिर नहीं हो, अथिरता इस जगत का स्वभाव है। परिवर्तन इस जगत का स्वभाव है। इसके पहले भी लोगों ने कहा है कि जगत का स्वभाव परिवर्तन है, लेकिन तुमको बचा लिया था—उन्होंने कहा था, तुम नहीं बदलते, सब बदल रहा है, तुम थिर हो। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम भी थिर नहीं हो, तुम भी बदल रहे हो। और जो नहीं बदल रहा है, उसका तो तुम्हें पता ही नहीं है। और जब तक तुम हो, तब तक उसका पता भी नहीं चलेगा। जब तुम बिलकुल ऐसा अनुभव कर लोगे कि मैं भी इस बदलते जगत की ही एक छाया हूं और तुम भी इस जगत की बदलाहट के साथ?
जाओगे और धीरे— धीरे यह मोह छोड़ दोगे कि मैं थिर हूं तब तुम्हें कुछ दिखायी पड़ेगा। कुछ, जो शाश्वत है।
लेकिन उसकी बुद्ध ने चर्चा नहीं की। क्योंकि वह कहते हैं, चर्चा करते से ही गलती हो जाती है। जिसकी भी हम चर्चा कर सकते हैं, वही अशाश्वत हो जाता है। इसलिए उसे चर्चा के बाहर छोड़ दिया है। है कुछ, अनिर्वचनीय, नित्य, मगर उसकी चर्चा नहीं की है। तुम तो जिसे अभी जानते हो कि मैं हूं यह बदल रहा है। तुम एक धारा हो, एक संतति हो। जैसे दीए की ज्योति, या नदी। इस बात को खयाल में लोगे तो अर्थ साफ हो जाएगा।
'वह धीर जहां उत्पन्न होता है.......। '

            यत्थ सो जायति धीरो त कुलं सुखमेधति । 

'……. उस कुल में सुख बढ़ता है। '
जहां बुद्धत्व का पदार्पण हो गया, फिर उसके बाद तुम्हारे भीतर जो संतति चलती है, जो धारा आती है, तुम जो रोज—रोज पैदा होते हो, उसमें रोज—रोज सुख बढ़ता चला जाता है। आज और, कल और, परसों और। तुम बदलते जाते हो लेकिन सुख घना होता जाता है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां सुख महासुख हो जाता है। उस महासुख की घड़ी को ही निर्वाण की घड़ी कहा है। समाधि की घड़ी कहो, जीवन—मुक्त की दशा कहो, या जो भी नाम देना हो।

ओशो

एस धम्‍मो संनतनो




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