सूत्र :
न
प्रत्यग्ब्लणोभेदं
कथधिद
च्छसर्गयो:।
प्रज्ञथा
यो विजानाति स
जीवन्मुक्ल
इष्यते।। 46।।
साधुभि:
पूज्यमनेsस्मिन् पीड्यमानेऽपि
दुर्जनै:।
सक्यावो
भवेद्यस्य स
जीवमुक्त
इष्यते।। 47।।
विज्ञातब्रह्मतत्वस्य
यथापूर्व न
संसृति:।
अस्ति
चेन्न स
विज्ञातब्रह्माभावो
बहिर्मुख:।।
48।।
सुखाद्यनुभवो
यावत् तावत्
प्रारख्यीमष्यते।
फलोदय:
क्रियापूर्वो
निकियो न हि
कुत्रचित्।।
49।।
अहं
ब्रह्मोति
विज्ञानात्
कल्पकोटिशतर्जितम्।
जीवात्मा
तथा ब्रह्म का
भेद और ब्रह्म
तथा सृष्टि का
भेद बुद्धि
द्वारा जो कभी
नहीं जानता, वह
जीवनमुक्त
कहलाता है।
सज्जन
सत्कार करें
और दुर्जन दुख
दें, तो
भी जिसको सदैव
सबके ऊपर
सम—भाव रहे, वह जीवनमुक्त
कहा जाता है।
जिसने
ब्रह्म तत्व
को जान लिया
है, उसकी
दृष्टि में
संसार पहले
जैसा नहीं
रहता, इसलिए
अगर वह संसार
को पूर्ववत ही
देखता है तो
मानना पड़ेगा
कि उसने अभी
तक ब्रह्म—भाव
को जाना ही
नहीं है और वह
बहिर्मुख है।
जहां तक सुख
वगैरह का
अनुभव होता है, वहा तक यह
प्रारब्ध
कर्म है, ऐसा
माना गया है, क्योंकि
प्रत्येक फल
का उदय
क्रियापूर्वक
ही होता है, किया बिना
किसी स्थान पर
कोई फल होता
ही नहीं।
जिस प्रकार
जग जाने से
स्वप्न की
क्रिया नाश को
प्राप्त होती
है, वैसे
ही मैं ब्रह्म
हूं ऐसा शान
होने से करोड़ों
और अरबों जन्म
से इकट्ठा
किया संचित
कर्म नाश पाता
है।
जीवनमुक्त
की आंतरिक दशा
के लिए कुछ और
निर्देश।
जीवनमुक्त
है वह व्यक्ति, जिसने
जीते जी
मृत्यु को जान
लिया है।
मृत्यु तो सभी
जानते हैं, मरते समय ही
जानते हैं।
उसे भी जानना
नहीं कह सकते,
क्योंकि
ठीक मरने के
क्षण में ही
चित्त बेहोश हो
जाता है, मूर्च्छित
हो जाता है।
तो
मृत्यु हम
अपनी कभी नहीं
जानते हैं, हम सदा
दूसरे की
मृत्यु जानते
हैं। आपने
दूसरे को मरते
देखा है, अपने
को कभी भी
नहीं। मृत्यु
का ज्ञान तक
हमारा उधार
है। और जब
दूसरा मरता है
तो हम क्या
जानते हैं? हम जानते
हैं कि वाणी
खो गई, कि आंखें
बंद हो गईं, कि नाड़ी खो गई,
कि हृदय बंद
हो गया—शरीर
का तंत्र अब
काम नहीं करता,
इतना ही हम
जानते हैं।
भीतर जो तंत्र
के छिपा था, उस पर क्या
बीती, क्या
हुआ—वह बचा, नहीं बचा, वह था भी
वहां, या
कभी नहीं था—इस
संबंध में हम
कुछ भी नहीं
जानते।
मृत्यु
घटती है भीतर, हम केवल
बाहर उसके परिलक्षण
देख पाते हैं।
दूसरे को मरते
देख कर कैसे
मृत्यु का पता
चलेगा? मरे
हम भी बहुत
बार हैं, लेकिन
अपने को मरते
हम कभी नहीं
देख पाए। मरने
के पहले बेहोश
हो गए हैं, मूर्च्छित
हो गए हैं।
इसीलिए, कितने
ही लोगों को
आप मरते देखें,
आपको भीतर
भरोसा नहीं
आता कि आप भी
मरेंगे। कभी
आपको यह भरोसा
आया है कि मैं
भी मरूंगा? कितने ही
रोज लोग मरें,
मरघट भर जाए,
महामारी
फैल जाए, प्रतिपल
जहां दिखे लाश
दिखे, फिर
भी सदा ऐसा
लगता है दूसरे
ही मरते
रहेंगे, ऐसा
कभी भी भीतर
भाव नहीं आता
कि मैं
मरूंगा। आता
भी हो तो ऊपर—ऊपर
ही होता है, गहरे में
प्रवेश नहीं
कर पाता।
क्यों? क्योंकि
अपनी मृत्यु
तो कभी देखी
नहीं; उसका
कोई अनुभव
नहीं है; उसकी
कोई याद नहीं
है। कितना ही
सोचो पीछे लौट
कर, पता ही
नहीं चलता कि
कभी मरे हों!
तो जो कभी नहीं
हुआ, वह
आगे भी कैसे
होगा?
मन
का तो सारा का
सारा हिसाब
अतीत पर
निर्भर है। मन
तो भविष्य को
भी सोचता है
तो अतीत के ही
शब्दों में
सोचता है। जो
कल हुआ है वही
आने वाले कल
में हो सकता
है; थोड़ा—बहुत
हेर—फेर होगा।
लेकिन जो कभी
नहीं हुआ है
वह कल भी कैसे
होगा! इसीलिए
मन कभी मृत्यु
को मान नहीं पाता।
और जब अपनी
मृत्यु घटती
है, तब मन
बेहोश हो गया
होता है।
इसलिए
जीवन के दो
बड़े अनुभव, जन्म का
और मृत्यु का
अनुभव हमें
होता ही नहीं।
जन्मते भी हम
हैं, मरते
भी हम हैं। और
अगर इन दो बड़ी
घटनाओं का अनुभव
नहीं होता, तो इनके बीच
में जो जीवन
की धारा है, उसका भी
हमें क्या
अनुभव होगा, कैसे होगा? जो जीवन के
शुरुआत को
नहीं जान पाता,
अंत को नहीं
जान पाता, वह
मध्य को भी
कैसे जान
पाएगा? जन्म
और मृत्यु के
बीच में जो
धारा है, वही
है जीवन। न
शुरू का हमें
पता है, न
अंत का हमें
पता है, तो
बीच भी
अपरिचित ही रह
जाएगा।
धुंधली—
धुंधली खबर
होगी—जैसे दूर
सुनी गई कोई
बात हो, कोई
देखा गया
स्वप्न हो।
लेकिन जीवन से
भी हमारा सीधा
संस्पर्श
नहीं हो पाता।
जीवनमुक्त
का अर्थ है कि
जिसने जीवन
में ही, जागते, होशपूर्वक
मृत्यु को जान
लिया। यह शब्द
बड़ा अदभुत है।
जीवनमुक्त
का अर्थ है
बहुत तरह का।
एक अर्थ हम कर
सकते हैं कि
जो जीवन में
मुक्त हो गया,
दूसरा अर्थ
हम कर सकते
हैं कि जो
जीवन से मुक्त
हो गया। दूसरा
अर्थ ज्यादा
गहरा है। असल
में पहला अर्थ
दूसरे अर्थ के
बाद ही उपयोगी
है। जो जीवन
से मुक्त हो
गया, वही
जीवन में
मुक्त हो सकता
है।
जीवन
से कौन मुक्त
होगा? जीवन
से वही मुक्त
हो सकता है, जिसने जान
लिया हो कि
समस्त जीवन
मृत्यु है, जिसे दिखाई
पड़ा हो कि
जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह
मृत्यु की एक
लंबी यात्रा
है। जन्म के
बाद मरने के
सिवाय हम कुछ
और करते नहीं।
कुछ भी करते
रहें, मरने
की क्रिया
जारी रहती है—हर
पल। सुबह से
सांझ हो गई, आप मर गए
बारह घंटे और।
सांझ से फिर
सुबह होगी, आप मर गए
बारह घंटे और।
जीवन चुकता
जाता है, बूंद—बूंद
समय रिक्त
होता जाता है।
तो
जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह
वस्तुत: मरने
की एक लंबी
प्रक्रिया
है। जन्म के
बाद और कोई
कुछ भी करे, सब एक काम
जरूर करते हैं,
वह है मरने
का—मरते रहने
का। जन्मे
नहीं कि मरना
शुरू हो गया।
बच्चे ने पहली
सांस ली, अंतिम
सांस की
व्यवस्था हो
गई। अब मौत से
बचने का कोई
उपाय नहीं। जो
जन्म गया, वह
मरेगा। देर—
अबेर, समय
का अंतर हो
सकता है, लेकिन
मौत
सुनिश्चित हो
गई।
जीवन
को जो मृत्यु
की लंबी
प्रक्रिया की
भांति देख
लेता है—समझ
लेता है, नहीं कह रहा
हूं—देख लेता
है! क्योंकि
समझ तो आप भी
सकते हैं कि ठीक
है, इससे
जीवन्मुक्त
नहीं हो
जाएंगे। जो
देख लेता है, इसका साक्षी
हो जाता है, यह उसको
दर्शन हो जाता
है, कि मैं
मर रहा हूं—प्रतिपल।
एक
तो हमें पता
ही नहीं चलता
कि हम मरेंगे; मैं
मरूंगा, यह
पता नहीं
चलता। दूसरे
मरते हैं सदा।
दूसरी बात, हमें सदा, अगर हम कभी
सोचते हैं, अनुमान भी
करते हैं
दूसरों के
मरने से अपनी
मृत्यु का, तो मृत्यु
कभी भविष्य
में घटित होगी,
उसे अभी
टाला जा सकता
है। वह अभी
घटित नहीं हो रही
है, आज
नहीं घटित हो
रही है।
बिस्तर पर
मरणासन्न पड़ा
हुआ आदमी भी
यह नहीं सोचता
कि मृत्यु आज
घटित हो रही
है, इस
क्षण में आ
रही है—कल!
टालता है, स्थगित
करता है। टाल
कर हम बच जाते
हैं। जीवन होता
है अभी और मौत
होती है कभी
दूर।
जिसे
दिखाई पड़ जाता
है कि पूरा
जीवन मृत्यु
है, उसे
यह भी दिखाई
पड़ जाता है कि
मृत्यु कल
नहीं है, अभी
है, इसी
क्षण है—इसी
क्षण मैं मर
ही रहा हूं।
यह जो मरने की
घटना मेरी घट
रही है इसी
क्षण इसकी
प्रतीति कैसे हो?
इसे कैसे हम
देख पाएं? देख
पाएं, तो
आदमी फिर जीवन
की वासना नहीं
करता। बुद्ध ने
कहा है, जो
जीवेषणा नहीं
करता, वह जीवनमुक्त
है। जो माग
नहीं करता कि
मुझे जीवन और
मिले; जो
और जीना नहीं
चाहता; जिसकी
जीने की अब
कोई इच्छा
नहीं रह गई है,
कोई वासना
नहीं रह गई है,
मृत्यु आए
तो सहजता से
स्वीकार कर
लेगा, एक
क्षण भी मौत
से न कहेगा
रुको, ठहरो,
मैं थोड़ा
निपट लूं। तैयार
ही रहेगा।
प्रतिपल
तैयार रहेगा।
जीवेषणा
जिसकी समाप्त
हो गई हो, वह जीवन से
मुक्त हो सकता
है। जो जीवन
से मुक्त हो
जाता है, वह
जीवनमुक्त
हो जाता है।
फिर वह जीवन
में ही मुक्त
हो जाता है।
फिर यहीं और
अभी वह हमारे
साथ होता है, लेकिन हमारे
जैसा नहीं
होता। वह भी
उठता है, बैठता
है, खाता
है, पीता
है, चलता
है सोता है।
लेकिन उसका
सोना, उठना,
बैठना, सब
का गुण, सब
की क्वालिटी
रूपांतरित हो
जाती है।
हमारे जैसे
काम करते हुए
भी वह हमारे
जैसे काम नहीं
करता है। यह
संसार जैसा
हमें दिखाई
पड़ता है ऐसा
ही रहता है, लेकिन उसे
किसी और भांति
दिखाई पड़ने
लगता है। उसकी
दृष्टि बदल
जाती है, देखने
वाला केंद्र
बदल जाता है, सारा जगत
रूपांतरित हो
जाता है।
इस
जीवनमुक्त
की परिभाषा और
निर्देश इस
सूत्र में
हैं। इन्हें
एक—एक कर गौर
से समझ लेना
है।
'जीवात्मा
तथा ब्रह्म का
भेद..।’
कुछ
मित्रों को
ज्यादा खांसी
आती हो, एकदम यहां
से चले जाएं।
या अपनी खांसी
रोक कर बैठ
जाएं। ये
दोनों काम
नहीं चलेंगे।
'जीवात्मा
तथा ब्रह्म का
भेद और ब्रह्म
तथा सृष्टि का
भेद बुद्धि
द्वारा जो कभी
नहीं जानता, वह जीवनमुक्त
कहलाता है।’
पहली
लक्षणा।
स्वयं के और
परम के बीच—वह जो
भीतर छिपा जीव
है वह, और
वह जो विराट
में छिपा हुआ
ब्रह्म है वह—दोनों
के बीच जिसे
कोई भी भेद
बुद्धि के
द्वारा दिखाई
नहीं पड़ता, वह जीवनमुक्त
कहलाता है। दो
बातें हैं कोई
भेद दिखाई
नहीं पड़ता, बुद्धि के
द्वारा।
सभी
भेद बुद्धि के
द्वारा दिखाई
पड़ते हैं। बुद्धि
ही भेद को
देखने की
व्यवस्था है।
जैसे पानी में
हम लकड़ी को
डाल दें तो
लकड़ी तिरछी
दिखाई पड़ने
लगती है। लकडी
को बाहर खींच
लें, लकड़ी
फिर सीधी
दिखाई पड़ने
लगती है। फिर
पानी में
डालें, फिर
तिरछी दिखाई
पड़ने लगती है।
लकड़ी तिरछी होती
नहीं पानी में,
सिर्फ
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
पानी और पानी
के बाहर
किरणों की
यात्रा का पथ
बदल जाता है।
पानी के
माध्यम में
किरणें तिरछी
यात्रा करती
हैं, इसलिए
लकड़ी तिरछी
दिखाई पड़ने
लगती है।
पानी
के माध्यम में
कोई भी चीज
सीधी डालें, वह तिरछी
दिखाई पडेगी।
वह तिरछी होती
नहीं है सिर्फ
दिखाई पड़ती
है। और मजा यह
है कि आपको
बिलकुल पक्का
पता है कि
तिरछी होती
नहीं, तो
भी तिरछी
दिखाई पड़ती
है। हजार दफे
निकाल कर बाहर
देख लें, फिर
पानी में डाल
दें, तो
ऐसा नहीं है
कि आप हजार
बार देख चुके,
परख चुके, पानी के
अंदर हाथ डाल
कर भी लकड़ी को
देख लें तो वह
सीधी मालूम
पड़ती है—हाथ
को, लेकिन आंख
को तिरछी ही
दिखाई पड़ती
है, क्योंकि
पानी का
माध्यम और हवा
का माध्यम किरणों
के लिए यात्रा—पथ
बदल देता है।
इसे
ऐसा समझें, आपने
प्रिज्म देखा
हो कांच का—खास
तरह का बना
हुआ टुकडा
होता है
त्रिकोण। उसमें
से सूरज की
किरणें
निकलें, तो
सात हिस्सों
में टूट जाती
है सूरज की
किरण। इंद्रधनुष
देखते हैं आप?
वह प्रिज्म
का ही खेल है।
जब आप
इंद्रधनुष
देखते हैं तो
होता क्या है?
सूरज की
किरणें तो
हमेशा आकाश से
आ रही हैं जमीन
पर। लेकिन जब
कभी पानी की
बूंदें हवा
में होती हैं,
छोटी
बूंदें, तो
पानी की छोटी
बूंदें
प्रिज्म का
काम करती हैं,
काच के
टुकडे का काम
करने लगती
हैं। उनमें
किरण प्रवेश
करती है, तत्काल
सात हिस्सों
में टूट जाती
है। वे सात रंग
आपको
इंद्रधनुष
जैसे दिखाई
पड़ते हैं। इंद्रधनुष
पानी की
बूंदों से
गुजरी हुई
सूरज की किरण
ही है। इसलिए
सूरज न हो तो
भी इंद्रधनुष
दिखाई नहीं
पड़ेगा। आकाश
में बादल न
हों और हवा
में पानी के
कण न लटके हों,
तो भी
इंद्रधनुष
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
प्रिज्म, कांच का
टुकड़ा, या
पानी की बूंद,
सूरज की
किरण को सात
हिस्सों में
तोड़ देती है; माध्यम! अगर
आप पानी की
बूंद से सूरज
को देखेंगे तो
सात रंग दिखाई
पड़ेंगे। अगर
पानी के बाहर
सूरज की किरण
को देखेंगे तो
वह सफेद है, सफेद कोई
रंग नहीं है।
सफेद कोई रंग
नहीं है, सफेद
रंग का अभाव
है। बुद्धि भी
ऐसा ही एक माध्यम
है। जैसे पानी
में लकड़ी
तिरछी हो जाए,
और प्रिज्य
में सूरज की
सात किरणें हो
जाएं, एक के
सात टुकड़े हो
जाएं, ऐसा
ही बुद्धि, विचार
सूक्ष्म
माध्यम है।
इससे जिस चीज
को भी हम
देखते हैं वह
दो में टूट
जाती है, भेद
निर्मित हो
जाता है। जहा
भी बुद्धि को
देखेंगे, बुद्धि
से देखेंगे, वहा चीजें
दो हो जाएंगी,
भेद
निर्मित हो
जाएगा।
बुद्धि
भेद
निर्मात्री
है। कोई भी
चीज को बुद्धि
से देखें।
दृष्टांत के
लिए, समझने
के लिए, प्रकाश
को बुद्धि से
देखें, तो
तत्काल दो
हिस्से हो
जाते हैं
अंधेरा और उजाला।
वस्तुत:
अस्तित्व में
प्रकाश और
अंधेरे में
कोई भी फर्क
नहीं है, वह
एक ही चीज का
क्रमिक
विस्तार है।
इसीलिए तो
अंधेरे में भी
कुछ पक्षी
देखते हैं।
अंधेरा
बिलकुल अंधेरा
होता, तो
उल्लू भी रात
को देख नहीं
सकता था। उल्लू
देखता है रात
में, इसीलिए
देख पाता है
कि अंधेरा भी
प्रकाश है, सिर्फ आपकी आंख
उसको पकड़ने
में समर्थ
नहीं, उल्लू
की आंख पकड़ने
में समर्थ है।
सूक्ष्म
प्रकाश है
अंधेरा भी।
आपके
पास से बहुत
बड़ा प्रकाश भी
गुजरता है, वह आपको
दिखाई नहीं
पड़ता; क्योंकि
आपकी आंख की
देखने की एक
क्षमता है, उसके नीचे
भी दिखाई नहीं
पड़ता, उसके
ऊपर भी नहीं
दिखाई पड़ता; दोनों तरफ
अंधेरा हो
जाता है। कभी
आपने खयाल किया
है कि अगर
आपकी आंख एकदम
महाप्रकाश के
सामने आ जाए
तो अंधेरा छा
जाएगा; क्योंकि
उतना प्रकाश आंख
देख नहीं पाती
है।
तो
अंधेरे दो तरह
के हैं। जितने
दूर तक आपकी आंख
की क्षमता है
देखने की, उधर
प्रकाश—उसके
उस पार भी
अंधेरा, इस
पार भी
अंधेरा। आपकी आंख
की क्षमता बड़ी
हो जाए, तो
अंधेरा
प्रकाश हो
जाता है; आपकी
आंख की क्षमता
छोटी हो जाए, तो प्रकाश
अंधेरा हो
जाता है। अंधे
आदमी की क्षमता
बिलकुल नहीं
है, इसलिए
सभी अंधेरा है,
कोई प्रकाश
है ही नहीं
उसके लिए। पर
प्रकाश और
अंधेरा
अस्तित्व में
एक हैं, बुद्धि
के कारण दो
दिखाई पड़ते
हैं।
बुद्धि
हर चीज को दो
में बांट देती
है। बुद्धि के
देखने का ढंग
ऐसा है कि बिना
बंटे कोई चीज
रह नहीं सकती।
बुद्धि है विश्लेषण, बुद्धि
है भेद, बुद्धि
है विभाजन, डिवीजन।
इसीलिए हमें
जन्म और
मृत्यु दो
दिखाई पड़ते
हैं, बुद्धि
से देखने के
कारण, अन्यथा
दो नहीं हैं।
जन्म शुरुआत
है, मृत्यु
उसी का अंत है;
दो छोर हैं
एक ही चीज के।
हमें सुख और
दुख अलग दिखाई
पड़ते हैं, बुद्धि
के कारण, वे
दो नहीं हैं।
इसीलिए
तो दुख सुख बन
जाते हैं, सुख दुख
बन जाते हैं।
आज जो सुख
मालूम पड़ता है,
सुबह दुख हो
सकता है। सुबह
तो बहुत दूर
है, अभी
मालूम होता था
सुख, अभी
दुख हो सकता
है।
यह
असंभव होना
चाहिए। अगर
सुख और दुख दो
चीजें हैं अलग—
अलग, तो
सुख कभी दुख
नहीं होना
चाहिए, दुख
कभी सुख नहीं
होना चाहिए।
पर हर घड़ी यह
बदलाहट चलती
रहती है। अभी
प्रेम है, अभी
घृणा हो जाती
है। अभी लगाव
लगता था, अभी
विकर्षण हो
जाता है। अभी
मित्रता लगती
थी, अभी
शत्रुता हो
जाती है। ये
दो चीजें नहीं
हैं, नहीं
तो रूपातरण
असंभव होना
चाहिए। जो अभी
जिंदा था, अभी
मर गया! तो
जीवन और
मृत्यु ये अलग
चीजें नहीं
होनी चाहिए, नहीं तो—नहीं
तो जीवित आदमी
मर जाए! कैसे? जीवन मृत्यु
में कैसे बदल
जाएगा?
हमारी
भूल है कि
हमने दो में
बांट रखा है।
हमारी भूल है
कि हमने दो में
बांट रखा है!
हमारे देखने
का ढंग ऐसा है
कि चीजें दो
में बंट जाती
हैं। इस देखने
के ढंग को जो
एक तरफ रख
देता है, बुद्धि को
जो हटा देता
है अपनी आंख
के सामने से
और बिना
बुद्धि के जगत
को देखता है, तो सारे भेद
तिरोहित हो
जाते हैं।
अद्वैत का
अनुभव उन्हीं
लोगों का
अनुभव है, वेदांत
का सार— अनुभव
उन्हीं लोगों
का अनुभव है, जिन्होंने
बुद्धि को एक
तरफ रख कर जगत
को देखा। फिर
जगत जगत नहीं,
ब्रह्म हो
जाता है। और
तब जो भीतर
जीव मालूम पड़ता
था और वहां
ब्रह्म मालूम
पड़ता था, वे
भी एक चीज के
दो छोर रह
जाते हैं। जो
मैं यहां हूं
भीतर, और
जो वहां फैला
है सब ओर वह, दोनों एक ही
हो जाते हैं
तत्त्वमसि।
तब अनुभव होता
है कि मैं वही हूं,
उसका ही
एक छोर हूं।
वह जो आकाश
बहुत दूर तक
चला गया है, वही आकाश यहां
मेरे हाथ को
भी छू रहा है।
वही हवा का विस्तार
जो सारी
पृथ्वी को
घेरे हुए है, वही मेरी
श्वास बन कर
भीतर प्रवेश
कर रहा है। इस
सारे
अस्तित्व के
प्राण कहीं
धड़क रहे हैं, जिनसे यह
सारा जीवन है—तारे
चलते हैं और
सूरज ऊगता है,
और चांद में
रोशनी है, और
वृक्षों में
फल लगते हैं, और पक्षी
गीत गाते हैं,
और आदमी
जीता है—सब के
भीतर छिपा हुआ
जो प्राण धड़क
रहा होगा कहीं
विश्व के
केंद्र में, और मेरे
शरीर में जो
हृदय की धीमी—
धीमी धड़कन है,
वे एक ही
चीज के दो छोर
हैं। वे दो
नहीं हैं।
लेकिन
बुद्धि को अलग
करके जब कोई
देखेगा, तभी। बुद्धि
को अलग करके
देखना बड़ी
मुश्किल की
बात है, क्योंकि
जब भी हम
देखते हैं, बुद्धि से
ही देखते हैं।
हमारी आदत
सुनिश्चित हो
गई है। बुद्धि
के अतिरिक्त
आप देखिएगा कैसे?
कोई भी चीज
देखिएगा, विचार
बीच में आ
जाएगा।
एक
फूल के पास
खड़े हो जाएं।
देख भी नहीं
पाएंगे फूल कि
बुद्धि कहेगी, गुलाब का
फूल है; बड़ा
सुंदर है!
देखें, सुवास
कितनी अच्छी
है! आप देख भी
नहीं पाए फूल को
अभी, अभी
फूल भीतर
पहुंच भी नहीं
पाया, अभी
उसकी खबर, उसकी
भनक आत्मा तक
लगी भी नहीं, कि बुद्धि
ने खबर दी, कि
गुलाब का फूल
है—अतीत के
स्मरण से, अनुभव
से। सुवासित
है, सुंदर
है—ये सब
वक्तव्य बुद्धि
ने दे डाले।
उसने एक जाल
फैला दिया बीच
में। फूल बाहर
रह गया, आप
भीतर रह गए, बीच में
बुद्धि के
विचारों का
जाल तन गया।
इस जाल के
भीतर से ही आप
फूल को देखते
हैं।
हमारा
सभी देखना ऐसा
है। तो बुद्धि
के पार उठने
के लिए तो गहन
अभ्यास की
जरूरत पड़ेगी।
फूल के पास
बैठे हैं, बुद्धि
को न उठने दें,
सिर्फ फूल
को देखें सीधा,
मन में यह
विचार भी न
उठने दें कि
फूल है, कि
गुलाब है, कि
सुंदर है, शब्द
को ही न बनने
दें। थोड़ा
अभ्यास करें,
तो कभी—कभी
क्षण भर को झलक
मिलेगी कि उधर
रह जाएगा फूल,
इधर रह
जाएंगे आप, बीच में एक
क्षण को विचार
नहीं होंगे।
और तब आपको उस
फूल में उस
लोक का दर्शन
होगा, जिसको
आपने कभी भी
जाना नहीं।
टेनिसन
ने कहा है, एक फूल को
भी कोई देख ले
पूरा, तो
सारा जगत देख
लिया, कुछ
देखने को बच
नहीं जाता है।
बच भी नहीं
जाता, क्योंकि
एक फूल में
सारा जगत
समाया हुआ है।
वह जिसे हम
क्षुद्र कहते
हैं, वह
विराट की ही
अनुकृति है, जिसे हम
छोटा कहते हैं,
वह बड़े का
ही छोटा रूप
है। जैसे एक
छोटे से दर्पण
में सारा आकाश
झलक जाए, एक
छोटी सी आंख
में आकाश के
करोड़ों तारे
झलक जाएं, ऐसे
एक छोटे से
फूल में सारा
ब्रह्मांड।
लेकिन
वह तभी होता
है, जब
बुद्धि बीच
में खड़ी न हो।
तो इसका
अभ्यास करते
रहें। खाली
बैठे हैं, पक्षी
गीत गा रहा है,
तो बुद्धि
को बीच में न
आने दें, सिर्फ
कान बन जाएं—सुनें,
और सोचें
मत।
पहले
बड़ी मुश्किल
होगी—सिर्फ
आदत के कारण, नहीं तो
कोई मुश्किल
नहीं है। धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे झलकें
मिलनी शुरू
होंगी। पक्षी
गाता रहेगा, बुद्धि का
कोई स्वर न
होगा, आप
सुनते रहेंगे,
आप और पक्षी
के बीच एक
सीधा संबंध
स्थापित हो जाएगा,
बीच में कोई
माध्यम न
होगा। और तब
आप बहुत हैरान
हो जाएंगे! यह
तय करना
मुश्किल हो
जाएगा कि आप
गा रहे हैं कि
पक्षी गा रहा है!
आप सुन रहे
हैं कि पक्षी
सुन रहा है!
जैसे ही बुद्धि
बीच से हटती
है, आप और
पक्षी का गीत
एक ही चीज के
दो हिस्से हो
जाते हैं। वह
जो पक्षी का
कंठ है वह एक
छोर, और
आपका जो कान
है वह दूसरा
छोर, और
गीत बीच में
जोड़ हो जाता
है।
फिर
वह जो फूल खिल
रहा है वहा, और यह जो
हृदय है भीतर,
यह जो
चैतन्य है
भीतर—यह; ये
एक ही घटना के
हिस्से हो
जाते हैं। और
बीच में जो
तरंगें दौड़
रही हैं, वे
इन दोनों के
बीच, दो के
बीच जोड़ने का
सेतु बन जाती
हैं। और तब ऐसा
नहीं लगता कि
फूल वहां दूर
खिल रहा है, और मैं यहां
दूर खड़ा देख
रहा हूं तब ऐसा
लगता है कि
मैं फूल में
खिल रहा हूं
और फूल मुझ
में खड़ा देख
रहा है।
लेकिन
यह भी उस क्षण
नहीं लगता, यह भी जब
हम उस क्षण के
बाहर निकल आते
हैं, तब
लगता है। उस
क्षण तो इतना
भी पता नहीं
चलता; क्योंकि
जिसे पता चलता
है, सोच—विचार
होता है, वह
बुद्धि एक तरफ
रख दी गई है।
और तब प्रतिपल
का अनुभव
ब्रह्म का
अनुभव बन जाता
है। प्रतिपल
का अनुभव
ब्रह्म का अनुभव
बन जाता है!
बोकोजू
को किसी ने
पूछा है कि
तुम्हारे
ब्रह्म का अनुभव
क्या है?
तो
बोकोजू कहता
है, ब्रह्म?
ब्रह्म का
मुझे कोई भी
पता नहीं।
करते
क्या रहते हो? पूछने
वाले ने पूछा,
फिर
तुम्हारी
साधना क्या है?
तो बोकोजू
ने कहा है कि
जब कुएं से—उस
वक्त वह कुएं
से पानी भर
रहा था—तो
उसने कहा है
कि कुएं से जब
मैं पानी भरता
हूं तो मुझे
ठीक—ठीक पता
नहीं लगता कि
कुआ मुझे भर
रहा है कि मैं
कुएं से भर
रहा हूं। और
जब मेरी बालटी
आवाज करती
कुएं में
उतरती है तो
मुझे ऐसा नहीं
लगता कि यह
बालटी उतरी कि
मैं ही उतर
गया हूं! और जब
पानी भर कर
ऊपर आने लगता
है, तब
भरोसा मानो, मुझे कुछ
साफ नहीं रहता
कि क्या क्या
है, क्या
हो रहा है! यह
तुम पूछते हो,
इसलिए
तुमसे सोच कर
कहता हूं।
तुमने पूछा, इसलिए मैंने
सोचा और कहा, अन्यथा मैं
खो गया हूं।
ब्रह्म का
मुझे कोई पता
नहीं है। मुझे
अपना ही पता
नहीं रहा है!
जब
अपना ही पता
नहीं रहता है, तभी तो
जिसका पता
चलता है, वही
ब्रह्म है।
अपना पता कब
खोता है? जब
आपके पास कोई
बुद्धि
प्रत्येक चीज
के साथ विचार
चिपकाने को
नहीं रह जाती।
बुद्धि का काम
है विचार
चिपकाना, हर
चीज को लेबल
लगाना, हर
चीज को शब्द
देना, नाम
देना, रूप
देना।
बच्चा
पैदा होता है।
बच्चे की आंख
खुलती है।
बुद्धि नहीं
होती बच्चे के
पास उस समय।
बुद्धि धीरे—धीरे
विकसित होगी, बनेगी, शिक्षित
होगी, संस्कारित
होगी। तो वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चा जब आंख
खोलता है, तब
उसे कुछ भेद
दिखाई नहीं
पड़ता। लाल रंग
उसे भी लाल ही
दिखाई पड़ेगा,
लेकिन वह यह
अनुभव नहीं कर
सकता कि यह
लाल है। क्योंकि
लाल शब्द तो
अभी सीखना
पड़ेगा। हरा रंग
उसे भी हरा ही
दिखाई पड़ेगा,
क्योंकि आंखें
तो रंग देखती
हैं, तो
हरा दिखाई पड़ेगा।
लेकिन बच्चा
यह नहीं कह
सकता कि यह
हरा है। बच्चा
यह भी नहीं कह
सकता कि यह
रंग है। और
बच्चा यह भी
नहीं कह सकता
कि कहां लाल
समाप्त होता है,
कहां हरा
शुरू होता है,
क्योंकि
लाल और हरे का
उसे कोई भी
बोध नहीं है।
बच्चे की
दृष्टि में
जगत एक इकट्ठी
घटना की तरह
दिखाई पड़ता है,
जहां सब
चीजें एक—दूसरे
में मिली हुई
हैं, और
किसी चीज को
अभी भिन्न
नहीं किया जा
सकता, अलग
नहीं किया जा
सकता। एक सागर—अनुभव
का, अविभाज्य।
पर यह भी
हमारा अनुमान
है, बच्चे
को क्या होता
है, कहना
मुश्किल है।
लेकिन
संतों को, जो कि
पुन: बच्चे हो
गए हैं, जो
कि फिर वैसे
ही सरल हो गए
हैं जब बुद्धि
नहीं थी, जो
अब फिर वैसे
ही निर्दोष और
अबोध हो गए
हैं जब बुद्धि
नहीं थी, ऐसा
अनुभव होता है
कि सब चीजें
एक हो जाती
हैं। एक चीज
दूसरे से जुड़
जाती है, दूसरी
तीसरे से जुड़
जाती है।
चीजें दिखाई देनी
बंद हो जाती
हैं, भीतर
का जोड़ ही
दिखाई पड़ने
लगता है।
हमारी
स्थिति ऐसी है
कि हमें माला
के मनके दिखाई
पड़ते हैं, भीतर
जोड़ा हुआ धागा
दिखाई नहीं
पड़ता। बुद्धि मनके
देखती है। और
जब बुद्धि हट
जाती है, तो
वह जो चैतन्य
है, बुद्धि
से मुक्त, वह
भीतर
अनुस्यूत
धागे को देखता
है। उस एकता
को देख लेता
है जो सब में घिरी
है, सब में
जुडी है, जो
सबके भीतर
छिपी है, और
जो आधार है।
बुद्धि
जहा भी काम
करती है, वहां विभाजन
करती है।
विज्ञान
बुद्धि की व्यवस्था
है। इसलिए
विज्ञान
तोड़ता है, एनालिसिस,
विश्लेषण
करता है। और
परमाणु पर
पहुंच गया तोड़
ते—तोड़ते, आखिरी
जगह। उसे जहां
भी दिखाई पड़ता
है—टुकडे, खंड।
एकता बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ती।
बुद्धि
को छोड़ता है
धर्म। तो उलटी
प्रक्रिया शुरू
होती है, चीजें जुड़ती
जाती हैं और
एक होती जाती
हैं। विज्ञान
पहुंच गया
परमाणु पर, और धर्म
पहुंचता है
परमात्मा पर।
परमाणु है
छोटे से छोटा
हिस्सा, जो
हम तोड़ सके
हैं। और तोड़
लेंगे तो
दूसरा, और
तोड़ लेंगे तो
तीसरा, तोड़ती
जाएगी
बुद्धि। और
परमात्मा है बड़े
से बड़ा हिस्सा,
जो हम बिना
बुद्धि के जोड़
सके हैं।
बुद्धि से
तोड़ा है तो
परमाणु हाथ
आया है, परमाणु
विज्ञान की
शक्ति है। और
बुद्धि के
बिना देखा है
तो परमात्मा
अनुभव में आया
है, परमात्मा
धर्म की शक्ति
है।
इसलिए
ध्यान रहे, जो धर्म तोड़
ता हो वह धर्म
नहीं है—कहीं
भी तोड़ ता हो,
किसी भी तल
पर। अगर हिंदू
मुसलमान से
अलग हो जाता
हो, तो
समझना कि ये
दो तरह की
राजनीतियां
हैं, धर्म नहीं
हैं। अगर जैन
हिंदू से अलग
मालूम पडता हो,
तो समझना कि
ये दो तरह की
समाज
व्यवस्थाएं
हैं, धर्म
नहीं हैं। और
समझ लेना कि
इनके पीछे
बुद्धि ही काम
कर रही है, जो
तोड़ने की
व्यवस्था
रखती है; इनके
पीछे वह
बुद्धि का
अतिक्रमण कर
गई चेतना का
अनुभव नहीं है,
जहा सब चीजें
जुड़ जाती हैं
और एक हो जाती
हैं।
'जीवात्मा
तथा ब्रह्म का
भेद और ब्रह्म
तथा सृष्टि का
भेद बुद्धि
द्वारा जो कभी
नहीं जानता, वह जीवनमुक्त
कहलाता है।’
'सज्जन
सत्कार करें
और दुर्जन दुख
दें, तो भी
जिसको सदैव सब
के ऊपर सम— भाव
रहे, वह जीवनमुक्त
कहलाता है।’
सम—भाव!
पहली बात.
अद्वैत।
दूसरी बात :
समत्व, समता, सम—
भाव। यह थोड़ा
शब्द कठिन है,
इसका जो हम
व्यवहार करते
हैं उसके
कारण।
एक
आदमी आपको
गाली दे जाए, और एक
आदमी आपके चरण
स्पर्श कर जाए,
तो सम— भाव
का क्या अर्थ
होगा? क्या
आप अपने को
सम्हाल कर सम—
भाव रखें? कि
नहीं, गाली
दे गया, उस
पर क्रोध नहीं
करना, सम्मान
कर गया, उस
पर प्रसन्न
नहीं होना—ऐसी
चेष्टा करें?
अगर चेष्टा
करें तो सम—
भाव नहीं है।
फिर आयोजित
संयम है। फिर
व्यवस्था दी
गई है; अनुशासन
है; अपने
को सम्हाल
लिया है।
लेकिन सम— भाव
का यह अर्थ है
कि कोई गाली
दे, कि कोई
सम्मान करे, भीतर दोनों
से कोई भी
प्रतिक्रिया
पैदा न हो। कोई
भी
प्रतिक्रिया
पैदा न हो।
भीतर कुछ हो
ही न। गाली भी
बाहर घूमे, सम्मान भी
बाहर घूमे, भीतर कुछ
प्रवेश ही न
हो।
यह
कब होगा? यह तभी होता
है जब भीतर
साक्षी हो। जब
कोई गाली देता
है तो हममें
प्रतिक्रिया
क्यों होती है?
क्योंकि
गाली देते ही
तत्काल हमें
लगता है, मुझे
दी गई गाली।
बस कष्ट शुरू
हो जाता है।
सम्मान कोई
करता है तो
सुख मिलता है,
क्योंकि
लगता है, मुझे
दिया गया
सम्मान! सुख
शुरू हो जाता
है। इसका मतलब
हुआ, मेरे
साथ जो भी
किया जाता है,
उसके साथ
मैं अपना
तादात्म्य
जोड़ लेता हूं।
उस से ही सुख—दुख
पैदा होता है।
और वैषम्य
पैदा होता है,
संतुलन खो
जाता है।
नैतिक
व्यक्ति भी
समता की
चेष्टा करता
है। लेकिन
नैतिक
व्यक्ति की
समता आरोपित
होती है, कल्टीवेटेड
होती है। वह
भी अपने को
समझाता है कि
ठीक है, किसी
ने गाली दी तो
क्या हर्ज! और
किसी ने
सम्मान किया तो
ठीक है, उसकी
मर्जी! मैं
दोनों में सम—
भाव रखूंगा।
यह
सम— भाव ऊपर—उफ
रहेगा, यह बहुत
गहरे जाने
वाला नहीं है।
क्योंकि इस व्यक्ति
को अभी तक
साक्षी का कोई
भी पता नहीं है।
इसका सम— भाव
चरित्रगत
होगा। तो कभी
मौके—बेमौके,
जब यह जरा
होश में न
होगा, इसको
छेड़ा जा सकता
है। और कभी
मौके—बेमौके
चरित्र में
संधि मिल जाए,
तो इसके
भीतर का
वैषम्य प्रकट
हो सकता है।
चरित्रगत
समता का मूल्य
नहीं है
उपनिषद की नजर
में। उपनिषद
की नजर में
मूल्य है
आत्मगत समता
का। आत्मगत
समता का अर्थ
हुआ कि चाहे
कुछ भी बाहर
होता रहे, मैं
साक्षी से
ज्यादा नहीं
हूं। राम को
न्यूयार्क
में कुछ लोगों
ने गालियां
दीं, कुछ
लोगों ने
पत्थर मारे, तो राम
नाचते हुए
वापस लौटे।
शिष्यों ने
कहा, क्या
हुआ? आप
बड़े खुश हैं!
तो राम ने कहा,
खुशी की बात
है। आज राम
बड़ी मुश्किल
में पड़ गए थे।
कुछ लोग गाली
देने लगे, कुछ
पत्थर मारने
लगे, मजाक
उड़ाने लगे।
राम को फंसा
देख कर बड़ा
मजा आया कि
बुरे फंसे।
देखो, अब
फंसे।
जो
साथ थे, उन्होंने
पूछा, आप
किसके बाबत
बात कर रहे
हैं? कौन
राम?
तो
राम ने कहा, यह राम।
छाती पर हाथ
रखा और कहा, यह राम। ये बड़े
फंस गए थे, और
हम खड़े देखते
रहे। हमने
उनको भी देखा
जो गाली दे
रहे थे, और
इन सज्जन को
भी देखा जो
फंस गए थे और
गाली खा रहे
थे। हम खड़े
देखते रहे।
यह
तीसरा बिंदु
आपको मिल जाए
तो समता। अगर
दो ही हैं
आपके बिंदु, तो समता
नहीं हो सकती
है। कोई गाली
दे रहा है और आप
गाली खा रहे
हैं, तो आप
चेष्टा कर
सकते हैं भाव
अच्छा बनाने
का, सज्जन
का लक्षण वह
है, करनी
चाहिए।
चेष्टा कर
सकते हैं कि
नहीं, कोई
हर्जा नहीं, गाली दे दी, हमारा क्या
बिगड़ा! यह
समझाना है।
आपको लग रहा है
कि कुछ बिगड़
तो गया, इसीलिए
समझा रहे हैं
कि क्या
बिगड़ा। और
उसने अपनी
जबान खराब की,
हमारा क्या
गया! लेकिन
कुछ गया। यह कंसोलेशन
है, यह
सांत्वना है।
सज्जन
सांत्वना में
जीता है। वह
सोचता है कि ठीक
है, गाली
दी, अपना—अपना
कर्म, अपना—
अपना फल पाएगा
वह आदमी। हम
क्यों कुछ
कहें? गाली
दी है, दुख
पाएगा, नरक
जाएगा, पाप
किया है। वह
सांत्वना कर
रहा है अपने
मन में। वह जो
खुद नहीं कर
पा रहा है
नर्क उसके लिए
पैदा, वह
सोच रहा है
भगवान करेगा।
अपना काम वह
भगवान से ले
रहा है। बाकी
अपने को समझा
रहा है। वह कह रहा
है कि जो बुरा
बोएगा, वह
बुरा काटेगा;
जो अच्छा
बोएगा, वह
अच्छा
काटेगा। हम अच्छा
ही बोएगे, ताकि
अच्छा काटें।
यह बुरा बो
रहा है, अपने
आप काटे बुरा।
यहां
तक भी वह कर
सकता है कि जो
तोहे कांटा
बुवे, वाहे
बो तू फूल। वह
यह भी कर सकता
है कि यह हमें कांटे
बो रहा है, हम
इसके लिए फूल
बोए। क्योंकि
यह काटे ही
काटेगा और हम
फूल काटेंगे।
बाकी है यह
गणित
दुकानदार का,
व्यवसायी
का, सौदा
है इसमें।
समझदारी का
सौदा है, बाकी
समता नहीं है।
समता
कहां है? समता तो तभी
होती है जब यह
दो बिंदु के
पार तीसरा
बिंदु दिखाई
पड़ना शुरू हो
जाए। जब मुझे
लगे कि यह रहा
गाली देने
वाला, यह
रहा मेरा रूप,
मेरा नाम, गाली खाने
वाला, और
यह तीसरा रहा
मैं देखने
वाला। इन
दोनों से मेरी
दूरी बराबर
होनी चाहिए तो
समता। जो गाली
दे रहा है
उससे भी मैं
उतना ही दूर, और जिसको
गाली दी जा
रही है उससे
भी मैं उतना ही
दूर। अगर इस
दूरी में जरा
भी फर्क है और
जरा भी कमी है,
और गाली
देने वाला
मुझे ज्यादा
दूर मालूम
पड़ता है और
गाली खाने
वाला कम दूर
मालूम पड़ता है
मुझसे, तो
समता डोल गई, तो विषमता आ
गई।
समता
का मतलब है कि
तराजू के पलड़े
दोनों के दोनों
सम हो जाएं, और मैं
तराजू के तीर
की तरह बीच
में तीसरा हो
जाऊं, और
जरा भी अंतर न
दिखाऊं—गाली
खाने वाले की
तरफ न झुकुं
गाली देने
वाले की तरफ न
झुकूं—मैं पार
ही खड़ा रहूं? मैं दूर ही
खड़े होकर
देखता रहूं।
यह
साक्षी का भाव
समता है। और जीवनमुक्त
समता में
जीएगा, क्योंकि
जीवन्मूक्ति
आती ही
साक्षित्व से
है।
यह
दूसरा सूत्र
ध्यान रखें
सांत्वना से
सज्जन पैदा
होगा, साक्षी
से संत पैदा
होता है। संत
और सज्जन में
बड़ा फर्क है।
सज्जन ऊपर—ऊपर
संत होता है, भीतर उसमें
और दुर्जन में
कोई फर्क नहीं
होता। दुर्जन
बाहर—भीतर
दुर्जन होता
है, सज्जन
बाहर सज्जन
होता है, भीतर
दुर्जन होता
है।
संत
में और सज्जन
में बड़ा फर्क
है। एक अर्थ
में तो संत में
और दुर्जन में
एक समानता है।
दुर्जन बाहर
भी दुर्जन
होता है, भीतर भी
दुर्जन होता
है। सज्जन
भीतर दुर्जन होता
है, बाहर
सज्जन होता
है। संत बाहर
भी सज्जन होता
है, भीतर
भी सज्जन होता
है। एक अर्थ
में दुर्जन से
समानता है। वह
समानता यह है
कि दुर्जन भी
एकरूप होता है
बाहर— भीतर और
संत भी एकरूप
होता है बाहर—
भीतर, रूप
अलग हैं, बाकी
एकरूप होता
है। सज्जन
दोनों के बीच
में अटका होता
है।
इसलिए
सज्जन के कष्ट
का कोई अंत
नहीं है, क्योंकि
सज्जन का मन
तो होता है
दुर्जन जैसा और
आचरण होता है
संत जैसा।
इसलिए सज्जन
बड़ी दुविधा
में जीता है।
और सज्जन के
मन में सदा
द्वंद्व बना रहता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
कभी बुरा नहीं
किया, कभी
चोरी नहीं की,
बेईमानी
नहीं की, और
इतना कष्ट पा
रहे हैं हम! और
जिन्होंने
चोरी की, बेईमानी
की, मजा कर
रहे हैं! तो इस
जगत में न्याय
नहीं है। या सज्जन
अपने मन में
समझा लेता है
कि कुछ भी हो, प्रभु का
नियम है कुछ.
देर है, अंधेर
नहीं है।
समझाता है
अपने मन को कि
थोड़ी देर लग
रही है, अभी
बेईमान बीच
में सफल हुए
जा रहे हैं, आखिर में तो
हम ही सफल
होंगे! देर है,
अंधेर नहीं
है—यह समझा
रहा है अपने
को।
लेकिन
एक तो बात साफ
है कि देर
दिखाई पड़ रही
है। और शक अंधेर
का भी हो रहा
है कि कुछ
गड़बड़ तो नहीं
है! कि हम
दोनों तरफ से
तो नहीं चूक
गए—न माया
मिली, न
राम! कहीं ऐसा
न हो कि अभी
माया खो रहे
हैं और आखिर
में पता चले
कि राम थे ही
नहीं! तो वह जो
जीत गया माया
में, वह
आखिरी में भी
जीता हुआ
मालूम पड़े।
'सज्जन को
सदा पीड़ा बनी
रहती है। और
जिसको पीड़ा
बनी रहे अपनी
सज्जनता से, उसका अर्थ
साफ हुआ कि
उसका भाव तो
दुर्जन का है।
भीतर से चाहता
तो वह भी वही
है जो दुर्जन
कर रहा है, और
दुर्जन पा रहा
है, लेकिन
सज्जनता का
आचरण उसने बना
रखा है। उसके
दोहरे लोभ
हैं। उसकी
गाड़ी के बैल
दो तरफ जूते
हैं, और
दोनों तरफ
गाड़ी खींची जा
रही है। उसका
लोभ यह भी है
कि धन भी मिल
जाए, यश भी
मिल जाए, अहंकार
की भी तृप्ति
हो। दुर्जन के
जो लोभ हैं, वे उसके लोभ
हैं। उसका लोभ
यह भी है कि
परमात्मा भी
मिल जाए, आत्मा
भी मिल जाए, मोक्ष भी
मिल जाए, शांति
और आनंद भी
मिल जाए। जो
संत की
अभीप्सा है, वह भी उसका
लोभ है। उसके
दोहरे लोभ
हैं। और उन दोनों
लोभों के बीच
वह परेशान है।
और इसलिए अक्सर
सज्जन बड़ी ही
अशांति में
उपलब्ध होगा।
अगर
सज्जन शांत हो, तो संत हो
जाता है। और
सज्जन अगर अशांत
बना
रहे, तो आज
नहीं कल, दुर्जन
हो जाता है।
ज्यादा देर
टिक नहीं सकता।
वह मध्य की
कड़ी या तो
नीचे गिरे, या ऊपर जाए, बीच में कोई
उपाय नहीं है
ठहरने का।
जीवनमुक्त
है संत। वह
इसलिए नहीं
दूसरे के साथ
बुराई कर रहा
है कि बुराई
करने से खुद
का बुरा होगा
कभी। नहीं, वह बुराई
कर नहीं सकता
है, क्योंकि
वह तीसरे
बिंदु पर खड़ा
है जिसके साथ
कभी कोई बुराई
की नहीं गई।
सिकंदर
एक संन्यासी
को ले जाना
चाहता था भारत
से। ददामी उस
संन्यासी का
नाम था। जाने
को ददामी राजी' नहीं था।
तो सिकंदर ने
तलवार खींच ली
और कहा, काट
कर टुकड़े—टुकड़े
कर दूंगा, चलो
मेरे साथ! मैं
अगर हिमालय को
भी आज्ञा दूं तो
जाना पड़ेगा।
तो
ददामी ने कहा, हो सकता
है कि हिमालय
को जाना पड़े, लेकिन तुम
मुझे न ले जा
सकोगे।
सिकंदर
की कुछ समझ
में न पड़ा कि
एक दुबला—पतला
फकीर, नग्न
खड़ा था नदी की
रेत में, यह
इतनी हिम्मत
की बातें कर
किस बलबूते पर
रहा है? उसने
तलवार खींच ली
और अपने
सिपाहियों को
कहा कि घेर लो!
नंगी तलवारों
से ददामी घेर
लिया गया।
ददामी
खिलखिला कर
हंसा और उसने
कहा, लेकिन
तुम मुझे नहीं
घेर रहे हो, तुम उसे घेर
रहे हो जो मैं
नहीं हूं। और
तुम्हारी कोई
सामर्थ्य
नहीं कि तुम
मुझे घेर लो, क्योंकि
मेरा घेरा उस
विराट घेरे के
साथ एक हो गया
है।
सिकंदर
ने कहा कि मैं
दर्शन की, तत्वज्ञान
की बातें नहीं
जानता हूं।
मैं सिर्फ
तलवार जानता
हूं; गर्दन
अभी कट कर गिर
जाएगी! तो
ददामी ने कहा,
बड़ा आनंद
आएगा! तुम भी
देखोगे कि
गर्दन कट कर गिर
गई, और मैं
भी देखूंगा कि
गर्दन कट कर
गिर गई, हम
दोनों ही
देखेंगे।
यह
तीसरा बिंदु
है कि मैं भी
देखूंगा कि
गर्दन कट कर
गिर गई। अगर
आप अपनी गर्दन
को कट कर गिरता
हुआ देख सकें, तो उसका
मतलब सिर्फ एक
हुआ कि इस
शरीर से आपका तादात्म्य
न रहा, इसके
आप साक्षी हो
गए; आप दूर
खड़े हो गए, बाहर
खड़े हो गए—अपने
से ही। इस
बिंदु पर ही
संतत्व का
जन्म है, और
यह बिंदु ही
जीवनमूक्त
है।
'जिसने
ब्रह्म तत्व
को जान लिया, उसकी दृष्टि
में संसार
पहले जैसा
नहीं रहता।
इसलिए अगर वह
संसार को
पूर्ववत ही
देखता हो, तो
मानना पड़े कि
उसने अभी भी
ब्रह्म— भाव
को जाना नहीं
और वह
बहिर्मुख है।’
संसार
तो यही रहेगा, आपके
बदलने से
संसार नहीं
बदलेगा, लेकिन
आपके बदलने से
आपका संसार
बदल जाएगा। जैसा
मैंने पहले
कहा, हम
सबके अपने—
अपने संसार
हैं। मैं
अज्ञानी हूं,
तो
भी ये आबू के
पर्वत ऐसे ही
हैं, मैं
ज्ञानी हो
जाऊं, तो
भी आबू के
पर्वत ऐसे ही
होंगे। आकाश
ऐसा ही होगा, चांद ऐसा ही
होगा, जमीन
ऐसी ही होगी।
यह संसार तो
ऐसा ही होगा।
लेकिन जब मैं
अज्ञानी हूं,
तो
मैं इस संसार
को जिस ढंग से
देखता हूं, जिस
ढंग से चुनता
हूं जो मुझे
दिखाई पडता है—हो
सकता है यह
पहाड़ मेरा है,
जब मैं
अज्ञानी हूं।
पहाड़ पहाड़ है।
मेरा है!
ज्ञान
के क्षण में, जीवन—मुक्ति
के अनुभव में,
पहाड़—पहाड़
रहेगा, मेरा
नहीं रह
जाएगा। वह जो
मेरा इस पर
आरोपित था, वह तिरोहित
हो जाएगा। और
मेरे के हटते
ही पहाड़ का
सौंदर्य पूरा
प्रकट होगा।
वह जो मेरा
ममत्व था, जो
मेरा राय था, वही मेरा
दुख था, वही
मेरी पीडा थी।
वही मेरी
बुद्धि थी जो
बीच में खड़ी
हो जाती थी।
जब भी इस पहाड़
को देखता था, लगता था
मेरा पहाड़ है।
वह मेरा बीच
में आता था और
मैं पर्दे से
देखता था। अब
पहाड़ पहाड़ है,
मैं--मैं
हूं।
जापान
में झेन
फकीरों ने दस
चित्र
निर्मित किए
हैं। वे चित्र
सदियों से चले
आते हैं और
ध्यान करने के
काम में आते
हैं। वे चित्र
समझने जैसे
हैं। इस सूत्र
को समझने में
उपयोगी होंगे।
पहले
चित्र में कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, गौर
से देखें तो
समझ में आता
है कि पहाड़ है,
वृक्ष हैं,
और वृक्ष की
आडू से किसी
बैल का सिर्फ
पीछे का हिस्सा,
दो पैर और
पूंछ दिखाई पड़
रही है। बस
इतना ही। दूसरे
चित्र में
इतना है और
साथ में बैल
को खोजने वाला
आकर खड़ा हो
गया है, और
वह चारों तरफ
देख रहा है कि
बैल कहां है।
अभी उसे दिखाई
नहीं पड़ रहा है;
धुंधलका है
सांझ का।
वृक्ष हैं, लताएं हैं, उनमें बैल
छिपा खड़ा है, जरा सी पूंछ
और दो पैर
पीछे के दिखाई
पड़ते हैं; वह
भी रेखाएं गौर
से देखें तो।
तीसरे
चित्र में उसे
दिखाई पड़ गया
है। दूसरे चित्र
में वह उदास
खड़ा था, चारों तरफ
देखता मालूम
पड़ता था, कोई
झलक न थी उसकी आंखों
में। तीसरे
चित्र में
उसकी आंखों में
झलक आ गई, पैर
में गति आ गई, बैल उसे
दिखाई पड़ गया
है। चौथे
चित्र में
पूरा बैल
प्रकट हो गया
है और खोजने
वाला बैल के
पास पहुंच गया
है। पांचवें
चित्र में
उसने बैल की पूंछ
पकड़ ली है।
छठवें चित्र
में उसने बैल
के सींग पकड़
लिए हैं।
सातवें चित्र
में उसने बैल को
घर की तरफ मोड़
लिया है।
आठवें चित्र
में वह बैल के
ऊपर सवारी कर
रहा है। नौवें
चित्र में वह
बैल को अपने
लगाम में बांध
कर, कब्जे
में करके घर
की तरफ लौट
रहा है। और
दसवें चित्र
में कुछ भी
नहीं है। न
बैल है, न
उसका मालिक उस
पर सवार है।
जंगल रह गया, पहाड़ रह गया;
न बैल है, न उसका
मालिक है, वे
दोनों नदारद
हो गए हैं।
ये
दस चित्र झेन
परंपरा में
ध्यान के लिए
उपयोग में लाए
जाते हैं। ये
आत्मा की खोज
के चित्र हैं।
पहले
चित्र में कुछ
पता नहीं खोजी
का, कहां
है। दूसरे
चित्र में
खोजी जगा है; आकांक्षा
जगी है आत्मा
को पाने की, खोजने की।
तीसरे चित्र
में थोड़ी सी
झलक आत्मा की
मिलनी शुरू
हुई है। चौथे
चित्र में
पूरी झलक
आत्मा की मिल
गई है।
पांचवें
चित्र में झलक
ही नहीं मिल
गई है, आत्मा
की पूंछ हाथ
में पकड़ आ गई
है, एक
कोने से आत्मा
पर अधिकार हो
गया है। बाद
के चित्र में
पीछे से नहीं,
सामने से, आमना—सामना
हो गया है, आत्मा
के सींग पकड़
लिए गए हैं।
बाद के चित्र
में सींग ही
नहीं पकड़ लिए
गए हैं, आत्मा
को घर की तरफ
वापस—घर की
तरफ, ब्रह्म
की तरफ मोड़
दिया गया है।
बाद के चित्र
में मोड़ ही
नहीं दिया गया
है, खोजी
स्वयं पर सवार
होकर घर की
तरफ चल पड़ा
है। और आखिरी
चित्र में
दोनों खो गए
हैं; न
खोजी है, न
खोज है, जगत
शून्य रह गया
है। पहाड़ अब
भी खड़े हैं, वृक्ष अब भी
खड़े हैं, लेकिन
वे दोनों खो
गए हैं।
यही
है अनुसंधान। जब
खोजने निकले
हैं, तो
यह जगत जैसा
आज दिखाई पड़
रहा है, वैसा
दिखाई खुद जाग
जाने पर नहीं
पड़ेगा। सारा ममत्व
क्षीण हो
जाएगा। सारी
संगृहीत
धारणाएं
क्षीण हो
जाएंगी। जगत
के साथ जो—जो
प्रोजेक्यान,
प्रक्षेपण
थे अपने, वे
भी नष्ट हो
जाएंगे। जगत
से जो
अपेक्षाएं थीं,
वे भी गिर
जाएंगी। जो
मांग थी, वह
भी नहीं रह
जाएगी। जगत
में जो सुख को
देखने का खयाल
था, वह भी
चला जाएगा।
जगत से दुख
मिलता है, यह
भ्रांति भी
टूट जाएगी।
जगत से हमारा
कोई लेन—देन
भी है, यह
भी समाप्त हो
जाएगा।
तो
सूत्र कहता है
:’जिसने जान
लिया ब्रह्म
को, उसकी
दृष्टि में
संसार पहले
जैसा नहीं
रहता।’
संसार
तो रहता है, पहले
जैसा नहीं
रहता। और अगर
अब भी पहले
जैसा रह जाए, तो जानना कि
उसने अभी जाना
नहीं है। यह
खुद की परीक्षा
के लिए है। यह
खुद ही देखते
चलना है।
पत्नी
है, मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं कि
पत्नी है, बच्चे
हैं, कलह
है, परिवार
है, धंधा
है, कुछ हो
नहीं सकता
इसमें, हम
छोड़ कर भाग
जाएं!
मैं
उनसे कहता हूं, छोड़ कर
मत भागो। भाग
कर जाओगे भी
कहा? संसार
सब जगह है। और
तुम अगर जैसे
हो वैसे ही रहे,
तो कोई
दूसरी
तुम्हारी
पत्नी बन
जाएगी, कोई
दूसरा घर बस
जाएगा, कोई
दूसरा धंधा
शुरू हो
जाएगा। धंधे
बहुत तरह के
हैं, धार्मिक
किस्म के धंधे
भी हैं। नहीं
खोली दुकान, एक मठ खोल
लेंगे। कुछ न
कुछ तो हो ही
जाएगा। करोगे
क्या! वह जो
आदमी भीतर
बैठा है, वह
अगर वैसा ही
है, तो वह
जानता जो है, वही तो
करेगा!
भागो
मत, वहीं
रह कर डूबते
चले जाओ, खोजते
चले जाओ। खोज
उस दिन पूरी
समझ लेना, जिस
दिन बाजार में
बैठे रहो और
बाजार भी रहे,
और
तुम्हारे लिए
बाजार न रह
जाए। पत्नी
पास बैठी हो, पत्नी के मन
में पत्नी ही
रहेगी, रही
आए। तुम्हारे
लिए पहले तो
पत्नी न रह
जाए। वह जो
मेरे होने का
भाव है, वह
विसर्जित हो
जाए। स्त्री
रह जाएगी। पर
स्त्री भी तभी
तक दिखाई
पड़ेगी जब तक
कामवासना है।
फिर ध्यान और
गहरा हो, कामवासना
भी क्षीण हो
जाए, तो
फिर वह स्त्री
भी न रह जाएगी;
फिर वह देह
भी न रह
जाएगी। और
जैसे—जैसे
तुम्हारे
भीतर कुछ
टूटता जाएगा,
वैसे—वैसे
बाहर
तुम्हारा जो प्रक्षेपण
था, उस
स्त्री के ऊपर
तुम्हारे जो
भाव थे—पत्नी
के, स्त्री
के—वे भी
विलीन होते
चले जाएंगे।
एक दिन ऐसा
आएगा कि तुम
जहा बैठे हो, वहीं शून्य
हो जाओगे।
चारों तरफ
संसार वही होगा,
लेकिन तुम
वही नहीं
रहोगे। इसलिए
तुम्हारी दृष्टि
बदल जाएगी।
इसे
खोजते रहना है
निरंतर कि
मुझे कहीं
वैसा ही तो
नहीं है सब? सब वैसा
ही तो नहीं चल
रहा है? नाम
बदल जाते हैं,
वस्तुएं
बदल जाती हैं,
लेकिन ढंग
भीतर का अगर
वही चल रहा है,
और सब वैसा
ही दिखाई पड़
रहा है, तो
फिर तो फिर
समझना कि जीवनमुक्ति
बहुत दूर है, सत्य की झलक
बहुत दूर है।
सत्य
की झलक का
अर्थ ही है कि
तुम्हारे और
तुम्हारे
संसार के बीच
में संबंध बदल
जाए; संसार
तो वही रहेगा।
संबंध भी तभी
बदलेगा, जब
मैं बदल जाऊं।
'जहां तक सुख
का अनुभव होता
है—या दुख का—वहां
तक प्रारब्ध
कर्म है, ऐसा
माना गया है।
क्योंकि
प्रत्येक फल
का उदय क्रियापूर्वक
होता है, क्रिया
बिना किसी
स्थान पर कोई
फल नहीं।’
'पर जिस
प्रकार जग
जाने से
स्वप्न की
क्रिया नाश को
प्राप्त होती
है, वैसे
ही मैं ब्रह्म
हूं, ऐसा
ज्ञान होने से
करोड़ों और
अरबों जन्म से
इकट्ठा किया
हुआ संचित
कर्म नाश पाता
है।’ सुख और
दुख होते हैं
कर्मों के
कारण। तो जो जीवनमुक्त
हो गया है, ऐसा
मत सोचना कि
उसे दुख या
सुख होने बंद
हो जाएंगे।
रमण
को मरते समय
कैंसर हो गया।
बड़ी पीडा थी।
कैंसर की पीड़ा
स्वाभाविक
थी। नासूर था
गहरा, और
बचने का कोई
उपाय न था।
बहुत डाक्टर
आते, रमण
को देखते तो
बड़े हैरान
होते, क्योंकि
सारा शरीर
पीड़ा से जर्जर
हो रहा था, पर
आंखों में
कहीं कोई पीड़ा
की झलक न थी। आंखों में तो
वही शांत झील
थी, जो सदा
से थी। आंखों से
तो साक्षी ही
जागता था, वही
देखता था, वही
झांकता था।
डाक्टर
कहते कि आपको
बहुत पीड़ा हो
रही होगी? तो रमण
कहते, पीड़ा
तो बहुत हो
रही है, लेकिन
मुझे नहीं हो
रही। पीडा तो
बहुत हो रही है,
लेकिन मुझे
नहीं हो रही, मुझे सिर्फ
पता चल रहा है
कि पीड़ा हो
रही है। शरीर
पर बड़ी पीड़ा
हो रही है, मुझे
सिर्फ पता चल
रहा है। मैं
देख रहा हूं; मुझे नहीं
हो रही। बहुत
लोगों के मन
में सवाल उठता
है कि रमण
जैसा ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति, जीवनमुक्त,
उसको कैंसर
क्यों हो गया?
इस
सूत्र में
उसका उत्तर
है। जीवनमुक्त
को भी सुख—दुख
आते रहेंगे, क्योंकि
सुख—दुखों का
संबंध उसके
पिछले कर्मों
से है, संस्कारों
से है। उसने
जो किया है, जागने के
पहले उसने जो
किया है..।
समझ
लें कि जागने
के पहले, और मैंने
बीज बो दिए
हैं अपने खेत
में। तो मैं जाग
जाऊं, वे
बीज तो
फूटेंगे और
अंकुर
बनेंगे। सोया
रहता तो भी
अंकुर बनते, फूलते, फल
लगते। अब भी
अंकुर बनेंगे,
फूलेंगे, फल लगेंगे।
एक ही फर्क
पड़ेगा सोया
रहता, तो
सोचता मेरी
फसल है और
छाती से संभाल
कर रखता। अब
जाग गया हूं, तो समझूंगा
जो बीज बोए थे,
वे अपनी
नियति को
उपलब्ध हो रहे
हैं, मेरा
इसमें कुछ भी
नहीं है, देखता
रहूंगा। अगर
सोया रहता, तो इस फसल को
काटता और
बीजों को
संभाल कर रखता,
ताकि अगले
वर्ष फिर बो
सकूं। जाग गया
हूं, इसलिए
देखता रहूंगा,
बीज
फूटेंगे, अंकुरित
होंगे, फल
लगेंगे, अब
मैं उन्हें
इकट्ठा नहीं
करूंगा। वे फल
लगेंगे और
वहीं से गिर
जाएंगे और
नष्ट हो
जाएंगे; मेरा
उनसे संबंध
टूट जाएगा।
मेरा संबंध
उनसे बोने का
था, अब मैं
उन्हें
दुबारा नहीं
बोऊंगा।
मुझसे उनका
आगे कोई संबंध
नहीं बनेगा।
तो
जीवनमुक्त
को भी सुख—दुख
आते रहेंगे।
पर जीवनमुक्त
जानेगा कि यह
पिछले कर्मों
की श्रृंखला
का हिस्सा है, मेरा कुछ
लेन—देन नहीं।
वह देखता
रहेगा। जब रमण
को कोई चरणों
में जाकर फूल
चढ़ा आता है, तब भी वे
बैठे देखते
रहते हैं कि
किसी पिछली कर्म—
श्रृंखला का
हिस्सा होगा
कि यह आदमी
मुझे सुख देने
आया है। मगर
वे सुख लेते
नहीं, यह
आदमी देता है,
वे लेते
नहीं। अगर वे
ले लें, तो
नए कर्म की
यात्रा शुरू
हो जाती है।
इसे वे रोकते
भी नहीं कि तू
मत दे—ये फूल
मत चढ़ा, ये
पैर मत छू—वे
रोकते भी नहीं,
क्योंकि
रोकना भी कर्म
है और फिर श्रृंखला
शुरू हो जाती
है। इसे
थोड़ा समझ लें।
यह आदमी फूल
रखने आया है, यह एक हार
गले में डाल
गया है, इसने
चरणों पर सिर
रख दिया है, रमण बैठे
क्या कर रहे
होंगे भीतर? वे देख रहे
हैं कि इस
आदमी से कुछ
लेन—देन होगा,
कोई
प्रारब्ध
कर्म होगा; यह अपना
पूरा कर रहा
है। लेकिन अब
सौदा पूरा कर
लेना है, अब
आगे सिलसिला
नहीं करना है।
यह बात यहीं
समाप्त हो गई,
अब इसमें से
आगे कुछ नहीं
निकालना है।
तो वे बैठे
रहेंगे, वे
यह भी नहीं
कहेंगे कि मत
कर। क्योंकि
मत करने का
मतलब क्या
होता है? इसका
मतलब होता है,
एक तो आप
अपना पिछला
किया हुआ लेने
को राजी नहीं
हैं, जो कि
लेना ही
पड़ेगा। और
दूसरा उसका
मतलब यह हुआ
कि अब इस आदमी
से आप एक और
संबंध जोड़ रहे
हैं इसे रोक
कर, कि मत
कर। यह संबंध
कब पूरा होगा?
एक नया कर्म
कर रहे हैं, आप एक
प्रतिक्रिया
कर रहे हैं।
न, रमण
देखते रहेंगे,
चाहे आदमी
फूल लेकर आए, और चाहे
कैंसर आ जाए।
तो वे कैंसर
को भी देखते रहेंगे।
रामकृष्ण
भी मरते वक्त
कैंसर से मरे।
गले का कैंसर
था। पानी भी
भीतर जाना
मुश्किल हो
गया, भोजन
भी जाना
मुश्किल हो
गया। तो
विवेकानंद ने
एक दिन
रामकृष्ण को
कहा कि आप, आप
कह क्यों नहीं
देते काली को,
मां को? एक
क्षण की बात
है, आप कह
दें, और
गला ठीक हो
जाएगा! तो
रामकृष्ण
हंसते, कुछ
बोलते नहीं।
एक दिन बहुत
आग्रह किया तो
रामकृष्ण ने
कहा, तू
समझता नहीं।
जो अपना किया
है, उसका
निपटारा कर
लेना जरूरी
है। नहीं तो
उसके निपटारे
के लिए फिर
आना पड़ेगा। तो
जो हो रहा है, उसे हो जाने
देना उचित है।
उसमें कोई भी
बाधा डालनी
उचित नहीं है।
तो विवेकानंद
ने कहा कि न
इतना कहें, इतना ही कह
दें कम से कम
कि गला इस
योग्य तो रहे जीते
जी कि पानी जा
सके, भोजन
जा सके! हमें
बड़ा असह्य
कष्ट होता है।
तो रामकृष्ण
ने कहा, आज
मैं कहूंगा।
और
सुबह जब वे
उठे, तो
बहुत हंसने
लगे और
उन्होंने कहा,
बड़ी मजाक
रही। मैंने
मां को कहा, तो मां ने
कहा कि इसी
गले से कोई
ठेका है? दूसरों
के गलों से
भोजन करने में
तुझे क्या
तकलीफ है? तो
रामकृष्ण ने
कहा कि तेरी
बात में आकर
मुझे तक बुद्ध
बनना पड़ा है!
नाहक तू मेरे
पीछे पड़ा था।
और यह बात सच
है, जाहिर
है, इसी
गले का क्या
ठेका है? तो
आज से जब तू
भोजन करे, समझना
कि मैं तेरे गले
से भोजन कर
रहा हू। फिर
रामकृष्ण
बहुत हंसते थे
उस दिन, दिन
भर। डाक्टर आए
और उन्होंने
कहा, आप
हंस रहे हैं? और शरीर की
अवस्था ऐसी है
कि इससे
ज्यादा पीड़ा
की स्थिति
नहीं हो सकती!
रामकृष्ण ने
कहा, हंस
रहा हूं इससे
कि मेरी
बुद्धि को
क्या हो गया
कि मुझे खुद
खयाल न आया कि
सभी गले अपने
हैं। सभी गलों
से अब मैं
भोजन करूंगा!
अब इस एक गले
की क्या जिद
करनी है!
व्यक्ति
कैसी ही परम
स्थिति को
उपलब्ध हो जाए, शरीर के
साथ अतीत बंधा
हुआ है, वह
पूरा होगा।
सुख—दुख आते
रहेंगे, लेकिन
जीवनमुक्त
जानेगा, वह
प्रारब्ध है।
और ऐसा जान कर
उनसे भी दूर खड़ा
रहेगा; और
उसके
साक्षीपन में
उनसे कोई अंतर
नहीं पड़ेगा।
उसका साक्षी—
भाव थिर है।
'और जिस
प्रकार जग
जाने से
स्वप्न की
क्रिया नाश को
प्राप्त होती
है, वैसे
ही मैं ब्रह्म
हूं? ऐसा
शान होने से
करोडों और
अरबों जन्मों
से इकट्ठा
किया हुआ
संचित कर्म
नाश पाता है।’
इस
संबंध में
हमने पीछे बात
की है। जैसे
स्वप्न से
जाग कर स्वप्न
खो जाता है, ऐसा ही
जाग कर, जो
भी मैंने किया,
वह मैंने
कभी किया ही
नहीं था, खो
जाता है।
लेकिन मेरे यह
जान लेने पर
भी मेरे शरीर
को कोई शान
नहीं होता है।
मेरा शरीर तो अपनी
यंत्रवत
प्रक्रिया
में घूमता है
और अपनी नियति
को पूरा करता
है। जैसे हाथ
से तीर छूट गया
हो, वह
वापस नहीं
लौटाया जा
सकता, और
ओंठ से शब्द
निकल गया हो, उसे भुलाया नहीं
जा सकता, लौटाया
नहीं जा सकता—ऐसे
ही शरीर तो एक
यंत्र—व्यवस्था
है, उसमें
जो हो गया, वह
जब तक पूरा न
हो जाए, तीर
जब तक अपने
लक्ष्य पर न
पहुंच जाए, और शब्द जब
तक आकाश के
अंतिम छोर को
न छू ले, तब
तक विनाश को
उपलब्ध नहीं
होता।
तो
शरीर तो
झेलेगा ही। और
एक बात इस
संदर्भ में कह
देनी उचित है।
खयाल में आ
गया होगा आपको
भी कि यह बात
थोड़ी अजीब सी
है कि
रामकृष्ण को
भी कैंसर! रमण
को भी कैंसर!
इतनी बुरी
बीमारियां? बुद्ध की
मृत्यु हुई
जहरीले भोजन
से विषाक्त हो
जाने से रक्त
के। महावीर की
मृत्यु हुई
भयंकर पेचिस
हो जाने से, छह महीने तक
पेट की असह्य
पीड़ा से, जिसका
कोई इलाज न हो
सका। तो खयाल
में उठना शुरू
होता है कि
इतनी महान, शुद्धतम
आत्माओं को
ऐसी जघन्य
बीमारियां पकड़
लेती हैं!
क्या होगा
कारण? हमें
पकड़े, अज्ञानी—जन
को पकड़े, पापी—जन
को पकड़े—समझ
में आता है कि
फल है, भोगते
हैं अपना।
महावीर को, बुद्ध को, रमण को या
रामकृष्ण को
ऐसा हो, तो
चितना आती है
मन में कि
क्या बात है?
उसका
कारण है। जो
व्यक्ति जीवनमुक्त
हो जाता है, उसके
जीवन की आगे
की यात्रा तो
समाप्त हो गई,
यही जन्म
आखिरी है।
आपकी तो आगे
की लंबी यात्रा
है। समय बहुत
है आपके पास।
आप सारे दुख
रत्ती—रत्ती
करके झेल
लेंगे। समय
बहुत है आपके
पास। बुद्ध, महावीर या
रमण के पास
समय बिलकुल
नहीं है। दस, बीस, पच्चीस,
तीस साल का
वक्त है। आपके
पास जन्मों—जन्मों
का भी हो सकता
है। इस छोटे
से समय में सारे
कर्म, सारे
संस्कार
इकट्ठे, संगृहीत
होकर फल दे
जाते हैं।
इसलिए
दोहरी घटनाएं
घटती हैं।
महावीर को एक
तरफ तीर्थंकर
का सम्मान
मिलता है, वह भी
सारे सुखों का
इकट्ठा अनुभव
है, और
दूसरी तरफ
असह्य पीड़ा भी
झेलनी पड़ती है,
वह भी सारे
दुखों का
इकट्ठा संघात
है। रमण को एक
तरफ हजारों—हजारों
लोगों के मन
में अपरिसीम
सम्मान है। वह
सारा सुख
इकट्ठा हो गया।
और फिर कैंसर
जैसी बीमारी
है, सारा
दुख इकट्ठा हो
गया। समय थोड़ा
है। सब
संगृहीत और
जल्दी और
शीघ्रता में
पूरा होता है।
इसलिए
ऐसे व्यक्ति
परम सुख और
परम दुख दोनों
को एक साथ भोग
लेते हैं। समय
कम होने से
सभी चीजें संगृहीत
और एकाग्र हो
जाती हैं।
लेकिन भोगनी
पडती हैं।
भोगने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
(मां आनंद
मधु ने खड़े
होकर एक
प्रश्न पूछा।)
प्रश्न :
जिसके पास
ज्यादा समय हो
वह यह बीमारी
को ले सकता है
कि नहीं? ले सकता
है तो उपाय
क्या?
नहीं, कोई उपाय
नहीं, और
लिया भी नहीं
जा सकता।
क्योंकि
बीमारी लेने
का तो मतलब यह
होगा कि मेरे
किए हुए का फल
किसी दूसरे को
मिल सकता है।
तो सारी
अव्यवस्था हो
जाएगी। और अगर
मेरे किए का
फल दूसरे को
मिल सकता है, तो इस जगत
में फिर कोई
नियम, कोई
ऋत नहीं रह
जाएगा। तब तो
मेरी
स्वतंत्रता भी
किसी को मिल
सकती है और
मेरी जीवनमुक्ति
भी किसी को
मिल सकती है।
मेरा दुख, मेरा
सुख, मेरा
ज्ञान, मेरा
अनुभव, मेरा
आनंद, फिर
तो कोई भी चीज
ट्रासफरेबल
हो जाती है, हस्तांतरित
हो जाती है।
नहीं, इस जगत
में कोई भी
चीज
हस्तांतरित
नहीं होती। होने
का कोई उपाय
नहीं है। कोई उपाय
नहीं है। और
उचित है कि
उपाय नहीं है।
ही, मन में
ऐसा भाव पैदा
होता है, वह
भी उचित है और
शुभ है। रमण
को कोई प्रेम
करने वाला चाह
सकता है कि
कैंसर आपका
मैं ले लूं। यह
चाह सुखद है।
और इस चाह से
इस व्यक्ति को
पुण्य का फल
मिलेगा। यह
कर्म हो गया
इसकी तरफ से।
समझ
लें इसको। रमण
मर रहे हैं और
कैंसर है। कोई
कह सकता है कि
कैंसर मुझे
मिल जाए, पूरे भाव
से। तो भी मिल
नहीं जाएगा।
लेकिन इसने यह
भाव किया है
इतना, अपने
ऊपर लेने का, यह कर्म हो
गया; यह एक
पुण्य हो गया।
और इसका सुख
इसे मिलेगा।
यह
बड़ी अजीब बात
है मागा था
दुख, लेकिन
दुख मांगने
वाला एक अदभुत
पुण्य कर्म कर
रहा है। इसे
इसका सुख
मिलेगा।
लेकिन रमण से इसकी
तरफ कुछ भी
नहीं आ सकता।
यह जो कर रहा
है भाव, यह
इसका ही कर्म
बन रहा है। यह
कर्म इसे लाभ
देगा।
(किसी अन्य
ने खड़े होकर
दूसरा प्रश्न
पूछना चाहा। )
प्रश्न
अरविंद के
बारे में
न, यह आदत
खराब की मधु
शुरू। यह तो
नुकसान होगा।
यह
मेरा इरादा
है।
तुम्हारे
इरादे अलग हैं, ये इतने
लोग यहां बैठे
हैं! इस तरह
नहीं शुरू करो,
नहीं तो
मुश्किल
होगा। वह सारी
बात को अव्यवस्था
हो जाएगी।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं