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बुधवार, 24 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषद--प्रवचन--117

मुक्त व्यवस्था--संत और स्वर्ग की—(प्रवचन—एकसौसतहरवां)
अध्याय 73
दंड (2)
तुम उसकी हत्या कर देते हो जो आक्रमण करने में साहसी है,
तुम उसे जीने देते हो जो आक्रमण नहीं करने में साहसी है।
इन दोनों में,
कुछ लाभ भी हैं और कुछ हानि भी।
यद्यपि स्वर्ग कुछ लोगों को नापसंद कर सकता है,
तो भी कौन जानता है कि किन्हें मारा जाए, और क्यों?
इसलिए संत भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।
स्वर्ग का मार्ग--ताओ--बिना संघर्ष के विजय में कुशल है;
बिना शब्द के वह पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है;
बिना बुलावे के वह प्रकट होता है,
बिना स्पष्ट योजना के फल प्राप्त करता है।
स्वर्ग का जाल व्यापक और विस्तृत है।
उसमें बड़े-बड़े छिद्र हैं, तो भी उससे कुछ भी निकल नहीं पाता।


माज निर्भय के विरोध में है, क्योंकि निर्भय के साथ असुरक्षा जुड़ी है। निर्भय खतरे में ले जा सकता है। निर्भय उन रास्तों पर ले जा सकता है जो कहीं न जाते हों। निर्भय लीक से उतर कर चलने की कोशिश करता है। नियम, व्यवस्था, परंपरा, इन्हें तोड़ने में निर्भय को बड़ा रस है। समाज भयभीत को बचाता है, निर्भय को नष्ट करता है। क्योंकि समाज को लगता है कि भयभीत समाज को बचाता है और निर्भय समाज को नष्ट कर देगा।
इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें। निर्भय ही अपराधी बन जाता है। निर्भय ही क्रांतिकारी बन जाता है। निर्भय के बुरे रूप भी हैं; निर्भय के भले रूप भी हैं। अपराधी और क्रांतिकारी में एक समानता है--दोनों तोड़ते हैं। अपराधी उच्छृंखल है; किसी और बड़ी व्यवस्था के लिए नहीं तोड़ता, तोड़ने के रस के कारण ही तोड़ता है, विध्वंसक है। क्रांतिकारी भी विध्वंसक है, लेकिन इस आशा में तोड़ता है कि शायद तोड़ने से और बेहतर का निर्माण हो सके। हो या न हो, यह निश्चय नहीं।
समाज तो अपराधी और क्रांतिकारी को एक ही दृष्टि से देखता है। समाज के लिए तो दोनों से भय का द्वार खुलता है। समाज जीना चाहता है परिचित के साथ--जिस रास्ते का जाना-माना रूप है, जिस रास्ते का नक्शा है, जिस समुद्र में बहुत बार यात्रा की जा चुकी है, और अब कोई भय नहीं है; खो जाने का, मिट जाने का, बर्बाद हो जाने का कोई डर नहीं है। तभी समाज कदम उठाता है। इसलिए समाज हमेशा परंपरा, रूढ़ि, लकीर से बंधा होता है।
निर्भय अनजान में जाना चाहता है, अपरिचित सागरों की यात्रा करना चाहता है; जहां कभी कोई नहीं गया है वहां पदचिह्न छोड़ना चाहता है। समाज इसमें खतरा देखता है।
समाज अपराधी के भी विपरीत है, क्योंकि वह नियम तोड़ता है। और नियम टूटने लगें तो समाज का कोई अस्तित्व बच नहीं सकता। समाज अंततः नियमों का एक जाल है। और एक बार लोगों की आस्था नियम से उठनी शुरू हो जाए तो उस आस्था को जमाना मुश्किल है।
इसलिए जो व्यक्ति भी इस तरह का दुस्साहस करता है, समाज उसे भयंकर रूप से दंडित करता है। और बड़े से बड़ा दंड है जीवन को छीन लेना; बड़े से बड़ा दंड है मृत्यु-दंड; उस आदमी के जीवन की संभावना को ही नष्ट कर देना। इसका अर्थ हुआ कि समाज ने तय कर लिया कि इस आदमी से अब कोई भी आशा नहीं है; इसलिए इसे और जीने की कोई सुविधा नहीं दी जा सकती। इस आदमी को समाज ने मान लिया कि असाध्य है। जब तक साध्य मालूम होता है तब तक समाज छोटे दंड देता है; जब असाध्य मालूम होता है, असंभव मालूम होता है, तब समाज उस आदमी से जीवन छीन लेता है। जीवन छीनने का अर्थ है कि हम तुमसे परिपूर्ण रूप से हताश हो गए और अब तुमसे हमें कोई भी आशा नहीं कि तुम वापस मार्ग पर चल सकोगे। कुमार्ग पर चलना तुम्हारे जीवन की शैली हो गई। अब यह कोई फुटकर कृत्य नहीं है; तुम्हारे होने का ढंग ही हो गया। इसलिए तुम्हारे होने को हम मिटा देंगे।
समाज जब यह निर्णय लेता है तो इसके साथ ही दूसरा निर्णय भी जुड़ा है। जैसे वह निर्भीक को मिटाता है, दुस्साहसी को, उसके साथ ही साथ वह भीरु को बचाता है।
लाओत्से तो उसे भी साहसी कहता है। और वह समझने जैसा है।
लाओत्से कहता है, कुछ साहसी हैं आक्रमण करने में, और कुछ साहसी हैं आक्रमण न करने में। भीरु का भी तो एक प्रकार का साहस है। जब निमंत्रण आता है अनजान का, जब बुलाते हैं ऐसे रास्ते अनचीन्हे, अनपहचाने, तब साहस करके वह लीक से ही रुका रहता है। वह भी साहस है। दुस्साहसी उसे कहता है कि तुम में कोई भी साहस नहीं, क्योंकि दुस्साहसी से वह विपरीत है। लेकिन जब चारों तरफ से निमंत्रण मिल रहा हो स्वच्छंदता का, बुलावा आ रहा हो अनचीन्हे रास्तों पर जाने का, अपरिचित सागर का आमंत्रण आ गया हो, तब तट से बंधे रहना, वह भी साहस है; वह भी टेंपटेशन को, उत्तेजना को रोकना है।
लाओत्से कहता है, भीरु भी साहसी है। भय को पकड़े रखता है, चाहे कुछ भी हो; रास्ते को छोड़ता नहीं, नियम को तोड़ता नहीं; आंख बंद रख कर माने चला जाता है कि रूढ़ि ठीक है। समाज इसे बचाता है, क्योंकि समाज इसके द्वारा ही बचता है। समाज भीरु की बड़ी प्रशंसा करता है। वह उसे सज्जन कहता है; दुस्साहसी को दुर्जन कहता है। भीरु को साधु कहता है; दुस्साहसी को असाधु कहता है। क्योंकि भीरु ही कवच है समाज का।
इसलिए समाज की पूरी चेष्टा होती है कि जैसे ही नया बच्चा पैदा हो उसे भयभीत कर दिया जाए, उसे डराया जाए, हजार डर उसके मन में बिठा दिए जाएं। तो ही वह समाज के काम का हो सकेगा। तो ही वह राज्य का, समाज का, संस्कृति का सम्मान करेगा। उसे इतना डरा दिया जाए कि उसमें इतनी सुविधा ही न रह जाए कि वह कभी समाज से विपरीत पैर उठा सके। इसलिए नरकों का भय है, स्वर्गों का प्रलोभन है। इसलिए यहां भी, पृथ्वी पर भी हजार तरह के दंड हैं, हजार तरह के पुरस्कार हैं।
तुम किस आदमी को भला कहते हो? कौन सा आदमी शुभ है?
अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम्हारा सब शुभ भय के आस-पास निर्मित है। तुम कहते हो, यह आदमी चोर नहीं है। लेकिन तुमने कभी यह विचार किया कि जो चोर नहीं है उसने क्या चोरी इसलिए नहीं की है कि वस्तुतः उसकी अंतरात्मा से चोरी का भाव चला गया? या कि इसलिए नहीं की है कि वह चोर जैसा साहस नहीं जुटा पाया? चोर होना साधारण तो नहीं है, असाधारण कृत्य है। चोर होने के लिए एक विशेष तरह की प्रतिभा और क्षमता चाहिए। अपने ही घर रात अंधेरे में चलने में डर लगता है; दूसरे के अपरिचित घर में अंधेरे में दीवाल तोड़ कर घुस जाना और ऐसे चलना जैसे अपने बाप का घर हो और इस तरह सामान उठाना कि आवाज न हो, हृदय न धड़के। तुम्हारी तो छाती इतनी धड़कने लगेगी कि हाथ-पैर हिल न सकेंगे।
चोर भी एक तरह की कुशलता है दुस्साहस की। हत्यारा भी एक तरह की कुशलता है आत्यंतिक दुस्साहस की। दूसरे को मिटाने की बात ही सोचने के लिए बड़ी तैयारी चाहिए; दूसरे को मिटाने के लिए खुद को मिटाने की तैयारी चाहिए। क्योंकि जब तुम दूसरे को मिटाने जाते हो तो खुद को भी दांव पर लगाते हो। तुम दूसरे को मिटा दो और तुम बिना दांव पर लगे मिटा दो, ऐसा तो नहीं हो सकता। अपराधी के भी गुण हैं।
गैर-अपराधी जिसको तुम कहते हो, साधु जिसे कहते हो, उसके भी गहरे दुर्गुण हैं। भय के कारण अधिक लोग साधु हैं। चोरी नहीं कर सकते; इसलिए नहीं कि अचौर्य को उपलब्ध हो गए हैं, बल्कि इसलिए कि इतने भयभीत हैं कि चोरी की तरफ साहस नहीं होता। अगर उनको भी कोई पक्का भरोसा दिला दे कि न तो रास्ते पर पुलिस है, न अदालत में न्यायाधीश है, न ऊपर कोई परमात्मा है, न पाताल में कोई नरक है; अगर उन्हें कोई बिलकुल ही भय से मुक्त कर दे, वे भी चोरी पर निकल जाएंगे। यही तो समाज का डर है कि कहीं लोग भय से मुक्त न हो जाएं। इसलिए समाज हजार तरह के भय खड़े करता है। समाज एक ही तरकीब जानता है मनुष्य को नियंत्रण में रखने की, वह भय है। साधु निन्यानबे प्रतिशत भय के कारण होता है। यह भी कोई साधुता हुई?
असाधु निन्यानबे प्रतिशत निर्भय के कारण होता है। अगर निर्भय पर ध्यान रखो तो असाधु में भी गुण दिखाई पड़ेगा। अगर भय पर ध्यान रखो तो साधु में भी दुर्गुण दिखाई पड़ेगा। अगर कृत्य पर ध्यान रखो तो साधु में गुण दिखाई पड़ेगा, असाधु में दुर्गुण दिखाई पड़ेगा।
समाज कृत्य की फिक्र करता है, तुम्हारी अंतरात्मा की नहीं। इसलिए साधु का सम्मान करता है, असाधु का अपमान करता है। क्योंकि समाज का संबंध उससे है जो तुम करते हो। जब तुम कुछ करते हो तभी समाज के जीवन में कोई चीज प्रवेश पाती है। अगर तुम सोचते रहते हो, कोई हर्जा नहीं है। अगर एक आदमी बैठ कर दिन-रात चोरी का चिंतन करता है तो भी अदालतें उस पर मुकदमा नहीं चला सकतीं। क्योंकि चिंतन निजी है, विचार वैयक्तिक हैं। तुम सारी दुनिया की हत्या रोज करो मन में तो भी तुम पर किसी को मारने का मुकदमा नहीं चल सकता। क्योंकि जब तक तुम विचार करते हो तब तक समाज में तुम उतरते ही नहीं। जैसे ही तुम कृत्य करते हो, तुम समाज में आते हो। विचार जब कृत्य बनता है तभी सामाजिक बनता है; जब तक विचार रहता है तब तक निजी है।
इसलिए समाज कहता है, तुम्हें सोचना हो तो मजे से सोचो। समाज मौके भी देता है सोचने के कि तुम सोचने में ही चुक जाओ, ताकि करो न। फिल्में हैं हत्याओं से भरी हुई, डकैतियों से भरी हुई, व्यभिचार से भरी हुई। समाज उन्हें प्रकट रूप से दिखाता है। किताबें हैं अश्लील, गंदी से गंदी, हत्याओं से भरी, सब तरह के व्यभिचारों में लिप्त; वे उपलब्ध हैं। समाज को इसमें कोई ज्यादा चिंता नहीं पैदा होती।
मनसविद तो कहते हैं कि हत्या की फिल्म को देख कर हत्या के भाव का रेचन होता है। जब तुम हत्या की फिल्म देख लेते हो तो तुम्हारे हत्या करने का जो भीतर छिपा हुआ भाव है उसका निष्कासन हो जाता है, तुम थोड़े हलके हो जाते हो। तुम दूसरों को व्यभिचार करते देख लेते हो फिल्म में या उपन्यास में, तुम्हारी व्यभिचार करने की वृत्ति को थोड़ी सी राहत मिल जाती है।
समाज पूरा मौका देता है; सोचो मजे से, भाव करो मजे से। पूरी स्वतंत्रता है। कृत्य में भर मत लाना। क्योंकि जैसे ही कृत्य में आया वैसे ही समाज की नींव डगमगाती है।
धर्म के संबंध में बात बिलकुल भिन्न है। धर्म को इसकी चिंता नहीं कि तुमने किया या नहीं; धर्म को चिंता है कि तुमने सोचा या नहीं। क्योंकि धर्म निजी है, वैयक्तिक है। तुमने कितने ही साधुता के कृत्य किए हों, और अगर विचार असाधुता के हैं, तो धर्म की नजर में तुम साधु नहीं हो, समाज की नजर में साधु हो। अगर तुम्हारे भीतर भावनाएं पाप की हैं और तुम कृत्य पुण्य के करते हो। और अक्सर ऐसा होता है कि भावनाओं को छिपाने के लिए आदमी विपरीत कृत्य करता है। जिनके मन में पाप की बड़ी भावना है वे अपनी दीवाल पर लिख लेते हैं: ब्रह्मचर्य ही जीवन है। वह दीवाल पर जो उन्होंने लिख रखा है, टेबल पर जो मोटो रख कर बैठे हैं, ठीक उससे उलटी उनकी दशा होगी। सोचो, जिस आदमी को कामवासना की तीव्र विक्षिप्तता न उठती हो वह क्यों दीवाल पर लिख कर बैठेगा कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है? बीमार आदमी औषधि साथ रखता है; स्वस्थ आदमी तो नहीं।
जिसने अपने दरवाजे पर लिख रखा है: आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी। यह आदमी बेईमान है। इससे तुम जरा सावधान रहना, अपनी जेब बचाना। क्योंकि जो आदमी लिख कर बैठा है कि ईमानदारी ही श्रेष्ठतम नीति है, यह आदमी बेईमान होना ही चाहिए। अन्यथा इसे लिखने का सवाल ही न था। तुम्हें पक्का पता है, जहां-जहां तुम लिखा देखो कि यहां शुद्ध घी बिकता है, वहां तुम थोड़े संदिग्ध हो जाना। क्योंकि घी लिखना काफी है, शुद्ध! घी में शुद्ध आ ही जाता है। घी में अशुद्ध का क्या सवाल है?
शुद्ध लिखने में ही बात छिपी है। अशुद्ध को ढांकने के लिए शुद्ध लिखा जाता है। पाप को ढांकने के लिए पुण्य लिखा जाता है। और लिखने की सबसे सुगम व्यवस्था है कृत्य। तुम जो भीतर हो उसे छिपाने के लिए सुगमतम मार्ग है कि तुम ऐसा कुछ करो जो उसके विपरीत है। तुम सारी दुनिया को धोखा दे दोगे।
तो यहां व्यभिचारी मन वाला व्यक्ति ब्रह्मचारी होकर बैठ जाता है। कृत्य में होता है ब्रह्मचर्य, भाव में होता है व्यभिचार। यहां भाव में सारी दुनिया की संपत्ति पर कब्जा कर लेने की आकांक्षा वाला व्यक्ति सब धन छोड़ कर त्यागी हो जाता है। धोखा बड़ा गहरा है। और ठीक से सावधानीपूर्वक उसमें उतरना जरूरी है और समझना जरूरी है। अन्यथा तुम भी वही कर सकते हो। क्योंकि जिन्होंने किया है वे भी तुम जैसे ही मनुष्य हैं। तुम यह मत सोचना कि यह मैं किसी और के लिए कह रहा हूं। यह मैं तुमसे ही कह रहा हूं। यह बात सीधी-सीधी है। तुम भी अगर अपने जीवन की थोड़ी जांच-परख करोगे, विश्लेषण करोगे, तो जल्दी ही पहचान लोगे कि तुम जो करते हो वह उसे छिपाने का उपाय होता है तुम जो हो।
और संत का अर्थ है, तुम जो हो उसी को प्रकट हो जाने देना। साधु वह है जो भीतर असाधु है और बाहर साधु का कृत्य करता है। असाधु वह है जो भीतर भी असाधु है और बाहर भी असाधु का कृत्य करता है। संत वह है जो भीतर भी साधु है और बाहर भी साधु का कृत्य करता है। इस संसार में असाधु भी सच्चा है, संत भी सच्चा है; साधु सबसे बड़ा धोखा है। असाधु बाहर-भीतर एक जैसा है। भीतर चोरी है, बाहर भी चोरी है। संत भी बाहर-भीतर एक जैसा है। भीतर भी ब्रह्मचर्य है, बाहर भी ब्रह्मचर्य है। साधु प्रवंचना है; साधु धोखा है। साधु इस संसार में सबसे बड़ा झूठ है। वह भीतर असाधु है, बाहर साधु है। भीतर पाप है, बाहर पुण्य है। भीतर तो चाहेगा गर्दन दबा दे और बाहर वह मंत्र जपता रहता है: अहिंसा परमो धर्मः। अहिंसा परम धर्म है। असाधु सच्चा है, जैसा भीतर वैसा बाहर। संत भी सच्चा है, जैसा भीतर वैसा बाहर। इसलिए संत में और असाधु में एक तरह की समानता है; एक तरह की सच्चाई की समानता है। दोनों बड़े भिन्न हैं, बिलकुल विपरीत हैं, लेकिन एक सच्चाई की समानता है। दोनों प्रामाणिक हैं।
तुम कभी अपराधियों को देखो जाकर। तुमने देखा नहीं, क्यों अपराधी की तुम्हारे मन में इतनी निंदा है कि तुम उसे कभी देखते ही नहीं। जब निंदा इतनी हो तो आंख देखने की फिक्र ही छोड़ देती है; पर्दा पड़ जाता है। कभी कारागृह में जाकर अपराधियों को गौर से देखो। तुम अपराधियों की आंख में तुम्हारे साधुओं से ज्यादा साधुता पाओगे। एक सरलता मिलेगी; वे जैसे भीतर हैं वैसे बाहर हैं। साधु की आंख में तुम्हें एक जटिलता मिलेगी; दो पर्तें मिलेंगी साधु की आंख में। ऊपर की पर्त पर मुस्कुराहट होगी, भीतर की पर्त पर उदासी होगी। ऊपर की पर्त पर ईमानदारी होगी, भीतर की पर्त पर बेईमानी होगी। साधु दोहरा है। साधु द्वंद्व है।
इसलिए लाओत्से की पूरी चेष्टा है कि तुम असाधु को छोड़ कर कहीं साधु मत हो जाना। अगर उठना ही हो तो असाधु से संतत्व में उठना। साधु कोई उठना नहीं है। साधु तो फिर असाधु ही बने रहने का और भी ज्यादा समाज-सम्मत उपाय है। समाज राजी हो जाएगा, तुम्हारे कृत्य बदल गए। समाज को कुछ लेना-देना नहीं। तुम किसी की हत्या नहीं करते, किसी की स्त्री की तरफ बुरे भाव से नहीं देखते, किसी की स्त्री को लेकर नहीं भाग जाते, किसी की चोरी नहीं करते; बात खतम हो गई। समाज तुमसे निश्चिंत हो गया। तुम जानो तुम्हारे भीतर का।
लेकिन धर्म अभी निश्चिंत नहीं होता। धर्म कहता है, जब तक तुम भीतर से न बदले तब तक तुम्हारे बाहर से बदलने का क्या अर्थ है? धर्म के लिए कृत्य महत्वपूर्ण नहीं है; धर्म के लिए भाव महत्वपूर्ण है। धर्म तुम्हारी अंतरात्मा को बदलने में उत्सुक है; तुम्हारे आचरण को बदलने में नहीं। हां, अंतरात्मा की बदलाहट से आचरण बदल जाएगा, वह दूसरी बात है। पर वह धर्म की चिंता नहीं है। वह अपने आप होगा। वह ऐसे ही होगा जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चलती है।
तुमने कभी विचार किया या कभी देखा कि जो आदमी चोर है वह जब चोरी नहीं भी करता तब भी तो उसकी भाव-दशा चोर की ही होती है। चोरी नहीं भी करता--कोई चोर चौबीस घंटे तो चोरी करता नहीं, रोज तो चोरी करता नहीं--जब चोर चोरी नहीं करता तब वह कौन होता है? क्या वह अचोर होता है? कृत्य तो नहीं है। लेकिन कृत्य के न होने से क्या चोर अचोर हो जाता है? दो चोरी के बीच में चोर कैसा होता है? अंतरधारा बहती रहती है चोरी की; मौके की तलाश में होता है। जब मौका मिल जाएगा तब चोर हो जाएगा। चोर तो है ही। मौके के कारण चोर नहीं बनता; मौके के कारण भीतर की अंतरधारा प्रकट हो जाती है। अभी छिपा था, अब प्रकट हो जाता है। अभी ढंका था, अब अनढंका हो जाता है। लेकिन भीतर की धारा तो चोर की ही होगी।
जब कोई करुणावान व्यक्ति, कोई बुद्ध पुरुष, कोई करुणा का कृत्य नहीं कर रहा होता--न किसी के पैर दबा रहा है; न कोई गिर गया है उसे उठा रहा है; न कोई डूब रहा है पानी में उसे बचा रहा है; न किसी के मकान में आग लगी है और जाकर सेवा कर रहा है--जब दो करुणा के कृत्यों के बीच में बुद्ध पुरुष होते हैं तब कैसे होते हैं? कोई कृत्य तो नहीं होता, लेकिन भीतर बुद्धत्व की धारा होती है; भीतर करुणा बहती रहती है। उसी तरह जैसे चोर में चोरी बहती रहती है, कामी में काम बहता रहता है, लोभी में लोभ बहता रहता है, वैसे ही बुद्ध में ध्यान बहता रहता है, करुणा बहती रहती है, प्रेम बहता रहता है। दो करुणा के कृत्यों के बीच में भी बुद्ध बुद्ध होते हैं। कृत्य के कारण कोई बुद्ध नहीं होता; अंतरधारा के कारण कोई बुद्ध होता है।
अब जरा ऐसा सोचो कि बुद्ध बैठे हैं, कोई करुणा नहीं कर रहे हैं। और एक चोर उनके पास बैठा है, कोई चोरी नहीं कर रहा है। दोनों एक जैसे हैं क्या इस वक्त? बुद्ध कोई बुद्धत्व का काम नहीं कर रहे हैं; चोर कोई चोरी का काम नहीं कर रहा है; दोनों पास बैठे हैं। बाहर से देखने पर तो दोनों एक जैसे हैं। समाज के लिए तो दोनों बराबर हैं। क्योंकि समाज तो केवल कृत्य को पहचानता है, आचरण को पहचानता है। जब तक कोई चीज आचरण न बन जाए, समाज की आंख की पकड़ में ही नहीं आती। तो अभी समाज के लिए तो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। लेकिन क्या तुम कह सकोगे कि दोनों एक जैसे हैं? दोनों में उतना ही अंतर है जितना पृथ्वी और आकाश में। कृत्य बिलकुल नहीं है, पर अंतरधारा मौजूद है। चोर चोर है; बुद्ध बुद्ध हैं।
तुम्हारे करने से तुम नहीं हो; तुम्हारे करने पर तुम्हारा होना निर्भर नहीं है। तुम्हारे होने से तुम्हारा कृत्य आता है। इसलिए मैं कहता हूं, धर्म सामाजिक घटना नहीं है; धर्म समाज से बड़े बाहर की घटना है। संप्रदाय सामाजिक घटना है। हिंदू होना सामाजिक है; मुसलमान होना सामाजिक है; जैन होना सामाजिक है। धार्मिक होना सामाजिक नहीं है। क्योंकि हिंदू, मुसलमान, जैन, पारसी, ईसाई, वे सबके सब तुम्हारे कृत्य की ही फिक्र कर रहे हैं। ईसाइयों की दस आज्ञाएं हैं; उनमें एक भी आज्ञा नहीं है होने के संबंध में। चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को बुरे भाव से मत देखो; सब कृत्यों की बातें हैं।
समझ लो कि एक आदमी न चोरी करता, न किसी की स्त्री को लेकर भागता, न किसी की हत्या करता। क्या इतने न करने से वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएगा? उसकी अंतरधारा का क्या होगा? कृत्य तो रोका जा सकता है। अंतरधारा? उसे बदलना तो बड़ी क्रांति है। उसके लिए तो बड़े आंतरिक जीवन से गुजरना जरूरी है। उसके लिए तो बड़ी अग्नि से गुजरना जरूरी है। उसके लिए तो अपने को आमूल बदल लेना होगा।
सभी संप्रदाय समाज के हिस्से हैं। वे समाज के वैसे ही हिस्से हैं जैसे अदालत। अदालत भी तुम्हें डराती है; संप्रदाय भी तुम्हें डराते हैं। धर्म समाज के बिलकुल बाहर है। धर्म तो अभय को उपलब्ध करवाता है। धर्म भय के बाहर ले जाता है; निर्भय के भी बाहर ले जाता है। धर्म अंधकार के बाहर प्रकाश की तरफ ले जाता है। धर्म आरोहण है आत्म-अज्ञान से आत्म-ज्ञान में। वह एक आंतरिक क्रांति है।
इसलिए समाज धर्म के भी विपरीत होता है। क्योंकि समाज को डर लगता है कि ये धार्मिक व्यक्ति भी समाज को ऐसे ही लगते हैं जैसा निर्भय व्यक्ति लगता है; यद्यपि वह निर्भय नहीं है, वह अभय है। पर इतनी बारीक चीजें समाज की बुद्धि के बाहर हैं। समाज की बुद्धि तो बड़ी मोटी, कामचलाऊ बुद्धि है। वहां हिसाब बहुत बाजारू है। वहां बारीक, सूक्ष्म और नाजुक की कोई गति नहीं है। वह तो ऐसे ही है जैसे कि कोई साग-सब्जी तौलने वाले के पास तुम हीरे लेकर पहुंच जाओ और वह साग-सब्जी तौलने के बटखरों से हीरों को तौल दे। वह उसकी पकड़ के बाहर है। हीरे कहीं साग-सब्जी तौलने वाले बटखरों से तौले जाते हैं?
समाज की बुद्धि तो बड़ी साधारण, स्थूल है। समाज तो भीड़ है। भीड़ के पास कोई प्रतिभा होती है? भीड़ के पास तो निम्नतम प्रतिभा होती है। मनसविद कहते हैं कि अगर भीड़ के अलग-अलग व्यक्तियों की बुद्धि नापी जाए तो उसका जोड़ भी भीड़ की बुद्धि नहीं होता। यहां तुम अगर सौ मित्र बैठे हो, तो तुम्हारी प्रत्येक व्यक्ति का बुद्धि-माप अलग-अलग ले लिया जाए, तो उतना जोड़ भी तुम्हारी भीड़ का नहीं होता। और एक और अनूठी घटना मनसविद कहते हैं कि भीड़ में व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता को भी खो देता है, और भीड़ में जो आखिरी आदमी होता है वह निर्णायक होता है, प्रथम आदमी निर्णायक नहीं होता। भीड़ में बुद्धिमान आदमी खो जाता है और मूढ़ प्रधान हो जाते हैं। क्योंकि भीड़ एक तरह का पतन है। तुम अपना दायित्व खो देते हो। एकांत में मनुष्य का निजता का फूल खिलता है; भीड़ में सारी प्रतिभा खो जाती है।
इसलिए तुम्हें कभी अनुभव हुआ होगा, जब भी तुम भीड़ से लौटते हो तो तुम्हें लगता है तुम कुछ खोकर लौटे। और दुनिया में जो बड़े से बड़े पाप होते हैं वे भीड़ के कारण होते हैं। अकेले आदमियों ने बड़े पाप नहीं किए हैं। हिंदुओं की भीड़ जो पाप कर सकती है वह कोई हिंदू अकेले में नहीं कर सकता। मुसलमानों की भीड़ जो कर सकती है भीड़ की तरह, एक मुसलमान अकेले में नहीं कर सकता। लाखों की हत्या की जा सकती है। तुम एक-एक मुसलमान और एक-एक हिंदू से पूछो कि क्या सार हुआ तुम्हें इन मुसलमानों के घरों में आग लगा देने से, या हिंदुओं का मंदिर जला देने से? अगर तुम एक-एक मुसलमान से पूछो तो वह भी डरेगा। वह भी कहेगा कि नहीं, यह उचित नहीं हुआ। और मुझे पता नहीं कैसे हो गया! मैंने कुछ किया भी नहीं, भीड़ में साथ हो गया। भीड़ तुम्हें पोंछ देती है। तुम्हारे दायित्व को, तुम्हारी समझ को, तुम्हारी प्रतिभा को धूल भर देती है। भीड़ एक बड़ा पतन है।
अगर बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट और मोहम्मद जंगल की तरफ भागते हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि समाज बुरा है, उसका कुल कारण इतना है कि वे चाहते हैं कि एकांत मिल जाए। भीड़ की खींचती हुई आकर्षण की धारा नीचे की तरफ लाती है; वे अकेले होना चाहते हैं। क्योंकि दुनिया में जीवन का श्रेष्ठतम फूल अकेले में ही खिला है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण भीड़ में नहीं पैदा हुआ; भीड़ में नहीं हो सकता। एकांत में! हां, फूल खिल जाए, फिर वह भीड़ में वापस लौट आता है। लेकिन खिलने की घटना अकेले में होती है।
इसलिए एकांत का इतना मूल्य है। वह भीड़ की दुर्गति से बचने का उपाय है। कुछ बातें और समझ लें, फिर हम सूत्र में प्रवेश करें।
लाओत्से कहता है कि बुरे को, असाधु को, दुस्साहसी को समाज मिटा देता है; भले को, सज्जन को, साधु को बचा लेता है। संत कहां हैं फिर? संत के साथ समाज बड़ी दुविधा में रहता है। क्योंकि संत में लक्षण तो दोनों के होते हैं--साधु के, असाधु के। क्योंकि वह तो निर्द्वंद्व है, अद्वैत है। उसमें तो साधु-असाधु दोनों मिल कर एक हो गए हैं। वह तो संगीत है जीवन के विरोधों का। संत के साथ समाज क्या करे? बड़ी दुविधा खड़ी होती है।
तो समाज एक रास्ता निकालता है। जब संत जीवित होता है तब उसका विरोध करता है, जैसे असाधु का करना चाहिए। जब संत मर जाता है तब उसका सम्मान करता है, जैसा साधु का करना चाहिए। यह समझौता है समाज का। संत का न तो विरोध किया जा सकता है पूरे मन से, क्योंकि समाज को भी प्रतीत होता है कि आदमी गलत तो नहीं है। जीसस को पूरे मन से विरोध भी तो नहीं किया जा सकता; फांसी लगाते वक्त भी तो मन को चोट लगती है, कचोट होती है। लेकिन फांसी लगानी होगी। क्योंकि यह आदमी समाज के नियम तुड़वाए दे रहा है; प्रकट व्यवहार इसका असाधु का है। यह होगा भीतर साधु, लेकिन बाहर तो यह जो भी कर रहा है उससे समाज की नींव को डगमगा दिया है। समाज का भवन गिराए दे रहा है। जो-जो नियम थे, सब तोड़ दिए हैं। यह आदमी खतरनाक है। यद्यपि इस खतरनाक आदमी के भीतर भी गंध तो मिलती है किसी अपूर्व घटना की। लेकिन उस घटना के लिए इस आदमी की खतरनाक जीवन-व्यवस्था को भी तो बरदाश्त नहीं किया जा सकता। तो जीसस को सूली लगा दी। जिन्होंने सूली लगाई, वही ईसाई हो गए। जिन्होंने सूली लगाई, वे ही जीसस के भक्त हो गए। और ऐसी घटना बनी कि यहूदी धर्म सिकुड़ कर छोटा हो गया और ईसाइयत फैल कर विराट सागर बन गई।
हां, सूली लगा देने के बाद इस आदमी का कृत्य का जीवन तो समाप्त हो गया, आचरण तो समाप्त हो गया। अब बच गई केवल भीतर की बात। तो भीतर की पूजा की जा सकती है। भीतर से तो कोई डर नहीं है। जीसस की हत्या का अर्थ यह है कि तुम्हारे शरीर को समाज बरदाश्त न कर सकेगा; तुम्हारे व्यवहार को, आचरण को बरदाश्त न कर सकेगा। हां, तुम्हारी आत्मा की हम पूजा करेंगे सदा-सदा।
इसलिए संत जब मर जाते हैं तभी पूज्य हो पाते हैं। संत को जीते जी पूजना थोड़े से दुस्साहसी लोगों की ही बात है। समाज और भीड़ संत को जीते जी नहीं पूज सकती। संत बड़ी दुविधा में डाल देता है। क्योंकि संत दुविधाओं का जोड़ है, विरोधों का समागम है।
अब हम सूत्र में उतरने की कोशिश करें।
"तुम उसकी हत्या कर देते हो जो आक्रमण करने में साहसी है। तुम उसे जीने देते हो जो आक्रमण नहीं करने में साहसी है। इन दोनों में कुछ लाभ भी हैं और कुछ हानि भी।'
क्या लाभ हैं और क्या हानियां हैं, विचारणीय है। जो भयभीत आदमी है उसके कुछ लाभ भी हैं। बड़े से बड़ा लाभ तो यह है कि जो जान लिया गया है उसे वह बचाता है। नहीं तो वह जो निर्भीक आदमी है, वह उस सबको गंवा देंगे जो हजारों-हजारों साल में जाना गया है। जो ज्ञान की संपदा है उसे भयभीत आदमी बचाता है। वह सांप की तरह कुंडल मार कर बैठ जाता है अतीत पर; वह तुम्हें छूने नहीं देता, परंपरा तोड़ने नहीं देता; लीक से उतरने नहीं देता।
लीक का मतलब ही यह है कि हजारों-हजारों साल के अनुभवों का निचोड़ है वह। किसी एक आदमी के कहने पर लीक छोड़ी नहीं जा सकती। तुम एक हो; वह हजारों-हजारों वर्षों का अनुभव है। तुम भटका सकते हो; तुम निचोड़ को गंवा देने का कारण बन सकते हो। और वह जो लीक है वह भी तो बुद्ध पुरुषों के ही चरणों का चिह्न है।
इसे थोड़ा समझ लें। वह भी तो कभी संतों ने चल कर ही उस रास्ते को निर्मित किया था जिसको आज भयभीत आदमी पकड़े हुए है। वह उसे छोड़ने न देगा। अगर भीरु लोग न होते तो बुद्ध के वचन न बचते। कौन बचाता? अगर भीरु लोग न होते तो मंदिरों में प्रतिमाएं न होतीं महावीर की। कौन बचाता? अगर निर्भीक लोगों की बातें सुनी गई होतीं तो न मंदिर होते, न मस्जिद होती, न बुद्ध का स्मरण होता, न क्राइस्ट का स्मरण होता। सब खो गया होता। क्योंकि निर्भीक सदा तुम्हें लीक के बाहर ले जाता है।
इसे थोड़ा बारीकी से समझो तो भीरु बचाता है। वह संरक्षक है। वह नये को पैदा नहीं कर सकता, लेकिन एक बार नया पैदा हो जाए तो वह उसे बचाता है। वह नये को पैदा होने में सहायता भी नहीं दे सकता, वह नये का दुश्मन है। लेकिन पुराने का प्रेमी है। एक दफा नये को तुम पैदा कर दो तो नया पुराना हो जाता है। पुराना होते ही से भीरु उसे बचाता है।
इसे तुम ऐसा समझो कि तुम मुझे सुनने आए हो। मैं कुछ नयी बातें कह रहा हूं। बहुत थोड़े से लोग मुझे सुनने आ पाएंगे। वे बहुत अल्प होंगे। क्योंकि नये की सुनने की क्षमता भीरु आदमी में होती ही नहीं। लेकिन ध्यान रखना, जैसे ही मैं विदा हो जाऊंगा, जो मैंने कहा था उसको तुम न बचा सकोगे; उसको भीरु आदमी बचाएगा। तुम तो फिर कोई नयी बात कहने आ जाएगा तो उसको सुनने चले जाओगे। भीरु नहीं जाएगा। वह अभी मुझे सुनने नहीं आया। वह कल जब मेरी बात को पकड़ लेगा तो वह किसी और को सुनने नहीं जाएगा। वही बचाने वाला होगा।
भीरु संरक्षक है। निर्भीक जन्मदाता है। तुम ऐसा समझो कि इस जीवन के रहस्य में निर्भीक मां है और भीरु दाई है। और मां जन्म देकर विदा हो जाती है और दाई के ऊपर ही सारा दायित्व है। निर्भीक पैदा करने में समर्थ है; वह नया रास्ता बनाता है। भीरु देखता रहता है। जब तक कि रास्ता पूरा न बन जाए, जब तक कि बहुत लोग रास्ते पर चल न लें, जब तक कि भीरु को खबर न मिल जाए, आश्वासन न हो जाए विश्वस्त सूत्रों से कि हां, वह रास्ता पहुंचाता है, तब तक भीरु कदम नहीं उठाता। जैसे ही रास्ता सुनिश्चित हो जाता है, नक्शे उपलब्ध हो जाते हैं, भीरु सोच-विचार लेता है, सुरक्षा-असुरक्षा की सब बात तय हो जाती है, तब भीरु कदम उठाता है। फिर वह बचाता है उस रास्ते को। इसी तरह वह पुराने रास्तों को बचा रहा है।
और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि भीरु कसौटी है। जब भीरु किसी रास्ते पर जाने लगे, उसका अर्थ यह है कि सब कसौटियों पर वह रास्ता खरा उतर गया। निर्भीक तो नये पर जाने को आतुर होता है, बिना चिंता किए कि कहीं जाएगा यह रास्ता या नहीं जाएगा! तो निर्भीक सौ में से निन्यानबे मौकों पर तो भटकता है। वह तो कोई भी आवाहन मिल जाए उसे नये का तो तत्पर होता है जाने को। लेकिन नया सदा ठीक ही थोड़ी होता है। न तो पुराना सदा गलत होता है, न नया सदा ठीक होता है। नया बहुत बार गलत होता है, पुराना भी बहुत बार ठीक होता है। नये-पुराने से ठीक-गलत का कोई संबंध ही नहीं है। भीरु कसौटी है। जब भीरु भी जाने लगे तब समझना कि मार्ग सारी कसौटियों पर पूरा उतरा। तभी तो भीरु जाएगा, अन्यथा वह जाने वाला नहीं। भीरु बचाता है। भीरु कसौटी है।
लेकिन उसके खतरे भी हैं। क्योंकि वह नये पर जाने नहीं देता, वह पुराने को पकड़े रहता है। चाहे पुराने से कहीं पहुंच भी न रहा हो तो भी पकड़े रहता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम बीस साल से मंत्र का जाप कर रहे हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कुछ हो रहा है? तो कुछ हो तो नहीं रहा। मंत्र छोड़ो, मैं तुम्हें कुछ और बताऊं। वे कहते हैं, यह कैसे हो सकता है? मंत्र तो गुरु ने दिया था। बीस साल करते भी हो गए; अब छोड़ तो नहीं सकते। कुछ हो भी नहीं रहा। कहीं पहुंच भी नहीं रहे। जैसे निर्भीक नये के प्रति आतुर होता है वैसा भीरु पुराने के प्रति आविष्ट होता है। इतने दिन से कर रहे हैं; कैसे छोड़ दें? वे यह भी सोचते ही नहीं कि पहुंच रहे हैं, नहीं पहुंच रहे हैं? औषधि काम कर रही है, नहीं कर रही है? वह सिर्फ पकड़ने का आदी होता है।
तो भीरु बचाता तो है, लेकिन वह कचरे को भी बचा लेता है। वह गलत को भी बचा लेता है। वह बचाने में ही उत्सुक है। वह अंधी दाई है। उसे पता भी नहीं रहता कि बच्चा मरा हुआ है। तो भी बचाए रखती है, छाती से लगाए रखती है। तुमने कभी बंदरिया को देखा हो, मरे बच्चे को छाती से लगाए वह कई दिनों तक घूमती रहती है। उसे पता ही नहीं कि बच्चा मर गया है।
भीरु को पता ही नहीं चलता कि चीजें जीवित होती हैं वे भी मर जाती हैं; जो मार्ग कभी पहुंचाता था, वह सदा नहीं पहुंचाएगा। मार्ग भी जीते हैं और मर जाते हैं। धर्म भी जन्मते हैं और मर जाते हैं। विचार की पद्धतियां कभी जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं, मरती हैं। इस जगत में हर चीज का मौसम है और हर चीज की अवस्था है। जैसे बच्चे, बूढ़े ऐसे ही धर्म भी बचपन, जवानी, बुढ़ापे से गुजरते हैं। आज से पांच हजार साल पहले कोई चीज जवान थी, वह कभी की मर चुकी। भीरु उसे छाती से लगाए बैठा रहता है। वह यह मान ही नहीं सकता कि जो कभी जिंदा था वह मर कैसे सकता है। वह कहता है, हमारा धर्म सनातन है।
कोई धर्म सनातन नहीं होता। सनातन अस्तित्व है। धर्म तो अस्तित्व की सुनी गई प्रतिध्वनि है किसी प्रज्ञावान पुरुष में। जब प्रज्ञावान पुरुष जीवित होता है तो उसकी सुनी गई प्रतिध्वनि में प्राण होते हैं, बल होते हैं। जैसे-जैसे प्रज्ञावान पुरुष विदा हो जाता है वैसे-वैसे रूढ़ि बन जाती है, जो ज्ञान था वह शास्त्र बन जाता है। जो शब्द निशब्द से आते थे, अब केवल शब्दों की ही भरमार रह जाती है। जो कभी उस प्रज्ञावान पुरुष के शून्य से पैदा होते थे, अब वे केवल शास्त्रों की व्याख्या से पैदा होते हैं। जो कभी ध्यानस्थ समाधि से आए थे, अब वे केवल पंडित के पांडित्य से आते हैं। अब पुरोहित कब्जा कर लेता है।
बुद्ध ने कहा है कि मेरा धर्म पांच सौ साल से ज्यादा नहीं जीएगा। लेकिन अभी भी जी रहा है। कैसे जी रहा है? बंदरिया मरे बच्चे को लेकर घूम रही है। बुद्ध खुद कह गए हैं कि मेरा धर्म पांच सौ साल से ज्यादा नहीं जीएगा। अब बुद्ध की भी सुनने को, जो बुद्ध को मानता है, वह राजी नहीं। वह पकड़े है छाती से। धर्म मर चुका है। उसके प्राण खो गए, उसकी जीवंत गरिमा जा चुकी; अब कुछ सार नहीं है। लेकिन प्राचीन मार्ग है। बुद्ध के द्वारा पैदा हुआ है। अनेक लोग उस पर चल कर प्राचीन समय में बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं। भीरु उसको पकड़े बैठा है। वह छोड़ेगा नहीं।
भीरु बचाता है। लेकिन उसके पास बोध नहीं है। वह गलत को भी बचा लेता है; मुर्दा को भी बचा लेता है; सड़े-गले को भी बचा लेता है। वह सिर्फ बचाता रहता है। वह बचाने में पागल है। उसका रस बचाने में है। वह यह नहीं देखता कि क्या बचा रहा है। वह चुनाव नहीं कर सकता; जैसे निर्भीक चुनाव नहीं कर सकता कि वह कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है; बस नये का बुलावा काफी है।
इसलिए निर्भीक के हाथ में अगर दुनिया हो तो दुनिया में कभी किसी वृक्ष की जड़ें न जम पाएंगी। जमने के पहले कोई दूसरी पुकार आ जाएगी; इस वृक्ष को सम्हालने के पहले दूसरा वृक्ष बुला लेगा। अगर निर्भीक के हाथ में दुनिया हो तो दुनिया में फैशन होंगी, धर्म नहीं हो सकता।
अमरीका में वह हालत है आज। अमरीका आज जवान से जवान मुल्क है; इसलिए बड़ा निर्भय है। आज अमरीकन की चाल में जो निर्भय है, दुनिया की किसी कौम की चाल में नहीं है। हो नहीं सकता। क्योंकि अमरीका का कुल इतिहास तीन सौ साल का है। कोई इतिहास है तीन सौ साल भी? बिलकुल जवान है। जवान भी कहना ठीक नहीं है; बालपन है। तो अमरीका में हर चीज फैशन की तरह है। दो-चार साल टिक जाए तो बहुत। जब आती है आंधी तो ऐसा लगता है कि पूरा अमरीका आत्मसात कर लेगा। कभी महर्षि महेश योगी, कभी मेहरबाबा, कभी सूफीज्म, कभी झेन। अभी आंधी चल रही है तिब्बेतन धर्म की। क्योंकि तिब्बत से लामा भाग खड़े हुए हैं, तिब्बत को छोड़ना पड़ा है। वे सब अमरीका पहुंच गए हैं। बड़ी जोर की आंधी है। पर दो-चार साल से ज्यादा कुछ भी नहीं चलता। क्योंकि अमरीका में अभी भीरुता नहीं है चीजों को पकड़ने की। सुनी आवाज; नया कुछ भी मिला, गए। वह ऐसे ही जैसे कि नये वस्त्र पहनने का आकर्षण होता है; नयी किताब पढ़ने का आकर्षण होता है; नयी स्त्री में सौंदर्य दिखता है; नये पुरुष में सौंदर्य दिखता है। नये का सेंसेशन है, नये की दौड़ है। पर वह फैशन से ज्यादा नहीं। फैशन कितनी देर टिकती है? उसकी कोई जड़ें नहीं होतीं।
एक दिन राह पर मैंने मुल्ला नसरुद्दीन को देखा भागते, एक बंडल बगल में दबाए। मैंने पूछा, क्या इतनी जल्दी है? कहां भागे जा रहे हो? उसने कहा, पत्नी के लिए साड़ी खरीदी है; बातचीत में मत लगाएं, रोकें मत, मुझे जाने दें। मैंने कहा, इतनी क्या जल्दी है? साड़ी खरीदी है, पहुंच जाएगी। उसने कहा, इसके पहले कहीं फैशन बदल जाए! साड़ियों का कोई भरोसा है? कितनी देर फैशन चलता है?
अमरीका में सब चीजें फैशन हैं। निर्भीक के लिए नये में रस है। नया गलत हो तो भी रस है; नया सड़ा-गला हो तो भी रस है; नया किसी सार का न हो, दो कौड़ी का हो, तो भी रस है। वह पुराने हीरे को भी नयी कौड़ी के लिए फेंक सकता है। यह उसका खतरा है। यह उसका दुर्गुण है।
पुराने के साथ, भीरु के साथ यह खतरा है कि अगर नया हीरा भी उसे मिल रहा हो तो भी वह कौड़ी को रखेगा छाती से लगा कर, वह हीरे से भी डरेगा। वह कहेगा, नया है; क्या भरोसा? पुराने का भरोसा है। अगर पुराने भीरु आदमी को समझाना भी हो कुछ नया तो नयी शराब को भी पुरानी बोतल में ढाल कर देना पड़ता है।
इसलिए तो मुझे लाओत्से और बुद्ध और कृष्ण पर बोलना पड़ता है; अन्यथा कोई कारण नहीं है। शराब मेरी है। मेरी ही बोतल भी हो सकती है। मगर मैं चाहूंगा कि भीरु भी उत्सुक हो जाए। वह मुझे सुनने न आएगा, लेकिन मैं गीता पर बोलूंगा तो सुनने आ जाता है। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। शराब तो मेरी है। बोतल कृष्ण की सही। बोतल का भी कोई मूल्य है! तो चलो लाओत्से सही, बुद्ध सही; तुम्हारी नासमझी को थोड़ी तृप्ति मिले, यही सही। नासमझी की तृप्ति से भी अगर कहीं तुम्हारे कानों में मेरे शब्द पड़ जाएं, बोतल के बहाने तुम आ जाओ और शराब मेरी पी लो, बात हो गई।
पुराना होना चाहिए, भीरु आदमी को। फिर पुराना कुछ भी हो। प्राचीन उसका आब्सेशन है, उसकी विक्षिप्तता है; वह प्राचीन का दीवाना है। वह बचाता है। कचरे को भी बचा लेता है, मुर्दे को भी बचा लेता है, सड़े-गले को भी बचा लेता है। क्रांति होने ही नहीं देता। खतरा भी साफ है; लाभ भी साफ है। बचा सकता है वह। जीवंत को भी वही बचाता है।
नये का खतरा और गुण भी साफ है। जीवंत को नया ही खोज पाता है। वही जो भूल करने को तैयार है वही तो नये को खोज पाएगा। जो भूल करने से डरता है वह नये को खोज ही नहीं सकता। जो सौ रास्तों पर जाने को तैयार है चाहे वे गलत हों, वही तो एक उस रास्ते पर पहुंच पाएगा जो सही हो सकता है। सही को खोजने का रास्ता ही क्या है और? गलत करने की हिम्मत! गलत में उतरने का दुस्साहस! भटकने के लिए जो राजी है वही तो हीरा खोज लाएगा। तुम अगर भटकने से डरे हो, हीरा नहीं खोज पाओगे। तो लाभ है निर्भीक का कि वह नये को खोजता है, नये को जन्म देता है। खतरा है निर्भीक का कि नये के नाम पर वह कूड़ा-करकट भी बटोर लाता है, कंकड़-पत्थर ले आता है। वह कहता है, ये नये हैं। और क्या पुराने हीरे को लिए बैठे हो? फेंको!
इसलिए लाओत्से कहता है, "कुछ लाभ भी हैं, कुछ हानि भी।'
संत न तो साधु है, न असाधु; न तो भयभीत-भीरु, न निर्भीक-निर्भय। संत को न नये से संबंध है, न पुराने से; संत को सत्य से संबंध है। सत्य नया भी हो सकता है, पुराना भी। वस्तुतः सत्य न तो नया होता है, न पुराना; सत्य तो शाश्वत है। वह सदा पुराना है और सदा नया है। चिरनूतन! चिरपुरातन! संत की नजर न तो नये से आविष्ट होती है, न पुराने के प्रति पागल होती है। संत नये को जन्म देता है और पुराने को बचाता भी है। वस्तुतः संत नये को जन्म देकर ही पुराने को बचाता है। यह उसकी तरकीब है। यही रास्ता है पुराने को बचाने का कि नये को जन्म दो। वह पुराना हो गया है इसीलिए कि तुम उसे फिर-फिर जन्म नहीं दे पा रहे हो। किसी भी चीज को नया रखने का एक ही रास्ता है और वह यह है कि उसे प्रतिपल जन्म दो। बुद्धत्व कोई नयी चीज को थोड़े ही लाता है; वही जो सदा से थी, उसे फिर से नये रूप में ले आता है। पुराने रूप पुराने पड़ गए। पुराना ढंग-ढांचा जराजीर्ण हो गया। पुराना अब सम्हाल नहीं पाता उस आत्मा को। पुराने घर को आत्मा ने छोड़ दिया, क्योंकि वह घर रहने योग्य न रहा, खंडहर हो गया।
बुद्ध पुरुष नया घर बनाते हैं। आत्मा तो पुरानी ही है सदा। नया रूप देते हैं; नया निमंत्रण भेजते हैं आत्मा को कि अवतरित हो जाओ। बुद्ध पुरुष बार-बार धर्म को अवतरित करते हैं।
धर्म तो एक ही है। धर्म का अर्थ है स्वभाव, जिसको लाओत्से ताओ कहता है; वह तो एक ही है। वह न नया है, न पुराना है; वह समय के बाहर है। जब भी हम उसे समय में लाते हैं तो रूप देना पड़ता है। रूप पुराने पड़ जाएंगे। जब रूप पुराने पड़ जाएंगे तो रूपों को तोड़ देता है संत पुरुष, नये रूप ले आता है।
लेकिन संत को पहचानना कठिन है। क्योंकि तुम्हारी भाषा में भयभीत भी समझ में आ जाता है, निर्भीक भी समझ में आ जाता है। निर्भीक है क्रांतिकारी, भीरु है परंपरावादी। वे दोनों तुम्हारी समझ में आते हैं, क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संत कठिन होगा समझना: परंपरावादी + क्रांतिकारी। वह दोनों है एक साथ; वह सबको समेट लिया है उसने; न तो क्रांति वर्जित है, न परंपरा वर्जित है। और जब क्रांति और परंपरा का मेल होता है, तभी--केवल तभी--जैसे शरीर और आत्मा का मेल होता है तभी जीवन प्रकट होता है, ऐसे ही परंपरा और आत्मा का जब मेल होता है तभी धर्म प्रकट होता है, धर्म का जीवन प्रकट होता है। परंपरा है शरीर; क्रांति है आत्मा।
अगर तुम ऐसी कीमिया बना सको कि तुम परंपरा और क्रांति को, दोनों को एक साथ सम्हाल लो--एक हाथ में क्रांति, एक हाथ में परंपरा--तो ही तुम संतत्व को उपलब्ध हो पाओगे। तब तुम में वे सारे गुण होंगे जो निर्भीक के हैं और वे दुर्गुण न होंगे जो निर्भीक के हैं; वे सारे गुण होंगे जो भीरु के हैं और वे दुर्गुण न होंगे जो भीरु के हैं। तब तुमने सदगुणों का समुच्चय पैदा कर लिया।
"यद्यपि स्वर्ग कुछ लोगों को नापसंद कर सकता है, तो भी कौन जानता है कि किन्हें मारा जाए और क्यों?'
लाओत्से कहता है कि उस परम स्वभाव के कुछ लोग अनुकूल होंगे, कुछ लोग प्रतिकूल होंगे। जो प्रतिकूल होंगे वे अपने आप ही कष्ट पाते रहेंगे। लेकिन कौन निर्णय करे कि किसे मारा जाए? क्यों मारा जाए?
"संत पुरुष भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।'
साधु-असाधु के तो बस के बाहर है यह तय करना। क्योंकि साधु का तो निर्णय पहले से है कि असाधु को मारा जाए और असाधु भी निर्णीत है कि साधुओं को मिटाया जाए। उनका द्वंद्व तो साफ है।
"संत पुरुष भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।'
किसे मारा जाए? किसे बचाया जाए? क्यों? यह जटिल है प्रश्न। और जितना तुम्हारा ज्ञान गहन होगा उतना ही जटिल होता जाता है। क्योंकि एक ऐसी घड़ी आती है तुम्हारे परम ज्ञान की जब तुम देखते हो कि चीजें प्रतिपल अपने से विपरीत में रूपांतरित होती रहती हैं। जिस असाधु को तुमने आज मार दिया, क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि वह कल साधु न हो जाता? क्योंकि हमने बाल्मीकि को साधु होते देखा है असाधु से। तो इस असाधु को मारने में तुम्हारा क्या निर्णय है कि यह कल साधु न हो जाता? कौन कह सकता है कि तुमने असाधु मारा और कल होने वाला साधु नहीं मार दिया? बहुत असाधु साधु हुए हैं। वस्तुतः साधु होने का एक ही उपाय है और वह असाधु होने से निकलता है।
एक छोटे चर्च में एक पादरी बच्चों को समझा रहा था कि परमात्मा तक पहुंचने का उपाय क्या है, स्वर्ग को पाने का उपाय क्या है, कैसे कोई व्यक्ति परमात्मा की अनुकंपा पा सकता है। आशा कर रहा था कि बच्चे जवाब देंगे; कोई कहेगा प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा-अर्चना, कोई कहेगा ध्यान, पुण्य कृत्य, आचरण, सदाचरण। एक छोटे बच्चे ने हाथ ऊपर उठाया। पादरी ने पूछा कि क्या है मार्ग परमात्मा को पाने का? उसने कहा, पाप। क्योंकि बिना पाप किए प्रायश्चित्त न हो सकेगा। बिना प्रायश्चित्त के कभी कोई उपलब्ध हुआ है।
किसे मिटाया जाए? पापी को तुम मिटा रहे हो तो तुम बीज रूप में पुण्यात्मा को मिटा रहे हो। क्योंकि पापी कभी पुण्यात्मा होगा ही। पापी कब तक पापी रह सकता है? अगर पापी होने में पीड़ा है तो बस थोड़ी प्रतीक्षा की बात है। धैर्य रखो, मिटाओ मत। पापी अपनी पीड़ा से ही पुण्यात्मा होगा। और तुम मिटा कर उसे पुण्यात्मा न बना सकोगे। क्योंकि जिसे तुमने मिटा दिया उसे तुम प्रतिशोध से भर दोगे।
इसे थोड़ा समझ लो। जिसको भी समाज मिटाने को राजी हो जाता है वह भी समाज के प्रति प्रतिरोध से भर जाता है। और उसके प्रतिरोध का अर्थ होगा कि तुम जो चीज बदलना चाहते हो, वह वह न बदले। अपराधियों को दंड दे-देकर हमने अपराधी बढ़ाए हैं, कम नहीं किए। क्योंकि दंड अहंकार को चोट पहुंचाता है। और जब तुम किसी को दंड देते हो तो उसके मन में यही भाव उठता है कि और करके दिखाऊंगा, यही करके दिखाऊंगा, यद्यपि अगली बार थोड़ी कुशलता से करूंगा कि पकड़ा न जा सकूं। इसके अतिरिक्त कोई भाव नहीं उठता। दंड देने से तुमने कभी किसी को बदलते देखा है? कभी दुनिया में ऐसा हुआ है कि दंड देकर कोई बदला हो?
लेकिन अंधापन हद्द है! हम दंड दिए जाते हैं। हम जितना दंड देते हैं उतने कारागृह बड़े होते जाते हैं। हर साल नये कारागृह बनते हैं, नयी अदालतें खड़ी होती हैं, नये पुलिस, नये संरक्षक, और यह बढ़ता जाता है सिलसिला। इसका कोई अंत नहीं मालूम होता। ऐसा लगता है, अगर ऐसा ही चलता रहा तो कभी न कभी पूरी पृथ्वी अपराधगृह हो जाएगी। संख्या बढ़ती ही जाती है।
दंड से कोई भी तो कभी रूपांतरित नहीं हुआ। दंड से तो आदमी पतित ही हुआ है।
मनसविद कहते हैं कि जो आदमी एक बार दंडित हो जाता है फिर वह बार-बार कारागृह आने लगता है। और हर बार बड़ी सजा पाता है, क्योंकि हर बार बड़ा अपराध करके आता है। तुम भी जानते हो, छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि उनसे तुम कहो कि मत करो यह, तो उनके भीतर एक प्रबल आकांक्षा पैदा होती है करने की। क्योंकि आखिर तुम जब कहते हो मत करो, तो तुम उसके अहंकार को भयंकर आघात पहुंचा रहे हो। करके ही वह अपने अहंकार को बचा सकेगा, अन्यथा कोई उपाय नहीं है।
तुम्हें पता नहीं कि तुमने कितने अपराध बच्चों में इसीलिए पैदा करवा दिए हैं क्योंकि तुमने सिखाया कि मत करो। असल में, बच्चों को पता ही नहीं होता कि झूठ बोलना पाप है। जब तुम कहते हो कि झूठ बोलना पाप है तब उन्हें पहली दफा पता चलता है कि झूठ बोलने में जरूर कोई रस होगा। क्योंकि पाप में रस होता ही है। जिन चीजों को तुमने पाप कहा है वे सब रसपूर्ण हो गईं; तुम्हारे पाप कहने से और भी रसपूर्ण हो गईं। और तुमने जिन चीजों के लिए दंड दिया है, वर्जना की है, उनमें आकर्षण पैदा हो गया।
यहां दरवाजे पर लिख दो कि भीतर झांकना मना है। फिर यहां से कोई हिम्मतवर निकल न सकेगा बिना झांके। झांकेगा ही। तुमने जहां-जहां लिखा देखा हो कि यहां पेशाब करना मना है, वहां तुम्हें नीचे सौ आदमियों के चिह्न पेशाब करने के वहीं मिलेंगे उसी वक्त। असल में, जिस दीवाल पर लिखा हो यहां पेशाब करना मना है, वहां आते ही अचानक पेशाब लग आती है।
किसी ने कभी ऐसा किया नहीं, लेकिन तुम करके देखना। अगर कोई दीवाल बचानी हो तो उस पर लिख देना कि यहां से बिना पेशाब किए जाना सख्त मना है; अगर गए तो बहुत बुरा होगा। वहां जिस आदमी को पेशाब भी लगी हो वह भी रोक लेगा। आखिर आदमी आदमी है; इज्जत का सवाल है। ऐसे कोई मजबूर कर सकता है? ऐसे कोई जबरदस्ती कर सकता है किसी पर?
अहंकार जबरदस्ती से प्रतिशोध करता है, प्रतिरोध करता है, रेसिस्ट करता है।
इसलिए लाओत्से कहता है, "कौन जानता है किन्हें मारा जाए और क्यों? संत भी इसे कठिन प्रश्न की तरह लेते हैं।'
यह निर्णय करना मुश्किल है। यह निर्णय वस्तुतः किया ही नहीं जा सकता। फिर हम कौन हैं निर्णय करने वाले? जीसस ने कहा है, जज यी नाट, तुम निर्णय लो ही मत। क्योंकि तुम्हारे सब निर्णय गलत होंगे।
"स्वर्ग का मार्ग--ताओ--बिना संघर्ष के विजय में कुशल है।'
मारने की जरूरत नहीं है। तुम छोड़ो परमात्मा पर। तुम छोड़ो जीवन के परम रहस्य पर। वह बिना मारे बदलने में समर्थ है। वह बिना मिटाए रूपांतरित करवा देता है। उसकी कला क्या है?
उसकी कला कि जब भी तुम पाप करते हो, तुम स्वयं ही पीड़ा पाते हो। पाप में ही उसका दंड छिपा है। कोई तुम्हें दंड नहीं देता, इसलिए तुम प्रतिशोध भी नहीं कर सकते। तुम अपने ही द्वारा दंड पाते हो। अगर कोई तुम्हें दंड न दे तो पाप करके तुम पाओगे तुमने अपने को ही दंडित किया। जैसे सिर फोड़ लिया दीवाल से जब कि दरवाजा खुला था और तुम बिना सिर फोड़े निकल सकते थे। कितनी देर तुम सिर फोड़ते रहोगे? तुम्हारा ही सिर है। तुम कितनी देर तक अपने को पीड़ा में डुबाए रखोगे? कब तक तुम नरक को निर्मित करोगे?
स्वर्ग का मार्ग, ताओ--धर्म का मार्ग या परमात्मा का मार्ग--तुम्हें दंडित करना नहीं है, और न तुम्हें पुरस्कृत करना है। तुम्हें छोड़ देना है स्वतंत्र, ताकि तुम अपने ही कृत्यों से दंडित हो जाओ, अपने ही कृत्यों से पुरस्कृत। किसी और के विरोध में प्रतिशोध में तुम्हारे अहंकार के खड़े होने का उपाय भी नहीं छोड़ा गया है। तुम अकेले छोड़ दिए गए हो। तुम्हें पूरा दायित्व दे दिया गया है। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। भोग लो पीड़ा भोगनी हो तो, लेकिन जानना कि तुमने ही चुनी थी। पा लो आनंद अगर पाना हो। पुण्य के साथ आ जाता है आनंद, जैसे फूलों के साथ सुवास; पाप के साथ आ जाती है पीड़ा। जुड़े हैं। कोई और तुम्हें देता नहीं, तुम्हीं देते हो। तुम्हीं बोते हो, तुम्हीं फसल काटते हो। कोई दूसरा बीच में आता नहीं।
यही है वह कुशल मार्ग, जिसको लाओत्से कहता है, बिना संघर्ष के विजय में कुशल है।
"बिना शब्द के वह पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है।'
बिना शब्द के! कोई आवाज नहीं होती कि तुम दंडित किए जा रहे हो और दंड घटित हो जाता है। कोई न्यायाधीश नहीं बैठा है जो तुम्हें धन्यवाद देता हो, पुरस्कार देता हो, और तुम पुरस्कृत हो जाते हो।
"बिना शब्द के वह पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है।'
बिना शब्द के घट रहा है, क्योंकि पाप में ही छिपा है उसका दंड और पुण्य में ही छिपा है उसका पुरस्कार। बाहर नहीं है, बाहर से नहीं आता, तुम्हारे ही कृत्य के भीतर से खिलता है। इसलिए बिना शब्द के घटित हो जाता है।
अगर लाओत्से की मानी जा सके बात तो पृथ्वी पर सब दंड और पुरस्कार की व्यवस्थाएं बंद कर दी जानी चाहिए। क्योंकि दंड देकर हम किसी को बदल नहीं पाए; पुरस्कार देकर किसी को बदल नहीं पाए। आदमी गिरता ही गया है। असल में, समाज ने सोचा है कि परमात्मा की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ व्यवस्था की जा सकती है। वहीं भूल है। छोड़ दो लोगों को उनके ही कृत्यों पर, ताकि वे खुद ही निर्णय ले सकें, ताकि वे खुद ही जान सकें कि कौन सा कृत्य दुख में ले जाता है। किस रास्ते पर कांटे हैं और किन रास्तों पर फूल हैं, उन्हें चुनने दो। कोई दूसरा बीच में न आए। तो जल्दी ही निर्णय हो जाएगा। देर न लगेगी, वे खुद ही जान लेंगे। उलझाव नहीं होगा; सीधी बात होगी। गणित साफ होगा। पर समाज डरता है कि ऐसा लोगों को छोड़ दें तो कहीं बिगड़ न जाएं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, बुद्धिमान लोग, विचारशील लोग, वे कहते हैं कि आप जो बातें कहते हैं उससे तो स्वच्छंदता फैल जाएगी। मैं उनसे पूछता हूं, क्या तुम कह सकते हो कि स्वच्छंदता फैली नहीं है? वे कहते हैं, आप जो कहते हैं उससे तो लोग बड़े अपराधी हो जाएंगे। मैं उनसे पूछता हूं, क्या लोग अपराधी नहीं हैं? इससे ज्यादा पाप और क्या हो सकता है दुनिया में? इससे बुरा और क्या हो सकता है जैसा है?
वे अकारण डरे हुए हैं, व्यर्थ ही भयभीत हैं। और मजा यह है कि उनकी व्यवस्था के कारण लोग ज्यादा पापी हैं। उनकी व्यवस्था के कारण लोग यह देख ही नहीं पाते कि पाप में उसकी पीड़ा है। तुम पीड़ा देते हो तो उनको लगता है, न्यायाधीश पीड़ा दे रहा है, समाज पीड़ा दे रहा है। तुम्हारी पीड़ा के कारण उनमें विरोध पैदा होता है। विरोध के कारण वे उन्हीं कृत्यों को बार-बार दोहराते हैं जो तुम रोकना चाहते हो। और कुशलता से दोहराते हैं। और जितने लोग जेलों में बंद हैं उनसे हजार गुने लोग बाहर मौजूद हैं जो वही कृत्य कर रहे हैं, लेकिन ज्यादा कुशलता से कर रहे हैं।
असल में, बड़े पापी सदा बाहर रहते हैं, छोटे पापी फंस जाते हैं। बड़े पापी राजधानियों में बैठे हैं; छोटे पापी जेलों में सड़ रहे हैं। जो बहुत कुशल है उसको कानून पकड़ नहीं पाता। कैसा भी कानून बनाओ, कुशल आदमी कानून से बाहर निकलने का रास्ता खोज लेता है। कितनी भी व्यवस्था करो, आखिर जो व्यवस्था करता है आदमी वह आदमी ही है। तो आदमी की व्यवस्था को दूसरा आदमी तोड़ सकता है, क्योंकि दोनों की बुद्धिमत्ता एक जैसी है। तो दिल्ली में बैठ कर लोग कानून बनाते रहते हैं। जो कानून बनाने वाले हैं, वह भी आदमी की बुद्धि है। और सारे मुल्क में बैठ कर लोग कानून तोड़ते रहते हैं, क्योंकि वहां भी आदमी की बुद्धि है। आदमी ऐसा कानून कभी भी न बना सकेगा जिसे आदमी न तोड़ सके। सिर्फ परमात्मा ही ऐसा नियम बना सकता है जो आदमी न तोड़ सके।
लेकिन तुम्हारे कानून की वजह परमात्मा के कानून अंधेरे में पड़ गए हैं। वे पीछे हो गए हैं। तुम पापी को देखने ही नहीं देते कि पाप के कारण तुझे दुख मिल रहा है। तुम्हारी अदालतें उसे धोखा दे देती हैं। वह सोचता है, अदालतें दुख दे रही हैं। अगर न पकड़ाया गया होता तो क्यों ऐसा दुख मिलता? अगली बार ऐसी कोशिश करूंगा न पकड़ा जाऊं। उसकी नजर ही तुम खराब किए दे रहे हो। पाप का दुख भीतर से आ रहा है; तुम बाहर से दुख देने की कोशिश में उसकी नजर को बाहर अटका रहे हो। वह देख ही नहीं पाता कि सिर मैं खुद ही तोड़ रहा हूं दीवाल से टकरा कर, कोई अदालत नहीं मुझे दंड दे रही। मैं मर रहा हूं खुद ही पाप में डूब-डूब कर; मैं जीवन को खो रहा हूं। और जहां आनंद का नृत्य हो सकता था वहां केवल पीड़ा के आंसू हैं। और कांटे मैंने ही बोए हैं, कोई दूसरा मेरे लिए नहीं बो रहा है। तुम्हारी समाज की व्यवस्था ऐसी भ्रांति पैदा करती है कि दूसरे तुम्हारे लिए कांटे बो रहे हैं। तो प्रतिकार लो, लड़ो, संघर्ष करो।
लाओत्से कहता है, "बिना संघर्ष के ताओ, स्वर्ग का मार्ग, विजय में कुशल है। बिना शब्द के पाप और पुण्य को पुरस्कृत करता है। बिना बुलावे के वह प्रकट हो जाता है।'
तुम्हें बुलाने की भी जरूरत नहीं है। अदालत को तो बुलाना पड़ेगा। पुलिस को आवाज देनी पड़ेगी। कानून को पुकारना पड़ेगा, तब कानून आएगा। परमात्मा का मार्ग तुम्हारे बुलावे के लिए प्रतीक्षा नहीं करता। तुमने कुछ किया, वहीं परमात्मा का नियम मौजूद है। तुमने कुछ सोचा, वहीं परमात्मा का नियम मौजूद है। इधर भाव की तरंग हिली, वहां फल तैयार होने लगा। यहां विचार उठा, वहां परिणाम शुरू हो गया। देर नहीं है क्षण भर की।
"बिना बुलावे के वह प्रकट होता है। बिना स्पष्ट योजना के फल प्राप्त करता है।'
न तो उसने जाल बिछाया है अदालतों का; न हर चौराहे पर पुलिस के आदमी खड़े किए हैं। न कानूनों की कोई किताब है, कोई इंडियन पेनल कोड नहीं है; न कोई धाराएं हैं। तुम बचना भी चाहोगे तो कैसे बचोगे? कानून की धाराएं होतीं तो वकील कर लेते। परमात्मा और तुम्हारे बीच तुम वकील भी तो नहीं कर सकते।
हालांकि तुमने करने की कोशिश की है। और कुछ लोगों ने दावे किए हैं कि वे वकील हैं। तुम्हारे पुरोहित हैं, पंडे हैं, वे दावे करते हैं कि हम वकील हैं। तुम घबड़ाओ मत, हम इंतजाम जमा देंगे। तुम हमें पैसा दो, फीस चुका दो; हम यज्ञ करवा देंगे, हम पूजा करेंगे, स्तुति करेंगे, परमात्मा को राजी करवा देंगे। तुम बेफिक्री से चोरी करो। छोटा मंदिर बना दो घर में, हम आकर घंटी हिला कर पूजा कर जाएंगे तुम्हारी तरफ से।
वकील हैं। लेकिन वहां वकालत चल नहीं सकती। क्योंकि वहां कोई नियम-कानून नहीं हैं, तोड़ोगे कैसे? कानून लिखा हो, तोड़ा जा सकता है। जिस स्त्री से तुमने विवाह किया हो, तलाक लिया जा सकता है। लेकिन जिस स्त्री से विवाह न किया हो, प्रेम किया हो, तलाक कैसे लोगे? विवाह के साथ तलाक है। कानून के साथ तोड़ने का उपाय है। अगर तुमने लिख कर दे दिया है कोई दस्तावेज तो बच सकते हो। लेकिन जब तुमने कुछ लिखा हुआ ही नहीं है, सब अनलिखा है, कहां बचोगे? कहां भागोगे? कहां से तरकीब निकालोगे?
लाओत्से बड़ी महत्वपूर्ण बात कह रहा है। वह कह रहा है, "बिना स्पष्ट योजना के फल प्राप्त करता है।'
परमात्मा ने कोई योजना का जाल नहीं बिछाया हुआ है। नहीं तो कुछ न कुछ कुशल लोग निकल आते जो उसमें से बाहर निकल जाते। जाल ही नहीं है, बचोगे कैसे? भागोगे कहां? जहां जाओगे उसे ही पाओगे। स्पष्ट उसकी योजना नहीं है। सब बड़ा रहस्यपूर्ण है। इसलिए बचने का उपाय नहीं है।
"स्वर्ग का जाल व्यापक और विस्तृत है।'
सब तरफ है। जहां तुम हो वहीं है। तुम भी स्वर्ग के जाल के हिस्से हो।
"उसमें बड़े-बड़े छिद्र हैं, तो भी उसमें से कुछ निकल नहीं पाता।'
बड़े-बड़े छिद्र का अर्थ है, बड़ी स्वतंत्रता है। फिर भी तुम भाग न पाओगे। क्योंकि जहां भी तुम जाओगे उसी को पाओगे। उसी का नियम हमेशा नीचे पैरों के तुम्हारी भूमि बनाता है। उसी का नियम आकाश बनाता है। उसी का नियम तुम्हें बनाता है। स्वतंत्रता पूरी है। तुम जो भी चाहो करो। तुम बुरा करो तो भी वह मौजूद है, और तत्क्षण तुम दुख पाओगे। तुम भला करो तो भी वह मौजूद है, तत्क्षण तुम पाओगे कि अमृत की तुम्हारे आस-पास वर्षा हो गई। स्वतंत्रता तुम्हें पूरी है। तुम नरक बनाना चाहो नरक बनाओ; स्वर्ग बनाना चाहो स्वर्ग बनाओ। लेकिन तुम जाल के बाहर न जा सकोगे। छेद बड़े-बड़े हैं। बड़ी खूबी की बात है कि परमात्मा ने किसी की स्वतंत्रता को जरा भी नहीं रोका है। परमात्मा ने तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दी है कि वह कभी तुम्हारे आस-पास सामने खड़ा भी नहीं होता, क्योंकि उसके खड़े होने से परतंत्रता आ सकती है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि परमात्मा दिखाई क्यों नहीं पड़ता? मैं उनसे कहता हूं, क्योंकि वह चाहता है तुम स्वतंत्र रहो। वह दिखाई पड़े, तुम्हारी स्वतंत्रता खंडित हो जाएगी। परमात्मा सामने खड़ा हो; तुम कैसे पाप कर पाओगे? परमात्मा मौजूद हो तो अंकुश पैदा हो जाएगा। उसकी मौजूदगी ही अंकुश पैदा कर देगी। जैसे छोटा बच्चा बैठा हो, सिगरेट पी रहा हो, और बाप आ जाए! तो जल्दी से सिगरेट को छिपा लेगा। स्वतंत्रता खो गई। अगर परमात्मा मौजूद हो तो उसकी मौजूदगी, उसकी महिमा, तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर देगी।
इसलिए मैं कहता हूं, उसकी बड़ी कृपा है कि वह तुम्हें कहीं मिलता नहीं। फिर भी तुम उससे बच न पाओगे। स्वतंत्रता पूरी है, लेकिन स्वतंत्रता के नीचे भी आधार उसी का है। उसने खुला आकाश तुम्हें दिया है कि जहां तक उड़ना चाहो उड़ो; अपने पंख भी तोड़ लेना हो तो भी कोई हर्जा नहीं, उड़ो और तोड़ डालो। आत्महत्या करनी हो तो भी स्वतंत्र हो, कोई रोकेगा न, कोई हाथ बीच में आकर कहेगा न कि यह क्या कर रहे हो? मैंने तुम्हें जीवन दिया और तुम जीवन नष्ट कर रहे हो? कोई तुम्हें रोकेगा न, कोई प्रतिध्वनि सुनाई न पड़ेगी। तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो। और फिर भी तुम उससे बच नहीं सकते।
"बड़े-बड़े छिद्र हैं उसके जाल में, तो भी उसमें से कुछ निकल नहीं पाता।'
यह तो बड़ी जटिल बात हो गई। तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो, फिर भी स्वच्छंद नहीं। तुम्हारी स्वतंत्रता बेशर्त है, फिर भी तुम्हारी स्वतंत्रता अराजकता नहीं है। तुम्हारी स्वतंत्रता के पीछे भी नियम है।
उस नियम को ही लाओत्से ताओ कहता है। उसी नियम को हमने इस मुल्क में धर्म कहा है, बुद्ध ने धम्म कहा है। धर्म और ताओ का एक ही अर्थ होता है। धर्म का अर्थ होता है जिसने तुम्हें धारण किया है। तुम उससे भाग न सकोगे। क्योंकि वही तुम्हें धारण किए है, तुम भागोगे कहां? तुम जाओगे कहां? जहां जाओगे, उसी के हाथ तुम्हें सम्हाले हैं। नरक में भी वही तुम्हें सम्हालेगा; स्वर्ग में भी वही तुम्हें सम्हालेगा। तुम और सब चीजों से भाग सकते हो, तुम अपने जीवन के आंतरिक धर्म से न भाग सकोगे। धर्म वही है जो तुम्हें सम्हाले है, और सदा तुम्हें सम्हालेगा। तुम्हारी बुराई में भी सम्हालेगा; तुम्हारी भलाई में भी सम्हालेगा। तुम्हें अड़चन भी न देगा कि तुम यह मत करो। परमात्मा तुमसे कभी कहता ही नहीं कि तुम क्या करो और क्या न करो। करने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन एक बात ध्यान रखना: हर कृत्य का परिणाम है; उसको भोगने के लिए भी तुम राजी रहना। कृत्य की स्वतंत्रता है, परिणाम का बंधन है। तुम पाप करने को स्वतंत्र हो, लेकिन पीड़ा भोगने में परतंत्र हो। तुम पुण्य करने को स्वतंत्र हो, लेकिन सुख लेने में परतंत्र हो। वह तुम्हें लेना ही पड़ेगा। अब तक ऐसा हुआ ही नहीं कि कोई आदमी ने पुण्य किया हो और सुख लेने से छुटकारा पा लिया हो। वह नहीं हो सकता। बीज बोने में तुम स्वतंत्र हो, लेकिन फिर फल भी तुम्हें ही काटने पड़ेंगे। वहां तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं है। इसलिए बीज बोते वक्त सावधानी बरतना।
हमारी सबकी चेष्टा यही है कि बीज तो हम कड़वे बोएं, और फल हम मीठे काट लें। पाप तो हम करें, और सुख मिल जाए। यही तो हमारी सारी चेष्टा है। यह चेष्टा सफल न होगी। कृत्य के लिए तुम स्वतंत्र हो; फिर परिणाम हर कृत्य का बंधा हुआ है।
ऐसा हुआ। बड़ी मीठी घटना है कि मोहम्मद के शिष्य अली ने मोहम्मद से पूछा कि आपकी बातें सुन कर ऐसा लगता है कि हम परम स्वतंत्र भी हैं और परम परतंत्र भी; ये दोनों विरोधाभास कैसे फलित हो रहे हैं?
मोहम्मद तो सीधे-सादे आदमी थे। वे कोई बड़े दार्शनिक न थे, कुछ पढ़े-लिखे न थे। इसलिए मोहम्मद की बात में जो सचोट अभिव्यक्ति है, वह तुम्हें मुश्किल से कहीं मिलेगी। कभी किसी कबीर में मिल सकती है; महावीर में न मिलेगी वह चोट, कृष्ण में न मिलेगी, बुद्ध में न मिलेगी। क्योंकि वे बड़े परिष्कृत लोग थे, बड़े सुसंस्कृत लोग थे। मोहम्मद तो बिलकुल अपढ़ गंवार। लिखना भी पता नहीं कि कैसे लिखें। बड़ी चोट है, क्योंकि उनकी जीवन की अनुभूति सीधी-सीधी है। शब्दों की आड़ नहीं है, शास्त्रों का फैलाव नहीं है।
मोहम्मद ने कहा, तू ऐसा कर अली कि खड़ा हो जा और कोई भी एक पैर ऊपर उठा ले। अली ने बायां पैर ऊपर उठा लिया। मोहम्मद ने कहा कि अब तू दायां भी उठा ले। उसने कहा, अब आप जरा ज्यादती कर रहे हैं। बायां जब उठा लिया तो अब दायां नहीं उठा सकता। मोहम्मद ने पूछा कि मैं तुझसे यह पूछता हूं कि जब मैंने पहली दफा तुझसे कहा कि कोई भी पैर उठा ले, तब तू स्वतंत्र था या नहीं?
अली ने कहा, बिलकुल स्वतंत्र था; चाहता तो दायां उठाता, चाहता तो बायां।
लेकिन अब तू क्या अनुभव कर रहा है? बायां तूने उठा लिया, अब दायां क्यों नहीं उठा सकता? अब तू परतंत्र अनुभव कर रहा है। बिलकुल स्वतंत्र था शुरू में, तू कोई भी पैर उठा लेता, लेकिन उस पैर के उठाने के कारण अब तू परतंत्र है।
अब उसका परिणाम है कि अब तू दाएं को नहीं उठा सकता; बायां उठा लिया, अब दायां नहीं उठा सकता। मोहम्मद ने कहा, ऐसी ही है परम स्वतंत्रता मनुष्य की, और ऐसी ही है परम परतंत्रता।
कृत्य करने को तुम राजी हो। जो भी कृत्य तुमने किया, बिलकुल स्वतंत्र थे। कोई तुमसे कह न रहा था कि तुम यह करो। लेकिन जब तुमने कृत्य कर लिया, एक पैर उठ गया, दूसरा पैर बंध गया। वह दूसरा पैर है परिणाम का। कर्म की स्वतंत्रता है, कर्म-फल की स्वतंत्रता नहीं।
इसलिए अगर तुम चाहते हो कि परिपूर्ण स्वतंत्र रहो तो कर्म करने के पहले सोच लेना। कर्म करने के बाद तुम स्वतंत्र न रह जाओगे। छूट बड़ी है, बड़े-बड़े छेद हैं उसके जाल में, लेकिन तुम उससे भाग न पाओगे। कोई उससे बच नहीं सकता है। प्रत्येक कृत्य के पहले स्वतंत्रता तुम्हारे द्वार पर खड़ी होती है। और प्रत्येक कृत्य के बाद परतंत्रता खड़ी हो जाती है।
इसलिए तो हिंदू कहते रहे हैं कि कर्म से जो छूट गया वही वस्तुतः छूटता है। जो कर्म से छूट जाता है वह न तो स्वतंत्र रह जाता, न परतंत्र; उसको हम मुक्त कहते हैं। वह दोनों से मुक्त हो जाता है। उसका फिर कोई आवागमन नहीं है। फिर जैसे अब वह परमात्मा के जाल में फंसी मछली न रहा, बल्कि स्वयं परमात्मा का जाल हो गया, परमात्मा के साथ एक हो गया।
हमारे पास तीन शब्द हैं जो बड़े महत्वपूर्ण हैं। और वैसे शब्द दुनिया की और भाषाओं में नहीं हैं, वह भी विचारणीय है। एक शब्द है नरक; दुनिया की भाषाओं में उसके लिए शब्द हैं। स्वर्ग; उसके लिए भी शब्द हैं। तीसरा शब्द है मोक्ष; उसके लिए दुनिया की किसी भाषा में कोई शब्द नहीं है। नरक, बुरा तुमने किया उसका परिणाम है। स्वर्ग, भला तुमने किया उसका परिणाम है। मोक्ष, तुमने कुछ भी न किया, न भला न बुरा; न सोचा, न भला न बुरा; न भाव किया, न भला न बुरा; तुम निर्भाव, निर्विचार, अकर्ता हो गए, अकर्म में डूब गए; उस दशा में जो फलेगा वह मोक्ष है। उस दशा में तुम परमात्मा ही हो गए। वह परम मुक्ति है।
स्वर्ग भी बंधन है, क्योंकि सुख लेने के लिए तुम मजबूर किए जाओगे। उससे तुम बच नहीं सकते। तुमने पुण्य किया, सुख तुम्हें लेना ही पड़ेगा। तुम यह नहीं कह सकते कि पुण्य मैंने किया, अब मैं सुख नहीं लेना चाहता। वह मजबूरी है। वह लेना ही पड़ेगा। पाप किया, दुख लेना ही पड़ेगा। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं नहीं लेना चाहता। एक पैर उठा लिया, दूसरा फंस गया।
एक ऐसी भी दशा है चेतना की जब तुम न पुण्य करते न पाप, जब तुम करते ही नहीं, जब तुम अकर्ता हो जाते हो। वही परम समाधि है। उस परम समाधि को उपलब्ध व्यक्ति परमात्मा हो जाता है।

आज इतना ही।


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