दिनांक
4 जुलाई 1974
(प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
गुरु
पूर्णिमा के
इस पवित्र
अवसर पर हमारे
शत-शत नमन
स्वीकार
करें।
भगवान!
एक सद्गुरु ने
अपने शिष्य को
आवाज दी, 'होशिन!'
गुरु
का नाम था कोकुशी।
गुरु
की आवाज पर
शिष्य ने कहा, 'जी।'
कोकुशी
ने दुबारा
पुकारा, 'होशिन!'
और
शिष्य ने फिर
कहा, 'जी।'
लेकिन
गुरु ने तीसरी
बार भी आवाज
दी, 'होशिन!'
और होशिन फिर
बोला, 'जी।'
कोकुशी
ने तब होशिन
से कहा, 'इस भांति
बार-बार
पुकारने के
लिये
मुझे
तुमसे क्षमा
मांगनी
चाहिये, लेकिन
वस्तुतः
तो तुम्हीं
मुझसे क्षमा
मांगो तो ठीक
है।'
नींद
बहुत गहरी है।
शायद नींद
कहना भी ठीक
नहीं, बेहोशी
है। कितना ही पुकारो, नींद के
परदे के पार
आवाज नहीं
पहुंचती।
चीखो और चिल्लाओ
भी, द्वार खटखटाओ, सपने काफी मजबूत
हैं। थोड़े
हिलते हैं, फिर वापिस
अपने स्थान पर
जम जाते हैं।
गुरु
का एक ही अर्थ
है: तुम्हारी
नींद को तोड़ देना।
तुम्हें जगा
दे, तुम्हारे
सपने बिखर
जाएं, तुम
होश से भर
जाओ।
निश्चित
ही काम कठिन
है। और न केवल
कठिन है बल्कि
शिष्य को
निरंतर लगेगा
कि गुरु विध्न
डालता है।
जब
तुम्हें कोई
साधारण नींद
से भी उठाता
है तब भी
तुम्हें लगता
है, उठानेवाला मित्र नहीं,
शत्रु है।
नींद प्यारी
है। और यह भी
हो सकता है कि
तुम एक सुखद
सपना देख रहे
हो और चाहते
थे कि सपना
जारी रहे।
उठने का मन
नहीं होता। मन
सदा सोने का
ही होता है।
मन
आलस्य का
सूत्र है।
इसलिए जो भी
तुम्हें झकझोरता
है, जगाता है,
बुरा मालूम
पड़ता है। जो
तुम्हें
सांत्वना देता
है, गीत
गाता है, सुलाता
है, वह
तुम्हें भला
मालूम पड़ता
है। सांत्वना
की तुम तलाश
कर रहे हो, सत्य
की नहीं। और
इसलिए
तुम्हारी
सांत्वना की
तलाश के कारण
ही दुनिया में
सौ गुरुओं में
निन्यान्नबे
गुरु झूठे ही
होते हैं।
क्योंकि जब
तुम कुछ मांगते
हो तो कोई न
कोई उसकी
पूर्ति
करनेवाला
पैदा हो जाता
है। असदगुरु
जीता है
क्योंकि
शिष्य कुछ गलत
मांग रहे हैं;
खोजनेवाले कुछ गलत खोज
रहे हैं।
अर्थशास्त्र
का छोटा-सा
नियम है--'मांग
से पूर्ति
पैदा होगी': डिमांड क्रिएट्स
द सप्लाय।
अगर
हजारों, लाखों,
करोड़ों
लोगों की मांग
सांत्वना की
है तो कोई न
कोई तुम्हें
सांत्वना
देने को राजी
हो जाएगा।
तुम्हारी
सांत्वना का
शोषण करने को
कोई न कोई
राजी हो
जाएगा। कोई न
कोई तुम्हें
गीत गाएगा,
तुम्हें सुलाएगा।
कोई न कोई
लोरी
गानेवाला
तुम्हें मिल
ही जाएगा, जिससे
तुम्हारी
नींद और गहरी
हो, सपना
और मजबूत हो
जाए।
जिस
गुरु के पास
जाकर तुम्हें
नींद गहरी
होती मालूम हो, वहां से
भागना; वहां
एक क्षण रुकना
मत। जो
तुम्हें झकझोरता
न हो, जो
तुम्हें
मिटाने को
तैयार न बैठा
हो, जो
तुम्हें काट
ही न डाले, उससे
तुम बचना।
जीसस
का एक वचन है
कि लोग कहते
हैं कि मैं
शांति लाया
हूं लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं, मैं
तलवार लेकर
आया हूं।
इस वचन
के कारण बड़ी
ईसाइयों को
कठिनाई रही।
क्योंकि एक ओर
जीसस कहते हैं
कि अगर कोई
तुम्हारे एक
गाल पर चांटा
मारे, तुम
दूसरा भी उसके
सामने कर
देना। जो
तुम्हारा कोट
छीन ले, तुम
कमीज भी उसे
दे देना। और
जो तुम्हें
मजबूर करे एक
मील तक अपना
वजन ढोने के
लिए, तुम
दो मील तक
उसके साथ चले
जाना।
ऐसा
शांतिप्रिय
व्यक्ति जो
कलह पैदा करना
ही न चाहे, जो सब सहने
को राजी हो, वह कहता है, मैं शांति
लेकर नहीं, तलवार लेकर
आया हूं। यह
तलवार किस तरह
की है? यह
तलवार गुरु की
तलवार है। इस
तलवार का उस
तलवार से कोई
भी संबंध नहीं,
जो तुमने
सैनिक की कमर
पर बंधी देखी
है। यह तलवार
कोई प्रगट में
दिखाई पड़नेवाली
तलवार नहीं।
यह तुम्हें
मारेगी भी और
तुम्हारे खून
की एक बूंद भी
न गिरेगी। यह
तुम्हें काट
भी डालेगी और
तुम मरोगे भी
नहीं। यह
तुम्हें
जलाएगी, लेकिन
तुम्हारा
कचरा ही जलेगा,
तुम्हारा
सोना निखरकर
बाहर आ जाएगा।
हर
गुरु के हाथ
में तलवार है।
और जो गुरु
तुम्हें जगाना
चाहेगा, वह
तुम्हें
शत्रु जैसा
मालूम होगा।
फिर
तुम्हारी
नींद आज की
नहीं, बहुत
पुरानी है।
फिर तुम्हारी
नींद सिर्फ नींद
नहीं है, उस
नींद में
तुम्हारा लोभ,
तुम्हारा
मोह, तुम्हारा
राग, सभी
कुछ जुड़ा है।
तुम्हारी
आशाएं, आकांक्षाएं सब उस नींद
में संयुक्त
हैं। तुम्हारा
भविष्य, तुम्हारे
स्वर्ग, तुम्हारे
मोक्ष, सभी
उस नींद में
अपनी जड़ों को
जमाए बैठे
हैं। और जब
नींद टूटती है
तो सभी टूट
जाता है।
तुम
ध्यान रखना, तुम्हारी
नींद टूटेगी
तो तुम्हारा
संसार ही छूट
जाएगा ऐसा
नहीं। जिसे
तुमने कल तक
परमात्मा
जाना था वह भी
छूट जाएगा।
नींद में जाने
गए परमात्मा
की कितनी सचाई
हो सकती है? तुम्हारी
दुकान तो छूटेगी
ही, तुम्हारे
मंदिर भी न
बचेंगे।
क्योंकि नींद
में ही दुकान
बनाई थी, नींद
में ही मंदिर
तय किए थे। जब
नींद की दुकान
गलत थी तो
नींद के मंदिर
कैसे सही
होंगे? तुम्हारी
व्यर्थ की बकवास
ही न छूटेगी,
तुम्हारे
शास्त्र भी दो
कौड़ी के
हो जाएंगे।
क्योंकि नींद
में ही तुमने
उन शास्त्रों
को पढ़ा था, नींद
में ही तुमने
उन्हें
कंठस्थ किया
था, नींद
में ही तुमने
उनकी
व्याख्या की
थी। और तुम्हारे
दुकान पर रखे
खाते-बही अगर
गलत थे तो तुम्हारी
गीता, तुम्हारी
कुरान, तुम्हारी
बाइबिल भी सही
नहीं हो सकती।
नींद
अगर गलत है तो
नींद का सारा
फैलाव गलत है।
इसलिए
गुरु
तुम्हारी जब
नींद छीनेगा
तो तुम्हारा
संसार ही नहीं
छीनता, तुम्हारा
मोक्ष भी छीन
लेगा। वह
तुमसे तुम्हारा
धन ही नहीं
छीनता, तुमसे
तुम्हारा
धर्म भी छीन लेगा।
कृष्ण
ने अर्जुन को
गीता में कहा
है: सर्वधर्मान्
परित्यज्य--'तू
सब धर्मों को
छोड़कर मेरी
शरण आ जा।'
तुम
हिंदू हो, गुरु के पास
जाते ही तुम
हिंदू न रह
जाओगे। और अगर
तुम हिंदू रह
गए तो समझना
गुरु झूठा है।
तुम मुसलमान
हो, गुरु
के पास जाते
ही तुम
मुसलमान न रह
जाओगे। अगर
फिर भी
तुम्हें मुसलमानियत
प्यारी रही तो
समझना, तुम
गलत जगह पहुंच
गए। तुम जैन
हो, बौद्ध
हो, या कोई
भी हो, गुरु
तुमसे कहेगा,
'सर्वधर्मान् परित्यज्य!'
सब धर्म को
छोड़कर तू मेरे
पास आ जा।
धर्म
तो अंधे की
लकड़ी है। उससे
वह टटोलता है।
शास्त्र तो
नासमझ के शब्द
हैं। जो नहीं
जानता, वह
सिद्धांतों
से तृप्त होता
है। गुरु के
पास पहुंचकर
तुम्हारे
शास्त्र, तुम्हारे
धर्म, तुम्हारी
मस्जिद, मंदिर,
तुम खुद, तुम्हारा सब
छिन जाएगा।
इसलिए
गुरु के पास
जाना बड़े से
बड़ा साहस है।
और
गुरु के पास
पहुंचकर टिक
जाना सिर्फ
थोड़े से लोगों
की हिम्मत का
काम है।
लोग
आते हैं और
जाते हैं। आते
हैं और भागते
हैं। जैसे ही
नींद पर चोट
होती है, वैसे
ही बेचैनी
शुरू हो जाती
है। जब तक तुम
उन्हें फुसलाओ,
थपथपाओ,
लोरी सुनाओ,
जब तक उनकी
नींद को तुम
गहरा करो, तब
तक वे प्रसन्न
हैं। जैसे ही
तुम उन्हें
हिलाओ, वैसे
ही बेचैनी
शुरू हो जाती
है।
तुमने
अकारण ही जीसस
को सूली नहीं
दी। और तुमने
सुकरात को
व्यर्थ ही जहर
नहीं पिलाया।
जीसस को सूली
देनी पड़ती है
क्योंकि यह
आदमी तुम्हें
सोने नहीं
देता। तुम
थके-मांदे हो, तुम नींद
में उतरना
चाहते हो। तुम
इतने बेचैन और
परेशान हो, तुम चाहते
हो थोड़ी देर
शांति मिल जाए,
खो जाऊं, बेहोशी आ
जाए। अगर ठीक
से समझो तो
संसार की सारी
खोज बेहोशी की
खोज है। कोई
शराब से खोजता
है, कोई
संगीत से
खोजता है, कोई
संभोग से
खोजता है और
कुछ नासमझ
ध्यान से भी
उसी को खोजते
हैं--किसी तरह
तुम भूल जाओ कि
तुम हो।
गुरु
तुम्हें जगाएगा
और याद दिलाएगा
कि तुम हो।
गुरु
तुम्हारे नशे
को तोड़ेगा, तुमसे शराब
छीन लेगा।
तुमसे सारी
मादकता छीन लेगा।
तुम्हारा भजन,
तुम्हारा
कीर्तन, तुम्हारा
नाम-स्मरण, तुम्हारे
मंत्र, सब
छीन लेगा ताकि
तुम्हारे पास
सोने का कोई
भी उपाय न रह
जाए। तुम्हें
जागना ही पड़े।
तुम्हें पूरी
तरह जागना
होगा ताकि तुम
जान सको, तुम
कौन हो।
उस
प्रतीति से ही
पुरानी नींद
की दुनिया का
अंत, और एक नये
जगत का
प्रारंभ होता
है। उस नये
जगत का नाम
मोक्ष है।
नींद में देखा
गया कोई सपना नहीं,
नींद जब टूट
जाती है तब
जिसकी
प्रतीति होती
है, उसी का
नाम परमात्मा
है। नींद में
की गई प्रार्थना
नहीं, जब
नींद नहीं रह
जाती तब
तुम्हारी जो भावदशा
होती है, उसका
नाम ही
प्रार्थना
है।
यह
छोटी-सी झेन
कथा बड़ी
सांकेतिक है।
निश्चित ही
शिष्य को लगा
होगा कि यह
गुरु क्या कर
रहा है?
पुकारा
एक बार--'होशिन!'
एक बार
क्षम्य है
बात। सोचा
होगा होशिन
ने, कुछ काम
है; लेकिन
ध्यान रहे, कोई भी गुरु
तुम्हें किसी
काम से नहीं
पुकार रहा है।
अगर काम दे भी
रहा हो तो वह
सिर्फ बहाना है
ताकि तुम्हें
पुकार सके।
पहली
तो बात यह समझ
लेना कि गुरु
तुम्हें पुकार
रहा है बिना
काम के, अकारण।
संसार में
जितनी
पुकारें हैं,
वे सब सकारण
हैं। पत्नी
तुम्हें बुला
रही है, उसमें
कारण है। पति
बुला रहा है, उसमें कारण
है। बेटा बुला
रहा है, उसमें
कारण है। एक
छोटा-सा
निर्दोष
बच्चा भी बुला
रहा है तो
उसमें कारण
है। उसकी
निर्दोषता भी
अकारण नहीं।
वह भी भूखा है,
तो मां को
चिल्ला रहा है,
आवाज दे रहा
है। उसमें
प्रयोजन है, उसमें
स्वार्थ है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी सांझ घर
लौटा। उसकी
पत्नी जार-जार
रो रही है, आंख
से आंसू गिर
रहे हैं, वह
आदमी बैठकर
चुपचाप अखबार
पढ़ने लगा।
उसकी पत्नी ने
कहा, कम से
कम यह तो पूछो
कि मैं क्यों
रो रही हूं? उसने कहा, यही
पूछ-पूछकर
मेरा दिवाला
निकल गया है।
रो रही है तो
मतलब साफ है।
कोई न कोई
झंझट है, कोई
न कोई मांग
है। यही
पूछ-पूछकर
मेरा दिवाला
निकला जा रहा
है कि क्यों
रो रही है? अब
मैंने यह
पूछना ही बंद
कर दिया।
हम रो
भी रहे हैं, हंस भी रहे
हैं, आवाज
भी दे रहे हैं
तो सकारण है; उसमें कोई
प्रयोजन है।
अकारण तुम तो
रास्ते पर
किसी से
नमस्कार भी
नहीं करते।
अकारण तो तुम
मुस्कुराते
भी नहीं हो, आवाज देने
का श्रम तुम
क्यों उठाओगे?
इस
संसार में गूंजती
आवाजों
से गुरु की
आवाज मूलतः
पृथक है। उसका
गुणधर्म अलग
है। पहला
गुणधर्म, कि
वह किसी काम
से नहीं बुला
रहा है। वह
तुम्हें
बेकाम बुला
रहा है। वह
तुम्हें
जगाने के लिए
बुला रहा है, किसी काम से
नहीं बुला
रहा।
'होशिन!' गुरु ने
कहा।
सोचा
होगा शिष्य ने, कोई काम है।
उसने कहा, 'जी।'
प्रतीक्षा
की होगी। और गुरु
चुप हो गया, काम कुछ
बताया न गया। होशिन
बेबूझ हो गया
होगा। फिर
झपकी लग गई
होगी।
थोड़ी
देर में गुरु
ने फिर बुलाया, 'होशिन!'
उसने
फिर नींद से चौंककर
उत्तर दिया, 'जी।'
सोचा
होगा शायद
गुरु काम भूला
गया, अब शायद
कोई काम होगा!
लेकिन गुरु
फिर चुप हो गया।
फिर झपकी लग
गई होगी।
तीसरी बार
गुरु ने फिर
आवाज दी, 'होशिन!'
उसने फिर
कहा, 'जी।'
हैरान
हुआ होगा मन
में। यह गुरु
पागल तो नहीं हो
गया? बुलाता
है, लेकिन
बुलाने पर कभी
पूर्ण-विराम
तो होता नहीं;
बुलाने के
आगे बात चलती
है। इसका
बुलाने पर पूर्ण-विराम
हो जाता है। 'होशिन!'--जैसे
बात खतम हो
गई। जैसे
बुलाने के लिए
ही बुला रहा
हो। जैसे
बुलाने से कोई
और यात्रा न
निकलती हो।
गुरु
का बुलाना
किसी वासना की
पुकार नहीं है, कोई मांग
नहीं है। गुरु
का बुलाना
अपने आप में
पूरा है। वह
तुम्हें कहीं
और ले जाना
नहीं चाहता।
कुछ पाने में नहीं
लगाना चाहता।
कोई और खोज पर
नहीं ले जाना
चाहता। उसके
बुलाने में ही
बात पूरी हो
गई। उसका
बुलाना अगर
तुम समझ सको
तो ध्यान बन
जाए। उसकी
पुकार
तुम्हारे
भीतर तंद्रा
को तोड़ दे। 'होशिन!'--उस एक
क्षण में होशिन
के विचार भी
बंद हो जाते
होंगे। तभी तो
कह पाता है, 'जी।'
उस एक
क्षण में सजग
हो जाता होगा।
उस एक क्षण में
उसकी रीढ़ सीधी
हो जाती होगी।
एक क्षण को विचार
की तंद्रा खो
जाती होगी, धुआं हट
जाता होगा, बादल विलीन
हो जाते
होंगे। एक
क्षण को भीतर
का नीला आकाश झांकता
होगा। उसी
नीले आकाश से
तो 'जी' निकलता
है।
अगर होशिन खोया
ही रहे तो पता
ही नहीं चलेगा
गुरु ने कब बुलाया!
पता ही नहीं
चलेगा कोई
बुला रहा है, या नहीं
बुला रहा है। होशिन अगर
खोया ही रहे, अपनी तंद्रा
में डूबा ही
रहे, तो यह
आवाज तीर की
तरह भीतर
प्रवेश न
करेगी। लेकिन होशिन
चकित जरूर
होगा, चिंतित
भी होगा। गुरु
बुलाता है और
चुप हो जाता
है।
गुरु
अकसर...अकसर
पागल मालूम
होगा, तुम
पागलों की
दुनिया
में--यह उसकी
नियति है। वह
पागल मालूम
होगा। पागलों
के बीच में जो
होशपूर्ण है,
वह पागल
मालूम होगा
ही।
होशिन
भी सोच रहा
होगा, गुरु
को क्या हो
गया है? आवाज
देता है और
चुप हो जाता है;
यह कैसी
आवाज?
हम समझ
पाते हैं किसी
भी चीज को, अगर उसमें
शृंखला हो। हम
उस रास्ते को
समझ पाते हैं,
जो कहीं
पहुंचता हो, कोई मंजिल
हो। लेकिन
रास्ता हो और
कहीं न जाता
हो तो हम बड़ी
विडंबना में
पड़ जाते हैं। होशिन
विडंबना में
पड़ गया होगा।
इसलिए गुरु ने
उसकी भीतरी
विडंबना को
देखकर कहा कि 'होशिन, मुझे तुझसे
क्षमा मांगनी
चाहिए।'
बहुत
बार गुरु
तुमसे कहेगा
कि होशिन, मुझे तुमसे
क्षमा मांगनी
चाहिए, क्योंकि
मैं तुम्हारी
नींद तोड़ रहा
हूं। और अकारण
तोड़ रहा हूं; कोई काम भी
नहीं है। कोई
वासना, कोई
इच्छा का
संबंध भी
नहीं। मैं
तुमसे कुछ
चाहता भी
नहीं। मेरी
कोई मांग भी नहीं।
तुम्हारा
किसी भांति का
कोई शोषण नहीं
करना है, फिर
भी तुम्हें
पुकार रहा हूं;
फिर भी
तुम्हें बुला
रहा हूं। मुझे
तुमसे क्षमा
मांगनी
चाहिए।
होशिन
के चेहरे पर
प्रसन्नता आई
होगी कि बात
तो ठीक ही है।
बेकार बुला रहे
हो।
हम समझ
लेते हैं, जब कोई काम
हो। जहां भी
निष्काम कुछ
हो, हमारी
समझ के बाहर
हो जाता है।
हम तो
परमात्मा का
भी विचार करते
हैं तो सोचते
हैं, उसने
जगत को किसी
काम से बनाया
होगा; उसका
कोई प्रयोजन
होगा।
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं, परमात्मा
ने यह सृष्टि
किस प्रयोजन
से बनाई? इसका
क्या अर्थ है?
क्या
अभिप्राय है?
जरूर कोई
छिपा हुआ
अभिप्राय
होना चाहिए।
हम
अपनी ही
प्रतिमा में
परमात्मा को
सोचते हैं। हम
बिना काम एक
कदम न
उठाएंगे। हम
बिना काम आंख
भी न हिलाएंगे।
तो इतना बड़ा
विराट आयोजन!
जरूर पीछे कुछ
धंधा होगा।
कोई प्रयोजन
होगा।
और जिस
व्यक्ति ने भी
परमात्मा के
संबंध में प्रयोजन
पूछा, थोड़े
दिन में पाएगा
प्रयोजन तो रह
गया, परमात्मा
खो गया। ऐसा
व्यक्ति आज
नहीं कल नास्तिक
हो जाएगा, जो
प्रयोजन
पूछेगा।
क्योंकि
प्रयोजन यहां
है नहीं। और
तुम ऐसे
परमात्मा को
मान न सकोगे, जो
निष्प्रयोजन
हो।
हिंदुओं
ने बड़ी हिम्मत
की है। वैसी
हिम्मत पृथ्वी
पर कहीं भी
नहीं पाई गई।
उन्होंने यह
कहा कि यह
लीला है। यह
कोई परमात्मा
का काम नहीं है।
इसमें कुछ है
नहीं, इसमें
कुछ पाने को
नहीं है; यह
जगत कहीं जा
नहीं रहा है।
यह जगत हो रहा
है, लेकिन
कहीं जा नहीं
रहा है। यह
रास्ता कहीं
पहुंचता
नहीं--है।
एक
भिखारी एक
रास्ते के
किनारे बैठा
है और एक राह
भटक गए यात्री
ने उससे पूछा
कि क्या तुम बता
सकोगे, यह
रास्ता कहां
जा रहा है? उस
भिखारी ने कहा,
मैं कई साल
से यहां रह
रहा हूं; रास्ते
को मैंने कहीं
जाते नहीं
देखा। हां, लोग इस पर
आते-जाते हैं।
परमात्मा
कहीं भी नहीं
जा रहा है, तुम
आते-जाते हो।
रास्ता अपनी
ही जगह है; उस
भिखारी ने कहा,
जहां तक
मेरी समझ है।
परमात्मा
अपनी ही जगह
है; कहीं आ
नहीं रहा, कहीं
जा नहीं रहा।
लेकिन तुम उस
पर काफी यात्रा
करते हो--कभी
इस दिशा में, कभी उस दिशा
में, कभी
धन की तरफ, कभी
त्याग की तरफ;
कभी भोग के
लिए, कभी
योग के लिए; लेकिन रुकते
तुम नहीं।
चाहे भोग हो
तो भी तुम दौड़ते
हो; चाहे
योग हो तो भी
तुम दौड़ते हो।
तुम्हारा श्रम
जारी रहता है।
और तुम
परमात्मा को
उसी दिन समझ
पाओगे, जिस
दिन तुम भी इस
रास्ते की
भांति हो जाओ,
जो कहीं भी
आता नहीं, जाता
नहीं, जो
सिर्फ है। जिस
दिन तुम्हारी
वासना गिरेगी,
जिस दिन न
योग तुम्हें
बुलाएगा, न
भोग; न जिस
दिन संसार
तुम्हें
खींचेगा, न
मोक्ष; जिस
दिन तुम जाने
की बात ही छोड़
दोगे, जिस
दिन तुम
पूर्ण-विराम
हो जाओगे, तुम
जहां हो वहीं
पूर्ण-विराम
हो जाएगा।
गुरु
ने पुकारा, 'होशिन' और
पूर्ण-विराम
हो गया। यह
पुकार
निष्प्रयोजन
है। यह पुकार
लीला है। यह
पुकार एक खेल
है।
होशिन
के भीतर जगी
चिंता को
देखकर गुरु ने
कहा, मुझे
तुझसे क्षमा
मांगनी
चाहिए। अकारण
ही तुझे जगाता
हूं, सोने नहीं
देता। कारण भी
हो तो क्षम्य
है, व्यर्थ
ही तुझे
हिलाता हूं। न
उठकर दुकान
खोलनी है, न
बाजार जाना है,
न नौकरी पर
जाना है, फिर
भी तुझे उठाता
हूं। तुझे
सोने नहीं
देता। मुझे
तुझसे क्षमा
मांग लेनी
चाहिए।
होशिन
के मन में
चिंता कम हुई
होगी। लगा
होगा, गुरु
ठीक ही कह रहा
है, क्षमा
तो मांगनी ही
चाहिए। बैठने
भी नहीं देता
शांति से।
अकारण 'होशिन,
होशिन,
होशिन',
लगाए हुए
है। सोचने भी
नहीं देता
शांति से; भीतर
भी विघ्न खड़ा
कर देता है।
लेकिन
तत्क्षण गुरु
ने कहा, लेकिन
वस्तुतः तो
तुझे ही मुझसे
क्षमा मांगनी
चाहिए। तीन
बार बुलाना
पड़ा क्योंकि
एक बार बुलाने
से काम न चला।
तूने 'जी' कहा जरूर, लेकिन करवट
ली और तू फिर
सो गया; दुबारा
इसलिए बुलाना
पड़ा। वस्तुतः
तो तुझे ही
क्षमा मांगनी
चाहिए
क्योंकि तेरी
नींद के लिए
तू ही
जिम्मेवार
है। तेरे
आलस्य के लिए
तू ही आधार
है। तीसरी बार
बुलाना पड़ा, फिर भी तू
करवट लेता है
और सो जाता
है।
तीन
हजार बार भी
बुलाना पड़े तो
गुरु थकता
नहीं। जिस दिन
तुम जागोगे, उस दिन तुम
क्षमा
मांगोगे। तुम
कहोगे कि एक
ही आवाज में
जो बात हो
जानी चाहिए थी,
उसके लिए
अकारण तीन
हजार बार
तुम्हें
दोहराना पड़ा।
बुद्ध
के पास कोई आता, कुछ पूछता, बुद्ध कोई
उत्तर देते तो
हमेशा तीन बार
दोहराते। कोई
पूछता, निर्वाण
है? तो
बुद्ध कहते-- 'है'। फिर
जैसे भूल गए
हों कि अभी
कहा है, फिर
से कहते-- 'है'। फिर जैसे
भूल गए हों कि
अभी कहा, फिर
से कहते-- 'है'।
जिन
लोगों ने
बौद्ध
शास्त्रों का
संकलन किया उनको
बड़ी कठिनाई
मालूम पड़ी। कि
अब इस तरह
लिखेंगे तो
शास्त्र तीन गुने हो
जाते हैं।
व्यर्थ ही
शास्त्र बड़ा
हो जाता है और पढ़नेवाले
को असुविधा
होती है। जो
काम एक ही 'है'
से हो सकता
है, बुद्ध
तीन दफे 'है'
कहते हैं।
तो बौद्ध
शास्त्रकारों
ने चिह्न बना
लिए हैं: 'है'--और चिह्न
बना दिया--'तीन
बार'। तीन
का चिह्न बना
दिया है। 'है--तीन
बार'; ताकि
तीन बार लिखना
न पड़े।
शास्त्रकार
ज्यादा
बुद्धिमान
मालूम पड़ते
हैं।
लेकिन
बुद्ध से किसी
ने पूछा कि
मैं पूछता हूं
एक बार, तुम
कहते हो तीन बार;
बात क्या है?
बुद्ध ने
कहा, तीन
बार में भी
कोई सुन ले तो
अनूठा है, अद्वितीय
है। तीन बार
में भी कौन
सुनता है? तुम
वहां मौजूद भी
नहीं हो सुनने
को। तुमने प्रश्न
पूछा कि तुम
सो गये। तुम
प्रश्न भी
शायद नींद में
पूछते हो।
जैसे
छोटा बच्चा
भूखा हो और
नींद में रोता
हो, आवाज
करता हो; दूध
पिला दिया और
सो जाता हो। न
उसे पता चलता
है भूख का, और
न पता चलता है
उसे दूध का।
दोनों ही
कृत्य नींद
में हो जाते
हैं। जैसे
शराबी रास्ते
पर चलता है; डगमगाता है,
फिर भी चल
लेता है। ऐसा
ही तुम्हारा
जीवन है; ऐसा
ही तुम्हारा
चलना है; ऐसा
ही तुम्हारा
होश
है--डगमगाता
हुआ।
बुद्ध
कहते हैं, कि तीन बार
में भी कोई
सुन ले तो
उसने जल्दी सुन
लिया।
इस सदगुरु
ने कहा, 'होशिन,
ऊपर से
देखने पर तो
मुझे तुझसे
क्षमा मांगनी
चाहिए; लेकिन
भीतर से देखने
पर तू ही
मुझसे क्षमा
मांग।'
कहानी
पूरी हो जाती
है। बहुत-सी
बातें हैं।
झेन छोटी-छोटी
कहानियों में
कहता है। शायद
कहानियां
छोटी इसीलिए
हैं कि उतनी
देर शायद तुम
होश से सुन
पाओ। ज्यादा
देर तो तुम
होश से सुन भी
न पाओगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी से उसका
डाक्टर पूछ
रहा था कि
रविवार को तो
छुट्टी रहती
है, रविवार
की सुबह तुम
कितनी देर तक
सोते हो? उस
आदमी ने कहा, 'इट डिपेंड्स'। यह निर्भर
करता है कि
चर्च में
प्रवचन कितनी
देर चला! उतनी
देर सोता हूं।
मंदिर
जगाने को है
लेकिन वहां भी
लोग सो रहे हैं!
चर्च जगाने को
है लेकिन वहां
भी लोग नींद ले
रहे हैं! हम
इतने कुशल हैं
कि हम जागरण की
दवाइयों का
उपयोग भी
निद्रा की
दवाइयों की तरह
कर लेते हैं।
हम अपनी नींद
में सभी कुछ
समाहित कर
लेते
हैं--चर्च हो, मंदिर हो, मस्जिद हो, हम सबको
अपनी नींद में
डुबा
लेते हैं।
हमारी नींद
बड़ी विकराल है,
विराट है।
और कोई अगर हम
पर सतत ही चोट
न करता रहे तो
शायद हम जाग
भी न सकेंगे।
इसलिए
सभी पुराने अनुभवियों
ने कहा है, गुरु के
बिना ज्ञान न
होगा। गुरु के
साथ हो जाए तो
भी अनूठी घटना
है। गुरु के
बिना तो होगा
नहीं। गुरु का
इतना ही मतलब
है कि कोई
तुम्हारे
द्वार पर चोट
किये ही चला
जाए। यह चोट
विनम्र ही
होगी। यह चोट
कोई आक्रमक
नहीं हो सकती।
यह चोट पानी
की तरह होगी।
जैसे पानी
चट्टान पर
गिरता है। 'होशिन'--यह गुरु की
आवाज तो बहुत
कठोर नहीं हो
सकती। गुरु
कठोर हो नहीं
सकता। यह 'होशिन' की
आवाज पानी की
तरह पत्थर पर
गिरेगी।
लेकिन गुरु
इसे दोहराता
रहेगा। यह
धीमी और मधुर
आवाज पत्थर को
भी काट
डालेगी।
लाओत्से
ने कहा है, गुरु पानी
की तरह है, तुम
पत्थर की तरह
हो। लेकिन
ध्यान रखना, आखिर में
तुम ही
हारोगे।
तुम्हारी
मजबूती बहुत
ज्यादा काम न
आएगी। पानी
गिरता रहेगा।
मृदु है उसकी
चोट; उस
चोट में कोई हथौड़े की
चोट नहीं है, लेकिन आज
नहीं कल चट्टान
टूटती जाएगी,
रेत हो
जाएगी। आज
नहीं कल तुम
पाओगे कि
चट्टान
समाप्त हो गई,
पानी अब भी
बह रहा है।
गुरु
की चोट तो
मधुर है लेकिन
गहरी है। और
मधुर उस अर्थ
में है--इस
अर्थ में नहीं
कि मीठी है और
तुम्हारी
नींद को
सहयोगी
होगी--मधुर इस
कारण है कि
उसकी करुणा से
निकली है।
वासना
की सब चोट
कठोर होती है
क्योंकि
वासना से जो
भी आवाज
निकलती है, उस आवाज को
तुमसे
प्रयोजन नहीं
होता। चाहे प्रेमी
अपनी प्रेयसी
को कहता हो, चाहे मां
अपने बेटे को
कहती हो, पति
अपनी पत्नी को
कहता हो, लेकिन
उस आवाज में, उस पुकार
में दूसरा
साधन है, मैं
स्वयं साध्य
हूं। वासना
में मैं दूसरे
का उपयोग कर
रहा हूं। वह
उपकरण है। अंत
तो मैं ही हूं,
लक्ष्य तो
मैं ही हूं।
मेरा ही सुख
केंद्र है।
दूसरे का तो
मैं उपयोग कर
रहा हूं।
इसलिए
मित्र बेचैन
होते हैं, प्रेमी
परेशान होते
हैं। मित्रों
और प्रेमियों
में हमेशा कलह
बनी रहती है।
उस कलह का
आधार है
क्योंकि एक दूसरे
का जब भी हम
उपयोग करते
हैं तो दूसरे
का अपमान होता
है। उसे लगता
है, मैं एक
वस्तु हो गया,
व्यक्ति न
रहा। मेरा
उपयोग किया जा
रहा है लेकिन
मेरा कोई
मूल्य नहीं।
मेरी कोई
आत्यंतिक मूल्यवत्ता
नहीं है। मैं
वस्तुओं की
भांति हूं।
वासना
जब भी बुलाती
है तो कठोर
होगी क्योंकि
शोषण कठोर ही
हो सकता है।
गुरु
की आवाज मृदु
है। वह कहता
है, 'होशिन'। यह जापानी
शब्द होशिन
बड़ा सोचकर
चुना होगा। यह
शब्द भी बड़ा
मीठा है। यह
आवाज भीतर
जाएगी लेकिन
चोट पानी की
बूंद की तरह
है। पर यह सतत
सातत्य बना
रहे तो ही
तुम्हें तोड़
पायेगी। तो
गुरु बुलाये
चला जाता है।
और
गुरु के इस
बुलाने को, तुम्हारे इस
उत्तर को, कि
'जी'; इन
दोनों के मेल
को सत्संग कहा
है। तुम अगर
सुनो ही ना, तब सत्संग
घटित नहीं
होगा। वहां
गुरु तो है, तुम नहीं
हो। तुम अगर
पूरी तरह सुन
लो तो वहां
कोई शिष्य न
बचा। तुम
थोड़ा-सा सुनते
हो, थोड़ा-सा
नहीं भी सुनते
हो। तुम्हारी
नींद में थोड़ी
खलल पड़ती है।
तुम थोड़ी
आंख-पलक खोलते
हो, लेकिन
भारी है आंख; फिर झपकी लग
जाती है। तुम 'जी' का
उत्तर तो देते
हो। तुम इतनी
तो खबर देते
हो कि मैं हूं
और सुन रहा हूं--सत्संग
है।
यह
कहानी सत्संग
की कहानी है।
गुरु बुला रहा
है, शिष्य
सुन रहा है।
शिष्य समझ
नहीं पा रहा
है, गुरु
क्या कह रहा
है। लेकिन
इतनी श्रद्धा
है कि बुलाता
है तो 'जी' कहता है। कम
से कम नाराज
नहीं हो रहा
है।
तुम
होते तो शायद
नाराज भी हो
जाते; यह
क्या बकवास
लगा रखी है!
अगर कुछ कहना
है तो कहो; अन्यथा
'होशिन,
होशिन,
होशिन',
बार-बार
क्या कह रहे
हो? कुछ
कहना हो तो कह
दो अन्यथा चुप
रहो। तुम्हारे
मन में यही
आवाज उठी
होती। तो फिर
श्रद्धा नहीं
है।
एक बात
समझ लेना; इस होशिन
के मन में भी
संदेह तो है।
इसीलिए गुरु
ने कहा कि
मुझे तुमसे
क्षमा मांगनी
चाहिए। उसके संदेह
को देखकर ही
कहा है।
श्रद्धा पूरी
तो नहीं है, क्योंकि जब
श्रद्धा पूरी
हो तो पुकारने
की कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
श्रद्धा पूरी
नहीं है, संदेह
है; लेकिन
संदेह भी पूरा
नहीं है, नहीं
तो यह सो
जाएगा--आधा-आधा
है।
तर्तूलियन
एक बड़ा ईसाई
फकीर हुआ।
उसने ईश्वर की
रोज की प्रार्थना
में एक वाक्य
जोड़ रखा था और
वह कहता था, श्रद्धा
मेरी तुझमें
है, लेकिन
मेरी
अश्रद्धा की
तरफ भी तुम
खयाल रखना।
भरोसा मैं तुझमें
रखता हूं
लेकिन भीतर
मेरे संदेह भी
है, उसकी
चिंता तू कर।
यह
ईमानदार शिष्य
की आवाज है।
क्योंकि तुम
संदेह को छिपा
लो, इससे वह
मिटेगा नहीं।
तुम कितना ही
कहो मेरा समर्पण
पूरा है; और
अगर रत्ती भर
भी संदेह है, तो वह
समर्पण पूरा
तो नहीं है और
पूरा कभी हो भी
न सकेगा
क्योंकि तुम
इस भ्रांति
में जीयोगे
कि वह पूरा
है। तुम जैसे
हो, वहां तुम
पूरे हो ही
नहीं सकते।
वहां संदेह तो
रहेगा ही।
इतना ही तुम
कर सकते हो कि
संदेह को नीचे
कर दो, श्रद्धा
को ऊपर कर दो; पर संदेह
भीतर छिपा
रहेगा और कीड़े
की तरह तुम्हारी
श्रद्धा को
काटता रहेगा।
और श्रद्धा आज
ऊपर है, कब
तक ऊपर रहेगी?
किसी भी
क्षण संदेह
ऊपर आ सकता
है।
अकसर
ऐसा हो जाता
है कि अगर दो
व्यक्ति
कुश्ती लड़ रहे
हों तो जो
व्यक्ति ऊपर
बैठा है, उसको
ऊपर बैठने में
श्रम करना
पड़ता है, क्योंकि
ताकत लगाये
रखनी पड़ती है
कि नीचे का आदमी
निकलकर ऊपर न
आ जाए। नीचे
का आदमी आराम
कर सकता है; उसे कोई
ताकत लगाने की
जरूरत नहीं।
नीचे होने के
लिए ताकत
लगाने की कोई
जरूरत भी नहीं
है, वह
आराम कर सकता
है। ऊपर का
आदमी श्रम में
लगा है। अगर
घंटे भर ऊपर
का आदमी ऊपर
बैठा रहे और नीचे
का नीचे पड़ा
रहे, तो
ऊपर का अपनी
मेहनत के कारण
थककर
नीचे गिरेगा।
उसी थकान में
नीचे का आदमी
ऊपर आ जाएगा।
जब तुम
श्रद्धा को
संदेह के ऊपर
बिठा देते हो, श्रद्धा थक
रही है और
संदेह
विश्राम कर
रहा है।
ज्यादा देर
नहीं लगेगी, संदेह ऊपर आ
जाएगा, श्रद्धा
नीचे चली
जाएगी। लेकिन
अगर तर्तूलियन
जैसा भाव हो, कि तुम अपनी
श्रद्धा की ही
घोषणा न करते
हो, अपने
परमात्मा को
यह भी कह देते
हो कि संदेह
भी मेरे पास
है, इसको
मैं दबा नहीं
रहा हूं, इसे
छिपा नहीं रहा
हूं, इसे
झुठला नहीं
रहा हूं, यह
है। और जैसा
भी नग्न मैं
हूं, कुरूप
या सुंदर; श्रद्धालु
या
संदेहग्रस्त;
तुम्हारे
सामने हूं।
श्रद्धा की
फिक्र मैं करूंगा,
संदेह की
फिक्र तुम कर
लेना।
होशिन
के मन में भी
संदेह तो है
लेकिन श्रद्धापूर्वक
वह उत्तर देता
है 'जी'।
उसने एक भी
बार नहीं कहा,
कि क्यों
मुफ्त पुकार
रहे हो? क्यों
बुलाते हो? क्या काम है?
एक
फकीर के संबंध
में मैंने
सुना है, एक
दूसरे फकीर से
मिलने गया था।
वहां देखा कि शिष्यों
में बड़ी
श्रद्धा है
गुरु के प्रति,
बड़ा भाव है।
उसने कहा कि
मेरी तो बड़ी
मुसीबत है; ऐसा भाव मैं
अपने शिष्यों
में पैदा नहीं
कर पाता। क्या
करूं? तो
उस फकीर ने
कहा कि आज मैं
तुम्हारे घर आऊंगा
भोजन करने।
वहीं हम बात
कर लेंगे।
सांझ
वह फकीर इस
दूसरे फकीर के
घर पहुंचा। पैर
कीचड़ से भरे
हैं; वर्षा के
दिन होंगे, रास्ते पर
कीचड़ है, कपड़े
भीगे हैं। तो
दूसरे फकीर ने
अपनी पत्नी को
कहा, 'सुनती
है, थोड़ा
पानी ले आ।
मेरे मित्र
आये हैं, उनके
पैर धोने हैं।'
पत्नी ने
भीतर से आवाज
दी, 'कुआं
कोई बहुत दूर
नहीं है। ले
जाओ अपने
मित्र को कुएं
पर और वहीं
पैर धुला दो।
और स्नान भी
करा देना।
सुबह पानी
भरते वक्त
कहां थे?'
दोनों
फकीर गये, कुएं से साफ
होकर वापिस
लौटे। गृहपति
फकीर ने कहा
भोजन के बाद, 'अब कहो।'
उसने
कहा, 'कल तुम
मेरे घर भोजन
करना। वर्षा
के दिन हैं, कीचड़ तो है
ही।'
यह
दूसरा फकीर
पहले फकीर के
घर भोजन करने
गया। द्वार पर
फकीर ने अपनी
पत्नी से कहा
कि 'घी का जो
मटका है, वह
ले आ।' वह
घी के मटके को
लेकर बाहर
आयी। और इस
फकीर ने कहा, 'मेरे मित्र
आये हैं; और
कभी आये हैं, पानी से
क्या पैर धोना?
घी से इनके
पैर धो दे।' उस पत्नी ने
पूरा मटका घी
का उनके पैर
पर उंड़ेलकर
पैर धो दिये।
भोजन
के बाद गृहपति
फकीर ने कहा, 'कुछ पूछना
है कि बात
पूरी हो गई?'
दूसरे
फकीर ने कहा, 'बात पूरी ही
हो गई। कुछ
कहना नहीं है।'
जहां
प्रेम है, वहां
श्रद्धा छाया
की भांति चली
आती है। और जहां
प्रेम है, वहां
स्वीकार का
भाव है। और
जहां प्रेम है,
वहां निष्प्रश्न
पुकारो 'होशिन', और 'जी' का उत्तर
आता है।
ऐसा
नहीं है कि इस
पत्नी के मन
में भी विचार
न उठे होंगे; विचार तो
उठे ही होंगे।
मन का काम
विचार उठाना
है। इसने भी
सोचा होगा, घी फिजूल
खराब कर रहे
हो। पानी से
काम चल सकता
था। मुसीबत के
दिन हैं, घी
महंगा है और
मुश्किल से घी
इकट्ठा होता
है। ये सब
विचार उठे
होंगे, लेकिन
इन सारे
विचारों के
बावजूद भी
प्रेम प्रथम
हो गया और
उसने सोचा कि
अगर पति कह
रहे हैं तो
कुछ अर्थ
होगा। मैं चुप
रहूं। जल्दी न
करूं।
होशिन
के मन में विचार
तो उठ रहे हैं
लेकिन वह कह
नहीं रहा है। जानता
है कि गुरु जब
बुला रहे हैं
तो कुछ न कुछ राज
होगा। मुझे
पता हो न पता
हो। तीन बार
बुला रहे हैं
तो जरूर
कुछ--कुछ गहरी
बात होगी, कोई कुंजी
होगी। आज नहीं
कल कुंजी खुल
जाएगी। लेकिन
भीतर विचार
हैं, संदेह
है।
मन सदा
संदेह करता
रहता है। यह
स्वाभाविक
है। इसलिए एक
बात खयाल रखना, संदेह भीतर
हो उसे छिपाना
मत; उसे
जानना। संदेह
भीतर हो, उसे
सक्रिय मत
होने देना; उसे
तुम्हारी
श्रद्धा पर
हावी मत होने
देना, लेकिन
उसे श्रद्धा
से दबाना भी
मत, हटाना
भी मत। संदेह
तुम्हारे
भीतर हो तो
छिपाये बिन
प्रतीक्षा
करना। जल्दी
ही घड़ी आयेगी
जब संदेह की
गांठ खुल
जाएगी। लेकिन
चलना तुम
श्रद्धा के
पीछे।
शिष्य
का अर्थ पूर्ण
श्रद्धावान
नहीं हो सकता; पूर्ण
श्रद्धावान
जो हो गया, वह
तो गुरु हो
जाएगा। शिष्य
का अर्थ, आधी
श्रद्धा, आधा
संदेह होगा।
अब इस
आधी श्रद्धा
के तुम दो
उपयोग कर सकते
हो। एक तो यह
कि संदेह की
छाती पर बैठ
जाओ। तब
तुम्हारी श्रद्धा
भी पंगु हो
जाएगी।
क्योंकि जिसे
तुम दबाते हो
उससे तुम बंध
जाते हो। तब
तुम्हारी श्रद्धा
संदेह से लड़ने
में लग जाएगी
और तुम्हारी
शक्ति व्यर्थ
होगी। जैसे
तुम्हारा बायां
और दायां हाथ
लड़ रहे हों और
तुम्हारी
शक्ति व्यर्थ
ही व्यय हो
रही हो। तुम
श्रद्धा और संदेह
को लड़ाना
मत; जो कि सहज
स्वाभाविकतः
घटता है। तुम
श्रद्धा से
चलना।
तुम
श्रद्धा को
गतिमान करना
और संदेह के
लिए छिपाये
बिना
प्रतीक्षा
करना समय की, जब कुंजी
तुम्हें उपलब्ध
हो जाएगी। तुम
संदेह पर
ध्यान मत देना,
उपेक्षा
करना। ध्यान
तुम श्रद्धा
पर देना क्योंकि
जहां ध्यान
जाता है, वहीं
भोजन जाता है।
तुम जिस चीज
पर ध्यान देते
हो, तुम्हारी
जीवन ऊर्जा
उसी को
परिपुष्ट
करती है। तुम
सिर्फ संदेह
के प्रति
उपेक्षा रखना,
लड़ना मत।
कोई भीतर
युद्ध खड़ा मत
करना। दबाना
मत, कोई
दमन मत करना; सिर्फ ध्यान
को तुम
श्रद्धा की
तरफ प्रेरित रखना।
तुम श्रद्धा
को सींचना
ध्यान से और
संदेह की
उपेक्षा करना
और प्रतीक्षा
करना।
'होशिन!'
होशिन
ने सुना होगा, संदेह भी
उठा होगा, लेकिन
ध्यान उसने
श्रद्धा पर
रखा। उसने कहा,
'जी!'
यह 'जी'
बड़ी गहरी
श्रद्धा से उठ
रहा है। इसके
पास ही संदेह
खड़ा है लेकिन
इस 'जी' के
क्षण में जैसे
संदेह मिट गया
हो; जैसे
एक क्षण को
पूरा हृदय 'जी' हो
गया।
शुरू
में घटना ऐसे
ही घटेगी। और
गुरु बहुत मौके
देगा कि तुम
संदेह पर
ध्यान दो।
क्योंकि बिना
मौके के
तुम्हारा
श्रद्धा के
प्रति ध्यान का
प्रवाह
सुनिश्चित न
होगा। गुरु
बहुत बार तुम्हें
डगमगाएगा।
गुरु बहुत बार
बेबूझ हो
जाएगा। ऐसा
व्यवहार करेगा, जो तुम्हारी
अपेक्षा न थी।
क्योंकि
अपेक्षा तो मन
का हिस्सा है।
और मन को
तोड़ना है, तो
तुम्हारी
अपेक्षा को भी
तोड़ना होगा।
तुम जो चाहते
थे गुरु से, वह वैसा ही
अगर व्यवहार
करे तुम्हारी
चाह के अनुसार,
तो तुम गुरु
के निर्माता
हुए जा रहे
हो।
इसलिए
जो गुरु
तुम्हारी
अपेक्षाओं के
अनुसार चले, समझ लेना कि
उससे
तुम्हारे
जीवन में कोई
क्रांति नहीं
होनेवाली।
इसीलिए तो
तुम्हारे
तथाकथित
गुरुओं की भीड़
है, लेकिन
जीवन में कहीं
धर्म की कोई
किरण नहीं। कितने
संन्यासी हैं!
कितने फकीर
हैं! कितने
साधु-मुनि
हैं! लेकिन वे
सब तुम्हारी
अपेक्षाएं पूरी
कर रहे हैं।
यह हालत ऐसी
है, जैसे
डाक्टर
मरीजों की
अपेक्षाएं
पूरी कर रहा
हो! तुम जैसा
चाहते हो वैसा
वे व्यवहार कर
रहे हैं।
रत्ती भर फर्क
करते हैं कि
तुम उपद्रव
शुरू कर देते
हो।
अगर
जैन मुनि को
रात में चलना
मना है, तो
सारे जैन
श्रावक आंख
लगाये बैठे
हैं कि वे उसको
रात में चलते
हुए देख लें।
अगर जैन मुनि को
ठंडा पानी
पीना मना है
और अगर वह
ठंडा पानी पीता
हुआ पकड़ लिया
जाए, तो
श्रावक जैसे
न्यायाधीश है!
पीछे
चलनेवाला जैसे
न्यायाधीश है!
वह आंख लगाये
बैठा है। वह फौरन
शोरगुल मचा
देगा कि यह
मुनि भ्रष्ट
हो गया।
जिस
दिन अज्ञानी
तय करता है कि
ज्ञानी कैसा
व्यवहार करे; जिस दिन
अज्ञानी
मर्यादा
बनाता है कि
ज्ञानी कैसा
चले, कैसा
उठे, कैसा
बैठे, उस
दिन शिष्य के
पीछे गुरु को
चलना पड़ता है।
इस गुरु की
क्या कीमत
होगी? क्या
मूल्य होगा? यह चिकित्सक
मरीज की सलाह
मानकर चल रहा
है। तुम्हारी
अपेक्षा तो टूटेगी, जब तुम सदगुरु
के पास
पहुंचोगे।
यह होशिन
के गुरु के
संबंध में एक
घटना है। इस
आश्रम में
काफी भिक्षु
थे। नियम तो
यही है बौद्ध
भिक्षुओं का
कि सूरज ढलने
के पहले एक
बार वे भोजन
कर लें। लेकिन
इस गुरु के
संबंध में एक
बड़ी अनूठी बात
थी, कि वह सदा
सूरज ढल जाने
के बाद ही
भोजन करता। और
नियम तो यह है
कि बौद्ध
भिक्षु सदा
सामूहिक रूप
से भोजन करें
ताकि सब एक
दूसरे को देख
सकें कि कौन
क्या खा-पी
रहा है? भोजन
छिपाकर न किया
जाए, एकांत
में न किया
जाए। लेकिन इस
होशिन के
गुरु की एक
नियमित आदत थी
कि रात अपने झोपड़े के
सब दरवाजे बंद
करके ही वह
भोजन करता था,
और रातभर
करता था।
यह खबर
सम्राट तक
पहुंच गयी।
सम्राट भी
भक्त था और
उसने कहा कि
यह अनाचार हो
रहा है।
हम
अंधों की
आंखें
क्षुद्र
चीजों को ही
देख पाती हैं।
इस गुरु की
ज्योति दिखाई
नहीं पड़ती। इस
गुरु की महिमा
दिखाई नहीं
पड़ती। इस गुरु
में जो
बुद्धत्व
जन्मा है वह
दिखाई नहीं
पड़ता। रात
भोजन कर रहा
है, यह हमें
तत्काल दिखाई
पड़ता है। और
कमरा बंद
क्यों करता है?
सम्राट
को भी संदेह
हुआ। सम्राट
भी शिष्य था। उसने
कहा, इसका तो
पता लगाना
होगा। यह तो
भ्रष्टाचार
हो रहा है। और
रात जरूर
छिपकर खा रहा
है तो कुछ मिष्ठान्न...या
पता नहीं, जो
कि भिक्षु के
लिए वर्जित है;
अन्यथा छिपने
की क्या जरूरत
है? द्वार
बंद करने का
सवाल ही क्या
है? भिक्षु
के भिक्षापात्र
को छिपाने का
कोई प्रयोजन
नहीं है।
हम
छिपाते तभी
हैं, जब हम कुछ
गलत करते हैं।
स्वभावतः हम
सबके जीवन का
नियम यही है।
हम गुप्त उसी
को रखते हैं, जो गलत है।
प्रगट हम उसको
करते हैं जो
ठीक है। ठीक
के लिए छिपाना
नहीं पड़ रहा
है, गलत के
लिए छिपाना पड़
रहा है। लेकिन
गुरुओं के
व्यवहार का
हमें कुछ भी
पता नहीं। यह
हमारा व्यवहार
है, अज्ञानी
का व्यवहार है
कि गलत को छिपाओ,
ठीक को
प्रगट करो। ना
भी हो ठीक
प्रगट करने को,
तो भी ऐसा
प्रगट करो कि
ठीक तुम्हारे
पास है; और
गलत को दबाओ
और छिपाओ।
किसी को पता न
चलने दो, गुप्त
रखो। तो हम
सबकी जिंदगी
में बड़े
अध्याय गुप्त
हैं। हमारी
जीवन की किताब
कोई खुली किताब
नहीं हो सकती।
पर हम सोचते
हैं कि गुरु
की किताब तो
खुली किताब
होगी।
सम्राट
ने कहा, पता
लगाना पड़ेगा।
रात सम्राट और
उसका वजीर इस
गुरु के झोपड़े
के पीछे छिप
गये नग्न
तलवारें लेकर;
क्योंकि यह
सवाल धर्म को
बचाने का है।
कभी-कभी
अज्ञानी भी
धर्म को बचाने
की कोशिश में
लग जाते हैं।
उनको जरा
हमेशा ही खतरा
रहता है कि
धर्म खतरे में
है। जिनके पास
धर्म बिलकुल
नहीं है, उन्हें
धर्म को बचाने
की बड़ी चिंता
होती है। और
इन मूढ़ों
ने धर्म को
बुरी तरह नष्ट
किया है।
वह छिप
गया तलवारें
लिये कि आज
कुछ भी फैसला
कर लेना है।
सांझ हुई, गुरु आया।
अपने वस्त्र
में, चीवर
में छिपाकर
भोजन लाया।
द्वार बंद
किये। जहां यह
छिपे थे, इन्होंने
दीवार में एक
छेद करवा रखा
था ताकि वहां
से देख सकें, द्वार बंद
किये। बड़े
हैरान हुए कि
गुरु भी अदभुत
है। वह उनकी
तरफ पीठ करके
बैठ गया, जहां
छेद था और
उसने बिलकुल
छिपाकर अपने
पात्र से भोजन
करना शुरू कर
दिया।
इन्होंने कहा,
यह तो
बर्दाश्त के
बाहर है। यह
आदमी तो बहुत
ही चालाक है।
इनको यह खयाल
में न आया, यह
हमारी चालाकी
को अपनी
निर्दोषता के
कारण पकड़ पा
रहा है, किसी
बड़ी चालाकी के
कारण नहीं।
छलांग
लगाकर खिड़की
को तोड़कर
दोनों अंदर
पहुंच गये।
गुरु ने अपना
चीवर फिर से
पात्र पर डाल
दिया। सम्राट
ने कहा कि हम
बिना देखे न
लौटेंगे कि तुम
क्या खा रहे
हो? गुरु ने
कहा कि नहीं, आपके देखने
योग्य नहीं
है। तब तो
सम्राट और संदिग्ध
हो गया। उसने
कहा, हाथ
अलग करो। अब
हम शिष्य की
मर्यादा भी न
मानेंगे।
गुरु ने कहा, जैसी
तुम्हारी
मर्जी! लेकिन
सम्राट की
आंखें ऐसी साधरण
चीजों पर पड़ें
यह योग्य
नहीं।
उसने
चीवर हटा लिया; भिक्षापात्र में न तो कोई
मिष्ठान्न थे,
न कोई
बहुमूल्य
स्वादिष्ट
पदार्थ थे, भिक्षा-पात्र
में सब्जियों
की जो डंडियां
और गलत सड़े-गले
पत्ते, जो
कि आश्रम फेंक
देता था, वे
ही उबाले
हुए थे।
सम्राट
मुश्किल में
पड़ गया। रात
तो सर्द थी लेकिन
माथे पर पसीना
आ गया। उसने
कहा, इसको
छिपाकर खाने
की क्या जरूरत
है?
गुरु
ने कहा, क्या
तुम सोचते हो
गलत को ही
छिपाया जाता
है? सही को
भी छिपाना
पड़ता है। तुम
गलत को छिपाते
हो, हम सही
को छिपाते हैं;
यह हममें और
तुममें फर्क
है। तुम गलत
को गुप्त रखते
हो, हम सही
को गुप्त रखते
हैं। तुम सही
को प्रगट करते
हो क्योंकि सही
के प्रगट करने
से अहंकार
भरता है और
गलत को प्रगट
करने से
अहंकार टूटता
है। हम गलत को
प्रगट करते
हैं और सही को
छिपाते हैं।
हम तुमसे उलटे
हैं। हम
शीर्षासन कर
रहे हैं।
'यह
घास-पात खाने
के लिए छिपाने
की क्या जरूरत
थी?'
वह
गुरु हंसने
लगा और उसने
कहा कि मैं
जानता था, आज नहीं कल
तुम आओगे
क्योंकि तुम
सबकी नजरें क्षुद्र
पर हैं। विराट
घटा है, वह
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
बस, यह
मेरी आखिरी
सांझ है। इस
आश्रम को मैं
छोड़ रहा हूं।
अब तुम संभालो
और जो मर्यादा
बनाते हैं, वे संभालें।
तुम्हारी
अपेक्षाएं
मैं पूरी नहीं
कर सकता। और
जब तक मैं
तुम्हारी
अपेक्षाएं
पूरी करूंगा,
मैं
तुम्हें कैसे
बदलूंगा?
सिर्फ
वही गुरु
तुम्हें बदल
सकता है, जो
तुम्हारी
अपेक्षाओं के
अनुकूल नहीं
चलता। जो
तुम्हारे
पीछे चलता है,
वह तुम्हें
नहीं बदल
सकता। और बड़ा
कठिन है उस
आदमी के पीछे
चलना, जो
तुम्हारे
पीछे न चलता
हो; अति
दूभर है।
रास्ता
अत्यंत
कंटकाकीर्ण
है फिर। शिष्य
के मन में
संदेह
हो--संदेह
होगा। इतनी
श्रद्धा भर
काफी है कि वह
बिना अपेक्षा
किए गुरु के
पीछे चल पाये।
गुरु
के व्यवहार से
गुरु को मत
नापना; क्योंकि
हो सकता है, व्यवहार तो
सिर्फ
तुम्हारे लिए
आयोजित किया गया
हो।
सूफी
फकीर जुन्नैद
के संबंध में
खबर आयी--उसके
शिष्य के पास, वह भी
सम्राट था--कि
तुम किसके
पीछे लगे हो? यह आदमी
शराब पीता है
और गलत
स्त्रियों के साथ
भी यह आदमी
देखा गया है।
सम्राट ने कहा,
अगर ऐसा
होगा तो इसकी
गर्दन मैं
अपने हाथ से
अलग कर दूंगा।
जिसके पैरों
पर मैंने सिर
रखा हो, अगर
वह ऐसा गलत है
तो मैं पीछे
नहीं रहूंगा।
यह तलवार मेरी
इसकी गर्दन
अलग कर देगी।
लेकिन तुमने
जब खबर दी है
तो तुम्हें
सिद्ध भी करना
होगा। उसने
कहा, इसमें
कोई कठिनाई ही
नहीं है; आप
कल मेरे साथ
चलें।
सम्राट
को लेकर वह
गया। एक झील
के किनारे
दोनों छिपकर
खड़े हो गये।
झील के उस पार
जुन्नैद बैठा
है, सुराही
रखी है शराब
की, प्याले
ढाले जा
रहे हैं और एक
औरत बुर्का ओढ़े
प्याले भर रही
है। सम्राट की
तलवार बाहर आ
गयी। उसने उस
आदमी से कहा, तुम जाओ। अब
कुछ और सिद्ध
करने की जरूरत
नहीं। अब मैं
निपट लेता
हूं। वह दस
कदम आगे बढ़ा, लेकिन तब
उसके मन में
थोड़ा भय आने
लगा, जुन्नैद
को कैसे काट
सकेगा? फिर
सोचा, यह
काम मैं अपने
हाथ से क्यों
करूं? यह
तो सैनिक भी
कर सकते हैं।
मैं यह हत्या
अपने सिर
क्यों लूं?
उसने
घोड़ा लौटा
लिया। जैसे ही
घोड़ा लौटाया, जुन्नैद की
आवाज सुनी कि
जब इतने दूर आ
गये हो तो अब लौटो मत; और थोड़े पास
आ जाओ। जब
जानना ही
चाहते हो तो
बिलकुल पास आ
जाओ। जरा भी
फासला न रहे; तभी जान
पाओगे।
जुन्नैद की
आवाज सुनकर
सम्राट लौट भी
न सका। पास
आना पड़ा।
जुन्नैद
ने सुराही
उसके हाथ में
दे दी। उसमें सिवाय
पानी के और
कुछ भी न था।
और उसने
स्त्री का
बुर्का उलट
दिया, वह
जुन्नैद की
मां थी!
सम्राट
ने कहा, तो
फिर यह क्या
नाटक रचा है?
जुन्नैद
ने कहा, शिष्यों
के लिए। यह
रोज चल रहा है
नाटक। इस नाटक
की वजह से न
मालूम कितने
भाग गये; जो
भाग गये, अच्छा
हुआ क्योंकि
वे भागते ही।
वे किसी कारण की
तलाश में थे।
कोई बहाना खोज
रहे थे।
आचरण
को देखकर गुरु
के जो तय
करेगा, उसने
दूर से तय कर
लिया; क्योंकि
आचरण तो बाहर
है। उसने घोड़ा
पूरे करीब
नहीं लाया, जल्दी लौट
गया। अंतस से
जो तय करेगा, वही करीब
आया।
और
अंतस के करीब
वे ही आ
पायेंगे, जो
अपने संदेह पर
ध्यान देना
बंद करेंगे।
संदेह पूरे
वक्त आवाज दे
रहा है कि
सुनो मेरी! जो
श्रद्धा को
सुने और संदेह
को न सुने, आज
नहीं कल
श्रद्धा
उन्हें उस जगह
ले आएगी, जहां
संदेह के सारे
बीज नष्ट हो
जाएंगे! वहां
परम श्रद्धा
पूरी होगी, वहां
पूर्णता को
उपलब्ध होगी।
जीवन
का एक नियम है
कि अगर तुम
प्रतीक्षा कर
सको तो सभी
चीजें पूरी हो
जाती हैं।
जीवन का ढंग
चीजों को पूरा
करने का है; अगर तुम
प्रतीक्षा कर
सको। कच्चे फल
मत तोड़ो, थोड़ी
प्रतीक्षा
करो; वे पकेंगे,
गिरेंगे। तुम्हें
तोड़ना भी न
पड़ेगा, वृक्ष
पर चढ़ना
भी न पड़ेगा।
जीवन का नियम
है चीजों को
पूर्ण करना।
यहां सब चीजें
पूरी होती हैं,
सिर्फ
प्रतीक्षा
चाहिए।
लेकिन
तुमने अगर
जल्दी की तो
तुम कच्चा फल
तोड़ ले सकते
हो। तब
तुम्हें
वृक्ष पर भी चढ़ना
पड़ेगा और
हाथ-पैर भी
तोड़ ले सकते
हो गिरकर, और कच्चा फल
हाथ लगेगा। और
एक दफा वृक्ष
से टूट गया तो
उसके पकने के
उपाय समाप्त
हो गये। अगर
उसको घर में
रखकर तुमने
पकाया तो वह
पकना नहीं है,
वह केवल
सड़ना है
क्योंकि पकने
के लिए जीवंत
ऊर्जा चाहिए।
वह फिर ऐसा है,
जैसे किसी
ने धूप में
बाल सफेद कर लिये
हों। वह अनुभव
प्रौढ़ता
में नहीं, जीवन
की प्रक्रिया
से गुजरकर
नहीं।
तो तुम
घर में छिपाकर
भी फल को पका
सकते हो, लेकिन
वह सिर्फ सड़ा
हुआ फल है।
पकने के लिए
तो जीवंत
ऊर्जा चाहिए थी
वृक्ष की, उससे
तुमने उसे तोड़
लिया। हर चीज
पकती है। यहां
बिना पका कुछ
भी नहीं रह
जाता। हर चीज
पूर्णता पर
पहुंचती है।
जल्दी भर नहीं
करना! औ हमारा
मन बड़ी जल्दी
करता है।
श्रद्धा
पर ध्यान देना, संदेह से
लड़ना मत। गुरु
के पास होने
का यही ढंग
है। गुरु पुकारे
तो कहना, 'जी'। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि तुम्हारे
संदेह मिट गये;
संदेह
रहेंगे, लेकिन
उनको तुम
सुनना मत।
उनके बावजूद
तुम्हारी पुकार
आनी चाहिए। वे
मौजूद हैं, उन्हें तुम
जानना; छिपाना
भी मत क्योंकि
जो है, वह
है। और तुम
चाहे छिपा भी
लो, गुरु
से तुम कैसे
छिपा पाओगे?
इसमें होशिन तो
कुछ भी बोला
कहानी में; गुरु ही बोल
रहा है। होशिन
ने तो सिर्फ तीन
बार 'जी' कहा। फिर
गुरु ने खुद
ही कहा कि
मुझे तुझसे क्षमा
मांगनी
चाहिए। उसके
संदेहों को
देखकर कहा।
फिर उसकी
श्रद्धा को
देखकर कहा, लेकिन
वस्तुतः तो
तुझे ही मुझसे
क्षमा मांगनी
चाहिए।
ये दो
वक्तव्य बड़े
कीमती हैं। एक
वक्तव्य होशिन
के संदेहों के
लिए है कि
तेरे भीतर
संदेह है, मुझे पता
है। वे संदेह
तुझसे कह रहे
हैं, इस
आदमी को तुझसे
क्षमा मांगनी
चाहिए। यह तेरी
नींद में बाधा
डाल रहा है।
बैठने भी नहीं
देता, रुकने
भी नहीं देता;
और व्यर्थ
पुकार रहा है।
इसकी पुकार
पागलपन की है।
उसके संदेहों
को देखकर कहा
है कि मुझे
तुझसे क्षमा
मांगनी
चाहिए।
शायद होशिन उसी
क्षण में
थोड़ा-सा
संदेहों की
तरफ ध्यान दे
रहा हो। यह
सुनते ही चौंक
गया होगा, संदेह से
ध्यान हटा
लिया होगा, श्रद्धा पर
लग गया होगा।
तत्क्षण गुरु
ने कहा, लेकिन
वस्तुतः तो तू
ही मुझसे
क्षमा मांग।
मुझे तीन बार
बुलाना पड़ा और
तू नहीं जागा,
इसलिए तू
मुझसे क्षमा
मांग। मुझे
दुबारा भी बुलाना
पड़ता है, इसलिए
तू मुझसे
क्षमा मांग।
और मैं तुझे
बुला रहा हूं
बिना किसी
कारण के, इसलिए
तू मेरा
अनुगृहीत हो।
वासना
पुकारती है, कोई कारण है,
करुणा
पुकारती है, कोई कारण
नहीं है; इसलिए
अनुगृहीत कौन
होगा?
इस
छोटी-सी कथा
में तुम्हारा
पूरा हृदय है, उसके दो खंड
हैं। जैसा
मैंने कहा कि
जीवन में हर
चीज पूरी होती
है, सिर्फ
प्रतीक्षा
चाहिए। और
ध्यान
तुम्हारी जीवन
ऊर्जा है। तुम
जिस तरफ ध्यान
देते हो, उसी
तरफ जीवन
खिलना शुरू हो
जाता है।
अभी
वैज्ञानिक इस
नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
अगर तुम पौधों
को भी ध्यान
दो तो वे
जल्दी बड़े होते
हैं। अगर तुम
पौधों को पूरा
ध्यान दो तो
समय के पहले
उन में फूल आ
जाते हैं, फल लग जाते
हैं। जिन
पौधों पर तुम
ध्यान मत दो, उपेक्षा करो,
पानी बराबर
दो, खाद
बराबर दो, सिर्फ
ध्यान मत दो, वे बढ़ते
नहीं हैं।
बढ़ते भी हैं
तो भी पंगु रह
जाते हैं। फूल
उनमें देर से
आते हैं। उनका
पूरा फैलाव
नहीं हो पाता।
मां
जिस बेटे को
ध्यान देती है, वह जल्दी
बढ़ता है, स्वस्थ
होता है। जिस
बेटे की
उपेक्षा करती
है, दूध
बराबर देती है,
लेकिन
उपेक्षा करती
है...।
एक तो
शरीर का भोजन
है, जो दूध है;
और एक आत्मा
का भोजन है, जो ध्यान
है। जिसको हम
प्रेम करते
हैं, उसकी
तरफ हम ध्यान
देते हैं।
हमारी आंखें
उसकी तरफ लगी
रहती हैं।
चाहे हम किसी
भी काम में उलझे
हों, हमारी
सुरति उसकी
तरफ बहती रहती
है। चाहे हम हजारों
मील दूर हों, तो भी हमें
प्रेमी की याद
बनी रहती है।
हमारा ध्यान
उसी की तरफ
लगा रहता है।
श्रद्धा
को प्रेम करो; वही
तुम्हारा
गुरु के प्रति
प्रेम बनेगा।
तुम्हारे
भीतर की
श्रद्धा से
तुम जुड़े नहीं,
कि तुम बाहर
के गुरु से
जुड़ जाओगे।
लेकिन अगर तुम्हारी
भीतर की
श्रद्धा से ही
संबंध नहीं है
तो तुम गुरु
के पास कितने
ही भटको, तुम्हारे
फासले में कोई
अंतर न आयेगा;
वह कम न
होगा।
जीवन
के भीतर कुछ
राज है कि हर
चीज पूरा होना
चाहती है।
वैज्ञानिक
कहते हैं आदमी
तो दूर, जानवर
तक पूर्णता की
तलाश करते
हैं। एक चिम्पांजी
को...तुम जाओ
किसी अजायब घर
में और एक चिम्पांजी
के सामने एक
वर्तुल खींच
दो अधूरा; पूरा
न बनाओ वर्तुल,
थोड़ा-सा
हिस्सा छोड़ दो,
आधा वर्तुल
बना दो और चाक
छोड़ दो; चिम्पांजी फौरन उसे
पूरा कर देगा।
उसको भी बेचैनी
होती है कि
अधूरा है।
तुम्हारे
मन में भी
बेचैनी बनी
रहती है कि हर चीज
पूरी होनी
चाहिए। जब तक
तुम पूरी नहीं
कर लेते तब तक
एक बेचैनी
रहती है।
लेकिन कुछ
चीजें हैं
जिन्हें तुम
पूरी कर सकते
हो। और कुछ चीजें
है जिन्हें
तुम पूरी नहीं
कर सकते; जिनके
लिए तुम्हें प्रतीक्षा
करनी होगी।
यही
फर्क विज्ञान
और धर्म का
है। विज्ञान
उन चीजों की
तलाश है, जिन्हें
'तुम' पूरा
कर सकते हो।
वर्तुल अधूरा
है, चाक
पास में पड़ी
है, तुम
इतना हिस्सा
और जोड़ दे
सकते हो। एक
मशीन में एक
पुर्जा कम है,
तुम तैयार
करके बिठा
सकते हो।
विज्ञान
चीजों को पूरा
कर रहा है।
चीजें पूरी की
जा सकती हैं क्योंकि
तुमसे बाहर
हैं।
धर्म
तुम्हें पूरा
करता है।
लेकिन वहां
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते
क्योंकि वहां
तुमको ही पूरा
होना है, तुम
कुछ करोगे
कैसे? वहां
तुम ही
मूर्तिकार हो,
तुम ही
मूर्ति हो।
वहां कोई
बनानेवाला और
बनायी
जानेवाली
चीजें अलग
नहीं हैं।
वहां तुम पूरा
कैसे करोगे? वहां
तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी होगी।
इसलिए
विज्ञान तो
श्रम है और
धर्म
प्रतीक्षा है।
विज्ञान
जल्दबाज है, धर्म धैर्य
है। वहां
तुम्हें कुछ
करना नहीं; वहां तो
जीवन-ऊर्जा
वृक्ष में आ
रही है। तुम सिर्फ
प्रतीक्षा
करो। तुम
सिर्फ ठीक मुड़कर
प्रतीक्षा
करो। तुम ठीक
दिशा में देखो
और प्रतीक्षा
करो; तुम
पहुंच जाओगे।
श्रद्धा पर
तुम्हारी
आंखें हों, संदेह पर
तुम्हारी पीठ
हो। कोई
शत्रुता नहीं,
कोई
दुश्मनी नहीं,
कोई संघर्ष
नहीं; सिर्फ
पीठ, सिर्फ
उपेक्षा! और
सारा प्रेम
श्रद्धा पर
हो। और तुम
प्रतीक्षा
करो।
जल्दी
ही तुम पाओगे, तुम्हारे
संदेह की
ऊर्जा भी
श्रद्धा बनने
लगी। जल्दी ही
तुम पाओगे, संदेह का
वृक्ष सूख
गया। और जो जल
संदेह के वृक्ष
में जा रहा था,
वह जल अब
श्रद्धा के
वृक्ष में
बहने लगा।
जिस
दिन तुम्हारे
भीतर श्रद्धा
पूरी होगी, उसी दिन
गुरु कहेगा, होशिन! शायद
तुम्हें 'जी'
भी न कहना
पड़े। तुम जाग
जाओगे। एक
पुकार तुम्हें
खड़ा कर देगी।
उस एक पुकार
के लिए सारी
तैयारी है।
यह गुरुपूर्णिमा
का दिन
पूर्णिमा की
वजह से चुना
गया है। वह पूरे
का प्रतीक है।
चांद चलता है, बड़ी छोटी
सीमा से शुरू
करता है और
पूरा हो जाता
है। चांद को
कुछ करना नहीं
पड़ता है पूरे
होने में, सिर्फ
प्रतीक्षा ही
करनी होती है।
पूर्णिमा आती
है, और
चांद अपना
पूरा प्रकाश
लुटा देता है।
और एक
बात ध्यान
रखनी जरूरी है
कि चांद जब
पूरा नहीं
होता, तब भी
हमें दिखाई
पड़ता है कि
पूरा नहीं है।
ऐसे तो पूरा
ही होता है।
पूरा होना तो
स्वभाव है।
दिखाई पड़ने
में बाधा पड़ती
है। चांद छोटा
दिखाई पड़ता है,
पहली तिथि
को, दूसरी
तिथि को, तीसरी
तिथि को; उसका
कारण यह नहीं
कि चांद अधूरा
है, चांद
तो पूरा ही है,
लेकिन उतने
ही हिस्से पर
सूरज की रोशनी
पड़ रही है, जितना
हमें दिखाई
पड़ता है। चांद
पूरा है, सिर्फ
रोशनी कुछ कम
हिस्से पर पड़
रही है। पूर्णिमा
के दिन पूरे
चांद पर रोशनी
पड़ेगी। पूरा चांद
दिखाई पड़ेगा।
अमावस के दिन
पूरा चांद खो
जाएगा। चांद
तो अपनी जगह
है; कुछ
खोता नहीं, कुछ आता
नहीं। रोशनी
नहीं पड़ेगी।
तुम्हारा
ध्यान
तुम्हारी
रोशनी है।
तुम्हारा
ध्यान
तुम्हारा
जीवन है। तुम
पूरे हो।
तुम्हारा ध्यान
तुम पर नहीं
है। और जितना
तुम्हारा तुम
पर ध्यान
पड़ेगा, उतना
ही चांद प्रगट
होने लगेगा।
दूज का चांद बनोगे तुम,
छोटी-सी
रेखा दिखाई
पड़ेगी। कभी
दिखाई पड़ेगी,
कभी खो
जाएगी। अगर
तुम
प्रतीक्षा
करते रहे और
ध्यान की
ऊर्जा को
फेंकते गये
श्रद्धा पर, फोकसिंग
जारी रहा, ध्यान
की तुम वर्षा
करते रहे, आज
नहीं कल चांद
पूर्णता की
तरफ पहुंचेगा
और एक दिन
पूर्ण हो
जाएगा।
पूर्णिमा
का दिन पूरे
चांद की वजह
से चुना गया
है। और सभी
पूरे होने के
रास्ते पर
हैं। देर-अबेर
सभी पूरे हो
जाएंगे।
जल्दबाजी मत
करना क्योंकि
जल्दबाजी में
अकसर तुम गड़बड़
कर लोगे।
कौन
करेगा
जल्दबाजी? तुम्हारा मन
ही करेगा।
तुम्हें खयाल
है, जब कभी
तुम जल्दी में
होते हो, तब
ज्यादा देर लग
जाती है।
ट्रेन पकड़नी
है, और तुम
जल्दी में हो
तो नीचे की
बटन ऊपर लग
जाती है, टाई
उल्टी-सीधी
बंध जाती है, जूता गलत
पैर में चला
जाता है। फिर बदलो। और
इस बदलाहट की
वजह से और
जल्दी हो जाती
है। जल्दी में
तुम ट्रेन चूक
ही जा सकते
हो। धीरज से
कभी कोई नहीं
चूकता, जल्दी
से लोग चूक
जाते हैं।
क्योंकि
जितनी जल्दी
होती है उतना
तनाव बढ़ जाता
है। जितना
धैर्य होता है,
उतना तनाव
शांत होता है।
मैंने
सुना है, एक
जंगल में एक
नयी रेलवे
लाईन बन रही
थी। आदिवासियों
का इलाका था।
रेलमंत्री, जब रेल की
लाईन बन गई और
चलने का वक्त
करीब आ गया, उदघाटन का
दिन आने लगा
तो देखने गया
था। जंगली आदिवासी
इकट्ठे हुए थे,
बड़े
प्रसन्न थे, बड़े कुतूहल
से भरे थे कि
क्या मामला है?
उस मंत्री
ने उन्हें कहा
कि सुनो, तुम्हें
शहर जाने में
कितना समय
लगता है? लकड़ी
बेचने जाते हो,
फल बेचने
जाते हो, सब्जी
बेचने जाते
हो। तो
उन्होंने कहा,
तीन दिन
लगते हैं
आने-जाने में।
उन्होंने कहा,
अब तुम खुश
हो जाओ। यह
ट्रेन बन गई
है और आज इसका
उदघाटन होने
को है। अब तुम
सुबह जाओगे और
सांझ घर वापिस
आ जाओगे।
यह
सुनकर
आदिवासी कुछ
चिंतित मालूम
पड़े। उसने
पूछा कि इसमें
खुश होने की
बात है, तुम
उदास क्यों हो
गए? उन्होंने
कहा, बाकी
दो दिन का हम
क्या करेंगे?
पुरानी
दुनिया शांत
थी। बड़े धीरज
से चल रही थी।
रफ्तार नहीं
थी, तनाव
नहीं था, जल्दबाजी
नहीं थी कहीं
पहुंचने की, लौटने की भी
कोई जल्दी न
थी। जैसे समय
काफी था, पर्याप्त
था। सब समय
में हो जाएगा।
जितनी रफ्तार
बढ़ती है, जितनी
स्पीड बढ़ती है,
उतना तुम्हारा
तनाव बढ़ता है।
क्योंकि
रफ्तार के साथ
तुम जल्दबाज
होते चले जाते
हो। एक-एक
मिनिट की
फिक्र है कि
खो न जाए!
और तुम
कभी नहीं
पूछते कि
बचाकर तुम
क्या करोगे!
उन लोगों ने
ठीक ही पूछा
कि वह दो दिन
का हम क्या
करेंगे? अभी
तो तीन दिन
हमें लगते
हैं। दो दिन
बच जाएंगे
उनका क्या
होगा? वे
उदास हो गए।
तुम कभी नहीं
पूछते कि
जल्दबाजी
करके क्या
करोगे?
जल्दबाजी
तुम किसी कारण
से कर भी नहीं
रहे हो, वह
तुम्हारी
बेचैनी के
कारण हो रही
है। तुम जल्दबाजी
इसलिए नहीं कर
रहे हो कि
कहीं तुम्हें पहुंचना
है। पहुंचने
का पक्का हो
जाए तो तुम्हारे
मन में भी
सवाल उठेगा कि
पहुंचकर क्या
करेंगे? तुम
जल्दबाजी
इसलिए कर रहे
हो कि तुम
बेचैन हो। और
बेचैनी
जल्दबाजी में
भूल जाती है, व्यस्त हो
जाती है। तो
जितना बेचैन
आदमी है, उतना
जल्दबाजी में
है। जितना
जल्दबाजी में
है, उतना
बेचैन है। एक विसियस
सर्कल, एक
दुष्चक्र
पैदा हो जाता
है। उसमें तुम
पागल ही होकर
समाप्त
होओगे।
धैर्य
रखना। अधैर्य
पागलपन की फसल
का बोना है।
और चांद अपने
से पूरा हो
जाता है, तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। नदी अपने
से सागर पहुंच
जाती है, तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। कोई नदी
को धक्का दे-देकर
सागर तक नहीं
पहुंचाना है।
और न चांद पर
मेहनत कर-करके
उसकी
पूर्णिमा
बनानी है। और
जब यह प्रकृति
पूरी की पूरी
अपने आप चल
रही है तो तुम
अकेले कुछ
अपवाद हो? तुम
भी परमात्मा
तक पहुंच
जाओगे; वह
तुम्हारी
पूर्णिमा है।
लेकिन जल्दी
मत करना, धैर्य
रखना। जितना
होगा गहरा धैर्य,
उतने जल्दी
परिणाम आ जाते
हैं। अगर
धैर्य परिपूर्ण
हो, इसी
क्षण तुम
पूर्णिमा के
चांद हो
जाओगे। क्योंकि
चांद तुम सदा
हो। जब धैर्य
पूरा होता है तो
ध्यान पूरा हो
जाता है। इस
बात को ठीक से
समझ लें।
जब
बेचैनी होती
है, ध्यान
बंट जाता है; पच्चीस
चीजों में बंट
जाता है। एक
हाथ से बटन
लगा रहे हो और
दूसरे हाथ से
जूता पहन रहे
हो, तीसरे
हाथ से कोट
संभाल रहे हो,
चौथे हाथ
से...तुम कहोगे
इतने हाथ नहीं
हैं। लेकिन
तुम हिंदुओं
के देवताओं को
देखो! हजार
हाथ के उनको
इसीलिए बनाया
है। हाथ चाहे
हजार न हों
लेकिन तुम काम
ऐसा ही कर रहे
हो, जैसे
हजार हाथ हों।
मैं एक
कार्टून देख
रहा था। एक
स्त्री
बनियान बुन
रही है; बनियान
बुनती जा रही
है, अखबार पढ़ती जा
रही है।
रेडियो जारी
कर रखा है, रेडियो
सुनती जा रही
है, पैर से
बच्चे के झूले
को हिला रही
है--हजार हाथ हैं।
तुम जितनी
जल्दी में हो
और जितना
ज्यादा कर
लेने को
उत्सुक हो, उतने तुम
बंट जाते हो।
यह स्त्री न
तो रेडियो सुन
रही है, न
बनियान बुन
रही है, न
अखबार पढ़ रही
है, न
बच्चे को
प्रेम दे रही
है। मगर यह
सोच रही है कि
बहुत काम कर
रही है। कुछ
भी नहीं हो
रहा है। बच्चे
की उपेक्षा हो
रही है। यह
पैर और ढंग का
है। यह पैर
काम की तरह
हिला रहा है।
इस पैर से कोई
प्रेम की धारा
नहीं बह रही
है। इस पैर से
कोई ध्यान
नहीं जा रहा
है बच्चे की
तरफ। एक
कर्तव्य है, जो पूरा
किया जा रहा
है। एक
यंत्रवत काम
हो रहा है। यह
स्त्री आटौमेटा
है, इसके
पास हृदय नहीं
है। इसके पास
हजार हाथ हैं।
देवताओं
को क्षमा किया
जा सकता है, उनके पास
हजार हाथ रहे
हैं। तुम हजार
हाथ पैदा मत
करना। तुम
हजार व्यस्तताएं
पैदा मत करना।
तुम हजार तनाव
पैदा मत करना।
तुम धीरज से
बहना। तुम
धीरे-धीरे
बहना। चांद प्रगट
होगा।
पूर्णिमा
अपने से आ
जाती है।
एक ही
बात खयाल रखने
की है कि
श्रद्धा पर
तुम्हारा ध्यान
हो। श्रद्धा
पर तुम्हारे
पूरे ध्यान की
ऊर्जा बरसती
रहे। वह वर्षा
श्रद्धा पर
होती रहे तुम
गुरु से जुड़
जाओगे।
गुरु
से जुड़ने
का उपाय है, भीतर की
श्रद्धा से
जुड़ जाना।
और जिस
दिन तुम गुरु
से जुड़ जाओगे, जिस दिन
संदेह के रहते
हुए भी गुरु
और तुम्हारे
बीच एक सेतु बंध
जाएगा, उसी
दिन तुम्हारे
जीवन में
क्रांति शुरू
हो जाएगी।
क्योंकि गुरु
के साथ जुड़
जाने का अर्थ
है, केटलेटिक एजेंट के
साथ जुड़ जाना।
गुरु कुछ करता
नहीं है, किए
हुए का मूल्य
भी नहीं होता।
गुरु की मौजूदगी
कुछ करती है।
वैज्ञानिक
एक तत्व को
स्वीकार करते
हैं, वह केटलेटिक
एजेंट है। केटलेटिक
एजेंट का अर्थ
है कि जब दो
तत्व मिलते
हैं, तो
सिर्फ इसकी
मौजूदगी
तीसरे की
चाहिए, यह
कुछ करता
नहीं। इससे उन
दो तत्वों में
कुछ जाता
नहीं। उन दो
तत्वों को हम
तोड़ें तो हम
दो को ही
पायेंगे, इस
तीसरे को हम
बिलकुल न
पायेंगे।
लेकिन अगर यह
मौजूद न हो तो
वे दो तत्व
मिलते नहीं।
यह बड़ी
रहस्यपूर्ण
घटना है।
लेकिन
वैज्ञानिकों
ने इसे
स्वीकार कर
लिया क्योंकि
कोई और उपाय
नहीं है।
आक्सिजन
और हाइड्रोजन
को मिलाना हो
तो बिजली की
चमक चाहिए; इसलिए आकाश
में वर्षा में
बिजली चमकती
है। वह बिजली
न चमके तो वर्षा
न हो। बिजली
की मौजूदगी
चाहिए। बिजली
की मौजूदगी
में तत्क्षण आक्सिजन
और हाइड्रोजन
मिल जाते हैं
और पानी बन
जाता है।
लेकिन अगर
पानी को तुम
तोड़ो तो
हाइड्रोजन और आक्सिजन
मिलते हैं, बिजली नहीं
मिलती। उसकी
सिर्फ मौजूदगी
थी। उस
मौजूदगी में
घटना घट गई।
अगर
भौतिक जगत में
केटलेटिक
एजेंट होते
हैं तो
आध्यात्मिक
जगत में भी
होते हैं।
गुरु केटलेटि्क
एजेंट हैं। वह
कुछ करेगा
नहीं; तुम
उससे जुड़ गए, उसकी
मौजूदगी मिल
गई, घटना
तुम्हारे
भीतर ही घटनी
है। तुम्हारे
भीतर के दो
विभिन्न हिस्से
उसकी मौजूदगी
में मिल
जायेंगे और एक
हो जायेंगे।
गुरु की आंखों
के नीचे तुम
एक हो जाओगे।
और गुरु कुछ
करेगा नहीं।
इस तुम्हारी एकता
में गुरु का
कोई भी स्पर्श
न पाया जाएगा।
इस तुम्हारी
आत्म-क्रांति
में गुरु का
कुछ भी दान
नहीं
मिलेगा--बस, उसकी
मौजूदगी।
इसलिए
हमने गुरु के
पास रहने को
सत्संग कहा
है। बस, उसके
पास होना काफी
है--उसकी
उपस्थिति
में। वह मौजूद
है; और
उसकी मौजूदगी
में तुम बढ़
रहे हो और बड़े
हो रहे हो और
तुम्हारा
चांद प्रगट हो
रहा है।
जब
गुरु तुम्हें
बुलाए 'होशिन'।
तो तुम
भूल जाना
संदेह को और
तुम्हारी श्रद्धा
को कहने देना, 'जी'।
और
गुरु बार-बार
बुलाए तो भी
तुम बार-बार
उत्तर देने को
राजी होना।
बार-बार
सावधान होने
को राजी होना।
गुरु के पानी
की जैसी चोट
तुम्हारी
चट्टान को आज
नहीं कल तोड़
देगी। तुम
बहोगे। तुम
सागर तक
पहुंचोगे।
आज
इतना ही।
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